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ब्राह्मणत्वजाति के निरसन का सारांश
नैयायिक आदि ब्राह्मणत्व जाति को अखंड एक, नित्य, व्यापी आकाश की तरह मानते हैं उनका कहना है कि यह ब्राह्मणत्व जाति प्रत्यक्ष से ही यह ब्राह्मण है यह ब्राह्मण है इस तरह से प्रतीत होती है, इस ज्ञान को विपर्यय या संशय ज्ञान भी नहीं कह सकते क्योंकि बाधक प्रमाण का अभाव है। यह ब्राह्मणत्व जाति पिता आदि के ब्राह्मणत्व के उपदेश परम्परा से पुत्रादि व्यक्ति में प्रगट होती है । अनुमान के द्वारा भी इसकी सिद्धि होती है । ब्राह्मण यह एक पद है इस पद का वाच्य तो ब्राह्मण व्यक्ति से भिन्न कोई वस्तु होनी चाहिये क्योंकि पद रूप है जैसे कि पट आदि पद पटत्व के निमित्त से होते हैं । व्यक्ति से पृथक् कोई पद का वाच्य नहीं माना जायगा तो व्यक्तियां अनंत हैं उन सबके साथ पद का सम्बन्ध नहीं हो सकता और बिना सम्बन्ध के वाच्य वाचक भाव बन नहीं सकता है। प्रागम प्रमाण तो सैकड़ों हैं "बाह्मणेन यष्टव्यम्" "ब्राह्मणो भोजयितव्यः' इत्यादि वाक्य प्रचुरमात्रा में उपलब्ध हैं इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान और पागम इन प्रमाणों से ब्राह्मणत्व जाति अनादि अखंड सिद्ध होती है ।
जैन ने उक्त मंतव्य का निरसन करते हुए कहा है कि एक व्यापक नित्य जाति अर्थात् सामान्य जगत में नहीं है । इस बात को हम अच्छी तरह अभी सामान्यवाद में सिद्ध कर आये हैं इसी प्रकार ब्राह्मणत्व जाति भी एक व्यापक रूप सिद्ध नहीं हो सकती । प्रत्यक्ष से ब्राह्मणत्व की प्रतीति नहीं होती है । पिता के उपदेश परम्परा से पुत्ररूप व्यक्ति में ब्राह्मणत्व प्रगट होने की प्रक्रिया भी प्रसिद्ध है। यदि प्रत्यक्ष से ही यह ब्राह्मणत्व प्रतीत होता तो उसको वृद्ध पुरुष के उपदेशादि से सिद्ध करने की जरूरत ही न होती और न प्रत्यक्ष सिद्ध वस्तु में विवाद ही होता । ब्रह्मा के मुख से जो मनुष्य होवे वह ब्राह्मण है ऐसी बात भी युक्ति संगत नहीं है। क्या ब्रह्माजी के अन्य अवयव शूद्र हैं जिससे कि मुख को ही ब्राह्मणता में कारण माना जाय ? यदि ऐसी बात है तो उनके चरण की कौन उपासना करेगा खुद ब्रह्मा में ब्राह्मणत्व किससे
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