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प्रमेयकमलमार्तण्डे
अथ घट एव मुद्गरादिकं विनाशकारणत्वेन प्रसिद्धमपेक्ष्य समानक्षणान्तरोत्पादनेऽसमर्थ क्षणान्तरमुत्पादयति, तदप्यपेक्ष्य अपरमसमर्थतरम्, तदप्युत्तरमसमर्थतमम्, यावद्घटसन्ततेनिवृत्तिरित्युच्यते ; ननु चात्रापि घटक्षणस्यासमर्थक्षणान्तरोत्पादकत्वेनाभ्युपगतस्य मुद्गरादिना कश्चित्सामर्थ्य विघातो विधीयते वा, न वा ? प्रथमविकल्पे कथमभावस्याहेतुकत्वम् ? द्वितीय विकल्पे तु
जैन-यह कथन गलत है, यदि लाठी द्वारा घट का नाश नहीं होता है तो घटादि का स्वरूप लाठी के चोट के बाद भी जैसा का तैसा बना रहेगा, फिर उसकी पहले के समान उपलब्धि होना, जल भरने में काम आना इत्यादि क्यों नहीं होते हैं ? होने चाहिये।
बौद्ध-लाठी आदि के सन्निधि में स्वयं ही घटादि का अभाव हो जाता है, अतः वह उपलब्ध नहीं हो पाता है।
जैन-यदि ऐसा कहेंगे तो घट का प्रभाव भी जब लाठी का व्यापार होता है तब उपलब्ध होता है और लाठी का व्यापार नहीं होने पर नहीं होता है इस तरह घटाभाव का कपाल के समान ही लाठी व्यापार के साथ अन्वय व्यतिरेक होने से उसका कार्य कहलाने लगेगा, अर्थात् जैसे कपाल की उत्पत्ति लाठी व्यापार के साथ अन्वय व्यतिरेक रखने से लाठी व्यापार का कार्य माना जाता है वैसे ही घट का अभाव भी लाठी व्यापार के साथ अन्वय व्यतिरेक रखता है अतः उसका कार्य माना जायगा। [ फिर अभाव निर्हेतुक ही होता है ऐसा बौद्ध सिद्धांत गलत ठहरता है ]
बौद्ध-घट विनाश के उत्पत्ति की प्रक्रिया इस प्रकार है- लाठी आदि लोक व्यवहार में घटादि के विनाश के कारण रूप से प्रसिद्ध है उसकी सहायता मात्र लेकर घट स्वयं ही नाश का कारण बनता है, प्रथम घट क्षण जो कि मिट्टी चक्र आदि से उत्पन्न हुअा है, वह समान क्षणान्तर को उत्पन्न करने में असमर्थ ऐसा दूसरा घट क्षण [ घट ] उत्पन्न करता है, पुनः वह द्वितीय घट क्षण भी उसकी [ लाठी आदि की ] अपेक्षा लेकर तीसरा असमर्थतर घट क्षण उत्पन्न करता है, फिर तीसरा भी चतुर्थ असमर्थतम घट क्षण को उत्पन्न करता है, यह कार्य तब तक चलता है जब तक कि घट संतति की निवृत्ति नहीं होती है । अभिप्राय यह है कि घट क्षण से आगे आगे
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