________________
" श्रीमाधनन्दिसिद्धान्तचफवर्तितनुभवः ।
कुमुदेन्दुरई वच्मि प्रतिष्ठाकल्पटिप्पणम् ॥ और अन्त में लिखा है:
इति श्रीमाघनन्दिसिद्धान्तचक्रवर्तितनूभवचतुर्विधपाण्डित्यच. क्रवर्तिश्रीवादिकुमुदचन्द्रमुनीन्द्रचिरचिते जिनसंहिताटिप्पणे पूज्य. पूजकपूजकाचार्यपूजाफलप्रतिपादनं समाप्तम् ॥" ।
इससे मालूम होता है कि प्रतिष्ठाकल्पटिप्पणके कर्ता कुमुन्देन्दु या कुमुदचन्द्र माघनन्दिसिद्धान्तचक्रवतींके ( शिष्य ) थे।
माघनन्दिश्रावकाचार और शास्त्रसारसमुच्चयके टीकाकार माघनन्दिने कीटककविचरित्रके अनुसार कुमुदेन्दुको अपना गुरु बतलाया है । संभव है कि सिद्धान्तसारसमुखयके कर्ता माघनन्दि (पहले ) के ही शिष्य ये कुमुदेन्दु हो जिनका उक्त प्रतिष्ठाकल्पटियण नाम प्रन्थ है और उन्हीं के शिष्य श्रावकाचारके कर्ता दूसरे माधनन्दि हो । यदि यह ठीक है तो शान्नसारसमुच्चयके कर्ताका समय ५० वर्ष और पहले अर्थात् विक्रमसंवत् १२६७ के लगभग मानना चाहिए।
८-श्रीवादिराज कवि ।। 'ज्ञानलोचनस्तोत्र' के पत्ती श्रीवादिराज हैं । इन्होंने वाग्भटालंकारपर "कविचन्द्रिका+' नामकी एक सुन्दर संस्कृतटीका लिखी है। उसकी प्रशस्तिसे * मालूम होता है कि ये खण्डेलवालवंशमें उत्पन्न हुए थे और इनके पिताका नाम पोमराज था । तक्षकनगरीके राजा राजसिंहके संभवतः ये मंत्री थे और राजसेवा करते हुए ही इन्होंने इस टीकाकी रचना की थी। राजा राजसिंह भीमदेवके पुत्र थे। कांवचन्द्रिकाकी समाप्ति इन्होंने विक्रम संवत् १७२९ की दीपमालिंकाको की थी। ये बहुत बड़े विद्वान् थे । इन्होंने स्वयं ही कहा है कि इस समय में धनंजय, आशाधर और वाग्भटका पद धारण करता हूँ । अर्थात् में उनकी जोहका विद्वान् हूँ और जिस तरह उक्त तीनों चिद्वान् गृहस्थ थे मैं भी गृहस्थ हूँ:__ + 'कचचन्द्रिका दीका' की एक प्रति जयपुर के संगहीजीके मन्दिरमें और पूसरी पाटोदीजीके मन्दिर में हैं। पहली प्रति अपूर्ण है।
* यह प्रशस्ति जैनहितैषी भाग ६, अंक १२ में पूरी प्रकाशित हो चुकी है।