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संबंधसद्भाववादः
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नन् चाणनामयःशलाकाकल्पत्वेनान्योन्यं सम्बन्धाभावतः स्थलादिप्रतीतेन्तित्वात्कथं तद्वशात्तत्स्वभावो भावः स्यात् ? तथाहि-सम्बन्धोर्थानां पारतन्त्रयलक्षणो वा स्यात्, रूपश्लेषलक्षणो वा स्यात् ? प्रथमपक्षे किमसौ निष्पन्नयो: सम्बन्धिनो: स्यात्, अनिष्पन्नयोर्वा ? न तावदनिष्पन्नयोः, स्वरूपस्यैवाऽसत्त्वात् शशाश्वविषारणवत् । निष्पन्नयोश्च पारतन्त्रयाभावादसम्बन्ध एव । उक्तञ्च
अब यहां पर पदार्थ के स्थूलत्व धर्म का बौद्ध बहुत बड़ा पक्ष रखकर खण्डन करना चाह रहा है--
बौद्ध-जैन ने अभी कहा कि पदार्थ स्थूल रूप को लिये हुए हैं, सो यह स्थूलत्व प्रसिद्ध है, अणु रूप ही पदार्थ हुआ करते हैं, उनका परस्पर में संबंध नहीं होता है, जैसे लोहे की शलाकायें परस्पर में संबंध रहित हुआ करती हैं। पदार्थों में जो स्थूलत्वादि धर्म प्रतीत होते हैं वह प्रतीति भ्रान्त है, उस भ्रान्त ज्ञान से पदार्थों में स्थूलता की सिद्धि किस प्रकार हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती । अब इसीका खलासा करते हैं-पदार्थों के संबंध का स्वरूप क्या है यह पहले देखना होगा, पारतन्त्र्य को संबंध कहते हैं या रूपश्लेषको संबंध कहते हैं ? पारतन्त्र्य को संबंध मानें तो वह किन पदार्थों में होगा निष्पन्नों में या अनिष्पन्नों में ? अनिष्पन्न दो पदार्थों में संबंध हो नहीं सकता क्योंकि उनका अभी स्वरूप से ही असत्व है । जैसे शश विषाण और अश्व विषाणों का स्वरूपास्तित्व नहीं होने से संबंध नहीं होता
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