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प्रमेयकमलमार्तण्डे "कार्याश्रयकर्तृवधाद्धिसा' [ न्यायसू० ३।१।६ ] इति । कार्याश्रयः शरीरं सुखादेः कार्याश्रयत्वात् । कर्तृणीन्द्रियाणि विषयोपलब्धेः कर्तृत्वादिति ।
___ तदप्यसमीक्षिताभिधानम् ; सर्वथाऽपरित्यक्तपूर्वरूपत्वेनास्याकाशकुशेशयवत् ज्ञानादिसमवायस्यैवासम्भवात् कथं तदपेक्षया कर्तृत्वादिस्वरूपसम्भव: ? पूर्वरूपपरित्यागे वा कथं नानेकान्तात्मकस्वम्, व्यावृत्त्यनुगमात्मकस्यात्मन : स्वसंवेदनप्रत्यक्षत: प्रसिद्धः । व्यावृत्तिः खलु सुखदुःखादिस्वरूपापेक्षया आत्मन: अनुगमश्च चैतन्यद्रव्यत्वसत्त्वादिस्वरूपापेक्षया । तदात्मकत्वं चाध्यक्षत एव प्रसिद्धम् ।
ननु चानुवृत्तव्यावृत्तस्वरूपयोः परस्परं विरोधात्कथं तदात्मकत्वमात्मनो युक्तम् ? इत्यप्यसत्; प्रमाणप्रतिपन्ने वस्तुस्वरूपे विरोधानवकाशात् । न खलु सर्पस्य कुण्डलेतरावस्थापेक्षया अंगुल्यादेर्वा
आश्रय शरीर है, क्योंकि इसमें सुखादि के कार्याश्रयपना देखा जाता है, इंद्रियां इन कार्यों की कर्त्ता कहलाती हैं, क्योंकि विषयों की उपलब्धि होने में वही कर्त्तापना का वहन करती हैं । इस तरह कर्तृत्व आदि धर्म अात्मा में निजी नहीं हैं प्रात्मा तो सदा नित्य एक रूप है अतः सभी पदार्थ अनेकान्तात्मक हैं ऐसा जैन का कहना ठीक नहीं है ?
जैन-यह कथन अविचारपूर्ण है। यदि आत्म द्रव्य सर्वथा पूर्व रूपंको नहीं छोड़ता है तो वह आकाश पुष्प की तरह असत् कहलायेगा, फिर उसमें ज्ञानादि का समवाय होना असंभव होने से उसकी अपेक्षा से प्रात्मा के कर्तृत्वादिस्वरूप किस प्रकार सिद्ध हो सकता है ? आत्मा पूर्व रूप का परित्याग करता है ऐसा मानते हैं तो अनेकान्तात्मक कैसे नहीं सिद्ध हुअा ? व्यावृत्ति और अनुगमस्वरूप आत्मा को स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से प्रसिद्धि हो रही है। सुख और दुःख इन विभिन्न स्वरूपों की अपेक्षा से तो प्रात्मा में व्यावृत्तपने' का ( भिन्न-भिन्न अनेकपने का ) प्रतिभास होता है, तथा चैतन्य द्रव्यत्व, सत्वादि स्वरूपों की अपेक्षा से अनुगम प्रतिभास होता है, इन अनेक धर्मों का तदात्मकपना आत्मा में साक्षात् ही सिद्ध है ।।
वैशेषिक-अनुवृत्त का स्वरूप और व्यावृत्ति का स्वरूप परस्पर में विरुद्ध हैं उनसे तदात्मकपना होना प्रात्मा में कैसे संभव होगा ?
जैन - यह शंका अयुक्त है, जब प्रमाण से वैसा प्रात्मा का स्वरूप प्रतीत हो रहा है तब उनमें विरोध का कोई भी स्थान नहीं है, इसी का खुलासा करते हैं
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