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संबंधसद्भाववादः
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तथा च 'तामेव चानुरुन्धानः' इत्याद्यप्ययुक्तम् ; क्रियाकारकादीनां सम्बन्धिनां तत्सम्बन्धस्य च प्रतीत्यर्थं तदभिधायकानां प्रयोगप्रसिद्ध।। अन्यापोहस्य च प्रागेवापास्तस्वरूपत्वाच्छब्दार्थत्वमनुपपन्नमेव । चित्रज्ञानवच्चानेकसम्बन्धितादात्म्येप्येकत्वं सम्बन्धस्याविरुद्धमेव ।
यदप्युक्तम्--'कार्यकारणभावोपि' इत्यादि; तदप्यविचारितरमणीयम्; यतो नास्माभिः सहभावित्वं क्रमभावित्वं वा कार्यकारणभावनिबन्धनमिष्यते । किन्तु यद्भावे नियता यस्योत्पत्तिस्तत्तस्य कार्यम्, इतरच्च कारणम् । तच्च किञ्चित्सहभावि, यथा घटस्य मृद्रव्यं दण्डादि वा । किञ्चित्तु क्रमभावि, यथा प्राक्तनः पर्यायः । तत्प्रतिपत्तिश्च प्रत्यक्षानुपलम्भसहायनात्मना नियते व्यक्तिविशेषे,
कारक आदि सम्बन्ध वाचक शब्दों का प्रयोग हुग्रा करता है इत्यादि, सो बात अयुक्त है, देखिये "हे देवदत्त ! गां निवारय” इत्यादि क्रियाकारक संबंधी पदार्थों की एवं संबंध की प्रतीति कराने के लिए ही उनके वाचक शब्दों का ( हे देवदत्त इत्यादि ) प्रयोग किया जाता है, यह बात तो बिलकुल प्रसिद्ध है। आप बौद्ध शब्दों को केवल अन्यापोह वाचक मानते हैं सो उसका पहले ही अपोहवाद प्रकरण में (द्वितीय भाग में) खण्डन कर आये हैं। आपका कहना है कि संबंधी पदार्थ यदि दो हैं या अनेक हैं तो उनमें होनेवाला संबंध भी अनेक होना चाहिए, सो बात गलत है, जिसप्रकार आप एक चित्र ज्ञान में एकत्व रहते हुए भी अनेक नोल पीत आदि आकारों का तादात्म्य होना स्वीकार करते हैं वैसे ही सम्बन्ध के विषय में समझना चाहिए ( अर्थात् दो या अनेक पदार्थों का एक लोली भाव ही संबंध है अतः दो को जोड़नेवाला सम्बन्ध भी दो होना चाहिये ऐसा दोष देना गलत है)।
पहले जो कहा था कि कार्य कारण भाव भी कैसे बने, क्योंकि वे दोनों पदार्थ साथ नहीं होते इत्यादि, सो बिना सोचे कहा है, हम जैनों के यहां कोई सहभाव या क्रमभाव के निमित्त से कार्य कारण संबंध नहीं माना है, किन्तु जिसके होनेपर नियम से जिसकी उत्पत्ति होती है वह उसका कार्य और इतर कारण कहलाता है, इन कारणों में कोई तो सहभावी हुआ करता है, जैसे घटरूप कार्य का कारण मिट्टी अथवा दण्ड आदिक सहभावी है, तथा कोई कारण क्रमभावी हुआ करता है, जैसे उस घट की पहली पर्याय कुशलादि क्रम भावी है। इन कार्य कारण भावों का ज्ञान प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ है सहायक जिसमें ऐसे आत्मा द्वारा नियतरूप व्यक्ति विशेष में हो जाता है,
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