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प्रमेयकमलमार्तण्डे
'ब्राह्मणेन यष्टव्यम्' इत्याद्यागमोपि नात्र प्रमाणम् ; प्रत्यक्षबाधितार्थाभिधायित्वात् तृणाने हस्तियूथशतमास्ते इत्यागमवत् ।
ननु ब्राह्मण्यादिजातिविलोपे कथं वर्णाश्रमव्यवस्था तन्निबन्धनो वा तपोदानादिव्यवहारो जैनानां घटेत ? इत्यप्यसमीचीनम् ; क्रियाविशेषयज्ञोपवीतादिचिन्होपलक्षिते व्यक्तिविशेषे तद्वयवस्थायास्तद्वयवहारस्य चोपपत्त:। कथमन्यथा परशुरामेण निःक्षत्रीकृत्य ब्राह्मणदत्तायां पृथिव्यां क्षत्रियसम्भव: ? यथा चानेन निःक्षत्रीकृतासौ तथा केनचिन्निाह्मणीकृतापि सम्भाव्येत । ततः क्रियाविशेषादिनिबन्धन एवायं ब्राह्मणादिव्यवहारः ।
एतेनाविगानतस्त्रैवर्णिकोपदेशोत्र वस्तुनि प्रमाणमिति प्रत्युक्तम् ; तस्याप्यव्यभिचारित्वाभावात् । दृश्यन्ते हि बहवस्त्रवणिकरविगानेन ब्राह्मणत्वेन व्यवह्रियमाणा विपर्ययभाजः । तन्न
नित्य ब्राह्मण्य जाति की सिद्धि करने के लिये 'ब्राह्मणेन यष्टव्यम्” इत्यादि आगम वाक्य को उपस्थित किया था किन्तु वह यहां प्रमाणभूत नहीं कहलायेगा, क्योंकि प्रत्यक्ष बाधित अर्थ को कहने वाला है, जैसे तृण के अग्रभाग पर “सौ हाथी समूह बैठा है” इत्यादि आगमवाक्य प्रत्यक्ष बाधित होने से प्रामाणिक नहीं कहलाते हैं।
मीमांसक-इस प्रकार कुतर्क करके ब्राह्मण्य आदि जाति का लोप करने पर वर्ण एवं पाश्रमों की व्यवस्था कैसे बन सकेगी ? तथा वर्णाश्रम के द्वारा होने वाला. तपश्चर्या, दान, पूजा, जप आदि व्यवहार भी कैसे घटित होगा ? यह सब व्यवस्था जैन के यहां भी देखी जाती है ?
जैन- ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये, वर्णाश्रम की व्यवस्था क्रिया विशेष से, यज्ञोपवीत आदि चिह्नों से उपलक्षित जो व्यक्ति हैं उनमें हो जाया करती है और तदनुसार तपोदानादि व्यवहार भी बन जाता है, ऐसी बात नहीं होती तो परशुराम द्वारा पृथिवी को क्षत्रिय रहित किया गया था और पृथिवी को ( राज्य को ) ब्राह्मण के लिये दिया था फिर भी क्षत्रियों की उत्पत्ति पुनः कैसे हुई ? जिस प्रकार परशुराम ने पृथिवी मंडल को क्षत्रिय रहित कर दिया था, वैसे कोई पुरुष ब्राह्मण रहित करने वाला होना भी संभव है, अतः निश्चय होता है कि क्रिया विशेष आदि के द्वारा ही ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि का व्यवहार होता है।
___इस प्रकार नित्य ब्राह्मणत्व जाति का प्रतिपादक आगम खण्डित होता है, इसके खण्डन से ही "अविवाद रूप से जहां पर त्रिवर्ण का उपदेश उपलब्ध हो वहां
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