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प्रमेयकमलमार्तण्डे ननु भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वेन धर्मधमिणोरत्यन्तभेदप्रसिद्ध सिद्धपि धर्मिणि वास्तवानेकधर्माणां सद्भावे तादात्म्याप्रसिद्धिः; इत्यप्यसमीचीनम् ; अनेकान्तिकत्वाद्ध तोः, प्रत्यक्षानुमानाभ्यां हि भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वेप्यात्मादिवस्तुनो भेदाभावः, दूरेतरदेशत्तिनामस्पष्टेतरप्रत्ययग्राह्यत्वेपि वा पादपस्याऽभेदः। ननु चात्र प्रत्ययभेदाद्विषयभेदोऽस्त्येव, प्रथमसमयवति हि विज्ञानमूर्ध्वताविषयमुत्तर च शाखादिविशेषविषयम् ; इत्यप्यसाम्प्रतम् ; एवंविषयभेदाभ्युपगमे 'यमहमद्राक्षां दूरस्थित : पादपमेतहि तमेव पश्यामि' इत्येकत्वाध्यवसायो न स्यात्, स्पष्टेतरप्रतिभासानां सामान्य विशेषविषयत्वेन घटादिप्रतिभासद्भिन्नविषयत्वात् । अथ पादपापेक्षया पूर्वोत्तरप्रत्ययानामेकविषयत्वं सामान्य
समाधान-यह शंका व्यर्थ है, धर्म और धर्मी भिन्न-भिन्न प्रमाण द्वारा ग्राह्य है ऐसा कहना अनेकान्तिक है ( अर्थात् तन्तु पट आदि पदार्थ सर्वथा भिन्न हैं क्योंकि ये भिन्न प्रमाण ग्राह्य हैं, ऐसा "भिन्न प्रमाण ग्राह्यत्व" हेतु अनेकान्तिक हेत्वाभास रूप होता है ) आत्मा आदि पदार्थ स्वानुभव प्रत्यक्ष प्रमाण तथा अनुमान प्रमाण ऐसे भिन्न दो प्रमाणों द्वारा ग्रहण में आते हैं तो भी उनमें भेद नहीं है तथा और भी उदाहरण है कि एक वृक्ष दूर में स्थित पुरुषों को अस्पष्ट और निकट में स्थित पुरुषों को स्पष्ट ज्ञान द्वारा ग्राह्य होता है तो भी उसमें अभेद है।
__ शंका-यह वृक्ष का उदाहरण ठीक नहीं, इसमें ज्ञान के भेद से विषय में भी भेद सिद्ध होता है, कैसे सो बताते हैं कोई पुरुष पहले दूर से जो वृक्ष का ज्ञान करता है वह ज्ञान तो ऊर्ध्वता-ऊंचाई को विषय करनेवाला है और आगे निकट जाने पर जो ज्ञान होता है उसका विषय शाखा, पत्र आदि हैं, अतः प्रमाण भेद से विषय भेद सिद्ध ही होता है अभिप्राय यह है कि जो भिन्न प्रमाण ग्राह्य है वह भिन्न है ऐसा वैशेषिक का कथन ठीक ही है ?
समाधान-यह बात गलत है, इस तरह विषय भेद स्वीकार करेंगे तो दूर में स्थित हुए मैंने जिस वृक्ष को देखा था उसी को अब देख रहा हूं इसप्रकार का उस वृक्ष में एकपने का निश्चय नहीं हो सकेगा। क्योंकि स्पष्ट और अस्पष्ट प्रतिभासरूप ज्ञानों का सामान्य और विशेष रूप भिन्न विषय मान लिया है। जैसे घट आदि के प्रतिभासों के भिन्न विषय माने जाते हैं ।
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