Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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अर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्ववादः
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मानते हैं। पदार्थ छः हैं द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, इनमें द्रव्य के नो भेद हैं गुण के संयोगादि २४ भेद हैं कर्म के उत्क्षेपणादि ५ भेद हैं, सामान्य के दो भेद हैं, विशेष अनेक हैं, समवाय एक है ।
जैन-यह वर्णन वंध्या पुत्र के गुणगान सदृश है, प्रत्येक पदार्थ अनेक धर्म वाले ही होते हैं न कि एक एक सामान्य या विशेष रूप । यदि वस्तु में एक ही धर्म होता तो वह अनेक अर्थ क्रियाओं को कैसे करता ? आपने कहा कि भिन्न प्रमाण से ग्रहण होने के कारण सामान्य और विशेष सर्वथा पृथक् है किन्तु यह बात प्रसिद्ध है । अवयव और अवयवी भिन्न प्रमाण से ही ग्रहण हो सो भी बात नहीं, धागे और वस्त्र एक प्रत्यक्ष से ग्रहण हो रहे हैं, आपने कहा कि भेद और अभेद या अवयवादि में विरुद्धत्व है सो विरुद्धपना होने से एक जगह न रह सके ऐसी बात नहीं है, अन्यथा धूम हेतु अग्नि का गमक और जल का अगमक ऐसे दो विरुद्ध धर्मों को धारण करता है अतः उसे सदोष मानना होगा ? तन्तुओं से वस्त्र पृथक् है सो कौन से तन्तुनों से जो वस्त्र में बुन चुके हैं उनसे वस्त्र कथमपि पृथक् नहीं है और जो धागे वस्त्र रूप नहीं हुए उनसे वस्त्र पृथक् है तो इसको कौन नहीं मानेगा ।
तादात्म्य शब्द का विग्रह आप ध्यान देकर सुनो "तौ आत्मानौ द्रव्यपर्यायौ सत्वासत्वादि धर्मों तदात्मानौ तयोर्भावस्तादात्म्यं ।” वस्तु द्रव्यपर्यात्मक, सत्वासत्वात्मक इत्यादि अनेक विरुद्ध धर्मों से भरपूर है । संशयादि दोष अनेकान्त मत में नहीं आते हैं वस्तु में भेद और अभेद प्रतीत होता है तो उसमें संशय काहे का ? विरोध तीन प्रकार का है सो उनमें से कोई भी विरोध इन भेदाभेदादि में आता नहीं क्योंकि वे सर्प नेवले की तरह हीनाधिक शक्तिवाले नहीं हैं जिससे वध्यघातक विरोध होवे । परस्परपरिहार लक्षण वाला विरोध इन भेद अभेद आदि में होता है। सहानवस्था विरोध तो तब कहते जबकि वस्तु में भेद और अभेद नहीं दिखता भेदाभेदात्मक वस्तु के प्रतीत होने पर काहे का विरोध ? वैयधिकरण भी नहीं है क्योंकि भेद और अभेद एक ही आधार में प्रतीत हो रहे हैं । इसलिये संकर व्यतिकर दोष भी नहीं है । धर्मी अभेदरूप है और धर्म भेदरूप है अतः अनवस्था नहीं है । अभाव भी नहीं, क्योंकि सभी प्राणी को वस्तु भेदाभेदात्मक प्रतीत होती है । इस प्रकार पदार्थों में अनेक विरुद्ध धर्मों का रहना सिद्ध
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