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संबंधसद्भाववादः
१४५ चेताभ्यां प्रतीयते इच्युच्यते; तहि वक्तृत्वस्यासर्वज्ञत्वादिना व्याप्ति : स्यात् । तद्धि रागादिमत्त्वाऽसर्वज्ञत्वसद्भावे स्वात्मन्येव दृष्टम्, तदभावे चोपलशकलादौ न दृष्टम् । तथा च सर्वज्ञवीतरागाय दत्तो जलांजलिः।
वक्तृत्वस्य वक्तुकामताहेतुकत्वान्नायं दोषः; रागादिसद्भावेपि वक्तुकामताभावे तस्या सत्त्वात् नन्वेवं व्यभिचारे विवक्षाप्यस्य निमित्तं न स्यात्, अन्यविवक्षायमप्यन्यशब्दोपलम्भात्, अन्यथा गोत्रस्खलनादेरभावप्रसंगात् । अथार्थविवक्षाव्यभिचारेपि शब्दविवक्षायामप्यव्यभिचारः; न;
अभाव में पत्थर आदि में वक्तृत्व पाया नहीं जाता सो यह अनुमान सर्वज्ञ के अभाव को निर्बाध सिद्ध कर देगा क्योंकि यहां पर संबंधवाद के प्रकरण में नैयायिकादि इस तरह का अन्वय व्यतिरेक स्वीकार कर रहे हैं किन्तु सर्वज्ञ का अभाव हम किसी को भी इष्ट नहीं है, अतः इस तरह की व्याप्ति बतलाकर कार्य कारण सम्बन्ध को सिद्ध करना शक्य नहीं है ऐसा बौद्ध ने संबंधका निराकरण करते हुए कहा है ।
शंका-बौद्ध ने जो अभी कहा कि अग्नि और धूम का कार्य कारण भाव इसतरह के अन्वय व्यतिरेक से सिद्ध करेंगे तो वक्तृत्व हेतु से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध हो जायगा सो ऐसी बात नहीं है, वक्तृत्व जो होता है वह बोलने की इच्छा से होता है, बोलने को इच्छा सर्वज्ञ के होती नहीं, अतः वक्तृत्व हेतु से असर्वज्ञपना सिद्ध नहीं होता है। हम लोग देखते हैं कि रागादि के सद्भाव में भी जब बोलने की इच्छा नहीं होती तो वक्तृत्व ( बोलनारूप क्रिया ) नहीं होता अतः रागादि जहां हो वहां वक्तृत्व होवे ही ऐसा नियम नहीं होने से वक्तृत्व हेतु सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं कर सकता।
समाधान-इस तरह वक्तृत्व हेतु को व्यभिचरित ठहराया जाय तो आपकी यह बोलने को इच्छा रूप विवक्षा भी वक्तृत्व का निमित्त सिद्ध नहीं हो सकेंगी अर्थात् बोलने की इच्छा होने पर ही वक्तृत्व होता है ऐसा वक्तृत्व का कारण विवक्षा बतायी जाय तो उसमें भी वही व्यभिचार प्राता है, देखा जाता है कि विवक्षा तो और कुछ है और बोला जाता है और कुछ, अतः विवक्षा ही वक्तृत्व का निमित्त है यह कहां सिद्ध हुमा । अन्यथा गोत्र स्खलन आदि का अभाव होवेगा अर्थात् विवक्षा अन्य है और कह देते हैं अन्य । कहना चाहते हैं देवदत्त, और कहते हैं जिनदत्त, सो इससे मालम
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