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प्रमेय कमलमात्तंण्डे श्चेत् ; न एकदेशेन रूपश्लेषस्तदभावात् । परभूताश्चेत् ; तैरप्यणूनां सर्वात्मनैकदेशेन वा रूपश्लेषे स एव पर्यनुयोगोनवस्था च स्यात् । तदुक्तम् -
"रूपश्लेषो हि सम्बन्धो द्वित्वे स च कथं भवेत् । तस्मात्प्रकृतिभिन्नानां सम्बन्धो नास्ति तत्त्वतः ॥२॥"
[सम्बन्धपरी० ] किञ्च, परोपेक्षव सम्बन्धः, तस्य द्विष्ठत्वात् । तं चापेक्षते भावः स्वयं सन्, प्रसन्वा ? न तावदसन् ; अपेक्षाधर्माश्रयत्वविरोधात् खरशृङ्गवत् । नापि सन् ; सर्वनिराशंसत्वात्, अन्यथा सत्त्वविरोधात् । तन्न परापेक्षा नाम यद्रूपः सम्बन्ध : सिद्धयेत् । उक्तञ्च
"परापेक्षा हि सम्बन्ध: सोऽसन् कथमपेक्षते । संश्च सर्वनिराशंसो भावः कथमपेक्षते ॥३॥"
[ सम्बन्धपरी० ]
ऐसा कहो तो उसके एकदेश अंश प्रात्मभूत हैं या परभूत हैं ? अात्मभूत कहो तो ठीक नहीं होगा, क्योंकि अणु के अंश नहीं होने से एकदेश से रूप श्लेष नहीं बनेगा। रूप श्लेष के अंश परभूत [ पर स्वरूप ] हैं ऐसा कहो तो पुनः प्रश्न होगा कि उन परभूत अंशों से अणुओं का एकदेश से रूप श्लेष होगा अथवा सर्वदेश से इत्यादि वे ही प्रश्न होते हैं, और अनवस्था भी आती है । यही बात संबंध परीक्षा नामा ग्रन्थ में लिखी है-रूप श्लेष लक्षण वाला संबंध होता है ऐसा मानें तो वह दो में किस प्रकार हो सकेगा ? अतः स्वभाव से भिन्न भिन्न अणुओं का कोई तात्विक संबंध नहीं है ।।२।।
यह संबंध पर की अपेक्षा लेकर होता है क्योंकि दो में होता है, सो पर को अपेक्षा रखने वाला यह संबंध स्वयं सत् है या असत्, असत् हो नहीं सकता, असत् पदार्थ अपेक्षा धर्माश्रय का विरोधी होता है, जैसे गधे के सींग अपेक्षा धर्म के प्राश्रयभूत नहीं होते हैं । परापेक्ष संबंध स्वयं सत् है ऐसा कहना भी गलत है, जो स्वयं सत् है वह सर्वत्र निराकांक्ष हुआ करता है, अन्यथा वह स्वत: सत्व रूप नहीं हो सकता । इसलिये परापेक्ष रूप श्लेष संबंध भी सिद्ध नहीं होता है । कहा भी है-परापेक्ष संबंध माने तो वह यदि असत् है तो पर की अपेक्षा किस प्रकार करेगा और यदि सत् है तो भी सर्वत्र निरीच्छ होने से पर की अपेक्षा किस तरह कर सकेगा ? अतः परापेक्ष संबंध का अभाव है ।।३।।
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