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शीतीभूतं जगद्यस्य वाचाराध्यचतुष्टयं । मोशमाने वामः
दिनका ३९ इस श्लोकके ' आराध्यचतुष्टयं ' पदसे भगवती श्राराधनाका ही बोध होता है और इससे मालूम होता है कि उनका पूरा नाम आर्य शिवकोटि या । भगवती आराश्वनामें इसी नामको संक्षिप्तरूपसे 'आर्य शेिष' मा 'शिवाय' लिखा है।
आराधनाकथाकोशमें समन्तभद स्वामीकी ओ कथा मिलती है उसमें लिखा है कि शिनकोटि वाराणसी के राजा थे और ये शेष थे। समन्तभद्र स्वामी ने उनके समक्ष शिवलित ' को अपने स्तोत्रके प्रभावसे फोड़कर उसमेंसे' चन्द्रप्रभ ' की प्रतिमा प्रकट की थी। इससे उस राजा उनका निष्य बन गया था और उसीने मुनि अवस्थामैं भगवती आराधनाकी रचना की थी। परन्तु इस बातपर विश्वास नहीं होता कि भगवती आराधनाके कती वहीं शिवकोटि राजा होंगे जो समन्तमद्रके शिष्य हो गये थे । यदि ये वही होते तो यह कदापि संभव नहीं था कि ने अपने इतने बड़े मन्थों अपने परमगुरु समन्तभद्र का कहीं उल्लेख भी नहीं करते । कमसे कम उनका स्मरण तो अवश्य ही करते। उन्होंने अपने जिन तीन गुरुओंका स्मरण किया है और जिनके चरणों के निकट बैठकर उन्होंने अपने अन्यके पदार्थको समझा है, उनमें भी समन्तभद्र का नाम नहीं है । अतएव उक कथाको छोड़कर जब तक कोई दूसरा प्रबल प्रमाण न मिले, तब तक कमसे कम यह बात सन्देहास्पद अवश्य है ।
हमारी निजकी राय तो यह है कि भगवती आराधना समन्तभद स्वामीसे भी पहलेकी रचना है।
बहुतसे लोगोंका खयाल है कि शिवकोटिका ही दूसरा नाम शिवायन है, परन्तु विक्रान्त कौरवीय नाटकमें शिवकोटि और शिवायनको जुदा जुदा बतलाया है
और लिखा है कि ये दोनों ही समन्तभद्र के शिष्य घे:-"शिष्यौ तदीयौ शिवकोटिनामा, शिधायनः शास्त्रविदां वरिष्ठौ ।" __ अभी तक भगवती आराधनाको छोड़कर शिवकोटि आचार्यका और कोई भी अन्य नहीं सुना गया है और न कहीं किसी ने उसका उल्लेख ही किया है। परन्तु अभी झल ही यह 'रत्नमाला' नामक छोटासा अन्य उपलब्ध हुआ है जिसके अन्तमें इसके फत्ताका नाम शिवकोटि प्रकट किया गया है और अन्य के अन्तकी.