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प्रमेयकमलमार्तण्डे नाप्यस्य निरन्वया सन्तानोच्छित्तिः, चरमक्षणस्याकिञ्चित्करत्वेनावस्तुत्वापत्तितः पूर्वपूर्वक्षरणानामप्यवस्तुत्वापत्तेः सकलसन्तानाभावप्रसङ्गः। विद्युदादे: सजातीयकार्याकरणे पि योगिज्ञानस्य करणान्नावस्तुत्वमिति चेत्, न; आस्वाद्यमानरससमानकालरूपोपादानस्य रूपाकरणेपि रससहकारित्वप्रसङ्गात् । ततो रसाद्रूपानुमानं न स्यात् । 'तथा दृष्टत्वान्न दोषः' इत्यन्यत्रापि समानम्, विधुच्छब्दादेर पि विधुच्छब्दाद्यन्तरोपलम्भात् ।
न चैकत्र सत्त्वक्षणिकत्वयोः सहभावोपलम्भात्सर्वत्र ततस्तदनुमानं युक्तम् ; अन्यथा सुवर्णे सत्वादेव शुक्लतानुमितिप्रसङ्गः, शुक्ले शङ्ख शुक्लतया तत्सहभावोपलम्भात् । अथ सुवर्णाकारनिर्भासि
___ आत्मा का निरन्वय संतति उच्छेद होना भी नहीं मानना चाहिये, यदि मानेंगे तो उसका जो चरम क्षण है वह अकिंचित्कर ठहरता है क्योंकि उसने' अग्रिम क्षण को उत्पन्न नहीं किया है, जब वह अकिंचित्कर है तो अवस्तु ही कहलाया, और अवस्तु रूप है तो जितने भी पूर्व पूर्ववर्ती चित्तक्षण हैं वे सब अवस्तु रूप बन जायेंगे । फिर तो सकल संतान ही शून्य-प्रभाव रूप हो जायेंगे।
शंका-विद्युत प्रादि पदार्थ सजातीय कार्य [ अन्य विद्युत क्षण ] को भले ही नहीं करे किन्तु योगी के ज्ञान को तो करते ही हैं, अतः वे अवस्तु नहीं कहलाते हैं।
समाधान-ऐसा नहीं कहना, सजातीय कार्य नहीं करने वाले को भी कारण माना जाय तो प्रास्वादन में पाया हुआ जो रस है उसके समान काल में होने वाला रूप उत्तरकालीन रूप क्षण को उत्पन्न नहीं करता है तो भी उसे रस का सहकारी कारण मानना होगा ? फिर रस से रूप का अनुमान होना अशक्य है। कोई कहे कि रस हेतु से रूप का अनुमान होता हुया साक्षात् उपलब्ध है अतः उसको मानने में कोई दोष नहीं है । सो यह बात अन्यत्र भी है, विद्युत, शब्द आदि पदार्थ से अन्य विद्युत शब्दांतर होते हुए उपलब्ध हैं।
बौद्ध ने कहा कि विद्युत प्रादि में सत्व-अस्तित्व और क्षणिकत्व एक साथ एकत्र देखा जाता है अतः घट आदि में सत्व को देखकर क्षणिकत्व को भी उसी में सिद्ध करते हैं । किन्तु एक किसी जगह इनका सहभाव देखकर सब जगह वैसा ही अनुमान लगाना युक्त नहीं है, अन्यथा सुवर्ण में सत्व को देखकर शुक्लता का
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