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क्षणभंगवाद:
७६ ततो निराकृतमेतत्-'पूर्वोत्तरक्षणयोरग्रहणे कथं तत्र स्थास्नुताप्रतीति:' इति ; प्रात्मना तयोर्ग्रहणसम्भवात् । भवतां तु तयोरप्रतीती कथं मध्यक्षणस्य तत्राऽस्थास्नुताप्रतीतिरिति चिन्त्यताम् ? पूर्वदर्शनाहितसंस्कारस्य मध्यक्षणदर्शनात्तत्क्षणस्मृतिस्तस्याश्च ‘स इह नास्ति' इत्यस्थास्नुतावगमे स्थास्नुतावगमोप्येवं किन्न स्यात् ?
___ ननु चास्थास्नुता पूर्वोत्तरयोर्मध्येऽभावः तस्य वा तत्र, स च तदात्मकत्वात्तद्ग्रहणेनैव गृह्यते; तदप्यसारम् ; तदप्रतीतौ तत्रास्य अत्र वा तयोनिषेधस्याप्यसम्भवात् । न ह्यप्रतिपन्नघटस्य
आत्मा द्वारा होता है । आपके प्रति भी प्रश्न होता है कि पूर्व और उत्तर क्षणों की प्रतीति क्षणिक बुद्धि द्वारा तो होती नहीं, फिर मध्य क्षण की उन दोनों क्षणों में अस्थास्नुता क्षणिकता की प्रतीति किस प्रकार होवेगी यह आपको विचारणीय है। .
बौद्ध - पूर्व क्षण के प्रत्यक्ष से उत्पन्न हुए जो संस्कार हैं उसके मध्य क्षण के दर्शन से उस क्षण की स्मृति हो जाती है और उस स्मृति के कारण "वह [क्षण ] यहां पर नहीं है। इस प्रकार की अस्थास्नुता-क्षणिकता की प्रतीति हो जाती है ।
जैन -तो फिर ऐसे ही स्थास्नुता. स्थिति या ध्रौव्य की भी प्रतीति होवे उसको क्यों नहीं माने ? स्थिति के विषय में भी यही बात है कि पूर्व क्षण के प्रत्यक्ष होने से संस्कार हुए और उसका मध्य क्षण में दर्शन हुआ उससे उस क्षण की स्मृति हो पायी पुनः स्मृति से वह स्थिति यहां द्रव्यरूप से मौजूद है ऐसा ज्ञान होता ही है ।
बौद्ध - पूर्व और उत्तर क्षणों का मध्य में नहीं होना अस्थास्नुता या क्षणिकत्व कहलाता है, अथवा मध्य का वहां नहीं होना क्षणिकत्व है, ऐसा जो यह क्षणिकत्व है वह पूर्वोत्तर क्षणों का अभाव रूप होने से उसके साथ ही ग्रहण में आ जाता है, अर्थात् पूर्वोत्तर क्षण का अभाव ही मध्य क्षरण है अतः पूर्वोत्तर क्षणों के ग्रहण होने पर मध्य क्षण का अभाव ग्रहण में आ जाता है ।
जैन- यह कथन असार है, मध्य क्षण यदि प्रतीत नहीं होता है तो पूर्वोत्तर क्षणों में उसका निषेध करना अथवा पूर्वोत्तर क्षणों का मध्य क्षण में निषेध करना असंभव है । इसी को बताते हैं-जिसने घट को जाना नहीं है उसके “यहां घट नहीं है' इस प्रकार की प्रतीति होना असंभव है, ऐसे मध्य क्षण की प्रतीति बिना उसका निषेध होना अशक्य है। दूसरी बात यह भी है कि जैसे क्षणिकत्व की
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