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आगे शुभचन्द्राचार्यकी शिष्यपरम्पराका क्रम इस प्रकार निश्चित होता है:७-सुमतिकीर्ति-८ गुणकीर्ति-१ चादिभूपण-१० रामकीर्ति-११ यशः कीर्ति और १२ पद्मनन्दि आदि । इनमें से वादिभूषण तककी परम्पराका उल्लेख अध्यारमतरंगिणीकी उस प्रतिके लिखनेदालेकी प्रशस्तिमै* मिलता है जो स्वगीय दानवीर सेठ माणिकचन्दजीके सरस्वतीभण्डार में मौजूद है और वादिभूषणके बादके भहारकों का उल्लेख बलात्कारगणकी गुवावलोमें है जो भ. नेमिचमकी बनाई हुई है और हमारे पास मौजूद है।
जैनसिद्धान्तभास्करकी प्रथम किरणमें (पृ. ४५-४६) प्रकाशित शुभचन्दको पट्टावलीसे भी यही क्रम निश्चित होता है ।
थीज्ञानभूषण मागबाड़े ( बागढ़) की गद्दीके भट्टारक पदपर आमीन ये । भास्करकी चौथी किरण (५. ४३-४५) में जो पट्टावली प्रकाशित हुई हैं उससे मालूम होता है कि “के गुजरातके रहनेवाले थे। गुजरातमें उन्होंने सागार. धर्म धारण किया, अहीर ( ? ) देशमें ग्यारह प्रतिमा धारण की और वाग्वर या बागढ़ देशमें दुर्धर महाग्रत ग्रहण किये । तौलव देशके यतियों में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा हुई, तैलंग देशके उत्तम उत्तम पुरुषोंने उनके चरणोंकी यन्दना को, इविड़ देशके विद्वानों ने उनका स्तमन किया, महाराष्ट्र देशमें उन्हें बहुन यश मिला, सौराष्ट्र देशके धनी धावकों ने उनके लिए महामहोत्सव किया, रायदेश के निवासियोंने उनके वचनों को अतिशय प्रमाण माना, मेदपाठ ( मेदाइ) के मूख लोगोको उन्होंने प्रतियोधित किया, मालवदेशके भन्य जनोंके हृदयकमलको विकसित किया, मेवात देशमें उनके अध्यात्मरहस्यपूर्ण व्याख्यानसे विविध विद्वान् श्रावक प्रसन्न हुए, कुरुजांगल देश के लोगोंका अज्ञान रोग दूर किया, तूरब (1) के षट्दर्शन और तकके जाननेवालों पर विजय प्राप्त किया, विराट् देशके
* "सेवत् १६५२ वर्षे ज्येष्ठद्वितीयकृष्णदशम्यो शुके मूलसंघे सरस्वतीगल्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दान्वये भ. श्रीपद्मनन्दि देवास्तपट्टे भ. सकलकीर्तिदेवास्तापहे म. भुवन कीर्तिदेवास्तपट्टे भ० ज्ञानभूषणदेवास्तत्प? म. श्रीविजयकीर्ति देवास्तत्प? भ. शुभचन्द देवास्तत्पट्टे भ. श्रीसुमतिकीर्तिदेवास्तपट्टे भ-धीगुणकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भ. श्रीवादिभूषणगुरुस्तच्छिष्य प. देवजी पठनार्थ ।"