________________
१६०
प्रमेयकमलमार्तण्डे
वास्तवः; तदप्यपेशलम् बाह्यान्तःकारणप्रभवत्वात्तनिश्चयस्य । क्षयोपशमविशेषो हि तस्यान्तःकारणम्, तद्भावभावित्वाभ्यासस्तु बाह्यम्, अकार्यकारणभावावगमस्य त्वऽतद्भावभावित्वाभ्यासः । तदभावान्न क्वचित्तेषां कार्यकारणभावस्याऽकार्यकारणभावस्य वा निश्चय इति ।
धूमादिज्ञानजननसामग्रीमात्रात्तत्कार्यत्वादिनिश्चयानुत्पत्तेर्न कार्यत्वादि धूमादे: स्वरूपमिति चेत्; तर्हि क्षणिकत्वादिरपि तत्स्वरूपं मा भूत्तत एव । क्षणिकत्वाभावेऽवस्तुत्वम् अन्यत्रापि समानम्,
वास्तविक नहीं है ?
समाधान-यह शंका असत् है, कार्य कारण संबंध का निश्चय तो बाह्य तथा अभ्यन्तर कारण से हुआ करता है, क्षयोपशम विशेष हो जाना इस निश्चय ज्ञान का अन्तरंग कारण है, और कारण के सद्भाव में कार्य होता है ऐसा बार बार देखने को मिलना रूप अभ्यास होना बाह्य कारण है । जिनमें कार्य कारण भाव नहीं हैं ऐसे जल
और अग्नि आदि को बार बार देखने को मिलना कि इस जल के होने पर भी अग्नि नहीं होती अथवा इस घट के नहीं होने पर भी पट होता है इत्यादि अतद् भाव भावित्व को बार बार देखना रूप अभ्यास भी कार्य कारण भाव के निश्चय का बाह्य निमित्त हुआ करता है। जिन जीवों के इसतरह के बाह्य तथा अन्तरंग निमित्त नहीं होते हैं उनको अग्नि और धूम आदि सम्बन्धी कार्य कारण भाव का निश्चय ज्ञान नहीं हो पाता है, और न अकार्य कारण भाव का हो निश्चय हो पाता है ।
शङ्का-धूम आदि पदार्थ के ज्ञान को उत्पन्न करनेवाली जो नेत्र आदि सामग्री है उससे यदि धूमादिका कार्यपना निश्चित नहीं होता है तो वह कार्यपना आदि धर्म धूमादिका स्वरूप ही नहीं कहलायेगा ?
समाधान-तो फिर क्षणिकपना आदि धर्म भी उन पदार्थों के स्वरूप नहीं कहलायेंगे । क्योंकि उनके ज्ञान की नेत्रादि सामग्री होते हुए भी क्षणिकत्वादि का निश्चय नहीं होता है ।
शंका-यदि क्षणिकपना वस्तु का धर्म नहीं रहेगा तो वह वस्तु ही नहीं कहलायेगी ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org