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क्षणभंगवादः
११३ नियमवदन्वयव्यतिरेकानुविधानं तल्लक्षणम् ; इत्यप्यसमीचीनम् ; बुद्धेतरचित्तानामप्युपादानोपादेयभावानुषङ्गात्, तेषामव्यभिचारेण कार्यकारणभूतत्वाविशेषात् । निरास्रवचित्तोत्पादात्पूर्व बुद्धचित्तं प्रति सन्तानान्तरचित्तस्याकारणत्वान्न तेषामव्यभिचारी कार्यकारणभावः इति चेत्; यता प्रभृति तेषां कार्यकारणभावस्तत्प्रभृतितस्तस्याव्यभिचारात्, अन्यथाऽस्याऽसर्वज्ञत्वं स्यात् । “नाकारणं विषयः” [ ] इत्यभ्युपगमात् ।
समाधान-यह कथन अयुक्त है, क्षणिक एकान्तवादी के यहां यह बात घटित नहीं होगी, कार्य के पूर्व होना मात्र उपादानत्व है तो विवक्षित एक क्षण के अनंतर संपूर्ण जगत के क्षणों की उत्पत्ति हो जायगी क्योंकि विवक्षित क्षण सामान्य उपादान रूप होनेसे सबको उत्पन्न कर सकेगा और सभी चेतन अचेतन कार्यों का एक संतापना सिद्ध होने का प्रसंग प्राप्त होगा।
नियम से कार्य में अन्वयव्यतिरेक का अनुविधान होना उपादान कारण है ऐसा चौथा लक्षण भी सुघटित नहीं होता, जिस कार्य में नियम से अन्वयव्यतिरेक हो वह उसका उपादान कारण मानें तो सुगता और इतर चित्तों में उपादान-उपादेय भाव बन बैठेगा, क्योंकि इनके चित्तों का अव्यवधान रूप से कार्य कारण भाव समान ही है अर्थात् हमारे ज्ञान के सद्भाव पर तो सुगत ज्ञान उस ज्ञान को विषय करके उत्पन्न होता है और उसके अभाव में उत्पन्न नहीं होता, इस तरह अन्वयव्यतिरेकत्व बन सकता है।
बौद्ध-निरास्रव चित्त की उत्पत्ति से पूर्व बुद्ध चित्त के प्रति अन्य संतान अकारण है अतः बुद्ध और इतर जनों के चित्ता में उपादान उपादेय भाव नहीं हो सकने से उनमें अव्यवधानपने से कार्य कारण भाव का अभाव ही है ।
जैन-अच्छा तो जबसे उनमें कार्य कारण बनेगा तब से ही सुगत के अव्यभिचारीपना सिद्ध होगा, अर्थात् जब सुगत ज्ञान हमारे ज्ञान को विषय करके उत्पन्न होगा तभी हमारा ज्ञान कारण और सुगत ज्ञान कार्य इस तरह कार्य कारणपना होगा, अन्यथा सुगत के असर्वज्ञपने का प्रसंग होगा, क्योंकि आपके यहां यह नियम है कि "नाकारणं विषयः" जो ज्ञान का कारण नहीं है वह उसका विषय भी नहीं है ऐसा माना है ।
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