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भेदोस्त्येव - धूमस्य हि पक्षधर्मत्वादिकारणोपचितस्य स्वसाध्यं प्रति गमकत्वम्, तद्विपरीतकारणोपचितस्य सामग्रयन्तरत्वात्साध्यान्तरेऽगमकत्वम्, न त्वेकस्यैव गमकत्वागमकत्वं सम्भवति ; इत्यप्यन्धसर्पबिल प्रवेशन्यायेनानेकान्तावलम्बनम् ; धूमस्याभिन्नत्वात् । य एव हि धूमोऽविनाभावसम्बन्धस्मरणादिकारणोपचितो वन्हि प्रति गमकः स एव साध्यान्तरेऽगमक इति । श्रथान्य: स्वसाध्यं प्रति गमकोऽन्यश्चान्यत्रागमक:; तर्हि यो गमको धूमस्तस्य स्वसाध्यवत्साध्यान्तरेपि सामर्थ्यादेकस्मादेव धूमा निखिल साध्यसिद्धिप्रसङ्गाद्धे त्वन्तरोपन्यासो व्यर्थः स्यात् ।
प्रभेयकमलमार्त्तण्डे
है अतः उससे अवयव और अवयवी में अत्यन्त भेद सिद्ध करना शक्य नहीं, इसीका खुलासा करते हैं - धूम नामा हेतु में अपने साध्य को ( अग्नि ) सिद्ध करना और इतर ( जल ) को सिद्ध नहीं करना इसप्रकार विरुद्ध दो धर्म होते हैं तो भी उसमें भेद नहीं है ।
वैशेषिक - धूम प्रादि हेतुग्रों में भी सामग्री की भेद से भेद होता है, पक्ष धर्मत्वादिकारण युक्त होने से तो वह धूम स्वसाध्य का गमक बनता है और इससे विपरीत विपक्ष व्यावृत्तिरूप कारण सामग्री युक्त होने से अन्य साध्य जो जलादिक है उसका अगमक बनता है, एक में ही गमकत्व श्रौर अगमकत्व नहीं रहता है ।
जैन - यह तो अन्ध सर्प बिल प्रवेश न्याय से अनेकान्त का ग्रवलम्बन ही अर्थात् जैसे अन्धा सर्प चींटी आदि के भय से बिल को छोड़कर इधर उधर घूमता है और पुनः उसी बिल में घुस जाता है, वैसे आपने पहले तो अवयव अवयवी आदि में एकपना हो जाने के भय से भिन्नता स्वीकार की और पुनः धूम में विभिन्न सामग्री मानकर भी एकपना स्वीकार किया । धूम एक है । वही अविनाभावी संबंध का स्मरण होना इत्यादि कारणयुक्त हुआ अग्नि के प्रति तो गमक बन जाता है और अन्य साध्य - जलादि के प्रति श्रगमक होता है, इसतरह धूम तो वह का वही है ।
वैशेषिक -- जो स्वसाध्य का गमक होता है वह धूम पृथक् है और अन्यत्र जो गमक होता है वह धूम पृथक् है ।
जैन -- तो इसका मतलब यह हुआ कि धूम हेतु में अगमक नामा धर्म नहीं है, यदि ऐसा है तो वह जैसे अपने साध्य का गमक है वैसे सब ग्रन्य-अन्य साध्यों का
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