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सिद्धान्तमपर भाष्यको रचना किस समय हुई, यह जानने का कोई साधन नहीं है; परन्तु तत्त्वज्ञानतरंगिणी विक्रम संवत् १५६० में बनी है । यथा
यदैव विक्रमातीताः शतपञ्चदशाधिकाः ।
पष्ठिसंवत्सरा आत्तास्तदेयं निर्मिता कृतिः ॥ ५३ ।। जमसिद्धान्तभास्कर (किरण ४ पृ. १६) में उसके सम्पादक महाशयने लिखा है कि ज्ञानभूषण वि. से. १५७५ तक भट्टारक पद पर आसीन रहे हैं; परन्तु यह उन्होंने किस प्रमाणके अाधार पर लिखा है यह मालूम नहीं हो सका।
बीसनगर (गुजरात) के शान्तिनाथके श्वेताम्बर-मन्दिरकी एक दिगम्बर प्रतिमा पर इस प्रकारका ळेस ६:-"सं०१५५७ वर्षे माघचदि ५गुरौश्री मूलसंधे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्द कुन्दाचार्यान्वये भ० सकलकीर्तिस्तत्पट्टे भ० श्रीभुवनकीर्तिस्तपट्टे भ० श्रीशानभूषणस्तत्पाद भ० श्रीविजयकीर्तिगुरूपदेशात् हूंबडशातीय.........एते श्रीशातिनाथं नित्यं प्रणमन्ति ।" इसी तरह पेथापुरके श्वेताम्बर मन्दिरकी भी एक दिगम्बर प्रतिमाएर लेस है:-"सं० १५६१ चैत्रयदि ८ शुके मूलसंघ भ० शानभूषण भट्टारक श्रीविजयकीर्ति उपदेशात् तुम्बड़ कडुआ श्रीनेमिनाथयिस्वं ।"
इन दोनों लेखोंसे मालूम होता है कि वि० सं० १५५७ श्रीर १५६१ में ज्ञानभूषणजी भट्टारक पदार नहीं थे किन्तु उनके शिष्य विजयकीर्ति थे। इससे यह मामना भ्रम है कि वे वि० सं० १५५५ तक भट्टारक पदपर थे । धास्तपमें वे १५५७ के पहले ही इस पदको छोड़ चुके थे और इस लिए तत्वज्ञानतरंगिणीकी रचना उन्होंने उस समय की है जब भटारकपद विजयकीर्तिको मिल चुका था ।
पूर्वोक्त 'जैनधातुप्रतिमा-लेखसंग्रह' नामक प्रन्थमें विकम संवत् १५३४३५ और १५३६ के तीन प्रतिमालेसर और हैं जिनसे मालम होता है कि उक संक्तों में ज्ञानभूषण भतारक पदपर थे। अतएव उन्होंने १५५७ के पहले ही ___* देखो श्रीबुद्धिसागरसूरिसम्पादित 'जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह,' प्रथम भाग, पृष्ठ ८५ और १२३ ।
४ देखो नं. ६७२, १५०९ और ५६७ के लेख ।