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संबंधसद्भाववादः पत्तिश्चेत् ; तर्हि कार्योत्पादनशक्तेः कारणस्वभावत्वात्तग्राहिणक ज्ञानेन प्रतिपत्तिरिष्यतां विशेषाभावात् । उक्ता च कार्यप्रतिपत्ति: प्रत्यक्षादिसहायेनात्मनेत्यप रम्यते ।
किञ्च, कार्यानिश्चये शक्तेरप्यनिश्चये नीलादिनिश्चयोपि मा भूत् । यदेव हि तस्याः कार्य तदेव नीलादेरपि, अनयोरभेदात् । वक्तृत्वस्य चासर्वज्ञत्वादिना व्याप्त्यसम्भवः सर्वसिद्धिप्रघट्टके प्रतिपादितः ।
मानना चाहिए। कोई विशेष नहीं है। इस बात को हम जैन ने भली प्रकार सिद्ध किया है कि प्रत्यक्षादि प्रमाण है सहायक जिसके ऐसे अात्मा द्वारा कार्य का ज्ञान हो जाया करता है, अब इस विषय पर अधिक नहीं कहना चाहते । बौद्ध यदि कार्य के निश्चय नहीं होने से उसकी शक्ति भी अनिश्चित रहती है ऐसा हटाग्रह करते हैं तो नील, पीत आदि वस्तु का निश्चय होना भी अशक्य हो जायगा। क्योंकि जो शक्ति का कार्य है वही नील आदि का भी है, नील और शक्ति में अभेद होने से बौद्ध ने कार्य कारण सम्बन्ध का निषेध करते हुए कहा था कि कार्य और कारण में व्याप्ति करेंगे अर्थात जहां कार्य होता है वहां अवश्य कारण होना चाहिये इत्यादि रूप से दोनों का अविनाभाव निश्चित करेंगे तो वक्तृत्व और असर्वज्ञत्व की व्याप्ति है ऐसा मानना पड़ेगा । अर्थात् जहां वक्तृत्व है वहां असर्वज्ञपना निश्चित है ऐसा दोनों का अविनाभाव सिद्ध होने से सर्वज्ञ का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा इत्यादि, सो इस विषय में हम सर्वज्ञ सिद्धि प्रकरण में ( द्वितीय भाग में ) भली प्रकार प्रतिपादन कर आये हैं कि वक्तृत्व के साथ असर्वज्ञपने का कोई नियम नहीं है कि जो बोलने वाला हो अवश्य ही असर्वज्ञ या रागादिमान हो, उलटे जो अधिक ज्ञानी होगा वही अच्छी तरह बोल सकेगा इत्यादि ।
धूम और अग्नि आदि कार्य कारणों का व्यभिचार सिद्ध करने के लिए बौद्ध ने ईन्धन से उत्पन्न हुई अग्नि और मणि आदि से उत्पन्न हुई अग्नि आदि का दृष्टांत देकर कहा था कि जैसे अग्नि कहीं पर तो ईन्धनसे पैदा होती है और कभी मणि से अथवा अरणि मथन से होती है, वैसे ही धूम कहीं पर तो अग्नि से होता है और कहीं बिना [ गोपाल घटिका में ] अग्नि के भी हो जाता है अतः धूम और अग्नि में कार्य कारण भाव नहीं मानना चाहिए इत्यादि सो इस विषय में यह बात है कि इंधन से उत्पन्न हई अग्नि और मणि अादि से उत्पन्न हुई अग्नि में भेद है, अभेद नहीं, इसलिये इनका दृष्टान्त देकर कार्य कारणभाव का अभाव करना शक्य नहीं है, साक्षात्
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