________________
११२
प्रमेयकमलमार्तण्डे
कारणकालता, तस्यापि सेति सकलशून्यं जगदापद्यत । कथञ्चित्समत्वे योगिज्ञानस्याप्यस्मदादिज्ञानावलम्बनस्य तदाकारत्वेनैकसन्तानत्वप्रसङ्गः स्यात् ।
अनन्तरत्वं च देशकृतम्, कालकृतं वा स्यात् ? न तावद्देशकृतं तत्तत्रोपयोगि; व्यवहितदेशस्यापि इह जन्ममरणचित्तस्य भाविजन्मचित्तोपादानत्वोपगमात् नापि कालानन्तयं तत् ; व्यवहितकालस्यापि जाग्रच्चित्तस्य प्रबुद्धचित्तोत्पत्तावुपादानत्वाभ्युपगमात् । अव्यवधानेन प्राग्भावमात्रमनन्तरत्वम् ; इत्यप्ययुक्तम् ; क्षणिकैकान्तवादिनां विवक्षितक्षणानन्तरं निखिलजगत्क्षणानामुत्पत्ते: सर्वेषामेकसन्तानत्वप्रसङ्गात् ।
तथा कारण रूप से अभिमत जो उपादान है उसका कारण जो पूर्वतर क्षण है वह भी समकाल भावी सिद्ध होगा अर्थात् पूर्व क्षण भी एक कार्य है उसमें उससे भी पूर्ववर्ती जो क्षण है वह कारण है इन दोनों कार्य कारण का भी समत्व-काल समानत्व सिद्ध होगा, और ऐसा होने से जगत् सकल शून्य होवेगा क्योंकि कार्य और कारण में समकालत्व होने से भेद नहीं रहता और उक्त भेद के अभाव में कार्य कारण ही समाप्त होते हैं । कार्य में कारण का कथंचित् समत्व होना माने तो, जिसमें हम जैसे अल्पज्ञों के ज्ञान का अवलंबन है ऐसे योगीजन का ज्ञान तदाकार [ हमारे ज्ञान का आकार वाला ] होने से एक संतान रूप बन जायगा क्योंकि योगी ज्ञान कथंचित् हमारे ज्ञान के प्राकार जैसा बनता है और आप ज्ञान के विषय को ज्ञान का कारण मानते हैं, अर्थात् ज्ञान जिसको जानता है उसीसे उत्पन्न भी होता है ऐसा मानते हैं।
"समनंतर" इन अक्षरों में जो अनंतर शब्द है उसका वाच्य क्या होगा, देशकृत अनंतरत्व या कालकृत अनंतरत्व ? देशकृत अनंतरत्व वाच्यार्थ करना ठीक नहीं होगा, उपादान कारण में देशकृत अनंतर उपयोगी इसलिये नहीं होगा कि आपने व्यवहित देश वाले जन्म मरण युक्त चित्त को भावी जन्म वाले चित्त का उपादान माना है । कालकृत अनंतरत्व भी उपयुक्त नहीं होगा, क्योंकि व्यवहित काल वाले जाग्रत चित्त को निद्रित अवस्था के अनंतर प्रबुद्ध हुए चित्त का उपादान रूप से स्वीकार किया गया है।
शंका-भावी जन्म के चित्त का उपादान इस जन्म के चित्त को माना अवश्य है किन्तु इनमें अव्यवधान रूप से प्राग्भाव-पहले होना, कार्य के पूर्व होना, इतना ही अनंतरपना है ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org