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अन्वय्यात्मसिद्धि का सारांश
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बौद्ध एक अनादि नित्य आत्मा को नहीं मानते है उनका कहना है कि सुखादि पर्यायों को छोड़कर अन्य ग्रात्मा नामक नित्य वस्तु नहीं है, जो सुखादि पर्यायें हैं वे सब क्षणिक हैं इसी तरह सभी अन्तरंग बहिरंग वस्तुयें क्षणिक हैं यह सिद्ध होता है । इस मन्तव्य पर प्राचार्य कहते हैं कि जैसे आप एक ही चित्र ज्ञान में अनेक नीलादि आकार मानते हैं वैसे एक आत्मा में क्रम से सुखादि अनेक पर्यायें हैं । यदि ये सुखादि पर्यायें अत्यन्त भिन्न होती तो "पहले मैं सुखी था, अब दुःखी हूं" ऐसा जोड़ रूप ज्ञान नहीं हो पाता । जोड़ रूप ज्ञान वासना से होता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं, यह वासना भी सुखादि से भिन्न होगी तो अन्य संतान के सुखादि की तरह इस संतान के सुखादि में भी जोड़ नहीं कर सकती क्योंकि वह तो दोनों से पृथक् है । वासना इन सुखादि पर्याय से कथंचित् भिन्न है ऐसा कहो तो आपने आत्मा का ही वासना ऐसा दूसरा नाम रखा तथा ग्रात्मा को एक अन्वयरूप नहीं माना जायगा तो कृत नाश और प्रकृताभ्यागम नामक अव्यवस्था करने वाला दोष आता है । अर्थात् जिस आत्मा ने कर्मबन्ध किया वह उसका फल नहीं भोगेगा और दूसरा उक्त फल को भोगेगा यह तो बड़ी भारी दोषास्पद बात है बताइये यदि धन कमाने वाले को उसका भोग करने को न मिले, याद करनेवाले विद्यार्थी को उसकी परीक्षा देकर उत्तीर्ण होने का श्रानन्द न मिले, प्रसव वेदना भोगने वाली स्त्री को पुत्र के पालन का अनुभव न आवे, तपस्या करनेवालों को स्वर्गापवर्गों का सुख न मिले तो वे सब व्यक्ति काहे को तपस्या अभ्यासादि करते हैं ।
" प्रयोजनं विना मन्दोपि न प्रवर्तते "
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