Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
आया यह भी एक जटिल प्रश्न रहेगा। यज्ञोपवीत धारणा, वेदाध्ययन करना, इत्यादि हेतु भी ब्राह्मणत्व को सिद्ध करने में समर्थ नहीं है। क्योंकि यह सबके सब शूद्र में भी पाये जा सकते हैं। इन सब बातों से स्पष्ट है कि ब्राह्मणत्व जाति एक अखंड नित्य आकाश की तरह नहीं है अपितु सदृश परिणाम रूप सामान्य है वह सामान्य यहां पर सदृश क्रिया, प्राचारादि से प्रत्येक ब्राह्मण व्यक्ति में भिन्न ही है।
विशेषः-प्रभाचन्द्राचार्य ने ब्राह्मणत्व जाति का जो निरसन किया है वह एक व्यापक नित्य अाकाश की तरह की जाति नैयायिकों ने मानी है उसी का किया है न कि वर्णादि व्यवस्था करने वाली इस शुद्ध ब्राह्मणत्वादि जातियों का । कोई भी मत का खण्डन इसलिये होता है कि उसमें एकान्त हटाग्रह रहता है अतः एक बार तो प्राचार्य सर्व शक्ति लगाकर उस एकांत का निरसन ही कर देते हैं। इस बात को पुष्ट करने के लिये अनेक दृष्टांत दे सकते हैं, देखिये बौद्ध के साकार ज्ञानवाद का प्राचार्य निरसन करते हैं किन्तु जैन ही ज्ञान को साकार, साकारोपयोग इन नाम से कहते हैं फिर बौद्ध के साकारवाद का खण्डन तो केवल तदुत्पत्ति, तदाकार, तदध्यवसाय रूप हटाग्रह एकांत के निरसन के लिये करते हैं। अर्थात् बौद्ध लोग ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न होता है ऐसा मानते हैं वह पदार्थ से उत्पन्न होता है अतः उसके आकार वाला बनता है एवं उसी पदार्थ को जानता है इस प्रकार के पदार्थ से उत्पन्न होने वाले साकार ज्ञान का जैन ने खण्डन किया है न कि यह घट है यह पट है इत्यादि आकार वाले ज्ञान का। निष्कर्ष यही हुमा कि जहां पर एकांत है वहां पर वह बात किसी अपेक्षा से सत्य होते हुए भी दूषित ही हो जाती है तभी तो ऋजुसूत्र नय का विषय क्षणिक होते हए भी निरपेक्ष क्षणिक मानने वाले बौद्ध का खण्डन हो जाता है, संग्रह नय से सभी सत् रूप होते हुए भी सर्वथा सत् मानने वाले ब्रह्माद्वैतादि अद्वैतवादी का खण्डन हो जाया करता है । इसी प्रकार यहां पर प्रभाचन्द्राचार्य ब्राह्मणत्व जाति का खण्डन करते हैं वह नित्य व्यापी जाति का ही करते हैं। यहां प्रकरण भी सामान्य का है। जैन सामान्य विशेष दोनों को ही वस्तु का निजी धर्म मानते हैं। वस्तु स्वतः सामान्य विशेषात्मक हो होती है किन्तु नैयायिक सामान्य को बिलकुल पृथक एक पदार्थ मानता है और विशेष को भी बिलकुल वस्तु से पृथक् ही मान कर पुनः उन सभी का पदार्थ में समवाय होना बताता है बस इसी सामान्य का खण्डन करते समय उसीका एक भेद स्वरूप ब्राह्मणत्व सामान्य का निरसन कर दिया है न कि यह योनि विशेष से
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