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अथ धीमूलसंघेऽस्मिन्नन्दिसंघेऽनघेजनि । बलात्कारगणस्तत्र गच्छः सारस्वतस्त्वभूत् ॥ ११ ॥ तत्राजनि मायावादः सूरिजितमिलनः . दर्शनशानचारित्रतपोचार्यसमन्वितः ।।१२।। श्रीमान्बभूव मार्तण्डस्तत्पहरेदयभूधरे । पद्मनन्दी बुधानन्दी तमच्छेवी मुनिप्रभुः ॥१३॥ तत्पट्टाम्बुधिसचन्द्रः शुभचन्द्रः सतां वरः। पंचाक्षवनदावाग्निः कवायएमाधराशनिः ॥ १४॥ तदीयपट्टाम्बरभानुमाली क्षमादिनानागुणरत्नशाली ।
भट्टारकश्रीजिनचन्द्रनामा सैद्धान्तिकानां भुवि योस्ति सीमा १५ इससे मालूम होता है कि ये जिनचन्द् भी सैद्धान्तिक विद्वान् थे और इस लिए उक्त सिद्धान्तसारका इनके द्वारा भी निर्मित होना सब प्रकारसे संभव है।
पं० मेधावीकी उक्त प्रशस्ति वि० संवत् १५११ में लिखी गई थी और उस समय जिनचन्द्र भट्टारक मौजूद थे, अतएव सिद्धान्तसारका रचनाकाल भी इसीके लगभग माना जा सकता है। सिद्धान्तसारके संस्कृसटीकाकार ज्ञानभूषणका समय जैसा कि आगे निश्चय किया गया है—वि० संवत् १५३४ से १५६१ तक आता है, अतएव उनके द्वारा इस प्रन्थकी टीका लिखा जाना सर्वथा सुसगत है। बल्कि इन दोनों की समयसमीपताको देखकर यह खयाल होता है कि भ० शानभूषणको अवश्य ही अपने कुछ ही पहलेके-प्रायः समकालीन----इन्हीं जिनचन्द्रके अन्यकी दीका लिखनेका उस्साह हुआ होगा और इससे हमारे खयालमें भास्करनन्दिके गुरु जिनचन्दकी अपेक्षा पं० मेघावीके गुरु जिनचन्द्रकी सिद्धान्तसारके कर्ती होनेके विषयमें विशेष संभावना है । __इस सिद्धान्तसारकी एक कनली टीका भी है जो प्रभाचन्द्रकी बनाई हुई है
और आराके सरस्वती भवनमें मौजूद है । यह कबकी बनी हुई है, यह नही मालूम हो सका।
२,३-भ० श्रीज्ञानभूषण और शुभचंद्र । इस संग्रहमें भधारक शानभूषणकृत सिद्धान्तसार-भाष्य और भ. शुभब्रकृत अंगपण्यति या अङ्गाप्रज्ञप्ति नामक ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं, और पिछले