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अन्वय्यात्मसिद्धि:
" तस्मादुभयहानेन व्यावृत्त्यनुगमात्मकः । पुरुषोभ्युपगन्तव्यः कुण्डलादिषु सर्पवत् ॥'
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[ मी० श्लो० श्रात्मवाद श्लो० २८ ] इति ।
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"तस्मात्तत्प्रत्यभिज्ञानात्सर्वलोकावधारितात् । नैरात्म्यवादबाधः स्यादिति सिद्ध समीहितम् ।।"
[ मी० श्लो० प्रात्मवाद श्लो० १३६ ] इति च ।
श्रथ कथमतः प्रत्यभिज्ञानादात्मसिद्धिरिति चेत् ? उच्यते - 'प्रमातृविषयं तत्' इत्यत्र तावदावयोरविवाद एव । स च प्रमाता भवन्नात्मा भवेत्, ज्ञानं वा ? न तावदुत्तरः पक्षः, 'अहं ज्ञातवानहमेव च साम्प्रतं जानामि इत्येकप्रमातृपरामर्शेन ह्यहं बुद्ध रुपजायमानाया ज्ञानक्षरणो विषयत्वेन कल्प्य -
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विवर्त्तोको सर्वथा भिन्न या अभिन्न मानते हैं तो बाधा आती है प्रर्थात् ग्रात्म द्रव्य को एक अन्वयी न मानकर द्रव्य तथा पर्यायों को सर्वथा क्षणिक एवं पृथक्-पृथक् मानते हैं तो दोनों ही प्रसिद्ध हो जाते हैं अत: व्यावृत्त अनुवृत्त स्वरूप वाला पुरुष आत्मा नित्य है ऐसा स्वीकार करना चाहिए, जैसे कि सर्प एक स्थिर है और उसमें कुण्डलाकार होना लम्बा होना इत्यादि पर्यायें होती हैं, अथवा सुवर्णं एक है और वह कड़ा, हार, कुण्डल आदि आकारों में क्रम क्रमसे प्रवृत्त होता है ।। १ ।। सम्पूर्ण लोक में प्रसिद्ध प्रत्यभिज्ञान द्वारा आत्मा की सिद्धि होने से बौद्धका नैरात्म्यवाद बाधित होता है, अतः हमारा आत्मनित्यवाद सिद्ध होता है । यदि कोई कहे कि प्रत्यभिज्ञान द्वारा आत्मा की सिद्धि कैसे होती है ? तो बताते हैं - प्रत्यभिज्ञान प्रमाता को विषय करता है इस विषय में जैन तथा बौद्ध का विवाद नहीं है, अब यह देखना है कि वह प्रमाता कौन है आत्मा है कि ज्ञान है ज्ञान तो हो नहीं सकता, क्योंकि " मैंने जाना था अब मैं ही जान रहा हूं" : इत्यादिरूप एक प्रमाता का परामर्श जिसमें है ऐसे प्रत्यभिज्ञान द्वारा ग्रहं ( मैं ) इसप्रकार की बुद्धि उत्पन्न होती है वह यदि ज्ञान क्षण विषयक है तो कौनसा ज्ञान क्षण है अतीत ज्ञान क्षण है, या वर्तमान है, अथवा दोनों है अथवा संतान है इनको छोड़कर अन्य कुछ तो हो नहीं सकता । प्रहंबुद्धि प्रतीत ज्ञान क्षण को विषय करती है ऐसा प्रथम विकल्प माने तो " जाना था" इतना आकार ही निश्चित होना शक्य है, क्योंकि उसने पहले जाना है "अभी जान रहा हूं" इस आकार
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