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प्रस्तावना उक्त पद्योंमेसे प्रथम पद्यमे वीर भगवानको दूसरेमे गणधरों और श्रुतकेवलियोंका और तीसरेमे श्रुतमयदेवी जिनवाणीको नमस्कार किया गया है ।
अव सित्तरीके मङ्गलपद्योंको देखिए--
सिद्धिविबधणबंधुदय-संतखवणविहिदेसिनो सिद्धो । भगव भब्वजणगुरू विक्खायजसो जयइ वीरो ॥१॥ एक्कारस वि गणहरा सन्वे वइगोयरस्स पारगया।
सव्वसुयाणं पभवा सुयकेवलिणो जयंति सया ॥२॥ उक्त पद्योंमेसे प्रथम पद्यमे वीर भगवान्को और दूसरे पद्यमे गणधर और श्रुतकेवलियोंको नमस्कार किया गया है । यद्यपि यहाँ पर श्रुतदेवीको पृथक् स्मरण नहीं किया, तथापि 'सव्वसुयाणं पभवा' पदके द्वारा प्रकारान्तरसे श्रुतदेवीका स्मरण कर ही लिया गया है।
दोनों मंगलपद्योंमें रेखाङ्कित-पद्य तो एकसे हैं ही, कितु अन्य भी विशेषणपदोंमे अर्थकी दृष्टिसे साम्य है, इस बातको पाठक स्वयं ही अनुभव करेंगे।
अव कम्मपयडी के मगल पद्यको दृष्टिगोचर कीजिये
जयइ जगहितदमवितहममियगभीरत्थमणुपमं णिउणं । जिणवयणमजियममियं सव्वजणसुहावहं जयइ ॥१॥
यद्यपि इस पद्यमें प्रकटरूपसे जिन-प्रवचन अर्थात् जिनवाणीका जयनाद किया गया है तथापि, 'जिन-वचन' के लिए जिन विशेषणों का प्रयोग किया गया है, वे उपयुक्त दोनो चूणियों के मगल-पद्योंमे वीर जिन और गणधरोंके लिए प्रयुक्त पदोंका आशय रखते हैं, और इस प्रकार अप्रेकटरूपसे इस एक ही पद्य द्वारा जिन-वचनके साथ ही उन प्रवचनोंके जन्मदाता वीर भगवान्का और व्याख्याता गणधर और श्रुतकेवलियोंका भी स्मरण किया गया है, ऐसा समझना चाहिए।
(२)अब उक्त तीनों चूर्णियोंके ग्रन्थावतार करने वाले उत्थानिका वाक्योंको देखिए । सतकचूर्णिमें ग्रन्थावतार इस प्रकार किया गया है
"सम्मदंसणणाणचरणतवमएहि सत्थेहि अट्ठविहकम्मगंठिं जाइ-जरा-मरणरोगअन्नाणदुक्खबीयभूयं छिदित्ता अजरममरमरुजमक्खयमव्याबाह परमणिबुइसुहं कह नाम भव्वसत्ता पावज ति आयपरहितेसीणं साहूणं पबित्ति । अत्रो अञ्जकालियाणं साहूणं दुस्समाणुभावेणं आयु पलमेहाकाणाइगुणेहि परिहीयमाणाण अणुग्गहत्थं आयरिएण कयं सयपरिमाणणिफन्नणामगं सतग ति पगरणं ।'
अब कम्मपयडीचूर्णिकी उत्थानिका देखिये
"सम्मदसणणाणचरित्तलक्खणेणं पंडियवीरिय-परिणामेणं परिणता परमकेवलाइसयजुत्ता अणंतपरिणति-णिव्वुइसुहसंपत्तिभागिणो कहं णु णाम भन्दजीवा होहित्ति एस अहिगारो आय-परहिएसीणं साहूणं तन्निस्सेयससाहण-विहाणपरे य