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मालुम होता है कि वे १६ वीं शताब्दि में हुए हैं । ये देवेन्द्र कीर्तिके शिष्य थे। इनके पिताका नाम वीरसिंह, माताका बीघा या पृथ्वी और वंश गोलचंगार ( गोल सिंघाड़े ) था । स विधानन्दिके आदेश से इन्होंने भृगुकच्छ नगर ( भरोच) में हनुमचरित्रकी रचना की थी । स्व० बाबा दुलीचन्दजीको ग्रन्थनाममाला में उत्सवपद्धति नामका एक और मन्थ इनका बनाया हुआ बतलाया गया है ।
६ - आचार्य श्री शिवकोटि ।
आचार्य शिवकोटि दिगम्बरसम्प्रदाय में एक बहुत ही प्रसिद्ध आचार्य हो गये हैं। उनका बनाया हुआ 'तीन' बहुत ही प्राचीन है। इसकी रचनाशंली और इसकी भाषा भी इसकी प्राचीनताकी साक्षी देती है ।
इस ग्रन्थको प्रशस्तिकी नीचे लिखी हुई गाथायें पढ़िएः
अज जिणणंदिगणि सव्वगुत्तगणि अज मित्तणंदणं । अघगमिय पादमूले सम्मं सुत्तं च अत्थं च ॥ ६१ ॥ पुष्वायरियणिवद्धा उवजीविता इमा स ससीए । आराधना सिवज्रेण पाणिद्दलभोयिणा रहदा ॥ ६२ ॥ आराधना भगवदी एवं भत्तीय वण्णिदा संती | संघस्ल सिबजस य समाधिवरमुत्तमं देउ ॥ ६४ ॥
अर्थात – आर्य जिननन्दि गणि, सर्वगुप्त गणि और आर्य मित्रनन्दिके चरगोके निकट सूत्र और अर्थको अच्छी तरह समझकर पाणिदल भोजी (पाणिपात्र) शिवार्थने यह आराधना रवी । यह भगवती आराधना इस तरह भक्तिपूर्वक वर्णित हुई संघको और शिवार्थको उत्तम समाधि देवे ।
इससे मालूम होता है कि इस ग्रन्थ के कर्ताका नाम शिवार्य था। अपने तीनों गुरुओं के नामके साथ उन्होंने 'आर्य' विशेषण दिया है। इससे जान पड़ता है कि उनके नाम के साथ जो 'आर्य' शब्द है, वह भी विशेषण ही हैं और इस लिए उनका नाम शिवनन्दि, शिवगुप्त था ऐसा ही कुछ होगा जिसे कि संक्षेप में 'शिव' कहा जा सकता है ।
भगवजिनसेनाचार्य ने अपने आदिपुराणके प्रारंभ में शिवकोटि आचार्य का स्मरण किया हैः
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