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१३.
प्रमेयकमलमार्तण्डे तौ च भावी सम्बन्धिनौ ताभ्यामन्यश्च सम्बन्धः सर्वे ते स्वात्मनि स्वस्वरूपे स्थिताः। तेनामिश्रा व्यावृत्तस्वरूपाः स्वयं भावास्तथापि तान्मिश्रयति योजयति कल्पना । अत एव तद्वास्तवसम्बन्धाभावेपि तामेव कल्पनामनुरुन्धानैर्व्यवहर्तृभिर्भावानां भेदोऽन्यापोहस्तस्य प्रत्यायनाय क्रियाकारकादिवाचिन: शब्दा: प्रयोज्यन्ते-'देवदत्त गामभ्याज शुक्लां दण्डेन' इत्यादयः । न खलु कारकाणां क्रियया सम्बन्धोस्ति; क्षणिकत्वेन क्रियाकाले कारकाणामसम्भवात् । उक्तञ्च
"तामेव चानुरुन्धान : क्रियाकारकवाचिनः । भावभेदप्रतीत्यर्थं संयोज्यन्तेभिधायकाः ।।६।।"
[सम्बन्धपरी.] कार्यकारणभावस्तहि सम्बन्धो भविष्यति; इत्यप्यसमीचीनम् ; कार्यकारणयोरसहभावतस्तस्यापि द्विष्ठस्यासम्भवात् । न खलु कारणकाले कार्य तत्काले वा कारणमस्ति, तुल्यकालं कार्य
इसलिये वे दोनों सम्बंधी, तथा सम्बंध ये सबके सब अपने' में ही स्थित हैं, इसप्रकार अमिश्र सम्बन्ध रहित ही पदार्थ हैं, ऐसे मिश्र रहित पदार्थों को कल्पना बुद्धि मिश्रित करती है सम्बंध सहित प्रतिभासित कराती है ।।५।।
वे दोनों सम्बंधी पदार्थ, तथा उनसे अन्य सम्बंध ये सबके सब निज निज स्वरूप में स्थित हैं, इसप्रकार पदार्थ स्वयं अमिश्र व्यावृत्त स्वरूप हैं, फिर भी उन अमिश्र पदार्थों को कल्पना बुद्धि परस्पर में संयुक्त-संबद्ध करा देती है। अतएव उन पदार्थों में वास्तविक सम्बंध नहीं होते हुवे भी जो सम्बन्ध की कल्पना करा देती है उस काल्पनिक बुद्धि को करने वाले व्यवहारी जनों ने पदार्थों के भेद रूप अन्यापोह स्थापित किया और उसकी प्रतीति कराने के लिये क्रिया, कारकादि वाचक शब्दों को प्रयुक्त किया है जैसे हे देवदत्त ! सफेद गाय को दण्डे से भगादो, इत्यादि । यह वाचक शब्दादिक इसलिये काल्पनिक है कि कारकों का क्रिया के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, कारक तो क्षणिक हैं वे क्रिया के समय नहीं रहते हैं। कहा भी है--उसी काल्पनिक बुद्धि को करने वाले व्यवहारी लोगों द्वारा क्रिया, कारक वाचक शब्द पदार्थों में भेद बताने हेतु प्रयुक्त होते हैं ।।६।।
शंका-रूप श्लेषादि सम्बन्ध नहीं हो किन्तु कार्य कारणभाववाला संबंध तो सिद्ध होगा?
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