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________________ सिद्धाारसादे संग्रह-- जेहउ जज्जर परयघरु तेहा धुज्मि सरीर | अप्पा भारहु णिम्मलहुलहु पावइ भवतीर ॥५०॥ यथा जर्जरं नरकगृहं तथा बुध्यस्व शरीरम् । आत्मानं भावय निर्मल लघु प्राप्नोषि भत्रतारम् ।। धंधय पडियो सयलजगि म वि अप्पाहु मृगति । तिह कारण ए. जीव फुटु ण हु णिव्याण लहंति ।। ५११।। धाँधे पतितं सकलजगत् नापि आत्मानं मनुते । तेन कारणनेमे जीवाः स्फुटं न हि:निर्वाणं लभते ॥ सस्थ पढ़तह ते वि जड अच्पा जे ण मुणंति । तिह कारण ऐ जीव फुडु ण हु णिव्याण लहंति ।। ५२॥ शास्त्रं पठन्ति तेऽपि जडा; आत्मानं ये न जानन्ति । तेन कारणेनेमे जीवा; स्फुट न हि निर्वाणं लभन्ते ।। मशु इंदिहि विच्छोइयइ बुह पुच्छियह ण जोइ । रायह पसर णिवारियइ सहज्ज उपजइ सोइ ॥ ५३ ।। मनः इन्द्रियः वि................... | रागप्रसार निवारय सहज उत्पद्यते सः || पुग्गल अण्णु जि अण्णु जिउ अण्णु वि सहुविवहारू । चयहि वि पुग्गल गहहि जिऊ लहु पावहु भवपारु ॥५४॥ पुद्गलोऽन्यः अन्यो जीकः अन्यः सर्वव्यवहारः। त्यज पुद्गलं ग्रहह्मण जीवं लघु प्राप्नोषि भवपारम् ॥ जे ण वि मण्णइ जीव फुड जे ण वि जीव मुणंति । ते जिपणाहह उत्तिया पड संसारु मुयंति ।। ५५ ॥ ये नापि मन्यन्ते जीवं स्फुदं ये नापि जीवं मन्यन्ते ।। ते जिननाथेन उक्ता न संसार मुञ्चन्ति ।
SR No.090474
Book TitleSiddhantasaradisangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherM D Granthamala Samiti
Publication Year1979
Total Pages349
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size5 MB
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