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माणिकचन्द्र- दिगम्बर जैनग्रन्थमालायाः एकविंशतितमो ग्रन्थः ।
नमः श्रीवीतरागाय |
सिद्धान्तसारादिसंग्रहः ।
(पञ्चविंशतिसंस्कृतप्राकृतग्रन्थानां गुच्छः । )
सम्पादकः संशोधकञ्च -- पं० पन्नालाल सोनी ।
प्रकाशिका—
मा० दि० जैनग्रन्थमाला-समितिः ।
प्रथमावृत्तिः । ]
MAJAA
पौष, वीर नि० २४४९ / विक्रमादः १९७९ ।
[ मूल्यं सारूप्यकम् ।
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ग्रन्थकर्त्ताओं का परिचय |
१ - श्रीजिनचन्द्राचार्य 1
नामके आचार्य
इस संग्रहके प्रथम प्रा 'र' के गृहकर्ता जिन है जैसा कि उक्त प्रन्थको ७८ वीं गाथासे और उसकी टीकासे भो मालूम होता हैं । प्रारंभ में ' जिनेन्द्राचार्य नाम संशोधकको भूलसे मुद्रित हो गया है ।
·
इस नाम के कई आचार्य और महारक हो गये हैं परन्तु ग्रन्थ में प्रशस्ति आदिका अभाव होनेके कारण निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि इसके कर्त्ता कौन हैं और इसकी रचना किस समय हुई है । आश्चर्य नहीं जो इसके कती भास्करमन्दिके गुरु के जिनचन्द्र दो जिनका कि उल्लेख श्रवणबेल्गुलके ५५ वें शिलालेख में किया गया है ।
महासकी ओरियण्टल लायब्रेरी में तस्वार्थको सुखबोधिका टीका (नं० ५१६५) की एक प्रति है, उसकी प्रशस्ति में लिखा है :
तस्यासीत्सु विशुद्रष्टष्टिविभवः सिद्धान्तपारंगतः शिष्यः श्री जिनचन्द्रनामकलितश्चारित्र यूडामणिः । शिष्यों भास्करनन्दिनामविबुधस्तस्याभवतश्ववित् तेनाकारि सुखादिबोधविषया तत्त्वार्थवृत्तिः स्फुटम् ॥ इससे मालूम होता है कि यह टीका भास्करनन्दिकी बनाई हुई है और उनके गुरु जिनचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रों के पारंगत थे ।
जिनचन्द नाम के एक और आचार्य हो गये हैं जो धर्मसंमदश्रावकाचार के कर्ता पं० मेघावीके गुरु थे और शुभचन्द्राचार्य के शिष्य थे । ये शुभचन्द्राचार्य पद्मनन्दि आचार्य के पट्टधर थे और पाण्डवपुराण आदि प्रन्थोंके फत्र्ता शुभच
से पहले हो गये हैं । पं० मेघावाने त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति प्रन्थकी दानप्रशस्ति में* उनका परिचय इस प्रकार दिया है:
* देखो पिटर्सनसाहमकी चौथी रिपोर्ट और जैनहितैषी भाग १५, अंक ३-४
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अथ धीमूलसंघेऽस्मिन्नन्दिसंघेऽनघेजनि । बलात्कारगणस्तत्र गच्छः सारस्वतस्त्वभूत् ॥ ११ ॥ तत्राजनि मायावादः सूरिजितमिलनः . दर्शनशानचारित्रतपोचार्यसमन्वितः ।।१२।। श्रीमान्बभूव मार्तण्डस्तत्पहरेदयभूधरे । पद्मनन्दी बुधानन्दी तमच्छेवी मुनिप्रभुः ॥१३॥ तत्पट्टाम्बुधिसचन्द्रः शुभचन्द्रः सतां वरः। पंचाक्षवनदावाग्निः कवायएमाधराशनिः ॥ १४॥ तदीयपट्टाम्बरभानुमाली क्षमादिनानागुणरत्नशाली ।
भट्टारकश्रीजिनचन्द्रनामा सैद्धान्तिकानां भुवि योस्ति सीमा १५ इससे मालूम होता है कि ये जिनचन्द् भी सैद्धान्तिक विद्वान् थे और इस लिए उक्त सिद्धान्तसारका इनके द्वारा भी निर्मित होना सब प्रकारसे संभव है।
पं० मेधावीकी उक्त प्रशस्ति वि० संवत् १५११ में लिखी गई थी और उस समय जिनचन्द्र भट्टारक मौजूद थे, अतएव सिद्धान्तसारका रचनाकाल भी इसीके लगभग माना जा सकता है। सिद्धान्तसारके संस्कृसटीकाकार ज्ञानभूषणका समय जैसा कि आगे निश्चय किया गया है—वि० संवत् १५३४ से १५६१ तक आता है, अतएव उनके द्वारा इस प्रन्थकी टीका लिखा जाना सर्वथा सुसगत है। बल्कि इन दोनों की समयसमीपताको देखकर यह खयाल होता है कि भ० शानभूषणको अवश्य ही अपने कुछ ही पहलेके-प्रायः समकालीन----इन्हीं जिनचन्द्रके अन्यकी दीका लिखनेका उस्साह हुआ होगा और इससे हमारे खयालमें भास्करनन्दिके गुरु जिनचन्दकी अपेक्षा पं० मेघावीके गुरु जिनचन्द्रकी सिद्धान्तसारके कर्ती होनेके विषयमें विशेष संभावना है । __इस सिद्धान्तसारकी एक कनली टीका भी है जो प्रभाचन्द्रकी बनाई हुई है
और आराके सरस्वती भवनमें मौजूद है । यह कबकी बनी हुई है, यह नही मालूम हो सका।
२,३-भ० श्रीज्ञानभूषण और शुभचंद्र । इस संग्रहमें भधारक शानभूषणकृत सिद्धान्तसार-भाष्य और भ. शुभब्रकृत अंगपण्यति या अङ्गाप्रज्ञप्ति नामक ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं, और पिछले
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ग्रंथके का भ० शुभचंद्र ज्ञानभूषण के प्रशिष्य थे, अतएव इन दोनोंका परिचय पाठकों को एक साथ कराया जाता है।
सिद्धान्तसारके माध्यमें यश्चपि भाष्यकारने अपना कोई स्पष्ट परिचय नहीं दिया है और न उसमें कोई प्रशस्ति ही है; परंतु मंगलाचरणके नीचे लिखे लोकसे मालूम होता है कि वह भ० ज्ञानभूषणमा ही बनाया हुआ है:
श्रीसर्वज्ञ प्रणम्यादी लक्ष्मीवीरेन्दुसेवितम् ।
भाष्यं सिद्धान्तसारस्य वक्ष्ये शानभूषणम् ॥ __इसमें सर्वज्ञको जो शानभूषण विशेषण दिया है, वह निश्चय ही भाष्यकाका नाम हैं। और भी कई प्रन्थकाओंने मंगलाचरणों में इसी तरह अपने नाम प्रकट किये हैं* | __ उक्त मंगलाचरण 'लक्ष्मीपीपुलैबितम्' ५६से यह भी मालूम होता है कि लक्ष्मीचन्द्र और वीरचन्द्र नामके उनके (ज्ञानभूपणके ) कोई शिष्य या प्रशिध्यादि होंगे जिनके पढ़नेके लिए उस भाध्य बनाया गया होगा। ज्ञानभूषणके प्रविष्य शुभचन्द्राचार्यकी बनाई हुई स्वामिकार्तिकेयानुपेक्षा-टीकाकी प्रशस्तिके १०-११वें श्लोकमें जो कि धागे उद्धृत की गई है-इन लक्ष्मीचन्द्र और कीरचदका उल्लेख है और उस उल्लेखसे हम कह सकते हैं कि भाष्यके मंगलाचरणका 'लक्ष्मीवीरेन्दुसे वितम्' पद उन्हीको लक्ष्य करके लिस्ना गया है ।
भट्टारक ज्ञानभूषण मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके आचार्य थे । उनकी गुरुपरम्पराका प्रारंभ भ. पद्मनन्दिसे होता है। पमनन्दिसे पहलेकी परंपराका अभी तक ठीक ठीक पता नहीं लगा है। १ पद्मनन्दि--२ सकलकीर्ति-३ भुवनकीर्ति और ४ शानभूषण। यह शानभूषणको गुरुपरंपराका कम है।
ज्ञानभूषणके बाद ५ विजयकीर्ति और फिर उनके शिष्य ६ शुभचन्द्र हुए हैं और इस तरह शुभचन्द्र ज्ञानभूषण के प्रशिष्य है। यहाँ यह कहनेकी भाष. श्यकता नहीं कि प्रत्येक भट्टारकके अनेकानेक शिष्य होते थे; परंतु उपयुक्त ___ * यथा सोमदेवकृत नीतिवाक्यामृत में-" सोमदेवं मुनि नत्वा नीतिवाक्यामृतं ब्रुवे । ” और अनन्तवीर्यको लघीयस्त्रयवृत्तिमें-" अनन्ववीर्यमानौमि स्याद्वादन्यायनायकम् " इत्यादि ।
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शिष्यकममें केवल उन्हीं का नाम दिया गया है, जो एकके बाद दूसरे भारकके पदके या गद्दीके अधिकारी होते गये है। उक्त विध्यकमको स्पष्ट करने के लिए हम आगे स्वामिकार्तिकेयानुप्रक्षा-टोकाको प्रशस्ति उदृत करते हैं:
श्रीमूलसंघजनि नन्दिसंघः घरी बलात्कारगणप्रसिद्धः । श्रीकुन्दकुन्दो घरसूरिवों विभाति भाभूषणभूषिताः॥ तदन्वये श्रीमुनिपद्मनन्दी ततोऽभवच्छीसकलादिकीर्तिः । तदन्वये श्रीभुवनादिकार्तिः श्रीज्ञानभूषो धरवृत्तिभूषः ॥३॥ तदन्वये श्रीविजयादिकीर्तिस्तस्पट्टधारी शुभचन्द्रदेवः।। तेनेयमाकारि विशुटीका श्रीमत्सुमत्यादिसुकीर्तितश्च ॥४॥ सूरिथीशुभमन्द्रेण नादिपर्वतवनिणा। त्रिविद्येनानुप्रेक्षाया वृत्तिविरचिता वरा ॥ ५॥ श्रीमद्विक्रमभूपतेः परिमिते वर्षे शते घोडशे, माधे मासि दशापयहिसाहिते ख्याते दशम्यां तिथौ । श्रीमच्छीमहिसारसारनगरे चैत्यालये श्रीगुरोः श्रीमच्छ्रीशुभचन्द्रदेवविहिता टीका सदा नंदतु ॥६॥ चर्णिधीक्षेमचन्द्रंण विनयेन कृतप्रार्थना (?)। शुभचन्द्रगुरो स्वामिन् कुरु टीकां मनोहरां ॥ ॥ तेन श्रीशुभचन्द्रण विद्येन गणशिना । कार्तिकेयानुप्रेक्षाया वृत्तिर्विरचिता वरा ॥ ८ ॥ तथा साधुसुमत्यादिकीर्तिना कृतप्रार्थना । सार्थीकता समर्थन शुभचन्द्रण सूरिणा ॥ ९ महारकपदाधीशा मूलसंधे विदां वराः। रमावीरेन्दुाचद्रूपगुरवो हि गणेशिनः ॥ १० लक्ष्मीचन्द्रगुरुस्वामी शिप्यस्तस्य सुधीयशाः ।
वृत्तिर्विस्तारिता नेन श्रीशुभेन्दुप्रसादतः ।। ११ इति श्रीस्वामिकार्तिकेयानुमेक्षायां त्रिविधविद्याधर-षड्भाषाकवि. चक्रवर्तिश्रीशुभचन्द्रविरचितायां टीकायां......... ॥* __ * देखो प्रो० पिटसनकी रिपोर्ट, सन् १८९४ की छपी हुई।
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आगे शुभचन्द्राचार्यकी शिष्यपरम्पराका क्रम इस प्रकार निश्चित होता है:७-सुमतिकीर्ति-८ गुणकीर्ति-१ चादिभूपण-१० रामकीर्ति-११ यशः कीर्ति और १२ पद्मनन्दि आदि । इनमें से वादिभूषण तककी परम्पराका उल्लेख अध्यारमतरंगिणीकी उस प्रतिके लिखनेदालेकी प्रशस्तिमै* मिलता है जो स्वगीय दानवीर सेठ माणिकचन्दजीके सरस्वतीभण्डार में मौजूद है और वादिभूषणके बादके भहारकों का उल्लेख बलात्कारगणकी गुवावलोमें है जो भ. नेमिचमकी बनाई हुई है और हमारे पास मौजूद है।
जैनसिद्धान्तभास्करकी प्रथम किरणमें (पृ. ४५-४६) प्रकाशित शुभचन्दको पट्टावलीसे भी यही क्रम निश्चित होता है ।
थीज्ञानभूषण मागबाड़े ( बागढ़) की गद्दीके भट्टारक पदपर आमीन ये । भास्करकी चौथी किरण (५. ४३-४५) में जो पट्टावली प्रकाशित हुई हैं उससे मालूम होता है कि “के गुजरातके रहनेवाले थे। गुजरातमें उन्होंने सागार. धर्म धारण किया, अहीर ( ? ) देशमें ग्यारह प्रतिमा धारण की और वाग्वर या बागढ़ देशमें दुर्धर महाग्रत ग्रहण किये । तौलव देशके यतियों में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा हुई, तैलंग देशके उत्तम उत्तम पुरुषोंने उनके चरणोंकी यन्दना को, इविड़ देशके विद्वानों ने उनका स्तमन किया, महाराष्ट्र देशमें उन्हें बहुन यश मिला, सौराष्ट्र देशके धनी धावकों ने उनके लिए महामहोत्सव किया, रायदेश के निवासियोंने उनके वचनों को अतिशय प्रमाण माना, मेदपाठ ( मेदाइ) के मूख लोगोको उन्होंने प्रतियोधित किया, मालवदेशके भन्य जनोंके हृदयकमलको विकसित किया, मेवात देशमें उनके अध्यात्मरहस्यपूर्ण व्याख्यानसे विविध विद्वान् श्रावक प्रसन्न हुए, कुरुजांगल देश के लोगोंका अज्ञान रोग दूर किया, तूरब (1) के षट्दर्शन और तकके जाननेवालों पर विजय प्राप्त किया, विराट् देशके
* "सेवत् १६५२ वर्षे ज्येष्ठद्वितीयकृष्णदशम्यो शुके मूलसंघे सरस्वतीगल्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दान्वये भ. श्रीपद्मनन्दि देवास्तपट्टे भ. सकलकीर्तिदेवास्तापहे म. भुवन कीर्तिदेवास्तपट्टे भ० ज्ञानभूषणदेवास्तत्प? म. श्रीविजयकीर्ति देवास्तत्प? भ. शुभचन्द देवास्तत्पट्टे भ. श्रीसुमतिकीर्तिदेवास्तपट्टे भ-धीगुणकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भ. श्रीवादिभूषणगुरुस्तच्छिष्य प. देवजी पठनार्थ ।"
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लागाँको उभय माग ( सागार अमगार ! ) दिखलाये, नमियाढ़ ( निमार !) देशमें जैनधर्मकी प्रभावना की, रग राटहडीबटी नागर चाल (?) आदि जनपदमि प्रतियोधके निमित्त विहार किया, भैरव नामक राजाने उनकी भक्ति को, इन्द्रराजाने चरभा पूजे, राजाधिराज देवराजने चरणोंकी आराधना की, जिनधर्मके आरामक भूदिलित, मा , योगासरा, मान, पाण्डुराय आदि राजाभोंने चरण पूजे और उन्होंने अनेक तीर्थोंकी यात्रायें की । ब्याकरण-छन्दअलंकार--साहित्य-तक-श्रागम-अध्यात्म आदि शास्त्ररूपी कमलोपर विहार करने के लिए वे राजहंस थे और शुद्ध यामामृतपानको उन्हें लालसा थो।" इस कवित्वपूर्ण वर्णनसे शानभूषण महारकी महत्ताका बहुत कुछ पता लगता है । इसमें सन्देह नहीं कि वे अपने समयके बहुत ही प्रसिद्ध, प्रनिणित और विद्वान् आवार्य थे।
भ० ज्ञान भूषण के सत्वज्ञानतरंगिणी और सिद्धान्तसार-भाष्य ये दो अंध मुद्रित हो चुके हैं । परमार्थोपदेश शीघ्र ही प्रकाशित होगा। इनके सिवाय नेमिनिवीपकाध्यकी पञ्जिकाटीका, पचास्तिकायीका, दशलक्षणोद्यापन, आदीवर-फाग, भकामरोयापन और सरस्वतीपूजा * इन अन्धोंका भी ज्ञान भूषणके नामसे उल्लेख मिलता है। संभव है कि इनमें अन्य किसी शानभूषणके ग्रंथ भी शामिल हो ।
* 'गोम्मटसाटीका' को भी कुछ लोगों ने ज्ञानभूषणकृत मान रक्खा है। परंतु यह भूल हैं । २६ अगस्त १९१५ के जैनमित्रमें इस टीकाकी जो प्रशस्ति प्रकाशित हुई हैं, उससे मालूम होता है कि इसके कती बे नेमिचन्द्र हैं जिन्होंने मानभूषणसे दीक्षा ली थी, भवारक प्रभाचन्द्र ने जिन्हें आचार्यपद पर बिठाया था, दक्षिण देशके सुप्रसिद्ध भाचार्य मुनिचन्द्र के पास जिन्होंने सिद्धान्त पड़े थे, विशालकीर्तने जिन्हें टीकारचनामें सहायता दी थी और जो लालान्त्रमचारीके
आप्रदश गुजरातसे आकर वित्रकूट (चित्तौर) में जिनदासशाहके बनाये हुए पाश्र्वनाथ-मन्दिरमें रहे थे। यह टीका वीरनिर्वाण संवत् २१४५ में समाप्त हुई है। गोम्मटसारके ऋत्तीक मतसे २१७७ में विक्रम संवत् (२१७७-६०५८ ५५७१+१३५) १७०७ पड़ता है, अतएव उक्त नेमिचन्दके मुरू ज्ञानभूषण भी कोई दूसरे ही ज्ञानभूषण हैं, जो सिक्षान्तसार भाष्य के कतासे मौ सवा सौ वर्ष बाद हुए है।
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सिद्धान्तमपर भाष्यको रचना किस समय हुई, यह जानने का कोई साधन नहीं है; परन्तु तत्त्वज्ञानतरंगिणी विक्रम संवत् १५६० में बनी है । यथा
यदैव विक्रमातीताः शतपञ्चदशाधिकाः ।
पष्ठिसंवत्सरा आत्तास्तदेयं निर्मिता कृतिः ॥ ५३ ।। जमसिद्धान्तभास्कर (किरण ४ पृ. १६) में उसके सम्पादक महाशयने लिखा है कि ज्ञानभूषण वि. से. १५७५ तक भट्टारक पद पर आसीन रहे हैं; परन्तु यह उन्होंने किस प्रमाणके अाधार पर लिखा है यह मालूम नहीं हो सका।
बीसनगर (गुजरात) के शान्तिनाथके श्वेताम्बर-मन्दिरकी एक दिगम्बर प्रतिमा पर इस प्रकारका ळेस ६:-"सं०१५५७ वर्षे माघचदि ५गुरौश्री मूलसंधे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्द कुन्दाचार्यान्वये भ० सकलकीर्तिस्तत्पट्टे भ० श्रीभुवनकीर्तिस्तपट्टे भ० श्रीशानभूषणस्तत्पाद भ० श्रीविजयकीर्तिगुरूपदेशात् हूंबडशातीय.........एते श्रीशातिनाथं नित्यं प्रणमन्ति ।" इसी तरह पेथापुरके श्वेताम्बर मन्दिरकी भी एक दिगम्बर प्रतिमाएर लेस है:-"सं० १५६१ चैत्रयदि ८ शुके मूलसंघ भ० शानभूषण भट्टारक श्रीविजयकीर्ति उपदेशात् तुम्बड़ कडुआ श्रीनेमिनाथयिस्वं ।"
इन दोनों लेखोंसे मालूम होता है कि वि० सं० १५५७ श्रीर १५६१ में ज्ञानभूषणजी भट्टारक पदार नहीं थे किन्तु उनके शिष्य विजयकीर्ति थे। इससे यह मामना भ्रम है कि वे वि० सं० १५५५ तक भट्टारक पदपर थे । धास्तपमें वे १५५७ के पहले ही इस पदको छोड़ चुके थे और इस लिए तत्वज्ञानतरंगिणीकी रचना उन्होंने उस समय की है जब भटारकपद विजयकीर्तिको मिल चुका था ।
पूर्वोक्त 'जैनधातुप्रतिमा-लेखसंग्रह' नामक प्रन्थमें विकम संवत् १५३४३५ और १५३६ के तीन प्रतिमालेसर और हैं जिनसे मालम होता है कि उक संक्तों में ज्ञानभूषण भतारक पदपर थे। अतएव उन्होंने १५५७ के पहले ही ___* देखो श्रीबुद्धिसागरसूरिसम्पादित 'जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह,' प्रथम भाग, पृष्ठ ८५ और १२३ ।
४ देखो नं. ६७२, १५०९ और ५६७ के लेख ।
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किसी समय यह पद छोय है । परन्तु यह निश्चय है कि महारक पद छोड़नेके बाद भी ये बहुत समयतक जीवित रहे हैं।
भट्टारक शुभचन्द्र भी बहुत बड़े विद्वान् हुए हैं । त्रिविधविद्याधर (शब्दागम, युक्त्यागम और परमागमके ज्ञाता ) और पदभाषाकविचक्रवती ये उनकी पदवियाँ थी । भास्करमें प्रकाशित पटावली में लिखा है कि वे "प्रमाणपरीक्षा, पन्नपरीक्षा, पुष्पपरीक्षा(3), परीक्षामुख, प्रमाणनिर्णय, न्यायमकरंद, न्यायकुमुदचन्द्रोदय न्यायविनिश्चय, श्लोकवार्तिक, राजवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तड, आप्तमीमांसा, अष्टसहनी, चिन्तामणिमीमांसाविवरण, वाचस्पतितत्वको मुदी आदि कर्कश सर्कग्रन्थोंके, जैनेन्द्र, शाकटायन, ऐन्द्र, पाणिनि, कलाप आदि व्याकरणप्रन्थोके, 'त्रलोस्यसार, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, सुविज्ञप्ति ( १ ), अध्यामाटसहखी (?) और छन्दोलंकार आदि शास्त्र समुद्रकि पारगामी थे। उन्होंने अनेक देशों में विहार किया था, अनेक नियार्थियोंका वे पालन करते थे, उनकी सभामें अनेक बिबन रहते थे, गौड, कलिंग, कर्णाट, तौलव, पूर्व, गुर्जर, मालप, आदि देशोंके वादियों को उन्होंने पराजित किया था और अपने तथा अन्य धर्मोंने ने म भार लाता थे।"
म० शुभचन्दजी के बनाये हुए अनेक ग्रन्थ हैं और प्रायः उन सभीको अन्तः प्रशस्तियों में उन्होंने अपनी गुरुपरम्पसका परिचय दिया है । स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाटीकाकी प्रशस्ति हम इसी लेख में पहले उद्धृत कर चुके हैं। पाण्डवपुरापकी प्रशस्ति भी हमारे पास है । परन्तु यहाँ इम उसके उतने ही अंशको प्रकाशित करते हैं जिसमें उनकी तमाम प्रन्यरचनाओंका उल्लेख है:
चन्द्रनाथचरितं चरितार्थ पद्मनाभचरितं शुभचन्द्र। मन्मथस्य महिमानमतन्द्रो जांधकस्य चरितं च चकार ॥ ७२ चन्दनायाः कथा येन दृन्धा नान्वीश्वरी तथा । आशाधरकृताचार्या(चोयाः वृत्तिः सवत्तिशालिनी ॥ ७३ त्रिंशचतुर्विंशतिपूजनं च सद्वत्तसिद्धार्चनमव्यधत्त ।
सारस्वतीयार्चनमत्र शुद्धं चिन्तामणीयार्चनमुचरिष्णुः || wa श्रीकर्मदाह विधिवन्धुरसिद्धसेवां नानागुणौघगणनाबसमनं च । श्रीपार्श्वनाथवरकाव्यमुपञ्जिकां च यः संचकार शुभचन्द्र यतीन्द्र
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उद्यापनमदीपिष्ट पल्योपमविधेश्च यः। चारित्रशुद्धितपसश्चतुस्त्रिद्वादशात्मनः ॥ ७६ संशयिषदनविदारणमपशब्दसुखण्डनं परं तर्क। सन्तस्वनिर्णयं वरस्वरूपसंबोधिनी वृस्तिम् ॥ ७७ अध्यात्मपत्ति सर्वार्थापूर्वसर्वतोभद्रम् । योऽकृतसयाकरणं चिन्तामणिनामधेयं च ॥ ७८ हत येनांगप्रज्ञप्तिः सर्चाद्वार्थानरूपिका । स्तोत्राणि च पवित्राणि षड्वादाः श्रीजिनेशिनां ।। ७९ तेन श्रीशुभचन्द्रदेवधिदुषा सत्पाण्डवानां परम् । पुष्यत्युण्यपुराणमत्र सुकरं चाकारि प्रीत्या महत् ॥ ८० श्रीमविक्रमभूपतोकहते स्पष्टाष्टसंख्ये शते रम्येऽष्टाधिकवत्सरे सुखकरे भाद्रे द्वितीयातिथौ । श्रीमताम्वरनिर्वृतीदमतुले श्रीशाकवाटे पुरे
श्रीमच्छीपुरुषाभिधे विरचितं स्यात्पुराणं चिरम् ॥ ८६ अर्थात् पाण्डवपुराणके कर्ता शुभचन्द्राचार्य के बनाये हुए नीचे लिखे प्रन्ध
१ चन्द्रप्रभचरित, २ पद्मनामचरित, ३ जीबंधरचरित, ४ चन्दनाथा, ५ नन्दीश्वरकथा, ६ आशाधरकृत अर्चा (नित्यमहोद्योत ) की टौका, त्रिशचतुर्विंशतिपूजापाठ, ८ सिद्धपकवतपूजा, ९ सरस्वतीपूजा, १. चिन्तामणियंत्रपूजा, ११ कर्मदहनविधान, १२ गणधरवलयपूजा, १३ ( वादिराजकृत) पावनाथकाव्यकी पंजिका टीका,* १४ पल्यवतोद्यापन, १५ चतुनिशदधिकद्वादश शतोद्यापन ( १९३४ मतका उद्यापन ), १६ संशयिवदनविदारण ( श्वेताम्बरमतखण्डन ), १५ अपशब्दखण्डन, १८ तत्त्वनिर्णय, १९ स्वरूपसम्बोधन( अफलंक देवकृत ?) की वृप्ति, २५ अध्यात्मपद्मटीका, २१ सर्वतोभद, १२ चिन्तामणि नामक प्राकृतव्याकरण, २३ अंगनझप्ति, २४ अनेकस्तोत्र, २५ षड्वाद और पाण्डवपुराण ।
* यह अन्य स्वर्गीय सेट माशिकचन्दजीके ग्रन्थभाण्डारमें मौजूद है । x यह ग्रन्थ माणिकचन्दप्रन्थमाला में प्रकाशित होनेवाला है।
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पाण्डवपुराण वि० संवत् १६०८ में समाप्त हुआ है । अतएव इसके पहलेके रचे हुए ग्रन्योंके ही नाम इस प्रशस्तिसे मालूम हो सकते हैं । पाण्डवपुराणके बाद भी उन्होंने अनेक प्रन्थोंकी रचना की होगी और इसके प्रमाणमें हम दो प्रन्योको पेश कर सकते हैं--क तो स्वाभिकार्तिकेयानुपेक्षाटीमा जो संपत् १६१३ में समाप्त हुई है और दूसरा करकण्ड्डुचरित्र जो संवत् १६११ मैं बना हैं । तलाश करनेसे इस तरह के और भी कई प्रन्योंका पता लगना संभव है।
४-श्रीयोगीन्द्रदेव । इस संग्रहके योगसार, निजात्मानक और अमृताशीति नामक ग्रन्थों के कर्ता आचार्य योगीन्द्र देव हैं। इनमें से पहला अपभ्रंशमें, दूसरा प्राकृतमें और तीसरा संस्कृत में है। परमात्मप्रकाशके कत्ती भी वहीं योगीन्द्रदेव हैं । योगसार और परमात्मप्रकाशकी रचना लगभग एक ही बैंगकी है, दोनों में प्रायः दोहा छन्दका उपयोग किया गया है और मंगलाचरण दोनोंका लगभग एकसा है। परमात्मप्रकाशका मंगलाचरण देखिए:--
जे जाया झाणग्गियाए, कम्मकलंक डहेवि ।
मिश्चणिरंजणणाणमय, ते परमप्प णवेवि ॥ १ योगमारमें भी इसीको छाया है:
णिम्मलझाणपरिडिया, कम्मकलंक डहेचि ।
अप्पा लद्धउ जेण परु, ते परमप णवधि ॥ २ इससे इसमें तो कोई भी सन्देह नहीं हो सकता कि इन दोनों के कर्ता एक ही योगीन्द्र देव हैं । निजात्माष्टक और अमृताशीतिके का भी ये ही आन पड़ते है। इन दोनोंका विषय भी योगीन्द्र देवका प्यारा योग तथा अध्यारम है। "अध्यात्मसन्दोह' नामका ग्रन्थ भी इन्हीं का बनाया हुआ कहा जाता है; परन्तु अभी तक वह कहीं देखनेमें नहीं आया।
श्रीपद्मप्रभमलधारदेवकी नियमसार टीका (पृ. ५६ ) में 'तथाचोतं श्रीयोगीन्द्रदेवैः' कहकर 'मुक्क्यंगनालिमपुनर्भवसौख्यमूलं' आदि पद्य उद्धृत किया है जो 'अमृताशीति' में नहीं है। संभव है कि यह पूर्वोक अभ्यात्मसन्दोहका या उनके अन्य किसी अन्यका हो।
पवा जाता।
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प्राचार्य योगीन्द्रदेव कब हुए हैं, और वे किस संघके प्राचार्य थे, इसका अभी तक कुछ भी पता नहीं लगा है।
परमात्मप्रकाश प्रभाकरमहके सम्बोधन के लिए उसीकी प्रार्थनासे बनाया गया है, ऐसा उक मन्थमें कई जगह उलेख है:--
भावं पणविवि पंचगुरु सिरिजोईदुजिणाऊ । भट्टपहायरि विग्णयउ, विमलकरविणु भाउ ॥ ८ पुण पुण पणविवि पंचगुरु, भावि वित्त धरेवि। भपहायर णिसुणि तुहूं, अप्पा तिहुवि कहेचि ॥११ इत्थु ण लिन्घउ पंडियहि, गुणदोसुचि पुणुरत्तु ।
भट्ट पभायरकारणई, मइ पुणु पुणु वि पउत्तु ।। ३५२ मालूम नहीं ये भदरभाकर कौन हैं। निशानामापीने अपने पोंमें प्रभाकरके और भटके सिद्धान्तोंका खण्डन किया है और वे दोनों बड़े भारी दार्शनिक हो गये हैं। 'भट्ट' कुमारिलभट्टका संक्षिप्त नाम है। क्या उनके हितके लिए योगीन्द्रदेवने परमात्मप्रकाशकी रचना की थी। परमात्मप्रकाशके सम्बोधनोंको और उसमें प्रभाकर महकी विनीत प्रार्थनागको पढ़कर तो ऐसा नहीं जान पड़ता है कि वह कोई जनेतर दर्शनका श्रद्धाल है। बद्द एक जगह कहता है-'सिरिगुरु अक्खहि मोक्ख महु'-हे श्रीगुरु मुझे मोक्ष बतलाइए। दूसरी जगह वह परमेष्टीको नमस्कार करता है-'भाविं पणविव पंचगुरु। योगीन्द्रदेव भी उसे जगह जगह ' योगिन् ' अर्थात् 'हे योगी' कहकर सम्बोधन करते हैं। इससे तो यही स्पष्ट होता है कि वह कोई योगीन्द्र देवका ही जैन शिष्य है जिसे शुद्ध निश्चयका स्वरूप समझाने का प्रयत्न किया गया है। ___ अमृताशीति (पृ. ९६) में विद्यानन्द स्वामीका 'अभिमतफलसिद्धे।' मादि श्लोक उधृत किया गया है और प्रभाकर तथा भह विद्यानन्द स्वामोसे पहले हुए हैं अतएव उनका और योगीन्द्र देवका समसामयिक होना संभव नहीं है । अकलंकदेवने भी प्रभाकर और भटका खण्डन किया है और अफलंकदेव विद्यानन्द स्वामीसे भी पहलेके हैं।
समयसारकी तात्पर्यत्ति जयसेनसूरिने योगीन्द्रदेवका निम्नलिखित दोहा उधृत किया है:
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* योगीन्द्रदेवैरप्युक्तं
णधि उप्पाइ णधि मरइ, बंध ण मोक्नु करे। जिउ परमत्थे जोइया, जिणधर पउ भणेइ ॥" यद्यपि जयसेनसूरिका निश्चित समय मालूम नहीं है, परन्तु उन्होंकी बनाई हुई पंचास्तिकायस्तिकी एक प्रति विक्रम संवत् १३६९ की लिखो हुई है। यदि यह प्रति प्रन्य बनने के कमसे कम सौ वर्ष पोछे भी लिखी गई होगी तो जयसेनाचार्यको विक्रमकी तेरहवीं शतब्दिमें मानना चाहिए और तम योगोन्द्रा• सात सम दे ताइके म निदिन ऐसा हैं।
नियमसारकी श्रीपद्मप्रभमलधारिदेवकृत टी कामें भी योगीन्द्र देवके कुछ पथ उद्धृत किये गये हैं। इससे मालूम होता है कि वे पद्मप्रभदेवसे पहले हो गये हैं और पद्मप्रभने पाँचवें अध्यायको टीकाके अन्त में श्रीवोरनन्दि मुनिको नमः स्कार किया है:
यस्य प्रतिक्रमणमेच सदा मुमुक्षोनास्त्यवतिक्रमणमप्यणुमात्रमुच्चैः । तस्मै नमः सकल संयमभूषणाय
श्रीवीरनन्दिमुनिनामधराय नित्यं ॥ इससे मालूम होता है कि श्रीवीरनन्दि मुनि पद्मप्रभदेव के कोई समसामयिक आचार्य हैं और उन्हें के पूज्य दृष्टिसे देखते हैं। आश्चर्य नहीं कि वे उनके गुरु ही हो । टीकाके प्रारंभमें भी उन्होंने 'तद्विद्याढयं धीरनन्दि वृत्तीन्द्रम्' कहकर नमस्कार किया है। यदि ये वीरनन्दि आचारसारके कता वारनन्दि ही हों और हमारा अनुमान है कि वे ही होंगे, तो इससे पद्मप्रभ का समय विक्रम संवत् १२११ के लगभग निश्चित हो जाता है । क्यों कि बीरनन्दिने आवार• सारके स्वकृत कनड़ी व्याख्यानमें उसकी रचनाका समय शक संवत् १०७६ लिखा है.
" स्वस्तिश्रीमन्मेषचन्द्रविद्यदेवर श्रीपादप्रसादासादितात्मप्रभावसमस्तविद्याप्रमावसकलदिवर्तिकीर्तिश्रीमद्वारनन्दिसैद्धान्तिकचक्रवर्तिगलु शकचर्ष १०७६ श्रीमुखनामसंवत्सरे ज्योष्ठ
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शुक्ल १ सोमवार दु तावु माडिदाचारसारक्के कर्णाटवृत्तिय
मादिपर ॥" यदि का यह समय ठीक है, तो योगी १९९१ के भी पहले के विद्वान् है ।
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'अमृताशीति' के ७८ और ७९ वें नम्बर के दो पथ भर्तृहरि के वैराग्यशतक के है । जान पड़ता है कि प्रन्धकतने इन्हें ' उक्तं च ' रूप में दिया होगा; परन्तु लेख - कोंकी कृपासे ' उक्तं च ' उ गया है और ये मूल अन्थ के हो पद्य बन गये हैं । वैराग्यशतक भी ये इसी रूपमें मिलते हैं, केवल इतना अन्तर है कि पहले श्रद्यके पहले दो चरण आगे पीछे हैं। शतक में इस प्रकार है:
प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुधास्ततः किं दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं ।
इस ग्रन्थकी अन्य प्रतियोंमें ' उकं च पद अवश्य लिखा मिलेगा । योगसार और परमारमप्रकाशकी भाषा के सम्बन्धमें हम इतना और कह देना चाहते हैं कि जैसा बहुत लोगोंने समझ रखा है, वह प्राकृत नहीं है किन्तु अपभ्रंश है जो एक समय लोकभाषा या बोलवालकी भाषा रह चुकी है और दिगम्बर विद्वानोंने जिसमें सैकड़ों प्रत्योंकी रचना की है। इसके प्रयोग प्राकृत व्याकरण के नियमोंसे सिद्ध नहीं होते हैं। जर्मनीके सुप्रसिद्ध विद्वान् डा हर्मन जेकोबीने अभी कुछ ही समय पहले दिगम्बर कवि पंडित धनपाल के 'पंचमी - कहा ' ( पश्चिमी कथा ) नामक ग्रन्थको प्रकाशित करके इस भाषा के सम्बन्ध में बहुत गहरा प्रकाश डाला है । इस भाषाका साहित्य संभवतः चौथी पांचवीं शताब्दिसे प्रारंभ होता है। जैन समाज के पण्डितों का ध्यान हम इस भाषाको ओर खास तौरसे अकर्षित करते हैं। अभी अभी हमारी नजरसे इस भाषा के कई अच्छे अच्छे प्रन्थ गुजर चुके हैं ।
५ - अजित ब्रह्मचारी ।
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'कल्याणालोयणा' या कल्याणालोचना नामक प्राकृत प्रत्यके कसी अजित या अजित ब्रह्मचारी हैं जैसा कि इस प्रन्थकी अन्तिम गाथासे मालूम होता है। ये संभवतः वे ही हैं जिन्होंने 'हनुमश्चरित्र' नामका एक संस्कृत ग्रन्थ रचा है। सुदूर बाबू जुगल किशोरजोने उ भन्थको देखा है। उससे
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मालुम होता है कि वे १६ वीं शताब्दि में हुए हैं । ये देवेन्द्र कीर्तिके शिष्य थे। इनके पिताका नाम वीरसिंह, माताका बीघा या पृथ्वी और वंश गोलचंगार ( गोल सिंघाड़े ) था । स विधानन्दिके आदेश से इन्होंने भृगुकच्छ नगर ( भरोच) में हनुमचरित्रकी रचना की थी । स्व० बाबा दुलीचन्दजीको ग्रन्थनाममाला में उत्सवपद्धति नामका एक और मन्थ इनका बनाया हुआ बतलाया गया है ।
६ - आचार्य श्री शिवकोटि ।
आचार्य शिवकोटि दिगम्बरसम्प्रदाय में एक बहुत ही प्रसिद्ध आचार्य हो गये हैं। उनका बनाया हुआ 'तीन' बहुत ही प्राचीन है। इसकी रचनाशंली और इसकी भाषा भी इसकी प्राचीनताकी साक्षी देती है ।
इस ग्रन्थको प्रशस्तिकी नीचे लिखी हुई गाथायें पढ़िएः
अज जिणणंदिगणि सव्वगुत्तगणि अज मित्तणंदणं । अघगमिय पादमूले सम्मं सुत्तं च अत्थं च ॥ ६१ ॥ पुष्वायरियणिवद्धा उवजीविता इमा स ससीए । आराधना सिवज्रेण पाणिद्दलभोयिणा रहदा ॥ ६२ ॥ आराधना भगवदी एवं भत्तीय वण्णिदा संती | संघस्ल सिबजस य समाधिवरमुत्तमं देउ ॥ ६४ ॥
अर्थात – आर्य जिननन्दि गणि, सर्वगुप्त गणि और आर्य मित्रनन्दिके चरगोके निकट सूत्र और अर्थको अच्छी तरह समझकर पाणिदल भोजी (पाणिपात्र) शिवार्थने यह आराधना रवी । यह भगवती आराधना इस तरह भक्तिपूर्वक वर्णित हुई संघको और शिवार्थको उत्तम समाधि देवे ।
इससे मालूम होता है कि इस ग्रन्थ के कर्ताका नाम शिवार्य था। अपने तीनों गुरुओं के नामके साथ उन्होंने 'आर्य' विशेषण दिया है। इससे जान पड़ता है कि उनके नाम के साथ जो 'आर्य' शब्द है, वह भी विशेषण ही हैं और इस लिए उनका नाम शिवनन्दि, शिवगुप्त था ऐसा ही कुछ होगा जिसे कि संक्षेप में 'शिव' कहा जा सकता है ।
भगवजिनसेनाचार्य ने अपने आदिपुराणके प्रारंभ में शिवकोटि आचार्य का स्मरण किया हैः
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शीतीभूतं जगद्यस्य वाचाराध्यचतुष्टयं । मोशमाने वामः
दिनका ३९ इस श्लोकके ' आराध्यचतुष्टयं ' पदसे भगवती श्राराधनाका ही बोध होता है और इससे मालूम होता है कि उनका पूरा नाम आर्य शिवकोटि या । भगवती आराश्वनामें इसी नामको संक्षिप्तरूपसे 'आर्य शेिष' मा 'शिवाय' लिखा है।
आराधनाकथाकोशमें समन्तभद स्वामीकी ओ कथा मिलती है उसमें लिखा है कि शिनकोटि वाराणसी के राजा थे और ये शेष थे। समन्तभद्र स्वामी ने उनके समक्ष शिवलित ' को अपने स्तोत्रके प्रभावसे फोड़कर उसमेंसे' चन्द्रप्रभ ' की प्रतिमा प्रकट की थी। इससे उस राजा उनका निष्य बन गया था और उसीने मुनि अवस्थामैं भगवती आराधनाकी रचना की थी। परन्तु इस बातपर विश्वास नहीं होता कि भगवती आराधनाके कती वहीं शिवकोटि राजा होंगे जो समन्तमद्रके शिष्य हो गये थे । यदि ये वही होते तो यह कदापि संभव नहीं था कि ने अपने इतने बड़े मन्थों अपने परमगुरु समन्तभद्र का कहीं उल्लेख भी नहीं करते । कमसे कम उनका स्मरण तो अवश्य ही करते। उन्होंने अपने जिन तीन गुरुओंका स्मरण किया है और जिनके चरणों के निकट बैठकर उन्होंने अपने अन्यके पदार्थको समझा है, उनमें भी समन्तभद्र का नाम नहीं है । अतएव उक कथाको छोड़कर जब तक कोई दूसरा प्रबल प्रमाण न मिले, तब तक कमसे कम यह बात सन्देहास्पद अवश्य है ।
हमारी निजकी राय तो यह है कि भगवती आराधना समन्तभद स्वामीसे भी पहलेकी रचना है।
बहुतसे लोगोंका खयाल है कि शिवकोटिका ही दूसरा नाम शिवायन है, परन्तु विक्रान्त कौरवीय नाटकमें शिवकोटि और शिवायनको जुदा जुदा बतलाया है
और लिखा है कि ये दोनों ही समन्तभद्र के शिष्य घे:-"शिष्यौ तदीयौ शिवकोटिनामा, शिधायनः शास्त्रविदां वरिष्ठौ ।" __ अभी तक भगवती आराधनाको छोड़कर शिवकोटि आचार्यका और कोई भी अन्य नहीं सुना गया है और न कहीं किसी ने उसका उल्लेख ही किया है। परन्तु अभी झल ही यह 'रत्नमाला' नामक छोटासा अन्य उपलब्ध हुआ है जिसके अन्तमें इसके फत्ताका नाम शिवकोटि प्रकट किया गया है और अन्य के अन्तकी.
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पंक्ति में तो उन्हें 'स्वामिस भन्तभद्रशिष्य तक लिख दिया गया है। हमारा भी पहले यही खयाल था कि यह उन शिवकोटिका ही ग्रन्थ है जिनका स्मरण आदिपुराणके कर्त्ताने किया है और इस सम्बन्धमें हमने जैनहितैषी में एक छोटासा नोट भी लिखा था; परन्तु अन्य को अच्छी तरह पढ़नेसे अब हमें इस विषय बहुत कुछ सन्देह हो गया है। हमारी समझ में यह अन्य इतना प्राचीन नहीं हो सकता। यह अपेक्षाकृत आधुनिक है और या तो इसके अन्तिम श्लोक 'शिवकोटित्वमाप्नुयात् ' पदसे ही किसीने इसके कर्ताके नामकी कल्पना कर ली हैं और यदि इस पद कर्त्ताने अपना नाम भी ध्वनित किया है: तो वे कोई दूसरे ही शिवकोटि हैं।
इस ग्रन्थका नीचे लिखा हुआ श्लोक देखिए:-- कलौ काले बा
स्थीयते च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः ॥ २२
अर्थात् इस कलिकाल में मुनियोंको वनमें न रहना चाहिए। श्रेष्ठमुनियों ने इसको वर्जित बतलाया है । इस समय उन्हें जैनमन्दिरोंमें विशेष करके प्रामादिकों में ठहरना चाहिए ।
इससे यह साफ प्रकट होता है कि यह उस समयकी रचना है जब दिगम्बर सम्प्रदाय में 'चैत्यवास' * अच्छी तरह चल पड़ा था और इसके अनुयायी इतने प्रबल हो गये थे कि उन्होंने वनों में रहना वर्जित तक बतला दिया था। मन्दिरोंमें और भ्रामों में रहने को किसी तरह बायज बतलाना दूसरी बात है और उन्हीं में रहना चाहिए वनमें नहीं, यह दूसरी बात हैं ।
भगवती आराधनाका स्वाध्याय करनेवाले सज्जन इस बातपर अच्छी तरह विचार करें कि उसके कत्र्ता अपने इस दूसरे ग्रन्थमें क्या इस तरहका विधान कर सकते हैं ?
जैन साधु जलाशयों में से शौचादिके निमित्त जलग्रहण नहीं करते । श्राव कसे प्राप्त किया हुआ प्रासुफ जल ही उनके काम आता है । परन्तु इसमें इस निय मके विरुद्ध लिखा हैः
* चैत्यवासी और वनवासी साधुओं के विषय में जैनहितैषी भाग १४, अंक ४-५ का विस्तृत लेख देखिए ।
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पाषाणोत्स्फुटितं तोयं घटीयंत्रेण ताडितं । सद्यः सन्तप्तवापीनां प्रासुकं जलमुच्यते ॥ ६३ ॥ देवर्षीणां प्रशौचाय स्नानाय च गृहार्थिनां ।
अमासुकं परं वारि महातीर्थजमप्यदः ॥ ६॥ इस विधानसे भी हम यही अनुमान करते हैं कि यह प्रन्य आधुनिक है और भगवती आराधनाके कत्तीका तो कदापि नहीं है।
हस प्रन्थको विचारपूर्वक पढ़नेसे इस तरहको और भी अनेक बातें मालूम हो सकती हैं।
इस प्रन्थका ६५ वाँ लोक यशस्तिलक चम्पूके उपासकाध्ययनके एक लोकसे मिलकुल मिलता जुलता हुआ हैं और ऐसा मालूम होता है कि उसी परसे लिया गया है । चम्पूका बह श्लोक इस प्रकार है:--
सर्वमेव हि जनानां प्रमाणं लौकिको विधिः ।
यत्र सम्यवहानिर्न यत्र न अतदपाणम यशस्तिलक शक संवत् ८८१ ( वि० संवत् १०१६ ) में समाप्त हुआ है। इस ग्रन्थ में कोई खास विशेषता नहीं है । मामूली उपदेशरूप ग्रन्थ है जिसमें श्रावकाचारसम्बन्धी प्रकीर्णक बातें लिखी गई है। एक महान आचायकी कृतिके योग्य इसमें कुछ भी नहीं है।
७-श्रीमाधनन्दि योगीन्द्र। थे 'शास्त्र सारसमुच्चय ' नामक सूत्रग्रन्थके का है। इस नामके भी कई आचार्य हो गये हैं, इस कारण नहीं कहा जा सकता कि इसके की कौनसे माघनन्दि हैं। कनाटक-कवि-चरित्रके अनुसार एक माचनन्दिका समय ईस्वी सन् १२६० (वि. संवत १३१७ ) है और उन्होंने इस शास्त्र सारसमुच्चयपर एक कनड़ी टीका लिखी है तथा माघनन्दि-श्रावकाचार के कर्ता भी यही हैं। इससे मालूम होता है कि शास्त्रसारसमुच्चय (मूल) के कप्ता इनसे पहले हुए हैं और उनका समय भी विक्रमकी चौदहवीं शताब्दिसे पहले समझना चाहिए ।
मद्रासकी ओरियण्टल लायब्रेरोमें 'प्रतिष्ठाकल्पटिप्पण' या 'जिनसंहिता' ना. मका एक अन्य है। उसके प्रारंभमें लिखा है:
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" श्रीमाधनन्दिसिद्धान्तचफवर्तितनुभवः ।
कुमुदेन्दुरई वच्मि प्रतिष्ठाकल्पटिप्पणम् ॥ और अन्त में लिखा है:
इति श्रीमाघनन्दिसिद्धान्तचक्रवर्तितनूभवचतुर्विधपाण्डित्यच. क्रवर्तिश्रीवादिकुमुदचन्द्रमुनीन्द्रचिरचिते जिनसंहिताटिप्पणे पूज्य. पूजकपूजकाचार्यपूजाफलप्रतिपादनं समाप्तम् ॥" ।
इससे मालूम होता है कि प्रतिष्ठाकल्पटिप्पणके कर्ता कुमुन्देन्दु या कुमुदचन्द्र माघनन्दिसिद्धान्तचक्रवतींके ( शिष्य ) थे।
माघनन्दिश्रावकाचार और शास्त्रसारसमुच्चयके टीकाकार माघनन्दिने कीटककविचरित्रके अनुसार कुमुदेन्दुको अपना गुरु बतलाया है । संभव है कि सिद्धान्तसारसमुखयके कर्ता माघनन्दि (पहले ) के ही शिष्य ये कुमुदेन्दु हो जिनका उक्त प्रतिष्ठाकल्पटियण नाम प्रन्थ है और उन्हीं के शिष्य श्रावकाचारके कर्ता दूसरे माधनन्दि हो । यदि यह ठीक है तो शान्नसारसमुच्चयके कर्ताका समय ५० वर्ष और पहले अर्थात् विक्रमसंवत् १२६७ के लगभग मानना चाहिए।
८-श्रीवादिराज कवि ।। 'ज्ञानलोचनस्तोत्र' के पत्ती श्रीवादिराज हैं । इन्होंने वाग्भटालंकारपर "कविचन्द्रिका+' नामकी एक सुन्दर संस्कृतटीका लिखी है। उसकी प्रशस्तिसे * मालूम होता है कि ये खण्डेलवालवंशमें उत्पन्न हुए थे और इनके पिताका नाम पोमराज था । तक्षकनगरीके राजा राजसिंहके संभवतः ये मंत्री थे और राजसेवा करते हुए ही इन्होंने इस टीकाकी रचना की थी। राजा राजसिंह भीमदेवके पुत्र थे। कांवचन्द्रिकाकी समाप्ति इन्होंने विक्रम संवत् १७२९ की दीपमालिंकाको की थी। ये बहुत बड़े विद्वान् थे । इन्होंने स्वयं ही कहा है कि इस समय में धनंजय, आशाधर और वाग्भटका पद धारण करता हूँ । अर्थात् में उनकी जोहका विद्वान् हूँ और जिस तरह उक्त तीनों चिद्वान् गृहस्थ थे मैं भी गृहस्थ हूँ:__ + 'कचचन्द्रिका दीका' की एक प्रति जयपुर के संगहीजीके मन्दिरमें और पूसरी पाटोदीजीके मन्दिर में हैं। पहली प्रति अपूर्ण है।
* यह प्रशस्ति जैनहितैषी भाग ६, अंक १२ में पूरी प्रकाशित हो चुकी है।
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धनंजयाशाघरवाग्भटामां
धत्ते पदं सम्प्रति वादिराजः ! खाण्डिल्यवंशोझवपोमसूनुः
__जिनोक्तिपीयूषसुतगात्रः ॥ प्रशस्तिके एक और श्लोक में उन्होंने अपनी और वाम्मकी समानता बड़ी खूबसूरतीसे दिखलाई है:
श्रीराजसिंहनृपतिर्जयसिंह पव
श्रीतक्षकाख्यनगरी अणहिलत्तुल्या । श्रीवादिराजविबुधोऽपरवाग्भटोऽयं
श्रीसूत्रबृत्तिरिह नन्दतु चार्कचन्द्रम् ॥ अर्थात् इमारे राजा राजसिंह जयसिंह ( वाग्भटकवि जिस राजाके मंत्री थे) ही हैं और यह तक्षक नगरी अणहिलयाई ( जयसिंहकी राजधानी ) के तुल्य है और वादिराज दूसरा वाग्भट है 1 इनके बनाये हुए और किसी ग्रन्थका हमें पता नहीं है।
९-श्री जयानन्दसरि । 'सर्वज्ञस्तवन' और उसकी टीका इन दोनों के कत्ती जयानन्दसूरि श्वेताम्बर आचार्य मालूम होते हैं। श्वेताम्बर-जैनकान्फरेन्स द्वारा प्रकाशित जैनग्रन्थावली (पृष्ठ २८०) के अनुसार इसका नाम 'देवाः प्रभो स्तोत्र' भी हैं। क्योंकि इसका प्रारंभ इन्हीं शब्दोंसे होता है। पाटणके श्वेताम्बर-भंडार में भी इसकी एक प्रति है । ये सोमतिलकसूरिके शिष्य थे और विक्रमकी १५ वीं शताब्दिमें हुए हैं। इनके बनाये हुए और भी कई ग्रन्थ है। हेमचन्द्र के व्याकरणपर इनकी एक वृति भी है। इस स्तोत्र-टीका जो 'व्याकरणसूत्र' जगह जगह आते हैं, वे भी हेमचन्द्र ( श्वेताम्बराचार्य ) के ही मालूम होते हैं ।
१०-श्री गुणभद्र । चित्रबन्धस्तोत्रके का गुणभद्र या गुणभद्रकीर्ति नामके कोई आचार्य मालूम होते हैं । परन्तु यह निश्चय है कि ये भगजिनसेनके शिष्य गुणभद्राचार्य अतिरिफ कोई दूसरे ही है। इस स्तोत्रके २५ वें श्लोकमैं इस स्तुतिको 'मेधाविना
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संस्कृतं' ( मेधावीके द्वारा संस्कार की हुई) विशेषण दिया है। संभवतः ये वहीं पं. मेधावी हैं जो धर्मसंप्रहश्रावकाचारके कर्ता हैं और जिन्होंने 'मूलाबारकी
सुनन्दिवृत्ति, त्रिलोकप्रज्ञप्ति' आदि ग्रन्थों के अन्तमें उक प्रन्योंके दान करने वालोंकी बड़ी बड़ी प्रशस्तियाँ जोड़ी हैं। यदि हमारा यह अनुमान ठीक है, तो यह स्तोत्र १६ वीं शताब्दिका बना हुआ है। क्योंकि पं० मेधावीने उक्त प्रशस्तियों वि० सं० १५१६ और १५९९ में रची हैं।*
मेधावीके समयमें एक गुणभद नामके आचार्य थे भी, इसका पता जैनसि. द्वान्तभवन आराके 'मानार्णव' नामक ग्रन्थकी लेखक-प्रशस्तिसे लगता है। यथा---
"संचत १५२१ वर्षे आषाढ़ सुदि सोमवासरे श्रीगोपाचलदुर्गे तोमरवंशे राजाधिराजश्रीकीर्तिसिंहराज्यप्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघ माथुरान्वये पुष्करमणे भ० श्रीगुणकीर्तिदेवास्तत्प? भ. श्रीयश:कीर्तिदेवास्तत्पट्टे भ. श्रीमलयकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भ. श्रीगुणभद्रदेवास्तदानाये गर्गगोत्रे......।"
इससे मालूम होता है कि वि० सं० १५२१ में ग्वालियरमें गुणभवनामके आ. बार्य थे जो कालासंघ-माधुराम्यय और पुष्करमणकी गद्दीपर आरूढ़ थे। बहुत संभव है कि चित्रबन्धस्तोत्रके कर्ता यही हो और इन्हीं की रचनाको उसी सम. यमें होनेवाले पं० मेधावीने संस्कृत किया हो।
११-श्री पद्मनभदेव । पार्श्वनाथस्तोत्रकी अन्तिम पंकिंमें यद्यपि उसे 'श्रीपश्चनन्दिमुनिविरचितं' लिखा है; परन्तु अन्तिम लोकके 'श्रीपानभदेवनिर्मितमिदं स्तोत्रं जगभंगलं' पदसे यह स्पष्ट है कि उसके कर्ता श्रीपद्मप्रभदेव हैं । उन्होंने पद्मनन्दिमुनिका केवल उल्लेख मात्र किया है और कहा है कि वे सके, व्याकरण, नाटक, और काव्यक कौशलमें विख्यात थे। परन्तु उससे यह नहीं मालूम होता है कि उनका उल्लेख क्यों किया गया और उनसे उनका क्या सम्बन्ध था। इससे
* देखो जैनहितैषी भाग १५, अंक ३-४ । पं. मेधावीका बनाया हुआ धर्मसंप्रहधावकाचार मामका ग्रन्थ भी है जो वि. सैक्त १५४१ में समाप्त
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पढ़नेवाला बबी उलझनमें पड़ जाता है । अस्तु । हमारा खयाल है कि पानन्दि मुनि उनके कोई गुरुस्थानीय व्यक्ति हैं और इसी लिए उन्होंने उनका स्मरण किया है। __ नियमसारको तात्पर्यवृत्तिके कत्ताका नाम श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव है। मालूम नहीं कि इस स्तोत्रके का वे ही हैं, अथवा अन्य कोई दूसरे । पानन्दिनामके भी अनेक विद्वान हुए हैं, इस लिए उनके विषयमें भी कुछ नहीं कहा जा सकता । ___ काशीकी यशोविजयजैनप्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित जनस्तोत्रसंग्रह (द्वितीय भाग ) में सबसे कोई १६-१७ वर्ष पहले यह स्तोत्र मुद्रित हो चुका है। उसके साथ जो टीका छपी है वह रामशेखरसूरिके शिष्य मुनिशेखरसूरिकृत है, परन्तु हम जो यह टीका छाप रहे हैं यह किसी अन्य विद्वान्की है जो कि अपना नाम प्रकट नहीं करते हैं।
उक्त मुद्रितप्रतिमें और खंभातके जैनपुस्तकालयकी प्रतिम-जिसका जिकर पिटर्सनकी १८८४-८६ की रिपोर्ट (पृ. २१२ नं. २८) में किया गया हैइम स्तोत्रका अन्तिम श्लोक इसी इपणे मिलता है, अतएव इपके कती पचप्रभदेव ही मालूम होते हैं ।
इस स्तोत्रका दूसरा नाम 'लक्ष्मीस्तोत्र' है। क्योंकि इसका प्रारंभ 'लक्ष्मी' शब्दसे शुरू होता है और भकामर, कल्याणमन्दिर आदि अनेक स्तोत्रों के नाम इसी तरह प्रसिद्ध हुए हैं।
१२-श्री अमितगतिमुरि * सामायिकपाठके कत्ती अमितगतिसूरि वे ही जान पढ़ते हैं जिनके बनाये हुए धर्मपरीक्षा, सुभाषितरत्नसन्दोह, अमितगतिश्रावकाचार, योगसारप्राभूत, और भावनावानिशतिका नामक प्रथ+ मुद्रित हो चुके हैं और जो विक्रमको ग्यारहवीं शताब्दिके आचार्य थे।
___ * इनका विस्तृत परिचय पानेके लिए मेरी लिखी हुई 'विद्वारस्नमाला 'का 'श्रीअमितगतिसूरि ' नामक लेख पढ़िए । । यह भी 'सामायिक पाठ ' के नामसे छपा है; परन्तु वास्तव में इसका नाम भावना द्वात्रिंशतिका है। + अमितगतिका 'पंचसंग्रह' नामक ग्रन्थ इसी ग्रन्थमालामें प्रकाशित होनेवाला है।
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इस प्रन्धका नाम हमें 'सामायिकपा' नहीं मालूम होता, साथ ही यह पूर्ण भी नहीं मालूम होता । क्योंकि इसके अन्त में लिखा है कि ' इति द्वितीयभावना समाप्ता ।' अवश्य ही इसके पहले प्रथम भावना रही होगी । अन्तिम श्लोकसे संभव है कि इसका नाम 'तत्त्वभावना' रहा हो।
इसकी कापी जैनधर्मभूषण ब्रह्मचारी श्रीशीतलप्रसादजो अपने प्रससमें प्राप्त की हुई किसी स्थान के सरस्वतीमाहारकी प्रति परसे स्वयं करके लाये थे और उसी परसे यह मुद्रित कराई गई है। अतएव जब तक इसकी कोई दूसरी प्रति प्राप्त न हो तब तक इसके नामका और पूर्णता अपूर्णताका निर्णय नहीं हो सकता ।
१३-पं० श्री आशाधर । 'कल्याणमाला' के कसी पं. आशावर प्रसिद्ध विद्वान हैं । उनके बनाये हुए दो ग्रन्थ सागारधामृत (नं० २) और अनगारधर्मामृत (नं. १४) इसी मन्थमालामें मुद्रित हो चुके हैं और उसमें उनका परिचय भी दिया जा चुका है । वे विक्रमको १३ वी शताब्दिके अन्त तक मौजूद थे।
__ अपरिचित ग्रन्थकर्ता। अर्हत्प्रवचनके का प्रभाचन्द्र', शंखदेवाटकके कता भानुकीर्ति', धर्मरसायनके कर्ता पमनन्दि", सारसमुच्चयके कत्ती कुलभद्र, और धुतावतारके का विवुध' श्रीधरके विषयमें हमें कोई उल्लेखयोग्य परिचय प्राप्त नहीं हो
१-प्रभाचन्द्र नामके अनेक आचार्य और भट्टारक हो चुके है। २-अतिशयक्षेत्रकाण्डमें 'होलगिरी शंखदेवम्मि' पाठई जिससे मालूम होता है कि होलगि. रिनामक पर्वतपर शंखदेव या शंखेश्वर पार्श्वनाथ नामका कोई तीर्थ है। मालम नहीं, इस समय वह ज्ञात है या नहीं । संभवतः यह दक्षिण कनादककी ओर होगा। -भानुकीर्ति कई हो गये हैं । एक गण्ड विमुकदेवके शिष्य देवकीर्तिके गुरुभाई थे और दो १७ वीं शताब्दिमें हुए हैं-एक गुणभद्रसूरिके पट्टधर और दूसरे यश कीर्तिके पदपर होनेवाले जिनके कि शिष्य श्रीभूषण थे। ४-पद्मनन्दिपंचविंशतिकाके कर्ता, जम्बूद्वीपप्रशक्षिके कत्ती आदि कई पचनन्दि हो गये हैं । ५-एक वियुध श्रीधर भविष्यदत्तचरितके कर्ता हुए हैं। संभव है, वे ही ये हों।
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सका । इसी तरह आप्तस्वरूप, पार्श्वनाथसमस्यास्तोत्र, महर्षिस्तोत्र, नेमिनाथस्तोत्र और शलाका निक्षे०के विषयमें यह भी नहीं मालूम हो सका कि इनके रचयिता कौन हैं। जिन प्रतियोंपर से ये छपाये गये हैं, उनमें अन्धकत्ती ओंके नाम नहीं है । इस लिए इनके विषय में भी कुछ नहीं लिखा जा सका।
इस परिचयके लिखने में सुहद्धर बाबू जुगलकिशोरजीके कई नोटोंसे और उनकी सूचनाओंसे बहुत कुछ सहायता मिली हैं, अतएव हम उनके बहुत ही कृतज्ञ हैं। बम्बई, अगहन सुदी १४ वि० संवत् १९७९ । ।
नाथूराम प्रेमी।
हस्तलिखित प्रतियोंकी सहायता । १ श्रीयुक्त ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी, जैनधर्गभूषण---१ धम्मरसाथण, २ सारसमुच्चय (ख) और ३सामायिक पाठ । इनमसे पहले दो मन्थोंकी प्रतिया आपने देहलीके पुस्तक-भाण्डारसे नकल कराकर भिजवाई थी और उन्हें पालमनिवासी श्रीयुत छाजूरामजोंने लिखा है। तीसरे प्रन्यकी प्रेसकापी आपने स्वयं ही एक प्राचीन प्रतिते करके भेजी थी।
२ श्रीयुक बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार, सरसावा-१ सिद्धान्तसार मूल, २ अमृताशीति, ३ रत्नमाला, ४ शास्त्रसारसमुच्चय, ५ पार्श्वनाथस्तोत्र, ६ नेमिनाथस्तोत्र, ७ निजात्मारक और ८ आप्तस्थरूप । इनमेंसे अधिकांश मन्थोंकी कापी आपने जैन सिद्धान्तभवन आराकी प्रतियों के आधारसे कराके भेजी थी। शास्त्रसारसमुच्चयके सूत्रपाका संशोधन भी आपने उक्त ग्रन्थको कनड़ी टीकाके आधारसे कर दिया था। पिछले अन्धकी प्रेस कापी अपने स्वयं अपने हाथसे करके भेजी थी।
३ श्रीयुक्त पं० रामलाल कंचनलालजी,मरसेना-१ सिद्धान्तसारदीका, २ अंगप्रज्ञप्ति । इन दोनों अन्यों की प्रतियाँ श्रीयुक्त बाबू जुगलकिशोरजोने उर महाशयसे प्राप्त करके भेजने की कृपा की थी।
४ श्रीयुक्त पं० इन्द्रलालजी साहित्यशास्त्री जयपुर—१ शानलोचनस्तोत्र, २ समवसरणस्तोत्र, ३ सर्वशस्तवन, ४ पार्धनाथसमस्यास्तोत्र, ५चित्रबन्धस्तात्रे, ६ महर्षिस्तोत्र, ७ शंखदेवाष्टका जयपुरके
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३०
प्राचीन पुस्तक भंडारोंकी प्रतियोंपर से आपने इन सब स्तोत्रोंकी प्रेसकापी करके भेजी थी ।
५ स्वर्गीय पं० गणेशचन्द्रजी गोधा जयपुर -- १ योगसार और २ कल्याणालोचना |
६ श्रीयुक्त पं० पन्नालालजी बाकलीवाल - १ श्रुतावतार, २ शलाकानिक्षेपण और ३ कल्याणमाला । कोई १० वर्ष पहले अपने जयपुर से इन्हें नकल कराके मेजा था ।
७ श्रीयुत लाला मक्खनलालजी खजांची, धोलकी स्ट्रीट, मेरठ छावनी — सारसमुश्चय ( क ) की एक प्राचीन प्रति जिसपर लिखे जानेका संवत् यदे नहीं है ।
८ सरस्वतीभंडार - दिगम्बर जैन मन्दिर, भोळेश्वर, बम्बई - अर्हत्य
वचन
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९ श्रीयुक्त पं० नाना रामचन्द्र नाग, कुंभोज - रत्नमालाकी आपने भी एक सुंदर कापी जैन सिद्धान्तभवन बाराकी प्रति परसे करके भेजी थी ।
* इस प्रन्थकी एक और पुरानी प्रतिसे सहायता प्राप्त हुई हैं जिसपर लिखनेका संवत् नहीं है और न यही मालूम है कि कौनसे सज्जनने उसे भेना था ।
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ग्रन्थ-सूची |
पृष्ठांक.
१ सिद्धान्तसारः -- श्रीजिनचन्द्राचार्यकृतः, श्रीज्ञानभूषण कृतभाष्योपेतः १ २ योगसारः श्रीयोगीन्द्र देवकृतः ३ कल्याणालोयणा ( कल्याणालोचना ) - श्री अजितदक्षकृता ...
५५
४ अमृताशीतिः - श्री योगीन्द्र देवकृता ५ रत्नमाला - श्रीशिवकोटिकृता
६ शाखसारसमुच्चयः - श्री माघनन्दिकृतः • अर्हत्प्रवचनम् — श्रीप्रभाचन्द्रविरचितं ...
७
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444
14+
b-g
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८ आप्तस्वरूपम् - ९ शानलोचनस्तोत्रम् — श्रीवादिराजप्रणीतम् १० समवशरणस्तोत्रम् - श्री विष्णुसेन रचितम् ११ सर्वशस्तवनम् सीकम् — धोजयानन्दसूरिकृतम् १२ पार्श्वनाथसमस्यास्तोत्रम् - १३ चित्रबन्धस्तोत्रम् -- श्रागुणभद्ररचितम् ... १४ महर्षिस्तोत्रम् - १५ पार्श्वनाथस्तोत्रम् श्रीपद्मप्रभदेवकृतम् १६ नेमिनाथस्तोत्रम् - १७ शंखदेवाष्टकम् – श्रीमानुकीर्तिकृतम् १८ निजात्माष्टकम् श्री योगीन्द्रदेवकृतम् ... १९ सामायिकपाठः श्रीअमितगतिकृतः २० धम्मरसायणं-- श्रीपद्ममन्दिरचितं
d-b
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235
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२१ सारसमुच्चयः -- श्रीकुलम कृतः २२ अंगपण्णत्ती ( अवज्ञप्तिः ) श्री शुभचन्द्रकृता २३ श्रुतावतारः विधीवरकृतः २४ शल | क निक्षेप निष्काशनविवरणं... २५ कल्याणमाला -- पं० आशाधरकृता
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१७०
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२२६
२५७
३१६
३१९
RE
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हस्
Se
श्रीपंचगुरुभ्यो नमो नमः |
सिद्धान्तसारादिसंग्रहः ।
श्रीजिनेन्द्राचार्य-प्रणीतः सिद्धान्तसारः ।
( भाष्योपेतः । )
श्रीसर्वशं प्रणम्यादी लक्ष्मीवीरेन्दु सेवितम् । भाष्यं सिद्धान्तसारस्य वक्ष्ये ज्ञानसुभूषणम् ॥ १ ॥ जीवगुणठाण सण्णापज्जतीपाणमन्गणणवृणे । सिद्धंतसारमिणमो भणामि सिद्धे णमंसित्ता ॥ १ ॥
जीवगुणस्थानसंज्ञापर्याप्तिप्राणमार्गणानवोनान् ।
सिद्धान्तसारमिदानीं भणामि सिद्धान् नमस्कृत्य ॥
एतद्वाथार्थ :- इमो –— इदानीं । सिद्धन्तसारं - इति, सिद्धान्तसारनाममन्यं । भणामीति — भणिष्यामि कथयिष्यामि । यावत् किं कृत्वा ? पूर्व सिद्धे णमंसित्ता --- सिद्धान् नमस्कृत्य । कथंभूतान् सिद्धान् ? जीवगुणठाण सण्णापज्जती पाणमग्गणणवणे – जीवगुणस्थानसंज्ञापर्याप्तिप्राणमार्गणानवकोनान् । जीव इति चतुर्दशजीवसमासाः | गुणठाण - चतु
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
देशगुणस्थानानि । सण्णा - चतस्रः संज्ञाः । पञ्जत्ती- प्रदूपर्याप्तयः । पाण- दशद्रव्यप्राणाः । मम्गणणव इति-नवसंख्योपेता मार्गणाः । एतैः ऊणे-ऊनान् रहितानित्यर्थः ॥ १ ॥
२
सिद्धाणं सिद्धगई दंसण णाणं च केवलं खइयं । सम्मत्तमणाहारे सेसा संसारिए जीवे ॥ २ ॥
सिद्धानां सिद्धगतिः दर्शनं ज्ञानं च केवलं क्षायिकं । सम्यक्त्वमनाहारकं शेषाः संसारिणि जीवे ॥
..
नमस्कारगाथायां प्रोक्तं मार्गणानवरहितान् सिद्धान् नत्वा, तर्हि लिद्वेषु पंच काः सन्तीत्याशंकायामाह – सिद्धाणं सिद्धगई इत्यादि । सिद्धानां सिद्धगतिः स्यात् । सिद्धगतिरिति कोऽर्थ: : सिद्धपर्यायप्रातिरित्यर्थः । दत्येका मार्गमा सिते वर्तते । तथा, सण गाणं च केवलं खइयं -- केवलशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, सिद्धानां केवलदर्शनमिति सिद्धेषु द्वितीया मार्गणा वर्तते । केवलज्ञानमिति तृतीया मार्गणा सिद्धेषु स्यात् । सम्मत्तमणाहारे - सिद्धानां क्षायिकं सम्यक्वं चतुर्थी मार्गणा सिद्धेषु विद्यते । सिद्धानामनाहरकत्वं पंचमी मार्गणा सिद्धेषु भवति । तात्पर्यमाह - इत्युक्त पंचमार्गणा सहितान् नवमार्गणारहितान् सिद्धान् नत्वेत्यर्थः । सेसा संसारिए जीवे - शेषा उद्धरिता मार्गणाः संसारिषु वर्तन्ते । अथवा असेसा संसारिए जीवेये के संसारिणो जीवा वर्तन्ते तेषु अशेषाश्चतुर्दशमार्गणा स्युरित्यर्थः ॥ २ ॥
अथ प्रथमसूत्रपातनिकामाह; -
7
१ द्वारा इत्यन्यत्र । ९ संखि इस्मा' इति पुस्तकें पाठः । ३ शब्द इत्यविभस्म्यन्तः पाठः पुस्तके |
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सिद्धान्तसारः ।
. जीवगुणे तह जोए सपच्चए मग्गणासु उबओगे। जीवगुणोसु वि जोगे उवओगे पच्चए वुच्छं ॥ ३ ।।
जीवगुणान् तथा योगान् सप्रत्ययान् मार्गणामु उपयोगान् ।
जीवगुणेष्वपि योगान् उपयोगात प्रत्ययान वक्ष्ये ।। सकलग्रन्धार्थसूचनद्वाररूपेयं गाथा | बुन्छे इति-वक्ष्ये, कान ? मगःणामु—चतुर्दशमार्गणासु जीवगुणान्, जीवाश्चतुर्दशभेदा गुणाश्चतुर्दशगुणस्थानानि । जीवाश्च गुणाश्च जीवगुणास्तान् जीवगुणान् चतुर्दशमार्मणासु वक्ष्ये । मार्गणाः काश्चेत् । तदाह-गई, इत्यादि गाथोक्ताश्चतुर्दशमार्गणाः । तह जोए-तथा तेनैव प्रकारेण चतुर्दशमार्गणासु पंचशयोगान् वक्ष्ये । सपञ्चए-मार्गमासु सप्तपंचाशत्प्रत्ययान् आस्त्रवान् वक्ष्ये । तथा मार्गणामु द्वादशोपयोगान् वक्ष्ये । तथा जीवगुणेसु वि-जीवगुणेष्वपि वक्ष्ये। कान् ? जोगे-पोगान्, चतुर्दशजीवसमासेषु योगान् पंचदश वक्ष्ये । चतुर्दशगुणस्थानेष्वपि पंचदश योगान् वक्ष्ये । उचओगे पच्चए तुच्छं-पुनः जीवसमासेषु गुणस्थानेषु च द्वादशोपयोगान् सप्तपंचाशत्प्रत्ययांश्च वक्ष्ये । मार्गणासु जीवान् गुणान् तथा योगान् सप्रत्ययान् उपयोगान् वक्ष्ये । अनु च जीवेषु गुणेसु च योगान् उपयोगान् प्रत्ययान् बक्ष्ये इति स्पष्टार्थः ॥ ३ ॥
अथ चतुर्दशमार्गणासु चतुर्दशजीवसमासान् कथयन्नाह:--- तिगईसु सणिजुयलं चउदस तिरिएसु दोणि वियलेसु । एयपणक्खे वि य चदु पुढवीपणए य चत्तारि ॥ ४ ॥ १ गइ इंदिये व काए जोगे चेए फसायणाणे य ।
संजमर्दसणलेस्साभविमासम्मससपिणभाहारे ॥ १ ॥ १ 'जोए' इति पाठः टीकायो । ३ पश्चात् ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहेत्रिगतिषु सज्ञियुगलं चतुर्दश तिर्यक्षु द्वौ विकलेषु ।
एकपंचाक्षेऽपि च चत्वारः पृथिवीपंचके च चत्वारः ।। 'तिग ' इत्यादि । तिसृषु गतिषु नरकमनुष्यदेवगतिषु जीवसमासदयं भवति । तत् किं ? सणिजुयलं---पंचेन्द्रियसंझिनो युग्ममिति । कोऽर्थः ? नरकगत्यां पंचेन्द्रियसंक्षिपर्याप्तापर्याप्तौ जीवसमासौ भवतः । तथा मनुष्यगत्यां देवगत्या च संक्षिपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासद्वर्य भवति । चउदस तिरिएसु---तिर्यक्षु तिर्यग्गतौ चतुर्दशजीवसमाला भवन्ति । ते के
बोदरमुहमगिदियवितिचाउरिदियअसण्णिसपणी य। पजत्तापजत्ता एवं ते चोदसा जीया ॥ १ ॥ एवं गाथोक्तचतुर्दशजीवसमासा भवन्ति । दोणि वियलेम-द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु, दोणि-दौ पर्याप्तापर्याप्तौ जीबसमासौ भवतः । एयपणक्खे वि य चदु--एकेन्द्रियेषु पंचेन्द्रियेोषु च चत्वारो जीवसमासाः । तत्रैकेन्द्रियेषु एकेन्द्रियसूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्ता इति चत्वारो जीवसमासाः सन्ति । पंचेन्द्रियेषु पंचेन्द्रियसत्यसंज्ञिनः पर्याप्तापर्याप्ता इति चत्वारो जीवसमासा भवन्ति । पुढीपगए य चत्तारि-पृथ्वीपंचके च चत्वारः पृळ्यप्तीबायुवनस्पतिषु चत्वारो जीवसमासा भवन्ति । ते के ? सूक्ष्म बादरपर्याप्तापर्याप्ता इति चत्वारः । पृथ्वी सूक्ष्मा बादरा पर्याशा अपर्याप्तौ च । एवमबादिषु योज्यम् || ४ ॥
दस तसकाए सण्णी सच्चमणाईसु सत्तजोगेसु ।
वेदियादिपुण्णा पणमहे सत्त ओराले ॥५॥ १ बावरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंझिसज्ञिनश्च ।
पर्याप्तापर्याप्ता एवं ते चतुर्दश जीवा: ॥ . २ 'पंचेन्द्रियेषु' इति पाठः पुस्तके नास्ति । ३ 'अपर्याप्ता' इति पाठः पुस्तके नास्ति ।
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सिद्धान्तसारः ।
दश त्रसकायें सझी सत्यमनआदिषु सप्तयोगेषु ।
दीन्द्रियादिपूर्णाः पंचाष्टमे सप्त ओराले !! दस तसकार--सकायेषु द्वित्रिचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियेषु दश जीवसमासा भवन्ति । ते के ! द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः पर्यात्तापर्याप्ता इति षट् । पंचेन्द्रियसंश्यसंज्ञिनः पर्याप्तापर्याप्ता इति चत्वार एवं दश । सण्णी सच्चमणाईसु सत्तजोगेसु–सत्यमन:प्रभृतिषु सत्यासत्योभगानुयागमोयोगेषु दाबायोमायतनगोष्ट सा योगेषु प्रत्येक एकः संशिपयाप्तको जीवसमासो भवति। वेईदियादिपुण्णा पणमढे--अष्टभेऽनुभयवचनयोगे द्वीन्द्रियादयः पर्याप्ताः पंच जीवसमासा भवन्ति । तानाहू-द्वित्रिचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियसंझ्यसंझिनः पर्याप्ता इति पंच । सत्त ओराले औदारिकशरीरे सप्तजीवसमासा भवति । एकेन्द्रियसूक्ष्मबादरपर्याप्ता इति द्वयं द्वित्रिचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियसंश्यसज्ञिनः प
प्तिा इति पंच, एवं सप्तजीवसमासा औदारिककाययोगे भवन्तीत्यर्थः ॥ ५॥
मिस्से अपुण्णसग इगिसण्णी वेउश्चियादिचउसु च । कम्मइए अह स्थी-पुंसे पंचक्खायचउरो ॥६॥ मित्रे अपूर्णसप्त एकसंज्ञी विमूर्विकादिचतुषु च ।
कार्मणे अष्टौ स्त्रीपुंसो; पंचाक्षगतचत्वारः || मिस्से अपुष्णसग इगिसण्णी-औदारिकमिश्रकाययोगे अपर्याप्ताः सप्त, इगिसण्णी--एकः संशिपर्याप्तक एवमष्टौ जीवसमासाः । ते के ! एकेन्द्रियसूक्ष्मवादरद्वित्रिचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियसंध्यसंझिनोऽपर्याप्ताः सप्त, एकः पर्याप्तः संझी स च केलिसमुद्धातापेक्षया प्रायः, एवमष्टौ जीवसमासा औदारिकमिश्रकाययोगे भवन्तीति विज्ञेयं । वेउब्धियादिचउसु च-बैक्रियिकादिचतुर्पु काययोगेषु चकारादेकः संशी । अत्र भेदः
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
वैकिकि काययोगे पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्त इत्येको भवति । वैक्रियिकमिI काययोगे पंचेन्द्रियसंध्यपर्याप्तको भवति । आहारककाययोगे पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तको भवति । आहारकमिश्रकाययोगे पंचेन्द्रियसंज्ञयपर्याप्तको भवति । कम्मइए अट्ठ-कार्मणकाययोगे मदारिकमिश्रकयोका अष्ट जीवसमासा भवन्ति । त्थीपुंसे पंचक्खगयचउरो स्त्रीवेदे पंचेन्द्रियर्सझिपर्याप्तापर्याप्तपंचेन्द्रियासज्ञिपर्याप्तापर्याप्ता एते चत्वारः । वेदे स्त्रीवेदोक्ताश्चत्वारो जीवसमासा भवन्ति ॥ ६ ॥
संदे कोहे मागे मायालोहे य कुमइकुसुईये य । चोइस इगि बेभंगे महसुहअवहीसु सष्णिदुगं ॥ ७ ॥
पढेको माने मायालो भयोः च कुमतिकुश्रुतयोः च । चतुर्दशएको बिमंगे मतिश्रुतावधिषु संज्ञिद्विकं ॥
संढे -- नपुंसक वेदे चतुर्दश जीवसमासा भवन्ति । तथा, कोहे माणे भाया लोहे य--कोने माने मायायां लोभे च चतुर्दश जीवसमासा भवन्ति । तथा कुमइकुसुईये—कुमतौ कुश्रुतौ च चतुर्दश जीवसमाल | भवन्ति । इगि बेभंगे - त्रिभंगे कवधिज्ञाने एक: पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्त एव । मइसुइअवहीसु सण्णिदुर्ग - मतिश्रुलेवधिज्ञानेषु त्रिषू प्रत्येकं सणिदुर्ग --- पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ जीवसमासौ स्त इत्यर्थः ॥ ७ ॥
६
मणवले सण्णी पुण्णो सामाइयादिसु तह य । चउदस असंजमे पुण लोयणअवलोयणे छक्कं ॥ ८ ॥
मनःकेबलयोः संज्ञी पूर्णः सामायिकादिषट्सु तथा च । चतुर्दश असंयमे पुनः लोचनावलोकने पट्कं ॥
१ मतिश्रुतावधिज्ञानेषु इति सुभाति ।
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सिद्धान्तसारः ।
|
मण केवलेसु सण्णी पुण्णो मनः पर्यय केवलज्ञानयोः द्वयोः पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्त एव एकजीव समासो भवति । सामाइयादिछसु तह य-तथा तेनैव प्रकारेण च देशसंयम - सामायिक च्छेदोपस्थापना - परिहाराशुद्धिसूक्ष्मसाम्यराय — यथाख्यात संयतेषु षट्सु संयमेषु प्रत्येकं संज्ञिपर्याप्त एक एव स्यात् । चउदस असंजमे – असंयमनानि सप्तमे संयमे चतुर्दशजीवसमासा भवन्ति । पुण लोयणअवलोयणे छक्कं पुनः लोचनावलोकने चक्षुर्दर्शने जीवसमासपट्टं भवति । चतुरेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ पंचेन्द्रियासंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ, पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ उभौ इति जीवसमासाश्रक्षुर्दर्शने भवन्तीत्यर्थः ॥ ८ ॥
क
-
चउदस अचक्खुलोए दो एक अवधि केवलालोए । किण्हादितिए चउदस तेजाइमु सुणियदुगं च ॥ ९॥
चतुर्दश अचक्षुरालोके ह्रौं एकोऽधिकेवालो के | कृष्णादित्रि के चतुर्दश तेजआदिषु संज्ञिद्रिकं च ॥
चउदस अचक्लोए अचक्षुर्दर्शने चतुर्दशजीवसमासा भवन्ति । दो एक्कं अवहिकेवलालोए - अत्र यथासंख्येन व्याख्या, अवधिज्ञाने पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ जीवसमासौ भवतः, केवलदर्शने पेचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तक एक एव जीवसमासः स्यात् । किण्हादितिए चउदस --- कृष्णादित्रिके कृष्णनीलका पोतासु लेश्यामु तिसृषु चतुर्दशजीवसमासा ज्ञेयाः । तेजाइसु सण्णियदुगं च - तेज आदिषु पीतपद्मशुक्रलेश्यात्रिके पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्त जीवसमासद्विकं भवति ||९||
171S
चउदस भव्वाभव्वे दुण्योगं खाइयादितिसु मिस्से | अण्णा सग पुण्णा सण्णी इगि चउदस य दोसु कमे ॥१०॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
va.
चतुर्दश भागापोः द्वौ साः धामिकाविति मिश
अपूर्णाः सप्त पूर्णः संज्ञी एकः चतुर्दश च द्वयोः क्रमेण ॥ भव्यजीवेऽभव्यजीवे च चतुर्दश जीवसमासा भवन्ति । दुग्णेगे खाइयादितिसु मिस्से—अत्र यथासंख्यं व्याख्येयं, क्षायिका दित्रिषु क्षायिकोपशमवेदकसम्यक्त्वेषु पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासौ द्वौ भवतः, मिश्रे सम्यक्त्वे पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तक एक एव जीवसमासो भबति । मिश्रे मरणासंभवादपर्याप्तत्वं तु न संभवति । अपुष्णा सग पुण्णा सण्णी इति चउदस य दोसु कमेकमे इति–क्रमेण, दोसुद्वयोः सासादनमिथ्यात्वसम्यक्त्वयोः, अमुण्णा सग-अपर्याप्ताः सप्त, सण्णी इगि पर्याप्तसंझी एकः, चतुर्दश च, । अथ व्यक्ति:-सासादनसम्यक्त्वे एकेन्द्रियसूक्ष्मबादरद्वित्रिचतुरेन्द्रियपंचेन्द्रियसंख्यसंक्षिन एते सप्त अपर्याप्ताः पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्त एक एव एवं अष्टौ जीवसमासाः (सासादनसम्यक्त्वे) भवन्तीति भावः। मिथ्यात्वसम्यक्वे एकेन्द्रियादयश्चतुर्दश जीवसमासा भवन्तीति सूत्रार्थः ॥ १० ॥
सण्णिअसण्णिसु दोणि य आहारअणाहारएसु विष्णेया। जीवसमासा चउदस अहेव जिणेहिं णिदिवा ।। ११ ।।
संझ्यसंज्ञिनोः द्वौ च आहारानहारकयोः विज्ञेयाः ।
जीवसमासाश्चतुर्दश अष्टावेव जिन: निर्दिष्टाः ॥ सण्णिासगिणसु दोणि य--संज्ञिजीवे पंचेन्द्रियसंक्षिपर्याप्तापप्तिौ द्वौ जीवसमासौ भवतः । असंज्ञिजीवे भसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ जीय
१ सासादनं च मिथ्यात्वं च सासादन मिथ्यात्वे ते च ते सम्यक्त्वे तयोरिति विग्रहः । २ व्यक्तिसासादन' पुस्तके पाठः । ३ शब्दोऽयं द्विरुकोऽतः कोछे निहितोऽस्माभिः।
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सिद्धान्तसारः ।
समासौ स्याताम् । आहारानाहरकेषु ज्ञेया जीवसमासाश्चतुर्दश अष्टावे । को भावः ? आहारकमार्गणायां चतुर्दशजीवसमासा विज्ञेयाः । अनाहरकमार्गणायामष्टावेव जीवसमासा बोद्धव्याः । ते के इति चेदुच्यंते — एकेन्द्रियसूक्ष्मबादर द्वित्रिचतुरिन्द्रियपेचेन्द्रियसंक्ष्यसंज्ञिन एते सप्त अपर्याप्ताः, एकः संज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तक इत्यष्टौ जीवसमासाः 1 अनाहारे एतेऽथं संभवतीत्याकायामाह - कचिद्विग्रहमत्यपेक्षया कचित्केसमुद्रातापेक्षया । तथा चोक्त:---
play the way
विग्गहगह मावण्णा समुद्रोदय के लिअ जीगिजिना । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारिया जीवा ॥ १ ॥
जिणेहि पिट्ठिा — जिनैः कविता मार्गणासु यथासंभव जीवसमासा जिनैर्भणिता इत्युक्तिलेशः ॥ ११ ॥
इति चतुर्दशमार्गेणासु जीवसमासाचतुर्दश संक्षेपेण कथिताः ।
अथ चतुर्दशमार्गेणासु चतुर्दशगुणस्थानान्यवतारयन्नाह ग्रन्थकर्ता ( मार्गणासु गुणस्थाननिरूपणार्थं गाधामाह ) -
णारयतिरियणरामरगईसु चउपंचचउदसचयारि । गिदुति चउरक्खेसु य मिच्छं विदियं च उववादे ॥ १२ ॥ नारकतिर्यङ्नर मरगतिषु चतुः पंचचतुर्दशचत्वारि ।
एकद्वित्रिचतुरक्षेषु च मिथ्यात्वं द्वितीयं चोपपदे ||
इयं गाथा यथासंख्यं व्याख्येया । नारकतिर्यङ्नर मरगतिषु चतु:पंचचतुर्दशचत्वारि गुणस्थानानि यथासंख्यं भवन्ति । इति गतिमार्गण |
1 विग्रहगति मापक्षाः समुद्रात केवययोगिजिना: । सिवानाहारकाः शेषा आहारका जीवाः ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
समाप्ता । इगिदुतिचउरक्षेसु य मिच्छ विदियं च उववाद--एकद्वित्रिचतुरक्षेषु च एकेन्द्रियेषु दीन्द्रियेषु त्रीन्द्रियेषु चतुरिन्द्रियेषु चैक मिध्यास्त्रं । च पुनः एतेष्वेव द्वितीयं सासादनगुणस्थानं, उक्वादे-उत्पत्तिकाले अपर्याप्तसमये स्यात् । एकेन्द्रियादिषु चतुर्षु मिथ्यात्वसासादनगुणस्थानद्वयं भवतीत्यथैः ।। १२ ।।
चउदस पंचवाखतसे धरादितिसु दुगिगि तेयपवणेसु । सच्चाणुभये तेरस मणवयणे वारसण्णेसु ॥ १३ ॥
चतुर्दश पंचाक्षत्रसयोः धरादित्रिपु द्वे एक तेजःपवनयोः । सत्यानुभययोः त्रयोदश मनोबचनयोः द्वादशान्येषु ॥ चउदसेत्यादि । पंचक्खतसे—पंचाक्षेप पंचेन्द्रियेषु मिथ्यात्वादिचतुर्दशगुणस्थानानि भवन्ति । इन्द्रियमार्गणा समाप्ता। ' तसे' इत: प्रारभ्य कायमार्गणा निखम्यते----तसे—इति, उसकायेषु च मिथ्यात्वादिचतुर्दशगुणस्थानानि स्युः । धरादितिसु दुगि-~-वरादिषु त्रिषु पृथिव्यवनस्पतिकार्ययु, दुगि-मिथ्यात्वसासादनगुणस्थानद्वयं भवति । इगि तेयपवणेसु-तेज:पवनकायेषु एक मिथ्यात्वगुणस्थानं भवति । इति कार्यमार्गणा समाता । सञ्चाणुभये तेरस मणत्रयणे--सत्यानुभयमनोयोगे मिथ्यात्वादित्रयोदश, सत्यानुभयवचनयोगे त्रयोदश । बारसंण्णेसु-अन्येषु असत्यमनोयोगोभयमनोयोगासत्यवचनयोगोभयवचनयोगेषु चतुर्यु प्रत्येक बारस--(द्वादश) मिध्यात्यादीनि क्षीणकषायान्तानि स्युः॥१३॥
ओरालिए य तेरस मिस्से कम्मे य मिस्सति यजोगी। वेउब्धियदुग चदुतिय पमत्तमाहारदुगे य ॥ १४ ॥
१ 'मारस चाण्णेसु' टीकापाठः पुस्तके ।
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सिद्धान्तसारः।
औदारिके च त्रयोदश मिश्रे कार्मणे च मिश्रत्रिकयोगिनः । त्रैमूर्षिकद्विके चतु:त्रिक प्रमत्तमाहारकद्वि के च ॥ औदारिककाययोगे मिथ्यात्वादिसयोगकेत्रलिपर्यन्तानि त्रयोदश गुणस्थानानि भवन्ति । मिस्से कम्मे य मिस्सतियजोगी--मिस्से इति
औदारिकमिश्रकाययोगे, कम्मे य---इति, कार्मणकाययोगे च, मिस्सतियजोगी—मिश्रत्रिक सयोगिगुणस्थानं च भवति । मिश्रत्रिकमिति कोऽर्थः? मिथ्यात्वसासादनाविरतानीति मिश्रत्रयं भण्यते । औदारिकमिश्रकाययोगे कार्पण काययोगे च मिथ्यात्वसासादनाविरतसयोगकेवलीनि नामानि चत्वारि गुणस्थानानि भवन्तीत्यर्थः । मिश्रकाणकाययोमिश्रगुणस्थान कुतो न संभवति ? मरणाभावात् । तथा चोक्त:-- __ 'मिश्रे क्षीणे सयोगे च मरणं नास्ति देहिनाम्'
इति वचनात् । वेरवियदुग चदुतिय-क्रियिकद्विके चत्वारि त्रीणि यथासंख्यं । वैक्रियिककाययोगे मिथ्यात्वसासादनमिश्राविरतगुणस्थानचतुष्टयं भवति । वैक्रियिकमिश्रकाययोगे मिथ्यात्वस सादनाविरतगुणस्थानत्रिक भवति । पमत्तमाहारटुगे य.---आहारकदिके आहारककाययोगे आहारकमिश्रकाययोगे च प्रमत्ताख्यं एक षष्टं भवति । इति योगमार्गणा समाप्ता || १४ ||
वेदतिए कोहतिए णवगुणटाणाणि दसय तह लोहे । अण्णाणतिए. दो मइतिए चउत्थादिणव चेव ।। १५ ॥
बेदनिके क्रोधत्रिक भवगुणस्थानानि दशक तथा लोभे ।
अज्ञानत्रिके वे मतित्रिके चतुर्थादिनव चैव ।। वेदतिए-वेदान्त्रिके स्त्रीवेदवेदनपुंसकवेदेषु त्रिषु मिथ्यावादीन्य-. निवृत्तिकरणपर्यन्तानि नवगुणस्थानानि भवन्ति । इति वेदमार्गणा।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
कोहतिए णम-क्रोधत्रिके क्रोधमानमायासु मिथ्यात्वादीन्यनिवृत्तिकरणपर्यन्तानि गुणस्थानानि भवन्ति । दसय तह लोहे--तथा लोभे मिथ्यात्वप्रतिसूक्ष्मसाम्परायपर्यन्तं गुणस्थानदशकं भवति । इति कषायमार्गणा पूर्णा । अण्णाणतिए दो-अज्ञानत्रिके द्वे गुणस्थाने, कुमतिकुश्रुतकवधिषु त्रिषु प्रत्येक मिथ्यात्वसासादनगुणस्थाने द्वे भवत: । मइतिए घउत्थादिणव चेव---मतित्रिके मतिश्रुतावधिज्ञानेषु चतुर्थादिनत्र चैव अविरतादिक्षीणकषायपर्यन्तानि नवगुणस्थानानि भवन्ति ॥ १५ ॥ सग मणपज्जे केवलणाणे जोगदुर्ग पमत्तादी। चदु सामाइयजुयले पमत्तजुयलं च परिहारे ।। १६ ।।
सप्त मनःपर्यथे केवलज्ञाने योगिद्विकं प्रमत्तादीनि |
चत्वारि सामायिकयुगले प्रमत्तयुगलं च परिहारे ।। सग मणपज्जे-मणपज्जे-इति, मनापर्ययज्ञाने,सग-इति,सप्त गुणस्थानानि स्युः । तानि कानि चेदुच्यते प्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यन्तानि सप्त भवन्ति । केवलणाणे जोगदुर्ग-केवलज्ञाने योगद्विक सयोगायोगकेवलिगुणस्थानद्वयं भवति । इति ज्ञानमार्गणा । पमत्तादी बदु सामाइयजुयले–सामायिकयुगले सामायिकच्छेदोपस्थापनद्वयोः प्रमत्तायनिवृत्तिकरणगुणस्थानपर्यन्तानि चत्वारि भवन्ति । पमत्तजुयलं च परिहारेपरिहारविशुद्धिसंयमे तृतीये प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानद्वयं भवति ॥ १६ ॥
सुहमे सुहम अंतिमचत्तारि हवंति जहखादे । चरियाचरिए इक्कं पंचमयं असंजमे चउरो ॥ १७ ॥
सूक्ष्मे सूक्ष्म अन्तिमचत्वारि भवन्ति यथाख्याते । चरिताचरिते एक पंचमकं असंयमे चत्वारि ।।
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सिद्धान्तसारः ।
सुहमे--- इति, सूक्ष्मसाम्पराये चतुर्थे संयमे, सुहम- इति सूक्ष्मसाम्परायनाम दशमं एक गुणस्थानं भवति । अंतिमचत्तार जहखादे-इति, यथाख्याते पंचमसंयमे अन्तिमचत्वारि गुणस्थानानि भवन्ति | तानि कानि किन्नामानि चेत् । उपशान्तकषायक्षाणकवायसयोगायोगकेवलिनामानि ज्ञेयानि । चरियाचरिए इक्क पंचमयं-चरिताचरिते संयतासंयते प्रष्टे संयमे, इक पंचमय --इति, पंचमं देशचिरताख्यं भवति । असंजमे चउरो---असंयते सप्तमे मिथ्यात्वादिचतुर्थगुणस्थानानि चत्वारि भवन्ति । इति संयममार्गणा पूर्णा ॥ १७ ॥
वारस चक्खुद्गे णव अवहीए दुण्णि केवलालोए । किण्हादितिए चउरो तेजापउमासु सत्तगुणा ॥ १८ ।।
द्वादश चक्षुकि नव अवौ केवलालोके । कृष्णादिनिके चत्वारि तेजःपद्मयोः सप्तगुणाः ।। बारस चाखुदुर्ग-~-इति, चक्षु ये चक्षुर्दर्शनेऽचक्षुर्दर्शने च मिथ्यात्वादीनि क्षीणकषायपर्यन्तानि द्वादश गुणस्थानानि स्युः । णव अवहीए-अवधिदर्शने अविरतप्रतिक्षीणकपायात्रसानानि नत्रगुस्थानानि भवन्ति। दुणि केवलालोए केवलालोके केत्रलदर्शने, दुण्णिसयोगायोगकेवलिगुणस्थानद्वयं स्यात् । इति दर्शनमार्गणा । किण्हादितिए चउरो-कृष्णादित्रिके चउरो-मिथ्यात्वसासादनमिश्रावित्यभिधानानि गुणस्थानानि चत्वारि भवन्ति । तेजापउमासु---पीतपालेश्ययोईयोः, सत्तगुणा-मिथ्यात्वादीन्यप्रमत्तान्तानि सप्त भवन्ति ॥१८॥ सियलेस्साए तेरस भव्वे सव्वे अभव्यए मिच्छे । इगिदह चदु अड खाइयतिए तहणेसु णियइक ॥ ११॥ १-२ 'एक्क' इति पुस्तके पाठः ।
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१४
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
सितलेश्यायां त्रयोदश भव्ये सर्वाणि अभव्ये मिथ्यात्वं । एकादश चत्वारि अष्टौ क्षायिकत्रये तथान्येषु निजैकम् ॥
1
सिक्लेस्साए तेरस — सितलेश्यायां शुक्रलेश्यायां मिथ्यात्वप्रभृतित्रयोदशगुणस्थानानि भवन्ति । इति श्यामार्गणा । मन्त्रे सच्चे इति, भव्यजीवे सच्चे इति, मिथ्यात्वाद्ययोग केवलिपर्यन्तानि चतुर्दशगुणस्थानानि सर्वाणि भवन्ति । अभव्वए -- इति, अभव्यजीचे एकं मिध्यात्वगुणस्थानं भवति । इति मन्यमार्गमा इगिदह चतु अतिरिक THAT अत्र यथासंख्येन व्याख्या वर्तते तथाहि-- क्षायिकसम्यक्त्वे एकादश चतुर्थादिसिद्धपर्यन्तान्येकादशगुणस्थानानि विद्यन्ते । वेदकसम्यकरवे, चदु--अविरताद्य प्रमत्तान्तानि चत्वारि गुणस्थानानि प्रतिपत्तव्यानि । उपशमसम्यक्त्वे, अड — अविरताद्युपशान्तकषायान्तानि अष्टौ ज्ञेयानि । तह ऽण्णेषु तथान्येषु मिथ्यात्व सासादनमिश्रेषु नियइक्के --- निजैकमिति । कोऽर्थः ? मिथ्यात्वसम्यक्त्वे मिध्यात्वमेकं भवति । सासादनसम्यक्त्वे निर्ज सासादनगुणस्थानमस्ति । मिश्रनाम्नि सम्यक्त्वे स्वकीयं मिश्र नामगुणस्थानं भवेत् । इति सम्यक्त्वमार्गणा ॥ १९ ॥ सणिअणसु बारस दो पढमादितिदस पण गुणा कमसो । आहारजणाहारे पसु इदि मग्गणठाणएस गुणा ॥ २० ॥
117
संध्यसंज्ञिषु द्वादश द्वे प्रथमादित्रयोदश पंच गुणाः क्रमशः । आहारकानाहरके एतेषु इति मार्गणस्थानेषु गुणाः ॥
-
सविणअसविणसु बारस दो — अत्र यथासंख्यालंकारः । संज्ञिजीचे प्रथमादिक्षीणकषायपर्यन्तानि द्वादशगुणस्थानि स्युः । असण्णिसु-अर्स - ज्ञिजीवेषु द्वौ गुणौ मिध्यात्वसासादने भवत इत्यर्थः । इति संज्ञिमार्गणा । पढमादितिदसपणगुणा कमसी आहारअणाहारे— कमसो — इति, अनु
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सिद्धान्तसारः |
क्रमेण यथासंख्यतया, आहारके प्रथम मिथ्यात्वादिसयोगान्तानि त्रयोदशगुणस्थानानि सन्ति । अमाहारके पण गुणा-पंचगुणस्थानानि भवन्ति मिथ्यात्वसासादनाविरतिसयोगकेवल्ययोगकेवलिनामानि पंचगुणस्थानानि स्युः । अनाहारके एतानि पंचगुणस्थानानि कथं संभवतीत्यारेकायामाह-मिध्यावसासादनाविरतेषु त्रिषु जीवानां विग्रहमायां सत्यां अ. नाहरकत्वं संभवति । सयोगकेवलिनि समुद्धातापेक्षया ज्ञेयं । तथा चक्तिं---
विगहगइमावण्णा समुग्घ्रयकेलिअजोगिजिपा। सिधा य अणाहारा सेसा आहारिया जीवा ॥१॥
अयोगकेबलिनि तु स्वभावतोऽनाहरकत्वमस्ति । एसु इदि मागणठाणएस गुणा ---इत्यभुना प्रकारेण एतेषु मार्गणास्थानेषु गुणा गुणस्थानानि ज्ञेयाः ॥ २० ॥
इति मार्गणासु मुणा भणिताः ।
अथ चतुर्दशमार्गणासु पंचदशयोगान् प्रकटयन्नाह सूरि:आहारयओरालियदुगैहि हीणा हवंति णिरयसुरे । आहारयवेउब्वियदुगजोगे इगिदस तिरियक्खे ॥ २१ ॥
आहारकौदारिकद्विकैः हीना भवन्ति नारकसुरेषु । आहारक क्रियिकद्विकयोगेन एकादश तिरश्चि ।। आहाश्य इत्यादि । णिरयसुरे—-नरकगती देवगतौ च आहारकाहारकमिश्रकाययोगे इति द्वयं, औदारिकौदारिकमिश्रकाययोगदर्य इति चतुयोगैींना अन्ये उद्धरिताः, इगिदस-एकादशयोगा भवन्ति । ते के इति चेत् ? मनोयोगचत्वारि वचनयोगचत्वारि वैक्रियिककाययोग
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे-
१६
वैक्रियिक मिश्र काययोगकार्मणकाययोगा एवं एकादशयोगाः नरकगत्यां देवगत्यां भवन्तीति ज्ञेयं । आहारयवेडब्बियदुगजोगे इगिदस तिरियक्खेI तिर्यग्गतो आहारकाहारक मिश्रवैकिविकतन्मिश्र काययो गहना अन्ये एकादशयोगा भवन्ति । ते के ? अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिकतन्मिश्रकार्मण काययोगाचेति श्रय एवं एकादश योगाः स्युः ॥ २१ ॥ वेगुच्चियदुगरहिया मणुए तेरस एक्खकायेषु । पंचसु ओरालदुगं कम्मइयं तिष्णि वियलेसु ॥ २२ ॥ वैर्विकतिरदिता मनुजे एकाक पंचसु औदारिकाद्विक कामण त्रयो विकलेषु ||
गुब्वियरहिया मणुए तेरस - इति, मनुष्यगती वैकिविक वैक्रियिकमश्रकाययोमद्रयरहिता अन्ये त्रयोदश योगा भवन्ति । इति गतिमार्गणा । एक्कायेसु पंचसु ओरालदुगं कम्मइयं तिष्णि इति, एकेन्द्रिये, कायेसु पंचसु - इति, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायेषु च औदारिकौदारिकमिश्र काययोगद्वयं, कम्मइयं - कार्मण काययोग इति त्रयो योगा भवन्ति । वियले इति पदस्य व्याख्यानमुत्तरगाथायां वर्तते ॥२२॥ तद्यथा;अणुभयवयणेण जुआ चदु पंचक्खे दु पंचदस जोगा । तसकाए विष्णेया पणदह जोगेसु पियइक्कं ॥ २३ ॥
अनुभयवचनेन युताः चत्वारः पंचाक्षे तु पंचदश योगाः । बसका विज्ञेया: पंचदश योगेषु निजैकः ॥
वियलेसु अणुभयवयणेण जुआ चदु-इति, विकलेन्द्रियेषु द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु अनुभवचनेन युक्ताः चत्वारो योगा भवन्ति । ते के ? औदारिकौदारिक मिश्रकार्मणानुभयवचननामान एते चत्वारो योगाः । पंचक्खे दु पंचदस जोगा— तु पुनः पंचाक्षे पंचेन्द्रियेषु
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सिद्धान्तसास।
A
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पंचदश योगा भवन्ति । पंचेन्द्रियेषु नानाजीवापेक्षया यथासंभवमुत्प्रेक्षणीयाः। तसकाए विष्णेया पणदह----इति, सकायेषु सामान्यत्वेन पंचदशयोगाः सन्ति । इतीन्द्रियमार्गणाकायमार्गणाद्वय जातं । जोगेसु णियइक्के-इति, पंचदशयोगेषु निजैकः स्वकीयः स्वकीयो योगो भवति । को भावः ? सत्यमनोयोगे सत्यमनोयोगः, असत्यमनोयोगेऽसत्यमनोयोगः । एवं सर्वत्र ज्ञेयं । इति योगमार्गणा ॥ २३ ॥
आहारयदुगरहिया तेरस इत्थीणउंसए पुंसे । कोहचउक्के सव्वे अण्णाणदुगे तिदह हुति ॥ २४ ॥
आहारकद्विकरहिताः त्रयोदश स्त्रीनपुंसकयोः पुंसि । क्रोधचतुष्के सर्वे अज्ञानद्विके त्रयोदश भवन्ति ।। आहारय इत्यादि । स्त्रीवेदे नपुंसकवेदे च आहारकतन्मिश्रकाययोगद्वयरहिता अन्येऽवशिष्टास्त्रयोदश योगा भवन्ति । पुंसे—मुंवेदे, सव्वेसर्वे पंचदश योगाः स्युः । इति वेदमार्गणा । कोहच उक्के सत्रे-क्रोधचतुष्के क्रोधमानमायालोभचतुष्टये सर्वे योगा भवन्ति । इति कषायमार्गणा । अण्णाणदुगे----अज्ञानद्विके कुमतिकुश्रुतज्ञाने आहारकद्वययोगवस्त्रियोदश योगा भवन्ति ।। २४ ॥ मिस्सदुगाहारदुर्गकम्मइयविहीण हुँति वेभंगे। दस सब्वे गाणतिए मणपज्जे पढमणवजोगा ॥ २५॥ मिश्रद्विकाहारद्विककार्भणविहीना भवन्ति विभंगे।
दश सर्वे ज्ञानत्रिके मन:पर्यये प्रथमनवयोगाः ।। मिस्सेत्यादि । विभंगझाने कैवविज्ञाने, मिस्सेत्यादि-औदारिकमिअवैक्रियिकमिश्रकाययोगद्वयाहारकतन्मिघ्र काययोगद्वय कार्मणकाययोगविहोना उद्धरिता दशयोगा भवन्ति । ते के ! अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिकवैक्रियिककाययोगौ एवं दश योगाः कवधिज्ञाने भवन्तीत्यथः ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे-- सन्चे गाणतिए--ज्ञानात्रके मतिश्रुतावधिज्ञानत्रये सर्वे पंचदशयोगा भवन्ति । मणपजे पढमणवजोगा----मनःपर्ययज्ञाने प्रथमे 'अल्पादेर्वा' प्रथमा नवयोगा भवन्ति ! ते के ! अष्टौ मनोवचनयोगा एक औदारिकयोग एवं नवयोगाः ॥ २५ ॥
ओरालिय तम्मिस्सं कम्मइयं सच्चअणुभयाणं च ।। ममतपणाम पाउपरी मालामाले समिमिदंसयं ॥ २६ ॥
औदारिकः तम्मिश्रः कार्मर्ण सत्यानुभयानां च । मनोवचनामां चतुष्क केवलज्ञाने सन्त एकादशकं ॥ केवलणाणे--- केवलज्ञाने, सग सप्तयोगा भवन्ति । कितन्नामानः ? ओरालिये तम्मिस्सं-औदारिककाययोगः, तन्मिश्र औदारिकमिश्रकाययोगः, कार्मणकाययोग एते त्रयो योगाः । सञ्चेत्यादि--- सत्यानुभयमनोवचनानां चतुष्कं सत्यमनोयोगानुभयमनोयोगौ, सत्य वचनयोगानुभयवन्धनयोगी इति चत्वारो योगा एवं एकत्रीकृताः सप्तयोगाः केवलज्ञाने भवन्तीत्यर्थः । अत्र तटस्थेनोच्यत—-औदारिकाययोग औदारिकमिश्र काययोगः कर्मिणकाययोगश्चैते त्रयः केवलज्ञाने कर्थ संभवन्तीति चेत् , तदुच्यते--समुहातापेक्षया संभावनीयाः । तथा चोक्तं आगमग्रन्थे
दंडेदुगे ओराल कवाइजुगले य पयरसंघरणे। मिस्सोरालिय भणियं सेसतिए जाण कम्मइयं ॥१॥
अस्या अर्थ:---दंडकपाटयुम्मे औदारिककाययोगो भवति । कवाडयुगले य-च पुनः कपाटप्रतस्युम्मे औदारिककायोगो भवति । पयरसं
१ इगिदससं' पुस्तके मूलपाठः टीकापायोऽपि । २ ' ओरालियं ' टीकायो पाठः। ३ इंडद्विके औबारिक कपाटयुगले च प्रतरसंवरणे ।
मित्रोवारिक भणितं शेषत्रिक जानीहि कार्म
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सिद्धान्तसारः ।
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वरणे मिस्लोरादिय भणियं प्रतरसंवरणे प्रतरसमुद्धात संकोचने औदारिकमिश्रकाययोगो भणितः । शेष त्रिकं प्रतरलोकपूरणसंवरणत्रये कीमणकाययोगं जानीहि । इति ज्ञानमार्गणा । ' इगिदसयं' इति पदस्य उत्तरगाथायां सम्बन्धः ॥ २६ ॥
कम्मइय दुवेगुच्चिय मिस्सोरालूण पढमजमजुयले । परिहार दुगे णत्रयं देसजमे चेव जहखादे ॥ २७ ॥ कार्मणद्विवैक्रियिकमिश्रौदारिकोनाः प्रथमयमयुगले | परिहारद्विके नवकं देशयमे चैष यथाख्याते |
इगिदसयमिति पूर्वगाथास्थितं पदं, एकादशयोगाः प्रथमसंयमयुगले सामायिकच्छेदोपस्थापनाद्वये भवन्ति । ते के ? कम्मइय इत्यादि कार्मणकाययोगवै किकित मिश्र काययोगद्वयौदारिक मिश्र काययोगैरुना होना अन्ये एकादशयोगाः । ते के? अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिककाय- योग आहारकद्वयमित्यैकादशयोगाः । परिहार दुगे णवयं परिहारविशुद्विसूक्ष्मसां परागसंयमध्ये नवयोगा भवन्ति । ते के ? अष्टौ मनोवचनयोगा एक औदारिककाययोग इति नत्र । देसजमे चैव --- च पुनः देशसंयमे एते पूर्वोक्ता मनवचनानामष्टौ एक औदारिकयोग एवं नवयोगा भवन्ति । जहखादे - इति, उत्तर गाथायां सम्बन्धोऽस्ति ॥ २७ ॥ उब्वियदुगहारयदुगूण इगिदस असंजमे जोगा । तेरस आहारयदुगरहिया चक्खुम्मि मिस्गुणा ।। २८ ।। वैक्रियिकद्विकाहरकद्विकोना एकादश असंयमे योगाः । त्रयोदश आहारकद्विकरहिताः चक्षुषि मिश्रोनाः |
۹
' मिस्सा अन्यत्र । २ जुम्मे अन्यत्र |
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सिद्धान्तसारादिसंप्रहे__ जहखादे-यथाख्यातचारित्रे, वेउब्धियेत्यादि---वैक्रियिकवैक्रियिकर्मिश्राहारकाहारकमिश्रोना एकादश भवन्ति । ते के ? अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिकतन्मिश्रकार्मणकाययोगा एवं एकादशयोगा यथाख्यातसंयमे भवन्तीत्यर्थः । असंजमे जोगा तेरस आहारयदुगरहिया--- असंयमे आहारकयोगद्यरहिता अन्ये त्रयोदशयोगा भवन्ति । इति संयममार्गणा। चक्खुम्मि मिसणा-इति पदस्योत्तरगाथायां सम्बन्धः ॥२८॥
बारस अचक्खुअवहिसु सब्वे सत्तेव केवलालोए । किण्हादितिए तेरस पणदह तेजादियचउके ॥ २९ ॥
द्वादश अच्चक्षुरखध्योः सर्वे सप्तव केत्रलालोके ।
कृष्णादित्रिके त्रयोदश पंचदश तेज-आदिकचतुष्के । चक्खुम्भि मिस्सूणा-इति चक्षुर्दर्शने मिश्रोना औदारिकमित्रवैक्रियिकमिश्रकार्मणकायहीनाः, बारस-द्वादशयोगा भवन्ति । अचवुअवहिसु सम्बे-अचक्षुर्दर्शनेऽवधिदर्शने च सर्वे पंचदशयोगाः स्युः । सत्तेव केवलालोए.केवलदर्शने सप्तैव केवलज्ञानोक्ता भवन्ति । इति दर्शनमार्गणा । किण्हादितिए तेरस---कृष्णादित्रिके कृष्णनीलकापोतलेश्यासु आहारकद्वयं विना त्रयोदश योगा भवन्ति । पणदह तेजादियचउक्के-पीतपद्मशुक्लेश्यासु भन्ये च इति चतुष्के, पणदह-पंचदश योगा भवन्ति ॥ २९ ॥ तिदसाऽभव्वे सच्चे खाइयजुम्मे खु उवसमे सम्मे । सासणमिच्छे तेरस अतिमिस्साहारकम्मइया ॥ ३० ॥
त्रयोदशाभव्ये सर्वे क्षायिकयुग्मे खलु उपशमे सम्यक्त्वे ।
सासादमिथ्यात्वयोः त्रयोदश अत्रिमिश्राहारकर्मणाः || अभव्यजीचे आहारद्वयं विना अन्ये त्रयोदश योगा भवन्ति । इति हेश्यामार्गणा-भव्यमार्गणाद्वयं । सम्बे स्वाइयजुम्मे खु--स्फुट,.
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सिद्धान्तसारः।
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क्षायिकयुग्मे क्षायिकवेदकसम्यक्त्वे च सर्वे पंचदशयोगाः सन्ति । उधसमे सम्मे सासणमिच्छे तेरस-इति, उपशमसम्यक्त्वे सासादनसभ्यक्वे मिथ्यात्वसम्यक्त्वे आहारकाहारकमिश्रकाययोगद्वयं विना, सेरसत्रयोदश योगा भवन्ति । अतिमिस्साहारकम्मइया-इति पदस्य उत्तर-गाथायां सम्बन्धः ॥ ३०॥
मिस्से दस सण्णीए सब्चे चउरो असण्णिए जोगा। गयकम्मइयाहारे अणाहारे कम्मणो इक्को ॥ ३१ ॥ मिश्रे दश संज्ञिनि सर्वे चत्वारोऽसंज्ञिनि योगाः ।
गतकार्माणा आहारके अनाहारके कार्मण एकः ।। अतिमिस्साहारकम्मइया मिस्से दस इति क्रियाकारकसम्बन्धः। मिस्सेइंति, मिश्रे सम्यक्त्वे दशयोगा भवन्ति । अतिमिस्सेति-त्रिमिश्राश्च औदारिकमिश्रवैक्रिथिकमिश्राहारकभिश्रा आहारकश्च कार्मणकश्च त्रिंमिश्राहारकाणका न विद्यन्ते थेषु योगेषु ते तथोक्ताः। कोऽधः ? मिश्रसम्यक्त्वे एते पंचवर्मा अन्ये अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिककाययोग-वैकियिककाययोगौ द्वौ एवं दश योगा भवन्तीत्यर्थः । इति सम्पत्वमार्गणा | सण्णीए सव्वे-संज्ञिजीवे सर्वे योगा भवन्ति । चउरो असपिणए जोगा--असंशिजीवे औदारिकौदारिकमिश्रकार्मणकाययोगानुभयभाषा एते चत्वारो योगाः स्युः । इति संझिमार्गणा । गयकम्मइयाहारे-आहारके जीवे गतकार्मणाः कार्मणकाययोगवर्जा अन्ये चतुर्दशयोगाः सन्ति । अणाहारे कम्मणो इक्को-अनाहारके जीवे कार्मणकाख्य एको योगः । कदा यदा जीवो विग्रहगतिं करोति तदा संभवतीत्यर्थः । इति आहारकमार्गणा ॥ ३१॥
इति मार्गणास पंचदशमोगाः समाताः ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
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अथ चतुर्दशमार्गणास्थानेषु द्वादशोपयोगाः कथ्यन्ते --~~ णव णव बार्स णव गहचउक्कए तिष्णि इगिवितियक्खे | चरखे उचओगा चड बारस हुँति पंचक्खे ॥ ३२ ॥
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नव नव द्वादश नव गतिचतु त्रय एकदिव्य । चतुरक्षे उपयोगाश्चत्वारो द्वादश भवन्ति पंचाक्षे || णचेत्यादि । गतिचतुष्के, व पात्र बारस पात्र नब नब द्वादश नव | अत्र यथासंख्याकारः । तद्यथा । नरकगतौ नवोपयोगाः । ते के ? कुमति - कुश्रुत - कवधि - सम्यज्ञानत्रीणि चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनानि त्रीणि, एवं उपयोगा नव नरकगतौ नारकाणां ज्ञेयाः । तिर्यग्गतावपि एते एव उपयोगा नव भवन्ति । मनुष्यगतौ द्वादशोपयोगा भवन्ति । ते के कुमति - कुश्रुत कवधि - सुमति - सुश्रुताऽवधि - मन:पर्ययकेवलज्ञानान्यष्टौ चक्षुरचक्षुरधिकेवलदर्शनानि चत्वारि एवं द्वादशोपयोगा मनुष्यगतौ मनुष्याणां ज्ञातव्या इत्यर्थः । देवगतौ नव ये नारकगतावुक्तास्त एवोपयोगा नत्र भवन्ति । इति गतिमार्गणा । तिष्णि इगिवितियक्खे एकेन्द्रिये द्वीन्द्रिये श्रीन्द्रिये च तिणि इत्युपययोगत्रयं भवति । कुमति - कुश्रुतज्ञानद्वयं अचक्षुर्दर्शनमेकमिति त्रयं । चउरक्खे उबओगा — चतुरिन्द्रिये उपयोगाश्चत्वारः । ते के? कुमति कुश्रुतज्ञानोपयोगौ द्वौ चक्षुरचक्षुर्दर्शनोपयोगौ द्वौ एवं चत्वारः । बारस हुति पंचक्खे -- पंचाक्षे पंचेन्द्रिये द्वादशोपयोगा भवन्ति मनुष्यापेक्षया ! इतीन्द्रियमार्गणा ॥ ३२ ॥
कमई कुसुर्य अचक् तिष्णि वि भूआउतेउवाजवणे । बारस तसेसु मणवचिसच्चाणुभएतु वारस वि ॥ ३३ ॥ कुमतिः कुश्रुतं अचक्षुः त्रयोऽपि स्वप्तेजोवायुवनस्पतिषु । द्वादश त्रसेषु मनोवचनसत्यानुभयेषु द्वादशापि ॥
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सिद्धान्तसारः ।
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कुमइ इत्यादि । कुमतिज्ञानं कुश्रुतज्ञानमचक्षुर्दर्शनमेले त्रयोपयोगाः, भू इति पृथिवीकाये अपकाये तेजःकाये वायुकाये वनस्पतिकाये च भवन्ति | बारस तसेसु-इति, सकायेषु द्वादशोपयोगा भवन्ति । इति कायमार्गणा । मणवचिसचाणुभएसु बारम वि-इति, सत्यमनोयोगेऽनुभयममोयोगे सत्यवचनयोगेऽभुभयवचनयोगे एतेषु चतुषु योगेषु द्वादशैव उपयोगा भवन्ति ॥ ३३ ॥
दस केवलदुग बज्जिय जोमचउक्के दुदसय ओराले । केवलदुगमणपज्जवहीणा णव होंति वेउब्वे ॥ ३४ ॥
दश केवळद्विकं वर्जयित्वा योगचतुष्के द्वादश औदारिके ।
केवलद्विकमनःपर्ययहीना नत्र भवन्ति वैक्रियिके || दस केवलदुग जिय जोगबउक्के इति, असत्यमनोयोगोभयमनोयोगासत्यवचनयोगोभयवचनयोगा इति योगचतुष्के केत्रलद्विकवर्जिताः केवलज्ञानकेवलदर्शनद्वयरहिता अन्ये दशोपयोमाः सन्ति । दुदसय ओ. राले--इति, औदारिककाययोगे द्वादशोपयोगा विद्यन्ते । केवलदुगमणप- ' जनहीणा णव होति वे उम्वे-इति, क्रियिककाययोगे केवलज्ञानकेवलदर्शनद्वयमनःपर्ययज्ञानहीना अन्ये नव उपयोमा भवन्ति ॥ ३४ ॥
चक्खु विभंगृणा सग मिस्से आहारजुम्मए पढम । दंसणतियणाणतिय कम्मे ओरालमिस्से य ॥ ३५॥
चक्षुर्विभंगोनाः सप्त मिश्रे आहारकयुग्में प्रथमं । दर्शनत्रिकाज्ञानत्रिक कार्मणे औदारिकमिश्रे च ॥ चक्नुविभंगूणा सग मिस्से----इति, क्रियिकमिश्रकाययोगे चक्षुर्दर्शनविभंगज्ञानोनाः सप्त भवन्ति । के ते? कुमतिकुश्रुतसुमतिश्रुतावविशानानि पंच अचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनद्वयमिति सतोपयोगाः स्युः । आहार
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
जुम्मए पढम देसणतिय णाणतियं-आहारकयुग्मे च, पढम णापतियंप्रथम ज्ञानत्रिक प्रधर्म दर्शनत्रिक भवति । कोऽर्थः ! मतिश्रुतावधिज्ञानोपयोगास्त्रयः, चक्षुरचक्षुरबधिदर्शनोपयोगास्त्रयः, एवं षडुपयोगा आहारकयुम्मे भवन्तीति स्पष्टार्थः । कम्भे ओरालमिस्से य-इति, पदस्य व्याख्यानं उत्तरगाथायां ज्ञेयं ॥ ३५ ॥
वेभंगचक्खुदंसणमणपन्जयहीण णव वधुसंढे। मणकेवलदुगहीणा णव दस पुंसे कसाएसु ॥ ३६॥ विभंगचक्षुर्दर्शनमनःपर्ययहीना नव वधूपंढयोः ।
मन:केवलद्विकहींना नन्न दश पुंसि कषायेषु ।। कम्मे ओरालमिस्से य---कार्मणकाययोगे औदारिकंमिश्रकाययोगे च, वेभंगचखुदंसणमणपजयहीण णव--विभंगज्ञानचक्षुर्दर्शनमनःपर्ययज्ञानाहिला न्ये नमो . स . इ. सोग !! | बघूसढेबीयेदे नपुंसकवेदे च, मणकेवलदुगहीणा णव-मनःपर्यय केवलज्ञानकेवलदर्शनरोभिस्त्रिभिहींना इतरे नवोपयोगाः स्यु। दस पुंसे—इति, पुंवेदे केवलज्ञानकेवलदर्शनाभ्यां विना अन्ये दश उपयोगा भवन्ति । इति वेदमार्गणा | कसाएमु-योधमानमायालोभेषु केवलज्ञानदर्शनवर्जा दश एव भवन्ति । इति कमायमार्गणा || ३६ ॥
अण्णाणतिए ताणि य ति चक्खूजुम्मं च पंच सग चउसु । चउ तिणि णाण देसण पंचमणाणंतिमा दुणि ॥ ३७॥
अज्ञानत्रिके तान्येव त्राणि चक्षुर्युग्मं च पंच सप्त चतुषु ।।
चत्वारि त्रीणि ज्ञानानि दर्शनानि पंचमज्ञानेऽन्तिमौ द्वौ ॥ अण्णाणेत्यादि । अज्ञानात्रके कुमतिकुश्रुतकधिज्ञानत्रिके, ताणि य ति–तानि अज्ञानानि त्रीणि । चक्खूजुम्मं च पंच-~-च पुनः चक्षुर्युग्म
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सिद्धान्तसारः ।
एवं पंच । कुमतिज्ञाने कुश्रुतज्ञामे कवत्रिज्ञाने च कुमतिकुश्रुतविभंगज्ञानानि त्रीणि चक्षुरचक्षुदर्शने द्वे एते उपयोगा: पंच स्युः। सग चउसु चड तिष्णि गाण दसण---इति, चतुषु मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानेषु सप्तीपयोगा भवान्त । ते के चत्वारि ज्ञानानि त्रीणि दर्शनानि एवं सप्तोपयोगाः स्युः। पंचमणाणतिमा दुण्णि---इति, पंचमे केवलज्ञाने अ. तिमी केवलज्ञानदर्शनोपयोगी द्वौ भवतः । इति ज्ञानमार्गणा ॥ ३७॥
सामाइयजुम्मे तह सुहमे सग छप्पि तुरियणाणूणा । परिहारे देसजई छब्भणिय असंजमे णविति ॥ ३८॥
सामायिकयुग्मे तथा सूक्ष्मे सप्त षडपि तुरीयज्ञानोनाः । परिहारे देशयतो षट् भणिता असंयमे नवति ॥ सामाइयजुम्भे तह सुहमे सग—सामायिक्युम्भे सामायिकच्छेदोपस्थापनासंयमद्विके तथा सुहमे—सूक्ष्मसाम्परायसंयमे सप्तोपयोगा भवन्ति 1 ते के ? मतिश्रुतावधिमनःपर्थयज्ञानोपयोगाश्चत्वारः चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनोपयोगस्त्रिय एवं सप्त । छपि तुरियणाणूणा परिहारे--- इति, परिहारविशुद्धिसंयमे षडप्युपयोगास्तुरीयमन:पर्ययज्ञानोना मतिज्ञानादित्रयं चक्षुर्दर्शनादिवयं चेति षट् संभवन्ति । देसजई..--देशसंयमे संयमासंयमे, छम्भीणय-बडुपयोगा के परिहारसयमोक्तास्त एचोपयोगा भवन्ति । असंजमें णविति-असंयम नवोपयोगाः । ते के ? कुमत्यादित्रयं सुमत्यादित्रयं एवं षट् चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनोपयोगात्रय एवं नव भवन्ति ॥ ३८ ॥ पणणाण दंसणचउ जहखादे चक्खुदंसणजुगेसु । गय केवलदुग दंसणगदणाणुत्ता हि अपहिदुगे ।। ३९ ॥ पंचज्ञानानि दर्शनचतुष्क यथाख्याते चक्षुर्दर्शनयुग्मेषु । गतकेवलदिक दर्शनगतज्ञानोक्ता हि अवधिद्विके ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे..
पणणाण सणचड जहखादे- यथाख्यातसंयमे मतिज्ञानादिपंचज्ञानोपयोगाः, चक्षुरादिदर्शनोपयोगाश्चत्वार एवमुपयोगा नव भवन्ति । इति संयममार्गणा । चक्खुदंसणजुगेसु-चक्षुरचक्षुदर्शनद्वये, गयकेवलदुग-- केवलज्ञानदर्शनद्वयरहिता अन्य दशोपयोगाः स्युः । दसणेत्यादि, अवहिदु..... साधिदर्शी दल दर्शनाशिक: अवधिफेवलज्ञानोक्ताः । तत् कथं ? ये ऽवधिज्ञाने कथितास्ते सप्त मतिश्रुता. वधिमनापर्ययज्ञानोपयोगाश्चत्वारश्चक्षुरचक्षुरवनिदर्शनोपयोगास्त्रयोऽवधिदर्शने भवन्तीत्यर्थः । यो केवलज्ञाने केवलज्ञानदर्शनोपयोगौ प्रोक्तो तौ केवलदर्शने भवतः । इति दर्शनमार्गणा ॥ ३९ ॥
मणपज्जबकेवलदुगहीणुवओगा हवंति किण्हतिए । णव दस तेजाजुयले भव्ये वि य दुदस सुक्काए ।॥ ४० ॥
मनःपर्ययकेवलद्धि कहीनोपयोगा भवन्ति कृष्णत्रिके।
नव दश तेजोयुगले भन्येऽपि च द्वादश शुक्लायां । मण इत्यादि । किण्हतिए—कृष्णनीलकापीतलेयात्रिके मनःपर्ययकेवलज्ञानवदर्श स्त्रिभिहींना अन्य नवोपयोगा भवेयुः । दस तेजाजुयले-पीतपद्मलेझ्ययोर्दूयोः फेवलज्ञानदर्शनवर्जा अन्ये दशोपयोगाः सन्ति । भल्वे वि य दुदस सुक्काए...--शुक्कलेझ्यायां द्वादशोपयोगाः स्युः । इति लेश्यामार्गणा। भव्य जीवेऽपि च द्वादशोपयोगाः सन्ति ॥४०॥
पंच असुहे अभब्वे खाइयतिदए य व सग छेय । मिस्सा मिस्से सासण मिच्छे छप्पंच पणयं च ।। ४१ ॥
पंच अशुमा अभञ्ये क्षायिकत्रिके च नव सप्त षडेव । मिश्रा मिश्रे सासने मिथ्यात्वं षट् पंच पंचकं च ।। पंचेत्यादि । अभव्यजीवे कुमतिकुनुतविभंगज्ञानं चक्षुरचक्षुर्दर्शनोपयोगाः पंच अशुभा भवन्ति । इति भव्यमार्गणा । खाइयतिदए णव
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सिद्धान्तसारः ।
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सग छेय -- क्षायिकत्रिके नव सप्त षडेव । अत्र यथासंख्यालंकारः । क्षा यिकसम्यक्त्वे कुज्ञानत्रयवर्जा अन्ये नवोपयोगा भवन्ति । वेदकसम्यक्ले कुज्ञानत्रय केवलज्ञानदर्शनद्वयरहिता अपरे सप्तोपयोगाः सन्ति । उपशमसम्यक्त्वे सुमत्यादित्रयचक्षुरादित्रय एवं बहुपयोगाः स्युः । मिस्सा मिस्से - मित्रं सम्यक् मित्राः षट्कमतिक्रुताय विज्ञानोपयोगास्वयो मिश्ररूपाः । मिश्रा इति कोऽर्थः किंचित्किचित्कुज्ञानं किंचित्किचित्सुज्ञानं चक्षुरचक्षुरधिदर्शनोपयोगास्त्रय एवं पडुप्रयोगाः । सासण - इति, सासादनसम्यक्त्वे कुज्ञानत्रयं चक्षुरचक्षुर्दर्शनद्रयं एवं पंचोप योगाः स्युः । मिच्छे – मिथ्यात्वसम्यक् सासादनोक्तानामुपयोगान पंचकं भवति । इति सम्यक्त्वमार्गणा ॥ ४१ ॥
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दस सण असण्णी चदु पदमाहारए य चारसयं । मणचक्खुविभंगुणा गव अणाहारेय उवओगा ॥ ४२ ॥
दश संज्ञिनि असंज्ञिनि चत्वारः प्रथमे आहारके च द्वादशकं । मनश्चक्षुभिंगोना नत्र अनाहारे च उपयोगाः ||
दस सणि इति । केवलज्ञानदर्शनद्रयरहिता अपरे दशोपयोगा संज्ञिजी भवन्ति । असण्णीए चदु पटमा – असंज्ञि जीवे प्रथमाश्चत्वार उपयोगा भवन्ति । ते कं ? कुमतियं चक्षुरचक्षुर्दर्शनद्वयमेवं चत्वारः । इति संज्ञिमार्गणा । आहारए बारसयं आहारकजीचे उपयोगानां द्वादशकं भवेत् । मणचक्खुविभंगूणा गव अणाहारे उवओोगा ---- अनाहरजीचे मन:पर्ययज्ञानचक्षुर्दर्शन विभंगज्ञानैरूना रहिता अन्ये नत्रोपयोगा भवन्ति ॥ ४२ ॥
इति चतुर्दशमार्गणासु द्वादशोपयोगा निरूपिताः ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
अध चतुर्दशजीवसमासेषु पंचदशयोगा: कश्यन्तेणवसु चउक्के इक्के जोगा इगि दो हवंति बारसया । तम्भवगईसु एदे भवंतरगईसु कम्मइओ ॥ ४३ ।। सत्तसु पुण्योसु हचे ओरालिय मिस्सयं अपुण्णेसु । इगिड़गिजोग विहीणा जीवसमासेसु ते णेया ॥ ४४ ॥
नवसु चतुष्क एकस्मिन् योगा एको द्वै। भवन्ति द्वादश । सयगति से भवान्ततिष कामगं ।। सप्तसु पूर्णेषु भवेत् औदारिक मिश्रक अपूर्णेषु ।
एकैकयोगः द्विहीनाः जीवसमासेषु ते ज्ञेयाः ॥ गाधाद्वयन सम्बन्धः । जीवसमासेसु ते णेया—जीवसमासेषु ते योगा ज्ञेया ज्ञातव्या भवन्ति । कथमित्याह—णवसु चटक्के इक्के जोगा इगि दो हति बारसया---यथासंख्येन व्याख्येयं, नवसु जीवसमासस्थानेषु इगिएको योगो ज्ञेयः । चउक्के-चतुर्पजीवसमासस्थानेषु, दो-द्वी योगी ज्ञातव्यो। इक्के-एकस्मिन् जीवसमासस्थाने, बारसया-द्वादशयोगा भवन्ति | नवसु जीवसमासंपु एको योग इत्युक्तं तर्हि नवसमासाः के, तत्र एको योगो क इति चेदुच्यते--एकेन्द्रियसूक्ष्मापर्याप्ते औदारिकमिश्र काययोग एकः स्यात् । एकेन्द्रियसूक्ष्मपर्याते औदारिककाययोग एको भवति । एकेन्द्रियबादरापर्याप्त औदारिकमिश्नकाययोगोऽस्ति । एकेन्द्रियबादरपर्याप्त औदारिककाययोग एको वर्तते । दीन्द्रियापर्याप्तकाले औदारिकमिश्र काययोग एकः संभवति । त्रीन्द्रियापर्याप्तकाले औदारिकमिश्रकाययोग एक: स्यात् । चतुरिन्द्रियापर्याप्तकाले
औदारिकमिश्रकाययोग एकः प्रवर्तते । पंचेन्द्रियासंझिजीवापाते औदारिकमिश्रकाययोग एकः स्यात् । पंचेन्द्रियसंशिजीवापर्याप्तकाले
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सिद्धान्तसारः।
औदारिकामिकाययोग एको भवति । एवं नवसु जीवसमासस्थानेषु योग एको भवति । एवं चतुर्षु-जीवसमासेषु द्वौ योगौ भवत इति प्रोक्तं तर्हि चत्वारो जीवसमासाः के तत्र द्वौ योगी को इत्याशंकायामाह-दीन्द्रियपर्याप्त औदारिककाययोगानुभयवचमयोगौ भवतः । त्रीन्द्रियपर्याप्त काले औदारिककाययोगानुभयवचनयोगौ स्तः । चतुरिन्द्रियपर्याप्ते औदारिककाययोगानुभयवचनयोगों वर्तेते । पंचेन्द्रियासंझिपर्याप्ते औदारिककाय-- योगानुभयवचनयोगौ संभवतः । इति चतुर्दा जीवसमासेषु द्वौ द्वौ योगी प्ररूपिता । एकस्मिन् जीवसमासे द्वादशयोगा भवन्तीति पूर्वगाथायां सूचितं तर्हि एको जीवसमासः कः तत्र द्वादशयोगाः के इत्याह---पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तजीवसमासे अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिककाययोग"वक्रियिककाययोगाहारककाययोगाहारकमिश्रकाययोगाश्चत्वारः,एवं द्वादशयोगा; पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तकाले संभवन्तीत्यर्थः । इत्येकास्मन् जीवसमासे द्वादशयोगा निरूपिताः । तम्भवगईसु एदे-इति, तेषामेकेन्द्रियसूक्ष्मापर्याप्तादीनी जीवानां भवप्राप्तेषु, ऐदे---इति, एते एको द्वौ द्वादश योगा भवन्ति । भक्तरगईसु कम्मइओ-कार्मणको योगः स भवान्तरगतिषु । प्रकृताद्भवादन्यो भवो भवान्तरं तत्र गतयो गमनानि. भवान्तरगतिषु भवान्तरगमनेषु कार्मणकाययोगो भवतीत्यर्थः । सत्तम पुण्णेसु हवे औरालिय-सप्तसु जीवसमासेषु पर्याप्तेषु औदारिककोययोगो भवति । मिस्सयं अपुण्णेसु-इति, अपर्याप्तेषु सप्ततु एकेन्द्रियसूक्ष्मबादरद्वित्रिचतुःपंचेन्द्रियसंश्यसंज्ञिजीवेषु अपर्याप्तकालेषु सप्तस्थानेषु, मिस्सयं-औदारिकमिश्रकायो भवेत् । इगि इगि जोग-इनि,न्द्रियत्री.
१ यदा मनुष्यतियंग्गता जीवाः प्राप्नुवान्त तदा औदारिकामेश्रः संभवति । यदा नरकदेवगती प्राप्नुवन्ति तदा चैकियिकमित्रकारः संभवति । २ देवनारकापेश्या वैक्रियिकयोगोऽपि । ३ अपि पंचेदियमंत्रिषु पूर्ववष्यवस्था ।
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सिद्धान्त सारादिसंग्रहे
न्द्रियचतुरिन्द्रियपं चीन्द्रेयासहिपर्याप्तेषु चतुःस्थानेषु एकैकस्य योगस्य पुनरप्यन्यस्यैकस्य योगस्य संयोग क्रियते एवं द्वयं स्यात् । कोऽर्थ ? हीन्द्रियादिपर्याप्तेषु चतुःस्थानेषु औदारिककाययोगानुभयवचनयोगों हो भवत इत्यर्थः । विहीणा पंचेन्द्रियपर्याप्तेषु द्वादशयोगा भवन्तीति कथितं तत्कथं योगास्तु पंचदश वर्तन्ते ? ते योगाः, विहीणा द्वाभ्या--- मौदारिक मिश्रका यवै क्रियिक मिश्रकायाम्यां हीनाः क्रियन्ते । भवांतरगईसु कम्मइओ इति वचनात् कार्मणकायेन विना अन्ये द्वादशयोगाः पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्त केषु भवन्तीत्यर्थः ॥ ४३ ॥ ४४ ॥
इति जीवसमासेषु योगा उपन्यस्ताः ।
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अथ चतुर्दशजीवसमासेषु यथासंभवमुपयोगा लिख्यन्ते;कुमइदुगा अचक्खुतिय दससु दुगे चदु हवंति चक्खुजुदा । सणिअपुणे पुणे सग दस जीवेसु उवओगा ॥ ४५ ॥
कुमतिद्विको अचक्षुः त्रयः दशसु द्विके चत्वारो भवन्ति । चक्षुर्युताः सस्यपर्याप्त पर्याप्त सप्त दश जीवषु उपयोगाः ॥ कुमइदुगा अक्खुतिय दसमु--- इति, दशसु जीवसमासेषु कुमतिकुश्रुतज्ञानोपयोगी द्वौ अचक्षुर्दर्शनोपयोगक एते त्रय उपयोगा भवन्ति । ते दशजीवसमासाः के ये त्रय उपयोगा जायन्ते तदाह-एकेन्द्रियसूक्ष्मापर्याप्तः, एकेन्द्रियसूक्ष्मं पर्याप्तः, एकेन्द्रियवादरापर्याप्तः, एकेन्द्रियत्रादरपर्याप्तः, द्वीन्द्रियापर्यासः द्वीन्द्रियपर्याप्तः, त्रीन्द्रिया पर्याप्तः, त्रीन्द्रियप र्याप्तः, चतुरिन्द्रियापर्याप्तः, पंचेन्द्रियासंज्ञिजीवापर्याप्त: । एतेषु दशसु जीवसमासेषु कुमतिकुश्रुतज्ञानोपयोगी द्वौ अन्चक्षुर्दर्शनोपयोगश्चैते त्रयो १ पंचेन्द्रियाद्वियाहिपर्याप्तेषु इति पाठः पुस्तके |
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सिद्धान्तसारः
namannamrunmarrrrrrrrrrrrrrrrr-m..........
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भवन्तीति स्पष्टार्थः । दुगे चदु हवेति चक्खु जुदा--इति, द्वयो वसमासयोः चतुरिन्द्रियपर्याप्तपंचेन्द्रियासंशिजीवपर्याप्तयोश्चत्वार उपयोगा भबन्ति । ते के ? पूर्वोक्ताः कुमतिकुश्रुताचक्षुर्दर्शनोपयोगात्रयः, चक्षु जुदा-इति, चक्षुशीनोमोनसमिता २वं ८९ योगा. शुस अपुण्णे पुण्णे सग दस--अन्न यथासंख्यालंकारः, पंचेन्द्रियसंझ्यपर्याप्त सग-----इति, सप्तोपयोगा भवन्ति । ते के ? कुमतिश्रुतमुमतिश्रुतावधिज्ञानोपयोगाः पंच अचक्षुर्दर्शनाबधिदर्शनोपयोगी छौ एवं सप्त । पुण्णे दस---पंचेन्द्रियसंझिपर्याप्ते उपयोगा दश भवन्ति । के ते दश ? केवलज्ञानदर्शनवा अन्य दशोपयोगाः स्युः। जीवेसु उपओगा...जीवसमासेषु द्वादशोपयोगा यथाप्राप्ति प्ररूपिता: ॥ ५५ ॥
इति जीवसमासेधूपयोगा न्यस्ताः ।
अथ चतुर्दशगुणस्थानेषु यथासंभवं योगा निरूप्यन्तेमिच्छदुगे अयदे तह तेरस मिस्से पमसए जोगा। दस इगिदस सत्तसु णव सत्त सयोगे अयोगी य॥४६॥ मिथ्यात्वदि के अयते तथा त्रयोदश मिश्र प्रमत्तके योगाः ।
दशैकादश सप्तसु नव सप्त सयोगे अयोगिनि च । मिच्छेत्यादि । मिथ्यात्वप्रथमगुणस्थाने सासादनगुणस्थाने छ तथा अयदे-चतुर्थगुणस्थाने, तेरस-इति, आहारकाहारकमिश्रयोगाभ्यां विना अन्ये त्रयोदश योगा भवन्ति । मिस्से पमत्तए जोगा दस इगिदस- अत्र यथासंख्यत्वेन भान्य, मिस्से-तृतीये मिश्रगुणस्थाने दश योगा भवन्ति । ते के ? अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिककायवैक्रियिकाययोगी छौ एर्ष दश | पमत्तए जोगा इगिदस --षष्ठे प्रमत्तगुणस्थाने योगा एकादश
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहेभवन्ति । ते के ? अप्ठौ मनोवचनयोगा औदारिककाययोग आहारककाययोगस्तमिश्रकाययोगश्चेति त्रय एष एकादश योगाः । सत्तसु णवसप्तसु गुणस्थानेषु पंचमे देशत्रिरते सप्तमेऽप्रमत्ते अष्टमेऽपूर्वकरणे नवमेऽनिवृत्तिकरणे दशमे सूक्ष्म साम्पराये एकादशे उपशान्तकपाये द्वा. दशे क्षीणकषाये एवं एतेषु कथितेषु सप्तगुणस्थानेषु नव योगाः स्युः। ते के ? अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिककाययोगश्चैक एवं नव | सत्त सयोगे-सयोगकेवलिनि सप्त योगा भवन्ति । ते के ? सत्यमनोयोगोऽनुभयमनोयोगः सत्यवचनयोगोऽनुभयवचनयोग औदारिककाययोमानन्मिनकारयोगः कर्मणाय रागोग इति सप्त योगा। अयोगिनि चतुदशगुणस्थाने शून्यं योगाभावः ॥ ४६ ॥
इति गुणस्थानेषु योगा निरूपिताः ।
अथ चतुर्दशगुणस्थानेषु द्वादशोपयोगा वर्ण्यन्ते;पढमदुगे पण पणयं मिस्सा मिस्से तदो दुगे छक्कं । सत्तुवओगा सत्तसु दो जोगि अजोगिगुणठाणे ॥४७॥
प्रथमद्विके पंच पंचक मिश्रा मिश्रे ततो द्विके षट्क ।
सप्तोपयोगा: सप्तसु द्वौ योग्ययोगिगुणस्थाने । पढमदुगे--प्रथमावके मिथ्यात्वसासादनगुणस्थाने पणपणयं-पंच पंच उपयोगा भवन्ति । ते के ? कुमतिकुश्रुतविभगज्ञानोपयोगास्त्रयः चक्षुरचक्षुर्दर्शनीपथागौ द्वौ एवं पंच | मिस्सा मिस्से तदो दुगे छक्कंमिश्रगुणस्थाने तृतीये, तदो---इति, ततो मिश्रगुणस्थानात्, दुगे-हात, अविरते चतुर्थगुणस्थाने देशविरतगुणस्थाने पंचभे छक्क—षडुपयोगा भवन्ति । के ते ? मतिश्रुतावधिज्ञानोपयोगास्त्रयः चक्षुरचक्षुरवधिदर्श
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सिद्धान्तसारः
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नोपयोगास्त्रयः | अत्र एतावान् विशेष: - ये मिश्रगुणस्थानगा उपयोगास्ते मिश्रा भवन्ति । सतुबजोगा सत्तसु सप्तसु गुणस्थानेषु प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिकरण सूक्ष्मसाम्पराययथाख्यातोपशान्तकषायक्षीणकषायाभिधानेषु उपयोगाः सप्त भवन्ति । ते के? सुमतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानोपयोगाश्चत्वारः चक्षुरचक्षश्यधिदर्शनोपयोगास्त्रय एते सप्त स्युः । दो जोगिअजोगिगुणठाणे – सयोगिनि त्रयोदशगुणस्थाने अयोगिनि च हौ उपयोगौ स्तः । तौ को ? केवलज्ञानदर्शनोपयोगौ द्वौ ॥ ४७ ॥ इति चतुर्दशगुणस्थानेषूपयोगा जाताः ।
अथ चतुर्दशमार्गणासु समागतभयं कव्यन्ते । अथ बालबोधनार्थं तेषां प्रत्ययानां पूर्व नामानि निगद्यन्ते;
मिच्छत्तमविरदी तह कसाब जोगा य पच्चयाभैया | पण दुदस बंधहे पणवीसं पण्णरसा हुंति ॥ ४८ ॥
मिध्यात्वमविरतयस्तथा कमाया योगाश्व प्रत्ययभेदाः । पंच द्वादश बन्धहेतवः पंचविंशतिः पंचदश भवन्ति ॥ मिच्छतं - मिथ्यात्वपंचकं एकान्तविपरीतविनयसंशयाज्ञानोद्भवमिति पंचभेदं । तथा चोक्तं;
मिच्छोदपण मिच्छत्तमसद्दणं च तचअत्थाणं । पयंतं विवरीयं विषयं संसदि मण्णाणं ॥ १ ॥ अविरदी ( अविरतय: ) द्वादश । कास्ता: ? उक्तं चछरिंसदि विरदी छजीवे तह य अविरदी चेव । 1 इंदियपणासंजम बुदसं होदित्ति विद्दि ॥ १ ॥
4
१ मिथ्यात्वोदयेन मिध्यात्वं अश्रद्धानं च सत्वार्थान I एकान्तं विपरीतं विनयं संशयितमज्ञानमिति ॥
२ षटूष्विन्द्रियेषु अविरतिः षट्जीवे तथा चाचिरतिचैव । इन्द्रियमाणासंयमा द्वादश भवन्तीति निर्दिष्टं ॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
Humannmarrrrrrrrrrrrrrrrrrrronomiarrrrrrrrrrrrrrr-umanmar--
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तह कसाय-इति, तथा कषाया: पंचविंशतिः । के ते ? अनन्तानुबध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पा: क्रोधमानमायालोमा इति षोडश, हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्त्री पुंमपुंस कभेदा एवं पिण्डीकृताः पंचविंशतिः स्युः । योगा इति पंचदश | ते के ? सत्यासत्योभयानुभयमनोवचनविकल्पा अष्टौ योगा औदारिकौदारिकमिश्रवैक्रियिकवैक्रियिकमिश्राहारकाहारकमिश्नकोमणकाययोगाः सप्त, एवमैकत्रीकृताः पंचदशयोगाः । पच्चयाभेया-प्रत्ययभेदा आखवप्रकाराः । पण दुदस-अत्र यथासंख्यं, पण---मिथ्यात्वं पंचप्रकारं । दुदस-.-अविरतयो द्वादश । पणवीसं-कषायाः पंचविंशतिः। पण्णरसा-योगा: पंचदश । हुंतिभवन्ति । कथंभूता एते ! नेहेदू-कर्मबन्धहेतवः कर्मबन्धकारणानीत्यर्थः ॥ १८॥
आहारोरालियदुगिरथीपुंसोहीण णिरड् इगिवणं । आहारयवेउध्विय दुगूण तेवण्णण तिरियक्खे ॥ ४९ ॥ आहारौदारिकद्विकस्त्रीहीना नरके एकपंचाशत् ।
आहारकवैक्रियिकदिकोनाः त्रिपंचाशत् तिरश्चि ।। आहारेत्यादि । गिरइ---नरकगतो आहारकाहारकमिश्रदर्य औदारकौदारिकमिश्रद्वयं स्त्रीवेद वेदद्वयं एतैः अभिहीनाः, इगिवणं-अन्ये उद्धरित्ता एकपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति । आहारयेतादि-तिरियखेतिर्यगतौ आहारकतन्मिश्रद्वयं वैक्रियिकतन्मिश्रद्वयं एतैश्चतुभिरूना अपरे तेवण्ण---त्रिपंचाशत् आस्रवा भवन्ति || ४९ ॥ पणवणं वेउव्वियदुगूण मणुएसु हुति चावण्णं । संढाहारोरालियदुगेहिं हीणा सुरगईए ॥ ५० ॥ 'कामणकार्मण' इति पाठः पुस्तके ।
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सिद्धान्तसारः ।
- पंचनामा निमितानिनोना मनोन मन्ति
द्विपंचाशत् 1 षंढाहारौदारिकद्विकैहाना: सुरगत्याम् ॥ मणुएF---मनुजेषु मनुष्यगतो, वेउब्वियदुगूण—वैक्रियिकतन्मिश्रद्विकोना:, पणवण्णं—पंचपंचाशत्प्रत्ययाः, इंति-- संभवन्ति । बावणं संढाहारोरालियद्गेहिं हीणा सुरगईए-मुरगतौ नपुंसकवेदश्चाहारकतन्मिश्रद्वयं च औदारिकौदारिकमिश्रद्वयं च तै: पंचमिहीनाः, बावण्णं---द्वापं. चाशदानवाः स्युः । इति मतिमार्गणासु प्रत्यया निरूपिताः ॥५०||
मणरसगचउक्कित्थीपुरिसाहारयवेउव्वियजुगेहि । एयक्खे मणवचिअडजोगेहिं हीण अडतीसं ।। ५१ ॥
मनोरसनचतुष्कस्त्रीपुरुपाहारकवैक्रियिकदुगैः ।
एकाक्षे मनोवागष्टयोगैहींना अष्टात्रिंशत् ॥ एयखे-एकेन्द्रियजीवेषु, मणरसेत्यादि---मनश्च रसनचतष्कमिति रसननाणचक्षुःश्रोत्रचतुष्कं च स्त्रीवेदश्च पुंवेदश्च आहार काहारकमिश्रद्वयं च वैक्रियिकतन्मियुग्मं चैतैरकादशभिहनिाः पुनः मणवचिअडजोगेहि — सत्यासत्योभयानुभयमनौवचनयोगैरष्टभिहीना अन्येभ्य एकोनविंशतिप्रत्ययेभ्य उद्धरिता अन्ये, अडतीसं—अष्टात्रिंशत्मत्यया भवन्ति ||५१॥
एदे य अंतभासारसमजुया घाणचक्खुसंजुत्ता। चालं इगिवेयालं कमेण वियलेसु विणोया ॥ ५२ ।। एते च अन्तभाषारसनायुक्ता घ्राणचक्षुःसंयुक्ताः।
चत्वारिंशत् एकद्विचत्वारिंशत् क्रमेण विकलेषु विज्ञेयाः ॥ कमेण-अनुक्रमेण, वियलेसु-विकलत्रथेषु द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु, विण्णेया—प्रत्यया ज्ञातव्याः स्युः । कथं ? एदे य--एकेन्द्रियोक्ता भष्टात्रिंशत्प्रत्यया अन्तभाषारसनायुक्ता अनुभयवचनजिव्हासहिताः ।
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बिहान्नसाशदिसमहे--
चालं-चत्वारिंशत्प्रत्यया द्वीन्द्रियजीवे भवन्तीत्यर्थः । पुनरेते पूर्वोक्तः अष्टात्रिंशत् अनुभयवचनरसनघ्राणसहिताः, इगियालं-एकचत्वारिंशदा. स्रयास्त्रीन्द्रिये स्युः। तथा पूर्वोक्ता अष्टात्रिंशत् अनुभयवचनजिव्हेन्द्रियघ्राणचक्षुःसंयुक्ताः, वेयाल-द्विचत्वारिंशत् चतुरिन्द्रिये ज्ञातव्या इत्यर्थः ॥ ५२ ॥ पंचेंदिए तसे तह सब्वे एयक्खउत्त अडतीसा । थावरपणए गणिया गणणाहेहिं पचया णियमा ॥ ५३ ।। पंचेन्द्रिये त्रसे तथा सर्वे एकाक्षोक्ता अष्टात्रिंशत् ।
स्थावरपंचके गणिता गणनाथैः प्रत्यया नियमात् ।। पंचेत्यादि । पंचेन्द्रिये जीवे नानाजीवापेक्षया सर्वे प्रत्यया भवन्ति । इन्द्रियमार्गणासु प्रत्ययाः। तसे तह सव्वे-तथा से त्रसकाये सर्वे सप्तपंचाशन्नानाजीवापेक्षया आस्वा भवन्ति । थावरपणए---स्थावरपंचके पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायेषु पंचसु, एयक्खउत्त अडतीसाएकेन्द्रिये ये उक्ता अष्टात्रिंशत्प्रत्यया एव ते भवन्तीत्यर्थः । गणिया गणगाहेहिं पच्चया णियमा—नियमान्निश्चयात् गणनाथर्गणधरः प्रत्यया गणिता यथासंभवं संख्या नीताः । इति कायमार्गणास्थास्त्रवाः ॥५३॥
आहारदुगं हित्ता अण्णसु जोएसु णिय णिय चित्ता । जोग ते तेदाला पायव्वा अण्णजोगणा || ५४ ॥
आहारकद्विक द्वत्वा अन्येषु योगेच निजं निजे धृत्वा । योगं ते त्रिचत्वारिंशत् ज्ञातव्या अन्ययोगोनाः ।। आहारदुर्ग हित्ता--आहारद्विक हत्वा वर्जयित्वा । अण्णसु जोएस णिय णियं वित्ता जोग--अन्येषु त्रयोदशयोगेषु मध्ये निज निज स्वकीय
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मिट्रान्सला:
स्वकीय योग धृत्वा पुनः, अण्णजोगुणा-अन्यदिशभिर्योगैरूनास्ते, तेदाला णायव्वा---इति, ते प्रत्ययाः स्वकीयस्वकीययोगयुक्ताः त्रिचत्वारिशदास्रना ज्ञातव्याः | अथ स्पष्टतयोच्यते--सत्यमनोयोगे मिथ्यात्वपंच (क) अविरतयो द्वादश कपायाः पंचविंशतिः स्वकीयमनोयोगश्चैक एवं त्रिचत्वारिंशत् आस्त्रया भवन्ति । एवं असत्यमनोयोगे ४३, उभयमनोयोग ४३, अनुभयमनोयोगे ४३, सत्यवचनयोगे ४३, असत्यवचनयोगे ४३, उभयवचनयोगे ४३, अनुभयवचनयोगे ४३, औदारिककाययोग ४३, तन्मिश्रे ४३, चैक्रियिककाययोगे ४३, तम्मिश्रकाययोगे ४३, कार्मणकाययोगे ४३, ॥ १४ ॥
संजालासंढित्थी हवंति तह णोकसायणियजोया। बारस आहारजुगे आहारयउहयपरिहीणा || ५५ ।।
संज्वलना अपण्डत्रियो भवन्ति तथा नोकषायनिजयोगाः ।
द्वादश आहारकयुगे आहारकोभयपरिहानाः ॥ आहारजुगे-आहारककाययोगें तन्मिनकाययोगे च, बारस-द्वादश प्रत्यया भवन्ति । ते के ? संजाला इत्यादि । संज्वल मक्रोधमानमायालो भाश्चत्वारः, तह-तथा, असंदित्यी---पंढस्त्रीवेदद्वयवर्जिता अन्ये हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्साघुवेदा इति नोकपायाः सप्त । णियजोया-- स्वकीयस्वकीययोगश्चैकैकः । आहारके आहारककाययोगः, आहारकमिट आहारकमिश्रकाययोग इत्यर्थः । इति योगमार्गणायां योगा (आस्रवाः) निरूपित्ताः । 'आहारपउह्यपरिहाणा' इति पदस्य व्याख्यानं उत्तरगाथायां ॥ ५५ ॥
तथा हि---- इथियउंसयवेदे सचे पुरिसे य कोहपमुहेसु । णियरहियइयरवारसकसायहीणा हु पणदाला ।। ५ ॥
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३८
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
स्त्रीनपुंसक वेदे सर्वे पुरुषे च क्रोधप्रभृतिषु । निजरहितेतरद्वादशकपायहीना हि पंचचत्वारिंशत् ॥
आहार उहयपरिहीणा इत्विण उसवेदे स्त्रीवेदे नपुंसक वेदे च आहारकद्वयपरिहीनाः । तथा स्त्रीवेदे निरूप्यमाणे स्त्रीवेदो भवति, नपुंसकवेदे निरूप्यमाणे नपुंसक वेदो भवेत्, पुंवेदे निरूप्यमाणे पुंवेदोऽस्ति । एवं एकस्मिन् वेदे निरूप्यमाणे स्वकीयवेदः स्यात् । अन्यवेदद्वयं न भवति । कोऽर्थः ? श्रीवेदे नपुंसकवेंद्रे च मिथ्यास्य ५ अविरति १२ कषाय २३ योग १३ एवं त्रिपंचाशत् अस्त्रवाः स्युरित्यर्थः । सब्वे पुरिसे य-इति, पुंवेदे स्त्रीवेदनपुंसक वेदद्वयरहिता अन्ये पंचपंचाशप्रत्यया भवन्ति । कोहपमुहेसु -- क्रोधमानमायालोभेषु चतुर्षु, हुस्फुटं, पणदाला पंचचत्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति । कथमिति चेत् ? णियरहि यइयर बारस कसायहीणा स्वकीयस्वकीयकपायचतुष्करहिता इतरद्वादशकषायहीनाः । क्रोधचतुष्के यदा स्वकीयं क्रोधचतुष्कं गृह्यते तदा इतरे द्वादश कषाया न भवन्ति । यदा मानचतुष्के स्वकीयमानचतुष्कं गृह्यते तदा तदपरे द्वादशकपाया न स्युः । एवं मायालो भयोर्योजनीयं । अनु च स्पष्टार्थ पंचचत्वारिंशत्प्रत्यया गण्यन्ते किं नामान: : तथा हि---अनन्तानुबन्ध्यादिकोषचतुष्के मिध्यात्व ५ अविरति १२ अनन्तानुबन्ध्यादिको पचतुष्कं ४ योग १५ हास्यादि ९ एवं ४५ । अर्थ क्रमः मानचतुष्के मायाचतुष्के लोभचतुष्के संभावनीयः । इति कषायमार्गणायां कषायाः ? ॥ ५६ ॥
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कुमइदुगे पणवणं आहारदुगूण कम्ममिस्मृणा । बावण्णा बेभंगे मिच्छ्रे अणपंचचउहीणा ॥ ५७ ॥ कुमतिद्विके पंचपंचाशत् आहारकद्विकोनाः कर्ममिश्रोनाः । द्वापंचाशत् विर्भगे मिथ्यात्वानपंचचतुहनाः ॥
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सिद्धान्तसारः ।
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कुमइदुगे – कुमतिज्ञाने कुश्रुतज्ञाने च, पणवर्ण आहारदुगूणआहारकाहारकमिश्रद्विकोना अन्ये, पणवण्णं - पंचपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति । कम्ममिस्तूणा श्रावण्णा बेमंगे — विभंगे कविज्ञाने आहारकाहारकमिश्रकार्मणवैक्रिधिकमिश्रौदारिकमित्रैः पंचमिहींना अन्येः, बावण्णा - द्वापंचाशदास्रवाः स्युः | 'मिच्छंअण पंचच उहीणा' पदव्याख्याप्रगाथायां ॥ ५७ ॥ पाणतिए अडदालादित्थीगोकसाय मणपज्जे । वीसं चउसंजाला णवादिजोगा संगतिले || ५८ ॥ ज्ञानत्रि के अवारिंशत् अपण्डीनोकपाया मन:पर्यये । विंशतिः चतु:संज्वखनाः नवादियोगा सप्तान्तिमे ॥ मिच्छेअणपंचचउहीणा णाणतिए अडदाला - गाणतिए -- ज्ञानत्रि के सुमतिश्रुतावविज्ञानेषु मिध्यात्वपंचकानन्तानुचधिचतुष्कहांना अन्ये अष्टाचत्वारिंशत्प्रत्ययाः स्युः । असं दीत्यादि — मणपजे – मनः पर्ययज्ञाने, वीसं -विंशतिः प्रत्यया भवन्ति । के ते ? असंदिणोकसाथ पढस्त्रीवेद अन्ये पुंवेद हास्यरस्यरतिशोकभय जुगुप्सानामानः सप्त नोकश्रयाः, चंड संजाला — चत्वारः संज्वलन क्रोधमानमा पालोमाः, णवादिजोगा --- अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिक एक इति नव ते सर्वे पिण्डीकृता विंशतिरास्त्रवाः । सगतिले —— अंतिले अन्तज्ञाने केवलज्ञाने, सग— सप्त प्रत्यया भवन्ति । के ते ? सत्यमनोयोगानुभयमनोयोगसत्यवचनयोगानुभयवचनयोगाश्चत्वार औदारिकौदारिकमिश्रकार्मण काययोगास्त्रय एवं सप्त । इति ज्ञानमार्गणायामात्रवाः ॥ ५८ ॥ वेव्विदुग्ररालिय मिस्सय कम्मूण एयदसजोया । संजालणोकसाया चवीसा पढमजमजुम्मे ॥ ५९ ॥ वैमूर्विकद्विकौदारिकमिश्रकार्मणोना एकादशयोगाः । संज्वलननो कषायाः चतुर्विंशतिः प्रथमयमयुग्मे ॥
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३९
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१०
सिमान्तसारादिसं.
पदमजमजुम्मे—प्रथमयमयुग्मे सामायिकसयमे छेदोपस्थापनासंयमे च, चउघीसा-~-चतुविशतिप्रत्यया भवन्ति | के ते ? उब्धि-वैकियिकतन्मिश्रद्वयौदारिकमिश्रकामगकैश्च चतुर्भिहाना अन्थे, एयदसजोया --अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिककाययोमाहारकाहारकमिश्नकाययोगाश्चेति त्रयः समुदिता एकादशयोगाः। संजाल--संज्वलनक्रोधमानमाया. लोभाश्चत्वारः । गोकसाया—हास्यादिनवनोकषाया एवं चतुर्विंशतिः ॥ ५९ ॥
परिहारे आहारयदुगरहिया ते हवंति वावीसं । संजलणलोहमादिमणवजोगा दसय हुँति सुहुमे य ॥६० ॥
परिहारे आहारकद्विकरहितास्ते भवन्ति द्वाविंशतिः ।
संज्वलनलोभ आदिममवयोगा दश भवन्ति सूक्ष्मे च ।। परिहारेत्यादि । परिहारविशुद्धिसंयमे, आहारयदुगरहिया-आहारकाहारकमिश्नद्वयरहितास्ते पूर्वोक्ता: सामायिकच्छेदोपस्थापनयोः कथिता द्वार्विशतिः प्रत्यया भवन्ति । अथ व्यक्तिः-अष्टमनोवचनयोगीदारिकसंज्वलनचतुष्कहास्यादिनवेति द्वाविंशतिः प्रत्ययाः परिहारसंयमे भवन्तीत्यर्थः । संजलणेत्यादि। मुहमे य–च पुनः सूक्ष्मसाम्परायसंयमे, दसय हुँतिदश प्रत्ययाः स्युः । ते के ? एकः संघलनलोभ आदिमनवयोगा एवं दश ॥ ६ ॥
ओरालमिस्सकम्मइयसंजुया लोहहीण जहखादे । णवजोय णोकसाया अदृतकसाय देसजमे ॥ ६१ ॥
औदारिकमिश्रकामणसंयुता लोभहींना यथाख्याते । नवयोगा नोकषाया अष्टान्तकषाया देशयमे ।। जहखादे--यथाख्यातसंयमे सूक्ष्म साम्परायोक्ता ये दश ते, ओराल मिस्सेत्यादि-औदारिकमिश्रकायकार्मणकायाम्यां द्वाभ्यां संयुक्ता द्वादश
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सिद्धान्तसारः ।
४१
भवन्ति, एते द्वादश लोइहीणा— संज्वलन लोभरहिताः क्रियन्ते तदा एकादश भवन्ति । के ते ? अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिकौदारिकर्मिश्रकार्मणकायास्त्रय एते एकादश यथाख्यातसंयमिनां भवन्तीत्यर्थः । ' प्रणवजय णोकसाया अहंतकसाय देसजमे' इयमगाथा तस्याः परिपूर्ण सम्बन्ध उत्तरगाथायां ज्ञेयः ॥ ६१ ॥
तसऽसंजमहीणऽजमा सव्वे सगतीस संजमविणे । आहारजुगुणा पणवणं सव्वे य बुजुगे ॥ ६२ ॥ महावने ।
आहारकयुगोनाः पंचपंचाशत् सर्वे च चक्षुर्युगे ||
णवजोय णोकसाया अहंतकसाय देसजमे तसऽसंजमहीणऽजमा सच्चे सगतीस --- देस में --- संयमासंयमे सप्तत्रिंशत्प्रत्यया भवन्ति । ते के ? णवजोयेत्यादि । मनोवचनयोरष्टौ औदरिककायस्यैक एवं नव, तथा शोकसाया — हास्यादयो नवनोकषायाः, अद्वैत कसाय – अष्टौ अन्त्याः प्रत्याख्यानसंज्वलन क्रोधमानमायालोभाः कषायाः, तसऽसंजमहोणऽजमा सम्बे सचधरहिता अन्येऽसंयमा अविरतयः सर्वे एकादश एकत्रीकृताः सप्तत्रिंशत् । संजमविणे आहारजुगुणा पणवणंअसंयमे आहारज्जुगूणा --- आहारकयुगोना आहारकाहारकामश्रद्वयोनाः, 'पणवणं - पंचपंचाशत् प्रत्यया भवन्ति । इति संयममार्गणायां प्रत्ययाः । सब्वे य चक्खुजुगे ---- च पुनः चक्षुर्युगे चक्षुरचक्षुर्दर्शनद्वये नानाजीबा - पेक्षया सर्वे सप्तपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति ॥ ६२ ॥
अवहीए अडदाले गाणतिउत्ता हि केवलालोए ।
सग गयदोआहारय पणवणं हुंति किण्हतिए ॥ ६३ ॥ अवधौ अष्टचत्वारिंशत् ज्ञानत्रिकोक्ता हि केवळालोके । सप्त तद्विकाहारकाः पंचपंचाशत् भवन्ति कृष्णत्रिके ||
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
T
अवहीए --- अवधिदर्शने, णाणतिउत्ता हि — निश्चितं ज्ञानत्रिके य उक्तास्त एव, अडदाल - इति, अष्टचत्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति । ते के ? इति चेदुच्यते अनन्तानन्वचतुष्कं सियान पनि परेषाचत्वारिशदास्रवाः । केवलालोए सग -- केवलदर्शने सप्त । के ते ? सत्यानुभयमनोवचनयोगौदारिकौदारिकमिश्रकार्मणकाययोगा एवं सप्त प्रत्यया भवन्ति । इति दर्शनमार्गणायामात्रवाः । गयदोआहारय किण्हतिए -- कृष्णनीलकापोतलेश्या त्रिके आहारकतन्मिश्रद्वयरहिता अन्येऽवशिष्टाः, पणवणं—पंचपंचाशत्प्रत्यथाः, हुति - भवन्ति ॥ ६३ ॥
४२
MAA
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तेजादितिए भव्वे सच्चे णाहारजुम्मेवाऽभव्वे | पणचणं ते मिच्छाअणूण छादाल उवसमए ॥ ६४ ॥ तेजनादित्रिके भव्ये सर्वे अनाहारकयुम्मका अभव्ये । पंचपंचाशत् ते मिथ्यात्वानोनाः पचत्वारिंशत् उपशमे || तेजादितिए – पीतपच्छुक्कलेश्यात्रिके तथा भव्यजीवे, सब्वे - सर्वे सप्तपंचाशत्प्रत्यया नानाजीवापेक्षया भवन्ति । नाहारजुम्मयाऽभव्ये पणवणं-अभव्यजीवे आहारकतम्मिश्रवर्ज्या अन्ये पंचपंचाशदास्रवाः स्युः । इति देश्याभव्यमार्गणयोः प्रत्ययाः । ते मिच्छाअणूण छादाल उबसमए — उपशमकसम्यक्त्वे, ते इति, अभव्याक्ताः पंचपंचाशत्प्रत्यया मिथ्यात्व पंचकानन्तानुबन्धिचतुष्कोमा अपरे पट्चत्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति । ते के चेदुच्यते--अविरतय: १२ कषयाः २१ आहारकद्वयं विना योगाः १३ एवं षट्चत्वारिंशत् ॥ ६४ ॥ आहारयजुवजुत्ता खाइयदुगे य ए वि अडदाला | मिस्से तेदाला ते तिमिस्साहारयदुगुणा ।। ६५ ।।
'जुम्मये मूळे पाठः ।
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सिद्धान्तसारः ।
आहारकयुगयुक्ताः क्षायिकद्विके च तेऽपि अष्टचत्वारिंशत् । मि त्रिचत्वारिंशत् ते त्रिमिश्राहारकद्विकोनाः॥ खाइयटुगे य-च पुनः क्षायिकयुग्मे क्षायिकवेदकसम्यक्त्वे च आहारयजुवजुत्ता-आहारकद्वयसहिताः, ए वि---इति, तेऽपि उपशमसम्यक्त्रोक्ताः घट्चत्वारिंशत् , अडदाला-अष्टचत्वारिंशत् भवन्ति । ते के ? अविरतयः १२ कषायाः २१ योगाः १५ एवं ४८ । मिस्सेमिश्रसम्यक्त्वे, तेदाला–त्रिचत्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति । ते-पूर्वोक्ताः क्षयिकर कोक्ता अष्टचत्वारिंशद्वतन्त तम्यः पंच निश्काश्यते । ते के ? तिमिस्साहारयदुगुणा-त्रिमिश्रा औदारिकभित्रक्रियिकामश्रकामण काहारकाहारकमिश्रमेवं पंचहीनास्त्रिचत्वारिंशत् । के ते इति चेदुच्यते-अविरतय: १२ कषायाः २१ अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिकवक्रियिककाययोगौ हौ एवं ४३ मिश्रसम्यक्त्वे भवन्तीत्यर्थः ।। ६५ ।। विदिए मिच्छपणा पण्णं मिच्छे य हुँति पणवणं । आहारयजुयविजुया पञ्चेया सयल सण्णीए ।। ६६ ।। द्वितीये मिथ्यात्वपंचकोना; पंचाशत् मिथ्यात्रे च भवन्ति । पंचपंचाशत् आहरकयुगवियुक्ताः प्रत्ययाः सकला; सझिनि ।।
विदिए–सासादनसम्यक्त्वे, मिच्छपण्णा-मिथ्यात्वपंचकोना आहारक्युग्मवर्जिता अन्ये, पण्णं-पंचाशत्प्रत्ययाः स्युः। मिच्छे य हुँति पण. कण आहारयजुयविजुया--पुन: मिथ्यात्वसम्यक्त्वे आहारकयुगवि. युक्ता अन्ये, पणवण्ण-पंचपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति । इति सम्यक्त्वमार्गणायां प्रत्ययाः। पच्चया सयल सम्णीए–संशिजीये प्रत्ययाः . सकलाः सर्वे सप्तपंचाशन्नानाजीवापेक्षया भवन्ति ॥ ६६ ॥
कम्मथओरालियदगअसञ्चमोसणजोगमणहीणा। पणदालाऽसण्णीए सयलाहारे अकम्मइया ।। ६७॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
कार्मणौदारिकद्विकासत्यमुषोनयोगमनोहीनाः । .. पंचचत्वारिंशदसंज्ञिनि सकला आहारके अकामणकाः ।।
असणीए-असंज्ञिजीये,पणदाला-पंचचत्वारिंशप्रत्यया भवन्ति। कथंभूताः ! कम्मयेत्यादि---कामणकश्च औदारिकद्विकं च असत्यमृषा चेत्यनुभयवननयोग एतैश्चतुभिरूना हीना अन्ये एकादशयोगाश्च मनश्च तेहीनाः । अश्व बालावबोधनार्थ स्पष्टताच्यते--असावे मिथ्यात्व पंचक मनोवर्जिता एकादशाविरतयः कषायाः २५ कार्मणः औदारिकद्वययोगद्वयं, असत्यमृषा सत्यं च मृषा सल्लमपे न विद्यते सत्यासत्ये यत्र योग सौऽसत्यमृषो योगोऽनुभयवचनयोग इत्यर्थः एवं ४५ प्रत्यया भवन्ति । इति सझिमार्गणायां प्रत्ययाः । सयलाहारे अकम्मइया-आहारे आहारकजीव कार्मण काययोगवर्जिता अन्ये सकलाः सर्वे पटपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति ॥ ६७ ॥
तेदालाणाहारे कम्मेयरजोयहीणया हुंति । तित्थप्पहुणा गणिया इति मग्गणपञ्चया भणिया ॥६८।। त्रिचत्वारिंशदनाहारके कमतरजोगहीनका भवन्ति ।
तीर्थप्रभुणा गणिता इति मार्गणाप्रत्यया भणिताः॥ तेदालाणाहारे-अनाहारके जीवे कम्मेयरजोयहीणया--कार्मणकाययोगादितरे ये चतुर्दशयोगास्तैहाना अन्ये, तेदाला...-त्रिचत्वारिंशप्रत्यया भवन्ति । ते के ? मिथ्यात्वं ५ अविरतयः १२ कपायाः २५ कार्मणकाययोग १ एवं त्रिचत्वारिंशत्प्रत्ययाः, इंति-भवन्ति । तिस्थप्पडणा-अमुना प्रकारेण पूर्व तीर्थकरप्रभुणा तीर्थकरदेवेन मार्गणासु प्रत्यया इति गणिता इति, पश्चाद्गणधरदेवादिभिः शब्दरूपेण गाथादिबन्धेन मार्गणासु प्रत्यया भणिता इति शेषः ॥ ६८॥
इति मार्गणासु प्रत्यया निर्दिष्टाः।
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सिद्धान्तसारः ।
अथ चतुर्दशजीवसमासं यथासंभवं सप्तपंचाशत्प्रत्ययाः कथ्यन्ते; इगिदुतिचउर खेसु व सण्णीसु भासिया जे ते | अडतीसादी सयला, पणदाला कम्मभिस्तृणा ।। ६९ ।। सत्तसु पुण्णेसु हवे ओरिलिय मिस्स अपुणे | गिजोगविहीणा जीवसमासेसु ते पोया ॥ ७० ॥ एकद्वित्रिचतुरक्षेषु च संज्ञिषु भाषिता ये ते | अष्टात्रिंशदादयः सकलाः पंचचत्वारिंशत् कर्मभिश्रोनाः || सप्तसु पूर्णेषु भवेत् औदारिकं मिश्रकं अर्णेषु । एकैकयोगविहांना जीवसमासेषु तं ज्ञयाः ||
गाथाद्वयेन सम्बन्धः । जीवसमासेसु ते या ते प्रत्ययाश्चतुर्दशजीवसमासे ज्ञेया ज्ञातव्या भवन्ति इत्याह – इगिदुतिच उरक्खेत्यादिएकद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु च पुनः सत्यसंज्ञिर्जीवेषु ये अष्टात्रिंशदादयः सकलाः प्रत्ययाः पूर्व भाविता: । ते प्रत्ययाः पंचचत्वारिंशत् कथं भवन्ति ! एकेन्द्रियादिराश्यपेक्षया अष्टात्रिंशत्प्रत्ययाः, द्वीन्द्रियस्य राश्यपेक्षया रसनेन्द्रियानुभयभाषयोरधिकत्वा चत्वारिंशत्प्रत्ययाः, श्रीन्द्रियस्य राश्यपेक्षया घ्राणेन्द्रियाधिकत्वादेकचत्वारिंशत्प्रत्ययाः, चतुरिन्द्रियस्य चक्षुरधिकत्वाद्वाचत्वारिंशत्प्रत्ययाः, असंज्ञिपंचेन्द्रियस्य स्त्रीवेदधुवेदश्रोत्राणामधिकत्वादाश्यपेक्षया पंचचत्वारिंशत्प्रत्ययाः । कथंभूताः पंचचत्वारिंशत् कम्मभिस्सूणा -- कार्मण कायौदारिकमिश्रवैक्रियिकमिश्रोनाः । सत्तसु पुण्णेसु हत्रे ओरालिय— सप्तसु पर्याप्तेसु जीवसमासेषु यथासंभव पूर्वोक्ता प्रत्ययाः, ओरालिय— औदारिककाययोगश्च भवेत् । मिस्स अपुण्णेसुइति, अपर्याप्तेषु सप्तसु जीवसमासेषु, मिस्सर्य – औदारिकमिश्रः वैक्रियिकमिश्रो वा यथासंभवं भवति । इगिइगिजोगविहीणा - सप्तसु पर्या -
४५.
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४.६
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
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सेषु सप्तसु अपर्याप्तेषु एकैकयोगविहीनाः प्रत्यया भवन्ति । कोऽर्थः ? सप्तसु पर्याप्तसु यदा औदारिककाययोगो भवति तदा औदारिकमिश्रयोगो न भवति यदा अपर्याप्तषु सप्तसु औदारिकमिश्रकायो भवति तदा औदारिकंकाययोगो न भवतीत्यर्थः । अथाल्पबुद्धीनां सम्यक्परिज्ञानाय चतुर्दशासमासेषु प्राकं यारोन रसायन; ..ययाः संभवन्तीत्याह-एकन्द्रियसूक्ष्मापर्याप्ते मिथ्यावपंचकं पडीवनिकायानां विराधना स्पर्शनेन्द्रियस्यैकस्यानिरोध एवं सप्तापिरतयः ७ स्त्रीवेदपुंवेदद्वयवा अन्य कषायास्त्रयोविंशतिः २३ औदारिकमिश्रकामणकाययोगों द्वौ २ एवं सप्तत्रिंशत् ३७ प्रत्यया भवन्ति । एकेन्द्रियसूक्ष्मपर्यात मिथ्यात्वं ५ अविरतयः ७ स्त्रीवेदवेदवाः क.पायास्त्रयोविंशतिः औदारिककाययोग एक एव एवं षट्त्रिंशत्प्रत्ययाः स्युः । एकेन्द्रियबादरापर्याप्ते मि० ५ अवि० ५ कषा० २३
औदारिकमिश्रकार्मणयोगौ द्वौ एवं सप्तत्रिंशत्प्रत्यया भवेयुः ३७ । एकेन्द्रियबादरपर्याप्त पंचमिथ्यात्वं अविरतयः सप्त पूर्वोत्ताः २३ कपाया
औदारिककाययोग एक एवं पत्रिंशदास्त्रकाः स्युः । द्वीन्द्रियापर्याते जीवसमासे मिथ्यात्वं ५ षटकायानां विराधना स्पर्शरसनयोरनिरोधः इत्यविरतयोष्टौ पूर्ववत्कपायास्त्रयोविंशत्तिः औदारिकमिश्रकार्मणकाययोगों द्वौ एवं अष्टात्रिंशत्प्रत्यया भवन्ति । इन्द्रियपर्याप्त जीवसमासे मि० ५ अवि० ८ कवायाः २३ औदारिककाययोगानुभयभापायोगी द्वौ एवमष्ठांत्रिंशत्प्रत्ययाः संभवन्ति । त्रीन्द्रियापर्याप्ते जीवसमासे मि० ५ पट्कायविराधना स्पर्शनरसनत्राणानामनिरोध एवमवितरयो नव पूर्ववत्कपायाः २३ औदारिकमिश्रकामणकाययोगी द्वौ एकीकृता एकोनच
१ पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्त किमिकमायः अथवा औदारिककायः यथासंभवम् ।
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सिद्धान्तसारः। त्वारिंशत्प्रत्ययाः सन्ति । त्रीन्द्रियापति समान निखिलकायविराधनाः पदस्पर्शनरसनघ्राणानां विषयानुभवनं तिस्त्र एवमविरतयो नव कपाया २३ औदारिककायानुभयवचनयोगौ द्वौ एवमेकोनचत्वारिंशत्प्रत्यया: ३९ स्युः । चतुरिन्द्रियापर्याप्त जीवसमासे मि० ५ पड्जीवनिकायविराधना स्पर्शनरसनप्राणचक्षुपामनिरोध एवमविस्तयो १० पूर्ववत्कषाया औदारिकमिश्रकामणकाययोगी द्वौ एवं चत्वारिंशत्प्रत्ययाः सन्ति । चतुरिन्द्रियपर्याप्ते मि० पंच ५ पूर्वोक्ता दशाविरतयः १० कपाया २३ औदारिककायानुभयभापायोगी द्वौ २ एवं चत्वारिंशदासवाः प्रवर्तन्ते । पंचेन्द्रियासंशिजीवापर्याप्ते मि० ५ मनोवा अन्या एकादशाविरतयः ११ कषायाः सर्वे २५ औदारिकमिश्नकार्मणकाययोगी द्वौ २ एवं त्रिचत्वारिंशदास्त्रवाः ४३ स्युः। असं शिपंचेन्द्रिवपर्याप्ते मि० ५ मनइन्द्रियं विना अन्या एकादशाविरतयः ११ कषायाः २५ औदारिकायानुभयवचनयोगौ द्वौ २ एवं विचत्वारिंशत्प्रत्ययाः ४३ स्युः। पंचेन्द्रियसंशिजीवा पर्याप्त मनइन्द्रियं विना एकादशाविरतयः ११ कषायाः २५ औदास्किमिश्रवैक्रियिकमिश्रकार्मणकाययोगात्रय एकीकृताः ४४ प्रत्यया भवन्ति । पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्त जीवसमासे मि० ५ अविरतयः १२ कषायाः २५ मिश्रकामणकाययोगद्वयं विना अन्ये त्रयोदशयोगाः १३ एवं पंचपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति ॥ ६९-७०॥ इति चतुर्दशजीवसमासेपु प्रत्येकं अथासंभवं प्रत्ययाः कथिताः
व्यक्तिरूपेण बालयोधनार्थम् ।
- --- अथ चतुर्दशगुणस्थानेषु प्रत्ययाः कथ्यन्ते;--- मिच्छे चउपञ्चइओ बंधो सासणदुगे तिपञ्चइओ । ते विरइजुआ अविरइदेसगुणे उपरिमदुगं च ।। ७१ ॥
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सिद्धान्तासिंग
दोणि तदो पंचसु तिसु णायव्वो जोगपच्चाई इक्को । सामण्णपचया इदि अद्वयं होंति कम्माणं ॥ ७२ ॥
४८
मिथ्यात्वे चतुःप्रत्ययो बन्धः सासनद्विके त्रिप्रत्ययः । ते विरतियुता अविरतदेशगुणे उपरिमाद्विकं च ॥ द्वौ ततः पंचसु त्रिषु ज्ञातव्यो योगप्रत्यय एकः । सामान्यप्रत्यया इति अष्टानां भवन्ति कर्मणा ||
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गाथाद्वयेन सम्बन्धः । मिच्छे चउपञ्चइओ बन्धो—- चतुः प्रत्ययजो बन्धः, कोऽर्थः ! मिध्यात्वगुणस्थाने मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगानां चतुणौ प्रत्ययानां बन्धो भवतीत्यर्थः । सासणदुगे -- द्वितीयसासादनगुणस्थाने तृतीय मिश्र गुणस्थाने च, तिपन्नइओ - त्रिप्रत्ययजो बन्धः । कोऽर्थः ? सासादन मिश्र गुणस्थानयोरविरतिकषाययोगानां बन्धः स्यादित्यर्थः । तेऽविरइत्यादि । अविरइदे सगुणे – चतुर्थेऽचिरति गुणस्थाने पंचमे देशविरतिगुणस्थाने च ते इति ते प्रत्यया भवन्ति । कति भवन्तीत्याशंकायामाह-- उवरिमदुगं— उपरिमद्वयं कषाययोगयुग्मं । कथंभूतं ! अविरतियुक्तं एवं त्रयः प्रत्यया भवन्ति, कोऽर्थः ? अविरतिदेश वितिगुणस्थानयोर्द्वयोरविरतिकषाययोगानां त्रयाणां प्रत्ययानां बन्धो भवतात्यथ: 1 दोणि तदो पंचसु - इति, ततो देशविरतिगुणस्थानात्, पंचसु - इति, पंचगुणस्थानेषु प्रमत्ताप्रभत्तापूर्वकरणानिवृत्तिकरण सूक्ष्मसाम्परायाभिधानेषु दोण्णि— हौ प्रत्ययो ज्ञातव्यों को भावः ? प्रमत्तादिपंचसु गुणस्थानेषु कषाययोगयोर्द्वयोर्बन्ध इति भावः । ततः, तिसु- इति, त्रिषु गुणस्थानेषु योगप्रत्यस्यैकस्य बन्ध इत्यर्थः । इदि ---- इति अमुना प्रकारेण, अद्वण्हे कम्माणं — ज्ञानावरणादीनामष्टानां कर्मणां सामण्णपचया – सामान्येन मिथ्यात्वादिप्रत्यया बन्धकारणानि भवन्ति ॥ ७१-७२ ॥
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सिद्धान्तसारः।
. पूर्व सामान्येन प्रत्ययवन्धः कथितः, अधुना विशेषण प्रत्ययबन्धाः कथ्यन्ते;--
पढमगुणे पणवणं विदिए पण्णं च कम्मणअणूणा । मिस्सोरालिविउवियमिस्मृण विदालया मिस्से || ७३ ॥
प्रथमगुणे पंचपंचाशत् द्वितीये पंचाशत् च कार्मणानोनाः । मिश्रौदारिकवैक्रियि कमिश्रोनाः त्रिचत्वारिंशन्मिश्रे ॥ पढमगुणे-प्रथममिध्यात्वगुणस्थाने आहारकतन्मिश्रद्वयवा अन्ये यणवणं-पंचपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति । विदिए पच-~-पुनः सासादनगुणस्थाने भिध्यात्वपंचकाहारकट्ट्यरहिता अन्ये पंचाशत्प्रत्यया भवन्ति । कम्मणेत्यादि,मिस्से-तृतीयमिश्रगुणस्थाने ये सासादने कथिताः पंचाशप्रत्ययाः । ते कथंभूता; ? कर्मणेत्यादि, कार्मण काययोगानन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभचतुष्कोना औदारिकमिश्रकायोनों क्रियिकमिश्रकायोन एतैः सप्तमिहींना अन्ये,तिदाला-त्रिचत्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति ॥७३॥
हुँति छयालीसं खलु अयदे कम्मइयमिस्मदुगजुत्ता। विदियकसायतसाजमदुमिस्सवेउब्धियकम्मूणा ॥ ७४ ॥
भवन्ति षट्चत्वारिंशत् खलु अयते काम/मिश्रद्विकयुक्ताः । द्वितीयकवायत्रसायमद्विभित्रक्रिविककामणोनाः ।। सगतीसं देसे ? खल्लु-निश्चितं, अयदे-चतुर्थेऽविरतगुणस्थाने मिश्रगुणस्थानोक्तास्त्रिचत्वारिंशत्प्रत्ययाः,कम्मइयमिस्सदुगजुत्ता--इति, कार्मणौ. दारिकभिवक्रियिकमिश्रत्रययुक्ताः सन्तः, छयालीसं-षट्चत्वारिंशत्यत्यया भवन्ति । सगतीसं देसे—इति उत्तरगाथायां सम्बन्धः। देसे--इति, पंचमे देशविरतगुणस्थाने सप्तत्रिंशत्प्रत्यया भवन्ति । के ते ! विदियक
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सिद्धान्त विरग्रहे
सायतसाजमदुमिस्सयेउब्धियकम्मूणा-द्वितीयकषायोऽप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभचतुष्क, तसाजम--इति, प्रसवधः, दुमिस्स-औदारिकमिश्रवैक्रियिकमिश्रद्वयं, वेउब्धिय-इति, वैक्रियिककाययोगः, कम्म---- इति, कार्मणकाययोग एतैर्नवभिरूना: ।। कोऽर्थः ? येऽविरतगुणस्धानोक्ताः षट्चत्वारिंशद्वर्तन्ते ते एतेनैवभिहीनाः सन्तः सप्तत्रिंशदा. सवा भवन्ति–ते सप्तत्रिंशत्प्रत्ययाः पंचमे गुणस्थाने भवन्तीति स्पष्टार्थः ॥ ७४ ।।
सगतीसं देसे वह चउवीसं पच्चया पमत्ते य । आहारदुगे यारस अविरदिचउपञ्चयाणं ।। ७५ ॥ सप्तत्रिंशद्देशे तथा चतुर्विशतिप्रत्ययाः प्रमत्ते च |
आहारकाद्विको एकादशाविरतिचतुःप्रत्ययन्यूनाः ॥ सगतीसं देसे इति पदं पूर्वगाथायां व्याख्यातं । तह चउर्वांसं पचया पमत्ते य—च पुनः तथा, पमत्ते—इति, षष्ट प्रमत्तगुणस्थाने चतुविशतिः प्रत्यया भवन्ति । कथं ? देशविरतगुणस्थानोक्ततप्तत्रिंशत्प्रत्ययमध्ये, आहारदुमे-आहारकाहारकभिश्रद्वयं यदा क्षिप्यते तदा एकोनचस्वारिंशत्प्रत्यया भवन्ति । ते एकोनचत्वारिंशत्प्रत्ययाः,एयारसअविरदिचउपच्चयाणं-इत्ति, एकादशाविरतयः चत्वारः प्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभा एतैः पंचदशभिन्यूँनाश्चतुर्विशतिप्रत्ययाः स्युः ते प्रष्ठगुणस्थाने संभवन्तीत्यर्थः । ते चतुर्विशतिः किनामानश्चेदुच्यते-संज्वलनचतुष्क हास्यादिनवनोकषाया अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिकाहारकाहारकमिश्रयोगानय एवं चतुर्विंशतिः ॥ ७५ ।।
आहारदुगुणा दुसु वावीसं हासछक्क संदिस्थी-1 पुकोहाइविहीणा कमेण णवमं दसं जाण ॥ ७६ ॥
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सिद्धान्तसारः।
आहारकद्विकोना द्विषु द्वाविंशतिः हास्यपटेन पंढस्त्रीपुंना दिविलीमाः कोश का मीहि ॥ आहारदुगूणा दुसु बावीस--दुसु-इति, अप्रमत्तापूर्वकरणयोयो - णस्थानयोः प्रमत्तोक्ताश्चतुर्विंशतिप्रत्यया ये ते आहारदुगूण-आहारकाहारकमिश्रद्वयोनाः, बावीसं-द्वाविंशतिप्रत्ययाः स्युः। ते के चेदुयते संज्वलनं ४ नोकषायाः ९ मनोवचनयोगाः ८ औदारिकाययोगः १ एवं २२ द्वाविंशतिः। हे शिष्य ! नवमं गुणस्थानं जानीहि । हासेल्यादि हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्साषटकेन हीनं ३ कोऽर्थः । नवभेऽनिवृत्तिकरणगुणस्थाने पूर्वोक्ता द्वाविंशतिप्रत्यया हास्यादिषट्कहीनाः सन्तः घोडश आत्रका भवन्ति । ते किनामान: ? वेदत्रयः ३ संज्वलनचतुष्कं ४ मनोवचनयोगा अष्टौ औदारिककाययोगश्चैक एवं पोडश आस्वा अनिवृत्तिकरणस्थाने भवन्तीत्यर्थः । हे विनेय ! क्रमेण अनुक्रमेण, दसं जाण–दशमगुणस्थानं विद्धि । हे स्वामिन् । दशमं गुणस्थानं कीदृशं वेद्मि तत्र कति प्रत्यया संभवन्तीति शिष्यप्रश्नाद्गुरुराह-दस सुहमे इत्युत्तरगाथापदेन सम्बन्धः । ते दश के ? अनिवृत्तिकरणोक्ताः षोडश, संदित्थी'कोहाइविहींणा-इति, पंढस्त्रीपुंवेदत्रयसंज्वलनक्रोधमानमायात्रिकहीनाः सन्तः दश । अथ च व्यक्तिः-सूक्ष्मसाम्परायदशमे अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिककाययोगसंज्वलनलोभौ द्वात्रिति दश ७६।।
दस सुहमे वि य दुसुणक सत्त सजोगिम्मि पचया इंति। पञ्चयहीणमणूर्ण अजोगिठाणं सया वैदे ॥ ७७ ।।
दश सूक्ष्मे ऽपि च द्वयोः नव सप्त सयोगे प्रत्यया भवन्ति ।
प्रत्ययहीनमन्यूनं अयोगिस्थानं सदा वन्दे ॥ दस सुहमे इति पदस्य ब्याख्यान पूर्वगाथायां कृतं, अवि य..• अपि च, दुसु-दूयोः एकादशे उपशान्तकमाये द्वादशे क्षीणकपायगुण
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५२
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
स्थाने च, पण – नव प्रत्ययाः संभवन्ति । अष्टौ मनोवचनयोगा औदारिककाययोग एक एवं ९ । सत्त सजोगिम्मि पच्चया इंति-सयोगकेवलिनि सप्त प्रत्ययाः, हुति - भवन्ति । ते के ? सत्यानुभयमनोवचनयोगा औदारिकतन्मिश्रकार्मणकाययोगा एवं सप्त । पञ्चयहीणमणूर्ण अजोगियाणं सया वंदे -- इति, नमस्कुर्वे सदा, किं तत् ? कर्मतापनं अयोगिकेवलिगुणस्थानं । किं विशेषणाखितं ? पच्चयहीणं - सप्तपंचाशत्प्रत्ययैर्हीनं रहितं । पुनः किंविशिष्टं ? अपूर्ण-अन्यूनं परिपूर्ण ॥७७॥ इति चतुर्दशगुणस्थानेषु प्रत्ययाः प्रोक्ताः ।
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पवयणपमाणलक्खण छंदालंकाररहियहि वरण | जिणदेण पडतं इणमागमभत्तिजुत्तेण ॥ ७८ ॥ प्रवचनप्रमाणलक्षणच्छन्दोऽलङ्काररहितहृदयेन | जिनचन्द्रेण प्रोक्तं इदं आगमभक्तियुक्तेन ||
-
....
इणं — सिद्धान्तसारशास्त्रं, पउत्तं- प्रोक्तं । केन कर्त्रा : जिपाईदेण जिनचन्द्र नाम्ना सिद्धान्तग्रन्धवेदिना । कथंभूतेन जिनचन्द्रेण ? पवयणेत्यादि- प्रवचनप्रमाणलक्षणच्छन्दोङ्काररहित हृदयेन । पुनरपि कथंभूतेन ? आगमभत्तिजुत्तेण -- जिनसूत्रस्य भक्तिः सेवा तथा युक्तेन ॥७८॥ सिद्धतसारं वरसुतगेहा, सोहंतु साहू मयमोहचत्ता । पूरंतु हीणं जिणगाहभत्ता, विराय चित्ता सिवमग्गजुत्ता ॥७९॥ सिद्धान्तसारं बरसूत्रहाः, शोधयन्तु सावो मदमोहत्यक्ताः । पूरयन्तु हीने जिननाथभक्ताः, विरागचित्ताः शिवमार्गयुक्ताः || कविः कथयति, साहू इति भोः साधवः । इमं सिद्धान्तसारं ग्रन्थे, सोहंतु शुद्धीकुर्वन्तु अपशब्दरहितं कुर्वन्तु । पुनरपि भो: साधवः 1 पूरंतु
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१ [प्रारंभ] हि जिनेन्द्राचार्य इति विस्मृत्य लिखितोऽस्माभिरन्यन्मूलपुस्तकं विलोक्य | ० |
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सिद्धान्तसारः।
५३
हीणं---अस्मिन् ग्रन्थे मया यत्किचिद्धानं प्रतिपादितं भवति तद्भवन्तः, परंतु—पूरयन्तु पूर्ण कृत्वा प्रतिपादयन्तु । कथंभूताः साधवः ? वरसुत्तगेहा-वराणि च तानि सूत्राणि जिनवचनानि तेषां गेहा मन्दिरमायाः । पुनरपि कथंभूताः ? मयमोहचत्ता-मदमोहैस्त्यक्ताः । पुनरपि कथंभूताः ! जिणणाहभत्ता-जिननाथभक्ताः । पुनरपि कयंभूताः ? विरायचित्ता-विगतो रागो यस्मात् तत्, विरागं चित्तं मानसं येषां ते विरागचित्ताः । अनु च किंविशेषणांचिताः ? सिवमगजुत्ता इति, शिवमार्गों, मोक्षमार्गः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणः तेन युक्ताः शिवमार्गयुक्ताः॥७९॥
इति सिद्धान्तसारभाष्यम् ।*
*अस्मादग्ने पाठोऽयं स्वस्तिश्री शके १६९३ खरनाम सेवत्सरे आश्विनमासे शुनपक्षे बिदियायां (द्वितीयायां ) तिथौँ गुरुवासरे श्रीसदलगी श्री-अनन्त. तीर्थकरचैत्यालये श्रीसुमतिचन्द्रस्वामिनांतच्छिध्यसावतापंडित श्रीरत्नत्रयज्ञापनार्थ लिखितं ।
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श्रीयोगीन्द्रचन्द्राचार्यकृतः
योगसारः।
पिम्मलझाण परिडिया कम्मकलंक डहेवि। . अप्पा लद्धउ जेण पर ते परमप्प णवेचि ॥ १॥ निर्मलध्याने परिस्थाय, कर्मकलकं दग्ध्त्रा।
आत्मा लब्धो येन पर: तं परमात्मानं नत्वा । घाइचउकह किउविलउ अणंतचउक्कपदिनु । तहिं जिणइंदहं पयणविवि अक्खमि कच्चु सुइहु ॥ २ ॥
घातिचतुष्कस्य कृतविलयोऽनन्तचतुष्टयप्रतिष्टितः ।
तं जिनेन्द्रं प्रणम्य करोमि काव्यं सुष्टु॥ संसारह भयभीयाहं मोक्खह लालसियाह । अप्पासंबोहणकयह दोहा एक्कमणाई ॥३॥ संसारस्य भयभीतानां मोक्षस्य लालसितानां ।
आत्मसम्बोधनार्थे दोहकान् एकमनसा ।। कालु अणाइ अणाइ जीउ भवसायह जि अणंतु । मिच्छादसणमोहियउ ण वि सुह दुक्ख जि पत्तु ॥ ४ ॥
कालोऽनादिः अनादि यो भवसागरोऽपि अनन्तः । मिध्यादर्शनमोहितः नापि सुखं दुःखमेव प्राप्तः ।। जइ वीहउ चउगइगमणु तउ परभाव चएवि । अप्पा झायहि णिम्मलउ जिम सिवसुक्ख लहेवि ।। ५॥
, अन्स्यदोहकेन योगधन्द्रेति नामाभाति । परमात्मप्रकाशे तु योगीन्द्रति नामास्ति ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
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यदि बिभ्यति चतुर्गतिगमनात् ततः परभावं त्यज ।
आत्मानं ध्याय निर्मलं येन शिवसुर्ख लभसे ॥ तिपथारी अप्पा सुगाह पर अंतर नाहरपु । पर झायहि अंतरसहिउ बाहिर चयहि णिभंतु ॥६॥ त्रिप्रकार आत्मानं मन्यस्थ परमन्तो बहिरात्मानम् ।
परं ध्याय अन्तःसहित बाह्यं त्यज निर्धान्तम् ।। मिच्छादंसणमोहियट परु अप्पा ण मुणेइ । सो बहिरप्पा जिणभणिउ पुण संसारु भमेइ ॥ ७॥ मिथ्यादर्शनमोहितः परमात्मानं न मनुते 1
स बहिरात्मा जिनमणितः पुनः संसारे भ्रमति ।। जो परियाणइ अप्प पर जो परभाव चएइ । सो पंडिउ अप्पा मुणहि सो संसार मुएइ ।।८।। ___ यपरिजानात आत्मानं परं यः परभावं त्यजति ।
स पंडित आत्मानं भनुते स संसारं मुञ्चति || णिम्मलु णिकलु सुद्ध जिणु किण्हु बुद्ध सिव संतु । सो परमप्पा जिणणिउ एहउ जाणि णिभंतु ।। ९॥ निर्मलो निष्कलः शुद्धः जिनः कृष्णः बुद्धः शिवः शान्तः ।
स परमात्मा जिनभणित: य जानीहि निभ्रान्तम् ॥ देहादिउ जे पर कहिया ते अप्पाण मुपोइ । सो बाहिरप्पा जिणभाणिउ पुण संसार भमेह ॥१०॥
देहादयो य परे कथिताः तान् आत्मानं मनुते । ___ स बहिगत्मा जिनमणितः पुनः ससारे भ्रमति ।। देहादिक जे पर कहिया ते अप्पाण ण होइ । इउ जाणेविण जीव तुहुं अप्पा अप्प मुणेइ ॥ ११ ॥
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योगसारः ।
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देहादयो ये परे कथिताः ते आत्मा न भवन्ति । इति ज्ञात्वा जीव ! त्वं आत्मना आत्मानं मन्यस्व ॥ अप्पा अप्पर जइ मुर्णाहं तउ मिव्वाणु लहेहि । पर अप्पा जउ मुणिहि तुहुं तहु संसार भमेहि ॥ १२ ॥ आत्मना आत्मानं यदि मन्यसे ततः निर्वाणं लभसे । पैरं आत्मानं यदि मनुषे त्वं तर्हि ससारं भ्रमसि ॥ इच्छार हिउ तब करहि अप्पा अप्प मुणेहि । त लहु पावड़ परमगई पुण. संसार ग एहि ॥ १३ ॥ इच्छारहितस्तपः करोषि आत्मना आत्मानं मनुने ।
ततो लघु प्रप्तोसि परमगतिं पुनः संसारे नायामि || परिणामह बंधु जि कहिउ मोक्ख जि तह जि वीषाण । इउ जाणेविण जीव तुहुं तह भावहि परियाणि ॥ १४ ॥ परिणामैोऽपि कथितः मोक्षोपि तैरेव विजानीहि । इति ज्ञात्वा जीव ! त्वं तान् भावान् परिजानीहि ॥ अह पुण अप्पा गवि मुणहिं पुण्ण वि करइ असेसु । तउ चि णु पावह सिद्धसुहु पुणु संसार भमेसु ॥ १५ ॥ साथ पुनरात्मानं न मनुषे पुण्यमपि करोषि अशेषम् । तथापि न प्रामीषि सिद्धसुखं पुनः संसारे भ्रमसि || अप्पादंसण इक पर अण्णु ण किंपि वियाणि । मोक्खह कारण जोईया णिच्छह एहउ जाणि ॥ १६ ॥ आत्मदर्शनं एकं परं अन्यत् न किंचिदपि विजानीहि । मोक्षस्य कारणं योगिन् । निश्चयनैतत् जानीहि ||
१ परद्रव्यं । २ लहु संसार मुएहि - लघु संखारं मंचसि पाठान्तरं ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
मग्गणगुणठाणइ कहिया ववहारेण वि दिहि | णिच्छहणह अप्पा मुणहु जिम पावहु परमेहि ॥ १७ ॥ मार्गणागुणस्थानानि कथितानि व्यवहारनयेन अपि दृष्टि | निश्चयनयेन आत्मानं मन्यस्व येन प्राप्नोषि परमेष्ठिनं ॥ गिहिवावार परडिआ याहेउ मुणति । अणुदिण झायहि देउ जिणु लहु णिव्वाण लहंति ॥ १८ ॥ गृहव्यापारे परिस्थिताः हेमहेयं मन्यन्ते ।
५८
अनुदिनं ध्यायन्ति देवं जिनं लघु निर्वाणं लभन्ते ॥ जिण सुमिरहु जिण चिंतवहु जिण झायहु सुमणेण । सो झाहतह परमपड लब्भइ इकखणेण ॥ १९ ॥
जिनं स्मर जिनं चिन्तय जिनं ध्यायस्व सुमनसा 1 तं ध्यायमानः परमपदं लभते एकक्षणेन || सुद्धप्पा अरु जिणवरहं भेउ म किमपि वियाणि । मोक्खह कारण जोईया णिच्छइ एउ विषाणि ॥ २० ॥
शुद्धात्मनि च जिनवरे भेदं मा किमपि विजानीहि । मोक्षस्य कारणं योगिन् । निश्वयेन एतत् विजानीहि || जो जिणु सो अप्पा मुंणहु इह सिद्धंतहु सारु । उ जाणेविण जोयइहु छंडहु माया चारु ॥ २१ ॥
यो जिनः तं आत्मानं मन्यस्त्र एवं सिद्धान्तस्य सारः । इति ज्ञात्वा योगिन् ! त्यज मायाचारम् ॥
जो परमप्पा सो जि हउं जो हउं सो परमप्पु । इउ जाणविणु जोइआ अण्ण म करहु वियप्पु ॥ २२ ॥ यः परमात्मा स एव अहं योऽहं स परमात्मा ।
इति ज्ञात्वा योगिन् ! अन्यन्मा कार्षीः विकल्पम् ||
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योगसारः ।
सुद्धपएसह पूरियड लोयायासपमाणु । सो अप्पा अणुदि मुण पावडु लहु णिव्वाणु ॥ २३ ॥ शुद्धप्रदेशः पूरित: लाकाकाशप्रमाणः ।
तं आत्मानं अनुदिनं मन्यस्व प्राप्नोषि लघु निर्वाणं ॥ णिच्छ लोयपमाण मुणि बवहारइ सुसरीक | एहउ अप्पसहाउ मुणि लहु पावहु भवतीरु ॥ २४ ॥ निश्चयेन लोकप्रमाणं मन्यस्त्र व्यवहारेण स्वशरीरस्य । इमं आत्मस्वभावं मन्यस्व लघु प्राप्नोषि भवतीरम् ॥ चउरासीलक्खह फिरिङ काल अणाइ अणंतु । पर सम्मत्त ग लड जिउ एहउ जाणि भिंतु ॥ २५ ॥ चतुरशीतिलक्षे भ्रमितः कालमनाद्यनन्तं ।
परं सम्यक्त्वं न लब्धं जीव 1 एतज्जानीहि निर्भ्रान्तम् ॥
५९
सुद्ध सचेण बुद्ध जिणु केवलणाणसहाउ |
सो अप्पा अणुदिण मुण जह चाहउ सिक्लाहु ॥ २६ ॥ शुद्धः सचेतनः बुद्ध: जिनः केवलज्ञानस्त्रभावः | तं आत्मानं अनुदिनं मन्यस्य यदीच्छसि शिवलाभं ॥
जाम ण भावहु जीव तुहुं णिम्मलअप्पसहाउ | तामण लम्भइ सिवगमणु जहिँ भावहु तहिँ जाउ ॥ २७॥ यावन्न भावयसि जीव त्वं निर्मात्मस्वभावम् । तावन्न लभसे शिवगमने यत्र भाति तत्र याहि ॥ जो तहलोयह झेउ जिणु सो अप्पा बिरु वुत्तु । णिच्छयणइ एमइ भणिउ एहउ जाणि भिंतु ॥ २८ ॥ यस्त्रिलोकस्य ध्येयो जिनः स आत्मा निजः उक्तः । निश्चयनयेन एवं भणित: एतज्जानीहि निर्भ्रान्तम् ॥
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६०
.........
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहेवयतवसंजममूलगुण मूढह मोक्ख णिवुत्तु । जाम ण जाणइ इक्क परु सुद्धउभावपवितु ॥२९॥
व्रततपःसंयममूलगुणैः मूमोक्षो निरुक्तः । ? यावन्न जानाति एक पर शुद्धस्वभावपवित्रं ।। जो णिम्मल अप्पा मुणइ वयसंजमुसंजु । तउ लहु पावह सिद्ध :सुङ इउ जिणणाहह वुत्तु ॥३०॥
यो निर्मलं आत्मानं मनुते व्रतसंयमसंयुक्तम् ।
स लघु प्राप्नोति सिद्धसुख इति जिनमाथैरुक्तम् ।। वयतवसंजमुसीलु जिय ए सव्वे अकइच्छु । जाम ण जाणइ इक्क परु मुद्धउभावपवितु ॥ ३१ ॥
व्रततपःसंयमशीलानि जीव ! एतानि सर्वाणि व्यर्थानि । यावन्न जानाति एक परं शुद्धस्वभावपवित्रम् ॥ पुर्णिण पावइ सग्ग जिय पावइ गरयाणवासु । वे छंडिवि अप्पा मुणइ तउ लब्भइ सिवयासु ॥३२॥
पुण्येन प्राप्नोति स्वर्ग जीव: पापेन नरकनिवासम् । द्वयं त्यक्त्वा आरमानं मनुते तेन लम्यत शिववासः ॥ वउतउसंजमुसील जिया इय सव्वद ववहारु । मोक्खह कारण एक मुणी जो तइलोयहु सारु ॥ ३३ ॥
व्रत्ततपःसंयमशीलानि जीव ! एतानि सर्वाणि व्यवहारेण । मोक्षस्य कारणं एक मन्यस्व यः त्रिलोकस्य सारः॥ अप्या अप्पड़ जो मुणइ जो परभाव चएइ । सो पापड़ सिवपुरगमणु जिणवर एउ भणेह ।।३४॥
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योगसारः।
आत्मना आत्मानं यो मनुते यः परभाव त्यजति । स प्रामोति शिवपुरगमनं जिनवर एवं भणति ।। छहदबह जे जिणकहिआ णव पयत्थ जे तत्त । वत्रहारें जिणउत्तिया ते जाणियहि पयत्त ।। ३५ ॥
षद्रव्याणि यानि जिनकथितानि नव पदार्थाः ये तत्वानि।
व्यवहारण जिनोक्तानि तानि जानीहि प्रयत्नेन ।। सब्ब अचेयण जाणि जिय एक सचेयण सार । जो जाणेविण परममुणी लहु पावई भवपार ॥ ३६॥
सर्वान् अचेतनान् जानीहि जीवं एक सचेतनं सारम् ।
यं ज्ञात्वा परमभुनिः लघु प्रामोति भव पारम् ।। जो जिम्मल अप्पा मुहि छडाव सहयवहारू । जिणसामी एहङ भगइ लहु पावहु भवपारु ॥ ३७॥
यः निर्मले आत्मानं मनुते त्यक्त्वा सर्वव्यवहारम् । जिनस्वामी एवं भणांते लघु प्राप्नोति भवपार ।।
सोरठा। जीवाजीवह मेउ जो जागइ ते जाणियउ । मोक्खह कारण एउ भणइ जोइ जोइहि भणिउँ ॥३८॥
जीवाजावयार्मेदं यो जानाति तन ज्ञातं । मोक्षस्य कारणं एप भणति योगिन् ! योगिना भणितः ॥ ?
चौपाई। कासु समाहि करउ को अंचउ ।
छोपुअलोपु करिवि को वंचउ ।। १ अस्मादने इदमपि नोक
केवल गाणुसहाउ सो अप्पा मुणि जीव तुहु । अइ चाहहि सिघलाहु जोइ जोइहि मणि ।। 1।।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
हल सह कलहि केण सम्माणउ । जहिं जहिं जोवउ तह अप्पाणउ ॥ ३९॥ केषु समाधि करोमि कान् अर्चयामि । वैरमचरं कृत्वा कान् वचयामि ॥ .
........। यत्र यत्र पश्यागि तत्र भामा |
दोहा । ताम कुतित्थ परिभमइ धत्तिम ताम करेड़ ] गुरुहु पसाए जाम ण वि देहह देव मुणेह ॥ ४० ॥
तावत्कुतीर्थेषु परिभ्रमति धूनत्वं तावत्करोति ।
गुरोः प्रसाद; यावन्न देहमेव देवं मनुते ॥ तित्यहि देवलि देउ ण वि इम सुइक्रेवलि वुत्तु । देहादेवालि देउ जिणु एहउ जाणि णिमंतु ।। ४ ।।
तीर्थानि देवालयः देवो नापि एवं श्रुतकेवलिनोक्तम् ।
देहदेवालये देवो जिनः एवं जानीहि निर्धान्तम् ॥ देहादेवलि देउ जिणु जणु देवलिहि णिएइ । हासउ मह परि होइ इह सिद्धाभिक्ख भमेइ ।।४२ ॥
देहदेवालये देवो जिनः देवालये नास्ति । ?
हास्यं मुखस्योपरि भवतीह सिद्धभिक्षा भ्रमति || ? मूढा देवलि देउ ण वि वि सलि लिप्पड चित्ति । देहादेवलि देउ जिणु सो बुज्झ समचित्ति ॥ ४३ ।।
मूद ! देवालये देवो नापि नापि शिलायां लेपे चित्रे । देहदेवालये देवो जिनः तं बुध्यस्त्र समचेतसि ॥
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योगसारः।
Inarurna-raininatanna-rammarmarxnman
तित्थहु देउलि देउ जिणु सव्व वि कोई भणेइ । देहादेउलि जो मुणइ सो चुह को वि हवेइ ॥ ४४ ॥
तार्थ देवालये देवो जिनः सर्वोऽपि कश्चित् भणति ।
देहदेवालये थो मनुते स बुधः कोऽपि भवेत् ॥ जह जरमरणकरालियउ तउ जिणधम्म करेहि । धम्मरसायण पियहि तुहूं जिम अजरामर होहि ॥४५॥
यदि जरामरणकरालित: तर्हि जिनधर्म कुरु ।
धर्मरसायन पिब वं येन अजरामरो भव ॥ धम्मु पढिया होइ धम्मु ण पोच्छापिच्छयइ। धम्मु ण मढियपयेसि धम्मु णमुच्छालुचियह ॥४६॥
धर्मो न पठनेन भवेत् धर्मो न पुस्तकदर्शने ।
धर्मो न मठप्रदेशे धर्मों न कूर्चलुचने ।। ४६ ॥ रायरोस वे परिहरइ जो अप्पा णिवसेइ । सो धम्मु वि जिणुउत्तियउ जो पंचम गइ देह ॥४७॥
रागद्वेषौ द्वौ परिहरति य आत्मनि निवसति ।
स धर्मो जिनोक्तः यः पंचमगति ददाति ।। आउ गलइ ण वि मणु गलइ ण वि आसाहु गलेइ । मोह फुरइ ण वि अप्पहिउ इम संसार भमेइ ॥४८॥
आयुगलति न मनो गलति नाण्याशा गलति । मोहः स्फुरति नापि आत्महितः एवं संसार भ्रमति ॥ जेहउ मणु विसयह रमइ तिम जे अप्प मुणेइ । जोइउ भणइ रे जोड्हु लहु णिच्वाण लहेइ ।। ४९ ॥
यथा मनो विनये रमते तथा पदि आत्मानं मनुते । योगी भणति रे योगिन् ! लघु निर्वाणं लभते ।।
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सिद्धाारसादे संग्रह--
जेहउ जज्जर परयघरु तेहा धुज्मि सरीर | अप्पा भारहु णिम्मलहुलहु पावइ भवतीर ॥५०॥ यथा जर्जरं नरकगृहं तथा बुध्यस्व शरीरम् ।
आत्मानं भावय निर्मल लघु प्राप्नोषि भत्रतारम् ।। धंधय पडियो सयलजगि म वि अप्पाहु मृगति । तिह कारण ए. जीव फुटु ण हु णिव्याण लहंति ।। ५११।।
धाँधे पतितं सकलजगत् नापि आत्मानं मनुते ।
तेन कारणनेमे जीवाः स्फुटं न हि:निर्वाणं लभते ॥ सस्थ पढ़तह ते वि जड अच्पा जे ण मुणंति । तिह कारण ऐ जीव फुडु ण हु णिव्याण लहंति ।। ५२॥
शास्त्रं पठन्ति तेऽपि जडा; आत्मानं ये न जानन्ति ।
तेन कारणेनेमे जीवा; स्फुट न हि निर्वाणं लभन्ते ।। मशु इंदिहि विच्छोइयइ बुह पुच्छियह ण जोइ । रायह पसर णिवारियइ सहज्ज उपजइ सोइ ॥ ५३ ।।
मनः इन्द्रियः वि................... |
रागप्रसार निवारय सहज उत्पद्यते सः || पुग्गल अण्णु जि अण्णु जिउ अण्णु वि सहुविवहारू । चयहि वि पुग्गल गहहि जिऊ लहु पावहु भवपारु ॥५४॥
पुद्गलोऽन्यः अन्यो जीकः अन्यः सर्वव्यवहारः। त्यज पुद्गलं ग्रहह्मण जीवं लघु प्राप्नोषि भवपारम् ॥ जे ण वि मण्णइ जीव फुड जे ण वि जीव मुणंति । ते जिपणाहह उत्तिया पड संसारु मुयंति ।। ५५ ॥
ये नापि मन्यन्ते जीवं स्फुदं ये नापि जीवं मन्यन्ते ।। ते जिननाथेन उक्ता न संसार मुञ्चन्ति ।
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योगसारः।
रयण दीउ दिणयर दहिउ दुध घीउ पाहाणु । सुण्ण रूउ फलियउ अगिणि णव दिहता जाणु ॥५६॥ रत्नं दीपः दिनकरः दधि दुग्धं धृतं पाषाणं ।
सुवर्ण रौप्यं स्फटिक मेः ना सन्तान जानाहि || देहादिक जो पर मुणइ जेहउ सुणहुआयासु । सो लहु पावहि बंभु पर केवल करइ पयासु ।। ५७ ॥
देहादिकं यः परं मनुते यथा शून्याकाशे 1
स लघु प्राप्नोति ब्रह्म परं केवलं करोति प्रकाशम् ॥ जेहउ सुद्ध आयासु जिय तेहउ अप्पा उत्तु । आयासु वि जड जाणि जिय अप्पा चेयणुवंतु ॥५८ ॥ यथा शुद्धं आकाशं जीव ! तथा आत्म। उक्तः |
आकाशमपि जई जानीहि जीत्र ! आत्मानं चैतन्यवन्तं ।। णासगि अभितरहं जे जोवहि असरीरू । बाहुडि जम्म ण संभवहि पित्राहि ण जणणीखीरु ||५९||
नासामेण अभ्यन्तरे यः पश्यति अशरीरं । घ्याधुभ्य जन्म न सम्भवति पिबति न जननीक्षीरम् ।। असरीरु वि सुसरीरु मुणी इहु सरीर जड जाणि | मिच्छामोह परिच्चयहि मुत्ति णियं णिणिमाणि || ६० ।।
अशरीरोऽपि सरीरो मुनिः इदं शरीरं जई जानीहि । मिथ्यामोहं परित्यज.......
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१ शरीराथिमम् सिद्धस्वरूपं । २ भ्याधुदय जन्म धृत्वा जननाक्षीरं न पिबति इस्वर्थः । ३ चतन्यशरीरवान् । ४ पौलिकम् ।
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६६
सिद्धान्तारामहे
अप्पय अषु मुणतयह किण्योहा फल होइ । केवलणाणु विपरिणवइ सासय सुक्खु लहेइ ।। ६१॥
आत्मना आत्मानं मन्वानस्य किनेह फलं भवति । केवलज्ञानं विपरिणमति शाश्वतं सुखं लभते ।। जे परभाव चएवि मुणी अप्पा अपघु मुगति । केवलणाणसव लियइ ते संसारु मुचंति ॥६२।।
ये परभावं त्यक्त्वा मुनयः आत्मनात्मानं मन्वते ।
केवलज्ञानस्वरूपं लब्ध्या ते संसारं मुञ्चति ॥ धष्णा ते भयवंत बुह जे परभाव चयति । लोयालोयफ्यासयरु अप्पा विमल मुणति ॥ ६३ ।।
धन्यास्ते भाग्यवन्तः बुधा ये परभावं त्यजन्ति ।
लोकालोकप्रकाशकरं आत्मानं विमलं जानन्ति ।। सागारु वि णागारुहु वि जो अप्याणि वसेई । सो पावइ लहु सिद्धसुहु जिणवरु एम भणेइ ।। ६४ ॥ सागारोऽप्यनगारोऽपि य आत्मनि वसति ।
स प्रामोति लघु सिद्धसुखं जिनवर एवं भणति ।। विरला जाणहि तत्तु बुहु विरला णिसुणहि तत्त । विरला झायहि तत्तु जिय विरला धारहि तत्तु ।। ६५ ।।
विरला जानन्ति तत्वं बुधाः विरलाः शृण्वन्ति तस्वम् ।
विरला ध्यायन्ति तावं जीत्र ! विरला धारयन्ति तत्वम् ।। इहु परियण ण हु महतण इहु सुहुदुक्खह हेउ । इम चिंततह किं करइ लहु संसारह छेउ ॥६६॥
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योगसारः ।
अयं परिजनः न महान् पुनः अर्य सुखदुःखस्य हेतुः।
एवं चिन्तयन् किं करोति लघु संसारस्य छेदम् ॥ इंदफाणिदरिंदय वि जीवह सरण ण टुति । असरणु जाणिव मुणिधवला अप्पा अप्प मुणति ।।६७ ॥
इन्द्रफणीन्द्रनरेन्द्रा अपि जीवस्य शरणं न भवन्ति ।
अशरणं ज्ञात्वा मुनिधवला आत्मनात्मानं मन्यते ॥ इक उपजाइ मरइकुवि दुहु सुह अंतर इक्क । णरयह जाइवि इक्क जिय तह णिव्वाणह इक्कु ।। ६८॥
एक उत्पद्यते म्रियते एकः दु:खं सुखं मुंक्त एकः ।
नरक याति एकः जीव 1 तथा निर्वाण एकः ॥ इक्कलउ जइ जाइसहि तो परभाव चएहि ।। अप्पा झायहि णाणमउ लहु सिवसुक्ख लहेहि ॥ १९॥
एक: यदि जायसे तर्हि परभायं त्यज ।
स्वात्मनं ध्यायस्व ज्ञानमयं लघु शिवसुखं लभस्व ॥ जो पाउ वि सो पाउ मुणि सव्वु वि को वि मुणेइ । जो पुष्ण वि पाउ विभणइ सो बुह को वि हवेइ ॥ ७० ॥ __ यः पापमपि तापापं मनुते सर्वः कोऽपि मनुते ।
यः पुण्यमपि पापं मणति स बुधः कोऽपि भवेत् ।। जह लोयम्मिय णियडहा तह मुणम्मिय जाणि । जे सुह असुह परिचयहि ते वि वंति हु णाणि ।। ७१ ॥
यथा लोहमयं निगलं तथा सुवर्णमयं जानीहि । ये शुभ अशुभं परित्यजन्ति ते भवन्ति हि ज्ञानिनः ।।
१ करोति इति सम्बन्धः ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
जहया मणुणिग्गंथ जिय तड़या तुह णिग्गंथु । जहया तुहु णिग्गंथ जिय तो लब्भह सिवपंथु ॥ ७२ ॥
६८
MA
यावत् मनोनिग्रन्धः जीव ! तावत्वं निर्मन्थः । यावत्रं निर्मन्थः जीव ! ततः लभसे शिवपथं ||
जं मझह बीज फुड बीयह वड वि हु जाणु | तं देहं देउ वि हि जो तइलोय पहाणु ॥ ७३ ॥ . यथा बटमध्ये बीजं स्फुटं बीजे बटमपि जानीहि । तथा देहे देव मन्यस्त्रयः त्रिलोके प्रधानः ||
जो जिण सो हउ सो जि हउ एहउ भाउ णिभंतु । मोक्खह कारण जोइया अण्णु ण तंतु ण मंतु ॥ ७४ ॥ यो जिनः सोऽहं सोऽप्यहं एतत् भावय निर्भ्रान्तिम् 1 मोक्षस्य कारणं योगिन् । अन्धो न तंत्रः न मंत्रः ||
येतेच उयंचविण व हंसतहछहपंचाह
चगुणसहियउ जो मुहि एहउ लक्खण जाह ।। ७५ ।।
द्वित्रिचतुःपंचद्विनवसप्तषट्पंच
चतुर्गुणसहितं यः मनुते एतदक्षणं यस्मिन् ॥
वे लंडवि वैगुणसहिउ जो अप्पाणि बसे । जिणसामित्र एवं भगड़ लहु शिव्याण लहेइ || ७६ ॥ द्वौ त्यक्त्वा द्विगुणसहितः य आत्मनि वसति । जिनस्वामी एवं भणति लघु निर्वाणं लभते ॥ तिहरहिउ तिहगुणसहिउ जो अप्पाणि वसेद । सो सासय सहभाणु वि जिणवर एम भणेड़ || ७७ ॥
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योगसारः ।
त्रिरहितः त्रिगुणसहितः य आत्मनि वसति ।
स शाश्वतसुखभाजनं अपि जिनवरः एवं भणति ।। चउकसाय सण्णारहिउ चउगुणसहित बुत्तु । सो अप्पा मुणि जीव तुहुं जिम परु होहि पवित्तु ॥ ७८ ॥ चतुः कषायसंज्ञारहितः चतुर्गुणसहितः उक्तः ।
ते आत्मानं मनुस्य जीव 1 त्वं येन परः भवसि पवित्रः ॥ वेपंचविरहियउ मुगहि वेपंचहसंजुत्त । वेपंचह जो गुण सहियो सो अप्पा गिरु उत्त ॥ ७९ ॥ द्विपचरहितं जानीहि द्विपेचसंयुक्तं ।
द्विपंचभिः यो गुणैः सहितः स आत्मा निज उक्तः ॥ अप्पा दंसणु पाण मुणी अप्पा चरणु वियाणि । अप्पा संजम सील तउ अप्पा पञ्चक्खाणि ॥ ८० ॥
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आत्मानं दर्शनं ज्ञानं मन्यस्व, आत्मानं चरणं जानीहि । आत्मा संयमः शीले तपः आत्मा प्रत्याख्यानम् || जो परियाण अप्प पेरु सो परिचयहि णिभंतु । सोसण्णास (ण) मुणेहि तुहुं केवलणाणि वृत्तु ॥ ८१ ॥ यः परिजानाति आत्मानं परं स परित्यजति निर्भ्रात ! तत्संज्ञानं मनुस्वत्वं केवलज्ञानिना उक्तम् ||
दंसण जहिं पिच्छयह वह अप्पा विमल म्रुतु | पुण पुण अप्पा भावियह सो चारित्त पवित्तु ॥ ८२ ॥ दर्शनं येन पश्यति बोधः आत्मानं विमलं मनुते । पुनः पुनः आत्मानं भावयति तत् चारित्रं पवित्रम् ॥
१ परद्रव्यं । २ ऐहु णिसंतु इत्यपि पाठ: । ३ साय इत्यपि पाठः ।
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सिद्धान्ससारादिसंमहे
रयणत्तयसंजुत्त जिउ उत्तमतित्थ पवित्तु । मोक्खह कारण जोईया अण्णु ण तंतु ण मंतु ॥ ८३॥
रत्नत्रयसंयुक्तो जीवः उत्तमतीर्थ पवित्रम् ।।
मोक्षस्य कारण योगिन् ! अन्यो न तंत्रः न मत्रः ।। जहि अप्या तहि सयलगुण केवलि एम भणति । तिहि कारण ए जीव फुड अप्या विमल मुणंति ॥८४ ॥
यत्र आत्मा तत्र सकलगुणा: केवलिन एवं भणंति ।
तेन कारणेन इमे जीवाः स्फुट आत्मानं विमर्ल जानन्ति ॥ इकलउ इंदियरहिउ मणवयकायतिसुद्धि 1. अप्पा अप्प मुणेइ तुहुं लहु पाबहु सिवसिद्धि ।। ८५ ।।
एकाकी इंद्रियरहितः मनोवाक्कायत्रिशुद्धः ।
आत्मना आत्मानं मनुस्व त्वं लघु प्राप्नोसि शिवसिद्धिम् ॥ जह बंधउ मुक्कउ मुणहि तो बंधियहि णिभंतु | सहजसरूचि जड़ स्मइ तो पावइ सिव संतु ॥ ८६ ।।
यदि बद्धं मुक्तं मन्यसे तर्हि बध्नासि निर्धान्तम् |
सहजस्वरूपे यदि रमसे तर्हि प्रामोसि शिवं शान्तम् ।। सम्माइहीजीचडह दुग्गहगमणु ण होइ । जइ जाइ वि तो दोस ण वि पुवक्किउ खवणेह ॥ ८७॥
सम्यदृष्टिजीवस्य दुर्गतिगमनं न भवति ।
यदि यात्यपि तर्हि दोषो नापि पूर्वकृत्यं क्षषयति ।। अप्पसरूवह जो रमइ छंउनि सहुववहारू । सो सम्माइही हवह लहु पावइ भवपारु ।।८८॥
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योगसारः ।
आत्मस्वरूपे यो रमते त्यक्त्वा सर्वव्यवहारम् ।
स सम्यग्दृष्टिः भवति लघु प्राप्नोति भवपारम् ॥ अजर अमरु गुणगणाणलउ जाह अप्पा विर थाइ । सो कम्महि ण वि बंधयउ संचियपुर विलाइ ।। ८९ ।।
अजरोमरो गुणगणनिलयः यत्र आत्मा स्थिरः तिष्ठति । स कर्माणि नैव बध्नाति संचितपूर्वाणि विलीयते ॥ जो सम्मत्तपहाणु वुहु सो तयलोय पहाणु । केवलणाण वि सह लहई सासयमुक्वणिहाणु ।। ९० ॥
यः सम्यक्त्वप्रधान: बुधः स त्रैलोक्ये प्रधानः ।
केवलज्ञानमपि स लभते, शाश्वतमुखनिधानं ।। जह सलिलेण ण लिपिपयह कमलाणपत्त कया वि । तह कम्मेण ण लिप्पियई जई रह अप्पसहावि ।। ९१ ॥
यथा सलिलेन न लिप्यते कमलिनीपत्रं कदापि ।
तथा कर्मणा न लिप्यते यदि रमते आत्मस्वभावे ।। जो समसुक्खुणिलीण चुहु पुण पुण अप्प मुणेइ । कम्मक्खउ करि सो वि फुड लहु पिन्वाण लहेइ ॥ ९२॥
यः समसुखनिलीनः बुधः पुनः पुनः आत्मानं मनुते ।
कर्मक्षयं कृत्वा सोऽपि स्फुट लघु निर्वाणं लभते ।। पुरुसायारपमाणु जिय अप्पा एह पवित्तु । जोइज्जइ गुणणिम्मलउ णिम्मलतेय फुरंतु ।। ९३ ।।
पुरुपाकारप्रमाणे जीव आत्मानं इमं पवित्र । पश्यति गुणनिर्मलं निर्मलतेजसा स्फुरन्त ॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
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जो अप्पा सुद्ध वि मुणई असुइसरीरविभिण्णु । सो जाणइ सच्छइ सयलु सासयसुक्खहलीणु ॥ ९४ ।।
य आत्मानं शुद्धं अपि मनुते अशुचिशरीरविभिन्नं । __ स जानाति शास्त्रं सकलं शाश्वतमुखलीनः ।। जो ण वि जाणइ अप्प परु ण वि परभाव चएवि । सो जाणउ सच्छइ सयलु ण हु सिवसुक्ख लहेवि ॥ ९५॥
यः नापि जानाति आत्मानं परं नापि परभावं त्यजति ।
स जानन शास्त्राणि सकलानि न हि शिवसुखं लभते ॥ वज्जिय सयलवियप्पयह परमसमाहि लहति । जं वेददि साणंद फुड सो सिवसुक्ख भणंति ।। ९६ ।।
वर्जितं सकलांवेकल्पैः परमसमाधि लभन्ते ।
या विदन्ति सानन्दं स्फुटं तत् शिवमुर्ख भणन्ति ।। जो पिंडत्थु पयत्थु वुह स्वत्थु वि जिणउत्तु । रूवातीत मुणेहु लहु जिम परु होहि पवित्तु ।। ९७ ॥
यः पिंडस्थं पदस्थं बुधः रूपस्थमपि जिनोक्तम् । रूपातीतं मन्यते लघु येन परः भवति पवित्रः ॥ सम्वे जीवा जाणमया जो समभाव मुणेइ । सो सामाइउ जाणि फुड्ड जिणवर एम मोइ ।। ९८ ॥
स जीवा ज्ञानमया यः समभावं मनुते । तत् सामायिक जानीहि स्फुटं जिनवर एवं भणति ॥ रायरोस वे परिहरवि जो समभाव मुणेह । सो सामाइय जाणि फुड केवलि एम भणेइ ॥ ९९ ॥
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योगसारः।
रागद्वेषौ द्वौ परिहत्य यः समभावं मनुते ।
तत्सामायिक जानीहि स्फुटं केवली एवं भणति ।। हिंसादिउ परिहार करि जो अप्पाहु ठवेइ । सो घीउ जारिन त्रुणि जो पंचमाहोट ।। १०० ॥ हिंसादीनां परिहारं कृत्वा यः आत्मानं स्थापयति ।
तेद्वितीयं चारित्रं मनुस्व यापंचमगति नयति ।। मिच्छादिउ जो परिहरणु सम्मइंसणसुद्धि । सो परिहारविसुद्ध मुणि लहू पावहि सिवसुद्धि ॥ १०१ ।। मिथ्यात्वादिक यः परित्यज्य सम्यग्दर्शनशुद्धि ।
तत्परिहारविशुद्ध मनुस्ख रघु प्राप्नोसि शिवशुद्धिम् ।। सुहमह लोहह जो विलउ सुहमु हवे परिणाम । सो सुहमहचारित्त मुणि सो सासयसुधामु ॥ १०२ ॥
सूक्ष्मस्य लोभस्य यः विलयः सूक्ष्मः भवेत्परिणामः । तत्सूक्ष्मचारित्र मनुस्व तत् शाश्वत सुखधाम ॥ अरिहंतु वि सो सिद्ध फुड्ड सो आयरिउ वियाणि । सो उज्झायो सो जि मुणि णिच्छय अप्पा जाणि ।। १०३ ॥
अर्हन्तमपित सिद्धं स्पुटं तं आचार्य जानीहि । त उपाध्यायं तमेव मुनि निश्चयेन आत्मानं जानीहि ॥ सो सिव संकर विण्हु मो सो रुद्द वि सो बुद्ध । सो जिण ईसर बंभु सो सो अणंत फुड़ सिद्ध ।। १०४ ॥
स शिवः शंकरः विष्णुः स स रुद्रः अपि स बुद्धः स जिनः ईश्वरः ब्रह्मा स अनंतः सुर्ट सिद्धः ॥
१ छेदोपस्थापनसंज्ञकं ।। २ धारयतीति शेषः ।
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सिद्धान्तसारादिसंप्रहे
एहियलक्खणलक्खियउ जो परु णिक्कल देउ । देहद मज्झह सो वस तासु ण वीजइभेउ || १०५ ॥
७४
एतलक्षणलक्षितः यः परः निष्कलो देवः |
देहस्य मध्ये स वसति तस्मिन् नान्यभेदः ॥ जे सिद्धा जे सिज्झसिहि जे सिझहि जिण उत्तु । अप्पादंसण ते चि फुड एहउ जाणि णिभंतु ॥ १०६ ॥ ये सिद्धा ये सेत्स्यन्ति ये सिध्यन्ति जिनोक्तं । आत्मदर्शनेन तेऽपि स्फुटं एतत् जानीहि निर्भ्रान्तम् ॥ संसारह भयभीयहं जोगिनंदमुणिएणं । अप्पासंबोहण कय दोश एकमो ॥ १०७॥ संसारस्य भयभीतानां योगिचंद्रमुनिना । आत्मसंबोधनाय कृतानि दोहकानि एकमनसा ||
इति श्रीयोगिचंद्रकृतो योगसारः संपूर्णभूत |
समाप्तोयं योगसारः ।
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कल्लाणालोयणा।
परमप्पय बमई परमेठीणं करोमि णवकारं । सगपरसिद्धिणिमित्तं कल्लाणालोयणा वोच्छे ॥ १ ॥
परमात्मानं वद्धितमति परमेष्ठिनं करोमि नमस्कारम् । स्वकपरसिद्धिनिमित्तं कल्याणालोचनो वक्ष्ये ।। रे जीवाणंतभवे संसारे संसरंत बहुवार । पसो ण बोहिलाही मिच्छवियंभपयडीहि ।
रे जीव ! अनन्तभवे संसारे संसरता बहुधारन् ।
प्राप्तो न बोधिलाभो मिध्यात्यविजंभितप्रकृतिभिः ।। संसारभमणगमणं कुषांत आराहिऊ ण जिणधम्मो । तेणेविण वर दुक्ख पत्तोसि अगंतवाराई ॥३॥
संसारभ्रमणगमनं कुर्वन् आराधितो न जिनधर्मः ।
तेन विना वरं दुकग्वं प्राप्तोऽसि अनन्तबारम् ॥ संसारे णिवसंता अणंतमरणाई पाविओसि तुम । केवलि विणा ण(य) तेमि संखापजत्ति पो हवह ॥ ४ ॥
मसारे निवसन् अनन्तमरणानि प्राप्तोऽसि त्वं ।
केवलिना बिना तेषां संख्यापर्याप्तिन भवति ॥ तिणि सया छत्तीसा छावहिसहस्सवारमरणाई । अंतोमुत्तमझे पत्तोसि णिगोयमज्झम्मि ॥५॥ रौणि शतानि दिशानि षट्पष्ठिसहस्रवारमरणानि । अन्तर्मुहर्तमध्ये प्राप्तोऽसि निगोदमध्ये ||
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहेवियलिदिए असीदी सट्टी चालीसमेव जाणेहि । पंचेंदिय चवींसं खुदभवतोमुहुत्तस्स ।। ६ ।। विकलेन्द्रियेऽशांति षष्ठिं चत्वारिंशदेव जानीहि ।
पंचेन्द्रिये चतुर्विंशति क्षुद्रभवान् अन्तर्मुहूर्ते ॥ अण्णोणं खजंता जीवा पावंति दारुणं दुक्खं । ण हु तेसिं पज्जत्ती कह पावइ धम्ममइसुण्णो ।। ७ ।।
अन्योऽन्यं क्रुध्यन्तो जीचा प्राप्नुवन्ति दारुणं दुःखम् ।
न खलु तेपां पर्याप्ती: कथं प्राप्नोति धर्ममतिशून्यः || माया पियर कुडंत्रो सुयणजणो को वि णावद सत्थे । एगागी भमइ सया ण हि वीओ अत्थि संसारे ॥ ८ ॥
माता पिता कुटुम्बः स्वजनजनः कोऽपि नायाति सह । एकाकी भ्रमति सदा न हि द्वितीयोऽस्ति संसारे । आउखए वि पत्ते ण समत्थो को वि आउदायो य | देवेंदो ण णरेंदो मणिओसहमंतजालाई ॥ ९॥
आयुःक्षयेऽपि प्राप्ते न समर्थः कोऽपि आयुर्दाने च । देवेन्द्रो में नरेन्द्रः मन्यौपश्मंत्रजालानि ॥ समडि जिणवरधम्मो लदोसि तुम विसुद्धजोएण । खामसु जीवा सव्वे पत्ते समए पयत्तेण ॥ १० ॥ सम्प्रति जिनवरधा लब्धोऽसि त्वं विशुद्धयोगेन ।
क्षमस्व जीवान् सर्वान् प्रत्येकं समये प्रयत्नेन || तिष्णि सया तेसट्टी मिच्छत्ता दसणस्स पडिवक्खा | अण्णाणे सद्दहिया मिच्छा मे दुकई हुज ॥११ ।।
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कलाणालोयणा ।
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त्रीणि शतानि त्रिषष्टि मिथ्यात्वानि दर्शनस्य प्रतिपक्षाणि !
अज्ञानेन अद्धितानि मिथ्या मे दुकृतं भवतु || महुमज्जमसजवापमिदी वसणाई सत्तभेयाई । णियम ण कयं च तेसि मिच्छा मे दुक्कड़ हुज ॥ १२ ॥
मधुमद्यमांसद्यूतप्रभतीनि व्यसनानि सप्तभेदानि । नियमो न कृतः च तेषां मिथ्या में दुष्कृतं भवतु ॥ अणुवयमहन्वया जे जमणियमाशील साहुगुरुदिण्णा । जे जे विराहिया खलु मिच्छा मे दुक्कडं हुज्ज ॥ १३ ॥
अणुव्रतमहानतानि यानि यमनियमशीलानि साधुगुरुदत्तानि ।
यानि बानि विराधितानि खलु मिया मे दुष्कृतं भवतु 11 णिच्चिदरधादुसत्तय तरुदह वियलिदिएसु छच्चेव । सुरणरयतिरिय चदुरो चउदस मणुए सदसहस्सा ।।:१४ ॥ नित्येतरधातुसप्त, तरुदश, विकलेन्द्रियेषु पद चैत्र ।
सुरनारकतिर्यक्षु चत्वारः चतुर्दश मनुष्ये शतसहस्राणि || एदे सच्चे जीवा चउरासीलक्खजोणि वसि पत्ता । जे जे विराहिया खलु मिच्छा मे दुकर्ड हुज ॥१५॥
एते सर्वे जीवाश्चतुरशीतिलक्षयोनिवशे प्राप्ताः ।
ये ये बिराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥ पुढीजलग्गिवाओतेओविवणस्सई य वियलतया। जे जे विराहिया खलु मिच्छा मे दुकडं हुज ॥ १६ ॥
पृथ्वीजलाग्निवायुतेजोवनस्पतयश्च विकलत्रयाः । ये ये बिराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ।।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
मलसत्तरा जिणुत्ता वयावेसए जा विराहणा विविहा । सामइखमइया. खलु मिच्छा मे दुक्कडं हुज ॥ १७ ।
मलसप्ततिर्जिनोक्ता तविषये या विराधना विविधा ।
सामायिकक्षमादिका मिथ्या मे दुकृतं भवतु ॥ . फलफुल्लछल्लिबल्ली अणगलण्हाणं च धोवणाईहिं। जे जे विराहिया खलु मिच्छा मे दुकडं हुज्ज ॥ १८ ॥
फलपुष्पत्वबल्ली अगालितस्नानं च प्रक्षालनादिभिः। । ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु || जो सीलं व खमा विणओ तवो ॥ संजमोवासा । ण कया ण भावियकया मिच्छा मे दुकर्ड हुन्ज ॥ १९ ॥
न शीलं नैव क्षमा विनयस्तपो न संयमोपवासाः ।
न कृता न भावनीकृता मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ।। कंदफलमूलवीया सचित्तरयणीयभोयणाहारा । अण्णाणे जे वि कया मिच्छा मे दुक्कडं हुज्ज ।। २० ॥ कन्दफलमूलीजानि सचित्तरजनीभोजनाहासः ।
अज्ञानेन येऽपि कृता मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु || णो पूया जिणचलणे ण पत्तदाणं ण चेइयागमणं । ण कया ण भाविय मइ मिच्छा मे दुक्कडं हुज ॥ २१ ॥
नो पूजा जिनचरणे न पात्रदान न चर्यागमनम् ।
न कृता न भाविता मया मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥ चंभारंभपरिगहसावज्जा बहु पमाददोसेण । जीवा विराहिया खलु मिच्छा मे दुकाई हुन्न ।। २२ ।।
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कलाणालोयणा ।
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७९
ब्रह्मारंभपरिग्रहसावधानि बहूनि प्रमाददोपेण । जीवा विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥ सत्तस्सिउखित्तभवाञ्तीदाणागयसुवडूमाणजिणा ।
जे जे विराहिया खलु मिच्छा मे दुकडं हुज्ज ॥ २३ ॥
सप्ततिशत
बना |
२४ ॥
ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥ अरुहासिद्धाइरिया उवझाया साहु पंचपरमेडी | जे जे विराहिया खलु मिच्छा मे दुकूई हुज्न ॥ अर्हत्सिद्धाचार्या उपाध्याया साधवः पंचपरमेष्ठिनः । ये ये विराधिताः खलु मिध्या में दुष्कृतं भवतु ॥ जिणवयण धम्म चेइय जिणपडिमा किट्टिमा अकिट्टिमया । जे जे विराहिया खलु मिच्छा मे दुक्कडं हुज्न ॥ २५ ॥ जिनवचनं धर्मः चैत्यं जनप्रतिमा कृत्रिमा अकुत्रिमाः । ये थे विराविताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥
दंसणणाणचरिते दोसा अट्टहपंचभेयाई । जे जे विराहिया खलु मिच्छा मे दुकडे हुज्ज ।। २६ ।। दर्शनज्ञानचारित्रे दोषा अष्टाष्टपंचभेदाः ।
ये ये विचिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥
मइ सुइ ओही मणपज्जयं तहा केवले च पंचमयं । जे जे विराहिया खलु मिच्छा मे दुक्कडं हुज्ज ॥ २७ ॥ मतिः श्रुतं अवधिः मन:पर्ययः तथा केवले च पंचमकम् | ये ये विराविताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
|
आयारादी अंगा पुन्वषण्णा जिणेहि पण्णसा | जे जे विराहिया खलु मिच्छा मे दुक्कडं हुज्ज ॥ २८ ॥ आचारादीन्यङ्गानि पूर्वप्रकीर्णकानि जिनैः प्रणीतानि । ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु || पंचमहच्चयजुना अट्ठास्सस्ससीलकोहा | जे जे विराहिया खलु मिच्छा मे दुक्कडं हुज्न ॥ २९ ॥ पंचमहाव्रतयुक्ता अष्टादशसहस्त्रलिकृतशौभाः ।
८०
ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥ लोए पियरसमाणा रिद्धिपवण्णा महागणवड्या | जे जे विराहिया खलु मिच्छा में दुक्क हुन । ३० ॥ लोके पितृसमाना ऋद्धिप्रपन्ना महागणपतयः ।
ये ये विराधिताः खलु मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥ णिग्गंथ अज्जियाओ सड्डा सड्डी य चउविदो संघो । जे जे विराहिया खलु मिच्छा मे दुक्कडं हुज्ज ॥ ३१ ॥ निर्मन्था आर्थिकाः श्रावकाः श्राधिकाः च चतुर्विधो संघः । ये ये विराधिताः खलु मिया में दुष्कृतं भवतु ॥ देवासुरा मणुस्सा पेरइया तिरियजोणिगयजीवा । जे जे विराहिया खलु मिच्छा मे दुक्कई हुज्ज || ३२ ॥ देवा असुरा मनुष्या नारकाः तिर्यग्योनिगतजीवाः । ये ये विचिता: खलु निथ्या में दुष्कृतं भवतु || कोहो माणो माया लोहो एत्थम्म रायदोसाई । अण्णा जे वि कया मिच्छा में दुक्कडं हुज्ज ॥ ३३ ॥
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कालाणालोयणा ।
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क्रोधो मानं माया लोभः एते रागदोषाः ।
अज्ञानेन येऽपि कृता मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ॥ परवत्थं परमहिला पमादजोएण अज्जियं पात्र । अण्णावि अकरणीया मिच्छा मे दुक्कडं हुज्ज ॥ ३४॥
परवन पमहिला प्रमादयोगेजाति म !
अन्येऽपि अकरणीया मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु ।। . इक्को सहावसिद्धो सोह अप्पा वियप्पपरिमुक्को । अण्णो ण मज्झ सरणं सरणं सो एक्क परमप्पा || ३५ ॥ एक स्वभावसिद्धः स आत्मा विकल्पपरिभुक्तः ।
अन्यो न मम शरण शरणं स एकः परमात्मा । अरस अरूव अगंधो अच्वाचाहो अणतणाणमओ। अण्णो ण मज्झ सरणं सरणं सो एक्क परमप्पा ।। ३६ ॥
अरसः अरूपः अगन्धः अव्याबाधः अनन्तज्ञानमयः ।
अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा । पेयपमाणं गाणं समए इक्केण हुंति समहावे । अपणो ण मज्झ सरणं सरणं सो एक्क परमप्पा ।। ३७॥ ज्ञेयप्रमाणं ज्ञानं समयेन एकेन भवति स्वस्वभावे ।
अन्यो न मम शरणं शरणं स एक: परमात्मा | एयाणेयवियप्पप्पसाहणे सयसहावसुद्धगई । अण्णो ण भज्झ सरणं सरणं सो एक परमप्या ॥३८॥ एकानेकविकल्पप्रसाधने स्वकस्वभाव झुगतिः । अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ।।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहेदेहपमाणो णिचो लोयषमाणो वि धम्मदो होदि । अण्णो ण मज्झ सरणं सरणं सो एक परमप्पा ॥ ३९॥ देहप्रमाणः नित्यः लोकप्रमाणः अपि धर्मतो भवति ।
अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ।। केवलदसणणाणं समए इक्केण दुण्णि उवउम्गा । अपणो ण मज्झ सरणं सरण सो एक्क परमध्पा ॥ ४० ॥ केवलदर्शनशाने समयेनकेन । उपयोगी।
अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ॥ सगरूवसहजसिद्धो विहावगुणमुक्ककम्मवावारो। अण्णो ण मज्झ सरणं सरणं सो एक्क परमप्पा ॥ ४१ ॥ स्वकरूपसहजसिद्धो त्रिभावगुणमुक्तकमव्यापारः ।
अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा || सुण्णो णेय असुण्णो णोकम्मोकम्मवजिओ गाणं । अण्णो ण मज्झ सरणं सरणं मो एक परमप्पा ॥ ४२ ॥
शून्यो नैवाशून्यो ? नोकर्मकर्मवर्जितं ज्ञानम् ।
अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ॥ णाणाउ जो ण भिण्णो वियप्पभिण्णो सहावसुक्खमओ । अण्णो ण मज्झ सरणं सरणं सो एक परमप्पा ।। ४३ ।। ज्ञानतो यो न भिन्नः विकल्पभिन्नः स्वभावसुखमयः ।
अन्यो न मम शरणं शरणं स एक: परमात्मा || अच्छिन्नोवच्छिन्नो पमेयरूवस गुरुलहू क्षेत्र अपणो ण मज्झ सरणं सरणं सो एक्क परमप्पा ||४४॥
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कलाणालोयणा ।
अच्छिन्नोऽवश्छिन्नः प्रमेयरूपत्वं अगुरुलघुत्वं चैव ।
अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ॥ सुहअसुहभावविगओ सुद्धसहावेण तम्मयं पत्तो । अण्णो ण मज्झ सरणं सरणं सो एक्क परमप्पा ।।४५॥
शुभाशुभभावविगतः शुद्धस्वभावेन तन्मयं प्राप्तः ।
अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ॥ णो इत्थी ण गाईगो णो मुंगो गेम पुगवान गयो अण्णो ण मज्झ सरणं सरणं सो एक परमप्पा ॥४६॥ न स्त्री न नपुंसको न पुमान्..............।
अन्यो न मम शरणं शरणं स एकः परमात्मा ॥ ते कोण होदि सुयणो तं कस्स ण बंधवो ण सुयणो वा। अप्पा हवेह अप्पा एगागी जाणगो सुद्धो ॥४७॥ तब को न भवति स्वजनः त्वं कस्य न बन्धुः सुजनो वा।
आत्मा भवेत् आत्मा एकाकी ज्ञायकः शुद्धः । जिणदेवो होउ सया मई सुजिणसासणे सया होउ । सण्णासेण य मरणं भवे भवे मज्झ संपदओ ॥४८|| जिनदेवो भवतु सदा मतिः सुजिनशासने सदा भवतु |
संन्यासेन च मरणं भवे भवे मम सम्पत् ! जिणो देवो जिणो देवो जिणो देवो जिणो जिणो । दया धम्मो दया धम्मो दया धम्मो दया सया ॥४९॥ जिनो देवो जिनो देवो जिनो देवो जिनो जिनः । दया धर्मों दया धर्मो दया धर्मो दया सदा ।।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
महासाहू महासाहू महासाहू दियंवरा । एवं तच्च सदा हुज्ज जाव णो मुत्तिसंगमो ||५०॥
महासाधवः महासाधवः महासाधनो दिगम्लराः ।
एवं तल्लं सदा भवतु यावन्न मुक्तिसंगमः ।। एवमेव गओ कालो अणंतो दुक्खसंगमे । जिगोवदिसष्णासे पा यत्तारोहणा कया ।।५।।
एवमेव गत: कालोऽनन्तो दुःखसङ्गमे । जिनोपदिष्टसंन्यासे न यत्नारोष्णा कृता ॥ संपई एव संपत्ताराहणा जिणदेसिया । किं कि ण जायदे मज्झ सिद्धिसंदोहसंपई ॥५२॥
सम्प्रति एव सम्प्राप्ताराधना जिनदेशिता ।
का का न जायते मम सिद्धिसंदोहसम्पत्तिः । अहो धम्ममहो धम्म अहो मे लद्धि णिम्मला । संजादा संपया सारा जेण सुक्खमहुण्णर्य ॥ ५३॥
महो धर्मः अहो धर्मः अहो मे लब्धिनिर्मला । संजाता सम्पत् साग येन सुखं अनुपमम् ॥ एवं आराहतो आलोयणवंदणापडिक्कमणं । पावइ फलं च तेसि णिदिई अजियमेण ॥५४॥
एत्रमाराधयन् आलोचनाबन्दनाप्रतिक्रमणानि । प्रामोति फलं च तेर्षा निर्दिष्टमजितब्रह्मणा ॥
* इति कल्याणालोचना ।
* योगमारः कल्याणालांचनेति ग्रन्यद्वयं केनचिदन्येन सम्पादित । द्वे प्रेसपुस्तके अप्यशुद्धे आस्ताम् ।
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श्रीयोगीन्द्रदेव-विरचिता।
अमृताशीतिः।
।
विश्वप्रकाशिमहिमानममानमेक__ मोमक्षराधखिलवाङ्मयहेतुभूत ।। यं शंकर सुगतमाधवमीशमाहुरहन्तमूर्जितमहन्तमहं नमामि ॥ १॥
अर्थोपार्जनप्रयासः । भ्रातः ! प्रभातसमये त्वरितः किमर्थ
मर्थाय चेत्स च सुखाय ततः स सार्थः । यद्येवमाशु कुरु पुण्यमतोर्थसिद्धिः
पुण्यैर्विना न हि भवन्ति समीहितार्थाः ॥२॥ धर्मादयो हि हितहेतुतया प्रसिद्धा
धर्माद्धनं धनत ईहितवस्तुसिद्धिः । चुवेति मुग्ध ! हितकारि विधेहि पुण्य
पुण्यर्विना न हि भवन्ति समीहितार्थाः ॥ ३ ॥ वार्तादिभिर्यदि धनं नियतं जनानां
निस्वः कथं भवति कोऽपि कृपीवलादिः । ज्ञात्वेति रे मम बचश्चतुराः स्वपुण्यैः
पुण्यविना न हि भवन्ति समीहितार्थाः ॥ ४ ॥ प्रारभ्यते भुवि बुधेन धियाधिगम्य
तत्कर्म येन जगतोऽपि सुखोदयः स्यात् ।
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८६
सिद्धान्तसारादिसंप्रहे
कृष्यादिकं पुनरिदं विदधासि यस्त्वं स्वस्यापि रे विपुलदुःखफलं न किं तत् ॥ ५ ॥
एह्येहि याहि सर निस्सर वारितोऽसि मा मन्दिरं नरपतेर्विश रे विशङ्कम् |
इत्यादि सेवनफलं प्रथमं लभन्ते
लब्ध्वापि सा यदि चला सफला कथं श्रीः ॥ ६ ॥ वार्त्तापि किन तब कर्णमुपागतेयं पात्रे रतिं स्थिरतया न गता कदाचित् । चापल्यतोऽयि जितसर्व नितम्बिनीश्री
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स्तस्याः कथं वत कृती विदधाति सङ्गम् ॥ ७ ॥ प्रणमत्युन्नति हेतोर्जीवितहेतोर्विमुञ्चति प्राणान् । दुःखी यदि सुखहेतोः को सूर्खस्सेवकादपरः ॥ ८ ॥ रत्नार्थिनी यदि कथं जलधिं विमुचेत रूपार्थिनी यदि च पंचशरं कथं वा ।
दिव्योपभोगनिरता यदि नैत्र शुक
कृष्णाश्रया गवगवा न गुणार्थिनी श्रीः ॥ ९ ॥ सत्वाधिकोऽपि सुमहानपि शीतलोप मुक्तः श्रिया चपलया जलविर्ययेह |
तस्याः कृते कथममी कृतिनोऽपि लोकाः क्लेशज्वलज्वलनमाशु विशन्ति केचित् ॥ १० ॥
सत्यं समस्तसुखमल्पमिहेहितार्थैरीहापि ते न तव तेषु सदेति वेभि ।
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अमृताशीतिः ।
तेषां यदर्जन वियोगजदुःखजाल तस्यावधिं बहुधियापि न हन्त वेद्मि ॥ ११ ॥ निर्वादमादिरहितं विधुताघसंघ यद्यस्ति नापरमपारममारसौख्यम् | एवंविधेऽपि मतिमानपि शर्मणीत्थं बुद्धिङ्करोतु पुरुषो वद को दो पः ॥ १ आस्तां समस्तमुनिसंस्तुतमस्तमोहं सौख्यं सखे ! विगतखेद मसंख्यमेतत् । निस्सङ्गिनां प्रशमजं यदिहापि जातं
तस्यांशतोऽपि सदृशं स्मरजं न जातु ॥ १३ ॥ अनन्तसुखविघ्नः ।
अज्ञाननामतिमिरप्रसरोयमन्तः सन्दर्शिताखिलपदार्थ विपर्ययात्मा ।
मंत्री स मोहनृपतेः स्फुरतीह यावतावत्कुतस्तव शिवं तदुपायता वा ।। १४ ।।
शरीर ।
किञ्चाच शुचिसुगन्धिरसादिवस्तु यस्मिन् गतं नरकतां समुपैति सद्यः । रम्यते तदपि मोहवशाच्छरीरं
सर्वैरहो विजयते महिमा परोऽस्य ।। १५ अज्ञानधोरसरिदम्बुनिपातमूर्त्ति
दुर्मो मोह गुरुकदमेदुरमयं । जन्मान्त का दिमकरैरुरुगृह्यमाणं
विश्वं निरीशमवशं सहतेऽतिदुःखम् ।। १६ ।।
८०
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८८
132
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
अज्ञानी ।
अज्ञानमोहमदिरां परिपीय मुग्ध ! हे हन्त हन्ति परिवल्गति जल्पतीष्टम् । पश्येदृशं जगदिदं पतितं पुरस्ते
किन्तुसे त्वमपि वालिश ! तादृशोऽपि ॥ १७ ॥ चक्खुं सदंसणं सय सारो सयदि दोसपरिहारीणं । arat रिन्दो दणभिलयडीस १ । १८ ॥ बैरी ममायमहमस्य कृतोपकार इत्यादिदुःखयन पावकपच्यमानं । टोकं चिलोपन मागको से कन्दं कुरुध्व वद ताश कुर्वसे किम् ॥ १९ ॥ नो जीयते जगति केनचिदेष मोह इत्याकुलः किमसि सम्प्रति रे वयस्य ।। एकोऽपि कोsपि पुरतः स्थितशत्रुसैन्यं
सत्वाधिको जयति शोचसि किं सुधा त्वम् ॥ २० ॥ मुक्त्वालसत्वमधिसत्वबलोपपन्नः
श्रुत्वा पराश्च समतां कुलदेवतां त्वम् । संज्ञानचक्रमिदमङ्ग ! गृहाण तूर्ण
मज्ञानमन्त्रित मोह रिपूपमर्दि ॥ २१ ॥ सत्वं हि केवलमलं फलतीष्टसिद्धिं
युक्तं तया समतया यदि कः परस्ते । एकद्वयेन सहितं यदि वोधरत्न
मेकस्त्वमेव पतिरङ्ग ! चराचराणाम् || २२ ॥
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अमृताशीतिः ।
मल्लो म यस भुवने- पि समोऽस्ति सोज्य
कामः करोति विकृति तव तावदेव । यावन यासि शरणं चरणं समन्तात्
सोपानताभुपगतां शिवसौधभूमेः ॥ २३ ॥ कालत्रयेऽपि भुवनत्रयवर्त्तमान
सत्वप्रमाथिमदनादिमहारयोऽमी । पझ्याशु नाशमुपयान्ति दृशैव यस्याः सा सम्मता ननु सतां समतेव देवी ॥ २४ ।।
चारित्रम् । वाञ्छा सुखे यदि सखे ! तदवैमि नाह
ति सोऽपि न यावदेते। रागादयस्तदसनं समता त एव तस्माद्विधेहि हृदि तां सततं सुखाय ।।२५।।
समतामृतं । ज्वालायमानमदनानलपुञ्जमध्ये
विश्वं कथं कथति कोऽपि कुतूहलेन । कस्मिन्नपीह समसौख्यमया हिमानी_मध्यासते यतिवराः समताप्रसादात् ॥२६॥ मैत्री कृपा प्रमुदिता सुमगाङ्गनानां
शुभ्राभ्रसभिभमनःसदने निवासम् | त्वं देहि ता हि समताभिमताः समीत्वा
देवं न कोऽपि भुवनेपि तवास्ति शत्रुः ।। २७ ।।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
सत्साम्यभावगिरिगहरमध्यमेत्य
पद्मासनादिकमदोषमिदं च बद्ध्वा । आत्मानमात्मनि सखे ! परमात्मरूपं त्वं ध्याय वेत्सि ननु येन सुख समाधेः ॥२८॥
आत्माराधना । आराध्य धीर ! चरणा सततं गुरूपां
लब्ध्वा ततो दशममाघरोपदेश । · तस्मिभिधेहि मनसः स्थिरतां प्रयन्नात शोषं प्रयाति तब येन भवापगेयम् ।। २९ ।।
फलम् । नित्यं निरामयमनन्तमनादिमध्य
महन्तमूर्जितमजं स्मरतो हृदीशम् । नाशं न याति यदि जातिजरादिकं ते ___ तर्हि श्रमः कथमयं न मदा मुनीनाम् ॥ ३० ॥ क्षीराम्बुराशिसशांशु यदीयरूप
माराध्यसिद्धिमुपयान्ति तपोधनास्त्वं । हहो स्वहसहरिविष्टरसन्निविष्टमहन्तमक्षरमिद स्मर कर्ममुक्तये ॥ ३१ ॥
पदस्थः । यं निष्कलं सकलमक्षयकेवलं वा
सन्तः स्तुवन्ति सतत समभावभाजः । वाच्यस्य तस्य वरवाचकमन्त्रयुक्तो
हे पान्थ । शाश्वतपुरी विश निर्विशङ्कः ॥ ३२ ।।
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अमृताशीतिः ।
MAN
यन्यासतः स्फुरति कोऽपि हृदि प्रकाशो
वाग्देवता च बदने पदमादधाति । लब्ध्वाःतदक्षरवरं गुरुसेवया त्वं
मा मा कृथाः कथमपीह विराममस्मात् ॥ ३३ ॥ यावत् समस्ततिरियं सरतीह तावत्
ताचच्च रे चरसि ही रजसि त्वमेव । यावत्स्वशर्मनिकरामृतवारिवर्षे
न हेहिमांशुरुदयं न करोति तेऽन्तः ।। ३४ । हमन्त्रसारमतिभास्वरधामपुंज
सम्पूज्य पूजिततम जपसंयमस्थः। नित्याभिराममविराममपारसार
यद्यस्ति ते शिवसुखं प्रति सम्प्रतीच्छा ॥ ३५ ॥ द्वैकाक्षरं निगदितं ननु पिण्डरूपं
तस्यापि मलमपरं परमं रहस्यम् । वक्ष्यामि ते गुरुपरम्परया प्रयातं
यभाहतं ध्वनति त[व]त्तदनाहताख्यम् ॥ ३६ ।। अस्मिन्ननाहतविले विलपेन मुक्ते
नित्ये निरामयपदे स्वमनो निधाय । त्वं याहि योगशयनीयतलं सुखाय
श्रान्तोऽसि चेद्भवपथभ्रमणोन गाढम् ॥ ३७॥ लोकालोकबिलोकनकनयनं यद्वाश्मयं तस्य या
मूलं बालमृणालनालसदृशीमात्रां सदा तां सती ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
स्मारं स्मारममन्दमन्दमनसा स्फारप्रभाभासुरां संसारार्णवपारमेहि तरसात् किं त्वं वृथा ताम्यसि । ३८ धर्मध्यानं ।
जन्माम्बोधिनिपातभीतमनसां शश्वत्सुखं वाञ्छतां धर्म्यःयानमवादि साक्षरमिदं किश्चित् कथंचिन्मया । सूक्ष्मं किञ्चिदत्तस्तदेव विधिना नालम्बनं कथ्यते भ्रूभङ्गादिकदेशसङ्गतमृते देशैः परैः किञ्चन ||३९|| व्रजसि मनसि मोह चञ्चलं तावदेवं बहुगुणगणगण्यं मन्यसेऽन्यञ्च देवं ।
गुरुवचननियोगान्नेक्षसे यावदेव
शशधरकरगौरं विन्दुदेवं स्फुरन्तम् ॥ ४० ॥
बिन्दुप्रदेश आराधनाफलम् । झटिति करणयोगाद्वीक्षते अयुगान्ते व्रजति यदि मनस्ते बिन्दुदेवे स्थिरत्वम् । त्रुटति निविडबन्धो वश्यतामेति मुक्तिः सदलममलशीले योगनिद्रां भजस्व ॥ ४१ ॥
पवन - जयमूलानाहृतम् ।
सरलविमलनालीद्वारमले मनस्त्वं
कुरु सरति यतोऽयं ब्रह्मर घेणवायुः । परिहृतपरनालीयुग्ममार्गप्रयाणः
दलितमलदलौघः केवलज्ञानहेतुः ॥ ४२ ॥
मूलानाहृतराधना ।
विलसदलसता तस्तीत्रकर्मोदयाद्वा सरलविभलनाली रन्ध्रमप्राप्तलोकः 1
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अमृताशीतिः।
अहह कथमसझं दुःखजालं विशालं सहति महति नैवाचार्यमज्ञस्तदर्थम् ॥ ४३ ।।
____ अनाहताराधना। रसरुधिरपलास्थिस्नायुशुक्रप्रमेद
प्रचुरतरसमीरश्लेष्मपित्तादिपूर्णे । तनुनरककुटीरे वासतस्ते घृणां चेद् हृदयकमलगर्ने चिन्तय स्वं परोऽसि ॥४४॥ .
व्यक्ताननं । अजममरममेयं ज्ञानदृम्बीर्यशर्मा___ स्पदम विपदमिष्ट्र स्वस्वरूपं यदि त्वं । सुरु हृदयामोतनिशिशिर वपुषि विषमरोगे नश्वरे मा रमस्व ।। ४५ ।।
अपरानाइता। अपरमपि विधानं दामकामादिकानां
दुतविदुरविधानं धर्मता लभ्यते यत् । तदहमिह समस्तादहमां मुक्तये ते हितपथपथिकेदं क्षिप्रमावेदयामि ।। ४६॥
नादानाइताराधनातपालम् । श्रवणयुगलमूलाकाशमासाद्य सद्यः
स्वपिहि पिहितमुक्तस्वान्तसद्वारसारे । विमलसदलथोगानल्पतल्ये ततस्त्वं
स्फुरितसकलतत्वं श्रोष्यसि स्वस्य नादम् ।।४७ ॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहनादोत्पत्तिकालनादभेदनिरूपणम् । शशधरहुतमोजिद्वादशाद्विषः
प्रमितविदितमासैः स्वस्वरूपप्रदर्शी । मदकलपरपुष्टांभोदनद्यम्बुराशिध्वनिसदृशरवत्वाज्जायते सा चतुर्था ।। ४८ ॥
नादोत्पत्तिस्थानम् । श्रवणयुगलमध्ये मस्तके वक्षसि स्वे
भवति भवनमेषां भाषितानां त्रयाणां । विपुलफलमिहेवोत्पद्यते यश्चतेभ्यस्तदपि श्रृणु मया त्वं कथ्यमानं हि तथ्यम् ॥४९॥
तत्फलम् । भ्रमरसदृशकेशं मस्तकं दुरदृष्टि
चपुरजरमरोग मूलनादप्रसिद्धः। अणुल घुमहिमाद्याः सिद्धयः स्युर्द्वितीयात् सुरनरखचरेशां सम्पदश्चान्यभेदात् ।। ५० ॥
समुद्रघोषोत्पत्तिः । करशिरसि नितम्ने नाभिविम्वे च कर्णे _प्रभवति घनघोषाम्भोगिनिर्घोषतुल्यः । विघटयति कपाटं द्वन्द्वमद्वन्द्वसिद्धा. स्पदघटितमघौधध्वंसकोयं चतुर्थः ॥५१॥
नादाकर्णनं ३ प्रकटितनिजरूपं घोषमाकण्यं रम्यं
परिहरत नितान्तं विस्मयं हो यतीशाः!।
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अमृताशीतिः
कुरुत कुरुत यूयं योगयुक्तं स्वचित्तं तृणजललवतुल्यैः किमफलैः क्षौद्रसिद्धये ॥ ५२ ॥
by
र् ।
सकलदृगयमेकः केवलज्ञानरूपो विद्धति पदमस्मिन्साधवः सिद्धिसिद्धयै ।
९५
तदलममुमनूनं नादमाराध्य सम्यक
स्वमपि भव शुभात्मा सिद्धिसीमन्तिनीशः ॥ ५३ ॥ ज्योतिरनाहतम् ।
बहिरबाहि रुदारज्योति रुद्रासदीपः
स्फुरति यदि तवायं नाभिपद्मे स्थितस्य । अपसरति तदानीं मोहघोरान्धकारवरणकरणदक्षो मोक्षलक्ष्मीदिदृक्षोः ॥ ५४ ॥
धम्मंध्यानोपसंहारः ।
इति निगदितमेतद्देशमाश्रित्य किञ्चित् गुरुसमयनियोगात्प्रत्ययस्यापि हेतोः । परमपरमुदारज्ञानमानन्दतानं
विमलसकलमेकं सम्यगो (गे) कः समस्ति ।। ५५ ।।
गुरुपरम्परोपदेशः 1
प्रथममुदितमुक्तेनादिदेवेन दिव्यं
तदनु गणधराद्यः साधुभिर्यद्धतं च ।
कथितमपि कथञ्चिन्नादिगम्यं समोह
रधिगतमपि नश्यत्याशु सिध्या विनेह ।। ५६ ।।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
दिव्योपदेशः। स्वरनिकरविसर्गव्यञ्जनाधक्षरैर्य
द्रहितमहितहीनं शाश्वतं मुक्तसंख्यम् । अरसतिमिररूपस्पर्शगन्धाम्बुवायु
शिखिपवनसखाणुस्थूलदिक्चक्रवालम् ।। ५७ ।। स्वरजननजराणां वेदना यत्र नास्ति
परिभवति न मृत्युन गतिर्नो गतिर्वा । तदतिविशदचित्तैर्लभ्यतेनेऽपि तत्त्वं गुणगुरुगुरुपादांभोजसेवाप्रसादात् ॥ ५८।।
गुरूपदेशः । गिरिगहनगुहाधारण्यशून्यप्रदेश
स्थितिकरणनिरोधध्यानतीर्थोपसेवा । प्रपठनजपहोमब्रह्मणो नास्ति सिद्धि
मेगय तदपरत्वं भोः प्रकारं गुरुभ्यः ॥ ५९ ।। दृगवगमनलक्ष्म स्वस्य तत्वं ममन्ता
गतमपि निजदेहे देहिभिपिलक्ष्यम् । तदपि गुरुवचोभिर्योध्यते तेन देवो गुरुरधिगततत्वस्तत्वतः पूजनीयः ॥६० ।।
विद्यानन्दे अभितफलसिद्धेः
इत्यादि विद्यानन्दस्वामिभिरुक्तम् । अभिमतफलसिद्धेरभ्युपायः सुबोधः
प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिरातात् । हह भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धे. ने हि कृतमुपकार साधचो विसरन्ति ।। ६१ ॥
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अमृताशीतिः ।
स्वस्मिन् सदाभलासत्वाभीष्टनापकत्वतः खयं हि तत्प्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मनः ॥ ६ ॥
मोक्षमार्गः । हगवगमनवृत्तस्वखरूपप्रविष्टो
व्रजति जलधिकल्पं ब्रह्मगम्भीरभावं । त्वमपि सुनयमत्वान्मद्वचस्सारमस्मिन्
भवसि भव भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम् ।। ६३॥! यदि चलति कथञ्चिन्मानसं स्वस्वरूपा
दुमति बहिरतस्ते सर्वदोषप्रसङ्गः। तदनवरतमन्तर्मनसं विग्नचित्तो
भव भवसि भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम् ॥६॥
उत्कम्।
अहिंसाभूतानामित्यादिसमन्तभद्रवचनम् ।
शरीरनिर्मोहः।। बाहिरबाहिरसारे दुःखभारे शरीरे
क्षयिणि बत रमन्ते मोहिनोऽस्मिन् वराकाः। इति यदि तव बुद्धिनिर्विकल्पस्वरूपे भव भवसि भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम् ।। ६५ ।।
अजगमजङ्गमयो रागाद्युत्पत्तिहेतुः ।। इदमिदमतिरम्यं नेदमित्यादिभेदा
द्विद्धति पदमेते रागरोषादयस्ते ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
तदलममलमेकं निष्कलं निष्क्रियस्सन् भज भजसि समाधेः सत्फलं येन नित्यम् ॥ ६६ ।।
जटासिंहनन्याचार्यवृत्तम् । तावक्रियाः प्रवर्तन्ते याबद्वैतस्य गोचरं । अद्वये निष्कले प्राप्ने निष्क्रियस्य कुतः क्रिया ॥ ६ ॥
बन्धमोक्षौ । अहमहमिह भावाद्भावना यावदन्त
भवति भवति बन्धस्तादेलोपि नित्यः । क्षणिकमिदमशेष विश्वमालोक्य तस्माद्वज शरणमवन्धः शान्तये त्वं समाधेः ॥६८॥
अकलंकदेवप्तम् । साहंकारे मनसि न समं याति जन्मप्रबन्धो
नाहंकारचलति हृदयादात्मदृष्टा(ष्ट्यां) च सत्यां । अन्यः शास्त्रो जगति च यतो नास्ति नैरात्मवादी
नान्यस्तस्मादुपशमविथेस्तन्मतादस्ति मार्गः॥६९।। रविस्यमयवि(मि)न्दुर्योतयन्तो पदार्थान्
विलसति सति यस्मिन्नासती मौतु ? भातः। तदपि बत ! हतात्मा ज्ञानपुस्तेऽपि तस्मिन् व्रजति महति मोह हेतुना केन कश्चित् ॥७॥
कुन्दकुन्दाचार्ष्यामिप्रायः। ये लोकं ज्वलत्यनल्पमहिमा सोप्येष तेजोनिधि
यस्मिन् सत्यवभाति नासति पुनर्देवोंशुमाली स्वयं ।
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अमृताशीतिः।
तस्मिन् बोधमयप्रकाश विशदे मोहान्धकारापहे येऽन्तर्यामिनि पूरुषे प्रतिहताः संशेरते ते हताः॥७१।।
__ आत्मपरिज्ञानम् । करणजनितबुद्धिर्नेक्षते मूर्तिमुक्तं
श्रुतजनितमतिर्यास्पष्टमेयावभासा | उभयमतिनिरोधे स्पष्टमयलमा
समदिवसनिवासं शाश्वतं लप्स्यसे स्वम् ॥७२॥ प्राणापानप्रयाणः कफपवनभवव्याद(ध)यस्तावदेते
स्पन्ददृष्टेश्व तावत्तव चपलतया न स्थिराणीन्द्रियाणि | मोगा ये (ए) ते च भोक्ता त्वमपि भवसि हे हेलया यावदन्तः साधो! साधूपदेशाद्विशसि न परमब्रह्मणो निष्कलस्य॥७३।।
निर्विकल्पसमाधिः। ब्रह्मांडं यस्य मध्ये महदपि सदृश दृश्यते रेणुनेदं
तस्मिन्नाकाशरन्ध्र निरवधिनि मनो दरमायोज्य सम्यक् । तेजोराशौ परेऽस्मिन्परिहृतसदसद्धत्तितो लन्धलक्ष्यां
हे दक्षाध्यक्षरूपे भव भवसि भवाम्भोधिपारावलोकी||७४|| संसारसारकर्मप्रचुरतरमरुत्प्रेक्षणादाम्य भ्रात
ब्रह्मांडखण्डे नवनवकुवपुलता मुञ्चता च | कस्कः कौतस्कुतः कचिदपि विषयो न भुक्तो यो न मुक्तो जातेदानी विरक्तिस्तक यदि विश रे ब्रह्मगम्भीर
सिन्धुम् ।।७५॥ बहिरास्मस्वरूपम् । पारावारोऽतिपारः सुगिरिरुरुरय रे वरं तीर्थमेतत्
वारङ्गत्तरङ्गसुरसरिदपरा रेवतीशो हरिर्वा ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहेइत्युद्धान्तान्तरात्मा भ्रमति बहुतरं तावदात्मात्ममुक्त्यै '. यावद्देहेऽपि देहे हितविहितहितबलशुद्धं न पश्येत् ।।७६।।
संसारसुखहेयमनित्यम् । कि विश्वम्भरेशाः शिरसि मा पहाभोजमुमे दधन्ते __ वश्या भावस लक्ष्मीपुरपि निरचं विघ्नहेतुः कुतो मे। इत्यादौ शर्महेतौ निपतति निखिले किं ततो मुद्गरोऽयम्
तस्मात्तद्धयाय किश्चित् स्थिरतरमनसा किं ततो यत्र नास्त।७७ दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं
जाताः श्रियः सकलकामदुधास्ततः किम् | सन्तर्पिताः प्रणयिनो विभवस्ततः किं कल्पस्थिति तनुभृतां तनुभिस्ततः किम् ॥७८॥
परमोपदेशः। तसादनन्तमजरं परमप्रकाश
तचित्त ! चिन्तय किमेभिरसद्विकल्पैः । यस्यानुषङ्गिण इमे भुवनाधिपत्य
भोगादयः कृपणजन्तुमता भवन्ति ॥७९॥ उपशमफलाद्विद्यायीजात् फलं चरमिच्छतां । भवति विपुलो यद्ध्यायासस्तदत्र किमद्भुतम् ॥८०॥ न नियतफलाः सर्वे भावाः फलान्तरमिष्यते । जनयति खलु ब्रीहिर्जीजान्न जातु यवाङ्करम् ॥८॥
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अमृताशीतिः ।
१०१ उपसंहारः। चश्चचन्द्रोरुरोचिरुचिरतरवचःक्षीरनीरप्रवाहे
मज्जन्तोऽपि प्रमोदं परमपरनरा संगिनोगुर्यदीये योगज्वालायमानज्वलदनलशिखालेशवल्लीविहोता
योगीन्द्रो वः सचन्द्रप्रभविमुरविभूर्मङ्गलं सर्वकालम्।।८२॥
इति योगीन्द्रदेवकृतामृताशीतिः समाप्ता ।
भारम्भूयात् ।
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श्रीशिवकोट्याचार्यविरचिता
रत्नमाला।
सर्वज्ञ सर्ववागीशं वीरं मारमदापहं । प्रणमामि महामोहशान्तये मुक्तताप्तये ।।१।। सारं यत्सर्वसारेषु वन्य यद्वन्दितेष्वपि । अनेकान्तमयं वन्दे तदईद्वचनं सदा ॥२॥ सदाबदातमहिमा सदा ध्यानपरायणः । सिसरेबुनिर्जीवामदारकपडेबहः | खामी समन्तभद्रो मेऽहर्निशं मानसेऽनघः । तिष्ठताजिनराजोद्यच्छासनाम्बुधिचन्द्रमाः ॥४॥ वर्द्धमानजिनाभावाद्भारते भव्यजन्तवः। कृतेन येन राजन्ते तदहं कथयामि वः ॥५|| सम्यक्त्वं सर्वजन्तूनां श्रेयः श्रेयःपदार्थिनां । विना तेन व्रतः सर्वोऽप्यकल्प्यो मुक्तिहेतवे ॥६॥ निर्विकल्पश्चिदानन्दः परमेष्ठी सनातनः । दोषातीतो जिनो देवस्तदुपर्श श्रुतिः परा ॥७॥ निरम्बरो निरारम्भो नित्यानन्दपदार्थनः । धर्मदिक्कमधिक साधुगुरुरित्युच्यते बुधैः ? ॥८॥ अमीषां पुण्य हेतूनां श्रद्धान तन्निगद्यते । तदेव परमं तत्वं तदेव परमं पदम् ।।९।।
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रत्नमाला।
विरत्या संयमेनापि हीनः सम्यत्त्ववाभरः । स देवं याति कर्माणि शीर्णयत्येव सर्वदा ।।१०॥ अबद्धायुष्कपक्षे तु नोत्पत्तिः सप्तभूमिषु । मिथ्योपपादत्रितये सर्वत्रीषु च नान्यथा ॥१॥ महावताणुव्रतयोरुपलब्धिनिरीक्षते। स्वर्गेऽन्यत्र न सम्भाव्यो व्रतलेशोऽपि धीधनैः ॥१२॥ संवेगादिपरः शान्तस्तत्वनिश्चयवानरः । अन्तुर्जन्मजरातीतः पदवीमवगाहते ॥१३॥ अणुव्रतानि पञ्चैव त्रिप्रकारं गुणवतं । शिक्षात्रतानि चत्वारीत्येवं द्वादशधा व्रतम् ॥१४॥ हिंसातोऽसत्यतश्चौर्यात् परनार्याः परिग्रहात् । विमतेविरतिः पञ्चाणुव्रतानि गृहेशिनाम् ॥१५!! गुणवतानामाचं स्यादितं तद्वितीयकम् । अनर्थदण्टबिरतिस्तृतीयं प्रणिगद्यते ॥१६॥ भोगोपभोगसंख्यानं शिक्षाव्रतमिदं भवेत् । सामायिक प्रोपधोपवासोतिथिषु पूजनम् ।।१७|| मारणान्तिकसल्लेख इत्येवं तच्चतुष्टयं । देहिनः स्वर्गमोक्षकमाधनं निश्चितक्रमम् ॥१८॥ मद्यमांसमधुत्यागसंयुक्ताणुव्रतानि नुः। अष्टौ मूलगुणाः पञ्चोदुम्बेरैश्चार्भकेष्वपि ॥१९॥ वस्त्रपूतं जलं पेयमन्यथा पापकारणं ।। स्नानेऽपि शोधनं वारः करणीयं दयापरैः ॥२०॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहेप्रतिमाः पालनीयाः स्युरेकादश गृहेशिनां । अपवर्गाधिरोहाय सोपानन्तीह ताः पराः ॥२१॥ कलौ काले वने वासो वय॑ते भुनिसत्तमैः । स्थीयते च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः ॥२२॥ तेषां नैग्रंथ्यपूतानां मूलोत्तरगुणार्थिनां । नानायतिनिकायानां छमस्थज्ञानराजिनाम् ॥२३॥ ज्ञानसंयमशौचादिहेतूनां प्रासुकात्मना । पुस्तपिञ्छकमुख्यानां दानं दातुर्विमुक्तये ॥ २४ ॥ येनाद्यकाले यतीनां चैय्यावृत्त्यं कृतं मुदा । तेनैव शासनं जन प्रोद्धृत शर्मकारणम् ॥२५॥ उत्तुंगतोरणोपेतं चैत्यागारमवक्षयं । कर्त्तव्यं श्रावकैः शक्त्यामरादिकमपि स्फुटम् ॥२६॥ येन श्रीमजिनेशस्य चैत्यागारमनिन्दितं । कारितं तेन भव्येन स्थापितं जिनशासनम् ॥२७॥ गोभूमिस्वर्णकच्छादिदानं वसतयेऽहतां । कर्तव्यं जीर्णचैत्यादिसमुद्भरणमप्यदः ॥२८॥ सिद्धान्ताचारशास्त्रेषु वाच्यमानेषु भक्तितः। धनव्ययो व्ययो नृणां जायतेऽत्र महर्द्धये ॥२९॥ दयादत्यादिमिनूनं धर्मसन्तानमुद्धरेत् । दीनानाथान्नपि प्रातान्धिमुखान्नैव कल्पयेत् ॥३०॥ व्रतशीलानि यान्येच रक्षणीयानि सर्वदा । एकेनैकेन जायन्ते देहिनां दिथ्यसिद्धयः ॥३शा
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रत्नमाला ।
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मनोवचनकायों न जिघांसति देहिनः । स स्याद्गजादियुद्धेषु जयलक्ष्मीनिकेतनम् ||३२॥ सुस्वरस्पष्टवागीष्टमतव्याख्यानदक्षिणः । क्षणाई निर्जिगाराजिलल्याविरतेभनेत् ।।३३।। चतुःसागरसीमाया भुवः स्यादधिपो नरः । परद्रव्यपरावृत्तः सुवृत्तोपार्जितस्त्रकः ॥३४॥ मातपुत्रीभगिन्यादिसंकल्पं परयोपिति ! तन्वानः कामदेवः स्थान्मोक्षस्यापि च भाजनम् ॥३५॥ जायाः समग्रशोभाद्याः सम्पदो जगतीतले । तास्तत्सर्वा अपि प्रायः परकान्ताविवर्जनात् ॥३६॥ अतिकांक्षा हता येन ततस्तेन भवस्थितिः । हस्विता निश्चिता वास्य कैवल्यसुखसङ्गतिः ॥३७॥ मद्यमांसमधुत्यागफलं केनानुवर्ण्यते । काकमांसनिवृत्याभूत्स्वर्गे खदिरसागरः॥३८॥ मद्यस्यावद्यमूलस्य सेवनं पापकारणं । परत्रास्तामिहाप्युचर्जननीं वांछयेदरम् ।।३९॥ गर्मुतोऽशुचिवस्तूनामप्यादाय रसान्तरम् । मधूयन्ति कथं तनापविपत्रं पुण्यकर्मसु ॥४०॥ व्यसनानि प्रवानि नरेण सुधियान्वहं । सेवितान्याहतानि स्युन्नरकायाश्रियेऽपि च ॥४१॥ छत्रचामरवाजीभरथपादातिसंयुतः। विराजन्ते नरा यत्र ते रात्र्याहारवर्जिनः ॥४२॥
१ 'मदयन्ति ' ऐसा पाठ पुस्तकम दिया है।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
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दशन्ति तं न नागाद्या न ग्रसन्ति च राक्षसाः। न रोगाश्चापि जायन्ते यः सरेन्मंत्रमव्ययम् ॥४३॥ रात्रौ स्मृतनमस्कारः सुप्तः स्वप्नान शुभाशुभान् । सत्यानेव समाप्नोति पुण्यं च चिनुते परम् ॥४४॥ नित्यनैमित्तिकाः कार्याः क्रियाः श्रेयार्थिना मुदा । ताभिग्रॅडमनस्को यत्पुण्यपण्यसमाश्रयः ।।४५|| अष्टम्यां सिद्धभक्त्यामा श्रुतचारित्रशान्तयः । भवन्ति भक्तयो नूनं साधूनामपि सम्मतिः ॥४६|| पाक्षिक्यः सिद्धचारित्रशान्तयः शान्तिकारण | त्रिकालवंदनायुक्ता पाक्षिक्यपि सतां मता ॥४॥ चतुर्दश्यां तिथौ सिद्धचैत्यश्रुतसमन्विते । गुरुशान्तिनुते नित्यं चैत्यपश्चगुरू अपि ॥४८॥ नन्दीश्वरदिने सिद्धनन्दीश्वरगुरुचिता । शान्तिभक्तिः प्रकर्तव्या बलिपुष्पसमन्विता ॥४९॥ क्रियास्वन्यासु शास्त्रोक्तमार्गेण करणं मता। कुर्वन्नेवं क्रियां जैनो गृहस्थाचार्य उच्यते ॥५०॥ चिदानन्दं परं ज्योतिः केवलज्ञानलक्षणं । आत्मानं सर्वदा ध्यायेदेतत्तत्वोत्तमं नृणाम् ॥५१॥ गार्हस्थ्यं वाधरूपेण पालयन्नन्तरात्ममुत् । मुच्यते न पुनर्दुःखयोनावतति निश्चितम् ॥५२|| कृतेन येन जीवस पुण्यबन्धः प्रजायते । तस्कर्तव्यं सदान्यत्र न कुय्योदतिकल्पितम् ॥५३॥
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रत्नमाला।
बौद्धचार्वाकसांख्यादिमिथ्यानयकुवादिना । पोषणं माननं वापि दातुः पुण्याय नो भवेत् ॥५४॥ स्वकीयाः परकीया वा मर्यादालोपिनो नराः । न माननीयाः किं तेषां तपो वा श्रुतमेव च ।।५५।। सुप्रतानि सुसंरक्षन्नित्यादिमहमुद्धरन् । सागारः पूज्यते देवैमान्यते च महात्मभिः ॥५६।। अतीचारे व्रताधेषु प्रायश्चित्तं गुरूदितं । आचरेखातिलोपं च न कुय्योदतियत्नतः ॥५७।। श्रावकाध्ययनप्रोक्तकर्मणा होविता । सम्मता सर्वजनानां सा त्वन्या परिपन्यनात् ॥५८|| पंचसूनाकृतं पापं यदेकत्र गृहाश्रमे । तत्सर्वमतये (ए?) बासौं दाता दानेन लुम्पति ।।५९ ।। आहारभयभैषज्यशास्त्रदानादिभेदतः। चतुर्धा दानमाम्नातं जिनदेवेन योगिना ||६०) मुहूर्ताहालितं तोयं प्रासुकं प्रहरद्वयं । उष्णोदकमहोरात्रं ततः सम्प्रछित्तो भवेत् ॥६॥ तिलतण्डुलतोयं च प्रासुकं भ्रामरीगृहे । न पानाय मतं तस्मान्सुखशुद्धिर्न जायते ।।६।। पापाणोत्स्फुटितं तोयं घटीयंत्रण ताडितं । सद्यः सन्तवापीनां प्रासुकं जलमुच्यते ।। ६३ ॥ देवर्षीणां प्रशौचाय स्नानाय च गृहार्थिनां । अप्रासुकं परं वारि महातीर्थजमप्यदः ॥६४ ॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
सर्वमेव विधिजैर्नः प्रमाणं लौकिकः सतां । यत्र न व्रतानिः स्यात्सम्यक्त्वस्य च खंडनं ॥ ६५ ॥ चर्मपात्रगतं तोयं घृततैलं च वर्जयेत् । नवनीतं प्रसूनादिशाकं नाधात् कदाचन ॥६६ यो नित्यं पठति श्रीमान् रत्नमालामिमां परां । स शुद्धभावनो नूनं शिवकोटित्वमाप्नुयात् ||६७||
इति श्री समन्तभद्र स्वामिशिष्यशिवकोट्याचार्य्यविरचिता रत्नमाला समाप्ता ।
अमृताशितिः रत्नमाला चेति प्रयद्वयं केनचिदन्येन सम्पादितं अनयोः प्रेस -पुस्तिका एवं संप्राप्ता सा व दशरा-मशरारूपा अतीव अशुद्धा, अतोऽत्र विषये या अशुद्धयः संजाता भवन्ति तासु विषये क्षन्तव्यो
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श्रीमाघनन्दियोगीन्द्र-विरचितः
शास्त्रसारसमुचयः ।
श्रीमन्नम्म्रामरस्ता प्राप्तानन्तचतुष्टयम् । नत्या जिनाधिपं वक्ष्ये शाखसारसमुञ्चयम् ॥ १ ॥
अथ त्रिविधः कालो द्विविधः पड्डिधो वा ॥ १ ॥ दशविधाः कल्पद्रुमाः ।। २ ॥ चतुर्दश कुलङ्करा इति ।। ३ ।। पोडशभावनाः ॥ ४ ॥ चतुर्विंशतितीर्थकराः ॥५॥ चतुस्त्रिंशदतिशयाः ॥६॥ पंच महाकल्याणानि ।। ७॥ घातिचतुष्टयम् ॥ ८ ॥ अष्टादश दोषाः ।। ९ ।। समवशरणैकादशभूमयः ।। १० ।। द्वादशगणाः ॥११॥ अष्टमहाप्रातिहायोणि ॥१२॥ अनन्त चतुष्टयमिति ॥ १३॥ द्वादशचक्रवर्तिनः ॥१४॥ सप्ताङ्गानि ॥ १५॥ चतुर्दशरत्नानि ॥१६|| नवनिधयः ॥१७॥ दशाङ्गभोगा इति ॥ १८ ॥ नवबलदेववासुदेवनारदाश्चेति ॥ १९ ।। एकादशरुद्राः ॥ २० ।।
इति शास्त्रसारसमुच्चये प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।।
अथ त्रिविधो लोकः ॥ १ ॥ सतनरकाः ॥ २॥ एकान्न. पंचाशत्पटलानि ॥३॥ इन्द्रकाणि च ॥४॥ चतुरुत्तरषट्च्छतनवसहस्रं श्रेणिवद्धानि ।। ५॥ सप्तचत्वारिंशदुत्तरत्रिंशताधिकनवतिसहस्रालंकृतव्यशीतिलक्ष विलानि प्रकीर्णकानि ॥६॥ एवं चतुरशीतिलक्षविलानि॥७॥चतुर्विधं दुःखमिति |८|| जम्बूद्वीप
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
लवण समुद्रादयोऽसंख्यातद्वीपसमुद्राः ॥ ९ ॥ तत्रावृतीयद्वीपसमुद्रो मनुष्य क्षेत्रम् | १० || पण्णवतिकुभोगभूमयः ॥ ११॥ पंचमन्दरगिरयः ||१२|| जम्बूवृक्षाः।। १३ ।। शाल्मलयश्च ॥ १४॥ विंशतिर्यमकगिरयश्च ॥ १५ ॥ शतं सरांसि || १६ || सहस्रं कनकाचलाः || १७||चत्वारिंशदिग्गज नगाः || १८ || शतं वक्षारक्ष्माधराः ।। १९ ।। षष्टिविभंगनद्यः ॥ २० ॥ षष्ठयुत्तरशतं विदेहजनपदाः ॥ २१ ॥ पंचदशकर्मभूमयः || २२ || शिद्धोगभूमयः ॥ २३ ॥ चतुत्रिंशद्वर्षधरपर्वताः ॥ २४ ॥ त्रिंशत्सरोवराः ।। २५ ।। सप्ततिमहानद्यः || २६ ॥ विंशतिर्नाभिभूधराः ॥ २७ ॥ सप्तत्यधिकशतं विजयार्धपर्वताः ||२८|| वृषभ गिरयश्चेति ||२९|| देवाश्चतुर्णिकायाः ||३०|| भवनवासिनो दशविधाः ||३१|| अष्टविधा व्यन्तराः ||३२|| पंचविधा ज्योतिष्काः ॥ ३३ ॥ द्वादशविधा वैमानिकाः ||३४|| षोडशस्वर्गाः ||३५|| नवग्रैवेयकाः || ३६ || नवानुदिशाः ||३७|| पंचानुत्तराः ||३८|| त्रिषष्टिपटलानि ॥ ३९ ॥ इन्द्रकाणि च ॥४०॥ | पोडशोत्तराष्टशतान्वितसप्तसहस्रं श्रेणिचद्धानि ॥ ४१ ॥ षट्चत्वारिंशदुत्तरैकशतानीतनवत्यशीतिसहस्रालङ्कृतचतुरशीतिलक्षं प्रकीर्णकानि || ४२ ॥ त्रयोविंशत्युत्तरसप्तनवतिसहस्रान्वितचतुरशीतिलक्षमेवं विमानानि ॥ ४३ ॥ ब्रह्मलो - कालयाश्चतुर्विंशतिलौकान्तिकाः ।। ४४ ।। अणिमाद्यष्टगुणाः || ४५ ॥
इति शास्त्र सारसमुच्च द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
अथ पंचलब्धयः || १ || करणं त्रिविधं ||२|| सम्यक्त्वं द्विविधम् ||३|| त्रिविधम् ||४|| दशविधं वा ||५|| तत्र वेदकस
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शास्त्रसार-समुच्चयः ।
म्यक्त्वस्य पंचविशतिर्मलानि ।।६।। अष्टाङ्गानि ॥७॥ अष्टगुणाः ।।दा पंचातिचारा इति ॥९॥ एकादशनिलयाः ॥१०॥ त्रिविधो निर्वेगः ॥११॥ सप्त व्यसनानि ॥ १२॥ शल्यत्रयम् ।। १३ ।। अष्टौ मूलगुणाः ॥१४॥ पंचाणुव्रतानि।।१५।। त्रीणि गुणव्रतानि ॥१६॥ शिक्षाव्रतानि चत्वारि॥१७॥तशीलेषु पंच पंचातीचाराः ॥१८॥मौसमयाः सप्त||१९||अन्तरायाणि च॥२०॥श्रावकधर्मश्रतुर्विधः ।।२१।। जैनाश्रमश्च ।। २२ ॥ तत्र ब्रह्मचारिणः पंचविधाः ॥ २३ ॥ आर्यकर्माणि षट् ॥ २४ ॥ इज्या दशविधाः ।२५।। अर्थोपार्जनकर्माणि पद ॥२६|| दत्तिश्चतुर्विधा ॥२७|| क्षत्रियो द्विविधः ॥२८॥ भिक्षुधैतुर्विधः ।।२९।। मुनयस्विविधाः ॥३०॥ ऋषयश्चतुर्विधाः ।। ३१ ॥ राजर्षयो द्विविधाः ॥ ३२॥ ब्रह्मर्षयश्च ।।३३|| मरणं द्वित्रिचतुःयंचविध वा ॥ ३४ ।। तस्य पंचातिचारा इति ॥ ३५ ।। द्वादशानुप्रेक्षाः ।। ३६॥ यतिधर्मों दशविधः ॥३॥ अष्टाविंशतिर्मूलगुणाः ॥३८॥ पंचमहाव्रतस्थैयाथै भावनाः पंच पंच ॥ ३९॥ तिस्रो गुप्तयः ।। ४० ॥ अष्टौ प्रवचनमातृकाः ॥४१॥ द्वाविंशतिपरीषहाः ॥४२।। द्वादशविधं तपः ॥४३॥ दशविधानि प्रायश्चित्तानि ।। ४४|| आलोचनं च ।। ४५ ॥ चतुर्विधो विनयः ॥ ४६॥ दशविधानि वैयावृत्यानि ॥ ४७ ॥ पंचविधः स्वाध्यायः ॥ ४८ ॥ द्विविधो व्युत्सर्गः ॥ ४९ ।। ध्यानं चतुर्विधम् ।। ५० ॥ आत
१ मौनं सप्तस्थानमिति पाठान्तरं क्वचित् । २ अन्तरायाश्चेत्यपि क्वचित्पाठः । ३-४ सूत्रद्वयं कर्णोदकृत्तावेव । ५-६ इमौ शब्दो कणांटटीकायां न स्तः। ५ गुप्तित्रयमितिसूत्रं टोकायां । ८-९ सूत्रद्वयं टीकायाभेव ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
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रौद्रधर्मशुलं च ॥५१॥ धम्य दर्शविध वा ॥५२॥ अष्टयः ॥५३॥ बुद्धिरष्टादशविधा ॥ ५४ ॥ क्रिया द्विविधा ॥५५ ।। विक्रियैकादशविधा !!५६ ॥ तपः साविधम् ।। ५.७!ललं त्रिविध || ५८ ॥ भेषजमष्टविधं ॥५२॥ रसः पविधः ॥६०|| अक्षीणचिर्द्विविधश्चेति ॥६१॥ चतुस्त्रिंशदुत्तरगुणाः ।। ६२ ।। पंचविधा निर्ग्रन्थाः ॥६३॥ आचारश्च ॥ ६४ ।। सामाचार दशविधं ॥६५॥ सप्त परमस्थानानि ॥ ६६ ॥
इति शास्त्रसारसमुच्चये तृतीयोन्यायः ॥ ३ ॥
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पद्रव्याणि ॥१॥ पंचास्तिकायाः ॥ २ ॥ सप्त तत्वानि ॥३॥ नव पदार्थाः ॥ ४॥ चतुर्विधो न्यासः ।। ५ ।। द्विविध प्रमाणं ॥ ६ ॥ पंच संज्ञानानि ॥७॥ त्रीण्यज्ञानोनि ॥८॥ मतिज्ञान पत्रिंशदुत्तरत्रिशतभेदम् ॥ ९॥ द्विविधं झुतज्ञानम् ॥ १० ।। द्वादशाङ्गानि ॥११॥ चतुर्दशप्रकीर्णकानि ।। १२ ॥ विविधमवधिज्ञानम् ।। १३॥ द्विविधं मनःपर्ययज्ञानम् ॥ १४॥ केवलमेकमसहायम् ॥ १५॥ नव नयाः ॥ १६ ॥ सप्त भङ्गाः इति ।। १७॥ पंच भावाः ॥ १८॥ औपशमिको द्विविधः ॥१९॥ क्षायिको नवविधः ॥२०॥ अष्टादशविधः क्षायोपशमिकः।।२१।। औदयिकमेकविंशतिविधम् ।। २२॥ पारिणामिकं त्रिविधम् ॥ २३ ॥ गुणजीचमार्गणास्थानानि प्रत्येक चतुर्दश ॥ २४ ॥ षट् पर्याप्तयः ।। २५ ॥ दश प्राणाः ॥ २६ ॥ चतस्रः संज्ञाः
१-२ अातं च । रौंद्रमपि । धर्मध्यानं चतुर्विधं दशविधं पा । शुक्लच्यानं चतुविधं इति पाटः टीकायां । ३-४ सूत्रद्रयं दाकाया । ५ सूत्रमिद टीकायामधिक । ६ श्रुतमित्यपि पाठः 1 ५ सूत्रमिदं टीकायां नास्ति । ८-९-१० सूत्रत्रयं ३० सूत्रत्तोऽग्रे वर्तते टीकायो ।
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शास्त्रसार-समुच्चयः ।
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॥२॥ द्विविधमेकेन्द्रियम् ॥ २८ ॥ श्रीणि विकलेन्द्रियाणि ॥ २९ ॥ पंचेन्द्रियं द्विविधम् || ३० || गतिश्चतुर्विधा ॥ ३१ ॥ पंचेन्द्रियाणि ।। ३२ ।। षड्डीवनिकायाः ||३३|| त्रिविधो योगः ॥ ३४ ॥ पंचदशविधो वा ॥ ३५ ॥ नवविधो वा ॥ ३६ ॥ चत्वारः कषायाः ।। ३७ ॥ अष्टौं ज्ञानानि ||३८|| सप्त संयमाः ॥ ३९ ॥ चत्वारि दर्शनानि ॥ ४० ॥ षडेश्याः ॥ ४९ ॥ द्विविधं भव्यस्वं ॥ ४२ ॥ षड्विधा सम्यक्त्वमार्गणा ॥ ४३ ॥ द्विविधं संज्ञित्वम् ॥ ४४ ॥ आहार्युपयोगचेति ।। ४५ ।। पुद्गलाकाशकालास्रवाश्च प्रत्येकं द्विविधम् ॥ ४६ ॥ बन्धहेतवः पंचविधाः ॥ ४७ ॥ बन्धश्वतुर्विधः ॥ ४८ ॥ अष्टौं कर्माणि ॥ ४९ ॥ ज्ञानावरणीयं पंचविधम् ॥ ५० ॥ * दर्शनावरणीयं नवविधम् ॥ ५१ ॥ वेदनीयं द्विविधम् ॥ ५२ ॥ मोहनीयमष्टाविंशतिविधम् ॥ ५३ ॥ आयुश्चतुर्विधम् ॥ ५४ ॥ द्विचत्वारिंशद्विधं नाम ||५५ ॥ द्विविधं गोत्रम् ||५६ || पंचविधमंतरायम् ||५७ || पुण्यं द्विविधं || ५८|| * पापं च || ५९|| संवरश्व || ६० || एकादश निर्जराः ॥ ६१ ॥ त्रिविधो मोक्ष हेतुः ॥ ६२ ॥ द्विविधो मोक्षः ॥ ६३ ॥ द्वादश सिद्धस्थानद्वाराणि ॥ ६४ ॥ अष्टौ सिद्धगुणाः ||६५॥
इति शास्त्रमुदये चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥
श्री मांधनन्दियोगीन्द्रः सिद्धाम्बोधि चन्द्रमाः । अचीकर द्विचित्रार्थ शास्त्रसारसमुच्चयम् ॥ १ ॥ इति शास्त्रसारममुतयः ।
* एतद्विमध्यगतः पाठः टीकायामधिकारोन मुले एव भवितव्यम् । १ सिद्धस्वानुयोगद्वारापीति टीकापाठः । २इयं प्रशस्तिका दलजिन पुस्तके
:
4.
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श्रीप्रभाचन्द्रविरचित अर्हत्प्रवचनम् ।
चराचर या केवलशानचक्षुषा ।
प्रप्रणम्य महावीर चेदकान्तं प्रचक्ष्यते ॥ १॥ प्रथाऽतोऽहत्प्रवचन सूत्रं व्याख्यास्यामः । तद्यथा;
तत्रेमे षड्डीवनिकायाः ॥१॥ पंच महाव्रतानि ॥२॥ पंचाणुअतानि ॥३॥ त्रीणि गुणवतानि ॥४॥ चत्वारि शिक्षावतानि ॥५॥ तिस्रो गुप्तयः ॥६॥ पंच समितयः ॥७॥दश धमोनुभावनाः ॥८॥षोडशभावनाः॥९॥ द्वादशानुप्रेक्षाः ॥१०॥ द्वात्रिशतिपरीषहाः ॥११॥
इत्यहत्प्रवचने प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।।
तत्र नव पदार्थाः ॥ १।। सप्त तत्वानि ॥ २॥ चतुर्विधो न्यासः ॥३॥ सप्त नथाः ॥ ४ ॥ चत्वारि प्रमाणानि ॥ ५ ॥ पइ द्रव्याणि ॥६॥ पंचास्तिकायाः ॥७॥ द्विविधो गुणः॥८॥ पंच ज्ञानानि ।। ९॥ त्रीण्यज्ञानानि ॥ १० ॥ चत्वारि दर्शनानि ॥११॥ द्वादशाङ्गानि ॥१२॥ चतुर्दश पूर्वाणि ॥ १३ ॥ द्विविधं तपः ॥१४॥ द्वादश प्रायश्चित्तानि ॥ १५॥ चतुर्विधो विनयः ॥१६॥ दश चैयावृत्यानि ॥१७|| चविधः स्वाध्यायः ॥१८॥ चत्वारि ध्यानानि ॥१९।। द्विविधो व्युत्सर्गः ॥२०॥
इत्यहनामचने द्वितीयोऽध्यायः ।। २ ।।
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अर्हत्प्रवचनम् । त्रिविधः कालः ॥१॥ षडिधः कालसमयः ॥२|| त्रिविषो लोकः ॥३॥ अर्धवृतीया द्वीपसमुद्राः ॥ ४ ॥ पंचदश क्षेत्राणि ॥५॥ चतुस्त्रिंशद्वर्षधरपर्वताः ॥६॥ पंचदश कर्मभूमयः | त्रिंशद्भोगभूमयः ।।८॥ सप्ताऽधोभूमयः ।।९॥ सप्लेव महानरकाः ॥१०॥ चतुर्दश कुलकराः ॥११।। चतुर्विंशतितीर्थकराः ।।१२।। नव बलदेवाः ॥१३॥ नव वासुदेवाः ॥१४॥ नव प्रसिधासुधा |१५|| एकादश रुद्राः ||१६|| द्वादश चक्रवर्तिनः ॥ १७॥ नव निधयः ॥१८|| चतुर्दश रत्नानि ॥१९॥ द्विविधाः पुद्गलाः॥२०॥
इत्यही प्रवचने तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
देवाश्चतुर्णिकायाः॥१॥ भवनवासिनो दशविधाः॥२॥ व्यन्तरा अष्टविधाः ॥३॥ ज्योतिष्काः पंचविधाः ॥४॥ द्विविधा वैमानिकाः ॥५।। द्विविधा कल्पस्थितिः ॥६|अहमिन्द्राश्चेति ॥७॥पंच जीवगतयः ||८|| षट्र पुद्गलगतयः ॥९|| अष्टविध आत्मसद्भावः ॥१०॥ पंचविधं शरीरम् ।।१५|| अष्टगुणा ऋद्धिः ॥१२॥ पंचेन्द्रियाणि ॥ १३ ॥ पड्डेश्याः ।। १४ ॥ द्विविधं शीलम् ॥ १५ ॥
इत्यहत्प्रवचने चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
विविधो योगः ॥१|| चत्वारः कपायाः ॥ २ ॥ त्रयो दोषाः ॥३॥ पंचानवाः|४|| त्रिविधः संघरः ।।५।। द्विविधा निर्जरा ॥६॥ पंच लब्धयः ॥७॥ चतुर्विधो बन्धः ||८|| पंचविधा बन्धहेतवः
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सिद्धान्तसारादिर्सग्रहे॥९॥ अष्टौ कर्माणि ॥१०॥ द्विविधो मोक्षः ॥११॥ चत्वारो मोक्षहेतवः ॥१२।। त्रिविधो मोक्षमार्गः ॥१३॥ पंचविधा निप्रेन्थाः ॥१४॥ द्वादश सिद्धस्यानुयोगद्वाराणि ।। १५ ॥ अष्टौ सिद्धगुणाः ॥१६॥ द्विविधाः सिद्धाः ॥ १७ ॥ वैराग्यं चेति १८॥
इत्यहत्प्रवचने पंचमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
इति प्रमाचन्द्राचार्यविरचितमईयवचनम् ।
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आप्तस्वरूपम् ।
आप्तागमः प्रमाण स्याद्यथाचवस्तुमचकः । यस्तु दोपैविनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जनः ॥१॥ दोषावरणमुक्तात्मा कृत्स्नं वेत्ति यथास्थितम् । सोऽहस्तत्वागमं वक्तुं यो मुक्तोऽनृतकारणः ॥२॥ आगमो ह्याप्तवचनमासं दोषक्षयं विदुः । त्यक्तदोषोऽनृतं वाक्यं न ब्रूयादित्यसम्भवात् ॥३॥ रागाहा द्वेपमोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैव च दोषास्तस्थानृतकारणं नास्ति ? ॥४॥ पूर्वापरविरुद्धादेव्यपेतो दोषसंहतेः । द्योतकः सर्वभावानामाप्तव्याहतिरागमः ।।५।। ध्यानानलप्रतापेन दग्धे मोहेन्धने सति । शेषदोपास्ततो ब्यस्ता योगी निष्कल्मषायते ॥६॥ मोहकर्मरिपो नष्टे सर्वे दोषाश्च विद्रुताः । छिन्नमूलतरोर्यद्वद् ध्वस्त सैन्यमराजबत् ॥७॥ नई छमस्थविज्ञानं नष्ट केशादिवर्धनम् | नई देहमलं कुत्स्नं नष्टे घातिचतुष्टये ॥८॥ नष्टं मर्यादविज्ञानं नष्टं मानसगोचरम् । नष्टं कर्ममलं दुष्टं नष्टो वर्णात्मको ध्वनिः ॥९॥
१ द्वेषावा मोहादा पुस्तके-पाठः ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
नष्टाः क्षुतद्भयस्वेदा नष्टं प्रत्येकयोधनम् । भूमिगत नष्टं चेन्द्रिय सुखम् ॥१०॥ नष्टा सहजा छाया नष्टा चेन्द्रियजा प्रभा । नष्टा सूर्यप्रभा तत्र सूतेऽनन्तचतुष्टये || ११|| तदा स्फटिकसंकाशं तेजोमूर्तिमयं वपुः । जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातु विवर्जितम् ||१२|| सकलग्राहकं ज्ञानं युगपद्दर्शनं तदा । अन्याबाधसुखं वीर्य एतदाप्तस्य लक्षणं ||२३|| त्रैलोक्यक्षोभका होते जन्ममृत्युजरादयः । ध्वस्ता ध्यानाशिना येन स आप्तः परिपठ्यते || १४ || क्षुधा तृषा भयं द्वेपो रागो मोहव चिन्तनम् | जरा रुजा च मृत्युश्च स्वेदः खेदो मदो रतिः ॥ १५॥ विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश धुवाः । त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ||१६||
युग्मम् ।
एतैर्दोषैर्विनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जनः । विद्यन्ते येषु ते नित्यं तेऽत्र संसारिणः स्मृताः ॥ १७॥ संसारो मोहनीयस्तु प्रोच्यतेऽत्र मनीषिभिः । संसारिभ्यः परो ह्यात्मा परमात्मेति भाषितः || १८ || सर्वज्ञः सर्वतो भद्रः सर्ववदनो विभुः । सर्वभाषः सदा वन्द्यः सर्वसौख्यात्मको जिनः ॥१९॥ अन त्रैलोक्यसाम्राज्यं अर्हन् पूजां सुरेशिनाम् । हतवान् कर्मसम्पूर्त अर्हनामा ततः स्मृतः ॥ २० ॥
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आप्तस्वरूपम् ।
रागद्वेषादयो येन जिताः कर्ममहाभटाः। कालचक्रविनिर्मुक्तः स जिनः परिकीर्तितः ॥२१॥ स स्वयम्भूः स्वयं भूतं सज्ज्ञानं यस्य केवलं । विश्वस्य ग्राहकं नित्यं युगपदर्शन तदा ॥ २२ ॥ येनाप्तं परमैश्वर्य परानन्दसुखास्पदम् । बोधरूपं कृतार्थोऽसावीश्वरः पटुभिः स्मृतः ॥ २३ ॥ शिवं परमकल्याण निर्वाणं शान्तमक्षयं । प्राप्तं मुक्तिपद येन स शिवः परिकीर्तितः ॥ २४ ॥ जन्ममृत्युजराख्यानि पुराणि ध्यानचन्हिना । दग्धानि येन देवेन तं नौमि त्रिपुरान्तकम् ।।२५॥ महामोहादयो दोषा ध्यस्ता येन यदृच्छया। महाभवार्णवोत्तीर्णे महादेवः स कीर्तितः ॥ २६ ॥ महत्वादीश्वरत्वाच यो महेश्वरतां गतः ।
धातुकविनिमुक्तस्तं वन्दे परमेश्वरम् ॥ २७ ।। तृतीयज्ञाननेत्रेण त्रैलोक्यं दर्पणायते । यस्यानवद्यचेष्टायां सं त्रिलोचन उच्यते ॥ २८ ॥ येन दुःखार्णवे बोरे मनानां प्राणिनां दया- । सौख्यमूलः कृतो धर्मः शकरः परिकीर्तितः ॥ २९ ॥ रौद्राणि कर्मजालानि शुक्लथ्यानोग्रवन्दिना । दग्धानि येन रुद्रेण तं तु रुद्रं नमाम्यहम् ॥ ३० ॥ विश्वं हि द्रव्यपर्याय विश्वं त्रैलोक्यगोचरम् ।
च्याप्त ज्ञानत्विषा येन स विष्णुयोपको जगत् ॥३।। १ 'संत्रिलोचनर......चेतः' पाठोऽयं पुस्तके ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
वासवाद्यैः सुरैः सर्वैः योज्यते मेरुमस्तके | प्राप्तवान् पंचकल्याणं वासुदेवस्ततो हि सः ||३२|| अनन्तदर्शनं ज्ञानं कर्मारिक्षयकारणम् । यस्यानन्तसुखं वीर्यं सोऽनन्तोऽनन्तसद्गुणः ||३३|| सर्वोत्तमगुणैर्युक्त प्राप्तं सर्वोत्तमं पदम् । I सर्वभूतहितो यस्मात्तेनासौ पुरुषोत्तमः ||३४|| प्राणिनां हितवेदोक्त ? नैष्ठिकः सङ्गवर्जितः । सर्वभावश्चतुर्वक्त्रो ब्रह्मासौ कामवर्जितः ||३५|| यस्य वाक्यामृतं पीत्वा भव्या मुक्तिमुपागताः । दत्तं येनाभयं दानं सत्वानां स पितामहः || ३६॥ यस्य पासानि रत्ना | शक्रेण भक्तियुक्तेन रत्नगर्भस्ततो हि सः || ३७ ॥ मतिश्रुतावधिज्ञानं सहजं यस्य बोधनम् । मोक्षमार्गे स्वयं बुद्धस्तेनासौ बुद्धसंज्ञितः ॥ ३८ ॥ केवलज्ञानबोधेन बुद्धवान् स जगत्रयम् । अनन्तज्ञानसंकीर्ण तं तु बुद्धं नमाम्यहम् ||३९||
सवार्थभाषया सम्यक् सर्वलेशप्रघातिनाम् । सत्वानां बोधको यस्तु बोधिसत्वस्ततो हि सः ॥ ४० ॥
सर्वद्वन्द्व विनिर्मुक्तं स्थानमात्मस्वभावजम् । प्राप्तं परमनिर्वाणं येनासौ सुगतः स्मृतः ॥४१॥ सुप्रभातं सदा यस्य केवलज्ञानरश्मिना । लोकालोकप्रकाशेन सोऽस्तु भव्यदिवाकरः || ४२॥
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आप्तस्वरूपम् ।
जन्ममृत्युजरारोगाः प्रदग्धा ध्यानवन्हिना । यस्यात्मज्योतिषां राशेः सोऽस्तु वैश्वानरः स्फुटम् ||४३ ॥ एवमन्वर्थनामानि सर्वज्ञं सर्वलोचनम् । ईडितेनैव ? नामानि वेधोऽन्यत्र विचक्षणैः ॥४४॥ अर्हन प्रजापतिर्बुद्धः परमेष्ठी जिनो जितः । लक्ष्मीभर्त्ता चतुर्वक्त्रो केवलज्ञानलोचनः ||४५ || अम्भोजनिलयो ब्रह्मा विष्णुरीशो वृषध्वजः । आतपत्रत्रयोद्धासी शंकरो नरकान्तकः ॥ ४६ ॥ निर्मल निष्कश्चैव विधाता धर्म एव च । परमपापनाशश्च परमज्योतिरव्ययम् ॥ ४७ ॥ योगीश्वरो महायोगी लोकनाथो भवान्तकः । विश्वचक्षुर्विभुः शम्भुर्जगच्छिखरिशेखरः ॥ ४८ ॥ लोकायशिखरावासी सर्वलोकशरण्यकः । सर्वदेवाधिको देवो ष्टमूर्तियाध्वजः ॥ ४९ ॥ सद्यो जातो महादेवो देवदेवः सनातनः । हिरण्यगर्भः सर्वात्मा पूतः पुण्यः पुनर्भवः ॥ ५० ॥
रत्नसिंहासनाध्यासी नैकचामरवीजितः । महामतिर्महातेजोऽकर्मा जन्मवान्तकः ॥ ५१ ॥
अच्युतः सुगतो ब्रह्मा लोकान्तो लोकभूषणः । देवदुन्दुभिनिर्घोषः सर्वज्ञः सर्वलोचनः || ५२ ॥ अच्छेद्योऽनवभेद्यश्व सूक्ष्मो नित्यो निरञ्जनः । अजरो ह्यमरचैव शुद्धसिद्धो निरामयः ।। ५३ ।।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
अक्षयो ह्यन्ययः शान्तः शान्तिकल्याणकारकः। खयंभूविश्वश्वा च कुशलः पुरुषोत्तमः ॥५४॥ नामाष्टकसहस्रेण युक्त मोक्षपुरेश्वरं । ध्यायेत परकार का मोक्षपौर प्रहायण : शुद्धस्फटिकसंकाश स्फुरन्तं ज्ञानतेजसा । गणीदशभियुक्तं ध्यायेदर्हन्तमक्षयम् ।। ५६ ॥ सिंहासनसिनच्छत्रचामरादिविभूतिभिः । युक्तं मोक्षपुरं देवं ध्यायेन्नित्यमनाकुलम् ॥ ५७ ॥ कल्याणातिशयैराढयो नबकेवललब्धिमान् । समस्थितो जिनो देवः प्रातिहार्यपत्तिः स्मृतः ॥५८॥ सर्वज्ञः सर्वक सार्यो निर्मलो निष्कलोऽव्ययः । वीतरागः पराध्येयो योगिनां योगगोचरः ।। ५९ ॥ सर्वलक्षणसम्पूर्ण निर्मले मणिदर्पण । संक्रान्तबिम्बसादृश्यं शान्तं संचेतयेऽद्भुतम् ॥ १० ॥ येन जितं भवकारणसर्व __ मोहमलं कलिकाममलं च । येन कृतं भवमोक्षसुतीर्थ
सोऽस्तु सुखाकरतीर्थसुकर्ता ॥ ६१ ।। क्षीणचिरन्तनकर्मसमूहो
निष्ठितयोगसमस्तकलापः । कोमलदिव्यशरीरसुभासः सिद्धिगुणाकरमौख्यनिधिश्च ॥६२॥
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आप्तस्वरूपम् ।
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निष्कलयोधविशुद्धसुदृष्टिः
पश्यति लोकविभावस्वभावम् । सूक्ष्मनिरजनजीवपुनोऽसौं
तं प्रणमामि सदा परमाप्तम् ॥ ६३ ॥ क्षपितदुरितपक्षक्षीणनिःशेपदोषो
भवमरणविमुक्तः केवलज्ञानभानुः । परहृदयमतार्थनाहकज्ञानकर्ता
ह्यमलवचनवक्ता भन्यत्रन्थुर्जिनाप्तः ।। ६४ ।।
इतिश्री-आप्तस्वरूपं समासम् ।
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श्रीपोमराजसुतश्रीवादि राजप्रणीतं ज्ञानलोचनस्तोत्रम् |
ज्ञानस्य विश्राम्यति तारतम्यं परप्रकर्षादतिशायनाच्च ।
यस्मिन्न दोपावरणे तुलावद्अष्टेष्टशिष्टोक्तनयप्रकाशे ॥ १ ॥ ध्यात्वा च यं ध्यायति नौति नुत्ता नत्त्वा नमत्यत्र परं न लोकः । श्रुत्वाऽऽगमान् यस्य शृणोति नान्याञ् श्रीपार्श्वनाथ तमहं स्वीमि ॥ २ ॥
युश्मम् ।
तृणाय मत्वाखिललोकराज्यं निर्वेदमाप्तोऽसि विशुद्धभावैः । ध्यानैकतानेन च चेतसाभूः
कैवल्यमासाद्य जिनेश ! मुक्तः ॥ ३ ॥
चरं यथेष्टं वृणुतेऽत्र वर्याभिभूय राजन्यकमाशु विश्वम् ।
गुरुं च बुद्धं कपिलं हरादी - स्तथा शिवश्रीः सततं भवतम् ॥ ४ ॥ परैः प्रणीतानि कुशासनानि दुरंतसंसारनिबंधनानि । स्वया तु तान्येव कृतानि संति तीक्ष्णानि भर्माणि यथा प्रयोगात् ||५||
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ज्ञानलोचनस्तोत्रम् । -- --. ............ ... ... ... ... .... दाता न पाता न च धामधाता ___ कतौ न हर्ता जगतो न भर्ता । दृश्यो न वश्यो न गुणागुणज्ञो
ध्येयः कथं केन स लक्ष्मणा त्वम् ॥ ६ ॥ दत्से कथं चेगिनस्त्वमिष्टं
चिंतामणि भविनां सुभावात् । मतं यदीत्थं तब सेवया किं
स्वभाववादो हवितक्ये एच ।। ७ ।। संसारकूपं पतितान् सुजंतून्
यो धर्मरज्जूडरणेन मुक्तिम् । नयत्यनंतावगमादिरूप
स्तस्मै स्वभावाय नमो नमस्तात् ॥८॥ रणत्यमोघं सकलो जनस्वा
विव्वोकदैरजितं सदा हि । पमालयापूजितपादयुग्म चित्तानवस्थाहरणं पराभ्यम् ॥९॥
णमो सम्बोसहिपत्ताणं ।
भणत्यमोघं सकलकियौघ
मबोधतो देहिगणो न सिद्धधै। तथा जिनोत्तरमला गुणास्ते प्रीति भन्यानिह पंचभाद्रैः ।। १० ।।
जमो सम्वोसहिजिणाणं ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
स्थितोऽयमात्मा चषि स्थितोऽच्छ,
स्वात्कच्चरः कर्मकलंकपकैः । हेमाश्मवत्वादितत्तवा
निर्णीत तं त्वं जिन ! मुक्तिदोऽतः ॥ ११ ॥ अमित्रमित्रास्त्रविवर्द्धमान
द्वेषानुरागाः परमात्ममूढाः । हिंसापकारान्यकलचसक्का __व्यामोहभाय न कथं लभते ॥ १२ ॥ तब स्तुतेरीश ! रसं रसज्ञा
जानाति या नवणाच्छ्रतिः सा । तदुत्तमांग पदयोन तं यद्
ध्यायेच धीस्त्वां मनुते मनस्तत् ॥ १३ ॥ छन्नोऽजिनेनाप्रसवोअस्थिभूजो
मेधैर्गतो वृद्धिमिहाज्ञताद्यैः । आत्मा द्विजश्चेच्छिखरेऽस्य जल्पे
त्यद्गोत्रमंत्रं न तदाऽस्य भद्रम् ॥ १४ ॥ प्राणी विवर्तातुरतः सुखीह
किमन्यचिंताभिरितीव दृष्ट्वा । इभ्यं च निःस्वं सरुज रुजोनं ।
मनः समाथेयमतस्त्वदुक्त्या ।। १५॥ हित्वांगनापद्धतिमेष शाखी
स्फुटः सदेशे भवतोऽस्त्यशोकः ।
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ज्ञानलोचनस्तोत्रम् |
निरीक्ष्य निर्विण्णमिनं विरागोऽभवत्स्वयं भृत्यगतिर्हि सैषा ।। १६ ।। खोदापती सुमनस्ततिः प्रागस्यै जिनं यष्टुमसूययेव । त्वया जितेनावपुषेव हीना निजेषु पंक्तिर्भवतः सभार्याम् ॥ १७ ॥ ध्वनिर्ध्वनत्यक्रमवर्णरूपो नानाभावो भुवि दृष्टिवत्ते | त्वत्तो न देवैरयमक्षरात्मा
जयत्ययं मेचकवज्जगत्याम् ॥ १८ ॥ प्रकीर्णकौया मुनिराजहंसा जिनं नमतीव मुहुर्मुहुस्त्वाम् ।
वलक्षलेश्यातनया इवामी
बोधाब्धिफेनाः शिवभीरुहासाः ॥ १९ ॥
पीटत्रयं ते व्यवहारनाम छत्रत्रयं निश्वयनामधेयम् ।
रत्नत्रयं दर्शयतीव मार्ग
मुक्तेस्त्वदधीक्षणतः क्षणेन ॥ २० ॥
भामंडले मारकतोपलाभे निमनकायाथ चतुर्णिकायाः । स्त्रांतीय तीर्थे परमागमाख्ये देदीप्यमाने खद्यारसेन ॥ २१ ॥
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१ दिवः पतंती इत्यपि पाठः २ पुरस्तात् इत्यपि पाठः ३ स्वद्यागुणेनेत्यपि सम्पादकः ।
पाठ:
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहघातीनि कर्माणि जितान्यनेन
कालः समागच्छति नो समीपम् । इत्थं मुहुर्तापयतीव लोकान्
दध्वन्यते दुंदुभिरंतरिक्षे ॥ २२ ।। क्षुदादयोऽनंतसुखोदयात्तेऽ
किंचित्करा धातिविघातनाच । सत्तोदयाभ्यामविधातिनां किं
तोतुद्यतेऽगं चिविषाहिवत्ते ॥ २३ ॥ नानामि पश्यन् जिन ! नारकादीन
हताननंतांश्च हनिष्यमाणान् । चारित्रभंगात् खगतप्रसंगात्
कल्पानि चात्रातिशयो हि कश्चित् ॥ २४ ॥ लौकांतिकानां त्रिदिवातिगानां
पुंस्त्वोदये सत्यपि नांगनातिः । तथा ह्य मातोदयतो न पीडा
सामग्र्यभावान फलोदयस्ते ।। २५ ।। योऽत्तीह शेते सतषः सदोषो
मामुखते द्वेष्टि विपीदतीश!। इत्येवमष्टादशु संति दोषा
यस्मिन्नसी भूरिभवाब्धिभारः॥ २६ ॥ अद्वैतवादौपनिषेधकारी
एकांतविश्वासविलासहारी ।। मीमांसकस्त्वं सुगतो गुरुश्च हिरण्यगर्भः कपिलो जिनोऽपि ॥ २७॥
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ज्ञानलोचनस्तोत्रम् ।
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हटेन दुष्टेन शठेन वैरा
दुपद्रुतस्त्वं कमटेन येन । नीलाचलो वा चलितो न योगात्
स एव पद्मापतिनात्तगर्वः ॥ २८ ।। श्रुत्वाऽनुकंपांकनिधिं शरण्यं
विज्ञापयाम्येष भवादितस्त्वाम् । अशक्यतायास्तव सद्गुणानां
स्तुतिं विधातुं गणनातिगानाम् ॥ २९ ॥ कुदेववेशंतकदाप्तदास___ कुतत्वजाले भ्रमतो निपत्य | मिथ्यामिषं ग्लस्तमिदं भवाब्धा
दुरो धृतं कौलिशगोलकं वा ।।३० ॥ अनाधविद्यामयमूञ्छितांग
कामोदरक्रोधहुताशततम् । स्थाद्वादपीयूषमहौषधेन त्रायस्व
मां मोहमहाहिदष्टम् ।। ३१ ॥ हिंसाऽक्षमादिव्यसनप्रमाद__ कषायमिथ्यात्वकुषुद्धिपात्रम् । व्रतच्युतं मां गुणदर्शनोनं
पातुं क्षमः को भुवने विना त्वाम् ।। ३२ ॥ पुरांचितं नो तव पादयुग्म
मया त्रिशुद्धयाऽखिलसौख्यदायि ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
परालयातिथ्यपरैधितत्व
पात्रं हि गात्रं वरिवर्ति मेऽद्य ॥ ३३ ॥ shareगृहीतकंठो इतोस्मि मानाद्रिविचूर्णितांगः | मायाकुजायात्तसुकेशपाशो
लोभापं कौघनिमग्रमूर्त्तिः ॥ ३४ ॥
तारुण्यवाल्यांत्यदशासु किंचित्कृतं मया नो सुकुतं कदापि । जाननपीत्थं तु तथैव वर्त्ते
जाग्रच्छयालुः करणणि किका ॥ ३५ ॥ दानं न तीर्थ न तपो जपश्च नाध्यात्मर्चिता न च पूज्यपूजा ।
श्रुतं श्रुतं न स्वपरोपकारि
हा ! हारितं नाथ ! जनुर्निरर्थम् ।। ३६ ।।
भोगाशया भ्रांतमलं श्ववृत्या
धराधिपध्यानधरेण धात्र्याम् ।
अपास्य रुक्मं मयकारकूटं
गृहीतमज्ञानवशादधीश ! ॥ ३७ ॥
पंचास्य नागीहवसिंधुदावा
रण्यज्वराध्यादिभवं भयं द्राक् ।
त्वद्गोत्रमंत्रस्मरणप्रभावा
मित्रोदयादध्यांतमित्र प्रणश्येत् ॥ ३८ ॥
यतोऽरुचिः संसृतिदेहभोगादनारतं मित्रकलत्रवर्गात् ।
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ज्ञानलोचनस्तोत्रम् ।
आकृष्य चित्तं स्मरणात्वदीया
नयंति कर्माणि पदं तदेव ॥३९॥ नाटचं कुर्त भूरिभरनंत ___ कालं मया नाथ ! विचित्रवेषैः । हृष्टोऽसि दृष्ट्वा यदि देहि देयं
तदन्यथा चेदिह तद्धि वार्यम् ॥४०॥ श्रद्धालुता मे यदनंगरंगे
कृपालताऽभून्मम पापवर्मे । निद्रालुता शान्तरसप्रसंगे
तंद्रालुताध्यात्मविचारमार्गे ॥४१॥ भ्रांत्या चिरं दैववशेन विना
त्वदुक्तिपूः साधुपदार्थगर्भा। परैरंगम्या नयरत्नशाला
तस्यां कुतो दुःखमहो स्थितानाम् ॥४२॥ हिताहितेऽर्थेऽथ हेतिहिताच
चिदात्मनो धर्मविचारहीना। अजात्तपीणीय ? मियोदहती
मतिर्मदीया जिननाथ ! नष्टा ॥४३॥ यद्यस्त्यनंतं त्वयि दर्शनं मे
तदेव दत्तादणुमात्रमा । ज्ञानं सुखं वीर्यमतोऽधिकं चे
द्दद्यात्तदा को जिन ! दूरवर्ती ॥४४॥
१ 'अजाकृपाणीयमियों' इति सुभाति ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
manumaunia-runnarnirmmmmm.
हिरुक् सुबहिरिंद्रियं न हि भवेन्नमसादिक
पृथक् तदथ नो वृपो न तमृते सदोगमः । इति प्रतिदिनं विभो! चरणवीक्षणं कामये
ततः कुरु कृपानिध ! सपदि लोचनानंदनम् ।।४५|| स्तोत्रं कृतं परमदेवगुरुप्रसादा__ च्छीपोमराजतनयेन सुवादिराजा। सज्ज्ञानलोचनमिदं पठतां मुदे स्तात
दृग्दोषहारि जगतः परमोपकारि ॥४६॥
इति श्रीपोमराजतनयवादिराजविरचितं ज्ञानलोचनस्तोत्रम्
समाप्तिमगमत् ।
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विष्णुसेनविरचितं समवशरणस्तोत्रम्।
भार्या । वृषभाधानमिवंद्यान वंदित्वा वीरपश्चिमजिनेंद्रान् । भक्त्या नतोत्तमांगः स्तोष्ये तत्समवशरणानि ॥१॥ भूम्याः पंचसहस्रान् दंडानुत्क्रम्य समवशरणानाम् । जायते गगनगताः सद्वृत्त केन्द्रनीलशिलाः ॥ २ ॥ द्वादशयोजनतस्ताः क्रमेण चा योजनन्यूनाः । तावद्यावन्नेमिश्चतुर्थभागोनिताः परतः ।।३।। अवसर्पिण्यामेवं मोऽन्यथोत्सापिणीक्रमो ज्ञेयः। आद्या विदेहजानां मतांतराद्विश्वतीथेशाम् ॥४॥ दिक्षु चतसष्यपि भुजप्रमाणविंशतिसहस्रसोपानाः । एकादशभूमीकाः शीलचतुष्काच पंचवेदीकाः ॥५॥ प्रासादचत्यखातीवल्ल्युपवनकेतवश्च कल्पतरुः । भवनं गणस्त्रिपीठान्याद्यादीन्यवनिनामानि ॥६॥ एकैकं जिनभवनं प्रासादान् पंच पंच चोलंध्य । ज्यस्राद्याः स्युर्वाप्यो वनखंडान्याधभूमितले ॥७॥ खच्छजलेनापूर्ण नानाविधजलचरैश्च संकीर्णम् । सोपानशोभिततटं प्रोत्फुल्लाब्जामृताखातम् ।।८।। पुंनागनागकुब्जकवरशतपत्रातिमुक्तकाकलितो।
सामरमिथुनलतालययुता तृतीयाऽवनी रम्या ॥५॥ उक्त :
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
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गाथा। उवषणवाविजलोण सित्ता पिच्छति क्यभधजादि। तस्स णिरिक्षणमेसे सत्तभवातीवभाविजादाओ ॥१॥
आर्या । वनभूरशोकसप्तच्छदचंपकचूतमद्वनैर्भाति । क्रीडाद्रिचैत्यतरुयुक्प्रदक्षिणस्थैश्चतुर्दिक्षु ॥१०॥ सिंहगजवृषभवहिणमालावरहंमपनचक्रांकाः । गरुडैर्ध्वजाश्च दशधेत्त्येकैकेयष्टशतसंख्याः ।।११।। एतैश्चतुर्दिशास्थैश्चतुगुणमुख्यकेतुभिर्भाति । साष्टशतेनाभिहतैर्मुख्यैः क्षुद्रध्वजैश्चान्यैः ॥ १२ ॥ चतुर्दिक्षु मुख्यध्वजसंख्या ४३२० । परिवारध्वजसंख्या ४६ ६५६० । सर्वध्वजसंख्या ४७०८८० |
सर्वेषां स्तंभाना रुंद्रत्वमशीतिरंगुलान्यष्टौ ।
इष्वासनपंचकृतिस्त्वंतरमाद्यो तु हानिरपरेषु ॥ १३ ॥ मुख्यध्वजस्तंभाना रंगत्वमंगुलानि ८८ मुख्यध्वजस्तंभांतर धनुः २५/
हेमांदालकशबलैर्दशविधकल्पैश्च सिद्धतरुमित्रैः। सुरवरनिकरसनाथैश्चकास्ति कल्पद्रुमा वसुधा ॥ १४ ॥
___ अनुष्टुप्छंदः। मृदंग गरत्नांगाः पानभोजनपुष्पदाः । ज्योतिरालयवस्त्रांगा दीपांगैदेशधा द्रमाः ॥१५।।
भार्यावृत्तम्। सालत्रयमध्यस्थितपीठत्रयवर्तिचैत्यसिद्धतरू । जिनसिद्धप्रतिबिंबरधःस्थितनिषष्णकैर्भातः ॥ १६ ॥
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समवशरणस्तोत्रम् |
नृत्यद्भिर्गायद्भिर्जिनाभिषकोद्यतै र शेष सुरैः । बहुप्रासादा भवंति भवनावनौ रम्याः || १७ || स्फाटिकशालस्यांतर्लक्ष्मीवरमंडपे गणक्ष्मायाम् । द्वादश कोष्ठाः स्फाटिकषोडशगुरुमितिभिर्भान्ति ॥ १८ ॥ ऋषिकल्पजवनितार्था ज्योतिर्वन भवनयुवतिभावनजाः । ज्योतिष्क कल्पदेवा नरतिर्यंचो वसति तेष्वनुपूर्वम् ॥ १९ ॥ वैड्र्योतमकांचनविलसद्वरसकल रत्नवर्णानि । अष्टचतुश्चतुरिष्वासोन्नतिमंति त्रिपीठानि ॥ २० ॥ प्रस्फुरितधर्मचक्रैर्यक्षपतिभिरुद्धतैर्महाभक्त्या |
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चतुराशासु विराजति कृतार्चनं प्रथमपीठतलम् ॥ २१ ॥ अरिगजवृपहरिकमलांबरध्वजखगपतिपुष्पमालाख्यैः । विलसत्केतुभिरष्टभिरनुपमपूज्यं द्वितीयपीठतलम् ॥ २२ ॥ षट्शतरुद्रायामा साधिकनवशतधनुः समुत्तुंगा । प्रथमे शेषेषूना गंधकुटी स्यात्तृतीयपीठतले || २३ || रुद्रलं ६०० | उदये ९०० । तन्मध्यस्थितसिंहासनमध्ये शोणमंबुजं रमणीयम् । दशशतदलसंयुक्त तन्मध्ये कनककर्णिकायामुपरि ॥२४॥ चतुरंगुलगगनतले निविष्टवान् विमलकेवलज्ञानी । लोकालोकविलोकी धर्माधर्मौ जिनो वक्ति ||२५|| प्रहतघनघातिदोषश्चतुरधिकत्रिंशदतिशयैश्वर्ययुतः सोऽनंतचतुष्टयभाको ट्यादित्यप्रकाशसंकाशचपुः ॥ २६ ॥ क्षुभात् प्रागप्रमोहचिंता जरा रुजा मृत्युः । स्वेदः खेदमदोरतिविस्मय निद्राजन्द्वेगः ||२७|
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहेछत्रयसिंहासनसुरामपुष्पवृष्टिभाषाशीकाः ।
भावलयचामराणीत्यष्टमहापातिहार्यविभवसमेतः ॥२८॥ उक्तं च,-- पुख्य मनले अयरहे मज्झिमाय रत्तीय । छच्छग्धडियाणिग्गयदिवझुण्णी कहइ सुत्तत्थे ॥१॥
__शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् । गंभीरं मधुरं मनोहरतरं दोषेरपेतं हितं
कंठौष्ठादिवचोनिमित्तरहितं नो वातरोधोद्गतम् । स्पष्टं तत्तदभीष्टवस्तुकथकं निःशेषभाषात्मक
दुरासन्नसमं समं निरुपम जैन वचः पातु नः॥२९।। यत्सवात्महितं न वर्णसहितं न स्पंदितोष्टद्वयं
नो वांछाकलितं न दोषमलिनं न श्वासरुद्धक्रमम् । शातामर्षविषः समं पशुगणराकर्णितं कर्णिभिस्तन्नः सर्वविदः प्रगष्टविपदः पायादपूर्व वचः॥३०॥
आर्या। स्वस्वचतुर्विंशाशो द्वयोश्चतुर्षु द्विताडितार्द्ध च | अर्द्ध त्रिविद्वयष्टमभागाः पंचसु तथा परेढे च ।।३१॥ सालो वेदी वेदी सालो वेदी च...........सालो । वेदीत्यंतर्भवति...........सर्वे बहिर्भागात् ॥३२॥ इंद्रधनुहँ मे द्वे सुरक्तहैमे च हैमकार्जुनके । हैमी चार्कमयी सालो वेदी यथायोग्यम् ॥३३॥ धनुषः शतानि पंचायो पंचाशद्दशैव पंचोनाः । अष्टसु पंचस्वष्टसु करस्य नव सप्त पार्श्वसन्मत्योः ॥३४॥
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समशरणस्तोत्रम् ।
तीर्थंकरोत्सेधो यथा ५००, ४५०, ४००, ३५०, ३००, २५०, २००, १५०, १००, ९०, ८०, ७०, ६०, ५०, ४५, ४०, ३५, ३०, २५, २०, १५, १०, रत्नयः ९, ७।
चतुराहतजिनदेय वेदीसालेषु माला । किंचित्साभ्यधिकं तत्तोरणतुंगत्वमुद्गतम् ॥३५।। चर्याटालकभवनैः केतुभिराभांति वेदिकाः सालाः। मूला मूलात्क्रमपरिहान्या रहितेतरमूर्तयः क्रमशः ॥३६ हनो? रजतस्य महाहरिन्मणिगणस्य गोपुरद्वारम् । एक षट् च स्युट्टै नानामाणिक्यरचितानि ।। ३७ ॥ ध्वजमानस्तंभाचलचत्यप्रासादगोपुरस्तूपाः । द्वादशगुणजिनदैया मंडपसिद्धार्थचैत्यसदशोकाः ॥३८ कोशव्यासाः प्रथमे न्यूनाश्चाचीरतश्चतुर्मथ्याः। बहिरंतः सालांतरदैयोभयदिक्क? स्फाटिका साला।।३९।। द्वारेषु त्रिपु दंडान् ज्योतिष्कान् विश्रति द्वयोर्यक्षाः । नागास्तद्वितयस्था द्वयोश्च कल्पामराः प्रवराः ।।४।। मध्ये गोपुरमंतीथ्याः स्तंभो नभो द्विराभाति । नर्तनसालो शून्यं सालास्तूपा नभश्चरमम् ।। ४१॥ मानस्तंभाचोपरि सालत्रयमध्यगत्रिपीठानाम् । कुंडाष्टकसंयुक्ताश्चतुर्थीदाः संति चतुराशम् ॥ ४२ ।। अस्त्रविमिश्रा मूलादुपरिष्टाद्वर्तुलाश्चतुर्दिकम् । मूनिस्थित जिनवित्रा हृदाभिधानान्यतो वक्ष्ये ॥ ४३ ॥ नदोत्तरा च नंदा नंदवती नंदघोषनामा च । विजया च वैजयंती जयंतसंज्ञाऽपराजिताख्या च ॥४४॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
शोका सुप्रतिबुद्धा कुमुदान्या पुंडरीकनामा च । हृदयानंद महायानामा च ॥ ४५ ॥ षोडश पूर्णा वापी प्रभंकनामा ततः परमरम्या । आसां संपदमखिलां स्तोतुं शक्रो न शक्नोति ॥ ४६ ॥ धवलोत्तुंग त्रिभूमिसाले नृत्यस्य राजते द्वे द्वे । वीध्याः पार्श्वद्वितये धूपघटौ द्वौ च चतुरात्रौ ॥ ४७ ॥ द्वात्रिंशत्प्रेक्षणिकान्येकैकस्यां भवति प्रभुभूम्याम् । एकैकप्रेक्षणिके द्वात्रिंशदेवकन्याः स्युः ॥ ४८ ॥ अर्हत्प्रतिमाकीर्णाः स्तूपा नव नव भवति चाभ्ययः । अंतरिताः शतसंख्यै रत्नानां तोरणैरमलैः ॥ ४९ ॥ बाह्याभ्यंतरदेशे पत्रिंशद्धोपुरात्मनां संति । द्वारोभयभागस्था मंगलनिधयः समस्तास्तु ॥ ५० ॥ संघाटक भूगारच्छत्राब्दव्यजनशुक्तिचामरकलशाः । मंगलमष्टविधं स्यादेकैकस्याष्टशतसंख्याः ॥ ५१ ॥ प्रत्येकं साष्टशते ताः कालमहाकालपांडुमाणवशंखाः । नैसर्पपद्म पिंगलनानारत्नाश्च नव निधयः ॥ ५२ ॥ ऋतुयोग्य वस्तुभाजनधान्यायुध सूर्य हर्म्य वस्त्राणि । आभरणरत्ननिकरान् क्रमेण निधयः प्रयच्छंति ॥५३॥ शतमकरतोरणाद्या धूलीसालस्य बाह्यभागाः स्युः । अंतर्भागाः सर्वे प्रत्येकं रत्नतोरणशतास्तु ॥ ५४॥ प्राच्यां दिशि विजयाख्यं द्वारमपाच्यां च वैजयंताख्यम्। प्रत्यककुभि जयंतं स्यादपराजितमथोदीच्याम् ॥५५॥ यद्यप्यसंख्य गुणितक्षेत्रफलास्तत्र भव्यजीवाः स्युः । जिनभक्तेः स्थितवंतस्तथापि निःशेषतः सर्वे ॥ ५६ ॥
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समवशरण स्तोत्रम् |
१३९.
संख्यातयोजनेऽपि प्रवेशनिर्गमयुजोऽत्र भव्याः स्युः । अंतर्मुहूर्त्त मात्रा जिनमाहात्म्येन वृद्धायाः ॥५७॥ मिथ्यादृष्टिरभन्योऽसंज्ञी जीवोऽत्र विद्यते नैव । श्वानभ्यवसाय यः संदिग्धो विपर्यस्तः ॥ ५८ ॥ तत्र न मृत्युर्जन्म च विद्वेषो न च मन्मथोन्मादः । रागांतक बुभुक्षाः पीडा च न विद्यते कापि ॥ ५९॥
1834
अनुष्टुप्तम् ।
अंधाः पश्यंति रूपाणि शृण्वंति चधिराः श्रुतिम् । मुकाः स्पष्टं विभाषते चंक्रम्यते च पंगवः || ६० ॥ आर्यावृत्तम् ।
यः स्तुत्वैवं ध्यायतिं समरसमवाजिनेश्वरं देवम् । तस्यैष भवति विभवः कतिपयदिवासैर्न संदेहः ॥ ६१ ॥ चत्वारिंशद्भवने द्वात्रिंशद्व्यं तरविमानेषु । चतुरधिकविंशतिचंद्रार्कौ सिंहोऽथ चक्रवत्तन्द्राः ॥ ६२॥
कर्तुः प्रशस्तिः । शक्राज्ञया स्वभक्त्या धनदेवविनिर्मितं समवशरणम् । व्यावर्णितं त्रिविद्याधिगणिना विष्णुसेनेन ॥ ६३॥
इति श्रीविष्णुसेनविरचितं समवशरणस्तोत्रं समाप्तम् ।
१' यचानध्यायो ' इति पाठ: श्रेयानवभाति ।
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जयनंदमूरिसिरनि सर्वज्ञस्तवनम् ।
सटीक । देवाः प्रभो ! यं विधिनात्मशुद्ध ___ भक्त्याः सुमेरोः शिखरेऽभ्यर्षिचन् । संस्तूयसे त्वं स मया समोद
मुन्मील्यते ज्ञानशा यथा मे ॥१॥ टीका-देवा इति-गीर्वाणभाषयार्थोच्चारणमन्त्रयस्तमन्वयं चाणारस्या भद्रापद्रव्यव्याख्यानावसरे कथयति स आदी कथ्यते--~-यथा हे प्रभो ! त्वां देवा विधिनात्मशुद्र्य भक्त्याः शक्तिसकाशात् मुमेरोः शिखरे. भ्यर्पिचन्नस्नपयन् जन्मोत्सवमकाः स वं मया समोद सहर्ष यथा स्यात्तथा संस्तूपसे यथा मे ज्ञानहशोन्मीत्यत इत्यन्वयः । अभिपूर्वषिचीत् क्षरणे "हस्तानी अन् तुदादेशः “मुचादितृपगुफेति" नोऽन्तः अभ्यपिचन् इयं कर्तर्युक्तिः । सम्पूर्वष्टक स्तुतौ पः सो" इति स्तुनिमित्तस्य पस्याभावान्नैमित्तिकस्य टस्याप्यभावः " निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः" इति न्यायात् । "तत्साप्यानाप्येति" कर्मणि वर्तमानात् क्यप्रत्ययः । “दीर्घश्वगाडिति " दीर्घत्वं संस्तूयसे इति कर्मण्युक्ति । उत्पूर्वकमील निमेषणे भाचे आत्मनेपदं शेपं पूर्ववत् इयं भावे उक्तिः । अत्र काव्ये सप्त विभक्तयस्तिस्त्र उक्तयः संबोधनं क्रियाविशेषणं च कथितानि ! ग्रंथांतरेऽट उक्तयस्ता अपि अधिकारात् कर्यते । यथा;
एककर्मा द्विकर्मा चाकर्मा कर्तरि कर्मणि । कर्मकर्तरि भावे च उक्तयोऽष्टविधाः स्मृताः॥ १ ।।
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सर्वज्ञस्तवनम् ।
अस्प व्याख्या यथा श्राद्धा देवान् पूजयंति इयं एककर्मा १ मित्रोऽजां ग्राम नयति इयं द्विकर्मा २ देवदत्तः शेते इयमकर्मा ३ एतत् प्रकारत्रयं कर्तरि । अथ प्रकारत्रयं कर्मणि, ग़ा श्राद्भर्देवा: पूज्यने । मिलोग अजा ग्राम नीयते ५ देवदत्तेन शय्यते ६ आरोहंते हस्तिनं हस्तिपकास्तानारोहतो हस्ती प्रयुक्त आरोह (हये)ते हस्तिनं स्तिपकान् ७ वर्षासु मेघो गर्जति मयूरो नृत्यति ८ इत्यष्टप्रकारा उक्तयो ज्ञेयाः ।।१।।
ध्यानानुकंपाधृतयः प्रधानो
ल्लासिस्थिराः ज्ञानसुखक्ष्मं च । सुनाथ ! संति त्वयि सिद्धिसौंधा
. घिरूढ ! कमोज्झित ! विश्वरुच्य ! ॥२॥ टीका-हे सुनाथ ! हे सिद्धिसौंधाधिरूद्ध ! हे कमोज्झित : हे विश्वरुच्य ! त्वयि प्रधानोलासिस्थिराः ध्यानानुकंपाधृत्तयः संति वत्तते, न पुनः ज्ञानसुखक्षम अस्ति इत्यन्वयः ! ध्यान च अनुकंपा च धृतिश्र ध्यानानुकंपाधृतयः, अत्र केवल विशेष्यक्तिरेतरहः कथितः । प्रधानं च उल्लासिनी च स्थिरा च प्रधानोल्लासिस्थिराः अयं केवलाविशेषणैः स एव प्रधानादीनि ध्यानादीनां विशेषणानि | ज्ञानं च सुखं च क्षमा च ज्ञानमुखक्षम अयं समाहारद्वंद्वः, पूर्वार्द्धन द्वंद्वः कथितः । शोभनश्चासौ नाथश्च सुनाथः संबुद्धौ मुनाश्च ! अत्र प्रथमातत्पुरुषः कश्चितः । सौधमधिरूढः सौधाधिरूद्धः सिद्धिरेव सौधाधिरूढः सिद्धिसौधाविरूढः, अत्र द्वितीयातत्पुरुषः । कर्मभिरुज्झितः, अत्र तृतीयातत्पुरुषः । विश्वस्मै रुच्यः, अत्र चतुर्थीतत्पुरुषः कथितः। पंचमीतत्पुरुषषष्ठीतत्पुरुषसमासौ वक्ष्यमाणश्लोंकपूर्वादेन ज्ञेयौ ॥२॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
संसारभीतं जगदीश ! दीनं ____ मां रक्ष रक्षाक्षम ! रक्षणीयम् । प्रौढप्रसादं कुरु सौम्यदृष्टया
विलोकय स्वीयवचश्च देहि ॥ ३॥ टीका-संसाराद्रीतः संसारभीतः, अन्न पंचमीसमासः, जगतामीशो जगदीशः, अत्र पष्टीतत्पुरुषसमासः । एवं तत्पुरुषसमासः संपूर्णः। प्रौढ़श्वासौ प्रसादश्च प्रौढ प्रसादस्त प्रौढप्रसाद, अत्र पुंसि कर्मधारयः, सौ. म्या चासो दृष्टिश्चेति सौम्यदृष्टिस्तयेति स्त्रियां कर्मिधारयः, स्वीयं च तद्वचवात स्वावयचा, इत्यत्र लांचे कधारमसमासः, एवं कर्मधारयसमासः संपूर्णः । हे जगदीश ! हे रक्षाक्षम 1 संसारमीत दीने रक्षणीयं मां स्वं रक्ष प्रौढप्रसादं त्वं कुरु, सौभ्यदृष्टया मां विलोकय, च पुनर्मम स्वीयबचो देहि इति ॥ ३ ॥ वश्यमाणश्लोकेन बहुव्रीहिसमासं प्रतिपादयन्ताह,
नतेंद्र ! विद्रावितदोष ! दत्त
दाना दरिद्रा अपि बीतदौःस्थ्याः । त्वया कृता भूरिधना अनंत--
ज्ञान! द्विषान् सक्षम ! मंक्षु मासान् ॥ ४ ॥ टीका-हे नतेंद्र ! हे विद्रावित्तदोष ! हे अनंतज्ञान ! हे सक्षम ! त्वया दरिद्रा अपि लोका इत्यध्याहार्यः दत्तदाना बीतदौस्थ्या भूरिधना द्विषान् द्वादश मासान् यावत् इत्यध्याहार्य मंक्षु शीघ्रं यथा स्यात्तथा
१ रक्षायां क्षमो रक्षाक्षमः तत्सम्बुद्वौ हे रक्षाक्षम ! इति सप्तमो तत्पुरुषोऽपि ज्ञेयः।-संशोधकः
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सर्वज्ञस्तवनम् ।
१४३
कृता इत्यन्वयः । हे नतेंद्र ! नता इंद्रा यं इति नतेंद्र इति द्वितीयाबहुब्रीहिः १ विद्राविता दोधा येन स विद्रावितदोपस्तत्संबुद्धवित्यत्र तृतीयाबहुव्रीहिः २ दत्त दानं येभ्यस्ते दत्तदाना इत्यत्र चतुर्थीबहुत्रीहिः ३ चीत दौःस्थ्यं येभ्यस्ते बीतदौःस्थ्या इत्यत्र पंचमीबहाहिः ४ भूरि धनं यषां तं भूरिधना इत्यत्र षष्टीबहुत्रीहि: ५ अनंतं ज्ञानं यस्मिन्नय अनंतज्ञानस्तत्सबुद्धद्यावत्यत्र सप्तमीचहुन्नीहिः ६ सह क्षमया वर्त्तते यः स सक्षम इत्यत्र सह पूर्वेण बहुव्रीहिः ७ । द्वि षट् द्विपाः "प्रमाणीसंख्याङ्कः " इति सूत्रेण ख प्रत्यार इति “सुन्यार्थे संख्या संख्यया संख्येये बडबीहिः' समासो भवति इति सूत्रेण द्वादनार्थे बहुव्रीहिरष्टमो भेदः ८ इति ॥४॥ वक्ष्यमाणपद्येन अवशिष्टबहुव्रीहि द्विगुं च प्रतिपादयन्नाह;
द्विवैमुक्तिमना द्विपाद्या
स्तव त्रिपूजां विदधत त्रिसंध्यम् ।। कल्याणकानां जिन ! पंचपर्वी
माराध्य भव्यः क्षियतेऽष्टकर्म ॥ ५॥ टीका-द्वौ वा यो वा द्वित्राः, “प्रमाणीसंख्या:" इति अयं नवमो भेदः सुवार्थति सूत्रेण विकल्पार्थः समासः ९। प्रधानपदयोरपि यच्छब्देन बहीहिः समासो भवति यथा मुक्तौ मनो यस्य स मुक्तिमना इति दशमा भेदः बहुव्रीहिः १० । अथ द्विगुसमासः हे जिन 1 तब द्विपाद्यारिखपूजां विदधत् कल्याणकानां पंचपर्वीमाराध्य द्वित्रैभवैर्मुक्तिमना भन्यो अष्टकर्म क्षिपते इत्यन्धयः । द्वयोः पादयोः समाहारः द्विपादी तस्या द्विपाद्याः द्विपादीति "द्विगो"रिरकारातत्त्वान्नित्यं डीः स्यात् । त्रिपूजां त्रिसध्यमित्यादौ पंचपर्वी अष्टकर्म इत्यादौ "द्विगौ अन्नताताम्यां" विकल्पेन डीः अन्यस्तु सर्वो नपुंसक इति वचनाच्छेषं सर्व स्वरांत
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१४४
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
F
तुदादेशः,
व्यंजनात च नपुंसके ज्ञेयं क्षिपत इत्यत्र प्रेरणफलवति कर्त्तयत्मनेपदं अष्टकर्मक्षयान्मुक्तिप्राप्तिफलं । विदधदित्यत्र विपूर्वधाराधातुः शतृप्रत्यये द्वित्वे नोंते च अंतो नो लुगिति नलोपे विवदि त सिद्धम् ॥ ५ ॥
साम्येन पश्यत्रिजगद्विवेकी श्रयन् प्रभो ! पंचसमित्युपैति । अपास्य सप्तभ्यधिसिद्धिमध्ये सिद्धं जवेनोपभवादुपेशम् ॥ ६ ॥
टीका हे प्रभो ! साम्येन त्रिजगत् पश्यन्, एवं पंचसमिति श्रयन् सप्तभि अपास्य विवेकी नर उपभवान् (तु) अविसिद्धिमध्ये सिद्ध उपेश यथा स्यात्तथा जवेन वेगन उपैति गच्छतीत्यर्थ इत्यन्वयः । शेषं स्वरांत व्यंजनांतं क्लीचे ज्ञेयमिति वचनात् त्रयाणां जगतां समाहारस्त्रिजगत् पंचानां समितीनां समाहारः पंचसमिति, सप्तानां भीनां समाहारः सप्तभि इत्यादी सर्व कीवत्वं ततः क्लीं ह्रस्वः । अनतो मुत्रीति द्वितीयाम्लोपः सिद्धः । अधिसिद्धिमध्ये, ईशस्य समीपं उपेशं वीतरागसमीपं इत्यर्थः अत्र “विभक्तिसमीपसमृद्धि” इत्यादिसूत्रेणाव्ययीभावः । सिद्धीनां मध्ये मध्ये सिद्धिरित्यत्र " पारे मध्येंत पष्टी चेति " षष्ठीसमासः । उदाहरणत्रयेऽपि क्रियाविशेषणात् । अथवा विवक्षातः कारकाणीति न्यायादुदाहरणत्रये सप्तभी कर्म वा अव्ययादिति विभतीनां लोपः । आकासंताव्ययीभावस्याग्रतः पंचमीवर्जविभक्तिनामम् स्यात् तदुदाहरणं उपेशं इति ज्ञेयं पंचमीवर्जन | दुपभवानि (दिति ) प्रत्युदाहरणं चेति ॥ ६ ॥
भवेच्छुभायोपभवद्यथेष्टं,
श्रये सनाथोऽस्मि नमोऽस्तु दोषाः । दूरे प्रभावश्च गुरुः सुखं मे
विश्वार्ध्य ! धीश्रीकृदुपद्विपादे ॥ ७ ॥
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सर्वत्रस्तधनम् ।
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टीकाहे विश्वाच॑धीश्रीकृदुपद्विपादे ! भवतः समीपमुपभवत् शुभाय भवेत् १ उपभवद्यथेष्टं श्रये २ उपभवदह सनाथोऽस्मि भवत्समीपेनाहं स्वामिवान्नहमस्मीत्यर्थः ३ उपभवनमोस्त : रभवोपी संतु ५ उपभवत्प्रभावो गुरुरस्ति ६ च पुनरुपभवद्भवत्समीपे सुखमस्तीस्यन्वयः ७ अब अन्यस्वरांतव्यंजनांतेभ्यः सप्तविभक्तीनामनुक्रमेण लोपस्योदाहरणानि ज्ञातव्यानि । भवतः समीपं उपभवत् इत्यव्ययीभावः सर्वविभक्तिषु दर्शितः। एवं पट्समासोदाहरणानि ! अथ संक्षेपतः पट समासामाहा--विश्वाय॑धीश्रीकृदुपद्विपादे इति पदे धीच श्रीश्च धीश्रियौ अयं वः, विश्वेन अर्ये विश्वार्ये इति नत्पुरुषः, विश्वान्ये च ते धीश्रियो चायं कर्मधारयः, विश्वाध श्रियौ करोतीति विश्वाळीश्रीकृत् , द्वयोः पादयोः समाहारः द्विपादीति द्विगुः द्विपाद्याः समीपमुपद्विपादि कीबे न्हव: अयं अध्ययीभावः विश्वाय॑धीश्रीकृदुपद्विपादि यस्य स विश्वाय॑धीश्रीकृदुपद्विपादि, इति बहुव्रीहिः । एते संक्षेपत: घट् समासाः कथिताः ॥७॥
मुक्त्वा भर्व सौख्यमवाप्तुमंगी
धीमाँस्त्यजन् मोहमघस्य हता। यो मुच्यमानस्तममा शिवीयेत्
त्वत्सेविताकाम्यतु सोऽत्र नेतः। ॥८॥
टीका-भव मुक्त्वा सौख्यमबाप्तुं मोहं त्यजन् अघस्य हता तमसा मुन्यमानः यो धीमान् शिवीयेत् हे नेतः ! अत्र भुत्रि स पुरुषः स्वत्सविताकाम्यतु इत्यन्वयः |• प्राकाले क्त्याप्रत्ययः मुक्त्वा । अवाप्तये अवाप्तुं :" क्रियायां क्रियार्थीयां तुम्" अंगमस्यास्तीत्यंगी यथानेकस्व
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सिद्धान्तसारादिसग्रहे-~----~~~irani रादिन दीर्घश्न अंगी प्राणी। धीविद्यते यस्यासौ धीमान् "तदस्यास्त्यस्मिन् ।" इति मतुप्रत्ययः "कृदुदितनोते पदस्य" इति तलोपे दीर्घ च धीमान् । त्यज हानौ त्यजतीति त्यजन् शात्प्रत्ययः अततोते तलोपे च । मोहं मोहनीय कर्म । हनक हिंसागत्योहतीति हता णक्त चौत (1) अघस्य पापस्य, "कृत्तः कर्मणीति" पष्ठी । मुच्यमान इत्यत्र मुच्चातोरानशू क्य अतोऽम् अतोोतमुद्यआदिन् (१) केन तमसा | शिवं इच्छेत् शिवायेत् अमाव्ययात् "क्यड्चेति" क्यन्प्रत्ययः क्यनि दीर्घ च, त्वां सेवते इत्येवं शीलस्वत्सेवी अजाले शीले णिन् त्वमप्रित्ययोत्तरपद इति मातावयवस्य युष्मदस्त्वादेशे त्यत्सेचिनी भावस्त्वत्सेविता " भावे स्वतलौ " ताइवयः स सेवितामि त्वत्सेविताकाम्यतु " द्वितीयायां काम्य " इति काभ्यः । पंचभीक्त्वातुम्इन्मतुशतृचआनशक्यन्णिन्तलकाम्यादीनामुदाहरणानि ज्ञेयानि ॥ ८ ॥
क्षेमेषु वृक्षत्सु धनायमानो
हितः पितेवामृतवद्दापः। मम प्रभो ! भव्यतरं स्वभृत्यी- '
भावं जयानंदमय ! प्रदेयाः ।। ९ ॥
टीका हे प्रभो ! हे जयानंदमय : वृक्षत्सु क्षेमेव मंगलेषु किंविशिठेषु धनायमानः पितेव हित: अमृतबदुरापः भव्यतरं स्वभत्याभावं मम प्रदेया इत्यन्वयः । वृक्षा इवाचरंति वृक्षति “कर्तुः कि " वृक्षंतीति लीये शतप्रत्ययः तेषु वृक्षत्सु । क्षेमेषु किंविशिष्टषु घन इवाचरति घनायते इति घनायमानः । आने माते च ? दुःखेनाप्यते इति दुरापः “दुःखकृच्छाद्यर्थे खल्द प्राययः” । न स्वभृत्यः अस्वभत्यः अस्वभत्यस्य
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सर्वज्ञस्तवनम् ।
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स्त्रभृत्यबद्धवनं इति स्वभृत्योभावस्तं कृत्वा इत्यत्र अभूततद्भावार्थे प्रत्ययः । अतिशयेन भव्यमिति भव्यतरमतिशायनेऽर्थे तर प्रत्ययः । जयश्च आनंदश्च जयानंदौ तौ प्रकृती यस्मिन्निति जयानंदमयः “प्रकृतवचने मयट् " कि नपुंसके । शतृक्यापखल्लकिपमयद्प्रत्ययोदाहरणानि ज्ञेयानि पक्षे " जयानंद ” इति सूरिनामेति ॥९॥
इति जयानंदसूरिविरचित विभक्त्युक्तिसमासकियत्प्रत्ययोदाहरगरूपं
श्रीसर्वशस्तवनं समाप्तम् ।
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श्रीपार्श्वनाथसमस्यास्तोत्रम् ।
श्रीपार्श्वनाथं तमहं स्तवीमि
त्रैलोक्यलोकं प्रणिधामधाम । सामोदमुद्भासि यदीयकीर्ति
रामामुखं धुंवति कार्तिकेयः ॥१॥ तैरश्वघयोगेन विवेकसेक
मुक्तास्ति या सापि जिनावर्तस ! । विलोकिते कांतिकलत्वदास्य
चन्द्रोदये नृत्यति चक्रवाकी ॥२॥ पुरः प्रकीर्णानि कपोलपाली__ तले तवाच्छे प्रतिविम्बितानि | निभाल्य संदेग्धि बुधो जनः किं
चन्द्रस्य मध्ये कदलीफलानि ।। ३ ।। यनिर्जितैः पंचशेरण चके
कटे कुठारः कमटे ठकारः। अकीर्तिनाट्यस्य च वादितोऽलं
साम्यं क्य तेषां गुसदां त्वयास्तु ॥ ४ ॥ अभव्यदौर्भव्यतयाङ्गमाजां
येषां त्वदास्ये सुभगेऽपि दृष्टे । संतापसंपत्तिरुदेति तेषा
मयं शशी वन्हिकणान् प्रसूते ॥ ५॥
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श्रीपार्श्वनाथसमस्या स्तोत्रम् |
त्वद्दानलीला दलितप्रतापो देव ! कुंभस्तव शक्तिमाप्तुम् । भृगोः पतन्नादमिमं तनोति
वे व ठंड वयं उडं ठः ॥ ६ ॥
जनिमहे जिन ! ते सवनोदकैः प्रमरैरमरेश्वर भूधरे। विदलितेषु नगेषु किलाभवत्
उपरि मूलमधस्तरुपल्लवाः ॥ ७ ॥ रसना स्तवने नयनं चदने
श्रवणं वचने व करो महने । तव देव ! विशां कृतिनां सततं
रमते रमते रमते रमते ॥ ८ ॥ विश्वकनायक कला न हि या त्वदी
कार्ये न याच कविता भवतः स्तवाय । लग्नो न यस्त्वयि भवो विभवश्व सा किं
सा किं स किंस किमिति प्रवदन्ति धीराः ॥९॥ अहीशेऽधस्ताचमुपनमति जेतुं दितिसुतं
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समादाय क्रोधान्मणिमधुपकांतं किल धनुः । अधोऽधो मैनाक चरति जगतीनाथ ! समभूत् धनुःकोटी भृंगस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलाधिः ॥ १०॥ जगच्चक्रं चक्रे चरणपरिचर्येकरुचिना
मुना त्वद्दासेन स्वमनसि समंतान्निगमनम् । तदान्यो देवस्त्वां तुलयति विभो । चेद्भुवि भवेत् धनुःकोटी भृंगस्तदुपरि गीरस्तत्र जलधिः ॥ २१ ॥
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सिद्धान्तसारादिसंप्रहे
प्रीतां रूपवतीं सतीं जिन पते ऽलक्ष्मिलीलावतीं हित्वा रूपरसोज्झितां रमयसे यन्मुक्तिसीमंतिनीम् । तन्नूनं भवताऽपि तीर्थपतिना स्वेतत्स्फुटं निर्ममे युक्तायुक्त विचारणा यदि भवेत्स्नेहाय दक्षं जलम् ॥१२॥ इत्थं योगींद्रचेतः कमल कमल भूर्मुक्तिकासारहंसः
कल्याणांकूरकंदः सममहिमरमामंजरीवल्लरी श्रीः । मंत्रद्रषवीजं भुवनजनवनोल्लासलीलावतंसः
श्री पार्श्वः स्यात्समस्यास्तव कुसुमकृताभ्यर्चनोऽभीटयै ॥ १३ ॥
इति पार्श्वनाथसमस्या स्तोत्रम् |
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श्री गुणभद्र विरचितं चित्रबंधस्तोत्रम् |
ये तीर्थस्थ नेतारः संत्यत्र वृपभादयः । चित्रबंधेन तानू स्तौमि हारिणा चित्रकारिणा ॥१॥ वृषभो वः सतां कांतां वृद्धि देयादनिंदिताम् । भावयामास यः स्वीयां भासं दमितदुर्नयाम् ॥ २ ॥
छत्रम् ।
न जितस्त्वं जिनाधीश ! कमषैरजितो वरः । रसरक्तरसारं मां रक्षं रक्षरते रतः ।। ३ ।।
चमरं ।
संभवो वोsस्तु सौख्याय शंभवैधानलोऽभयः । सद्धर्म कर्ममोक्षाय समवीददत्रयः ॥ ४ ॥ बीजपूरः ।
नक्षरीश वादी ननदीवार्थेऽभिनंदन ।
नंद नंद धनादाननदानाद्रक्ष रक्ष नः ॥ ५ ॥
चतुरारच ।
सुमते मतिमनाम त्वमकाम यमद्रुम । नमस्याम इमं धाम शमस्य महमक्रमं ।। ६ ।।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे--
षोडशदलकमलं ।
पमाभेन धृतो येन समयो नयपावनः । खोकेन कृतामानः पूाजिनः स नो मनः ॥७॥
___ अष्टदलकमल।
सुपार्यो मम निःकामः सुमतिं ददतां प्रभुः। सुखायाशु शुभं येन सुप्रोक्तममलं जने ॥ ८ ॥
___स्वस्तिकं !
... -- - सतः कुवलयानं हा विनियोरिव ! वंद्य चंद्राभ ते प्रापुः केऽमृतं न शुभौकसः ॥९॥
धनुः।
पुष्याच्छ्रीपुष्पदतोऽयं भोक्ता मुक्तेरनेकशः। शंखकुंदेंदुमुक्ताभो यमध्यानाय नो वपुः ॥१०॥
.
मुशल।
श्रीक्षाकस्तु सश्रीक ईडितो वलिमिर्जनः । शीतलः शीततां नेयात्कामवन्हि मम प्रभुः ।।११।।
श्रीवृक्षः ।
योजिनाससामान श्रेयसे सुररंजन । तब ज्ञानधनानस तत्र सिद्धं वरं रसम् ।। १२ ॥
नालिकेरः । --... -- -
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......
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....
चित्रबन्धस्तोत्रम् । वासुपूज्यः सुरैः स्नात्वा मेरौ जन्मनि यो नुतः । तं जिनं न जितं वंदे देवतर्यिततर्पितम् ॥१३॥
निशुलं ।
- --. . विमल त्वामहं चायेऽनंतसन्मतये जिनं । नवानंदद विख्यात तथ्यं तव बचोधनं ॥ १४ ।।
श्रीकरी।
अनंतज्ञानसंयुक्त त्यक्तमंडन पावन | नमाम्यनंतनामानं त्वां जिनं जन्मभंजनं ।। १५ ।।
हलः।
धर्मनाथ कुवादीश सर्वपक्षक्षयंकर । रसं पीत्वात्र ते वाचः पाप मोक्षक्षिति बुधः १६ ॥
जं ।
नयशक्त्योद्धृतो येन नरकाज्जनकोज्नयः । शमास्पदः स वः शांतिः शांति कुर्याउमाशयः ॥१७।।
शक्तिः ।
. ..... कुंथुनाथ कुरूद्भूत कुंथुमुख्यदयास्पद । ददस्य धर्मचक्रेश शं नित्यं मम सद्यशः ॥ १८ ॥
त्वयार रविसंकाशतपसा साधितः स्मरः । तथारिचक्र चक्रेण मां बायस्व यतीश्वर ॥ १९ ॥
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१५४
सिद्धान्तसारादिसंघहे
शरः ।
--
कंदर्प कालीन मलेवं मलजिडुवि । विवेककंद विद्यां नः संप्रयच्छ प्रभाधिकाम् ॥ २० ॥
कलशः ।
हित्वा मोहं य आत्मनं तरभावं बभार तम् 1 जिनं सुव्रतकं नौमि वर्णसाररसार्णवम् ॥ २१ ॥
रथः ।
कमलांकः कलानेककलितः कंकरो यकः । कं नमिकः करोवेकं कस्यास्मार्क कलं सकः ॥ २२ ॥
कमले ।
पापान्मुक्ताव मां देव मादेशस्थिर धीवर । वधीरं जिनं मेने नेमे त्वां शंखशंकरम् ॥ २३ ॥ शंखः ।
पादसेवनया तापान्निर्वृतास्तव भूमिपाः ।
पावहिं न कथं कष्टानमस्तुभ्यं तु कः स्तुतः ॥ २४ ॥ खङ्गमुष्टिः ।
पाहि मां भवतो वीर रवीतोऽधिकसत्प्रभ । भणति सम्मतित्वेन नत्वेति मात्र सत्त पाः ॥ २५ ॥ द्वाभ्यां खड्गव ।
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चित्रबन्धस्तोत्रम्।
१५५. पाहि मां भवतो वीर रवीतोऽधिकसत्प्रभ । भणति सन्मतित्वेन नत्वेति मात्र सत्त पाः ॥२६॥
मुरजबंधोऽपि । छत्रौघाकृतिभिदंगनिधनैश्चित्रविचित्रार्थनीं।
श्रीमन्मगलकारिणां सुपृषभादीनां जिनानां स्तुति । यो नाघीत इमां स्तुतिं विनयतो मेधाविना संस्कृतां
पुनागः कवितां स याति नृपतिः स्वर्गश्रियं चाश्नुते २७. पंचमंगलयुक्तानां पदान् वंदे जिनेशिनाम् । भार्ग देवादिबंधानां भालजित्यवृतेशिनाम् ॥१॥
छन्मबंधः। सर्वसद्गणसंवासः सदाचारस्त्वनालप्सः । सद्धर्मो गुणभद्रः स संपायाद्वो महीनसः ॥ २ ॥
चमरे । मतिमंतं नमस्यामः मलेनास्पृष्टमुत्तमम् । मंगलाप मुनि चे महामित्रद्विपोः समम् ॥ ३ ॥
चम। तर्काद्यर्थविशेषसार्थगणने दक्षः सतामग्रणीः
नंबाच्छीगुणभद्रकीर्तिरमदो मोहांधकारोप्लगोंः । बालत्वेऽग्यजडं कविं यतिगुणश्रीशं जगुर्य युधाः शुभत्कीर्तिममुष्य कामदमिर्न योद्धादिमिथ्याहरं ॥४॥
फलशः ।
इति चित्रबंधस्तोत्रं समाप्तिमगात् ।
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महर्षिस्तोत्रम् ।
निर्वेदसत्वसंविद्विकस्वरमुदोद्भुत दिव्यशक्तीन् । बुद्धयोपधीवलत पोरसविक्रियर्द्धि
क्षेत्रक्रियाकलितान स्तुमहे महर्षीन् ॥ १ ॥ ये, केवलावधिमनः पर्ययिणो बीजकोष्ठबुद्धियुजः संमिश्रोतृतया भांत पदानुसारितया ॥ २॥ दूरस्पर्शनरसनप्राणश्रवणावलोकनसमर्थाः । सदश चतुर्दशपूर्वाष्टांगमहानिमित्तज्ञाः ॥ ३ ॥ प्रत्येकबुद्धवादिप्रज्ञाश्रवणाथ बुद्धिऋद्धिपतीन् । तीव्रतपोऽस्तविपक्षानष्टादशधाऽपि तानीडे ॥ ४ ॥ रोगाः सर्वे विण्मलामर्श जल्लक्ष्वेः सर्वेणापि शाम्यंति येषां
सिद्धा दृष्टयास्य विषत्वेन ये च त्रायेतां नस्तेऽष्टधाप्यौषधीशाः ॥ ५ ॥ अध्याय खिलश्रुतार्थममलं तर्मुहूर्ते श्रमा सद्वत्कृत्स्नमधीयते श्रुतमविच्छिन्ने पठतोऽपि च । उच्चैर्यान्ति न कंठहानिमखिलं लोकं रमंतेऽन्यतोऽ
प्यंगुल्या न्यसितुं बलाय बलिनस्त्रेधाऽपि ते संतु नः ॥६॥ चरंति घोरमहदुग्रदीप्तं तं तपो घोरगुणं त्रिगुप्ताः । ब्रह्मापि ये वोरपराक्रमाय ते सप्तधाऽप्युत्तपसस्तपंतु ॥७॥
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महर्षिस्तोत्रम् |
वाग्दृष्टी कुरुतों गिनां लघुविषावेशेन मृत्युं क्रुधा यैर्युक्ते धृतदुग्धमध्वमृतवद्यत्पाणिपात्रार्पितम् । स्यादुर्भोजनमप्युतस्विदुदिता वाचानुगृर्हति ये
तद्वत्तान् कृपयास्य दृग्विषघृताद्यास्राविगः स्तौमि तान् ॥ ८ ॥ वंदेऽणिममहिमलघिम गरिमैश्याप्तिवशिताप्रतीघातैः । प्राकाम्यकामरूपित्वांतर्घाद्यैश्च विक्रियद्विगतान् ॥ ९ ॥ न क्षीयते चक्रिबलेऽपि भोजिते यद्वतसेत ? दहः सुराः । वसति यद्वानि चतुःकरेऽपि
ते मांतूभयेऽक्षीण महानसालयाः ॥ १० ॥ जंघाश्रेण्यग्निशिखाजलद लफलपुष्पवीजतंतुगतैः । चरणनाम्नः स्वैरं चरतंथ दिवाऽस्तु विक्रियर्द्धिगतान् ॥ ११॥ इत्यन्यतद्भवतपोमहिमोदितद्धीनाचार्य पाठकपतीन् जगदेकभर्तृन् । दारुदाश्रयति कामपि भावशुद्धि
क्षिप्रं यया दुरितपाकमपाकरोति ॥ १२ ॥
इति महर्षिस्तुतिः संपूर्णा ।
१५७
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श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् ।
* * लक्ष्मीस्तोत्रापरनाम ।
(सटीकम् ।) लक्ष्मीर्महस्तुल्यसती सती सत्ती प्रवृद्धकालो विरतो रतो रतो। जरारुजाजन्महता हता हृता पार्श्व फणे रामगिरौ गिरी गिरौ ॥
टीका-उ इति निश्चयेन हे साधो ! त्वं पार्श्व फणे पार्श्वनाथसमीप गच्छ स्तुतिं कुरु । कया? गिरा वाण्या कृत्या। क ? रामगिरी नामध्येयपर्वते। कीदशे पार्थे : लकामहस्तुल्यसती की द र्तमान सतः। पुनः कथंभूते ? सती शोभमान । पुनः भूते पाश्वे ? सती शाश्वते । अतः श्रीपार्श्वनाथात् प्रवृद्धकालो बिरत: कोर्थः प्रचुरकालो गतः रतो येन महता पार्श्वन जरारुजापद्धता, किंविशिष्टा जरारुजापत् ? हत्ता कोर्थः केनापि न हता श्रीपार्श्वनाश्वस्य जिनेंद्रस्य तत्यादिकं गृहीत्वा बिना न केनापि जराफजापत् हता ॥१॥ अफेयमाध सुमना मनामना यः सर्वदेशो भुवि नाविना विना । समस्तविज्ञानमयो मयोमयो पाव फयो रामगिरी गिरौ गिरौ॥२॥
टीका-अहं आय प्रश्वमं पार्श्व अर्चये पूजयामि, क १ तथा रामगिरौ 'पर्वते पूर्वोक्तप्रकारेण । कथमूतोह ? सुमनाः कोऽर्थः आत्तरौद्राद्रहितमना: तच्छोभनचितः। पुनः कथंभूतोह ? मनामना कोर्थः मनान् यत् (ये)सर्वज्ञान न मन्यते ते मनामना तान् अहं त्यज्ञामि तान् पंचविधमिथ्यात्वान् त्यजित्या (त्यक्त्वा) श्रीपा– जिन पूजयामि यः पार्थनाथ: सर्वेषु देशेषु वर्तते इति सर्वदेशः, पुनः कीदृशः श्रीपार्श्वनाथः । अविना कोर्थः स्वामिना बिना यस्य 'पार्श्वनाथस्य स्वामि (मी) नास्ति, पुनः कीदृशः पार्श्वः? भुवि पृश्चिव्या विषये
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पार्श्वनाथस्तोत्रम् ।
नी पुरतः प्रधानीकपुरुषः । पुनः कीदृशः पार्श्वः ? समस्त विज्ञानमयः कोऽर्थः विशेपेण समस्तनवपदार्थानां जीवाजीचादिकरूपारूपिचत्वादिषु केवलज्ञानेन कृत्वा परमानन्दैः कृत्वा जानंतिं पश्यति । पुनः कीदृशः ? मया कोऽर्थः बाह्याभ्यन्तरलक्ष्म्या कृत्वा शोभितः । पुनः कीदृशः १ उमया कोर्थ अत्यंतलावण्यकांतिसौभाग्यादिभिः शोभया कृत्वा उपलशितः मण्डित: !! २॥ विनेष्ट जंतोः शरणं रणं रणं क्षमादितो यः कमळं मठ मठे। नरामरारामक्रम क्रमं क्रम पाच फणे रामगिरौं गिरौ गिरौं ॥३॥
दीका-य: पार्श्वनाथः कमठं विनेष्ट शिक्षयामास । किविशिष्टं कमठे? मठ कोर्थः मठयति कुतापसानां स्वामीत्यर्थः । पुनः कीदृशं कमळं ? मठे कोर्थः सगद अष्टमदसहितं । कथंभूतं पार्श्व ? क्षमादितो गुणतः जंतोः शरणं कोर्थः क्षमादिगुणसंयुक्तानां प्राणिनां शरणीभूतं । पुनः कीदृशं पावै ? रणं कोर्थः तत्वार्थभाषिणं । कीदृशे कमठे ? रण कोर्थः संग्रामकारक । पुनः कीदृशं पाच ! नरामरारामक्रम कोर्थः मनुष्यदेवानां क्रीडास्थानीयचरणयुगलं । पुनः कीदृशं पार्श्वनाथं ? क्रम कोर्थः उग्रवंशे उत्पन्न इक्ष्वाकुवंश इत्यर्थ । पुनः कीदृशं पार्श्व ? क्रम क्रामत्यागत्या कामति भव्यानां हृदयानि कोर्थः आसन्नभल्यानां हृदयानि उलसंति ॥३॥ अज्ञानसत्कामलतालतालता यदीयसद्भावनता नता नता। निर्वाणसौख्यं सुगता गतागता पार्श्व फणे रामगिरौ गिरौ गिरौ ।
टीका--अज्ञाने सति संतः विद्यमाना ये मनोरथाः कामाः शब्दादयो देहादिकभोगाः पुत्रकलनगृहधनादिका; तेषां भोगानां लता वल्ली स बल्लीमे(ए) व आल: अनर्थ तस्य अनर्थस्य योऽसौ ताल: कोर्थः साडन स्यात् स कः श्रीपार्श्वनाथः तेन साझनेन कृत्वा ता लक्षमीर्येषां नराणां प्रवर्तते अज्ञान
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे-- सत्कामलतालतालता कश्यते । यस्य पार्श्वनाथस्य संबंधिनो भक्तपुरुषाः शुद्धभावेन नता नम्रीभूताः सन्तः तेषां नताः कथ्यत । कोदशा भक्ताः पुरुषाः ? नताः कोर्थः सर्वैरपि नमस्कृताः सधैर्लोक: नमस्कृताः । पुनः कीदृशा भक्ताः ? सुष्छु अतिशयेन निर्घाणसौरव्य गताः 1 पुनः कीदृशाः भक्ताः पुरुषाः ? गतागता; कोर्थ: गत ज्ञाने अगतं अनष्टं येषां ते गतागता ज्ञानसहिता इत्यर्थः, अथवा अगता कोथः ? गतं नष्टं अगतं अज्ञाने येषां ते अगता ज्ञानसहिताः पुरुषाः इत्यर्थः, वाथवा आगता कर्थः गतं नष्टं अगते अज्ञाने येषां ते आगता अज्ञानरहिताः पुरुपा इत्यर्थः । पार्श्व फणे राम पूर्वोक्तः अर्थ इति ॥ ४ ॥ विवादिताशेषविधिर्विधिर्विधिबभूव सविहरी हरी हरी । त्रिज्ञानसज्ञानहरोहरोहरो पार्च फणे रामगिरौं गिरौ गिरौ ।।
टांका-पुनः कीदृशः पार्श्वनाथः ? विवादिताशेषविविः कोर्थ: विवादिनां मा विद्यैव लक्ष्मीस्तस्याः लक्ष्म्या यः शेषः अल्पीकरणं तत्र अल्पकरणे विधिः व्यापारो यस्य स व्यापारो भवति कोर्थः यस्य पार्श्वनाथस्य परत्रादीनां विद्यायां विषये सा विद्या तुच्छकरणाय व्यापारी अतिशक्तिरस्ति । पुनः कीदृशः पार्थः ? विधिः कोर्थः निज आचारत् तत्पर ( निजाचारात्तत्पर ) आचाररूपः । पुन: कादशः पार्थः ? विधिः कोर्थः चत्रुर्विधसंघस्य जिनधर्मेपोद्योतकग जातः । पुनः कीदृशः पार्श्वः ? सव्वहरी कोर्थः सर्याणां विन श्रीपार्श्वनाथस्य नामस्मरणेन क्षयं यातीति सव्वहः । पुनः कीदृशः पार्श्वः हारः इंद्रः (ई) लक्ष्मीः । पुनः हरिः सूर्यः, ई कामः, पुनः हरिः वायुः एते सर्वे ई गतौ धाता प्रयोगात, यान्ति गच्छति सेवति (ते) यं पार्श्वनाथं स सावहरीहरीहरी । पुनः कीदृशः पार्श्वनाथः ? त्रिज्ञान: कोर्थ; यः पार्थनाथो गर्भावतारसमये गर्भमध्ये मतिश्रुतावधि इति त्रिज्ञानलक्षणः । पुनः कीदृशः पार्श्वनाथः ? सज्ञानेन विराजितः
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पार्श्वनाथस्तोत्रम् ।
सजाने कोर्थः केवलज्ञानेन कृत्वा भत्र्यानां चित्तं हरतीति विज्ञानसज्ञानहरः पुनः कीदृशः पार्श्वनाथः ? अहः कार्थः सुष्टु केवलज्ञानप्रकाशकः ॥५॥
यद्विश्वलोकैकगुरु गुरुं गुरुं विराजिता येन वरं वरं वरं । तमालनीलांगभरं भरं भरं पाश्वे फणे रामगिरी गिरौ गिरी।। दीका-कथंभूतं पार्श्व ? यत् संचरणशीलों विमाशीय ईदृशो विश्वलोकः समस्तलोकः तस्य लोकस्य एकोऽद्वितीयो ज्ञानप्रकाशकः गुरुः श्रीपार्श्वनाथः तं पार्श्वनाथ । पुनः कीदृशं पार्श्वनाथं? गुरु गुरुतरं गरिष्टं । पुनः कीदृशं पार्श्वनार्थ गुरे वाचस्पति वागीशं । पुन: किंविशिष्ट पार्श्वनाथं ? भरं कोर्थ: पोषक जगत्पोषक । पुनः कीदृशं पार्श्वनाथं? भर कोर्थः भातति भरः वन्हिरूपःत भरं कांतितेजवान् इत्यर्थः । पुनः किंविशिष्ट तमालनीलांगभरं तमालनील अंगं तमालचन्नीलं अंगं बिभर्ति धारयतीति तमालनीलोगभरः । पुनः कौदर्श पार्श्व ? विराजित:(त)। पुनः कीदृशं पाथै ? बरं. 'मुक्तिलद या वरं शीले स्वमात्र । पुनः कीदा पार्श्व ? बरं निजोपाजततत्वज्ञानस्य विभागं स्वभक्तेनु ददातीति वरं, पर तु मूककेवलिनां तत्वज्ञानं न ददाति, मूककेवली कार्थः ? यावत् ध्वनि न उबालति तावन्मूककेवली कथ्यते ॥६|| संरक्षितो दिग्भुवनं वनं वनं विराजिता येषु दिव दिवे दिवैः । पाददये नूतसुरासुराः सुराः पाच फणे रामगिरी गिरी गिरौं ॥७॥
टोका-यस्य पार्श्वनाथस्य दिग्भुवनं दिशा एव भुवनं अस्ति, पुनः वनं जलकार्य, पुन: बनं बनस्पतिकाय एषां त्रयाणां श्रीपार्श्वनाथः संरक्षति रक्षा करोति । पुनः यस्य पार्श्वनाथस्य पादद्वये नूताः स्तुतिकारः पुरुषाः सुराऽमुरा वर्तते, पुनः सुराः मुटु विराजते येषु नूतनुरामुरेघु, विराजिताः क? श्रीपार्श्वनाथचरणविषिये शोभमाना बभूव ये के दिवा स्वर्गे नरातु आगच्छत् यस्य पार्श्वनाथस्य पादद्वये ई कामः वो वरुणः आ विष्णु ई लक्ष्मीश्च पत्तैते पुनः रा उत्कृष्टो दिवा प्रकाशं ब्रुवन्ति ॥ ७॥
११
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१६२
रराज नित्यं सकलाकला कला ममारतृष्णो वृजिनो जिनो जिनो । संहारपूज्यं नृपभा सभा सभा पार्श्व फणे रामगिरी गिरौ गिरौ ॥८॥
सिद्धान्तसारादिसंप्रहे
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टीका - यत्र पार्श्वनाथे अं ब्रह्म रराजते शोभते । पुनः यत्र पार्श्वनाथे सकलाकला ज्ञानादिककला रराजते शोभते । पुनः कला कीदृशी शोभते ! द्वासप्ततिमनोज्ञकला शोभते, कथंभूतः पार्श्वनाथः १ अमारतृष्णः कोर्थः निष्कामः कामरहितः । पुनः कथंभूतः पार्श्वः ? अवृजिनः निःपाः । पुनः क थंभूतः पार्श्व: जिनो कोर्थः कर्मजीतनसमर्थः द्विधारत्नत्रयैः । पुनः कीदृशः पार्श्वः ? जिन जिनान् गणधरादीन् देवादीन् यः पार्श्वः स अवतीति [आराधयतीति ] स जिन: । पुनः कीदृशः पार्श्वनाथ: सभा कोर्थः यस्य पार्श्वनाथस्य सभा पूज्या बभूत्र कैः संहाराः देवाः आभरणैः सह भूषितैः देवैः तैः देवैः पूज्यं यस्य पार्श्वस्य सभा, सा सभा पुनः कीदृशी ? सभा [तृषभा ] कोर्थः अमरदेवानाममरेन्द्राणां मुकुदरत्नतेजसा कृत्वा च पुना रत्नमथसमवशरणस्य कांव्या कृत्वा शोभिता सभा सा सभा ॥ ८ ॥
शार्दूलविक्रीडितछंदः ।
तर्फे व्याकरणे च नाटकचये काव्याकुले कौशले विख्यातो विपद्मनंदिमुनि पस्तत्वस्य कोपं निधिः । गंभिरं यमकाष्टकं पठति यः संस्तूयसा लभ्यते श्रीपद्मप्रभदेवनिर्मितमिदं स्तोत्रं जगन्मंगलं ॥ ९ ॥
टीका - यः पुमान् इदं पार्श्वनाथस्य स्तोत्रं परति यः पुरुषः संस्तूयसा कृत्या संस्तवेन कृत्वा तत्वस्य को निधिः लभ्यते । कथंभूतं स्तोत्र श्रीपप्रभदेवमुनिना निर्मितं निष्पादितं । पुनः कीदृशं स्तोमं जगजंगलं त्रैलोक्य मंगलदायकं । पुनः कीदृशं स्तोत्रं यमकाष्टकं गंभीर कोर्भः तत्यादिकेन स्वात्मापरस्वरूपेण भर्तिता अत्रैव मुवि पृथिव्यां विषये द्वीप
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पार्श्वनाथस्तोत्रम् |
१६३
मनंदिमुनियो विख्यातो बभ्रुव । क ? तर्कशास्त्रे न केवलं तर्फे चान्यत् ध्याकरणेऽपि विख्यातोऽभूत् । पुनः नाटकचये समूहे नाटकशास्त्रसमूहे, पुनः काव्याकुले कौशले कोर्थः महतनवरसैः सह काव्यैः समूहैः कौशले प्रवीणचतुरे अतः कारणात् पद्मनंदिमुनिः मुवि पृथिव्यां विख्यातोऽभूत् ॥९॥ इति श्रीपद्मनंदिमुनिविरचितं श्री पार्श्वनाथस्तोत्रं टीकासहितं संपूर्णम् ।
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अस्य स्तोत्रस्य दशरा-मशराख्या एकैव प्रेस-पुस्तिका संप्राप्ता मा तु 'बाबू जुगल किशोरजी' इत्येतेः संशोधिताप्यतीवाशुद्धा टीकापि विलक्षणा भाषा साहित्य पाप्य शुद्धा ज्ञायते शब्दानामर्थमपि पूर्णतया न प्रकाशयति । स्तोत्रमिदं पद्मप्रभदेवनिर्मितमभाति । अस्य संशोधने यो मम प्रमादः स -क्षन्तभ्यः पाठकैः । -- संशोधकः ।
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नेमिनाथस्तोत्रम् ।
( यक्षरी नेमिजिनस्तुतिः।) मनोनान् नमोनेन नुन्नमन्नामिमाननं । नेमनामानमनम मुनिनामिनमानुम ॥ १॥ नमामानामनिम्नान मामानानामनामिना । नामिने नामिनामोमे नमिनने नमे नमः ॥२॥ मने नानामिनं नाम नानानिम्नममानने । ननुमेमिममोनेना मोमानामानमन्त्रिमा ॥ ३ ॥ मिसमन्मनमामानिमानिनीमाननोन्मना । मानानामीमननेमी मनोमनिममानिनां ॥ ४ ॥ मनोमुनिम्ननं नूनं मुनमन्माननोननं । नुनमे नोमुनानेमि ननाम्नोननमामनु ॥ ५ ॥ नोनमुन्मानमानेन मुनीनेनममाननं । मीनानमिनमभेमी मनूनां नामिमीममां ॥६॥ मुनिनमे नेमि नानां निमाने नेमिमानिनां । नेमिनामा नमानाना मनोमान मम नुम ॥७॥ नेमीनमननं नेमि नमन नेमिनाननं । नेमि नाम्नो नमान्नान मानानून नमीममः ॥ ८॥
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नेमिनाथस्तोत्रम् |
इति स्तुतिघे ( १ ) पुरतः पठते नेमे निजच्यं जनयुग्मसिद्धिं । श्रीवर्द्धमानोदयशालिनस्ते
स्युः सिद्धिलब्धापरिभोगयेप्पा ॥ ९ ॥
इति नेमिनाथस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
* भस्य संशोधनं कापी-टूकापीरूपं ।
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श्रीभानुकीर्तिविरचित शंखदेवाष्टकम् ।
शतमखशतवन्धो मोक्षकान्ताभिनन्यो
दलितमदनचापः प्राप्तकैवल्यरूपः । कुमतवनकुठारः शंखरत्नावतारः
त्रिभुवननुतदेवः पातु मां शंखदेवः ॥१॥ अभिमतफलरूपो विश्वलोकप्रदीप
स्तुहिनगगनमूर्तिः स्फारकल्यारकीर्तिः । सुकृतजनसवासो मोक्षलक्ष्मी विलासः
त्रिभुवननुतदेवः पातु मां शंखदेवः ॥ २ ।। अगणितमहिमेशो जानवोधोपदेशः
सहजपरमकायः प्राप्तनिर्वाणमेहः । अधिगतपरमार्थो ज्ञानसज्ञानतीर्थः
त्रिभुवननुतदेवः पातु मां शंखदेवः ॥ ३ ॥ गुणमणिगणधारो भव्यभाग्यावतारो
विबुधवनवसन्ती मोक्षलक्ष्मीकान्तः । त्यजतमलकलंको धौतसंसारपंकः
त्रिभुवननुतदेवः पातु मां शंखदेवः ॥ ४ ॥ दिविजमनुजपूज्यस्त्यक्तसाम्राज्यराज्यो
वृजिननिकरनाशः सर्वतत्त्वप्रकाशः।
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शैखदेवाष्टकम् |
परिणतसुखरूपो निर्जितः कालकूपत्रिभुवननुतदेवः पातु मां शंखदेवः ॥ ५ ॥ विगतजननदोषः भागविण समवशरणनाथ जैनमार्गे सुतीर्थः ।
गणधरनुतराजः कोटिवालार्क तेज
स्त्रिभुवन नुतदेवः पातु मां शंखदेवः || ६ || जितमनसिजरूपः कर्मनिर्मूलकोपः
विनयवनजभानुः वांछितः कामधेनुः । कुवलयवनमित्रो भारतीलोलनेत्र
त्रिभुवन नुतदेवः पातु मां शंखदेवः ॥ ७ ॥ जिनपद कमलालिजैनभूते पिकालि
मुनि पतिमुनिचन्द्रो शिष्य राजेन्द्रचन्द्रः । सकलविमलसूक्तिर्मानुकीर्तिप्रयुक्तित्रिभुवननुतदेवः मातु मां शंखदेवः ॥ ८ ॥
इति शंखदेवाष्टकम् ।
१६७
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श्री योगीन्द्रदेव विरचितं निजात्माष्टकम् |
णि तेलोकच काहिचसयणमिया जे जिगिंदा य सिद्धा aur गंथत्यसस्था गमगमियमणा उवज्झायमूरिसाहू | सच्चे सुद्धणियादं अणुसरणगुणा योक्स्खसंपतितम्मा
सोहं झामि णिचं परमपयगओ विव्वियप्पो णियप्पो ॥१॥ णिस्सो णिव्वाणमंगो णिरुचि विभो किलो णिक्कलंको अव्याबाहो अणतो अगुरुगलघुगोपायिमज्झावसाणो । सम्भावस्था सयंभू गयययडिमलो सासओ सव्वकार्ल
सोहं झामि णिचं परमप्रयमओ णित्रियप्पो विप्पो ॥ २ ॥ एक्को सण्णाणपिण्डो विमलणहणिहो उड्डगामी सहाओ
णिचो वारयतच परसरसणिहो घितदेहप्पमाणो । सिद्धो सुद्धं सरुओ चिदुपरमगुणो अक्खओ जो गिरक्खो
सोहं झायेमि णिचं परमपयगओ णिब्वियप्पो यिप्यो || ३ || जोईण झाणगम्मो परमसुम हो कम्मणोकम्ममुको
कायाकारो अकाओ कलिकलसमलालेचचत्तो पवित्तो । समताईगुणाङ्को गलियइहपरासाणुबधो विसुद्धो
सोहं झामि णिचं परमपयगओ णिव्त्रियप्पो यिप्पो ॥ ४ ॥ गोत्थिष्णपुंसो णिरयिसय सुहालीयमाणो समाणो णिसो निव्विसाओ मणत्रयण समारंभ संमंध चुको ।
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Arrrrrrrruar-n.s.inmom.in-rinaamana
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निजात्माष्टकम् ।
१६२, लोयालोयप्पयासो अविलयणिलयो णिब्बिसेसो गिरीसो
सोऽहं झायेमि मिचं परमपयगओगिजियप्पो णियपो॥५|| नादासंखप्पएसो समयमुवगओ गंतमोक्खावठाणा
छुत्तिण्हातीदभावो भवभयणभयो बंधमुत्तो अमुत्तो। अव्वत्तो णाणगेज्जो जरमरणचुदो जो परं बारूओ
सोसायलिमि, पागजाबिधिको निधरतो॥६॥ सवण्णवण्णगंधाइयरविरहियो णिम्ममो णिबिआरो
रूवातीदस्सरूओ सयलविमलसदस्सणण्णाणवीओ। इहाणिट्टप्पयोया सुहअसुहवियप्या सया भावभूओ
सोहं झायमि णिच्चं परमपयगओ णिब्धियप्पो णियप्पो॥७॥ रूवे पिंडे पयत्थे ण कलपरिचये जोयिविदेण पादे ___ अत्थे गथे ण मत्थे ण करणकिरिया णावरे मंगचारे । साणंदाणंदरूओ अणुमहसुसुसंवेयणाभावपुच्चो सोहं झायमि णिचं परमपयगी णिबियप्पो णियप्पो।।
इति योगीन्द्रदेव विरचिन निजात्माष्टक समालम् ।
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अमितिगत्याचार्यकृतः सामायिकपाठः ।
एकद्वित्रिहपीकप्रभृतयो ये पंचधावस्थिता
जीवाः संचरता मया दशदिशश्चित्तप्रमादात्मना । ते ध्वस्ता यदि लोटिता विघटिताः संवहिता मोटिता __ मामालोचनमोचिना जिन ! तदा मिथ्याऽस्तु मे दुष्कृतं ॥१॥ अर्हशक्तिपरायणस्य विशदं जैन वचोऽभ्यस्यतो
निर्जिवस्य परापवादवदने शक्तस्य सत्कीनने । चारित्रोद्यतचेतसः क्षपयतः कोपादि विद्वेषिणो
देवाऽध्यात्मसमाहितस्य सकलाः सप्यतु मे वासराः ॥२॥ आलस्याकुलितेन मूहमनसा सन्मार्गनिनाशिना __ लोभक्रोधमदप्रमादमदनद्वेषादिदिग्धात्मना । यद्देवाचरितं विरुद्धमधिया चारित्रशुद्धर्मया
मिथ्यादुष्कृतमस्तु भो जिनपते ! तच्चत्प्रसादेन मे ॥३॥ जीवाजीवपदार्थतत्वविदुषो बंधाश्रवौ संधतः
शश्वत्संवरनिर्जरे विदधतो मुक्तिश्रियं कक्षितः देहादेः परमात्मतत्वममलं में पश्यतस्तत्वतो
धर्मध्यानसमाधिशुद्धमनसः कालः प्रयातु प्रभो! ।। ४ ॥ कषायमदनिर्जयः सकलसंगनिर्मुक्तता
चरित्रपरमोद्यमो जननदुःखतो भीरुता ।
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सामायिका : मुनीन्द्रपदसेवना जिनवचोरुचिस्त्यागिता _हृषीकहरिनिग्रहो निकटनिवृतेर्जायते ॥ ५ ॥ विद्विष्टे चा प्रशभवति वा बांधवे वा रिपो वा
मूखोंघे वा बुधसदसि का पत्तने वा वने वा । संपत्ती वा मम विपदि वा जीविते वा मृतौ वा
कालो देव ! प्रजतु सकलः कुर्वतस्तुल्यवृत्तिं ॥ ६ ॥ सुखे वा दुःखे चा व्यसनजनके वा सुहृदि वा
गृहे वारण्ये वा कनकनिकर वा दृपदि वा। प्रिये वाऽनिष्टे वा मम समधियो यांतु दिवसा
दधानस्य खाते तव जिनपते ! वाक्यमनघं ॥ ७ ॥ ये कार्य रचयंति निंद्यमधमास्ने याति निद्यां गति
ये बंद्य रचयन्ति बंद्यमतयस्ते यांति बंद्यां पुनः । ऊर्ध्वं याति सुधागृहूं विदधतः कूप खनंतस्त्वधः ।
कुर्वन्तीति विबुध्य पापविमुखा धम्म सदा कोविदाः ।।८।। चेष्टाश्चित्तशरीरबाधनकरीः कुर्वति चिनेऽधमाः
सौख्यं यस्य चिकीर्षवोऽक्षवशगा लोकद्वयध्वंसिनीः । कायो यत्र विशीर्यते सशतधा मेघो यथा-शारद
स्तत्रामी त ! कुर्वने किमधियः पायोद्यम सर्वदा ॥९॥ कांतेयं तनुभूरयं सुहृदयं मातेयमेषा स्वसा
जानोऽयं रिपुरेष पसनमिदं सभेदमेतद्वनं । एषा यावदुदेति बुद्धिरधमा संसारसंवर्द्धिनी
तावरच्छति निर्विति यत! कुतो दुःखदुमच्छेदिनीं ॥१०॥
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१७२
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
नाहं कस्यचिदस्मि कश्चन न मे भावः परो विद्यते मुक्त्वात्मानमपास्तकर्म्मसमितिं ज्ञानेक्षणालंकृतिं । यस्यैषा मतिरस्ति चेतसि सदा ज्ञातात्मतच्च स्थितेबंधस्तस्य न भुवनं सांसारिक बंधनैः ॥ ११॥ चित्रोपायविवर्द्धितोऽपि न निजो देहोऽपि यत्रात्मनो
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भावाः पुत्रकलत्रमित्रतनया जामातृतातादयः । तत्र स्वं निजपूर्व्यकर्मवशगाः केषां भवति स्फुट विज्ञायेति मनीषिणा निजमतिः कार्या सदात्मस्थिता ||१२|| दुर्मदोच्छ्रितकर्मशैलदलने यो दुर्निवारः पविः
पोतो दुस्तरतिर या सर्वा
यो निःशेषशरीरिरक्षणविधौ शश्वत्पितेवादृतः
सर्वज्ञेन निवेदितः स भवतो धर्मः सदा पातु नः ॥ १३ ॥ यन्मात्रापदवाक्यवाच्यविकलं किंचन्मया भाषितं
सावाला सकपायदर्पविषय व्यामोह सक्तात्मनः १ । वाग्देवी जिनवऋपद्मनिलया तन्मे क्षमित्वाखिलं
दत्त्वा ज्ञानविशुद्धिमूर्जिततमां देयादिनिंद्यपदं ॥ १४ ॥ निःसारा भयदायिनोऽसुखकरा भोगाः सदा नश्वरा
निंद्यस्थानभवार्तिभावजनका विद्याविदां निंदिताः । नेथं चिततोsपि मे त ! मतिर्व्यावर्त्तते भोगतः कं पृच्छामि कमाश्रयामि कम मूढः प्रपद्ये विधि ॥ १५ ॥ मोहध्यांतमनेकदोपजनकं मे भसितुं दीपका
बुल्कीर्णाविच कीलिताविच हृदि स्मृताविवेन्द्रार्चितौ
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सामायिक पाठः । आश्लिष्टाविव विदिताविव सदा पादौ निखाताविव
स्थेयास्तां लिखिताविवाघदहनौ वाविवाहस्तव ||१६|| संयोगेन दुरंतकल्मषभुवा दुःखं न कि प्रायितो
येन त्वं भवकानने मृतिजराच्याघ्रबजाध्यासिते । संगस्तेन न जायते तव यथा स्वप्नेपि दुष्टात्मना
किंचित्कर्म तथा कुरुप हुइये कृत्वा मनोनिश्चलं ।।१७।। दुर्गधेन मलीमसेन वपुपा स्वर्गापवर्गश्रियः ।।
साध्यंते सुखकारणा यदि तदा संपद्यते का क्षतिः । निर्माल्येन विगर्हितेन सुखदं रत्नं यदि प्राप्यते
लाभः कन न मन्यते बत! तदा लोकस्थिति जानता ॥१८॥ मृत्युत्पत्तिवियोगसंगमभयव्याध्याधिशोकादयः
सूद्यते जिनशासनेन सहसा संसारविच्छेदिना ! सूर्येणेव समस्तलोचनपथप्रध्वंसबद्धोदया
हुन्यते तिमिरोत्कराः मुखहरा नक्षत्रविक्षेपिणा ॥ १९ ॥ चित्रारंभप्रचयनपरा सर्वदा लोकयात्रा
यस्य स्वांत स्फुरति न मुनेमुष्णाती मुक्तियात्राः कृत्वात्मानं स्थिरतरमसावात्मतत्वप्रचारे
क्षिप्त्वाशेष कलिलनिचयं ब्रह्मसन प्रयाति ॥ २०॥ नो वृद्धा न विचक्षणा न भुनयो न ज्ञानिनो नाऽधमा
नोमूरा न विभीरवो न पशो न स्वर्गिको नांडजाः । त्यज्यते शमवर्तिनेत्र सकला लोकत्रयच्यापिना दुर्वारेण मनोभवेन नयता हवांगिनो वश्यतां ॥ २१ ॥
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१७४ . सिद्धान्तसारादिसंग्रहे-- शश्वद्दःसहदुःखदानचतुरो वैरी मनोभूरयं
ध्यानेनैव नियम्यते न तपसा संगेन न ज्ञानिनां । देहात्मन्यतिरेकबोधजनितं स्वाभाविक निश्चलं
वैराग्यं परमं विहाय शनिला निर्वाणानक्षम । २२ ।। का कालो मम कोऽधना भवमहं वत्त कर्थ सांगत ___किं कात्र हितं परत्र मम किं किं मे निजं कि परं । इत्थं सर्च विचारणाविरहिता दूरीकृतात्मत्रिया ___ जन्माभोधिविवार्तिपातनपराः कुर्चति सव्वाः क्रियाः॥२३॥ येषां काननमालय शशधरो दीपस्तमच्छेदको
भैश्यं भोजनमुत्तमं वसुमती शय्या दिशस्त्वांवरं। संतोषामृतपानपुष्टचपुषो निधूय कर्माणि ते
धन्या यांति निवासमस्तविपदं दीनदुरापं परैः ॥२४॥ माता मे मम गहिनी.मम गृह मे बांधवा मेंऽमजा
स्तातो मे मम संपदो मम सुखं मे सज्जना मे जनाः। इत्थं घोरममत्त्वतामसवशव्यस्तावबोधस्थितिः
शर्माधानविधानतः स्वहिततः प्राणी सनीश्रस्यते ॥२५॥ विख्यातौ सहचारितापरिगतावाजन्मनो यो स्थिरौं
यत्राऽवार्यरयौ परस्परमिमा विश्लिप्यतोऽगांगिनी। खेदस्तत्र मनीषिणां ननु कथं बाह्ये विमुक्ते सति
ज्ञात्तीह विमुच्यतामनुदिन विश्लेषशोकव्यथां ।।२६।। तियचस्तुणपर्णलब्धधृतयः सृष्टाः स्थलीशायिन
चितानंतरलब्धभोगविभवा देवाः समं भोगिभिः ।
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सामायिकपाठः।
मत्यानां विधिना विरुद्धमनसा वृत्तिः कृता सा पुनः
कष्टं धर्मयशःसुखानि सहसा या सूदते चिंतिता ॥२७॥ भजसि दिबिजयोपा यासि पातालमंग
भृमसि धरणिपूष्टुं लिपस्यसे स्वांतलक्ष्मीः । अमिलपसि विशुद्धां व्यापिनी कीर्तिकांतां
प्रशममुखसुखाधि गाइसे त्वं न जातु ॥२८॥ भोक्तं मोमिनितविनी सुखमधश्चितां पनीपत्स्यसे
प्राप्त राज्यमनन्यलभ्यविभवं क्षोणी चनीकस्यसे । लन्धुं मन्मथमंथराः सुरवधुनीकं चनीस्कद्यसे
रे भ्रांत्या झमृतोपमं जिनवचस्त्वं नापनीपद्यसे ॥२९॥ भीमे मन्मथलुब्धके बहुविधव्याध्याधिदीर्घद्रमे
रौद्रारंभहपीकपासिकगणे मृजद्भुतणद्विपि । मा स्वं चित्तकुरंगजन्मगहने जातु भ्रमी ईश्वर ?
प्राप्तं ब्रह्मपदं दुरापमपरैर्यद्यस्ति वांछा तव ॥३०॥ व्यसननिहतिर्ज्ञानोयुक्तिर्गुणोज्वलसंगतः
करण विजितिर्जन्मत्रस्तिः कषायनिराकृतिः । जिनमततिः संगत्यकिस्तपश्चरणाध्यान . तरितुमनमो जन्मांभोधि भवंतु जिनेन्द्र ! मे ॥३१॥ चित्रव्याचा विषयसुख तणास्वादनाशक्तचित्ता
. निसलो जनहरिणमणाः सर्चतः संचरद्भिः । खाद्यते यत्र गधी भवमरणजरास्वापदैर्भीमरूपै
समावस्या के कुम्भॊ भवगहनवने दुःखदावाग्नितते ॥३२॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रह
न वैद्या न पुत्रा न विप्रा न शका
न कांता न माता न भृत्या न भूपाः । यमालिंगितं रक्षितुं संति का
विचिंत्येति कार्य निजं कार्यमार्यैः ।। ३३ ।। विचित्ररुपायैः सदा पाल्यमानः __स्वकीयो न देहः समं यत्र याति । कथं बाह्यभूतानि वित्तानि तत्र
प्रबुद्धति कृप्तो न कुवारि मोहः ॥ ३४ ॥ शिष्टे दुष्टे सदसि विपिने कांचने लोष्ठवर्गे
सौख्ये दुःखे शुनि नखरे संग मे यो वियोगे । शश्वद्धीरो भवति सदृशो द्वेषगगव्यपोढः
प्रौढा स्त्रीव पृथितमहमस्तप्तसिद्धिः करस्था ॥ ३५ ।। अभ्यस्ताक्षकषायवैरिविजया विश्वस्तलोकक्रिया
बाह्याभ्येतरसंगमांशविा खाः कृत्वात्मवश्यं मनः । ये श्रेष्ठं भवभोगदेहविषयं गग्यमध्यासते
ते गच्छति शिवालयं विकलिला लब्ध्वा समाधि बुधाः ॥३६॥ संघस्तस्य न साधन न गुग्यो नो लोकपूजापरा
नो योग्यस्तृणकाष्ठशैलधरणीषष्ठे कृतः संस्तरः । कात्मैव विबुद्धयतामयमलस्तस्यात्मतच्चस्थिरो
जानानो जलदुग्धयोग्विमिदां देहात्मनोः सर्वदा ॥ ३७ ।। विगलितविषयः स्वं रिश्त बुध्यते यः
पथिकमिव शरीरे नित्यमात्मानमात्मा।
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सामायिकपाठः ।
विषमभवपयोधि लीलया लंघविवा पशुपदमिक सद्यो यात्यसौ मोक्षलक्ष्मीं ॥ ३८ ॥ बाह्य सौख्यं विषयजनितं मुच्यते यो दुरंत
स्थेयं स्वस्थं निरूपममसौ सौख्यमाप्नोति पूतं । योऽन्यैर्जन्यश्रुतिविरतये कर्णयुग्मं विधत्ते
तस्य च्छन्नो भवति नियतः कर्णमध्येपि घोषः ॥ ३९॥ संयोगेन विचित्रदुःखकरणे दक्षेण संपादिता
मात्मीयां सकलत्र पुत्र सुहृदं यो मन्यते संपदं । नानापायसमृद्धिवर्द्धनपरां मन्ये ऋगोपार्जितां
लक्ष्मीमेष निराकृतामितिगतिर्ज्ञाच्चा निजां तुष्यति ॥४०॥ यत्पश्यामि कलेवरं बहुविधव्यापारजल्पोद्यतं
तन्मे किंचिदचेतनं न कुरुते मित्रस्य वा विद्विषः । आत्मा यः सुखदुःखकर्म्मजनको नाऽसौ मया दृश्यते कस्याहं चत! सर्वसंग विकलस्तुप्यानि रूप्यामि च ॥ ४१ ॥ star शरीरकमिदं यन्नाश्यते शत्रुणा
सार्धं तेन विचेतनेन मम नो काप्यस्ति संबंधता । संबंध मम येन शश्वदचलो नात्मा स विध्वंसते न कापीति विधीयते मतिमता विद्वेषरागोदयः ॥ ४२ ॥ एकत्राऽपि कलेवरे स्थितिधिया कर्माणि कुर्व्वता गुर्ची दुःखपरंपरानुपरता यत्रात्मना लभ्यते । तत्र स्थापयता विनष्टममतां विस्तारेगी संपदं
का शक्रेण नृपेश्वरेण हरिणा न प्राप्यते कथ्यतां ॥ ४३ ॥
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१७७
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सिद्धान्तसारादिसंग्रह
ये भावाः परिवर्धिता विदधते कायोपकारं पुन
स्ते संसारपयोधिमज्जनपरा जीवापकारं सदा । जीवानुग्रहकारिणो विदधते कायापकारं पुन
निश्चित्येति विमुच्यतेऽनघधिया कायोपकारि त्रिधा ॥४४॥ आत्मा ज्ञानी परमममलं ज्ञानमासेव्यमानः
कायोज्ञानी वितगति पुनक़रमज्ञानमेव । सर्वत्रेदं जगति विदितं दीयते विद्यमानं
कश्चित्यागी न हि खकुसुम वापि कस्यापि दत्ते ॥४५॥ कांक्षतः सुखमात्मनोऽनवमितं हिंसापरकर्मभिः
दुःखोद्रेकमपास्तसंगधिपगाः कुर्वति विकामिनः । वाधां किं न विवर्द्धयति विविधैः कंटयनैः कुष्टिनः
सागावयवोपमर्दनपरः खर्जकषाकांक्षिगः ॥ ४६ ॥ व्यापार परिमुच्य सर्वमपरं रत्नत्रयं निर्मल
कुर्वाणो भृशमात्मनः सुहृदसावात्मप्रवृत्तोऽन्यथा । वैरी दुःसहजन्मगुप्तिभवने क्षिप्त्वा सदा यस्तै य
त्यालोच्येति स तत्र जन्मचकितः कायः स्थिरः कोविदः४७ भृढः संपदविष्ठितो न विपई संपत्तिविमिनी
दुबारां जनमर्दनीमुपयतीमात्मात्मनः पश्यति । वृक्षव्याघ्रतरक्षुपनगमान्याधादिभिः संकुलं
कक्षं वृक्षगता हुताशनशिखां प्रप्लोयन्तीमित्र ॥ १८ ॥ आत्मात्मानमशेषवाह्यविकलं ज्यालोकयन्नात्मना दुष्प्रापा परमात्मतामनुपमामापद्यते निश्चितं । नखर । ५ वन्दियह । ३ पाडयाते ।
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सामायिक पाठः
आत्मानं धनरूढकीचकचयः किं घर्षयात्मना वन्हित्वं प्रतिपद्यते न तरसा दुर्वारतेजोमयं ।। ४९ ॥ व्यासक्तो निजकाय कार्यकरणे यः सर्व्वदा यायते महात्मा स कदाचनापि कुरुते नात्मीयकार्योद्यमं । दुर्वारेण नरेश्वरेण महति स्वार्थे हठायोजिते
भीतात्मा न कथंचनाऽपि तनुते कार्य स्वकीयं जनः ॥५०॥
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लक्ष्मीकीर्तिकलाकला पललना सौभाग्यभोग्योदया
स्त्यज्यन्ते स्फुटमात्मनेह सकला एतैः सतामर्जितैः । जन्मांभोधिनिमज्ञिकर्मजनकैः किं साध्यते कांक्षितं
यत्कृत्त्वा परिमुच्यते न सुधियस्तत्रादरं कुर्व्वते ॥५१॥ या [प] देयविचारणाऽस्ति न यतो न श्रेयसामागमो
वैराग्यं न न कर्म्मपर्व्वतभिदा नाप्यात्मतत्त्वस्थितिः । तत्कार्य न कदाचनापि सुधियः स्वार्थोद्यताः कुर्व्वते शीत जातु नुनुत्सवो न शिखिनं विध्यापयंते बुधाः ॥ ५२॥ कामक्रोधविषाद मत्सरमद द्वेयश्रमादादिभिः
शुद्धध्यान विवृद्धिकारिमनसः स्थेयं यतः क्षिप्यते । काठिन्यं परितापदानचतुरैर्हेमो हुताशैरिव
त्याज्या ध्यान विधायिभिस्तत इमे कामादयो दूरतः ||५३||
व्यावृत्येन्द्रियगोचरो रुगद्दने लोलं चरिष्णुं चिरं
दुर्वारं हृदयोदरे स्थिरतरं कृत्त्वा मनोमर्कटं ध्यानं ध्यायति मुक्तये श्र मर्निर्मुक्तभोग हो नोपायेन विना कृता हि विधयः सिद्धिं लभते ध्रुवं ॥५४॥
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१८७ सिद्धान्तसारादिसंग्रहेचंदाग्रहतारकाप्रभृतयो यस्य व्यपायेऽखिला
जायते सुवनप्रकाशकुशला ध्वांतप्रतानोपमाः । यद्विज्ञानमयप्रकाशविशदं यद्धचायते योगिभि
स्तत्तत्वं परिचिंतनीयममलं देहस्थितं निक्षिलं ॥५५॥ मज्यंतेत्यशरीरमंदिमिदं ? मृत्युद्विपेन्द्रः क्षणा
दित्युच्चासमिषेण मानसबहिनिग्गत्य निर्गत्य किं । पश्यंतं न निरीक्षसेऽतिचकितं तस्सागतिं चेतना
वयनामरचेष्टितानि कुरुषे निधर्मकांद्यमं ॥५६॥ करिष्यामीदं कृतमिदमिदं कृत्यमधुना
करोमीति व्यग्रं नयसि सकलं कालमफलं। सदा रागद्वेषप्रचयनपर स्वार्थविमुखं
न जैनेविकृत्त्वे वचसि रमसे निवृतिकरे ॥ ५७ ॥ कुवाणोपि निरंतरामनुदिनं बाधां विरुद्धक्रियां
धर्मारोपितमानसैन रुचिभिर्व्यापद्यते कश्चन । थर्मायोधियः परस्परभिमे निति निष्कारणं
यत्तद्धर्ममपास्य नास्ति भुवने रक्षाकरं देहिनां ।। ५८ ॥ नानारंभपरायणैर्नरवररावर्य यस्त्यज्यते
दुःप्राप्योऽपि परिग्रहस्तुणमिव प्राणप्रयाणे पुनः । आदावेव विमुंच दुःखजनकं तत्वं विधा दूरत
श्वेतो मस्करिमोदकव्यसिकरं हास्यास्पदं मा व्यधाः ॥५९|| खाभिप्रायवशाद्विभिन्नगतयो ये भ्रातृपुत्रादयस्तांस्त्वं भीलयितुं करोषि सततं चिचप्रयासं वृथा
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सामायिकपाठः । गच्छंतः परमाणयो दश दिशः कल्पातयात रिताः __ शक्यते न कदाचनापि पुरुषैरेकत्र कर्तुं च ॥ ६० ॥ भोजभोजमपाकृता हृदय ! ये भोगास्त्वयाऽनेकधा
तास्त्वं कांक्षसि किं पुनः पुनरहो तबाऽग्निनिक्षेषिणः । वृतिस्तेषु कदाचिदस्ति तव नो तृष्णोदयं विभ्रतो
देशे चित्रमरीचिसंचयक्तेि वल्ली कुतो जायते ।। ६१ ॥ शूरोऽहं शुभधीरहं पटुरहं सर्वाधिकश्रीरहं
मान्योऽहं गुणवानहं विभुरहं पुंसामहमग्रीः । इत्यात्मन्नपहाय दुष्कृतकरी त्वं सर्वथा कल्पनां
शश्वद्धयाय तदात्मतत्वममलं नैःश्रेयसी श्रीर्यतः ॥ ६२ ॥ धृतविविधकषायग्रंथलिंगव्यवस्थं
यदि यतिनिकुरुवं जायते कर्मरिक्तं । भवति ननु तदानीं सिंहपोताऽविदार्य ? __ शशकनलकाने हस्तियूयं प्रविष्टं ॥ ६३ ॥ कष्टं वंचनकारिणीष्वपि सदा नारीषु वृष्णा पराः
शम्माशां न कदाचनापि कुधियो मन्त्री विपश्योराया । मुंचते मृगतृष्णकाष्विव मृगाः पानीयकांना यतो
धित मोहमनर्थदानकुशल पुंसामवार्योदयं ॥ ६४ ॥ पापाऽनोहसंकुले भवबने दुःखादिभिर्दुर्गमे
थैरज्ञानवशः कषायविपर्यस्त्वं पीडितोऽनेकधा । रे तान् ज्ञानमुपेत्य पूतमधुना विश्वंसयाऽशेषतो
विद्वांसो न परित्यजति समये शत्रूनव्हत्वा स्फुटं ।। ६५ ।।
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१८२
सिद्धान्तसारादिसंप्रहे
असिमसिकृषि विद्याशिल्पिवाणिज्यायोगे - स्तनुधनसुतहेतोः कर्म यादकरोषि । सकृदपि यदि ताह संयमार्थं विधत्से सुखममलमनंतं किं तदा नानुवेलं ॥ ६६ ॥
सुखजननपटूनां पावनानां गुणानः
भवति सपदि कर्त्ता सर्व्वलोको परिस्थः । त्रिदशशिव रिमृर्धाऽधिष्ठितस्येह पुंसः
स्वयमवनिरधस्ताज्जायते नाखिला किं || ६७॥
दिनकरकरजाले रौप्यमुष्णन्चमिदोः सुरशिखरिणि जातु प्राप्यते जंगमवं । न पुनरिह कदाचिद घोरसंसारचके
स्फुटमसुखनिधाने श्राम्यता शर्म्म पुंसा || ६८ || कार्यैः कर्म्मविनिर्मितैर्बहुविधैः स्थूलाणुदीर्घादिभि नात्मा याति कदाचनापि विकृति संबंध्यमानः स्फुटं । रक्तारक्तसितासितादिवसरावेष्टमानोऽपि किं
रक्तारक्त सितासितादिगुणितामापद्यते विग्रहः ॥ ६९ ॥ गौरो रूपधरो दृढः परिदृद्धः स्थूलः कृशः कर्कशो गीवाणी मनुजः पशुर्नरकभूः षंढः पुमानंगना । मिथ्यात्वं विदधासि कल्पनमिदं मृढोऽविबुध्यात्मनो नित्यं ज्ञानमयस्वभावममलं सर्व्वव्यपायच्युतं ॥ ७० ॥ सर्व्वारंभकषायसंगरहितं शुद्धोपयोगोद्यतं
तद्रूपं परमात्मनो विकलिलं बाह्यव्यपेक्षाऽतिगं ।
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सामायिकपाठः ।
१८३ तनिःश्रेयसकारणाय हृदये कार्य सदा नापरं ___ कृत्यं कापि चिकीर्षवो न सुधियः कुर्वति तध्वंसकं ॥७१॥ यो जागर्ति शरीरकार्यकरणे वृत्ती विधत्ते यतो
हेयादेगनिवारशून्यहरले नामनियापागलौ । खार्थ लन्धुमना विमुंचतु ततः शश्वच्छरीरादरं
कार्यस्य प्रतिबंधके न यतते निष्पत्तिकामः सुधीः ॥७२॥ भीतं मुंनति नांतको गतघृणो भैपीद्वथा मा ततः
सौख्यं जातु न लभ्यतेऽमिलपितं त्वं मामिलापीरिदं । अत्यागच्छति शोचितं न विगतं शोक कथा मा वृथा
प्रेक्षापूर्व विधायिनो विदधते कृत्यं निरथ कथं ||७३।। स्वस्थ कर्मणि शाश्वते विकलिले विद्वज्जनप्रार्थिते
संप्राप्य रहसात्मना स्थिरधिया स्वं विद्यमाने सति । बाझं सीख्यमवाप्तुर्मतविरसं कि खिद्यसे नश्वरं ।
रे सिद्ध शिवमंदिरे सति चरी मा मूढ ! मिक्षां भ्रमः॥७४॥ अभिलपति पवित्रं स्थावरं शर्म लब्धु--
धनपरिजनलक्ष्मी यः स्थिरीकृत्य मूढः । जिगमिषति पयोधेरेप पारं दुरापं
प्रलयसमयवीची निश्चलीकृत्य शंके ॥ ७५ ।। ये दुःखं वितरंति धोरमनिशं लोकद्वये पोषिता
दुर्वारा विषयारयो विकरुमाः सर्वांगशाश्रथाः । प्रोच्यते शिवकांक्षिभिः कथममी जन्मावलीवर्द्धिनो
दुखोद्रेकविवर्धनं न सुधियः कुर्वति शार्थिनः ॥७६॥
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१८४
सिद्धान्तसारादिसंग्रहेकुर्वाणः परिणाममेति विमलं स्वर्गापवर्गश्रियं
प्राणीकश्मलमुग्रदुःखजनिकां शुभ्रादिरीति यतः । गृहणाना ? परिणाममाद्यमपरं मुचंति संतस्ततः __ कुर्चतीह कुतः कदाचिदहितं हित्वा हितं धीधनाः ॥७७|| नरकगतिमशुद्धैः सुंदरैः स्वर्गवासं
शिवपदमनवयं याति शुद्धैरकर्मा । स्फुटमिह परिणामैश्चेतनः पोष्यमान
रिति शिवपदकामैस्ते विधेया विशुद्धाः ॥ ७८ ॥ श्वभ्राणामविसह्यमंतरहितं दुजेल्पमन्योन्यज
दाहच्छेदविभेदनादिजनितं दुःखं तिरश्चां परं | नृणां रोगवियोगजन्ममरणं स्वौकसा मानसं । विश्वं वीक्ष्य सदेति कष्टकलित कार्यामतिर्मुक्तये ।। ७९ ॥
कार्य रूपमिव क्षणेन सलिले सांसारिक सर्वथा सर्च नश्यति यत्नतेऽपि रचितं कृत्वाऽश्रमं दुष्करें ।
यत्तत्रापि विधीयते बत! कुतो मूढ ! प्रवृत्तिस्त्वया
कृत्ये कायि हि येवलश्रमकरे न व्याप्रियंते बुधाः ।। ८० ॥ चित्रोपद्रवसंकुलामुरुमलां निःस्वस्थतां संसृति
मुक्ति नित्यनिरंतरोन्नतसुखामापत्तिभिर्वजितां । प्राणी कोपि कपायमोहितमतिर्नो तत्वतो युध्यते
मुक्त्वा मुक्ति मनुत्तमामपस्था किं संसृतौ रज्यते ॥८१॥ रे दुःखोदयकारणं गुरुतरं बध्नति पापं जनाः कुर्वाणा बहुकांक्षया बहुविधा हिंसापराः षक्रियाः ।
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सामायिकपाठः ।
नीरोगत्वचिकीर्षया विदधतो नापथ्ययुक्तीरमी सर्वांगीणमहो व्यथादयकरं किं यांति रोगोदयं ॥ ८२ ॥
१८५
रौद्रैः कर्म्म महारितिर्त्तव १ वने योगिन् ! विचित्रैश्विरं नायं नावमवापितस्त्वमसुखं यैरुच्चकैः सदं । वान् रत्नत्रय भावनासिलतया न्यकृत्य निर्मूलतो राज्यं सिद्धिमहापुरेऽनवसुखं निष्कंटकं निर्विश ॥ ८३ ॥ यो बाह्यार्थ तपसि यतते ब्राह्ममापद्यतेऽसौ यस्त्वात्मार्थं लघु स लभते पूतमात्मानमेव । न प्राप्यन्ते वचन कलमाः कोद्र रोप्यमाणै-विज्ञायेत्थं कुशलमतयः कुर्वते स्वार्थमेव ॥ ८४॥ कांतासमशरीरजप्रभृतयो ये सर्वथाऽध्यात्मनो
भिन्नाः कर्मभवाः समीरणचला भावाद्विभीविनः । वैः संपत्तिमिहात्मनो गतधियो जानंति ये शर्मदां स्वं संकल्पवासेन ते विदधते नाकीशलक्ष्मीः स्फुटं ॥ ८५ ॥ यद्रक्तानां भवति भुवने कर्म्मधाय सां
नीरागाणां कलिमलमुखे तद्धि मोक्षाय वस्तु । यन्मृत्यर्थं दधिगुडघृतं संनिपाताकुलानां
नीरोगाणां वितरति परां वृद्धि पुष्टिं प्रकृष्टां ॥८६॥
सम्यग्दर्शनबोधसंयमतपःशीलादिभाजोपि नो
संक्केशो त्रिवि विभ्राणस्य विचित्ररत्न निचितं दुष्प्राप पारंपयः
संतापं किमुदन्वतो न कुरुते मध्य स्थितो वाडवः ॥ ८७ ॥
भवभृतो लोभानले विभ्रतः ।
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१८६
सिद्धान्तमारादिसंग्रहे
मोहांधानां स्फुरति हृदये ब्राह्यमात्मीयबद्धया
निर्मोहानां व्यपगतमलः शाश्वदात्मव नित्यः । यत्तभेदं यदि विविदिपा ते स्वकीय स्वकीय
म्र्मोह चित्त ! क्षपयसि तदा किं न दुष्ट क्षणेन ॥ ८८ ॥ स्वात्मारोपितशीलसंयमभरास्त्यक्तान्यसाहायकाः
कायेनापि विलक्षमाणहृदयाः साहायकं कुन्वते । तप्यंते परदुष्कर गुरुतपस्तत्रापि ये निस्पृहा
जन्मारण्यमतीय भूरिभयदं गच्छति ते निवृत्ति ।। ८९॥ पूर्व कर्म करोति दुःखमशुभं सौख्यं शुभं निर्मित
विज्ञायेच्यशुभं निहंतुमनसो ये पोषयते तपः । जायंते समसंयमैकनिधयस्ते दुर्लभा योमिनो
ये त्वत्रोभयकर्मनाशुनपरास्तेपां किमत्रोच्यते ॥९० ॥ विच्छेद्यं यदुदीर्य कर्मरमसा संसारविस्तारक
साधनामुदयागतं स्वयमुदं विच्छेदन कः श्रमः । यो गत्वा विजिगीपुणा बलक्ता वैरी हटाद्धन्यते
नाहत्या गृहमागतः स्वयमसी संत्यज्यते कोविदः ॥११॥ ब्रजति भृशमधस्ताद्गृह्यमाणेऽर्थजाते
गतभरमुपरिष्टात्तत्र संत्यज्यमाने । हतकहृदयतद्वद्येन ? यद्वत्तुलाग्रं
जहिहि दुरितहेतुं तेन संगं त्रिधापि ॥ ९२ ॥ सद्यो हंति दुरंतसंस्कृतिकरं यत्पूर्वकं पातकं
शुद्धयर्थ विमलं विधाय मलिनं तत्सेवते यस्तपः ।
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सामायिकपाठः ।
शुद्धि याति कदाचनापि गतधर्नासावद्यावर्जकं ? एकीकृत्य जलं मलाचिततनुः स्नातः कुतः शुद्धति ||१३||
१८७
लब्ध्वा दुर्लभभेदयोः सपदि ये देहात्मनोरंतरं
दग्ध्वा ध्यानहुताशनेन मुनयः शुद्धेन कर्मेधनं । लोकालोकविलो किलोकनयना भूत्त्वाद्विलोकार्चिताः पंथानं कथयंति सिद्धिवसतेस्ते संतु नः शुद्धये ॥ ९४ ॥ येषां ज्ञानकृशानुरुज्वलतरः सम्यक्त्ववातेरितो विस्पष्टीकृत सर्व्वतच्चसमितिर्दग्धे विपापैधसि । दत्तोत्तप्तिमनस्त मस्त तिहतिर्देदीप्यते सर्व्वदा
नाञ्चर्यं रचयंति चित्रचरिताश्चारित्रिणः कस्य ते ॥ ९५ ॥ यावच्चेतसि बाह्यवस्तुविषयः स्नेहः स्थिरो वर्तते
तावन्नश्यति दुःखदानकुशलः कर्मप्रपंचः कथं । आर्द्रत्वे वसुधातलस्य सजटाः शुष्यति किं पादपा भृत्स्वत्तापनि पातरोधनपराः शाखोपशाखान्विताः ॥ ९६ ॥ चक्री चक्रमपाकरोति तपसे यत्तन्न चित्रं सतां सूरीणां यदनश्वरीमनुपमां दत्तं तपः संपढ़ें तच्चित्रं परमं यदत्र विषयं गृह्णाति हिच्या तपो दत्तेऽसौ यदनेकदुःखमवरे भीमे भवांभोनिधौ ॥९७॥ रामाः पापा विरामास्तनयपरिजना निम्मिता बम्हनथ मात्रं व्याध्याधिपात्रं जितपवनजवा मूढलक्ष्मीरशेषा किं रे दृष्टं त्वयात्मन् ! भवगहनवने भ्राम्यता सौख्यहेतु
नवं स्वार्थनिष्टो भवसि न सततं बाह्यमत्यस्य सर्व्व ॥ ९८
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१८८
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
सम्यक्त्वज्ञानत्तत्रयभनयमृते ज्ञानमायण मूढः
लंबित्वा जन्मदुर्ग निरुपमितसुखां ये यियासंति सिद्धिं । ते सिश्रीपति नूनं निजपुरमुदधि बाहुयुग्मेन तीवो
कल्पांतोद्भूतबाताभितजलचरासारकीणान्तराल ॥ ९९ ।। थे ज्ञाच्या भवमुक्तिकारणगण बुद्ध्या सदा शुद्धया
कृत्वा चेतसि मुक्तिकारणगणं वेधा विमुच्यापर। जन्मारण्यनिमदनक्षमभर जैन तपः कुर्वते
तेषां जन्म च जीवितं च सकलं पुण्यात्मनां योगिनां॥१०॥ यो निःश्रेयसशर्मंदानकुशलं संत्यज्य रत्नत्रयं
भीम दुर्गमवेदनोदयकर भोग मिथः सेवते मन्ये प्राणविपर्ययादिजनक हालाहल वल्भते
सद्यो जन्मजरांतकक्षयकर पीयूषमत्यस्य सः ॥१०॥ भवति भविनः सौख्यं दुःखं पुराकृतकर्मणः ___ स्फुरति हृदये रागो द्वेषः कदाचन मे कथं । मनसि समतां विज्ञायेत्यं तयोर्विदधाति यः
क्षपयति सुधीः पूयं पापं चिनोति न नूतनं ॥१०२॥ क्षपयितुमनाः कर्मनिष्टं तपोभिरनिंदितै
नयति रमता वृद्धि नीचः कपायपरायणः । बुधजनमतैः किं भैपश्यनिमुदितुमुद्यतः
प्रथयति गर्द तं नापथ्यात् कर्थितविग्रहं ।। १०३ ॥ सद्रत्नत्रयपोषणाय वपुषस्ताज्यस्य रक्षा परा
दत्तंयेऽशनमात्रकं गतमलं धार्थिमितभिः ।
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सामायिकपाठः ।
लज्जते परिगृह्य मुक्तिविषये बद्धस्पृहा निस्पृहास्ते गृह्णन्ति परिगृहं दमधराः किं संयमध्वंसकं ॥ १०४ ॥ ये लोकोत्तरते च दर्शनपरां दूतीं विमुक्तिश्रिये रोचते जिनभारतीमनुपमां जल्पति शृण्वंति च लोके भूरिक पायदोषमलिने ते सज्जना दुर्लभा ये कुति तदर्थमुत्तमधियस्तेषां किमत्रोच्यते ॥ १०५ ॥ ये स्तूयां जन्मसिंधोरसुखमितिततेलीलया तारयिच्या
नित्यं निर्वाणलक्ष्मी बुधसमितिमतां निर्मलामर्पयंते । स्वाधीनास्तेऽपि यत्तदव्यपगतमतिभिज्ञानसम्यक्त्व पूर्वाः पोष्यंते नान्यपेक्षां मम परममुभौ विद्यते नात्र चित्रं ।। १०६ ।। ध्रुवापायः कायः परिभवभवाः सवविभवाः सानार्या भार्याः स्वजनतनयाः कार्य विनयाः असारे संसारे विगतशरणे दत्तमरणे
दुराराधे गाधे किमपि सुखदं नापदपदं ॥ १०७ ॥ असुरसुरविभूनां हंति कालः श्रियं यो
भवति न मनुजानां विनतस्तस्य खेदः विचयति गिरीणां चूलिकां यः समीरो गृहशिखरपताका कंपते किं न तेन ।। १०८ । सकललोकमनोहरणक्षमाः करणयच नजीवितसंपदः
कमलपत्रपयो लव चंचला:
किमपि न स्थिरमस्ति जगत्त्रये ।। १०९ ।। बलवतो महिषाविपवाहनो निरुनिलिंपपतीनपहंति यः
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सिद्धान्तसारादिसंप्रहे
अपरमानववर्गविमर्दने,
भवति तस्य कदाचन न श्रमः ।। ११० ॥ स्वजनसंगतिरेव विताविनी __ भवति यौवनिका जरसा रसा विपदवैति सखी वच संपर्द
किमपि शर्माविधायि न दृश्यते ? ॥१११।। सचिवमंत्रिपदातिपुरोहिता
त्रिदशग्वेचरदैत्यपुरंदराः। यमभटेन पुरस्कृतमातुरं
भवभृतं प्रभवंति न रक्षितुं ॥ ११२ ॥ वलकृतोऽशनतोपि विपद्यते
यदि जनो न तदापरथः कथं । यदि निहति शिशुं जननी हिता
न परमस्ति तदा शरणं ध्रुवे ।। ११३ ॥ विविधसंग्रहकल्मषमंमिनो
विदधतेंगकुटुंबकहेतवे । अनुभवत्यसुख पुनरेकका
नरकवासमुपेत्य मुदुस्सह ॥ ११४॥ चसनवाहनभोजनमदिरैः
सुखकरैश्विरवासमुपासितं । ब्रजति यत्र सम न कलेवरं
किमपरं बत! तत्र गमिष्यति ।।११५॥ खचानागसदो दमयंति ये कथममी विषया न परं नरं ।
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सामायिकपाठः।
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समददंतिमदं दलयति थे
न हरिण हरयो रहयंति ते ॥११६।। मरणमेति विनश्यति जीवित __ द्युतिरटौति जरा परिबर्द्धते प्रचुरमोहपिशाचवशीकृत
स्तदपि नात्महिते रमते जनः ॥११७।। जननमृत्युजरा नलदीपित
जगदिदं सकलोऽपि विलोकते । तदपि धर्ममतिं विदधाति नो
रममना विषयाकुलिनो जनः ॥११८॥ कचन भजति धर्म काप्यधर्म दुरतं ___ क्वचिदुभयमने शुद्धबोधोऽपि गेही कथमिति गृहवासः शुद्धिकारी मलाना
मिति विमलमनस्कैस्त्यज्यते स त्रिधापि ॥११९।। सर्वज्ञः सर्वदर्शी भवमरणजरांतकशोकव्यतीतो लब्धारमीयस्वभावः क्षतपकलमलः शश्वदात्मानपायः।
दक्षैः संकोषिताक्षर्भवमृति चकिर्लोकयात्रानपेक्षब्रष्टानाधात्मनीनस्थिरविशदमुखप्राप्तये चिंतनीयः ॥१२०॥ वृत्तचिंशशतेनेति कुर्वता तचभावनां।। सद्योऽमितगतेरिश नितिः क्रियते करे ।। १२१ ।।
इति द्वितीयभावना समाप्ता । *
* अस्थाप्ये कैव' ' प्रेसकापो' संगाप्ता सापे प्रायोऽशुदा एव ।
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सिरिपउमदिमृणिणा रइयं
धम्म-रसायणं ।
णमिण देवदेवं धरणिंदणरिंदईदथुपचलणं । णाणं जस्स अपंत लोयालोयं पयासेइ ॥१॥
नत्वा देवदेवं धरणेन्द्रनरेन्द्रेन्द्रग्तुतचरणं ।
ज्ञानं यस्यानन्तं लोकालोकं प्रकाशयति || चुहजणमणोहिराम जाइजरामरणदुक्खणामयरं । इहपरलोयहिज (दत्थं तं धम्मरसायन योच्छ ॥२॥
बुधजनमनोऽभिरामं जाति जरामरणदुःखनाशकरं ।
इहपरलोकहितार्थ तं धर्मरसायनं वक्ष्ये ॥ धम्मो तिलोयबंधू धम्मो सरणं हवे तिडयणस्स | घम्मेण पृयणीओ होइ णरो सबलोयस्त ॥३॥
धर्मः त्रिलोकबन्धुः धर्मः शरणं भवेत् त्रिभुवनस्य ।
धर्मेण पूजनीयः भवति नरः सर्वलोकस्य ।। धम्मेण कुल विउलं घम्मेण य दिव्यरूवमारोग्गं । घम्मेण जए कित्ती धम्मेण हो। सोहम् ॥ ४ ॥
धर्मेण कुलं विपुलं धर्मेण च दीव्यरूपमारोग्यं ।
धर्मण जगति कांति: पण भवति सौभाज्यं ॥ वरभवण जाणवाहणरायणासणयाणभोयणाणं च । वरजुद्दात्युभूसण संपत्ती होइ धम्मेण ॥५॥
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धम्म-रसायणं ।
१९३ -rrrrrrr-~~~~~~~rrrrrrrrrr......rrrrrrrrr-v-mwar वरभवनयानवाहनशयनासनयानभोजनानां च ।
वरयुवतियस्त्रभूषणानां संप्राप्तिः भवति धर्मेण ।। तं गतिथ जंण लब्भइ धम्मेण कएण तिहुयणे सयले । जो पुण धम्मदरिदो सो पावइ सयदुक्खाई ।। ६ ।।
तन्नास्ति यन्न लभते धर्मेण कृतेन त्रिभुबने सकले |
यः पुनः धर्मदरिद्रः स प्राप्नोति सर्वदुःखानि ।। जो धम्मं ण करंतो इच्छइ मुक्खाई कोइ पिन्बुद्धी । सो पीलऊण सिकर्य इच्छइ तिल्लं णरो मृढो ॥७॥
यो धर्भमकुर्वन् इच्छति सुखानि कश्चित निद्धिः !
स पालयित्वा सिकतामिच्छति तैलं नरो मूढः सब्यो वि जणो धम्मं घोगई पा य कोइ जागइ अहम्मं । धमाधम्मविसेसं पाऊण णरेण घेतच ॥८॥
सर्वोऽपि जनः धर्मे बोययति न च कश्चिजानाति अधर्म ।
धर्माधर्मविशेष ज्ञास्या नरेण गृहीतव्यं । खीराई जहा लोए सरिसाई हानि वष्णणामेण । रसमेएण य ताई वि पाणागुणदोमजुत्ताई ॥९॥
क्षीराणि यथा लोके सहशानि भवन्ति वर्णनामभ्यां ।
रसभेदेन च तान्यपि नानागुणदोषयुक्तानि || काई वि खीराई जए हवंति दुक्खावहाणि जीवाणं । काई वि तुहि पुहिं करति वरचण्णमारोग्ग ॥ १० ॥
कान्यपि क्षीराणि जगति भवन्ति दुःखप्रदानि जीवानां ।
काम्यपि तुष्टि पुष्टिं कुर्वन्ति वरवर्णभारोग्यम् || १ घोसय ण पुस्तके पाठः । २ धम्मथम्म पुस्तके पाठः ।
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१९४ -----...............---
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
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धम्मा य तहा लोए अणेयमेया हवति पायच्या। णामेण समा सम्वे गुणेग पुग उत्तमा केई ॥११॥
धर्माश्च तथा लोके अनेकभेदा भवन्ति ज्ञातव्या ।
नाम्ना समा सर्वे गुणेन पुनरुत्तमाः केचित् || पति वेइ दुक्ख पारयतिरियकुमाणुस्सजोणासु। पावति पुणो दुक्ख केई पुणु हीणदेवत्तं ॥ १२ ॥
प्राप्नुवन्ति केचिदुःख नारकतिर्यक्जुमानुषयोनिषु ।
प्राप्नुवन्ति घुनर्दुःख केचित् पुनः हीनदेवत्वे ॥ पावंति केइ धम्मादो माणुससोक्खाई देवसोक्खाई । अन्वाबाहमणोवमअणंतसोक्ख च पाति ।। १३ ॥ प्राप्नुवन्ति केचिद्धर्मत: मानुपसाँख्यानि देवसौख्यानि ।
अव्याबाधमनुपमानन्तसौख्यं च प्राप्नुवन्ति ।। तम्हा हु सव्वधम्मा पक्खियच्या गरेण क्रुसलेण सो धम्मो गहियन्वो जो दोसेहिं विवन्जिओ विमलो॥१४॥
तस्माद्रि सर्वधर्माः परीक्षितव्या नेरण कुशलेन ।
स धर्मो गृहीतव्यो यो दोपैर्विवजितो विमलः ॥ जत्थ वहो जीवाणं भासिजइ जत्थ अलियवयण च।। जत्थ परदब्बहरणं सेविज्जइ जत्थ परयाणं ।। १५ ।।
यत्र क्यो जीवानां भाष्यते यत्रालीकवचनं च । यत्र पर द्रव्यहरणं सेव्यते यत्र पराङ्गना ।। बहुआरंभपरिग्गहगहणं संतोसज्जियं जन्थ । पंचुंबरमहुमांसं भक्खिज्जइ जस्थ धम्मम्मि ॥ १६ ॥
बव्हारंभपरिग्रहग्रहणे सन्तोषयर्जितं यत्र । पंचोदुम्बरमधुमांसानि भक्ष्यते यत्र धर्मे ।।
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धम्म-रसायणे ।
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डंमिजइ जत्थ जणो पिज्जा मज च जत्थ बहुदोस । इच्छति सो विधम्मो केह य अण्णागिणो पुरिसा ॥१७॥
दम्भ्यतं यत्र जन: पीयते मद्ये च यत्र बहुदोपं ।
इच्छान्त तमपि धर्म केचिच्च अज्ञानिनः पुरुषाः ॥ जइ एरिसो वि धम्मो तो पुण सो केरिसो हवे पावो । जइ एरिसेण सग्गो तो णरयं गम्मए केण || १८॥ यद्येतादशोऽपि धर्मस्तर्हि पुनः तत्कीदृशं भवेत्पापं ।
यद्येतादृशेन स्वर्गः तर्हि नरके गम्यने केन । जो एरिसियं धम्म किञ्जइ इच्छेइ सोक्ख भुजेउं । वावित्ता णियाई सो इच्छः अबकलाई ।। १५ ।।
य एतादर्श धर्मं करोति इच्छनि सौल्यै भोक्तुं ।
उप्त्वा निम्बतरं स इक्छति आम्रफलानि ।। 'धम्मोत्ति मण्णमाणो करेड़ जो एरिसं महापार्य । सो उप्पजइ पारए अपोय दुक्खाबहे भीमे ॥२०॥
धर्म इति मन्यमानः करोति यः एतादृशं महापापं ।
स उत्पद्यत नरके अनेकदुःखपथे भीमे ।। तत्थुष्पण संत सहसा तं पक्खिऊन पोरइया । सरिझग पुचवहरं धाति समंतदो भीमा || २१ ।।
तत्रोत्पन्नं सन्तं सहसा तं प्रेक्ष्य नारकाः ।
स्मृत्वा पूर्ववर धावन्ति समन्ततो भीमाः ।। असिसुफरसमोग्गरसत्तितिम्ले हैं सेल्लकोंतेहिं । कोहेण पजलंता पहरंति सरीरयं तस्स ॥२२॥
असिसुफरशमुद्गरशक्तित्रिशूलैः शेल्ल कुन्तैः । क्रोधेन प्रज्वलन्तः प्रहरन्ति शरीरकं तस्य ।।
असिमुफरसमा पहरति मालकुन्तैः ।
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१९६ सिद्धान्तसारादिसंग्रहगद्दापहारपियो गुल्छं गंगूग हिगले पाद । अइकंटएहिं तत्थ विभिज्जइ तिक्खेहिं सम्बंग ॥ २३ ॥ गदाप्रहारविद्धः मूछी गत्वा महीतले पतति ।
अतिकंटकैः तत्र विभिन्द्यते तीक्ष्णैः सर्वाङ्गं । लण चेयणाए पुणरवि चिंतेइ किं इमे सब्वे । पहरति मझ देह जता कड्यवयणाई ।। २४ ।।
लम्व्या चेतना पुनरपि चिन्तयति किं इमे सर्वे । प्रहरन्ति मम देह जत्यन्त: कटु कवचनानि | देवयपियरणिमिन मंतोसहिजागमयणिमित्तेण । जं मारिया वराया अणेय जीवा मए आसि ॥२५||
देवतापितॄनिमित्त मंत्राषधियागमयनिमित्तेन । __ ये मारिता बराका अनेकजीवा मया आसन् ।। जं परिमाणविरहिया परिगहा गिहिया मए आसि । जं खाचं महमंसं पंचुंवर जिव्हलुद्रेण ।। २६ ॥ ___यत् परिमाणविरहिताः परिग्रहाः गृहीता मया आसन् ।
यत् खादितं मधुमांसं पंचोदुंबराणि जिव्हालुब्धेन । जै भासियं असच्चं तेणिक मए कयं आसि । जं तिलमेत्तसुहत्थं परदार सेवियं आसि ।। २७ ।।
यद्राषितं असत्यं स्तेनकृत्यं मया बात आसीत् । यत्तिलमात्रमुखार्थ परदाराः सविता आसन् । जे पीयं सुरयाणं च जणो डंमिओ मए सध्यो । तस्स हु पावस्त फलं जं जायं एरिसं दुक्खं ।। २८||
यरपीता सुरा यश्च जनो दंभितो मया सर्वः । तस्य हि पापस्य फलं यज्जातं एतादृशे दुःखम् ।।
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धम्म-रसायणः ।
पाऊण एव सवं पुन्वभवे जं कयं महापावं । अइतिव्ववेयणाओ असहंतो णासए सिघं ॥ २९ ॥
३ सर्व कृती गागा ! अतितीवेदना असहमानः नश्यति शीघ्र सो एवं णासंतो णरइयभयेण असरणो संतो। पइसइ असिपत्तवणे अणेय दुखावहे भीमे ॥ ३० ॥
स एवं नश्यन् नारकभयेन अशरणः सन् ।
प्रविशति अभिपत्रवन अनेकदुःस्वपये भीमे ॥ तत्थ वि पडंति उरि फलाई जहाई असहणिज्जाई । लग्गति जत्थ गत्ते सड़ चुण्णं तस्य कुन्वति ॥ ३१ ।। तत्रापि पतन्ति उपरि 'फलानि जटानि असहनीयानि ।
लगति यत्र गाने सकृच्चूर्णं तत्र कुर्वन्ति ॥ पत्ताई पडंति तहा खंडयधारच सुइ तिक्खाई । ताई वि छिंदंति पुणो अंगोवंगाई सब्वाई ॥ ३२ ॥
पत्राणि पतन्ति तथा बनधाराबत् सुष्टु तीक्ष्णानि ।
तान्यपि छिन्दन्ति पुनः अङ्गोपाङ्गानि सर्वाणि ॥ णीसरिऊ सो तत्थ वि असहंतो एरिसाई दुक्खाई। वेएण धावमाणो पन्वयसिहर समारुहइ ॥ ३३ ।। निःसृत्य स ततोऽपि असमान एतादृशानि दुःखानि ।
बेगेन धावन् पर्वतशिखरं समारोहति ॥ तत्थ वि पव्वयसिहरे गाणाविहसावया परमभीमा। तिक्षणहकुडिलदाढा खादति सरीरय तस्स ॥ ३४ ॥
तत्रापि पर्वतशिखरे नानाविधशावफा: परमभीमाः | तीक्ष्णनखकुटिलदाढाः खादन्ति शरीरं तस्य ।।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
तेसिं भण पुणो धावंतो उत्तरेह भूमीए । गच्छद बेयरणीए तिन्छाए पीडिओ संतो ॥ ३५ ॥ तेषां भयेन पुनः पावन् उत्तरधि जौ !
गच्छति चैतराख्यां तृष्णया पीडितः सन् ॥ सुक्को विजिज्झकंठो तत्थ जलं गेहिऊण पित्रमाणो । उहेण तेण उज्झ हत्थम्मि मुहम्म ओठम्मि || ३६ || शुष्कः विध्यकण्ठः तत्र जलं गृहीत्वा पिबन् । उष्णेन तेन दह्यते हस्तेषु मुले ओष्टे || क्खाए संत तो अलहतो किंचि अण्णमाहारं । वेयरणीय कूले गिव्हिव्या महिय खाइ ॥ ३७ ॥ . बुभुक्षया संतप्तः अलभमानः किंचिदन्नमाहारं । वैतरण्याः कुलं गृहीत्वा मृत्तिका खादति || ताए पुणो वि उज्झह लोहंगा रेहिं पज्जलंताए । घोराए कटुपाअइययसाणगंधार ॥ ३८ ॥ तया पुनरपि दाते लोहाङ्गः प्रज्वलन्या | घोरया कटुकपूतिमयश्वगन्धया ॥
सो एवं अच्छंतो इकुले पिच्छिऊण गान्इया । कडुबाई जपमाणा पुणरवि धावंति पाविद्वा ॥ ३९ ॥ तमेवं तिष्ठन्तं नदीकुले दृष्ट्वा नारकाः ।
कटुकानि जल्पन्तः पुनरपि चावन्ति पापिष्ठाः |
der वताए पतच तेलव्य पज्जलंताए । वेयरणीए मज्झे पति अणप्यवसिया हु ॥ ४० ॥ वेगेन वहन्त्याः प्रतप्ततैलयत् प्रज्वलन्त्याः । वतरण्या मध्ये प्रविशति अनात्मयशिका हि ||
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धम्म-रसायणं ।
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तत्थ वि पावह दुक्खं डझंतो पजलंतसलिलेण । छोडीजंतसरीरो तिक्खाहिँ सिलाहिँ घोराहि ॥४१॥
सत्रापि प्राप्नोति दुःख दहन् प्रचलितसलिलेन । स्पृष्टशरीर बीमाभिः शिभिः को मिः ।। सो एवं बुद्धंतो कह त्रि किलेसेहि तत्थ पीसरए । णीसरिओ विहु संतो धरति बंधति णेरड्या ।। ४२।।
स एवं ब्रुडन् कथमपि केशै: तता निःसरति । निःसृतमपि हि सन्त वन्ति बध्नन्ति नारकाः ।। जस्स रडतस्स पुणो उपहाए मिक्खंति सिगदाए । उद्धरिऊण सदेहं णासह तं दुक्खमसहतो ॥ ४३ ।।
तं रुदन्तं पुनः उष्णायां निवनन्ति सिकतायां ।
उत्थाय स्त्रदेहं नाशयति नं दुःस्वमसहमानः ॥ पुणरवि धरति भीमा गेरड्या तस्स पावयम्मस्स । मस्सउमछियं ? करति ह छुहंति तह खारयंकम्मि ॥४४॥
पुनरपि धरन्ति भीमा नारकास्तं पापकमाणे ।
.... .... .... .... .... .... .... .... .. । णीसरिऊण बराओ धाासंतो खारयंकमडओ ? । पुच्चुत्तकमेण पुणो धरति ते तस्स णारइया ॥४५॥
निःसृत्य बराक: नश्यन् .... .... .... .... | पूर्वोक्तक्रमेण पुनः परन्ति ने ने नारकाः || मरणभयभीरूयाणं जीवाणं जो हू जीवियं हरइ । परयम्मि पापयम्मी पावइ तह बहुविहं दुक्खं ॥ ४६ ॥
मरणभयभीरूणां जीवानां यो हि जीवित हरति । नरके पापकर्मा प्रामोति तथा बहुविध दुःखं ।।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
पीलंति जहा इक्खू जैते छहिऊण तस्स अवसस्स । कुवंति तुणं ( ण्ण) चुण्णं सबसरीरं मुसंढीहि ।। ४७॥
पेलयन्ति यथा इथून् यंत्रे निधाय तमन्ना । कुर्वन्ति चूर्णचूर्ण सर्वशरीरं मुशालः । चक्केहि करकचेहिं य अंग फाईति रोवमाणस । सिंचति पापयम्मा पुरवि खारेषा सलिलेण ॥४८॥
चः क्रकचैश्च अङ्गं विदारयन्ति मदत । सिंचन्ति पापकर्माण: पुनरपि शारेग सलिलेन ।। चंपंति सब्बदेहं तिक्खसलाएहि अग्गिवण्णाहिं । णसंधिपएसेसु य भिंदति जलति मईहिं ।।४९ ।। छिदेति सदेहं तीक्ष्णशलाकाभिः अग्निवर्णाभिः ।
नखसन्धिप्रदेदोपु च भिंदन्ति ज्वलंताभिः सूचीभिः ॥ पाडित्ता भूमीर पाएहि मलति पावयम्मस्य । सिंघाडयाण उवरिं अंग बेएण लोदंति ॥५०॥
पायित्वा भूमौ पाद: मलन्ति पापकर्माण । सिंघाटकानामुपरि अंगे बेगेंन लोदन्ति ! ।। अलियस्स फलेण पुणो गीयाए चंपिदण पापहि । तस्स य खणंति जीहा समृला हु पारइया ।। ५१॥
अलीकस्य फलेन पुनः.......चंपित्वा पादैः ।
तस्य च खुनन्ति जिव्हां समूलां हि नारकाः ॥ खंडति दो वि हत्या तेणिकफलेपा तिक्खवंसीए । मूलम्मि छुहंति पुणो णारझ्या सुटु तिक्खेहिं ॥ ५२ ।।
खंडयन्ति द्वावपि हस्तौ स्लैफन्यलेन तीक्ष्णवेश्या । शूलै: स्पर्शयन्ति पुन: नारकाः सुख तीणैः ।।
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धम्म-रसायणं ।
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परदारस्स फलेण य आलिंगावात लोहपडिमाओं। ताओ डहंति अंग तत्ताओ अग्गिवण्णाओ ॥५३ ।।
परदाराणां फलेन च आलिङ्गयान्ति लोहप्रतिमाः ||
ताः दहन्ति अंग तप्ता: अग्निवर्णाः || तसाई भूसणाई चिने परिहावंति अग्गिवण्गाई । ताइ वि डहति अंग परमहिला (हि) सेण फलेण ।। ५४ ॥
तप्तानि भूषणणानि चिसे परिवारयन्ति अग्निवर्णानि ।
तान्यपि दहन्ति अंग परमहिलामिलापे फलन || तस्स चडावंति पुणो णारइया कूडसम्मलीयाओ। तस्थ वि पावइ दुक्खं फाडिजंतम्मि देहम्मि ।। ५५ ॥
तं आरोहयन्ति पुनः नारकाः कूटशाल्मलिषु । तत्रापि प्राप्नोति दुःखं चिदारित देहे || जे परिमाणविरहिया परिगहा गेहिया भवे अण्णे। तेसि फलेण गल्य सिलि चडावंति खंधम्मि ॥५६॥
ये परिमाणविरहिताः परिहा गृहीता भने अन्यस्मिन् । तेषां फलेन गुरुका शिक्षा परन्ति स्कन्धे । पायंति पज्जलंतं महुमज्जफलेण कलयं ? घोरं । पंचुंबरफलभक्खणफलेण सावति अंगारं ॥ ५७ ॥
पाययन्ति प्रज्वलन्त मधुमद्यफलेन लोहरसं घोरं । पंचोदुन्चरफलमक्षणफलन स्वादयन्ति अङ्गाराणि ॥ मांसाहारफलेण य सम्बंग सुद्दउच्च पोलंति ।। बल्लूरम्मि पित्तया वा? कप्पंति अणप्पसियस्स ।।५८ ।। मासांहारपलेन च सर्याङ्ग................ ।
...........कम्पयन्तिअनामयशस्य ||
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सिद्धान्तसासदिसंबहे
कुंभीपागेसु पुणो देहं पर्षति पावयम्मस्स । पीसति पुणो पावा जे खंध को वि भोगच्छी ।। ५९ ॥
कुंभापाकेषु पुनः देहं पाचयंति पापकर्मणः । पेषयति पुनः पापा यस्कन्धं कोऽपि भोगस्त्रीं ।।। भूमीसमं देह अल्लय चम्मं च तस्स खिल्लित्ता । धावंति दुहहियया तिक्खतिमूलेहि णाझ्या ।। ६० ।।
चाबन्ति दुहव्यास्तीक्ष्णात्रिशूलै: नारकाः ।। खायति साणसीहावयवम्घा अयमहिदंतेहिं । अहावया सियाला मज्जारा किण्हसप्पा य ।। ६१ ॥
खादन्ति असिंहवृकयाना........दन्तैः ।
अष्टापदाः शगाला मार्जाराः कृश्णसपाय ।। बायस्सगिर्कका पिपीलिया तहा डंमा । मसगा य महुयरीओ जलुभाओ तिक्खतुंडाओ ॥ ६२ ॥
वायसगृध्रककाः पिपालिका मत्कुगास्तथा दंशाः ।
मशकाश्च मधुकर्यः जन्कास्तीक्ष्णतुण्डा: || दंडंति एक्कपच्वं बदंडया हि णारइया ? | पुवकयपावयम्मा भासंता कइयवयणाओ ।। ६३ ।।
दंडयन्ति एकपर्व बहुदंडका हि नारकाः।
पूर्वकृतपापकर्माणो भाषमाणाः कटुकवचनानि ।। णारइयाणं वे छेससहावेण होइ पावाणं । मज्जारम्सयाणं जह बेरं उल्लसप्याणं ॥ ६४ ।।
नारकाणां वैरं क्षेत्रस्वभावेन भवत्ति पापानां । मार्जारमूषकानां यथा वैरं नकुलसपीगा ।।
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धम्म- रसायणं ।
सव्वे चि य पोरइया पुंसया होंति हुंडठाणा । सच्चे व मीमरुवा दुल्लेसा दन्त्रभावेण ॥ ६५ ॥
सर्वेऽपि च नारका नपुंसका भवन्ति हुंडकसंस्थानाः । सर्वेऽपि भीमरूपा दुर्लक्ष्या द्रव्यभावेन ॥ णिरए सहाव दुक्ख होड़ सहावेण सीग्रउण्डं च । नह हुति दुस्सहाओ घोराओ भुक्खण्हाओ ।। ६६ ॥ नरके स्वभावेन दुःखं भवति स्वभावेन शीतोष्णे च | तथा भवतः दुःसहे वारे क्षुष्णं || जइ वि खिविज्ने कोई परए गिरिरायमेत लोहंडं । धरणियलमपावेंतो उन्हेण बिलिजम सच्च ॥ ६७ ॥ यद्यपि क्षिपेत् कचित् नाके गिरिराजमात्र लोखंडे | धरणीतलमप्राप्नुवन्न विलीयते सर्वः || तितियमेतो लोहो पज्जलिओ सीयणरयमज्झम्मि | जड़ पिक्खित्रिजे कोई सडिज भूमिमपावेतो ॥ ६८ ॥ तावन्मात्रं लोहं प्रज्वलितं शीतनरकमध्ये |
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यदि प्रक्षिपेत् कथित वनभवति भूमिमप्राप्नुवन् ॥1 रयाणं तण्हा तारसिया होड पावयमाणं । जा सव्वमुहिं पीएहिं ण उवसमं जाइ ॥ ६९ ॥ नारकाणां तृष्णा तादृशी भवति पापकर्मणां । या सर्वसमुद्रेषु च पनि उपशमं याति ॥ वारिसिया होड़ छुहा परयम्मि अणोवमा परमधोरा | जा तिहुयणे वि सयले खद्धम्म ण उवसमं जाइ ॥ ७० ॥ तादृशी भवति क्षुत् नरके अनुपमा परमबोरा |
या त्रिभुवनेऽपि सकले खादितें न उपशमं याति ॥
१ द्रवीभवति । २ दत्रीभूतः ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
चुण्णीकओ वि देहो तक्यणमेत्तेण होई संपुण्णो । तेसिं अउष्णयाले मिच्चू ण होह पाना ॥ ७१ ।।
चूर्णीकृतोऽपि देहस्तक्षणमात्रेण भवति सम्पूर्णः ।
तेषामपूर्णकाले मृत्युन भवति पापानां || उप्पण्णसमयपहुदी आमरणतं महति दुक्खाई । अच्छिणिमीलयमेत्तं सोकर ण लहंति णेरइया ||२|| उत्पन्नसमयग्रभत्यामरणान्तं सहते दुःखानि 1
अक्षिनिमालनमात्रं सौख्यं न लभन्ते नारकाः ।। एवं णरयगईए बहुप्पयाराई होति दुक्खाई । बहुकालेण व ताई ण य सक्किजाते वोउं ॥ ७३ ।।
एवं नरकगतो बहुप्रकाणि भवन्ति दुःखानि । बहुकालेनापि तानि न च शन्कुन्ति वर्णयितु ।। हदी गरयगह सम्मत्ता--इति नरकगतिः समाप्ता ।
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उब्वरिऊण य जीवो गरयाईदो फलेण पावस्स । पुणरवि तिरियगईए पावेइ अणेयदुक्खाई ॥ ७४ ।।
उद्वर्त्य च जीबो नरकगतित: फलेन पापस्य ।
पुनरपि तिर्यग्गत्यां प्राप्योति अनेकदुःखानि ।। व (चा) हिजड़ गुरुमार णेच्छतो पिट्टिसण लोएहि। पुव्यकयम्मो पावयछोडिज्जतीए पुट्टीए ।। ७५ ॥ बाह्यते गुरुभारं नेच्छन् ताडयित्वा लोकैः ।
पूर्वकृतकर्मा ................पृष्ट्या । ताणतासणदुक्खं बंधण तह णासधिणं दमण । कणछेदणदुक्खं लंछण णिलंछणं चेय ।। ७६ ॥
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धम्म- रसायणं ।
।
ताडनत्रासदुःखं बन्धनं तथा नासावेधनं दमनं । कर्णच्छेदन दुःखे लाच्छनं निलांछन सीउन्हं जलवरिसं चउमहिमारुवं छुहा तन्हा | विवाहओ सह तहा समस्या य ॥ ७७ || क्षुत्रां तृष्णां ।
शीतोष्णे जलवर्षी..
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नानाविधव्याचीच सहते तथा दंशमशकां ॥ एदिए पंचसु अयजोणीस वीरियविहूणो । तो पावफलं चिरकालं हिंडए जीवो ।। ७८ ।। एकेन्द्रियेषु पंचसु अनेकयांनिषु वीर्यविनिः ।
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भुंजानः पापफलं चिरकालं हिण्डते जीवः | खणणुत्तायणवालणवहण विच्छेयणाई दुक्खाई | पुव्वयपाक्यो सह वराओ अणपवनो ।। ७९ ॥ खननात्तापनज्वालनव्यजनाविच्छेदनादिदुःखानि ।
पूर्वकृतपापकर्मा सहते घराकः अनात्मवशः || एवं तिरियगड सम्मत्ता- एवं तिर्यग्गतिः समाप्ता ।
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बहुवेण उलाए तिरियईए भमित्तु चिरकालं | माणुसहवे वि पावड़ पाचस्स फलाई दुक्खाई ॥ ८० ॥ बहुवेदनालायां तिर्यग्गत भ्रमिला चिरकालं ।
मानुषभऽपि प्राशांति पापस्य फलानि दुःखानि || पारसिय भिल्लवव्य रचंडालकुलेसु पावयम्मेसु | उपजिऊण जीवो मुंह गिरओवमं दुःखं ॥ ८१ ॥ पारसीक भिल्लवर्थरचंडालकुलेषु पापकर्मसु ।
उत्पद्य जीवो के नरकोपमं दुःखं ॥
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सिद्धा तसापादिसंग्रह
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जह पावइ उच्चत्तं चिरकालं पाविऊण णीयत्तं । ठछिविगम्भयहदिय ? पावेह अणेय दुक्खाई 11८२ ॥ यदि प्राप्नोति उच्चत्वं चिरकालं प्राप्य नीचत्वं ।
तत्रापि गर्भभवानि प्राप्नोति अनेकदुःखानि ॥ जम्मंधम्यवहिरो उप्पज्जइ सो फलेण पावस्स । उप्पण्णदिवसपहुई पीडिजइ घोरवाहीहि ॥ ८३ ।।
जन्मान्धमूकबधिर उत्पात स फलन पापस्य । अपलदिवसमाता: गते बोरयाशिः। णवजोवणं पि पत्तो इच्छियसुक्ख ॥ पाचए किंपि । गच्छइ जोवणकालो सब्यो वि मिरच्छओ तस्स ॥ ८४ ॥
नवयौवनमपि प्राप्तः इच्छितसुखं न प्रामाति किमपि ।
गच्छति यौवनकाल: मर्वोऽपि निरर्थकस्तस्य ।। धणुबंधविष्पहीणो भिक्खं भमिऊम भुंजए णिञ्च । पुवकयपावयम्मो सुयणो विण अच्छए मोक्खं ।। ८५ ।।
धनवाधवाविप्रहीनो भिक्षां चभित्या मुंक्त नित्यं ।
पूर्वकृतपापकर्मा, सुजनोऽपि न यच्छति सौख्यं ॥ पसुमणुविगईए एवं हिंसालियचोरियाइदोसेहिं । बहुदुक्खेहि बराओ चिरकालं पावए जीओ ।। ८६ ॥ पशुमनुष्यगत एवं हिंसालीकचार्यादिदोषैः । बहुदुःखानि वराको चिरकाले प्राप्नोति जीवः ।। एवं कुमाणुसर्गा सम्मत्ता-एवं कुमानुषगतिः समाप्ता ।
श्रीसुखं वा।
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धम्म- रसायणं ।
सव्व ( हु ) वयणवज्जिय चालतवं कुणइ णरो मूढो । सो पाबेड वर ....... उपरलोहीदेवतं ॥ ८७ ॥ सर्वस्वसन्तः करोनि नये मूढः ।
स प्राप्नोति
||
दहूण अण्णदेवे महिडिए दिव्यवण्णमारोगं । होउण मानभंगो चित्त उत्पज्जए दुक्खं ॥ ८८ ॥ दृष्ट्वा अन्यदेवेषु महर्षिकेषु दिव्यवणं आरोग्यं । 'भूत्वा मानभंग: चित्ते दुःख || तिलोयमन्वसरणं धम्मो सच्चण्हु भाविओ विमलो । तयामरण गहिओ तेण महंतारिओ एहिं ॥ ८९ ॥ त्रिलोकसर्वशरणं धर्मः सर्वज्ञभावितो विमलः । तस्यागमेन गृहीतस्तेन महत्तारकः.......॥ छम्मासाउगसेसे विलाइ माला चिणस्सए छाए । कंपंति कप्परक्खा होइ विरागो य भोयाणं ।। ९० ॥ मासायुको विलीयते माला विनश्यति छाया । कम्पन्ते कल्पवृक्षा भवति विरागथ भोगेभ्यः ॥ बहुगीयसाला णाणाचि ह्कपतरुवराणे | भो सुरलोयपहागा णक्खयपतथं विषमं ॥ ९१ ॥ नृत्यगीतसाला नानाविवकल्पतरुवराकीर्णाः । मोः सुरलोकप्रधानाः ............विषमं ॥ चसियन्वं कुच्छीए कुणिमाए किमिकुले हैं भरियाए । पीथव्यं कुणिमपयं जणणीए मे अहम्मे ॥ ९२ ॥ वस्तव्यं कुत्सायां कुणपायां मिले भूतायां । पातव्य कुणपपयं जनन्या मया अधर्मेण ||
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
सो एवं बिलवंतो पुण्णवसाणम्मि असरणी संतो । मूलच्छिष्णो विदुमो णिवडर हेहामुहो दीगो ॥ ९३ ॥ स एवं विलपन् पुण्यावसानेऽशरणः सन् । मूलच्छिन्नोऽपि द्रुमः निपतति अधोमुखो दीनः ॥ एवं देवगई सम्मता - एवं देवगतिः समाप्ता ।
एवं अणाइकाले जीओ संसारसायरे घोरे । परिहिंडड अलहंतो धम्मं सव्वहुपण्णत्तं ॥ ९४ ॥ एवमनादिकाले जीवः संसारसागरे घोरे । परिहिंडते अलभमानो धर्मे सर्वज्ञप्रणीतं ॥ परिचऊण कुधम्मं तदा सव्वण्हुभासिओ धम्मो । संसाररुनरहं गहियव्वो बुद्धिमंतेहिं ॥ ९५ ॥
परित्यज्य कुधर्म तस्मात् सर्वज्ञभाषितो धर्मः संसारतरणार्थे गृहीतव्यो बुद्धिमद्भिः ॥
सच्च वय या लोए बह्माणहरिहराईया | तन्हा परिक्खियच्चा सब्वेण परेण कुसले ॥ ९६ ॥ सर्वज्ञा अपि च ज्ञेया लोके ब्रह्महरिहरादिकाः तस्मात् परीक्षितव्या सर्वे: नरैः कुशलः ॥ खगकपालहरी डमरुय वजंत भीसणायारो । ret पिसायसहिओ रमणीए पिउवो भीमे ॥९७॥ खनाङ्गकपालहर: उमरुकं श्रादयन् भीषणाकारः | नृत्यति पिशाचसहितः रजन्यां पितृने भीने || जो तिक्खदादभीसणपिंगलगणेहि दाहिणमुहेण । भक्म् सव्वजीये सो परमप्पो कहं होइ ॥ ९८ ॥
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धम्म-रसायणं ।
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य; तीक्ष्णदाढाभीपणमिलनयनैः ........मुखेन ।
भक्षयति सर्व जीवान् स परमात्मा कथं भवति ।। अहवा सो परमप्पो जह होइ जयम्मि दोसजुत्तो वि । ता भीसणरूओ ( पुण) णिसायरो केरिसो होइ ॥ ९९ ॥
अथवा स परमात्मा यदि भवति जगति दोपयुक्तोऽपि । तर्हि भीपणरूपः पुनः निशाचरः कीदृशो भवति । जो वहइ सिरे गंगा गिरिवधु वहइ अद्धदेहेण । णिचं भारतो कावडिवाहो जहा पुरिसो ॥ १०० ।।
यो बहति शिरसि गंगां गिरिषधू बहति अर्धदेहेन । नित्यं भाराकान्त: कावटिकावाहो यथा पुरुषः । जइ एरिसो वि लोए कामुम्मत्तो वि होइ परमप्पो । तो कामुम्मत्तमणा घरे घरे किं ण परमप्पा || १.१॥
यदि एतादृशोऽपि लोके कामोन्मत्तोऽपि भवति परमात्मा ।
ताई कामो मत्तमनस: गृहे गृहे किं न परमात्मानः ॥ जो दहइ एयगामं वुचह लोयम्मि सो वि पाविहो। दई पि जेण तिउरं परमप्पत्तं कहं तस्स ॥ १०२ ॥
यो दहति एकग्राम उच्यते लोके सोऽपि पापिष्ठः ।
दग्धमपि येन त्रिपुरं परमात्मत्वं कथं तस्य । रच्यो तवं करंतो दट्टण तिलोत्तमाए लावणं । बम्मह सरेहिं विद्धो तवभहो चउBहो जाओ ॥१०३॥
अरण्ये तपः कुर्वन् दृष्ट्वा तिलोत्तमाया लावण्यं । ब्रह्मा शरैः विद्धः तपोभ्रष्टः चतुर्मुखो जातः ।। कामग्गितत्तचित्तो इच्छयमाणो तिलोवणारूवं । जो रिच्छीमत्तारो जादो सो कि होइ परमप्पो ॥ १०४॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रह
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कामाग्नितप्तचित्तः इच्छन् तिलोत्तमारूप ।
य ऋक्षिभर्ता जातः स किं भवति परमात्मा ।। जह एरिसो वि मूढो परमप्पा वुश्चए एवं । तो खरघोडाईया सव्वे वि य हाँति परमप्पा ॥ १०५॥ यदि एतादृशोऽपि मूढः परमात्मा उच्यते एवं ।
गाई सवादिका: सोनिन्नि परमा पानः !! जलथलआयासयले सम्बेसु वि पन्चएसु रुकखेसु । तिणजलणकहपाहण..........परिवसइ महमहणो ॥१०६॥
जलस्थलाकाशतले सर्वेषु अपि पर्वतेषु वृक्षेषु ।
तृणध्वलनकाटपापाण............परिबसति मधुमदः ।। होऊण परमदेवो कण्हो परिवसइ जए सब्वे । तो छयणाइओ सो पावइ सवं......किरियाओ।।१०७॥
भूत्वा परमदेवः कृष्णः परिवसति जगति सर्वस्मिन् ।
तहि ............स प्राप्नोति संध........क्रियातः ॥ संसारम्मि वसंतो परमप्पो जड़ जए हवे कण्हो । संसारत्था जीवा सव्वे ते किण्णा परमप्पा ।। १०८ ॥
संसोर वसन् परमात्मा यदि जगति भवेत् कृष्णः ।
संसारस्था जीवाः सर्वे ते किं न परमात्मानः ।। हरिहरवह्मणो वि य महाबला सवलोयविक्खादा । तिष्णि वि एकसरीरा तिणि विलोए वि परमप्पा ॥१०९|| .. हरिहर ब्रह्माणोऽपि च महायला सर्वलोकविख्याताः ।
त्रयोऽपि एकारीराः योनि लोकेऽपि परमात्मानः || जई होहि एयमुत्ती बम्हाण तिलोयणाय महुमहणो। तो बम्हाणस्स सिरं हरेण किं कारणं छिण्णं ॥११॥
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धम्म-रसायणं ।
यदि भवति एकमूर्तिः ब्रह्मा त्रिलोकनाथः मधुमदः ।
तर्हि ब्रह्मणः शिरो हरेण किं कारणेन छिन्न || णेच्छइ थावरजीवं जंगमजीवेसु संसओ जस्स । मंसं जस्स अदोसं कह बुद्धो होइ परमप्पा ।।११।।
मेच्छति स्थावरजीवं जंगमजीवेषु संशयो यस्य । ___ मांस यस्यादोघं कथं बुद्धो भवति परमात्मा ।। 'णियजणणीय पेटं जो फाडिऊग णिग्गओ बहिरं । अण्पोसि जीवाणं कह होई दयावरो बुद्धो ११२।। निजजनन्या उदरं यो विदार्य निर्गतो बहिः ।
अन्येषां जीवानां कथं भवति दयापरो बुद्धः ॥ जो अपणो सरीरेण समत्थो वाहिवेयणा छ । अण्णेसिं जीवाणं कह वाहि णासए मुरो ॥ ११३ ॥ य आत्मनः शरीरे न समझे व्याधिबेदनां छेतुं ।
अन्येषां जीवानां कथं व्याधि नाशयति सूरः ॥ ण समत्थो रक्खेउं सयमवि खे राहुणा गसिजतो । कह सो होइ समत्यो रक्खेउं अण्णजीवाणं ॥११४||
न समर्थी रक्षितुं स्वयमपि ने राहुना समानः । कथं स भवति समर्थो रक्षितुं अन्यजीवान् ।। जइ ते हवंति देवा एए सव्वे वि हरिहराईया। तो तिक्खपहरणाई गिण्हंति करेण णिकन्ज॥११५।।
यदि ते भवन्ति देवा एते सर्वेऽपि हरिहरादिकाः ।
तर्हि तीक्ष्णप्रहरणानि गृहन्ति करेण किमर्थ ! १ निथं पुस्तके ।२ पोट पुस्तके ।३ वह पुस्तके ।४ सूर्यः।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे.
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जस्स त्थि भयं वि(चित्ते सो गिण्हइ आउहं करग्गेण । जस्म पुणो त्थि भयं तम्साउहकारणं पाथि ॥११६||
यस्यास्ति भयं चित्ते स गृह्णाति आयुधं कराग्रेण । यस्य पुनर्नास्ति भयं तस्यायुधकारणं नास्ति || छुहतण्हवाहिवेयणचिंताभयसोयपीडियसरीरा । संसारे हिंडता ते सब्बर कह होति ॥ ११७ ।।
क्षुधातृष्णान्याधिवेदनाचिन्ताभयशोकपीडितशरीराः । संसारे हिंडमानाः ते सर्वज्ञा कथं भवन्ति ॥ छुह तण्हा भय दोसो राओ मोहो य चिंतणं चाही। जर मरण जम्म णिहा खेदो सेदो विसादो य ॥११८||
क्षुधा तृष्णा भयं दोषो रागो मोहरा चिन्ता व्याधिः ।
जरा मरणं जन्म निद्रा खेदः स्वेदो विषादश्च ।। रह जिंभओ य दप्पो एए दोसा तिलोयसत्ताणं । सन्वेसि सामण्णा संसारे परिभमंताणं ॥ ११९ ॥
रतिजभा च दर्प एते दोषाः बिलोकसत्वानां । सर्वेषां सामान्याः संसारे परिभ्रमतां ॥ एए सव्वे दोसा जस्स ण विज्जति छुहतिसाईया | सो होइ परमदेओ हिस्संदेहेण घेतव्यो ।। १५० ॥ . ___ एते सर्वे दोषा यस्य न विद्यन्ते क्षुधानुपादिकाः ।
स भवति परमदेवो निःसन्देहेन गृहीतव्यः ।। सिंहासणछत्तत्तयदिव्योधुणिपुप्फविहिचमराई । भामंडलदुंदुहिओ वरतरु परमेटिचिहत्थं ।। १२१॥ सिंहासनच्छत्रत्रयदिव्यश्वनिपुष्पवृष्टिचामराणि । भामंडलदुंदुभी घरतरुः परमेष्टिचिन्होत्धानि ।।
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धम्म-रसायणं । .......... ............
संपुण्णचंदक्यणो जडमउडविवन्जिओ णिराहरणो । पहरणजुवइविमुक्को संतियरो होइ परमप्पा ॥ १२२ ॥
सम्पूर्णचन्द्रवदनः जटामुकुटविजितो निराभरणः ।
प्रहरणथुवतिविमुक्तः शान्तिकरो भवांते परमात्मा ।। णिम्भूसणो वि सोहइ कोहोराप्रमओमणो ? पत्थि ! जमा वियाररहिओ णिरंबरो मणोहरो तया ॥१२३ ॥ 'निर्भूषणोऽपि शोभते............ ............ ।
यस्माद्विकाररहितो निरम्बरो मनोहरस्तस्मात् ॥ जमा सो परमसुही परमसियो वुच्चए जिणो तह्मा । देविंदाण वि देओ तमा गाम महादेओ ॥ १२४ ॥
यस्मात् स परमसुखी परमशिव उच्यते जिनस्तस्मात् । देवेन्द्राणामपि देवस्तस्मान्नाम्ना महादेवः ।। अन्यावाहमणंतं जमा सोक्खं करेइ जीवाण 1 तमा संकरणामो होइ जिणो णस्थि संदेहो ।। १२५ ।।
अन्याबाप्रमनन्तं यस्मात् सुखं करोति जीवानां ।
तस्मान्छंकरनामा भवति जिनो नास्ति सन्देहः ।। लोयालीय विदण्ड तह्मा णामं जिणस्स विहति । जला सीयलययणो तह्मा सो बुच्चए चंदो ।। १२६ ॥
लोकालोकवित् तस्मात् माम जिनस्य विष्णुरिति ।
यस्मान्छीतलवचनस्तस्मात् स उच्यते चन्द्रः ।। अण्णाणाण विणासो विमलाण........दोहयरो। कम्मासुर.......णिडहणो तेण जिणो चुच्चए सूरो ।।१२७||
अज्ञानानां विनाशकः विमलाना....बोधकरः । कर्मा...........निर्दहनः तेन जिन उच्यते सूरः ॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
अण्णाण मोहिएहिं य पंचेंदियलोलुपहिं पुरिसेहिं । जिणणामाई परेसिं कयाई गुणवज्जयागं पि ॥ १२८ ॥ अज्ञानमोहितैश्च पंचेन्द्रियलोलुपैः पुरुषैः । जिननामानि परेषां कृतानि गुणवर्जितानामपि || जह ईसरणाम णरो भिक्खं भमिऊण भुंजय को वि । Free गुणविहूणो किं सर्च ईसरो होइ ।। १२९ ॥ यदि ईश्वरनामा नरः भिक्षां भ्रमित्वा भुंक्ते कोऽपि । ईश्वरस्य गुणविहीनः किं सत्य ईश्वरो भवति ॥ सव्वण्णाम हरी तह लोए हरिहराइया सव्वे । सव्वण्डुगुणविरहिया किं सव्वे होंति सव्वण्हू ।। १३० ॥ सर्वज्ञनामा हरिः तथा लोके हरिहरादिकाः सर्वे । सर्वज्ञगुणविरहिताः किं सर्वे भवन्ति सर्वज्ञाः ॥ जर इच्छय परमपयं अव्वावाहं अणोवमं सोक्खं । तिहुवणवंदियचलणं णमह जिणंदं पयतेण ॥ १३१ ॥
यदि इच्छति परमपदं अव्याबाधं अनुपम सौख्यं | त्रिभुवनवंदितचरणं नमत जिनेन्द्र प्रयत्नेन || जम्हा अरिहंत हवड़ णिराउहो णिन्भयो हवे तम्हा जला हु अनंतसुहो इच्छीविरहिओ हवे तम्हा ॥ १६२ ॥ यस्मात् अर्हन् भवति निरायुधः निर्भयो भवेत् तस्मात् । यस्माद्धि अनन्तसुखं स्त्रीविरहितो भवेत् तस्मात् ॥ जम्हा छतण्हाओ तस्स ण पीडंति परमघोराओ । तन्हा असणं पाणं तिलोयणाहो ण सेबेड़ ।। १३३ ॥ यस्मात् क्षुष्णे तं न पीडयतः परमघोरे । तस्मादसनं पानं त्रिलोकनाथो न सेवते ||
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धम्म-रसायणं ।
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पूजारिहो दु जला धर्णिदरिंदसुरवरिंदाणं । अरियरहस्समहणो अरहतो बुच्चए तमा ॥ १३४ ॥ पूजाहस्तु यस्मात् धरणेन्द्रनरेन्द्रसुरवरेन्द्राणां ।
अरिरजरहस्यमथन: अर्हन् उच्यते तस्मात् ॥ जियकोहो जियमाणो जियमायालोहमोह जियमयो। जियमच्छरो य जमा तम्हा णामं जिणो उत्तो ॥ १३५ ।।
जितक्रोधो जितमानो जितमायालोभमोहः जिनामदः ।
जितमत्सरश्च यस्मात्तस्मान्नाम जिनः उक्तः ।। जम्मजरमरणतिदयं जम्हा दडूं जिणेण णिस्सेसं । तम्हा तिउरविणासो होइ जिणे णस्थि संदेहो ॥ १३६ ॥
जन्मजरामरणत्रितयं यस्मादम्य जिनेन निःशेषं । तस्मात्रिपुरविनाशो भवति जिने नास्ति सन्देहः । अरहंतपरमदेवं जो बंदइ परमभनिसंजुत्तो। तेलोयवंदणीओ अइरेण य सो णरो होइ ॥१३७ ।।
अर्हत्परमदेव यो बन्दते परमभक्तिसंयुकः । त्रिलोकवन्दनीयोऽचिरेण च स नरो भवति ।। जो जिणचरिंदपूअं कुणइ ससत्तीइ सो महापुरिसो। तेलोयप्रअणीओ अइरेण य सो णरो होइ ॥ १३८ ॥
यो जिनवेरन्द्रपूजां करोति स्वशक्त्या स महापुरुषः । त्रिलोकपूजितोऽचिरेण च स नरो भवति ।। सब्धण्द्वपरिक्षा सम्मचा-सर्वशपरीक्षा समाप्ता।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहेधम्मो जिणेहि भणिओ सायारो तह हवे अणायारो। एएसि दोण्हं पि हु सारं खलुकोइ सम्मत्तं ॥ १३९ ॥
धर्मो जिनैः भणित: सागारस्तथा भवेदनगारः ।
एतयोर्द्वयोरपि हि सारं खलु भवति सम्यक्त्वं ।। सम्मत्तसलिलपवहो णिचं हिययम्मि पवट्टए जस्म । कम्मं वालुयवरणं तस्स बंधो चिय ण एइ ॥ १४० ॥
सम्यक्त्वसलिलप्रवाहो नित्यं हृदये प्रवर्तते यस्य । कर्म वालुकावरणं तस्य बन्धमेव नैति || सम्मत्तरयणलब्भे गरयतिरिक्खेसु णस्थि उववाओ । जह ण मुअइ सम्मत्तं अहव ण बंधाउमो पुर्च ॥ १४१ ॥
समाचारवलब्धे नरकतिर्यक्षु नास्ति उपपादः।
यदि न मुञ्चति सम्यक्त्वं अथवा न बंध आयुषः पूर्वे ॥ पंचयअणुच्चयाई गुणव्ययाई हवंति तिण्णव । चत्तारि य सिक्खावययाई सायारो एरिसो धम्मो । १४२॥ पंचाणुनतानि गुणनतानि भवन्ति त्रीण्येव ।।
चत्वारि च शिक्षाव्रतानि सागार एतादृशो धर्मः ।। देवयपियरणिमित्तं मंतोसहर्जतभयाणमित्तेण । जीवा पा मारियव्या पढमं तु अणुव्वयं होइ ।। १४३ ॥
देवतापितृनिमित्तं मंत्रौषधयंत्रभयनिमितेन ।
जीत्रा न मारयितन्याः प्रथमं तु अणुव्रतं भवति ॥ वागादीहि असचं परपीडयरं तु सच्चक्यणं पि । वजंतस्स परस्प हु विदियं तु अणुव्वयं होइ ॥ १४४ ॥ १ . बंधुच्चिय णासए तस्स' इति दर्शनप्राभृते पाठातन्तरम् ।
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धम्म-रसायणं ।
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कागादिभिस्सत्यं परपीडाकरं तु सत्यवचनमपि ।
वर्जतो मरस्य हि द्वितीयं तु अणुव्रतं भवति ।। गामे णयरे रण्यो बट्टे पडियं च अब विस्सरियं । णादाणं परवं तिदियं तु अणुव्वयं होई ।। १४५ ॥
ग्रामे नगरे अरर को नातितं र जिम ;
नादानं परद्रव्यं तृतीयं तु अणुव्रतं भवति ॥ मायावहिणिसमाओ दहव्वाओ परस्स महिलाओ। सयदारे संतोसो अणुवयं तं चउथं तु ॥ १४६॥
मातृस्वसृसमाना दृष्टव्याः परस्य महिलाः ।
स्वदारे सन्तोषोऽणुव्रतं तच्चतुर्धे तु ॥ धणधण्णदुपयचउप्पयखेलण्णछादियाण दवाणं । जं किन्जइ परिमाणं पंचमय अणुव्वयं होई॥१४७॥ धनधान्यद्विपदचतुष्पदक्षेत्रान्याच्छादनानां द्रव्याणां ।
यरिक्रयते परिमाणं पंचमकं अणुव्रतं भवति । जं तु दिसावेरमण गमणस्स दुजं च परिमाणं । तं च गुणव्यय पदम भणियं जियरायदोसेहिं ।। १४८॥
यत्तु दिग्विरमणं गमनस्य तु यच्च परिमाण ।
तच्च गुणवतं प्रथम भणितं जितरागदोपैः ।। मज्जारसागरज्जु वंड लोहो य अग्गिविससत्यं । सपरस्स घादहेदूं अपणेमि पणेव दादब्वं ॥ १४९ ॥
मारिश्वरज्जु........लोहश्च अग्निविषशस्त्राणि {
स्वपरस्य घालहेतूनि अन्येषां नैव दातव्यानि ।। वहवंधपासछेदो तह गुरुभाराधिरोहणं चेव । ण वि कुणइ जो परोसें विदियं तु गुणव्ययं होइ ।। १५० ।।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
वधबन्धपाशच्छेदानि तथा गुरुभाराधिरोहणं चैव ।
नापि करोति यः परेषां द्वितीयं गुणवतं भवति || बच्छच्छभूसणाणं तंबोलाहरणगंधपुप्फाणं । जं किज्जा परिमाणं तिदियं तु गुणव्वयं होई ॥१५१।।
वस्त्रास्त्रभूषणानां ताम्बूलाभरणगंधपुष्पाणां ।
यत्क्रियते परिमाण तृतीयं ट गणत्रतं भवति । पंचणमोक्कारपयं मंगल लोगुत्तमं तहा सरणं । णिचं झाएयव्वं उभए सज्झाहिं हिययम्मि ।। १५२ ।।
पंचनमस्कारपदं मंगलं लोकोत्तमं तथा शरणं । नित्यं ध्यातव्यं उभयोः सन्ध्ययोः हृदये ॥ रुद्दविवज्जणं पि समदा सब्वेसु चेव भूदेस । संजमसुहभावणा वि सिक्खा सा वुचए पढमा ।। १५३ ।। रुद्रातविवर्जनमपि समता सर्वेषु चैव भूतेषु ।
संयमशुभभावना अपि शिक्षा सा उच्यते प्रथमा । उववासो कायन्वो मासे मासे चउस्सु पव्वेसु । हवदि य विदिया सिक्खा सा कहिया जिणवरिंदेहिं॥१५४।।
उपवासः कर्तव्यो मासे मासे चतुर्यु पर्वसु । भवति च द्वितीया शिक्षा सा कविता जिनेन्द्रः ।। असणाइचउवियप्पो आहारी संजयाण दादब्यो । परमाए भत्तीए तिदिया सा बुच्चए सिक्खा ॥ १५५ ॥
अशनादिचतुर्विकल्प आहारः संयताना दातव्यः ।
परमया भक्त्या तृतीया सा उच्यते शिक्षा ।। चहऊण सव्यसंगे गहिऊणं तह महब्बए पंच । चरिमंते सम्पासं जं धिप्पइ सा चउत्थिया सिक्खा ।।१५६ ॥
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धम्म- रसायण |
त्यक्त्वा सर्वसङ्गान् गृहीत्वा तथा महाव्रतानि पंच । चरमान्ते सन्यासं यत् गृहति सा चतुर्थी शिक्षा ॥ एयाई क्याई णरो जो पालह जइ सुद्धसम्मतो । उप्पज्जिऊण सग्गे सो मुंह ये सोनखं ॥ १५७ ॥! एतानि व्रतानि नरो यः पालयति यदि शुद्धसम्यक्त्वः । उत्पद्य स्वर्गेस भुंक्ते इच्छितं सौख्यं ॥ दिव्वाणि विमाणाणि य सुरलोए होंति पंचवण्णाई । दित्तीए आयव्यं जिणंति चंदस्स कंतीए || १५८ ॥ दिव्यानि विमानानि च सुरलोके भवन्ति पंचवर्णानि । दीपया आदित्यं जीयन्ते चन्द्र कान्त्या || सोहंति ताई णिचं पलंचवर हेमदा मर्घदाहिं । बहुविकडे तहा णाणाविधयवएहिं ।। १५९ ॥
शोभन्ते तानि नित्यं प्रलंगवरहेमदामघंटाभिः । बहुविधः तथा नानाविधध्वजापताकाभिः ॥ तेसिं होंति समीवे बहुमेवजलासया परमरम्मा | मोहंति सव्वकालं फलपुष्पवालपत्तेहिं ।। १६० ॥ 'तेघां होंति समीपे बहुभेदजलाशयाः परमरम्याः । शोभन्ते सर्वकाल फलपुष्पवालपत्रैः ॥ दहूण य उपपत्ति केई विज्नंति सेयचमरेहिं |
कई जयजयसदे कुव्वंति सुरा सउच्छाहा ।। १६१ ॥ दृष्ट्वा चात्पत्ति केचित् वीजयन्ति श्वेतचमरैः ।
केचित् जयजयशब्दान् कुर्वन्ति मुराः सोत्साहाः ॥ वरमुरखदुंदुहिरओ भेरीओ संखवेणुवीणाओ । पदुपहरिओ वार्यति सुरा सलीलाए । १६२ ॥
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सिद्धान्ससारादिसंग्रह
बरमुरजगुन्दुभिरवानि भैर्यः शंखवेणुवीणाः।
पटुपटहझल्लयः वादयति । सलीमा गायति अच्छाओ काओ वि मणोहराओ गीयाओ। काओवि वरंगीओ णञ्चति विलासत्रेसाओ ॥ १६३ ॥
गायन्ति अप्सरसः का अपि मनोहराणि गीतानि ।
का अपि वराङ्गा नृत्यन्ति बिलासवेपाः ।। को मज्झ इमो जम्मो रमणीओ आसमो इमो को बा । कस्स इमो परिवारो एवं चिंतेइ सो देओ ॥ १६४॥
किं मम इदं जन्म रमणीय आसीदयं को वा।
कस्याय परिवार एवं चिन्तयति स देवः ।। जाऊण देवलोयं पुणरवि उम्पत्तिकारणं देओ। सवंगजायभासो वियसियवयणो य चितेइ ।। १६५ ।।
ज्ञात्वा देवलोक पुनरपि उत्पत्तिकारणं देवः ।
सर्वानजातभास: बिकसितवदनश्च चिन्तयति ।। किं दत्तं वरदाणं को व मए, सोहणो तवो चिण्णो । जेण अहं सुरलोए उवचण्णो सुद्धरसणीए ॥ १६६ ।।
किं दत्तं वरदानं किं वा मया शोभनं तपः चितः। ।
येनाह मुरलोके उपपन्नः शुद्ध.............. || पाऊण णिरवसेसं पुवभवे य जिणपुज्जआ रइया। तो कुणइ णमोकारं भत्तीए जिणवरिंदाणं ॥१६७।।
ज्ञात्वा निरवशेषं पूर्वभवे च जिनपूजा रचिता। ततः करोति नमस्कारं भक्त्या जिनवरेन्द्राणां ।। पुणरवि पणमियमत्थो भगइ सुरो अंजाल सिरे किच्चा । धम्मायरियस्स गमो जेणाई गाहिओ धम्मो ॥१६८ ॥
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धम्म- रसायणं ।
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पुनरपि प्रणतमस्तक भणति सुरः अंजा शिरसि कृत्वा । धर्माचार्याय नमः येनाहं ग्राहितः धर्मः ॥
सो मज्झ बंदणीओ अहिगमणीओ य पुत्रणीओ य । जस्स पसाएणाहं उप्पण्णो देवलोयम्मि ॥ १६९ ॥ स मम वन्दनीयः अभिगमनीयश्च पूजनीयश्च । यस्य प्रसादेनाहं उत्पन्नो देवलोके ॥ अहिसेहहिं देवा णाऊण करंति तस्स अहिसेहं । पुणरवि अरुहं गेहं आमंति मणोहरं रम्मं ॥ १७० ॥ अभिषेकगृहं देवा नीत्वा कुर्वन्ति तस्याभिषेकं 1 पुनरपि अर्हद्रहं आनयन्ति मनोहरं रम्यं ॥ बहुभूसोहि देहं सूरांतादि (ख) मोहिं । अहिसिंचिऊण पुणरवि देवा बंधेति वरपहुं ।। १७१ ॥ बहुभूषणैः देहं भूषयन् तस्य दिव्य मंत्रैः । अभिषिच्य पुनरपि देवा बध्नन्ति वरपट्टम् || सिंहासणद्वियस्स हु सुहगेहेसु सुहु रमणीए । उबगम के देवा जोगाई कति कम्माई ॥ १७२ ॥ सिंहासनस्थितस्य हि शुभगृहेषु सुष्ठु रमणीयेषु । उपगम्य केचिद्देवा योग्यानि कथयन्ति कर्माणि ॥ १
पढमं जिणंद पूर्व अवि चलवरलोयणं पुणो पेच्छा | वरणाइयस्स पिच्छा तह माणिय दिव्यबहुआउ ॥ १७३ ॥
प्रथमं जिनेन्द्रपूजा अपि चलत्ररलोचनं पुनः पश्चात् । वरनाटकं पश्चात् तथा...
॥
पडिवोहिओ हु संतो अहिं सुरेहिं सुखरो एवं | तो कुणइ महापूअं भत्तीए जिनवरिंदाणं ॥ १७४ ॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे--
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amanarmrrrrruwwwwwvirrrrrrrrrrrrrrrrrr
प्रतिबोधितो हि सन् अन्यैः सुरैः सुरवर एवं ।
ततः करोति महापूजां भक्त्या जिनवरेन्द्राणां ।। कुणा गुमो वि स तुदो भड़वेललोगनको देभो । वरणाउयं स पच्छा कुणइ पुणो पुचकयउति ।। १७५ ।।
करोति पुनरपि च तुटः अठवेलालोचनं ! च स देवः ।
वरनाटकं स दृष्ट्वा करोति पुन: पूर्वकर्म इति ।।? दिल्बच्छराहिं य समं उत्तंगपउहाराहिँ चिरकालं । अणुहवइ कामभोए अहगुणरिद्धिसंपण्णो ॥ १७६ ।। दिव्याप्सरोभिश्च सम उत्तंगप्र....हाराभिः चिरकालं ।
अनुभवति कामभोगान् अष्टगुणासम्पन्नः ।। अणिमं महिम लहिम पत्ती पायम्म कामरूविसं । ईसत्तं च सित्तं अहगुणा होति णायव्वा ।। १७७ ।।
अणिमा महिमा लघिमा प्राति: प्राकाम्यं कामरूपित्वं ।
ईशित्व व वशित्व अष्टगुणा भवन्ति ज्ञातव्याः ।। इय अगुणो देओ जरवाहिविवन्जिओ चिरं काल । जिणधम्मस्म फलेण य दिव्चसुहं भुंजए जीओ ॥ १७८ ॥
इति अष्ठगुणो देवो जराव्याधिविर्जितश्चिरं कालं | जिनधर्मस्य फलेन च दिश्यसुखं भुक्त जीवः ।। इति देवसुगइसम्मसा-इति देवसुगतिः समाप्ता ।
भुंजित्ता चिरकालं दिवं हियइच्छियं सुहं सग्गे | माणुसलोयम्मि पुणो उम्पज्जए उत्तमे वंसे ॥ १७१।।
भुक्त्वा चिरकालं दिव्यं हृदयेप्सितं सुख स्वर्गे । मानुषलोके पुनः उत्पद्यते उत्तमे वंशे ।।
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धम्म-रसायणं ।
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भुजित्ता मणुलोए सब्वे हियइच्छियं अविग्घेण। होऊग भोयविरो जिणदिक्खं गिण्हए परमं ।। १८०॥ भुक्त्वा मनुजलोके सर्वान् हृदयेप्सितान अविनेन ।
भूत्वा भोगविरतो जिनदीक्षां गृह्णाति परमां ।। डहिऊण य कम्मवणं उग्गेण तवाणलेण णिस्सेसं । आपुण्णभवं अणंत सिद्धिसुहं पाचए जीओ ॥१८१ ॥ दग्ध्वा च कर्मवनं उग्रेण तपोऽनलेन निःशेष ।
आपूर्णभवमनन्तं सिद्धिमुखं प्राप्नोत्ति जीवः ।। सुमणुसहिए बल्लहमणाइसिद्ध तओ समासेण । अणयारपरमधर्म वोच्छामि समासओ पत्तो ।। १८३ ।।
सुम...........बालभं अनादिसिद्धं ततः समासेन ।
अनगारपरमधर्म वक्ष्ये समासतः प्राप्तं ।। अहदस पंच पंच य मूलगुणा सव्वतो सदाणयाराणं । उत्तरगुणा अणेया अणयारो एरिसो धम्मो ।। १८३ ॥
अष्टादश पंच पंच च मूलगुणाः सर्वतः सदानगाराणां । उत्तरगुणा अनेके अनगार एतादृशो धर्मः ।। जे सुद्धवीरपुरिसा जाइजरामरणदुक्ख णिबिण्णा । पालंति सुसुद्धभावा ते मूलगुणा य परिसेसा ॥ १८४ ।।
ये शुद्धवीरमुरुषा जातिजरामरणदुःखनिर्विग्नाः ।
पालयन्ति सुशुद्धभावास्ते मूलगुणान् च परिशेपान् ॥ इच्चेयाचि सब्वे पालंति सपिरियं अगृहंता। उवलद्धयावधीरा संसारदुक्खक्खयंहाए ॥१८५॥ इत्यादिकानपि सर्वान् पालयन्ति स्वार्य अगृहमानाः । अपलुब्धका ? धीराः संसारदुःखक्षयेच्छया ।
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सिद्धान्तसारादिसंप्रहे
हेमंते धिदिमंता गलिणिदलविणासियं महासीयं । संसारदुक्ख भीए विसर्हति चडंति य सीयं ।। १८६ ॥ हेमन्ते धृतिमन्तो नलिनीदलविनाशितं महाशीतं । संसारदुःखभयानपि सहन्ते चंडमिति च शीतं ॥ जलमलमइलिअंगा पावमलविवज्जिया महाभुणियो । आइबस्साहमुहं करंति आदावणं धीरा ।। १८७ ॥ जलमलमलिनिताङ्गाः पापमदविवर्जिता महामुनयः । आदित्यस्याभिमुखं कुर्वन्ति आतापनं श्रीराः ॥ धारंधसारगहिले कापुरीसमयागरं परमभीमे । सुणिणो वसंति रणे तरुमूले वरिसयालम्मि || १८८ ॥ धारान्धकारगहने कापुरुपभयकरे परमभीमे ।
मुनयो वसन्ति अरण्ये तरुमूले वर्षाकाले || अणयारपरमधम्मं धीरा काऊण सुद्धसम्मत्ता । गच्छति देई सग्गे केई सिज्यंति धुंदकम्मा ॥ १८९ ॥ अनगारपर मैं धीराः कृत्वा शुद्धसम्यक्त्वाः । गच्छन्ति केचित् स्वर्गे केचित् सिद्धयन्ति भुतकर्माणः ॥ वि अस्थि माणुसा आदसमुत्थं चिय विषयातीदं । अच्युच्छिष्णं च सुहं अणोवमं जं च सिद्धाणं ॥ १९० ॥ नाप्यस्ति मनुजानां आत्मसमुत्थं एव विषयातीतं । अव्युच्छिन्नं च सुखं अनुपमं यच्च सिद्धानां ||
कम्मविडा (ला) सीदीभूदा भिरंजणा णिवा । अट्टगुणा किद किच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा । १९१ ॥ अष्टविधकर्मविकलाः शर्तिभूता निरंजना नित्याः ३ अष्टगुणाः कृतकृत्या टोकामनिवासिनः सिद्धाः ॥
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श्रम- रसायणं ।
सम्मत्त णाण दंसण वीरिय सुहमें तहेव अवगह | अगुरुलघुमन्याचाहं अट्ठगुणा होंति सिद्धाणं ॥ १९२ ॥ सम्यक्त्वं ज्ञानं दर्शनं वीर्यं सूक्ष्मं तथैवावगाहनं । अगुरुलघु अन्याबाधं अष्टगुणा भवन्ति सिद्धानाम् ॥ भवियाण बोहणत्थं इय धम्मरसायणं समासेण । वरपणं दिणिणारइयं जमणियम जुतेण ॥ १९३ ॥ भव्यानां बोधनार्थं इदं धर्मरसायनं समासेन | वरपअनन्दिमुनिना रचितं यमनियमयुक्तेन ॥
वृदि सिरिधम्मरसायणं सम्मतं ।
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श्रीमत्कुल भद्रविरचितः सार-समुच्चयः ।
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तिने वक्ष्येऽहं देशनां कांचिन्मतिहीनोऽपि भक्तितः ॥ १ ॥ संसारे पर्यटन जंतुर्वयोनिसमाकुले | शारीरं मानसं दुःखं प्राप्नोति वत ! दारुणं ॥ २ ॥ आर्त्तध्यानरतो मूढो न करोत्यात्मनो हितं । तेनासौं सुमहत्क्लेशं परत्रेह च गच्छति ॥ ३ ॥ ज्ञानभावनया जीवो लेभते हितमात्मनः । विनयाचारसम्पन्नो विषयेषु पराङ्मखः || ४ || आत्मानं भावयेन्नित्यं ज्ञानेन विनयेन च । मां पुनर्ह्रियमाणस्य पश्चात्तापो भविष्यति ॥ ५ ॥ तथापि सत्तपः कार्य ज्ञानसद्भावभावितं । यथा विमलतां याति चेतोरत्नं सुदुस्तरम् || ६ || नुजन्मनः फलं सारं यदेतज्ज्ञानसेवनम् । अनि गृहितवीर्यस्य संयमस्य च धारणम् ॥ ७ ॥ ज्ञानध्यानोपवासैश्च परीषहजयैस्तथा ।
शीलसंयमयोगैश्व स्वात्मानं भावयेत् सदा ॥ ८ ॥
१ न लेभे हितमात्मन: क- पुस्तके २ 'आयुना प्रियमाणस्य इति खपुस्तके शोधितपाठः । ३ 'सुदुर्धरं ख- पुस्तके |
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सार-समुच्चयः ।
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ज्ञानाभ्यासः सदा कार्यो ध्याने चाध्ययने तथा। तपसो रक्षणं चैव यदीच्छेद्धितमात्मनः ॥ ९॥ ज्ञानादित्यो हदियेस्य नित्यमुद्योतकारकः । तस्य निर्मलतां याति पंचेन्द्रियदिगङ्गना ॥ १० ॥ एतज्ज्ञानफलं नाम यच्चारित्रोद्यमः सदा । क्रियते पापनिमुक्तः साधुसेवापरायणः ॥ ११ ॥ सर्वद्वन्दं परित्यज्य निभृतेनान्तरात्मना । ज्ञानामृतं सदाप्यं चित्ताल्हादनमुत्तमम् ॥ १२॥ ज्ञानं नाम महारत्नं यन प्राप्तं कदाचन । संसारे भ्रमता भीमे नानादुःखविधायिनि ॥ १३ ॥ अधुना तत्वधा प्रात सम्यग्दर्शनसंधुरम् । प्रमादं मा पुनः काषीविषयास्वादलालसः ॥ १४ ॥ आत्मानं सततं रक्षेज्ज्ञानध्यानतपोबलः । प्रमादिनोऽस्य जीवस्य शीलरत्नं बिलु यति ॥ १५ ।। शीलरत्नं हतं यस्य मोहध्वान्तमुपेयुषः । नानादुःखशताकीर्ण नरके पतनं ध्रुवम् ॥ १६ ॥ यावत स्वास्थं (स्थ्यं) शरीरस्य यावच्चेन्द्रियसम्मदः । तावद्युक्तं तपः कतु चाद्धक्ये केवलं धमः ॥ १७ ॥ शुद्ध तपसि सदीयं ज्ञानं कर्मपरिक्षये । उपयोगिधन पात्रे यस्य याति स पंडितः ॥ १८॥ गुरुशुश्रृपया जन्म चित्तं सद्ध्यानचिन्तया ।
श्रुतं यस्य समे याति विनियोगं स पुण्यभार ।। १९ ॥ १ तपःसंरक्षणं ख-पुस्तके । ३ ' बिलमवे ' ख-पुस्तके । ३ 'सम्पदः । ख-पुस्तके । ४ उपयोगं धनं प्राप्ते ख-पुस्तके ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
छित्वा स्नेहमयान् पाशान् भित्वा मोहमहार्गलाम् | सचारित्र समायुक्तः शूरो मोक्षपथे स्थितेः ॥ २० ॥ अहो मोहस्य माहात्म्यं विद्वांसो येऽपि मानवाः । मुन्ते तेsपि संसारे कामार्थरतितत्पराः ॥ २१ ॥ कामः क्रोधस्तथा लोभो रागो द्वेषश्च मत्सरः । मदो माया तथा मोहः कन्दर्पो दर्प एव च ॥ २२ ॥ एते हि रिपवो चौंरा धर्मसर्वस्वहारिणः । एतैर्वभ्रम्यते जीवः संसारे बहुदुःखदे || २३ || रागद्वेषमयो जीवः कामक्रोधवशे यतः । लोभमोहमदाविष्टः संसारे संसरत्यसौ ।। २४ ॥ सम्यक्त्वज्ञानसम्पन्नो जैनभक्त जितेन्द्रियः । लोभमोहमस्त्यक्तो मोक्षभागी न संशयः ।। २५ ।। कामक्रोधस्तथा मोहत्रयोऽप्येते महाद्विपः । एतेन निर्जिता यावत्तावत्सौख्यं कुतो नृणाम् ॥ २६ ॥ नास्ति कामसमो व्याधिर्नास्ति मोहसमो रिपुः | नास्ति क्रोधसमो वन्हिर्नास्ति ज्ञानसमं सुखम् ॥ २७ ॥ कषायविषयार्त्तानां देहिनां नास्ति निर्वृतिः । तेषां च विरमे सौख्यं जायते परमाद्भुतम् ॥ २८ ॥ कषायविषयोरगैत्मा च पीडितः सदा । चिकित्स्थतां प्रयलेन जिनवाक्सार भैषजैः ॥ २९ ॥
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१ अस्माद अवस्तनः श्लोकोऽधिकः ख- पुस्तके | कर्मणा मोहनीयेन मोहितं सकलं जगत् ।
धन्या मोहं समुत्सायं तपस्यन्ति महाधियाः ॥ १ ॥
२ विषयो योगध्यात्मा एक पुस्तके । विषयै नैरात्मा ' ख- पुस्तके
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सार-समुच्चयः ।
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विषयोरगदष्टस्य कषायविषमोहितः। संयमो हि महामंत्रस्नाता सर्वत्र देहिनाम् ॥३०॥ कषायकलुषो जीवो रागरंजितमानसः । चतुर्गनिभवाम्बोधौ भिन्ना नौरिव सीदति ॥ ३१ ॥ कपायवशगो जीवो कर्म बध्नाति दारुणम् । तेनासौं क्लेशमाप्नोति भवकोटिषु दारुणम् ॥३२॥ कपायविषयश्चित्तं मिथ्यात्वेन च संयुतम् । संसारबीजतां याति विमुक्तं मोक्षवीजताम् ॥ ३३ ॥ कपायविपयं सौख्यं इन्द्रियाणां च संग्रहः । जायते परमोत्कृष्टमात्मनो भवभेदि यत् ।। ३४|| कषायान् शत्रुवत पश्येद्विषयान् विषवत्तथा । मोहं च परमं व्याधिमेवे मत्यो विचक्षणः ।। ३५ ।। कषायविपयैश्चौरधर्मरत्नं विलुप्यति ( ते)। वैराग्यखगधाराभिः शूराः कुर्वन्ति रक्षणम् ॥ ३६॥ कपायकर्षणं कृत्वा विषयाणामसेवनम् । एतद्भो मानवाः ! पथ्यं सम्यग्दर्शनमुत्तमम् ।। ३७ ।। कपायातपतप्तानां विषयामयमोहिनाम् । संयोगायोगखिन्नानां सम्यक्त्वं परमं हितम् ॥ ३८॥ बरं नरकवासोऽपि सम्यक्त्वेन समायुतः । न तु सम्यक्त्वहीनस्य निर्वासो दिवि राजते ।। ३९ ॥ सम्यक्त्वं परमं रत्नं शंकादिमलवर्जितम् । संसारदुःखदारिद्य नाशयेत्सुविनिश्चितम् ॥४०॥ सम्यक्त्वेन हि युक्तस्य धवं निर्वाणसंगमः । मिथ्यादृशोऽस्य जीवस्य संसारे श्रमणं सदा ॥४१॥ १ 'मेवमूचुविचक्षणाः ख-पुस्तके । २ 'वे गति सुनिश्चित क-पुस्तके ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
पंडितोऽसौ विनीतोऽसौ धर्मज्ञः प्रियदर्शनः । यः सदाचारसम्पन्नः सम्यक्त्वदृढमानसः ॥४२॥ जरामरणरोगानां सम्यक्त्वज्ञानभेषजैः । शमनं कुरुते यस्तु स च द्यो विधीयते ॥ ४३ ॥ जन्मान्तरार्जितं कर्म सम्यक्त्वज्ञानसंयमैः । निराकर्तुं सदा युक्तमपूर्वं च निरोधनम् ॥ ४४ ॥ सम्यक्त्वं भावयेत्क्षिप्रं सज्ज्ञानं चरणं तथा । कृच्छ्रात्सुचरितं प्राप्तं नृत्वं याति निरर्थकम् ॥ ४५॥ अतीतेनापि कालेन यन्न प्राप्तं कदाचन । तदिदानीं त्वया प्राप्तं सम्यग्दर्शनमुत्तमम् ||४६ ॥ उत्तमे जन्मनि प्राप्ते चारित्रं कुरु यत्नतः । सद्धर्मे च परां भक्ति शमे च परमां रतिम् ॥४७॥ अनादिकालजीवेन प्राप्तं दुःखं पुनः पुनः । मिथ्यामोहपरीतेन कपायवशवर्तिना ||४८ ॥ सम्यक्त्वादित्यसम्पन्नं कर्मध्वान्तं विनश्यति | आसन्नभव्यसत्वानां काललब्ध्यादिसन्निधौ ॥ ४९ ॥ सम्यक्त्वभावशुद्धेन विषयासङ्गवर्जितः । कषायविरतेनैव भयदुःखं विहन्यते ॥ ५० ॥ संसारध्वंसनं प्राप्य सम्यक्त्वं नाशयन्ति ये । धमन्ति तेऽमृतं पीत्वा सर्वव्याधिहरं पुनः || ५१ ॥ मिथ्यात्वं परमं बीजं संसारस्य दुरात्मनः । तस्मात्तदेव भोक्तव्यं मोक्षसौख्यं जिघृक्षुणा ॥ ५२ ॥
१ संयमं क पुस्तके | २'अपूर्वा च निरोधनाम्' ख पुस्तके ३ 'संभिल' ख पुस्तके।
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सार-समुच्चयः ।
आत्मतत्वं न जानन्ति मिथ्यामोहेन मोहिताः । मनुजा येन मानस्था विप्रलुब्धाः कुशासनैः ||५३ ॥ दुःखस्य भीरवोऽप्येते सद्धर्म न हि कुर्वते । कर्मणा मोहनीयेन मोहिता बहवी जनाः ॥५४॥ कथं न रमते चित्तं धर्मे चैकसुखप्रदे । देवानां दुःखभीरूणां प्रायो मिथ्यादृशो यतः ।। ५५ ।। दुःखं न शक्यते सोढुं पूर्वकर्मार्जितं नरैः । तस्मात् कुरुत सद्धर्म येन तत्कर्म नश्यति ॥ ५६ ॥ सुकृतं तु भवेद्यस्य तेन यान्ति परिक्षयम् । दुःखोत्पादन भूतानि दुष्कर्माणि समन्ततः ॥ ५७ ॥ धर्म एव सदा कार्यो मुक्त्वा व्यापारमन्यतः । यः करोति परं सौख्यं यावन्निर्वाणसंगमः ॥ ५८ ॥ क्षणेऽपि समतिक्रान्ते सद्धर्म परिवर्जिते । आत्मानं सुषितं मन्ये कषायेन्द्रियतस्करैः ॥ ५९ ॥ धर्मकार्ये मतिस्तावद्यावदायुर्हनं तव । अर्युःकर्मणि संक्षीणे पश्चात्वं किं करिष्यसि ||६०|| धर्ममाचर यत्नेन मा भवस्त्वं मृतोपमः ।
सद्धर्मं चेतसां पुसां जीवितं सफलं भवेत् ॥ ६१ ॥ मृता नैव मृतास्ते तु ये नरा धर्मकारिणः । जीतोऽपि मृतास्ते वै ये नराः पापकारिणः ॥ ६२॥ धर्मामृतं सदा पेयं दुःखातविनाशनम् ।
यस्मिन् पीते परं सौख्यं जीवानां जायते सदा ॥६३ ॥
१ तत्वं ख — पुस्तके : आयुष कर्मक्षीणेक पुस्तके |
क पुस्तके |
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३ जीविनां
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सिद्धान्तसारादिसंग्रह
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स.धों यो दयायुक्तः सर्वप्राणिहितप्रदः । स एवोत्तारणे शक्तो भवाम्भोधौ सुदुस्तरे ॥६४॥ यदा कंठगतप्राणो जीवोऽसौ परिवतते । नान्यः कश्चित्तदा त्राता मुक्त्वा धर्म जिनोदितम् ।।६५|| अल्पायुपा नरेणेह धर्मकर्मविजानता | न झायते कदा मृत्युभविष्यति न संशयः ॥६६॥ आयुर्यस्यापि देवः परिज्ञाते हितान्तके । तस्यापि क्षीयते सधो निर्मलोत्तरयोगतः ।। ६७॥ जिनैर्निगदितं धर्म सर्वसौख्यमहानिधिम् । ये न 'तं प्रतिपद्यन्ते तेषां जन्मनिरर्थकम् ॥ ६८ ॥ हितं कर्म परित्यज्य पागम रज्यते । तेन वै दह्यते चेतः शोचनीयो भविष्यति ॥ ६९ ॥ यदि नामाप्रियं दुःखं सुखं वा यदि वा प्रियम् | ततः कुरुत सद्धर्म जिनानां जितजन्मनाम् ।। ७० ॥ विशुद्धादेव संकल्पात्समं सद्भिरुपायते । स्वल्पेनैव प्रयासेन चित्रमेतदहो परम् ॥७॥ धर्म एव सदा त्राता जीवानां दुःखसंकटात् ।
तस्मात्कुरुत भो यत्नं यत्रांनन्तसुखप्रदे ॥७२।। १ अस्याने भावप्राभृतस्येयं गाथा वर्तते । जीवविमुक्को सवओ दसणमुको य होइ चलसवओ ।
सवओ लोयअपुजो लोउत्सरियम्मि चलसवओ ॥१॥ २ तस्य सः के--पुस्तके । ३ निमित्तोत्तारयोगतः के-पुस्तके । 'तच प्रपद्यन्ते क । ५ तत्रा स ।
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सार-समुच्चय: 1
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यत्वया न कृतो धर्मः सदा मोक्षसुखावहः । प्रसन्नमनसा येन तेन दुःखी भवानिह ||७३|| यत्वया क्रियते कर्म विषयान्धेन दारुणम् । उदये तस्य सम्प्राप्ते कस्ते त्राता भविष्यति ॥७४|| भुक्त्वाप्यनन्तरं भोगान् देवलोके यथेप्सितान् । यो हि तृप्ति न सम्प्राप्तःसाकें प्राप्स्यति सम्प्रति ।।७५॥ वरं हालाहलं भुक्तं विषं तद्भयनाशनम् । न तु भोगविपं भुक्तमनन्तभवदुःखदम् ।।७६।। इन्द्रियप्रभवं सौख्यं सुखाभासं न तत्सुखम् । तच्च कर्मविबन्धाय दुःखदानेकपण्डितम् ।।७७।। अक्षाश्वान्निश्चलं धत्स्व विषयोत्पथगामिनः । वैराग्यपग्रहाकृष्टान् सन्मार्ग विनियोजयेत् ॥७८।। अक्षाण्येव स्वकीयानि शत्रवो दुःखहेतवः। विषयेषु प्रवृत्तानि कषायवशवर्तिनः ।। ७९ ॥ इन्द्रियाणां यदा छंदे वर्तते मोहसंगतः । नदात्मैव तव शत्रुरात्मनो दुःखबन्धनः ।। ८० ॥ इन्द्रियाणि प्रवृत्तानि विषयेषु निरन्तरम् । सज्ज्ञानभावनाशक्त्या वारयन्तीह ते रताः ।। ८१॥ इन्द्रियेच्छारुजामजः ? कुरुते यो झुपक्रमम् । तमेव मन्यते सौख्यं किं तु कष्टमतः परम् ।। ८२ ॥ आत्मामिलापरागाणां यः समः क्रियते बुधैः। तदेव परम तत्वमित्यूचुर्ब्रह्मवेदिनः ।। ८३ ॥
१ वारयन्ति हिते रताः ख । २ मन्यः ।
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सिद्धान्तसावितहेइन्द्रियाणां समे लाभं रागद्वेषजयेन च । आत्मानं योजयेत्सम्यक संमृतिच्छेदकारणम् ॥ ८४॥ इन्द्रियाणि वशे यस यस्य दुष्टं न मानसम् । आत्मा धर्मरतो यस्य सफलं तस्य जीवितम् ।। ८५॥ परनिन्दासु ये मृका निजलाध्यपराङ्मुखाः । ईदृशैर्ये गुणैर्युक्ताः पूज्याः सर्वत्र विष्टपे ||८६।। प्राणान्तिकेऽपि सम्प्राप्ते वर्जनीयानि साधुना । पर लोकविरुद्धानि येनात्मा सुखमश्नुते ।। ८७ ।। स मानयति भूतानि यः सदा विनयान्वितः । स प्रियः सर्वलोकेऽस्मिन्नापमानं समश्नुते ॥ ८८॥ किम्याकस्य फलं भक्ष्यं कदाचिदपि धीमता। विषयास्तु न भोक्तव्या यद्यपि स्युः सुपेशलाः ।। ८९ ।। स्वीसम्पर्कसमं सौख्यं वर्णयन्त्यचुधा जनाः । विचार्यमाणमेतद्धि दुःखानां बीजमुत्तमम् ।। ९० ।। स्मराग्निना प्रदग्धानि शरीराणि शरीरिणाम् । शमाम्भसा हि सिक्तानि निवृत्तिं नैव भेजिरे ॥ २॥ अग्निना तु प्रदग्धानां स(श)मोस्तीति यतोज । स्मरवन्हिपदग्धानां सश)मो नास्ति भवेष्वपि ॥ ९२ ।। मदनोऽस्ति महान्याधिचिकित्स्यः सदा बुधैः । संसारवर्धनेऽत्यथे दुःखोत्पादनतत्परः ।। ९३ ।। यावदस्य हि कामानिहृदये प्रज्वलत्यलम् ।
आश्रयन्ति हि कर्माणि तावदस्य निरन्तरम् ।। ९४ ॥ १ युक्तास्ते पूज्याः सर्वविष्टपे ख.। २ परलोक स. । ३ श्राश्रूयन्ति ख.। ४ ताबत्तस्य स.।
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सार-समुच्चयः ।
२३५ कामाहिदृढदष्टस्य तीव्रा भवति वेदना | थमा सुमोहितो अन्तुः संसार परिपती ।। १ ।। दुःखानामाकरो यस्तु संसारस्य च वर्धनम् । स एव मदनो नाम नराणां स्मृतिमूदैनः ।। ९६ ।। संकल्पाच समुद्भूतः कामसर्पोतिदारुणः । रागद्वेपद्विजिन्होऽसौ वशीकर्तुं न शक्यते ॥ ९७ ॥ दुष्टा येयमनङ्गेच्छा सेयं संसारवर्धिनी । दुःखस्योत्पादने शक्ता शक्ता वित्तस्य नाशने ।। ९८ ॥ अहो ते धिषणाहीना ये स्मरस्य वशं गताः । कृत्वा कल्मषमात्मानं पातयन्ति भवार्णवे ।। ९९ ।। स्मरेणातीवरौद्रेण नरकावर्तपातिना । अहो खलीकृतो लोको धर्मामृतपराङ्मुखः ॥ १० ॥ स्मरेण स्मरणादेव वैरं देवनियोगतः। हृदये निहितं शल्यं प्राणिनां तापकारकम् ॥ १०१ ।। तस्मात्कुरुत सद्वृत्तं जिनमार्गरताः सदा। ये सत्संडितां याति स्मरशल्यं सुदुर्धरम् ।। १०२ ॥ चित्तसंदूपंकः कामस्तथा सद्गतिनाशनः । सदवृत्तध्वंसनवासी कामोऽनर्थपरम्परा ॥ १०३ ।। दोपाणामाकरः कामो गुणानां च विनाशकृत् । पापस्य च निजो बन्धुः परापदां चैव संगमः ॥ १०४॥ पिशाचेनैव कामेन छिद्रितं सकलं जगत् ।
बंभ्रमेति परायनं भवाब्धों स निरन्तरम् ॥ १०५ ।। पतीत्रभाषाति वेदना. क.। २ यस्याप्तिमोहितो क.। ३ बन्दनः खः । ४ संदूषणः ख । ५ निरन्तरः क । '
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सिद्धान्तसारादिसंग्रह
बैराग्यभावनामंत्रैस्तनिवार्य महाबलं । स्वच्छन्दवृत्तयो धीराः सिद्धिसौख्यं अपेदिरे ।। १०६ ।। कामी त्यजति सद्वृत्तं गुरोवाणी हियं तथा । गुणानां समुदायं च चेतः स्वास्थ्य तथैव च ॥ १०७ ।। तस्मात्कामः सदा हेयो मोक्षसौख्यं जिघृक्षुभिः । संसारं चःपरित्यक्तुं वाञ्छद्रियतिसत्तमः ॥ १०८।। कामार्थों वैरिणी नित्य विशुद्धध्यानरोधनौ । संत्यज्यतां महारौ सुखं संजायते नृणाम् ।। १०९ ।। कामदाहो वरं सोढुं न तु शीलस्य खण्डनम् । शैलखंडनशीलानां नरके पतनं ध्रुवं ॥ ११ ॥ कामदाहः सदा नैव स्वल्पकालेन शाम्यति । सेवनाच्च महापापं नरकावपातनम् ॥ १११ ।। सुतीवेणापि कामेन स्वल्पकालं तु वेदना । खंडनेन तु शीलस्य भवकोटिषु वेदना ॥ ११२।। नियतं ग्रशमं याति कामदाहः सुदारुणः। ज्ञानोपयोगसामाद्विष मंत्रपदै यथा ।। ११३ ॥ असेवनमनङ्गस्य शमाय परमं स्मृतम् । सेवनाच परा वृद्धिः शमस्तु न कदाचन ।। ११४ ॥ उपवासोऽवमोदय रसानां त्यजन तथा । अस्नानसेवनं चैव ताम्बूलस्य च वर्जनम् ॥११५|| असेवेच्छानिरोधस्तु निरनुस्मरणं तथा । एते हि निर्जरोपाया मदनस्य महारिपोः ।। ११६ ।।
१ महत्पापं ख।
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सार-समुच्चयः ।
काममिच्छानिरोधेन क्रोधं च क्षमया भृशं । जयेन्मानं मृदत्वेन मोहं संज्ञानसेवया ॥ ११७ ।। तस्मिन्नुपशमे प्राप्ते युक्तं सद्वृत्तधारणं । तृष्णां सुदरतस्त्यक्त्वा विपानमिव भोजन ।। ११८ ॥ कर्मणां शोधन श्रेष्ठं ब्रह्मचर्यसुरक्षित । सारभूतं चरित्रस्य देवैरपि सुपूजितम् ॥ ११९ ॥ या चैषा प्रमदा भाति लावण्यजलवाहिनी । सैंया वैतरणी धोरं दुःखोर्मिशतसंकुलो ॥ १२० ।। संसारस्य च बीजानि दुःखानां राशयः पराः । पापस्य च निधानानि निर्मिता केन योषितः ॥१२१ ।। इयं सा मदनज्वाला बन्हेरिव समुद्भुता । मनुष्यैर्यत्र हूयंते यौवनानि धनानि च ॥ १२२ ॥ नरकावर्तपातिन्यः स्वर्गमार्गदृढार्गलाः । अनर्थानां विधायिन्यो योषितः केन निर्मिताः ॥१२३॥ कृमिजालशताकीर्णे दुर्गन्धमलपूरिते । विण्मूत्रसंवृते स्त्रीणां का काये रमणीयता ॥ १२४ ॥ अहो ते सुचितां प्राप्ता ये कामानलवर्जिताः । मद्वृत्तं विधिनापाल्य यास्यन्ति पदमुत्तमं ॥ १२५ ।।
मोरा स.। २ अस्मादो लोकोऽयं ख-पुस्तके
दर्शने हरते चि स्पर्शने हरते धनम्
संयोगे हरते प्राणं नारी प्रत्यक्षराक्षसी ॥१॥ ३ नराणां ख. । ४ वयात्रसंघृते स. ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहभोगार्थी यः करोत्यज्ञो निदानं मोहसंगतः। चूर्णीकरोत्यसौ रत्नं अनर्थसूत्रहेतुना ॥ १२६ ॥ भवभोगशरीरेषु भावनीयः सदा बुधैः। निर्वेदः परया बुद्धया कर्मारातिजिघृक्षुभिः ।। १२७ ।। यावन मृत्युवत्रेण देहशलो निपात्यते । नियुज्यतां मनस्तावस्कारातिपरिक्षये ॥ १२८ ॥ त्यज कामार्थयोः संग धर्मध्यानं सदा भज । छिद्धि स्नेहमयान पाशान् मानुष्य प्राप दुर्लभम् ।।१२९।। कथं ते भ्रष्टसदवृत्त ? विषयानुपसेवते । पंचतां हरतां तेषां नरके तीनबेदना ॥१३० ।। सद्वत्तभ्रष्टचित्तानां विषयासंगसंगिनाम् । तेषामिहेव दुःखानि भवन्ति नरकेषु च ॥ १३१ ।। विषयास्वादलुब्धेन रागद्वेषवशात्मना । आत्मा च वंचितस्तेन यः शमं नापि सेवते ॥१३२ ॥ आत्मनां यत्कृतं कर्म भोक्तव्यं तदनेकधा | तस्मात् कमोस्रर्व रुद्ध्वा स्वेन्द्रियाणि वशे नयेत्॥१३३॥ इन्द्रियप्रसर रुद्ध्वा स्वात्मानं वशमानयेत् । येन निर्याणसाँख्यस्य भाजनं त्वं प्रपत्स्यसे ।। १३४ ।। सम्पन्नेष्वपि भोगेषु महतां नास्ति गृद्भुता। अन्येषां गृद्धिरेवास्ति शमस्तु न कदाचन ॥ १३५॥ . पखंडाधिपतिश्चक्री परित्यज्य वसुन्धराम् । तृणवत सर्वमोगाँश्च दीक्षा दैगम्बरी स्थिता ।। १३६॥
१ आत्मानो क, आत्मनो ख ।
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सार-समुच्चयः ।
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कृमितुल्यैः किमस्माभिः भोक्तव्यं वस्तु दुस्तरं । तेनात्र गृहपंकेषु सीदामः किमनर्थकम् ।। १३७॥ येन ते जनितं दुःखं भवाम्भोधी सुद्धस्तरम् । कमारातिमताको विजेतुं कि नवासि ।। १३८ ॥ अब्रह्मचारिणो नित्यं मांसभक्षणतत्पराः । शुचित्वं तेऽपि मन्यन्ते किन्तु चिन्त्यमतःपरम् ॥१३९।। येन संक्षीयते कर्म संचयश्च न जायते । तदेवात्मविदा कार्य मोक्षसौख्याभिलापिणा || १४०॥ अनेकशस्त्वया प्राप्ता विविधा भोगसम्पदः । अप्सरोगणसंकीर्ण दिवि देव विराजिते ॥ १४१॥ पुनश्च नरके रौद्रे रौरवेऽत्यन्तभीतिदे । नानाप्रकारदुःखोघैः संस्थितोऽसि विधेर्वशात् ।। १४२ ।। तप्ततैलिकभल्लीषु पच्यमानेन यत्वया । संप्राप्तं परमं दुःखं तद्वक्तुं नैव पार्यते ॥ १४३ ।। नानायंत्रेषु रौद्रेषु पीडयमानेन यन्हिना। दुःसहा वेदना प्राप्ता पूर्वकर्मनियोगतः ॥१४४॥ विण्मूत्रपूरिते भीमे पूतिश्लेष्मावसाकुले । भूयो गर्भगृहे मातुर्दैवाद्यातोऽसि संस्थितिम् ॥ १४५ ।। तिर्यग्गतौ च यदुःखं प्राप्तं छेदनभेदनैः । न शक्तस्तत् पुमान् वक्तुं जिव्हाकोटिशतैरपि ।। १४६॥ संस्तों नास्ति तत्सौख्यं यन्न प्राप्तमनेकधा । देवमानवतियेक्षु भ्रमता जन्तुनानिशं ॥ १४७ ॥
१ मोकव्यं वस्तु मुंदर खः । ३ तं कारातिमायुमं ख. १ ३ चित्र ल. ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
चतुर्गतिनिबन्धेस्मिन् संसारेऽत्यन्तभीतिदे। सुदानान्ममामानि अपना मिशिमोगतः ।। १४८ ॥ एवंविधमिदं कष्ट ज्ञात्वात्यन्तविनश्वरम ।। कथं न यासि वैराग्यं धिगस्तु तब जीवितम् ॥१४९॥ जीवितं विद्युता तुल्यं संयोगाः स्वप्नसन्निभाः । सन्ध्यारागसमः स्नेहः शरीरं तृणबिन्दुक्त ।। १५० ॥ शक्रचापसमा भोगाः सम्पदो जलदोपमाः। यौवनं जलरेखेव सर्वमेतदशाश्वतम् ।। १५१॥ समानयसो दृष्ट्वा मृत्युना स्ववशीकृताः । कथं चेतः समो नास्ति मनागपि हितात्मनः ॥ १५२ ।। सर्वाशुचिमये कांये नश्वरे व्याधिपीडिते । को हि विद्वान् रतिं गच्छेद्यस्थास्ति श्रुतसंगमः ॥१५३।। चिरं सुयोषितः कामो भोजनाच्छादनादिभिः । विकृतिं याति सोऽप्यन्ते कास्था बाह्येषु वस्तुषु ।।१५४।। नायातो बन्धुभिः साध न गतो बन्धुभिः समं । वृथैव स्वजने स्नेहो नराणां मूढचेतमाम् ॥ १५५ ॥ जातेनावश्यमर्तव्यं प्राणिना प्राणधारिणा । अतः कुरुत मा शोकं मृते बन्धुजने बुधाः ॥१५६ ।। आत्मकायें परित्यज्य परकार्येषु यो रतः । ममत्वरतचेतस्कः स्वहितं अंशमेष्यति ॥ १५७ ।। खहितं तु भवेज्ज्ञानं चारित्रं दर्शन तथा ।
तपःसंरक्षणं चैव सर्वविद्भिस्तदुच्यते ॥ १५८ ॥ १ वयसा क. । २ सर्वामयेन कायेन क. । ३ आत्माकार्य, पुस्तकद्वये । ४ ये रताः पुस्तकये । ५ चेतस्काः क-स्त्र. ६ स्वहिताशनेष्यति ख.।
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सार-समुच्चयः ।
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सुखसंभोगसंमूढा विषयावादलम्पटाः । स्वहिताद्धशमागत्य गृहवासं सिषेविरे ॥ १५९ ।। वियोगा बहयो दृष्टा द्रव्याणां च परिक्षयात् । तथापि निवृणः चेतः सुखास्वादनलम्पटः ॥ १६० ॥ यथा च लागते चेनः सम्पति सुनिला ! तथा ज्ञानविदा कार्य प्रयत्नेनापि भूरिणा || १६१ ॥ विशुद्धं मानसं यस्य रागादिमलवर्जितम् । संसारायं फलं तस्य सकलं समुपस्थितम् ।। १६२॥ संसारध्वंसने हीष्टं धृतिमिन्द्रियनिग्रहे । कषायविजये यत्नं नाभन्यो लब्धुमर्हति ॥ १६३ ॥ एतदेव परं ब्रह्म न विन्दन्तीह मोहिनः । यदेतचित्तनमल्यं रागद्वेषादिवर्जितम् ।। १६४ ॥ तथानुष्ठेयमेतद्धि पंडितेन हितैषिणा । यथा न विक्रिया याति मनोऽत्यथै विपत्स्वपि ॥१६५।। धन्यास्ते मानवा लोके ये च प्राप्यापदां पराम् । विकृतिं नैव गच्छन्ति यतस्ते साधुमानसाः ।।१६६॥ संक्लेशो न हि कर्तव्यः संक्लेशो बन्धकारण । संकेशपरिणामेन जीवो दुःखस भाजनं ॥ १६७ ।। संक्लेशपरिणामेन जीवः प्राप्नोति भूरिशः । सुमहत्कर्म पम्बन्धं भवकोटिषु दुःखदम् ।। १६८ ।। चित्तरत्नमसंकिष्ट महतामुत्तमं धनम् | येन सम्प्राप्यने स्थानं जरामरणवर्जितम् ।। १६९ ॥ सम्पत्तौ विस्मिता नैव विपत्तो नैव दुःखिताः । महतां लक्षणं ह्येतन तु द्रव्यसमागमः ॥१७॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
आपत्सु सम्पतन्तीषु पूर्वकर्मनियोगतः । शौयमेन पर वाणं न युक्तमनुशोचनम् ।। १७१॥ विशुद्धपरिणामेन शान्तिर्भवति सर्वतः । संक्लिष्टेन तु चित्तेन नास्ति शान्तिर्भवेष्वपि ॥ १७२ ॥ सक्लिष्टचेतसां पुंसां माया संसारवर्धिनी । विशुद्धचेतसो वृत्तिः सम्पत्तिवित्तदायिनी ॥ १७३॥ यदा चित्तविशुद्धः स्यादापदः सम्पदस्तयों । समस्तत्वविदां पुंसां सर्व हि महतां महत् ॥ १७४ ।। परोऽप्युत्पथमापन्नो निषेद्धं युक्त एव सः । किं पुनः स्वमनोत्यर्थं विषयोत्पथयायिवत् ॥ १७५॥ अज्ञानाद्यदि मोहाद्यत्कृतं कर्म सुकुत्सितम् । व्यावत येन्मनस्तस्मात् पुनस्तन्न समाचरेत् ॥ १७६ ॥ अचिरेणैव कालेन फलं प्राप्स्यसि दुर्मते । विपारेऽतीव तिक्तस्य कर्मणो यत्त्वया कृतम् ॥१७७॥ वर्धमानं हितं कर्म संज्ञानाधो न शोधयेत् । सुप्रभूतार्णवसंग्रस्तः स पश्चात्परितप्यते ॥१७८॥ मुखभाचकते मूढाः किं न कुर्वन्ति मानवाः । येन सन्तापमायान्ति जन्मकोटिशतेष्वपि ।।१७९।। परं च वंचयामीति यो हि मायां प्रयुज्यते । - - -- - - - -.- -.-.
विशुद्धि. क। २ तदा ख.। ३ तत्वविदा पुसा ख. । ४ यत्कृतं क. ५ त्यस्तस्य कर्णय क. । ६ अस्मादने ख-पुस्तके लोकोऽयं
स्वल्गनैघ कालेन फलं प्राप्स्यसि यत्कृतं ।
शश्वदात्मकर्मम्यां गोपयत्सुमनागपि ॥१॥ ७ सुप्रभूतभूतसंग्रस्त ख. ! ८ कृता क. 1
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सार-समुच्चयः ।
इहामुत्र व लोके वै तैरात्मा वंचितः सदा ॥१८॥ पंचतासन्नता प्राप्तं न कृतं सुकृतार्जनं । स मानुषेऽपि संप्राप्ते हा! गतं जन्म निष्फलम् ? ॥१८१।। कर्मपाशविमोक्षाय यत्नं यस्य न देहिनः । संसारे च महागुप्ती बद्धः सतिष्ठते सदा ।।१८२।। गृहाचारकवासेऽस्मिन् विपयामिपलोभिनः । सीदति नरशार्दूला बद्धा बान्धवमन्धनः ॥१८३॥ गर्भवासेऽपि यहःक्खं प्राप्तमत्रैव जन्मनि । अधना विस्मृतं न येनात्मानं न अध्यसे ॥१८४॥ चतुरशीतिलक्षेषु योनीनां भ्रमता त्वया । प्राप्तानि दुःखशल्यानि नानाकाराणि मोहिना ॥१८५॥ कथं नोद्विजसे मूढ ! दुःखात् संमृतिसंभवात् । येन त्वं विषयासक्तो लोभेनास्मिन् वशीकृतः ॥१८६॥ यत्चयोपार्जितं कर्म भवकोटिपु पुष्कलं । तच्छेत्तुं चेन्न शक्तोऽसि गतं ते जन्म निष्फलम् ।।१८७॥ अज्ञानी क्षिपयेत्कर्म यजन्मशतकोट्रिभिः । तज्ज्ञानी तु त्रिगुप्तात्मा निहन्न्यन्तमुहर्ततः ॥१८॥ जीचितेनापि किं तेन कृता न निर्जरा तदा । कर्मणां संवरो वापि संसारासारकारिणांम् ॥१८९|| स जातो येन जातेन स्वकृता पक्कपाचना। कर्मणां पाकघोराणां विविधेन महात्मनाम् ॥१९॥ रोषे रोपं परं कृत्वा माने मानं विधाय च ।
सङ्गे सङ्ग परित्यज्य स्वात्माधीनसुखं कुरु ॥१९॥ १ अधुना किं विस्मृतं तेन स.। २ कर्मणां क,। ३ तेन ख.। ४ निबुझेन स.।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे--
परिग्रहे महाद्वेषो मुक्तौ च रतिरुत्तमा । सथाने चित्तमेका रौद्रा नव संस्थितम् ।।१९२ ।। धर्मस्स संचये यत्नं कर्मणां च परिक्षये । साधना हितं चिर्न सर्वगायन।११३ मानस्तंभं दृढं भक्त्वा लोभार्दैि च विदार्य चें। मायावल्ली समुत्पाट्य क्रोधशत्रु निन्य च ॥१९४॥ यथाख्यातं हितं प्राप्य चारित्रं ध्यानतत्परः । कर्मणां प्रक्षयं कृत्वा प्राप्नोति परमं पदम् ।। १९५।। संगादिरहिता धीरा रागादिमलवर्जिताः । शान्ता दान्तास्तपोभूषा मुक्तिकांक्षणतत्पराः ॥१९६।। मनोवाकाययोगेषु प्रणिधानपरायणाः । वृत्ताट्या ध्यानसम्पबास्ते पात्रं करुणापराः ॥१९७॥ धृतिभावनया युक्ता शुभभावनयान्विताः । तत्वार्थाहितचेतस्कास्ते पात्रं दातुरुत्तमाः ॥ १९८ ।। धृतिभावनया दुःखं सत्वभावनया भवम् | ज्ञानभावनया कर्म नाशयन्ति न संशयः ॥ १९९ ॥ अंग्रहो हि शमे येषां विग्रहं कर्मशत्रुभिः। विषयेषु निरासङ्गास्ते पात्र यतिसत्तमाः ॥२०॥ निःसंगिनोऽपि धृत्ताच्या निस्नेहाः सुश्रुतिप्रियाः। अभूषा पि तपोभूषास्ते पात्रं योगिनः सदा ॥२०१२॥ ममत्वं सदा त्यक्त स्वकायेऽपि मनीषिभिः । ते पात्रं संयतात्मानः सर्वसत्वहिते रताः ।। २०२॥ १ अग्राह्ये हि समे ख.।
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सार-समुच्चयः |
परीषजये शक्तं शक्त कर्मपरिशये । ज्ञानभ्यःनतपोभूषं शुद्धाचारपरायणं ।। २०३ ।। प्रशान्तमानसं सौख्यं प्रशान्तकरणं शुभं । प्रशान्तारिमहामोहकामक्रोधनिमुदनम् ॥ २०४ ॥ निन्दास्तुतिसमं धीरं शरीरेऽपि च निस्पृहं । जितेन्द्रियं जितक्रोधं जितलोभ महाभयं ॥ २०५ ॥ रागद्वेषविनिर्मुक्तं सिद्धिसंगमनोत्सुकम् । ज्ञानभ्यसरतं नित्यं नित्यं च प्रशमे स्थितम् ॥ २०६॥ एवंविधं हि यो ट्वा स्वगृहाङ्गणमागतम् । मात्सर्यं कुरुते मोहात क्रिया तस्य न विद्यते ॥ २०७ ॥ चतुर्भिः मायां निरासिकां कृत्वा तृष्णां च परमौजसः । रागद्वेषौ समुत्मा प्रयाता पद्मक्षयम् ॥ २०८ ॥ धीराणामपि ते धीरा ये निराकुलचेतसः । कर्मशत्रु महासैन्यं ये जयन्ति तपोबलात् ।। २०९ ।। परीषहजये शूराः शूराश्रेन्द्रियनिग्रहे ।
कुलकम् ।
पायविजये शूरास्ते शूरा गदिता बुधैः || २१० ॥ नादत्ते नवं कर्म सच्चारित्रनिविष्टधीः । पुराणं निर्जयेद्वाढं विशुद्धध्यानसंगतः ।। २११ ।। संसारावासनिर्वृत्ताः शिवसौख्यसमुत्सुकाः । सद्भिस्ते गदिताः प्राज्ञाः शेषाः शस्त्रस्य वंचकाः ॥ २१२ ॥ समता सर्वभूतेषु यः करोति सुमानसः । समत्वभावनिको यात्यमी पदमव्ययम् ॥ २१३ ॥
१ ज्ञानभ्यासरतो । २ स्वार्थस्य ख ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
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इन्द्रियाणां जये शूराः कर्मबन्धे च कातग़ः। तत्वाथाहितचेतस्काः स्वशरीरजप निस्ग्रहाः ॥२१४ ॥ परीपहमहारातिवन निदेलनक्षमाः | कषायविजये शूराः स शूर इति कथ्यते ॥२१५॥ संसारध्वंसिनी चया ये कुर्वति सदा नराः । रागद्वेषहतिं कृत्वा ते यान्ति परमं पदम् ॥ २१६ ॥ मलैस्तु रहिता धीरा मलदग्धोङ्गयष्टयः । सब्रह्मचारिणो नित्यं ज्ञानाभ्यास सिपेविरे ॥२१७ ।। ज्ञानभावनया शक्ता निभृतेनान्तरात्मनः । अप्रमत्तं गुणं प्राप्य लभन्ते हितमात्मनः ।। २१८॥ संसारावासभीरूणां त्यक्तान्तर्बाह्यसंगिनाम् । विषयेभ्यो निवृत्तानां शाध्य तेषां हि जीवितम्।।२१९॥ समः शत्रौं च मित्रे च समो मानापमानयोः । लाभालाभे समो नित्यं लोष्ठकांचनयोस्तथा ।। २२० । सम्यक्त्वभावनाशुद्धं ज्ञानसेवापरायणं । चारित्राचरणासक्तमक्षीणसुखकाक्षिणम् ।।२२१॥ ईदृशं श्रमणं दृष्ट्वा यो न मन्येत दुष्टधीः । नृजन्मनिष्फलं सारं संहारयति सर्वथा ||२२२।। रागादिवजनं सङ्गं परित्यज्य दृढव्रताः। धीरा निर्मलचेतस्काः तपस्यन्ति महाधियः ॥२२३३॥ संसारोद्विग्नचित्तानां निःश्रेयससुखैषिणाम् । सर्वसंगनिवृत्तानां धन्यं तेषां हि जीवितम् ॥२२४॥ १ परमां गति स.। २ दिग्धा. ख.। ३ सिक्का स्व.। ४ निभृतैरन्तरा मन: स. । ५ परित्यक क. प्रपश्यन्ति क. । ७.महधियाः क. ।
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सार-समुच्चयः ।
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सप्तभीस्थानमुक्तानां यत्रास्तमितशायिनाम् । त्रिकालयोगयुक्तानां जीवितं सफलं भवेत् ॥२२५।। आनरौद्रपरित्यागाद् धर्मशुक्लसमाश्रयात् । जीवः प्राप्नोति निर्वाणमनन्तसुखमच्युतं ॥२२६॥ आत्मानं विनयाम्याशु विपयेषु परामखः । साधयेत्स्वहितं प्राज्ञो ज्ञानाभ्यासरतो यतिः ॥२२७॥ यथा संगपरित्यागस्तथा कर्मविमोचनम् । यथा च कर्मणां छेदस्तथासन्न परं पदम् ।।२२८॥ यत्परित्यज्य गन्तव्यं तत्स्वकीयं कथं भवेत् । इत्यालोच्य शरीरेऽपि विद्वान् तां च परित्यजेत् ॥२२९।। नूनं नात्मा प्रियस्तेषां ये रताः संगसंग्रहे । समासीनाः प्रकृतिस्थाः स्वीकतु नवशक्य ॥२३०॥ शरीरमात्रसंगेन भवेदारंभवर्धनम् । तदशाश्वतमत्राणं तस्मिन् विद्वान रतिं त्यजेत् ॥२३१॥ संगात्संजायते गृद्धिगुद्धौ वाञ्छति संचयम्। संचयाद्वर्धते लोभो लोभाःखपरंपरा ।।२३२।। ममत्वान्जायते लोभो लोभाद्रागश्च जायते । रागाच्च जायते द्वेषो द्वेषादःखपरंपरा ॥२३३।। निर्ममत्वं परं तत्वं निर्ममत्वं परं सुखं । निर्ममत्वं परं बीजं मोक्षस्य कथितं बुधैः ॥२३४|| निर्ममत्वे सदा सौख्यं संसारस्थितिच्छेनम् ।
जायते परमोत्कृष्टमात्मनः संस्थिते सति ॥२३५॥ १ दिनयाभ्यासे ख, । २ विद्वानाशी परित्यजेत ख. । ३ मंत्राणां क, मात्राणां
ख.। ४ भेदन क. ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहेअर्थो मूलमनर्थानामों नितिनाशनम् । कपायोत्पादकश्चार्थो दुःखानां च विधायकः ।। २३६ ॥ प्राप्तोज्झितानि वित्तानि त्वया सर्वाणि संसतो। पुनस्तेषु रतिः कष्टा मुक्तवान्त इवौदने ॥ २३७ ॥ को वा वित्तं समादाय परलोकं गतः पुमान् । येन तृष्णाग्निसंतप्तः कर्म बध्नाति दारुणम् ।। २३८ ॥ तृष्णान्धा नैव पश्यन्ति हितं वा यदि वाहितम् । युन्सोपाजनमाणाध महाशि राशियो जगः ! २३९ ।। सन्तोषसारसद्रत्नं समादाय विचक्षणाः । भवन्ति सुखिनो नित्यं मोक्षसन्मार्गवर्तिनः ॥२४॥ तृष्णानलप्रदीप्तानां सुसौख्यं तु कुतो नृणाम् । दुःखमेव सदा तेषां ये रता धनसंचये ॥ २४१॥ सन्तुष्टाः सुखिनो नित्यमसन्तुष्टाः सुदुःखिताः । उभयोरन्तरं ज्ञात्वा सन्तोषे क्रियतां रतिः ।। २४२ ॥ द्रव्याशां दूरतस्त्यक्त्वा सन्तोपं कुरु सन्मते ! । मा पुनर्दीर्घसंसारे परिष्यसि निश्चितम् ।। २४३ ।। ईश्वरो नाम सन्तोषी यो प्रार्थयते परम् । प्रार्थनां महतामत्र परं दारियकारणम् ॥ २४४॥ हृदयं दह्यतेऽत्यर्थ तृष्णाग्निपरितापितं । न शक्यं शमनं कर्तुं विना सन्तोषचारिणा ॥ २४५ ॥ यैः सन्तोषामृतं पीतं निर्ममत्वेन वासितं । त्यक्तं तैर्मानसं दुःखं दुर्जनेनेव सौहृदं ॥ २४६ ॥ १ कष्टं ख. । २ कियते क । ३ सन्तोषोदकं ख. १ ४ दुर्जनेनैव क।
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सार-समुच्चयः ।
२४९ यः सन्तोषामृतं पीतं तृष्णातृप्रणाशनं । तैश्च निर्वाणसौख्यस्य कारणं समुपार्जितम् ॥ २४७।। सन्तोयं लोभनाशाय रतिं च सुखशान्तये | ज्ञानं च तपसां वृद्धौ धारयन्ति दिगम्बराः ॥ २४८॥ ज्ञानदर्शनसम्पन्न आत्मा चैको ध्रुवो मम । शेषा भावाश्च मे बाह्या सर्वे संयोगलक्षणाः ॥ २४९ ॥ सयोगमृलजीवन प्राप्ता दुःखपरंपरा। तसात्संयोगसम्बन्धं त्रिविधेन परित्यजेत् ॥ २५॥ ये हि जीवादयो भावाः सर्वज्ञैर्भाषिताः पुराः। अन्यथा च क्रियास्तेषां चिंततार्थनिरर्थकाः ॥ २५१ ।। यथा च कुरुते जन्तुर्ममत्वं विपरीतधीः । तथा हि बन्धमायाति कर्मणस्तु समन्ततः ॥२५२ ।। अज्ञानावृतचित्तानां रागद्वेषरतात्मनाम् । आरंभेषु प्रवृत्तानां हितं तस्य न भीतवत् ॥ २५३ ।। परिग्रहपरिष्वङ्गाद्रागद्वेषश्च जायते । रागद्वेषौ महानन्धः कर्मणां भक्कारणम् ॥ २५४ ।। सर्वसङ्गान् पशून् ? कृत्वा ध्यानामिनाहुति क्षिपेत् । कर्माणि समिधश्चैव योगोऽयं सुमहाफलम् ।। २५५ । राजसूयसहस्राणि अश्वमेधशतानि च।। अनन्तभागतुल्यानि न स्युस्तेन कदाचन ॥२५६।। सा प्रज्ञा या शमे याति विनियोगपुराहिता ।
शेषा च निदेया प्रज्ञा कर्मोपार्जनकारिणी ॥२५॥ १ संतोषो क । २ धृतिः क्ष.। ३ चिन्तात्र निरर्थकाः ख । ४ सर्वसंगात् पसून् कृत्वा स्व.
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
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प्रज्ञाङ्गना सदा सेव्या पुरुषेण सुखावहा । हेयोपादेयतत्वज्ञा या रता सर्वकर्मणि ॥ २५८ ।। दयाङ्गना सदा सेव्या सर्वकालफलप्रदा। सेवितासौं करोत्याशु मानसं करुणात्मनम् ॥ २५९ ॥ मैन्यङ्गना सदोगामा हृदयानन्द कारिणी या विधत्ते कृतोपास्तिश्चित्तं विद्वेपवर्जितं ॥ २६ ॥ सर्वसत्वे दया मैत्री यः करोति सुमानसः । जयत्यसावरीन् सर्वान् बाह्याभ्यन्तरसंस्थितान् ॥२६॥ शमं नयन्ति भूतानि ये शक्ता देशनाविधा । कालादिलब्धियुक्तानि प्रत्यहं तस्य निर्जरा ॥ २६२।। शमो हि न भवेद्येषां ते नराः पशुसन्निभाः । समृद्धा अपि तच्छास्त्रे कामार्थरति सङ्गिनः ।।२६३।। चित्तं ( ) नरकतिर्यक्षु भ्रमतोपि निरन्तरं । यतोऽसौ विद्यते नैव समो दुरितवन्धिनः ॥२६॥ मनस्वाल्हादिनी सेव्या सर्वकालसुखप्रदा। उपसेव्या त्वया भद्र ! क्षमा नाम कुलाङ्गना ॥ २६५॥ क्षमया क्षीयते कर्म दुःखदं पूर्वसंचितं । चित्तं च जायते शुद्धि विद्वेषभयवाज॑तम् ॥२६६॥ प्रज्ञा तथा च मंत्री च समता करुणा क्षमा |
सम्यक्त्वसहिता सेच्या सिद्धिसौख्यसुखप्रदा ॥२६७।। १ कामः ख. २ करुणात्मनां क; करुणात्मज ख । ३ युक्तस्य स्त्र.1 ४ सच्छाने ख.। ५ जन्तोः मृविद्यते ख.। ६ अस्मात् श्लोकारपूर्वमयश्लोकः ख-पुस्तके ।
कर्मणां ध्वंसने चित्तं राग मोहारिनाशने ।
द्वेष कषायधगे च नायोग्यो लब्धुमर्हति ।। १ ॥ ७ कर्म क.। ८ प्रज्ञासूया स्त्र. ।
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सार-समुच्चयः ।
२५१ भयं याहि भवाद्भीमात् प्रीति च जिनशासने । शोक पूर्वकृतात्पापाद्यदीच्छेद्धितमात्मनः ॥२६८|| कुसंसर्गः सदा त्याज्यो दोषाणां प्रविधायकः । सगुणोऽपि जनस्तेन लघुतां याति तत्क्षणात् ॥२६९|| सत्सङ्गो हि युधैः कार्यः सर्वकालसुखप्रदः । तेनैव गुरुतां याति गुणहीनोऽपि मानवः ॥२७॥ साधूनां खलसंन चेथित मालनं भवेत् । सैहिकेयसमाशक्या भाव्यं भावोरपि क्षयः ? ॥२७१॥ ग़गादयो महादोषाः खलास्ते गदिता बुधैः। तेषां समाश्रयस्ताज्यस्तत्वद्विद्भिः सदा नरैः ॥२७२।। गुणाः सुपूजिता लोके गुणाः कल्याणकारकाः । गुणहीना हि लोकेऽस्मिन् महान्तोऽपि मलीमसाः॥२७३।। सद्गुणैः गुरुतां याति कुलहीनोऽपि मानवः । निर्गुणः सकुलाढयोपि लघुतां याति तत्क्षणात् ।।२७४॥ सत्तः पूज्यते देवैराखण्डलपुरःसरैः। असद्वृत्तस्तु लोकेऽस्मिन्निन्द्यतेऽसौ सुरैरपि ॥२७५।। चारित्रं तु समादाय ये पुनर्भोगमागताः । ते साम्राज्यं परित्यज्य दास्यभावं प्रपेदिरे ।।२७६।। शीलसंधारिणां पुसां मनुष्येषु सुरेषु च । आत्मा गौरवमायाति परत्रेह च संततं ॥२७७॥ आपदो हि महाघोराः सत्वसाधनसंगतैः । निस्तीर्याय महोत्साहैः शीलरक्षणतत्परः ॥२७८।। १ सैहिकेयारसमासक्तया भत्याभागोऽपि क्षया ख. । २ निस्तीयते स्व.।
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२५२
सिद्धान्तसारादिसंग्रह
परं तरक्षणतो मृत्युः शीलसंयमधारिणाम् । न तु सन्छीलभंगेन साम्राज्यमपि जीवितम् ।।२७९|| धनहीनोऽपि शीलादयः पूज्यः सर्वत्र विष्टपे । शीलहीनो धनाढयोऽपि न पूज्यः स्वजनेष्वपि ॥२८॥ बरं शत्रुगृहे भिक्षा याचना शीलधारिणां । न तु सच्छीलभंगेन साम्राज्यमपि जीवितम् ।। २८१ ॥ वर सदैव दारियं शीलश्वर्यसमन्वितम् । न तु शीलविहीनानां विभवाश्चक्रवर्तिनः ॥२८२॥ धनहीनोऽपि सद्वत्तो याति निर्वाणनाथतां । चक्रवर्त्यप्यसद्वृत्तो याति दुःखपरम्पराम् ॥२८३॥ सुखरात्रिभवेत्तेषां येषां शील सुनिर्मलम् । न सच्छीलविहीनानां दिवसोऽपि सुखावहः ॥२८४॥ देहं दहति कायाग्निस्तरक्षण समुदीरितम् | वर्धमानः समामयं चिरकालसमार्जितम् ।।२८५।। क्रोधेन वर्धते कर्म दारुणं भववर्धनम् । शिक्षा च क्षीयते सद्यस्तपसा समुपार्जितम् ।।२८६॥ सुदुष्टमनसा पूर्व यत्कर्मममुपार्जितम् । तस्मिन् फलंप्रदेयास्ते कोज्येषां क्रोधमुहेत् ।।२८७॥ विद्यमाने रणे यद्वञ्चेतसो जायते धृतिः । कर्मणा योध्यमानेन किं विमुक्तिने जायते ॥२८८|| स्वहितं यः परित्यज्य सयत्नं पापमाहरेत् ।
क्षमा न चेत्करोम्यस्य स कृतघ्नो न विद्यते ॥२८॥ __ १ कल्पान्तमपि स्व. । २ श्लोकोऽयं ख-पुस्तके नास्ति । ३ दिवसो न क ४ फलप्रदेयास्ति स । ५ च. स्व.।।
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सार-समुच्चयः । शत्रुभावस्थितान् यस्तु करोति वशवर्तिनः। प्रज्ञाप्रयोगसामथ्यात् स शूरः स च पंडितः ॥२९॥ विवादो हि मनुष्याणां धर्मकामार्थनाशकत् । वैरान् बन्धुजनो नित्यं वाहितुं कर्मणा जनाः।।२९१॥ धन्यास्ते मानवा नित्यं ये सदा क्षमया युताः । । वंचमाना स ? वै लुब्धा विवादं नेवकुर्वते ॥२९२॥ वादेन बहवो नष्टा येऽपि द्रव्यमहोत्कटाः । वरमर्थपरित्यागो न विवादः खलैः सह ॥२९३॥ अहंकारो हि लोकाना विनाशाय न वृद्धये । यथा विनाशकाले स्थात् प्रदीपस्य शिखोज्वला ॥२९४॥ हीनयोनिषु बंभ्रम्य चिरकालमनेकधा । उच्चगोत्रे सकृत्प्राप्ते कोऽन्यो मानं समुद्हेत् ॥ २९५॥ रागद्वेषौ महाशत्रू मोक्षमार्गमलिम्लुचौ । ज्ञानव्यानतपोरन हरतः सुचिरार्जितम् ।। २९६ ॥ चिरं गतस्य संसारे बहुयोनिसमाकुले। प्राप्ता सुदुर्लभा बोधिः शासने जिनभापिते ॥ २९७ ॥ अधुना तां समासाद्य संसारच्छेदकारिणीम् । प्रमादो नोचितः कर्तु निमेषमपि धीमता ।। २९८॥ प्रमादं ये तु कुर्वन्ति मूढा विषयलालसाः । नरकादिषु तिर्यक्षु ते भवन्ति चिरं नराः ॥२९९ ।। आत्मा यस्य वशे नास्ति कुतस्तस्य परे जनाः। आत्माधीनस्य शान्तस्य त्रैलोक्यं वशवर्तिनः ॥३०॥
१ बन्धजन नापि नित्य नाहितकर्भणां ख. । २ वातनं ख ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
आत्माधीनं तु यत्सौख्यं तत्सौख्यं वर्णितं बुधैः । पराधीनं तु यत्सौख्यं दुःखमेव न तत्सुखं ॥३०१॥ पराधीनं सुखं कष्टं राज्ञामपि महौजसां। तस्मादेतच समालोच्य आत्मायत्तं सुखं कुरु ।। ३०२ ॥ • आत्मायत्तं सुखं लोके परायत्तं न तत्सुखं । एतत् सम्यग्विजानन्तो मुंह्यन्ते मानुपाः कथम् ॥३०३॥ नो संगाज्जायते सौख्यं मोक्षसाधनमुत्तमम् । संगाच्च जायते दुःखं संसारस्य निकन्धनम् ।।३०४।। पूर्वकर्मविपाकेन बाधायां यच्च शोचनम् । तदिदं तु स्वदष्टस्य जरचेडाहिताडनम् ॥ ३०५ ।। अन्यो हि बाधते दुःखं मानसं न विचक्षणे । पवनीयते तूल मेरोः शृङ्ग न जातुवित् ।। ३०६॥ परज्ञानफलं वृत्तं न विभूतिगरीपसी । तथा हि वर्धते कर्म सद्वत्तेन विमुच्यते ॥३०७॥ संवेगः परम कार्य श्रुतस्य गदितं बुधैः । तस्माये धनमिच्छन्ति ते विच्छेत्यमृताद्विपम् ॥ ३०८| श्रुतं वृत्तं शमो बेषां धनं परमदुर्लभम् । ते नरा धनिनः प्रोक्ताः शेषा निधनिनः सदा ॥३०९॥ को वा वृप्ति समायातो भोगैर्दुरितवन्धनः । देवो वा देवराजो वा चक्रांको वा नराधिपः ॥ ३१॥ आत्मा वै सुमहत्तीर्थ यदासौ प्रशमे स्थितः ।
यदासौ प्रशमो नास्ति ततस्तीर्थनिरर्थकम् ॥३१॥ १ मुच्यन्ते क । जरत् वेन्याहिताडनं ख । २ यथा क. ।
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सारसमुच्चयः ।
inner
शीलवतजले स्नातुं शुद्धिरस्य शरीरिणः । न तु स्नातस्य तीर्थेषु सर्वेष्वपि महीतले ॥३१२॥ रागादिवर्जितं स्नानं ये कुर्वन्ति दयापराः । तेषां निर्मलता योगैने च स्नातस्य वारिणा ॥३१३॥ आत्मानं स्नापयेन्नित्यं ज्ञाननीरेण चारुणा। . येन निर्मलतां याति जीवो जन्मान्तरेष्वयि ॥३१४|| सर्वाशुचिमये काये शुक्रशोणितसंभवे । शुचित्वं येऽभिवाञ्छन्ति नष्टास्ते जडचेतसः ।।३१५॥ औदारिकशरीरेशस्मिन् सप्तधातुमयेऽशुचौ । शुचित्वं येऽभिमन्यन्ते पशवस्तेन मानवः ॥३१६॥ सत्येन शुद्धयते वाणी मनो ज्ञानेन शुद्धयति । गुमशुश्रूषया कायः शुद्धिरंप सनातनः ।।३१७॥ स्वर्गमोक्षोचितं नृत्वं मूडैर्विषयलालसैः । कृतं स्वल्पसुखस्याथै तियङ्नरकभाजनम् ॥३१८|| सामग्री प्राप्य सम्पूर्णा यो विजेतुं निरुद्यमः । विषयारिमहासैन्यं तस्य जन्मनिरर्थकम् ॥३१०॥ निरवा वदेद्वाक्यं मधुरं हितमर्थवत् । प्राणिना चेतसोऽल्हादि मिथ्यावादेबहिष्कृतम् ॥३२०॥ प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः । तस्मात्तदेव वक्तव्यं किं वाक्येऽपि दरिद्रता ॥३२१॥ व्रतं शीलतपोदानं संयमोऽर्हत्पूजनम् । दुःखविच्छित्तये सर्व प्रोक्तमतन्न संशयः ॥३२२॥
१ योगे क. योग्ये ख.। २ वादि क ख,।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
तृणतुल्यं परद्रव्यं परं च खशरीरवत् । परम " मातुः नामा मारि परं पदम् ॥३२३॥ सम्यक्त्वसमतायोगे नै संन्य क्षमता तथा । कषायविषयासंगः कर्मणां निर्जरा परा ॥३२४॥ अयं तु कुलभद्रेण भवविच्छित्तिकारणम् । हब्धो बालस्वभावेन ग्रन्थः सारसमुच्चयः ।।३२५॥ ये भक्त्या भावयिष्यन्ति भवकारणनाशनम् । तेचिरेणैव कालेन प्राश्वं ? प्राप्स्यति शाश्वतम् ।।३२६॥ सारसमुच्चयमेतद्ये पठन्ति समाहिताः । ते स्वल्पेनैव कालेन पदं यास्यन्त्यनामयं ।।३२७।। नमः परमसद्ध्यानविघ्ननाशनहेतवे । महाकल्याणसम्पत्तिकारिणेरिष्टनेमये ||३२८॥ इति *श्रीकुलभद्रविरचितं सारसमुश्चयचारित्रं
समाप्तम् ।
१ परं वचः शरीरवत् क.. 1 २ संघ का । ३ समता क. ।
* पुष्पमध्यमतः पाठः पुस्तक हयेऽपि नास्ति । ' इति सारसमुचप्रन्थ समाप्तं' इति ख-पुस्तके पाटः ।
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सिरिसुहचंदाइरियविरइया
अंगपण्णत्ती।
द्वादशाङ्गप्रशतिः।
सिद्धं बुद्धं णिचं णाणाभूसं णमीय सुहयंदं । वोच्छे पुच्चपमाणमेगारहअंगसंजुत्तं ॥ १ ॥
सिद्धं बुद्धं नित्यं ज्ञानभूषणं नत्वा शुभचन्द्रम् ।
वक्ष्ये पूर्वप्रमाणभकादशाङ्गसंयुतम् ।। तिविहं पयं जिणेहिमत्थपयं खलु पमाणपयमुत्तं । तदियं मज्झपयं हु तत्थस्थपयं परूवेमो ॥ २ ॥
त्रिविधं पदं जिनरर्थपदं खलु प्रमाणपदमुक्तम् ।
तृतीयं मध्यमपदं हि तत्रार्थपदं प्ररूपयामः ॥ जाणदि अत्थं सत्थं अक्खरहेण जेत्तियेणेव । अस्थपर्य तं जाणह घडमाणय सिग्वामिच्चादि ।। ३॥
जानाति अर्थ साधै अक्षरव्यूहेन यावतैव ।
अर्थपदं तज्जानीहि घटमानय शीघ्रमित्यादि ।। छंदपमाणपबद्धं पमाणपयमेत्य मुणह जं तं खु । मज्झययं जं आगमभणियं तं सुणह भवियजणा ॥४॥
छन्दःप्रमाणप्रबद्धं प्रमाणपदमत्र जानीहि यत्तत् खलु ।
मध्यमपदं यदागमणितं तच्छृणुत भव्यजनाः ! ॥ सोलससयचोत्तीसा कोडी तियसीदिलक्खयं जत्थ । सत्तसहस्सहसयाडसीदपुणरुत्तपदवण्णा ॥५॥
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२५८
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
पोडशशतचतुस्त्रिंशत्कोटयः व्यशीतिलक्षाणि यत्र ! सप्तसहस्राणि अष्टशतान्यष्टाशीतिरपुनरुक्कपदवर्णाः १६३४, ८३, ७, ८, ८८ मध्यमपदाक्षर संख्या । संखसहस्स पयेहिं संघादसुदं गिरूवियं जाण । इगिदरगदीण रम्मं तं संखेज्जेहिं पडिवती ॥ ६॥ संख्यातसहस्रपदैः संघाततं निरूपितं जानीहि एकतरगतीनां रम्यं तत्संख्यातः प्रतिपत्तिः || चउगइसरूवरूवयप डिसंखदेहिं अगियोगं । चोदसमरगणसण्णाभेय विसेसे हि संजुत्तं ॥ ७ ॥ चतुर्गतिस्वरूपरूपकप्रतिपत्तिसंख्यातैरनुयोगम् । चतुर्दशमार्गणा सज्ञाभेदविशेपैः संयुक्तं ॥
चउरादी अभियोगे पाहुडपाहुडदं सया होदि । चवीसे म्हि हवे पाहुडयं वत्थु श्रहियारे ॥ ८ ॥ चतुराद्यनुयोगे प्राभृतप्राभृतश्रुतं सदा भवति । चतुर्थितौ तस्मिन् भवेत् प्राभृतं वस्तुविकारे ॥ वीस वीसं पाहुडअहियारे एकवत्थु अहियारो । तहिं दस चोइस अवारसयं वार वारं च ॥ ९॥
त्रिशतीवित प्राभृताविकार एकवस्त्त्रधिकारः । तत्र दश चतुर्दश अट अटादश द्वादया द्वादश च । सोलं च वीस ती पगारसमं च चउसु दस वत्थु । एदेहि बन्धुचिउदपुच्चाहवंति पुगो ॥ १० ॥
पोडश च विंशतिः त्रिशत् पंचदश च चतुर्षु दश वस्तूनि । एतैः वस्तुभिः चतुर्ददापूर्वाणि भवन्ति पुनः ॥
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अंगपण्णत्ती ।
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पणणउदिसया पत्थू णवयसया तिसहस्सपाहुडया। चउदस पुन्चे सने हवनि मिलिया ताहि ।।११। पंचनबतिशतानि वस्तूनि नवकशतानि त्रिसहस्रनाभतानि |
चतुर्दश पूर्वाणि सर्वाणि भवन्ति मिलितानि च तानि तत्र ॥ वत्थू १९५ वत्थू एक प्रति पाइड २० । पाझुडसंख्या ३९००, पाइड एक प्रति पाड, (पाहुड) २४ जात अनुयोगसंख्या २२, ४६, ४०० अनुयोगे पाहुडसंख्या ।
सयकोडी मारुत्तर तेसीदीलक्खमंगगंधाणं । अट्टाचण्णसहस्सा पयाणि पंचेव जिणदिई ॥ १२ ।।
शतकोटिः द्वादशोत्तरा त्र्यशीतिलक्षाण्यगनंथानां ।
अष्टापंचाशत्सहस्राणि पदानि पंचैव जिनदृष्टानि ॥ द्वादशाङ्गश्रुतपदानां संख्या ११२, ८३, ५८,००,५। पण्णत्तरि वण्णाणं संयं सहस्साणि होदि अहेव । इगिलक्खमहकोडि पइष्णयाणं पमाणं हु ।। १३ ॥
पंचसप्ततिः वर्णानां शतं सहस्राणि भवंति अष्टैव । एकलक्षं अष्टकोट्यः प्रकीर्णकानां प्रमाणं हि ॥ अङ्गबाह्यश्रुताक्षरसंख्या ८, ०१, ०१, १७५ । पणदस सोलस पण पण णव णभ सग तिणि चेव संग । सुणं चउचउसगछचउचउअट्टेकसम्बसुदवण्णा ॥१४॥ पंचदश पोडश पंच पंच नव नभः सप्त त्रीणि चैप सप्त ।
शून्यं चतुःचतुःसप्तपट्चतुःचतुरष्टैकसर्वश्रुतवर्णाः !! १ तिणि पुस्तके पाठः । २ सग हात पाठः पुस्तके । ३ सुर्ण पुस्तके पाठः। ४ सव इति पाठः पुस्तके ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
- सर्वश्रुताक्षराणि१८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ । आयारं पढमंग तत्थहारससहस्सपयमेस । यस्थायरति भब्वा मोक्खपहं तेण तं पाम ॥ १५ ॥
आचारं प्रथमांग तत्राष्टादशसहस्रपदमात्र ।
यत्राचरन्ति भत्र्या मोक्षपथं तेन तन्नाम । कहं चरे कहं तिहे कहमासे कहं सये। कह भासे कह झुंजे कह पावं ण बंधह ॥ १६ ॥
कथं चरेत् कथं तिष्ठेत् कथमासीत कथं शयीत !
कथं भाषेत कथं मुंजीत कथं पापं न बध्यते । जदं चरे जदं तिहे जदमासे जदं सये। जदं भासे जदं मुंजे एवं पार्वण बंधा ।। १७ ॥ __ यतं चरेत् यतं तिष्ठेत् यतं आसीत यतं शयीत |
यतं भाषेत यतं मुंजीत एवं पापं न बध्यते ॥ महव्ययाणि पंचेव समिदीओक्खरोहणं । लोओ आवसयाछक्कमवच्छण्हभूसया ॥ १८॥ महावतानि पंचैव समितयोऽक्षरोधनं ।
लोच आवश्यकपर्ट अवत्रस्नानभूशयनानि ॥ अदंतवणमेगभत्ती ठिदिभोयणमेव हि । यदीर्ण यं समायारं वित्थरेवं परूवए ॥ १९ ॥
अदन्तमनैकभक्ते स्थितिभोजनमेव हि । यतीनां यं समाचारं विस्तारेणैत्र प्ररूपयेत् ॥
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अंगपण्णत्ती।
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___ आचाराङ्गस्य पदानि १८००० । आचाराङ्गस्य श्लोकसंख्या, ९१९" ५९२३११८७००० | आचाराङ्गस्य अक्षरसंख्या २९९२६९५४१९८४००० इति ।
आयारांगं गर्द-इत्याचाराङ्गं गतं ।
सूदय विदियंग छत्तीससहस्सपयपमाणं खु । सूचयदि मुत्तत्थ संखेवा तस्स करणं तं ॥ २० ॥
सूत्रकृत् द्वितीयाङ्गं पटुिंशत्सहस्रपदप्रमाणं खलु ।
सूचयति सूत्रार्थ संक्षेपण तस्य करणं तत् ।। णाणविणयादिविघातीदाझयणादिसबसकिरिया । पण्णायणा (य) सुकथा कप्पं ववहारविसकिरिया ॥ २१ ॥
ज्ञानविनयादिविनातीतस्वाध्यायादिसर्वसक्रिया । प्रज्ञापना च सुकथा कल्प्यं व्यवहारवपक्रिया || छेदोवहावणं जइण समयं यं परूवदि । परस्स समयं जत्थ किरियामेया अणेयसे ॥ २२॥
छेदोपस्थापनं यतीनां समयं यत् प्ररूपयति ।
परस्य समन्यं यत्र क्रियाभेदान् अनेकशः ॥ पयपमाणं ३६००० श्लोकप्रमाणे १८३९१८४६ ३७४००० अक्षरप्रमाण ५८८५३९०८३९६८०००।
इदि सूदयर्ड विदियंगं गदं-इति सूत्रकृद् द्वितीया गतं ।
पादालसहस्सपदं ठाणंग ठाणभेयसंजुत्तं । चिहंति ठाणभेया एयादी जत्थ जिणदिहा ॥ २३ ॥ ५ तस्य सूत्रस्य कृतं करणं । २ स्वसमयं जैनसमयं ।
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सिद्धान्तमासीधसंग्रह
द्वाचत्वारिंशत्सहस्रपदं स्थानाङ्गं स्थानभेदसंयुक्तं ।
तिष्ठन्ति स्थानभेदा एकादयो यत्र जिनदृष्टाः ॥ संगहणयेण जीवो एक्को ववहारदो दु संसारिओ मुत्तो। सो तिविहो पुणुप्पादन्वयधोव्वर्सजुत्तो ॥ २४ ॥
संग्रहनयेन जीव एको व्यबहारतस्तु संसारी मुक्तः ।
स त्रिविधः पुनरुत्पादध्ययधौव्यसंयुक्तः || चउगइसंकमणजुदो पंचविहो पंचभावभेएण । पुव्यपरदकिवणुत्तरउडाधोगमणदो छद्धा ॥ २५ ॥
चतुर्गतिसंक्रमणयुक्त: पंचविधः पंचभावभेदैन ।
पूर्वीपरदक्षिणोत्तरो धोगमनत: षोढा ॥ सिय अस्थि णस्थि उहयं सिय बत्तवं च अस्थिवत्तव्वं । सिय वत्तव्यं णत्थि उमहो वत्तव्यमिदि सत्त ।। २६ ।।
स्यादस्ति, नास्ति, उभयः, स्यादवक्तव्यः, अस्त्यवक्तव्यः, । स्यादवक्तव्यो नास्ति, उभयोऽवक्तव्य इति सप्त ।। अहविहकम्मजुत्तो अस्थि णवच्छ पक्थगो जीवो। पुढविजलतेउवाउपञ्चेयणिगोयवितिचपगा ॥२७॥
अठविधकर्मयुक्तः अस्ति मवधा नवर्थको जीवः ।
पृथ्वीजलतेजोत्रायुप्रत्येकानगोदद्वित्रिन्तु पंचेन्द्रियाः ॥ दहभेया पुण जीवा एवमजीवं तु पुग्गलो एक्को । अणुखंधादो दुविहो एवं सव्वस्थ णायव्वं ॥ २८ ॥ दशभेदाः पुनः जीत्रा एकोऽजीवः तु पुद्गलः एकः । अणुस्कन्धतो द्विविध एवं सर्वत्र ज्ञातव्यं ।।
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अंगपण्णत्ती ।
ठाणांगस्स पयप्पमाणं ४२००० लोक२१४५७१५४१०३००० अक्षरप्रमाणं ६८६६२८९३१२९६००० |
हृदि ठाणा तिदियं गदं इति स्थानात तृतीयं गतम् ।
सभवायंग अडकदिसहस्समिगिलक्खमाणुषयमेत्तं । संग्रहणयेण दव्वं खेतं कालं पच भये ॥ २९ ॥ समवाया अष्टकृतिसहस्रं एकलक्षमानपदमात्रं । संग्रहनयेन द्रव्यं क्षेत्र काळं प्रतीत्य भावें ॥ दीवादी अनियंति अत्था णर्जति सरित्यसामण्णा । दवा धमाधम्माजीवपदेसा तिलोयसमा ॥ ३० ॥ दीपादयो अवेयन्ते अर्था ज्ञायन्ते सदृशसामान्येन । द्रव्येण धर्माधर्मजीव प्रदेशाः त्रिलोकसमाः || सीमंतणरय माणुसखेत्तं उदयं च सिद्धिसिलं । सिद्धट्टह्मणं सरिसं खेत्तासयदो मुणेव्वं ॥ ३१ ॥
सीमन्तनरकं मानुषक्षेत्रं ऋत्विन्द्र च सिद्धिशिला । सिद्धस्थानं सदृशं क्षेत्राश्रयतो मंतव्यं ॥ ओहिद्वाणं जंबूदीवं सव्वत्थसिद्धि सम्माणं । गंदीसरवावीओ वाणिंदपुराणि सरिमाणि ॥ ३२ ॥ अवधिस्थानं जम्बूद्वीपः सर्वार्थसिद्धिः समानं । नन्दीश्वरखाप्यः वनिन्द्रपुराणि सदृशौनि ||
२६३
समओ समरण समो आवलिएणं समा हू अवलिया । काले पढमढवीणारय भोमाण वी (वा) गाणं ॥ ३३ ॥
१ स्थानानस्य पदप्रमाणं । २ यापेक्षया इत्यर्थः । ३ एते पंच पंचचत्वारिंशनक्षप्रमिताः । ४ व्यन्तरेन्द्राणां पुराणि । ५ एतानि सर्वाणि स्थानानि एकलक्षयोजन प्रमितानि ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
समयः समयेन सम आवलिकया समा हि आवलिका । कालेन प्रथम पृथ्वीनारकाणां भोमानां वानानां ॥ सरिसं जहण्णआऊ सत्तमखिदिणारयाण उक्कसं । सन्वद्वाणं आऊ सरिसं उस्सप्पिणीपमुहं ॥ ३४ ॥ सदृशं जघन्यायुः सप्तमक्षितिनारकाणामुत्कृष्टं । सर्वार्थस्थानां आयुः सदृशं उत्सर्पिणीप्रमुखं ॥ भावे केवलणाणं केवलदंसणसमाणयं दिहं | एवं जत्य सरित्थं वेंति जिणा सव्वअत्थाणं ।। ३५ ।। भावेन केवलज्ञान केवलदर्शनसमानं दिएं ।
एवं यत्र सदृशं जानन्ति जिना सर्वार्थान् ॥
समवायांगपदं १६४००० | श्लोक ८३७८५०७७९२६००० t
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अक्षर २६८११२२४९३६३२००० ।
इति समवायोगं चउत्थं गदं - इति समवायानं चतुर्थं गतं ।
दुगदुगअडतिसुणं विवायपण्णत्तिअंगपरिमाणं । णाणाविसेस कहणं वेंति जिणा जत्थ गणिपहा || ३६ || द्विककित्रिशून्यं विपाकप्रज्ञत्यङ्गपरिमाणं । नानाविशेषकथनं अवन्ति जिना यत्र गणिप्रश्नान् ॥ अस्थि त्थि जीवो णिच्चोऽणिच्चोऽहवाह किं एगो । वत्तव किमवत्तन्वो हि किं भिष्णो ॥ ३७ ॥
किमस्ति नास्ति जीवो नित्योऽनित्योऽथवाथ किमेकः । वक्तव्यः किमवक्तव्यो हि किं भिन्नः ॥ गुणपज्जयादभिष्णो सहिसहस्सा गणिस्स पण्हेवं । जत्थस्थि तं वियाणपण्णत्तमंगं खु ॥ ३८ ॥
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अंगपण्णत्ती।
गुणपर्यायाभ्यामभिन्नः पछिसहस्रणि गणिनः प्रश्नाः ।
यत्र सन्ति तद्विपाकप्रज्ञप्त्यग खल्ल ।। विवायपण्णतिअंगपदं २२८० | श्लोक ११६४८१६९३७०२००० | वर्ण ३७२७४१४१९८४६४००० ।
वि विवागपण्णत्तिमंग गर्द-इति विपाकप्रज्ञस्यहं गतं ।
णाणकहाछटुंगं पयाई पंचेव जत्थथि। छप्पणं च सहस्सा णाहकहाकहणसंजुत्तं ॥ ३९ ॥
ज्ञातृकथापठाङ्ग पदानि पंचैव यत्र सन्ति ।
षट्पंचाशच्च सहस्त्राणि नाथकथाकथनसंयुक्तं ।। पाहो तिलोयसामी धम्मकहा तस्स तच्चसंकहर्ण । घाइकम्मखयादो केवलणाणण रम्मस्स ।। ४०॥
नाथः त्रिलोकस्वामी धर्मकथा तस्य तत्वसंकथने ।
घातिकर्मक्षयात् केवलज्ञानेन रम्यस्य ॥ तित्थयरस्स तिसंज्झे गाहस्स सुमज्झिमाय रत्तीए । बारहसहासु मज्झे छापडियादिव्वझुणीकालो ॥४१॥
तीर्थकरस्य त्रिसंध्यायां नाथस्य मुमध्यमायां रात्रौं ।
द्वादशसभामु मध्ये पायटिका दिव्यध्वनिकालः॥ होदि गणिचक्किमहवपण्हादो अण्णदावि दिव्वाणि । सो दहलक्खणधम्मं कहेदि खलु भवियवरजीवे ।। ४२ ।। भवति गणिचक्रिमधवप्रश्नतः अन्यदापि दिव्यचनिः ।
स दशलक्षणधर्म कथयति खलु भन्यवरजीवे । णादारस्स य पण्डा गणहरदेवस्स णायमाणस्स । उत्तरवयणं तस्स वि जीवादी वत्थुकणे सा ॥४३ ।। १ नोवादिवस्तुस्वभावकमन ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
ज्ञातुश्च प्रश्ना: गणवरदेवस्य जिज्ञासमानस्य ।
उत्तरवचनं तस्यापि जीवादिवस्तुकयने सा॥ अहवा णादाराणं धम्माणुकहादिकहणमेवं सा । तित्थगणिचक्कगरवरसक्काईणं च णाहकहा ।। ४४ ॥
अथवा ज्ञातृणां धर्मानुकथादिकथनमेवं सा ।
तीर्थगणिक्रिनरवरशक्रादीनां च नाथकथा || ज्ञातृधर्मकांगस्य पदानि ५५६००० । श्लोक २८४०५१८४९५५४००० । वर्ण ९८९६५९१८५७२८००० । इति णादाचम्मकहाणाम छमंगं गर्द-इत्ति बातृधर्मकथानाम षप्राशं गतं ।
--.-..- .... . सत्तरिसहस्स लक्खा एयारह जत्थुवासयज्झयणे । उत्तं पयप्पमाण जिणेषण तं णमह भवियजणा ॥४५॥
सप्ततिसहस्त्रं लक्षाणि एकादश यत्रोपासकाथ्ययने ।
उक्तं पदप्रमाणं जिनेन ते नमत भव्यजनाः ।। दंसमवयसामाइयपोसहसचित्तरायमत्ते य । बंभारंभपरिम्गहअणुमणमुद्दिश देसविरदेदे ॥४६॥
दर्शनम्रतसामायिकोषधसचित्तरात्रिभक्ताश्च ।
अम्हारंभपरिग्रहानुमतोदिया देशबिरता एते ।। जत्थे यारहसद्धा दाणं पूयं च संहसेव च । वयगुणसील किरिया तसि मंता वि धुञ्चति ॥४७॥
यत्रैकादशश्रद्धा दानं पूजा च संघसेवा च । व्रतगुणशीलानि क्रिया तेषां मंत्रा अपि उच्यन्ते ।। उपासकाध्ययनम्य पदानि ११७००० | श्लोकाः ५९७७३५०० ७१५५००० । अक्षर १९.१२७५२०२२८९६०००० । इदि उवासयज्कयणं ससम अंगं गर्द-इत्युपासकाध्ययनं सप्तममनं गतम् ।
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अंगपप्णत्ती।
२६७.
अंतयर्ड वरमंगं पयाणि तेवीसलक्ख सुसहस्सा | अहावीसं जत्थ हि वणिजइ अंतकयणाहो ॥४८॥ __ अन्तकृवरमङ्गं पदानि त्रयोविंशतिलक्षाणि सहस्राणि ।
अष्टाविंशतिः यत्र हि वर्ण्यते अन्तकृन्नाथः ॥ पडितित्थं वरमुणिणो दह दह सहिऊण तिब्चमुवसगं । इंदादिरइयपूयं लद्धा मुंचंति संसारं ॥४९॥
प्रतितीर्थं वरमुनयो दश द३। सोद्धा तीवमुपसर्ग |
इन्द्रादिरचितपूजां या मुञ्चन्ति मा ।। माहप्पं बरचरणं तेसिं वणिजए. सया रम्म । जह वङ्माणतित्थे दहावि अंतयडकेवलिओ ॥५०॥
माहात्म्यं वरचरणं तेषां वर्ण्यते सदा रम्य ।
यथा वर्वमानतीर्थे दशापि अन्तकरकेवलिनः ।। मायंग रामपुत्तो सोमिल जमलीकणाम किक्कंबी । सुदंसणो बलीको य णमी अलंबद्ध पुत्तलया ॥५१॥
मतंगो रामपुत्रः सोमिल; यमलींकनाम किष्कविलः | मुदर्शन: बलिकश्च नमिः पालंबष्टः पुत्राः ।। अन्तकृद्दशाङ्गस्य पदानि २३२८००० । श्लोकाः ११८९३३९३० ९८८५२००० ] अक्षराणि ३८०५८८६०७६३२३४००० ।
इदि अंतयह दसांगमहमं गदं-इत्यन्त दशामष्टमं गतम् ।
निणहंचउचउदुगणवपयाणि चाणुत्तरोववाददसे । विजयादिसु पंचसु य उववायिका विमाणेसु ॥५२॥
त्रिनभश्चतुश्चतुईिकनवपदानि चानुत्तरोपपाददशके । विजयादिषु पंचसु च औपपादिका विमानेघू ।।
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२६८
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
पडितित्थं सहिऊस दारुवरुपोपलगाएमा : दह दह मुणिणो विहिणा पाणे मोसूण झाणमया ॥५३॥ प्रतितीर्थं सोडवा हि दाख्योपसर्ग उपलब्ध माहात्म्याः ।
दश दश मुनयो विधिना प्राणान् मुक्त्वा ध्यानमयाः || विजयादिसु उवचण्णा वणिज्जेते सुहावसुद्द्बहुला । ते मह वीरतित्थे उजुदासो सालिभद्दक्खो || ५४ ||
विजयादिषूपपन्ना वर्ण्यन्ते स्वभावसुखबहुलाः | तान् नमत वीरती ऋजुदासः शालिभद्राख्यः ॥ सुक्खत्तो अभयो वि य घण्णो वरवारिसेणणंदणया । दो चिलायपुत्तो कइयो जह तह अण्णे ||१५|| सुनक्षत्रोऽभयोऽपि च धन्यः वरवारिषेणनन्दनौ ।
नन्दः चिलातपुत्रः कार्तिकेयो यथा तथा अन्येषु ॥ अनुत्तरोपपादाङ्गस्य पदानि ९२४४००० | श्लोकाः ४७२२६१ ७४४१४६००० । अक्षराणि १५११२३७५८११६६७००० । इदि अणुसरोववादं णवमं अंगे गर्द-इत्यनुत्तरोपनादं नवमं अनं मतं ।
पहाणं वायरण अंग पाणि तियसुष्णसोलसियं । तेणवदिक्संखा जत्थ जिणा वेंति सुणह जणा ॥ ५६ ॥
प्रश्नानां व्याकरणमहं पदानि त्रिशून्यषोडश । त्रिनवतिलक्षसंख्या यत्र जिना श्रुवन्ति श्रृणुत जनाः ! ॥ पहस्स दवणणपट्टि मणुत्थाय सरूवस्स । धादुणरसूलजस्स वि अत्थो तियकालगोचरयो ॥ ५७ ॥ प्रश्नस्य दूतवचननष्टप्रमुष्टिमनः स्थस्वरूपस्य । धातुनरमूल जास्यपि अर्थनिकालगोचरः ॥ १ यथा वर्धमानतीर्थे एते तथान्येषु तीर्थेषु अन्ये दश ।
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अंगपण्णत्ती।
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धणधण्णजयपराजयलाहालाहादिसुहृदुई पणेयं । जीवियमरणत्यो चि य जत्थ कहिजइ सहावेण ॥५८॥ धन्यधान्यजयपराजयलाभालाभादिसुखदुःखें ।
जीवितमरणार्थोऽपि च यत्र कथ्यते स्वभावेन || आक्खेवणी कहाए कहिज्जइ पण्हदो सुभबस्स । परमदसंकारविदं तित्थयरपुराणवतंतं ।। ५९ ॥
अवक्षेपणी कथा कथ्यते प्रश्नतः सुभन्यस्य । परमत्तशंकारहित तीर्थकरपुराणवृत्तान्त ।। पढमाणुयोगकरणाणुयोगवरचरणदवअणुयोग । संटाणं लोयस्स य यदिसावयधम्मवित्थारं ।। ६० ।।
प्रथमानुयोगकरणानुयोगबरचरणद्रव्यानुयोगानि ।
संस्थानं लोकस्य च यतिश्रावकधर्मबिस्तारं ।। पंचत्थिकायकहणं वक्खाणिजइ सहावदो जत्थ । विक्खेवणी वि य कहा कहिज्जइ जत्थ भव्याणं ॥ ६१॥
पंचास्तिकायकथनं व्याख्यायते स्वभावतो यत्र । विक्षेपणी अपि च कथा कथ्यते यत्र भव्यानां ॥ पञ्चक्खं च परोक्खं माणं दुविहं गया परे दुविहा । परसमयवादखेबो करिज्जई वित्थरा जत्थ ॥१२॥
प्रत्यक्षं च परोक्षं माने द्विविध नयाः परे द्विविधाः ।
परसमयवादक्षेपः क्रियते विस्तारेण यत्र || दसणणाणचरित्तं धम्मो तित्थयरदेवदेवस्स । तम्हा पभावतेओवीरियवम(र)पाणसुहआदि ॥६३॥
दर्शनज्ञानचरित्राणि धर्म: तीर्थकरदेवदेवस्य । तस्मात् प्रभावतेजोवीर्यवरज्ञानसुखादयः ।।
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२७०
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
संवेजणीकहाए भणिज्जइ सयलभब्यबोहत्थं ! णिन्वेजणीकहाए भणिज्जइ परम वेरगं ॥६४ ॥
संवेजनीकथया भण्यते सकलभव्यबोधनार्थे । निर्बेजनीकथया भण्यते परमवैराग्यं ।। संसारदेहभोगा रागो जीवस्स जायदे तम्हा । असुहाणं कम्माण बंधो तत्तो हवे दुखं ॥६५॥ संसारदेहभोगा रागो जीवस्य जायते तस्मात् ।
अशुभानां कर्मणां बन्धः ततो भवेडु:खं ।। असुहकुले उप्पत्ती विरुवदालिद्दरोयबाहुल्लं । अवमाणं णरलोए परकम्मकरो महापावो ॥६६॥
अशुभकुले उत्पत्तिः विरूपदारिद्यरोगबाहुल्यं ।
अपमानं नरलोके परकर्मकरो महापापः ।। एवंविहं कहाणं वायरण बेच्च पाहवायरणे । दहमे अंगे णिञ्च करिज्जमाण सया सुणह ॥६७॥
एवंविधं कथानां व्याकरणं वेद प्रश्नव्याकरणे।
दशमेंऽगे नित्य क्रियमाणं सदा शृणुत ] प्रश्नव्याकरणाङ्गस्य पदानि ९३१६००० | श्लोकाः ४७५९४० ११३३८९४००० । अक्षराणि १५२३००८३६२८४६०८००० इदि पवायरणं दशम अंग गर्द-इति प्रश्नव्याकरणं दशम अंग गतम् ।।
चुलसीदिलक्स कोडी पयाणि णिच विवागसुत्ते य । कम्माण बहुसत्ती सुहासुहाणं हु मभिमया ॥६॥
चतुरशांतिलक्षाणि कोटिः पदानि नित्यं विपाकसूत्रे च । कर्मणां बहुशक्ति: शुभाशुमानां हि मध्यमका ।।
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अंगप्पणती ।
२७१
तिब्वमंदाणुभावा दन्ते रोने काल भाले म । उदयो विवायबो भणिज्जइ जत्य विस्थारा ।।६९॥
तोत्रमन्दानुभावा द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च ।
उदयो विपाकरूपो भण्यते यत्र विस्तारेण ।। विपाकसूत्रांगस्य पदानि १८४००००० । श्लोकाः ९४००२७ ७०३५६०००००। वर्णाः ३००८०८८६५१३९२००००० | इदि विवागसुसंग एकादसं गदं-इति विपाकसूत्रांग एकादशं गतं ।
एयारंगपयाणि य कोडीचउपचदहसुलक्खाई । वि सहस्सादो वोच्छे पुचपमाणं समासेण ।। ७० ।।
एकादशाङ्गपदानि च कोटिचतुष्कपंचदशलक्षाणि ।
अपि सहस्रे द्वे वक्ष्ये पूर्वप्रमाणं समासेण ॥ एकादशानामङ्गनां पदानि ४१५०२००० ! श्लोकाः २१२०२७३३५६१४९३००० । अक्षराणि ६७८४८७४७३९६७७७६००० इदि एकादसांगानि गदानि-इत्येकादशाङ्गानि गतानि ।
---.-..-...-. दिहिप्पवादमंग परियम्म सुत्त पुचगं चेव । पढमाणुओग चूलिय पंचपयारं णमंसामि ॥ ७१ ।।
दृष्टिप्रवादमङ्ग परिकर्म सूत्र पूर्वाङ्गं चैव ।
प्रथमानुयोगं चूलिका पंचप्रकारे नमामि ।। तत्थ पयाणि पंच य णभ णभ छ पंच अह छड सुण्ण । अंक कमेण य पोयाणि जिणागमे णिचं ॥७२॥ तत्र पदानि पंच नभो नमः षट् पंच अष्ट पट अष्ट शून्यं । अंक क्रमेण च ज्ञेयानि जिनागमे नित्यं ।।
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२७२
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
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दृष्टिवादाङ्गपदसंख्या १०८६८५६००५। श्लोकाः ५५५२५८०५८७३९४९७९०७ । पासल्या १७७६८२५६५९९६६१६ ६७४१०। दिहीणं तिणि सया तेसहीण वि मिच्छवायाणं | जत्थ णिराकरणं खलु तण्णामं दिहिवादंग ।। ७३ ॥
दृष्टीनां त्रिशतानि त्रिपष्टे: मिथ्यावादानां । __ यत्र निराकारण खल तन्नाम दृष्टिवादाङ्गम् । सं जहा तद्यथा--- किरियाधायदिट्ठीण कोषकल-कंठेविद्धि-कोसिय-हरिमंसु-मांधाविय-रोमस-मुंड-अस्सलायणादीणं असीविसब (१८०)
क्रियावादिनां कोत्कल-कंटविद्धि-कौशिक-हरिश्मश्रु-मांवपिक-रोमंश-मुंड-आश्वलायनादीनां अशीतिशत (१८०)। ___ अकिरियाचायदिट्ठीणं मरीचि-कविल-उलूय-गग्ग-बग्घभूहघदुलि-माठर-मोगलायणादीणं चगासीदि (८४)
अक्रियावाद दृष्टीनां मरीचि कपिल-उलक-गार्ग-व्याघ्रभूति-बादबलि-माटर-मौद्गलायनादीनां चतुरशीतिः (८४)।
अण्णाणदिट्ठीणं सायल्ल-बक्कल-कुहुमि-सचमुगि-पारायण-क8-मज्झदिण-भोय-पेप्पलायन-पायरायण-सिद्धिपक-वंतिकायणवसु-जेमणिपमुहाणं सगसही (६७)। ___ आज्ञानदृष्टीनो झाकल्य–बल्कल-कुथुमि-सत्यमुनि-नारायण-कठमाध्यंदिन-भोज-पैष्पलायन बादरायण-स्विप्टिक-दैत्यकायन-वनजैमिनिप्रमुखाना सप्तपष्टिः । ६७ )।
येणइयदिहीणं यसिह-पारासर-अउकण-चम्मीक-रोमहस्सणिसम्वत्त-वास-पलापुत्स-उचमणष-बदस-अयछिपमुहाण बसीसा ( ३२)
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अंगपण्णत्ती ।
२७३
वैनयिकदृष्टीनां वशिष्ठ - पाराशर - जतुकर्ण - वाल्मीकि रोमहर्षणि-सत्यदत्त - व्यास - एलापुत्र- औपमन्यव - ऐन्द्रदत्त - आगस्यादीनां द्वात्रिंशत् ( ३२ ) ।
इदि मिलिवूण तिसउित्तर तिसदी कुवाय निराकरण प्ररुवयं । इति मिलित्वा त्रिषटघुत्तरत्रिशतकुवादनिराकरणं प्ररूपितं ।
इदि बारह अंगाणं समरणमिह भावदो मया णिचं | सुभचंदेण हु रहयं जो भावइ सो सुहं पावद्द ||७४॥
इति द्वादशाङ्गानां स्मरणमिह भावतो मया नित्यं । शुभचन्द्रेण हि रचितं यो भावयति स सुखं प्रामोति ॥ स्यारसुदसमुद्दे जो दिव्वदि दिव्यभावेण । सो संसारदवालजालालीणो ण संपज्जर || ७५ ॥ एकादश समुद्रे यो दीव्यति दिव्यभावेन । स संसारदायानज्वालादीनो न सम्पद्यते ॥ दंसणगाणचरितं तवे य पार्वति सासणे भणियं । जो भाविऊण मोक्खं तं जाणह सुदद्द माहष्पं ॥ ७६ ॥ दर्शनज्ञानचारिण तपसा च प्राप्नुवन्ति शासने भणितं । यो भावयित्वा मोक्षं तज्जानीहि श्रुतस्य माहात्म्यं ॥ एयारसंगपयकयपरूवणं भए पमाददोसेण । भणियं किं पि विरुद्धं सोहेतु सुयोगिणी णिचं ॥७७॥ एकादशाङ्ग पदकृतप्ररूपणं मया प्रमाददोषेण 1 भणितं किमपि विरुद्धं शोधयन्तु सुयोगिनो नित्यं ॥ इदि सिद्धतसमुचये बारह अंगसमरणावराभिहाणे अंगपणसीए अंगणिरूवणाणामपदमो अहियारो सम्मतो ॥ १ ॥
१ क्रीडति ।
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चतुर्दशपूर्वाङ्गप्रज्ञप्तिः। परियम्म पंचविहं परिये कम्माणि गणिदसुत्ताणि । जस्थ तदो ते भणियं सुणह पयारे हु तस्सावि ॥१॥ परिकर्म पंचविधं परितः कर्माणि गणितसूत्राणि ।
यत्र ततस्तद्रणितं शृणुत प्रकारान् हि तस्यापि ॥ नंदस्तायु दिग्गयो पवित्रा निही च अगण गमण च । सथलद्धपायगहण वण्णेदि वि चंदपण्णत्ती ॥२॥
चन्द्रस्यायु: विमानानि परिवारमार्द्धं च अयनं गमनं च ।
सकलाईपादग्रणं वर्णयत्यपि चन्द्रप्रज्ञप्तिः ।। छत्तीसलक्खपंचसहस्सपययाण चंदपण्णत्ती।
षशिल्लक्षपंचसहस्रपदानां चंद्रप्रज्ञप्तिः । पद ३६०५००० । श्लोकाः १८४१७३९०६०६०७५०० वर्ण ५८९३५६४९९३६२२४०००० । सहस्सतियं पणलक्खा पयाणि पण्णनियाकस्स ॥३॥
सहस्त्रत्रिकं पंचलक्षाणि पदानि प्रज्ञप्तावस्य ॥ सरस्मायु विमाणे परिया रिद्धी य अयणपरिमाण । तत्तावतमेगहणं वष्णेदि वि सूरपण्णत्ती ॥४॥
सूर्यस्या : विमानानि परिवारमृद्धि चायनपरिमाणं ।
तत्तावन्मात्रग्रहणं वर्णयति सूर्यग्रज्ञप्तिः ।। पयाणि ५० ००० । श्लोकाः २५६९७४९६४६१६५०० अक्षर ८२२३१९८८६७६६४०००।
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अंगपण्णत्ती
जंबूदीवे मेरू एक्को कुलसेलछक वणसंडा | छव्वीस वीसं च दहा वि य वीसं वक्खारणग वस्सा ? ||५|| जम्बूद्वीपे मेरेकः कुलशैलषट्कं वनखंडाः ।
२७५
पविंशतिः विंशतिश्व दहा अपि च विंशतिः वक्षारनगा वर्षाः ॥ चोत्तीसं भोगधरा छक्कं बेंतरसुराणमावासा । जंबूसालमलिरुक्खा विदेउ चारि णाहिगिरी ॥ ६ ॥ चतुस्त्रिंशत् भोगधराः षट्कं वैतरसुराणमावासाः | जंबूशाल्मलिवृक्षा विदेहाः चत्वारो नाभिगिरयः ॥
सुण्णणवसुण्णदुगणवसत्तरअंककमेण संखा । १७९२०९० । वण्णेदि जंबुदीवापण्णत्ती पयाणि जत्यत्थि ॥ ७ ॥ शून्यनवशून्यद्विकनवसप्तदशाङ्कक्रमेण नदीसंख्याः । वर्ण्यन्ते जम्बूद्वीपप्रज्ञ पदानि यत्र सन्ति || तिय सुणपणवम्गतियलक्खा, दीवजलहिपण्णत्ती | अढाइ (जा) उधारसायरमिद दीवजलहिस्स ॥८॥ त्रिकशून्य पंचवर्गात्रिक लक्षाणि द्वीप जलधिप्रज्ञप्ती ।
सार्धद्वयोद्धारसागरमितं द्विपजलधीनां ॥
पदानि ३२५००० | श्लोक १६६०३७५० १९-८७५०० । वर्ण ५३१३२०००६३६००००० । वित्थारं सहाणं तत्थठियजोहसाण ठाणा | भोमाणं... तत्था किहिमजिगाणं च ॥९॥ विस्तारं संस्थानं तत्रस्थितज्योतिषां स्थानानां । भोमानां........ तत्राकृत्रिमजिनानां च ॥
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२७६
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
पासादवासतोरणमंडवमुह मंडवादिमालाणं । दिवसायरपरियम्मे करेदि वित्थार वण्णणयं ॥ १०॥
प्रासादव्यासतोरणमंडपमुखमंडबादिमालानां ।
द्वीपसागर परिकर्मणि क्रियते विस्तारेण वर्णनं ॥
चावण्णं छत्तीस लक्खसहस्सं पयस्स परिमाणं । ५२३६०००। द्विपंचांशत् षट्रिशलक्षसहस्रं पदानां परिमाणं । वक्खापण्णत्तीए तियसुष्णछत्तिचउडंका ||११|| ८४३६००० । व्याख्याप्रज्ञप्तौ त्रिकशून्यपद्विकचतुरष्टाङ्काः ॥
जोऽविरूविजीवाजीवाणं च दव्वणिवाणं । भव्वाभव्वाणं पियमेयं परिमाण लक्खणयं ॥ १२ ॥ या अरूपरूपजीवाजीवानां च द्रव्यनिवहानां । भव्याभाव्यानामपि च भेदं परिमाणं लक्षणं ॥ सिद्धाणं खलु अणंतरपरंपरासिद्धिठाणपत्ताणं । अण्णेसिं वच्छष्णं वित्थारं करेदि पण्णत्ती ॥१३॥ सिद्धानां खलु अनन्तर परंपरा सिद्धिस्थानप्राप्तानां । अन्येषां विस्तीर्ण विस्तारं करोति प्रज्ञप्तिः ॥ पणपणत्तिपयाणि य णहाणि तिय पंचसुष्णइगिअटइगि कोडिजुदाणि पुणो एवं परियम्म सम्मत्तं ॥ १४॥ पंचप्रज्ञप्तिपदानि च नभांसि त्रीणि पंचशून्यैकाटेक कोटियुतानि पुनरेवं परिकर्म समाप्तं ॥
पयाई १८१०५००० |
अडसीदीलक्खपयं सुतं चेदि मिच्छदिहीणं । वाए हृदि खलु जीवो अबंधओ बंधओ वावि ॥ १५ ॥
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अंगपण्णत्ती।
२७७
अष्टाशीतिलक्षपदं सूत्रं सूचयति मिथ्यादृष्टीनां । वादे इति खल जीवोऽवन्धको बन्धको वापि ।। पयाणि ८८०००००। णिकत्ता पिग्गुणओ अभोजओ सप्पयासओ णिचो । परप्पयासकरणो जीवो अत्येव वा पास्थि ॥ १६ ।। निष्कर्ता निर्गुणोऽभोजकः स्त्रप्रकाशको नित्यः ।
परप्रकाशकरणो जीवोऽस्त्येव वा नास्ति । एवं किरियाणाणादिविणयकदिहिवायाणं । वित्थारं जं वोच्छदि तस्स पयारं णिसामेह ॥ १७ ॥
एवं क्रियाज्ञानादिविनयकुदृष्टिवादानां । विस्तारं यद्ब्रुवति तस्य प्रकारं निशाभ्यन ॥ अस्थि सदो परदो विय णिचाणिवत्तपोण णवअहा। कालीसरप्पणियदि सहावदो होति तन्भेया ॥१८॥
अस्ति स्वत: परतोऽपि च नित्यानित्यत्वेन नवार्थाः ।
कालेश्वरात्मनियतिस्वभावतः भवन्ति तद्भेदाः ।। सव्वं कालो जणयदि भूदं सर्व विणासदे कालो। जागत्ति हि सुत्तेसु वि ण सक्कदे वंचिड़े कालो |॥ १९ ॥
सर्वं कालो जनयति भूतं सर्व विनाशयति कालः । जागति हि सुप्तेष्वपि न शक्यते वंचितुं कालः ।।
इदि कालवादो-इति कालवादः ।
जीवो अण्णाणी खलु असमत्थो तस्स जे सुई दुक्खं । संग्गं गिरयं गमयं सर्व ईसरकये होदि ।। २० ॥ 'णायं गमगं सम्वं ईसरकयं होदि पाठः पुस्तके । आपमानुयारेण परिवर्तितः।
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२७८
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
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जीवोऽज्ञानी खल्लु असमर्धस्तस्य यत्सुखं दु:ग्दं । स्वर्गे नरके गमनं सर्वे ईश्वरकृतं भवति ।।
ईसरवादो-ईश्वरवादः ।
- --- --- देवो पुरिसो एको.सव्वव्वाची परो:महप्पा य । सच्वंगविगृढो वि य सचेयणो णिग्गुणोऽकत्ता ॥२१॥
देवः पुरुष एक; सर्वव्यापी पगे महात्मा च | सर्वाङ्गविगूढोऽपि च सचेतनो निर्गुणोऽकर्ता ।।
___ अप्पवादो-आत्मवादः ।
जेण जदा जं तु जहा णियमेण य जस्स होइ तंतु तदा। तस्स तहा तेण हवे इदि वादो णियडिवादो दु ॥२२॥
येन यदा यत्तु यथा नियमेन च यस्य भवति तत्तु तदा । तस्य तथा तेन भवेदिति बादो नियतिवादस्तु ॥
णिगडिवादो-नियतिवादः।
सच्च सहावदो खलु तिक्खत्तं कंटयाण को करई । विविहत्तं णरमियपसुविहंगमाणं सहायो य ॥२३॥
सर्व स्वभावंत: खलु तीक्ष्णत्वं कंटकानां क; करोति । विविधत्वं नरमृगपशुविहंगानां स्त्रभावश्च ।।
सहाववादो-स्वभाववादः ।
__ . --
-.
एवं चतुणवपणयाणं रयणं काऊणं असीदिसदकिरियावादाणं भंगा । तं जहा । कालादो जीवो सदो अत्थि १ कालादो जीयो परदो अधिकालादो जीवो णियो अत्थि ३ कालादो जीवो अणिमो भत्यि ४ इदि अजीवादिसु अहसु भंगा णादच्या मासिदण भंगा असादिसदं १८० हति ।
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अंगपण्णत्ती।
२७९
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एवं चतुर्नवपंचानां रचनां कृत्वा अशीतिशतक्रियात्रादानां भंगाः । तद्यथा-कालतो जीवः स्वतोऽस्ति कालतो जीव: परसोऽस्ति २ कालतो जीवो नित्योऽस्ति ३ कालती जीवोऽनित्योऽस्ति १ इति अजीवादिषु अष्टम भंगा ज्ञातव्याः....आश्रित्य भंगा अशीतिशतं १८० भवन्ति ।
काल ईश्वर आत्मा नियति स्वभाव
जीव अजीव पुण्य पाप
आत्रपसंचर निर्जरा | बन्ध |
मोक्ष
स्वतः परतः नित्य अनित्य
अस्ति
अह अकिरियावाईणो वियप्पा-अथ अक्रियावादिनां त्रिकल्पा:-- सत्तपयत्था वि सदो परदो णस्थिति पंतिचदुजादा । कालादिया वि भंगा सत्तरि अक्किरियवाईणं ॥ २४ ॥
सप्तपदार्था अपि स्वतः परता नास्तीति पंक्तिचतुष्कजाताः । - कालादिका अपि भंगाः सप्ततिः अक्रियावादिनां ॥ णियडीदो कालादो सत्तपदस्थाण पंतितियजादा। चउदसभंगा होति हु एवं चुलसीदि विष्णेया ॥२५॥
१ कालभेद ३६ ईश्वरभेद ३६ आस्मभेद ३६ नियतिभेद ३६ स्वभाभेद ३६ एवं १८.।
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२८०
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
नियत्तितः कालत; मापदार्थ लिभिभामः
चतुर्दशभंगा भवन्ति हि एवं चतुरशीतिर्विज्ञेयाः ।। कालादो जीवो सदो स्थि १ कालादो जीवी परदो णस्थि २ एवं सत्तरिः भंगा। णियडीदो जीवो त्थि १ कालादो जीयो णस्थि २ एवं चोहसभंगा, सव्ये मिलिदा चुलीसीदी ८४ । ___ कालतो जीव: स्वतो नास्ति १ कालतो जीवः परतो नास्ति २ एवं सप्ततिः भंगा: । नियतितो जीवो नास्ति १ बालतो जीवो नास्ति २ एवं चतुर्दशभंगाः । सर्वे मिलित्वा चतुरशीतिः ८४ । । काल | ईश्वर आत्मा । नियति । स्वभाव
जीव | अजीब
आस्रव | संवर / निर्जरा
आस्तव
मोक्ष
स्वतः | परतः
नास्ति
नियति काल
जीष | अजीष आखष ।
बन्ध | संवर | निर्जरा
मोक्ष
नास्ति
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अंगपण्णत्ती।
२८१
को नाणइ व अत्थे सत्तमसत्तुभयमवचमेव इदि । अवयणजुद सत्तत्तयं इदि भंगा होति तेसही ॥२६॥
को जानाति नवार्थान् सत्वमसत्वमुभयमवक्तव्यमेवेति ।
अवचनयुतं सप्ततयं इति भंगा भवंति त्रिषष्टिः ।। अस्ति नास्ति उभय । अबक्तव्य अ. अ.ना.अ. अ.नाअ। जीव अजीव पुण्य पाप । आस्रव । बन्धसंवर नि० मोक्ष |
अण्णाणवाइमेया जीवादण्णाणभावसंजुत्ता । तेसही जिणभणिया मिच्छाभावेण संतत्ता ॥२७॥
अज्ञानवादिभेदाः जीवादज्ञानभावसंयुक्ताः । त्रिपष्टि: जिनभणिता मिथ्यात्वमावेन संतप्ताः ।। मणवयणदेहदाणगविणओ णिवदेवपाणिजदिउट्टे । बाले मादरपियरे कायवो चेदि अह चदु ॥२८॥ मनोवचनदेहदानगविनयो नृपदेवज्ञानियतिवृद्धेषु ।
बाले मातापित्रोः कर्तव्यश्चेति अष्ट चतुः ।। एवं घिणयवादो बस्सीसा ३२-एवं चैनयिकवाद; द्वात्रिंशत् ३२ । एवं सच्छंददिहीणं....वादाउलकारणं ? । तिसाहितिसया गया सव्वसंसारकारणं ॥२९॥
एव स्वच्छंददृष्टीनां.......................1 त्रिषष्टिः त्रिशतानि ज्ञेयानि सर्वसंसारकारणानि ॥ . १को जाणइ सचऊ भावं सुद्धं खु दोणिपंत्तिभषा । चस्तारि होति एवं अण्णाणीणं तु सत्ती ॥ १ ॥
को आनाति सत्वचतुष्क भावं शुद्ध खल द्विपंक्तिभवाः । बस्वारो भवन्त्येवं अज्ञानिना तु सप्तषष्ठिः ।।
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२८२
सिद्धान्तसारादिसंग्रहेपउरसेण विणा णस्थि थणक्खीराइसेवणं । आलसडो णिरुस्साहो फलं किंचिं ण भुंजई ॥३०॥ पौरुषेण विना नास्ति स्तनक्षीरादिसेवनं । आलस्याढयो निरुत्साहः फलं किंचिन्न भुक्ते ॥
पुरिसवादी-पौरुषवादः ।
दइवा सिज्झदि अत्थो पोरिस णिप्फलं हवे । एसो सालसमुत्तुंगो कण्णो हम्मइ संगरे ।। ३१ ॥
दैवात् सिद्धयति अर्थः पौरुपं निष्फलं भवेत् । एष सालसमुत्तुगः कर्णः हन्यते संगरे ।।
दइववादो-दैववादः ।
एक्कण चक्केण रहो , यादि संजोगमेवेति वदति तण्णा । अंधो य पंग य वर्ण पविहा ते संपजुत्ताणयरं पविहा॥३२॥ एकेन चक्रेण रथो न याति संयोगमेवेति बदन्ति तज्ञाः । अन्धश्च पंगुश्च बनं प्रविष्टौ तौ सम्प्रयुक्तौ नगरे प्रविष्टौ ।।
__ संजोयवादो-संयोगवादः ।
लोयपसिद्धी सत्था पंचाली पंचपंडवत्थी ही । सइउहिया ण रुज्झइ मिलिदेहिं सुरेहिं दुध्यारा ॥३३॥
लाकेप्रासद्धिः सार्था पंचाली पंचपांडवस्त्री हि । सकृदुस्थिता न मद्धयते मिलितः मुरैः दुर्वारा ॥
लोयवादो-लोकवादः ।
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Aushadhi--
अंगपण्णत्ती ।
२८३ बयणवहा जावदिया गयवादा होति चेव तावदिया । णयवादा जावदिया तावदिया होंति परसमया ॥ ३४ ॥ वचनपथा यावन्तो नयवादा भवन्ति चैव तावन्तः । नयवादा यावन्तो तावन्तो भवन्ति परसमयाः ॥
ददि मुत्तं गदं-इति सूत्रं गतं ।
पढम मिच्छादिहि अन्वदिकं आसिदूण पडिवजं । अणुयोगो अहियारो वुत्तो पढमाणुयोगो सो ॥३५॥ प्रथमं मिथ्याष्टिं अव्युत्पने आश्रित्य प्रतिपाद्यं ।
अनुयोगोऽधिकार उत्तः प्रथमानुयोगः सः ।। चउवीस तित्थयरा बहणो ? बारह छखंडभरहस्स। णवबलदेवा किण्हा णव पडिसत्तू पुराणाई ॥३६ ।।
चतुर्विंशतिस्तीर्थकरान् जयिनो द्वादश 'पर्खडभरतस्य ।
नव बलदेवान् कृष्णान् नव प्रतिशत्रून् पुराणानि ।। तेसिं वणति पिया माई णयराणि चिण्ह पुधभवे । पंचसहस्सपयाणि य जत्थ हु सो होदि अहियारो ॥३७॥
तेषां वर्णयन्ति पितृन् मातृ: नगराणि चिह्नानि पूर्वभवान् । पंचसहस्रपदानि च यत्र हि स भवति अधिकारः ॥ पयाणि ५०००। कोडिपयं उप्पादं पुव्वं जीवादिदव्वणियरस्स । उप्पादन्वयधुवादणेयधम्माण पूरणयं ॥३८॥
कोटिपदं उत्पाद पूर्व जीवादिद्रव्यनिकरस्य । उत्पादत्र्ययधौल्याद्यनेक धर्माणां पूरणकं ॥
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२८४
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
पयाणि १००००००० । तै जहादवाणं णाणाणयुवण्णयगोयरकमजोगवजसंभाविदुष्पादन्ययधुव्वाणि तियालगोयरा व धम्मा वंति। तप्परिगद दव्यमावेणघहा। उप्पण्णमुपजमाणमुपस्समाणं, णटुंणस्तमाणं, शंखमाण, ठिदं तिठमाणं विरासगिविणवण मासुम्यमादीन पाप णयविहत्तणसंभयादो पयासीदिवियपधम्मपरिणददव्यधण्णणं यं करेदि तमुपादयुध्वं ।
द्रव्याणां नानानयोपनयगोचरक्रमयोगपद्मसंभयितोत्पादव्ययत्रौव्याणि त्रिकालगोचरा नवधर्मा भवन्ति । तत्परिणतं द्रव्यमपि नवधा । उत्पन्न उत्पद्यमानं उत्पत्स्यमानं, नाटं नश्यत् नश्यत् , स्थितं निष्टत् स्थास्यत् इति नवामां तेषां धर्माणां उत्पन्नादीनां प्रत्येक नवविधत्वसंभवात् एकाशीतिविकल्पधर्मपरिणतद्रव्यवर्णनं यत्करोति तदुत्पादपूर्वम् ।। अगस्स वत्थुणो पि हि पहाणभूदस्स गाणमगणतं । सुअग्मायणीयाच्वं अग्गायणसंभवं विदियं ॥३९॥ :
अग्रस्य वस्तुनोऽपि हि प्रधानभूतस्य ज्ञानं अयनं । स्वप्रायणीयपूर्व अग्रायणसंभवं द्वितीयं ॥ सत्तभास)यसुणयदुणयपंचत्थिसुकायछक्कदव्याण । तच्चाणं सत्तण्ह वण्णदि तं अस्थणियराणं ॥४०॥
सप्तशतसुनयदुर्णयपचास्तिकायपद्रष्याणां । नत्वानां सप्तानां वर्णयति तदर्थनिकरणां || मेए लक्खणणियरे छष्णवदीलक्खपयपमाणमिणं । बैंति जिणा तवत्थःणंणमह जरा सुभावेण || ४१ ॥
भेदान् लक्षणनिकरान, षण्णवतिलक्षपदप्रमाणमिदं । जानन्ति जिनाः तत्वार्थ नन्नम्यत नराः 1 सुभावेन ।।
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अंगपण्णत्ती 1
२८५
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पुव्वंतं अवरंत धुवाधुवनवणलद्धिणामाणि | अद्धव संपण हि च अत्थं भोमावयज्जं च ॥४२॥ पूर्वान्तं अवरात धुवाध्रुवच्यवन लब्धिनामानि ।
.......................... || सव्वस्थकप्पणीयं णाणमदीदं अणागदं कालं । सिद्धिभुवज्ज वंदे चउदबत्थूणि विदियस्स ।। ४३॥
सर्वार्थकल्पनीयं ज्ञानमतीतं मनागत कालः । सिद्धि प्राप्तं बन्दे चतुर्दश वस्तूनि द्वितियस्य ।। पंचमवत्थुचउत्थपाहड़यस्साणुयोगणामाणि | कियवेयणे तहेव फसण कम्मपयडिकं तह ॥४४ ॥
पंचमवस्तुचतुर्थप्राभतस्यानुयोगनामानि ।
......"तथैव स्पर्शनं कर्म प्रकृति तथा ॥ वंधणणिबंधणपाकमाणुकममहन्भुदयमोक्खा । सकम लेस्सा च तहा लेस्साए कम्म परिणामा ॥४५॥ बंधननिबंधनोपक्रमानुपक्रमाभ्युदय मोक्षाः ।
सेकम: लेश्या च तथा लेश्यायाः कर्म परिणामाः || सादमसादं दि (वि) ग्य हस्सं भवं धारणीयसणं च । पुरुपोग्गलप्पणाम णिहत्तअहिहत्तणामाणि ॥४६ ।।
सातमसातं विघ्नं हास्यं भर्य धारणीयसंई च ।
पुरुपुद्गलप्रमाणं निधन्यनिवत्यनामानि ॥ गणकाचिदमणकाचिदमहकम्महिदिपच्छिमखंधा । अप्पबहुत्तं च तहा तद्दाराणं च चउवीसं ॥४७॥ सकाचितानकाचितमथकर्मस्थितिपश्चिमस्कन्धाः । अल्पबढत्वं च तथा तवाराणां च चतुर्विंशतिः ।।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
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अण्णेसि वस्थूणं पाहुडयस्सावणुयोगयाणं च । णामाणं उवएसो कालविसेसेण अहो हु॥४८॥
अन्येषां वस्तूनां प्राभतस्यानुयोगानां च । नाम्नामुपदेशः कालविशेषेण नष्टो हि ।। पयाणि ९६००००० ।
क्षग्मायणीयपुर्व गदं-अप्रायणीयपूर्व गतं ।
चिजाणुवादपुवं वजं जीवादिवत्थुसाभत्थं । अणुवादो अणुवण्याणमिह जाम हवेत्ति पाणमा ४० बीर्यानुवादपूर्व वीर्य जीवादिवस्तुसामर्थ्य ।
अनुवादोऽनुवर्णमिह तस्य भवेदिति ननम्यत ।। तं वण्णदि अप्पनलं परविज उयविजमावि णिचं । खेत्तरलं कालवलं भावबलं तवरलं पुणं ।।५०॥ तद्वर्णयति आत्मबलं परवीर्य उभयवीर्यमपि नित्यं ।
क्षेत्रबले कालबलं भावबलं तपोवलं पूर्णे | दव्बवलं गुणपज्जयविज विज्जाबलं च सव्वबलं । सत्तरिलक्खपयेहिं पुण्णं पुवं तदीयं खु ॥५१॥
द्रव्यबलं गुणपर्ययचीय विद्यायलं च सर्वबलं ।
सप्ततिलक्षपदैः पूर्ण पूर्व तृतीय खल्लु ॥ पयाणि ७००००००।
इदि विजाणुवादपुव्व चदं-इति वायांनुवादपूर्व गते ।
सियअस्थिणस्थिपमुहा तेसिं इह स्वर्ण पवादोत्ति । अस्थि यदो तो वम्मा अत्थिणस्थिपवादपुव्वं च ॥५२॥
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अंगपण्णत्ती।
२८७
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स्यादस्तिनास्तिप्रमुखास्तेषां इह रूपणं प्रबाद इति ।
अस्ति....................अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व च ।। णियदबखेत्तकालभावे सिय अस्थि वत्थुणिवहं च । परदध्वखेतकाले भावे सिय णस्थि आसित्ता ॥५३॥ निनामाक्षेत्रकालगवान स्मदरिमानुनिलईन ।
परद्रव्यक्षेत्रकालभावान् स्यान्नास्ति आश्रित्य ॥ सियअस्थिणस्थि कमसो सपरदन्वादिचउजुदं जुगवं । सियवसव्वं सेयरदवं खेतं च भावे च ॥५४॥
स्यादस्तिनास्ति क्रमश: स्वपरद्रव्यादिचतुर्युतं युगपत् ।
स्यादवक्तव्यं स्वपरदन्यं क्षेत्रं च भावं च ॥ सियःआसिदण अस्थि चावत्तव्वं सदव्वदो जुगवं । सपरदब्बादीदो सिय णस्थि अव्यवमिदि जाणे ॥५५॥
स्वादाश्रित्य अस्ति चावक्तव्यं स्वद्रव्यतो युगपत् ।
स्वपरद्रव्यादितः, स्यान्नास्ति अवक्तव्यमिति जानीहि ।। परदव्यखेत्तकालं भावं पडिचज जुगत्र दव्वादो। सिय अस्थि णस्थि अवरं कमेण णेयं च सपरं च ॥५६॥
परद्रव्यक्षेत्रकालान भावं प्रतिपय युगपत् द्रव्यतः ।
स्यादस्ति नास्ति अपरं क्रमेण ज्ञेयं च स्वपरं च ।। दवं खेतं कालं भावं जुगवं समासिद्णा व । एवं णिच्चादीणं धम्माणं सत्तभंगविही ।। ५७ ॥ द्रव्यं क्षेत्र कालं भाचे युगपत् समाश्रित्य च । एवं नित्यादीनां धर्माणां सप्तभंगविधिः ।।
१ अप्रेण सह संबन्धः ।
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२८८
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे-
विहिणिसंहावतब्वभंगाणं पतेयदुसंजोयतिसंजोयजाद ।णं तिणितिष्णि एगसंभोयाणं मेलणं सतभंगी पण्डवला एकम्मि चत्धुम्मि विरोहेण सचति णाणाणयमुखगोणभावेण जं प्ररुवेदि ।
विधिनिषेधावक्तव्य भंगानां प्रत्येकद्विसंयोगत्रिसंयोगजातानां त्रित्र्येकर्सख्यानां मेलनं सप्तभंगी प्रश्नवशात् एकस्मिन् वस्तुनि अविरोधेन संमती नानानय मुख्यगौणभावेन यत्प्ररूपयति ।
तत्थापयाणि ब्रहेण य णचंते सद्विलक्खमाणाणि 1 णाणाणर्याणि रूवणपराणि सत्तस्स भंगल्स || ५७ ॥ तत्र पदानि बुवैव ज्ञायन्ते पष्टिलक्षमानानि । नानानयनिरुपणपराणि सप्तानां भंगानां ॥ पर्याणि ६०००००० |
इदि अस्थिणस्थिपवाद गर्द-इत्यस्ति नास्तिप्रवादपूर्वं गतं ।
गाणपवादपुच्वं मदिमुदओही सुणाणणाणाणं । मणपज्जयस्स भेयं केवलणाणस्य रूवं च ॥ ५९ ॥ ज्ञानप्रवादपूर्वं मतिश्रुतावधिज्ञानाज्ञानानां ।
मन:पर्ययस्य भेदान् केवलज्ञानस्य रूपं च ||
कहदि ह पयप्पमार्ण कोडी रूऊणगा हि मदिणाणं । हु अब गईहावायाधारणगा होंति तन्भेया ॥ ६० ॥ कथयति पदप्रमाणं कोटि रूपोनां हि मतिज्ञानं । अहावावधारणा भवन्ति तद्भेदाः ||
विसयाणं बिसईणं संजोगे दंसणं वियप्पवदं । अवगहणाणं तत्तो विसेसकखा हवे ईहा ॥ ६१ ॥
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अंगपण्णत्ती ।
विषयाणां विषयिणां संयोगे दर्शनं, विकल्पयत् । अज्ञानं ततो विशेषाकांक्षा भवेदीहा || ततो सुणिष्णओ खलु होदि अबाओ दु वत्धुजादस्स | कालंतरे वि णिणिदसमरणहेऊ तुरीयं तु ।। ६२ ।।
ततः सुनिर्णयः खलु भवति भवायस्तु वस्तुजातस्य । कालान्तरेऽपि निर्णीतस्मरणहेतुस्तुर्ये तु ॥ इंदिय अदित्थं वैजण अत्थादवग्गहो दुविहो । चक्स्स्स माणसस्स य पढमों ण वञ्वम्गहो कमसो ॥ ६३ ॥ इन्द्रियानिन्द्रियोत्थं व्यञ्जनार्थाभ्यामत्रग्रहो द्विविधः ।
चक्षुपः मनसश्च प्रथमो न चावग्रहः क्रमशः || बहु बहुविहं च खिष्पाणिस्सिदणुत्तं धुवं च इदरं च । पडि एक्केके जादे तिसयं छत्तीसभेयं च ॥ ६४ ॥ बहु बहुविधं च क्षिप्रं अनिसृतं अनुक्तं ध्रुवं इतरच | प्रति एकैकस्मिन् जाते त्रिशतं परिशद्भेदं च ॥
मदिणाण मतिज्ञानम् ।
सुदणाणं अत्यादी अत्यंतर गणमेव मदिपुव्वं । दव्वसुदं भावसुदं पियमेणिह सद्दजं पमुहं ॥ ६५ ॥ श्रुतज्ञानमर्थात् अर्थान्तरग्रहणमेव मतिपूर्वे ।
द्रव्यश्रुतं भावश्रुतं नियमेनेह शब्दजं प्रमुख || पजायक्खरपदसंघायं पडिवत्तियागियोगं च । पाहुड पाहुडपाहुड वत्थू पुत्रं समासेहिं ॥ ६६ ॥ पर्यायाक्षरपद संघानं प्रतिपत्ति अनुयोगं च |
प्राभृतं प्रामृतप्राभृतं वस्तु पूर्वं समासैः ॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
वीसविहं तं तेसिं आवरणविभेयतो हि पियमेण । सुमणिगोदस्स हवे अपुणस्स पदमसमयहि || ६७ ॥ वह नसे |
विशतिविधं तत्तेषां
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सूक्ष्मनिगोदस्य भवेत् अपूर्णस्य प्रथमसमये || लक्खरपज्जायं णिच्चुग्धाडं लहुं णिरावरणं । उवरुवरिवडि जुनं वीसवियष्पं हु सुदणाणं ॥ ६८ ॥
लब्ध्यश्चरपर्यार्थं नित्योद्वाटं लघु निरावरणं । उपर्युपरिवृद्धियुक्तं विंशतिविकल्पं हि श्रुतज्ञानं ॥ हृदि सुदाणं - इति श्रुतज्ञानं ।
भवगुणपचयविहियं ओहीणाणं तु अवहिगं समये । सीमाणाणं रूवीपदत्थसंघादपच्चसं ॥ ६९ ॥
भवगुणप्रत्ययाविहितं अवधिज्ञानं तु अवधिगं समये । सीमाज्ञानं रूपिपदार्थ संघात प्रत्यक्षं ॥ देसोही परमोही सवोही होदि तत्थ तिविहं तु | गुणपचयगो णियमा देसोही परतिरक्खाणं ॥ ७० ॥
देशावधिः परमावविः सर्वावधिर्भवति तत्र त्रिविवस्तु । गुणप्रत्ययको नियमात् देशावधिः नरतिरथां || अवरं देसोहिस्स व परतिरिए हवदि संजदह्नि वरं । भवपचयगो ओही सुरणिरयाणं च तित्थाणं ॥ ७१ ॥
अरं देशावधेश्व नरतिर्यक्षु भवति संयते वरं । भवप्रत्यहकोऽवधिः सुरनारकाणां च तीर्थकराणां ॥ गाणाभेयं पढमं एयवियप्पं तु विदियमोही खु । परमोही सन्चोदी चरमसरीरिस्त विरदस्त ॥७२॥
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अंगपण्णत्ती |
नानाभेदं प्रथमं एकविकल्पस्तु द्वितीयोऽवधिः खलु ? | परमावधिः सर्वावधिः चरमशरीरिणः विरतस्य ॥ अणुगाभी देसादिसु तमणणुगामी य हीयमाणो वि । विदित छमे ॥७३॥
अनुगामी देशादिषु तेष्वननुगामी च हीयमानोऽपि । वर्धमानोऽपि अवस्थितोऽनवस्थितो भवन्ति षड्भेदाः ॥ इदि ओहिणाणं इत्यवधिज्ञानं ।
मणपज्जयं तु दुविहं रिजुमदि पढमं तु तत्थ विउलमदी । संजमजुत्तस्स हवे जं जाणइ तं खु णरलोए || ७४॥
मन:पर्ययस्तु द्विविध ऋजुमतिः प्रथमस्तु तत्र विपुलमतिः । संयमयुक्तस्य भवेत् यज्जानाति तत् खलु नरलोके ॥ इदि मणपज्जयं - इति मन:पर्ययः ।
सव्वावरणविमुक्कं लोयालोयप्पयासगं णिचं | इंदियकमपरिमुकं केवलणाणं णिरावाहं ॥ ७५ ॥ सर्वावरणविमुक्तं लोकालोकप्रकाशकं नित्यं । इन्द्रियक्रमपरिमुक्तं केवलज्ञानं निराबाधं ॥
इदि केवलणाणं - इति केवलज्ञानं ।
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कुमदि कुसुदं विभंगं अण्णाणतिथं वि मिच्छअणपुत्रं । सचादिभावमुकं भवहेदु सम्मभावचुदं ॥ ७६ ॥
कुमतिः कुश्रुतं विभंग अज्ञानत्रयमपि मिध्यानपूर्व । सत्यादिभावविमुक्तं भवहेतुः सम्यक्त्वभावच्युतं ॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
सऊणकोडिपयं णाणपवाद अणेयणाणाणं । जाणामेयपरूवणपरं णमंसामि भावजुदो ॥ ७७॥
रूपोनकोटिपदं शानकादं अ५. जान्हं ।
नानाभेदप्ररूपणपरं नमामि भावयुक्तः ॥ पयाणि ९९९९९९९।
हदि णाणपवादं गर्द-इति ज्ञानप्रसादं गतं ।
सच्चपचादं छह वाग्गुत्तिं चावि वयणसक्कारो। वयणपओगं बारहमासा खलु वक्कबहुमेये ॥ ७८ ॥
सत्यप्रवादं षष्ट वाग्गुप्तिश्चापि वचनसंस्कारः । वचनप्रयोगो द्वादशभाषाः खल्ल वक्तृबहुभेदाः ।। बहुविहामिसामिहाणं दसविहसचं मया परूवेदि । जीवाण बोहणत्थं पथाणि छसुत्तरा कोडी ॥७९॥ बहुविधमृषामिधानं दशविधसत्यं मया प्ररूप्यते ।
जीवानां बोधनार्थ पदानि षडुत्तग़ कोटिः ॥ तंजहा । असञ्चणिवत्ती मोणं वा वारगुत्ती, वयणसरकारकारणाई उरकंठसिरजिम्मामूलदंतणासिकातालुओढणामाणि अट्ठाणाणि, पिट्टदाईसिपिदाविधिवदाईसिविविददासंविधिदरूवा पंचपयत्ता वयणसरकारकारणाणि, सिद्दुहरूवो वयणपओगो तल्लक्षणसत्थं सक्कायाइवायरणं । यारह भासा-हणमणेण कियमिदि अणट्ठकदणमभक्खाणं पाम १ परोप्परविरोहहेदु कलहवाया २ पिढ्दो दोससूयणं पेसुण्णवाया ३ धम्मत्थकाममोक्खाऽसंबद्धवयमसंबद्धालाओ ४ दियविसयेसु रइउप्पाडया बाया रविवाया ५ तेसु अरदिउत्पादिया वाया अरदिवाया ६ परिगहानणसंरक्षणाइआसत्ति. हेदु वयणमुचाहिवयणं ७ चचहारे चंचणाहेदु वयणं णियद्धिबयणं ८ तवणाणादिसु अवणियत्रयणमवणविषयणं ९थेयहेदुघयणं मूसा.
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अंगपण्णत्ती |
२९३
वरणं १० सम्मग्गोवदेसकं वग्रणं सम्मदंसणवयणं ११ मिच्छामगोवदेसकं वयणं मिच्छादंसणवयणमिदि १२ ।
तद्यथा । असत्यनिवृत्तिर्मोनं वा वास्तुतिः । वचनसंस्कारकारणानि उर: कंठशिरोजिव्हामूलदन्तनासिकातात्वोष्टनामानि अस्थानानि स्पृष्टतेपत्स्पृष्टताविवृततेषद्विवृततासंविवृततारूपाः पंचप्रयत्ना वचनसंस्कारणानि । शिष्टदुष्टरूपी वचनप्रयोगः तल्लक्षणशास्त्रं संस्कृतादिव्याकरणं । द्वादशभाषा इदमनेन कृतमिति अनिष्टकथनमभ्याख्यानं नाम १ परस्परविरोध• हेतुः कलहबाक् २ पृष्ठतो दोषसूचनं पैशून्यत्राक् ३ धर्मार्थकाममोक्षासम्बद्धवचनमसंबद्धालापः ४ इन्द्रियविषयेषु रत्युत्पादिका या वाक् रतिवाक् ५ तेष्वरत्युत्पादिका या वाक् अस्तीवाक् ६ परिग्रहार्जनसंरक्षणाद्यासक्तिहेतु वचनं उपाधिवचनं ७ व्यवहारे बंचना हेतु निकृतिवचनं ८ तपोज्ञानादिषु अविनयवचनं अप्रणतिवचनं ९ स्तेयहेतु वचनं मृषावचनं १० सन्मार्गोपदशकं वचनं सम्यग्दर्शनवचनं । २१ मिथ्यामार्गोपदेशकं वचनं मिथ्यादर्शनवचनमिति १२ ॥
MMMA
वत्तारा बहुभेया चींदियपहा हवंति सक्यो । बहुविमसञ्चवणं दव्वादिसमासयं णेयं ॥ ८० ॥
वक्तारो बहुभेदा द्वीन्द्रियप्रमुखा भवन्ति मृषावाक् । बहुविधमसत्यवचनं द्रव्यादिसमाश्रितं ज्ञेयं ॥ दसवसचं जणवद सम्मिदि ठवणा य णाम रूवे य । संभावणे यभावे पहुच वबहार उमाए ॥८१॥
दशविधसत्यं जनपदं सम्मतिः स्थापना च नाम रूपं । संभावना च भावः प्रतीत्य व्यवहारं उपमा ॥ भत्तं राया सम्मदि पडिमा तह होदि एस सुरदत्तो । किहो जंबूदीवं पल्लदि पाववज्जवयो ||८२ ॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
Premran
भक्तं राजा सम्मतिः प्रतिमा तथा भवत्येष सुरदत्तः । कृष्णः जम्बूद्वीपं परिवर्तयति पापयर्यवचनं ।। हस्सो रज्झदि कूरो पल्लोवममेवमादिया सच्चा । आमंतणि आणवणी पुच्छणि जाचणी य पणवण्णी ॥८॥ हस्वः रथ्यति क्रूरः पल्योपममेवमादिकानि सत्यानि ।
आमंत्रणी आज्ञापनी पृच्छनी याचनी प्रज्ञापनी ।। पच्चक्खाणी संसयवयाणी इच्छाणुलोमिया तच्च । णवनी अगलरहदा एवं भासा पवेदि !!४१॥ प्रत्याख्यानी संशयवचनी इच्छानुलोमिका तन्न ।
नवमी अनक्षरगता एवं भाषाः प्ररूपयति ।। . पयाणि १००००००६।
इदि सवपवादपुष्वं गद--इति सत्यप्रवादपूर्व मतं ।
अप्पपवादं भणियं अप्पसरूवापरूवयं पुव्वं । छच्चीसकोडिपयगयमेवं जाणंति सुपयत्था । ८५॥
आत्मप्रवादं भणितं आत्मस्वरूपप्ररूपकं पूर्व । पड़िशतिकोटिपदगतमे जानन्ति सुपदस्थाः || जीवो कत्ता य बत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्मलो। वेदी विण्ह सयंभू सरीरी तह माणओ ॥८६॥ सत्तो जंतू य माणी य माई जोगी य संकुडो । असंकडो य खेत्तर अंतरप्या तहेव य ॥८७॥
जीवः कर्ता च वक्ता च प्राणी भोक्ता च पुद्गलः । वेदः विष्णुः स्वयंभूः शरीरी तथा मानवः ॥
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२९५. ~~-.......... www.--.-.-...-. .... .. .. ... .----
अंगपण्णत्ती!
सक्ता जन्तुश्च मानी च मायी योगी च संकुचितः । असंकुचितः क्षेत्रज्ञः अन्तरात्मा तथैव च ।।
धघहारेण जीवदि वसपाहि, णिच्छयणएण य केवलणाणदसणसम्मतरूपपाणेहि, जीविहिदि जीविहगुब्बो जीवदित्ति जीवो। घवहारेण सुहासुई कम्म णिच्छ्यणयप चिप्प जयं च करेदिति कत्ता । नो कमिव करेदि इदि अकत्ता। सचमसशं च वसिति वत्ता। णिच्छयदो अवत्ता । णयदुगुत्तपाणा अस्स अस्थि इदि पाणी । कम्मफलं सस्सरूवं चदि इदि भोत्ता । कम्मपोग्गलं पूरेदि गालेदि य पोग्गलो । णिच्छ को अपोग्गलो। सव्वं वेइ इदि वेदो । चावणसीलो विण्ड । सयंभुरणसीलो सयंभू। सरीरमस्तस्थित्ति सरीरी। णिच्छयदो असरीरी। माणवादिपज्जयजुत्तो माणयो। णिच्छपण अमाणवो । एवं सुरो असुरो तिरिच्छो अतिरिच्छो णारयो अणारयो च इदि णादव्वं 1 परिमाहेसु सजदित्ति सत्तर। णिच्छयदो असत्ता। णाणाजोणिसु जायइत्ति जंतू । णिच्छयेण अजंतू । माणो अहंकारो अस्सत्थिात माणी । णिच्छयदो अमाणी.| मायास्सस्थिति मायी। णिच्छयदो अमायो । जोगो मणवयणकायलक्खणो अस्सस्थित्ति जोगी। णिच्छयदो अजोगी । जहपणेण संकुश्दपदेसो संकुडो। समुग्धादे लोयं वापत्ति असंकुडो। खेत्तं लोयालोयं सस्सरूवं च जाणदित्ति खेत्तण्ह । अलुकम्माभंत. रवत्तीसभावदो दणाभंतरवत्सीसभाचदो च अंतरप्या । एवं मुत्तो अमुत्तो। एवमादि वण्णेदि ससमपुन्छ।
व्यवहारेण जीवति दशप्राणैः, निश्चयनयेन च केवलज्ञानदर्शनसम्यक्वरूपप्राणैः । जीविष्यति जीवितपूर्वो जीवतीति जीवः । व्यवहारेप शुभाशुभ कर्म निश्चयनयेन चित्पर्याय च करोतीति कर्ता । न किमपि करोतीत्यकर्ता । सत्यमसत्यं च वक्तीति वक्ता । निश्चयतोऽवक्ता । नयद्विकोक्तप्राणा यस्य सन्तीति प्राणी । कर्मफलं स्वस्वरूपं च भुंक्ते इति
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सिद्धान्तकारादिसंग्रह
भोक्ता । कर्मपुद्गलान् पूरयति गालयति च पुद्गलः । निश्चयतोऽमुद्गलः | सर्व वेत्तीति वेदः ! ब्यापनशीलो विष्णुः । स्वयंभवनशीलो स्वयंभूः । शरीरमस्यास्तीति शरीरी। निश्चयतोऽशरीरी ! मानवादिपर्याययुक्तो मानवः । निश्चयेनामानवः । एवं सुरोऽसुरः, तिर्यंचोऽसिर्यचः, नारकोऽनारकश्च इति ज्ञातव्यः । परिग्रहेषु सजतीति सक्ता । निश्चयतोऽसक्ता । नानायोनिषु जायते इति जन्तुः । निश्चयेनाजन्तुः । मानोऽहंकारोस्यास्तौति मानी ! निश्चयतोऽमानी । मायास्यास्तीति मायौं । निश्रयतोऽमायी । योगो मनक्चनकायलक्षणोऽस्यास्तीति योगी । निश्चयतोऽयोगी । जघन्येन संकुचितप्रदेशः संकुचितः। समुद्राते लोक व्यामोतीत्यसंकुचितः । क्षेत्र लोकालोक स्वस्वरूपं च जानातीति क्षेत्रज्ञः | अष्टकर्माभ्यन्तरवर्तिस्वभावतश्चेतनाभ्यन्तरवर्तिस्वभावतश्चान्तरात्मा । एवं मूर्तो मूर्तः । एवमादिकं वणपति सप्तमं पूर्वे । पयाणि २६०००००००।
इदि अप्पपवाद गर्द-इत्यात्मप्रवादं गतं ।
कम्मपवादपरूवण कम्मपवाद सया मसामि । इगिकोडीअडसीदीलक्खपयं अहर्म पुवं ।। ८८॥
कर्मप्रवादप्ररूपणं कर्मप्रावदं सदा नमामि । एककोट्यष्टाशीतिलक्षपदं अष्टमं पूर्व आवरणस्स विभेयं वेयणीयं मोहणाधु णामं च । गोतं च अंतरायं अविषप्पं च कम्ममिण ॥ ८९ ॥
आवरणस्य विभेद वेदनीयं मोहनीयमायुः नाम च । गोत्रं चान्तरार्य अष्टविकल्प च कर्मेदं ।।
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अंगपण्णत्ती ।
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अडदालसयं उत्तरपयडीदो असंखलोयभेयं च । बंधुदयुदीरणावि य स तेसि भारदेदि ॥९:::
अष्टचत्वारिंशच्छतं उत्तरप्रकृतितः असंख्यलोकभेदं च.] बंधोदयोदीरणा अपि च सत्वं तेषां प्ररूपयति ॥ पयडि:हिदि अणुभागो पदेसर्वधो हु चउविहो बंधो। तेसिं च ठिदि पोया जहण्णइदरपमेयेण ॥११॥
प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धो हि चतुर्विधो बन्धः । तेषां च स्थितिः ज्ञेया जघन्येतरप्रभेदेन । अणुभागो पयडीणं सुहासुहाणं च चउविहो होदि । गुडखंडसक्करामिदमरिसो य रसो सुहाणं पि ॥१२॥
अनुभागः प्रकृतीनां शुभाशुभानां च चतुर्विधो भवति ।
गुडखंडशकरामृतसदृशश्च रसः शुभानामपि ॥ प्रिंबकजीरविसरहालाहलसरिसचउविहो यो। अणुभायो असुहाणं पदेसचंथो वि बहुभेयो ॥९३।। निवकंजीरविषहालाहलसदृशश्चतुर्विधो ज्ञेयः ।
अनुभागोऽशुभानां प्रदेशबन्धोऽपि बद्दभेदः ॥ लयदारहसिलासमभेया ते विल्लिदारणं तस्स । इगिभागो बहुभागाद्विसिला देसपादिषादीणं ॥१४॥
लतादास्थिशिलासमभेदास्ते वल्लीदार्वनन्तस्य । एकभागो बहभागा अस्थिशिला देशघातिघातिनां ॥ पयाणि १८००००००।
इदि कम्पपवादपुच्वं गर्द-इति कर्मप्रवादपूर्व गते ।
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२९८
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
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पञ्चक्खाणं णवमं चउसीदिलक्सषयप्पमाणं तु । तत्थ वि पुरिमनिसेमा परिमिदकालं च इटनं च ॥९५।।
प्रत्याख्यानं नवमं चतुरशीतिलक्षपदप्रमाणं तु ।
तत्रापि पुरुषविशेषान् परिमितकालं च इतरञ्च ।। णाम इवणा दवं खेत्तं काले पडुच्च भावं च । पञ्चक्खा किज्जइ सावज्जाणं च बहुलाणं ॥ ९६ ॥ नाम स्थापना व्यं क्षेत्रं कालं प्रतीत्य भावं च ।
प्रत्याख्यानं क्रियते सावद्यानां च बहुलानां ।। उववासविहिं तस्य वि भावणभेयं च पंचसमिदिं च । गुत्तितियं तह वष्णदि उववासफलं विसुद्धस्स ॥१७॥
उपवासविधि तस्यापि भावनाभेदं च पंचसमिति च ।
गुतित्रयं तथा वर्णयति उपवासफलं विशुद्धस्य ।। अणागदमदिक्कत कोडिजुदमखंडिदं ।। सायारं च णिरायारं परिमाणं तहेतरं ॥२८॥
अनागतमतिक्रान्तं कोटियुतमखंडितं ।
साकारं च निराकारं परिमाणं तथेतरत् ।। तहा च वत्तणीयातं सहेदुगमिदि ठिदं । पञ्चक्खाणं जिणेदेहि दहभेयं पकित्तिदं ॥ ९९ ॥
तथा च........सहेतुकमिति स्थितं ।
प्रत्याख्यानं जिनेन्द्रः दशभेदंप्रकीर्तितं ॥ चउन्विहं तं हि विणयसुद्ध अणुवादसुद्धमिदि जाणे । अणुपालणसुद्धं चिय भावविसुद्धं गहीदच्वं ॥१०० ।।
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अंगपण्णत्ती।
२९९
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चतुर्विध तद्धि विनयशुद्धं अनुवादशुद्धमिति जानीहि ।
अनुपालनशुद्ध चैत्र भावविशुद्धं गृहीतव्यं ।। पयाणि ८४०००००।
इदि पचक्याणपुवं गर्द-इति प्रत्याख्यानपूर्वं गतं ।
विज्जाणुवादपुच्वं पयाणि इगिकोडि होति दसलक्खा । अंगुट्टपसेणादी लहुविजा सनसयमेथ ॥१०॥ . विद्यानुवादपूर्व पदानि एककोटिः भवन्ति दशलक्षाणि । ____अंगुलप्रसेनादीः लघुविद्याः सप्तशतान्यन्त्र । पंचसया महविज्जा रोहिणिपमुहा पकामये चावि । तसिं सरुवसत्तिं साहणप्रयं च मतादिं ॥१०२॥ पंचशतानि महाविद्या रोहिणीप्रमुखाः प्रकाशयति चापि ।
तासां स्वरूपशाक्ति साधनपूजां च मंत्रादिकं ।। सिद्धाणं फललाहे भोमंगयणगसद्दछिण्णाणि । सुमिणंलक्षणविजणअणिमित्ताणि जं कहइ ॥१०३|| सिद्धानां फललाभान् भौमगगनाङ्गशब्दच्छिन्नानि ।
स्वप्नलक्षणव्यंजनानि अष्टौ निमित्तानि यत्कथयति ।। पयाणि ११००००००।
इदि विजाणुवादपुवं-इति विद्यानुवादपूर्व ।
कल्याणचादधुव्वं छव्वीससुकोडिपयप्पमाणं तु । तित्थहरचकवट्टीवलदेउसमद्धचक्कीणं ॥१०४ ॥
कल्याणवादपूर्वं षडिशतिमुकोटिपदप्रमाणं तु । तीर्थकरचक्रवर्तिबलदेवसमर्द्धचकिणां ॥
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सिद्धान्तसारादिसंप्रहे
गब्भावदरणउच्छव तित्थयरादीसु पुष्णहंदु च । सोलह भावणकिरिया तवाणि वण्णेदि ( स ) विसेसं ॥ १०५ ॥ गर्भावतरोत्सवानि तीर्थकरादिषु पुण्यहेतूच | षोडशभावनाक्रियाः तपांसि वर्णयति सविशेषं ॥
३००
वरचंद सूरगहणगहणक्खत्तादिचारसउणाई । * तेसिं च फलाई पुणो * वण्णेदि सुहासुहं जत्थ ॥ १०६ ॥ वरचन्द्र सूर्यग्रहणग्रहनक्षत्रादिचारशकुनादि ।
तेषां च फलादि पुनः वर्णयति शुभाशुभं यत्र ॥
पयाई २६००००००० |
इदि कलाणवाद इति कल्याणवादपूर्व ।
'पाणावार्य पुर्व तेरहकोडीपर्यं णमंसामि । जत्थ वि कायचिकिच्छा पमुहहंगायुवेयं च ॥ १०७॥ प्राणावायं पूर्वं त्रयोदशको डिपदं नमामि । यत्रापि कायचिकित्सा प्रमुखाष्टा अयुर्वेदं च || भूदी कम्मं जंगुलिपक्क माणासाया परे भेया । 'ईडापिंगलादिपाणा पुढवीआउगवाणं ॥ १०८ ॥ भूतिकर्म जांगुलिप्रक्रमसाधका परे भेदाः । इलापिंगलादिप्राणाः पृधिव्यवमिवायूनां ! | तच्चाणं बहुभेयं दहपाणपरूवणं च दव्वाणि । उपयारयावयारयरूवाणि य तेसिमेवं खु ॥ १०९ ॥ तत्वानां बहुभेदं दशप्राणप्ररूपणं च द्रव्याणि । उपकारापकाररूपाणि च तेषामेवं खलु ||
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अंगपण्णती। marrrrrrrrrrrrrrrrian
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वणिज्जइ गइभेया जिणवरदेवेहि सव्वमासाहि ।
वर्ण्यते गतिभेदैः जिनवरदेवैः सर्वभाषाभिः । पयाणि १३०००००००।
पाणावायं गद-प्राणावार्य गर्न । किरियाविसालपुव्वं णवकोडिपयेहिं संजुर्त्त ॥ ११० ॥
क्रियाविशालपूर्व नवकोटिपदैः संयुक्तं ॥ संगीदसत्थछेदालंकारादी कला बहत्तरी य । चउसही इच्छिगुणा चउसीदी जत्थ सिल्लाणं ॥१११।।
संगीतशास्त्रच्छंदोलङ्कारादि यः कलाः द्वासप्ततिः ।
चतुःषष्ठिः स्त्रीगुणाः चतुरशीतिः यत्र शिल्पानां ।। विष्णागाणि सुगब्भाधाणादी अडसयं च पणवागं । सम्मइंसणकिरिया वणिज्जते जिणिदेहिं ॥११२॥ विज्ञानानि सुगर्भाधानादयः अातं च पंचवर्ग ।
सम्यग्दर्शनक्रियाः वयेते जिनेन्द्रैः ।। णिचणिमित्ताकिरिया बंदणसम्मादिया मुणिदाणं । लोगिगलोगुत्तरभवकिरिया गेया सहावेण ||११३॥ नित्यनिमित्तक्रिया बंदनासाम्यादिका मुनीन्द्राणां ।
लौकिकलोकोत्तरभत्रक्रिया ज्ञेयाः स्वभावेन ॥ पयाणि ९००००००० ।
इदि किरियाविसाल-इति क्रियाविशालं ।
तिल्लोयविंदसारं कोडीबारह दसवपणलक्खें। जत्थ पयाणि तिलोयं छत्तीसं गुणिदपरियम्मं ॥११४॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
त्रिलोकबिन्दुसारं कोट्यो द्वादश दशन्नपंचलक्षाणि ।
यत्र पदानि त्रिलोक पत्रिंशत् गणितपरिकर्म ॥ अडववहारास्थि पुणो अंकविपासादि चारि बीजाई । मोक्खगालगणकारासहवामकिनियाओ ॥११५।।
अष्टव्यवहारान् पुनः अंकविपासादीनि चत्वारि वीजानि । मोक्षस्वरूपगमनकारणसुखधर्मनियाः ॥ लोयस्स विंदवयवा वणिजंते च एत्थ सारं च । तं लोयविदुसारं चोद्दसपुर्च णमंसामि ॥११६।।
लोकस्य विन्दवोऽवयवा वर्ण्यते यत्र सारं च ।
तल्लोकबिन्दुसार चतुर्दशपूर्वे नमामि ।। पयाणि १२५००००००।
तिलोयविद्युसार गर्द-त्रिलोकविन्दुसारं गतं ।
इदि गाणभूमपट्टे मूरि सिरिविजयकित्तिणामगुरुं । णमिऊण मूरिमुक्खो कहइ इणं सुद्धसुहचंदो ॥ ११७ ॥
इति ज्ञानभूपणपट्टे सूरि श्रीविजयकीर्तिनामगुरुं ।
नत्वा सूरिमुख्यः कथयति इमां शुद्धशुभचंद्रः ॥ इदि अंगपण्णत्तीए सिद्धंतसमुच्चये बारहअंगसमरणावराभि
हाणे विदियो अहियाये ॥ २ ॥
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चूलिकाप्रकीर्णकप्रज्ञप्तिः।
तच्चूलियासुभेया पंच वि तह जलगया हवे पढमा । जलथंभण जलगमणं वण्णादि विहिस्स भक्खं जं ॥१२॥ तलिकासु भेदाः पंचापि तथा जलगत्ता भवेत्प्रथमा ।
जलस्थंभनं जलगमनं वर्णयति वन्हे; भक्षणं यत् ।। वेसणसेवणर्मतंतंतंतवचरणपमुहविहिए। णहणदुगणवडणवणदुण्णि पयाणि अंककमे ॥२॥ प्रवेशनसेवनमंत्रतंत्रतपश्चरणप्रमुखविधिभेदान् । नभोनमोद्विक नवाटनबनभोद्विकानि पदानि अंकक्रमेण ॥ पयाणि २०९८९२००।
जलगदचूलिया--जलगतचूलिका।
मेरुकुलसेलभूमीपसुहेसु पवेससिग्धगमणादि-1 कारणमंतवंतंतवचरणणिरूवया रम्मा ॥३॥ मेलुलशैलभूमिप्रमुख्नेषु प्रवेशशीघ्रगमनादि।
कारणमंत्रतंत्रतपश्चरणनिरूपिका रम्या ॥ तित्तियपयमेत्ता हु थलगयसण्णामचूलिया भणिया। मायागया च तेत्तियपयमेत्ता चूलिया णेया ॥४॥
तावत्पदमात्रा हि स्थलगतसन्नामचूलिका भणिता।
मायागता च तावत्पदमात्र! चूलिका ज्ञेया ॥ मायारूचमहेंदजालचिकिरियादिकारणगणस्स । मंततवतंतयस्स य णिरूवग्ग कोदुयाकलिदा ॥५॥
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३०४
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
मायारूपेन्द्रजालविक्रियादिकारणगणानां । मंत्रतपस्तंत्राणां च निरूपिका....... कलिता ॥ स्वगया पुण हरिकरितुरंगरुरुणरतरुमियवसहाणं । ससवग्वादीण पि य रूवपरावत्तहेदुस्स ॥६॥
रूपगता पुनः क्रिकरितुरुगरुत्नरतरुमृगवृषभाणां ।
शशव्याघ्रादीनामपि च रूपपरावर्तनहेतूनां | तवचरणमंततंतंयंतस्स परवगा य वययसिलाचितकहलेब्वुवक्खणणादिसु लक्वर्ण कहादि ॥७॥ . तपश्चरणमंत्रतंत्रयंत्राणां प्ररूपका च......."शिला---
चित्रकाष्ठलेप्योत्खननादिसुलक्षणं कयते ॥ पारदपरियट्टणय रसवायं धादुवायक्खणं च । या चूलिया कहेदिःणाणाजीवाण सुहहेद् ॥८॥
पारदपरिवर्तन रसवाद धातुवादाख्यानं च ।
या चूलिका कयते नानाजीवानां सुखहेतोः ।। आयासगया पुण गयणे गमणस्स सुमंततंतयंताई । हेदणि कहदि तवमपि तेत्तियपय मेत्तसंबद्धा ॥९॥
आकाशगना पुनः गगने गमनस्य सुमंत्रतंत्रयंत्राणि । हेतूनि कथयति तपोऽपि तावत्पदमात्रसम्बद्धा || इदि पंचपयारचूलिया सरिसया गदा-इति पंचप्रकारचूलिका सदशा गता ।
. -... -- . चउद्दस पडण्याया खलु सामइपमुहा हि अंगवाहिरिया। ते वोच्छे अंहरियहेद............हि सुभव्यजीवस्स ॥१०॥
चतुर्दश प्रकीर्णकाः खलु सामायिकप्रमुखा हि अंगबाह्याः । तान् वक्ष्य ............हेतु.......हि सुभव्यजीवस्य ।।
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अंगपण्णत्ती ।
३०५
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एयत्तणेण अप्पे गमर्ण परदव्यदी दणिवत्ती। उपयोगस्स पइत्ती स समायोऽदो उच्चदे समये ॥११॥
एकवेन आत्मनि गमनं परद्रव्यतस्तु निवृत्तिः । उपयोगस्य प्रवृत्तिः स समाय आत्मोन्यते समये ।। गादा चेदा दिहाहमेव इदि अप्पगोचरं झाणं । अह सं मज्झत्थे गदि अप्पे आयो दु सो भणिओ ॥१२॥ ज्ञाता चेतयिता हाष्टाहभेत्र इत्यात्मगोचरं ध्यानं ।
अथ से मध्यस्थे गतिरात्मनि आयात म भणितः ।। तत्थ भवं सामइयं सत्थं अवि तप्परूवगं छविहं । णाम हवणा दवं खेतं कालं च भावं तं ॥१३॥ तत्र भवं सामायिक शास्त्रमपि तत्प्ररूपकं पविध ।
नाम स्थापना द्रव्यं क्षेत्र कालश्च भावस्तत् ।। तत्य इटाणिवृणामेसु रायदोषणिब्वात सामाइयमिदि अहिहाण वा णाम सामाइयं ।। १ ।।
तत्रष्टानिष्टनाममु रागद्वेपनिवृत्तिः सामायिकमिति अभिधानं वा नाम सामायिकम् ॥१॥
मणुगणमणुग्णाम् इस्थिपुरिसाइआयारठावणासु कट्ठलेवचित्तादिपडिमासु ायदोसणियट्टी इणं सामाइयमिदि वाइजमाणयं किंचि वत्थू चा ठावणा सामाइयं ॥ २॥ ___ मनोज्ञामनोज्ञानु स्त्रीपुरुषाद्याकारस्थापनासु काष्ठलेपचित्रादिप्रतिमासु रागद्वषानिवृत्तिः इदं सामायिकमिति वा स्थाप्यमानं किंचिद्वस्तु वा स्थापना सामायिकं ॥ २ ॥
इहाणिसु चेदणाचेन्शदवेरायदोसणियही सामाइयलस्थाणुबजुत्तणायगो तस्सरीरादि वा दब्यकामाइयं ॥३॥
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहेइष्टानिष्टेषु चेतनाचेतनद्रव्येषु रामद्वेषनिवृत्तिः सामायिकशास्त्रानुपयुक्तज्ञायकः तच्छरीरादि वा द्रव्यसामायिकं ॥ ३ ।।
कामगामणयरवणादिखेत्तेसु इहाणिद्वेसु रायदोसणियट्टी खेत्तसामाइयं ॥४॥
नामग्रामनगरखनादिक्षेत्रेषु इष्टानिष्टेषु रागद्वेषनिवृत्तिः क्षेत्रसामायिक || ४ ||
पसंताइसु उडुसु सुक्ककिण्हाण पक्खाणं दिणचारणखत्ताइसुच तेसु कालविसेंसेसु तं णियट्टी कालसामाइयं ॥५॥
वसंतादिषु ऋतुषु शुक्वकृष्णयोः पक्षयोः दिनवारनक्षत्रादिषु च तेषु कालविशेष तन्निवृत्तिः कालसामायिक || ५||
णामभावस्स जीयादितश्चविसयुवयोगरूवस्स पजायस्स मिच्छादसणकसा दिसंक्तिलेसणही सामावर रुपयतणागो तप्पजायपरिणदं सामाइयं वा भावसामाइयं ॥६॥
नामभावस्य जीवादितत्वविषयोपयोगरूपस्य पर्यायस्य मिध्यादर्शनकषायादिसक्लेशनिवृत्तिः सामायिकशास्त्रोपयुक्तज्ञायकः तत्पर्यायपरिणत सामायिकं वा भावसामायिक ॥६॥
सामाइयं गदै सामायिक गतं ।
चउविसजिणाण णामठवणदव्वखेत्तकालभावेहि । कल्लाणचउत्तीसादिसयाडपाडिहेराणं ॥१४॥
चतुर्विंशतिजिनानां नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावैः । कल्याणचतुस्त्रिंशदतिशयाष्टप्रातिहार्याणां ।। परमोरालियदेहसम्भोसरणाण धम्मदेसस्स । वण्णणामह तं थवणं तप्पडिबद्धं च सत्थं च ॥१५॥
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अंगपण्णत्ती। -rrrrrrrrrrrrrrrrrr- -------- परमौदारिकदेहसमवशरणानां धर्मदेशस्य । वर्णनमिह तस्तवनं तत्प्रतिबद्धं च शास्त्रं च ॥
थर्व गदं-स्तवं गतं ।
मा वंदणा जिणुत्ता बंदिज्जह जिणावराणमिण एक्कं । चेत्तचेत्तालयादिथई च दमादिभेया ।। सा बन्दना जिनोक्ता वन्द्यते जिनवराणां एकः । चैत्यचैत्यालयादिस्तुतिश्च द्रश्यादिबहुभेदा ।।
एवं वंदणा-एवं बंदना ।
पडिकमणं कयदोसणिरायरणं होदि तं च सत्तविहं । देवसियराइक्खियचउमासियमेववच्छरियं ।। १७॥
प्रतिक्रमणं कृतदोषनिराकरणं भवति तच्च सप्तविध ।
देवसिकरात्रिकपाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकं ॥ इज्जायहियं उत्तमअत्थं इदि भरहखेत्तादि । दुस्समकालं च तहा छहसंहणणऽङ्गपुरिसमासिज्ज ॥१८॥ ईर्यापधिकं उत्तमार्थमिति भरतक्षेत्रादि ।
दुःषमकालं च तथा षट्सहननाढ्यपुरुषमाश्रित्य ॥ दन्वादिभेदभिण्णं सत्थं अपि तप्परूवयं तं (तु)। यदिवग्गेहि सदावि य णादव्वं दोसपरिहरण ।। १९ ॥
द्रव्यादिभेदाभिन्नं शास्त्रमपि तत्प्ररूपक तत्तु । यतिवर्गः सदापि च ज्ञातव्यं दोषपरिहरणं ॥
इदि पहिक्कमणं-इति प्रतिक्रमणं ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रह
meaninmunmunamr-...
वेणइयं पाद पंचविह। मानदंसणाच। चारित्ततवुवचारह विणओ जत्थ परूविज्जइ ॥२०॥
वैनयिकं ज्ञातव्यं पंचविध ज्ञानदर्शनयोश्च ।
चारित्रतपउपचाराणां बिनयः यत्र प्ररूप्यते || विणयो सासणधम्मो विणओ संसारतारओ विणओ । मोक्खपही वि य विणओ कायव्यो सम्मदिहीणं ॥२१॥ विनयः शासनधर्मः विनयः संसारतारकः विनयः । मोक्षपथोऽपि च विनय; कर्तव्यः सम्यग्दृष्टिभिः ।।
विणो गदो-विनयो गतः ।
किदिकम्मं जिणवयणधम्मजिणालयाण चेत्तस्स । पंचगुरूणं वहा बंदणहेतुं परूवेदि ।। १२ ॥
कृतिकर्म जिनयचनधर्मजिनालयानां चैत्यस्य । पंचगुरुणां नवधा वन्दनाहेतुं प्ररूपयति ।। साधीणतियपदिक्खणतियणदिचउसरसुवारसावत्ते । णिचणिमित्ताकिरियाविहिं च वत्तीस दोसहरं ।। २३ ॥
स्वाधीनत्रिकपादक्षिण्यत्रिनतिचतुःशिरोद्वादशावर्ताः । नित्यनैमित्तिकक्रियाविधि च द्वात्रिंशद्दोपहरं ॥
इदि किदिकम्म-इति कृतिकर्म ।
जदिगोचारस्स विहिं पिंडविसुद्धिं च परूवेदि । दसवेयालियसुतं दह काला जत्थ संवुत्ता ।। २४ ॥
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अंगपण्णत्ती।
यतिगोचरस्य विधिं पिंडविशुद्धिं च यत् प्ररूपयति । दशवैकालिकसूत्र दश काला यत्र समुक्ताः ॥ ददि दहवेकालिय-इति दशकालिकं ।
.... - - . उत्तराणि अहिज्जति उत्तरऽझयणं मदं जिणिदेहिं । वावीसपरीसहाण उपसम्गाणं च सहणविहिं ॥ २५ ॥
उत्तराणि अधीयन्ते उत्तराध्ययनं मतं जिनेन्द्रः ।
द्वात्रिंशतिपरीवहानां उपसर्गाणां च सहनविधि ॥ वण्णेदि तफलमवि एवं पण्हे च उत्तरं एवं । कहदि गुरु सीसयाण पइण्णिय अहम ते सु ॥२६॥
वर्णयति तत्फलमपि एवं प्रश्ने च उत्तरं एवं । कथयति गुरु; शिष्येभ्यः प्रकीर्णकं अष्टमं तत्खलु ॥
इदि उत्तराज्झयणं-इत्युत्तराध्ययनं ।
कप्पव्ववहारो जहिं वचहिज्जइ जोग कप्पमाजोगा। सत्थं अवि इसिजोग्गं आयर कहदि सम्वत्थ ॥ २७॥
कल्पव्यबहारः पत्र व्यवह्रियते योग्यं करन्यं अयोग्य । शास्त्रमपि ऋषियोग्यं आचरणं कथयति सर्वत्र ||
एवं कम्पववहारो गदो-एवं कल्पव्यवहारो गतः ।
कप्पाकप्पं ते चिय सारणं जत्थ कम्पमाकप्पं । वणिजइ आसिच्चा दवं खेसै भवं कालं ॥२८॥
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३१०
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
कल्य्याकल्प्य तदेव साधूनां यत्र कल्प्यमकल्ये । वर्ण्यते आश्रित्य द्रव्यं क्षेत्रं भवं कालं ॥
इदि कप्पाकप्प - इति कल्प्या कल्प्यं ।
महकष्पं गायब्वं जिणकपाणं च सव्वसाहूणं । उत्तमसंहडणाणं दव्वत्र खेत्तादिवत्तीणं ॥ २९ ॥
महाकल्प्य ज्ञातव्यं जिनकल्पानां च सर्वसाधूनां । उत्तमसंहननानां द्रव्यक्षेत्रादिवर्तिनां ॥
तियकालयोगकप्पं यविरकप्पाण जत्थ वणिज्जइ । दिक्खासिक्खापोसण सल्लेहणअप्पसकारं ॥ ३० ॥ त्रिकालयोगकल्प्यं स्थविरकल्पानां यत्र वर्ण्यते । दीक्षाशिक्षापोषणसल्लेखनात्मसंस्काराणि ॥ उमठागगदाणं उक्किद्वाराहणाविसेसं च | उत्तमस्थानगतानां उत्कृष्टाराधनाविशेषं च ।
इदि महाकप्पं गढ़- इति महाकल्प्यं गतं ।
पुडरियणामसत्थं नमामि णिचं सुभावेण ॥ ३१ ॥ पुंडरीकनामशास्त्रं नमामि नित्यं सुभावेन । भावण विंतरजोइस कप्पविमाणेसु जत्थ वणिज्जइ । उप्पत्तीकारण खलु दाणं पूयं च तवयरणं ॥ ३२ ॥ भावनव्यन्तरज्योतिष्ककल्पविमानेषु यत्र वर्ण्यते । उत्पत्तिकारणं खलु दानं पूजा च तपश्वरणं ॥ सम्मत्तसजमादि अकामणिज्जरणमेव जत्थ पुणो । तमुवादद्वाणवेहवसुहसंपत्ती च जीवाणं ॥ ३३ ॥
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अंगपण्णती। ..
३११
सम्यक्त्वसंयमादि अकामनिर्जरा एव यत्र पुनः । तदुत्पादस्थानबैभवसुखसंपत्तिश्च जीवानां ।।
इंदि महपुंडरीयं-इति महापुंडरीकं ।
णीसेहियं हि सत्थं पमाददोसस्स दूरपरिहरण । पायच्छित्तविहाणं कहेदि कालादिभावेण ॥ ३४ ॥ निषेधिका हि शास्त्रं प्रमाददोपस्य दूरपरिहरणं ।
प्रायश्चितविधानं कथयति कालादिभावेन !! आलोयण पडिकमणं उभयं च विवेयमेव वोसग । तव छेयं परिहारो उवठावण मूलमिदि णेया ॥ ३५ ॥
अलोचनं प्रतिक्रमणे उभयं च विवेक एवं व्युत्सर्गः । ___ तपश्छेदः परिहारः उपस्थापना मूलमिति ज्ञेयं ।। दहभेया वि य छेदे दोसा आकंपियं दस एदे। अणुमाणिय जं दिह जादर सुहमं च छिण्णं च ॥ ३६॥ दशभेदा अपि च छेदे दोषा आकंपितं दश एते ।
अनुमानितं यदृष्टं बादरं सूक्ष्मं च छिन्नं च ॥ सड़ावुलियं बहुजणमव्वत्तं चावि होदि तस्सेवी । दोसणिसेयविमुत्तं इदि पायच्छितं गहीदव्यं ।। ३७ ।।
१ महसुंडरीयं अस्य स्थाने पुंडरीयं इत्येव भाव्यं । महापुंडरीकस्य लक्षणं पुस्तकाच्युतं अस्मदृष्टिदोषाद्वा गतमिति न जानीमः । लिखितपुस्तकं स्वधुना अस्मत्समीपे नास्ति । २१-५-२२। तलक्षणं हि-महच्च तत्पुंडरीकं च महापुंडरीकं शास्त्रं तब महर्थिकेषु इन्द्रप्रतीन्दाविषु उत्पसिकारणतपोविशेषाशावरण वर्णयति।
मपुंडरियं सत्थं पणिजइ जत्थ महड्डिदेवेमु । इंदपबिंदाईसूपप्तीकारणसवोविसेसाइआवरणं ॥ १॥
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सिद्धान्तसारदिसंग्रहे--murumernmenorrrrrrrrrrrrrrrrrrr................
शब्दाकुलितं बहुजनमन्यक्तं चापि भवति तत्सेवी ।
दोषनिषेकाविमुक्त इति प्रायश्चित्तं गृहीतव्यं ॥ एवं दहछेया वि य तद्दोसा तहनिहा चि तब्भया ! वणिज्जते स जत्थ चि णिसीदिकाएसु वित्थारा ॥३८॥
एवं दशच्छेदा अपि च नहोषा तथाविधा अपि च तनेदा: । वर्ण्यन्ते तत्रापि निसातिकामु विस्तारेण ।।
इदि णिसेहियपइण्णय-दति निषेधिकाप्रकीर्णक एवं पण्णयाणि नोदस पडिदाणि एस संग्वेवा । सद्दहदि जो वि जीवो सो पाचइ परमणिब्वाणं ।। ३९ ।।
एवं प्रकीर्णकानि च चतुर्दश प्रतीतानि अत्र संक्षेपात् । श्रद्दधाति योपि जीव: स प्राप्नोति परमनिर्वाणं ।।
एवं चोइसपहष्णया एवं चतुर्दशप्रकीर्णकानि ।
सुदणाणं केवलमवि दोगिण वि सरिसाण होति बोहादो। पञ्चपखं केवलमवि सुदं परोक्खं सया जाणे ॥ ४० ॥
श्रुतज्ञानं केवलमपि हूँ अपि सदृशे भवतो बोधतः।
प्रत्यक्षं केवलमपि श्रृंत परोक्ष सदा आनीहि ॥ इदि उसहेण वि भणियं पाहादो उसहसेणजोइस्स । सेमावि जिणवरिंदा सगणि पडि तह समक्खंति ॥ ४१ ।। इति वृषमेणापि भणितं प्रश्नतः वृषभसेनयोगिनः।
झोषा अपि जिनवरेन्द्राः स्वगणिनः प्रति तथा समाख्यान्ति ।। सिविडमाणमुहकयविणिग्गयं बारहंगसुदणाणं । सिरिंगोयमेण रइयं अविरुद्धं सुणह भवियजणा ॥ ४२ ॥
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अंगपण्णत्ती । ..
३१३
श्रीवर्धमानमुखकजविनिर्गतं द्वादशाङ्गश्रुतज्ञानं ।
श्रीगौतमेम रचितं अविरुद्धं शृणुत भव्य जनाः ! ॥ सिरिगोदमेण दिणं मुहम्मणाहस्स तेण जंबुस्स । विण्ह णदीमिनो तत्तो य पराजिदो य(त)तो ॥४३॥
श्रीगौतमेन दत्तं मुधर्मनाथस्य तेन जम्बूनाम्नः । विष्णुः नन्दिमित्रः ततश्चऽपरातः ततः । गोवद्धणो य तत्तो मद्दभुओ अंतकेवली कहिओ। बारहअंगविदण्ह पंचेदे कलियुगे जादा ॥ ४४ ।।
गोवर्धनश्च ततः भद्रबाहुः अन्तकवली कधितः ।
द्वादशाङ्गविदः पंचते कलियुगे 'नाताः ॥ दसव्वाणं वेदा विसाहसिरिपोढिलो तदो सूरी। खनिय जयसो विजयो बुद्धिल्लसुगंगदेवा य ॥ ४५ ॥ दशपूर्वाणां वेत्तारौ विशाखश्रीप्रीष्टिलों ततः सूरी ।
क्षत्रिय; अयस: विजयः बुद्धिलमगंगदेवी नत्र || सिरिधम्मसेणसुगणी तत्तो एगादसंगवेत्तारा । गावखतो जयपालो पंव धुयसेण कसगणी ॥ ४६॥
श्रीधर्मसेनमुगणी तत एकादशाङ्गवेत्तारः । नक्षत्र: जयपाल: पांडुः ध्रुवसेनः कंशगणी || अग्गमअंगि सुभद्दो जमभद्दो भद्दत्राहु परमगणी । आइरियपरंपराइ एवं सुदणाणमावहादि ॥४७॥ अभिमाझी मुभद्रः यशोभद्र भद्रबाहुः परमगंणी।
आचार्यपरंपरया एवं श्रुतज्ञानं आवहति ।। १ नागसेनसिद्धार्थचतिषेणेति तोणि नामानि पुस्तकाढूनानौत्यवभाति । २ प्रथमानवेत्तारः। ३ लोहायश्चेति ।
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सिद्धान्तसारादिसंग्रहे--
कालविसेसा ण सुदणाण अप्पबुद्धिधरणादो । तं असं संवहृदि धम्मुत्रदेसस्स सझै दु ।। ४८ ॥
कालविशेषात् नष्टं श्रुतज्ञानं अल्पबुद्धिधरणतः । तदशं संवहति धर्मोपदेशस्य श्रद्धानेन तु ॥ आइरियपरंपराई आगदअंगोवदेसणं पढइ । सो चढइ मोक्खसउदं भच्ची बोहपहावेण ।। ४२।। ___ आचार्यपरंपरया आगताङ्गोपदेशने पटति 1
स चरति मोक्षसाधं भन्यो बोधग्रभागेन ।। सिरिसयलकित्तिपट्टे आसेसी भुवणकित्तिपरमगुरु । तप्पट्टकमलभा भडारओ बोहभूसणओ ।। ५०॥
श्रीसकलकीर्तिपट्टे आसीत् भुवनकीर्तिपरमगुरुः ।
तत्पकमलभानु: भट्टारक: बोधभूषणः ।। सिरिविजकित्तिदेओ णाणासस्थपयासओ धीरो | बुहसेवियपयजुयलो तप्पयवरकलभसलो य ।। ५१ ॥
श्रीविजयकीर्तिदेवो नानाशास्त्रप्रकाशको धीरः ।
बुधसेवितपदयुगलः तत्पदबरकरभ........ । तप्पयसेवणसत्तो तेवेजो उहयभासपरिवेई । सुहचंदो तेण इणं रहयं सत्थं समासेण ॥ ५२ ॥
तत्पदसेवनसक्तः त्रैविधः उभयभाषापरिसेवी ।
शुभचन्द्रस्तेनेदं रचितं शास्त्रं समासेन ।। सस्थविरुद्धं किं पि यजं तं सोहंतु सुदहरा भव्वा । परउवयारणिविहा परकन्जयरा सुहावडा ॥ ५३ ॥
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अंगपण्णत्ती ।
शास्त्रविरुद्धं किमपि च यत्तत् शोधयन्तु श्रुतवरा भव्याः । परोपकारनिविष्टाः परकार्यकराः सुभावाक्ष्याः ॥ जो गाणहरो भव्वो भाव जिणसासणं परं दिच्छं । अचलपर्थ सो पावइ सुदयादेषिद्धं ॥ ५७ ॥ यो ज्ञानधरो भव्यो भावयति जिनशासनं परं दिव्यं । अचलपदं स प्राप्नोति श्रुतज्ञानोपदेशितं शुद्धं ||
३१५
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इदि अंगपणतीय सिद्धंतसमुश्चये बारह अंगसमराणावराभिद्दाणे तहओ परिच्छेदो सम्मत्तो ॥ ३ ॥ इदि अंगपती सम्मता ।
सं. १८६४ पूषवदी १५ सुरतबंदरे चन्द्रप्रमचैत्यालये लिखितं पंडित रूपन्द्रेण स्वज्ञानावरणीयकर्मक्षयार्थं शुभं भवतु, कल्याणमस्तु ।
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अथ श्रुतावतारः।
अत्र भरतक्षेत्रे चामिदेशे वसुंघरानामनगरी भविष्यति। तत्र नरमाइनो राजा, तस्य सुरूपा राशी, तस्यां पुत्रमलभमानो राजा हृदि खेदं करिष्यति। अत्र प्रस्ताचे सुबुद्धिनामा श्रेष्ठी तस्य नृपस्योपदेशं दास्यति । यदि देव पचायतीपादारविंदपूजां करिष्यति । तदा पुत्रं त्वं प्राप्नोषि अत पव श्रेणिना प्रोकं तदेव राजा करिष्यति ततः पुषो भविष्यति । तस्य पुत्रस्य पद्म इति नाम विधास्यति । राजा ततश्चैत्यालयं करिष्यति सहस्रकूट दशसहस्रस्तंभोद्धृतं चतुःशालं, वर्षे वर्षे यात्रां करिष्यति धसंतमासे श्रेष्ठयपि राजप्रसादात्पदे पदे जिनमदिरैडितां महीं करिष्यति । अत्रांतरे मधौ प्राप्त समस्तोपि संघस्तमामामध्यति मा श्रेहना सावित विधा पूजांच नगरीमध्ये महामहोत्सर्वन रथं भ्रामयित्वा ततो जिनप्रांगणे स्थापयिष्यति । निजमित्रं मगधस्वामिनं मुनींद्रं हवा वैराग्यभावनाभावितो नरवाहनोप श्रेष्ठिना सुधुद्धिनाम्ना सह जैनी दीक्षां करिष्यति। अत्रतरे कश्चिल्लेखधाहः समा गमिष्यति । जिनान् प्रणम्य मुनीनां वंदना कृत्वा धरसेनगुरोर्वदना प्रतिपाद्य लेखं समर्पयिष्यति । तत्रत्यास्ते मुनयस्तं गृहीत्या वाचनां करिष्यति । तद्यथा। गिरिनगर.समीपे गुहावासी धरसनमुनीश्वरोऽग्रायणीयपूर्वस्य यः पंचमवस्तुकस्तस्य नुयंप्राभृतस्य शास्त्रस्य व्याख्यानमारंभं करिष्यति ।धरसेनभट्टारकः कतिपयदि नरवाहनसद्बुद्धिनान्नोः पठनाकर्णनचिंतनक्रियां कुर्वतोरपाहश्वेतकादशीदिने शास्त्रं परिसमाप्ति यास्यति एकस्य भूता रात्री अलिविधि करिप्यंति,अन्यस्य दंतचतुष्क सुंदरं। भूतवलिप्रभावाद्भूत बलिनामा नरवाहनो मुनिर्भविष्यत्ति समदंतचतुष्टयप्रभावात् सयु. द्धिः पुष्पदंतनामा मुनिर्भविष्यति। आत्मनो निकटमरणं शात्वा धरसेन एतयोमा क्लेशो भवतु इति मत्वा तन्मुनिविसर्जनं करिष्यति ।
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श्रुतावतारः ।
तन्मुनिद्वयं अंकुलेसुरपुरे मत्वा मत्वा षडंगरचनां कृत्या शास्त्रेषु लिखाप्य लेखकान् संतोय प्रचुरदानेन ज्येष्ठस्य श्रुफ्लपंचम्यां तानि शास्त्राणि संघसहितानि नरवाहनः पूजयिष्यत्ति घडंगनामानं दत्वा निजपालितं पुष्पदंतसमीपं नरवाहनस्तं पुस्तकसहितं प्रेषयिष्यति निजपालितदर्शितपुस्तक तं पडंगनामानं इथा पुष्पदंतः स्वहदि तोपं करिष्यति नानापुस्तकसमूहं लिखाध्य सोपिपंचमीतिथ्यंगमालोकमानो मुनिभिः समंततः स्थास्यति । अत्रांतरे ग्रीष्मकाले प्राप्ते पुष्पदंतो विचित्रमडंपरचना करिष्यति । पुस्तकमानिमि सिद्धांत पुस्तकं धृत्वा समस्तानन्यान्पट्टकोपरिवरपट्टः पिधाय क्रियां कृत्वा ततः श्रुतस्तोत्रं करिष्यति । व्रतसमितिगुप्तिमुनिवतभाषणं आचारगमष्टादशसहस्रपदैर्भक्त्याभिवंदे इत्यादिस्तोत्रं विधाय यावत्पुष्पदंताचार्य्यः स्थास्यति ताबद्भभ्यजनैः पृष्टः सम्यगुपवासफलं भब्यानामग्रे भणिप्यति। ये कैचित्प्राणिनः शुक्लपंचमीदिने उपवासं श्रुतार्थ कुचेति ते खेचरोरगसुरासुरसुखानि भुक्त्वा तृतीये भवे निर्वाणं बर्जति तद्वचः श्रुत्वा नाचकाः श्राविकाश्च तं विधिलास्यति। अत्रांतरे सूर्यास्तंगमिप्यति चंद्रोदयो भविष्यति प्रभाते जाते भूयोषि भ. व्याचकाः श्रुतपूजां कृत्वा गृष्ठं गत्वा साधुभ्यो भोजनं वितीर्य स्वयं भोजनं करिष्यति अमुना प्रकारेण दिनत्रयं श्रुतपूजां कृत्वा ततः पुष्पदंतो मुनिः पुस्तकान्पुस्तकस्थाने स्थापयिष्यति । सिद्धांतपुस्तकीटं कृत्वा नरबाइनमुनिः पुष्पदंतः पापानि विधूय वीतरागं चीरं स्मृत्वा स्वर्ग यास्यति यथा पखंडागमरचनाकारको भूतबलिभट्टारकस्तथा पुष्पदंतोपि विंशतिम्ररूपणानां कर्ता। पुनरिंद्रभूतिगणिना निगदितं भोः श्रेणिक पखंडागमसूत्रोत्पत्ति विमुच्येदांनी प्राभृतसूत्रोत्पत्ति कथयामिश्रूयतां-ज्ञानप्रवादपूर्वस्य नामत्रयोदशमो वस्तुफस्तदीयतृतीयमाभृतवेत्ता गुणधरनामगणी मुनिर्भविष्यति सोधि नागहस्तिमुनेः पुरतस्तेषां सूधाणामर्थान्प्रतिपादथिप्यति तयो. गुणधरनागहस्तिनामभट्टारकयोरुपकंठे पठित्वा तानि सूत्राणि यतिनायकाभिधो मुनिस्तेणं गाथासूत्राणां वृत्तिरूपेण पट्सहस्रप्रमाणं चूर्णिनामशास्त्रं करिष्यति। तेषां चूर्णिशास्त्राणां समुद्धरणनामा मुनि
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सिद्धान्तसारादिसंप्रहे
द्वादशसहस्रप्रमितां सट्टीकां रचयिष्यति निजनामालंकृतं इति सूरिपरंपरया द्विविधसिद्धांतो व्रजन् मुनीन्द्र कुंदकुंदाचार्यसमीपे सिद्धांत शात्या कुंदकीर्तिनामा पखंडानां मध्ये प्रथमत्वे खंडानां द्वादशसहप्रमितं परिकर्भ नाम शास्त्रं करिष्यति षट्खंडेन विना तेषां खंडानां सकलभाषाभिः पद्धत्तिनामभ्रंथं द्वादशसहस्रप्रमितं श्यामकुंदनामा भट्टारकः करिष्यति तथा च षट्खंडस्य सप्तसहस्रममितां पंजिकां च । द्विविधसिद्धांतस्य व्रजतः समुद्धरणे समंतभद्रनामा मुनीन्द्रो भवि प्यति सोपि पुनः पखंडपंचखंडानां संस्कृतभाषयाष्टषष्टिसहस्रप्रमिता टीकां करिष्यति द्वितीयसिद्धांतकां शास्त्रं लिखापयन् सुधमैनामा मुनिर्वारविष्यति द्रव्यादिशुद्धेर्भावात् इति द्विविधं सिद्धांतं व्रजंतं शुभनंदिभट्टारकपार्श्वे श्रुत्वा ज्ञात्वा च चमदेवनामा मुनीन्द्रः प्राकृतभाषया अनुसहस्रममितां टोकां करिष्यति । अत्रांतरे पलाचार्यभट्टारक पार्श्वे सिद्धांतद्वयं वीरसेननामा मुनिः पठित्वाऽपराण्यपि अष्टादशाधिकाराणि प्राप्य पंचखंडे षट्खंडे सकल्प्य संस्कृतप्राकृतभाषया सत्कर्म्मनामटीकां द्वासप्ततिसहस्रप्रमित धवल नामांकितां लिखाप्य विंशतिसहस्त्रकर्मप्राभृतं विचार्य वीरसेनो मुनिः स्वर्गे यास्यति । तस्य शिष्यो जिनसेनो भविष्यति सोपिचत्वारिंशत्सहस्रैः कर्मप्राभृतं समाप्ति नेप्यति, अमुना प्रकारेण षष्टिसहस्रप्रमिता जयधचलनामांकिता टीका भविष्यति ।
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इति श्रीपंचाधिकारनामशास्त्रे विबुधश्रीधर विरचिते श्रुतश्वतार प्ररूपणं नाम तुर्भ्यः परिच्छेदः ।
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अथ शलाकानिक्षेपणनिष्काशनविवरणं ।
अहंत तत्पुराणं जिनमुनिचरणान् देवता क्षेत्रपालं
छायासनोर्निशायामभिषवनविधैः पूजयित्वा जलायैः । जातां हेम्नः शलाकां कुशकुसुममयीं कन्यया दापयित्वा ___ तत्प्रातः पूजयित्वा पुनरथ शकुनं वीक्ष्यते तत्पुराण ॥१॥ अत्युग्रशुभकार्यार्थ शनिवारो न याति चेत् अन्यस्मिन्बासरे सौम्ये पुराणं प्राचयेत्सुधीः ।।२।। दुर्चचः श्रवणे चैव दुनिमित्तावलोकने क्षुने प्रदीपनिळणे पुराणं नार्चयेत्ततः ॥३॥ अष्टाब्दी वा दशाब्दामजनितरजसं कन्यकां वा नवोहा
मभ्यंगस्नानभूषां मलयजवसनालंकृतां पूजयित्वा । मंत्रैचांगदेवतायास्त्रिगुणितनवक मंत्रयित्वा शलाकां तदोभ्या दापयित्वा तदनु च दलयोः कार्यमालोच्य
मध्ये ॥४॥ कन्या न लभते यत्र न प्रौढा लभते यदा शलाका श्रावकः शुद्धः पुराणे प्रक्षिपेत्तदा ।।५।। प्राक्पत्रे पूर्वपंक्ती वा पद्ये पूर्वाक्षराणि च
सप्त हित्वा पठेच्छलोकमिति केषां मतं मतं ॥६॥ १रों को श्री डी क्लीं ब्लें माँ ! श्रीसरस्वति मरालवाइने वीणापुस्तक्रमालापद्ममंडितचतुर्भुजे मौक्तिकहारावलिराजितोरोजसरोजकुमलयुगले वद वद मारवादिनि सर्वजनसंशयापहारिणि प्रोमदारति देवि | तुभ्यं नमोस्तु, इति श्री सरस्वतीमंत्रः।
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३२० . सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
.... . ... ... ................. .......... ... प्राक्पत्रसंपुटस्थांते पंक्ता श्लोकाक्षराणि च सप्त हित्वा पठेच्छ्लोकं पुराणं दोषवर्जितं ॥७॥ यः पूवाद्धविसम्मेवानपि तथा लिदसंयुतः सर्वथा
तुतिरोगशोकमरणश्वभ्रादिदोषान्वितः । पूर्वाद्यंतगतो भवालिसहितस्त्यक्त्वान्यजन्माश्रयो ___ मानोनः प्रतिषेधवान शकुने श्लोकः प्रशस्तो भवेत् ॥८॥ रिक्तपत्रमपि जीर्णमक्षरं शीर्णपत्रमपि कूटलेखन सुप्रशस्तमपि पधमीदृशं ह्यामनंति न तु नीतिवेदिनः॥९॥ पारावारपुर शैलसलिलक्रीडाकुमारोदयो • द्यानाल्हादविवाहभोगविजयश्रीचंद्रमूर्योदयः । मंत्रालोचननायकाभ्युदययुक्पट्टाभिषकोत्सवाः __शास्त्रावर्णनया पुराणशकुने पुण्यानुबंधोदयः ।।१०॥ धर्मो राजा तथा शाखा प्रजा चेति चतुविधा
ज्येष्ठशुक्लस्य पंचम्यां शलाका दृश्यते बुधैः ।।११।। धर्म; श्वेतः १ राजा रक्तः २ शाखा हरिता ३ प्रजा पीता ४ ॥ छ । इति शलाकावर्णनं संपूर्ण समाप्त पूर्वाचार्यविरचितं लोकशुभाशुभकथकं । छ ।
श्रेयोस्तु श्रीप्रशस्तेः शकुनप्रकाशकानों ।
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श्रीमत्पंडिताशाधरविरचिता कल्याण-माला
पुरुदेवादिवीरान्तजिनेन्द्राणां ददातु नः । श्रीमद्गर्भादिकल्याणश्रेणी निश्रेयसः श्रियम् ॥ १ ॥ शुचौ कृष्णे द्वितीयायां कृपभो गर्भमाविशत् । वासुपूज्यस्तथा षष्ठयामष्टम्यां विमलः शिवम् ।।२।। दशम्यां जन्मतपसी नमेः शुक्ले तु सन्मतेः । षष्ठयां गर्भो भवभेमेः सप्तम्यां मोक्षमाविशत् ॥३॥ सुव्रतः श्रावणे कृष्णे द्वितीयायां दिवच्युतः। कुन्थुर्दशम्यां शुक्ले तु द्वितीये सुमतिस्थितौ ।।४॥ जन्मनिष्क्रमणे षष्ठयां नेमेः पावः सुनिर्वृतः । सप्तम्यां पूर्णिमायां तु श्रेयान्निःश्रेयसं गतः ॥५॥ भाद्रे कृष्णस्य सप्तम्यां गर्भ शान्तिरवातरत् । गर्भावतरणं षष्ठयां सुपार्श्वस्य सितेऽभवत् ॥६॥ पुष्पदन्तस्य निर्वाणं शुक्लाष्टम्यामजायत । श्रितः शुक्लचतुर्दश्यां वासुपूज्यः परं पदम् ॥७॥ आश्विनेऽभूद्वितीयायां कृष्पो गर्भो नमेः सिते । नेमे प्रतिपद्विज्ञानं सिद्धोष्टम्यां च शीतलः ॥८॥ अनन्तः कार्तिके कृष्णे गर्भेऽभूत्प्रतिपदिने । चतुर्थी शंभवाधीशः केवलज्ञानमापिवान् ॥९॥
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३२२
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
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पद्मप्रभस्त्रयोदश्यां प्राप्तो जन्मवते शिवम् । दर्श वीरो द्वितीयायां कैवल्य सुविधिः स्थितः ॥१०॥ षष्ठयां गर्मोऽभवनेमेादश्यां केवलोद्भवः । अरनाथस्य पक्षान्ते संभवेशस्य जन्म च ॥११॥ मार्गे दशम्यां कृष्पगाद्वीरो दीक्षा जनिवते । सुविधेः पक्षान्ते शुक्ल दशम्यां त्वरदीक्षणम् ॥१२॥ एकादश्यां जनुक्ष मल्लज्ञानं नमेस्तथा । अरजन्म चतुर्दश्यां पक्षान्त सम्भवं व्रतम् ॥१३॥ पोपकृष्णे द्वितीयायां मल्लिः कैवल्यमासदत् । चन्द्रप्रभस्तथा पाच एकादश्यां जनिव्रते ॥१४॥ शीतलस्तु चतुर्दश्यां कैवल्यमुदमी मिलन । शान्तिनाथो दशम्यान्तु शुक्ले कैवल्यमापिवान ॥१५|| एकादश्यान्तु कैवल्यमजितेशोऽभिनन्दनः । चतुर्दश्यां पूर्णिमायां धर्मश्च लभते स्म तत् ॥१६॥ माघे पद्मप्रभः कृष्णे षष्टयां गर्भमवातरन् । शीतलस्य जनुर्दीक्षे द्वादश्यां वृषभस्य तु ||१७|| मोक्षोऽभचचतुर्दश्यां दर्श श्रेयांसकेवलम् । शुक्लपक्षे द्वितीयायां वासुपूज्यस्य केवलम् ॥१८॥ चतुर्थी विमलो जन्मदीक्षे षष्ट्यां च केवलम् । नवम्यामजितो दीक्षां दशम्यां जन्म चासदत् ॥१९।। अभिनन्दननाथस्य द्वादश्यां जन्मनिष्क्रमा । धर्मस्य जन्मतपसी त्रयोदश्यां अभूवतुः ॥२०॥ चतुर्थी फाल्गुने कृष्ण मुक्तिं पद्मप्रभो गनः ।
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कल्याण-माला।
३२३
षष्ठयां सुपार्श्वः कैवल्यं सप्तम्यां चाप निव॒तिम् ।।२१॥ सतम्यामेव कैवत्यमोक्षौ चन्द्रप्रभोऽभजत् । नवम्यां सुविधिर्ग मेकादश्यां तु केवलम् ॥२२॥ वृषो जन्मामले काट्यान्सुचि तु सुतः। द्वादश्यां वासुपूज्यस्तु चतुर्दश्यां जनिव्रते ॥२३॥ अरः शुक्ले तृतीयायां गर्भ मलिस्तु नितिम् । पंचम्यां प्रापदष्टम्यां गर्भ श्रीसंभवोऽपि च ॥२४॥ चैत्रे चतुथ्यों कृष्पोऽभूत्पावनाथस्य केवलम् । पंचम्यां चन्द्रभो गर्भमष्टम्यां शीतलोऽश्रयत् ॥२५|| नवम्यां जन्मतपसी वृषभस्य बभूवतुः । कवल्यमप्यमावास्यां मोक्षोऽजन्तस्य चाभवत् ।।२६॥ शुवलप्रतिपदा गर्भ मल्लिः कुन्थुस्तृतीयया । जाने जिनोऽभूत्यंचम्यां मोक्षे षष्ठयां च सम्भवः ।।२७।। एकादश्यां जनिझानमोक्षान्सुमतिरुद्भवम् । वीरः प्राप्तस्त्रयोदश्यां पनाभोंत्येन्हि केवलम् ॥२८॥ पाश्वः कृष्यो द्वितीयायां वैशाखे गर्भमाविशत् । नवम्यां सुव्रतो ज्ञानं दशम्यां च जनिवते ।।२९॥ धर्मो गर्भ त्रयोदश्यां चतुर्दश्यां नमिः शिवम् । शुक्ले प्रतिपदि पाप कुन्थुर्जन्मतपः शिवम् ॥३०॥ प्राप्तोऽभिनन्दनः षष्ठयां शुक्लायां गर्भमोक्षणम् । नवम्यां सुमत्तित्रीरो दशा ज्ञानमक्षयम् ॥३१|| श्रेयान् ज्येष्ठे सिते पष्ठयां दशम्यां विमलोऽपि च । गर्भ समाश्रितोऽनन्तो द्वादश्यां जन्मनिष्क्रमौ ॥३२॥
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३२४
सिद्धान्तसारादिसंग्रहे
शान्तिः श्रितचतुर्दश्यां जन्मदीक्षाशिवश्रियः । अमावाश्या दिने गर्भमवनी! जिनेश्वरः ॥३३॥ शुक्ल चतुर्थी निर्वाण प्राप्तो धर्मो जिनेश्वरः । सुपाचनायो द्वादश्यां जनिप्रवृजिते स्थितः ॥३४ इतीमां वृषभदीनां पुष्यत्कल्याणमालिकां । करोति कण्ठे भुषां यः स स्यादाशाधरेडितः ॥३५॥
इत्याशाधरविरचिता कल्याणमाला समाप्ता ।
onmarawimaranp
१. समालोऽयं ग्रन्थः ।
समाप्तोऽयं ग्रन्थः।