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पंक्ति में तो उन्हें 'स्वामिस भन्तभद्रशिष्य तक लिख दिया गया है। हमारा भी पहले यही खयाल था कि यह उन शिवकोटिका ही ग्रन्थ है जिनका स्मरण आदिपुराणके कर्त्ताने किया है और इस सम्बन्धमें हमने जैनहितैषी में एक छोटासा नोट भी लिखा था; परन्तु अन्य को अच्छी तरह पढ़नेसे अब हमें इस विषय बहुत कुछ सन्देह हो गया है। हमारी समझ में यह अन्य इतना प्राचीन नहीं हो सकता। यह अपेक्षाकृत आधुनिक है और या तो इसके अन्तिम श्लोक 'शिवकोटित्वमाप्नुयात् ' पदसे ही किसीने इसके कर्ताके नामकी कल्पना कर ली हैं और यदि इस पद कर्त्ताने अपना नाम भी ध्वनित किया है: तो वे कोई दूसरे ही शिवकोटि हैं।
इस ग्रन्थका नीचे लिखा हुआ श्लोक देखिए:-- कलौ काले बा
स्थीयते च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः ॥ २२
अर्थात् इस कलिकाल में मुनियोंको वनमें न रहना चाहिए। श्रेष्ठमुनियों ने इसको वर्जित बतलाया है । इस समय उन्हें जैनमन्दिरोंमें विशेष करके प्रामादिकों में ठहरना चाहिए ।
इससे यह साफ प्रकट होता है कि यह उस समयकी रचना है जब दिगम्बर सम्प्रदाय में 'चैत्यवास' * अच्छी तरह चल पड़ा था और इसके अनुयायी इतने प्रबल हो गये थे कि उन्होंने वनों में रहना वर्जित तक बतला दिया था। मन्दिरोंमें और भ्रामों में रहने को किसी तरह बायज बतलाना दूसरी बात है और उन्हीं में रहना चाहिए वनमें नहीं, यह दूसरी बात हैं ।
भगवती आराधनाका स्वाध्याय करनेवाले सज्जन इस बातपर अच्छी तरह विचार करें कि उसके कत्र्ता अपने इस दूसरे ग्रन्थमें क्या इस तरहका विधान कर सकते हैं ?
जैन साधु जलाशयों में से शौचादिके निमित्त जलग्रहण नहीं करते । श्राव कसे प्राप्त किया हुआ प्रासुफ जल ही उनके काम आता है । परन्तु इसमें इस निय मके विरुद्ध लिखा हैः
* चैत्यवासी और वनवासी साधुओं के विषय में जैनहितैषी भाग १४, अंक ४-५ का विस्तृत लेख देखिए ।