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अन्वय्यात्मसिद्धिः
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सुखदुःखादिपर्यायाणामन्योन्यमेकान्ततो भेदे च 'प्रागहं सुख्यासं सम्प्रति दु:खी वर्ते' इत्यनुसन्धानप्रत्ययो न स्यात् । तथाविधवासनाप्रबोधादनुसन्धानप्रत्ययोत्पत्तिः; इत्यप्यसत्यम् ; अनुसन्धानवासना हि यद्यनुसन्धीयमानसुखादिभ्यो भिन्ना; तर्हि सन्तानान्तरसुखादिवत्स्वसन्तानेप्यनुसन्धानप्रत्ययं नोत्पादयेदविशेषात् । तदभिन्ना चेत् तावद्धा भिद्यत । न खलु भिन्नादभिन्नमभिन्न नामाऽतिप्रसङ्गात् । तथा तत्प्रबोधात्कथं सुखादिष्वेकमनुसन्धानज्ञानमुत्पद्यत ? तेभ्यस्तस्याः कथञ्चिभेदे नाममात्र भिंद्य तअहमहमिकया स्वसंवेदनप्रत्यक्षप्रसिद्धस्यात्मनः सहक्रमभाविनो गुणपर्यायानात्मसात्कुर्वतो 'वासना' इति नामान्तरकरणात् ।
बौद्ध-मैं पहले दुःखी था इत्यादि प्रकार की वैसी वासना प्रगट होने से ही अनुसंधानात्मक ज्ञान पैदा होता है ।
जैन-यह असत् है, अनुसन्धान को करनेवाली उक्त वासना अनुसंधीयमान सुख दुःख आदि से भिन्न है कि अभिन्न ? यदि भिन्न है तो जैसी वह वासना अन्य संतानों में सुखादिका अनुसंधान ज्ञान ( प्रत्यभिज्ञान ) पैदा नहीं कराती वैसे अपने संतान में नहीं करा सकेगी। क्योंकि कोई विशेषता नहीं है, जैसे पर सन्तानों से भिन्न है वैसे स्व संतान से भिन्न है । यदि उस वासना को सुखादि से अभिन्न माने तो जितने सुखादि के भेद हैं उतने वासना के भेद मानने होंगे क्योंकि ऐसा हो नहीं सकता कि वासना उन सुखादि से अभिन्न होवे और एक भी बनी रहे । यदि वासना अनेकों सुखदुःख आदि में अभिन्नपने से रहकर भी अपने एकत्व को भिन्न बनाये रख सकती हैं तो घट, पट, गृह आदि से अभिन्न जो उनके घटत्व आदि स्वरूप हैं वे भी भिन्न मानने होंगे। इस आत प्रसंग को हटाने के लिए कहना होगा कि जितने सुखादि के भेद हैं उतने वासना के भेद हैं, इसतरह जब वासनायें अनेक हैं तो उनके प्रबोध से सुख, दुःख आदि में एक अनुसन्धानात्मक ज्ञान किसप्रकार उत्पन्न होगा ? क्योंकि वासनारूप कारण अनेक हैं तो उनसे होने वाला कार्य (ज्ञान) भी अनेक होना चाहिए ? यदि इस दोष को दूर करने के लिए सुख-दुःख अादि से वासना को कथंचित् भेद रूप माना जाय तो आत्मा और वासना में नाम मात्रका भेद रहा "अहं" मैं इस प्रकार से जो अपने में प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा प्रसिद्ध है, जो सहभावी गुण एवं क्रमभावी पर्यायों को प्रात्मसात् ( धारण ) कर रहा है ऐसे प्रात्मा के हो “वासना" ऐसा नामान्तर कर दिया है, और कुछ नहीं ।
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