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सम्बन्धसभाववादा
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स्यादेतत्, न भिन्नस्याभिन्नस्य वा सम्बन्धः। कि तहि ? सम्बन्धाख्येनकेन सम्बन्धात्; इत्यत्रापि भावे सत्तायामन्यस्य सम्बन्धस्य विश्लिष्टौ कार्यकारणाभिमती श्लिष्टौ स्याताम् कथं च तो संयोगिसमवायिनी ? प्रादिग्रहणात्स्वस्वाम्यादिकम्, सर्वमेतेनानन्तरोक्त न सामान्यसम्बन्धप्रतिषेवेन चिन्तितम् ।
संयोग्यादीनामन्योन्यमनुपकाराच्चाऽजन्यजनक भावाच्च न सम्बन्धी च तादृशोनुपकार्योपकारकभूत:।
अथास्ति कश्चित्समवायी योऽवयविरूपं कार्यं जनयति अतो नानुपकारादसम्बन्धितेति; तन्न; यतो जननेपि कार्यस्य केनचित्समवायिनाभ्युपगम्यमाने समवायी नासो तदा जननकाले कार्य
हैं, उन विकल्प या भ्रान्त ज्ञानों का यही काम है कि वे ज्ञान असंबद्ध पदार्थों को भी संबद्ध हुए के समान प्रतीति कराते हैं, और इसीलिये विकल्प मिथ्या कहलाते हैं।
किञ्च, कार्य कारण भूत पदार्थ परस्पर में भिन्न है या अभिन्न है, यदि भिन्न कहे तो दोनों का संबंध कैसे, क्योंकि दोनों भी स्व स्व स्वभाव में स्थित हैं। यदि अभिन्न कहे तो अभिन्न वस्तु में काहे की कार्य कारणता ? अर्थात् अभिन्न एकमेक हैं उसमें कार्य और कारण भाव बनना शक्य नहीं ।
शंका-भिन्न या अभिन्न कार्य कारण का संबंध नहीं होता किन्तु संबंध नाम के एक संबंध से संबंध होता है ?
समाधान-ऐसा कहो तो स्वरूप से जो विश्लिष्ट थे उन कार्य कारण का पदार्थ में संबंध हुआ इस तरह का अर्थ निकला । फिर उन्हें संयोगी या 'समवायी' ऐसे नामों से कैसे पुकारेंगे ? तथा ऐसे विश्लिष्ट पदार्थ-स्वामी-भृत्य, गुरु-शिष्य, देवदत्तस्य घनं, इत्यादि संबंध द्वारा कैसे कहे जायेंगे । अतः सामान्य संबंध के निराकरण से ही सभी संयोग समवाय स्वस्वामी आदि संबंधों का निराकरण हुआ ऐसा समझना चाहिये । यह संयोगी आदि नामों से कहे जाने वाले जो पदार्थ हैं उनका परस्पर में अनुपकारत्व एवं अजन्य जनकत्व होने से भी कोई संबंधी सिद्ध नहीं होता, जिससे कि वैसा अनुपकारी उपकारक भूत पदार्थ न बने, अर्थात् सभी पदार्थ अनुपकारक या अजन्य आदि रूप से ही दिखायी देते हैं।
___ शंका--कोई एक समवायी नामा उपकारक है जो अवयवी स्वरूप कार्य को पैदा करता है। अतः "अनुपकारक होने से संबंधिता है" ऐसा नहीं कह सकते ?
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