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सम्बन्धसभाववादः
कारणभावानुपपत्तेः सव्येतरगोविषाणवत् । तन्न सम्बन्धिनौ सहभाविनौ विद्यते येनानयोर्वर्तमानोसो सम्बन्धः स्यात् । अद्विष्ठे च भावे सम्बन्धतानुपपन्नैव ।
कार्ये कारणे वा क्रमेणासौ सम्बन्धो वर्तते; इत्यप्यसाम्प्रतम् ; यतः क्रमेणापि भाव : सम्बन्धाख्य एकत्र कारणे कार्ये वा वर्तमानोऽन्यनिस्पृहः कार्यकारणयोरन्यतरानपेक्षो नैकवृत्तिमान् सम्बन्धो युक्तः, तदभावेपि कार्यकारणयोरभावेपि तद्भावात् । यदि पुन: कार्यकारणयोरेक कार्य कारणं वापेक्ष्यान्यत्र कार्य कारणे वासो सम्बन्धः क्रमेण वर्तत इति सस्पृहत्वेन द्विष्ठ एवेष्यते; तदाने
समाधान- यह भी ठीक नहीं है, कारण और कार्य में सहभाव नहीं है अतः द्विष्ठ सम्बन्ध का भी उसमें असंभव है। आगे इसीको कहते हैं--कारण के समय में कार्य और कार्य के समय में कारण नहीं होता, क्योंकि समान काल वाले पदार्थों में कार्यकारण भाव असंभव है, जैसे गो के दांये बायें सींगों में कार्य कारणभाव नहीं है, अर्थात् दोनों सींग एक साथ उत्पन्न होने से एक सींग कारण और दूसरा कार्य है ऐसी व्यवस्था सर्वथा नहीं होती है। कार्य कारण सम्बन्ध वाले पदार्थ सहभावी नहीं पाये जाते, जिससे कि उनमें यह सम्बन्ध घटित हो सके । अर्थात् कारण और कार्य दोनों एक साथ नहीं रहते इसलिये दो में स्थित होने वाला यह सम्बन्ध उनमें घटित नहीं होता है।
अद्विष्ठ पदार्थ में संबंध का सद्भाव सर्वथा असंभव है।
शंका-यह सम्बन्ध क्रमशः पहले कारण में और पुनः कार्य में रहता है।
समाधान-ऐसा भी नहीं जमता, क्योंकि यदि संबंध नामा वस्तु क्रम से एक कारण या कार्य में रहकर अन्यसे निस्पृह हैं, कार्य और कारण में से किसी एक की अपेक्षा नहीं रखता तो ऐसा एक वृत्तिवाला संबंध युक्त नहीं है, क्योंकि कार्य कारण के अभाव में भी रहता है । यदि कहा जाय कि कारण या कार्य में से एक किसी की अपेक्षा लेकर यह संबंध अन्य कारण अथवा कार्य में क्रम से विद्यमान है अतः सस्पृह होने से द्विष्ठ ही माना जाता है तो ये जो कार्य कारण हैं इनमें से अपेक्षा सहित होने के नाते उपकारकपना होना चाहिये, क्योंकि उपकारी ही सापेक्ष होता है अन्य नहीं, इस कथन का सारांश यह निकला कि कार्य और कारण एक दूसरी अपेक्षा रखते हैं
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