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प्रमेयकमलमार्तण्डे
स्वगतबालवृद्धाद्यवस्थानामतीतानागतजन्मपरम्परायाः सकलभावपर्यायाणां चैकदैवोपलम्भप्रसङ्गः; ज्ञानसहायस्यवार्थग्राहकत्वाभ्युपगमात्, तस्य च प्रतिबन्धकक्षयोपशमाऽनतिक्रमेण प्रादुर्भावानोक्तदोषानुषङ्गः ।
न च द्रव्यग्रहणेऽतीताद्यवस्थानां ततोऽभिन्नत्वाद्ग्रहणप्रसङ्गः, अभिन्नत्वस्य ग्रहणं प्रत्यनङ्गत्वात्, अन्यथा ज्ञानादिक्षणानुभवे सच्चेतनादिवत् क्षणक्षयस्वर्गप्रापणशक्त्याद्यनुभवानुषङ्गः । तस्माद्यत्रैवास्य ज्ञानपर्यायप्रतिबन्धापायस्तत्रैव ग्राहकत्वनियमो नान्यत्रेत्यनवद्यम्-'प्रात्मा प्रत्यक्षसहायोऽनन्तरातीतानागतपर्याययोरेकत्वं प्रतिपद्यते' इति, स्मरणप्रत्यभिज्ञानसहायश्चातिव्यवहितपर्यायेष्वपि । तयोश्च प्रामाण्यं प्रागेव प्रसाधितम् ।
का ग्राहक माना जाता है तो स्वयं में होने वाली बाल वृद्ध आदि अवस्थायें और अतीतानागत जन्मों को बड़ी भारी परंपरा की सकल भाव पर्यायों का एक ही समय में उपलंभ हो जाने का प्रसंग पाता है । सो ऐसी बात नहीं है, आत्मा अकेला ग्राहक नहीं होता किन्तु ज्ञान की सहायता लेकर अर्थ ग्राहक होता है ऐसा माना गया है, तथा ज्ञान की उत्पत्ति भी प्रतिबंधक कर्म [ ज्ञानावरण ] के क्षयोपशम का अतिक्रम बिना किये होती है अर्थात् जितना क्षयोपशम होता है उतनी ही भाव पर्यायों को ज्ञान जान सकता है अधिक को नहीं, अतः बाल वृद्धादि अवस्थायें अथवा समस्त जन्म परंपरा को एक समय में ही जानने का प्रसंग नहीं आता है।
यह बात भी ध्यान देने की है कि द्रव्य के ग्रहण होने से अतीतानागत सर्व ही अवस्थायें द्रव्य से अभिन्न होने के कारण ग्रहण हो जानी चाहिये सो बात नहीं है, क्योंकि जो अभिन्न हो वह एक के ग्रहण से उसके साथ ग्रहण हो ही जाय ऐसी बात नहीं है, यदि ऐसा मानेंगे तो ज्ञान आदि का अनुभव करते समय जैसे चैतन्य का अनुभव होता है वैसे उसी चैतन्य में अभिन्न रूप रहने वाला क्षणक्षयीपना, स्वर्गप्रापणशक्ति इत्यादि का अनुभव होना चाहिये। क्योंकि अभिन्न एक के ग्रहण में अन्य अभिन्नांशका ग्रहण होता ही है ऐसा कहा है । इस आपत्ति को दूर करने के लिये जहां पर-जिस विषय में आत्मा के प्रतिबंधक कर्म का अपाय हुआ है मात्र उसी विषय में प्रात्मा ग्राहक बनता है अन्य विषय में नहीं, इसप्रकार ग्राहकत्व का नियम स्वीकार करना चाहिये । अतः यह सिद्ध हुआ कि प्रत्यक्ष की सहायता लेकर यह आत्मा अनंतरवर्ती अतीतानागत पर्यायों के एकत्व को जानता है, और वही आत्मा प्रत्यभि
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