Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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अर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्ववादः
२०५ विरोधश्च अविकलकारणस्यकस्य भवतो द्वितीयसन्निधानेऽभावादवसीयते । न च भेदसन्निधानेऽभेदस्याऽभेदसन्निधाने वा भेदस्याभावोऽनुभूयते ।
किंच, अत्र विरोध : सहानवस्थानलक्षणः परस्परपरिहारस्थितिस्वभावो वा, बध्यघातकरूपो वा स्यात् ? न तावत्सहानवस्थानलक्षणः; अन्योन्याव्यवच्छेदेन कस्मिन्नाधारे भेदाभेदयोधर्मयोः सत्त्वा
अपेक्षा से अभावरूप ज्ञान को उत्पन्न कराते हैं, जैसे कि एकत्व और द्वित्व प्रादि संख्या स्व अपेक्षा एकत्वरूप है और पर अपेक्षा द्वित्व है, ऐसे ही वस्तु में भाव और अभाव में भेद हा करता है ( स्व अपेक्षा भाव और पर अपेक्षा अभाव ) द्वित्व आदि संख्या एक द्रव्य में रहकर अन्य द्रव्य की अपेक्षा लेकर प्रकाशमान होती है वह अपने स्वरूप को अपेक्षा से एकत्व संख्या से अन्य प्रतीत नहीं है, तथा द्वित्व और एकत्व दोनों संख्या भी संख्यवान पदार्थ से सर्वथा भिन्न नहीं है, अन्यथा इसके असंख्येयपने का प्रसंग प्राप्त होगा।
वैशेषिक-संख्यावान में संख्या का समवाय होने से संख्येयत्व हुआ करता है ?
जैन -- यह बात असत् है, कथंचित् तादात्म्य को छोड़कर अन्य समवाय नामा पदार्थ नहीं है, ऐसा प्रतिपादन करनेवाले हैं। अतः जैसे अपेक्षणीय पदार्थ के भेद से संख्या में भेद होता है वैसे ही सत्व और असत्व में अपेक्षा करने योग्य पदार्थ के भेद होने से कथंचित् भिन्नता हुआ करती है ऐसा सिद्ध हुप्रा । जब इसप्रकार के सत्व और असत्व की वस्तु में प्रतीति पा रही है तब किसप्रकार विरोध आवेगा । अथवा द्रव्य और पर्याय की अपेक्षा से वस्तु में कथंचित् अभेद और भेद प्रतीत हो रहा तब कैसे विरोध प्रावेगा ? अर्थात् नहीं आवेगा।
वैशेषिक-वस्तु में जो सत्व और असत्व एवं भेद और अभेद प्रतीत होता है वह मिथ्या है ?
जैन-यह बात असंगत है, क्योंकि वस्तु में सत्व और असत्व आदि की प्रतीति होने में कोई बाधा नहीं आती है।
वैशेषिक-विरोध है यही तो बाधा या बाधक है ।
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