Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेय कमलमार्त्तण्डे
किच, श्रदृष्टापेक्षादात्माणु संयोगात्परमाणुषु क्रियोत्पद्यते इत्यभ्युपगमात् आत्मपरमाणु संयोगोत्पत्तावप्यपरोतिशयो वाच्यस्तत्र च तदेव दूषणम् ।
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किंच, असौ संयोगो द्वयणुकादिनिर्वर्त्तकः किं परमाण्वाद्याश्रितः, तदन्याश्रितः, श्रनाश्रितो वा ? प्रथमपक्षे तदुत्पत्तावाश्रय उत्पद्यते, न वा ? यद्युत्पद्यते; तदारणूनामपि कार्यतानुषङ्गः । श्रथ नोत्पद्यते ; तर्हि संयोगस्तदाश्रितो न स्यात्, समवायप्रतिषेधात् तेषां च तं प्रत्यकारकत्वात् । तदकारकत्वं चाऽनतिशयत्वात् । अनतिशयानामपि कार्यजनकत्वे सर्वदा कार्यजनकत्वप्रसङ्गोऽविशेषात् ।
परमाणुओं की क्रिया को संयोग का अतिशय या कारण कहते हैं ऐसा द्वितीय विकल्प कहो तो भी ठोक नहीं, क्योंकि उसकी उत्पत्ति में भी वही पूर्वोक्त दोष आते हैं ।
किञ्च, यह संयोग परमाणुओं के समान ग्रात्मा और परमाणुत्रों में भी होता है, अदृष्ट की अपेक्षा से आत्मा और परमाणुओं में संयोग होता है और उससे परमाणुओं में क्रिया उत्पन्न होती है ऐसा आपने स्वीकार किया है, सो इस आत्मा और परमाणु के संयोग के उत्पत्ति में भी अन्य कोई कारण या अतिशय बतलाना पड़ेगा फिर उसमें वही अनवस्था दोष उपस्थित होता है ।
द्विणुक आदि कार्यों की निष्पत्ति करानेवाला यह संयोग परमाणु आदि के आश्रित रहता है, या इनसे अन्य के प्राश्रित रहता है, अथवा किसी के प्राश्रित रहता ही नहीं ? प्रथम पक्ष कहो तो पुनः प्रश्न होता है कि उस संयोग के उत्पत्ति में श्राश्रय भी उत्पन्न होता है कि नहीं ? उत्पन्न होता है तो परमाणुत्रों के भी कार्यपना सिद्ध होता है ? [ क्योंकि वे भी उत्पत्तिमान कहलाने लगे, जो उत्पन्न होता है वह कार्यरूप होगा और कार्यरूप है तो उनमें ग्रनित्यत्व सहज सिद्ध हो जाता है ] दूसरा विकल्प कहो कि संयोग के उत्पत्ति होने पर भी परमाणुभूत श्राश्रय उत्पन्न नहीं होते हैं तो उनके प्राश्रित संयोग रह नहीं सकता । समवाय से परमाणुत्रों में संयोग प्रश्रित रहना भी अशक्य है, क्योंकि समवाय का प्रतिषेध कर चुके हैं और आगे भी विस्तारपूर्वक प्रतिषेध होने वाला है, कार्यकारण भाव से संयोग उन परमाणुओं के आश्रित रहना भी इसलिए शक्य नहीं कि परमाणु उस संयोग के प्रति अकारक है । परमाणुओं में प्रकारकपना इसलिए बताया कि वे अतिशय रहित अनतिशय स्वभाव वाले हैं । जो अनतिशयरूप हैं वे भी यदि कार्यों के जनक हो सकते हैं तो अविशेषता होने से
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