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अर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्ववादः सत्येवोपलब्धम्, तत् सामान्यविशेषाकारयोरुपलभ्यमानं कथं नात्यन्तभेदं प्रसाधयेत् ? अन्यत्राप्यस्य तदप्रसाधकत्वप्रसङ्गात् । न खलु प्रतिभासभेदाद्विरुद्धधर्माध्यासाच्चान्यत् पटादीनामप्यन्योन्यं भेदनिबन्धनमस्ति । स चावयवावय विनोगुणगुणिनोः क्रियातद्वतोः सामान्य विशेषयोश्चास्त्येव । पटप्रतिभासो हि तन्तुप्रतिभासबैलक्षण्येनानुभूयते, तन्तुप्रतिभासश्च पटप्रतिभासवैलक्षण्येन । एवं पटप्रतिभासाद पादिप्रतिभासवैलक्षण्यमप्यवगन्तव्यम् ।
विरुद्धधर्माध्यासोप्यनुभूयत एव, पटो हि पटवजातिसम्बन्धी विलक्षणार्थक्रियासम्पादकोतिशयेन महत्त्वयुक्तः, तन्तवस्तु तन्तुत्वजातिसम्बन्धिनोल्पपरिमाणाश्च, इति कथं न भिद्यन्ते ? तादात्म्य
पट विभिन्न प्रमाण द्वारा ग्राह्य होने से परस्पर में अत्यन्त भिन्न हैं। पट अादि पदार्थों में भिन्न प्रमाण द्वारा ग्राह्य होना अत्यंत भेद होने पर ही दिखाई देता है अतः सामान्य और विशेषांकार में पाया जाने वाला भिन्न प्रमाण ग्राह्यपना उनके अत्यन्त भेद को कसे नहीं सिद्ध करेगा, अर्थात् करेगा ही। यदि ऐसा नहीं माने तो पट अादि में भी भेद सिद्ध नहीं हो सकेगा। घट, पट, गृह, जीव आदि पदार्थों में प्रतिभास के भेद होने से ही भेद सिद्ध होता है, एवं विरुद्धधर्मत्व होने से भेद सिद्ध होता है, इनको छोड़कर अन्य कोई कारण नहीं है। यह भेद प्रसाधक प्रतिभास अवयव और अवयवी, गुण और गुणी, क्रिया और क्रियावान तथा समान्य और विशेषों में पाया ही जाता है । इसी को बतलाते हैं-पट का जो प्रतिभास होता है वह तंतु के प्रतिभास से विलक्षण रूप अनुभव में आता है, एवं तंतुओं का प्रतिभास पट प्रतिभास से विलक्षण अनुभव में आता है, इसीप्रकार पट के प्रतिभास से पट का रूपत्व आदि का प्रतिभास विलक्षण होता है, इस प्रतिभास के विभिन्न होने से हो पट अवयवी और तंतु अवयव इनमें अत्यन्त भेद माना जाता है तथा गुण रूपादि और गुणी पट इन दो में भेद माना जाता है।
पट और तंतु प्रादि में विरुद्ध धर्माध्यासपना भी भली प्रकार से अनुभव में आता है, जो पट है वह अपने पटत्व जाति से सम्बद्ध है, विलक्षण अर्थक्रिया ( शीत निवारणादि ) को करनेवाला है, अतिशय महान है, और जो तंतु हैं वे तंतुत्व जाति से सम्बद्ध हैं एवं अल्प परिमाणवाले हैं, फिर इन पट और तन्तुओं में किसप्रकार भेद नहीं होगा? जैन पट और तन्तु या गुण और गुणी में तादात्म्य मानते हैं किन्तु
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