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प्रमेय कमलमार्त्तण्डे
श्रव्यभिचारेण कार्यकारणभूतत्वाविशेषेपि प्रत्यासत्तिविशेषवशात्केषाञ्चिदेवोपादानोपादेयभावो न सर्वेषामिति चेत्; स कोन्योन्यत्रैकद्रव्यतादात्म्यात् ? देशप्रत्यासत्तेः रूपरसादिभिर्वातातपादिभिर्वा व्यभिचारात् । कालप्रत्यासत्तः एकसमयवर्तिभिरशेषार्थैरनेकान्तात् । भावप्रत्यासत्तेश्च एकार्थोद्भूतानेकपुरुष विज्ञानैरनेकान्तात् ।
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बौद्ध – प्रव्यभिचार रूप से कार्य कारण भाव समान होते हुए भी प्रत्यासत्ति विशेष के वश से किन्हीं किन्हीं में ही उपादान उपादेय भाव बन पाता है न कि सभी के साथ |
जैन - प्रच्छा तो यह बताईये कि वह प्रत्यासत्ति विशेष क्या है, एक द्रव्य में तादात्म्य रूप से रहना ही तो प्रत्यासत्ति विशेष कहलाती है ? क्योंकि यदि देश प्रत्यासत्ति में उपादान उपादेय भाव मानेंगे तो रूप रस या वायु प्रातप आदि के साथ व्यभिचार आता है क्योंकि इनमें देश प्रत्यासत्ति [ देश संबंधी अति निकटता ] होते हुए भी परस्पर में उपादान - उपादेयत्व नहीं पाया जाता है । काल प्रत्यासत्ति में उपादान उपादेय भाव मानेंगे तो एक समय होने वाले जितने भी पदार्थ हैं उनमें परस्पर में उपादान- उपादेय भाव आयेगा किन्तु है नहीं अतः व्यभिचार दोष होता है । भाव प्रत्यासत्ति भी उपादान उपादेय भाव की नियामिका नहीं होवेगी, क्योंकि एक ही पदार्थ से उत्पन्न हुए अनेक पुरुषों के अनेकों ज्ञानों के साथ व्यभिचार होता है, अर्थात् भाव स्वरूप की निकटता - समानता होना भाव प्रत्यासत्ति है और यह जिनमें हो उनमें उपादान - उपादेय भाव होता है ऐसा कहे तो एक ही घट आदि विषय से अनेक पुरुषों के अनेक ज्ञान हुआ करते हैं, एक ही वस्तु को अनकों व्यक्तियों के ज्ञान विषय किया करते हैं, उन ज्ञानों में समान स्वरूप समानाकार वाली भाव प्रत्यासत्ति तो है किन्तु उन ज्ञानों का परस्पर में उपादान - उपादेय भाव तो नहीं है फिर किस तरह भाव प्रत्यासत्ति भी कार्य कारण भाव रूप उपादान - उपादेय की नियामिका हुई, अर्थात् नहीं हुई । इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चारों प्रकार की प्रत्यासत्तियां कार्य कारण भाव को सिद्ध नहीं कर सकती हैं ऐसा निश्चित हुआ । तथा —
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