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प्रमेयकमल मार्तण्डे त्वात् । समवायेन चास्य समवायसम्बन्धे समवायानेकत्व प्रसंगः । सम्बन्धमन्तरेण धर्ममिभावाभ्युपगमे चातिप्रसंगः ।
किञ्च, अस्तित्वादेरपरास्तित्वाभावात्कथं तत्र व्यतिरेकनिबन्धना विभक्तिर्भवेत् ? अथ तत्राप्यपरमस्तित्वमंगीक्रियते तदानवस्था स्यात् । उत्तरोत्तरधर्मसमावेशेन च सत्त्वादेर्धमिरूपत्वानुषंगात् 'षडेव धर्मिणः' इत्यस्य व्याातः । 'ये धमिरूपा एव ते षट्के नावधारिता:' इत्यप्यसारम् ; एवं हि गुणकर्मसामान्य विशेषसमवायानामनिर्देशः स्यात् । न ह्यषां मिरूपत्वमेव ; द्रव्याश्रितत्वेन धर्मरूपत्वस्यापि सम्भवात् ।
तथा 'खस्य भावः खत्वम्' इत्यत्राभेदेपि तद्धितोत्पत्तरुपलम्भान्न सापि भेदपक्षमेवावलम्बते ।
अस्तित्व आदि में धर्मी धर्म भाव माने तो अति प्रसंग होवेगा, फिर तो आकाशकुसुम और अस्तित्व आदि में भी धर्मी धर्मपना हो सकेगा।
दूसरी बात यह है कि जहां षष्ठी विभक्ति होती है वहां अत्यन्त भेद होता है ऐसा सर्वथा माने तो “अस्ति इति एतस्य भावः अस्तित्वं' इत्यादि में षष्ठी विभक्ति परकत्व प्रत्यय नहीं होगा, क्योंकि अस्ति में अस्तित्व का अभाव है। तथा अस्तित्व
आदि धर्म में पुनः अन्य अस्तित्व स्वीकार कर लेते हैं तो अनवस्था होगी। दूसरा दोष यह होगा कि अस्तित्व में अन्य अस्तित्व मानने पर पूर्व के अस्तित्व को धर्मी मानना होगा, इसतरह उत्तरोत्तर धर्म का समावेश होने से सत्त्वादिक धर्मी बनेंगे, फिर तो छह पदार्थ हो धर्मी कहलाते हैं, ऐसा प्रापका कहना खण्डित होगा।
वैशेषिक - जो केवल धर्मी रूप ही हैं धर्म रूप नहीं हैं, वे पदार्थ छह ही हैं ऐसा हमने अवधारण किया है, अतः कोई दोष नहीं है !
जैन-यह भी प्रसार है, ऐसा कहने से गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इनका निर्देश नहीं हो सकेगा, क्योंकि गुण आदि पांचों पदार्थ केवल धर्मीरूप से स्वीकार नहीं किये जा सकते, वे द्रव्य के प्राश्रय में रहने के कारण धर्मरूप भी होते हैं, न कि सर्वथा धर्मीरूप । तद्धित का प्रत्यय भेद में ही होता है ऐसा ऐकान्तिक कहना भी गलत है, “खस्यभावः खत्वे” इत्यादि पद में अभेद होते हुए भी तद्धित की उत्पत्ति देखी जाती है ।
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