Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे . हेतुश्चानकान्तिकः; सत्ताकाश कालपदे अद्वतादिपदे वा व्यक्तिव्यतिरिक्तैकनिमित्ताभिधेयसम्बद्धत्वाभावेपि पदत्वस्य भावात् । तत्रापि तत्सम्बद्धत्वकल्पनायाम् सामान्यवत्त्वेनाद्वेताश्वविषाणादेर्वस्तुभूतत्वानुषङ्गात् कुतोऽप्रतिपक्षा पक्षसिद्धिः स्यात् ? सत्तायाश्च सामान्यवत्त्वप्रसंगः, गगनादीनां चैकव्यक्तिकत्वात्कथं सामान्यसम्भव : ? दृष्टान्तश्च साध्य विकलः; पटादिपदे व्यक्तिव्यतिरिक्तकनिमित्तत्वासिद्धः।
व्यक्तियों से भिन्न तो इसलिये है कि वह भिन्न ज्ञान का कारण है, और अभिन्न इसलिये है कि व्यक्तियों से उसको पृथक् नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार "ब्राह्मण यह पद है" ऐसा पक्ष प्रत्यक्ष बाधित प्रादि दोष युक्त ठहरता है।
उपर्युक्त अनुमान का पदत्व नामा हेतु भी अनेकान्तिक है, सत्ता, आकाश काल इत्यादि पद में अथवा अद्वैत इत्यादि पद में, व्यक्ति से पृथक्भूत एक निमित्त रूप वाच्य से सम्बद्धपना नहीं है तो भी पदत्व नामा हेतु रहता है, सत्ता, अद्वैत आदि पदों में भी व्यक्ति व्यतिरिक्त एक निमित्त इत्यादि साध्य रहता है अर्थात् इनमें भी सामान्य है ऐसा कहा जाय तो अद्वैत आदि भी सामान्यवान होने से इन अद्वैत, अश्व के सींग आदि को भी वास्तविक मानना होगा। इस तरह ब्राह्मण पद को जो पक्ष बनाया था वह निर्दोष रूप किस प्रकार सिद्ध होगा ? अर्थात् पद को व्यक्ति से पथक जो सामान्य है उसका वाच्य माने तो अश्वविषाण आदि में सामान्य मानना होगा और इस तरह वह वस्तुभूत बन जायगा। तथा सत्ता में सामान्य स्वीकार करने का प्रसंग भी आता है । आकाश भी आपके मत से एक व्यक्ति स्वरूप है अतः उसमें सामान्य का रहना कैसे संभव होगा ? क्योंकि सामान्य अनेक में रहता है ऐसा आपका सिद्धान्त है । पटादिपदवत् दृष्टान्त साध्य से रहित भी है, क्योंकि पट:, घट: इत्यादि पदों में पट आदि व्यक्तियों को छोड़कर अन्य कोई नित्य एक रूप कारण अभिधेय सिद्ध नहीं है ।
भावार्थ-नैयायिक, मीमांसकादि ब्राह्मण जाति को नित्य एक सिद्ध करते हैं उनका अनुमान वाक्य यह है कि "ब्राह्मणपदं व्यक्ति व्यतिरिक्तक निमित्ताभिधेय सम्बद्धं पदत्वात् पटादिपदवत्" सो इस अनुमान को सदोष सिद्ध करते हुए प्रथम तो पक्ष प्रत्यक्ष प्रमाण बाधित एवं अप्रसिद्ध विशेषण वाला सिद्ध किया, फिर हेतु को अनैकांतिक दोष से दूषित किया है, 'विपक्षेप्यविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः” जो हेतु विपक्ष में भी अविरुद्ध भाव से रहता हो वह अनैकान्तिक कहलाता है, सो यहां पर पदत्व नामा हेतु
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