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प्रमेय कमल मार्त्तण्डै
कस्यचित्तद्व्यवस्थित्यन्यथानुपपत्तेः स्थूलतादिवत् । 'प्रत्यक्षबुद्धी प्रतिभासमान: सोनापेक्षिक एव तत्पृष्ठभाविविकल्पेनाध्यवसीयमानो यथापेक्षिकस्तथाऽवास्तवोपि ' इत्यन्यत्रापि समानम् । न खलु सम्बन्धोऽध्यक्षेण न प्रतिभासते यतोऽनापेक्षिको न स्यात् ।
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एतेन 'परापेक्षा हि' इत्याद्यपि प्रत्युक्तम् ; प्रसम्बन्धेपि समानस्वात् ।
'द्वयोरेकाभिसम्बन्धात्' इत्याद्यप्यविज्ञातपराभिप्रायस्य विजृम्भितम् ; यतो नास्माभिः सम्बन्धिनोस्तथापरिणति व्यतिरेकेणान्यः सम्बन्धोभ्युपगम्यते, येनानवस्था स्यात् ।
सकती । जैसे कि स्थूलत्व प्रादि अपेक्षा के बिना सिद्ध नहीं होते हैं ।
बौद्ध - - निर्विकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान में प्रत्येक पदार्थ या परमाणु अपेक्षा रहित ही प्रतिभासित होता है, उस निर्विकल्प ज्ञान के पीछे जो विकल्प ज्ञान पैदा होता है वह सापेक्ष पदार्थ की प्रतीति कराता है, किन्तु वह जैसे अपेक्षा सहित है वैसे प्रवास्तविक भी है । अर्थात् असत् अपेक्षा को प्रतिभासित करने से ही विकल्प को अवास्तविक माना जाता है ।
जैन -- यही बात सम्बन्ध के विषय में भी कह सकते हैं ? सम्बन्ध प्रत्यक्ष ज्ञान में प्रतिभासित नहीं होता सो बात नहीं है जिससे कि वह अनपेक्षिक न माना जाय, कहने का अभिप्राय यह है कि जो प्रत्यक्ष ज्ञान में प्रतीत हो वह अनपेक्षिक होता है ऐसा कहो तो सम्बन्ध साक्षात् ही प्रत्यक्ष में प्रतिभासित होता ही है अतः वह भी अपेक्षा रहित हो है, ऐसा मानना चाहिए ।
सम्बन्ध में पर की अपेक्षा होती है अतः वह असत् है ऐसा जो कहा था वह भी अयुक्त है, सम्बन्ध में भी पर की अपेक्षा हुआ करती है । दो सम्बन्धी पदार्थों में एक संबंध से कैसे संबंध होगा । इत्यादि जो कहा था वह भी जैन के अभिप्राय को नहीं समझने से ही कहा था, क्योंकि हम जैन सम्बन्धी पदार्थों की उस तरह की अर्थात् विश्लिष्ट अवस्था का त्याग करके संश्लिष्ट एक लोलीभाव से परिणति होना ही संबंध है ऐसा मानते हैं, इससे पृथक् कोई संबंध नहीं माना है, जिससे अनवस्था दोष प्रावे ।
बौद्ध ने कहा था कि अवास्तविक ऐसी कल्पना बुद्धि के कारण ही क्रिया
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