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सम्बन्धसद्भाववादः
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संयोगजननेपीष्टौ तत: संयोगिनौ न तो। कर्मादियोगितापत्तेः स्थितिश्च प्रतिवणिता॥२२॥"
[ सम्बन्धपरी० ] इति ।
अस्तु वा कार्यकारणभावलक्षणः सम्बन्धः, तथाप्यस्य प्रतिपन्नस्य, अप्रतिपन्नस्य वा सत्त्वं सिद्ध्येत् ? न तावदप्रतिपन्नस्य ; अतिप्रसंगात् । प्रतिपन्नस्य चेत् ; कुतोस्य प्रतिपत्तिः-प्रत्यक्षेण, प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां वा, अनुमानेन वा प्रकारान्तराऽसम्भवात् ? प्रत्यक्षेण चेत् ; अग्निस्वरूप
समवायीकी जैसी बात है वैसी संयोगी की भी बात है, अर्थात् दो संयोगी द्रव्य संयोग को उत्पन्न करते हैं ऐसा मानें तो भी ठीक नहीं है, संयोग को कर्म नामा पदार्थ करता है सो उसको भी संयोगी मानना पड़ेगा, नैयायिकादिने कर्म पदार्थ का जो स्थिति स्थापक आदि लक्षण या काम निर्धारित किया है वह भो खंडित कर दिया है, क्योंकि स्थाप्य-स्थापक भाव भी जन्य-जनक के असिद्ध रहने से किसी तरह से भी सिद्ध नहीं होता है ।।२२।।
नैयायिकादि के अाग्रह से मान भी लेवें कि कार्य-कारण लक्षण भूत कोई संबन्ध है, किन्तु प्रतिपन्न संबन्ध का सत्व सिद्ध करे कि अप्रतिपन्नका ? अप्रतिपन्नका सत्व तो सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि अतिप्रसंग दोष पाता है, अर्थात् अप्रतिपन्न वस्तु भी माने तो गगनपुष्प आदि भी मानने होंगे, क्योंकि वे भी अप्रतिपन्न हैं । प्रतिपन्न कार्यकारणका सत्व सिद्ध करते हैं ऐसा कहो तो उक्त कार्य कारणको किस प्रमाण से जाना प्रत्यक्ष से या अन्वय व्यतिरेको ज्ञानों से, याकि अनुमान से ? अन्य कोई प्रमाण नहीं है । प्रत्यक्ष प्रमाण से कार्य कारण संबन्ध जाना जाता है ऐसा माने तो वह प्रत्यक्ष कौनसा है, अग्नि स्वरूप ( कारण ) का ग्राहक है कि धूम स्वरूपका ( कार्य का ) ग्राहक है, याकि उभय स्वरूप ( कार्य कारण दोनों ) का ग्राहक है ? अग्निस्वरूप ग्राहक प्रत्यक्ष से कार्यकारण संबन्ध तो जाना नहीं जा सकता, क्योंकि वह प्रत्यक्ष तो मात्र अग्नि का सद्भाव जान रहा है, धूम स्वरूप का नहीं, बिना धूम को जाने "यह अग्नि धूम का कारण है" इत्यादि रूप से निश्चय हो नहीं सकता। और इस तरह प्रतियोगी जो धूमादि कार्य है उसको जाने बिना उसके प्रति जो कारण
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