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क्षणभंगवाद:
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अथ स्वरूपार्थोसौ; तत्रापि तद्धेतोरसत्त्वप्रसङ्गः, न ह्यर्थक्रियाकाले तद्धेतुविद्यते । न चान्यकालस्यास्यान्यकाला सा स्वरूपमतिप्रसङ्गात् ।
नापि ज्ञापकार्थोसो; अर्थक्रियाकालेर्थस्यासत्त्वादेव | असतश्चास्यातः कथं सत्ताज्ञप्तिरतिप्रसङ्गात् ? न चार्थक्रियोदयात्प्राक् कारणमासीदिति व्यवस्थापयितुं शक्यम् । यतो यदि स्वरूपेण पूर्वं हेतुरवगतो भवेत्तदनन्तरं चार्थक्रिया, तदार्थक्रिया प्रतिपन्नसम्बन्धोपलभ्यमाना प्राधेतुसत्तां व्यवस्थापयतीति स्यात् । न चार्थक्रियामन्तरेण हेतुः स्वरूपेण कदाचिदप्युपलब्धः परैः स्वरूपसत्त्वप्रसङ्गात् ।
अर्थक्रियायाश्चापरार्थक्रिया यदि सत्त्वव्यवस्थापिका ; तदानवस्था । न चार्थक्रियाऽनधिगतसत्त्वस्वरूपापि हेतुसत्त्वव्यवस्थापिका; अश्वविषारणादेरपि तत्सत्त्वव्यवस्थापकत्वानुषङ्गात् । न
"लक्षण" शब्द का अर्थ स्वरूप करते हैं तो भी उस स्वरूप के हेतु का प्रभाव होता है, क्योंकि जब अर्थ किया का समय आता है तब उसका हेतु तो रहता नहो, क्योंकि पदार्थ सर्वथा क्षणिक है । अन्य काल का सत्व अन्य काल की अर्थ क्रिया का स्वरूप होना तो शक्य नहीं, अन्यथा प्रति प्रसंग होगा ।
"लक्षण" शब्द का अर्थ ज्ञापक है ऐसा कहना भी जमता नहीं, क्योंकि अर्थ किया के काल में पदार्थ का सत्व रहता ही नहीं । जब पदार्थ का सत्व है तब उसके सत्ता को जानना कैसे संभव हो सकता है, अति प्रसंग दोष आता है, अर्थात् सत् होकर भी कोई ज्ञापक बनता है तो आकाश पुष्प, प्रश्व विषाणादि को ज्ञापक मानना होगा । यह भी बात है कि अर्थ किया का उदय होने के पहले "कारण था" इत्यादि रूप से व्यवस्था होना शक्य नहीं, क्योंकि यदि पहले स्वरूप से हेतु ज्ञात हो उसके अनंतर अर्थ किया भी ज्ञात हो तब तो प्रतिपन्न संबंधयुक्त एवं उपलभ्यमान अर्थ किया पहले से ही हेतु की सत्ता को सिद्ध कर सकती है, अन्यथा नहीं । आप बौद्ध द्वारा कभी कभी अर्थ किया के बिना उसका कारण स्वरूप से जाना हुआ तो हो नहीं सकता, क्योंकि ऐसा मानते हैं तो जैन के समान पदार्थ का सत्व स्वरूप से है ऐसा स्वीकार करने का प्रसंग आता है |
अर्थ किया से सत्व की सिद्धि होती है ऐसा मानते हैं तो विवक्षित अर्थ किया का सत्व किसी अन्य अर्थ किया से सिद्ध होगा, इस तरह तो अनवस्था फैलती
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