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सिद्धान्ससारादिसंमहे
रयणत्तयसंजुत्त जिउ उत्तमतित्थ पवित्तु । मोक्खह कारण जोईया अण्णु ण तंतु ण मंतु ॥ ८३॥
रत्नत्रयसंयुक्तो जीवः उत्तमतीर्थ पवित्रम् ।।
मोक्षस्य कारण योगिन् ! अन्यो न तंत्रः न मत्रः ।। जहि अप्या तहि सयलगुण केवलि एम भणति । तिहि कारण ए जीव फुड अप्या विमल मुणंति ॥८४ ॥
यत्र आत्मा तत्र सकलगुणा: केवलिन एवं भणंति ।
तेन कारणेन इमे जीवाः स्फुट आत्मानं विमर्ल जानन्ति ॥ इकलउ इंदियरहिउ मणवयकायतिसुद्धि 1. अप्पा अप्प मुणेइ तुहुं लहु पाबहु सिवसिद्धि ।। ८५ ।।
एकाकी इंद्रियरहितः मनोवाक्कायत्रिशुद्धः ।
आत्मना आत्मानं मनुस्व त्वं लघु प्राप्नोसि शिवसिद्धिम् ॥ जह बंधउ मुक्कउ मुणहि तो बंधियहि णिभंतु | सहजसरूचि जड़ स्मइ तो पावइ सिव संतु ॥ ८६ ।।
यदि बद्धं मुक्तं मन्यसे तर्हि बध्नासि निर्धान्तम् |
सहजस्वरूपे यदि रमसे तर्हि प्रामोसि शिवं शान्तम् ।। सम्माइहीजीचडह दुग्गहगमणु ण होइ । जइ जाइ वि तो दोस ण वि पुवक्किउ खवणेह ॥ ८७॥
सम्यदृष्टिजीवस्य दुर्गतिगमनं न भवति ।
यदि यात्यपि तर्हि दोषो नापि पूर्वकृत्यं क्षषयति ।। अप्पसरूवह जो रमइ छंउनि सहुववहारू । सो सम्माइही हवह लहु पावइ भवपारु ।।८८॥