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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
"अग्निस्वभाव: शक्रस्य मूर्धा यद्यग्निरेव सः । अथानग्निस्वभावोसौ धूमस्तत्र कथं भवेत् ।।”
प्रमाणवा० ३।३५ ] इत्यादि ।
तदेतद्वक्तृत्वेपि समानम् - ' तद्धि सर्वज्ञे वीतरागे वा यदि स्यात्, असर्वज्ञाद्रागादिमतो वा कदाचिदपि न स्यादहेतो: सकृदप्यसम्भवात् भवति च तत्ततः, प्रतो न सर्वज्ञ े तस्य तत्सदृशस्य वा सम्भव:' इति प्रतिबन्ध सिद्धिः ।
यदि वह धूम अग्निस्वभाव नहीं है तो वह घूम ही कैसे कहलायेगा ? ।।१।।
समाधान -- अग्नि और धूम के बारे में नैयायिकादिका दिया हुआ यह व्याख्यान वक्तृत्व हेतु में भी घटित होता है, सो ही बताते हैं, सर्वज्ञ या वीतराग पुरुष में यदि वक्तृत्व है तो वह असर्वज्ञ के या रागादि मान के कभी भी नहीं होगा, क्योंकि जो हेतु नहीं है, वह एक बार भी नहीं होना था, किन्तु सर्वज्ञ में तो वक्तृत्व पाया जाता है अतः सर्वज्ञ में उस वक्तृत्व का अथवा उसके समान वक्तृत्व का सद्भाव सम्भव नहीं, इसतरह असर्वज्ञत्व एवं रागादिमान पुरुषों के साथ ही वक्तृत्व हेतु का अविनाभाव सिद्ध होगा ।
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भावार्थ - मीमांसकादि सर्वज्ञ का प्रभाव सिद्ध करने के लिए वक्तृत्व हेतु देते हैं कि सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि वह बोलनेवाला है, जो जो बोलनेवाला होता है वह वह सर्वज्ञ ही होता है, जैसे हम लोग बोलते हैं तो असर्वज्ञ ही हैं सर्वज्ञ नहीं हैं । इस अनुमान में असर्वज्ञपना और वक्तृत्वपना इन दोनों का अविनाभाव सिद्ध करने की मीमांसक ने कोशिश की है । किन्तु सर्वज्ञवादी जैन, नैयायिकादि लोग इस वक्तृत्व हेतु को सदोष ठहराकर अनुमान का खण्डन करते हैं, जैनादि का कहना है कि सर्वज्ञत्व के साथ वक्तृत्व का कोई विरोध तो है नहीं जिससे कि वह सर्वज्ञ में न रहकर अकेले सर्वज्ञ में ही रहे । जगत में देखा जाता है कि जो विशेष ज्ञानी या विद्वान होता है वह अज्ञानी की अपेक्षा अधिक अच्छा, स्पष्ट, मधुर अर्थ सन्दर्भ युक्त बोलता है, इससे विपरीत अज्ञानी को कुछ भी ठीक से बोलना नहीं आता है, अतः जो सम्पूर्ण जगतत्रय एवं कालत्रयवर्ती पदार्थों का ज्ञायक है वह तो विशेष अधिक स्पष्ट बोलेगा, इसलिए बोलनेवाला होने से सर्वज्ञ नहीं है, ऐसा मीमांसकका कथन गलत ठहरता है ।
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