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प्रमेयकमल मार्तण्डे अकार्यकारणभावस्याप्यर्थानामनभ्युपगमे तु कार्यकारणभावो वास्तवः स्यात् । उभयाभावस्तु न युक्त: विरोधात्, क्वचिन्नीलेतरत्वाभाववत् । ततो यथा कुतश्चित्प्रमाणादकार्यकारणभावो गवारवादीनामतभावभावित्वप्रतीतेः परस्परं परमाथतो व्यवतिष्ठते, तथाग्निधूमादीनां तद्भावभावित्वप्रतीते: कार्यकारणभावोपि बाधकाभावात् । तन्न प्रमाणतः प्रतीयमान : सम्बन्धः स्वाभिप्रेत
वस्तु नीली नहीं है और अनील (पीत आदि रूप ) भी नहीं है ऐसा नहीं कह सकते हैं। इसप्रकार बौद्ध सम्बन्ध का निराकरण नहीं कर सकते हैं इसलिए जैसे गाय और अश्व आदि पदार्थों में परस्पर जो पारमाथिक अकार्य अकारण भाव है वह अतद्भाव भावीपने से अर्थात् गाय के होने पर भी अश्व का नहीं होना या अश्व के नहीं होनेपर भी गाय का होना इत्यादि रूप से प्रतीत होता है अतः उसे सत्य मानते हैं, इसी प्रकार अग्नि और धूम इत्यादि पदार्थों में तद्भावभाविपने से अर्थात् अग्नि के होनेपर ही धूम का होना इत्यादि रूप से कार्य कारण भाव की प्रतीति होती है अतः उसे भी सत्य मानना चाहिए, दोनों कार्य कारणभाव और अकार्य कारणभाव में किसी प्रकार की भी बाधा नहीं पाती है। इसलिये बौद्धों को चाहिए कि वे अपने इष्ट तत्व जो असंबंधत्व आदिको जिसप्रकार मानते हैं उसका निह्नव नहीं करते हैं, उसीप्रकार प्रमाण से प्रतीत हो रहे सम्बन्ध का भी निह्नव नहीं करना चाहिए। जब सम्बन्ध का अपलाप नहीं हो सकता तो बौद्ध का यह कहना कि "स्थूलत्व धर्म की प्रतीति भ्रान्त है अतः स्थूलत्व आदि पदार्थ के स्वभाव नहीं है' इत्यादि गलत ठहरता है। जिसप्रकार बौद्ध एक ही चित्र ज्ञान में एक साथ अनेक आकार सम्बन्धी पदार्थ प्रतिभासित होना स्वीकार करते हैं, वैसे ही उस ज्ञान में क्रम से भी अनेक आकार रूप कार्य कारण पना प्रतिभासित होता है ऐसा स्वीकार करना चाहिए इसमें कोई विरोध की बात नहीं है ।
भावार्थ-बौद्ध ने कार्य कारण सम्बन्ध का खण्डन करते हुए कहा था कि कारण को प्रतिभासित करानेवाला प्रमाण अलग है और कार्य को प्रतिभासित करने वाला प्रमाण अलग है अत: दोनों के परस्पर में होनेवाले सम्बन्ध को कौन जान सकता है तथा कार्यभूत पदार्थ या कारण भूत पदार्थ क्षणिक हैं उनका ग्राहक ज्ञान भी क्षणिक है, फिर किस तरह उन दोनों के सम्बन्ध को जाने । इस पर प्राचार्य उन्हीं के चित्र ज्ञान का उदाहरण देकर समझाते हैं कि जैसे एक ही चित्र ज्ञान में एक साथ अनेक
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