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क्षणभंगवादः
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च परलोकाय दत्तो जलाञ्जलिः । कतिपय विशेषाधायकत्वेनोपादानत्वे च एकस्यैव ज्ञानादिक्षणस्यानुवृत्तव्यावृत्ताऽनेकविरुद्धधर्माध्यासप्रसङ्गात् स एव परमतप्रसङ्गः । द्वितीयविकल्पे तु कथं निर्विकल्पकाद्विकल्पोत्पत्ति: रूपाकारात्समनन्तरप्रत्ययाद्रसाकारप्रत्ययोत्पत्तिर्वा, स्वगतसकलविशेषाधायकत्वाभावात् ? सन्तानबहुत्वोपगमात्सर्वस्य स्वसदृशादेवोत्पत्तिरित्यभ्युपगमे तु एकस्मिन्नपि पुरुषे प्रमातृवहुत्वापत्तिः । तथा च गवाश्वादिदर्शनयोभिन्नसन्तानत्वादेकेन दृष्टेर्थे परस्यानुसन्धानं न स्याद्देवदत्तेन दृष्टे यज्ञदत्तवत् ।
तो इसमें भी है अर्थात् नील पीतादि पदार्थ रूपज्ञान के प्रति उपादान होते समय अपना आकार उसमें अर्पित करते हैं-उसमें विशेषता डालते हैं । इस तरह अचेतन स्वरूप पीतादि वर्ण चेतन स्वरूप ज्ञान का उपादान कारण बनना स्वीकार करने पर तो परलोक के लिये जलांजलि देनी पड़ेगी। क्योंकि अचेतन रूप से चेतनवस्तु उत्पन्न होती है ऐसा बौद्ध ने मान लिया जैसे चार्वाक मानते हैं। स्वगत कतिपय विशेष का ही मात्र विधायक होना उपादान कारण है अर्थात् पीत नील आदि वर्ण अपने वर्ण को ही रूप ज्ञान में डालते हैं जडत्व को नहीं डालते हैं ऐसा मानते हैं तो एक ही ज्ञानादि क्षण के अनुवृत्त व्यावृत्त रूप अनेक विरुद्ध धर्म मानने पड़ेंगे सो इस मान्यता में वही पूर्वोक्त परमत प्रवेश का प्रसंग प्राता है, क्योंकि जैन ही एक वस्तु में अनेक विरुद्ध धर्म रहना स्वीकार करते हैं। अपने में होने वाली सकल विशेषता को कार्य में जोड़ देना उपादान कारण है ऐसा दूसरा पक्ष कहे तो निर्विकल्प ज्ञान से सविकल्प ज्ञान की उत्पत्ति होना, तथा रूपाकार समनंतर प्रत्यय से रसाकार ज्ञान की उत्पत्ति होना कैसे संभव होगा ? क्योंकि इनमें स्वगत सकल विशेषाधायकपना तो है नहीं, अर्थात् निविकल्प ज्ञान रूप उपादान से सविकल्प ज्ञान उत्पन्न हुआ उस सविकल्प में निर्विकल्प ज्ञान ने स्वगत विशेषता कहां डाली है ? यदि डाली होती तो वह निर्विकल्प कहलाता। इसी तरह रूप के आकार वाला ज्ञान रसाकार ज्ञान का कारण बनता है ऐसा आप स्वयं मानते हैं सो उस रूप ज्ञान की स्वगत विशेषता रसाकार ज्ञान में क्यों नहीं है ?
बौद्ध - बहत सी ज्ञान संतानें स्वीकार की गयी हैं, अतः अपने सदृश उपादान से सदृश ही ज्ञान उत्पन्न होता है, सभी ज्ञानों की उत्पत्ति इसी तरह होती है।
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