________________
१९
शुक्ल १ सोमवार दु तावु माडिदाचारसारक्के कर्णाटवृत्तिय
मादिपर ॥" यदि का यह समय ठीक है, तो योगी १९९१ के भी पहले के विद्वान् है ।
3
'अमृताशीति' के ७८ और ७९ वें नम्बर के दो पथ भर्तृहरि के वैराग्यशतक के है । जान पड़ता है कि प्रन्धकतने इन्हें ' उक्तं च ' रूप में दिया होगा; परन्तु लेख - कोंकी कृपासे ' उक्तं च ' उ गया है और ये मूल अन्थ के हो पद्य बन गये हैं । वैराग्यशतक भी ये इसी रूपमें मिलते हैं, केवल इतना अन्तर है कि पहले श्रद्यके पहले दो चरण आगे पीछे हैं। शतक में इस प्रकार है:
प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुधास्ततः किं दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं ।
इस ग्रन्थकी अन्य प्रतियोंमें ' उकं च पद अवश्य लिखा मिलेगा । योगसार और परमारमप्रकाशकी भाषा के सम्बन्धमें हम इतना और कह देना चाहते हैं कि जैसा बहुत लोगोंने समझ रखा है, वह प्राकृत नहीं है किन्तु अपभ्रंश है जो एक समय लोकभाषा या बोलवालकी भाषा रह चुकी है और दिगम्बर विद्वानोंने जिसमें सैकड़ों प्रत्योंकी रचना की है। इसके प्रयोग प्राकृत व्याकरण के नियमोंसे सिद्ध नहीं होते हैं। जर्मनीके सुप्रसिद्ध विद्वान् डा हर्मन जेकोबीने अभी कुछ ही समय पहले दिगम्बर कवि पंडित धनपाल के 'पंचमी - कहा ' ( पश्चिमी कथा ) नामक ग्रन्थको प्रकाशित करके इस भाषा के सम्बन्ध में बहुत गहरा प्रकाश डाला है । इस भाषाका साहित्य संभवतः चौथी पांचवीं शताब्दिसे प्रारंभ होता है। जैन समाज के पण्डितों का ध्यान हम इस भाषाको ओर खास तौरसे अकर्षित करते हैं। अभी अभी हमारी नजरसे इस भाषा के कई अच्छे अच्छे प्रन्थ गुजर चुके हैं ।
५ - अजित ब्रह्मचारी ।
―
'कल्याणालोयणा' या कल्याणालोचना नामक प्राकृत प्रत्यके कसी अजित या अजित ब्रह्मचारी हैं जैसा कि इस प्रन्थकी अन्तिम गाथासे मालूम होता है। ये संभवतः वे ही हैं जिन्होंने 'हनुमश्चरित्र' नामका एक संस्कृत ग्रन्थ रचा है। सुदूर बाबू जुगल किशोरजोने उ भन्थको देखा है। उससे