Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैत Mauldri जैन पारिभाषिक शब्द-कोश
Na!!
वजनभ
Pain EURDAN
SMARTeej
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन-लक्षणावली
लगभग ४०० दिगम्बर और श्वेताम्बर साम्प्रदायों के प्राकृत व संस्कृत ग्रन्थों से संकलित एक प्रामाणिक पारिभाषिक शब्द कोश है। सम्पादक ने अधिकृत परिभाषाओं के सुलभ व ज्ञानवर्धक हिन्दी अनुवादों से इस ग्रन्थ को सर्व ग्राह्य बनाया है। तत्व जिज्ञासुओं और अनुसन्धान करने वालों को इस एक ही ग्रन्थ में अभीष्ट लक्ष्य के अनेक ग्रन्थगत लक्षण अनायास ही उपलब्ध हैं। प्रस्तावना में ग्रन्थ-परिचय तथा परिशिष्ट में ग्रन्थकारों की अनुक्रमणिका से इसको उपयोगिता और भी अधिक हो गई है।
This is a compilation of authoritative definitions carefully collected from some 400 works of Prakrit and Sanskrit. Its utility is not confined merely to the students of Jainism but extends to the wider field of Indology. The work will receive appreciation from all scholars of oriental studies. The editor's translations of the most representative definitions are illuminating commentaries of the original text.
आवरणचित्र : ब्रम्हदेव शर्मा
I
n Education Interior
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीर-सेवा-मन्दिर ग्रन्थमाला
ग्रन्थाङ्क १५
जैन-लक्षणावली (जैन पारिभाषिक शब्द-कोश)
द्वितीय भाग (कक्व-पौष्णकाल)
सम्पादक बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
वीर सेवा मन्दिर प्रकाशन
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशक वीर-सेवा-मन्दिर २१, दरियागंज - दिल्ली -६
मूल्य रु. २५. ००
मुद्रक
वी. नि. संवत् २४६६ विक्रम संवत् २०३० सन् १९७३
रूपवाणी प्रिटिंग हाऊस
२३, दरियागंज, दिल्ली-६ कम्पोजिग गीता प्रिटिंग एजेंसी
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
Vir Sewa Mandir Series
Text No. 15
IAN
A
JAIN LAKSANĀVALI
21 V
(An authentic discriptive dictionary of Jaina philosophical terms)
Vol. II
EDITED BY BALCHANDRA SIDDHĀNTASHASTRI
VIR SEWA MANDIR
21, Daryaganj, Delhi
Vir Samvat 2499 V. Samvat 2030 A. D. 1973
Rs. 25-00
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशकीय
प्राचीन भारतीय विद्यानों के व्यापक सन्दर्भ में जैन वाङ्मय, इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व के अध्ययन-अनुशीलन और प्रकाशन के जिस उद्देश्य से 'वीर-सेवा-मन्दिर' की स्थापना की गयी थी, उस दिशा में 'जैन लक्षणावली' का प्रकाशन एक विशेष कदम है। इसका प्रथम भाग (अ-औ) दो वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था और उसका देश-विदेश में सर्वत्र स्वागत व सराहना हुई। अब द्वितीय भाग पाठकों के हाथों में सौंपते हुए हार्दिक संतोष का अनुभव हो रहा है । 'चोर-सेवा-नन्दिर' और उसकी शोध-प्रवृत्तियां :
'वीर-सेवा-मन्दिर' की स्थापना स्व. प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार ने अपने जन्म-स्थान सरसावा, जिला सहारनपुर (उ. प्र.) में अक्षय तृतीया (वैशाख शुक्ल तृतीया), विक्रम संवत् १९९३, दिनांक २४ अप्रैल सन् १६३६ में की थी। इस संस्था के माध्यम से स्व. मुख्तार साहब ने तथा संस्था से सम्बद्ध अन्य विद्वानों ने जैन वाङ्मय के अनेक दुर्लभ ; अपरिचित और अप्रकाशित ग्रन्थों की खोज की तथा प्राचीन पाण्डुलिपियों के सम्यक् परीक्षण पर्यालोचन और सम्पादन की नींव डाली। संस्था ने जो ग्रन्थ प्रकाशित किये उनकी विस्तृत शोधपूर्ण प्रस्तावनायें न केवल उन ग्रन्थों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, प्रत्युत जैन आचार्यो और उनकी कृतियों पर भी विशद प्रकाश डालती हैं।
प्राचार्य समन्तभद्र पर मुख्तार साहब की अगाध श्रद्धा थी। प्राचार्य समन्तभद्र भारतीय दार्शनिक जगत में अद्वितीय माने जाते हैं और उनके ग्रन्थ जैन दर्शन के आधार-ग्रन्थों के रूप में प्रतिष्ठित हैं। मख्तार साहब ने प्राचार्य समन्तभद्र के जीवन पर सर्वप्रथम विस्तार के साथ प्रकाश डाला। उनके ग्रन्थों का सम्पादन किया। उनका विद्वत्तापूर्ण विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत किया। दिल्ली में उन्होंने सन् १९२६ में समन्तभद्राश्रम की स्थापना की थी और 'अनेकान्त' नामक शोधपूर्ण मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया था। बाद में यही संस्था 'वीर-सेवा-मन्दिर' के रूप में प्रतिष्ठित हुई और 'अनेकान्त' उसका मुखपत्र बना।
प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार :
आचार्य जुगलकिशोर का सम्पूर्ण जीवन साहित्य और समाज के लिए समर्पित रहा। उनका जन्म मगसिर सुदी एकादशी, वि. सं. १९३४ में, सरसावा में हुअा था। कुछ समय तक उन्होंने मुख्तार का कार्य कुशलता के साथ किया । वह जैन समाज के पुनर्जागरण का युग था । मुस्तार साहब एक क्रान्तिकारी समाज सुधारक के रूप में आगे आये। उन्होंने सामाजिक क्रान्ति की दिशा को सुदढ़ शास्त्रीय आधार दिये। उनके द्वारा रचित 'मेरी भावना' के कारण वे जन-मानस में पैठ गये।
मुख्तार साहब अपने अनवरत स्वाध्याय, सूक्ष्म दृष्टि, गहरी पकड़ और प्रतिभा सम्पन्नता के कारण बहुश्रुत विद्वान् बने । ऐतिहासिक अनुसन्धान, प्राचार्यों का समय-निर्णय, प्राचीन पाण्डुलिपियों का सम्यक परीक्षण तथा विश्लेषण करने की उनकी अद्भुत क्षमता थी। उनके प्रमाण अकाट्य होते थे। उनकी यह माहित्य-सेवा अर्ध शताब्दी से भी अधिक के दीर्घकाल में व्याप्त है । जीवन के अन्तिम क्षण तक वे अध्ययन
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशकीय
और अनुसन्धान के कार्य में लगे रहे। 'भारतीय ज्ञानपीठ' द्वारा प्रकाशित उनका अन्तिम ग्रन्थ 'योगसारप्राभृत उनकी विद्वत्ता का उन्नत सुमेरु है । 'वीर-सेवा-मन्दिर' उनका मूर्तिमान् कीर्तिस्तंभ है । बाबू छोटेलाल सरावगी :
'वीर-सेवा-मन्दिर' को सदढ आधार देने और सप्रतिष्ठित करने में कलकत्ता निवासी स्व. बाब छोटेलाल सरावगी का विशेष योगदान रहा है। वह मुख्तार साहब के प्रति गहरी आत्मीयता रखते थे। 'वीर-सेवा-मन्दिर' को सरसावा से दिल्ली लाने तथा यहां विशाल भवन निर्माण कराने में उनका अनन्य हाथ रहा। वे प्रारम्भ से ही ग्राजीवन संस्था के अध्यक्ष रहे तथा तन-मन-धन से इसके विकास के लिए प्रयत्नशील रहे। वास्तव में वे 'वीर सेवा मन्दिर' के प्राण थे ।
छोटेलाल जी सत्प्रवत्तियों के धनी, अध्ययनशील तथा उदारचेता व्यक्ति थे। जैन साहित्य और संस्कृति के विकास के लिए वे निरन्तर प्रयत्नशील रहते थे। जैन-दर्शन, इतिहास, कला और पुरातत्त्व के अनुसन्धान कार्य में उनकी बड़ी रुचि थी। इन विषयों के अनुसन्धान के लिए वे कल्पवृक्ष थे। रायल एशियाटिक सोसाइटी के वे एक सम्मानित सदस्य थे। डा. एम. विन्टरनित्ज ने अपने ग्रन्थ 'हिस्ट्री प्राव इण्डियन लिटरेचर' भाग २ में छोटेलाल जी का बड़े अादर के साथ उल्लेख किया है। यदि छोटेलाल जी का सहयोग प्राप्त न हया होता तो संभवतया डा. विन्टरनित्ज अपने इतिहास-ग्रन्थ में जैन साहित्य का इतना विशाल और गंभीर सर्वेक्षण प्रस्तुत न कर पाते । छोटेलाल जी का विद्वत्समाज से अत्यन्त निकट का संबंध था। जैन ही नहीं, इतिहास और पुरातत्त्व के क्षेत्र में कार्य करने वाले भारतीय तथा विदेशी विद्वानों से उनकी बड़ी मित्रता थी। खंडगिरि और उदयगिरि उन्हीं की पुरातात्त्विक खोज के परिणामस्वरूप प्रकाश में आये । 'जैन विबलियोग्राफी' उनका अमर कीर्तिस्तम्भ है ।
पुरातत्त्व एवं इतिहास के प्रेमी होने के साथ-साथ छोटेलाल जी एक सफल समाजसेवी एवं नेता भी थे। वे समाज की विभिन्न संस्थानों तथा गतिविधियों में बरावर सक्रिय सहयोग देते रहे। . .'वीर सेवा मन्दिर' के उक्त दोनों ही प्राधार-स्तंभ अब नहीं रहे, फिर भी उनके कृतित्व के रूप में उनकी कीति अमर है । अनुसन्धान के क्षेत्र में उनका स्मरण सदा गौरव के साथ किया जाता रहेगा।
......
आभार:
वीर सेवामन्दिर के साथ साहू शान्तिप्रसाद जी का नाम अभिन्न रूप में जड़ा हया है। वह न केवल अनेक वर्षों से उसके अध्यक्ष हैं, अपितु उसकी अभिवृद्धि में सक्रिय योगदान देते रहते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में उनकी प्रारम्भ से ही गहरी दिलचस्पी रही है। इस अवसर पर हम उनका विशेष रूप से प्राभार मानते हैं। "जैन लक्षणावली" या पारिभाषिक शब्द-कोश :
'जैन लक्षणावली' के प्रकाशन की कल्पना मुख्तार साहब ने सन् १९३२ में की थी। जैन वाङमय में अनेक शब्दों का कुछ विशेष अर्थों में प्रयोग किया गया है। यह अर्थ उनके प्रचलित अर्थ से भिन्न है। प्रतएव जैन वाङ्मय के सामान्य अध्येता के लिए सहज रूप में उनको समझ पाना कठिन है। मख्तार
कल्पना थी कि दिगम्बर-श्वेताम्बर जैन साहित्य के सभी प्रमुख ग्रन्थों से इस प्रकार के शब्द जसकी परिभाषानों के साथ संकलित करके, हिन्दी अनुवाद के साथ, पारिभाषिक कोश तैयार किया जाय। इस कल्पना के अनुसार लगभग चार सौ ग्रन्थों से शब्द और उनकी परिभाषायें संकलित की गई। इस प्रकार के कार्य प्रायः नीरस लगने वाले तथा श्रम और समय साध्य होते हैं।
परी 'लक्षणावली' का प्रकाशन तीन भागों में होगा। हर्ष है कि तीसरे भाग का भी मुद्रण प्रारम्भ हो गया है। आशा है, इस महायज्ञ की पूर्णाहुति शीघ्र सम्भव होगी।
----महासचिव
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पादकीय
लक्षणावली प्रथम भाग के प्रकाशित होने के लगभग दो वर्ष बाद उसका यह द्वितीय भाग भी पाठकों के कर-कमलों में पहुंच रहा है । जैसा कि प्रथम भाग के सम्पादकीय में निर्देश किया जा चुका है, वे ही कठिनाइयां इस भाग के सम्पादन-कार्य में भी रही हैं व उनके दूर करने में समय की अपेक्षा भी रही है। इस भाग में मैं पूरे 'प' को समाविष्ट करना चाहता था, पर इसके प्रकाशन में अब अधिक विलम्ब करना उचित प्रतीत नहीं हया । इसके अतिरिक्त अन्तिम तीसरे भाग की जिल्द के प्रमाण की भी कल्पना करते हुए इस भाग में स्वरान्त 'प' का ही समावेश किया गया है । अगले भाग का प्रारम्भ संयुक्त 'प (प्र) से होगा।
__ प्रथम भाग की प्रस्तावना में प्रस्तुत लक्षणावली में उपयुक्त ग्रन्थों में से १०२ ग्रन्थों का परिचय कराकर शेष ग्रन्थों का इस भाग में परिचय कराने की सूचना की गई थी। परन्तु सम्पादन क्षेत्र में विशेष ख्यातिप्राप्त श्रीमान् डा. प्रा. ने. उपाध्ये एम. ए., डी. लिट. की राय थी कि ग्रन्थपरिचय में समय व शक्ति को न लगा कर यदि आगे का कार्य शीघ्र सम्पन्न कराया जा सके तो ठीक होगा। इसे ठीक समझ कर इस भाग में शेष ग्रन्थों का परिचय नहीं कराया गया है।
इस भाग के अन्तर्गत लक्षणों में से कितने ही लक्षणों की विविधता पर प्रस्तावना में कुछ प्रकाश डालना चाहता था, पर विलम्ब को देखते हुए फिलहाल उसे भी स्थगित कर दिया है।
इस भाग के सम्पादन में भी श्री पन्नालाल जी अग्रवाल, पं. परमानन्द जी शास्त्री और पं. पार्श्वदास जी न्यायतीर्थ का सहयोग पूर्ववत् उपलब्ध होता रहा है।
सुप्रसिद्ध लेखक विद्वान् श्री अगरचन्द जी नाहटा बीकानेर ने प्रस्तुत लक्षणावली के सम्पादन-कार्य में उपयोग करने के लिए हमें अपने व्यक्तिगत संग्रह में से स्थानांग सूत्र, सूर्यप्रज्ञप्ति और कुछ अंश व्यव"हारसुत्र भाष्य (पीठिकानन्तर द्वि. उद्देशक च. विभाग पृ. १-८७, गा. १-३८२ और तृ. उद्देशक च. विभाग पृ. १-३७, गा. १-१७६) देने की कृपा की है, इसके लिए हम उनके विशेष आभारी हैं।
वीर सेवा मन्दिर के अध्यक्ष श्रीमान साह शान्तिप्रसाद जी जैन तथा महासचिव श्री महेन्द्रसेन जी जैनी की जो स्नेहपूर्ण प्रेरणा प्राप्त होती रही है उसको देख स्वास्थ्य आदि की कुछ प्रतिकलता के रहते हए भी मैं प्रस्तुत कार्य में उद्यत रहा हूं। इस कृपा के लिए मैं आप दोनों महानुभावों को नहीं भल सकता।
दीपावली । २५-१०-७३ ।
बालचन्द्र शास्त्री
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
जेन लक्षणावली प्रथम भाग पर लोकमत
Prof. Dr. Klaus Bruhn
D-1000 Berlin-38 It is a Master of great Satisfaction that Pandit Balchandra Siddhantashastri i publishing the Jaina Lakspavali. This will be a Standard work in the field of Jaina Studies, and I feel that the restriction to Jaksana's is not a limitation but a special advantage of the work. Definitions are a literary element in its own right which deserves special attention and should not get lost in an ocean of quotations. It is in keeping with this scheme, that Pandit Balchandra has included a highly interesting essay on Lakshnavaisistya in his learned Introduction. I very much hope the parts two and three will follow soon. May be the second part has already left the press.
Let me also congratulate your institution on the initiative taken in connection with the publication of this brilliant work, which will be one of the most important titles in your Granthamala.
मा. श्रमण अक्टूबर १९७२
(पा. विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी) किसी भी धर्म या दर्शन का अध्ययन करते समय उसके पारिभाषिक शब्दों का सही ज्ञान होना आवश्यक है, क्योंकि उनका उस शाखा में विशिष्ट अर्थ होता है। जैन पारिभाषिक शब्दों का प्रचलित अर्थज्ञान करना उसके अध्येताओं के समक्ष सदैव एक गम्भीर समस्या रही है।
प्रस्तुत लक्षणावली में विद्वान् सम्पादक ने जैन साहित्य के अध्येताओं की कठिनाई को ध्यान में रखकर जैन परम्परा के करीब चार सौ संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थों से विशिष्ट शब्दों का चयन करके उनका प्रचलित अर्थ स्पष्ट किया है। जैन परम्परा में इस प्रकार के शब्दकोश की काफी समय से आवश्यकता अनूभव की जा रही थी। प्रस्तुत कृति से जैन साहित्य के अध्येताओं को बहुत सहायता प्राप्त होगी।... मुद्रणकार्य बहुत अच्छा हुआ हैं।
पा. वीरवाणी जयपुर, १८ नवम्बर १९७२ जैन वाङ्मय में अनेक पारिभाषिक शब्द हैं, जिनका प्रयोग प्रचलित अर्थ को छोड़कर विशिष्ट अर्थ में होता है। फलतः उनका सही बोध न होने से सर्व साधारण की तो बात क्या, विद्वानों-जनेतर
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन - लक्षणाली
साहित्यकारों तक को बड़ी असुविधा होती है । प्रस्तुत ग्रन्थ में दिगम्बर श्वेताम्बर ग्राम्नाय के ४०० ग्रन्थों में प्रयुक्त शब्दों की संस्कृत व हिन्दी परिभाषा दी गई है जिससे उनका अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है । यह ग्रन्थ सर्वांगरूप से उपयोगी बनाया गया है ।
८
मा. तीर्थंकर इन्दौर, दिसम्बर १९७२
वस्तुतः प्रस्तुत कोश एक स्मारक है जिसे शताब्दियों तक भुलाया नहीं जा सकेगा " | यह जैनों का ग्रन्थ न रहकर अर्थ विज्ञान के क्षेत्र की एक वेजोड़ निधि बन गया है। प्राच्य विद्या के अध्येता इसे छोड़कर शायद ही श्रागे बढ़ पायें ।
'कोश' को प्राद्यन्त देख जाने पर पूरा विश्वास हो जाता है कि संपादक ने कोशीय न्यास का बड़ी सजगता के साथ ग्राकलन- ग्रालोचन - विश्लेषण किया है । पाद्धतिक दृष्टि से भी ग्रन्थ का अपना व्यक्तित्व है । संपादक का असली व्यक्तित्व हिन्दी - व्याख्या वाले अंशों में प्रगट हुआ है । इन अंशों में सभी संदर्भों को बड़ी सावधानी और सम्पूर्णता से निचोड़ा गया है । यदि भावी जिल्दों में इन्हीं के अंग्रेजी अनुवाद और सम्मिलित कर लिए जाएं तो यह एक महत्त्वपूर्ण परिवर्द्धन होगा । छपाई निर्दोष, मूल्य सर्वथा उचित ।
पा. तीर्थकर (मराठी), ५ फरबरी १६७३
( गोपालनगर, डोंबिवली पूर्व, जि. ठाणे)
चारशे दिगंबर श्वेतांबर ग्रंथांच्या साह्याने हा कोश तयार करण्यात आला आहे एक शब्द, उदाहरणार्थ 'अनुप्रेक्षा' हा घेतला तर त्याचा जैन परिभाषेनुसार प्रमाण अर्थ कोणता हे थोडक्यात देऊन तो शब्द कोण कोणत्या ग्रंथात कोणत्या श्लोकात आढळतो हे यात दिले आहे अनुप्रेक्षा ( भावना) शब्द दहा ग्रंथातून आढळतो तर अनुप्रेक्षा ( स्वाध्याय) शब्द सतरा ग्रंथातून आढळतो तो श्लोक प्राणि ग्रंथनाम दिले आहे अशाच पद्धतीने शब्दांची माहिती इथे आढळते । अभ्यासूनी आनंद विभोर व्हावे असा हा उपक्रम आहे ।
सा. जैन बोधक (मराठी) दि. १५-१-१०७३ (सोलापुर)
जैन संसारा मध्ये प्रकाशित अनेक ग्रन्थामध्ये हे प्रत्युपयोगी प्रकाशन आहे. जैन दर्शन, न्याय, सिद्धांत आदि ग्रंथामध्ये जे लक्षणात्मक शब्द आले आहेत त्यांचे विवेचन स्थान ग्रंथ श्रादिचा उल्लेख करून यांत दिलेला आहे. सर्व धर्मामध्यें विविध पारिभाषिक पद आहेत. त्या पारिभाषिक शब्दांचा अर्थ ग्राम्नायानुसार केला जातो. किंवा करणें इष्ट आहे. त्या प्रमाणें अर्थं न केल्यास जिज्ञासु वुचंकळ्यांत पडतो आणि ग्रंथांचे हृद्य नीट समजू शकत नाहीं, म्हणून अशा पारिभाषिक शब्द कोषांची फार जरूरी आहे । हे कार्य अत्यंत परिश्रमसाध्य आहे. शेकड़ों ग्रंथांचे परिशीलन करून, अध्ययन करून, लक्षणावली तयार करावी लागते ।
000
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन-लक्षणावली (जैन पारिभाषिक शब्द-कोष)
कक्वकुशोल-विद्या-योगादिभिः परद्रव्यापहरण- मुख करके देखता है और कभी पीछे को मुख करके दम्भप्रदर्शनपरः कक्वकुशीलः। (भ. प्रा. विजयो. देखता है, उसी प्रकार ऊर्ध्वस्थित (खड़े) होकर १९५०)।
'तित्तिसणयरा' इत्यादि सूत्र का उच्चारण करते विद्या व मंत्रादि के प्रयोग द्वारा दूसरों के द्रव्य के हए अथवा बैठने पर 'अहो कायं काय' इत्यादि सूत्र अपहरणविषयक दम्भ को दिखाने वाले साधु को का उच्चारण करते हए, कभी प्रागे की ओर, और कक्वकुशील कहते हैं ।
कभी पीछे की ओर चलते हुए वन्दना करना; कच्छपरिगित दोष-१. कच्छरिगियं कच्छपरिगि- इसे कच्छपरिंगित कहते हैं । यह वन्दना का तं चेष्टितं कटिभागेन कृत्वा यो विदधाति बन्दनां तस्य सातवां दोष है। कच्छपरिगितदोषः । (मूला. वृ. ७-१०६)। २. ठिउ- कटक-बंसकंबीहि अण्णोण्णजणणाए जे किज्जति विरिंगणं जंतं कच्छवरिंगियं जाण । (प्रव, सारो. घरावणादिवाराणं ढंकणट्र ते कडया णाम । (धव. १५८)। ३. कच्छपरिङ्गितमूर्ध्वस्थितस्य 'तित्ति- पु. १४, पृ. ४०)। सणयरा' इत्यादिसूत्रमुच्चारयत उपविष्टस्य वा अहो बांस की कमचियों को परस्पर जोड़कर जो घर 'कायं काय' इत्यादिसूत्रमुच्चारयतोऽग्रतोऽभिमुखं आदि के द्वारों को ढांकने के लिए टटिया (जाली पश्चादभिमुखं च रिङ्गतश्चलतो वन्दनम् । (योग- जैसी) बनायी जाती है उन्हें कटक कहते हैं। शा. स्वो. विव. ३-१३०)। ४. निषेदषः कच्छप- कटकरण-कटकरणं कटनिवर्तकं चित्राकारमयोवद्रिखा कच्छपरिङ्गितम् । (अन. ध. ८-१००)। मयं पाइल्लगादि। (उत्तरा. नि. शा. वृ. १८४, ५. कच्छपस्येव जलचरजीवविशेषस्येव, रिङ्गणम् पृ. १६५) । अग्रतोऽभिमुखं पश्चादभिमुखं च यकिञ्चिच्चलनं चटाई बनाने के काम में आने वाले चित्राकार लोहे तच्च यत्र करोति शिष्यः तत्कच्छपरिङ्गितं जानीहि। के पाइल्लग (उपकरणविशेष) आदि कटकरण कह(प्रव. सारो. वृ. १५८)। ६. स्थितस्योर्ध्वस्थानेन लाता है। 'तेत्तीसन्नयराए' इत्या दिसूत्रमुच्चारयतः, उपविष्टस्य कटु-१. वैशद्यच्छेदनकृत्कटुः । (अनुयो. हरि. वृ. वा ऽऽसीनस्य 'अहोकायं काय' इत्यादि सूत्रं भणत: पृ. ६०)। २. श्लेष्मभेदपाटवकृत् कटुः । (त. भा. कच्छपस्येव जलचरजीवविशेषस्य रिङ्गनम्-अग्रतो- सिद्ध. ७.५-२३) । ऽभिमुखं प्रागभिमुखं च यत्किञ्चिच्चलनं तद्यत्र २ जो रस कफ-नाशक होकर पटुता (नपुण्य) को करोति शिष्यः तदिदं कच्छपरिङ्गितं नामेति । (श्राव. भी करता है, वह कट रस माना जाता है। हरि. वृ. मल. हे. टि. पृ. ८८)।
कटक नामकर्म- जस्स कम्मरस उदएण सरीर१ कछए के समान रेंग करके कटिभाग से प्राचार्य पोग्गला कड़वरसेण परिणमंति तं कडवणाम । की वन्दना करने को कच्छपरिङ्गित दोष कहते हैं। (धव. पु. ६, पृ. ७५) । ३ जैसे कमा रेंगते (चलते) हए कभी पागे को जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गल कड़वे रस
ल. ४०
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
कठिन] ३१४, जैन-लक्षणावली
[कनङ्गरा रूप से परिणत होते हैं उसे कटुक नामकर्म कहते हैं। मेव हि सप्रभेदं क्षेत्रं च तीर्थमथ कालविभाग-भावौ। कठिन-अनमनात्मकः कठिनः। (अनु. हरि. व. अङ्गानि सप्त कथयन्ति कथाप्रबन्धे तैः संयुता भवति पृ. ६०; त. भा. सिद्ध. वृ.५-२३)।
युक्तिमती कथा सा ॥ (वरांग. १-६)। ३. पुरुनहीं नमने वाली वस्तु के स्पर्श को कठिन स्पर्श षार्थोपयोगित्वात् त्रिवर्गकथनं कथा। (म. पु. १, कहते हैं।
११८)। ४. तन्नामोच्चारण-तद्गुणोत्कीर्तन-तच्चकण्ठहीन कुट-यस्य पुनरोष्ठपरिमण्डलाभावः स रितवर्णनादिका वचनपद्धतिः कथा। (ध. २ अधि. कण्ठहीनकुटः। (प्राव. नि. मलय. वृ. १३६, पृ. -अभि. रा. भा. ३, पृ. ४०२) । १४३)।
१ तप व संयम गुणों के धारक साधु जो समस्त पोठों के घेरे से रहित घड़े को कण्ठहीन कुट कहते लोक के प्राणियों के लिए हितकर चरित्र का
निरूपण करते हैं उसे कथा कहते हैं । कण्ठहीन कुट समान–यस्तु किञ्चिदूनं सूत्रार्थ- कदर्य-१. यो भृत्यात्मपीडाभ्यामर्थं संचिनोति स मवधारयति, पश्चादपि च तथैव स्मृतिपथमवतार- कदर्यः । (नीतिवा. २-६)। २. यो भृत्यात्मपीडायति स कण्ठहीनकुटसमानः । (प्राव. नि. मलय. वृ. भ्यामर्थं संचिनोति, न तु क्वचिदपि व्ययते, स १३६, पृ. १४३)।
कदर्यः । (योगशा. स्वो. विव. १-५२, पृ. १५५)। जैसे गला रहित घड़ा अल्प जल को अपने भीतर १ जो सेवकों (नौकरों) के लिये और स्वयं अपने रखता है, उसी प्रकार जो शिष्य गुरु के द्वारा बत- लिए भी पीड़ा पहुंचाकर धन का संग्रह किया करता लाये हुए सूत्रार्थ को कुछ कम अवधारण करता है है उसे कदर्य कहा जाता है। और तदनसार अल्प ही स्मरण करता है, उसे कण्ठ- कदलीघात-१.विस-वेयण-रत्तक्खय-भय-सत्थग्गहहीन कुट समान कहते हैं।
ण-संकिलेसेहिं । आहारोस्सासाणं णिरोहदो छिज्जदे कण्डक--देखो काण्डक । प्रथमस्थानात् द्वितीयं आऊ॥ (धव. पु. १, पृ. २३ उद्.; गो. क. ५७)। स्थानं स्पर्द्धकापेक्षया अनन्तभागवृद्धम्, यावन्ति ___ कदली (केले के स्तंभ) के समान जो विष, वेदना, प्रथमे स्थाने स्पर्द्ध कानि तावदभ्योऽनन्तभागाधिकानि रक्त-क्षय, भय, शस्त्राघात, संक्लेश पाहार और द्वितीये स्थाने स्पर्द्धकानि भवन्तीत्यर्थः । ततोऽपि श्वास के निरोध आदि के द्वारा सहसा प्राय का तृतीयं स्थानमनन्तभागवृद्धम् । एवमुपदर्शितेन प्रका- घात होता है उसे कदलीघात कहते हैं। रेण यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि स्थानानि तावद् कनक-माणुस-पसु-पक्खिमारणीयो तरु-गिरिसिहरवाच्यानि यावदगुलासंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमा- वियारणीयो असणीयो कणया जाम। (धव. पु. १४, णानि भवन्ति, तेषां च समुदाय एक कण्डकम् । पृ. ३५)।। (पञ्चसं. मलय. वृ. अनु. प्र. ४६, पृ. ४३)। जिनके द्वारा मनुष्य, पशु और पक्षी मर जाते हैं स्पर्धकों की अपेक्षा प्रथम स्थान से द्वितीय स्थान तथा वृक्ष और पर्वतशिखर विदीर्ण हो जाते हैं, अनन्तवें भाग से अधिक होता है, अर्थात् प्रथम ऐसे प्रशनियों (वज्रों) को कनक कहा जाता है। स्थान में जितने स्पर्धक हों उनके अनन्तवें भाग से कनङ्गरा–काय पानीयाय, नङ्गराः बोधिस्थनिअधिक वे द्वितीय स्थान में होते हैं । तृतीय स्थान श्चलीकरणपाषाणास्ते कनङ्गराः कानङ्गरा वाउससे भी अनन्तवें भागसे अधिक होता है। इस प्रकार ईषन्नंगरा इत्यर्थः । (विपाक. अभय. व. पु. ४५)। उक्त क्रम से अंगल के असंख्यातवें भागगत प्रदेश- क शब्द का अर्थ जल है और नगर का अर्थ है राशि प्रमाण तक वे स्थान उत्तरोत्तर अनन्तवें भाग नाव को स्थिर करने वाले पत्थर । अभिप्राय यह से अधिक होते जाते हैं। इन सबके समुदाय का है कि नौका यदि डगमगाती है तो उसे स्थिर करने नाम एक कण्डक (काण्डक) होता है।
के लिए जो उसमें कुछ पत्थर डाल दिये जाते हैं वे कथा-१. तव-संजमगुणधारी जं चरणं कहिंति कनङ्गर कहलाते हैं, अथवा पानी में उसे रोकने के सब्भावं। सव्वजगजीवहियं सा उ कहा देसिया लिए जिस पत्थर से रस्सी या सांकल को बांध दिया समए ॥ (दशवै. नि. २१०)। २. द्रव्यं फलं प्रकृत- जाता है उसे कनङ्गर समझना चाहिए।
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
कन्दक ]
कन्दक ( काण्डक ) -- हत्थिधरण मोद्दिदवारिबंघो कंदो णाम, हरिण वराहादिमारण मोद्दिदकंदा वा कंदो णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३४) । हाथी को पकड़ने के लिए जो वारिबन्ध ( गड्ढा ) बनाया जाता है उसे कन्दक ( खन्धक) कहते हैं, प्रथवा हरिण और शूकर आदि के वध के लिए जो बाण बनाये जाते हैं वे काण्डक कहलाते हैं । कन्दर्प - रागोद्रेकात् प्रहासमिश्रोऽशिष्टवाक्प्रयोगः कन्दर्पः । ( स. सि. ७-३२; भ. प्रा. विजयो. १८० व ६५१; भ. आ. मूला. १८० ) । २. कन्दर्पो नाम रागसंयुक्तो ऽसभ्यो वाक्प्रयोगो हास्यं च । ( त. भा. ७-२७) । ३. कहकहकहस्स हसणं कंदप्पो अनिहुया य संलावा | कंद पकहाकहणं कंदप्पुवएस संसा य ॥ (बृहत्क. १२९६) । ४. रागोद्रेकात् प्रहास मिश्रोsशिष्टवाक्प्रयोगः कन्दर्पः । चारित्रमोहोदयापादितात् रागोद्रेकात् प्रहाससंयुक्तो योऽशिष्टवाक्प्रयोगः सकन्दर्प इति निध्रियते । (त. वा. ७, ३२, १) । ५. कन्दर्पः कामः, तद्धेतुविशिष्टो वाक्प्रयोगः कन्दर्प उच्यते, रागोद्रेकात् प्रहासमिश्रो मोहोद्दीपको नर्मेति भाव: । (श्राव. हरि. वृ. प्र. ६, पृ. ८३०; श्रा. प्र. टी. २१) । ६. चारित्रमोहोदयापादिताद्रागोद्रेकाद्यो हास्यसंयुक्तोऽशिष्टवाक्प्रयोगः स कन्दर्पः । (चा. सा. पृ. १० ) । ७. रागोद्रेकात् प्रहासमिश्रो भण्डि - माप्रधानो वचनप्रयोगः कन्दर्पः । ( रत्नक. टी. ३, ३५) । ८. तथा कन्दर्पः कामस्तद्धेतुस्तत्प्रधानो वा वाक्प्रयोगोऽपि कन्दर्पः । (योगशा. स्वो विव. ३, ११५ ) । ६. कन्दर्पः कामस्तद्धेतुस्तत्प्रधानो वाक्प्रयोगोऽपि कन्दर्पो रागोद्रेकात्प्रहासमिश्रोऽशिष्टवा
1
३१५, जैन - लक्षणावली
प्रयोग इत्यर्थः । ( सा. ध. स्वो टी. ५-१२) । १०. कन्दर्पः कामः तद्धेतुविशिष्टो वाक्प्रयोगोऽपि कन्दर्प एव, मोहोद्दीपक वाक्कर्मेति भावः । (ध. बि. मु. वृ. ३ - ३० ) । ११. रागाधिक्यात् वर्करसंवलितोऽशिष्टवचनप्रयोगः कन्दर्पः । (त. वृत्ति श्रुत. ७, ३२) । १२. अस्ति कन्दर्पनामापि दोषः प्रोक्तव्रतस्य यः । रागोद्रकाल हा साहिमिश्रो वाग्योग इत्यपि ॥ ( लाटीसं. ६ - १४१) ।
१ राग की अधिकता से हास्यमिश्रित प्रशिष्ट वचनों के बोलने को कन्दर्प कहते हैं । ३ कहकहा मारकर हंस श्रट्टहास), स्वांग के साथ परिहास करना, गुरु आदि के साथ भी अनिभूत - कठोर व कुटिलता
[ कपाटसमुद्घात
पूर्ण - भाषण करना, कामकथा का निरूपण करना, और काम का उपदेश करना; इस सब को कन्दर्प कहा जाता है ।
कन्दर्पभावना - देखो कन्दर्पी भावना । १. कंदप्प कुक्कुआइय चलसीला णिच्चहासणकहो य | विभावितो य परं कंदप्पं भावणं कुणइ ॥ ( भ. प्रा. १८० ) । २. कंदप्पे कुक्कुइए, दवसीले यावि हासकरे । विम्हाविंतो य परं, कंदप्पं भावणं कुणइ ॥ (बृहत्क. १२९५ ) । ३. रागोद्रेकजनितहासप्रवर्तितो वाग्योगः, काययोगः परविस्मयकारी वा कन्दर्पभावनेत्युच्यते । ( भ. प्रा. विजयो. टी. १८० ) । २ कन्दर्पवान्, कौत्कुच्यवान् — शरीर की कुचेष्टा से युक्त, द्रवशील - शीघ्रतापूर्वक बिना विचारे संभाषण आदि करने वाला, हास्य को उत्पन्न करने वाला और दूसरे को प्राश्चर्यान्वित करने वाला कन्दर्प ( कन्दर्पी) भावना को करता है । कन्यानृत - देखो कन्यालीक । तत्र कन्याविषयमनृतं कन्यानृतम् प्रभिन्नकन्यकामेव भिन्नकन्यकां वक्त विपर्ययो वा । ( श्रा. प्र. टी. २६० ) । कन्याविषयक सत्य बोलने का नाम कन्यानृत है
—
-जैसे एक ही कन्या को अन्य बतलाना अथवा इसके विपरीत अन्य कन्या को एक बतलाना । कन्यालीक - देखो कन्यानृत । १. तत्र कन्याविषयमलीकं कन्यालीकं भिन्नकन्यायामभिन्नं विपर्ययं वा वदतो भवति; इदं च सर्वस्य कुमारादिद्विपदविषयस्यालीकस्योपलक्षणम् । (योगशा. स्वो वित्र. २, ५४ ) । २. तत्र कन्यालीकं यथा भिन्न कन्यामभिन्नां वा विपर्यय वा वदतो भवति । (सा. ध. स्वो. टी. ४-३६) । देखो कन्यानृत |
कपाटमुद्रा-भयाकारौ समश्रेणीस्थिताङ्गुलीको करौ विधायाङ्गुष्ठयोः परस्परग्रथनेन कपाटमुद्राः । ( निर्वाणक. १६६२) ।
समान पंक्ति में स्थित अंगुलियों से युक्त हाथों के दोनों पंजों को फैला करके तथा दोनों अंगूठों को परस्पर मिलाकर अभयमुद्रा में अवस्थित क ने को कपामुद्रा कहन हैं ।
कपाटसमुद्घात – कवाडसमुग्धा दो णाम पुव्विल्लवाहल्लायामेण वदवलयवदिरित्तसव्वखेत्तापूरणं । ( धव. पु. ४, पृ. २८ - २६ ) ; तदो विदियसमए
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
कपित्थदोष ]
दोहि वि पासेहि छुत्तवादवलयं देसूणचोद्दस रज्जुप्रायदं सगविक्खंभबाहलं सेसद्विदीए घादिदश्रसंखेज्जभागं घादिदसेसाणुभागस्स घादिदाणंतभागं कवाडं करेदि । (धव पु. १०, पृ. ३२१); विदियसमए पुव्वावरेण वादवलयवज्जियलोगागासं सव्वं पि सदेहविक्खंभेण वाविय सेसट्टिदि प्रणुभागाणं जहाकमेण श्रसंखेज्ज-अणंतभागे घादिदूण जमवद्वाणं तं कवाडं णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ८४) । केवलसमुद्घात के समय द्वितीय समय में पूर्वपश्चिम में दोनों पार्श्व भागों से वातवलय को छूते हुए कुछ कम चौदह राजु लम्बे और अपने शरीरविस्तार प्रमाण मोटे केवली जिनके श्रात्मप्रदेशों का वातवलयों को छोड़कर शेष सब ही लोकाकाश में फैल जाना; इसका नाम कपाटसमुद्घात है । कपित्थदोष - १. यः कपित्थफलवन्मुष्टि कृत्वा कायोत्सर्गेण तिष्ठति तस्य कपित्थदोषः । (मूला. वृ. ७ - १७) । २. छप्पइयाण भएणं कुणइ य पट्ट कवि
व ॥ ( प्रव. सारो. २५८ ) । ३ षट्पदिकाभयेन कपित्थवच्चोलपट्ट संवृत्य मुष्टौ गृहीत्वा स्थानं कपित्थदोषः ; एवमेव मुष्टि बद्ध्वा स्थानं इत्यन्ये । (योगशा. स्वो विव. ३- १३० ) । ४. मुष्टि कपित्थवद् बद्ध्वा कपित्थ: XX X ॥ ( श्रन. ध. ८, ११७) । ५. षट्पदिकाभयेन कपित्थवद् वृत्ताकारत्वेन संवृत्य जङ्घादिमध्ये कृत्वा तिष्ठत्युत्सर्गे इति कपित्थदोषः १४ । एवमेव मुष्टि बद्ध्वा स्थानमित्यन्ये । ( प्रव. सारो. टी. २५८ ) ।
३ मधुमक्खियों के भय से कैथ फल के समान चोलपट्ट (साधु का वस्त्रविशेष - कटिवस्त्र ) से श्राच्छादित कर व उसे मुट्ठी में लेकर स्थित होना, यह कपित्थ नामका एक कायोत्सर्ग का दोष ( १४वां ) है । कपोतलेश्या - १. रूसइ दिइ अण्णे दूसइ बहुसो यसो भयबहुलो । प्रसुयइ परिभवइ परं पसंसये अप्पयं बहुसो ॥ ण य पत्तियइ परं सो प्राण पि व परं पि मण्णंतो । तूसइ प्रइथुव्वंतो ण य जाणइ हाणि वड्ढि वा || मरणं पत्थेइ रणे देइ सुबहुगं पि थुवमाणो दु । ण गणइ कज्जाकज्जं लक्खणमेयं तु काउस्स || ( प्रा. पंचस. १, १४७ - ४६; गो. जी. ५१२-१४) । २. मात्सर्य - पशून्य- परपरिभवात्मप्रशंसा परपरिवाद-वृद्धि-हान्यगणनात्मीयजीवितनिराशता प्रशस्यमानधनदान-युद्धमरणोद्यमादि कपोत
[कमलाङ्ग
लेश्यालक्षणम् । (त. वा. ४, २२, १०, पू. २३९ ) । ३. काऊ कवोदवण्णा X XXI ( धव. पु. १६, पृ. ४८५ उद्) । ४. शोक-भी- मत्सरासूया - परनिन्दापरायणाः । प्रशंसति सदात्मानं स्तूयमानः प्रहृष्यति ॥ वृद्धि-हानी न जानाति न मूढः स्वपरान्तरम् । अहंकारग्रहग्रस्तः समस्तां कुरुते क्रियाम् ॥ श्लाघिनो नितरां दत्ते रणे मर्तुमपीहते । परकीययशोध्वंसी युक्तः कापोतलेश्यया ॥ ( पंचसं श्रमित. १, २७६ से २७८ ) ।
३१६, जैन-लक्षणावली
२ मत्सरभाव रखना, चुगली करना, दूसरे का अपमान करना, अपनी प्रशंसा करना, दूसरे की निन्दा करना, हानि-लाभ का विचार न करना, जीवन से निराश होना, प्रशंसा करने वाले को धन देना और युद्ध में मरने का उद्यम करना; इत्यादि कपोतले - या के लक्षण हैं ।
कमण्डलुमुद्रा - उन्नतपृष्ठहस्ताभ्यां संपुटं कृत्वा कनिष्ठिके निष्कास्य योजयेदिति कमण्डलुमुद्रा । ( निर्वाणक. १६ - ६ ) ।
दोनों हथेलियों को पोला करके परस्पर मिलाने तथा दोनों कनिष्ठिकात्रों को बाहिर निकालने पर कमण्डलुमुद्रा होती है ।
कमल - १. XXX तं पि गुणिदव्वं । चउसीदीलक्खेहि कमलं णामेण णिद्दिट्ठ ।। ( ति प ४, २६८) । २. चतुरशीतिकमलाङ्गशतसहस्राण्येकं कमलम् । (ज्योतिष्क. मलय. वृ. २-६७ ) । चौरासी लाख से गुणित कमलाङ्ग को कमल कहते हैं ।
कमलाङ्ग - १. णलिणं चउसीदिहदं कमलंगं णाम XXX ( ति प ४ - २६८ ) । २. ज्ञेयं वर्षसहस्र तु तच्चापि दशसंगुणम् । पूर्वाङ्गं तु तदभ्यस्तमशीशीत्या चतुरग्रया ।। तत्तद्गुणं च पूर्वाङ्गं पूर्वं भवति निश्चितम् । पूर्वाङ्गं [पर्वाङ्गं] तद्गुणं तच्च पूर्व [पर्व ] संज्ञं तु तद्गुणम् ।। नियुताङ्गं परं तस्मात् नियुतं च ततः परम् । कुमुदाङ्गं ततश्च स्यात् कुमुदं तु ततः परम् । पद्माङ्ग पद्ममप्यस्मात् नलिनाङ्गमथैव च । नलिनं कमलाङ्ग च कमलं चाप्यतः परम् । (ह. पु. ७, २४ - २७ ) । ३. पूर्वं चतुरशीतिघ्नं पूर्वाङ्ग [पर्वाङ्ग ] परिभाष्यते । पूर्वाङ्गताडितं तत्तु पर्वाङ्ग पर्वमिष्यते । गुणाकारविधिः सोऽयं योजनोयो यथाक्रमम् । उत्तरेष्वपि संख्यानविकल्पेषु
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर(हस्त)]
३१७, जैन-लक्षणावली
[करणोपसामना
निराकुलम् ।। XXX नलिनं कमलाङ्गं च तथा- (न्यायकु. १-३, पृ. ३६)। ३.xxx साधकन्यत् कमलं विदुः । (म. पु. ३, २१६-२४; लो. विशेषस्यातिशयवतः करणत्वात् । तदुक्तं जैनेन्द्रवि. ५, १२८-३३)। ४. चतुरशीतिमहापद्मशत- साधकतमं करणमिति । (न्यायदी. पृ. १३) । सहस्राण्येक कमलाङ्गम् । (ज्योतिष्क. मलय, वृ. १ अतिशय साधक कारक को करण कहते हैं। २-६७)।
करणसत्य-करणसत्यं यत्प्रतिलेखनाक्रियां यथो१ चौरासी से गुणित नलिन प्रमाण एक कमलाङ्ग । क्तां सम्यगुपयुक्त: कुरुते ।। (समवा. अभय. वृ. होता है। ४ चौरासी लाख महापद्मों का एक २७, पृ. ४६)। कमलांग होता है।
प्रागमानुसार सम्यक् उपयोग के साथ प्रतिलेखन कर (हस्त)- करश्चतुर्विशत्यंगुल: । (समवा. क्रिया के करने को करणसत्य कहते हैं । अभय. वृ. ६६, पृ. ६८)।
करणानयोग-१. लोकालोकविभक्तेर्यगपरिवत्तेचौबीस अंगुलों को एक कर या हस्त कहते हैं। श्चतुर्गतीनां च । प्रादर्शमिव तथामतिरवैति करणाकर (वन्दनादोष)-करः-कर इव राजदेयभाग नुयोगं च ।। (रत्नक. २-३)। २. द्वितीयः करइव-अर्हत्प्रणीतो वन्दनककरोऽवश्यं दातव्य इति णादि: स्यादनुयोगः स यत्र वै। त्रैलोक्यक्षेत्रसंख्यानं धिया वन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। कुलपत्रेऽधिरोपितम् ।। (म. पु. २-९६)। ३. अधोजैसे राजा को भूमि प्रादि का कर (टैक्स) देना मध्योर्ध्वलोकेषु चतुर्गतिविचारणम् । शास्त्रं करणप्रावश्यक होता है, उसी प्रकार जिनदेव का कहा मित्याहुरनुयोगपरीक्षणम् ॥ (उपासका. ६१७) हुमा वन्दना रूप धार्मिक कर देना चाहिए, ऐसी ४. त्रिलोकसारे जिनान्तरलोकविभागादिग्रन्थव्याख्याबुद्धि से जो वन्दना की जाती है वह कर नामक नं करणानुयोगो विज्ञेयः । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४२)। दोष से दूषित होती है। यह वन्दना के ३२ दोषों ५. चतुर्गतियुगावर्तलोकालोकविभागवित् । हृदि प्र. में एक (२४वां) है।
णेयःकरणानुयोगः करणातिगैः ।।(अन.ध.३, १०)। करण (परिणाम)--१. कम्मबंधादिपरिणामण- १लोक-प्रलोक के विभाग, युगों के परिवर्तन और समत्थो जीवस्स सत्तिविसेसो करणमिति वच्चति । चारों गतियों के स्वरूप को स्पष्ट दिखलाने वाले (कर्मप्र.चु. १, पृ. २)। २.xxx भण्णइ ज्ञान को करणानुयोग कहते हैं। करणं तु परिणामो। (धर्मसं. हरि. ७९४)। ३. करणापर्याप्तक-ये पुनः करणानि शरीरेन्द्रियाकरणा: परिणामाः। (धव. पु. १, प. १८०); कधं दीनि न तावन्निवर्तयन्ति, अथ चावश्यं पुरस्तान्निपरिणामाणं करणसण्णा ? ण एस दोपो, असि- वर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्तकाः। (षडशीति मलय, वासीणं व साहयतमभावविवक्खाए परिणामाणं वृ. ३)। करणत्तुवलंभादो। (धव. पु. ६, पृ. २१७) । ४. जिन जीवों के करणों की-शरीर व इन्द्रियादिक करणं नाम सम्यक्त्वाद्यनुगुणो विशुद्धिरूपः परिणाम- की-अभी रचना नहीं हुई है, किन्तु आगे नियम से विशेषः । (प्राव. नि. मलय. व. १०६, पृ. ११३)। होने वाली है उन्हें करणापर्याप्तक या निवृत्त्यपर्या५. करणानि वीर्यविशेषरूपाणि । (पंचसं. मलय. प्तक कहते हैं। वृ. १, पृ. १)। ६. करणं पुनर्भण्यते तीर्थकरगण- करणोपशामना-देखो प्रकरणोपशामना। १. जा धरैः, परिणामो-जीवस्याध्यवसायविशेषः । तदु- सा करणोवसामणा सा दूविहा-देसकरणोवक्तम्-करणं परिणामो ऽत्र सत्त्वानामिति । (धर्म- सामणा त्ति वि सव्वकरणोवसामणा त्ति वि । सं. मलय. व. ७६४)।
देसकरणोवसामणाए दुवे णामाणि देसकरणोव१ जीव की जो विशिष्ट शक्ति कर्मबन्धादि के परि- सामणा त्ति वि अप्पसत्थउवसामणा त्ति वि।xx णमाने में समर्थ होती है उसे करण कहा जाता है। x जा सा सव्वकरणोवसामणा तिस्से वि दुवे ३ जीव के परिणामविशेष को करण कहते हैं। णामाणि सव्वकरणोवसामणा त्ति वि पसत्थकरणोवकरण (कारक)-१. साधकतमं करणः । (जैनेन्द्र. सामणा त्ति वि । (क. पा. प. ७०७-८)। २. दंसण१, २, १३८)। २. करणं तु साधकतमत्वम् । मोहणीये उवसमिते उदयादिकरणेसु काणि वि कर
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
करुणरस] ३१८, जैन-लक्षणावली
[कर्ता (कारक) णाणि उवसंताणि, काणि वि करणाणि अणुवसंताणि, जो वचन कानों में प्रवेश करते ही दूसरों के लिए तेणेसा देसकरणोवसमणा ति भण्णदे। (जयध. क. अप्रीतिकर होता है उसे कर्कशवचन कहते हैं। पा. टि. २, पृ. ७०७); सबेसि करणाणमुवसामणा कर्ण-ध्यात्वा हृद्यष्टपत्राब्जं श्रोत्रे हस्ताग्रपीडिते । सव्वकरणोवसामणा । (जयध.- क. पा. टि. १, न येताग्निनिर्घोषो यदि स्व: पंच वासरान् ॥ दश पृ. ७०८)। ३. तत्र करणं क्रिया यथाप्रवृत्तापूर्वा वा पंचदश वा विशति पंचविंशतिम् । तदा पंचनिवृत्तिकरणसाध्यः क्रियाविशेषः, तेन कृता करण- चतुस्त्रि-द्वयेकवर्षेमरणं भवेत् ॥ (योगशा. ५-१२५, कृता । (कर्मप्र. उपश. १, मलय. वृ.) ।
१२६)। ३ यथाप्रवृत्त, अपूर्व और अनिवृत्ति करणों के द्वारा हृदय में अष्टदल कमल का ध्यान कर दोनों कानों सिद्ध किये जाने वाले क्रियाविशेष से जो उपशमना को हाथों से दबाने पर यदि अग्नि का तड़तड़ादि-रूप की जाती है उसे करणोपशामना कहते हैं।
शब्द पांच, दश, पन्द्रह, बीस, अथवा पच्चीस दिन न करुणरस-१. पिअविप्पयोग-बंध-वह-वाहि [बंध- सुना जाय तो क्रम से पांच, चार, तीन, दो और व-बह-वाहि] विणिवाय-संभमुप्पण्णो। सोइअ-विल- एक वर्ष में मरण होने वाला है, ऐसा जानना चाहिए। विप्र-पम्हाणरुण्णलिंगी रसो करुणो ।। करुणो रसो यह कर्ण का लक्षण है। जहा.- पज्झायकिलामिअयं बाहागयपप्पुअच्छिदं कर्णसंस्कार-१. ह्रस्वयोलम्बतापादनम्, दीर्घबहुसो । तस्स विओगे पुत्तिय दुब्बलयं ते मुहं जायं। योर्वा ह्रस्वकरणग, तन्मलनिरासोऽलंकारग्रहणं कर्ण(अनुयो. गा.७८-७९, पृ. १३६)। २. प्रियविप्र- संस्कारः । (भ. प्रा. विजयो. ६३)। २. ह्रस्वीयोग-बांधवव्याधिनिपातसंभ्रमोत्पन्न: सोचित-विल- करण-लम्बीकरण-मलापकर्षणाभरणादिक: कर्णसंपित-अम्लानरुदितलिंगो रस: करुणः । (अनुयो. हरि. स्कारः। (भ. प्रा. मला. ६३)।। वृ. पृ. ७०)।
छोटे कानों को लम्बा करना, लम्बे कानों को छोटा १ इष्ट के वियोग, बन्धन, वध, व्याधि, मरण और करना, उनका मैल निकालना और कुण्डल अदि परचक्र आदि की भीति से उत्पन्न होने वाला करुण- पाभरण पहिनना; इत्यादि प्रकार से कानों का रस कहलाता है। उसके चिह्न हैं शोक, विलाप, शृंगार करने को कर्णसंस्कार कहते हैं। म्लानता और रुदन।
कर्ता-सुहमसुहं करेदि त्ति कत्ता। (धव. पु. १, करणा--देखो कारुण्य । xxx परदुःखविना- प. ११६); शुभमशुभं करोतीति कर्ता। (धव. पु. शिनी तथा करुणा । (षोडशक ४-१५)।
६, पृ. २२०)। दूसरे जीवों के दुःखों के दूर करने की इच्छा को शुभ या अशुभ परिणाम करने वाले जीव को कर्ता करुणा कहते हैं।
कहते हैं। कर्कशनाम-१. जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपो- कर्ता (
कर्ता (कारक)-१. एदेसु य उवयोगो तिविहो ग्गलाणं कक्खडभावो होदि तं कक्खडं णाम । (धव. सूद्धो णिरंजणो भावो । जं सो करेदि भाव उवयोगो पु. ६, पृ. ७५)। २. यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन शरीर- तस्स सो कत्ता ।। जं कुणदि भावमादा कत्ता सो पुदगलानां कर्कशभावो भवति तत्कर्कशनाम । (मला. होदि तस्स भावस्स । कम्मत्तं परिणमदे तम्हि सयं बु. १२-१९४)। ३. यदुदयाज्जन्तुशरीरेषु कर्कशः पुग्गलं दव्वं ।। जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि स्पों भवति, यथा पाषाणविशेषादीनाम्, तत्कर्कश- तस्स भावस्स । णाणिस्स दु णाणमनो अण्णाणमयो नाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३-२६३, पृ. ४७३)। अणाणिस्स ।। (समयप्रा. ६७-६८ व १३६)। २. १ जिस कम के उदय से शरीरपुद्गलों में कर्कशता स्वतंत्रः कर्ता । (जैनेन्द्र. १२, ११२)। ३. यः (कठोरता) उत्पन्न होती है उसे कर्कश नामकर्म परिणमति स कर्ताxxx॥ (नाटकस ३-६)। कहते हैं।
जीव जो भाव करता है उसका वह कर्ता होता कर्कशववचन-कर्णशष्कुलिविवराभ्यर्णगोचरमात्रेण है, अथवा जो परिणमन करता है वह कर्ता होता परेषामप्रीतिजननं हि कर्कशवचः। (नि. सा. व. है। जो क्रिया के करने में स्वतंत्र होता है वह कर्ता ६२)।
कहलाता है। मिथ्यादर्शन, अज्ञान और प्रविरति
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्तृत्व] ३१६, जैन-लक्षणावली
[कर्मक्षयसिद्ध स्वरूप इन तीन प्रकार के निमित्तभूत परिणाम- ६०६)। ४. कीरइ जो जिएणं मिच्छात्ताईहिं विकारों के विषय में, वस्तुतः शद्ध, निरंजन व चउगइगएणं । तेणिह भण्णइ कम्म अणाइयं तं पवावस्तुभत चैतन्य मात्र भाव की अपेक्षा एक होने पर हेणं ।। (कर्मवि. गा. २)। ५. क भी जो अशुद्ध, सांजन और अनेक भावरूपता को संयम-कषाय-योगकारणसंचितपुदगल प्रचयः । (प्रा. प्राप्त होकर तीन प्रकार का उपयोग होता है उसमें मी. वसु. व. ८)। ६. तत्र ज्ञानावरणाद्यष्टविधमाजिसको वह उपयोग (तत्वरूप प्रात्मा) करता है त्मनः पारतंत्र्यनिमित्तं कर्म । (लघीय. अभय. व. उसका वह कर्ता होता है। जिस भाव को प्रात्मा ७-४, पृ. ६८)। ७. क्रियते-मिथ्यात्वाविरतिकषायकरता है उसी भाव का वह कर्ता होता है। ज्ञानी योगानुगतेनात्मना निवर्त्यत इति कर्म । (उत्तरा. के ज्ञानमय भाव होता है और अज्ञानी के अज्ञानमय नि, शा. व. २-६६, पृ. ७२॥ ८. ज्ञानादिप भाव होता है।
विघातनादिसामर्थ्यसंयुत-ज्ञान - दर्शनादिपरिणतिविकर्तृत्व -१. कर्तृत्वमिति शुभाशुभकर्मणो निर्वर्त- घातसातासातानुभवादिसामोपेतं कर्म । (धर्मसं. कत्वं योगप्रयोगसामर्थ्यात् । (त. भा. सिद्ध. वृ. २, मलय. वृ. ६०६)। ७)। २. कर्तृता हि ज्ञान-चिकीर्षा-प्रयत्नाधारते- १ अंजनचूर्ण से परिपूर्ण डिब्बे के समान सूक्ष्म व ष्यते । (न्यायकु. १-३)।
स्थल प्रादि अनन्त पुद्गलों से परिपूर्ण लोक में जो १ योगप्रवृत्ति के वश शुभ व अशुभ कर्मों को उत्पन्न कर्मरूप परिणत होने योग्य नियत पुद्गल जीवपरिकरना, इसका नाम कर्तृत्व है। वह जीवका अनादि णाम के अनुसार बन्ध को प्राप्त होकर ज्ञान-दर्शन साधारण पारिणामिक भाव है। २ विवक्षित कार्य के घातक (ज्ञानावरण व दर्शनावरण) तथा सुखका ज्ञान, उसके करने की इच्छा और तद्रूप प्रयत्न दुःख, शुभ-अशुभ प्रायु, नाम, उच्च व नीच गोत्र इन तीनों की आधारभूता का नाम कर्तृता है। और अन्तराय रूप पुद्गलों को कर्म कहा जाता है। कर्म (कार्य)-१. कम्मं जमणायरिप्रोवएसिग्रं कर्म (क्रिया)-देशाद् देशान्तरप्राप्ति हेतुः परिसिप्पमन्नहाऽभिहियं । किसि-वाणिज्जाइयं घड- स्पन्दात्मकः परिणामोऽर्थस्य कर्म। (न्यायकु. ७, लोहाराइभेनं च ।। (प्राव. नि. ६२८)। २. इह पृ. २८१)। कर्म यदनाचार्योपदेशजं सातिशयमनन्यसाधारण एक देश से दूसरे देश की प्राप्ति में कारणभत पदार्थ गृह्यते । XXX तत्र भारवहन-कृषि-वाणिज्यादि- के परिस्पन्दात्मक परिणाम का नाम कर्म (क्रिया) कर्म । (प्राव. नि. हरि. वृ. ६२८)। १ जो कृषि व वाणिज्य आदि कार्य अनाचार्य-प्राचार्य कर्म (कारक)-xxx यः परिणामो भवेत्त से भिन्न व्यक्ति के द्वारा उपदिष्ट हो वह कर्म तत्कर्म । (नाटकस. ३-६)। कहलाता है। जैसे वोझा ढोना, एवं खेती व व्या- प्रात्मा का जो परिणाम होता है, उसे कर्म जानना पार प्रादि करना । जो इस सब कर्म में कुशल होता चाहिए। है उसे कर्मसिद्ध कहा जाता है।
कर्मकिल्विष-कर्मणा उक्तरूपेण किल्विषाः अधमाः कर्म (ज्ञानावररणादि)-१. अंजणचुण्णपुण्णसमु- कर्मकिल्विषाः । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ५, पृ. १८३)। गगोव्व सुहम-थूलादि-अणेगविहपरिणएहि अणंतेहिं प्राधाकर्म से किल्विष-निकृष्ट कार्य करने वाले
णिरंतर णिचिते लोगे परिच्छिण्णा एव जीवों को कर्मकिल्विष कहा जाता है। पोग्गला कम्मपरिणामणजोग्गा बंधमाणजीवपरि- कर्मक्षयसिद्ध-सो कम्मक्खयसिद्धो जो सव्वक्खीणणामपच्चएण बद्धा णाणादिलद्धिधातिणो सुह-दुक्खसु- कम्मसो ।। दीहकालरयं जं तु कम्मं सेसिअमट्ठहा । हासुहाउ-नाम-उच्चाणीयागोयंतरायपोग्गला कम्मति सिनं धंतं ति सिद्धस्स सिद्धत्तमुवजायइ ॥ (प्राव. वुच्चति । (कर्मप्र. चू. १, पृ. २) । २. प्रात्मपरि- नि. ६५२-५३) । णामेन योगभावलक्षणेन क्रियते इति कर्म । (त. वा. जो समस्त ही कर्मों का क्षय कर चुका है वह कर्म५, २४, ६, पृ. ४८८ पं. २१)। ३. नाणादिपरि- क्षयसिद्ध कहलाता है । जब जीव अन्नादिपरंपरा णतिविघायणादिसामत्थसंजुयं कम्म । (धर्मसं. से बांधे हए पाठ प्रकार के शेष कर्म-रज को ध्या
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्मचेतना]
३२०, जैन-लक्षणावली [कर्मद्रव्यपुद्गलपरिवर्तन नाग्नि से भस्म कर देता है, तब उसके सिद्ध अव- कर्मदलिकनिषेक-देखो कर्मनिषेक । १. पाबास्था उत्पन्न होती है।
हूणिया कम्मट्टिती कम्मणिसेगो। (षट्खं. १, ६-६, कर्मचेतना-१. वेदंतो कम्मफलं मये कदं जो दु ६,६, १२, १५ इत्यादि-पु. ६, पृ. १५० आदि)। मुणदि कम्मफलं । सो तं पुणो वि बंधदि वीयं २. अवाधोना कर्मस्थितिः कर्मदलिकनिषेकः। (प्रज्ञादुक्खस्स अट्ठविहं ॥ (समयप्रा. ४०८)। २.xx प. मलय. वृ. २३-२९४, पृ. ४७६)। x एक्को कज्ज तु xxx चेदयदिxxx॥ प्राबाधा या अबाधा काल से रहित कर्मों की स्थिति पंचा. का. ३८)। ३. ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनम् को कर्मनिषेक या कर्मदलिक निषेक कहते हैं। अज्ञानचेतना । सा द्विधा-कर्मचेतना कर्मफलचेतना कर्मद्रव्यपुद्गलपरिवर्तन-१. एकस्मिन् समये च । तत्र ज्ञानादन्यत्रेदमहं करोमीति चेतनं कर्मचे. एकेन जीवेन अष्टविधकर्मभावेन पुदगला ये गृहीताः तना। (समयप्रा. अमृत. व. ४१७); तत्र ज्ञाना- समयाधिकामावलिकामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु दन्यत्रेदमहं करोमीति चेतनं कर्मचेतना । (समयप्रा. निर्जीर्णाः, पूर्वोक्तेनैव क्रमेण त एव तेनैव प्रकारेण अमृत. वृ. ४१८)। ४. कर्मचेतना कोऽर्थः इति तस्य जीवस्य कर्मभावमापद्यन्ते यावत्तावत्कर्मद्रव्यचेत्-मदीयं कर्म मया कृतं कर्मोत्याद्यज्ञानभावेन- परिवर्तनम् । उक्तं च-सव्वे वि पुग्गला खलु ईहापूर्वकमिष्टानिष्टरूपेण निरुपरागशुद्धात्मानु- कमसो भुत्तुझिया य जीवेण । असई अणंतखुत्तो भूतिच्युतस्य मनोवचनकायव्यापारकरणं यत् सा पुग्गलपरियट्टसंसारे॥ (स. सि. २-१०, भ. प्रा. बन्धकारणभूता कर्मचेतना भण्यते । (समयप्रा. जय. विजयो. १७७३; त. वृत्ति श्रुत. २-१०)। २. कर्मवृ. ४१८)। ५. अन्ये तु प्रकृष्टतरमोहमलीमसे- द्रव्यपरिवर्तन मुच्यते-एकस्मिन् समये जीवेनैकेनानापि प्रकृष्टज्ञानावरणमुद्रितानुभावेन चेतकस्वभावेन ष्टविधकर्मभावेन ये पुदगला गृहीताः समयाधिकामनाग्वीर्यान्तरायक्षयोपशमासादितकार्यकारणसाम - मावलिकामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीर्णास्ततो
ाः सुख-दुःखानुरूपकर्मफलानुभवनसंबलितमपि गृहीतानगृहीतान् मिश्राननन्तवारानतीत्य त एव कार्य मेव प्राधान्येन चेतयन्ते । (पंचा. का. अमृत. व. कर्मस्कन्धास्तेनैव विधिना तस्य जीवस्य कर्मभावमा३८); एक्को कज्जं तु-अथ पुनरेकस्तेनैव चेतक- पद्यन्ते यावत्तावत्कर्मद्रव्यपरिवर्तनमिति । (मूला. व. भावेनोपलब्धसामर्थ्य नेहापूर्वकष्टानिष्टविकल्परूपं कर्म ८-१४)। ३. कर्मपुद्गलपरिवर्तनमुच्यते एकस्मिन् कार्य तु वेदयति अनुभवति । (पंचा. का. ज. व.३८)। समये केनचिज्जीबेन अष्टविधकर्मभावेन ये गृहीताः २ अपने स्वभावभूत ज्ञान को छोड़कर अन्यत्र- समयाधिकामावलिकामतीत्य द्वितीयादिसमयेष निपर में-'मैं करता है इस प्रकार का जो अनभव ीर्णाः पूर्वोक्त क्रमेणव त एव तेनैव प्रकारेण तस्यैव होता है, इसे कर्मचेतना कहते हैं।
जीवस्य कर्मभावं प्राप्नुवन्ति तावत्कालं कर्मपुद्गलकर्मजा प्रज्ञा-१. उवदेसेण विणा तवविसेसलाहेण परिवर्तन भवति । शेषसर्वविशेषो नोकर्मपरिवर्तनवत् कम्मजा तुरिमा । (ति. प. ४, १०२१)। २. तव- ज्ञातव्यः । (गो. जी. जी. प्र. ५६०)। च्छरणबलेण गुरूवदेसणिरवेवखेणुप्पण्णपण्णा कम्मजा १ एक जीव ने एक समय में पाठ प्रकार के कर्मणाम, प्रोसहसेवाबलेणुप्पण्णपण्णा वा। (धव. पु. रूप से परिणत जिन पुद्गलों को ग्रहण किया, ६, पृ. ८२)। ३. दुश्चरतपश्चरणबलेन गुरूपदेश- तत्पश्चात् एक समय अधिक प्रावलीकाल के मन्तरेण समुत्पन्ना कर्मजा । (चा. सा. पृ. ६७)। पश्चात् द्वितीयादि समयों में उन्हें निर्जीर्ण कर २ गुरु के उपदेश के बिना तपश्चरण के बल से दिया। पुनः अनन्त वार अग्रहीत और अनन्त वार उत्पन्न होने वाली बद्धि को कर्मजा प्रज्ञा कहते हैं। मिश्र पुदगल परमाणों को ग्रहण किया व छोडा अथवा औषधि सेवन के बल से जो प्रज्ञा उत्पन्न तथा मध्य में गृहीत पुद्गलों को अनन्त वार ग्रहण होती है उसे कर्मजा प्रज्ञा कहते हैं ।
किया व छोड़ा। इस प्रकार गृहीत, अगृहीत और कर्मठ-xxx कर्मठः कर्मशूरः कर्माणि घटते। मिश्र परमाणुओं को अनन्तवार ग्रहण करने के (योगशा. स्वो. विव. १-५५) ।
पश्चात् निर्जीर्ण कर देने पर उसी जीव के जब वे जो कार्य करने में शूर हो उसे कर्मठ कहते हैं। ही कर्मपुद्गल पूर्वोक्त प्रकार से कर्मरूपता को
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्मद्रव्यभाव] ३२१, जैन-लक्षणावली
कर्मफलचेतना प्राप्त होते हैं तब इतने काल में उसका कर्मद्रव्य- तच्च मूलोत्तरोत्तर प्रकृतिभेदभिन्नं बहुविकल्पबन्धोपरिवर्तन पूरा होता है।
दयोदीरणसत्त्वाद्यवस्थं ज्ञानावरणादिकर्मस्वरूपं समकर्मद्रव्यभाव-कम्मदव्वभावो णाणावरणादिदव्व- वधानेर्यापथतपस्याधाकर्मादि वर्णयति। (गो. जी. कम्माणं अण्णाणादिसमुप्पायणसत्ती । (धव. पु. १२, जी. प्र. टी. ३६६)। ८. कर्मबन्धोदयोपशमोदीरणा
निर्जराकथकमशीतिलक्षाधिककोटिपदप्रमाणं कर्मज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों में अज्ञानादि उत्पन्न करने प्रवादपूर्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)। की जो शक्ति होती है उसे तव्यतिरिक्त कर्मद्रव्य
कर्म को बन्ध, उदय, उपशम एवं भाव कहते हैं।
निर्जरा रूप अवस्थाविशेषों का, अनुभव व प्रदेशों कर्मद्रव्यसंसार-कर्म द्रव्यसंसारो ज्ञानावरणादि- के आधारों का तथा जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट विषयः । (चा. सा. पृ. ८०)।
स्थिति का निर्देश किया जाता है उसे कर्मप्रवादपूर्व ज्ञानावरणादिरूप पाठों कर्मों के पुद्गल परमाणों कहते हैं। को कर्मद्रव्यसंसार कहते हैं।
कर्मफलचेतना-१. वेदंतो कम्मफलं सुहिदो दुहिदो कर्मनिषेक -देखो कर्मदलिकनिषेक ।
दु हवदि जो चेदा। सो तं पुणो वि बंधदि बीयं कर्मनारक-कम्मणेरइयो णाम णिरयगदिसहगद- दुक्खस्स अट्टविहं ।। (समयप्रा. ४१९) । २. कम्माणं कम्मदव्वसमूहो। (घव. पु. ७, पृ. ३०) ।। फलमेक्कोXXX। चेदयदि Xxx॥ (पंचा. नरकगति के साथ आये हए कर्मद्रव्य के समह को का. ३८)। ३. ज्ञानादन्यत्रेद वेदयेऽहमिति चेतनं कर्मकर्मनारक कहते हैं।
फलचेतना। (समयप्रा. अमृत. टी. ४१७); एके कर्मपुरुष-कर्म अनुष्ठानम्, तत्प्रधानः पुरुषः कर्म- हि चेतयितारः प्रकृष्टत रमोहमलीमसेन प्रकृष्टतरज्ञापुरुषः कर्मकरादिकः । (सूत्रकृ. शी. वृ. ४, १, ५७)। । नावरणमुद्रितानुभावेन चेतकस्वभावेन प्रकृष्टतरवीअनुष्ठान-प्रधान कर्मयोगी पुरुष को कर्मपुरुष कहते हैं। यन्ति रायावसादितकार्य-कारणसामर्थ्याः सुख-दुःखरूपं कर्मप्रवाद -१.बंधोदयोपशमनिर्जरापर्याया अनुभव- कर्मफलमेव प्राधान्येन चेतयन्ते । (पंचा. का. अमृत. प्रदेशाधिकरणानि स्थितिश्च जघन्य-मध्यमोत्कृष्टा व. ३८); निर्मलशुद्धात्मानुभूत्यभावोपाजितप्रकृष्टयत्र निर्दिश्यते तत्कर्मप्रवादः। (त. वा. १,२०, १२, तरमोहमलीसेन चेतक भावेन प्रच्छादितसामर्थ्यः सन्नेपृ. ७६; धव. पु. ६, पृ. २२२)। २. कम्मपवाद को जीवराशि: कर्मफलं वेदयति । (पंचा. का. जय.व. णाम पुवं वीसह वत्थूणं २० चत्तारिसयपाहुडाणं ३८)। ४. उदयागतं कर्मफलं वेदयन् शुद्धात्मस्वरूप४०० एगकोडि-असीदिलक्खपदेहि १८००००००। मचेतयन् मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयनिमित्तन यः सुखिअट्टविहं कम्मं वण्णेदि । (घव. पु. १, पृ. १२१); तो दुःखितो वा भवति स जीव: पुनरपि तदष्टविध ३. अथवा ईर्यापथकर्मादिसप्तकर्माणि यत्र निर्दिश्यन्ते कर्म वध्नाति । कथंभूतम् ? बीजं कारणम् । तत्कर्मप्रवादम् । (धव. पु. ६, पृ. २२२)। ४. कम्म- कस्य ? दुःखस्य । इत्येकगाथया कर्मफलचेतना पवादो समोदाणिरियावहकिरियातवाहाकम्माणं व्याख्याता । कर्मफल चेतना कोऽर्थः इति चेत् वण्णणं कुणइ। (जयध. पु. १, पृ १४२)। ५. स्वस्थभावरहितेनाज्ञान भावेन यथासम्भवं व्यक्ताअशीतिलककोटिपदं कर्मणां बन्धोदयोदीरणोपशम- व्यक्तस्वभावेनेहापूर्वकमिष्टानिष्टविकल्परूपेण हर्षनिर्जरादिप्ररूपकं कर्मप्रवादम् १८००००००। (श्रत- विषादमयं सुख-दुःखानुभवनं यत् सा बन्धकारणभूता भक्ति टी. १२, प. १७६)। ६. कर्मप्रवादमष्टमं कर्मफलचेतना भण्यते । (समयप्रा. जय. वृ. ४१६)। ज्ञानावरणादिकं कर्म प्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेशादि- ३ अतिशय बलवान् वीर्यान्तराय के निमित्त से जिन भिर्भदैरन्यैश्चोत्तरोत्तरभेदैर्यत्र वर्ण्यते तत्कर्मप्रवादम. जीवों (स्थावर) के कार्य करने का सामर्थ्य विनष्ट तत्पदपरिमाणमेका पदकोटी अशीतिश्च सहस्राणीति। हो रहा है वे अतिशय तीव्र ज्ञानावरण के उदय से (समवा. अभय. वृ. १४७, पृ. १३१)। ७. कर्मणः प्रभावहीन होकर जो चेतक स्वभाव मोह की प्रवादः प्ररूपणमस्मिन्निति कर्मप्रवादमष्ट में पूर्वम। उत्कटता से मलिन हो रहा है ऐसे चेतक स्वभाव से
ल. ४१
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्मभावचेतना]
३२२, जैन-लक्षणावली
[कर्मयोग
प्रमुखतया एक मात्र सुख-दुःखरूप कर्मफल का ही युक्तिमान् । (त. वा. ३, ३७, २-३) । ३. कृष्याजो अनुभव करते हैं, वह कर्मफलचेतना कहलाती दिकर्मप्रधाना भूमिः कर्मभूमिः । (स्थाना. ३, १,
कर्मभावचेतना- १. वेदंतो कम्मफलं अप्पाणं जो १ जहां पर (भरत, ऐरावत व विदेह क्षेत्रोंमें) सातवें दु कुणदि कम्मफलं । सो तं पुणो वि बंधदि बीयं नरक में ले जाने योग्य अशुभ कर्म का तथा सर्वार्थदुक्खस्स अट्टविहं ।। वेदंतो कम्मफलं मये कदं जो सिद्धि प्रादि प्रापक शभ कर्म का उपार्जन सम्भव मुणदि कम्मफलं । सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्ख- है तथा जहां पर असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, विद्या, स्स अट्टविहं ।। (समयप्रा. ४१७-४१८) । २. उद- और शिल्परूप षटकों के साथ पात्रदानादि भी यागतं शुभाशुभं कर्म वेदयन्ननु भवन् सन्नज्ञानिजीवः देखे जाते हैं उसे कर्मभूमि कहते हैं। स्वस्थभावाद् भ्रप्टो भूत्वा मदीयं कर्मेति भणति, कर्ममङ्गलम् -कर्ममङ्गलं दर्शनविशुद्धयादिषोडशमया कृतं कर्मेति च भणति; स जीवः पुनरपि धाप्रविभक्ततीर्थकरनामकर्मकारणीवप्रदेशनिबद्धतदष्टविधं कर्म बध्नाति । कथंभूतं ? बीजं कार- तीर्थ करनामकर्म माङ्गल्यनिबन्धनत्वान्मङ्गलम् । णम् । कस्य दुःखस्य । इति गाथाद्वयेनाज्ञानारूपा (धव. पु. १. पृ. २६) । कर्मभावचेतना व्याख्याता। (समयप्रा. जय.व. ४१७, दर्शनविशद्धि प्रादि सोलह कारणों के द्वारा जो ४१८)।
तीर्थङ्कर नामकर्म जीव के प्रदेशों से सम्बद्ध होता उदयप्राप्त शुभ-अशुभ कर्म का अनुभवन करता हुआ है वह चूंकि मांगल्य का कारण है, अतः उसे कर्मअज्ञानी जीव स्वस्थभाव से भ्रष्ट होकर जो यह मङ्गल कहा जाता है। विचार करता है कि यह कर्म मेरा है व मैंने उसे कर्ममास-१.xxx तीसं दिणा मासो ॥ किया है, इसे कर्मभावचेतना कहते हैं। इस प्रज्ञान- (ज्योतिष्क. ३०)। २. सावनमासस्त्रिशदहोरात्र रूप कर्मभावचेतना का फल यह होता है कि वह एव, एष च कर्ममास ऋतुमासश्चोच्यते । (त. भा. फिर से भी दुःख के कारणभूत उस पाठ प्रकार के सिद्ध. बृ. ४-१५)। ३. उउ इति ऋतुः, स च कर्म को वांधता है।
किल लोकरूढया षष्ठ्यहोरात्रप्रमाणो द्विमासात्मकः, कर्मभूमि-१. अथ कथं कर्मभूमित्वम् ? शुभाशुभ- तस्यार्धमपि मासोऽवय वे समुदायोपचारात् ऋतुरेव, कर्मणोऽधिष्ठानत्वात् । नन सर्वलोकत्रितयं कर्मणो- अर्थात् परिपूर्णत्रिशदहोरात्रप्रमाणः एष एव ऋतुऽधिष्ठानमेव ? तत एव प्रकर्षगतिविज्ञास्यते प्रकर्षेण मासः कर्ममास इति वा सावन मास इति वा व्यवय। कर्मणोऽधिष्ठानमिति । तत्राशुभकर्मणस्तावत् ह्रियते । उक्तं च--- एस चेव उउमासो कम्ममासो सप्तमनरकप्रापणस्य भरतादिष्वे बार्जनम, शभस्य च सावनमासो भन्नइ इति । (व्यव. मलय. वृ. २, सर्वार्थसिद्धयादिस्थानविशेषप्रापणस्य कर्मणः उपा- १५)। ४. त्रिंशदहोरात्रा एतावत्कर्म मासपरिमाणम् । जनं तत्रैव, कृष्यादिलक्षणस्य पड्विधस्य कर्मणः (सूर्यप्र. मलय. वृ. १०,२०,५७); त्रिंशताऽहोरात्रपात्रदानादिसहितस्य तत्रैवारम्भात् कर्मभूमिव्यपदेशो रेक: कर्ममासः । (सूर्यप्र. मलय. वृ. १२, ७५, पृ. वेदितव्यः। (स. सि. ३-३७) । २.xxx २१६)। यतः प्रकृष्टं शुभकर्म सर्वार्थसिद्धिसौख्यप्रापक तीर्थ- १ तीस दिन-रात का एक कर्ममास होता है। करत्वमद्धिनिर्वर्तकं वा असाधारणम् । अशभकर्म कर्मयोग-१. सर्वशरीरप्ररोहणबीजभूतं कार्मण च प्रकृष्टं कलङ्कलपृथिवीमहादुःखप्रापकम् अतिष्ठाननरकगमनं च कर्मभूमिष्वेवोपाय॑ते, द्रव्य-भव-क्षेत्र- निमित्त प्रात्मप्रदेशपरिस्पन्दः । कर्मणा कृतो योगः काल-भावापेक्षत्वात् कर्मबन्धस्य । सकलसंसार- कर्मयोगः । (स. सि. २-२५)। २. कर्मेति सर्व[निवारण] कारणनिर्जराकर्म चात्रैव प्रवर्तते । ततो शरीरप्ररोहणसमर्थ कार्मणम् । सर्वाणि शरीराणि भरतादिष्वेव कर्मभूमय इति युक्तो व्यपदेशः । षट्- यतः प्ररोहन्ति तद्बीजभूतं कार्मणं शरीरं कर्मत्यूकर्मदर्शनाच्च । षण्णां कर्मणां असि-कृषि-मपि-विद्या- च्यते । योगः प्रात्मप्रदेशपरिस्पन्दः । कायादिवर्गणावणिक शिल्पानामनैव दर्शनाच्च कर्मभूमिव्यपदेशः निमित्त प्रात्मप्रदेशपरिस्पन्द: योग इत्याख्यायते ।
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्मवर्गणा]
३२३, जैन-लक्षणावलो
[कर्मसंवत्सर
कर्मनिमित्तो योगः कर्मयोगः । तस्यां विग्रहगतौ ग्गस्स ततो जा संजायति जा य कज्जाणं ॥ कार्मणशरीरकृतो योगो भवति यत्कृतं कर्मादानम् । (विशेषा. भा. ३६३२-३६) । ३. अनाचार्यकं कर्म यदुपपादिता चाऽमनस्कस्यापि विग्रहार्था गतिः । xxx कादाचित्कं वा कर्म XXX कर्मजा (त. वा. २, २५, ३-४)। ३. कर्म कार्मणं शरी- इति, कर्मणो जा कर्मजा। (प्राव. हरि. व. ६३८, रम्, कमैव योगः कर्मयोगः। कार्मणरीरालम्बनात्म- पृ. ४१५) । ४. कर्मजा पुनः धीः साधुकारफला प्रदेशपरिस्पन्दरूपा क्रियेत्यर्थः । (त. श्लो. २-२५)। अनाचार्यजं कर्म, तत्र पुनः पुनरुपयोगात् प्रतिक्षण४. जीवस्य विग्रहगतौ कर्मयोगं जिनेश्वराः । प्राहर्दे- मभ्यस्यतस्तादशी बुद्धिरुत्पद्यते येन प्रथम हान्तरप्राप्तिः कर्म ग्रहणकारणम् ।। (त. सा. २-६७)। शायी पाश्चात्यं कर्मोपजायते । (त. भा. हरि.. ५. निखिल शरीराङकुरबीजभूतं कर्मणां वपुः कर्म ६-६)। इति कथ्यते । Xxx वाङ्मनस्कायवर्गणाकारण- १ जो बद्धि उपयोग की स्थिरता से कर्भ (क्रिया या भूतं जीवप्रदेशपरिस्पन्दनं योग: कथ्यते, कर्मणा कार्य) की यथार्थता को जानती है, कर्म के अभ्यास विहितो योगः स कर्मयोगः। स कर्मयोगो विग्रहगता- व विचार से विस्तार को प्राप्त होती है, और साधुवुत्तरशरीरग्रहणे भवति । (त. वृत्ति श्रुत. २-२५)। कार (प्रशंसा के साथ फलवती-प्राथिक लाभ १ कर्म से अभिप्राय अन्य सब शरीरों के कारणभूत आदि रूप फल से संयुक्त-होती है वह कर्मसमुत्था कार्मण शरीर का है; वचन, मन और काय वर्ग- -कर्मजा-बुद्धि कहलाती है । उसके स्पष्टीकरण णाओं के निमित्त से जो प्रात्मप्रदेशों में परिस्पन्दन के लिए हैरण्यिक ( सुनार ), कर्षक, कौलिक (हलन-चलन) होता है उसका नाम योग होता है; (जुलाहा), दवी (परोसने वाली), मौक्तिक, अतः उक्त कार्मणशरीरभत कर्म के द्वारा जो योग- (मणिकार), घृतविक्रयी, प्लवक (बन्दर), तुन्नाग प्रात्मप्रदेशपरिस्पन्दन-होता है उसे कर्मयोग -फटे वस्त्रादि ठीक करने वाला, बढ़ई, प्रापिक, जानना चाहिए।
घटकार और चित्रकार, ये बारह उदाहरण दिपे कर्मवर्गणा (कम्मवग्गणा)-कम्मवग्गणा णाम गये हैं। अट्टकम्मक्खंधवियप्पा । (धव. पु. १४, पृ. ५२) । कर्मसंवत्सर-१. संवच्छरो उ बारस मासो पक्खा आठ कर्मस्कन्धों के भेदभूत वर्गणा का नाम कर्म- य ते चउव्वीसं । तिन्नेव सया सट्ठा हवंति राइंदियावर्गणा है।
णं तु ।। इय एस कमो भणियो नियमा संवच्छरस्स कर्मसमुत्था बुद्धि - देखो कर्मजा बुद्धि । १. उव- कम्मस्स । कम्मो त्ति सावणो त्ति य उउ त्ति य
टुसारा कम्मपसंगपरिघोलणविसाला । साह- तस्स नामाणि ।। (ज्योतिष्क. २, ३१-३२)। २. कारफलवई कम्मसमुत्था हवइ वृद्धी । हेरण्णिए १ एवं विधद्वादशमासनिष्पन्नः सावनसंवत्सरः, स चायं करिसए २ कोलिन ३ डोवे अ४ मूत्ति ५ घय ६ त्रीणिशतान्यह्रां षष्टयधिकानि (३६०) । (त. पवए ७ । तुन्नाए ८ वड्ढइय ६ पूयइ १० घड ११ भा. सिद्ध. व. ४-१५)। ३. कर्म-लौकिको व्यवचित्तकारे अ १२ ॥ (नन्दी. गा. ६७-६८, पृ. हारः, तत्प्रधानः संवत्सरः कर्मसंवत्सरः, लोको हि १७४, आव. नि. ९४६-४७, उपदेशपद ४६-४७)। प्रायः सर्वोऽप्यनेनैव संवत्सरेण व्यवहरति तथा चैतद्२.. उवयोगोऽभिनिवेसो मणसो सारो य कम्म- गतं मासमधिकृत्यान्यत्रोक्तम्-कम्मो निरंसयाए सम्भावो । कम्मो णिच्चब्भासो कम्मपसंगो हि मासो व्यवहारकारगो लाए (?) । सेसाप्रो संसयाए तप्पभवो ।। परिघोलणं वियारो विन्नासो वा तद- ववहारे दुक्करो घेत्तुं । (सूर्यप्र. मलय. वृ. १०, २०, ण्णहा वहुहा । साहुकयं सुठ्ठ त्ति य साहुक्कारो पसं. ५७, पृ. १६६); कर्मसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि सत्ति । चित्तोवोगादाणा हि दिसारत्ति दिद. शतानि षष्टयधिकानि रात्रिदिवानाम-तिन्नि परमत्था। कम्मपसंगपरिघोलणेहि सुवियारवित्थि- सया पुण सट्टा कम्मो संवच्छरो होइ। (सूर्यप्र. ण्णा ।। वि उसे हितो संसंसुट्ठ कयं साहुकारो अहवा। मलय. वृ. १०, २०, ५७); विसमं पवालिणो परिसेसं पि फलं तेण उ तोसे तप्फलवती तो सा ।। जा णमंति अणुऊसु दिति पुप्फफलं । वासं न सम्म दीहकालपुव्वावरचितणनो भवे सयं मणसा। एग- वासइ तमाह संवच्छरं कम्मं ॥ यस्मिन् संवत्सरे
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्मसिद्ध ]
वनस्पतयो विषमं विषमकालं प्रवालिनः परिणमन्ति - प्रवालः पल्लवाङ्कुरस्तद्युक्ततया परिण मन्ति तथा नृत्स्व [ श्रनृतुष्व ] स्व-स्वऋत्वभावेऽपि पुष्पं फलं च ददाति प्रयच्छति, तथा वर्ष पानीयं न सम्यक् यस्मिन् संवत्सरे मेघो वर्षति तमाहुर्महर्षयः संवत्सरं कम्मं, कर्मसंवत्सरमित्यर्थः । ( सूर्य प्र. मलय. वृ. १०, २०, ५८, पृ. १७२) । १ बारह म.स, चौबीस पक्ष या तीन सौ साठ दिन रात प्रमाण काल को कर्मसंवत्सर कहते हैं । ३ जिस वर्ष में वृक्षों के पत्र, पुष्प और फल अपनी ऋतु के पूर्व ही श्री जावें या बिना ऋतु के भी श्रा जावें, और जिस वर्ष मेघ समय पर जलवर्षा न करें, उसे भी कर्मसंवत्सर कहते हैं । कर्मसिद्ध–कम्मं जमणायरिश्रवएस सिप्पमण्णा ऽभिहि । किसिवाणिज्जाईयं घड-लोहाराइभेयं च ॥ जो सव्वकम्मकुसलो जो जत्थ सुपरिनिट्ठियो होइ । सज्झगिरिसिद्धश्रो विवस कम्मसिद्ध त्तिविन्नेो ॥ ( श्राव. नि. ६२८ - २६) । जो सह्यगिरिसिद्धक के समान अनाचार्योपदिष्ट असि, मषि, कृषि आदि कर्मों में कुशल है उसे कर्मसिद्ध कहते हैं ।
कर्म स्थिति - १ X XX सव्वकम्माणं ठिदीप्रो
पति, किंतु एकस्सेव कम्मट्ठदी घेप्पदि । कुदो ? गुरुवदेसादो । तत्थ वि दंसणमोहणीयस्स चेव सत्तरिसागरोपमकोडा कोडिमेत्ताए गहणं कादव्वं, पाहण्णियादो । कुदो पहाणत्त ? संगहिदासेस क्रम्मद्विदीए । ( धव. पु. ४, पृ. ४०३); कम्मट्ठदित्ति वृत्ते सत्तरिसागरोपमकोडाकोडिमेत्ता (हिंदी)
घेत्तव्वा । (घव. पु. ७, पृ. १४५ ) । कर्मों में दर्शनमोहनीय की जो सत्तर कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण सर्वोत्कृष्ट स्थिति है, उसी का 'कर्मस्थिति से ग्रहण होता है, अन्य सब कर्मस्थितियों का नहीं । कर्मस्थित्यनुयोगद्वार - कम्मद्विदित्ति प्रणियोगद्दारं सव्वकम्माणं सत्तिकम्मट्ठदिमुक्कड्डणोकडुणदिदि च परुवेदि । ( धव. पु. ६, पृ. २३६); कम्मट्ठदित्ति प्रणियोगद्दारे एत्थ महावाचया अज्जदिणी संतकम्मं करेंति, महावाचया द्विदिसंतकम्मं पयाति । ( धव. पु. १६, पृ. ५७७ ) । जिस अधिकार में सब कर्मों को शक्तिस्थिति
३२४, जैन-लक्षणावली
[ कर्मेन्द्रिय और उत्कर्षण - श्रपकर्षणजनित स्थिति की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम कर्मस्थिति है । यह महाकर्म प्रकृतिप्राभृत के कृति - वेदनादि २४ अनुयोगद्वारों में से २२वां अनुयोगद्वार है ।
कर्महानि - कर्महानिर्मिथ्यात्वादीनां सम्यक्त्वप्रतिबन्धककर्मणां यथासम्भवमुपशमः क्षयोपशमः क्षयो वा । (सा. ध. स्व. टी. १-६ ) । सम्यक्त्व के रोकने वाले मिथ्यात्वादिक कर्मों का जो यथासम्भव उपशम, क्षय श्रथवा क्षयोपशम होता है; इसका नाम कर्महानि है ।
कर्महुङ्गित - कर्महुङ्गितः कृतब्रह्महत्यादिमहापातक: । (श्र. दि. पृ. ७४) ।
ब्रह्महत्या आदि महापापों के करने वाले पुरुष को कर्महुङ्गित कहते हैं ।
कर्मार्य - - १. कर्मार्या यजन- याजनाध्ययनाध्यापनप्रयोग कृषि-लिपि-वाणिज्य-योनिपोषणवृत्तयः । (त. भा. ३ - १५ ) । २. कर्मार्यास्त्रेधा - सावद्यकर्मार्या अल्पसावद्यकर्मार्या असावद्यकर्मार्याश्चेति । सावद्यकर्मार्याः षोढा - असि मषी - कृषि विद्या-शिल्प वणिक्कर्मभेदात् । X X X षडप्येते प्रविरतिप्रवणत्वात् सावद्यकर्मार्याः । अल्पसावद्यकर्मार्याः श्रावकाः श्राविकाश्च विरत्यविरतिपरिणतत्वात् । श्रसावद्यकर्मार्याः संयताः, कर्मक्षयार्थोद्यतविरतिपरिणतत्वात् । (त. वा. ३, ३६, २) । ३. यजनैर्याजनः शास्त्राध्ययनाध्यापनैरपि । प्रयोगैर्वाप्तियावृत्तिमन्त कर्मार्यकाः स्मृताः ॥ ( त्रि.ष. पु. च. २, ३, ६७६ ) ।
१ यजनयाजन, अध्ययन-अध्यापन, प्रयोग, कृषि, लेखन, व्यापार और योनिपोषण कर्मों से श्राजीविका करने वालों को कर्मा कहते हैं । २ सावद्यकर्मार्य, अल्पसावद्यकर्मार्य श्रौर असावद्यकर्मार्य के भेद से कर्मा तीन प्रकार हैं। सावद्यकर्मार्थ - श्रसि-मषी आदि छह कर्मों से आजीविका करने वाले । अल्प सावद्यकर्मा - देशविरति के परिपालक श्रावक श्रौर श्राविका । श्रसाद्य कर्मार्थ - सर्व कर्मक्षय में उद्यत संयत (महाव्रती ) ।
कर्मेन्द्रिय - x x x कर्मेन्द्रियाणि वागादीनि वचनादिक्रियानिमित्तानि सन्ति XXX उपयोगसाधनेषु हीन्द्रियव्यवदेशो युक्तो न क्रियासाधनेषु । (त. वा. २, १५, ५-६) ।
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्याथिक] ३२५, जैन-लक्षणावलो
[कलहवा जो मात्र वचनादिक्रिया की कारण हैं उन वचन, कार करता है उसे कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध पर्यायापाणि, पाद, पायु और उपस्थ को कर्मेन्द्रिय कहा थिकनय कहा जाता है । जाता है।
कर्वट-१.xxx गिरिवेढिदं च कव्वडयं ॥ कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिक- १. कम्माणं (ति. प. ४-१३९८) । २. पर्वतावरुद्धं कव्वडं मझगयं जीवं जो गहइ सिद्धसंकासं । भण्णइ सो णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३३५)। ३. कव्वडणासद्धणो खतु कम्मोवाहिणिरवेक्खो।। (ल. न.च. माणितटा धरणीधरपरिरा मित्रा। १८; ब. न. च. १९१) । २. कर्मोपाधिनिरपेक्षः दी. प. ७-५०)। ४. कर्वट कुनगरम् । (प्रश्नव्या. शद्धद्रव्याथिको यथा संसारी जीवः सिद्धसदकशद्धा- अभय. व. १७५: प्रौषपा. अभय. व. ३२, प.७४)। त्मा। (पालापप. पृ. १५८)।
१ पर्वत से वेष्टित ग्राम को कर्वट कहा जाता है । २ जो द्रव्याथिक नय संसारी जीव को कर्मरूप ४ कृत्सित नगर का नाम कर्वट है। उपाधि से रहित सिद्धसमान शुद्ध ग्रहण करता है
कर्वटकथा-कटं सर्वत्र पर्वतेन वेष्टितो देशः, वह कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्याथिक नय कह
__कथात्र सम्बध्यते कर्वटकथा। (मला.व.६-८६)। लाता है।
जो देश सब ओर पर्वत से घिरा हुआ हो उसे कर्वट कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्ध पर्यायाथिक--१. देहीणं और उससे सम्बद्ध कथा को कवटकथा कहा पज्जाया सुद्धा सिद्धाण भणइ सारित्था। जो इह जाता है। अणिच्च सुद्धो पज्जयगाही हवे स णो ॥ (ल. न. कर्ष (कंस)-१. अर्धतृतीयघरणानि सुवर्णः, स च च. ३१; बृ. न. च. २०४) । २. कर्मोपाधिनिर
कंसः । (त. वा. ३, ३८, ५)। २. अड्ढाइज्जा पेक्षस्वभावो नित्यशद्धपर्यायाथिको यथा-सिद्ध
धरणा य सुवण्णो सो य पुण करिसो।। (ज्योतिष्क. पर्यायसदृशाः शुद्धाः संसारिणां पर्यायाः । (पालापप.
१-१८)। ३. अर्धतृतीयानि धरणान्येकः सुवर्णः, स पृ. १५९)।
एव चैकः सुवर्णः कर्ष इत्युच्यते । (ज्योतिष्क. मलय. २ जो पर्यायाथिक नय संसारी जीवों की अवस्थाओं
वृ. १-१८)। को मिद्ध अवस्था के समान स्वीकार करता है उसे
अढ़ाई धरण (मापविशेष) प्रमाण एक सुवर्ण होता कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्ध पर्यायाथिक नय कहते हैं। है। इसको कर्ष भी कहा जाता है। कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक-१. भावेसु .
__ कर्षक- xxx कर्षकः कर्षणात्तथा । (पाच. राययादी सव्वे जीवंमि जो दु जपेदि। सो हु ।
६-२०६)। असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहिसावेक्खो ।। (ल. न. च.
जो खेत को जोतता व बोता है वह कर्षक (कृषक) २१, ब. न. च. १६४)। २. कर्मोपाधिसापेक्षोऽशद्धद्रव्याथिको यथा-क्रोधादिकर्मजभाव प्रात्मा।
__ कहलाता है। (पालापप. प. १५८)।
कलह-परसन्तापजननं कलहः । (धव. पु. १२, १जो जीव में कर्मजनित राग-द्वेषादि भावों को पृ. २८५) । बतलाता है उसे कर्मोपाधिसापेक्ष प्रशद्ध द्रव्याथिक- दूसरों को सन्ताप उत्पन्न करने का नाम कलह है। नय कहते हैं।
कलहप्राभूत-कलहणिमित्तगद्दह-जर-खेटयादिदम्ब कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध पर्यायाथिकनय-१. मुवयारेण कलहो । तस्स विसज्जणं कलहपाहुडं । भणइ अणिच्चा सुद्धा चउग इजीवाण पज्जया जो (जयध. पु. १, पृ. ३२५)। हु। होइ विभाव अणिच्चो असुद्धग्रो पज्जयात्थ- कलह के कारणभूत गधा, जीर्ण वस्तु और खेट णमो ।। (ल. न. च. ३२, बु. न. च. २०५)। (विष) प्रादि द्रव्यों को उपचार से कलह और २. कर्मोपाधिसापेक्षस्वभावोऽनित्याशुद्धपर्यायाथिको उसके विसर्जन (भेजने) को कलहप्राभूत कहा यथा-संसारिणामुत्पत्ति-मरणे स्तः । (पालापप. जाता है। पृ. १५६)।
कलहवाक्-परोप्परविरोहहेदुकलवाया। (अंग२ जो संसारी जीवों की उत्पत्ति व मरण को स्वी- प. २६२)।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
कलहकर ]
परस्पर विरोध के कारणभूत वचन को कलहवाक् कहा जाता है ।
कलहकर - तत्र कलहो वाचिकं भण्डनम्, तत्करणशीलो ऽप्रशस्तक्रोधाद्योदयिक भाववशतः कलहकरः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १०८६, पृ. ५६७) । वाचनिक लड़ाई का नाम कलह है, निन्द्य क्रोधादि के वश होकर जो स्वभावतः इस कलह का करने वाला होता है वह कलहकर कहलाता है । कला - १. त्रिशत्काष्ठा कला । ( धव. पु. ६, पृ. ६३ ) । २. चित्तकम्म पत्तच्छेज्जादी कला णाम । (धव. पु. १३. पू. ३६४ ) । ३. त्रिशत्काष्ठाभि: कला (पंचा. का. ज. वृ. २५) । ४. षोडशाभिः काष्ठाभिः कला । (नि. सा. वृ. ३१) । १ तीस काष्ठा (नेत्रनिमेषों) की एक कला होती है । २ चित्रकर्म श्रौर पत्रछेदन प्रादि को कला कहा जाता है ।
कल्क -- कल्को नाम प्रसूत्यादिषु रोगेषु क्षारपातनमथवात्मनः शरीरस्य देशतः सर्वतो वा लोधादिभिरुद्वर्तनम् । ( व्यव. मलय. वृ. ३, पृ. ११७) । प्रसूति आदि रोगों में भस्म या नमक को गिराना श्रथवा अपने शरीर के थोड़े से भाग में या पूरे ही शरीर में लोध्र (लोभान) श्रादि द्रव्यों से उबटन करने को कल्क कहते हैं । कल्क कुरुक -- कक्ककुरुया य माया नियडीए डंभणं ति जं भणियं । ( प्रव. सारो. ११५) ।
३२६, जैन-लक्षणावलो
माया व्यवहार का नाम कल्ककुरुक है । श्रभिप्राय यह कि शठता से दूसरों को जो ठगा जाता है या धोखा दिया जाता है उसे कल्ककुरुक कहते हैं । कल्प (स्वर्ग) - - १. प्राग्ग्रैवेयकेभ्यः कल्पाः । (त. सू. ४-२४) । २. प्राग् ग्रैवेयकेभ्यः कल्पाः भवन्ति, सौधर्मादय आरणाच्युतपर्यन्ता इत्यर्थः । ( त. भा. ४-२४)। ३. इन्द्रादयः प्रकारा वक्ष्यमाणा दश एषु कल्प्यन्ते इति कल्प: । (त. वा. ४, ३, ३) । ४. इन्द्रादिदशतया कल्पनात् कल्पाः । सौधर्मादयोऽच्युतान्ताः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ४-१८ ) ; इन्द्रादिदशकल्पनात्मकत्वात् कल्पाः सौधर्मादयोऽच्युतपर्यवसाना इति । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ४-२४) ।
२ ग्रैवेयकों से पहिले, श्रर्थात् सौधर्म से लेकर अच्युत पर्यन्त, कल्प कहे जाते हैं । ३ इन्द्र- सामानिक प्रादि दश भेदों की जहाँ तक - सौधर्म से
कल्पना
लेकर अच्युत पर्यन्त-- कल्पना है वहाँ तक देवविमानों की कल्प संज्ञा है ।
कल्प ( श्रनुष्ठेय ) - या कुशलेन परिणामेन बाह्यवस्तुप्रतिसेवनासा कल्पः । ( व्यव. मलय. वृ. १, ३६, पृ. १६) ।
कुशल परिणाम से - विवेकपूर्वक सावधानी के साथ - बाह्य वस्तुओं का जो सेवन किया जाता है, इसका नाम कल्प है ।
कल्प ( काल ) - १ . प्रोसप्पिणि उस्सप्पिणीश्रो दो वि मिलिदाओ कप्पो हवदि । ( धव. पु. ३, पृ. १३९) । २. उत्सर्पिण्यवसर्पिणीनामकाभ्यां द्वाभ्यां कालाभ्यां कल्पः कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ३-२७) ।
१ दश कोडाकोडि सागर प्रमाण श्रवसर्पिणी प्रौर उतना ही उत्सर्पिणी, ये दोनों मिलकर कल्प-काल कहे जाते हैं ।
कल्पद्रुममह - देखो कल्पवृक्षमह । १. दत्त्वा किमिच्छकं दानं सम्राभिर्यः प्रवर्तते । कल्पद्रुममहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः ।। ( म. पु. ३८-३१) । २. कल्पवृक्षोऽथनः प्रार्थितार्थः संतर्प्य चक्रवर्तिनि [तिभिः ] क्रियमाणो महः । (चा. सा. पृ. २१; कार्तिके. टी. ३६१ ) । ३. किमिच्छकेन दानेन जगदाशाः प्रपूर्यः यः । चक्रिभिः क्रियते सोऽर्हद्यज्ञः कल्पद्रुमो मतः ॥ ( सा. ध. २-२८ ) । ४. कल्पदुरिव शेषजगदाशा प्रपूर्यते । चक्रिभित्र पूजायां सा कल्पद्रुमा भिवा ॥ ( भावसं वाम. ५५७) । ५. चत्रिभिः क्रियमाणा या कल्पवृक्ष इतीरिता । ( धर्मFi. 271. E-30) 1
१ याचकों को किमिच्छक उनकी इच्छा के अनुसार - दान देकर चक्रवर्तियों के द्वारा जो पूजा की जाती है उसे कल्पद्रुम या कल्पवृक्ष पूजा कहा जाता है ।
कल्पना - १. कल्पना हि जाति द्रव्य-गुणकियापरिभाषाकृतो वाग्बुद्धिविकल्पः । (त. वा. १, १२, ११) । २. अभिलापसंसर्गयोग्य प्रतिभासा प्रतीतिः कल्पना । (सिद्धिवि. वृ. १-८, पृ. ३७ पं. १ ) ; अभिलापवती प्रतीतिः कल्पना । (सिद्धिवि. टी. १-८, पृ. ३८ पं. ३) । ३. अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्राध्यारोपः कल्पना । ( न्यायकु. १-२, पृ. १५) ।
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
.
कल्पवृक्ष ३२७, जैन-लक्षणावली
[कल्पोपपन्न २ शब्द सम्बन्ध के योग्य प्रतिभास से युक्त प्रती- अहमिन्द्र-इन्द्रादि की कल्पना से रहित हैं। तिका नाम कल्पना है।
कल्पिका-१. या कुशलेन-ज्ञानादिरूपेणकल्पवृक्ष-देखो कल्पद्रुम ।
परिणामेन बाह्यवस्तुप्रतिसेवना सा कल्पः, पदैकदेशे कल्पव्यवहार देखो कल्प्यव्यवहार । यतीनां पदसमुदायोपचारात । कल्प्यः प्रतिषेवणा कल्पिका योग्यसेवनसूचकमयोग्यसेवनप्रायश्चित्तकथकं कल्प- इति भावः । (व्यव. मलय, वृ. १-३६, पृ. १६)। व्यवहारम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)।
२. या पुनः कारण क्रियते सा कल्पिका । (व्यव. जो शास्त्र मनि जनों के लिए योग्य वस्तुओं के सेवन मलय. व. २३८, पृ. १४)। और अयोग्य का सेवन होने पर उसके लिए ज्ञानादिरूप कुशल परिणाम के साथ जो बाह्य वस्तु प्रायश्चित्त का निरूपक है उसका नाम कल्प- का सेवन किया जाता है, इसे कल्पिका कहते हैं। व्यवहार है।
कल्पित-१. कप्पियं नाम जं जस्स असंतेण भावेण कल्पाकल्प-देखो कल्प्याकल्प्य । कालमाश्रित्य दिट्टतो कज्जइ। एत्थ गाहा-जह अम्हे तह तुम्हे यनि-श्रावकाणां योग्यायोग्यनिरूपकं कल्पाकल्पम् । तुभेबि य होहिहा जहा अम्हे। अप्पाहेइ पडतं (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)।
पंडुअपत्तं किसलयाणां ॥ एयं कप्पियं । (दशव.च. जो शास्त्र काल के प्राश्रय से मुनि और श्रावकों के पृ ४०)। २. कल्पितं स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितके लिए योग्य-अयोग्य वस्तुओं की प्ररूपणा करता मुच्यते । (दशवै. हरि. बृ. १-५३, पृ. ३४) । है वह कल्पाकल्प कहलाता है।
जिस वस्तु का वस्तुतः सद्भाव न हो, किन्तु किसी कल्पातीत-१. कल्पानतीताः कल्पातीता:। (स. को समझाने के लिए दृष्टान्त के रूप में कल्पना सि. ४-१७; त. वा. ४-१७)। २. नवप्रैवेयका की गई हो, उसे कल्पित कहते हैं। जैसे-वृक्ष से नवानुदिशा: पञ्चानुत्त राश्च कल्पातीताः, कल्पा- गिरते हुए जीर्ण धवल पत्र नवजात कोमल पत्तों तीतनामकर्मोदये सति कल्पातीतत्वात् तेषामिन्द्रादि- को सन्देश देते हैं कि जैसे हम हैं वैसे तुम भी होदशतयकल्पनाविरहात् सर्वेषामहमिन्द्रत्वात् । (त. तुम भी हमारे समान जीर्ण होकर गिरने वाले हो। श्लो. ४-१७)। ३. विमानोपपन्नका: ग्रेवेयकानुत्तर- (पत्ते आपस में बातचीत नहीं कर सकते, फिर भी लक्षणविमानोत्पन्ना:, कल्पातीता इत्यर्थः । (स्थाना. अभिमान के निराकरणार्थ किसी को उनका कल्पित अभय. वृ. २, १, ७७)। ४. कल्प याचारः, कल्पम- दृष्टान्त दिया गया है।) तीता: अतिक्रान्ताः कल्पातीताः अधस्तनाधस्तन- कल्पोपग-देखो कल्पोपन्न । अवेयका दिनिवासिनः, ते हि सर्वेऽप्यहमिन्द्राः, ततो कल्पोपपन्न-१. कल्पेषुपपन्ना: कल्पोपपन्नाः। भवन्ति कल्पातीताः। (प्रज्ञाप, मलय. व. १-३८, (स. सि. ४-१७)। २. कल्पेषपपन्ना। Xxx पृ. ७०)। ५. तथा यथोक्तरूपात् कल्पादतीता उक्तमेतत्-- इन्द्रादिदशतया कल्पनासद्भावात् कल्पा अपेता: कल्पातीताः । (बृहत्सं. व. २)। ६. कल्पे- इति । (त. बा. ४-१७) । ३. कल्पोपपन्ना इन्द्रादिभ्योऽतीता: अतिक्रान्ताः उपरितनक्षेत्रवतिन: नव- दशतयकल्पनासद्भावात् कल्पोपपन्ननामकर्मोदयवशग्रैवेयकदेवा नवानुदिशामताशनाश्च पंचानुत्तरनिवा- वर्तित्वाच्च । (त. श्लो. ४-१७)। ४. इन्द्रादिदशसिनो निर्जराश्च विप्रकारा अपि अहमिन्द्राः कल्पा- तया कल्पनात् कल्पा: सौधर्मादयोऽच्युतान्ताः, तेषूतीताः कथ्यन्ते । (त. वृत्ति श्रुत. ४-१७)। पपन्ना: कल्पोपपन्ना:। (त. भा. सिद्ध. व.४-१८)। १ जो कल्पों से प्रतीत हैं-इन्द्र-सामानिक प्रादि ५. कल्पोपपन्नका: सौधर्मादिदेवलोकोत्पन्नाः । दस भेदों की कल्पना से रहित हैं-वे कल्पातीत (स्थानां. अभय. वृ. २, १, ७७)। ६. कल्पः कहलाते हैं। ४ कल्प नाम प्राचार (व्यवहार) का प्राचारः, स चेह इन्द्र सामानिक-त्रायस्त्रिशादिहै । उस कल्प से जो रहित हैं वे कल्पातीत कहलाते व्यवहाररूपः, तमुपगा: प्राप्ताः कल्पोपगा: सौधर्महैं । अभिप्राय यह है कि अधस्तन-अधस्तन ग्रैवेयक शानादिदेवलोकनिवासिनः । (प्रज्ञाप. मलय. व. से लेकर अनुत्तर विमानों तक के देव कल्पातीत १-३८, पृ. ७०)। ७. तत्र कल्प: स्थितिविशेष माने गये हैं। इसका कारण यह है कि वे सब उच्यते "कल्पः स्थिति त मदित्यनन्ति रमिति"
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
कल्प्यव्यवहार ]
वचनप्रामाण्यात् । स्थितिविशेषश्चेहेन्द्र- सामानिकत्रायस्त्रशादिव्यवस्थारूप: प्रतिपत्तव्यः, तं कल्पं स्थितिविशेषरूपम् उपपन्नाः प्रतिपन्ना. कल्पोपपन्नाः । (बृहत्सं. मलय. वृ. २) । कल्पेषु षोडशेषु स्वर्गेषु उपपन्नाः संबद्धाः कल्पोपपन्नाः । (त. वृत्ति श्रुत. ४ - १७) ।
८.
१ जो देव कल्पों में उत्पन्न होते हैं वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं । २ कल्प का अर्थ है इन्द्र-सामानिक श्रादि व्यवहाररूप श्राचार, इस प्रकार के श्राचार को प्राप्त देव कल्पोपग या कल्पोपन्न कहलाते हैं । कल्प्यव्यवहार - देखो कल्पव्यवहार | १. कल्प्य - ववहारे साहूणं जोग्गमाचरणं प्रकप्पसेवणाए पायच्छित्तं च वण्णे । ( धव. पु. १, पृ. ६८ ) ; कप्पववहारो साहूणं जं जम्हि काले कप्पदि पिच्छकमण्डलु-कवली-पोत्थयादि परूवेदि प्रकप्पसेवणाए कप्पस्स असेवणाए च पायच्छित्तं परुवेदि । ( धव. पु. ६, पृ. १६० ) । २. रिसीणं जो कप्पइ ववहारो तम्हि खलिदे जं पायच्छितं तं च भणइ कप्पववहारो । ( जयध. पु. १, पृ. १२० ) । ३. कल्प्यं योग्यम्, व्यवह्रियते अनुष्ठीयते श्रस्मिन्ननेनेति वा कल्प्यव्यवहारः शास्त्रम् । तत् ऋषीणां योग्यमनुष्ठानविधानम् अयोग्यसेवायां प्रायश्चित्तं च वर्णयति । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३६८ ) । ४. यतीनां कल्प्यं योग्यमाचरणम्, आचरणच्यवने तदुचित्तप्रायश्चित्तं च प्ररूपयत्कल्प्यव्यवहारम् । ( श्रुतभक्ति टी. २५, पृ. १७६ - ८० ) । ५. कप्पववहारो जहि वव हिज्जइ जोगकप्पमाजोगा । सत्थं अवि इसिजोग्गं आयरणं कहदि सव्वत्य ॥ ( श्रंगप. ३- २७, पृ. ३०९) ।
३२८, जैन - लक्षणावली
१ साधुत्रों के लिए पीछी, कमण्डलु, कवली व पुस्तक आदि जिस जिस उपकरण की जिस काल में श्रावश्यकता होती है उसकी तथा अग्राह्य वस्तु के सेवन और ग्राह्य वस्तु के प्रसेवन से उत्पन्न दोष के प्रायश्चित्त की भी जिसमें प्ररूपणा की जाती है उसका नाम कल्प्यव्यवहार है । कल्पयाकल्प्य - १: कप्पाकप्पियं साहूणं जं कप्पदि जं च ण कप्पदि, तं सव्वं वण्णेदि । ( धव. पु. १, पृ. ६८ ) ; कप्पाकप्पियं साहूणं जं कप्पदि जंच ण
पदि, तं दुविहं पि दव्व-खेत्त कालमस्सिदृण परूवेदि । ( धव. पु. ६, पृ. १६०-६१ ) । २. साहूण
[ कल्याणनामधेयपूर्व
मसाहूणं च जं कप्पइ, जंच ण कप्पइ तं सव्वं दव्वखेत्त-काल-भावे प्रसिदूण भणई कप्पाकप्पियं । ( जयध. पु. १, पृ. १२१; श्रुतभ. टी. २५; अंगप ३-२८, पृ. ३०९)। ३. कल्प्यं चाकल्प्यं च कल्प्याकल्प्यं वयंते अस्मिन्निति कल्पयाकल्प्यम् । तत् द्रव्य-क्षेत्र काल- भावानामाश्रित्य साधूनामिदं कल्प्यं योग्यम्, इदमकल्प्यम् अयोग्यमिति विभागं वर्णयति । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३६८ ) । ४. सागारयतीनां कालविशेषमाश्रित्य योग्यायोग्य विकल्पमाचरणं निरूपयत् कल्पयाकल्प्यं स्तौमि । ( श्रुतभ. टी. २५, पृ. १८० ) । ५. कप्पाकप्पं तं चिय साहूणं जत्थ कप्पमाकप्पं । वणिज्जड प्रसिच्चा दव्वं खेत्तं भवं कालं । ( श्रगप. ३ - २८, पृ. ३०६ ) ।
१ जिस शास्त्र में द्रव्य, क्षेत्र और काल की अपेक्षा साधुनों को जो ग्रहण करने योग्य हैं और जो ग्रहण योग्य नहीं है, इस सब की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम कल्पयाकल्प्य है ।
कल्याण - कल्यं सुखमारोग्यं शोभनत्वं वा तदणतीति कल्याणम्, तदस्यास्तीति कल्याणः । (सूत्रकृ शी. वृ. २, ५, २७)।
सुख, आरोग्य व सुन्दरता आदि के प्रगट होने को कल्याण कहते हैं । कल्याणनामधेयपूर्व- - १. रवि-शशि-ग्रह-नक्षत्र - तारागणानां चारोपपाद गतिविपर्ययफलानि शकुनव्याहृतमद्वलदेव वासुदेव चक्रधरादीनां गर्भावतरणादिमहाकल्याणानि च यत्रोक्तानि तत्कल्याणनामधेयम् । (त. वा. १,२०, १२; धव. पु. ६, पृ. २२३) । २. कल्लाणामधेयं णाम पुव्वं दसण्हं वत्थूणं १० विसदपाहुडाणं २०० छब्बीसकोडिपदेहि २६००००००० रवि-शशि- ग्रह नक्षत्र तारागणाणां चारोपपाद-गतिविपर्यय फलानि शकुन व्याहृतमहिंद् बलदेव-वासुदेव-चक्रधरादीनां गर्भावतरणादिमहाकल्याणानि च कवयति । ( धव. पु. १, पृ १२१, १२२ ) । ३. कल्लाणपवादो गह णक्खत्त चंद-सूरचारविसेसं अट्ठगमहाणिमित्तं तित्थयर चक्कवट्टि - बल-नारायणग्दीणं कल्लाणाणि च वण्णेदि । ( जयध. पु. १, पृ. १४५) । ४. पविशतिकोटिपदं श्रद्बलदेव-चक्रवर्त्यादीनां कल्याणप्रतिपादकं कल्याणनामधेयम् । (श्रुतभ. २३, पृ. १७६) । ५. कल्लाणवादपुव्वं छब्बीससुकोडिपयप्यमाणं तु । तित्थहर
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
कल्योजकल्योज राशि ]
चक्कवट्टीबल देउसमद्धचक्कीणं ॥ गब्भावदरण उच्छव तित्थयरादीसु पुष्णहेद् च। सोलहभावणकिरियातवाणि वण्णेदि ( स ) विसेसं ॥ वरचंदसूरगहणगहणक्खत्तादिचा रस उणाई । तेसि च फलाई पुणो वण्णेदि सुहासुहं जत्थ ।। ( अंगप. २, १०४ - ६, पृ. २६-३०० ) । ६. तीर्थंकर चक्रवर्ति - बलभद्र वासुदेवेन्द्रादीनां पुण्यव्याकीर्णं षड्विंशतिकोटिपदप्रमाणं कल्याणपूर्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. १ -२० ) ।
१ जिस पूर्वश्रुत में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारागण के संचार, उपपाद एवं विपरीत गति के फल तथा शकुन-अपशकुन के फल व तीर्थंकर, वलदेव, वासुदेव एवं चक्रवर्ती श्रादि के गर्भादि महाकल्याणकों की प्ररूपणा की जाती है, उसे कल्याणनामधेय पूर्व कहते हैं । कल्योजकल्योज राशि - जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं श्रवहीरमाणे एगपज्जवसिए जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा से तं कलियोगकलिप्रोगे । ( भगवती भा. ४, ३५, १, २, पृ. ३३९ ) । जिस राशि में चार का भाग देने पर एक संख्या शेष रहे उसे कल्पोज- कल्योज कहते हैं । जैसे—१३ (१३ ÷४=३१) । कल्योजकृतयुग्म – जेणं रासी चउक्कएणं श्रवहारेणं प्रवहीरमाणे चउपज्जवसिए जे णं तस्स रासिस अवहारसमया कलिप्रोगा से तं कलियोग
३२६, जैन-लक्षणावली
जुम्मे । ( भगवती ४, ३५, १, २, पृ. ३३९ ) । जिस राशि में चार का भाग देने पर चार शेष रहें अर्थात् शेष कुछ न रहे उसे कल्योजकृतयुग्म कहते हैं। जैसे १६ (१६ : ४=४)। कल्योज-त्रयोज - जे णं रासी चउक्कएणं श्रवहारेण श्रवहीरमाणे तिपज्जवसिए जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा से तं कलिनोगतेयोए । ( भगवती ४, ३५, १, २, पृ. ३३९ ) । जिस राशि में चार का भाग देने पर तीन शेष रहें, उसे कल्योज-त्रयोज कहते हैं । जैसे- १५ (१५÷ ४=३१) ।
कल्पोजद्वापरयुगम - जे णं रासी चउक्कएणं प्रवहारेण प्रवहीरमाणे दुपज्जवसिए जेणं तस्स रासि - स्स अवहारसमया कलियोगा, से तं कलियोगदावरजुम्मे । (भगवती ४, ३५, १, २, पृ. ३३९ ) ।
ल. ४२
[कव्वाडभृतक
जिस राशि में चार का भाग देने पर दो शेष रहें उसे कल्योजद्वापरयुग्म कहते हैं। जैसे – १४ (१४ ÷४=३१)।
कवच - १. कवचे यथा कवचस्य शरशतनिपातदुःखनिवारणक्षमता एवमाचार्येण निर्यापकेन धर्मोपदेशश्चतुर्गतिपरिभ्रमणे दुःसहानि दुःखानि ननु कर्मपरवशतया भुक्तानि निष्फलानि ( ? ) । इदं पुनर्दु:खसहनं निर्जरार्थं प्रवर्त्यमानं सकलदुःखान्तं सुखमध्यतीन्द्रियमचलमनुपममव्याबाघात्मकं सम्पादयिष्यतीति क्रियमाणो दुःखनिवारणसामान्यात् कवचशब्देनोच्यते । (भ. प्रा. विजयो. ७० ) । २. कवचं धर्माद्युपदेशेन दुःखनिवारणम् । (अन. ध. स्वो. टी. ७-६८ ; भ. प्रा. मूला. टी. ७० ) ।
१ जिस प्रकार कवच सैकड़ों बाणों के लगने से उत्पन्न होने वाले दुःख के निवारण में समर्थ होता है उसी प्रकार निर्यापक प्राचार्य के द्वारा किया गया उपवेश चतुर्गति के दुःखों के जिन्हें कर्म के परवश होकर पूर्व में भोगा है— निवारण में समर्थ होता हुआ प्रतीन्द्रिय, शाश्वत, अनुपम एवं श्रव्याबाध सुख को उत्पन्न करने वाला है । इसीलिये दुःख के निवारण में कवच की समानता रखने के कारण प्राचार्य के द्वारा किये जाने वाले इस धर्मोपदेश को कवच शब्द से कहा जाता है। कवचमुद्रा - पुनर्मुष्टिबन्धं विधाय कनीयस्यंगुष्टी प्रसारयेदिति कवचमुद्रा । ( निर्वाणक. १६-४)। मुट्ठी बांध करके कनिष्ठा और अंगुष्ठ के फैलाने को कवचमुद्रा कहते हैं ।
1
कवल - किं कवलप्रमाणम् ? सालितंदुल सहस्से द्विद्दे जं कूपमाणं तं सव्वमेगो कवलो होदि । एसो पर्याsपुरिमस्स कवलों परुविदो । ( धव. पु. १३, पृ. ५६ ) ।
हजार शालि धान के चावलों के होने पर जो कूर (भात) का प्रमाण होता है वह सब पुरुष का प्राकृतिक एक ग्रास ( कौर) माना जाता है । कव्वाडभृतक कव्वाडभृतकः क्षितिखानकः श्रोडादिः, ग्रस्य स्वं कर्मायते द्विहस्ता त्रिहस्ता बा त्वया भूमिः खनितव्यैतावत्ते धनं दास्यामीति एवं नियम्यतेति । ( स्थाना. अभय वृ. ४, १, २७१, पृ. १६२) ।
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
कषशुद्ध ]
तुम दो या तीन हाथ भूमि खोदो, मैं तुम्हें इतना धन दूंगा, इस प्रकार ठेका पर भूमि खोदने वाले मनुष्य को कव्वाडभृतक कहा जाता है । कषशुद्ध - १. विधि प्रतिषेधो कप इति । (ध. बि. २-५३) । २. विधिः अविरुद्ध कर्तव्यार्थोपदेशकं वाक्यम् —— यथा स्वर्ग केवलार्थिना तपोध्यानादि कर्तव्यं समिति गुप्तिशुद्धा क्रिया इत्यादि । प्रतिषेधः पुन: 'न हिंस्यात् सर्वभूतानि नानृतं वदेत्' इत्यादि । ततो विधिश्च प्रतिषेधश्च विधि प्रतिषेधौ, किमित्याह- 'कष : ' सुवर्णपरीक्षायामिव कषपट्टके रेखा | इदमुक्तं भवति - यत्र धर्म उक्तलक्षणो विधि: प्रतिबेघरच पदे पदे सुपुष्कल उपलभ्यते स धर्मः कषशुद्धः । (ध. बि. मु. वृ. २- ३५ ) ।
कर्तव्य कार्य के विधायक -- जैसे स्वर्ग या केवलज्ञान - के अभिलाषी को तप व ध्यान श्रादि करना चाहिए
धौर प्रकर्तव्य कार्य के निषेधक – जैसे किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करना चाहिए, प्रसत्यभाषण नहीं करना चाहिये प्रादि-वाक्य कष हैं-धर्म के विषय में कषौटी के समान हैं । श्रभिप्राय यह है कि जिस धर्म में पूर्वोक्त विधि और प्रतिषेध पदपद में प्रचुरता से उपलब्ध होते हैं वह धर्म कषशुद्ध कहलाता है ।
कषाय - १. कम्मं कसभवो वा कसमान सिं जो कसाया तो । कसमाययंति व जम्रो गमयंति कसं कसायत्ति ॥ श्राश्रो व उवायाणं तेण कसाया जो कसस्साया । जीवपरिणामरूवा जेण उनामाइनियमोऽयं ।। (विशेषा. ३५४५ - ४६ ) । २. सुहदुक्खं बहुसस्सं कम्मक्खित्तं कसेइ जीवस्स । संसारगदी मेरं तेण कसा त्तिणं विति ॥ ( प्रा. पंचसं. - १-१०९; घव. पु. १, पृ. १४२ उद्; गो. जी. २८१) । ३. चारित्रमोहविशेषोदयात् कलुषभावः कषाय प्रदयिकः । चारित्रमोहस्य कषायवेदनीयस्योदयादात्मनः कालुष्यं क्रोधादिरूपमुत्पद्यमानं कषत्यात्मानं हिनस्तीति कषाय इत्युच्यते । (त. वा. २, ६, २ ) ; कषत्यात्मानमिति कषायः । क्रोधादिपरिणामः कषति हिनस्त्यात्मानं कुगतिप्रापणादिति कषायः । (त. वा. ६, ४, २ ) । ४. 'कष गतो' इति कषशब्देन कर्माभिधीयते भवो वा, कषस्य आया लाभाः प्राप्तयः कषायाः क्रोधादयः । ( श्राव. हरि. वृ. १०६, पृ. ७७ ) । ५. कषः संसारः, तस्यायाः
३३०, जन-लक्षणावली
[ कषाय
प्राप्तयः कषायाः कषायमोहनीयम् । (पंचसं. स्वो. वृ. ३ - १२३, पृ. ३५) । ६. क्रोधादयोऽप्रीति गर्वपरवञ्चना- मूर्च्छालक्षणाः कषायाः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६ - ६ ) । ७. सुख-दुःखबहुशस्यं कर्मक्षेत्र कृषन्तीति कषायाः । XX X ( धव. पु. १, पृ. १४१ धव. पु. ७, पृ. ७ ) ; दुःखशस्यं कर्मक्षेत्र कृषन्ति फलवत्कुर्वन्तीति कषायाः क्रोध- मान-मायालोभाः । ( धव. पु. ६, पृ. ४१ ) ; सुख-दुःखशस्यकर्मक्षेत्र कृषन्तीति कषायाः । (धव. पु. १३, पृ. ३५६ ) | ८. कषन्ति हिंसन्ति प्रात्मानमिति कषायाः । कषायशब्देन वनस्पतीनां त्वक् पत्र मूल- फलरस उच्यते । स यथा वस्त्रादीनां वर्णमन्यथा संपादयति एवं जीवस्य क्षमामार्दवार्जव संतोषाख्यगुणान् विनाश्यान्यथा व्यवस्थापयन्तीति क्रोध-मान- माया-लोभाः कषाया इति भण्यन्ते । (भ. प्रा. विजयो. २७ ); कषन्ति हिंसन्ति श्रात्मक्षेत्रमिति कषायाः । अथवा तरूणां वाल्कलरसः कषायः, कषाय इव कषायः । (भ. प्रा. विजयो ११५ ) । ६. कषणादात्मनां घातात कषायः कुगतिप्रदः । (त. इलो. ६, ४, २) । १०. ये चारित्रपरीणामं कषन्ति शिवकारणम् । कुन्मानवं चनालोभास्ते कषायाश्चतुर्विधाः । ( पंचसं श्रमित. १ - २०३ ) । ११. क्रोधादिपरिण, मवशेन कषन्तीति कषायाः । (मूला. वृ. १२ - १५६ ) ; दुःखसस्यं कर्मक्षेत्रं कृषन्ति फलवत्कुर्वन्तीति कषायाः । (मूला. वृ. १२ - १५६ ) । १२. चारित्रपरिणामानां कषायः कषणान्मतः । (त. सा. २ - ८२ ) । १३. X X X कषायः कर्षतीत्यसी । ( आचा. सा. ५ - १५ ) । १४. कष्यते ऽस्मिन् प्राणी पुनः पुनारावृत्तिभावमनुभवति कषोपलक ष्यमाणकनकवदिति कषः संसारः, तस्मिन् श्रा समन्तादयन्ते गच्छन्त्येभिरसुमन्त इति कषायाः । यद्वा कषाया इव कषायाः, यथा हि तुवरिकादिकषायकलुषिते वाससि मञ्जिष्ठादिरागः श्लिष्यति चिरं चावतिष्ठते तथैतत् कलुषित प्रात्मनि कर्म सम्बध्यते चिरतरस्थितिकं च जायते तदायत्वात् तत्स्थिते: । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १८०, पृ. १९०) । १५. तत्र कृषन्ति - विलिखन्ति कर्मक्षेत्र सुख-दुःखफलयोग्यं कुर्वन्ति कलुषयन्ति वा जीवमिति निरुक्तिविधिना कषायाः । उक्तं च- सुहदुक्ख बहुसईयं कम्म खेत्तं कसंति ते जम्हा । कलुसंति जं च जीवं टेण कसायत्ति वुच्चति । अथवा कषति —
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
कषाय] ३३१, जैन-लक्षणावली
[कषायकुशील हिनस्ति देहिन इति कषं कर्म भवो बा, तस्याया ध्यायी २-११३५) । २४. कषन्त्यात्मानमेवात्र लाभहेतुत्वात्, कषं वा प्राययन्ति गमयन्ति देहिन ___ कषायादिति दर्शिताः । पञ्चविंशतिसंख्याका मोहइति कषायाः। उक्तं च-कम्म कसं भवो वा कस- कर्मोदयोद्भवः ।। (जम्बूच. १३-१०८)। २५ मानो सि जो कसायातो। कसमाययंति व जो कालुष्यं स्यात् कषाय: xxx (अध्यात्मक. मा.
कसं कसायत्ति ॥ (स्थाना. अभय. व. ४, ४-२) । २६. कष्यन्ते हिंस्यन्ते प्राणिनोऽस्मिन्निति १, २४६)। १६. कष्यन्ते हिस्यन्ते प्राणिनोऽस्मिन्न- कष: संसारस्तस्याय। लाभाः कषायाः क्रोधमानमायानेनेति वा कषः संसारः कर्म वा, तस्याया लाभा: । लोभाः। (संग्रहणी दे. व. २७२, पृ. १२४) । प्राप्तय इति कृत्वा, अथवा कषं संसारमयन्त एभि- २७. 'कषति हिनस्त्यात्मानं - दुर्गति प्रापयतीति रिति कृत्वा । (योगशा, स्वो. विव. ४-६)। १७. कषाय:-अथवा कषायो न्यग्रोधवक्-विभीतककषन्ति हिंसन्ति शुद्धचिद्विवर्तलक्षणप्राणवियोजय- हरीतकादिकवस्त्रे मंजिष्ठादिरागश्लेषहेतुर्यथा तथा न्त्यात्मानमिति कषायाः, अथवा बनस्पतीनां त्वम्मूल- क्रोध-मान-माया-लोभलक्षणकषायः । (त. वृत्ति श्रुत. फलाश्रितो रसविशेषः कषायः, कषाय इव कषायः। ६-४)। कषन्ति हिंसन्ति सम्यक्त्वादीनीति कषायाः। (भ. प्रा. मला. २७)। १८. कषऋण-शिषेत्यादि- (त. वृत्ति श्रुत. ६-१४); कषन्तीति कषायाः दण्डकधातुः हिंसार्थः । कषन्ति कष्यन्ते च परस्पर- दुर्गतिपातलक्षणस्वभावाः कषायाः। (त. वृत्ति श्रुत. मस्मिन् प्राणिन इति कष: संसारः, 'पुंसि संज्ञायां घः ८-२)। प्रायेण' (पा. ३, ३, १८); इति घ प्रायग्रहणात्, १ कर्म अथवा संसार को कष कहा जाता है। इस अन्यथा हि हलन्तत्वात् 'हलश्च' (पा. ३, ३, १२१) प्रकार के कष अर्थात कर्म या संसार को जो प्राप्त इति घञ् स्यात् । कषमयन्ते गच्छन्ति एभिर्जन्तव कराया करते हैं, उनका नाम कषाय है। ३ चारित्र. इति कषायाः क्रोधादयः। (कर्मस्त. गो.व. २, पु. मोह के भेदभत कषायवेदनीय के उदय से प्रात्मा ५,७३)। १६. कर्ष [ष]न्ति हिंसन्ति परस्परं प्राणि- में जो क्रोधादिरूप कलुषता उत्पन्न होती है वह नोऽस्मिन्निति कष: संसारः, तमयन्ते अन्तर्भूतण्यर्थ- चूंकि प्रात्मा का विधात करती है, अतएव उसे त्वात् गमयन्ति प्रापयन्ति ये ते कषाया: । (प्रज्ञाप. कषाय कहा जाता है। मलय. १३-१८२, पृ. २८५); 'कृष विलेखने' कषाय (रसविशेष) - अन्नरुचिस्तम्भनकर्मा कृपन्ति-विलिखन्ति कर्मरूपं क्षेत्र सुख-दुःखशस्यो. कषायः। (अनुयो. हरि. व. पृ. ६०; त. भा. सिद्ध. त्पादनायेति कषायाः, xxx यदि वा कलुषयन्ति व. ५-२३)।
-शुद्धस्वभावं सन्तं कर्ममलिनं कुर्वन्ति जीवमिति जिसके सेवन से अन्न के खाने की रुचि बढ़े, और कषायाः। xxx उक्तं च-सुहदुक्खबहुस्सइयं जो स्तम्भक हो, उसे कषायरस कहते हैं। कम्मक्खेत्तं कसंति ते जम्हा। कलुसंति जं च जीवं कषायकुशील--१. वशीकृतान्यकषायोदयः संज्वतेण कषायत्ति वुच्चंति। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १४, लनमात्रतंत्राः कषायकुशीलाः। (स. सि. E-४६; १५६, प. २६०)। २०. तत्र कषाया नाम कष्यन्ते चा. सा. प.४५) । २. येषां त संयतानां सतां कथहिंस्यन्ते परस्परमस्मिन् प्राणिन इति कषः संसारः, ञ्चित् संज्वलनकषाया उदीयन्ते ते कषायकुशीलाः । तमयन्ते गच्छन्त्येभिजन्तव इति कषायाः क्रोधादयः (त. भा. ६-४८)। ३. वशीकृतान्यकषायोदयाः परिणामविशेषाः। (जीवाजी. मलय. वृ. १-१३, संज्वलनमात्रतंत्रत्वात् कषायकुशीलाः। (त. वा. ६, पु. १५) । २१. सम्मत्त-देस-सयलचरित्तजहक्खाद- ४६, ३)। ४. कषायः संज्वलनक्रोधायुदयलक्षण: चरणपरिणामे । घादंति वा कसाया xxx॥ कुशीलः कषायकुशीलः । (प्रव. सारो. वृ. ७२५)। (गो. जी २८२); कषायाः संयमविरुद्धास्तीवपरि- ५. शमितान्यकषाया ये ससंज्वलनमात्रकाः। ते णामाः कषायाः भावक्रोधादयः । (गो. जी. म. प्र. कषायकुशीला: स्युः Xxx ॥ (ह. पु. ६४, टी. ३५) । २२. कषन्ति हिंसन्ति संयमगुणमिति ६२) । ६. कषायाः संज्वलनाख्यास्तदुदयात् कुत्सितं कषायाः। (गो. जी. जी. प्र. ३४)। २३. तत्र शीलमेषामिति कषायकुशीलाः । (त. भा. सिद्ध. वृ. यन्नाम कालुष्यं कषायाः स्यु: स्वलक्षणम् । (पञ्चा- ६-४८) । ७. संज्लनमात्रोदयः कषायोदयस्तेन
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
कषायरसनामकर्म] ३३२, जैन-लक्षणावली
[कषायसमुद्घात योगात् मूलोत्तरगुणभृतोऽपि xxx कषायकुशीला अहमस्य स्वामीति वचनानुच्चारणं लोभविवेकः उच्यन्ते । (त. श्लो. ६-४६)। ८. संज्वलनाऽपर. नाहं कस्यचिदीशो न च मम किंचिदिति वचनं वा। कषायोदयरहिताः संज्वलनकषायमात्रवशवर्तिनः ममेदं भावरूपमोहजपरिणामापरिणतिर्भावतो लोभकषायकुशीलाः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-४६)। विवेकः । (भ. प्रा. विजयो. १६८)। १ अन्य कषायों के उदय पर विजय पाकर भी जो कषायविवेक द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार केवल संज्वलन कषाय के वशीभूत होते हैं वे कषाय- का है। उनमें भी प्रत्येक काय और वचन के भेद कुशील कहे जाते हैं।
से दो प्रकार का है। ये सब क्रोधादि के भेद से कषायरस नामकर्म-जस्स कम्मस्स उदएण सरी- चार चार प्रकार के हैं। यथा-भ्रकुटियों को रपोग्गला कसायरसेण परिणमंति तं कषायरसं णाम। संकोचित करना, नेत्रों का लाल होना, अधरोष्ठ का (धव. पु. ६, पृ. ७५)।
दबाना और शस्त्र को समीप करना; इत्यादि जो जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गल कषाय रस क्रोध की सूचक शरीर की प्रवृत्ति हुआ करती है से परिणत होते हैं उसे कषायरस नामकर्म कहते हैं। उसका न करना, यह द्रव्यतः कायिक क्रोधकषायकषायलोक-कोधो माणो माया लोभो उदिण्णा विवेक कहलाता है। मैं मारता हूं या ताडित जस्स जंतुणो। कषायलोगं वियाणाहि अणंतजिण- करता हूं, इत्यादि क्रोध के सूचक वचनों का प्रयोग देसिदं ॥ (मूला. ७-५१)।
नहीं करना; इसका नाम वाचनिक क्रोधकषायजिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ इन विवेक है। मन में दूसरों के परिभव प्रादि का चारों कषायों का उदय पाया जावे उसे कषायलोक कलुषित विचार न आने देना, इसे भावतः क्रोषजानना चाहिए।
विवेक जानना चाहिए। इसी प्रकार से पृथक-पृथक कषायविवेक-द्रव्यतः कषायविवेको नाम कायेन मान, माया और लोभ कषायों के सम्बन्ध में समवाचा चेति द्विविधः-भ्रूलतासंकोचनं पाटलेक्षणता झना चाहिये। अधरावर्मदनं शास्त्रनिकटीकरणम् इत्यादिकायव्या- कषायवेदनीयकर्म-१. तत्र क्रोधादिकषायरूपेण पाराकरणम्, हन्मि ताडयामि शूलमारोपयामि यद्वेद्यते तत्कषायवेदनीयम् । (श्रा. प्र. टी. १६ इत्यादिवचनाप्रयोगश्च । परपरिभवादिनिमित्तचित्त- धर्मसं. मलय. वृ. ६१३; प्रज्ञाप. मलय. व. २३, कलंकाभावो भावतः क्रोधविवेकः । तथा मानकषाय. २६३, पृ. ४६८)। २. जस्स कम्मस्स उदएण जीवो विवेकोऽपि वाक्कायाभ्यां द्विविधः-गात्राणां स्तब्ध- कसायं वेदयदि तं कम्म कसायवेदणीयं णाम। (धव. ताकरणं शिरस उन्नमनम् उच्चासनारोहणादिकं च पु. १३, पृ.३५६)। यन्मानसूचनपरं तस्य कायव्यापारस्याकरणम्, मत्तः २ जिस कर्म के उदय से जीव कषाय का वेदम को वा श्रुतपारगः सुचरितः सुतपोधरश्चेति वचना- करता है उसे कषायवेदनीय (चारित्रमोहनीय का प्रयोगश्च । एवमेवैतेभ्योऽहं प्रकृष्ट इति मनसाहं- भेद) कहते हैं।
कषायसमुद्घात-१. द्वितयप्रत्ययप्रकर्षोत्पादितभ्यां मायाविवेको द्विप्रकार:- अन्यं ब्रुवतः इवान्यस्य क्रोधादिकृतः कषायसमुद्घातः। (त. वा. १, २०, यद्वचनं तस्य त्यागो मायोपदेशस्य वा, मायां न १२, पृ. ७७)। २. कसायसमुग्धादो णाम कोघ. करोमि न कारयामि नाभ्युपगच्छामि इति वा कथनं भयादीहि सरीरत्तिगुणविप्फुज्जणं । (धव. पु. ४, वाचा मायाविवेकः, अन्यत् कुर्वत् इवान्यस्य कायेना. प. २६); कसायतिव्वदाए ससरीरादो जीवपदेसाणं करणं कायतो मायाविवेकः। लोभकषायविवेको- तिगुणविप्पुंजणं कसायसमुग्धादो णाम । (धव. पु. ऽपि द्विविधः-यत्रास्य लोभस्तदुद्दिश्य करप्रसारणं ७, पृ. २६६)। ३. तीव्रकषायोदयान्मूलशरीरमत्यद्रव्यदेशानपायिता तदुपादातुकामस्य कायेन निषेधनं क्त्वा परस्य घातार्थमात्मप्रदेशानां बहिर्गमन मिति हस्तसंज्ञया निवारणं शिरश्चालनया वा, एतस्य । कषायसमुद्घातः । (बु. द्रव्यसं. १०)। ४. कषायेण कायव्यापारस्य प्रकरणं कायेन लोभविवेकः शरीरेण कषायोदयेन, समुद्घातः कषायसमुद्घातः, स च वा द्रव्यानुपादानम्, एतन्मदीयं वास्तु-ग्रामादिकं वा कषायचारित्रमोहनीयकर्माश्रयः । Xxx अथ
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
कषायसल्लेखना] ३३३, जैन-लक्षणावली
[काङ्क्षा समुद्घात इति कः शब्दार्थः ? उच्यते--समिति है। अभिप्राय यह है कि क्रोधादि कषायों के कृश एकीभावे, उत् प्राबल्ये, एकीभावेन प्राबल्येन घात: करने को कषायसल्लेखना कहते हैं। समुद्घातः। केन सह एकीभावगमनम् ? इति चेत् काक-अन्तरराय- काक-श्वादिविडुत्सर्गो भोक्तुउच्यते-अर्थाद् वेदनादिभिः । तथा हि-यदा । मन्यत्र यात्यधः । यतौ स्थिते वा काकाख्यो भोजनप्रात्मा वेदनादिसमुद्घातगतो भवति तदा वेदनाद्य- त्यागकारणम् ।। (अन. ध. ५-४३)। नुभवज्ञानपरिणत एव भवति, नान्यज्ञानपरिणतः । साधु के भोजन के लिए जाते समय अथवा स्थित प्राबल्येन घातः कथम् ? इति चेत् उच्यते-इह होने पर काक व कुत्ता आदि के द्वारा बीट के कर वेदनादिसमुद्घातपरिणतो बहून् वेदनीयादि कर्मपुद्- देने पर काक नाम का अन्तराय होता है जो भोजन गलान् कालान्तरानुभवनयोग्यान् उदीरणाकरणेना- के परित्याग का कारण है। कृष्य उदयावलिकायां प्रक्षिप्यानुभूयानुभूय निर्जर- काकलेश्या-कायलेस्सिया णाम तदियो वादयति-प्रात्मप्रदेशेभ्यः शातयतीति भावः । (जीवाजी. वलयो। कधं तस्स एसा सण्णा ? कागवण्णत्तादो। मलय. वृ. १-१३, प. १७) । ५. तीव्रकषायोद- सो कागले स्सियो णाम । (धव. पु. ११, पृ. १६)। यान्मूलशरीरमत्यक्त्वा परस्य घातार्थमात्मप्रदेशानां तीसरा तनुवातवलय चूंकि कौवे के समान वर्णवाला बहिनिर्गमनं संग्रामे सुभटानां रक्तलोचनादिभिः है, अतः उसे काकलेश्या कहा जाता है। प्रत्यक्षदृश्यमानमिति कषायसमुदघातः। (कातिके. काकादिपिण्डहरण- काकादिपिण्डहरणं काकटी. १७६)।
गृद्धादिना करात् । पिण्डस्य हरणे xxx २. कषाय की तीव्रता से जीवप्रदेश जो शरीर से प्रश्नतः XXX॥ (अन. ध. ५-४६)। तिगुने फैल जाते हैं, इसे कषायसमद्घात कहते हैं। भोजन करते समय काक व गिद्ध आदि के द्वारा ४ समुद्घात में 'सम्' का अर्थ एकीभाव और उत् साधु के हाथ से भोजन हर ले जाने पर काकादिका अर्थ प्रबलता है, जीव जब वेदनादिरूप किसी पिण्ड-हरण नाम का अन्तराय होता है। समुद्घात को प्राप्त होता है तब वह एक मात्र काक्षा-१. ऐहलौकिक-पारलौकिकेषु विषयेष्वावेदना प्रादि के अनुभवज्ञान से परिणत होता है- शंसा काङ्क्षा । सोऽतिचार: सम्यग्दृष्टः । (त. भा. अन्य ज्ञान से परिणत नहीं होता, यही वेदनादि के ७-१८)। २.XXX कंखा अन्नन्नदंसणग्गाहो साथ उसका एकीभाव है। साथ ही जब वह उक्त वेदनादिसमुद्घात को प्राप्त होता है तब वह काला- (आशंसा)। तथा चागमः-कंखा अण्णण्णदसणस्तर में अनुभवन के योग्य बहत से वेदनादिरूप गाहो। (त. भा. हरि. व सिद्ध. व कर्मपुद्गलों का उदीरणा करण के द्वारा अपकर्षण ४. काङ्क्षा गार्द्धयम् प्रासक्तिः, सा च दर्शनस्य करके उन्हें उदयावली में प्रक्षिप्त करता हश्रा अन- मलम् । XXX दशनाद् व्रताद् दानात् दवपूजा. भवपूर्वक निर्जीर्ण करता है- प्रात्मप्रदेशों से पृथक् यास्तपसश्च जातेन पुण्येन ममेदं कुलं रूपं वित्तं करता है। यही प्रबलता से घात है। इससे यह स्त्री-पुत्रादिकं शत्रुमर्दनं स्त्रीत्वं पुंस्त्वं वा सातिशयं अभिप्राय हुआ कि कषायोदय से जो पूर्वोक्त प्रकार स्यादिति काङ्क्षा इह गृहीता। एषा अतिचारो समुद्घात होता है उसे कषायसमुद्घात समझना दर्शनस्य । (भ. प्रा. विजयो. ४४); काङ्क्षा गार्द्धचाहिये।
घम् । (भ. प्रा. विजयो. २१३)। ५. कंखा बुद्धाकषायसल्लेखना-१. अज्झवसाणविसुद्धी कसाय- इपणीयदरिसणेसु गाहो अभिलासो। जो भणियंसल्लेहणा भणिदा। (भ. प्रा. २५६)। २. सद्- कंखा अन्नोन्नदंसणग्गाहो। (पंचाशक च. पु. ४६)। ध्यानप्रकरैः कषायविषया सल्लेखना श्रेयसी, ६. काङ्क्षा अन्यान्यदर्शनग्रहः। (योगशा. स्वो. (प्राचा. सा. १०-१०)। ३. कषायाः क्रोध-मान- विव. २-१७) । ७. या रागात्मनि भगुरे परवशे माया-लोभलक्षणास्तेषां सल्लेखना सन्यासः सर्वथा सन्तापतृष्णारसे, दुःखे दुःखदबन्धकारणतया संसारपरिहारः। (प्रारा. सा. टी. २२)।
सौख्ये स्पृहा । स्थाज्ज्ञानावरणोदयैकजनितभ्रान्तेरिदं १ परिणामों की विशुद्धि का नाम कषायसल्लेखना दक्तपोमाहात्म्यादियान्ममेत्यतिचरत्येषव काक्षा
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
काणकक्रयी] ३३४, जन-लक्षणावली
[काम (पुरुषार्थ) दशम् ॥ (अन. ध.२-७५)। ८. कंखा आकांक्षा। ५११-१३)। २. नील-लोहितवर्णद्वययोगिद्रव्यावसा च प्रतिनियतविषयव ग्राह्या, xxx ततो ष्टम्भात् कापोतलेश्या xxx कापोतलेश्यायाः दर्शन-व्रत-दान - देवार्चन-तपोजनितपुण्यमाहात्म्यात् प्रातिलोभ्यनानिष्टपरिणामापेक्षा अनिष्टा अनिष्टकुलं रूपं वित्तं स्त्री-पुत्रादिकं शत्रुपमर्दनं स्त्रीत्वं तरा अनिष्टतमा चेति । पासा षण्णामपि लेश्यानां पुस्त्वं सातिशयं मे भूया दत्याशंसनं दर्शनस्य मलः जम्बवृक्षफलभक्षकदृष्टान्तेनागमप्रसिद्धेन ग्रामदाहकस्यात् । (भ. प्रा. मला. ४४)। ६. इह-परलोक- पुरुषषटकेन च प्रसिद्धिरापाद्या। (त. भा. सिद्ध. भोगाकाङक्षणं काक्षा (त. वृत्ति श्रुत. ७-२३, व. २-३)। ३. कसायाणुभागफहयाणमुदयमागदाणं कार्तिके. टी. २२६)।
जहण्णफद्दयपहडि जाव उक्कस्सफद्दया त्ति ठइदाणं १ इस लोक व पर लोक सम्बन्धी विषयों की इच्छा छब्भागविहत्ताणं चउत्थभागो तिव्वो, तदुदएण जादकरना, इसका नाम कांक्षा है। ४ कांक्षा का अर्थ गृद्धि कसानो काउलेस्सा णाम । (धव. पु. ७, पृ. १०४)। (लोलुपता) व आसक्ति होता है । सम्यग्दर्शन, व्रत, १दूसरे के ऊपर क्रोध करना, निन्दा करना, दूसरों दान, देवपूजा और तपश्चरण से उपाजित पुण्य के को दुःख देना, वैर करना, शोक और भय से ग्रस्त द्वारा मुझे कुल, रूप, धन, स्त्री-पुत्रादि, शत्रु का रहना, दूसरे के ऐश्वर्यादि को सहन न कर सकना, विनाश तथा स्त्री या पुरुष पर्याय विशेषता से संयुक्त दूसरे का तिरस्कार करना, अपनी प्रशंसा प्राप्त हो; ऐसी इच्छा करना, इसका नाम कांक्षा करना, दूसरे का विश्वास न करना, अपने है। यह सम्ज्ञग्दर्शन को दूषित करने वाली-उसका समान दूसरों को भी वेईमान समझना; अपनी अतिचार-है।
प्रशंशा करने वाले पर प्रसन्न होना, अपनी हानि कारणकनयी-काणकत्रयी बहुमूल्यमपि अल्पमूल्येन वृद्धि को न समझना, रण में मरण चाहना, स्तुति चौराहृतं काणकं हीनं कृत्वा क्रीणातीति । (प्रश्न- करने वाले को बहुत धन देना, कार्य-अकार्य को व्या. अभय. बृ. पृ. १६३)।
गणना न करना; इत्यादि प्रकार की मनोवृत्ति या जो चोर के द्वारा लाये गये बहुत मूल्य वाले भी भावों की कलुषता को कापोतलेश्या कहते हैं। कानक को-कनकनिर्मित आभूषणादि को-हीन २ नील और लाल वर्णयुक्त द्रव्यों के प्राश्रय से जो करके थोड़े से मूल्य में ले लेता है उसे कानकक्रयी परिणति होती है, उसका नाम कापोतलेश्या है। कहते हैं।
कापोतलेश्यारस- जह तरुणअंबयरसो तुवरकानन सामान्यवक्षवन्दं नगरासन्नं काननम् । कवितस्स वावि जारिसमो। इत्तो वि अणंतगुणो रसो (जीवाजी. मलय. वृ. १४२)।
उ काऊए नायव्यो । (उत्तरा. ३४-१२)। नगर के समीपवर्ती साधारण वृक्षों के समुदाय को कच्चे प्राम या कच्चे कैथ के खट्टे रस से भी कानन कहते हैं।
अनन्तगुणा कापोतलेश्या का रस होता है। कापटिक-परमर्मज्ञः प्रगल्भश्छात्रः कापटिकः । कापोतलेश्यावर्ण-अयसीपुष्फसंकासा कोइलच्छ(नीतिवा. १४-६)।
दसन्निभा। पारेवयगीवनिभा काउलेस्सा उ वण्णो ॥ दूसरे के मर्म के जानने वाले प्रगल्भ छात्र को काप- (उत्तरा. ३४-६) । टिक कहते हैं।
वर्ण की अपेक्षा कपोतलेश्या अलसी के फूल, कोकिकापोतलेश्या-१. रूसदि णिददि अण्णे दूसदि लच्छद (एक वनस्पति) और कबूतर के गले के बहुसो य सोयभयबहुलो। असुयदि परिभवदि परं । वर्ण के समान होती है। पसंसदि य अप्पयं बहुसो॥ ण य पत्तियइ परं सो काम (पुरुषार्थ)-१. प्राभिमानिकरसानुविद्धा अप्पाणमिव परं पि मण्णंतो। तूसदि अभित्थुवंतो यत: सर्वन्द्रियप्रीतिः स कामः। (नीति. ३-१, ण य जाणइ हाणि-बड्ढीयो॥ मरणं पत्थेइ रणे योगशा. स्वो. विव. १-५२) । २. संकल्परमणीदेदि सुबहुग्रं हि थुब्वमाणो दु। ण गणइ अकज्ज- यस्य प्रीतिसंभोगशोभिनो रुचिरस्याभिलाषस्य नाम कज्जं लक्खणभेदं तु काउस्स ।। (प्रा. पंचसं. १, काम इति स्मृतिरिति वचनात् कामश्च यथेष्टाभि१४७-४६; धव. पु. १, पृ. ३८६ उ.; गो. जी. मानिकरसानुविद्धसर्वेन्द्रियप्रीतिहेतुः कुलाङ्गनासङ्गि
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
काम (अरिषड्वर्गान्तर्गत)] ३३५, जैन-लक्षणावली [कामरूप, कामरूपित्व नां सुप्रतीतः । (सा. ध. स्वो. टी. २-५६)। रस-स्पर्शाः, तेषु तीव्राभिलाषः अत्यन्ततदध्यबसायि१ जिसके प्राश्रय से अभिमान पूर्ण रस से सम्बद्ध त्वं यतो वाजीकरणादिनाऽनवरतसुरतसुखार्थ मदनहोकर सभी इन्द्रियों को प्रीति उत्पन्न होती है, उसे मुद्दीपयति । (ध. बि. मु. वृ. ३-२६) । काम कहते हैं।
२ काम से अभिप्राय मैथुन क्रिया का है, तद्विषयक काम (अरिषड्वर्गान्तर्गत)-तत्र परपरिगृहीता- उत्कट इच्छा रखना, इसका नाम कामतीव्राभिलाष स्वनूढासु वा स्त्रीषु दुरभिसन्धिः कामः । (योगशा. है। अथवा शब्द और रूप को काम तथा गन्ध, रस स्वो. विव. १-५६; ध. बि. म. व.१-१५) । और स्पर्श को भोग कहा जाता है। इन पांचों के पर स्त्री अथवा अविवाहित स्त्रियों के विषय में विषय में उत्कट इच्छा रखना, यह कामतीवाभिदुष्ट अभिप्राय रखना, इसका नाम काम है। यह लाष नामक ब्रह्मचर्याणवत का अतिचार है। परिषडवर्ग के अन्तर्गत काम का लक्षण है। काम-भोगाशंसाप्रयोग -काम-भोगाशंसाप्रयोगः कामकथा-रूवं वनो य वेसो दक्खत्तं सिक्खियं च जन्मान्तरे चक्रवर्ती स्यां वासुदेवो महामण्डलिक: विसएसु । दिट्ठ सुयमणुभूयं च संथवो चेव काम- सुभगो रूपवानित्यादि, एतद्वर्जयेद् भावयेच्चाशुभं कहा ।। (दशवै. नि. १९२)।
जन्मपरिणामादिरूपं संसारपरिणाममिति । (श्रा. सुन्दर रूप, यौवन अवस्था, आकर्षक वेषभूषा, प्र. टी. ३८५)। दाक्षिण्य (मृदुता), विषयों की शिक्षा, दृष्ट, श्रुत, पर भव में मैं चक्रवर्ती, नारायण, महामण्डलीक, अनुभत और संस्तव (परिचय); इनके प्राश्रय से सुन्दर व रूपवान् होऊ; इत्यादि प्रकार की इच्छा जो चर्चा की जाती है वह कामकथा कहलाती है। करने को काम-भोगाशंसाप्रयोग कहते हैं। कामतीव्राभिनिवेश--१.कामस्य प्रवद्धः परिणाम: कामराग-कामरागः प्रियप्रमदादिविषयसाधनकामतीव्राभिनिवेशः । (स. सि. ७-२८, त. वा. ७, वस्तुगोचरः। (उपदे, मु. वृ. १८६) । २८, ४)। २. कामस्य प्रवृद्धः परिणामः अनु- प्यारी स्त्री आदि के विषयों की साधनभूत अभीपरतवृत्त्यादिः कामतीव्राभिनिवेशः इत्युच्यते । (त. प्सित वस्तुओं में जो राग होता है उसे कामराग वा. ७, २८, ४, चा. सा. पृ. ७)। ३. कामस्य कहते हैं। कन्दर्पस्य तीव्रः प्रवृद्धः अभिनिवेश अनुपरतप्रवृत्तिः कामरूप, कामरूपित्व- १. जुगवं बहुरूवाणि जं परिणामः कामतीव्राभिनिवेश:, यस्मिन् काले स्त्रियां विरयदि कामरूवरिद्धी सा ।। (ति.प. ४-१०३२)। प्रवृत्तिरुक्ता तस्मिन्नपि काले कामतीव्राभिनिवेशः । २. कामरूपित्वं नानाश्रयानेकरूपधारणं युगपदपि (त. वृत्ति श्रुत. ७-२८)। ४. कामसेवायां प्रचुर- कुर्यात् । तेजोनिसर्गे सामर्थ्यमेतदादि इति इन्द्रियेषु तृष्णाबहुला कांक्षा, यस्मिन् काले स्त्रियां प्रवृत्तिरक्ता मतिज्ञानविशुद्धिबिशेषात् द्वारात् स्पर्शनाऽऽस्वादनतस्मिन् काले कामतीव्राभिनिवेशः। (कातिके. टी. घ्राण-दर्शन-श्रवणानि विषयाणां कुर्यात् । (त. भा. ३३७-३८) । ५. कामतीव्राभिनिवेशो दोषोऽती- १०-७, प. ३१६)। ३. युगपदनेकाकाररूपविकरणचारसंज्ञकः । दुर्दान्तवेदनाक्रान्तस्मरसंस्कारपीडितः। शक्तिः कामरूपित्वमिति । (त. वा. ३, ३६, ३, (लाटीसंहिता ६-७८)।
पृ. २०३)। ४. युगपदनेकरूपधारणं कामरूपित्वम् । १ कामसेवन की बढ़ी हुई परिणति को कामतीव्रा- (त. भा. सिद्ध. व. १०-७)। ५. इच्छिदरूवग्गहणभिनिवेश कहते हैं।
सत्ती कामरूवित्तं णाम । (धव. पु. ६, पृ. ७६)। कामतीव्राभिलाष—देखो कामतीव्राभिनिवेश । ६. युगपदनेकाकाररूपविकरणशक्तिः कामरूपित्व१. कामे तीवाभिलाषश्चेति सूचनात् काम-भोगती. मिति, यथाभिलषितैकमर्ताकारं स्वाङ्गस्य मुहुवाभिलाषः । कामाः शब्दादयः, भोगा रसादयः, महः करणं कामरूपित्वमिति वा । (चा. सा. पृ. एतेषु तीव्राभिलाषः अत्यन्ततदध्यवसायित्वम् । (श्रा. १८)। ७. कामरूपित्वं युगपदेव नानाकाररूपविप्र.टो. २७३)। २. तथा कामे कामोदयजन्ये करणशक्तिः । (योगशा. स्वो. विव. १-८)। ८. मैथुने अथवा सूचनात् सूत्रमिति न्यायात् कामेष अनेकरूपकरणं मर्ताकार करणं वा कामरूपित्वम् । काम-भोगेषु तत्र कामौ शब्द-रूपे, भोगा गन्ध- (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६) ।
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
कामविनय] ३३६, जैन-लक्षणावली
[कायक्लेश १ एक साथ अनेक रूपों के रचने की शक्ति को है उसे काय कहते हैं । ३ पृथिवी काय प्रावि नामकामरूप ऋद्धि कहते हैं। २ अनेक प्राश्रय वाले कर्मविशेषके उदय से प्राप्त अवस्थाविशेष को काय नाना रूपों को एक ही साथ धारण करना, तेजो- कहा जाता है। लेश्या प्रादि (शीतलेश्या) के छोड़ने का सामर्थ्य कायक्रिया-१. कायस्य सम्बन्धिनी क्रिया कायप्राप्त होना, तथा इन्द्रियों में मतिज्ञान की विशुद्धि- शब्देनोच्यते, तस्याः कारणभतात्मनः क्रिया कायविशेष से रूपादि विषयों का देश व प्रमाण के क्रिया । (भ. प्रा. विजयो. ११८८)। २. कायस्य नियमोल्लंघनपूर्वक ग्रहण करना; इसे कामरूपित्व औदारिकादिशरीरस्य सम्बन्धिनी क्रिया परिणामः । ऋद्धि कहा जाता है।
उपकरणग्रहण-निक्षेपण-गमनादिकर्मलक्षणा कायकामविनय-शब्दादिविषयसम्पत्तिनिमित्तं यथा क्रिया। (भ. प्रा. मला. ११८८)। तथा प्रवर्तनं कामविनयः। (उत्तरा. नि. शा. वृ. १ काय शब्द से यहां (कायक्रिया की निवृत्तिस्वरूप २६, पृ. २४)।
कायगुप्ति के प्रकरण में) शरीर सम्बन्धी क्रिया का इन्द्रियों के अभीष्ट शब्दादि विषयों की प्राप्ति के । अभिप्राय रहा है, उसकी कारणभूत जो प्रात्मा की लिए जिस किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करने को क्रिया है उसे कायक्रिया कहा गया है। कामविनय कहते हैं।
कायक्लेश-१. ठाण-सयणासणेहिं य विविहेहिं य काय-१. प्रात्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गल पिण्ड: कायः। उग्गये [हे] हिं बहुएहिं । अणुवीचीपरिताप्रो काय(त. वा. ६, ७,७, पृ. ६०३; धव. पु. १, पृ. १३८)। किलेसो हवदि एसो।। (मूला. ५-१५६) । २. २. अप्पप्पवुत्तिसंचिदपोग्गलपिडं वियाण कामो ति। अब्भट्टणं च रादो अण्हाणमदंतधोवणं चेव । काय(प्रा. पंचसं. १-७५; धव. पु. १, पृ. १३६ उद.)। किलेंसो एसो सीदुण्हादावणादी य॥ (भ. प्रा. ३. सप्तानां कायानां सामान्यं कायः । (धव. पु. १. २२७) । ३. आतपस्थानं वृक्षमूलनिवासो निरावरणपृ. ३०८); आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिण्डः कायः. शयन बहुविधप्रतिमास्थानमित्येवमादिः कायक्लेशः, प्रयिवीकायादिनामकर्मजनितपरिणामो वा कार्य- तत् षष्ठं तपः । xxx यदृच्छयोपनिपतितपरिकारणोपचारेण कायः, चीयन्ते अस्मिन् जीवा इति षहः, स्वयंकृत: कायक्लेशः। (स. सि. ६-१९)। व्युत्पत्तेर्वा कायः। (धव. पु. ७, पृ. ६)। ४. जाई ४. कायक्लेशो ऽनेकविधः । तद्यथा-स्थानवीराअविणाभावी तस-थावर-उदय जो हवे कानो। (गो. सनोत्कटुकासनैकपार्श्वदण्डायतशयनातापनाप्रावृताजी. १८७)। ५. जीवस्य निवासादि शरीरं कायो- दीनि । (त. भा. ६-१९)। ५. कायक्लेश: स्थानऽभिधीयते, चीयते पुद्गल रवयवममाधानद्वारेण मौनातपनादिरनेकधा । प्रतिमास्थानं वाचंयमत्वम् निर्वर्त्यत इति काय इति भावः । (प्राव. हरि. वृ. प्रातपनं वृक्षमूल वासः इत्येवमादिना शरीरपरिखेदः मल. हेम. टि. पृ. ६६)। ६. प्रौदारिकशरीरनाम- कायक्लेश इत्युच्यते । (त. वा. ६, १६, १३) । कर्मोदयवशात् पुद्गलैश्चीयते इति कायः । (चा. सा. ६. चीयत इति कायः देहस्तस्य क्लेश: अवनामादिपृ. ३६)। ७. जाति नामकर्माविनाभावित्रस-स्था- लक्षणः कायक्लेशः। (प्राव. नि. हरि. व. ११०८, वरनामकर्मोदयाज्जातः प्रात्मनस्त्रसत्वपर्यायः स्था- पृ. ५१६)। ७. कायः शरीरम्, तस्य क्लेशो बाधवरत्वपर्यायश्च कायः इति जिनमते सर्वज्ञवीतराग- नम् । (त. भा. सिद्ध. व. ९-१६) । ८. रुक्खमलसमये भणितो भवेत् । कायते-त्रस इति स्थावर इति भोकासादावणजोग-पलियंक-कुक्कुटासण-गोदोहद्धच व्यवहतु जनैः शब्द्यते -कथ्यते इति कायः । ४ पलियंक-वीरासण-मयरमुह-हत्थिसोंडादीहिं जं जीवxx चीयते पुष्टि नीयते पुद्गलस्कन्धरिति कायः दमणं सो कायकिलेसो। (धव. पु. १३, पृ. ५८)। औदारिकादिशरीरम् । (गो. जी. म. प्र. टी. १८१) ९. कायक्लेशः स्थान-मौनातपनादिः। (त. श्लो. ८. जातिनामकर्मोदयाविनाभावि-बस-स्थावरनाम- E-१६)। १०. दुस्सह उवसग्गजई अातावणसीयकर्मोदयजनितः आत्मनः त्रसत्व-स्थावरत्वपर्यायः वायखिण्णो वि । जो णवि खेदं गच्छदि कायकिलेसो कायो नाम । (गो. जी. जी. प्र. टी. १८१)। तवो तस्स। (कार्तिके. टी. ४५०)। ११. काय१ अपनी प्रवृत्ति से जो पुद्गलपिण्ड संचित हीता सुखाभिलापत्य जनं कायक्लेशः। (भ. प्रा. विजयो.
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
कायक्लेश
३३७, जैन-लक्षणावली
[कायगुप्ति
६)। १२. कायस्य निग्रहं प्राहस्तपः परमदुश्चरम् । शीतलद्रव्यप्रदेशानां स्मरणम्, कठोरातपद्वेषः, (म. पु. २०-७८)। १३. अनेकप्रतिमास्थानं मौनं शीतलाद्दे शादकृतगात्रप्रमार्जनस्य आतपप्रवेशः, शीतसहिष्णुता । आतपस्थानमित्यादि कायक्लेशो आतपसन्तप्तशरीरस्य वा अप्रमृष्टगात्रस्य छायानु. मतं तपः ॥ (त. सा. ७-१३)। १४. वृक्षमूला- प्रवेशः इत्यादिकः । (भ. प्रा. विजयो. ४८७)। भ्रावकाशाऽऽतपनयोग वीरासन-कुक्कुटासन-पर्यकार्द्ध- उष्णता से पीड़ित होने पर शीतल द्रव्यों के समापर्यक-गोदोहन -मकर मुख-हस्तिशुण्डा- मृतकशयनैक- गम की इच्छा करना, यह मेरा सन्ताप कैसे दूर पार्श्वदण्ड-धनुःशय्यादिभिः शरीरपरिखेदः काय- होगा, इस प्रकार का विचार करना, पूर्व अनुभूत क्लेश इत्युच्यते । (चा. सा. पृ. ६०)। १५. सुखो. शीतल द्रव्य वाले प्रदेशों का स्मरण करना, कठोर पलालितः कायो नालं सद्ध्यानसिद्धये। तद्दे हदमनं प्रातप के प्रति द्वेषबुद्धि रखना, शीतल स्थान से कायक्लेश: क्लेशर्मतो चितः ।। (प्राचा. सा. ६-१७)। प्राकर शरीर के विना प्रमार्जन किये ही प्रातप में १६. ऊर्कािद्ययनैः शवादिशयनैर्वीरासनाद्यासनैः, प्रवेश करना, तथा घाम से संतप्त होने पर विना स्थानैरेकपदाग्रगामिभिरनिष्ठीवाग्रिमावग्रहैः । योग- शरीर के प्रमार्जन किये ही छाया में प्रवेश करना; श्चातपनादिभिः प्रशमिना संतापनं यत्तनोः, कायक्ले- इत्यादि प्रातपन-कायक्लेश के अतिचार हैं। शमिदं तपोऽयुपनतौ सद्ध्यानसिद्ध्यै भजेत् ॥ कायगुप्ति-१. बंधणछेदणमारणाकुंचण तह (अन. घ. ७-३२)। १७. कायक्लेशः जलौदनभोज- पसारणादीया । कायकिरियाणियत्ती णिद्दिट्टा कायनादि । (भावप्रा. टी. ७८)। १८. कायस्य क्लेशो गुत्ति त्ति ।। (नि. सा. ६८)। २. कायकिरियाणिदुःखं कायक्लेश: । उष्णतौ पातपे स्थितिः, वर्षतौं यत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती। हिंसादिणियत्ती तरुमूलनिवासित्वम्, शीततौ निवारण [निरावरण] वा सरीरगुत्ती हवदि एसा ।। (मूला. ५-१३६; भ. स्थाने शयनम्, नानाप्रकारप्रतिमास्थानं चैत्येवमा- प्रा. ११८८)। ३. तत्र शयनासनादान-निक्षेपदिकः कायक्लेशः षष्ठं तपः। (त. वृत्ति श्रुत. ६, स्थान चंक्रमणेषु कायचेष्टानियम: कायगुप्तिः । (त. १६)। १६. आतापनादियोगेन वीर्य [वीर] चर्यास- भा. ९-४)। ४. कायस्य गुप्तिः संरक्षणमुन्मार्गनेन वा । वपुषः क्लेशकरणं कायक्लेशः प्रकीर्तितः ॥ गतिरागमत: । (त. भा. हरि. वृ. ९-४) । ५. (लाटीसंहिता ७-८०)।
कायक्रियानिवृत्तिः कायोत्सर्गे शरीरगुप्तिः स्यात् । १ स्थान (कायोत्सर्ग), एक पार्श्वभाग से सोना, दोषेभ्यो वा हिंसादिम्यो विरतिस्तयोगुप्तिः ।। (त. प्रासन-उत्कुटिका-वीरासन आदि; इन विविध भा. सिद्ध. व. ६-४ उद्.)। ६. अप्रमत्ततया यदप्रकार के बहुत से अवग्रहों-धर्मोपकारक हेतुओं- प्रत्यवेक्षिताप्रमाजितभूभागेऽचंक्रमणं, द्रव्यान्तरादानके द्वारा प्रागमानुसार आतापनयोग आदि से निक्षेप-शयनासनक्रियाणामकरण कायगुप्तिः कायोशरीर को क्लेश पहुंचाना; इसका नाम कायक्लेश त्सर्गो वा। Xxx प्राणिपीडाकारिण्याः कायहै । ४ स्थान-ऊर्ध्वस्थित रहना (कायोत्सर्ग क्रियाया निवृत्तिः कायगुप्तिः। (भ. प्रा. विजयो. करना), वीरासन, उत्कटुकासन, दण्ड के समान ११५); कायस्य सम्बन्धिनी क्रिया कायशब्देशरीर को स्थिर करके एक कर्वट से सोना, प्राता- नोच्यते, तस्या: कारणभूतात्मनः क्रिया कायक्रिया, पन-ग्रीष्म में तीक्ष्ण सूर्य की किरणों के सन्ताप तस्या निवृत्तिः कायोत्सर्गः, शरीरस्याशुचितामको सहन करते हुए ध्यानावस्थित रहना, और सारतामापन्निमित्ततां चावेत्य तद्गतममतापरि. अप्रावृत -- शीतकाल में खुले आकाश में प्रावरण से हारः कायगुप्तिः। (भ. प्रा. विजयो. ११८८)। रहित होकर-ध्यान करना; इत्यादि प्रकार से ७. सम्यग्दण्डो वपुषः XXX गुप्तीनां त्रितयमकायक्लेश तप अनेक प्रकार का है।
वगम्यम् ।। (पु. सि. २०२)। ८. कायावद्यक्रियाकायक्लेश-प्रातपनातिचार-कायक्लेशस्यातपन- त्याग: कायगुप्तिर्मताऽथवा । कायोत्सर्गः समुत्सर्ग: स्यातिचार:-उष्णादितस्य शीतलद्रव्यसमागमेच्छा, संगस्य द्विविधस्य यः ।। (प्राचा. सा. ५-१४०)। सन्तापायायो मम कथं स्यादिति चिन्ता, पूर्वानुभत-ह. स्थिरीकृतशरीरस्य पर्यसंस्थितस्य वा। परी
ल. ४३
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
कायगुप्तिअतिचार] ३३८, जैन-लक्षणावली
[कायपरीत षहप्रपातेऽपि कायगुप्तिर्मता मुनेः । (ज्ञानार्णव १८, भूमिपर चारों ओर हरितके होने पर या प्रबल वायु १८)। १०. उपसर्गप्रसंगेऽपि कायोत्सर्गजुषो मुनेः। के वश हरितके मानेपर क्रोधसे या अभिमानसे चुपस्थिरीभावः शरीरस्य कायगुप्तिनिगद्यते ।। शयना- चाप स्थित होना; निश्चल स्थिति कायोत्सर्ग-कायसन-निक्षेपादान-चंक्रमणेषु च । स्थानेषु चेष्टा- गुप्ति है, इस पक्षमें शरीरसे ममताका न छोडना, नियमः कायगुप्तिस्तु सा परा ॥ (योगशा. १-४३, अथवा कायोत्सर्ग में दोष लगाना, यह कायगुप्तिके ४४) । ११.xxx कायोत्सर्गस्वभावां विशर- अतिचार हैं । (मूलमें पाठ कुछ अव्यवस्थितसा रतचुरापोहदेहामनीहा-कायां वा कायगुप्ति xx दिखता है)। X॥ (प्र. ध. ४-१५६) । १२. शरीरस्याशुचिता- कायचिकित्सा-कायस्य ज्वरादिरोगग्रस्त शरीरस्य मसारताम[मा]पन्निमित्ततां भावयतस्तद्गतममत्व- चिकित्सा-रोगप्रतिक्रिया-यत्राभिधीयते तत्कायचि. परिहारः कर्मादाननिमित्तसकलकायक्रियानिवृत्तिः कित्सव (विपाक. अभय. व. ७, पृ. ४६)। कायगोचरममतात्यागपुरोगा कायगुप्तिरित्युमयं ज्वरादि रोग-ग्रस्त शरीर की चिकित्सा (उपचार) तल्लक्षणम् । (भ. प्रा. मूला. ११८८)।
का जहां वर्णन किया जाता है उसे कायचिकित्सा ३ शयन, प्रासन, पादान-निक्षेप, स्थान (ऊर्ध्व- कहते हैं। स्थिति) और गमन आदि क्रियानों के करते समय कायदुःप्रणिधान-१. दुष्ठ प्रणिधानमन्यथा वा शरीर की प्रवृत्ति को नियमित रखना-जीव- दुःप्रणिधानम् । प्रणिधानं प्रयोग: परिणाम इत्यनाजन्तुओं को देख कर व रजोहरणादि से प्रमाजित न्तरम् । दुष्ठ पापं प्रणिधानं दुःप्रणिधानम्, अन्यथा कर सावधानीपूर्वक उक्त कार्यों को करना; इसका वा प्रणिधानं दुःप्रणिधानम् । तत्र क्रोधादिपरिणामनाम कायगुप्ति है।
वशात दुष्ठ प्रणिधानं शरीरावयवानाम् अनितमकायगुप्तिप्रतिचार - १. असमाहितचित्ततगा वस्थानम् । (त. वा. ७, ३३, २)। २, अनिरिकायक्रियानिवृत्तिः कायगुप्तेरतिचारः। एकपादादि- क्खियापमज्जिय थंडिल्ले ठाणमाइ सेवंतो। हिंसास्थानं वा जनसंचरणदेशे, अशुभध्यानाभिनिविष्टस्य भावे वि न सो कडसामाइग्रो पमायायो। (श्रा. वा निश्चलता, प्राप्ताभासप्रतिबिम्बाभिमुखतया प्र. ३१५) । ३. शरीरावयवानामनिभृतावस्थानं वा तदाराधनव्यात इवावस्थानम्, सचित्तभूमौ कायदुःप्रणिधानम् । (चा. सा. पृ. ११)। ४. तत्र संपतत्सु समन्ततः अशेषेषु महति वा वाते हरितेषु शरीरावयवानां पाणि-पादादीनामनिभृतताऽवस्थापन रोषाद्वा दात् तूष्णीमवस्थानम्, निश्चला स्थिति: कायदुष्प्रणिधानम् । (योगशा. स्वो. विव. ३.११६)। कायोत्सर्गः, कायगुप्तिरित्यस्मिन् पक्षे शरीरममताया ५. दुष्टप्रणिधानं सावध प्रवर्तनम्, तत्र हस्त-पादाअपरित्यागः कायोत्सर्गदोषो वा कायगुप्तेरतिचारः। दीनामनिश्चयभूतत्वावस्थापनं कायदुष्प्रणिधानम् । (भ. प्रा. विजयो. १६)। २. कायगुप्ते: (अतिचारः) (सा. ध. स्वो. टी. ५-३३)। ६. काययोगस्ततोअसमाहितचित्ततया कायक्रियानिवृत्तिर्जनसंचरणदेशे ऽन्यत्र हस्तसंज्ञादिदर्शने । वर्तते तदतीचारः कायएकपादादिना अवस्थानम्, अशुभध्यानाभिनिविष्टस्य दुष्प्रणिधानकः ।। (लाटीसं. ६-१९२)। निश्चलत्वम्, प्राप्ताभासप्रतिबिम्बाभिमुखतया तदा- १ पापपूर्ण प्रयोग अथवा अन्यथा परिणति का नाम राधनव्यापृतस्येवावस्थानम, सचित्तभूम्यादी रोषाद दुष्प्रणिधान है। क्रोधादि के वश शरीर के अवयवों
निश्चला स्थितिः कायोत्सर्गे तद्दोषाः कायम- को अविनीततापूर्ण रखना, इसे कायदुष्प्रणिधान मत्वात्यागो वेत्यादिकः । (भ.पा. मला. टी. १६)। कहते हैं। २ विना देखे और कोमल वस्त्रादि के १ अस्वस्थ मनसे शरीर सम्बन्धी क्रियाओंका परि. द्वारा विना प्रमार्जन किये ही निर्जन्तु स्थान में भी त्याग करना, यह कायगुप्तिका अतिचार है। अथवा कायोत्सर्ग या उपवेशन (पद्मासन आदि) करना, जनसंचारके स्थानमें एक पाँव प्रादिसे स्थित होना, यह प्रमादयुक्त होने के कारण सामायिक का कायप्रशभ ध्यानमें मग्न होकर निश्चलतापूर्वक स्थित दुष्प्रणिधान नाम का अतिचार है। होना, प्राप्ताभासों की प्रतिमानोंके सामने उनके कायपरीत-यः प्रत्येकशरीरी स कायपरीतः । प्राराधनमें तत्पर के समान अवस्थित रहना; सचित्त (प्रज्ञाप. मलय. व. १८-२५३, पृ. ३६४) ।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
कायप्रवीचार ३३६, जैन-लक्षणावली
[काययोग जो जीव प्रत्येकशरीरवाला हो वह कायपरीत कह- म्भजनितात्मप्रदेशप्रचयशक्तिः कायबलप्राणः । (गो. लाता है।
जी. जी. प्र. टी. १२६)। कायप्रवीचार-कायेन प्रवीचारो मैथुनव्यवहारः शरीरनामकर्म का उदय होने पर जो शरीरचेष्टा सुरतोपसेवनं येषां ते कायप्रवीचाराः। (त. वत्ति को उत्पन्न करने वाली शक्ति उदित होती है उसे श्रुत. ४-७)।
कायबलप्राण कहते हैं। शरीर से मैथुन सेवन करने वालों को कायप्रवीचार काययोग--१. वीर्यान्तरायक्षयोपशमसद्भावे सति कहते हैं।
औदारिकादिसप्तविधकायवर्गणान्यतमालम्बनापेक्षया कायबल ऋद्धि-१. उक्कस्सखग्रोवसमे पविसे से आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः काययोगः । (स. सि. ६-१; विरियविग्घपगडीए । मास-चउमासपमुहे काउस्सग्गे त. वा. ६, १, १०)। २. कायात्मप्रदेशपरिणामो वि समहीणा ॥ उच्चट्ठिय तेलोक्कं झत्ति कणिठे- गमनादिक्रियाहेतुः काययोगः । (त. भा. ६-१)। गुलीए अण्णत्थं । थविदुं जीए समत्था सा रिद्धी ३. औदारिकादिशरीरयुक्तस्याऽऽत्मनो वीर्यपरिणतिकायबलणामा ।। (ति. प. ४, १०६५-६६) । २. विशेषः काययोगः । (प्राव. नि. हरि. वृ. ५८३) । वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूताऽसाधारणकायबलत्वा. ४. तत्रौदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिन्मासिक-चातुर्मासिक-सांवत्सरिकादिप्रतिमायोगधार- विशेषः काययोगः । (नन्दी. हरि. व. पृ. ४६) । णेऽपि, श्रम-क्लमविरहिताः कायबलिनः । (त. वा. ५. तत्र कायः शरीरम् प्रात्मनो वा निवासः पुद्गल३, ३६, ३)। ३. तिहुवणं करंगुलियाए उद्धरि. द्रव्यघटितः स्थविरस्य दुर्बलस्य वा ऽध्वालम्बनयष्टिदूण अण्णत्थ ठवणक्खमो कायबली णाम। (धव. पु. कादिवद् विषमेषूपग्राहकस्तद्योगाज्जीवस्य वीर्यपरि६, पृ. ९९)। ४. [वीर्यान्तरायक्षयोपशमावि ता. णामः शक्तिः सामर्थ्य काययोगः । (त. भा. सिद्ध. ऽसाधारणकायबलत्वात् मासिक-चातुर्मासिक-सांवत्स. वृ.६-१)। ६. कायक्रियासमुत्पत्त्यर्थः प्रयत्नः काय. रिकादिप्रतिमायोग] धारणेऽपि श्रमक्लेशविरहिता- योगः । (धव. पु. १, पृ. २७६); सप्तानां कायानां स्त्रिभुवनमपि कनीस्यांगुल्योद्घत्याऽन्यत्र स्थापयितुं सामान्यं कायः, तेन जनितेन वीर्येण जीवप्रदेशपरिसमर्थाश्च कायबलिनः । (चा. सा. पृ. ९८)। ५. स्पन्दलक्षणेन योग: काययोगः । (धव. पु. १, पृ. वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतासाधारणकायबलत्वात् ३०८); चउव्विहसरीराणि अवलंबिय जीवपदेसाणं प्रतिमयावतिष्ठमानाः श्रम-क्लमविरहिता वर्षमात्र- संकोच-विकोचो सो कायजोगो णाम । (धव. पु. ७, प्रतिमाधरा: बाहुबलिप्रभृतयः कायबलिन: । (योगशा. स्वो. विव. १-८, पृ. ३६)। ६. मास-चतुर्मास- वसमेण देसघादिफद्दयाणमुदयेण जणिदो खोवसषण्मास-वर्षपर्यन्त कायोत्सर्गकरणसमर्था अंगुल्यग्रेणापि मिग्रो कायजोगो। (धव. पु. ७, पृ. ७८); वादत्रिभुवनमपि उद्धृत्य अन्यत्र स्थापनसमर्थाः ये ते पित्त-सें भादीहि जणिदपरिस्समेण जादजीवपदेसपरिकायबलिनः । (न. वृत्ति श्रुत. ३-३६) ।
प्फदो कायजोगो णाम । (धव. पु. १०, पृ. ४३८)। २ वीर्यान्त राय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए ७. काययोग्यपुद्गलात्मप्रदेशपरिणामो गमनादिअसाधारण शारीरिक बल से संयुक्त होने के कारण क्रियाहेतुः काययोगः। (योगशा. स्वो. विव. ७, मासिक, चातुर्मासिक और वार्षिक प्रतिमायोग के ७४); तत्रौदारिक-वैक्रियाहारक-तैजस-कामणिशरीरधारण करने पर भी जो किसी प्रकार के परिश्रम वतो जीवस्य वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः। (योगव खेद का अनुभव नहीं करते हैं वे कायबली- शा. स्वो. विव. ११-१०)। ८. चीयत इति कायः, कायबल ऋद्धि के धारक-कहे जाते हैं।
शरीरम् इति भावः। (स्थानां. अभय.व. १-२१, कायबली-देखो कायबल ऋद्धि ।
पृ.१८); औदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यकायबलप्रारण-१. देहृदये कायाऽऽणाxxx॥ परिणतिविशेषः काययोगः। (स्थानां. अभय, व. (गो. जी. १३१)। २. देहोदये शरीरनामकर्मोदये १-२१, पृ. २६)। ६. वीर्यान्तरायक्षयोपशमे सति कायचेष्टाजननशक्तिरूप: कायबलप्राणः । (गो. जी. औदारिक-प्रौदारिकमिश्र-वक्रियिक-वक्रियिकभिश्राम. प्र. व जी. प्र. टी. १३१) । ३. कायवर्गणावष्ट- हारकाहारकमिश्र-कार्मणलक्षणसप्तप्रकारशरीरवर्गणा
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
कायवध] ३४०, जैन-लक्षणावली
[कायस्वभाव नां मध्ये अन्यतमवर्गणालम्बनापेक्षयात्मप्रदेशचलनं सं. श्रा. ७-५०)। परिस्पन्दनं परिस्फुरणं काययोगः । (त. वृत्ति श्रुत. १ वस्त्र, आभरण और शरीरसंस्कार से रहित;
यथाजात मल को धारण करने वाली एवं अंगविकार १वीर्यारतराय के क्षयोपशम के सदभाव में औदा- से रहित जो सर्वत्र यत्नपूर्ण प्रवृत्ति होती है। उसे रिक व औदारिकमिश्र आदि सात प्रकार की वर्ग- कायशद्धि कहते हैं। इसके होते हए न अपने से णामों में किसी एक का पालम्बन लेकर जो प्रात्म- किसी अन्य को भय होता है और न स्वयं को प्रदेशों का परिस्पन्द हुआ करता है उसे काययोग किसी अन्य से भय होता है । कहते हैं।
कायसंयम-१. कायसंयमो णाम आवस्सगाइजोगे कायवध-xxx कायवधे पृथिव्याधुपमर्दे x मोत्तुं सुसमाहियपाणि-पादस्स कुम्मो इव गुत्तिदियस्स XX । (श्रा. प्र.टी. ३४६)
चिट्ठमाणस्स संजमो भवई । (दशवै. चू. पृ. २१)। पथिवीकायिकादि जीवों के पीड़ित करने को काय- २. कायसंयम इति। धावन-वल्गन-प्लवनादिनिवृत्तिः, वध कहते हैं।
शुभक्रियासु च प्रवृत्तिः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६, कायविनय-१. नी सिज्ज गइं ठाणं नीयं च पृ. १९८; योगशा. स्वो. विव. ४-६३)। प्रासणाणि अ। नीनं च पाये वंदिज्जा नीनं कुज्जा १. आवश्यक क्रियाओं को छोड़कर अन्य कार्यों के . अ अंजलि ॥ (दशवै. ६,२, १७)। २. तत्थ काय- करने में कछुए के समान इन्द्रियों को संकुचित कर -विणो नाम तेसि चेव पायरियादीणं अद्धाणपरि- --स्वाधीन करके-हाथ-पांवों को शान्त रखने - स्संताण वा सीसाउ प्रारब्भ जाव पादतला ताव वाले के संयम को कायसंयम कहा जाता है। परमादरेण विस्सामणं । (दशवै. चू. पृ. २७)। कायस्थिति-१. कायस्थितिरेककायापरित्यागेन १ प्राचार्य प्रादि की अपेक्षा नीची शय्या पर सोना, नानाभव ग्रहणविषया। (त. वा. ३, ३६, ६)। उनके पीछे बहुत दूर न रहकर अनुद्धततापूर्वक २. तत्र कायस्थितिरिति कः शब्दार्थः ? उच्यतेगमन करना, उनके स्थान की अपेक्षा नीचे स्थान ___ काय इह पर्याय गृह्यते, काय इव काय इत्युपमानात् । . पर स्थित होना, उनकी अनुज्ञापूर्वक हीन प्रासन स च द्विधा-सामान्यरूपो विशेषरूपश्च । तत्र पर बैठना, सिर झुकाकर उनके चरणों की वन्दना सामान्यरूपो निविशेषणो जीवत्वलक्षणो विशेषरूपो करना तथा प्रश्न प्रादि के समय शरीर को नम्री- नरयिकत्वादिलक्षणः, तस्य स्थितिरबस्थानं कायभूत रखना, इस प्रकार के नम्रतापूर्ण व्यवहार को स्थितिः । विमुक्तं भवति ? सामान्यरूपेण विशेषकायविनय कहा जाता है।
रूपेण वा पर्यायेणादिष्टस्य जीवस्य यदव्यवच्छेदेन कायव्युत्सर्ग-देखो कायोत्सर्ग ।
भवनं सा कायस्थितिः। (प्रज्ञाप. मलय. व. १७, कायशुद्धि-१. कायशुद्धिनिरावरणाभरणा निरस्त. २२६, पृ. ३७५)। संस्कारा यथाजातमलधारिणी निराकृतांगविकारा १एक काय को-औदारिक प्रादि शरीर कोसर्वत्र प्रयतवृत्तिः प्रशमसुखं मूर्तमिव प्रदर्शयन्तीति न छोड़ कर उसके रहने तक नाना भवों को प्रहण तस्यां सत्यां न स्वतोऽन्यस्य भयमुपजायते नाप्यन्य- करते हुए जितना काल वीतता है, उसका नाम • तस्तस्य । (त. वा. ६, ६, १६; त. श्लो. ६-६; कायस्थिति है। २ काय शब्द से यहां पर्याय की -चा. सा. पृ. ३४)। २. विश्रम्भोप [त्पा] दिका लो- ग्रहण किया गया है। वह दो प्रकार की हैकस्याऽस्तसंस्कारसंहतिः। कायशुद्धिः क्षमामूर्तिभूतेवा- सामान्यरूप और विशेषरूप । नारकादि विशेषण से ऽऽभाति नि:स्पृहा ॥ विरागता-लतोद्भूतिभूभिर्भीति- रहित जीव की जीवत्वरूप पर्याय सामान्य और विवजिता । जातरूपमनोहारिण्येषां भषा तप:श्रियः। उक्त विशेषण से सहित नारक आदि रूप विशेष (प्राचा. सा. ८, १०-११)। ३. कायशुद्धिः सर्वत्र पर्याय है। उक्त दोनों में विवक्षित पर्याय का जब संवृताचारतया प्रवर्तनम् । (सा. ध. स्वो. टी. ५, तक दिच्छेद नहीं होता है उतने काल का नाम ४५)। ४. हस्त-पाद-शिरःकम्पावष्टम्भादिर्न यत्र कायस्थिति है। वै । कायदोषो भवेदेषा कायशद्धिरिहागमे ।। (धर्म- कायस्वभाव-१. कायस्वभावोऽनित्यता दुःखहेतु
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
कायापरोत ]
त्वं निःसारताsशुचित्वमिति । ( त. भा. ७-७ ) । २. कायस्वभावोऽपि पितृमात्रोरोजः शुक्रमुभयमेकीभूतं गर्भजानां प्राणिनां शरीरतया परिणमत इत्यादिलक्षणः । सम्मूर्च्छनोपपातजन्मनां तूत्पत्तिदेशावगाढ़स्कन्धादाननिर्माणानि वपूंषि भवन्त्यशुभपरिणामभाञ्जि नानाकाराणि परिशटनोपचितिधर्मकत्वात् विनश्वराणीत्येवंलक्षण: कायस्वभावः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७-७ ) । १ श्रनित्यता, दुःखहेतुता, निःसारता और पवित्रता; यह काय (शरीर) का स्वभाव है । कायापरीत — कायापरीतोऽनन्तकायिकः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १८-२५३, पृ. ३६४) । अनन्तकायिक ( साधारणशरीरी) जीव कायापरीत कहलाता है ।
कायिक अशुभ योग - तत्राशुभो हिसा स्तेया ब्रह्मा-दीनि कायिक: । ( त. भा. ६-१ ) । हिंसा, चोरी और कुशील सेवनादिरूप प्रवृत्ति को कायिक अशुभ योग कहते हैं ।
कायिक समीक्ष्याधिकरण - कायिकं च प्रयोजनमन्तरेण गच्छंस्तिष्ठन्नासीनो वा सचित्तेतरपत्रपुष्प - फल छेदन - भेदन - कुट्टन क्षेपणादीनि कुर्यात्, अग्निविष क्षारादिप्रदानं चारभेत इत्येवमादि तत्सर्वमसमीक्ष्याधिकरणम् । (त. वा. ७, ३२, ५; चा. सा. पू. १० ) ।
प्रयोजन के विना चलते हुए, स्थित रहकर या बैठेबैठे सचित्त या चित्त पत्र, पुष्प और फल श्रादि का छेदना, भेदना, कूटना व फेंकना श्रादि कार्य करना तथा श्रग्नि, विष व क्षार आदि पदार्थों का देना; इत्यादि प्रकार के कार्यों के करने को कायिक समीक्ष्याधिकरण कहते हैं ।
कायिक द्रव्यक्रोधविवेक - देखो कषायविवेक । कुयाद्यकरणं कायिको द्रव्यतः क्रोधविवेकः । (भ. श्री. मूला. १६८ ) । भृकुटि श्रादि के नहीं चढ़ाने को द्रव्यतः कायिक विवेक कहते हैं ।
कायिक द्रव्यमानविवेक - देखो कषायविवेक । गात्रस्तब्धताद्यकरणं कायिको द्रव्यतो मानविवेकः । (भ. प्रा. मूला. १६८ ) । अहंकारयुक्त होकर शरीर की उद्धतता के न करने को द्रव्यतः कायिक मानविवेक कहते हैं ।
[ कायिकी क्रिया
कायिक द्रव्यमायाविवेक - देखो कषायविवेक । अन्यत्कुर्वत इवान्यस्य कायेनाकरणं कायिकः । (भ. प्रा. मूला. १६८ ) ।
काय से अन्य कार्य करते हुए के समान अन्य कार्य के न करने को द्रव्यतः मायाविवेक कहते हैं । कायिक विनय - १. श्रब्भुट्ठाणं किदिश्रम्मं णवण अंजलीय मुंडाणं । पच्चूगच्छणमेत्ते पत्थिदस्सणुसाघणं चेव || णीचं ठाणं णीचं गमणं णीचं च असणं सयणं । आसणदाणं उवगरणदाण प्रोगासदाणं च ॥ परुिवकायसं फासणदा य पडिरूवकालकिरिया य । पेसणकरणं संथरकरणं उवकरण पडिलिहणं ॥ इच्चेवमादिश्रो जो उवयारो कीरदे सरीरेण । एसो काइविण जहारिहं साहुवग्गस्स ।। (मूला. ५, १७६ से १७) । २. किरियं श्रब्भुद्वाणं णवणंजलि ग्रासणुवकरणदाणं । एते पच्चुग्गमणं च गच्छमाणे अणुव्वजणं ।। कायाणुरूवमद्दणकरणं कालाणुरूवपडियरणं । संथारभणियकरणं उपयरणाणं च पडिलिहणं ॥ इच्चेवमाइ काइयविण रिसि सावयाण कायव्वो । जिणवयण मणुगणं तेण देसविरएण जहजोग्गं ॥ ( बसु. श्रा. ३२८-३०) ।
१ साधुओं के श्राने पर उठकर खड़े हो जाना, कृतिकर्म करना -- सिद्धादि भक्तिपूर्वक कायोत्सर्ग प्रावि करना, हाथ जोड़कर नमस्कार करना, सम्मुख जाना - अगवानी करना, जाते समय पीछे जाना, स्वयं नीचा स्थान ग्रहण करना, नीचे गमन करनागुरु के बायें अथवा पीछे चलना, गुरु की अपेक्षा नीचे श्रासन पर बैठना व सोना, उन्हें श्रासन प्रदान करना, उपकरण (शास्त्र आदि) देना, वसतिका श्रादि का देना, शारीरिक शक्ति के अनुसार शरीर का मर्दन करना, प्रतिरूपकालक्रिया - उष्णकाल में शीतक्रिया व शीतकाल में उष्णक्रिया करना, श्राज्ञापालन करना, चटाई श्रादि बिछाना तथा उपकरणों का प्रतिलेखन करना; इत्यादि जो साधुसमूह का शरीर से यथायोग्य उपकार किया जाता है उसका नाम कायिक विनय है । कायिकी क्रिया - १. प्रदुष्टस्य सतोऽभ्युद्यमः कायिकी क्रिया । ( स. सि. ६-५; त. वा. ६, ५, ८)। २. प्रदुष्टस्योद्यमो हन्तुं गदिता कायिकी किया । (त. श्लो. ६, ५, ६ ) । ३. योऽभ्युद्यमः प्रदुष्टस्य सतः सा कायिकी क्रिया । (ह. पु. ५८,
३४१, जन-लक्षणावली
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
कायोत्सर्ग]
३४२, जैन-लक्षणावली
[कारण
६६)। ४. दुष्टस्य सत: कायेन वा चलनक्रिया यत् कायोत्सर्गः स कीर्तितः ।। (योगशा. ४-१३३); कायिकी। (भ. प्रा. विजयो. ८०७)। ५. कायेन कायस्य शरीरस्य स्थानमौनध्यानक्रियाव्यतिरेकेणानिर्वता कायिकी-कायव्यापारः। (स्थानां. अभय. न्यत्रोच्छ्वसितादिभ्यः क्रियान्तराध्यासमधिकृत्य य वृ. २-६०, पृ. ३८)। ६ क्रिया: व्यापारविशेषाः, उत्सर्गस्त्यागो ‘णमो अरहताणं' इति वचनात् प्राक तत्र कायेन निवृत्ता कायिकी, कायचेष्टेत्यर्थ । स कायोत्सर्गः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। (समवा. अभय. व. ५, पृ. १०)। ७. चीयते इति १०. कायं शरीरम् उत्सृजति ममत्वादिपरिणामेन कायः शरीरम्, काये भवा कायेन निवृता वा त्यजतीति कायोत्सर्गः तपो भवेत्-व्युत्सर्गाभिकायिकी। (प्रज्ञाप, मलय. व. २२-२७६, पृ. धानम् तपोविधानं स्यात् । (कातिके. टी. ४६८)। ४३५); कायिकी नाम हस्त-पादादिव्यापारणम् । ११. शरीरादिममत्वस्य त्यागो यो ज्ञानदृष्टिभिः । (प्रज्ञाप. मलय. व. २२, २८१, पृ. ४४०)। ८. तपःसंज्ञ: सुविख्यातो कालोत्सर्गो महर्षिभिः ।। प्रदुष्टस्य सतः कायाभ्युद्यमः कायिकी क्रिया। (त. (लाटीसं. ७-८६)। १२. एकमुहर्तादिषु शरीरवृत्ति श्रुत. ६-५)।
व्युत्सर्जनं कायोत्सर्गः । (भावप्रा. श्रुत. टी. ७७)। १. दुष्टतापूर्वक उद्यम करने को कायिको क्रिया २ देवसिक आदि नियमों में-दिवस सम्बन्धी, कहते हैं।
रात्रि सम्बन्धी एवं पाक्षिक व चातुर्मासिक प्रादि कायोत्सर्ग-१. कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरत्त नियमित अनुष्ठानों में प्रागमोक्त कालप्रमाण के अप्पाणं । तस्स हवे तणुसगं जो भावइ णिब्वि- अनुसार अपने-अपने नियत समय में जो जिनगुणप्रप्पेण ॥ (नि. सा. १२१)। २. देवस्सियणिय- स्मरणपूर्वक शरीर से ममत्व का त्याग किया जाता मादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि । जिणगुणचिंतण- है, इसका नाम कायोत्सर्ग है । जुत्तो काउस्सग्गो तणुविसग्गो ॥ (मला. १-२८); कारक-१. कुर्वत एव कारकत्वम् । यदा न करोति बोसरिदबाहुजुगलो चदुरंगुलअतरेण समपादो । तदा कर्तृत्वस्यायोगात् । (लघीय. स्वो. विवृति सव्वंगचलणरहिओ का उस्सग्गो विसुद्धो दु ।। (मूला. ५-४४, पृ. ६३८) । क्रियाविशिष्टं द्रव्यं कारकम् । ७-१५३)। ३. परिमितकालविषया शरीरे ममत्व- (लघीय. स्वो. विवृति ६-७२, पृ. ७६४)। २. कारनिवृत्तिः कायोत्सर्गः । (त. वा. ६, २४, ११, चा. कस्य कारकत्वमपि क्रियावेशवशादेव उपपद्यते, सा. पृ. २६)। ४. कायः शरीरम्, तस्योत्सर्गः 'करोतीति कारकम्' इति व्युत्पत्तेः। इतरथा हि कृताकारस्य स्थान-मौन-ध्यानक्रियाव्यतिरेकेण क्रिया- तद् वस्तुमात्रं स्यान्न कारकम्, 'क्रियाविशिष्टं द्रव्यं न्तराध्यासमधिकृत्य परित्याग इत्यर्थः। (ललितवि. कारकम्' इत्यभिधानात् । (न्यायकु. १-३ पृ. ४२); पृ. ७७)। ५. एषोऽपि कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तं कारकाणां कादीनां xxx (न्यायकु. ५-४४, भवति । क्व ? अनेषणीयादिषु त्यक्तेषु, तत्रानेषणीयं पृ.६३६); क्रियया पाविष्टं युक्तं द्रव्यं कारकम्, उद्गमाद्यविशुद्ध मन्न-पानमुपकरण वा प्रतिष्ठाप्य क्रियां कुर्वद् द्रव्य कारकमित्यर्थः । (न्यायकु. ६-७२, कायोत्सर्गः कार्यः, आदिग्रहणाद् गमनागमनविहार- पृ. ७६५) । श्रतसावद्यस्वप्नदर्शननौसंतरणोच्चारप्रस्रवणावरणप- २ क्रिया से युक्त द्रव्य को कारक कहते हैं। रिग्रहः । (त. भा. हरि. व सिद्ध. व.६-२२) । कारक सम्यक्त्व -१. ज जह भणिय तं तह करेइ ६. ट्ठियस्स णिसण्णस्स णिव्वण्णस्स वा साहुस्स सइ जंमि कारगं तं तु । (श्रा. प्र. ४६)। २. कारक कसाएहि सह देहपरिच्चागो काउस्सग्गो णाम । संयमं तपःप्रभृतीनां तु कारकम् । (त्रि. श. पु. च. (धव. पु. १३, पृ. ८८)। ७. कायोत्सर्गः काये १, ३, ६१०)। मितकालं निर्ममत्वं तु। (ह. पु. ३४-१४६)। १ जिस सम्यक्त्वके होने पर जीव प्रागमोक्त व्रत ८. देवसिकादिषु नियमेषु यथोक्तकाले योऽयं यथो. व तप आदि के अनुष्ठान को तदनुसार ही करता है क्तमानेन जिनगुणचिन्तनयुक्तस्तनुविसर्गः स कायो- उसे कारक-- अनुष्ठान कराने वाला-सम्यक्त्व त्सर्ग इति । (मूला. वृ. १-१२)। ६. प्रालम्बित- कहते हैं । भुजद्वन्दः मूर्ध्वस्थस्यासितस्य वा । स्थानं कायनपेक्षं कारण-१. कारणमुपपत्तिमात्रम् । (प्राव. नि.
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
कारणदोष]
३४३, जैन-लक्षणावली
[कारित
हरि. व.८६, पृ. ८२)। २. यस्मिन् सति भवत्येव भवतीति प्रतिपत्तव्यम् । तस्माद्वन्दनकं कारणवन्दनयस्य सद्भावस्तद्भावे च न भवत्येव यत् तत् कार- कमिति । (प्राव. हरि. वृ. मल. हेम. टि. पृ.८८)। णम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. ५-२५)। ३. यस्मिन् ४. कारणाद् ज्ञानादिव्यतिरिक्ताद् वस्त्रादिलाभसत्येव च यद्भावः तत्कार्यमित रत् कारणम् । हेतोर्वन्दनम्, यद्वा ज्ञानादिनिमित्तमपि लोकपूज्यो(सिद्धवि. ७.३-१०, पृ. १६३, पं. ७); यस्मिन् ऽन्येभ्यो वा धिकतरो भवामीत्यभिप्रायतो वन्दनम, सत्येव यद्भाव एव विकारे च विकार तत् कार्य- यद्वा वन्दनकमूल्यवशीकृतो मम प्रार्थनाभङ्गं न करिमितरत् कारणम् । (सिद्धवि. वृ. ७-२०, पृ. ष्यतीति बुद्धया वन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव. ४८७, पं. १६)।
३-१३०)। ३ जिसके होने पर ही जो होता है वह कार्य और १ सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को छोड़कर अन्य इतर-जिसके सद्भाव में कार्य होता है वह- लौकिक साधन-सामग्री-जैसे वस्त्र-कम्बलादिकारण कहलाता है।
की अभिलाषा से जो वन्दना की जाती है उसे कारणदोष (ग्रासैषरणादोष)-देखो कारणा- कारणवन्दनक कहा जाता है। यदि साधु पूजा या भावदोष । वेदनादिकारणमन्तरेण भुजानस्य कारण- गुरुता के अभिप्राय से ज्ञानादि को भी ग्रहण करता दोषः। (प्राचारां. शी. व. २, १,६, २७३, पृ. हुप्रा वन्दना करता ह ता उस में
हप्रा वन्दना करता है तो उसे भी कारणवन्दनक ही ३२१)।
समझना चाहिए। वेदनादि कारण के विना भोजन करने को कारण- कारणाभावदोष-क्षुद्वेदनाया: असहनं क्षामस्य दोष (ग्रासैषणादोष) कहते हैं।
च वैयावृत्त्याकरणमीर्यासमितेरविशुद्धिः प्रेक्षोत्प्रेक्षादे: कारणपरमाणु-१. धाउचउक्कस्स पूणो जं हेऊ संयमस्य चापालनं क्षुधातुरस्य प्रबलाग्न्युदयात्प्राणकारणं ति तं णेयो। (नि. सा. २५)। २. पृथि- प्रहाणशङ्का आर्त-रौद्रपरिहारेण धर्मध्यानस्थिरीकरणं व्यप्तेजोवायवो धातवश्चत्वारः, तेषां यो हेतुः स चेति भोजनकारणानि । तदभावे भुजानस्य कारकारणपरमाणुः (नि. सा. वृ. २५)।
णाभावदोषः । (योगशा. स्वो. विव. १-३८, प. १ पृथिवी, अप, तेज और वायु; इन चार धातुओं १३८) । के कारणभूत परमाणु द्रव्य को कारणपरमाणु भोजन करने के कारणों के प्रभाव में भोजन करने कहते हैं।
को कारणाभावदोष कहते हैं। क्षुधा की व्यथा को कारणपरमात्मा- यस्त्रिकाल निरुपाधिस्वभाव- न सह सकना, कृश होने पर वैयावृत्त्य को न कर त्वात् निवारणज्ञान-दर्शनलक्षणलक्षितः कारणपर- पाना, ईर्यासमिति को विशद्ध नहीं रख सकना, मात्मा। (नि. सा. वृ. १०२)।
प्रेक्षोत्प्रेक्षादि संयमका परिपालन न कर सकना, क्षुधा जो निरावरण (स्वाभाविक) ज्ञान-दर्शन से युक्त हो से व्याकुल होने पर प्रबल अग्नि (प्रौदर्य) के उदय उसे कारणपरमात्मा कहते हैं।
से मरने की आशंका होना और प्रार्त-रौद्र ध्यानों
को छोडकर धर्मध्यान को स्थिर करना: ये भोजन मिहलोयसाहयं होइ । पूया-गारवहे नाणग्गहणेवि के कारण हैं। एमेव ।। (प्रव. सारो. १६३)। २. ज्ञान-दर्शन- कारित-१. कारिताभिघानं परप्रयोगापेक्षम् । चारित्रत्रयं मुक्त्वा यत्किमप्यन्यदिहलोकसाधकं (स. सि. ६-८)। २. कारिताभिधानं परप्रयोगावस्त्र-कम्बलादि वन्दन कदानात्साधुरभिलषति तत्का- पेक्षम् । परस्य प्रयोगमपेक्ष्य सिद्धिमापद्यमानं कारिरणं भवतीति प्रतिपत्तव्यम. तस्माद्वन्दनकं कारण- तमिति कथ्यते । (त. वा. ६, ८,८)। ३.परस्य वन्दनकमिति । यदि पूजातिशयेन गौरवातिशयेन प्रयोगमपेक्ष्य सिद्धिमुपयाति यत्तत्कारितम् । (भ. वा ज्ञानादिग्रहणेऽपि वन्दते तदपि कारणवन्दनकं प्रा. विजयो. टी. ८११)। ४. परस्य प्रयोगमपेक्ष्य भवति । (प्रव. सारो. व. १६३) । ३. ज्ञान-दर्शन- सिद्धिमापद्यमानं कारितम् । (चा. सा. पु. ३६) । चारित्रत्रयं मुक्त्वा यत्किमप्यन्यदिहलोकसाधकं ५. स्वप्रयुक्तान्यनिष्पन्नं हिंसनं कारितं मतम् । वस्त्रादि वन्दनकदानात् साधुरभिलषति तत्कारणं (प्राचा. सा. ५-१४) ।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
कारितनिमित्तकरण] ३४४, जैन-लक्षणावली
[कार्मण १ जो कार्य दूसरे के प्रयोग की अपेक्षा से सिद्ध वृत्ति श्रुत. ७-११)। ११. रोग-शोक-दरिद्राद्यैः होता है उसे कारित कहते हैं।
पीडिता येऽत्र जन्तवः । तेषां दुःखप्रहाणेच्छा कारुकारितनिमित्तकरण-कारियनिमित्तकरणं नाम ण्यं क्रियतामिति ।। (धर्मसं. श्रा. १०-१०४) । पसण्णा है पायरिया सविसेसं सुत्तत्थ-तदुभयाणि २ शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित दीन दाहिति त्ति काऊणं तारिसाणि अणुकुलाणि करेइ प्राणियों के प्रति जो अनग्रहरूप परिणाम होता है, जेण तेसिं पायरियाण चित्तप्पसायो जायइ। (दशवै. उसका नाम कारुण्य है। चू. १, पृ. २८)।
कार्मरण - १. सब्बकम्माणं परूहणुप्पादयं सुह"यदि प्राचार्य प्रसन्न रहेंगे तो वे सूत्र, अर्थ, अथवा दुक्खाणं वीजमिदि कम्मइयं । (षट्खं. ५, ६, २४१, दोनों मुझे विशेष रूप से प्रदान करेंगे" ऐसा विचार पु. १४, पृ. ३२८)। २. सर्वशरीरप्ररोहणबीजभूतं करके प्राचार्य की प्रसन्नता के लिए उनके मनो- कार्मणं शरीरं कर्मेत्युच्यते । (स. सि. २-२५); ऽनकल कार्य करने को कारितनिमित्तकरण कहते कर्मणां कार्य कार्मणम् । (स. सि. २-३६) । ३. हैं। यह औपचारिक विनय के सात भेदों में कर्मणो विकारः कर्मात्मकं कर्ममयमिति कार्मणम् । तीसरा है।
(त. भा. २-४६)। ४. कर्मेति सर्वशरीरप्ररोहणकारुण्य-देखो करुणा। १. कारुण्यं क्लिश्यमानेषु । समर्थ कार्मणम् । सर्वाणि शरीराणि यतः प्ररोहन्ति कारुण्यमनुकम्पा दीनानुग्रह इत्यनर्थान्तरम् । (त. तत बीजभूतं कार्मणशरीरं कर्मेत्युच्यते । (त. वा. भा. ७-६) । २. दीनानुग्रहभावः कारुण्यम् । (स. २, २५, ३); कर्मणामिदं कर्मणां समह इति वा सि. ७-११ त. इलो. ७-११)। ३. दीनानग्रहभावः कार्मणम् । कर्मणामिदं कार्य कर्मणां समह इति वा, कारुण्यम् । शारीर-मानसदुःखाभ्यदितानां दीनानां कथंचिद्भदविवक्षोपपत्तेः, कार्मणमिति व्यपदिश्यते । प्राणिनाम् अनुग्रहात्मकः परिणामः करुणस्य भावः (त. वा. २, ३६, ८) । ५. कर्मनिमित्त कार्मणम्, कर्म वा कारुण्यमिति कथ्यते (त. वा. ७, ११, ३)। अशेषकर्म चास्याधारभूतं कुण्डवद बदरादीनाम, ४. जन्माम्भोधी कर्मणा भ्राम्यमाणे जीवग्रामे दुःखिते- अशेषकर्मप्रसवसमर्थं वा, यथा बीजमकुरादीनाऽनेकभेदे। चित्तात्वं यद्विधत्ते महात्मा तत्कारुण्यं मिति । (त. भा. हरि. व. २-३७); अशेषकर्माधारदय॑ते दर्शनीयैः ।। (अमित. श्रा. २-८१)। भूतं समस्तकर्मप्रसवनसमर्थमकुरादीनां बीजमिव ५. दीनाभ्युद्धरणे बुद्धिः कारुण्यं करुणात्मनाम् । कार्मणं शरीरम् । (त. भा हरि. वृ. ८-१२) । (उपासका. ३३७) । ६. शारीरं मानसं स्वाभाविकं ६. कर्मणा निर्वृत्तं कार्मणम् । (प्राव. हरि. वृ. च दुःखमसह्यमाप्नुवतो दृष्ट्वा हा वराका मिथ्या- १४३४, पृष्ठ ७६७)। ७. मिथ्यादर्शनादिभिः दर्शनेनाविरत्या कषायेणाशुभेन योगेन च समुपाजि- क्रियत इति कर्म-ज्ञानावरणीयादि, तेन निर्वृत्तं ताश भकर्मपर्यायपूदगलस्कन्धतदयोद्धवा विपदो तन्मयं वा कार्मणम् ; शीर्यते इति शर विवशा: प्राप्नुवन्ति इति करुणा अनुकम्पा । (भ. च तच्छरीरं चेति विग्रहः । (प्राव. नि. हरि.व. प्रा. विजयो. १६६६) । ७. दैन्य-शोकसमूत्वासे ४३, पृष्ठ ३६)। ८. कर्मणो विकारः कार्मणम, रोगपीडादितात्मसु । वय-बन्धनरुद्धेषु याचमानेषु अष्टविधकर्मनिष्पन्नं सकलशरीरनिबन्धनं च, उक्तं जीवितम् । क्षुत्तश्रमाभिभूतेषु शीताद्यैर्व्यथितेषु च-xxxकम्मविवागो गारो कम्मणमट्रविह च । अविरुद्धेषु निस्त्रिशैर्यात्यमानेषु निर्दयम् । विचित्तकम्मनिप्फण्णं । सव्वेसिं सरीराणं कारणभूतं मरणातष जीवेष यत्प्रतीकारवाञ्छया। अनुग्रहमतिः मणेयव्वं ।।८।। (अनयो. हरि. व.८७)। ६. कर्मणा सेयं करुणेति प्रकीर्तिता ।। (ज्ञानार्णव २७, ८-१०)। निर्वृत्तं कार्मणम् अशेषकर्मराशेराधारभूतम अशेष८. दीनेष्वार्तेषु भीतेषु याचमानेषु जीवितम् । कर्मप्रसवसमर्थं वा । (त. भा. सिद्ध.व. २-३७) । प्रतीकारपरा बुद्धिः कारुण्यमभिधीयते ।। (योगशा. सर्वकर्मप्ररोहबीजं सांसारिकसुख-दुखभाजनं कमव ४-१२०)। ६. स्वामनपेक्ष्य परदुःखप्रहाणेच्छा कार्मणशरीरम्,xxx कर्मणि वा भवं कार्मणम् । कारुण्यम् । (प्रमाण. स्याद्वाद. ५-८)। १०. हीन- (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-३)। १०. कर्मैव कार्मणम दीन-कानीनानयनजनानुग्राहकत्वं कारुण्यम् । (त. शरीरम्, अष्टकर्मस्कन्ध इति । अथवा कर्मणि भवं
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
कामण]
३४५, जैन-लक्षणावली [कार्मणशरीरसंघातनाम कार्मणं शरीरं नामकर्मावयवस्य कर्मणो ग्रहणम् । काययोगः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-१) । ३. सर्वाणि तेन योगः कार्मणकाययोगः । केवलेन कर्मणा जनित- शरीराणि यतः प्ररोहन्ति तद् बीजभूतं कार्मणशरीरं वीर्येण सह योग इति यावत् । (धव. पु. १, पृ. कार्मणकाय इति भण्यते, वाङ्मनःकायवर्गणानिमित्तः २६५); कर्माणि प्ररोहन्ति अस्मिन्निति प्ररोहणं प्रात्मप्रदेशपरिस्पन्दो योगो भवति, कार्मणकायकार्मणशरीरम् । कूष्माण्डफलस्य वृन्तवत सकल- कृतो योगः कार्मणकाययोगः । (धव. पु. १, पृ. कर्माधारं सकलकर्मणामुत्पादक कार्मणशरीरम। २६९)। ४. कर्मव- अष्टविधकार्मण
< भविष्यत्सर्वकर्मणाम प्ररोहकमुत्पादक कार्मणशरीरम , वा अथवा कर्मभवं कार्मणशरीर. त्रिकालगोचराशेषसुख-दुःखानाँ बीजं चेति अष्टकर्म- नामकर्मोदयप्रभवं कार्मणशरीरम, खलु स्फुटं भवति, कलापं कार्मणशरीरम् । कर्मणि भवं वा कार्मणं ऐन कार्मणशरीरेण सह वर्तमानो यः संयोगः प्रात्मनः कर्मैव वा कामणम । (धव. पु. १४, पृ. ३२६)। कर्माकर्षणशक्तिसंगतप्रदेशपरिस्पन्दरूपो योगः स ११. कमैव कार्मणः काय: कर्मणां वा कदम्बकम् । कार्मणकाययोगः । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. एक-द्वि-विक्षणानेष विग्र हत्ती प्रवर्तते । (पंचसं. २४१)। ५. विग्रहगतौ औदारिकादिनोकर्मवर्गणानां अमित. १-१७८)। १२. कार्मणशरीरं पुनस्तदुदय अनाहरणे सति कार्मणशरीरनामोदयेन कार्मणवर्गणा(कार्मणशरीरनामोदय) निर्वत्यमशेषकर्मणाम् प्ररोह- यातपुद्गलस्कन्धानां ज्ञानावरणादिकर्मपर्यायेण भूमिराघारभूतम् । तथा संसार्यात्मनां गत्यन्तर- जीवप्रदेशेषु बन्धप्रघट्टके उत्पन्नजीवप्रदेशपरिस्पन्द: संक्रमणे साधकतमं करणीयमित्यन्यत् । ततस्तत्का- कार्मणकाययोगः। (गो. जी. जी. प्र. टी. ७०३)। रणभूतं कार्मणशरीरनामकर्मेति स्थितम । (कर्मस्त. ६. कार्मणकाययोगः अष्टप्रकारकर्मविकाररूपशरीरगो. वृ. १०, पृ. ८५)। १३. अष्टविधकर्मसमुदाय. चेष्टा स्वरूपोऽपान्तरालगतावुपपत्तिप्रथमसमये निष्पन्नौदारिकादिशरीरनिबंधनं च भवान्तरानयायि केवलसमुदघातावस्थायां च । (षडशीति मलय. व. कर्मणो विकारः कर्मैव वा कार्मणम् । (अनुयो. मल. ५, पृ. १२७) । हेम. वृ. १४२, पृ. १६६) । १४. कर्मणो जातं ३. सब शरीरों के बीजभूत शरीर को कार्मण कर्मजम । किमुक्तं भवति ? कर्मपरमाणव एवा- शरीर कहा जाता है। वचन, मन और काय वर्गत्मप्रदेशः सह ये क्षीर-नीरवत् अन्योन्यानुगताः सन्तः णाओं के निमित्तभूत प्रात्मप्रदेशपरिस्पन्द का शरीररूपतया परिणतास्ते कर्मजं शरीरमिति । अत नाम योग है। कार्मरण शरीर के द्वारा जो योग एवैतदन्यत्र कार्मणमित्युक्तम् , कर्मणो विकारः किया गया है वह कायमणकाययोग कहलाता है । कार्मणमिति । तथा चोक्तम् ---कम्मविगारो कम्मण- कार्मरणबन्धननाम - यदुदयात्कार्मणपुद्गलानां मविहविचित्तकम्मनिप्पन्नं । सव्वेसि सरीराणां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं सम्बन्धकारणभूतं मुणेयव्वं ॥ (प्रज्ञाप. मलय. व. २०- स्तत्कामणबन्धननाम। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३, २६७, पृ. ४०६; जीवाजी. मलय. वृ. १-१३, २६३, पृ. ४७०)।
जिस कर्म के उदय से गृहीत एवं गृह्यमाण कर्मरीरों की उत्पत्ति का बीजभत शरीर परमाण परस्पर में सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं उसे है-उनका कारण है-उसे कार्मण शरीर कहते कार्मणबन्धननामकर्म कहते हैं। हैं। ३ कर्म के विकारभत या कर्मरूप शरीर का कार्मरणशरीरबन्धननाम-जस्स कम्मस्स उदएण नाम कार्मण हैं।
कम्मइयसरीरपरमाणू अण्णोण्णेण बंधमाच्छंति तं कार्मरणकाययोग-१. कम्मेव य कम्मइयं कम्म- कम्मइयरीरबंधणणामं । (धव. पु. ६, पृ. ७०)। भवं तेण जो दु संजोगो। कम्मइयकायजोगो जिस कर्म के उदय से कार्मण शरीरगत परमाणु एय-विय-तियगेसु समएसु ॥ (प्रा. पंचसं. परस्पर में बन्ध को प्राप्त होते हैं उसे कार्मणशरीर१-६६; धव. पु. १, पृ. २६५ उद्, गो. जी. बन्धन नामकर्म कहते हैं । २४१)। २. तेन (कार्मणशरीरेण) योगः कार्मण- कार्मरणशरीरसंघातनाम-जस्स कम्मस्स उद
ल. ४४
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
कार्मणशरीरनामकर्म ]
एण कम्मइयसरी रक्खंधाणं सरीरभ वमुवगयाण darणामकम्मोदएण एगबंधणबद्धाणमट्ठत्तं होदि तं कम्मइयसरीरसंघादणामं । ( धव. पु. ६, पृ. ७० ) । बन्धन नामकर्म के उदय से एकबन्धनबद्ध होकर शरीररूपता को प्राप्त कार्मणशरीर के स्कन्ध जिस कर्म के उदय से मृष्टता - चिक्कणता या एकरूपता - को प्राप्त होते हैं उसे कार्मणशरीरसंघातनामकर्म कहते हैं । कार्मणशरीरनामकर्म - १. जस्स कम्मस्स उदो कुंभंड फलस्स बेंटो व्व सव्त्रकम्मासयभूदो तस्स कम्मइयसरीरमिदि सण्णा । ( धव. पु. ६, पृ. ६९ ) । २. यदुदयात्कूष्माण्डफल वृन्ताक फल वृन्तवत्सर्व कर्माश्रयभूत तत्कार्मणशरीरम् । (मूला. वृ. १२-१९३ ) । ३. यस्य कर्मण उदयात् कार्मणवर्गणापुद्गलान् गृहीत्वा कार्मणशरीरत्वेन परिणमयति तत्कार्मणशरीरनामकर्म, तच्च कार्मणशरीरादन्यत् । (कर्मस्तव गो. वृ. १०, पृ. १७; प्रव. सारो. बृ. १२६७) ।
२ जिस कर्म का उदय कूष्माण्ड फल के समान समस्त कर्मों का आधारभूत हो वह कार्मणशरीरनामकर्म कहलाता है । कार्य- देखो कारण । कार्यपरमाणु - १. खंधाणं अवसाणो णादव्वो कज्जपरमाणू । (नि. सा. २५) । २. गलतां पुद्गलद्रव्याणाम् अन्तोऽवसानस्तस्मिन् स्थितो यः स कार्यपरमाणुः । (नि. सा. टी.) २५ ।
२ गलने वाले पुद्गलस्कन्ध के अन्त में स्थित (जिसका फिर दूसरा विभाग न हो) परमाणु को कार्यपरमाणु कहते हैं ।
कार्या रुचि - तस्मात्कारणात् निसर्गाख्यादुत्पद्यते याऽसौ रुचिः सा कार्याssख्या । तथा योऽसौ बाह्य उपदेश: स त [य]त्र हेतुर्भवति तत उत्पद्यते या रुचिः सा तत्कार्या भवतीत्येवं कार्या रुचिः । कारणं निसर्गोऽविगमो वेति । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १-३) ।
निसर्ग या श्रधिगम रूप कारण से उत्पन्न होनेवाली नन्तसामर्थ्य परिबृंहितः ॥ ( म. पु. ३, १-२ ); श्रद्धा को कार्यारुचि कहते हैं । वर्तनलक्षणः कालो वर्तना स्वपराश्रया । यथास्वं काल – १. वत्तणालवखणो कालो । (उत्तरा, २८, गुणपर्यायैः परिणन्तृत्वयोजना || स कालो लोकमात्रैः १० ) । २. कालस्स व्रण | XXXI ( प्रव. सा. स्वैरणुभिर्निचित स्थितैः । ज्ञेयोऽन्योन्यमसङ्गीर्णे रत्ना२-४२)। ३. ववगदपणवण्ण-रसो ववगददोगंध नामिव राशिभिः ॥ ( म. पु. २४, १३६, १४२ ) । १३.
३४६, जैन-लक्षणावली
[काल
अट्ठफासो य । अगुरुल हुगो श्रमुत्तो बट्टणलक्खो य कालोति ॥ (पंचा. का. २४) । ४. पासरसगंधवणव्वदिरित्तो गुरुल हुगसंजुत्तो । वत्तणलक्खणकलियं कालसरूवं इमं होदि ।। (ति. प. ४- २७८ ) । ५. कालोऽनन्तसमयो वर्तनादिलक्षणः । ( त. भा. ४-१५ ) । ६. सव्वाणं दव्वाणं परिणामं जो करेदि सो कालो । एक्कासपए से सो वट्टदि एविकको चेव ।। ( कार्तिके. २१६ ) । ७. कल्पते क्षिप्यते प्रेयते येन क्रियावद्रव्यं स कालः । (त. वा. ४, १४, ५ ) ; तल्लक्षणः कालः । सा वर्तना लक्षणं यस्य स काल इत्यवसेयः । (त. वा. ५, २२, ६ ) ; वर्तनाद्युपकारलिंगः कालः । उक्ता वर्तनादयः उपकारा यस्यार्थस्य लिंगं स काल इत्यनुमीयते । तथा चोक्तम् - येन मूर्तानामुपचयाश्चापचयाश्च लक्ष्यन्ते स काल इति । (त. वा. ५, २२, २३) । ८. वर्तनालक्षण: काल: X XXI ( वरांग. २६, २७) । ६. सकलपदार्थानां वृत्तिहेतुत्वं वर्तना । सा लक्षणं यस्यासी तल्लक्षणः कालः । ( न्यायकु. ६. ७२, पृ. ७६५) । १०. एवं चेव ( ववगदपंचवणं ववगदपंचरस ववगददुगंध ववगदग्रट्टकासं स-परपरिणामहेऊ अपदेसियं लोगपदेसपरिणाम ) कालदव्वं । ( धव. पु. ३, पृ. ३); ववगददोगंध-पंच रसपास-पंचवण्णी कुंभारचक्क हेट्ठिमसिल व्व वत्तणालक्खणो लोगागासपमाणो ग्रत्थो कालो णाम । ( धव. पु. ४, ३१४ ) ; कल्यन्ते संख्यायन्ते कर्म-भवकायायुस्स्थितयोऽनेनेति कालशब्दव्युत्पत्तेः । काल: समयः श्रद्धा इत्येकोऽर्थः । ( धव. पु. ४, पृ. ३१७, ३१८); सीदुसण वरिसणेहि उवलक्खियो कालो 1 ( धव. पु. १४, पृ. ३६ ) ; दव्वाणं परिणमणस्स निमित्तकारणलक्खणं कालदव्वं । ( धव. १५, पु. ३३) । ११. वर्णगन्धरसस्पर्श मुक्तोऽगौरवलाघवः । • वर्तनालक्षणः कालः XXX 1 (ह. पु. ७ - १ ) । १२. अनादिनिधनः कालो वर्तनालक्षणो मतः । लोकमात्रः सुसूक्ष्माणुपरिछिन्नप्रमाणकः ॥ सोऽसंख्येयोऽप्यनन्तस्य वस्तुराशेरुपग्रहः । वर्तते स्वगता
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
काल
३४७, जैन-लक्षणावली [कालकृतपरत्वापरत्व वर्तनालक्षणः कालः बालयवावद्धत्वादिभिर्लक्षणल- (नि. सा. वृ.)। ३०. द्रव्यं कालाणुमात्रं गुणगणक्ष्यते । (उत्तरा. च. २८, पृ. २७२)। १४. सूर्य- कलितं चाश्रितं शद्धभावः, तच्छद्धं काल संज्ञं कथयति क्रियानिवृत्तः काल: । (अनुयो. हरि. व. पृ. ५४)। जिनपो निश्चयाद् द्रव्यनीतेः। द्रव्याणामात्मना सत्प१५. जं वत्तणादिरूबो कालो दव्वस्स चेव पज्जातो। रिणमनमिदं वर्तना तत्र हेतुः, कालस्यायं च धर्मः (धर्मसं.हरि. ३२) । १६. कालो परमनिरुद्धो अवि- स्वगुणपरिणतिर्धर्मपर्याय एषः ॥ (अध्या. क. मा. भागी तं विजाण समपो त्ति। सुहमो अमुत्तिगुरु. ३-३८) । ३१. वर्तनालक्षणः कालो वर्तना च गलहुवत्तणलक्खणो कालो ॥ (जं. दी. प. १३-४)। पराश्रया । (जम्बू च. ३-३६) । १७. विशिष्टमर्यादावच्छिन्नोवधिोऽर्धततीयद्वीपा- ३. जो पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध एवं प्राठ भ्यन्तरतिजीवादिद्रव्यैः परिणमद्धिः स्वत एव स्पशों से रहित और छह प्रकार की हानि-वृद्धि कल्पते गम्यते प्रथ्यतेऽपेक्ष्यते कारणतयाऽसाविव स्वरूप अगरु-लघु गुण से संयुक्त होकर वर्तनाकालोऽपेक्षाकारणम् । (त. भा. सिद्ध. व. प. स्वयं परिणमते हुए द्रव्यों के परिणमन में सह५-३८) । १८. 'कल सत्त्व-संख्यानयोः' कलनं कारिता-लक्षण वाला है उसे काल कहते हैं। काल इति भावे प्रत्ययो घञ, परिच्छेद इत्यर्थः, काल-अभिग्रह-काले अभिग्गहो पुण आईमज्झे कल्यते वा परिच्छिद्यते वा यतोऽनेन वस्तु, तहेव अवसाणे । अप्पत्ते सइ काले आई विइयो अ 'अकर्तरि च कारके संज्ञायां धञ, 'कलयन्ति वा' चरिमम्मि । (बहत्क. १६५०)। परिच्छेदयन्ति वा समर्यादपर्यायास्तमिति कालः, कालविषयक भिक्षा के अभिग्रह (नियम) को तस्मिन् वा स्थितान् कलयन्ति, समयादिकलानां वा काल-अभिग्रह कहते हैं। भिक्षाकाल के न प्राप्त समूहः कालः । (विशेषा. को. व. पु. ६०५)। १६. होने पर प्रादि-प्रथम पौरुषी (प्रहर)-में वत्तणगुणजुत्ताणं दवाणं होइ कारणं कालो। भिक्षार्थ जाना, इसका नाम प्राधभिक्षाकालविषयक (भावसं. दे. ३०६)। २०. स कालो यन्निमित्ताः प्रथम अभिग्रह है। भिक्षाकाल के प्राप्त होने स्युः परिणामादिवृत्तयः। वर्तनालक्षणं तस्य कथयन्ति पर जाना, यह मध्य भिक्षाकालविषयक द्वितीय विपश्चितः ॥ (त. सा. ३-४०)। २१. वत्तण- अभिग्रह है । अन्त में-भिक्षा-काल के बीत किरियासाहणभूदो णियमेण कालो दु। (गो. जी. जाने पर-जाना, यह अवसानविषयक अभिग्रह ६०५)। २२. वर्तनालक्षणः कालः स स्वयं परि. कहलाता है। णामिनाम् । परिणामोपकारेण पदार्थानां प्रवर्तते ।। कालकायोत्सर्ग-सावद्यकालाचरणद्वारागतदोष(चन्द्र. च. १८-७४)। २३. जीवादीनां पदार्थानां परिहाराय कायोत्सर्गः कायोत्सर्गपरिणतसहित कालो परिणामोपयोगतः । वर्तनालक्षणः कालोऽनशो वा काल कायोत्सर्गः । (मूला. वृ. ७-१५१)। नित्यश्व निश्चयात् ॥ (धर्मश. २१.८८)। २४. सावद्यकाल में किये गये आचरण के द्वारा लगे हुए वर्तनालक्षणः काल: । (पंचा. का. ज. वृ. ४; भ. प्रा. दोषों के परिहार के लिए जो कायोत्सर्ग किया मला. ३६; पारा. सा. टी. ४)। २५. वर्तमान- जाता है, उसे काल-कायोत्सर्ग कहते हैं । अथवा शुद्धपर्यायरूपपरिणतो वर्तमानसमय: कालो भण्यते। कायोत्सर्ग से परिणत साधु से सहित काल को (प्रव. सा. ज. व. २३)। २६. यदमी परिवर्तन्ते कालकायोत्सर्ग कहते हैं। पदार्थाः विश्ववर्तिनः। नवजीर्णादिरूपेण तत्काल- कालकाल-कालस्य सत्त्वस्य श्वादेः, कालो मरणं स्यैव चेष्टितम् ॥ (ज्ञानार्णव ६-३८)। २७. तत्र । कालकालः । (प्राव. नि. हरि.व. ७२८. पृ. २७५)। कल्यते---सङ्ख्यायतेऽसावनेन वा कलनं वा कला. काल अर्थात कुत्ता प्रादि किसी प्राणी का जो काल समूहो वेति काल:-वर्तना-परापरत्वादिलक्षणः। है--मरण होता है, उसका नाम कालकाल है। (स्थाना. अभय. वृ. २-७४, पृ. ५१)। २८. काला- यह स्वाध्याय में बाधक होता है। णवो जगन्मात्राश्चैव तु मणिराशिवत् । ते प्रत्येक कालकृत परत्वापरत्व-कालकृते (परत्वापर विवाप्तिहेतवः सर्ववस्तुनः ।। (प्राचा. सा. ३, द्विरप्टवर्षाद्वर्षशतिकः परो भवति, वर्षशतिकादिद्व२२-२३)। २६. पञ्चानां वर्तनाहेतुः कालः । रष्टवर्षोऽपरो भवति । (त. भा. ५-२२) ।
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
कालक्रमोत्तर ३४८, जैन-लक्षणावली
[कालपरिक्षेप सोलह वर्ष की आयु वाले से सौ वर्ष की आयु लाता है। २ जिस स्वाध्यायकाल में शास्त्र का वाला 'पर' और सौ यर्ष की आय वाले से सोलह पठन, परिवर्तन–विस्मत न होने देने के लिए पुनः वर्ष की आयु वाला 'अपर' कहा जाता है। इस पुन: भावागम का परिशीलन-और व्याख्यान प्रकार काल के प्राश्रय से जो पर-अपर का व्यव- प्रादि किया जाता है उस काल को भी कारण में हार होता है, उसे काल-कृत परत्व-अपरत्व कहा कार्य के उपचार से कालज्ञानाचार कहा जाता है। जाता है।
कालदोष-कालदोषः अतीतकालव्यत्ययः। यथा कालक्रमोत्तर - कालत एकसमयस्थितेप्सिमय- रामो वनं प्राविशदिति वक्तव्ये विशतीत्याह । (प्राव. स्थितिः ततोऽपि त्रिसमयस्थितिः, एवं यावदसंख्येय- नि. हरि. व मलय. वृ. ८८३)। समयस्थितिः । (उत्तरा. नि.व. १, पृ. ६) । प्रतीत काल के विपरीत प्रयोग को कालदोष कहते काल के क्रम से एक-एक समय की अधिकता से हैं। जैसे-'राम वन में प्रविष्ट हुए' इस विवक्षा होने वाली स्थितियों को काल-क्रमोत्तर कहते हैं। में 'राम वन में प्रविष्ट होते हैं' ऐसा कहना। यह जैसे-एक समय स्थिति से दो समय स्थिति और दो ३२ सूत्रदोषों में २१वा दोष है। समय स्थिति से तीन समय स्थिति, इस प्रकार कालनिधि--१. काले कालण्णाणं भव्व-पुराणं च असंख्यात समय स्थिति तक जानना चाहिए। तिसु वि वंसेसु । सिप्पसयं कम्माणि पयाए हिसकाल-चतुर्विंशति-कालश्च [लचतुर्विशतिश्चतु. कराणि ॥ (जम्बूद्वी. ६६, गा. ६, पृ. २५६; प्रव. विशतिः समयादयः, एतत्काल स्थिति वा द्रव्यं काल- सारो. १२२४) । २. कालनामनि निधौ कालज्ञानम् चतुर्विशतिः। (प्राव. भा. मलय. वृ. १९२, पृ. -सकलज्योतिःशास्त्रानुबन्धि ज्ञानम्-तथा जगति ५६०)।
त्रयो वंशा:-वंशः प्रवाहः प्रावलिका इत्येकार्थाः, चौबीस समयों आदि (पावली व महर्त मादि) को तद्यथा-तीर्थंकरवंशश्चक्रवर्तिवंशो बलदेव-वासुदेवअथवा इतने समय स्थित रहने वाले द्रव्य को काल- वंशश्च । तेषु विष्वपि वशेषु यद् भाव्यं यच्च पुराणचतुविशति कहते हैं
मतीतमुपलक्षणमेतद् वर्तमानं शुभाशुभं तत् सर्वकालचार-कालस्तु यस्मिन् काले चरति यावन्तं मत्रास्ति, इतो महानिधितो ज्ञायत इत्यर्थः। शिल्पवा कालं स कालचारः । (प्राचारां. शी. वृ. १, ५, शतं घट-लोह-चित्र-वस्त्र-नापितशिल्पानां पञ्चाना२४६, पृ. १८३)।
मपि प्रत्येक विंशतिभेदत्वात्, कर्माणि च कृषिचार, चर्या और चरण-ये समानार्थक शब्द हैं। वाणिज्यादीनि जघन्य-मध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नानि जिस काल में या जितने काल पाचरण किया जाता त्रीण्येतानि प्रजाया हितकराणि निर्वाहाभ्युदयहेतुहै उसे कालचार कहते हैं।
त्वात् । एतत्सर्वमत्राभिधीयते । (जम्बूद्वी. शा.व. काल जघन्य-कालजहण्णमेगो समझो। (धव. पु. ६६, पृ. २५८) । ३. भविष्यद्भुतयोनिं वत्सरां११, पृ. ८५)।
स्त्रीन सतोऽपि च । कृष्यादीनि च कर्माणि शिल्पाकालज्ञानाचार-१. साम्प्रतं ज्ञानाचारमाह- न्यपि च कालतः।। (त्रि. श. पु. च. १, ४, ५७६)। काल इति । यो यस्याङ्गप्रविष्टादेः श्रुतस्य काल २ कालनिधि के प्राश्रय से समस्त ज्योतिष शास्त्र उक्तः तस्य तस्मिन्नेव काले स्वाध्यायः कर्तव्यो सम्बन्धी ज्ञान तथा तीर्थकरवंश, चक्रवतिवंश और नान्यदा। (दशवे. हरि. व. ३-८, पृ. १०३)। बलदेव-वासुदेववंश ये जो तीन घंश लोक में प्रवर्त२. काले-स्वाध्यायवेलायां पठन-परिवर्तन-व्याख्या- मान हैं उनमें भविष्य में जो होने वाला है, भूत में नादिक क्रियते सम्यक् शास्त्रस्य यत्स कालोऽपि जो हो चुका है एवं वर्तमान में जो शुभाशुभ चल ज्ञानाचार इत्युच्यते, साहचर्यात्कारणे कार्योपचारा- रहा है उसका भी ज्ञान प्राप्त होता है। इसके अतिद्वा। (मूला. वृ. ५-७२)।
रिक्त कुम्हार, लुहार, चित्रकार, जुलाहा और नाई १अंगप्रविष्ट प्रादि जिस श्रत के स्वाध्याय का जो इनमेंसे प्रत्येककी २०-२० कलानों का तथा वाणिज्य काल कहा गया है उसी में उसका स्वाध्याय करना, प्रादि कर्मों का कथन भी इसमें किया गया है। अन्य काल में न करना; यह कालज्ञानाचार कह- कालपरिक्षेप-वासारत्ते अइपाणियं ति गिम्हे
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
कालपरिवर्तन ]
पाणियं नच्घा । कालेण परिक्खित्तं तेण तमन्ने परिहरति । (बृहत्क. भा. १९२४) । वर्षाकाल में बारिश के पानी से घिर जाने वाले तथा ग्रीष्मकाल में जल के प्रभाववाले ग्राम-नगरादि को कालपरिक्षिप्त कहते हैं। ऐसे कालपरिक्षिप्त नगरादि को जानकर श्रन्य जन- - दूसरे राष्ट्र के राजा प्रादि-उसे छोड़ देते हैं । कालपरिवर्तन - १. अवसप्पिणि उस्सप्पिणि-समयावलियासु णिरवसेसासु । जादो मुदो य बहुसो परिभमदो कालसंसारे ॥ ( द्वादशा. २७; स. सि. २-१० उद्.; भ. श्री. विजयो. १७७७ उद्) । २. तक्कालतदाकाल समयेसु जीवो ग्रणतसो चेव । जादो मदो य सव्त्रेसु इमो तीदम्मि कालम्मि || ( भ. प्रा. १७७७ ) । ३. कालपरिवर्तनमुच्यते - उत्सर्पिण्या: प्रथमसमये जातः कश्चिज्जीवः स्वायुषः परिसमाप्तौ मृतः, स एव पुनद्वितीयाया उत्सर्पिण्या द्वितीयसमये जातः स्वायुषः क्षयान्मृतः, स एव पुनस्तृतीयाया उत्सर्पिण्यास्तृतीयसमये जातः । एवमनेन क्रमेणोत्सर्पिणी परिसमाप्ता तथा अवसर्पिणी च । एवं जन्मनैरन्तर्यमुक्तं मरणस्यापि तथैव ग्राह्यमेतावत्कालपरिवर्तनम् । ( स. सि. २- १०; भ. श्री. विजयो. १७७७; मूला. वृ. ८ - १४) । ४. उवसप्पणि प्रवसप्पिणिपढमसमयादिचरमसमयंतं । जीवो कमेण जम्मदि मरदि य सव्वेसु कालेसु ॥ (कार्तिके. ६९ ) । ५. श्रसप्पिणि उस्सप्पिणिसमयावलिया निरंतरा सव्वा । जादो मुदो य बहुसो हिंडतो कालसंसारे || (धव. पु. ४, पृ. ३३३ उद्.)। ६. शुद्धात्मानुभूतिरूपनिर्विकल्पसमाघिकालं विहाय प्रत्येकं दशकोटाकोटिसागरेण प्रमितोत्सर्पिण्यव सर्पिये कसमये नानापरावर्तन कालेनानन्तवा रानयं जीवो यत्र न जातो न मृतः स समयो नास्तीति कालसंसारः । (बृ. द्रव्यसं. ३५ ) । ७. श्रसपिणीए समया जावइया ते य निययमरणेणं । पुट्ठा कमुक्कमेणं कालपरट्टो भवे थलो || सुहुमो पुण ग्रोसप्पिणिपढमे समयंमि जइ मत्रो होइ । पुणरवि तस्सानंतर बोए समयमि जइ मरइ ॥ एवं तरतमजोएण सव्वसमएसु चेव एएसुं । जइ कुणइ पाणचायं अणुक्कमेण नणु गणिज्जा ॥ ( प्रव. सारो. १०४७-४६, पृ. ३०७ ) । ८. उत्सर्पिण्या: कस्याश्चिदवस पिण्याश्च प्रथम द्वितीयादिसमयेषु पर्यायेण जन्म-मरणाभ्यां
[ कालपरिवर्तन
वृत्तिः कालसंसारः । ( भ. प्रा. मूला. ४३० ) । ६. कश्चिज्जीवः उत्सर्पिणी प्रथमसमये जातः स्वायु:परिसमाप्तौ मृतः, पुनद्वतीयोत्सर्पिणीद्वितीयममये जातः स्वायुः परिसमाप्त्या मृतः, पुनः तृतीयोत्सर्पिणीतृतीयसमये जातः तथा मृतः, पुनः चतुर्थोपसर्पणीचतुर्थसमये जातः; अनेन क्रमेण उत्सर्पिणीं समाप्नोति तथैवावसर्पिणीमपि समाप्नोति । एवं जन्मनैरन्तर्यमुक्तम् मरणस्याप्येवं नैरन्तर्यं ग्राह्यम् । तदेतत्सर्वं कालपरिवर्तनं भवति । (गो. जी. जी. प्र. टी. ५६० ) । १०. कालपरिवर्तनं कथ्यते - उत्सर्पिणीकालप्रथमसमये कोऽपि जीव उत्पन्नो निजायु:समाप्तौ मृतः, स एव जीवः द्वितीयोत्सर्पिणी कालद्वितीयसमये पुनरुत्पन्नो निजायुर्भुक्त्वा पुनसृतः, तृतीयोत्सर्पिणी काल तृतीयसमये पुनरुत्पन्नो निजायुर्भुक्त्वा पुनर्मृतः, चतुर्थोपसर्पणी कालचतुर्थ समये पुनरुत्पन्नो निजायुर्भुक्त्वा पुनर्मृतः; एवं सर्वोत्सपिणीसमयेषु जन्म गृह्णाति तथा सर्वोत्सर्पिणीसमयेषु मरणमपि गृह्णाति । यथा सर्वेषूत्सर्पिणीसमयेषु जन्म-मरणानि गृह्णाति तथा सर्वेष्ववसर्पिणीसमयेषु जन्मानि मरणानि च गृह्णाति । एतावता कालेन एक कालपरिवर्तनं भवति । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १० ) ।
३ कोई जीव उत्सर्पिणी के प्रथम समय में उत्पन्न हुश्रा व श्रायु के समाप्त होने पर मर गया, फिर वह द्वितीय उत्सर्पिणी के द्वितीय समय में उत्पन्न हुआ और आयु के समाप्त होने पर मर गया, पश्चात् वही तृतीय उत्सर्पिणी के तृतीय समय में उत्पन्न हुआ और श्रायु के समाप्त होने पर मर गया; इस क्रम से उसने जैसे उत्सर्पिणी को समाप्त किया वैसे ही श्रवसर्पिणी को भी समाप्त किया । यह जन्म की निरन्तरता हुई। इसी प्रकार मरणकी भी निरन्तरता समझना चाहिए। इतने काल को कालपरिवर्तन कहा जाता है । ७ श्रवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के जितने समय हैं उन सबको जब जीव क्रम अथवा उत्क्रम से श्रपने मरण से व्याप्त कर लेता है तब उतने काल को एक बादर कालपुद्गलपरावर्तन कहा जाता है। कोई एक जीव श्रवसर्पिणी के प्रथम समय में मरा, तत्पश्चात् उक्त श्रवसर्पिणी के द्वितीय समय में वह मरा (यदि श्रागे पीछे के अन्य समयों में वह मरता है तो उनकी गणना नहीं
३४६, जैन - लक्षणावलो
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
कालपुरुष]
३५०, जैन-लक्षणावली
किालमास
की जाती है)। पश्चात् अवपिणी के तृतीय समय में वह मरा, इसी क्रम से उक्त अवसपिणी के चतुर्थ १ जिस पावश्यक के करने का जो काल नियत है आदि अन्य सभी समयों में वह क्रम से मरण को उस काल में उसे न करके अन्य समय में करना तथा प्राप्त होता है। तत्पश्चात् अवसपिणी के समान वर्षाकाल प्रादि का अतिक्रमण करना-उसे न उत्सर्पिणी के भी समस्त समयों में जब वह यथा- करना, इत्यादि को कालप्रतिसेवना कहा जाता है। क्रम से मरण को प्राप्त होता है तब इतने काल कालप्रत्याख्यान-कालस्य दु:परिहार्यत्वात् कालको एक सूक्ष्म कालपुद्गलपरावर्तन कहा जाता है। साध्यायां क्रियायां परिहतायां काल एव प्रत्याख्यातो कालपुरुष-यो यावन्तं कालं पुरुषवेदवेद्यानि भवतीति ग्राह्यम् । तेन संध्याकालादिषु अध्ययनकर्माणि वेदयते स कालपुरुषः । (सूत्रकृ. शी. व. गमनादिकं न संपादयिष्यामीति चेतः कालप्रत्या
ख्यानम् । (भ. प्रा. विजयो. ११६, पृ. २७६) । जो पुरुष जितने काल तक पुरुष वेद के द्वारा वेदन काल चूंकि अपरित्याज्य है, अतः विवक्षित काल में किये जाने वाले कर्मों का अनुभव करता है, उतने सिद्ध होने वाली क्रिया का परित्याग करने पर समय तक उसे कालपुरुष कहते हैं।
काल का ही प्रत्याख्यान समझना चाहिए। इससे कालपूजा-गर्भादिपञ्चकल्याणमहतां यद्दिनेऽभवत्। यह अभिप्राय समझना चाहिए कि संध्याकाल आदि तथा नन्दीश्वरे रत्नत्रयपर्वणि चार्चनम् ॥ स्नपनं में मैं अध्ययन व गमन आदि न करूँगा इस प्रकार क्रियते नानारसैरिक्षघृतादिभिः। तत्र गीतादिमांगल्यं के विचार का नाम ही कालप्रत्याख्यान है। कालपूजा भवेदियम् ।। (धर्मसं. श्रा. ६,६६-६७)। कालमंगल--१. जस्सि काले केवलणाणादिमंगलं तीर्थंकरों के गर्भादि कल्याणकों के दिनों में, नन्दीश्वर परिणमदि । परिणिक्कमणं केवलणाणुब्भवणिबुदि(अष्टाह्निक पर्व) में और रत्नत्रय पर्व के समय जो पवेसादी। पावमलगालणादो पण्णत्तं कालमंगलं पूजा की जाती है। इक्षु और घृतादि रसों के द्वारा एवं ॥ (ति. प. १, २४-२५)। २. तत्थ कालअभिषेक किया जाता है, तथा गीत प्रादि मंगलकार्य मंगलं नाम-जम्हि काले केवलणाणादिपज्जएहि किये जाते हैं। इस सबको कालपूजा कहा जाता है। परिणदो कालो पावमलगालणतादो मंगलं । तस्योदाकालप्रतिक्रमण-१. रात्रि-संध्यात्रयस्वाध्याया- हरणं परिनिष्क्रमण-केवलज्ञानोत्पत्ति-परिनिर्वाणदिववश्यककालेष गमनागमनादिव्यापाराकरणात् काल- सादयः । जिनमहिमसम्बद्धकालोऽपि मंगलम, प्रतिक्रमणम् । कालस्य दुष्परिहार्यत्वाकालाधि- यथा नन्दीश्वरदिवसादिः । (धव. पु. १, पृ. २६)। करणव्यापारविशेषाः कालसाहचर्यात् कालशब्देन १ जिस काल में तीर्थंकरादि महापुरुषों ने परिगृहीताः । (भ. प्रा. विजयो. ११६); संध्यास्वा- निष्क्रमण (दीक्षा), केवलज्ञान और निर्वाण प्रादि ध्यायकालादिषु गमनागमनादिपरिहारः कालप्रति- प्राप्त किया है, उस काल को पापमल का विनाशक क्रमणम् । (भ. प्रा. विजयो. ४२१)। २. कालमा- होने से कालमंगल कहते हैं । श्रितातीचारान्निवृत्ति: कालप्रतिक्रमणम् । (मूला. कालमास-यत्र काले यो मासो वर्ण्यते स कालप्र. वृ.७-११५)।
धानताविवक्षणात्तत्कालमास: । xxx यदि वा १ रात्रि में, तीनों संध्यानों में तथा स्वाध्याय और स्वलक्षणनिष्पन्नो नाक्षत्रादिकः पंचविधः (नाक्षत्रः, प्रावश्यकों के काल में गमनागमनादि व्यापार न __चान्द्रः, ऋतुमासः, आदित्यः, अभिवधित:) पंचभेदः करना, यह कालप्रतिक्रमण कहलाता है। काल के कालमासः । (व्यव. भा. मलय. वृ. २-१४) । अपरिहार्य होने से तदाश्रित व्यापारविशेष कालशब्द जिस काल में जिस मास का वर्णन किया जाता है से ग्रहण किये गये हैं।
उसे काल की प्रधानता की विवक्षा से कालमास कालप्रतिसेवना -१. आवश्यककालादन्यस्मिन् कहा जाता है। अथवा अपने-अपने लक्षणों से सिद्ध काले अावश्यककरणम्, वर्षाव ग्रहातिक्रमः, इत्यादिका वह कालमास नक्षत्रादि के योग से पांच प्रकार का कालप्रतिसेवना। (भ, प्रा. विजयो. ४५०)। २. है--नाक्षत्र, चान्द्र, ऋतुमास, प्रादित्य और अभिकाल आवश्यककालवर्षावग्रहाद्यतिक्रमः सेवा। (भ. वधित ।
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
कालयुति ]
कालवाद - १. कालो सव्वं जणयदि कालो सव्वं विणस्सदे भूदं । जागत्ति हि सुत्तेसु वि ण सक्कदे चिदु कालो ।। ( गो . क. ८७९ ) । २. सव्वं कालो जणयदि भूदं सव्वं विणासदे कालो । जागत्ति हि सुत्ते विण सक्कदेवंचिदु कालो || ( अंगपण्णत्ती २ - १६, पृ. २७७ ) 1
कालयुति ( कालजुडी ) - तेसि चेव जीवादीणं दव्वाणं दिवस मास-संवच्छ रादिकालेहिं सह मेलणं कालजुडी णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३४६ ) 1 जीवादिक द्रव्यों के दिन, मास और वर्ष श्रादि काल के साथ संमेलन को कालयुति कहा जाता है । काललब्धि - १. तत्र काललब्धिस्तावत् - कर्माविष्ट आत्मा भव्यः काले पुद्गल परिवर्तनाख्येSवशिष्टे प्रथम सम्यक्त्वग्रहणयोग्यो भवति, नाधिके, इतीयमेका काललब्धिः । अपरा कर्मस्थितिकाललब्धिः - उत्कृष्ट स्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसम्यक्त्वलाभो न भवति । क्व तहि भवति ? अन्तः कोटाकोटीसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामवशात् सत्कर्मसु च ततः संख्येयसागरोपमसहस्रोनायामन्तः कोटाकोटीसाग रोपमस्थित स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति । अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया । भव्यः पंचेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तकः सर्वविशुद्धः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति । ( स. सि. २-३; त. वा. २, ३, २) । २. भव्यः कर्माविष्टोऽर्घ पुद्गल परिवर्तनपरिमाणकाले ऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवतीति काललब्धि: । (पंचसं श्रमित. १ - २८६ ; अन. ध. स्वो. टी. २-४६) । १ कर्माक्रान्त भव्य जीव अर्धपुद्गलपरिवर्तन मात्र काल के शेष रह जाने पर प्रथम सम्यक्त्व के ग्रहण करने योग्य होता है, इससे अधिक काल के शेष रहने पर वह उसके योग्य नहीं होता है। यह एक कालब्धि हुई । दूसरी काललब्धि कर्मस्थिति को अपेक्षा है— कर्मों के उत्कृष्ट स्थितियुक्त और जघन्य स्थितियुक्त बन्ध को प्राप्त होने पर उस प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती, किन्तु श्रन्तः कोटाकोटी मात्र स्थिति के साथ उनके बन्ध को प्राप्त होने पर तथा विशुद्ध परिणामों के वश उनके सत्त्व को उससे संख्यात हजार सागरोपम से हीन श्रन्तःकोटाकोटी प्रमाण स्थिति में स्थापित करने पर उक्त सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। तीसरी काललब्धि भव की अपेक्षा है—भव्य, पंचेन्द्रिय, संज्ञी श्रौर पर्याप्त सर्वविशुद्ध जीव ही उस सम्यक्त्व को उत्पन्न कर सकता है ।
१ काल (समय) ही सबको उत्पन्न करता है और काल ही सबका विनाश करता वह सोते हुए प्राणियों के भीतर भी जागता रहता है, उसे कोई धोखा नहीं दे सकता; इस प्रकार काल को महत्त्व देकर कथन करने को कालवाद कहते हैं । कालविप्रकृष्ट- १. अन्तरिताः कालविप्रकृष्टाः । XXX कालविप्रकृष्टा लाभालाभ - सुखदुःख-ग्रहोपरागादयः । (श्रा. मी. वृ. ५) । २ : कालविप्रकृष्टा रामादय: । ( न्यायदी. पृ. ४१) ।
१ जिनमें काल का व्यवधान हो ऐसे लाभ-श्रलाभ, सुख-दुःख और सूर्य-चन्द्रमादि के ग्रहण श्रादि को कालविप्रकृष्ट कहते हैं
कालविमोक्ष - कालविमोक्षस्तु चैत्यमहिमादिकेषु कालेष्वनाघातादिघोषणापादितो यावन्तं कालं मुच्यते, यस्मिन् वा काले व्याख्यायते सोऽभिधीयते इति । ( श्राचारां. नि. शी. वृ. १, ७, ४, २५८, पृ. २३६) ।
जिन चैत्यमहिमादि पर्वों के समय श्रनाघात की (किसी भी जीव को नहीं मारने की ) घोषणा जितने काल काललोक -- काललोकः समयावलिकादिः । ( स्थानां. के लिए की जाती है, उतने काल तक जीवों को अभय. वृ. १-५, पृ. १३) ।
धादि से मुक्ति मिलने के कारण उसे कालविमोक्ष कहते हैं । अथवा जिस काल में विमोक्षण का व्या
समय-श्रावली आदि काल को काललोक कहते हैं ।
३५१, जैन-लक्षणावलो
[कालविमोक्ष
कालवर्गरणा - १. इह वर्गणाः सामान्यतश्चतुर्विधा भवन्ति । तद्यथा - X X X कालतः एकसमयस्थितीनां यावदसंख्येयसमयस्थितीनाम् । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ३६, पृ. ३४) । २. कम्मदव्वं पडुच्च समयाहियावलियापहूडि जाव कम्मद्विदित्ति णोकम्मदव्वं पडुच्च एगसमयादि जाव असंखेज्जा लोगात्ति ताव एदाय कालवग्गणाम्रो । ( धव. पु. १४, पू. ५२) ।
२ कर्मद्रव्य की अपेक्षा एक समय अधिक श्रावली से लेकर कर्मस्थिति तक तथा नोकर्मद्रव्य की अपेक्षा एक समय से लेकर असंख्यात लोक प्रमाण काल तक ये सब कालवर्गणायें हैं ।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
कालापेक्षाव्यतिक्रम] ३५२, जैन-लक्षणावली
[कालसंयोग ख्यान किया जाता है उस काल को कालविमोक्ष १६६) । २. कालदो समवानो-समयो समएण, कहते हैं।
मुहत्तो मुहत्तेण समो। (धव. पु. १, पृ. १०१) । कालापेक्षाव्यतिक्रम-कालापेक्षाव्यतिक्रमः काला- ३. समयावलिय-खण लव-मुहत्त-दिवस-पक्ख-मासउडुपेक्षया कायोत्सर्गस्य विविधमंशभंजनम् । (अन. ध. अयण-संवच्छर युग-पुव-पव्व-पल्ल-सागरोसप्पिणिस्वो. टी. ८-१२१)।
उस्स प्पिणीप्रो सरिसायो, एसो कालसमवायो । काल की अपेक्षा कायोत्सर्ग के विविध अंशों की (जयप. पु. १, पृ. १२५)। ४. एकसमयः एकसमविराधना करना, यह कालापेक्षाव्यतिक्रम नाम का येन सदृशः, प्रावलिः पावल्या सदृशी, प्रथमपृथ्वी३२ दोषों में २६वां दोष है।
नारक-भावन व्यन्त राणां जघन्यायूंषि सदृशानि । कालव्यतिरेक-अपि चैकस्मिन् समये यकाप्यवस्था सप्तमपृथ्वीनारक-सर्वार्थसिद्धिदेवानामुत्कृष्टायुषी सभवेन्न साऽप्यन्या । भवति च सापि तदन्या द्वितीय- दृशे इत्यादिः कालसमवायः। (गो. जी. मं. प्र. व समयेऽपि कालव्यतिरेकः ॥ (पंचाध्यायी १-१४६)। जी. प्र. टी. ३५६)। एक समय में जो भी अवस्था होती है वह वही है, २ काल की अपेक्षा समय समय के साथ समान है, दूसरी नहीं हो सकती। और वही दूसरे समय में प्रावली प्रावली के साथ समान है; इत्यादि काल अन्य होती है-पहली नहीं हो सकती; यही काल- की समानता को कालसमवाय कहते हैं। व्यतिरेक है।
कालसमाधि-कालसमाधिरपि यस्य यं कालमकालशुद्धदान-कालं शुद्धं तु यत्किचित्काले वाप्य समाधिरुत्पद्यते, यस्य वा यावन्तं कालं समापात्राय दीयते । (त्रि. श. पु. च. १, १, १८४)। धिर्भवति, यस्मिन् वा काले समाधिाख्यायते स दान देने के लिए जो समय निश्चित है, ठीक पागम कालप्राधान्यात् कालसमाधिरिति । (सूत्रकृ. शी. व. निरूपित उसी समय पर पात्र के लिए शुद्ध देय १०, १, ४)। वस्तु का दान करने को कालशुद्धदान कहते हैं। जिसके जिस काल में समाधि उत्पन्न होती है, अथवा कालशुद्धि-१. दिसदाह उक्कपडणं विज्जुचडुक्का- जितने काल तक समाधि रहती है, अथवा जिस सणिदधणुगं च । दुग्गंध-संज्झ-दुद्दिण-चंदग्गह-सुर- काल में समाधि का व्याख्यान किया जाता है; उस राहुजुझं च ॥ कलहादिधमकेदू धरणीकंपं च काल को काल की प्रधानता से कालसमाधि कहते हैं। अब्भगज्जं च । इच्चेवमाइ बहया सज्झाए वज्जिदा कालसंक्रम-कालस्स अपुव्वस्स पादुब्भायो कालदोसा ॥ (मूला. ५, ७७-७८) । २. विद्युदिन्द्रधनु- संकमो। Xxx अथवा xxx एगकालम्मि ग्रहोपरागाकालवृष्टयभ्रगर्जन-जीमूतव्रातप्रच्छाद-दिग- टिददव्बस्स कालंतरगमणं कालसंकमो। (धव. पु. दाह-धूमिकापात-संन्यास-महोपवास - नन्दीश्वरजिन- १६, पृ. ३४०)। महिमाद्यभाव: कालशुद्धि: । (धव. पु. ६, पृ. २५३)। अपूर्व काल की उत्पत्ति को कालप्रादुर्भाव कहा जाता ३. उदयास्तात्प्राक्-पाश्चात्य-त्रि-त्रिनाडीषु यः सुधीः। है। अथवा एक काल में स्थित द्रव्य का अन्य काल मध्याह्न तां च यः कुर्यात् कालशुद्धिश्च तस्य सा॥ को प्राप्त होना, इसका नाम कालसंक्रम है। (धर्मसं. श्रा. ७-४६)।
कालसंयोग-१. से किं तं कालसंजोगे ? सूस२ स्वाध्याय के समय में बिजली, इन्द्रधनुष, सूर्य मसुसमाए सुसमाए सुसमदूसमाए दूसमसुसमाए दूसचन्द्र का ग्रहण, अकालवृष्टि, मेघगर्जन, मेघसमूह माए दूसमदूममाए, अहवा पावसए वासारत्तए सरका आच्छादन (दुदिन), दिशादाह, धूमिकापात दए हेमंतए वसंतए गिम्हए, से तं कालसंजोगे। (कुहरा), संन्यास, महोपवास, नन्दीश्वर (अष्टा- (अनयो. सू. १३, पृ. १४४)। २. कालसंयोगपदानि ह्निकपर्व) और जिनमहिमा प्रादि के अभाव का यथा शारदः वासन्तक इत्यादीनि । (धव. पु. १, पृ. नाम कालशुद्धि है।
७८); सारो वासंतसो त्ति कालसंजोगपदणामाणि । कालसमवाय- १. उत्सपिण्यवसपिण्योस्तुल्यदश- (धव. पु. ६, पृ. १३७) । सागरोपमकोटाकोटीप्रमाणात्कालसमवायनात काल- १. सुषमसुषमादि छह कालों के सम्बन्धसे तथा वर्षा समवायः । (त. वा. १, २०, १२; धव. पु. ६, पृ. प्रादि ऋतुओं के सम्बन्ध से जो नाम (पद) निष्पन्न
कापस
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
कालसंसार] ३५३, जैन-लक्षणावली
[कालातिक्रम होते हैं, वे कालसंयोग-नाम कहे जाते हैं । जैसे- पूर्वाह्लादिभेदभिन्नः कालसामायिकम् । (मूला. व. सुषमसुषमज, सुषमज, सुषमदुःषमज प्रादि तथा ७-१७)। ३. कालसामायिक वसन्त-ग्रीष्मादिषु प्रावृषिक, शारद व हेमन्तक आदि ।
ऋतुषु दिन-रात्रिसितासितपक्षादिषु च यथास्वं चार्वकालसंसार--१. तत्र परमार्थकालवर्तितपरिस्पन्दे- चारुषु राग-द्वेषानुद्भवः । xxx कालसामायिक तरपरिणामविकल्पः तत्पूर्वकालव्यपदेशौपचारिक- तु यस्मिन् काले सामायिकस्वरूपेण परिणतो जीव: कालत्रयवृत्ति: कालसंसारः । (त. वा. ६, ७, ३)। स काल: पूर्वाल्ल-मध्याह्नापराह्लादिभेदभिन्नः । २. कालस्य दिवस-पक्ष-मासवयन-संवत्सरादिलक्षणस्य (अन. घ. स्वो. टी. ८-१६)। ४. वसन्तादिषु संसरणं चक्रन्यायेन भ्रमणं पल्योपमादिकालविशेष- ऋतुषु शुक्ल-कृष्णयोः पक्षयोः दिन-वार-नक्षत्रादिषु विशेषितं वा यत्कस्यापि जीवस्य नरकादिषु स कान- च इष्टानिष्टेषु कालविशेषेषु राग-द्वेषनिवृत्तिः कालसंसारः। (स्थानां. अभय. व. ४, १,२६१. प. सामायिकम् । (गो. जी. म. प्र. टी. ३६७)। १८८)।
५. बसंताइसु उडुसु सुक्क-किण्हाणं पक्खाणं दिण१. निश्चय काल के निमित्त से होने वाले प्रात्म- वार-णक्खत्ताइसु च तेसु कालविसे सेसु तं णियट्टी प्रदेशों में परिस्पन्द और इतर परिणमन को तथा कालसामाइयं । (अगप. पृ. ३०६)। उक्त निश्चय काल के निमित्त से काल इस नाम को १ वसन्तादि छह ऋतुओं के अनुकूल या प्रतिकूल प्राप्त तीनों व्यवहार कालों में होने वाले संसरण को होने की अवस्था में उन पर राग या कालसंसार कहते हैं। २. दिन, पक्ष, मास, ऋतु, को कालसामायिक कहते हैं। . अयन और वर्ष प्रादिरूप कालका जो चक्र के समान कालस्तव- १. स्वर्गावतरण-जन्म-निष्क्रमण-केवपरिभ्रमण होता है, इसका नाम कालसंसार है। लोत्पत्ति-निर्वाणकालानां स्तवनं कालस्तवः। (मूला. अथवा पल्योपमादि काल विशेष से विशेषता को वृ. ७-४१) । २. कालस्तवस्तीर्थकृतां स ज्ञेयो प्राप्त जिस किसी भी जीवका जो नरकादि गतियों यदनेहसः । तद्गर्भावतरायुद्धक्रियादृप्तस्य कीर्तनम् ॥ में परिभ्रमण होता है उसे कालसंसार जानना (अन. प. ८-४३)। चाहिए।
१ तीर्थकरों के गर्भादि कल्याणक सम्बन्धी कालों का कालसंस्थान-प्रद्धायाः कालस्याकारोऽद्धाक्षेत्र स्तवन करने को कालस्तव कहते हैं।
कृतिज्ञेयः, सर्यक्रियाभिव्यङग्यो हि कालस्पर्शन-कालदव्वस्स अण्णदब्वेहि जो संजोयो कालः किल मनुजक्षेत्र एव वर्तते, अतो य एव तस्या- सो कालफोसणं णाम । (धव. पु. ४, पृ. १४४)। कारः स एव कालस्याप्युपचारतो विज्ञेयः । (प्राव. काल द्रव्य का अन्य द्रव्यों के साथ जो संयोग होता हरि. वृ. मल. हे. टि. पृ. ६४)।
है उसे कालस्पर्शन कहते हैं। कालका क्षेत्र जो मनुष्यलोक है उसे ही कालसंस्थान- कालाणु-लोयायासपदेसे इक्केके जे ठिया है काल का प्राकार--जानना चाहिये। सर्य के संचार एक्केक्का। रयणाणं रासी इव ते कालाण मुणेसे अभिव्यक्त होनेवाला काल (व्यवहारकाल) चंकि यव्वा ।। (धव. पु. ४, पृ. ३१५ उद् ; द्रव्यसं. २२, मनुष्यलोक में ही पाया जाता है, अत: मनुष्यलोक का गो. जी. ५८८)।
प्राकार है, उसे ही उपचार से कालसंस्थान एक एक लोकाकाशप्रदेश के ऊपर जो रत्नों की समझना चाहिये।
राशि के समान एक एक काल के प्रण स्थित हैं वे कालसामायिक-१. छ. उदुविसयसंपरायणिरोहो कालाणु कहलाते हैं। कालसामाइयं । (जयध.१, पृ.१८) २. प्रावट-वर्षा- कालातिक्रम-१. प्रकाले भोजनं कालातिक्रमः । हेमन्त-शिशिर-वसन्त-निदाघाः षड् ऋतवो रात्रि- (स. सि. ७-३६)। २. कालातिक्रम इति कालदिवस-शुक्लपक्ष-कृष्णपक्षाः कालस्तेषूपरि राग-द्वेष- स्यातिक्रमः कालातिक्रमः उचितो यो भिक्षाकालः वर्जनं कालसामायिकं नाम | XXX अथवा X साधूनां तमतिक्रम्य उल्लंध्य भुंक्ते तदा च किं तेन xx यस्मिन् काले सामायिकं करोति स कालः लब्धेनापि, कालातिक्रान्तत्वात्तस्य । (था. प्र.
म.४५
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
कालात्ययापदिष्ट
३२७) । ३. प्रकाले भोजनं कालातिक्रमः । श्रनगाराणाम् प्रयोग्यकाले भोजनं कालातिक्रम इति कथ्यते । (त. वा. ७, ३६, ५) । ४. उचितो यो भिक्षाकालः साधूनां तमतिक्रमय्यानागतं वा भुङ्क्ते पौषधोपवासी, स च कालातिक्रमो ग्रहीतुरप्रीतिकरोप्रस्तावाददानं चेत्यतीचारः । ( त. भा. सिद्ध वृ. ५. अनगाराणामयोग्ये काले भोजनं कालातिक्रम इति । (चा. सा., पृ. १४) । ६. तथा कालस्य साघूचित भिक्षासमयस्यातिक्रमः - श्रदित्सयाऽनागतभोजनपश्चाद् भोजनद्वारेणोल्लंघनं कालातिक्रमोऽतिचार इति । भावना पुनरेवम् - यदाऽनाभो. गादिनाऽतिक्रमादिना वा एतानाचरति तदाऽतिचारो ऽन्यदा तु भङ्ग इति । (ध. बि. मु. वृ. ३-३४) । ७. कालातिक्रमः साधूनामुचितस्य भिक्षासमयस्य
७-३१) ।
३५४, जैन- लक्षणावली
नम् । स च यतीनयोग्ये काले भोजयतोऽनगारबेलाया वा प्रागेव पश्चाद्वा भुञ्जानस्य च तृतीयः स्यात् । ( सा. ध. स्वो टी. ५-५४) । ८. अकाले भोजनम् श्रनगाराऽयोग्यकाले दानं क्षुधितेऽनगारे विमर्दकरणं च कालातिक्रमः । (त. वृत्ति श्रुत. ७ - ३६) ६. ईषन्न्यूनाच्च मध्याह्नाद्दानकालादधोऽथवा । ऊर्ध्वं तद्भावना हेतोर्दोषः कालव्यतिक्रमः ॥ (लाटीसं. ६ - २३१) ।
१ साधुनों को बाहार देने का जो समय निश्चित है उसका उल्लंघन करके उससे आगे या पीछे प्राहारदान देने को कालातिक्रम नाम का प्रतिचार कहते हैं ।
कालात्ययापदिष्ट - १. बाधितविषयः कालात्ययापदिष्ट: । ( न्यायदी. पृ. ८७) । २. प्रमाणबाधितकार्यानन्तरप्रयुक्तः कालात्ययापदिष्टः । ( प्रमाल. व. ८६) ।
१ जिस हेतु का विषय (साध्य) प्रत्यक्षादि से बाधित हो उसे कालात्ययापदिष्ट कहते हैं। कालानुगम -- जम्हि जेण वा वत्तव्यं परूविज्जदि सो श्रणुगम । ( धव. पु. ६, पृ. १४१) । जिसमें या जिसके द्वारा वक्तव्य (काल) की प्ररूपणा जाती है वह कालानुगम कहलाता है । कालानुपूर्वी- -तत्र द्रव्य-पर्यायत्वात्कालस्य त्र्यादिसमयस्थित्याद्युपलक्षितद्रव्याण्येव । XXX सिमयस्थित्यणुकादि द्रव्य-पर्याययोः कथंचिदभेदेऽपि भानुपूर्व्यधिकारात् तत्प्राधान्यात् कालानुपूर्वीति ।
[कालिक्युपदेशजात
एवं यावदसंख्येयसमयस्थितिः, एवमेकसमयस्थित्यनानुपूर्वी द्विसमयस्थित्यवक्तव्यम् । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ५१ ) ।
काल चूंकि द्रव्य पर्यायरूप है, अतः तीन शादि समयरूप स्थिति श्रादि से उपलक्षित द्रव्यों को ही कालानुपूर्वी कहा जाता है। इसी प्रकार चार समय आदि प्रसंख्यात समयरूप स्थिति से उपलक्षित द्रव्यों को ही कालानुपूर्वी समझना चाहिये । एकसमयस्थिति श्रानुपूर्वीरूप नहीं है, तथा दोसमयस्थिति वक्तव्य है ।
कालानुयोग- कालस्यानुयोगो यथा समयस्यानुयोगद्वारेषु प्ररूपणा, कालानामनुयोगः प्रभूतानां समयावलिकादीनां प्ररूपणा XX X | ( श्राव. नि. मलय. वृ. १२६ पृ. १३१) ।
समय की अनुयोगद्वारों में प्ररूपणा करने तथा समय, श्रावली, मुहूर्त श्रादि काल के प्रचुर भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा करने को कालानुयोग कहते हैं । कालान्तरवर्तिनी कालान्तरवर्तिनी मृद्रव्यं पिण्डाद्याकारेण मृद्भावं प्रक्षीणमपहाय पिण्डादिरूपेण परिणमते । ( त. भा. सिद्ध वृ. ६–७, पू. २२१) ।
कुछ काल के अन्तर से होने वाली उत्पत्ति को कालान्तरवत्तिनी उत्पत्ति कहते हैं। जैसे - मिट्टी नियत समय के पश्चात् पूर्व श्रवस्था को छोड़कर पिण्डस्वरूप से परिणत होती है, यह उसकी कालान्तरवर्तिनी उत्पत्ति कही जाती है ।
कालावग्रह - दो सागरा उ पढमो, चक्की सत्तसय पुव्व चुलसीई | सेसनिवम्मि मुहुत्तं जहन्नमुक्कोसए भयणा । (बृहत्क. भा. ६८२ ) ।
देवेन्द्र - सौधर्म इन्द्र का -- कालावग्रह दो सामरोपम प्रमाण है, क्योंकि उसकी स्थिति दो सागरोपम काल तक है । चक्रवर्ती का कालावग्रह जघन्य से - ब्रह्मदत्त के समान सात सौ वर्ष और उत्कर्ष से - भरत चक्रवर्ती के समान - चौरासी लाख पूर्व वर्ष है । शेष राजानों का कालावग्रह जघन्य से श्रन्तर्मुहूर्त है । उनका उत्कृष्ट कालावग्रह भजनीय है - एक समय अधिक अन्तर्मुहूर्त से लेकर चौरासी लाख पूर्व वर्ष तक अपनी श्रायु के समान है । कालिक्युपदेशजात - इहा दिपदलोपाद्दीर्घकालिकी कालिक्युच्यते, संज्ञेति प्रकरणाद् गम्यते, उपदेशन
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
कालुष्य] ३५५, जैन-लक्षणावली
[काष्ठा मुपदेशः कथनमित्यर्थः, दीर्घकालिक्याः सम्वन्धी कालोवक्कमे । (अनुयो. सू. ६८) । २. कालस्योपदीर्घकालिक्या वा मतेनोपदेशो दीर्घकालिक्युपदेशः। क्रमः कालोपक्रम; xxx यदिह नालिकादिभि(नन्दी. हरि. व. पृ. ७८) ।
रादिशब्दात् शंकुच्छाया-नक्षत्रचारादिपरिग्रहस्तैः संजीका श्रुत तीन प्रकार का है-कालिकी संज्ञा के काल उपक्रम्यते, स कालोपक्रम इति । (प्रनयो. उपवेश से, हेतु के उपदेश से, और दृष्टिवाद के सू. मल.हे.व.६८)। उपदेश से । कालिको से यहां प्रादिपद (दीर्घ) का नालिका (काल के माप का यंत्रविशेष) शंकुछाया लोप हो जाने के कारण दीर्घकालिकी संज्ञा ग्रहण (खूटी की छाया) और ग्रहसंचार प्रादि के प्राश्रय की गई है। दीर्घकालिकी संज्ञा सम्बन्धी या उसके से जो काल का बोष होता है, उसका नाम कालोपमत से जो उपदेश (कथन) किया जाता है, वह क्रम है। कालिक्युपदेश कहलाता है।
कालोपयोगवर्गणा - १. कालोवजोगवग्गणामो कालष्य-१. कोधो व जदा माणो माया लोभो व णाम कसायोवजोगदाणाणि । (कसायपा. प. चित्तमासेज्ज । जीवस्स कुणदि खोहं कलुसो त्ति य ५७९)। २. उवजोगो णाम कोहादिकसाएहि सह तं बुधा वेति ॥ (पंचा. का. १३८)। २. क्रोध. जीवस्स संपजोगो तस्स वग्गणाप्रो वियप्पा भेदा त्ति मान-माया-लोभानां तीवोदये चित्तस्य क्षोभः कालु- एयट्टो। Xxx तत्थ कालदो जहणोरजोर. व्यम्। (पंचा. का. अमृत. व. १३८)। ३. क्रोध. कालप्पडि जावुक्कस्सोवजोगकालो ति णिरंतर. मान-माया-लोभाभिधानश्चभिः कषायः क्षुभितं मवट्टिदाणं 'वियप्पाणं कालोवजोगवग्गणा तिमण्णा चित्तं कालण्यम । (नि. सा.व.६६)। ४. तत्क्रो- कालविसयादो उवजोगवग्गणामो कालोवजोगवा. धादिजनितं चित्तवैकल्यं कालुष्यम् । (पंचा. का. जय. णामो त्ति गहणादो। (जयप.-क. पा. पृ. ५७६
टि. १)। १क्रोध, मान, माया और लोभ कषायों से उत्पन्न कषाय के जघन्य उपयोगकालके स्थान से लेकर क्षोभ को कालुष्य कहते हैं।
उत्कृष्ट उपयोगकाल के स्थान तक निरन्तर अब कालोज्झित-कासाइमाइ जं पूव्वकालजोग्गं तद- स्थित भदों को कालोपयोगवर्गणा कहते हैं। यहां न्नहिं उज्झे। होहिइ च एस्सकाले अजोग्गयमणा- काल से सम्बन्ध रखने के कारण उपयोगवर्गणामों गयं उज्झे ।। (बृहत्क. भा. ६१३) ।
को कालोपयोगवर्गणा कहा गया है। काषायी-कषाय रंग से रंगे (शीतल)-प्रादि काष्ठकर्म-काष्ठे क्रियन्ते इति निष्पत्तेः देव-णेरवस्त्रों के पूर्व काल के-ग्रीष्म आदि ऋतु के- इय-तिरिक्ख-मणुस्साणं णच्चण-हसण-गायण-तरयोग्य होने से जो उनका अन्य समय में-वर्षा वीणादिवायणकिरियावावदाणं कट्रघडिदपडिमामो प्रादि के काल में-परित्याग किया जाता है, इसे कट्टकम्मेत्ति भणति । (धव. पु. ६, पृ. २४९); कालोमित कहते हैं। अथवा भविष्य में-वर्षा कठेसु जाम्रो पडिमानो घडिदामो दूवय-च उप्पयप्रादि काल में-अनुपयोगी होने से जो उक्त वस्त्र अपाद-पादसंकुलाणं तारो कट्ठकम्माणि णाम । का वर्षा के पूर्व में ही परित्याग कर दिया जाता (धव. पु. १३, पृ. २०२)। है, यह कालोज्झित कहलाता है।
नाचना, हंसना, गाना तथा तुरई एवं वीणा मादि कालोत्तर-कालोत्तरः समयादावलिका प्रावलि- बाजों को बजाना; इत्यादि क्रियानों में प्रवत्त देव, कातो मुहूर्तमित्यादि । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १, नारकी, तिथंच और मनुष्यों की काष्ठनिमित प्रति
मानों को काष्ठकर्म कहा जाता है। 'काष्ठे क्रियन्ते' समय से प्रावली बड़ी है और प्रावली से मुहूर्त अर्थात् काष्ठ में जो किये जाते हैं, इस निरुक्ति के बड़ा है, इस प्रकार से उत्तरोत्तर बढ़ते हुए काल- अनुसार उक्त प्रतिमानों की 'काष्ठकर्म' यह सार्थक भेदों को कोलोत्तर कहते हैं।
संज्ञा है। कालोपक्रम-१. से कि तं कालोवक्कमे ? २ नं काष्ठा-१. पञ्चदशाक्षिनिमेषा काष्ठा। (प. णं नालिपाईहिं कालस्सोवक्कमणं कीरइ, से तं पु. ६, पृ. ६३) । २. पञ्चदशनिमिषः काष्ठा।
-
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
काहलत्व] ३५६, जैन-लक्षणावली
[किल्विषिक (पंचा. का. जय. वृ. २५) । ३. निमेषाष्टकैः में अधिक शोभा से सम्पन्न और मुकुट से विभूषित काष्ठा । (नि. सा. व. ३१)।
होते हैं उन देवों को किन्नर कहते हैं । १ पन्द्रह अक्षि-निमेष (पलक) प्रमाण काल को किम्पुरुष-किम्पुरुषा ऊरु-बाहुष्वधिकशोभा मुखेकाष्ठा कहते हैं। ३ पाठ निमेषों की एक काष्ठा ध्वधिकभास्वरा विविधाभरणभूषणाश्चित्रस्रगानुलेहोती है।
पनाश्चम्पकवृक्षध्वजाः। (त. भा. ४-१२; बृहत्सं. काहलत्व-काहलमव्यक्तवर्णं वचनम्, तद्योगात्पुरु- __ मलय. वृ. ५८)। षोऽपि काहलः, तस्य भावः काहलत्वम् । (योगशा. ऊरु और भुजाओं में अधिक शोभा से सम्पन्न, मुख स्वो. विव. २-२३)।
में अतिशय भास्वर, नाना प्रकार के प्राभरणों से काहल का अर्थ अव्यक्त वर्णवाला वचन होता है। भूषित, विविध वर्ण के पुष्पों की मालाओं के धारक उसके सम्बन्ध से जो व्यक्ति वचन का स्पष्टता से एवं चम्पक वृक्ष की ध्वजा वाले देवों को किम्पुरुष उच्चारण नहीं कर सकता है उसे भी काहल कहा कहते हैं। जाता है। मनुष्य का काहल होना असत्य भाषण किरात-अल्पाखिलशरीरावयवः किरातः। (नीतिका परिणाम है।
वा. १४-१४)। कांक्षा-१. ऐहलौकिक-पारलौकिकेषु विषयेष्वा- शरीर के थोड़े अंगों को ढांकने वाले मनुष्य को शंसा काङ्क्षा। (त. भा. ७-१८)। २. कंखा किरात कहते हैं।। अन्नन्नदंसणग्गाहो। (श्रा. प्र. ८७)। ३. कांक्षा किलिकिंचित-१. स्मित-हसित-रुदित-भय-रोषअन्योन्यदर्शनग्राहः। (श्रा. प्र. टी. ५६ व ८७)। गर्व-दुःख-श्रमाभिलाषसंकरः किलिकिंचितम् । ४. काङ्क्षणं कांक्षा, सुगतादिप्रणोतदर्शनेषु ग्राहोऽभि- (काव्यानुशासन ७, पृ. ३१२)। २. किलिकिंचितं लाष इत्यर्थः। तथा चोक्तम्-कंखा अन्नन्नदंसणग्गाहो। रोषभयाभिलाषादिभावानां युगपदसकृत् करणम् । (प्राव. हरि. व. १५६१, पृ. ८१४)। ५. काङ्क्षणं (रायप. मलय. वृ. पृ. १७)। कांक्षा अर्जनमतिपरिणामाविच्छेदः । (त. भा. सिद्ध. २ रोष, भय एवं अभिलाषा प्रादि भावों के संकर वृ. ७-१२); भविष्यत्कालोपादानविषया काना। या मिश्रण को किलिकिचित कहते हैं। (त. भा. सिद्ध. व. ८-१०)। ६. काङ्क्षा अन्या- किल्विष--देखो किल्विषिक । किल्विषाश्चान्त्यजोन्यदर्शनग्रहः । (योगशा. स्वो. विव. २-१७)। पमाः । (त्रि. श. पु. च. २, ३, ७७४) । १ इस लोक सम्बन्धी और परलोक सम्बन्धी विषयों जो देव अन्त्यज (घृणित, चाण्डाल या अस्पृश्य) की अभिलाषा का नाम काङ्क्षा है। वह सम्यग्दर्शन प्रादि के समान हीन होते हैं वे किल्विष कहे जाते का एक अतिचार है। २ बौद्धादि विभिन्न दर्शनों हैं। के ग्रहण को काङ्क्षा कहा जाता है। ५ धनार्जनादि किल्विषकर्मा-किल्विषाणि-क्लिष्टतया निकृके विचार का न छोड़ना, यह काङ्क्षा कहलाती है। ष्टान्यशुभानुबन्धीनि कर्माणि येषां यह मूर्छाका एक नामान्तर है।
मणिः । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ५, पृ. १८३)। कितव-कितवो द्यूतकारः। (नीतिवा. १४-१३)। पापबन्ध के कारणभूत घृणित कार्य के करने वाले जुआ खेलने वाले को कितव कहते हैं।
देव किल्विषकर्मा कहे जाते हैं। किन्नर-१. तत्र किन्नराः प्रियंगुश्यामाः सौम्याः सौम्यदर्शना मुखेष्वधिकरूपशोभा मुकुटमौलिभूषणा ल्विषिकाः। (स. सि. ४-४)। २. किल्विषिका अशोकवृक्षध्वजा प्रवदाताः। (त. भा. ४-१२)। अन्तस्थस्थानीया इति । (त. भा. ४-४)। ३. अन्त्य२. किन्नरनामकर्मोदयात् किन्नराः। (त. वा. ४, वासिस्थानीयाः किल्विषिकाः । किल्विषं पापम्, ११,३)। ३. किन्नराः सौम्यदर्शना मुखेष्वधिक- तदेतेषामस्तीति किल्विषिकाः। ते अन्त्यवासिस्थारूपशोभा मुकुटमौलिभूषणाः। (बृहत्सं. व ५८)। नीया मताः । (त. वा. ४, ४, १०) । ४. किल्विषं १ जिनकी ध्वजा में अशोक वृक्ष का चिह्न होता है, पापम्, तदेषामस्तीति किल्विषिका: । (त. श्लो. तथा जो प्रियंगु के समान कृष्णवर्ण, रमणीय, मुखों ४-४)। ५. मता: किल्विषमस्त्येषामिति किल्बि
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
किल्विषिकभावना ]
षिकामराः । बाह्याः प्रजा इव स्वर्गे स्वल्पपुण्योदितर्द्धयः ।। (म. पु. २२ - ३० ) । ६. किल्विषं पापं उदये विद्यते येषां ते किल्विषिकाः । (स्थाना. श्रभय. वृ. ३, ४, २०१, पृ. १५२) । ७. किल्विषं पापकर्म विद्यते येषां ते किल्विषिका अन्त्यजस्थानीयाः । (त. सुखबो. वृ. ४-४ ) । ८ किल्विषमशुभं कर्म, तद्वन्तः किल्विषिकाश्चाण्डालप्रायाः । ( संग्रहणी दे. वृ. १, पृ. ५) । ε. तथा किल्विषमशुभकर्म, तदेवामस्तीति किल्विषिकाः, ते चाधमाश्चाण्डालप्राया श्रवगन्तव्या: । (बृहत्सं. मलय. वू. २ ) । १०. किविषं पापं विद्यते येषां ते किल्विषिकाः । × × × किल्विषिका इति कोऽर्थः ? वाहनादिकर्मसु नियुक्ताः दिवाकीर्तिसदृशा: । (त. वृत्ति श्रुत. ४-४) । ३ किल्विष नाम पाप का है, पाप से युक्त देव किल्विfषक कहलाते हैं । वे श्रन्त्यवासियों ( चाण्डालों) के समान होते हैं । किल्विषिकभावना ( खिव्बिसिय भावणा ) - १. तित्थयराणं पडिणीओ संघस्स य चेइयस्स सुत्तस्स । श्रविणीदो नियडिल्लो किव्विसियेसूववज्जेइ ।। (मूला. २ - ३०, पृ. ७० ) । २. णाणस्स केवलीणं धम्मस्साइरियसव्वसाहूणं । माझ्य श्रवण्णवादी खिभिसियं भावणं कुणइ ।। (भ. श्रा. १८१; बृहत्क. नि. १३०२ ) । ३. तीर्थंकराणां प्रत्यनोक: संघस्य चैत्यस्य सूत्रस्य वा अविनीतः मायावी च यः सः किल्विषकर्मभिः किल्विषिकेषु जायते । (मूला. वृ. २- ३०, पृ. ७१ ) ।
-
२ श्रुतज्ञान, केवली, धर्म, प्राचार्य और समस्त साधु; इनके विषय में मायायुक्त - यथार्थ भक्ति न होने पर भी बाह्य में विनयादि से संयुक्त - होकर दोष दिखलाना, यह किल्विषिक भावना है । किष्कु (किक्खू ) - १. द्विहस्तः किष्कुः । (त. वा. ३, ३८, ७)। २. × × X तद्- (हस्त ) द्वयं किष्कुरिष्यते ।। (ह. पु. ७-४५) । ३. वेहत्थेहि य किखू । ( जं. दी. प. १३ - ३३) ।
१ दो हाथ- प्रमाण माप को किष्कु कहते हैं । कीति- १. कीर्तनं संशब्दनं कीर्तिः । (त. वा. ८, ११, ३८ ) । २. दान-पुण्यफला कीर्तिः । ( श्रा. प्र. २४; श्राव. मलय. वृ. १०८७ ) । ३. कीर्त्यन्ते जीवादयस्तत्त्वार्था यया सा कीर्तिः । ( युक्त्यनु. टी. १) । ४. कीर्तिः गुणोत्कीर्तनरूपा । (प्रज्ञाप. मलय.
३५७, जन-लक्षणावली
[कीलिकासंहनन
वृ. २६३, पृ. ४७५)। ५. दानपुण्यकृतः साधुवादः कीर्तिः । ( धर्मसंग्रहणी मलय. वृ. ६२१, पू. २३४ ) । २ दानजनित पुण्य के प्रभाव से जो अन्य जनों के द्वारा प्रशंसा की जाती है उसे कीति कहते हैं । ३ जिसके द्वारा जीवादि पदार्थों का कीर्तन किया जाता है उसका नाम कीति है ।
मया
कीर्तित - कीर्तितम् - भोजनवेलायाममुकं प्रत्याख्यातम्, तत् पूर्णमधुना भोक्ष्य इत्युच्चारणेन । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ६, १०, १५९३, पू. ८५१) । मैंने भोजन के समय अमुक वस्तु का प्रत्याख्यान किया था, वह पूर्ण हो चुका है, अब मैं उसे खाऊंगा; इस प्रकार उच्चारण द्वारा संकेत करने को कीर्तित कहा जाता है ।
कीलिकासंहनन ( खोलियस रीरसंघडण ) - १. तदुभयमन्ते सकीलकं कीलिकासंहननम् । (त. वा. ८, ११, ९) । २. कीलिकानाम विना मर्कटबन्धेनास्थ्नोमध्ये कीलिकामात्रम् । ( त. भा. सिद्ध. वू. ८ - १२ ) । ३. जस्स कम्मस्स उदएण श्रवज्जहडाइ खीलियाई हवंति तं खीलियसरीर संघडणं णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ७४ ); श्रवज्रकीलैः कोलितं कीलितशरीरसंहननम् । ( धव. पु. १३, पू. ३७०)। ४. ऋषभनाराचवर्ज कीलिकाविद्धास्थिद्वयसंचितं कीलिकाख्यं पञ्चमम् । ( कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. १८ ) । ५. यस्य कर्मण उदयेन वज्रास्थीनि वज्रवेष्टनेन वेष्टितानि वज्रनाराचेनैव कीलितानि न भवन्ति तत्पञ्चमम् (कीलक संहननम् ) | (मूला. वृ. १२ - १६४) । ६. यत्रास्थीनि कीलिकामात्रबद्धानि तत्कीलिकाख्यं पञ्चमं सहननम् । ( संग्रहणी दे. वृ. ११७, पृ. ५८; जीवाजी. मलय. वृ. १३, पृ. १५) । ७. यत्र त्वस्थीनि कीलिकामात्रबद्धान्येव भवन्ति तत्संहननं कीलिकाख्यम् । (प्रज्ञाप. मलय. व. २३-२६३, पू. ४७२ ) । ८. यस्योदयाद् वज्रास्थीनि कीलितानि भवन्ति तत्कीलितशरीरसंहनननाम । (गो.क. जी. प्र. ३३) । ६. उभयास्थिपर्यन्त कीलकसहितं कीलिकासंहनननाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११) ।
१ नाराच और वलयबन्धन का अन्त में कीलों से सहित होना, यह कीलिकासंहनन कहलाता है । २ मर्फटबन्ध (नाराचबन्ध) के बिना जो हड्डियों के
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुक्षि] ३५८, जैन-लक्षणावली
[कुन्थु मध्य में कोल मात्र होती हैं, उसे कोलिकासंहनन ज्ञान को कुतर्क कहते हैं। कहते हैं।
कत्सा-परकीयकूल-शीलादिदोषाविष्करणावक्षेपकुक्षि-देखो किष्कु । १. अडयालीसं अगुलाई भर्त्सनप्रवणा कुत्सा। (त. वा. ८, ९, ४) । कुच्छी । (व्याख्याप्र. ६-७, पृ. ८२६)। २. दो दूसरे के कुल-शील आदि के विषय में दोष के प्रकट रयणीयो कुच्छी । (अनुयो. सू. १३३) । ३. रत्नि- करने तथा उनके कार्य में विघ्न डालने व झिड़कने द्वयं कुक्षिः । (अनुयो. सू. मल. हेम. वृ. १३३, पृ. प्रादि को कुत्सा कहते हैं। १५८)।
कुदृष्टि-१. मदि-सुदणाणबलेण दु सच्छंदं बोलए १ अड़तालीस अंगुल अधवा रत्नि प्रमाण कुक्षि जिणुत्तमिदि। जो सो होइ कुदिट्ठी xxx ॥ (एक क्षेत्रप्रमाण) होती है।
(रयणसार ३) । २.XXX कुदृष्टिर्यः स सप्तकुगुरु-१. सग्रन्थारम्भहिंसा: संसारावर्तवर्तिनः भिर्भययुतः । (लाटोसं. ४-१८)। पाखण्डिनः कुगुरुव: । (फलित लक्षण-रत्नक. १ जो अपने मति-श्रुतज्ञान के दर्प से जिनोक्त कह १४)। २. सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः। कर स्वच्छन्द कथन करे, उसे कुदृष्टि कहते हैं। अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु ॥ (योगशा. कुदेव-ये स्त्री-शस्त्राक्षसूत्रादि रागाद्यङ्ककलङ्कि२-६)। ३. कुगुरुः कुत्सिताचारः सशल्यः सपरि- ताः। निग्रहानुग्रहपरास्ते देवाः स्युन मुक्तये ।। ग्रहः । (लाटीसं. ४-१२३; पञ्चाध्यायी २-६०४)। (योगशा. २-६)। १ ग्रन्थ (परिग्रह) और प्रारम्भ से सहित पाखण्डी जो राग-द्वेष-मोह के चिह्नत स्त्री, शस्त्र, अक्ष
-वेषधारी साधु-कुगुरु कहलाते हैं । २ जो सब सूत्र (जपमाला) और राग-द्वेषादि से कलंकित कुछ चाहते हैं, सब कुछ खाते हैं, परिग्रह से ग्रसित होकर दूसरों का निग्रह व अनुग्रह करने में तत्पर रहते हैं, ब्रह्मचर्यविहीन होते हैं, और मिथ्या उप- रहते हैं, वे देव नहीं हो सकते-वे कुदेव हैं जो देश दिया करते हैं; वे गुरु नहीं हो सकते-उन्हें मुक्ति के कारण नहीं हो सकते। अगुरु या कुगुरु जानना चाहिए।
कुधर्म-मिथ्यादृष्टिभिराम्नातो हिंसाद्यैः कलुषीकृञ्चितदोष-करामर्शोऽथ जान्वन्तः क्षेपः शीर्षस्य कृतः । स धर्म इति वित्तोऽपि भवभ्रमणकारणम् ॥ कुञ्चितम् । (अन. घ. ८-१०७)।
(योगशा. २-१३)। हाथ से शिर के प्रामर्श (स्पर्श) करने को कुञ्चित मिथ्यादृष्टियों से प्ररूपित होता हा जो हिंसादि दोष कहते हैं। अथवा दोनों जंघात्रों के मध्य में पापाचरणों से मलिनता को प्राप्त है. वह मध. शिर के रखने को कुञ्चित दोष कहते हैं । यह ३२ बुद्धियों में धर्मरूप में प्रसिद्ध होकर भी वस्तुतः धर्म वन्दनादोषों में २२वां दोष है।
नहीं है-कुधर्म है और वह संसारपरिभ्रमण का कूड़य-- जिणहरघरायदणाणं ठविदोलित्तीनो ही कारण है। कुड्डा णाम । (धव. पु. १४, पृ. ४०)।
कुधर्मकांक्षा- रत्तवड-चरग-तावस-परिहत्तादीणजिनगह घर और प्रायतन की स्थापित प्रोलित्तियां मण्णतित्थीणं । धम्मम्हि य अहिलासो कूधम्मकंखा (?) कुड्य कहलाती हैं।
हवदि एसा ।। (मूला. ५-५४) । कुडयदोष-१. कुड्यमाश्रित्य कायोत्सर्गेण यस्ति- रक्तपट (वैभाषिक, सौत्रान्तिक. योगाचार और ष्ठति तस्य कुडयदोषः। (मला. वृ ७-१७१)। माध्यमिक), चरक (नयायिक-वैशेषिक. तापम २. कुडयमवष्टभ्य स्थानं कुडयदोषः (योगशा. स्वो. (कन्दमलाहारी, जटाधारी साध) और परिवाजक विव. ३-१३०)।
(सांख्यमतावलम्बी) आदि अन्य तीथिकों के धर्म १कुड्य (भित्ति) का पालम्बन लेकर कायोत्सर्ग से की अभिलाषा करने को कुधर्मकांक्षा कहते हैं। स्थित होना, यह कुड्यदोष कहलाता है ।
कन्थु-कुः पृथ्वी, तस्यां स्थितवानिति निरुतात कतर्क-अन्यथा सम्भवज्ञानं कुतर्को भ्रान्तिकार- कुन्थुः, तथा गर्भस्थे जननी रत्नानां कुन्थं राशि णम् । (प्रमाणसं. १५)।
दृष्टवतीति कुन्थुः। (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४)। अन्य प्रकार होने वाले तथा भ्रम के कारणभूत 'कु' नाम पृथिवी का है, सत्तरहवें तीर्थंकर भगवान
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुपात्र ]
कुन्थु चूंकि स्वर्ग से लाकर उक्त पृथिवी पर स्थित हुए, अतः कुन्थु कहलाये । कुन्थु नाम राशि का भी है । कुन्थुनाथ की जननी ने उनके गर्भ में स्थित होते पर रत्नों की राशि को देखा था, इसलिए भी a 'कुन्थु' के नाम से प्रसिद्ध हुए । कुपात्र- - १. जं रयणत्तयरयिं मिच्छामय कहियधम्मलग्गं । जइ वि हृ तवइ सुघोरं तहावि तं कुच्छियं पत्तं ॥ ( भावसं. दे. ५३० ) । २. चरति यश्चरणं परदुश्चरं विकटघोर कुदर्शनवासितः । निखिलसत्त्वहितोद्यतचेतनो वितथकर्कशवाक्यपराङ्मुखः । धन- कलत्रपरिग्रहनिःस्पृहो नियमसंयमशीलविभूषितः । कृतकषाय- हृषीक विनिर्जयः प्रणिगदन्ति कुपात्रमिमं बुधाः ।। ( श्रमित. श्रा. १०, ३४-३५ ) । ३. कुपात्राय सम्यक्त्वरहितव्रत तपोयुक्ताय XX XI (सा. ध. स्व. टी. २-६७ ) ; निर्दर्शनं व्रतनिकाययुतं कुपात्रं XXX ॥ ( सा. ध. २-६७ टिप्पण) ।
२ जो घोर मिथ्यात्व के वशीभूत होकर दुष्कर तपइचरण करते हैं; श्रहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रत को धारण करते हैं; नियम, संयम और शील से विभूषित हैं तथा कषायों एवं इन्द्रियों के जीतने वाले हैं; वे कुपात्र कहे जाते हैं । कुप्य - १. कुप्यं क्षौम कार्पास कौशेय चन्दनादि । ( स. सि. ७-२६; त. वा. ७-२६ कार्तिके. टी. ३४०)। २. कुप्यं रूप्य सुवर्णव्यतिरिक्तं कांस्य - लोहताम्र-सीसक-त्रपु-मृद्भाण्ड - त्वचिसार विकारोदङ्किकाष्ठमञ्चक-मञ्चिका-मसूरक-रथ-शकट-हलप्रभृतिद्रव्यम् । (योगशा. स्वो विव. ३ - ९५ ) । ३. कुप्य शब्दो घृताद्यर्थस्तद्भाण्डं भाजनानि वा ॥ ( लाटीसं. ६-१०७) ।
२ चांदी और सुवर्ण को छोड़कर कांसा, लोहा, तांबा, सीसा, रांगा और मिट्टी के वर्तन कुप्य कहलाते हैं । इसके अतिरिक्त बांस के विकारभूत, उदङ्कि, काष्ठमंचक ( लकड़ी का मचान), मंचिका, मसूर, रथ, गाड़ी और हल श्रादि द्रव्यों को भी कुप्य कहा जाता है। कुप्यप्रमाणातिक्रम - १. तथा कुप्यं श्रासन-शयनादि-गृहोपस्करः, तस्य यन्मानं तस्य पर्यायान्तरारोपणेनातिक्रमोऽतिचारो भवति । (ध. बि. मु. वृ. (३ - २७ ) । २. कुप्यस्य भावतः संख्यातिक्रमो यथा
1
३५६, जैन - लक्षणावली
[ कुप्रावचनिक भावावश्यक
कुप्यस्य या संख्या कृता तस्याः कथञ्चिद् द्विगुणत्वे सति व्रतभङ्गभयाद् भावतो द्वयोर्द्वयोर्मीलनेन एकीकरणरूपात् पर्यायान्तरात् स्वाभाविकसंख्यावाधनात् संख्यामात्र पूरणाच्चातिचारः । अथवा भावतोऽभिप्रायादर्थित्वलक्षणाद् विवक्षितकालावधेः परतो ग्रहीष्यामि श्रतो नान्यस्मै देयमिति पराप्रदेयतया व्यवस्थापयतोऽतिचारः । (योगशा. स्वो विव. ३-६६ ) । १ श्रासन और शय्या ( पलंग आदि ) श्रादि घर के उपस्कर (सामग्री) को कुप्य कहा जाता है । परिग्रहपरिमाणव्रत के भीतर गृहीत इस कुप्य के प्रमाण के उल्लंघन करने को कुप्यप्रमाणातिक्रम कहते हैं ।
कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक - से कि तं कुप्पावयणि दव्वावस्सयं ?, २ जे इमे चरग-चीरिगचम्मखंडग्र- भिक्खोंड पंडुरंग-गोश्रम - गोव्वतिन गिहिधम्मधम्मचिंतग अविरुद्ध विरुद्ध-वुड्ढ - सावगप्पभितश्रो पासंडत्था कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव ते सा जलते इंदस्स वा खंदस्स वा रुट्स्स वा सिवस्स वा वेसमणस्स वा देवस्स वा नागस्स वा जवखस्स वा भूअस्स वा मुगुंदस्स वा अज्जाए वा दुग्गाए वा कोट्टकिरियाए वा उवलेवण-संमज्जण प्रावरिसण धूव- पुप्फगंधमलाइ आई दव्वावस्सयाई करेंति से तं कुप्पावयणिनं दव्वावस्सयं । (अनुयो. सू. २०) । चरक, चीरिक, चर्मखण्डक, भिक्षोण्ड, पांडुरंग, गोतम, गोव्रतिक, गृहिधर्मा, धर्मचिन्तक, श्रविरुद्ध ( वैनयिक), विरुद्ध ( श्रक्रियावादी) वृद्ध ( तापस ) और श्रावक (ब्राह्मण ) श्रादि (परिव्राजक प्रादि) विविध पाखण्डस्थ ( व्रतस्थ ) जनों के द्वारा प्रभात समय की विविध अवस्थाओं ( कल्प, प्रादुः प्रभाता रजनी और सुविमला श्रादि - सूत्र १९ ) में जो इन्द्र, स्कन्ध (कार्तिकेय), रुद्र, शिव, वैश्रवण, देव, नाग, यक्ष, भूत, मुकुन्द, आर्या, दुर्गा अथवा कोट्टक्रिया की— उनके श्रायतन की— उपलेपन, सम्मार्जन, श्रावर्षण, धूप, पुष्प और गन्धमाल्य श्रादि रूप से सेवा की जाती है; उसे कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक कहते हैं ।
कुप्रावचनिक भावावश्यक ( कुप्पावयरिणश्रं भावावस्य ) - से किं तं कुप्पावयणिय भावावस्वयं ?, २ जे इमे चरग चीरिंग जाव पासंडत्था इज्जजलि होम जपोन्दुरुक्क-नमोक्का रमाइलाई भावा
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६,
कुजक संस्थान ]
वस्सयाइं करेंति से तं कुप्पावयणि भावावस्सयं । ( श्रनुयो. सू. २६) ।
चरक व चीरिक प्रादि पूर्वोक्त (सू. २०) पाखusस्थ जनों के द्वारा जो इज्याञ्जलि - यागविषयक जलाञ्जलि अथवा गायत्री आदि के पाठपूर्वक सन्ध्यार्चन के समय किया जाने वाला नमस्कारादि, होम, जप, उन्दुरुक्क - मुंह से बैल आदि के समान शब्द करना और नमस्कार श्रादि श्रावश्यक कार्य भावपूर्वक श्रद्धा के साथ किये जाते हैं, इसे कुप्राrafts भावावश्यक कहते हैं । कुब्जक संस्थान ( खुज्जसरीरसंठारण ) - १. पृष्ठदेशभा विबहुपुद्गलप्रचयविशेषलक्षणस्य निर्बं - र्तकं कुब्जकसंस्थाननाम (त. वा. ८, ११, ८ ) । २. कुब्जस्य शरीरं कुब्जशरीरम्, तस्य कुब्जशरीरस्य संस्थानमिव संस्थानं यस्य तत्कुब्जशरीर संस्थानम् । जस्स कम्मस्स उदएण साहाणं दीहत्तं मज्झस रहस्वत्तं च होदि तस्स खुज्जसरीर-संठाणमिदि सण्णा । (घव. पु. ६, पृ. ७१ ) ; दीर्घशाखं कुब्जशरीरं, कुब्जशरीरस्य संस्थानं कुब्जशरीरसंस्थानम् । एतस्य यत्कारणं कर्म तस्याप्येतदेव नाम, कारणे कार्योपचा रात् ।(धव. पु. १३, पृ. ३६८ ) । ३. कुब्जस्य शरीरं कुब्जशरीरम्, तस्य संस्थानमिव संस्थानं यस्य तत्कुब्ज शरीर संस्थानम् । यस्योदयेन शाखानां दीर्घत्वं भवति तत्कुब्जशरीर संस्थाननाम । (मूला. बृ. १२, १९३) । ४. तथा यत्र शिरोग्रीवं हस्त पादादिकं च यथोक्तप्रमाणलक्षणोपेतं उर-उदरादि च मडभं तत् कुब्ज कसंस्थानम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २१-२६८, पृ. ४१२ ) । ५. पृष्ठदेशे बहुपुद्गलप्रचयनिर्मापकं कुब्ज कसंस्थाननाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११ ) 1 १ जिस नामकर्म के उदय से शरीर के पृष्ठभाग में बहुत पुद्गलसमूह हो, अर्थात् कुबड़ा शरीर हो, उसे कुब्जक संस्थान कहते हैं ।
जैन - लक्षणावली
कुब्जनाम - १. कुब्जनामस्वरूपं तु पुनः कन्धराया उपरि हस्त पादं च समचतुरस्रलक्षणयुक्तं संक्षिप्तं विकृतमध्यकोष्ठं च कुब्जम् । ( त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ८ - १२ ) । २. नाभीतः अधः श्रादिलक्षणयुक्तं संक्षिप्त विकृतमध्यं कुब्जम्, स्कन्ध पृष्ठदेश वृद्धमित्यर्थः । ( अनुयो. हरि वू. ५७ ) । ३. सिर गीव पाणि पाए सुलक्खणं तं चउत्थं तु । ( संग्रहणी १२१ ) । ४. यत्र शिरोग्रीवं हस्त पादा
पू.
[कुमुद
दिकं च यथोक्तप्रमाणलक्षणोपेतं उर- उदरादि च मण्डलं तत्कुब्जं संस्थानम् । ( जीवाजी, मलय. वृ. १-३८, पृ. ४३) । ५. यत्र तु शिरोग्रीवा-पाणिपादं विहाय शेषावयवेषु ( स ) लक्षणं भवति तत् कुब्जम् । ( संग्रहणी दे. वृ. १२१ ) ।
२ जिसका उदय होने पर नाभि के नीचे के प्रवयव लक्षणयुक्त - योग्य प्रमाण से युक्त — होते हैं, किन्तु मध्य का भाग संक्षिप्त व विकृत - पीछे का भाग वृद्धिगत होता है उसे कुब्जनामकर्म कहते हैं । कुभाषा - कीर-पारसिय- सिंघल - बब्बरियादीणं विणिग्गया सत्तसयभेदभिण्णाम्रो कुभासाप्रो । ( धव. पु.१३, पु. २२२ ) ।
कीर (कश्मीर), पारसी, सिंघल (लंकानिवासी) और बर्बरिक (किसान) आदि की निकली हुई सात सौ भाषायें कुभाषायें कही जाती हैं। कुमतिज्ञान - मिथ्यादर्शनोदयसहचरितमाभिनिबोधिकज्ञानमेव कुमतिज्ञानम् । (पंचा. का. अमृत. बु. ४१) ।
मिथ्यादर्शन के उदय से संयुक्त श्राभिनिबोषिक ज्ञान को ही कुमतिज्ञान कहते हैं। कुमार - १. कुमारवदेते कान्तदर्शनाः असुरकुमाराः [सुकुमाराः ] मृदु-मधुर- ललितगतयः शृङ्गाराभिजातरूपविक्रिया: कुमारवच्चोद्धत रूप-वेष-भाषाभरणप्रहरणावरणपातयानवाहनाः कुमारवच्चोल्वणरागाः क्रीडनपराश्चेत्यतः कुमारा इत्युच्यन्ते । ( त. भा. ४ - ११) । २. कौमारवयोविशेषविक्रिया दियोगात् कुमाराः । सर्वेषां देवानामवस्थितवयः स्वभावत्वेऽपि कौमारवयोविशेषस्वभावस्वरूपं विक्रिया च कुमारवदुद्धतवेष-भाषाऽऽभरण-प्रहरणावरण यान वाहनत्वं च उल्वणरागक्रीडनप्रियत्वं चेत्येतैर्योगात् कुमारा इति व्यपदिश्यन्ते । (त. वा. ४, १०, ७) । १ जो देव कुमार (बालक) के समान देखने में सुन्दर, मधुर व मनोहर गमन करने वाले; शृङ्गारयुक्त कुलीन रूप व विक्रिया से सम्पन्न, कुमार के समान उद्धत रूप, वेषभूषा एवं भाषा प्रावि से सहित; उत्कट राग से परिपूर्ण और स्वभाव से क्रीडा में मग्न रहते हैं; वे कुमार (भवनवासी) कहलाते हैं ।
कुमुद
चतुरशीतिकुमुदाङ्गशतसहस्राण्येकं कुमु
दम् । ( ज्योतिष्क. मलय. वृ. २-६८, पु. ४० ) ।
-----
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमुदाङ्ग] ३६१, जैन-लक्षणावली
[कुलकर चौरासी लाख कुमुदाङ्गों का एक कुमुद होता है। (औपपा. अभय. व. २०, पृ. ४३)। १०. कुलं पितृकुमुदाङ्ग-चतुरशीतिमहाकमलशतसहस्राण्येकं कुमु- पितामहादिपूर्वपुरुषवंशः। (ध. बि. मु. वृ.१-१२; दाङ्गम् । (ज्योतिष्क. मलय. वृ. २-६८, पृ. ४०)। योगशा. स्वो. विव. १-४७)। ११. कुलानि योनिचौरासी लाख महाकमलों का एक कुमुदाङ्ग प्रभवानि । तथा हि-यथै कस्मिन् छगणपिण्डे कृमीहोता है।
णां कीटानां वृश्चिकादीनां च बहनि कुलानि भवन्ति कुम्भक-१. निरुणद्धि स्थिरीकृत्य श्वसनं नाभि- तथैकस्यामपि योनौ विभिन्नजातीयानि प्रभूतानि पङ्कजे । कुम्भवन्निर्भरः सोऽयं कुम्भकः परिकीर्तितः॥ कुलानि । (संग्रहणी दे. वृ. २५१-५२ उत्थानिका) (ज्ञानार्णव २-६५,पृ.२८५) । २. नाभिपद्मे स्थिरी- १२. कुलं पैतृकम् । (व्यव. मलय. वृ. ३, पृ. कृत्य रोधनं स तु कुम्भकः। (योगशा. ५-७)। ३. ११७); पितृपक्षः कुलम् । (व्यव. मलय. वृ. गा. कुम्भवत् कुम्भकं योगी श्वसनं नाभि-पङ्कजे। कुम्भक- १४१, पृ. १६) । १३. पितृसमुत्थं कुलम् । (प्राव. ध्यानयोगेन सुस्थिरं कुरुते क्षणम् ॥ (भावसं. वा. नि. मलय. वृ.८३१)। १४. इह यः नक्षत्रैः प्रायः ६५८)।
सदा मासानां परिसमाप्तय उपजायन्ते माससदृशना१ वायु को जो नाभि-कमल में स्थिर करके रोका। मानि च तानि नक्षत्राणि कूलानीति प्रसिद्धानि । जाता है वह कुम्भ (घट) के समान परिपूर्ण होने उक्तं च-मासाणं परिणामा हुति कुला। (सूर्यप्र. से कुम्भक कहलाता है।
मलय. वृ. १०, ५, ३७, पृ. १११)। १५. दीक्षकाकुम्भमुद्रा-किञ्चिदाकुञ्चिताङ्गुलीकस्य वाम- चार्य शिष्यसंघातः कुलम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२४; हस्तो[स्तस्योपरि शिथिलमुष्टिदक्षिणकरस्थापनेन भावप्रा. टी. ७८)। १६. दीक्षकाचार्यशिष्यसंघातः कुम्भमुद्रा । (निर्वाणकलिका १६, १, २, पृ. ३१)। कुलं वा स्त्री-पुरुषसंतानः कुलम् । (कातिके. टी. बायें हाथ की अंगुलियों को कुछ संकुचित करके ४५६)। उसके ऊपर दाहिने हाथ को रखकर ढीली मट्टी के १ दीक्षा देने वाले प्राचार्य की शिष्यपरम्परा को बांधने को कुम्भमुद्रा कहते हैं।
कुल कहते हैं। ६ पिता की वंशशुद्धि को कुल कहते कुरुकुचा-१. Xxx कुरुकुचा पादप्रक्षालना- हैं। ६ गच्छों के समुदाय को कुल कहा जाता है। चमनरूपां xxxI (मोघनि. व. ३१६)। २. १४ जिन नक्षत्रों के साथ मासों की समाप्ति होती देशतः सर्वतो वा शरीरस्य प्रक्षालनम्। (व्यव. स. है ऐसे मासों के समान नाम वाले नक्षत्र 'कुल' नाम भा. मलय. व. पृ. ११७)।
से प्रसिद्ध हैं। १ पैरों के धौने और प्राचमन (कुल्ला) करने का कुलकथा-उग्रादिकुलोत्पन्नानामन्यतमाया यत्प्रनाम कुरुकुचा है।
शंसादि सा कुलकथा। यथा-ग्रहो चौलुक्यपुत्रीणां कुल- १. दीक्षकाचार्यशिष्यसन्ततयः कुलम् । साहसं जगतोऽधिकम् । पत्युमुं(मृत्यौ विशन्त्यग्नो (स. सि. ९-२४)। २. कुलमाचार्यसन्ततिसंस्थितिः। या प्रेमरहिता अपि । (स्थानां. अभय. वृ. ४, २, (त. भा. ९-२४)। ३. दीक्षकाचार्यशिष्यसंस्त्यायः २८२, पृ. १६६)। कुलम् । दीक्षकस्याचार्यस्य शिष्यसंस्त्यायः कुलव्यप- उग्र प्रादि (हरिवंश, इक्ष्वाकु आदि) कुलों में देशमर्हति । (त. वा. ६, २४, ६)। ४. कुलं पितृ- उत्पन्न हुई स्त्रियों में किसी एक की जो प्रशंसा आदि समुत्थम् । (प्राव. नि. हरि. व. ८३१, पृ. ३४१)। की जाती है उसे कुलकथा कहते हैं। जैसे-चौलुक्य ५. अपरे परिभाषन्ते xxx मात्रन्वयः कुलम् । पुत्रियों का साहस स्तुत्य है, जिसके बल पर वे (त. भा. सि. ७.३-१५)। ६. पितुरन्वयशद्धिर्या पति के मर जाने पर अग्नि में प्रवेश करती हैंतत्कुलं परिभाष्यते । (म. पु. ३६-८५)। ७. दीक्ष- सती हो जाती हैं। काचार्यसंस्त्यायः कुलम् । (त. लो. ९-२४)। कुलकर--१. कुलकरणम्मि य कुसला कुलकरणा८. दीक्षकस्याऽऽचार्यस्य शिक्षस्याऽऽम्नायः कुलम् । मेण सुपसिद्धा । (ति. प. ४-५०६)। २. प्रजानां (चा. सा. पृ. ६६)। ६. कुलं गच्छसमुदायः । जीवनोपायमननान्मनवो मताः। आर्याणां कूलसं.
ल. ४६
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुलकरगंडिका] ३६२, जैन-लक्षणावली
[कुशील स्त्यायकृतेः कुलकरा इमे ।। कुलानां धारणादेते मता कुल्माषक्षेत्र-कुल्माषक्षेत्रं नाम यत्र कुलत्थ-मुद्गकुलधरा इति । युगादिपुरुषा प्रोक्ता युगादौ प्रभवि- माष-राजमाषादीनि कोषधान्यानि विशेषेण निष्पद्यष्णवः ।। (म. पु. ३, २११-१२; लो. वि. ५, न्ते । (प्रायश्चित्तस. टी. १३९)। १२०-२१)।
कुलथी, मूंग, उड़द और बरबटी प्रादि दिव्य धान्य १ कर्मभूमि के प्रारम्भ में जो कुलों की व्यवस्था जिस क्षेत्र में विशेषरूप से उत्पन्न हों उसे कुल्माषकरने में कुशल होते हैं उन्हें कुलकर कहते हैं । ऐसे क्षेत्र कहते हैं। कुलकर वर्तमान में प्रतिश्रुति प्रादि नाभिराय पर्यन्त कुव्यापारनिषेधपोषध-कुव्यापारनिषेधपोषधस्तु १४ हुए हैं।
देशत एकतरस्य कस्यापि कुव्यापारस्याकरणम्, सर्वकलकरगंडिका - इहैकवक्तव्यतार्थाधिकारानगता तस्तु सर्वेषामपि कृषि-सेवा-वाणिज्य-पाशुपाल्यगण्डिका उच्यन्ते, तासमनुयोगः अर्थकथनविधिः गण्डि- गृहकर्मादीनामकरणम् । (योगशा. स्वो. विव. ३, कानुयोगः । तथा चाह-गंडियाणुयोगे णमित्यादि। ८५, पृ. ५११) । तत्थ कुलगरगंडियासु कुलगराणं विमलवाहणादीणं कुव्यापारनिषेधपोषध वह है जिसमें एक देशरूप पुव्वजम्मणामादि कहिज्जइ। (नन्दी. हरि. वृ. पृ.
__ में किसी एक ही कव्यापार-सावधव्यापार-को १०६)।
छोड़ा जाता है; तथा सर्वदेशरूप में कृषि, सेवा जो एक वक्तव्यता अर्थाधिकार से अनुगत होती हैं
वाणिज्य, पशपालन और गहकार्य प्रादि सभी व्यावे गण्डिका कहलाती हैं। उनके अनुयोग-कथन पारों मी छोड़ा जाता है । की विधि-को गण्डिकानयोग कहा जाता है। कुल- कुशल-१. कुशलं सुखनिमित्तम् । (प्रा. मी. बसु. करगण्डिकाओं में विमलवाहन आदि कलकरों के वृ.८)। २. कुशलं मिलितानां सुख-दुःखतद्वार्ता पूर्व जन्म के नाम प्रादि का निरूपण होता है। प्रश्नः । (प्रश्नव्या. अभय. वृत्ति पृ. १६३)। कुलचर्या- लब्धवर्णस्य तस्येति कुलचर्याऽनु
१ सुख के कारणभूत पुण्य कर्म को कुशल कहते हैं । कीर्त्यते । सात्विज्यादत्तिवार्तादिलक्षणा प्राक् प्रप
२ मिलने वाले लोगों से परस्पर में सुख-दुःखविषञ्चिता ।। विशुद्धा वृत्ति रस्यार्यषट्कर्मानुप्रवर्तनम् ।
यक समाचार के पूछने को कुशल कहते हैं । गृहिणां कुलचर्थेष्टा कुलधर्मोऽप्यसौ मतः ।। (म. पु.
कुशलभाव--कुशलो भावो ज्ञानादिरूपः। (व्यव.
मलय. वृ. १-३६, पृ. १६)। ३८, १४२-४३) । आर्यषट्कर्मवृत्तिः स्यात् कुल
प्रतिसेवकपने का परिणाम होता है चर्याऽस्य पुष्कला ।। (म. पु. ३६-७२)।
उसे भावरूप प्रतिसेवना कहते हैं। यह भाव कुशल वर्णसंस्कार हो जाने के पश्चात् पूजा करने, दानादि
और अकाल (अविरति पादिरूप) के भेद से दो देने तथा अपने कुल के अनुसार प्रसि-मषि प्रादि
प्रकार का है। उनमें समीचीन ज्ञानादिरूप भाव को छह कर्मों द्वारा आजीविका करने को कुलचर्या कहते
कुशलभाव कहते हैं। हैं । इसे कुलधर्म भी कहा जाता है।
कुशलमूलनिर्जरा-परिषहजये कृते कुशलमूला कुलमानवशार्तमरण-कुलेन रूपेण बलेन श्रुतेन या शभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति । (स. सि. ६-७; ऐश्वर्येण लाभेन प्रज्ञया तपसा वा आत्मान- त. वा. ६, ७, ७)। मृत्कर्षयतो मरणमपेक्ष्य विख्याते विशाले उन्नते परीषहों को जीतने पर जो कर्मों की निर्जरा होती कुले समुत्पन्नोऽहमिति मन्यमानस्य मृतिः कुलमान- है उसे कुशलमला निर्जरा कहते हैं, क्योंकि वह वशार्तमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५, पृ. ८६)। पूर्वकर्मों की निर्जरा के साथ कुशल अथात् पुण्यकल प्रादि से अपने को उन्नत करने वाला अपने मरण की अपेक्षा करके 'मैं लोकविख्यात विशाल उन्नत कुल भी है। में उत्पन्न हुआ हूं', इस प्रकार की अहंकार भावना कुशील-१. जाति कुले गणे या कम्मे सिप्पे तवे के साथ जो मरण को प्राप्त होता है, इसे कुलमान- सुए चैव । सत्तविहं प्राजीयं उवजीवति जो कुशीलो वशार्तमरण कहते हैं।
उ।। (व्यव. ३, पृ. ११७)। २. अष्टादशसहस्रभेदं
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुशोलता] ३६३,जैन-लक्षणावली
[कूटलेख शीलं तदुत्तरगुणभङ्गेन केनचित् कषायोदयेन वा इन्द्रजाल प्रादि के द्वारा मनुष्यों को विस्मित करने कुत्सितं येषां ते कुशीलाः । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वाले साधु को कुहनकुशील कहते हैं। व.६-४८)। ३. कत्सितशीलः कुशीलः ।XXX कट-१. कुटयते दह्यते अमूना परः परिणामान्तनवम, लोकप्रकटकुत्सितशील: इति विवेकोऽत्र ग्राह्यः। रेणेति कूटम्, सत्त्वग्रहणं व कूटम, तद्वत् परिणामः । (भ. प्रा. विजयो. १९५०)। ४. कुशीलः शील- (त. भा. सिद्ध. वृ. ८-१०, पृ. १४३)। २. कागुंदुविकलः । (प्रायश्चितस वृ. २२६)। ५. क्रोधादि. रादिधरणट्ठमोद्दिदं कूडं णाम । (धव. पु. १३, पृ. कषायकलुषितात्मा व्रत-गुण-शीलैः परिहीणः संघ. ३४); मेरु-कुलसेल-विझ-सज्झादिपव्वया कूडाणि स्यानयकारी कुशीलः । (चा. सा. पृ. १३)। ६. णाम । (धव. पु. १४, पृ. ४६५)। ३. मत्स्यxxx स्यात्कुशीलकः । संघाहितकरस्तीवकषायो कच्छप-मूषकादिग्रहणार्थमवष्टब्ध काष्ठादिमयं व्रतवजितः ।। (प्राचा. सा. ६-५०)। ७. कुशीलो कटम । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३०३)। जात्या जीवनादिपरो भिन्नाचारः। (व्यव. मलय. १ जिस परिणाम के द्वारा दूसरा कटा या जलाया व. ३-१६५, पृ. ३५)। ८. मूलोत्तरगुणविराधनात् जाता है-उसे कष्ट में डाला जाता है-उसे कट संज्वलनकषायोदयाद्वा कुत्सितं शीलं चारित्रं यस्य कहा जाता है। यह माया कषाय का एक नामान्तर स कशीलः । (प्रव. सारो.व. ७२५, पृ. २११)। है। २ कौवा और चहा आदि पकडने के लिये जो १ जो जातिविषयक, कुलविषयक, गणविषयक, कर्म- उपकरणविशेष रचा जाता है, उसका नाम कूट है। विषयक, शिल्पविषयक, तपविषयक और श्रुतविषयक; मेरु-कलाचल, सह्य और विन्ध्य प्रादि पर्वतों के इन सात प्राजीविकानों का प्राश्रय लेता है, उसे ऊपर अवस्थित शिखरविशेष भी कूट कहलाते हैं। कुशील कहते हैं। २ जो अठारह हजार भेदभूत शील
कूटग्राह-कूटेन जीवान् गृह्णातीति कूटग्राहः । को उत्तरगण की विराधना अथवा किसी कषाय के
(विपाक. अभय. वृ. २, पृ. २२)। उदय से मलिन किया करते हैं, वे कशील कहलाते
कुट से-पिंजरा प्रादि उपकरणविशेष से-जीवों हैं। ६ जो साधु लोक प्रसिद्ध कुत्सित शील से
को जो पकड़ा करता है उसे कूटग्राह कहते हैं । संघ के लिए अहितकर कषाय से–सहित हो, उसे कुशील कहते हैं।
कूटतुला-मान-कूटतुला-कूटमाने-तुला प्रतीता,
मानं कुड्यादि, कूटत्वं न्यूनाधिकत्वम्-न्यूनया कुशीलता-कुशीलता दुःस्वभावता उपस्थसंयमा
ददाति अधिकया गृह्णाति । (श्रा. प्र. टी. २६८)। भावो वा । (योगशा. स्वो. विव. २.८४, पृ. ३५३)।
तुला (तराजू या कांटा) और नापने के बांटों को दुष्टस्वभावता या स्पर्शन इन्द्रियविषयक संयम के प्रभाव को कुशीलता कहते हैं ।
हीन-अधिक रखना-हीन से देना और अधिक से
लेना, यह कूटतुला-मान नाम का एक अचौर्याणवत कुशल-प्रमाणांगुलपरिमितयोजनायामविष्कम्भावगाहानि त्रीणि पल्यानि, कुशूल इत्यर्थः । (त. वा.
का अतिचार है। ३, ३८, ८)।
कूटयुद्ध-अन्याभिमुख प्रमाणकमुपक्रम्यान्योपघातप्रमाणांगल से निष्पन्न एक योजन प्रमाण लम्बे व करणं कूटयुद्धम् । (नीतिवा. ३०-९०)। चौड़े और उतने अवगाह वाले पल्यों को (गों को)
किसी अन्य शत्र की ओर आक्रमण के लिए कछ कुशूल कहते हैं।
प्रस्थान करके लौट पाना और दूसरे शत्रु का घात कुश्रुतज्ञान-मिथ्यादर्शनोदयप्तहचरितं श्रुतज्ञान- करना, इसे कूटयुद्ध कहा जाता है। मेव कश्रुतज्ञानम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. ४१)। कूटलेख-देखो कूटलेखक्रिया । तथा कूटमसद्भूतम्, मिथ्यादर्शन के उदय से सहचरित श्रुतज्ञान को तस्य लेखो लेखनं कूटलेखः-अन्यस्वरूपाक्षर-मुद्राकुश्रुतज्ञान कहते हैं ।
करणम्। (वोगशा. स्वो. विव.३-६१)। कहनशील-इन्द्रजालादिभियों जनं विस्मामयति । बनावटी लेख लिखना--दुसरे के हस्ताक्षर बनाना मोऽभिधीयते कहनकशीलः । (भ.प्रा. विजयो. टी. या महर आदि का अंकित करना, इसका नाम कट१९५०)।
लेख है।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
कूटलेखकरण]
३६४,
कूटलेखकर रण - कूटलेख करणमन्य मुद्राक्षर-बिम्बसरूपलेखकरणम् । (श्रा. प्र. टी. २६३ ) । देखो कूटलेख ।
कूटलेखक्रिया - देखो कुटलेखकरण । १. अन्येनानुक्तं यत्किचित् परप्रयोगवशादेवं तेनोक्तमनुष्ठितमिति वचनानिमित्तं लेखनं कूटलेखक्रिया । ( स. सि. ७-२६; चा. सा. पू. ५; रत्नक. टी. ३-१०; सा. घ. स्व. टी. ४-४५) । २. परप्रयोगादन्यानुक्तपद्धतिकर्म कूटलेखक्रिया । अन्येनानुक्तं किंचित् परप्रयोगवशात् एवं तेनोक्तं अनुष्ठितमिति वंचना निमित्तलेखनं कूटलेख क्रिया । (त. वा. ७, २६, ३) । ३. कूटम् प्रसद्भूतम्, लिख्यत इति लेख:, तस्य करणं क्रिया, कूटलेख क्रिया - कूटलेखकरणम्, अन्यमुद्राक्ष रबिम्ब स्वरूपले खकरणमित्यर्थः । ( भाव. नि. हरि. वृ. ३, पृ. ८२१) । ४. कूटलेखक्रियान्येन त्वनुक्तस्य स्वलेखनम् । (ह. पु. ५८ - १६७) । ५. परप्रयोगादन्यानुक्तपद्धतिकर्म कूटलेखक्रिया, एवं तेनोक्तमनुष्ठितं चेति वचनाभिप्रायलेखनवत् । (त. इलो. ७-२६) ।। ६. कूटलेखस्य प्रसद्भूतार्थसूचकाक्षर - लेखनस्य करणं कूटलेखक्रिया । (ध. बि. मु. वृ. ३, २४) । ७. कूटलेख क्रिया XXX अन्य सरूपाक्षरमुद्राकरणमित्यन्ये । (सा. ध. स्वो टी. ४-४५ )। ८. केनचित् पुंसा श्रकथितम् अश्रुतं किंचित्कार्यं द्वेषवशात्परपीडार्थम् एवमनेनोक्तमेवमनेन कृतम्, इति परवंचनार्थं यत् लिख्यते राजादी दर्श्यते सा कूटलेखक्रिया, पैशुन्यमित्यर्थः । ( कार्तिके. टी. ३३३ व ३३४ )। ६. कूटलेखक्रिया सा स्यात् वञ्चनार्थं लिपिषा । (लाटीसं. ६ - २० ) ।
१ दूसरे के द्वारा जो नहीं कहा गया है उसे किसी दूसरे की प्रेरणा से कहना कि उसने ऐसा कहा है या किया है, इसे कूटलेखक्रिया कहते हैं। यह एक सत्यव्रत का प्रतिचार है । कूटसाक्षिक - कूटसाक्षिकं उत्कोच - मत्सराभिभूतः प्रमाणीकृतः सन् कूटं वक्तीति । (श्रा. प्र. टी. २६०) ।
लांच या मात्सर्यभाव श्रादि के वश होकर असत्य भाषण करना — जैसे मैं इस विषय में साक्षी हूं, यह कूटसाक्षिक नामक सत्याणुव्रत का प्रतिचार है।
कूटसाक्ष्य - देखो कूटसाक्षिक । कूटसाक्ष्यं प्रमाणी
जैन - लक्षणावली
[कृतप्रतिकृतिका
कृतस्य लञ्चा - मत्सरादिना कूटं वदतः यथाहमत्र साक्षी । अस्य च परकीयपापसमर्थकत्वलक्षणविशेषमाश्रित्य पूर्वेभ्यो भेदेनोपन्यासः । (योगशा. स्वो. विव. २- ५४; सा. घ. स्वो टी. ४-३६) । ईर्ष्याभाव से अथवा लांच ( रिश्वत लेकर प्रमाणीकृत व्यक्ति के द्वारा झूठी गवाही देने को कूटसाक्ष्य कहते हैं ।
कूर्मोन्नत योनि - १. कुम्मुण्णयजोणीए तित्थयरा दुविहचक्कवट्टी य । रामावि य जायंते X X X (मूला. १२ - ६२; गो. जी. ८२ ) । २. कुम्मुण्णदजोणीए तित्थ चक्कवट्टिणो दुविहा । बलदेवा जायंते X X X ॥ ( ति. प. ४ - २६५२) । ३. कूर्मोन्नतयोनो विशिष्ट सर्वशुचिप्रदेशे शुद्धपुद्गलप्रचये वा XXX। (मूला वृ. १२ - ६२ ) । ४. कूमं - पृष्ठमिवोन्नता कूर्मोन्नता । (संग्रहणी. दे. वृ. २५५, पृ. ११५) । ५. कूर्मपृष्ठवदुन्नता योनिः कूर्मोन्नतयोनि: । (गो. जी. म. प्र. टी. ८२ ) ।
१ जिस योनि से तीर्थंकर, नारायण, प्रतिनारायण, चक्रवर्ती और वलदेव उत्पन्न होते हैं वह कूर्मोन्नत योनि कही जाती है । ५ जो योनि कछुए की पीठ के समान उन्नत होती है, उसे कूर्मोन्नता योनि कहते हैं ।
कृत -- १. जं किंचितिसु वि कालेसु अण्णत्तो णिप्पण तं कदं णाम । ( धव. पु. १३, पू. ३५० ) । २. स्वातंत्र्य विशिष्टेन आत्मना यत् क्रियते प्रक्रियते तत् कृतम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. ८११) । ३. स्वातंत्र्यविशिष्टेनात्मना य: [ यत् ] प्रादुर्भावितं तत्कृतम् । (चा. सा. पृ. ३६) । ४. X X X स्वेन कृतं कृतम् । (ग्राचा. सा. ५-१४) ।
१ तीनों कालों में जो कुछ अन्य से उत्पन्न हुआ है उसका नाम कृत है । २ जो स्वतंत्रता से अपने द्वारा कार्य किया जाता है उसे कृत कहते हैं । कृतक - देखो कृतकत्व । स्वोत्पत्तौ अपेक्षितव्यापारो हि भावः कृतक उच्यते । (प्रमेयर ३-३५) । कृतज्ञ - कृतं परोपकृतं जानाति, न निह्नुते कृतज्ञः । (योगशा. स्वो विव. १-५५; सा. ध. १-११) । जो दूसरे के द्वारा किये गये उपकार का स्मरण रखता है - उसे भूलता नहीं है— उसे कृतज्ञ कहा जाता है । कृत प्रतिकृतिका- १. कयपडिक्कइया णाम जइवि निज्जरत्थं करेइ ततोऽवि मम एस कारेहिति त्ति
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
कृतयुग ]
काउ विषयं करेइ । ( दशवं. चू. १, पृ. २८) । २. कृतप्रतिकृतिर्नान- प्रसन्ना श्राचार्याः सूत्रादि दास्यन्ति, न नाम निर्जरेति मन्यमानस्याहारादिदानम् । ( समवा. अभय वृ. ६१ ) ।
२ श्राचार्य प्रसन्न होकर सूत्र श्रादि ( श्रर्थ व उभय ) देंगे, उससे कुछ निर्जरा होने वाली नहीं है । इस प्रकार मानने वाले का जो श्राहारादि दान है उसे कृतप्रतिकृति नामक औपचारिक विनय चाहिए ।
जानना
कृतयुग - जेण य जुगं निविट्ठ पुहईए सयलसत्तसुहजणणं । तेण उ जगम्मि घुट्ठ तं कालं कयजुगं णाम || ( पउमच. ३- ११८ ) । ऋषभ जिनेन्द्र के समय में चूंकि समस्त प्राणियों को सुखोत्पादक युग प्रविष्ट हुआ, प्रतः उस काल को 'कृतयुग' के नाम से घोषित किया गया । कृतयुग्म १. चदुहि अवहिरिज्जमाणे जम्हि
सिम्हि चत्तारिट्ठांति तं कदजुम्मं । ( धव. पु. ३, पू. २४६); जो रासी चदुहि श्रविहिरिज्जदि सो कदजुम्मो । (धव. पु. १०, पृ. २२); चदुहि श्रवरिज्जमाणे XXX जत्थ चत्तारि एंति तं कदजुम्मं । ( धव. पु. १४, पू. १४७ ) । चार का भाग देने पर जिस संख्या में चार प्रवस्थित रहें, अर्थात् चार से जो प्रपहृत हो जाती है व शेष कुछ नहीं रहता, उसे कृतयुग्म राशि कहते हैं । कृतयुग्मकल्योज - जेणं रासी चउक्कएणं श्रवहारेण अवहीरमाणे एगपज्जवसिए जे णं तस्स रसिस्स अवहारसमया कडजुम्मा, से तं कडजुम्मकलिश्रोगे । ( भगवती ४, ३५, १,२ ) ।
जिस राशि को चार से भाजित करने पर एक शेष रहे और अपहार के समय कृतयुग्म हों, वह कृतयुग्मकल्यो जराशि कहलाती है । जैसे – १७÷ ४=४, शेष १) । कृतयुग्मकृतयुग्न राशि - जेणं रासी चउक्कएवं अवहारेण प्रवहीरमाणे चउपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया ते वि कडजुम्मा, से तं कडजुम्मकडजुम्मे । (भगवती ४, ३५, १, २, पृ. ३३८ । जिस राशि को चार भागहार से भाजित करने पर चार शेष रहें और जिसके अपहारसमय कृतयुग्म हों, वह कृतयुग्मकृतयुग्म राशि कहलाती है। जैसे— १६÷ ४=४.
३६५, जैन - लक्षणावली
[कृतिकर्म
कृतयुग्मत्रयोज - जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवसिए जेणं तस्स रासिस्स श्रवहारसमया कडजुम्मा, से तं कडजुम्मतेयोए । (भगवती. ४, ३५, १, २. पू. ३३८ ) ।
जिस राशि को चार भागहार से भाजित करने पर तीन शेष रहें और अपहारसमय कृतयुग्म हों, वह कृतयुग्मज्योज राशि कहलाती है । जैसे - १६÷ ४=४, शेष ३.
कृतयुग्मद्वापरयुग्म — जेणं रासी चउक्कएणं श्रवहारेण प्रवहीरमाणे दुपज्जवसिए जेणं तस्स रासि - स्स अवहारसमया कडजुम्मा, से तं कडजुम्मदावरजुम्मे । ( भगवती ३५, १, १, पृ. ३३९ ) । जिस राशि को चार भागहार से भाजित करने पर दो शेष रहें, और अपहारसमय कृतयुग्म हों, वह कृतयुग्मद्वापरयुग्म राशि कही जाती है । जैसे - १८ ÷ ४=४, शेष २ ।
कृति - १. एष कृतिशब्दः कर्तृवर्जितेषु त्रिकाल - गोचराशेषकारकेषु वर्तते × × ×। (ध. पु. ε, पू. २३८ ) ; जो रासी बग्गिदो संतो बड्ढदि, सगवग्गादो सगवग्गमूलमवणिय वग्गिज्जमाणो बुड्ढमल्लियइ, सो कदी णाम । (धव. पु. ६, पृ. २७४ ); तिणि आदि कादूण जा उक्कस्साणंते त्ति गणणा कदित्ति भण्णदे । वृत्तं च- एयादीया गणणा दो
दीया विजाण संखेत्ति । तीयादीणं णियमा कदि त्ति सण्णा दुबोद्धव्वा ॥ ( धव. पु. ६, पृ. २७६ ) । २. तीयादीणं णियमा कदित्ति सण्णा मुणेदव्वा । ( त्रि. सा. १६) ।
कर्ता को छोड़कर शेष सभी कारकों को कृति कहा जाता है । जो राशि वर्गित होकर वृद्धिंगत होती है और अपने वर्ग में से वर्गमूल को कम करके वर्गित करने पर वृद्धि को प्राप्त होती है वह कृति कहलाती है । इस लक्षण के अनुसार ३ को श्रादि लेकर श्रागे की सभी संख्याओं को कृति के अन्तर्गत समझना चाहिए । १ का वर्ग करने पर चूंकि वृद्धि नहीं होती है तथा २ का वर्ग करके व उसमें से वर्गमूल को कम करके पुन: वर्ग करने पर वृद्धि नहीं होती है ( २x२= ४; ४-२=२) । अतः १ व २ संख्या को कृति नहीं कहा जा सकता है । कृतिकर्म - - १. किदियम्मं अरहंत सिद्ध श्राइरियबहुसुदसाहूणं पूजाविहाणं वण्णेइ । ( धव. पु. १,
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
कृतिकम ]
पू. ९७ ) ; किदियम्मं अरहंत-सिद्धाइरिय उवज्झायगणचितय-गणव सहाईणं कीरणमाण पूजाविहाणं
दि । (धव. पु. ६, पृ. १८६ ) । २. जिण सिद्धारिय बहुसुदेवं दिज्जमाणेसु जं कीरइ कम्मं तं किदियम्मं णाम । तस्स दाहीण- तिक्खुत्त-पदाहि तिम्रोणद-चदुसिर- वारसावत्तादिलक्खणं विहाणं फलं च किदियम्मं वण्णेदि । ( जयध. १, पृ. ११८) । ३. किदिकम्मं - क्रियाकर्म श्रुतभक्त्यादि पूर्वककायोत्सर्ग: । (मूला वृ. ५- १८५) । ४. कृति कर्म साधुविश्रामणारूपं बहुफलं बाहुबलमकार्षीत् । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १७४, पृ. १६० ) । ५. दीक्षाग्रहणादेः प्रतिपादकं कृतिकर्म । ( श्रुतभक्ति टी. २४) | ६. कृतेः क्रियायाः कर्म विधानं श्रस्मिन् वर्ण्यते इति कृतिकर्म । तत् अर्हत्सिद्धाचार्य - बहुश्रुत-साध्वादीनां नव देवतानां वन्दनानिमित्तं आत्माधीनता-प्रादक्षिण्यत्रिवार त्र्यवनति चतुः शिरोद्वादशावर्तादिलक्षणनित्यनैमित्तिक क्रियाविधानं वर्णयति । (गो. जी. जी. प्र. टी. ३६७) । ७. दीक्षा शिक्षादिसत्कर्मप्रकाशकं कृतिकर्म । (त. वृत्ति श्रुत. १ -२० ) ।
२ जिन, सिद्ध, प्राचार्य और बहुश्रुत (उपाध्याय) की वन्दना करते हुए जो क्रिया की जाती है उसका नाम कृतिकर्म है । इस कृतिकर्म में जो स्वाधीन होकर तीन प्रदक्षिणा, तीन प्रवनति, चार शिरोनति और बारह प्रावर्त स्वरूप अनुष्ठान किया जाता है उसके प्ररूपक शास्त्र को भी कृतिकर्म कहा जाता है । ४ साधुजन की विश्रामणा - पादमर्दना - दिरूप वैयावृत्त्य - को कृतिकर्म कहा जाता है । कृतिकर्म ( स्थितिकल्प ) ११. चरणस्थेनापि विनयो गुरूणां महत्तरणां शुश्रूषा च कर्तव्येति पंचमः कृतिकर्मसंज्ञितः स्थितिकल्प: । (भ. श्री. विजयो. ४२१ ) । २. कृतिकर्म पंचनमस्काराः षडावश्यकानि निषेधिका चेति त्रयोदशक्रियाः । गुरुविनय महत्तरशुश्रूषा करणं वा । ( भ. प्रा. मूला. टी. ४२१) ।
१ स्वयं चारित्र का धारक हो करके भी गुरु जनों की विनय और महापुरुषों की शुश्रूषा करना, यह कृतिकर्म नाम का पांचवां स्थितिकल्प है । कृती - १. ज्ञानविवेकतो विमलीकृतहृदयाः कृतिनः । ( गद्यचि. पृ. २४० ) । २. कृती नि:शेष हेयोपादेयतत्वे विवेकसम्पन्न: । ( रत्नक. टी. ७) ।
[ कृमिराग
२ समस्त हेय और उपादेय तत्त्व के विषय में जो विवेक रखता है वह कृती कहलाता है । कृतुपद - १. कृतोद्वाहः कृ ( ऋ ) तुप्रदाता कृतुपदः । ( नीतिवा. ५ - १२ ) । २. यो ब्रह्मचारी कृतोद्वाहः सन् ऋतुकालाभिगामी केवलं सन्तानाय भवति स कृत [तु] पदसंज्ञो भवति । तथा च वर्गः - सन्तानाय न कामाय यः स्त्रियं कामयेदृतौ । कृतुपदः स सर्वेषामुत्तमोत्तमसर्ववित् ।। (नीतिवा. टी. ५-१२) । जो ब्रह्मचारी विवाह करके भी केवल सन्तानोत्पत्ति के लिए ऋतुकाल में स्त्री का सेवन करता है उसे कृतुपद ब्रह्मचारी कहते हैं ।
कृत्रिम मित्र - यद्वृत्तिजीवितहेतोराश्रितं तत्कृत्रिमं मित्रम् | ( नीतिवा. २३-४, पृ. २१७) । जिसकी प्रवृत्ति (व्यवहार) प्राजीविका के श्राश्रित हो वह कृत्रिम मित्र कहलाता है । कृत्रिम शत्रु - १. विराधो विराधयिता वा कृत्रिमः शत्रुः । (नीतिवा. २६-३४) । २ कारणेन निर्वृत्तः कृत्रिमः । यः क्षत्रुविराधो भवति यस्य विरोधो क्रियते स विराध उच्यते, शत्रुर्यः पुनर्विजिगीषोरुपेत्य विरोधं करोति सोऽप्यकृत्रिमः शत्रुः । ( नीतिवा. टी. २६-३४, पृ. ३२१) ।
विराध (जिसका विरोध किया जाय ) अथवा विराधयिता ( विरोध करने वाले ) व्यक्ति को कृत्रिम शत्रु कहते हैं ।
कृपा - XXX सा तु जीवानुकम्पनम् । ( क्षत्रचू. ५-३५) ।
जीवों के ऊपर दयाभाव रखने उनकी पीड़ा के दूर करने — को कृपा कहते हैं । कृमिराग - १. एवं मणुयादिरुहिरं घेत्तुं किणावि जोगेण जुत्तं भायणसं पुडंमि तविज्जति, तत्थ किमी उपज्जति, ते वाताभिलासिणो छिनिग्गता इती ततो य असणं भमंति, तेसि णीहारलाला किमिरागपट्टो भण्णति, सो सपरिणामं रंगरंगितो चेव भवति । अण्णे भणति - जहा रुहिरे उत्पन्ना किमितो तत्थेव मलेत्ता कोसट्ट उत्तारेत्ता तत्थ रसे किंपि जोगं पक्खिवित्ता वत्थं रयंति सो किमिरागो भण्णति । (अनुयो चू. पू. १५) । २ कृमिरागे वृद्धतम्प्रदायोऽयम् - मनुष्यादीनां रुधिरं गृहीत्वा केनापि योगेन युक्तं भाजने स्थाप्यते, ततस्तत्र क्रमय उत्पद्यन्ते, ते च वाताभिलाषिणः छिद्रनिर्गता श्रासन्ना
३६६, जैन-लक्षणावली
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
कृमिरागकम्बल]
३६७, जैन-लक्षणावली
[कृष्णपक्ष
भ्रमन्तो निर्हारलाला मुञ्चन्ति ताः कृमिसूत्रं भण्यते। १६-१८१)। तच्च स्वपरिणामरागरञ्जितमेव भवति । अन्ये भूमि को जोतकर खेती करने को कृषिकर्म कहते हैं। भणन्ति-ये रुधिरे कृमय उत्पद्यन्ते तान् तत्रैव कृषिकर्मार्य - १. हल-कुलिदन्तालकादिकृष्युपमृदित्वा कच वरमुत्तार्य तद्रसे याश्चिद् योगं प्रक्षिप्य करणविधानविदः कृषीवलाः कृषिकार्याः । (त. वा. पट्टसूत्रं रजयन्ति । स च रसः कृमि रागो मण्यते ___३, ३६, २)। २. हलेन भूमिकर्षणनिपुणः कृषिकर्माअनुत्तारीति, तत्र कृमीणां रागो रञ्जकरस: कृमि- यः । (त, वृत्ति श्रुत. ३-३६) । रागः। (स्थानां. अभय. वृ. ४, २, २६३,)। जो हल, कुलिक (एक विशेष जाति का हल१ मनुष्य प्रादि के रुधिर को लेकर और उसे किसी बरवर) और हंसिया प्रादि खेती के उपकरणों के योग से युक्त करके पात्र में तपाया जाता है। तब विधान को जानते हैं वे कृषिकर्मार्य कहलाते हैं । उसमें कृमि (विशेष जाति के कीड़े) उत्पन्न होते हैं। कृष्टि (किट्टी)--१. गुण से ढि अणंतगुणा लोभादी वे वायकी अभिलापा से छिद्रों द्वारा निकलकर इधर कोधपच्छिमपदादो। कम्मस्स य अणुभागे किट्टीए उधर पास में घूमते हैं। उनके मल और लार को लक्खणं एवं ।। (कसायपा. सू. १६५, पृ. ८०७) । कृमि-रागपद्र कहा जाता है। वह अपने परिणाम के २. किसं कम्मं कदं जम्हा तम्हा किट्री। एवं अनुसार रंग में रंगा हुया ही होता है। दूसरे कुछ लक्खणं । (कसायपा. चूणि पृ. ८०८)। ३. पूर्वापूर्वप्राचार्य इस प्रकार कहते हैं-उक्त रुधिर में जो स्पर्धकस्वरूपेणेष्टकापंक्तिसंस्थानसंस्थितं योगमुपकीड़े उत्पन्न होते हैं, उन्हें वहीं मल कर व कोसट्ट संहृत्य सूक्ष्म-सूक्ष्माणि खण्डानि निवर्तयति, तारो उतार कर-कचूमर निकाल कर उस रस में किट्रोपो णाम वच्चति । (जयध. प्र. प. १२४३)। कुछ योग को मिलाते हए जो वस्त्र को रंगा ४. कर्शनं कृष्टिः, कर्मपरमाणुशक्तेस्तनूकरणमित्यजाता है, उसे कृमिराग कहते हैं।
र्थः । अथवा कृष्यते तनूक्रियते इति कृष्टिः प्रतिकृमिरागकम्बल-१. कृमिभुक्ताहारवर्णतन्तुभि- समयं पूर्वस्पर्द्धक जघन्यवर्गणाशक्ते रनन्तगुणहीनशक्तिरुतः कम्बलः कृमिरागकम्बलः। (भ.पा. विजयो. वर्गणा कृष्टिरिति । (ल. सा. टी. २८४)। टी. ५६७) । २. कृमिभक्ताहारवर्णतन्तुभिरुतः ३ पूर्व पूर्व स्पर्द्धक स्वरूप से इंटों की पक्ति के कम्बलः कृमिरागकम्बलस्तस्येति संस्कृतटीकायां व्या- आकार में स्थित योग का उपसंहार करके जो ख्यानम् । टिप्पणके तु कृमि [कृमिभि] रात्यक्तरक्ता- सूक्ष्म सूक्ष्म खण्ड किये जाते हैं उन्हें कृष्टि कहते हैं। हाररंजिततन्तुनिष्पादितकम्बलस्येति । प्राकृतटीकायां कृष्टिकरणाद्धा- तिस्से कोधवेदगद्धाए तिणि पूनरिदमुक्तम्-उत्तरापथे चर्मरंगम्लेच्छविषये म्लेच्छा भागा-जो तत्थ पढमतिभागो अस्सकरणकरणद्धा, जलौकाभिर्मानुषरुधिरं गृहीत्वा भंडकेषु स्थापयन्ति विदियतिभागो किट्टीकरणद्धा। (धव. पु. ६, पृ. ततस्तेन रुधिरेण कतिपयदिवसोत्पन्नविपन्न कृमिके- ३७४; लब्धि. ४६)। णोर्णासूत्रं(?)रंजयित्वा कम्बलं वयन्ति, सोऽयं कृमि. क्रोधवेदककाल का द्वितीय विभाग कृष्टिकरणाद्धा रागकम्बल इत्युच्यते । (भ. प्रा. मूला. टी. ५६७)। कहलाता है। २ कीडों के द्वारा खाये गये भोजन के वर्ण वाले कृष्टिवेंदगद्धा-कोधवेदग द्वाए तदियतिभागो कितन्तुनों से जो कम्बल बनाया जाता है. उसे कृमि- द्विवेदगद्धा । (धव. पु. ६, पृ. ३७४) । रागकम्बल कहते हैं। xxxप्राकृत टीका में क्रोधवेदन का जितना काल है उसका तृतीय विभाग कहा गया है कि उत्तरापथ में चर्मरंग म्लेच्छदेश में -तीन भागों में से अन्तिम भाग-कृष्टिवेदन का म्लेच्छ जौकों के द्वारा मनुष्यों का रक्त निकाल कर काल है। उसे वर्तन में कुछ दिनों तक रखते हैं। जब उसमें कृष्णपक्ष-कृष्णपक्षो यत्र ध्रुवराहुः स्वविमानेन रक्त वर्ण के कीड़े पड़ जाते हैं, तब उसके द्वारा चन्द्रविमानमावृणोति, तेन योऽन्धकारबहुल: पक्षः स सूत को रंग कर जो कम्बल बुना जाता है उसे कृमि- बहुलपक्षः । (जम्बूद्वी. शा. वृ. १५२) । रागकम्बल कहते हैं।
जिस पखवाड़े में ध्र वराहु अपने विमान से चन्द्र के कृषिकर्म-कृषिभूकर्षणे प्रोक्त xxx। (म. पु. विमान को प्रावृत करता है, उस अन्धकारवाले
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
कृष्णपाक्षिक] ३६८, जैन-लक्षणावली
[केवलज्ञान पखवाड़े को कृष्ण पक्ष कहते हैं । उसे यहां बहुल पक्ष ४६०)। ५. निर्दयो निरनुक्रोशो मद्य-मांसादिलम्पके नाम से कहा गया है।
टः। सर्वदा कदनासक्तः कृष्णलेश्यो मतो जनः ।। कृष्णपाक्षिक-१. जेसिमवड्ढो पुग्गलपरियट्टो (पंचसं. अमित. १-२७३) । सेसो उ संसारो। ते सुक्कपक्खिा खलु अहिए ५ निर्दयी, क्रूरस्वभावी, मद्य-मांसादि का लम्पटी पुण किन्हपक्खीया ॥ (श्रा. प्र. ७२)। २. इतरे और युद्ध में प्रासक्त रहना; ये सब कृष्णलेश्या के दीर्घसंसारभाजिनः कृष्णपाक्षिकाः । (जीवाजी. लक्षण हैं। मलय. वृ. ५६, पृ. ७२)। ३. अधिकतरसंसार- कृष्णलेश्यारस-जह व डुयतुंबगरसो निबरसो भाजिनस्तु कृष्णपाक्षिकाः । उक्तं च-अहिए पुण कडुयरोहिणिरसो वा । इत्तो वि अणंतगुणो रसो उ कण्हपक्खी उ। (प्रज्ञाप. मलय. व. ३-५६, पृ. कण्हाइ नायव्वो ॥ (उत्तरा. ३४-१०)।
कडुवी तुम्वी, नीम और रोहिणी (औषधिविशेष) २ दीर्घ काल तक संसार में परिभ्रमण करने वाले के रस से भी अनन्तगुणा रस कृष्णलेश्या का जीवों को कृष्णपाक्षिक कहते हैं ।
होता है। कृष्णलेश्या (द्रव्य)-जीमूयनिद्धसंकासा गवल- कृष्णवर्णनाम-१. जस्स कम्मस्स उदएण सरीररिट्ठगसन्निभा। खंजंजणनयणनिभा किण्हलेस्सा उ पोग्गलाणं किण्णवण्णो उप्पज्जदि तं किण्णवणं दण्णग्रो ।। (उत्तरा. ३४-४)।
णाम । (धव. पु. ६, पृ.७४)। २. यस्य कर्मण उदकृष्ण मेघ, भंस का सींग, कौवा अथवा रीठा (फल- येन शरीरपुद्गलानां कृष्णवर्णता भवति तत्कृष्णविशेष), खंजन पक्षी और (प्रांख के अंजन) के वर्णनाम । (मला. व. १२-१९४)। समान कृष्णलेश्या का वर्ण होता है।
१ जिस नामकर्म के उदय से शरीरगत पुद्गलपरमाकृष्णलेश्या (भाव)--१. चंडो ण मुयइ वेरं भंड- णों का वर्ण काला हो, उसे कृष्णवर्ण नामकर्म णसीलो य धम्मदयरहियो। दुट्ठो ण य एइ वसं के लक्खणमेयं तु किण्हस्स । (पंचसं. १-१४४; धव. केतुक्षेत्र-केतुक्षेत्रमाकाशोदकपातनिष्पाद्यसस्यम् । पु. १, पृ. १८८ उद्.; धव. पु. १६, पृ. ४६० (योगशा. स्वो. वृ. ३-६५, सा. घ. स्वो. टी. ४, उद्.; गो. जी. ५०६)। २. अनुनयानभ्युपगमो- ६४)। पदेशाग्रहण-वैरामोचनातिचण्डत्व-दुर्मुखत्व-निरनुक- जिन खेतों में केवल वर्षा के जल से ही अन्न उत्पन्न म्पता-क्लेशन-मारणापरितोषणादि कृष्णलेश्यालक्ष- होता है उन खेतों को केतुक्षेत्र कहते हैं। णम् । (त. वा. ४, २२, १०, पृ. २३६)। ३. तत्रा- केवलज्ञान-१. तं च केवलणाणं सगलं संपूण्ण विशुद्धोत्पन्न मेव कृष्णवर्णस्तत्सम्बद्धद्रव्यावष्टम्भाद- असवत्तं । (ष. खं. ५, ५, ८१-पु. १३, पृ. ३४५); विशुद्धपरिणाम उपजायमानः कृष्णलेश्येति व्यप- सई भयवं उप्पण्णणाण-दरसी सदेवासुर-माणुसस्स दिश्यते । (त. भा. सिद्ध. वृ. २-६)। ४. कसाया- लोगस्स भागदि गदि चयणोववादं बंधं मोक्खं इडिंढ णुभागफद्दयाणमुदयमागदाणं जहण्णफद्दयप्पहुडि जाव ट्ठिदि जुदि अणुभागं तक्कं कलं माणो माणसियं उक्कस्सफद्दया त्ति ठइदाणं छन्भागविहत्ताणं छटो भुत्तं कदं पडिसेविदं प्रादिकम्मं अरहकम्म सव्वलोए तिव्वतमो भागो, तस्सुदएण जादकसानो किण्ण- सव्वजीवे सव्वभावे सम्म समं जाणदि पस्सदि विहलेस्सा णाम । (धव. पु. ७, पृ. १०४); मिच्छत्ता- रदि त्ति । (ष. खं. ५,५, ८२-पु. १३, पृ. ३४६)। संजम-कसाय-जोगजणिदो तिव्वतमो जीवसंसकारो २. प्रसवत्तसयल भावं लोयालोएसु तिमिरपरिचत्तं । भावलेस्सा णाम । तत्थxxxजो तिव्बतमो सा केवलमखंडमेदं केवलणाणं भणंति जिणा। (ति.प. किण्णलेस्सा । (धव. पु. १६, पृ. ४८८); किण्ण ४-६७४) । वाह्य नाभ्यन्तरेण च तपसा यदर्थमथिलेस्साए परिणदजीवो णिद्दयो कलहसीलो रउद्दो नः मागं केवन्ते सेवन्ते तत्केवलम्, असहायमिति वा । अणुवद्धवेरो चोरो चप्पलो परदारियो महु-मंस- (स. सि. १-६)। ४. क्षायिकमनन्तमेकं त्रिकालसुरापसत्तो जिणसासणे अदिण्णकण्णो असंजमे मेरु सर्वार्थयुगपदवभासम् । सकलसुखधाम सततं वन्देऽहं व्व अविचलियसरूवो होदि । (धव. पु. १६, पृ. केवलज्ञानम् ॥ (श्रुतभक्ति २६, पृ. १८१)। ५.
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलज्ञान ३६९, जैन-लक्षणावली
[केबलज्ञान स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । (प्रा. मी. केवलं तत्प्रथमतयैव अशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णो १०५)। ६. सपूण्णं तु समग्गं केवलमसवत्त सव्व- त्पत्तेः, असाधारणं वा केवलं, यथावस्थिताशेषभूतभावगयं । लोयालोयवितिमिरं केवलणाणं मुणेदव्वं ॥ भवद्-भाविभावस्वभाववभासीति भावना, केवलं च (प्रा. पंचसं. १-१२६; धव. पु. १, पृ. ३६० उद; तज्ज्ञानं चेति समासः । (प्राव. नि. हरि. वृ. १, गो. जी. ४६०)। ७. तद्धि सर्वभावग्राहक सभिन्न- पृ. ८; नन्दी. हरि. वृ. १-६५) । १५. केवलणाणं लोकालोकविषयम, नातः परं ज्ञानमस्ति । न च णाम सव्वदवाणि अदीदाणागद-वट्टमाणाणि सपकेवलज्ञान विषयात् परं किञ्चिदन्यज्ज्ञेयमस्ति । x जयाणि पच्चवखं जाणदि। (धव. पु. १, पृ. ६५); xx केवलं परिपूर्ण समग्रमसाधारणं निरपेक्ष केवल केवल ज्ञानम् । Xxx केवलमसहायमिविशुद्धं सर्व भावज्ञापक लोकालोकविषयमनन्त पर्याय न्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्षम् । (धव. पु. १, पृ. मित्यर्थः । (त. भा. १.३०) । ८. के वलणाबरण- १६१); पाक्ष पिकाल गोचराशेषपदार्थपरिच्छेदक क्खय जायं केवल XXX(सन्दति. -५, पृ. ६०६); कंवलज्ञानम् । (धव. पु. १, पृ. ३५८); अनन्तसयलमणावरणमणंतमक्खयं केवलं जम्हा। (सन्मति. त्रिकालगोचरबाह्य ऽर्थे प्रवृत्तं केवलज्ञानम् । (धव. २-१७)। ६. सव्वदब्वाण पोगवीससामीससा पु. १, पृ. ३८५); केवलमसहायमिंदियालोयणिरवेजहाजोग्गं । परिणामा पज्जाया जम्मविणासादो वखं तिकालगोयराणतपज्जायसमवेदाणंतवत्थुपरिसव्वे ।। तेसि भावो सत्ता सलक्खणं व विसे सो च्छेदयमसंकुडियमसवत्तं केवलणाणं । (धव. पु. ६, तस्स । नाणं विण्णत्तीए कारणं केवलण्णाणं ।। किं पृ. २६); परावभास: केवलज्ञानम् । (धव. पु. ६, बहुणा सव्वं सव्वयो सया सव्वभावो नेयं । सव्वा- पृ. ३४); वज्झत्थ असे सत्थागमो केवलणाणं । वरणाईयं केवलमेगं पयासेइ ॥ पज्जायो अणंतं (धव. पु. १०, पृ. ३१६); अप्पटमण्णिहाणमेत्तेसासयमिदं च सदोवयोगायो। अव्वयनोऽडिवाई णुप्पज्जमाणं तिकाल गोयरासेसदव्व-पज्जयविसयं एगविहं सब्बसुद्धीए ॥ (विसेषा. ८२५-३१)। करणक्कमववहाणादीदं सयलपमेएण अलद्धत्थाहं १०. बाह्याभ्यन्तरक्रियाविशेषान् यदर्थ केवन्ते पच्चक्खं विणासविवज्जियं केवलणाण । (धव. पु. तत्केवलम् । तपःक्रियाविशेषान् वाङ्मानस- १३, पृ. २१३); केवलणावरणक्खएण समुप्पण्णं कायाश्रयान् बाह्यानाभ्यन्तरांश्च यदर्थमथिनः णाणं केवलणाणं । (धव. पु. १४, पृ. १७) । केवन्ते सेवन्ते तत्केवलम् । (त. वा. १, ६, ६)। १६. केवलमसहायं इन्द्रियालोक-मनस्कारसकलज्ञानावरणपरिक्षयविजम्भितं केवलज्ञानं यूग- निरपेक्षत्वात् । (जयधव. १, पृ. २१); पत्सर्वार्थविषयम् । (अष्टश. १०१)। ११. पंक- आत्मार्थव्यतिरिक्तसहायनिरपेक्षत्वाद्वा केवल मसहासलिले पसायो, जह होइ कमेण तह इमो जीवो। यम्, केवलं च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानम् । (जयध. प्रावरणे झिज्जते, विशुज्झए केवलं जाव ।। दवा- १, पृ. २३); घाइच उक्कक्खएण लद्धप्पसरूवदिकसिण विसयं केवल मेगं तु केवलन्नाणं । अणि- विसईकयतिकालगोयरासेसदव्वपज्जय-करणटम (-ण वारियवावारं अणंतभविकप्पियं नियतं ।। (बहत्क. क्कम) बवहाणाईयं खइयसम्मत्ताणंतसूह-विरिय३७-३८) । १२. अह सम्बदवपरिणामभाववि- विरइ-केवलदसणाविणाभावि केवलणाणं णाम । विन्नतिकारणमणंतं । सासयमप्पडिवाइ एगविहं (जयध. १, पृ. ४३)। १७. क्षायोपशमिकज्ञानाकेवलण्णाणं ।। (प्राव. नि. ७७; धर्मसं. ८२७)। सहायं केवलं मतम् । यदर्थमथिनो मार्ग केवन्ते वा १३. केवलमित्येक स्वभेदरहितं, शुद्धं वा सकलावरण- तदिष्यते ॥ (त. श्लो. १, ६, ८); केवलं सकलशून्यम्, सकलं वा पादित एव सम्पूर्णम्, असाधारणं ज्ञेयव्यापि स्पष्टं प्रसाधितम् । प्रत्यक्षमक्रमं तस्य वा मत्यादिविकलम, अनन्तं वा सर्वद्रव्यभावपरिच्छेदि निबन्धो विषयेष्विह ।। बोध्यो द्रव्येषु सर्वेष पर्यायेज्ञानं केवलज्ञानम् । (त. भा. हरि. व. १-९)। षु च तत्त्वतः । प्रक्षीणावरणस्यैव तदाविर्भाबनिश्च१४. केवलमसहायं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षम, शद्धं वा यात् ।। (त. श्लो. १, २६, १-२) । १८. सकलकेवलं तदावरणकर्ममलकलङ्काङ्करहितम्, सकलं वा मतीन्द्रियप्रत्यक्षं केवलज्ञानम् सकलमोहक्षयात् सकल
ल. ४७
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलज्ञान] ३७०, जैन-सक्षणावली
केवलज्ञान शान-दर्शनावरण-वीर्यान्तरायक्षयाच्च समुद्भूतत्वात् मतम् ।। (ज्ञानार्णव ८-१०, पृ. १०५) । ३०. त्रिसकलवैशद्यसभावात् सकलविषयत्वाच्च । (प्रमाण- कालानन्तधर्मात्मानन्त वस्तुप्रकाशकम् । युगपत्वे बलं प.पू. ६९)। १६. सर्वप्रत्यक्षमन्त्यं स्यात केवला. ज्योतिः करणावरणातिगम् ।। क्षणं प्रत्यक्षरं ज्ञेयः वरणक्षयात् । अक्षयं केवलज्ञानं केवलं विश्वगोच- समं विपरिवर्तते । तदेकम्पमातीतं परमानन्दरम् ।। (हि. पु. १०-१५४) । २०. केवलं सकलज्ञे- मन्दिरम् ।। (मा.सा. ४, ५६-५७)। ३१. जगयग्राहि समस्तज्ञानावरणक्षयप्रभवम् । (त. भा. सिद्ध. त्रयकालत्रयवतिपदार्थयुगपदविशेषपरिच्छित्तिरूपं केव. २-४) । २१. असहायं स्वरूपोत्थं निरावरणम- वलज्ञानं भण्यते । (परमात्मप्र. टी. ६१) । ३२. क्रमम् ।। घातिकर्मक्षयोत्पन्नं केवलं सर्वभावगम् ।। त्रिकालगतानन्तपर्यायरिणतजीवाजीवद्रव्याणां युग(त. सा. १, ३०-३१)। २२. केवलज्ञान-दर्शना- पत् साक्षात्करणं केवलज्ञानं अखिलावरण-वीर्यान्तवरणकर्मक्षयाविभूतं करणक्रमव्यवधानातिवति. रायनिरवशेषविश्लेषविजम्भितम । (लघी. अभय. सकललोकाकोकविषयत्रिकालस्वभावपरिणामभेदान- वृ. ६-११)। ३३. अशेषद्रव्यपर्यायविषयं विश्वन्तपदार्थयुगपत्सामान्य-विशेषसाक्षात्करण प्रवृत्तं के. लोचनम् । अनन्त मेकमत्यक्षं केवलज्ञानमुच्यते ।। वलज्ञानं केवलदर्शनमिति च व्यपदिश्यते । (योगशा. स्वो. विव. १-१६, पृ. ११६ उद्.; त्रि. (सन्मति. अभय. व. ३०, पृ. ६२१)। २३. यत्स- श. पु. च. १, ३, ५८४); घातिक्षये चानन्तमनन्तकलावरणात्यन्तक्षये केवल एब मूर्तामूर्तद्रव्यं सकलं विषयं निःशेषभावाभावस्वभावावभासकं केवल ज्ञाविशेषेणावबुध्यते तत्स्वाभाविक केवल ज्ञानम् । नम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४) । ३४. तथा (पंचा. का. अमत. वृ. ४१) । २४. तत्र द्रव्य क्षेत्र- केवल मेकं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात् "नट्रमि उ छाकाल-भाव-करणक्रमव्यवधानाभावे युगपदेकश्मिन्नेव उमथिए नाणे" इति वचनात् । शुद्धं वा केवलम्, समये त्रिकालवतिसर्वद्रव्य-गुण-पर्यायावभासकं केवल- तदावरणमलकलं कविगमात् । सकलं वा केवलम्, ज्ञानम् । (चा. सा., पृ. ६५)। २५. साक्षात्कृता- प्रथमत एवाशेषतदावरणविगमतः संपूर्णोत्पत्तेः । खिलद्रव्य-पर्यायमविपर्ययम् । अनन्तं केवलज्ञानं
असाधारणं वा केवलमनन्यसदशत्वात् । अनन्तं वा कल्मषक्षयसम्भवम् ।। (पंचसं. अमित. १-२२६)। केवलम ज्ञेयानन्तत्वात् । केवलं च तत् ज्ञानम् । २६. तथैव निजशद्धात्मतत्त्वसम्यश्रद्धान-ज्ञानानु... (प्रज्ञाप. मलय. व. २६-३१२, पृ. ५२७) । ३५.X चरणलक्षणकाग्रध्यानेन के बन ज्ञानावरणादिघातिचतु-xxमत्यादिनिरपेक्ष केवलज्ञानं. अथवा शर्ट'केवलं ष्टयक्षये सति यत्समुत्पद्यते तदेव समस्त द्रव्य-क्षेत्र- तदावरण-मलकलङ्कस्यानबयवशोऽपगमात्, सकल काल-भावग्राहकं सर्वप्रकारोपादेयभूतं केवलज्ञानमि- वा केवलं प्रथमत एवाशेषतदावरणविगमतः सम्पूर्णोति । (बृ. द्रव्यसं. ५); पूर्वं छद्मस्थावस्थायां भावितस्य त्पत्तेः, असाधारणं वा केवल मनन्यसदृशत्वात्, अनन्तं निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानस्य फलभूतं युगपल्लोकालोक- वा केवलं ज्ञेयानन्तत्वात् । केवलं च तत् ज्ञानं च केवसमस्तवस्तुगतविशेषपरिच्छेदकं केवलज्ञानम् । (ब. लज्ञानम्, यथावस्थिताशेषभूत-भवद्भाबिभावस्वभावद्रव्यसं. १४)। २७. सकलं तु तत्प्रत्यक्ष प्रक्षीणा- भासि ज्ञानमिति भावः। (प्राव.नि. मलय. व. १, प. शेषघातिमलसमुन्मीलितं सकलवस्तुयाथात्म्यवेदि १७; धर्मसं. मलय. वृ. ८१६; षडशीति मलय. व. निरतिशयवैशद्याल कृतं केवलज्ञानम् । (प्रमाणनि. १५, पृ. १६; प्रव. सारो. सि. वृ. १२५३) । ३६. पृ. २६)। २८. जगत्त्रय-कालत्रयवतिसमस्तपदार्थ- केवलज्ञानं तु सकलवस्तुस्तोमपरिच्छेदकं सर्वोत्तमम् । युगपत्प्रत्यक्षप्रतीतिसमर्थमविनश्वरमखण्ड क भासमयं (नन्दी. मलय. व. पु. ७१) । ३७. केवलं सम्पूर्णकेवलज्ञानम् । (प्रव. सा. जय. व. १-२३)। २६. ज्ञेय विषयत्वात्, सम्पूर्ण तच्च तदज्ञानं च केवलज्ञान अशेषद्रव्यपर्यायविषयं विश्वलोचनम् । अनन्तमेक- मिति । (अनुयो. मल. हेम. व.. पृ. २)। ३८. सकलं मत्यक्षं केवलं कीर्तितं बुधैः ।। कल्पनातीतमभ्रान्तं तु सामग्रीविशेषतः समुद्भूत समस्ताव रणक्षयापेक्षं नि.. स्वपरार्थावभासकम् । जगज्ज्योतिरसंदिग्धमनन्तं खिलद्रव्य-पर्यायसाक्षात्कारिस्वरूपं केवलज्ञानम् । सर्वदोदितम् ॥ अनन्तानन्तभागेऽपि यस्य लोकश्च- (प्र. न. त. २-२३)। ३६. सामग्री सम्यग्दर्शनाः राचरः । अलोकश्च स्फुरत्युच्चस्तज्ज्योतियोगिनां लक्षणाऽन्तरङ्गा, बहिरङ्गा तु जिन कालि कमनुष्.
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलज्ञानावरण]
भवादिलक्षणा, ततः सामग्रीविशेषात् प्रकर्षप्राप्त सामग्रीतः समुद्भूतो यः समस्तावरणक्षयः सकलघातिसंघातविघातस्तदपेक्षं सकलवस्तुप्रकाशस्वभावं केवलज्ञानं ज्ञातव्यम् । (रत्नाकरा २-२३, पृ. ७२) । ४०. सकलप्रत्यक्षस्य केवलज्ञानलक्षणस्य सकलद्रव्यपर्यायसाक्षात्करणं स्वरूपम् । ( सप्तभं. पू. ४७ ) । ४१. उक्तं च दव्वसुयादो भावं भावादी होइ सव्व सण्णाणं । संवेयणसंवित्ति केवलणाणं तदो भणि) (द्रव्यस्व. पू. १११ उद्) । ४२. बाह्य ेन अभ्यन्तरेण च तपसा मुनयो मार्ग केवन्ते सेवन्ते तत् केवलम्, असहायत्वाद्वा केवलम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-९) । ४३. तद्यथा क्षायिकं ज्ञानं सार्थं सर्वार्थगोचरम् । शुद्धं स्वजातिमात्रत्वादबद्धं निरुपाधितः ॥ यत्पुनः केवलज्ञानं व्यक्तं सर्वार्थ भासकम् । स एव क्षायिको भावः कृत्स्नस्वावरणक्षयात् ॥ ( पञ्चाध्यायी २-१२० व ६५ ) । ४४. सव्वावरणविमुक्कं लोयालोयप्पयासयं णिच्चं । इंदियकमपरिमुक्कं केवलणाणं णिरावाहं ॥ ( अंगप. ३-७५. पू. २६१ ) | ६ जो ज्ञान केवल - मतिज्ञानादि से रहित ( श्रसहाय ), परिपूर्ण, असाधारण ( अनुपम ), अन्य को अपेक्षा से रहित, विशुद्ध, समस्त पदार्थों का प्रकाशक और श्रलोक के साथ समस्त लोक का ज्ञाता है; उसे केवलज्ञान कहा जाता है । केवलज्ञानावरण - १. एदस्स (केवलणाणस्स ) आवरणं केवलणाणावरणीयं । ( धव. पु. ६, पू. ३०); एदस्स (केवलणाणस्स) आवरणं जं कम्मं तं केवलणाणावरणीयं णाम । ( धव. पु. १३, पृ. २१३) । २. लोयालोयगएसुं भावेसुं जं गयं महाविमलं । तं आवरियं जेण केवलप्रावरणयं तं पि ॥ ( कर्मवि. ग. १७) ।
२ जो कर्म लोक और लोकगत सर्व तत्वों के प्रत्यक्ष दर्शक और अतिशय निर्मल केवलज्ञान का आवरण करता है उसे केवलज्ञानावरण कहते हैं । केवलदर्शन - १. तह दंसणं पि जुज्जइ नियश्रावरणक्खए संते । (सम्मति. २ - ५ ) । २. बहुविहबहुप्पयारा उज्जवा परिमियम्मि खेत्तम्मि | लोगालोगवितिमिरो सो केबलदंसणुज्जोश्रो ॥ (प्रा. पंच. १-१४१ ; धव. पु. १, पृ. ३८२ उद्.; गो. जी. ४८६ ) । ३. स्वावभासः केवलदर्शनम् | 'धव. पु. ६, पू. ३४ ) ; कि केवलदंसणं ? तिकालविसय
३७१, जेन-लक्षणावली
[ केवलदर्शन
अणंतपज्जयसहिदसगरूवसंवेयणं । (धव. पु. १०, पृ. ३१९ ) ; केवलणाणुप्पत्तिकारणसगसंवेयणं केवलदंसणं णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३५५ ); केवलदंसणावरणक्खएण समुप्पण्णं दंसणं केवल दंसणं । ( धव. पु. १४, पृ. १७) । ४. दर्शनमपि केवलाख्यमशेषदर्शनावरणीयश्चयसमुद्भूतमुपात्तम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. २- ४ ) ; केवलदर्शनमपि सामान्योपयोगलक्षणम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ८-८ ) ; अशेषदर्शनावरणक्षयात् क्षायिकं केवलदर्शनम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ १० - ४) । ५. यत्सकलावरणात्यन्तक्षये केवल एव मूर्तमूर्तद्रव्यं सकलं सामान्येनावबुध्यते तत्स्वाभाविकं केवलदर्शनमिति स्वरूपाभिधानम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. ४२ ) । ६. मूर्तीमूर्त पदार्थानामसी (प्रकाशः ) केवलदर्शनम् । (पंचसं प्रमित. १ - २५२ ) । ७ यत्पुनः सहजशुद्धसदानन्दैकरूपपरमात्मतत्त्वसंवित्तिप्राप्तिबलेन केवलदर्शनावरणक्षये सति मूर्तमूर्तसमस्तवस्तुगत सत्तासामान्यं विकल्परहितं सकलप्रत्यक्षरूपेणैकसमये पश्यति तदुपायमूतं केवलदर्शनं ज्ञातव्यम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४); निर्विकल्पस्वशुद्धात्मसत्तावलोकनरूपं यत्पूर्वं दर्शनं भावितं तस्यैव फलभूतं युगपल्लोकालोकसमस्तवस्तुगतसामान्य ग्राहकं केवलदर्शनम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. १४) । ८. तत्रैव (जगत्त्रय - कालत्रयवर्तिपदार्थयुगपद्) सामान्य परिच्छित्तिरूपं केवलदर्शनं भण्यते । ( परमात्म. टी. १६१) । ६. युगपत्सर्व द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषप्रकाशकं केवलं केवलं जानाति भावि केवलदर्शनम् । (मूला. वृ. १२ - १८८ ) । १०. रागादिदोषरहित चिदानन्द कस्वभाव निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षण निर्विकल्पध्यानेन निरवशेषकेवलदर्शनावरणक्षये सति जगत्त्रय-कालत्रयवर्तिवस्तुगत सत्तासामान्यमेकसमयेन पश्यति तदनिधनमनन्तविषयं स्वाभावि कं केवलदर्शनम् । (पंचा. का. जय. वृ. ४३) । ११. केवलमेव (प्रज्ञाप. - मिव ) दर्शनं सकलजगद्भाविवस्तुसामान्यपरिच्छित्तिरूपं केवलदर्शनम् । ( जीवाजी. मलय. वृ. १३, पृ. १६; प्रज्ञाप. मलय, वृ. २६-३१२, पृ. ५२७) ।
३ तीनों कालों की विषयभूत अनन्त प्रर्यायों से संयुक्त निज के स्वरूप का जो संवेदन होता है उसे केवलदर्शन कहते हैं । ५ श्रावरण का पूर्णतया क्षय हो जाने पर जो विना किसी अन्य की सहायता के
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलदर्शनावरणीय]
[ केवलिसमुद्घात
समस्त मूर्त-अमूर्त द्रव्यों को सामान्य से जानता है वह केवलदर्शन कहलाता है । केवलदर्शनावरणीय - १. केवलमसपत्नम्, केवलं च दद्दर्शनं च केवलदर्शनम् । तस्स श्रावरणं केवलदर्शनावरणीयम् । ( धव. पु. ६, पृ. ३३ ) ; तस्स (केवलदंसणस्स) आवारयं (कम्मं ) केवलदंसणावर णीयम् । ( धव. पु. १३, पृ. ३५६ ) । २. केवलमासन्नं जं वरेइ तं केवलस्स भवे । (कर्मवि. ग. २६) । १ जो केवलदर्शन को प्राच्छादित करता है उसे केवलदर्शनावरणीय कहते हैं । केवलव्यतिरेकी— पक्षवृत्तिर्विपक्षव्यावृत्तः सपक्षरहितो हेतुः केवलव्यतिरेकी । ( न्यायदी. पृ. ६० ) । जो हेतु विपक्ष से व्यावृत्त होकर सपक्ष से रहित होता हुआ केवल पक्ष में रहता है उसे केवलव्यतिरेकी कहते हैं ।
दोनों में एक दूसरे की श्रावारकता ठहरती है । कारण कि उनके ज्ञानावरण श्रौर दर्शनावरण दोनों ही कर्म विनष्ट हो चुके हैं तथा अन्य कोई आवारक सम्भव नहीं है । तब यदि उन दोनों का युगपत् होना माना जाय तो उन दोनों के एक काल में रहने से श्रभेद का प्रसंग प्राप्त होता है - समान काल में रहने से केवलज्ञान और केवलदर्शन में कोई भेद नहीं रहेगा । इस प्रकार के कुतर्कपूर्ण विचार का नाम केवलि - श्रवर्णवाद है । ३ केवली जीवन के लिए कबलाहार का उपभोग करते हैं, कम्बल व तूंबड़ी के पात्रों को ग्रहण करते हैं, तथा उनके ज्ञान और दर्शन भिन्न काल में होते हैं; इत्यादि कथन करना केवलि- श्रवर्णवाद है । केवलिमरर - केवलिणं मरणं केवलिमरणम् । ( उत्तरा. चू. पृ. १२९ ) ।
केवलान्वयी - पक्ष सपक्षवृत्तिर्विपक्षवृत्तिरहितः केव केवली के मरण को निर्वाण प्राप्ति को - केवलि - लान्वयी । ( न्यायदी. पू. ८8 ) । जो हेतु पक्ष प्रौर सपक्ष में तो रहता है, किन्तु विपक्ष में नहीं रहता है उसे केवलान्वयी कहते हैं । केवलावररण- देखो केवलज्ञानावरण । केवलावरणं हि श्रादित्यकल्पस्य जीवस्याच्छादकतया सान्द्रमेघवृन्दकल्पमिति । (स्थानां. श्रभय. वृ. २, ४, १०५) । जो सूर्य के समान जीव को सघन मेघसमूह के समान श्राच्छादित करता है उसे केवलावरण कहा जाता है । केवलि - प्रवर्णवाद - १.
कवलाभ्यवहारजीविन:
केवलिन इत्येवमादिवचनं केवलिनामवर्णवाद: । ( स. सि. ६-१३ ) । २. एगंतरमुप्पाए अन्नोन्नावरणया दुवेह पि । केवल दंसण णाणाणमेगकाले व एगत्तं ॥ (बृहत्क. १३०४) । ३. पिण्डाभ्यवहारजीवनादिवचनं केवलिषु । पिण्डाभ्यवहारजीविनः कम्बल - दशानिर्हरणाः अलाबूपात्रपरिग्रहाः कालभेदवृत्तज्ञानदर्शनाः केवलिन इत्यादिवचनं केवलिष्ववर्णवादः । (त. वा. ६, १३, ८) ।
२ केवली के ज्ञान और दर्शन ये दोनों उपयोग क्रम से होते हैं या युगपत् ? यदि क्रम से होते हैं तो जिस समय को जानता है उसका दर्शन नहीं हो सकता है और जिसको देखता है उसका ज्ञान नहीं हो सकता है। इस प्रकार दोनों की उत्पत्ति के एकान्तरित होने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन
३७२, जैन-लक्षणावली
मरण कहते हैं ।
केवल मायी- - १. केवलिणं केवलिष्वादरवानिव यो वर्तते, तदर्चनायां तु मनसा तु न रोचते, स केवलिनां मायाबान् । (भ. प्रा. विजयो. १८१) । २. तथा केवलिष्वादरवानिव यो वर्तते, तत्पूजायां मनसा तु न तां रोचते, असो केवलिमायी । (भ. ना. मूला. १८१) । athaलियों के विषय में श्रादरयुक्त के समान रहता है, किन्तु मनसे जिसे उनकी पूजा नहीं रुचती है, वह केवलि मायी कहलाता है। ऐसा जीव केवली का प्रवर्णवादी होकर किल्विषिकभावना वाला होता है । केवलिसमुद्घात - १. वेदनीयस्य बहुत्वादल्पत्वाच्चायुषोऽनाभोगपूर्वकमायुः सम करणार्थं द्रव्यस्वभावत्वात् सुराद्रव्यस्य फेन वेगबुद्बुदा विर्भावोपशमनवद्द ेहस्थात्मप्रदेशानां वहिःसमुद्घातनं केवलिसमुद्घातः । (त. वा. १, २०, १२) । २. केवलिसमुद्घादो णाम दंड-कवाड पदर लोग पूरणभेएण चउव्विहो । ( धव. पु. ४, पृ. २८); दंड-कवाड पदरलोग पूरणाणि केवलिसमुद्घादो णाम । ( धव. पु. ७, पू. ३०० ) । ३. उद्गमनमुद्घातः, जीवप्रदेशानां विसर्पणमित्यर्थः, समीचीनः उद्घातः समुद्घातः, केवलिनां समुद्घातः केवलिसमुद्घातः । अघातिकर्म स्थिति समीकरणार्थं केवलिजीवप्रदेशानां समया
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवली ]
विरोधेन ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च विसर्पणं केवलिसमुद्घातः । ( जयध. प्र. प. १२३८ ) । ४. सप्तमः केवलिनां दण्ड-कपाट- प्रतर-पूर्णः सोऽयं केवलिसमुद्घातः । (बृ. द्रव्यसं. टी. १० ) । ५. केवलिनि अन्तर्मुहूर्त भाविपरमपदे समुद्घातः केवलिसमुद्घातः । (जीवाजी. मलय. वृ. १-१३, पृ. १७) । ६. सप्तमः केवलिनां दण्ड-कपाट-मन्थान- प्रतरणलोकपूरणः सोऽयं केवलिसमुद्घातः । ( कार्तिके. टी. १७६) ।
१ श्रायुकर्म की स्थिति अल्प और वेदनीय की स्थिति अधिक होने पर उसे श्रनाभोगपूर्वक (उपयोग के विना ही) श्रायु के समान करने के लिए केवली भगवान् के श्रात्मप्रदेश भूल शरीर से बाहर निकलते हैं, इसे केवलिसमुद्घात कहते हैं । जैसे— शराब के फेन का वेग बुदबुद के आविर्भाव से शान्त हो जाता है ।
केवली - १. सव्वं ( श्राव. - कसिणं) केवल कप्पं लोगं जाणंति तह य पस्संति । केवलणाण चरिता ( प्राव. - केवलचरित्तणाणी) तम्हा ते केवली होंति । (मूला. ७-६७; आव. नि. १०७६) । २. निरावरणज्ञानाः केवलिनः । ( स. सि. ६ - १३) । ३. तव नियम- नाणरुक्खं श्रारूढो केवली अमियनाणी । ( श्राव. नि. ८) । ४. शेषकर्म फलापेक्षः शुद्धो बुद्धो निरामयः । सर्वज्ञः सर्वदर्शी च जिनो भवति केवली । ( त. भा. १०, श्लो. ६, पृ. ३१६ ) । ५. करणक्रमव्यवधानातिवर्तिज्ञानोपेताः केवलिनः । करणं चक्षुरादि, कालभेदेन वृत्तिः क्रमः, कुडयादिना अन्तर्धानं व्यवधानम्, एतान्यतीत्य वर्तते । ज्ञानावरणस्यात्यन्तक्षये आविर्भूतमात्मनः स्वाभाविकं ज्ञानम्, तद्वन्तः अर्हन्तो भगवन्तः केवलिनः इति व्यपदिश्यन्ते । (त. वा. ६, १३, १); घातिकर्मक्षयादाविभूतज्ञानाद्यतिशयः केवली । घातिकर्मणामत्यन्तक्षयादाविर्भूतस्वभावाचिन्त्य केवलज्ञानाद्यतिशयविभूतिर्भगवान् केवलीत्यभिलप्यते । (त. वा. ६, १, २३) । ६. केवलमस्यास्तीति केवली, सम्पूर्णज्ञानवानित्यर्थः । ( श्रनुयो हरि. वृ. पू. ६२ ) । ७. केवलि त्ति भणिदे केवलणाणिणो तित्थयरकम्मुदयविरहिदा घेत्तव्वा । ( धव. पु. ६, पृ. २४६) । ८. केवलमसहायं ज्ञानम्, इन्द्रियाणि मनः प्रकाशादिकं च नापेक्ष्य युगपदशेषद्रव्य - पर्यायभासनसमर्थं
३७३, जैन- लक्षणावली
[केश संस्कार
सद्यत्र प्रवर्तते तद्येषामस्ति ते केवलिनः । ( भ. प्रा. विजयो. २७) । ९. केवलानि सम्पूर्णानि शुद्धानि अनन्तानि वा ज्ञानादीनि यस्य सन्ति स केवली । ( श्रपवा. अभय वू. १०, पृ. १५) । १०. केवलज्ञानं दर्शनं चास्यास्तीति केवली । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१४, पृ. ५३१ ) । ११. क्षायिकमेकमनन्तं त्रिकालसर्वार्थयुगपदवभासम् । सकल सुखधाम सततं वन्देऽहं केवलज्ञानम् ॥ इत्यार्योक्त (क्तं ) केवलं ज्ञानम्, आवरणद्वयरहितं ज्ञानं विद्यते येषां ते केवलिनः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-१३ ) । १ जो केवल सदृश समस्त लोक को देखते हैं तथा केवलज्ञान ब चारित्र से वे केवली कहलाते हैं । केशवाणिज्य - १. नवनीत वना - क्षौद्र मद्यप्रभृतिविक्रयः । द्विपाच्चतुष्पाद्विक्रयो वाणिज्यं रसकेशयोः ।। (योगशा. ३- १०६; त्रि. श. पु. च. ६, ३, ३४३ ) । २. केशवाणिज्यं द्विपदादिविक्रयः । तत्र च दोषः - तेषां पारवश्य-वध-बन्धनादयः क्षुत्पिपासा - पीडा चेति । (सा. ध. ५ - २२ ) ।
1
१ केश वाले द्विपद (मनुष्य) और चतुष्पद (पशु) आदि जीवों के बेचने को केशवाणिज्य कहते हैं । केशवाप - केशवापस्तु केशानां शुभेऽह्नि व्यपरोपणम् । क्षौरेण कर्मणा देव गुरुपूजापुरस्सरम् ॥ गन्धोदकाद्रितान् कृत्वा केशान् शेषाक्षतोचितान् । मौण्ड्यमस्य विधेयं स्यात् सचूलं वा इन्वयोचितम् ॥ स्नपनोदकधौताङ्गमनुलिप्तं सभूषणम् । प्रणमय्य चोलाख्यया मुनीन् पश्चाद्योजयेद् बन्धुना शिषा || प्रतीतेयं कृतपुण्याहमङ्गला । क्रियास्यामादृतो लोको यतते परया मुदा ।। (म. पु. ३८, ६८ - १०१ ) । किसी शुभ दिन में देव व गुरु की पूजा करके बालक के बालों को गन्धोदक से भिगो कर व शेषाक्षतों से उचित करके क्षौरक्रिया से -- उस्तरे के द्वारा- उनके निकलवाने को केशवाप कहते हैं । केशवाप के पश्चात् नहला कर उससे मुनियों को नमस्कार कराना चाहिए ।
जानते व सम्पन्न हैं
केशसंस्कार - १. केशसंस्कारो हस्तघर्षणेन मसृणतासम्पादनम् । (भ. प्रा. विजयो. १३) । २. हस्तघर्षणेन मसृणताकरणं केशसंस्कारः । (भ. श्री. मूला. ६३) ।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
कैवल्य] ३७४, जैन-लक्षणावली
[कोष्ठा हाथों की रगड़ से केशों के चिकने करने को केश- तथैवावस्थानमवधारितग्रन्थार्थानां यत्र बुद्धौ सा संस्कार कहते हैं।
कोष्ठबुद्धिः । (श्रुतभक्ति टी. ३)। ८. परोपकैवल्य-केवलस्य कर्मविकलस्य प्रात्मनो भावः। देशादवधारितानां श्रोतानामर्थ-ग्रन्थबीजानां भयकैवल्यम्। (सिद्धिवि. टी. ७-२१, पृ. ४६१) सामनुस्मरणमन्तरेणाविनष्टानामवस्थानात् कोष्ठकेवल अर्थात् कर्मरहित प्रात्मा की अवस्था को बुद्धयः । (योगशा. स्वो. विव. १-८) । ६. कोट्ठकैवल्य कहते हैं।
बुद्धि त्ति कोष्ठवत् कुशूल इव सूत्रार्थधान्यस्य यथाकोटी-xxx शताहतां तां (लक्ष्यां) च प्राप्तस्याविनष्टस्याऽऽजन्मधरणाद् बुद्धिर्मतिर्येषां ते वदन्ति कोटीम् । (वरांगच. २७-८)।
तथा । (औपपा. अभय.बु. १५, पृ. २८)। १०. या सौ से गुणित लक्ष को (१०००००-१००) कोटी । बुद्धिराचार्य मुखाद्विनिर्गती तदवस्थानी च सूत्रार्थी कहते हैं।
धारयति, न किमपि तयोः कालान्तरेण गलति, सा कोश-यो विपदि सम्पदि च स्वामिनस्तंत्राभ्युदयं कोष्ठबुद्धिः । (नन्दी. मलय. व. सू. १३, पृ. १०६; कोशतीति कोशः । (नीतिवा. २१-१)।
प्रज्ञाप. मलय. व. २१-२७३, पृ. ४२४)। ११. जो सम्पत्ति और विपत्ति के समय स्वामी की सेना तथा कोष्ठ इव घान्यं येषां बूद्धिराचार्यमुखाद्विव अर्थ की वृद्धि करे उसे कोश कहते हैं । निर्गतौ तदगस्थावेव सूत्राथों धारयति, न किमपि कोष्ठबुद्धि- १. उक्करिसधारणाए जुत्तो पुरिसो तयोः कालान्तरेऽपि गलति, ते कोष्ठबुद्धयः, कोष्ठ गुरूवएसेणं । णाणाविहगंथेसुं वित्थारे लिंगसद्दबी- इव बुद्धिर्येषां ते कोष्ठबुद्धय इति व्युत्पत्तेः । उक्तं जाणि ॥ गहिऊण णियमदीए मिस्सेण विणा धरेदि च-कोट्ठयधन्नसुनिग्गलसुत्तत्था कोट्ठबुद्धीया ॥ मदि-को? । जो कोइ तस्स बुद्धी णिद्दिट्ठा कोटबुद्धि (प्राव. नि. मलय. वृ. ७५, पृ. ८०) । १२. कोष्ठत्ति ॥ (ति. प. ४, ९७८-९७६)। २. कोट्ठय- निक्षिप्तधान्यानीव सुनिर्गला अविस्मृतत्वाचिरस्थाधन्नसुनिग्गलसुत्तत्था कोट्ठदुद्धीया । (विशेशा. ८०२; यिनः सूत्रार्था येषां ते कोष्ठकधान्यसुनिर्गलसूत्रार्थाः प्रव. सारो. १५०२)। ३. कोष्ठागारिकस्थापिता- कोष्ठबुद्धयः । कोष्ठे इव धान्यं या बुद्धिराचार्यमुखानामसंकीर्णानामविनष्टानां भूयसा धान्यबीजानां द्विनिर्गतौ तदवस्थावेव सूत्राथौं धारयति, न किमपि यथा कोष्ठेऽवस्थान तथा परोपदेशादवद्यारितानां तयोः सूत्रार्थयोः कालान्तरेऽपि गलति सा कोष्ठअर्थ-ग्रन्थ-बीजानां भूयसामव्यतिकीर्णानां बुद्धावस्था- बुद्धिलब्धिरिति भावः । (प्रव. सारो. व. १५०२) । न कोष्ठबद्धः। (त. वा. ३, ३६, ३; चा. सा. १३. कोष्ठागारे संगृहीतविविधाकारधान्यवत् यस्यां प्र. ९६)। ४. कोष्ठयः शालि-व्रीहि-यव-गोधूमा- बुद्धो वर्णादीनि श्रुतानि बहकालेऽपि न विनश्यन्ति दीनामाधारभतः कुस्थली पल्यादिः । सा चासेस- सा कोष्ठबुद्धिः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६)। दव्व-पज्जायधारणगुणेण कोट्ठसमाणा बुद्धी कोट्ठा, उत्कृष्ट धारणा से युक्त जो पुरुष गरु के उपदेश कोटा च सा बुद्धी च कोट्ठबुद्धी। Xxx बुद्धि- से अनेक प्रकार के ग्रन्थों में से विस्तारपूर्वक लिंगमंताणं पि कोदबुद्धी सण्णा । (धव. पु. ६, पृ. ५३, युक्त शब्दरूप बीजों को अपनी बुद्धि से ग्रहण कर
। ५. कोष्ठबुद्धित्वं यत्किचित् पद-वाक्यादि- मिश्रण के बिना-पृथक् पृथक् --- उन्हें अपने बद्धिग्रहीतं तन्न कदाचिन्नश्यतीति कोष्ठक्षिप्तधान्यवत् । रूप कोठे में स्थापित करता है, उसकी उस बदि (त. भा. सिद्ध. व. १०-७, पृ. ३१६-१७)। को कोष्ठबुद्धि कहा जाता है। ६. कोष्ठागारे संकर-व्यतिकररहितानि नानाप्रका- कोष्ठा-कोष्ठा इव कोष्ठा । कोष्ठा नाम कस्थली.
बीजानि बहकालेनापि न विनश्यन्ति न संकी- तद्वन्निर्णीतार्थं धारयतीति कोष्ठा । (धव. प्र. १३. यन्ते च यथा तथा येषां श्रुतानि पद-वर्ण-वाक्या- पृ. २४३) ।
नकाले गते तेनैव प्रकारेणाविनष्टार्थान्यन्यूना- कोष्ठा नाम कुस्थली (धान्य रखने का एक मिठी धिकानि सम्पूर्णानि संतिष्ठन्ते ते कोष्ठबुद्धयः । का वड़ा पात्र-कुठिया) है। उसके समान निर्णीत (मला. व. ६-६६) । ७. तत्र कोष्ठे कोष्ठागारिक- अर्थ को जो बुद्धि धारण करती है वह भी कोष्ठ धृतभूरिबीजानामविनष्टाव्यतिकीर्णानामवस्थानं यथा (कोठा) के समान होने से कोष्ठा कहलाती है।
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
कौकुच्य ]
यह धारणा का नामान्तर है । कौकुच्य -- देखो कौत्कुच्य । कौतुक - १. विण्हवण- होम - सिरपरिरयाइ खारदहणाई धत्रेय । प्रसरिसवेसग्गहणं श्रवयासण- उत्थु वण बंधा ।। (बहुक. भा. १३.६) । २. सोहग्गाइनिमित्तं परेसि ण्हवणाइ कोउयं भणियं । ( प्रव. सारो. ११२ ) । ३. सौभाग्यनिमित्तमवत्यादिनिमित्तं च योषिदादीनां त्रिक चतुष्क चत्वरादिषु स्नानादि यत्क्रियते तत्कौतुकं भणितम् । ( श्राव. ह. वृ. मल. हेम. टि. पू ८२ ) । ४. कौतुकं नाम प्राश्चर्यम्, यथा मायाकारको मुखे गोलकान् प्रक्षिप्य कर्णेन निष्कासयति नासिकया वा मुखादग्निं निष्कासयतीत्यादि । श्रथवा परेषाँ सौभाग्यादिनिमित्तं यत् स्नपनादि क्रियते एतत्कौतुकम् । ( व्यव. मलय. वृ. ३, पू. ११७) ।
१ विशेष स्नान, होम, शिरःपरिश्य ( करभ्रमणाभिमंत्रणा) श्रादि, क्षारदहन ( रोग शान्ति के लिये नमक श्रादि का जलाना ), उसी प्रकार की धूप का समर्पण, असमान वेश का ग्रहण, वृक्षादि का श्रालिंगन कराना, श्रवस्तोमन - श्रनिष्ट को उपशान्ति के लिये थूक द्वारा थू-थू करना और बन्ध; यह सब कौतुक कहलाता है । कौतुककुशील - कश्चित् कौतुकशीलः श्रोषधविलेपन-विद्याप्रयोगेणैव सौभाग्यकरणं राजद्वारि कौतुक - मादर्शयति यः कौतुककुशील. । (भ. श्री. विजयो. १९५०)।
३७५, जैन- लक्षणावली
जो श्रौषधि-विलेपन श्रौर विद्या मंत्रादि के प्रयोग द्वारा राजद्वार में चमत्कार दिखावे व दूसरों के सौभाग्य की वृद्धि करे, ऐसे साधु को कौतुककुशील कहते हैं ।
कौत्कुच्य - १ तदेवोभयं परत्र दुष्टकायकम प्रयुक्तं कौत्कुच्यम् । ( स. सि. ७-३२) । २. कौत्कुच्यं नाम एतत् ( रागसंयुक्तोऽसभ्यो वाक्प्रयोगः हास्य च) एवोभयं दुष्टकायप्रचारसंयुक्तम् । ( त. भा. ७-२७) । ३. भुम नयण - वयण- दसणच्छदेहि करपाद- कण्णमाईहि । तं तं करेइ जह हस्सए परो प्रत्तणा ग्रहसं || वायाकोक्कुइयो पुण तं जंपइ जेण हस्सए अन्नो । नानाविहजीवरुए कुम्बइ मुहतूरए चेव ।। (बृहत्क• १२६७-६८ ) । ४. तदेवोभयं परत्र great कर्मयुक्तं कौत्कुच्यम् । रागस्य समावेशा
[ कौरकुच्य
द्धास्यवचनम् अशिष्टवचनं इत्येतदुभयं परत्र दुष्टेन काय कर्मणा युक्तं कौत्कुच्यम् । (त. वा. ७, ३२, २) । ५. कोकुच्यम् - कुत्सित संकोचनादिक्रियायुक्तः कुकुचः, तद्भावः कोकुच्यम्, श्रनेकप्रकारा मुख-नयनौष्ठ-कर-चरण-भ्रूविकारपूर्विका परिहासादिजनिका भाण्डादीनामिव विडम्बनक्रियेत्यर्थः । ( श्राव. हरि. वृ. प्र. ६, पृ. ८३० ) । ६. कौत्कुच्यं कुन्तिसंकोचनादिक्रियायुक्तः कुत्कुचः, तद्भावः कौत्कुच्यम्, अनेक प्रकारमुख-नयनौष्ठ-कर-चरण-भ्रूविकारपूर्विका परिहासादिजनिका भांडादीनामिव विडम्बन क्रियेत्यर्थः । (श्री. प्र. टी. २६१; ध. वि. मु. वृ. ३ - ३० ) । ७. कोत्कुच्यं कुत्सितसंकोचनादिक्रियायुक्तः कुत्कुचः, तद्भावः कौत्कुच्यम् - अनेकप्रकारा भाण्डादिविडम्बनाक्रियाः । कुदिति कुत्सायां निपातो निपातानामानन्त्यात् । श्रन्ये पठन्ति — कौकुच्यमिति तेषां कुत्सितः कुचः संकोचनादिक्रियाभाक्, तद्भावः कौकुच्यम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. ७ - २७) । ८. तदेवोभयं परत्र दुष्टकाय कर्मयुक्तं कौत्कुच्यम् । (त. इलो. ७-३२) । ६. रागस्य समावेशाद्धास्यवचनमशिष्टवचनमित्येतदुभयं परस्मिन् दुष्टेन कायकर्मणा युक्तं कौत्कुच्यम् । (चा. सा. पू. १० ) । १०. प्रहासो भण्डमावचनं भण्डिमोपेतकायव्यापारप्रयुक्तं कौत्कुच्यम् । ( रत्नक. टी. ३-३५ ) । ११. रागातिशयवतो हसत: परमुद्दिश्याशिष्टकायप्रयोगः कौत्कुच्यम् । (भ. श्री. विजयो. १८० ) । १२. तथा कुदिति कुत्सायां निपातः, निपातानामानन्त्यात् । कुत् कुत्सितं कुचति भ्रू नयनोष्ठ- नासा कर-चरण-मुखविकारैः संकुचतीति कुत्कुचस्तस्य भावः कौत्कुच्यम्, नेकप्रकारा भण्डादिविडम्बन क्रिया इत्यर्थः । श्रथवा कौकुच्यमिति पाठः, तत्र कुत्सितः कुच; कुकुचः संकोचनादिक्रियाभाक्, तद्भावः कौकुच्यम् । (योगशा. स्वो विव. ३-११५) । १३. रागातिशयबतो हसतः परमुद्दिश्यैवं तव मातरं करोमि इति श्रशिष्टकार्य प्रकुत्कुचायितं कौत्कुचमिति यावत् । अव्यक्तकण्ठस्व रकरणमवशिष्टांगावयवचालनं वेति केचित् । (भ. प्रा. मूला. १८० ) । १४. कौत्कुच्यं कुदिति कुत्सायां निपातो निपातानामानन्त्यात् । कुत: [ कुत् ] कुत्सितं कुचति भ्रू नयनौष्ठ-नासा-करचरण-मुखविकारैः संकुचतीति कुत्कुचः संकोचनादि
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
कौमार] ३७६, जैन-लक्षणावली
क्रमानेकान्त] क्रियाभाक्, तद्भावः कौत्कुच्यम् । (सा. ध. स्वो. भिन्न नाम का सूत्रदोष है। जैसे—स्पर्शन, रसन, टी. ५-१२)। १५. प्रहासवागशिष्टवाक्प्रयोगौ घ्राण, चक्षु और कर्ण के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और पूर्वोत्तौ द्वावपि तृतीयेन दुष्टेन कायकर्मणा संयुक्तौ शब्द विषय हैं; ऐसा न कह कर उनके स्पर्श, रूप, कोत्कुच्यम् । (त. वृत्ति श्रुत. ७-३२)। १६. दोषः शब्द, गन्ध और रस विषय हैं; इस प्रकार संख्याकौत्कुच्यसंज्ञोऽस्ति दुष्टकायक्रियादियुक्। पराङ्ग- क्रम को भंग करके कहना । स्पर्शनं स्वाङ्गरदिन्याङ्गनादिषु ।। (लाटीसं ६, क्रमवर्तित्व क्रमवर्तित्वं नाम व्यतिरेकपुरस्सरं १४२)।
विशिष्टं च । स भवति भवति न सोऽयं भवति ३ भ्र, नेत्र, मुख, श्रोठ, हाथ, पांव और कान आदि तथाऽथ च तथा न भवतीति ।। (पंचाध्यायी १, के द्वारा इस प्रकार की चेष्टा करना कि जिसे देख १७५)। कर अन्य जन हंसने लग जावें, पर स्वयं न हंसे, यह वह है' किन्तु वह नहीं है; अथवा 'यह वैसा यह कायकौत्कुच्य है। इसी प्रकार वचन के द्वारा है' किन्तु वैसा नहीं है। इस प्रकार व्यतिरेकपूर्वक ऐसा सम्भाषण करना कि जिसे सुन कर अन्य जन विशिष्टता को क्रमवतित्व कहते हैं। हास्य को प्राप्त हों, इसके अतिरिक्त मख से मोर, क्रमवर्ती-ग्रस्त्यत्र यः प्रसिद्धः क्रम इति धातुश्च बिल्ली और कोयल आदि अनेक जीवों के शब्द का पादविक्षेपे । क्रमति क्रम इति रूपस्तस्य स्वार्थानतिअनुकरण करना व वाजे प्रादि की ध्वनि को क्रमादेषः ।। वर्तन्ते तेन यतो भवितं शीलास्तथा करना; यह वाचनिक कौत्कुच्य कहलाता है। इस स्वरूपेण । यदि वा स एव वर्ती येषां क्रमवतिनस्त प्रकार की कौत्कुच्य क्रिया में निरत व्यक्ति कौत्कु- एवार्थात् ।। अयमर्थः प्रागेकं जातं उच्छिद्य जायते च्यवान् कहा जाता है।
चकः । अथ नष्टे सति तस्मिन्नन्योऽप्युत्पद्यते यथा कौमार-कौमारं बालवैद्यं मासिक-सांवत्सरिकादि- देशम् ।। (पंचाध्यायी १,१६७-६६)। ग्रहत्रासनहेतु: शास्त्रम् । xxx एवमष्टप्रकारेण 'क्रम' धातु पादविक्षेप अर्थ में प्रसिद्ध है। 'क्रमति चिकिन्साशास्त्रेणोपकारं कृत्वाहारादिकं गृह्णाति, इति क्रमः' इस निरुक्ति के अनुसार उससे निष्पन्न तदानीं तस्याष्टप्रकार श्चिकित्सादोषो भवत्येव । क्रम शब्द का अर्थ पद्धति के अनुसार एक-एक के (मूला. वृ. थ-३३)।
अनन्तर होने वाली पर्याय होता है। जिससे (जैसे कौमार अर्थात् बालवैद्य सम्बन्धी तथा मासिक व मिट्टी से) जो अवस्था में (स्थास, कोश, कुशल वार्षिक प्रादि ग्रहों के त्रास के कारणभूत चिकित्सा प्रादि) स्वभावत: उत्पन्न होने वाली हैं, वे अथवा शास्त्र के प्राश्रय से उपकार करके यदि प्राहार जिनका स्थास, कोश, कुशूलादि का वह (मिट्टी) ग्रहण करता है तो यह कौमार नाम का चिकित्सा- अनुसरण करता है वे (स्थासादि) क्रमव! कही दोष होता है।
जाती हैं। कारण यह कि पहिले एक अवस्था क्रमभाव-अविनाभाव-पूर्वोत्तरचारिणोः कार्य- (स्थास) होती है, फिर उसके नष्ट होने पर दूसरी कारणयोश्च क्रमभावः। (परीक्षा. ३-१३) । (कोस) अवस्था होती है, तत्पश्चात् उसके भी पूर्वचर और उत्तरचर पदार्थों में-जैसे कृत्तिका विनष्ट होने पर अन्य (कुशल) अवस्था होती है। और शकट नक्षत्रों में तथा कार्य-कारण में जो इस प्रकार ऐसी अवस्थाओं की 'क्रमवर्ती' यह अविनाभाव सम्बन्ध है, उसे क्रमभाव नियम अवि- सार्थक संज्ञा है। नाभाव कहते हैं।
क्रमानेकान्त - मुक्त-इतराऽनेक क्रमिधर्मापेक्षया क्रमभिन्न- भिन्नं यत्र यथासंख्यमन देशो न क्रमानेकान्तः, आयुगपदेव तत्सम्भवात् । (न्यायकु. क्रियते । यथा 'स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षुः श्रोत्रा- २-७, पृ. ३७२)। णामर्थाः स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण-शब्दाः इति वक्तव्ये । मुक्त और अमुक्त (संसारी) रूप अनेक ऋमिक स्पर्श-रूप-शब्द-गन्ध-रसाः इति ब्रूयात् । (प्राव. धर्मों की अपेक्षा से क्रमानेकान्त होता है। कारण नि. हरि. वृ. ८८२, पृ. ३७५)।।
कि मुक्तत्व-अमुक्तत्व प्रादि धर्म एक साथ सम्भव संख्याक्रम के अनुसार उल्लेख नहीं करना, यह क्रम- नहीं हैं-ऐसे परस्पर विरोधी धर्म क्रम से ही उप
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रिया]
३७७,
लब्ध होते हैं । अभिप्राय यह कि जो पूर्व काल में मुक्त (संसारी) होता है, वही उत्तर काल में मुक्त होता है । इस प्रकार परस्पर विरोधी क्रमिक धर्मो में क्रमानेकान्त घटित होता है । क्रिया - १. उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानः पर्यायो द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया । ( स. सि. ५, ७) । २. क्रिया गतिः, सा त्रिविधा - प्रयोगगतिः, विस्रागतिः, मिश्रिकेति । ( त. भा. ५-२२) । ३. जीवादितत्त्वे नयभेदविकल्पितस्वरूपे या प्रति पत्तिः सा क्रिया । (अनुयो. चू. पू. ८६ ) । ४. उभयनिमित्तापेक्ष: पर्यायविशेषो द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया । अभ्यन्तरं क्रियापरिणामशक्तियुक्तं द्रव्यम्, बाह्य च नोदनाभिघाताद्यपेक्ष्योत्पद्यमानः पर्यायविशेष: द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रियेत्युपदिश्यते । (त. वा. ५, ७, १ ) । ५. क्रिया परिस्पन्दनलक्षणा 1 ( आव. नि. हरि वू. ११३२, पृ. ५२५) । ६. क्रिया देशान्तरप्राप्तिलक्षणा । (विशेषा. को. वृ. २५२३, पू. ६०५ ) । ७. किरिया णाम परिप्फंदणरूवा । ( धव. पु. १, पृ. १८ ) | ८. करणं क्रिया द्रव्यपरिणामः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ५- २२ ) । ६. उभयनिमित्तापेक्षः पर्यायविशेषो ब्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया । ( त श्लो. ५, ७) । १०. परिस्पन्दलक्षणा क्रिया । (प्र. सा. प्रमृत. वृ. २- ३७ ) । ११. प्रदेशान्तरप्राप्तिहेतुः परिस्पन्दनरूपपर्यायः क्रिया । (पंचा. का. प्रमृत. वृ. ६८ ) । १२. प्रयोग - विस्रसाभ्यां या निमित्ताभ्यां प्रजायते । द्रव्यस्य सा परिज्ञेया परिस्पन्दात्मिका क्रिया ॥ ( त. सा. ३-४७ ) । १३. या परिणतिः क्रिया सा X XX ॥ ( नाटकस. क. ३-६ ) । १४. क्षेत्रात् क्षेत्रान्तरगमनरूपा परिस्पन्दवती चलनवती क्रिया । (बृ. द्रव्यसं. २७) । १५. क्रिया पदार्थ परिस्थितिः । X X x क्रिया वाक्काय- मनोव्यापार: । (समाधित. टी. ६७ ) । १६. तत्र क्रिया प्रदेशानां परिस्पन्दश्चलात्मकः । (पञ्चाध्यायी २ - २६ ) । १७. बाह्याभ्यन्तर कारणवशात् संजायमानो द्रव्यस्य पर्याय: देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया । (त. वृत्ति श्रुत. ५-७ ) ; परिस्पदात्मिकः चलनरूपः पर्यायः क्रिया । (त. वृत्ति भुत. ५ - २२ ) ।
१ बाह्य श्रोर अभ्यन्तर कारण के वश से उत्पन्न
न. ४८
जैन - लक्षणावली
[क्रियावादी
होने वाली द्रव्य की जो पर्याय देशान्तरप्राप्ति का कारण होती है उसे क्रिया कहते हैं । २ क्रिया नाम गति का है जो प्रयोगगति, विस्त्रसागति और मिश्रिकागति के भेद से तीन प्रकार की है । ३ नयभेद से भेद को प्राप्त होने वाले स्वरूप से युक्त जीवादि तत्त्वों के विषय में जो प्रतिपत्ति होती है वह क्रिया कहलाती है । क्रियानय - यः उपदेशः क्रियाप्राधान्यख्यापनपर: स नयो नाम, क्रियानय इत्यर्थः । ( दशवे. नि. हरि. वृ. १४६ व ३७१, पू. ८१ व २८६; अनु. हरि. वृ., पृ. १२०; विशेषा. को. वृ. ४३३५, पृ. ६७६; आव. नि. मलय. वृ. २६६, पृ. ५८८ ) । क्रिया की प्रधानता के प्रकट करने वाले उपदेश को क्रियामय कहते हैं । क्रियारुचि - १. दंसण-नाण-चरिते तव-बिणए समिइ गुत्तीसु । जो किरियाभावरुई सो खलु किरियारुई नाम ॥ ( उत्तरा २-२५; प्रज्ञाप. गा. १२८ ) । २. नाणे दंसण चरणे तव विणए सच्च-समिइगुत्तीसु । जो किरिया भावरुई सो खलु किरियारुई नाम । ( प्रव. सारो. ६५८ ) । ३. यस्य भावतो ज्ञानाद्याचारानुष्ठाने रुचिरस्ति स खलु क्रियारुचिनमि । ( प्रव. सारो. वृ. २५८ ) ।
१ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, समिति और गुप्ति के अनुष्ठान में जिसकी भावपूर्वक रुचि होती है उसे क्रियारुचि कहते हैं । क्रियावादी १ ते एवमक्खति अबुज्झमाणा विरूवरूवाणि अकिरियवाई । जे मायइत्ता बहवे मणूसा भमन्ति संसारमणोवदगं ॥ णाइच्चो उएइ ण प्रत्थमेति न चंदिमा वड्ढति हायती वा । सलिला न संदति ण वंति वाया वंभो णियतो कसिणे हु लोए || जहाहि अन्धे सह जोतिणावि रुवाइ णो पस्सइ हीणणेते । संतं पि ते एवम किरि यवाई किरियं ण पसंति निरुद्धपन्ना || (सूत्रकृ. सू. १, १२, ६-८ पृ. २१९ ) । २. श्रत्थित्ति किरियवादी वयंति XXX 1 (सूत्रकृ. नि. १२, ११८ ) । ३. तत्र न कर्तारं विना क्रियासम्भव इति तामात्मसमवायिनीं वदन्ति, तच्छीलाश्च ये ते क्रियावादिनः । ते पुनरात्माद्यस्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणाः श्रमुनोपायेनाशीत्यधिकशतसंख्या विज्ञेयाः । जीवाजीवाश्रव-बन्ध-संवर
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रियाविशाल ]
निर्जरा, - पुण्य-पाप-मोक्षाख्यान् नव पदार्थान् विरचय्य परिपाट्या जीवपदार्थस्याधः स्व- परभेदावुप न्यसनीयौ, तयोरधो नित्यानित्यभेदो, तयोरप्यधः कालेश्वरात्म-नियति-स्वभावभेदाः पञ्च न्यसनीया । पुनश्चैवं विकल्पाः कर्तव्याः -- अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालतः इत्येको विकल्पः । विकल्पार्थश्चायम् - विद्यते खलु आत्मा स्वेन रूपेण नित्यश्च कालवादिनः । उक्तेनैवाभिलापेन द्वितीयो विकल्प ईश्वरकारणिनः, तृतीयो विकल्प आत्मवादिनः 'पुरुष एवेदं सर्वम्' इत्यादि, नियतिवादिनः चतुर्थविकल्पः, पञ्चमविकल्पः स्वभाववादिनः । एवं स्वत इत्यजहता लब्धाः पञ्च विकल्पाः । [ एवं परतोऽपि पञ्चविकल्पा लब्धव्याः, एवं नित्यत्वेन दश विकविकल्प: । ] एवमनित्यत्वेनापि दशैव, एते विशतिजीवपदार्थेन लब्धाः । अजीवादिष्वप्यण्टस्वेवमेव प्रतिपदं विंशतिर्विकल्पानाम् । श्रतो विशतिनंवगुणा शतमशीत्युत्तरं क्रियावादिनामिति । ( नन्दी, हरि. वृ. पृ. १०० ) । ४. क्रियां जीवादिपदार्थोऽस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः । (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. ११७, पृ. २१२ ) ; क्रियाम् अस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः । (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. १, १२ - १, पृ. २१५) ।
३ कर्ता के बिना क्रिया सम्भव नहीं है, इसीलिए उसका समवाय श्रात्मा में है; ऐसा कहने वाले क्रियावादी कहे जाते हैं। इसी उपाय से वे श्रात्मा श्रादि के अस्तित्व को जानते हैं । क्रियाविशाल -- १. लेखादिकाः कला द्वासप्ततिः, गुणाश्च चतुःषष्टिः स्त्रेणाः, शिल्पानि काव्यगुणदोष - क्रिया - छन्दोविचितिक्रिया क्रियाफलोपभोक्तारश्च यत्र व्याख्यातास्तत्क्रियाविशालम् । (त. वा. १, २०, १२; धव. पु. ६, पृ. २२४ ) । २. किरियाविशालं नाम पुव्वं दसहं वत्थूणं १०, विसदपाहुडाणं २०० णवको डिपदेहि ६००००००० लेखादिका: द्वासप्ततिकलाः स्त्रैणांश्चतुःषष्टिगुणान् शिल्पानि काव्यगुणदोषक्रियां छन्दोवचितिक्रियां च कथयति । ( धव. पु. १, पृ. १२२ ) । ३. किरिया विसालो णट्ट - गेय-लक्खण छंदालंकार - संढ-त्थी पुरिसल क्खणादीणं वणणं कुणई । ( जयध. १, पृ. १४८) । ४. नवकोटिपदं द्वासप्ततिकलानां छन्दोऽलंकारादीनां च प्रतिपादकं क्रियाविशालम् । ( श्रुतभ. टी. १३) ।
[ क्रीतदोष
५. क्रियाविशालं त्रयोदशम्, तत्र कायिक्यादयः क्रिया, विशालत्ति सभेदाः संयमक्रिया छन्दक्रिया विधानानि च वर्ण्यन्ते इति क्रियाविशालम । तत्पदपरिमाणं नवपदको घः । ( समवा. श्रभय. वृ. सू. १४७, पृ. १२१) । ६. छन्दोऽलंकार-व्याकरणकलानिरूपकं नवकोटिपदप्रमाणं क्रियाविशालपूर्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-२० ) । ७ किरियाविसालपुव्वं णवकोडिपदेहि संजुत्तं । संगीदसत्थछेदालंकारादी कला बहत्तरी य । चउसट्टी इत्थिगुणा चउसीदी जत्थ सिप्पाणं ।। विष्णाणाणि सुगभाघाणादी उसयं च पणवग्गं । सम्मद्द सणकिरिया वणिज्जते जिणिदेहि ।। ( अंगप. २, ११०-१२, पृ. ३०१) ।
१ लेखन आदि ७२ कलानों, ६४ स्त्री सम्बन्धी गुणों, शिल्पों, काव्य सम्बन्धी गुण-दोषस्वरूप, छन्द का चुनाव और क्रियाफल के उपभोक्ताओंों का जहां व्याख्यान किया जाता है उसे क्रियाविशालपूर्व कहते हैं । ५ तेरहवां पूर्व क्रियाविशाल है । जिसमें कायिकी आदि क्रियानों का विशाल है, अर्थात् जहां संयमक्रिया, छन्द क्रिया और विधानों का सभेद वर्णन किया जाता है, उसे क्रियाविशालपूर्व कहते हैं । क्रीडनधात्री ( उत्पादनदोष ) - तथा बालं स्वयं
यति क्रीडानिमित्तं च क्रियोपदिशति ( ? ) यस्मै दास दाता दानाय प्रवर्तते, तद्दानं गृह्णाति साधुस्तस्य क्रीडनघात्री नामोत्पादनदोषः । (मूला. वृ. ६-२८) ।
३७८, जैन- लक्षणावली
साधु दाता के बच्चे को स्वयं खिलाता है तथा खिलाने की विधि का जिस दाता को उपदेश देता है, वह दाता उससे दान में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार दाता के दान में प्रवृत्त होने पर यदि साधु उसके दान को ग्रहण करता है, तो वह क्रोडानधात्री नामक उत्पादन दोष का भागी होता है । क्रीतदोष --- १. द्रव्यादिविनिमयेन स्वीकृतं क्रीतम् । ( श्राचा. शी. वृ. २, १, पू. ३१७ ) । २. संयते भिक्षायां प्रविष्टे स्वकीयं परकीयं वा सचित्तादिद्रव्यं दत्त्वाहारं प्रगृह्य ददाति तथा स्त्रमंत्रं वा स्वविद्यां परविद्यां वा दत्त्वाहारं प्रगृह्य ददाति यत् स क्रीतदोषः । (मूला. वृ. ६-१६) । ३ यत् साध्वर्थं मूल्येन क्रीयते तत्क्रीतम् । (योगशा. स्वो विव. १-३८ ) । ४. XX X स्वान्यगोऽर्थविद्यार्थः क्रीतमाहृतम् ।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रीतकारित]
३७६, जैन-लक्षणावली
[क्रोधपिण्ड
(अन. ध.५-१३); स्वस्यात्मनः सचित्तद्रव्यैर्वृष- गुणपरिकल्पनानिमित्तत्वात । (त. भा. सिद्ध. व. भादिभिरचित्तद्रव्यैर्वा सुवर्णादिभिर्भावैर्वा प्रज्ञप्त्यादि- ८-२)। ६. स्व-परात्मनोरप्रीति लक्षण: क्रोधः । विद्या-चेटकादिमंत्रलक्षणैः अन्यस्य वा परस्य तैरु- (सूत्रकृ. शी. व. २, ५, २०)। ७. अविचार्य परभयर्द्रव्यभावैर्यथासम्भवमाहृतं संयते भिक्षायां स्यात्मनो वापायहेतु: क्रोधः। (नीतिवा. ४-३)। प्रविष्टे तान् दत्त्वानीतं यद् भोज्यद्रव्यं तत्क्रीतमिति ८. तत्र क्रोधनं क्रुध्यति वा येन सा क्रोधः-क्रोधमोहदोषः । (अन. ध. स्वो. टी. ५-१३) । ५. गवा- नीयोदयसम्पाद्यो जीवस्य परिणतिविशेष:-क्रोघमोदिना वा सचित्तेन गुडादिना वा अचित्तेन द्रव्येण हनीयकर्मेव वेति । (स्थानां. अभय. वृ. ४, १,२४६)। विद्या-मंत्रादिदानेन वा भावेन क्रीतं कीदमित्यच्यते। ६. अविचार्य परस्यात्मनो बाऽपायहेतुः क्रोधः। (भ. प्रा. मूला. २३०)। ६. विद्यया क्रीतं द्रव्य- (धर्मबि. मु. व. १-१५)। १०. क्रोधोऽङ्गकम्पदावस्त्र-भाजनादिना वा यत्क्रीतं तत्क्रीतं कथ्यते । हाक्षिरागवैवर्ण्यलक्षणः । (प्राचा. सा. ५-१६) । (भाव प्रा. टी. ६)।
११. परस्यात्मनो वा अपायमविचार्य कोपकरणं २ साध के भिक्षार्थ घर में प्रवेश करने पर अपने क्रोधः। (योगशा. स्वो. विव.१-५६)। १२. क्रोअथवा अन्य के सचित्त या प्रचित्त द्रव्य को अथवा धोऽक्षान्तिपरिणतिलक्षणः। (कर्मस्त. गो. व. १०, अपने या अन्य के मंत्रादिक दूसरे को देकर और प.८३)। १३. क्रोधः अप्रीतिपरिणामः । (जीवाजी. उससे बदले में भोज्य द्रव्य लेकर दान करने को मलय. वृ.१-१३)। क्रीतदोष कहते हैं।
१ अपने व पर के उपघात और अनुपकार के क्रोतकारित-क्रीतेन कारितमुत्पादितं क्रीतकारि- विचार से जो क्रूरतारूप परिणाम उत्पन्न होता है, तम् । (व्यव. भा. ३. पृ. ३५) ।
उसका नाम क्रोध है। २ मोहनीय कर्म के उदय से मूल्य देकर जो साधु के लिए उत्पन्न कराया जाता जो अप्रीतिरूप द्वेषमय परिणाम उत्पन्न होता है है, उसे क्रीतकारित कहते हैं।
वह क्रोध कहलाता है। क्रीतकत-क्रयणं क्रीतम, भावे निष्ठाप्रत्ययः, क्रोध (उत्पादनदोष)-१. क्रोधं कृत्वा भिक्षामसाम्बादिनिमित्तमिति गभ्यते, तेन कृतं निर्वर्तितं त्पादयति पात्मनो यदि तदा क्रोधो नामोत्पादनक्रीतकृतम् । (दशवै. हरि. व. सू. ३-२, पृ. ११६)। दोषः । (मूला. वृ.६-३४)। २. क्रोधादन्नार्जनं जो साध के निमित्त मुल्य देकर किया जाता है क्रोधचतुष्क xxx। (प्राचा. सा. ५-४२) । उसे क्रोतकृत कहते हैं।
३. तत्र हस्तिकल्यनगरे क्रोधबलेन भक्तबतो मुनेः क्रर-बन्धुषु निःस्नेहा: ऋराः। (नीतिवा. १४, क्रोधाख्यो दोष: सम्पन्न: । (अन. ध. स्वो. टी. ५,
२३)। ४. क्रोधं प्रयुज्योत्पादिता क्रोधदुष्टा । (भ. बन्धुजनों में स्नेह-रहित व्यवहार करने वाले (अव- प्रा. मूला. टी. २३०)। ५. क्रोधं कृत्वा अन्नोपार्जनं सर्प) को क्रूर कहते हैं।
क्रोधः। (भाबप्रा. टी. ६६)। क्रोध- १. स्व-परोपघात-निरनुग्रहाहितक्रौर्यपरि- १ दाता के ऊपर क्रोध प्रगट करके अपने लिए णामोऽमर्षः क्रोधः । (त. वा. ८, ९, ५)। २. क्रोधः भिक्षा उत्पादन करने को क्रोध नामक उत्पादन कषायविशेषो मोहकर्मोदयनिष्पन्नोऽप्रीतिलक्षण: दोष कहते हैं। प्रद्वेषप्रायः। (त. भा. हरि. व सिद्ध. व.७-३)। क्रोघकृतकायसंरम्भ-क्रोधनिमित्तं र ३. तत्रामर्षोऽप्रीतिर्मन्युलक्षणः क्रोधः । (त. भा. हरि. परस्य] हिंसाविषयः प्रयत्नावेशः क्रोधनकायसं. व.८-२)। ४. कः क्रोधकषायः ? रोष प्रामर्षः रम्भः। (भ. प्रा. विजयो.८११)। संरम्भः क्रोधः । (धव. पु. १, पृ. ३४९); क्रोधः क्रोध के वश अपने या अन्य के घातविषयक प्रयत्न रोषः संरम्भः इत्यनर्थान्तरम् । (धव. पु. ६, पृ. क्र धकृतकायसंरम्भ कहलाता है। ४१); हृदयदाहाङ्गकम्पाक्षिागेन्द्रियापाटवादिनि- क्रोधपिण्ड-१. विज्जा-तवप्पभावं रायकले वाऽवि मित्तजीवपरिणामः क्रोधः । (धव. पु. १२, पृ. वल्लभत्तं से । नाउ ओरस्सबलं जो लब्भइ कोध२८३) । ५. तत्रामर्षोऽप्रीतिर्मन्युलक्षणः क्रोधः, स्व- पिंडो सो।। अन्नेसि दिज्जमाणे जायंतो वा अल
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रोधवशार्तमरण]
३८०, जैन-लक्षणावली
[क्षणलवप्रतिबोधनता
द्धियो कुप्पे। कोहफलम्मिावि दिठे जो लब्भइ रीर-मानसदुःखसन्तापात् क्लिश्यन्त इति क्लिश्यकोहपिंडो सो। (पिडनि. ४६२-६३)। २. विद्या- माना: । (त. वा. ७, ११, ७)। तपःप्रभावज्ञापनं राजपूजादिख्यापनं क्रोधफलदर्शनं १ असातावेदनीय के उदयजनित पीड़ा के अनुभव वा भिक्षार्थं कुर्वतः क्रोधपिण्डः। (योगशा. स्वो. से दुखी हए जीवों को क्लिश्यमान कहते हैं। विव. १-३८)।
क्लीब-देखो नपुंसक । क्लीबः यः स्त्रियाभ्यर्थितः १ अपनी विद्या (उच्चाटन-मारणादि) व तप के कामाभिलाषासहः, स क्लीबः यस्य स्त्रीदर्शनाद प्रभाव को तथा राजकुल में प्राप्त स्नेहभाजनता
कल में प्राप्त स्नेहभाजनता बीजं क्षरति । (प्रा. दि. पृ.७४)। रूप प्राभ्यन्तर सामर्थ्य को जतला कर जो प्राहार जो स्त्री से प्रार्थित होकर काम की अभिलाषा को प्राप्त किया जाता है वह क्रोधपिण्ड कहलाता है। नहीं सह सकता है, अथवा स्त्री के दर्शनमात्र से अथवा अन्य के लिए दिये जाने पर याचना करते जिसका वीर्य क्षरित हो जाता है उसे क्लीब कहते हए भी यदि प्राप्त नहीं होता है तो साथ कूपित है। ऐसा व्यक्ति दीक्षा के योग्य नहीं होता। होता है। पर साधु का कुपित होना ठीक नहीं, ऐसा क्लेशवरिगज्या-१. अस्मिन् देशे दासा दास्यश्च जानकर अथवा क्रोध के फलस्वरूप मरण या शाप सुलभास्तानमुं देशं नीत्वा विक्रये कृते महानर्थलाप्रादि के निर्दिष्ट करने पर दाता के द्वारा जो प्राहार भो भवतीति क्लेशवणिज्या। (त. वा. ७, २१, दिया जाता है उसे क्रोपिण्ड जानना चाहिए। २१; चा. सा. पृ. ६) । २. अस्मात् पूर्वादिदेशात्
दासीन्दासान् अल्पमूल्यसुलभान् प्रादाय अन्यस्मिन् क्रोधवशार्तमरण-अनुबन्धरोषो य प्रात्मनि परत्र
गुर्जरादिदेशे तद्विक्रयो यदि क्रियते तदा महान् धनउभयत्र वा मारणवशोऽपि मरणवशो भवति । तस्य
लाभो भवेदिति क्लेशवणिज्या कथ्यते । (त. वृत्ति क्रोधवशार्तमरणं भवति । (भ. प्रा. विजयो. २५,
श्रुत. ७-२१)। पृ. ८९)।
१ इस प्रदेश में दासी-दास सुलभ हैं-अल्प मूल्य क्रोध के वश होकर अपने, अन्य के अथवा दोनों के ही घात में प्रवृत्त होने पर जो स्वयं मृत्यु के वश
में उपलब्ध होते हैं, इन्हें अमुक देश में ले जाकर
बेचने पर भारी धनलाभ होगा, इस प्रकार के होता है उसके इस मरण को क्रोधवशार्तमरण कहा
व्यापार को क्लेशवणिज्या कहते हैं। जाता है।
क्षण-१. परिमाणोत्प्रदन्तर-(परमाणोस्तदन्तर-) क्रोधादिपिण्ड-क्रोध-मान-माया-लोभैरवाप्तः क्रो
व्यतिक्रमकालः क्षणः। (सिद्धिवि. टी. ५, १६, पृ. धादिपिण्डः। (प्राचा. सू. शी. व. २, १, २७३,
३४६, पं. २७)। २. थोवो खणो नाम । सो च पृ. ३२०)।
संखेज्जावलियमेत्तो होदि । कुदो ? सखेज्जावलियाक्रोध, मान, माया, और लोभ के द्वारा प्राप्त किये
हि एगो उस्सासो, सत्तुस्सासेहि एगो थोवो होदि त्ति जाने वाले प्राहार को क्रोधादिपिण्ड कहते हैं । यह
परियम्मवयणादो। (धव. पु. १३, पृ. २६६)। सोलह उत्पादन दोषों में क्रोधादि के क्रम से ७, ८,
१ एक परमाणु का दूसरे परमाणु के प्रतिक्रमण का है और १०वा दोष है।
जो काल है, उसे क्षण (समय) कहते हैं । २ स्तोक कोश-देखो गव्यूत, गव्यूति । १.XXXदोदंड- का नाम क्षण है और वह स्तोक सात उच्छवास सहस्सयं कोसं । (ति. प. १-११५)। २. घणुदु- प्रमाण होता है। सहस्सकोसोxxx॥ (संग्रहणी सू. २४७)। क्षरणलवप्रतिबोधनता (खरगलवपडिबुज्झरणवा) ३. द्वौ धनःसहस्री गव्यूतम् । (संग्रहणा .. -खण-लवा णाम कालविसेसा । सम्महसण-णाण२४५)।
वद-सीलगुणाणमुज्जालणं कलंकपक्खालणं संधुक्ख१ दो हजार धनुष का एक कोश होता है।
णं वा पडिबुज्झणं णाम, तस्स भावो पडिबुज्झक्लिश्यमान-१. असद्वेद्योदयापादितक्लेशाः क्लिश्य- णदा। खण-लवं पडि पडिबुज्झणदा खण-लवपडिमानाः। (स. सि. ७-११)। २. प्रसवद्योदयापा- बुज्झणदा । (धव. पु.८, पृ. ८५)। जितक्लेशाः क्लिश्यमानाः। असदेद्योदयापादितशा- शण और लव ये काल के भेव हैं। सम्यग्दर्शन.
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
[क्षपितकर्माशिक
१ प्राठों कर्मों की मूल व उत्तर भेदभूत प्रकृतियों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्धों का जो जीव के निर्मूल विनाश - पृथग्भाव होता है, इसका नाम क्षपण है । २ क्रोध, मान, माया और मद का क्षय करने वाले जीव को क्षपण कहा जाता है । यह उसकी सार्थक संज्ञा है । क्षपितकर्माशिक - १. पल्लासंखियभागोणकम्मट्ठइमच्छिम्रो णिगोएसु । सुहुमेसुऽभवियजोग्गं जहन्नयं कट्टु णिग्गम्म || जोग्गेसुसंखवारे सम्मत्तं लभिय देसविरइं च । श्रट्ठक्खुत्तो विरइं संजोयणहा तइयवारे || चउरुवसमित्तु मोहं लहूं खवेंतो भवे खवियकम्मो | पाएण तर्हि पगयं पडुच्च काओ वि सविसेसं । ( कर्मप्र. २, ६४-६६, पृ. १२६) । २. जो जीव हुमणिगोदजीवेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणियं कम्म ट्ठिदिमच्छिदो । तत्थ य संसरमाणस्स बहवा प्रपज्जत्तभवा, थोवा पज्जत्तभवा । दीहाम्रो अपज्जत्तद्धाओ, रहस्साओ पज्जत्तद्धाम्रो । X X X एवं णाणाभवग्गहणेहिं प्रट्ठसंजमकंडयाणि प्रणुपालइत्ता चदुक्खुत्तो कसाए उवसामइत्ता पलिदोवसमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि संजमासंजमकंयाणि सम्मत्त कंडयाणि च प्रणुपालइत्ता एवं संसरिदूण अपच्छिमे भवग्गहणे पुणरवि पुष्वकोडाउएसु मणुसे उबवण्णो । सव्वलहुँ जोणिणिक्खमणजम्मण जादो श्रवस्सियो । संजमं पडिवण्णो । तत्थ य भवद्विदि पुव्वकोडि देसूणं संजममणुपालइत्ता थोवावसेसे जीविदव्वए त्ति य खवणाए अब्भुट्टिदो ।
क्षपक - १. चारित्रमोहक्षपणकारिणः क्षपकाः । ( धव. पु. १, पृ. १८२) । २. मोहक्खयं कुणतो उत्तो खव जिणिदेहि । ( भावसं. दे. ६६० ) । ३. तपस्वी क्षपक: । ( स्थाना. अभय वृ. ३, ४, २०८ ) । ४. क्षपकः क्षपकश्रेणिः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ६६६, पृ. १) ।
१ चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय करने वाले साधुनों चरिमसमयछदुमत्थो जादो । तस्स चरिमसमयछदुको क्षपक कहते हैं । मत्थस्स णाणावरणीयवेदणा दव्वदो जहण्णा । ( ष. क्षपकश्रेणी - देखो क्षायिकी श्रेणी । यत्र तत् खं. ४, २, ४, ४ε-७५ – पु. १०, पृ. २६८-६६ ) । ( मोहनीय कर्म) क्षयमुपगमयन्नुद्गच्छति सा क्षपक२ जो जीव पल्योपम के श्रसंख्यातवें भाग से होन कर्मस्थितिकाल (७० कोड़ाकोड़ि सा.) तक सूक्ष्म श्रेणी । (त. वा. ६, १, १८) । मोहनीय कर्म का क्षय करता हुझा प्रात्मा जिस निगोद जीवों में रहकर अपर्याप्त व पर्याप्त भवों श्रेणी - पूर्वकरण, श्रनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय को यथाक्रम से अधिक व अल्प ग्रहण करता रहा । इस प्रकार से परिभ्रमण करता हुआ वहां से मौर क्षीणमोह इन चार गुणस्थानों रूप नसैनीनिकलकर क्रम से बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, पर श्रारूढ़ होता है उसे क्षपकश्रेणी कहते हैं । क्षपरण- १. खवणं णाम कि ? अटुण्हं कम्माणं पूर्वकोटि प्रमाण प्रायु वाले मनुष्य, दस हजार वर्ष मूलुत्तरभेयभिण्णपय डि-द्विदि - अणुभाग-पदेसाणं जीकी श्रायु वाले देव, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, वादो जो णिस्सेसविणासो तं खवणं गाम । ( धव. सूक्ष्मनिगोद जीव पर्याप्त और बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त; इन जीवों में उत्पन्न होकर यथायोग्य पु. १, पू. २१५-१६) । २. मान-माया-मदामर्षसम्यक्त्व व मिथ्यात्व श्रादि को प्राप्त होता रहा । क्षपणात्क्षपणः स्मृतः । ( उपासका ८५९ ) ।
क्षत्रिय ]
ज्ञान, व्रत, शील और गुणों का निर्मल करना, श्रथवा कलंक -- कर्ममल - का धोना या भस्म कर देना, इमका नाम प्रतिबोधनता है। प्रत्येक क्षण या लव में इस प्रकार की प्रतिबोधनता का रहना, इसे क्षण- लवप्रतिबोधनता कहते हैं। वह तीर्थंकर प्रकृति की बन्धक षोडशकारणभावनाओं में से एक है । क्षत्रिय - १. रक्खणकरणनिउत्ता जे तेण नरा महन्तदढसत्ता । ते खत्तिया XXX ।। ( पउमच. ३ - ११५ ) । २. क्षत्रियः क्षततस्त्राणात् X××। ( पद्मपु. ६ - २०९ ) । ३. क्षत्रियाः क्षतितस्त्राणात् × × × । (ह. पु. ε- ३९ ) । ४. क्षत्रियाः शस्त्रजीवित्वमनुभूय तदाऽभवन् । ( म. पु. १६-१८४); क्षतत्राणे नियुक्ता हि क्षत्रियाः शस्त्रपाणयः । ( म. पु. १६ - २४३ ) ; x x x क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । (म. पु. ३८ - ४६ ) । ५. 'क्षण हिंसायां' क्षणनानि क्षतानि तेभ्यस्त्रायत इति क्षत्रियः राजा भवति । (उत्तरा. शा. वृ. ३-४, पू. १८२ ) । १ श्रतिशय बलशाली जो मनुष्य भगवान् श्रादिनाथ के द्वारा रक्षणकार्य में नियुक्त किये गये थे वे क्षत्रिय कहलाये ।
३८१, जैन - लक्षणावली
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षमण] ३८२, जैन-लक्षणावली
[क्षमा इस प्रकार नाना भवों में परिभ्रमण करता हुआ अशक्तस्य वा प्रतीकारानुष्ठाने । (त. भा. हरि. वृ. पाठ संयमकांडकों का पालन कर, चार बार ६-६)। ८. क्षमा सहनम् । (त. भा. सिद्ध.व. कषायों को उपशमा कर, और पल्योपम के असंख्या- ६-१३); क्षमणं सहनं प्रात्मनः शक्तिमतः। (त. तवें भाग मात्र संयमासंयमकाण्डक व सम्यक्त्वका- भा. सिद्ध. वृ.ह-६)। ६. क्रोधोत्पत्तिनिमित्ताविण्डकों का परिपालन कर अन्त में फिर से भी जो सह्याक्रोशादिसंभवे कालुष्याभावः क्षमा । (त. इलो. पूर्वकोटि प्राय वाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ व वहां ६-६)। १०. क्रोधादिनिमित्तसान्निध्येऽपि कालूसबसे अल्प काल में योनिनिष्क्रमणरूप जन्म से पाठ ष्याभावः क्षमा स्नेहकार्याद्यनपेक्षः । (भ. प्रा. वर्ष का होकर संयम को प्राप्त हमा। वहां कुछ विजयो. ४६)। ११. तत्थ खमा पाकुट्रस्स वा कम पूर्वकोटि मात्र भवस्थिति तक संयम का परि तालियस्स वा अहियासेंतस्स कम्मक्खनो भवइ, पालन करते हुए जो थोड़ी सी आयु के शेष रह प्रणहियासितस्स कम्मबंधो भवइ, तम्हा कोहस्स जाने पर क्षपणा में उद्यत होकर अन्तिम समय- निग्गहो कायवो, उदयपत्तस्स व विफलीकरणं, एस वर्ती छमस्थ-क्षीणकषाय गुणस्थान के अन्तिम खमत्ति वा तितिक्खत्ति वा कोषनिग्गहे त्ति वा समय को प्राप्त हया है; वह क्षपितकौशिक कह- एगट्ठा । (दशव. च. पृ. १८)। १२. क्रोधोत्पत्तिलाता है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्त- निमित्तानामत्यन्तं सति संभवे । आक्रोश-ताडनाराय कर्मों की जघन्य द्रव्यवेदना इसी क्षपितकर्मा- दीनां कालुष्योपरमः क्षमा ॥ (त. सा. ६-१४)। शिक के होती है।
१३. तपोबृहणकारणशरीरस्थितिनिमित्त निरक्षमरण-१. खमणं स्वस्यान्यभूतापराधक्षमा। (भ. वद्याहारान्वेषणार्थ परगृहाण्यपसर्पतो भिक्षोष्टजनाप्रा. विजयो. ७०)। २. क्षमणं स्वस्यान्यकृताप- क्रोशनोत्प्रहसनाऽवज्ञानुताडनशरीरव्यापादनादीनां राधक्षमा। (अन.ध. स्वो. टी. ७-६८)।
क्रोधोत्पत्तिनिमित्तानां सन्निधाने कालुष्याभावः दूसरों के द्वारा किये गये अपराधों के स्वयं क्षमा क्षमा। (चा. सा. पू. २४)। १४. शरीरस्थितिकरने को क्षमण कहते हैं। यह अह-लिंगादि (अन. हेतुमार्गणार्थ परकुलान्युपयतस्तीर्थयात्राद्यर्थं वा पर्यघ. पृ. ५३२) में से एक है।
टतो यतेर्दुष्टजनाक्रोशोत्प्रहसनाऽवज्ञा-ताडन-भर्त्सनक्षमा-१. कोहप्पत्तिस्स पुणो वहिरंग जदि हवेदि शरीरव्यापादनादीनां सन्निधाने स्वान्ते कालुष्यानसक्खादं । ण कुणदि किंचि वि कोहं तस्स खमा त्पत्तिः क्षान्तिः । (मूला. वृ. ११-५)। १५. क्षमा. बोदि धम्मो त्ति ।। (द्वादशान. ७१) । २. शरीर- अनभिव्यक्त क्रोध-मानस्वरूपस्य द्वेषसंज्ञितस्याप्रीस्थितिहेतमार्गणार्थ परकुलान्युपगच्छतो भिक्षोर्दुष्ट- तिमात्रस्याभावः, अथवा कोथ-मानयोरुदयनिरोधः । जनाक्रोश-प्रहसनावज्ञा-ताडन - शरीरव्यापादनादीनां (समवा. अभय. वृ. २७, पृ. ४५)। १६. क्रोधस्यानसन्निधाने कालुष्यानुत्पत्तिः क्षमा । (स. सि. ६, त्पाद उत्पन्नस्य वा विफलीकरणम् । (योगशा. स्वो. ६)। ३. क्षमागुणांश्चानायासादीननुस्मृत्य क्षमित- विव. ३-१६) । १७. क्रोधोत्पत्ति निमित्तानां सन्निव्यमेवेति क्षमाधर्मः । (त. भा. ६-६, पृ. १६१)। धानेऽपि कालुष्योपरमः क्षमा। (अन. ध. स्वो. टी. ४. कोहेण जो ण तप्पदि सुर-णर-तिरिएहिं कीर- ६-२)। १८. क्षमा दुर्निवार कालुष्यकारणोत्पत्तामाणेऽदि । उवसग्गे वि रउ तस्स खिमा णिम्मला वपि कोपाभावः। (सा. घ. स्वो. टी. ५-४७) । होदि । (कातिके. ३६४)। ५. क्रोधोत्पत्तिनिमि- १६. कायस्थितिकारणविष्वाणाद्यन्वेषणाय परगृहान् ताविषद्याक्रोशादिसंभवे कालुष्योपरमः क्षमा । पर्यटतो मुनेदुष्टपापिष्टपंचजनानामसह्यगालिप्रदानशरीरस्थितिहेतमार्गणार्थ परकुलान्युपगच्छतो भिक्षो- बर्करवचनाबलेहनपीडाजननकायकायविनाशनादीनां दष्ट जनाक्रोशोत्प्रहसनावज्ञान-ताडन• शरीरव्यापाद- समुत्पत्ती मनोऽनच्छतानुत्पादः क्षमा कथ्यते । (त. नादीनां क्रोधोत्पत्तिनिमित्तानां सन्निधाने कालुष्या- वृत्ति श्रुत. ६-६)। २०. तपोबृहणकारणशरीरभावः क्षमेत्युच्यते । (त. वा. ६, ६, २)। ६. क्षमा स्थितिनिमित्तं निरवद्याहारान्वेषणार्थं परगृहाणि क्रोधनिग्रहः । (प्राव. हरि. वृ. ४, पृ. ६६०)। गच्छतो भिक्षोभ्रंमतः दुष्टमिथ्यादृग्जनाक्रोशनात् ७. क्षमणं सहनपरिणामः प्रात्मनः शक्तिमतः प्रहसनाऽवज्ञानुताडन-यष्टि-मुष्टिप्रहार-शरीरव्यापा
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षमापण ]
दनानीनां क्रोधोत्पत्तिनिमित्तानां सन्निघाने कालुष्याभावः क्षमा प्रोच्यते । ( कार्तिके. टी. ३६३) । १ क्रोध की उत्पत्ति के निमित्तभूत बाह्य कारण के प्रत्यक्ष में होने पर भी जरा भी कोध नहीं करना, इसका नाम क्षमा है ।
क्षमापरण- १. खामणं प्राचार्यादीनां क्षमाग्रहणम् । (भ. श्री. विजयो. व मूला. ७० ) । २. क्षमापणमाचार्यादीनां क्षमाग्राहणम् । ( श्रन. ध. स्वो. टी. ७, ६८) ।
१ श्राचार्य श्रादि गुरु जनों से क्षमा मांगने को क्षमापण कहते हैं । यह श्रहं लिंगादि में से एक है। क्षय - १. क्षय: श्रात्यन्तिकी निवृत्तिः । ( स. सि. २ - १ ) । २. क्षयो निवृत्तिरात्यन्तिकी । यथा तस्यैवाम्भसोऽघःप्रापितपङ्कस्य शुचिभाजनान्तरसंक्रा न्तस्य प्रसादः आत्यन्तिकः, तथा श्रात्मनोऽपि कर्मणोऽत्यन्तविनिवृत्तो विशुद्धिरात्यन्तिकी क्षय इत्युच्यते । (त. वा. २, १ २ ) । ३. सव्वघा दणसत्तीए प्रभावो खम्रो उच्चदि । ( धव. पु. ५, पृ. १६८ ) ; कम्माणं णिमूलक्खएणुप्पण्णपरिणामो खश्रो णाम । ( धव. पु. ७, पृ. ६० ) ; खप्रो णाम प्रभावो । (धव. पु. ७, पृ. ६० ) । ४. तेषां ( कर्मणां ) श्रात्यन्तिकी हानि: क्षय: X X x (त. इलो. २, १, ३) । ५. ( कर्मणाम् ) अत्यन्त विश्लेषः क्षयः । (पंचा. का. श्रमृत. वृ. ५६) । ६. क्षय श्रात्यन्तिकी निवृत्तिः । ( श्रन. ध. स्वो. टी. २- ४६ ) ।
१ कर्मों की प्रात्यन्तिक निवृत्ति को - सर्वथा प्रभाव को -क्षय कहते हैं । क्षयोपशम - १. सब्वघादिफद्दयाणि प्रणतगुणही - णाणि होण देसघादिफद्दयत्तणेण परिणमिय उदयमागच्छति, तेलिणंतगुणहीणत्तं खप्रो णाम, देसघादिफद्दयसरूवेणवाणमुवसमो, तेहि खप्रोवसमेहि संजुत्तोदो खोवसमो णाम । ( धव. पु. ७, पृ. ε२) । २. XXX तदुभयात्मकः । क्षयोपशम उद्गीतः क्षीणाक्षीणबलत्वतः । (त. इलो. २, १, ३) । ३. सर्वप्रकारेणात्मगुणप्रच्छादिकाः कर्मशक्तयः सर्वघातिस्पर्द्धकानि भण्यन्ते विवक्षितक देशेनात्मगुणप्रच्छादिकाः शक्तयो देशघातिस्पर्द्धकानि भण्यन्ते । सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयाभाव एवं क्षयस्तेषामेवास्तित्वमुपशम उच्यते, सर्वघात्युदयाभावलक्षणक्षयेण सहित उपशमः तेषामेकदेशघातिस्पर्द्धकानामुदय
३८३, जैन-लक्षणावलो
[क्षयोपशमनिमित्त प्रवधि
श्चेति समुदायेन क्षयोपशमो भण्यते । (बृ. द्रव्यसं. टी. ३४; अन. ध. स्वो टी. २- ४६ ) ।
१ सर्वघाति स्पर्द्धक अनन्तगुणहीन होकर देशघाति स्पर्द्धक स्वरूप से परिणत होते हुए उदय को प्राप्त होते हैं, उनकी प्रनन्तगुणहीनता का नाम क्षय है; उन्हींका देशघाति रूप में अवस्थित रहना, यह उपशम है, इस ग्रकार के क्षय और उपशम के साथ जो उदय हुआ करता है, इसे क्षयोपशम कहते हैं । क्षयोपशमनिमित्त अवधि - १. अवधिज्ञानावरणस्य देशघानिस्पर्द्धकानामुदये सति सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयाभाव: क्षय:, तेषामेवानुदयप्राप्तानां सदवस्था उपशमः, तौ निमित्तमस्येति क्षयोपशमनिमित्तः । ( स. सि. १-२२; त. वा. १-२२ ) । २. गुणपडिवन्न इत्यादि, उत्तरुत्तरचरणगुणवि सुज्झमाणवेत्रवा तो अवधिणाण- दंसणावरणाण खप्रोवसमो भवति, तक्खयोवसमेण अवधि उप्पज्जइ । ( नन्दी. चू. पू. १३ । ३. तथा गुणप्रत्ययाः क्षयोपशमनिर्वृत्ताः क्षायोपशमिका: काश्चन ( अवधिज्ञानस्य प्रकृतयः ), ताश्च तिर्यङ्नराणाम् । (श्राव. नि. हरि. वृ. २५) । ४. क्षयनिमित्तोऽवधिः शेषाणामुपशमनिमित्तः । क्षयोपशम निमित्त इति वाक्यभेदात् क्षायिकोपशमिकक्षायोपशमिकसंयमगुणनिमित्तस्यावधिरवगम्यते । कार्य कारणोपचारात् क्षयादीनां क्षायिकसंयमादिषूपचार:, तथाभिधानोपपत्तेः । (त. इलो. १- २२, पृ. २४४ ) । ५. काश्चन पुनरन्यतमा 'गुणप्रत्ययाः' क्षयोपशमेन निर्वृत्ताः क्षायोपशमिकाः, ताश्च तिर्यङ्मनुष्याणाम् । ( श्राव. नि. मलय. वू. २५ )। ६. संप्रति क्षायोपशमिकस्वरूपं प्रतिपादयति XX X अत्र निर्वचनमभिधातुकाम ग्राहक्षायोपशमिकं येन कारणेन तदावरणीयानाम्अवधिज्ञानावरणीयानाम् - कर्मणामुदीर्णानां क्षयेण, अनुदीर्णानाम् - उदयावलिकामप्राप्तानाम् उपशमेन विपाकोदयलक्षणेदावधिज्ञानमुत्पद्यते तेन कारणेन क्षायोपशमिकमित्युच्यते । ( नन्दी. सू. मलय. वृ. ८, पृ. ७७ ) । ७. श्रवधिज्ञानावरणस्य देशघातिस्पर्द्धकानामुदयाभावः क्षयः, तेषामेव सर्वधातिस्पर्द्धकानामुदयप्राप्तानां सदवस्था उपशमः, क्षयश्च उपशमश्च क्षयोपशमी, तो निमित्तं कारणं यस्यावधेः स क्षयोपशमनिमित्तः । (त. वृत्ति श्रुत. १ - २२) ।
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षयोपशमलब्धि]
३८४, जैन-लक्षणावली [क्षायिक-अनन्तवीर्य १ अवधिज्ञानावरणकर्म के सर्वघाति स्पर्द्धकों का ४. धर्मप्रणिधानात् क्रोधनिवृत्तिर्मनोवाक्कायः उदयाभावीक्षय, अनदयप्राप्त उन्हीं का सदवस्था- क्षान्तिः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-१३)। ५. धर्मरूप उपशम और देशघाति स्पर्द्धकों का उदय होने प्रणिधानात् क्रोधादिनिवृत्तिः क्षान्तिः । (त. इलो. पर जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है उसे क्षयोपशम- ६-१२)। ६. क्षान्तिः क्रोधोदयनिग्रहः। (प्रौपपा. निमित्तक अवधि कहते हैं। इसे गुणप्रत्यय अवधि अभय. वृ. १६, पृ. ३३)। ७. क्षान्तिः क्षमा भी कहा जाता है।
शक्तस्याशक्तस्य वा सहनपरिणामः । (योगशा. स्वो. क्षयोपशमलब्धि-१. पूव्वसंचिदकम्ममलपडलस्स विव.९३) । ८. क्षान्तिर्गणक्षमापणा । (अन. प. अणुभागफद्दयाणि जदा विसोहीए पडिसमयमणंत- स्वो. टी. ७-१८)। गुणहीणाणि होइणुदीरिज्जति तदा खोवसमलद्धी १ क्रोध आदि के प्रभाव को क्षान्ति कहते हैं। हीदि । (धव. पु. ६, पृ. २०४) । २. कम्ममल- क्षायिक-अनन्त-उपभोग-१. निरवशेषस्योपपडलसत्ती पडिसमयमणंतगुणविहीणकमा। होद्णु- भोगान्तरायस्य प्रलयात् प्रादुर्भूतोऽनन्त उपभोगः दीरदि जदा तदा खग्रोवसमलद्धी दु ।। (ल. सा. ४)। क्षायिकः, यतः सिंहासन-चामर-छत्रत्रयादयो विभू३. देशघातिस्पर्द्धकानामुत्कृष्टानुभागानन्तै कभागमा- तयः। (स.सि. २-४)। २. निरवशेषोपभोगान्तत्राणामुदये सत्यपि सर्वघातिस्पर्द्ध कानामुत्कृष्टानुभा- रायप्रलयादनन्तोपभोगः क्षायिकः। निरवशेषस्योपगानन्तबहुभागप्रमाणानामुदयाभावः क्षयः, तेषामेवा- भोगान्तरायकर्मणः प्रलयात् प्रादुर्भूतोऽनन्त उपभोगः नुदयप्राप्तानां कर्मस्वभावेन सदवस्था उपशमः, तयो- क्षायिको यत्कृताः सिंहासन-बालव्यजनाशोकपादपलब्धिः क्षयोपशमलब्धिः । (ल. सा. टी. ४)। छत्रत्रय - प्रभामण्डल-गम्भीरस्निग्धस्वरपरिणामदेव१ पूर्वसंचित कर्मों के अनुभागस्पर्द्धक जब विशुद्धि दुन्दुभिप्रभृतयो भावाः। (त. वा. २, ४, ५) । के वश प्रतिसमय अनंतगुणे हीन होकर उदीरणा ३. उपभोगान्त रायक्षयात् क्षायिकोऽनन्त उपभोगः । को प्राप्त होते हैं तब क्षयोपशमलब्धि होती है। कोऽसौ उपभोगः? सिंहासन-चामर-छत्रत्रयादिकः । क्षयोपशम सम्यक्त्व- देखो क्षायोपशमिक । (त. वृत्ति श्रुत. २-४)। १. मिच्छत्तं जसुदिन्नं तं खीणं अणुइयं च उवसंतं । १निःशेष उपभोगान्तराय कर्म के क्षय से केवली मीसीभावपरिणयं वेयिज्जतं खग्रोवसमं । (धा. प्र. को जो सिंहासन, चामर और क्षत्रत्रय प्रादिरूप ४४)। २. क्षयो मिथ्यात्वमोहनीयस्यानन्तानुबन्धि- विभूतियां प्राप्त होती हैं उन्हें क्षायिक अनन्त उपनां च उदितानां देशतो निर्मुलनाशः, अनुदितानां भोग कहते हैं।। चोपशमः, क्षयेण युक्त उपशमः, स प्रयोजनमस्य क्षायिक-अनन्तभोग-१. कृत्स्नस्य भोगान्त रायक्षायोपशमिकम् । तच्च सत्कर्मवेदनाद्वेदकमप्युच्यते ।। स्य तिरोभावादाविर्भूतो अतिशयवाननन्तो भोग: (योगशा. स्वो. विव. २-२)।
क्षायिकः, यतः कुसुमवृष्टयादयो विशेषाः प्रादुर्भयात्व उदय को प्राप्त हुआ है वह क्षीण वन्ति । (स. सि. और जो उदय को अप्राप्त है वह उपशान्त है, इस यतिरोभावात् परमप्रकृष्टो भोगः । कृत्स्नस्य भोगाप्रकार क्षय के साथ उपशमरूप मिश्र अवस्था को न्तरायस्य तिरोभावादाविर्भूतोऽतिशयवाननन्तो भोगः प्राप्त होना, इसका नाम क्षयोपशम है । इस प्रकार क्षायिकः, यत्कृताः पञ्चवर्णसुरभिकुसुमवृष्टिके क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले तत्वार्थश्रद्धान को विविधदिव्यगन्ध- चरणनिक्षेपस्थानसप्तपद्मपंक्तिसुगक्षयोपशम या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहा जाता है। घिधूप-सुखशीतमारुतादयो भावाः । (त. वा. क्षान्ति-देखो क्षमा। १. क्रोधादिनिवृत्तिः क्षान्तिः। २,४,४)। (स. सि. ६-१२)। २. धर्मप्रणिधानात् क्रोधादि- १ सम्पूर्ण भोगान्तराय कर्म के विनाश से जो पुष्पनिवृत्तिः क्षान्ति: । क्रोधादेः कषायस्य शुभपरिणाम- वृष्टि प्रादि रूप अतिशयवान् अनन्त भोगसामग्री भावनापूर्विकानिवृत्तिः क्षान्तिरित्युच्यते । (त. वा. प्राप्त होती है उसे क्षायिक अनन्त भोग कहते हैं। ६, १२, ६)। ३. क्षान्तिश्च आक्रोशादिश्रवणेऽपि क्षायिक-अनन्तवार्य-१. वीर्यान्तरायस्य कर्मणोक्रोधत्यागश्च । (दशवै. नि. हरि. व. ३४६)। ऽत्यन्तक्षयादाविभूतमनन्तवीर्य क्षायिकम् । (स. सि.
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षायिक अभयदान ]
२ - ४ ) । २. वीर्यान्तरायस्यात्यन्तसंक्षयादनन्तवीर्यम् । श्रात्मनः सामर्थ्यस्य प्रतिबन्धिनो वीर्यान्तरायकर्मणोऽत्यन्तसंक्षयादुद्भूतवृत्तिः क्षायिकमनन्तवीर्यम् । (त. वा. २, ४, ६ ) । ३. वीर्यान्तरायक्षयात् क्षायिकमनन्तवीर्यम् । किं तत् क्षायिकं वीर्यम् ? यवलात् केवलज्ञानेन केवलदर्शनेन च कृत्वा सर्वद्रव्याणि सर्व पर्यायांश्च ज्ञातुं दृष्टुं च केवली शक्तीति । (त. वृत्ति श्रुत. २-४ ) ।
१ वीर्यान्तराय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से केवली के जो अनन्त शक्ति प्रगट होती है उसे क्षायिक प्रनन्तवीर्य कहते हैं । क्षायिक श्रयदान - १. दानान्तरायस्यात्यक्षयादनन्तप्राणिगणानुग्रहकरं क्षायिकमभयदानम् । ( स. सि. २ - ४ ) । २. अनन्तप्राणिगणानुग्रहकरं सकलदानान्तरायक्षयादभयदानम् । दानान्तरायस्य कर्मणोऽत्यन्तसंक्षयादाविर्भूतं त्रिकालगोचरानन्तप्राणिगणानुग्रहकरं क्षायिकमभयदानम् । (त. वा. २, ४, २ ) । ३. दानान्तरागक्षयात् क्षायिकमनन्तप्राणिगणानुग्रहकरमभयदानम् । (त. वृत्ति श्रुत. २-४) ।
१ दानान्तरायकर्म के निःशेष विनाश से त्रिकालवर्ती अनन्त प्राणियों का अनुग्रह करने वाला क्षायिक अभयदान प्रगट होता है ।
क्षायिक उपभोग - १. उपभोगः क्षायिकः, सोऽप्युचितोपभोगसाधनावाप्त्यबन्धहेतुरेव । XXX पुनरुपभुज्यत इत्युपभोग। ( त. भा. हरि. वृ. २-४)। २. विषयसम्पदि सत्यां तथोत्तरगुणप्रकर्षात् तदनुभव उपभोग:, पुनः पुनरुपभोगाद् वा वस्त्र पात्रादिरुपभोगः । स च निरवशेष उपभोगान्त रायकर्मणि क्षीणे यथेष्टमुपतिष्ठते । ( त. भा. सिद्ध. वृ. २-४) । १ उपभोगान्तराय कर्म के पूर्णतया विनष्ट हो जाने पर यथेष्ट जो उपभोग के साधन उपस्थित रहते हैं, इस का नाम क्षायिक उपभोग है । क्षायिक चारित्र - १. चारित्रमपि तथा ( पञ्चविशतिविकल्पस्य चारित्रमोहनीयस्य निरवशेषक्षयात् क्षायिकं चारित्रम्) । ( स. सि. २-४ ) । २ पूर्वोक्त मोहप्रकृतिनिरवशेषक्षयात् सम्यक्त्व चारित्रे । पूर्वोक्तस्य दर्शनमोहत्रिकस्य चारित्रस्य च पञ्चवि शतिविकल्पस्य निरवशेषक्षयात् क्षायिके सम्यक्त्वल. ४६
[क्षायिक भाव
चारित्रे भवतः (त. वा. २, ४, ७) । ३. चारितमोहक्खएण समुप्पण्णं खइयं चारितं । (ध. पु. १४, पू. १६) । ४. वरचरणं उवसमदो खयदो दुचरित्तमोहस्य । ( ल. सा. ६०९) । ५. षोडशकषायनवनकषायक्षयात् क्षायिकं चारित्रम् । (त. वृत्ति श्रुत. २-४ ) ।
१ पच्चीस प्रकार के समस्त चारित्रमोहनीय के क्षय से उत्पन्न होनेवाले चारित्र ( यथाख्यातचारित्र) को क्षायिक चारित्र कहते हैं ।
क्षायिक ज्ञान - १. जं तक्कालियमिदरं जाणदि जुगवं सम तदो सव्वं । प्रत्थं विचित्तविरामं तं पाण खाइयं भणियं । ( प्रव. सा. १-४७ ) । २. ज्ञानावरणस्यात्यन्तक्षयात् केवलज्ञानं क्षायिकम् । ( स. सि. २-४ ) । ३. ज्ञानावरणक्षयात् क्षायिकज्ञानं केवलम् । (त. इलो. २-४ ) ।
१ जो ज्ञान तात्कालिक (वर्तमान) और इतरप्रतीत व अनागत- तीनों काल सम्बन्धी अनेक भेदरूप सभी पदार्थों को एक साथ जानता है, उसे क्षायिक ज्ञान (केवलज्ञान ) कहा जाता है । क्षायिक दान - देखो क्षायिक अभयदान । १. प्रयच्छनाविघातकारि दानं क्षायिकम् । ( त. भा. हरि वृ. २-४) । २. तच्च सकलदानान्तरायक्षयादेकस्मादपि तृणाग्रात् त्रिभुवन विस्मयकरं यथेप्सितमर्थिनो न जातुचित् प्रतिहन्यते प्रयच्छत इति । (त. भा. सिद्ध. वृ. २-४ ) ।
१ क्षायिक दान वह कहलाता है जिसके प्रभाव से देते समय किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं हो सकती ।
३८५, जैन- लक्षणावली
क्षायिक भाव - १. क्षयः कर्मणोऽत्यन्तविनाशः, स एव क्षायिकस्तत्र भवस्तेन वा निर्वृत्त इति । ( श्रनुयो, हरि वू. पू. ३७ ) । तथा (क्षयः ) तदत्यन्तापचयः प्रयोजनमस्येति तेन वा निर्वृत्त इति । ( त. भा. हरि वृ. २- १ ) । २. ज्ञानादिघातिनां पुद्गलानाँ य आत्यन्तिकोऽत्ययः सः क्षयः, तेन निर्वृत्तोऽध्यवसायः क्षायिक उच्यते । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १- ५ पू. ४८); तथा तदत्यन्तात्ययात् स क्षयः, स प्रयोजनमस्य तेन वा निर्वृत्त इति क्षायिकः, भवन भावः तेन पर्यायेण श्रात्मलाभः, XX X तथा क्षायिकशब्देन त एव दर्शनादिपर्यायाः श्रद्धानादिलक्षणाः शीर्णाशिष
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षायिक भावलोक]
स्वविघातिकमशा: प्रतिपाद्यन्त श्रात्मनः स्वरूपतयेति । ( त. भा. सिद्ध. वू. २०१) । ३. प्रात्यन्तिकी निवृत्तिः क्षयः क्षयः प्रयोजनमस्येति क्षायिकम् । (भारा. सा. टी. ४) । ४. कर्मक्षयस्वभावः पुनः शुभः सर्वः क्षायिकः । (श्राव. भा. मलय. वू. १८६, पु. ५७८ ) । ५. कर्मणः क्षयणं क्षयः, यथा पंकात् पृथग्भूतस्य शुचिभाजनान्तरसंक्रान्तस्य अम्बुनः प्रत्य न्तस्वच्छता भवति, तथा जीवस्य कर्मणः प्रात्यन्तिकी निवृत्तिः क्षयः, क्षयः प्रयोजनं यस्य भावस्य स क्षायिक: । (त. वृत्ति श्रुत. २- १) । ६. यथास्व प्रत्यनीकानां कर्मणां सर्वतः क्षयात् । जातीय क्षायिको भावः शुद्धः स्वाभाविकोऽस्य ( पंचाध्या. २ - ९७३) । २ ज्ञानादि के विघातक पुद्गलों - ज्ञानावरणादि कर्मस्कन्धों के अत्यन्त विनाश से जो प्रध्यवसाय - प्रात्मपरिणाम — होता है, वह क्षायिक भाव कहलाता है। क्षायिक भावलोक - कर्मणः क्षयेण निर्वृत्तः क्षायिक: । ( आव. भा. मलय वृत्ति २०२, पृ. ५६३)।
सः ॥
कर्म के क्षय से जो उत्पन्न होता है उसे क्षायिक भावलोक कहते हैं ।
क्षायिक भावसिद्ध - जत्थेणं ति अर्यमाणेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपेण सर्वथा क्षपयित्वा साधितवान् यद् यस्मात् क्षायिकं भावं ततोऽसो क्षायिकभावसिद्धः । (सिद्धप्रा. टी. गा. ५) । सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप सूर्य के प्रभाव से कर्म का सर्वथा क्षय करके चूंकि क्षायिक भाव को सिद्ध किया गया है, अतः ऐसे मुक्त जीव को क्षायिकभावसिद्ध कहा जाता है ।
क्षायिक भोग- देखो क्षायिक अनन्तभोग । १. जा खइया भोगलद्धी सो वि खइओ प्रविभागपच्चइयो जीवभावबंधो, भोगंतराइयक्खएण समुप्पत्तीदो । ( धव. पु. १४, पृ. १७ ) । २. पुरुषार्थ साधनप्राप्ताafarकृद् भोगः क्षायिकः उचित भोगसाधनावाप्त्यबन्धहेतुः । (त, भा. हरि. बृ. २-४ ) ।
२ जो पुरुषार्थ के साधनों की प्राप्ति में सम्भव विघ्नों को दूर करनेवाला है, उसे क्षायिक भोग कहा जाता है । वह उचित भोगों के साधनों की प्राप्तिका सफल हेतु है ।
[क्षायिक सम्यक्त्व
क्षायिक लाभ - १. लाभान्तरायस्याशेषष्य निरा• सात् परित्यक्तकवलाहार क्रियाणां केवलिनां यतः शरीरबलाघान हेतवोऽन्यमनुजा साधारणाः परमशुभाः सूक्ष्मा: अनन्ताः प्रतिसमयं पुद्गलाः सम्बन्धमुपयन्ति स क्षायिक लाभ: । ( स. सि. २-४ ) । २. अशेषलाभान्तरायनिरासात् परमशुभपुद् गलानामादानं लाभः । लाभान्तरायस्याशेषनिरासात् परित्यक्तकवलाहारक्रियाणां केवलिनां यतः शरीरबलाधानहेतव अन्य कनुजासाधारणाः परमशुभाः सूक्ष्माः अनन्ताः प्रतिसमयं पुद्गलाः सम्बन्धमुपयान्ति स क्षायिको लाभः । (त. वा. २, ४, ३) । ३. प्राप्त्यविघातकारी लाभः क्षायिकः पुरुषार्थसाधनप्राप्तावविघ्नकृत् । ( त. भा. हरि. वृ. २-४ ) । ४. लाभ इति परस्माच्चतुवर्गस्यान्यतमसमस्त साधनप्राप्ति:, स चाशेषलाभान्तरायकर्मक्षयादचिन्त्य माहात्म्यविभूति
विर्भवति, येन यत् प्रार्थयते तत् समस्तमेव लभते, न तु प्रतिषिध्यते । ( त. भा. सिद्ध. व. २-४} । ५. जा खइया लाहलद्धी सो खइश्रो श्रविभाग पच्चजीवभावबंधो, लाहंतरायक्खएण समुप्पत्तीदो । ( धव. पु. १४, पृ. १७ ) ।
१ समस्त लाभान्तराय के क्षय से कवलाहार क्रिया से रहित केवलियों के शरीर को बल प्रदान करने वाले जो प्रत्यन्त शुभ व सूक्ष्म अनन्त प्रसाधारण पुद्गल प्रतिसमय सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं, यह क्षायिक लाभ कहलाता है । ३ प्राप्ति में सम्भव विघ्नों को जो 'दूर किया करता उसे क्षायिक लाभ कहते हैं । वह पुरुषार्थ के साधनों की प्राप्ति में निविघ्नता को करता है।
क्षायिक वीर्य - देखो क्षायिक अनन्तवीर्यं । वीर्यं क्षायिकमशेषवीर्यान्तरायक्षयजम्, तेन यदुचितं तत्सर्वं करोति । ( त. भा. हरि. वृ. २-४ ) ।
समस्त वीर्यान्तराय के क्षय से प्रादूर्भूत होने वाले क्षायिक वीर्य से जो उचित सब कुछ करता है । क्षायिक सम्यक्त्व१ पूर्वोक्तानां अनन्तानुबन्धिक्रोध मान माया लोभानां सम्यक्त्व-मिथ्यात्वसम्यङ् मिथ्यात्वानां च सप्तानां प्रकृतीनामत्यन्तक्षयात् क्षायिकं सम्यक्त्वम् । ( स. सि. २-४)। २. दंसणमोहे खीणे खर्यादिट्ठी होइ निरवसे सम्मि । केण उ सम्मो मोहो पडुच्च पुव्वं तु पण्णत्रणं ॥ ( बृहत्क. भा. १३१) । ३. खीणे दंसणमोहे जं
३८६, जैन- लक्षणावली
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षायिक सम्यक्त्व]
३८७, जैन-लक्षणावली
[क्षायिक सम्यक्त्व
सद्दहणं सुणिम्मलं होइ। तं खाइयसम्मत्तं णिच्चं स्याथ मिश्रस्य सम्यग्जाते परिक्षये । क्षायिकसंमुखीकम्मक्खवणहेड ॥ (प्रा. पंचसं. १-१६०, धव. नस्य सम्यक्त्वान्त्यांशभोगिनः ।। शुभभावस्य प्रक्षीणपु. १, पृ. ३६५ उद्धृत, गो. जी. ६४५)। ४. खीणे सप्तकस्य शरीरिणः । सम्यक्त्वं क्षायिक नाम दसणमोहे तिविहंमिवि भवनियाणभंयं मि । निप्पच्च- पञ्चमं जायते पुनः।। (त्रि. श. पु. च.१,३, वायमउलं सम्मत्तं खाइयं होइ । (श्रा.प्र. ४८; धर्मसं. ६०६-७)। १६. सम्मत्त-मीस-मिच्छत्तकम्मक्खयहरि. ८०१)। ५. सत्तपडिक्खएणुप्पण्णसम्मत्तं प्रो भणंति तं खइयं । (प्रव. सारो. ९४४) । ख इयं । (धव. पु. १, पृ. १७२); दंसणमोहणीयस्स २०. तत्कर्मसप्तके क्षिप्ते पङ्कवत् स्फटिकेऽम्बवत् । खयेण ख इयं सम्मत्तं होदि । (धव. पु. ७, पृ. १०७); शुद्धेऽतिशुद्धं क्षेत्रज्ञे भाति क्षायिकमक्षयम् ॥ (अन. जं खइयं सम्मत्तं तं पि खइयो अविवागपच्चइयो घ. २-५५)। २१. तेषामेव क्षयात् क्षायिकम् । जीवभावबंधो, दंसणमोहक्खएण समुप्पत्तीदो। (धव. (भ. प्रा. मूला. टी. ३१)। २२. अनन्तानुबन्धिपु. १४, पृ. १६)। ६. सप्तप्रकृतिनिर्मूललयात् कषायचतुष्टयक्षयानन्तरं मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्वक्षायिकमा गतः ।। (म. पु. ७४-४३६) । पुजलक्षणे त्रिविधेऽपि दर्शनमोहनीयकर्मणि सर्वथा७. दर्शनसप्तकक्षयात क्षायिकं केवलसम्यक्त्वम् । क्षीणे क्षायिकं सम्यक्त्वं भवति । (प्रव. सारो.. (त, भा. सिद्ध. व. १०-५)। ८. तासामेव सप्त- ६४४, पृ. २८१); क्षायिकसम्यक्त्वमपि दर्शनमोहप्रकृतीनां क्षयादुपजातवस्तुयाथात्म्यगोचरा श्रद्धा सप्तकक्षये । (प्रव. सारो. ५. १२६१, पृ. ३७१)। क्षायिक दर्शनम । (भ. प्रा. विजयो. टी. ३१)। २३. त्रिविघस्यापि दर्शनमोहनीयस्य क्षयेणात्यन्तो६. सत्तण्डं पयडीणं xxx। खयदो य होइ च्छेदेन निर्वृत्तं क्षायिकम् । (षडशी. मलय. व. १७, खइयं के वलिमूले मण सस्स ।। (कार्तिके. ३०८)। प. २१) । २४. मिथ्यात्वादिक्षयेण नितं क्षायि१०. कोहचउक्कं पढमं अणंतबंधीणि णामयं भणिय। कम् । (धर्मसं. मलय. वृ. ८०१, प. २८७)। सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तयं तिण्णि ।। एएसि २५. दंसणमोहं ति हवे मिच्छं मिस्सत्त सम्मपयडिसत्तण्हं xxx। खयो खइयं जायं अचलत्तं ती। अणकोहादी एदा णिद्दिट्टा सत्तपयडीयो। णिम्मलं सुद्ध ।। (भावसं. दे. २६६-६७)। ११. सत्तण्हं XXX खयादु ख इप्रो य । (भावत्रि. सत्तण्हं Xxx। खयादु खइयो य। (गो. जी. ८-६)। २६. एतासामेव सप्तप्रकृतीनां क्षयात २६) । १२. सत्तण्हं पयडोणं खयादु ख इयं तु होदि प्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेशः कर्मस्वपरिणतपुद्गलसम्मत्तं । मेरुं व णिप्पकपं सुणिम्मलं अक्खयमणतं । स्कन्धस्य कर्मरूपत्वपरित्यागात् क्षायिकं सम्यक्त्वं (ल. सा. १६३) । १३. क्षपयित्वा परः कश्चित्कर्म भवति । (गो. जी. म. प्र. टी. २६) । २७. दुग्मो . प्रकृतिसप्तकम् । प्रादत्ते क्षायिक पूतं सम्यक्त्वं मुक्ति- हक्षयसंभूतौ यच्छ्रद्धानमनुत्तरम् । भवेत्क्षायिकं नित्यं कारणम ।। (अमित. श्रा. २-५४)। १४. व्रजन्ति कर्मसंघातघातकम् ।। (भावसं. वाम. ४१६) । सप्ताद्यकलं यदा क्षयं तदाङ्गिनां क्षायिकमक्षयं २८. सप्तानां प्रकृतीनां तत्क्षयात् क्षायिकमुच्यते । मतम ।। (धर्मप. २०-७०)। १५. केवलज्ञानादि- प्रादौ केवलिमूले स्यान्नत्वे तदन सर्वतः ।। (धर्मसं. गणास्पदनिजश द्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं निश्चय-' श्रा. ४-६८) । २६. अनन्तानुबन्धिक्रोध-मान-मायासम्यक्त्वं यत्पूर्व तपश्चरणावस्थायां भावितं तस्य लोभ-सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-सम्यक्प्रकृतिलक्षणसप्तप्रकृ. फलभूत समस्तजीवादितत्त्वविषये विपरीताभिनिवेश-: तिक्षयात् क्षायिकं सम्यक्त्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. रहितपरिणतिरूपं परमक्षायिकसम्यक्त्वं भण्यते । २-४)। ३०. सप्तप्रकृतीनां क्षयात निरवशेषना. (बु. द्रव्यसं. टी. १४)। १६. शुद्धात्मादिपदार्थविषये शात् क्षायिकं सम्यक्त्वम् । (कातिके. टी. ३०८)। विपरीताभिनिवेशरहितः परिणामः क्षायिकसम्य- १ अनन्तानबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ क्त्वमिति भण्यते । (परमा. वृ. ६१)। १७. क्षयो तथा सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ; इन मिथ्यात्वमोहनीयस्यानन्तानुबन्धिनां च निर्मूलनाशः, सात प्रकृतियों के अत्यन्त भय से जो सम्यक्त्व क्षयः प्रयोजनमस्येति क्षायिकम् । तच्च साद्यनन्तम् । प्रादुर्भूत होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। (योगशा. स्वो. विव. २-२)। १८. मिथ्यात्व. क्षायिक सम्यग्दृष्टि-१. ततः प्रशम-संवेगादि
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षायिकी दृष्टि]
३८८, जैन-लक्षणावली [क्षायोपशमिक अवधि मान् जिनेन्द्र भक्तिप्रवधितविपुलभावनाविशेषसंभारो मानाध्यवसायः । (स. भा. सिद्ध. वृ. १८)। यत्र केवलिनः सन्ति भगवन्तस्तत्र मोहं क्षपयितुमार- अनन्तानुबन्धी, मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व, अप्रत्याभते, निष्ठापकः पुनश्चतसृष गतिषु भवति, स ख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, निराकृतमिथ्यात्व: क्षायिकसम्यग्दष्टिरित्याख्यायते। हास्यादि छह, वेद और संज्वलन; ये प्रकृतियां (त. वा. ४-४५)। २. दंसण-चरणगुणघाइ चत्तारि क्षायिकी श्रेणी हैं-इनके क्षयको गुणस्थानपंक्ति अणंताणुबंधिपयडीयो मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छ- क्षायिकी श्रेणी कही जाती है। इसका प्रारोहक तमिदि तिणि दंसणमोहणीयपयडीयो च, एदासि अविरत, देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्तसत्तण्हं निरवसेसक्खएण खइयसम्माइद्री उच्चइ। विरत; इनमें कोई भी एक विशद्धधमान अध्यवसाय (धव. पु. १, पृ. १७१); दंसणमोहणीयस्स (परिणाम) वाला हो सकता है। णिस्सेसविणासो खो णाम । तम्हि उप्पण्णजीव- क्षायोपशमिक प्रवधि-१. क्षायोपशमिकं तदापरिणामो लद्धी णाम, तीए लद्धीए खइयसम्माइट्ठी वरणीयानाम्-अवधिज्ञानावरणीयानां कर्मणाम् होदि । (धव. पु. ७, पृ. १०८) ।
उदीर्णानाम् उदयावलिकाप्राप्तानां क्षयेण प्रलयेन, १वेदकसम्यग्दृष्टि होकर प्रशम-संवेगादि से सहित
अनूदीर्णानां चात्मनि व्यवस्थितानामुपशमेन उदयहोते हुए जिनेन्द्रभक्ति के प्रभाव से जिसकी भाव- निरोधेन अवधिज्ञान मुत्पद्यते इति सम्बन्धः । यत नामों का समुदाय वृद्धिंगत हुआ है, ऐसा मनुष्य
एवमतः कर्मोदयानुदयविषयम् । अथवा येन तदाजहाँ केवली भगवान् विराजमान हैं वहां मोह ।
वरणीयानां कर्मणां उदीर्णानां क्षयेणानुदीर्णानामुप(दर्शनमोहनीय) की क्षपणा को प्रारम्भ करता है,
शमेनावधिज्ञानमुत्पद्यते तेन क्षायोपशमिकमित्युच्यत पर निष्ठापक (समापक) वह चारों गतियों में से
इति । (नन्दी. हरि. व. पु. ३०) । २. यदा प्रवधिकिसी भी गति में हो सकता है। इस प्रकार वह
ज्ञान-दर्शनावरणीयकर्मणां क्षयः परिशाट: संजातो मिथ्यात्व का निराकरण करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि
भवत्युदितानामनुदितानां चोपशमः उदयविधातहो जाता है।
लक्षणः संवृत्तो भवति स उपशमस्ताभ्यां क्षयोपश
माभ्यां कारणभूताभ्यां य उदेति स क्षयोपशमनिक्षायिको दृष्टि -देखो क्षायिक सम्यक्त्व । क्षयो
मित्तः। (त. भा. सिद्ध. वृ. १-२१)। ३. क्षायोपमिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व-सम्यक्त्वानां तिसृणां दर्शन
शमिकं येन कारणेन तदावरणीयाणाम् अवधिज्ञानामोहप्रकृतीनामनन्तानुबन्धिक्रोध-मान- माया-लोभा
वरणीयानां कर्मणामूदीर्णानां क्षयेण, अनुदीनाम् ख्यानां चतसणां चारित्रमोहप्रकृतीना चात्यन्तिको
उदयावलिकामप्राप्तानामुपशमेन विपाकोदयविष्कविश्लेषः, क्षयः प्रयोजनमस्या इति क्षायिकी।
म्भणलक्षणेनावधिज्ञानमुत्पद्यते, तेन कारणेन क्षायो(मन. ध. स्वो. टी. २-११४)।
पशमिकमित्युच्यते । (नन्दी. मलय. वृ. सू. ८, पृ. मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन तीन
७७)। ४. तथावधिज्ञानावरणीयस्य कर्मण उदयावर्शनमोहनीय प्रकृतियों तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध,
बलिकाप्रविष्टस्यांशस्य वेदनेन योऽपगमः स क्षयोमान, माया और लोभ इन चार चारित्रमोहनीय
उनु दयावस्थस्य विपाकोदयाविष्कम्भणम्पशमः, क्षयप्रकृतियों के प्रात्यन्तिक विनाश का नाम क्षय है,
इचोपशमश्च क्षयोपशमी, ताभ्यां निर्वृत्तः क्षायोपजिस दष्टि का प्रयोजन इस क्षय को उत्पन्न करना शमिकः। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३३-३१७, पृ. है, वह क्षायिकी दृष्टि कही जाती है।
५३९)। क्षायिकी श्रेणी-देखो क्षपकश्रेणी। १. क्षायिकी १ उदीर्ण-उदयावलि को प्राप्त-अवधिज्ञानातु श्रेणग्नन्नानुबन्धिनो मिथ्यात्व मिश्र-सम्यक्वानि वरण प्रकृतियों के क्षय से तथा अनदीण पात्मा अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानावरणे नपुंसक-स्त्रीवेदो में प्रवस्थित-उक्त प्रकृतियों के उपशम- उदयदास्यादिषटकं पंवेदः संज्वलनाश्च । (त. भा, हरि. निरोध-से जो असंख्यात भेदरूप अवधिज्ञान व सिद्ध. व. ९-१८)। २. प्रस्थाश्चारोहकः अविरत- उत्पन्न होता है. वह क्षायोपशमिक अवधिज्ञानदेश-प्रमताप्रमत्ता[त्त] विरतानामन्यतमो विशुद्ध-- कहलाता है।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षायोपशमिक-अवधिज्ञानावरणीय] ३८९, जैन-लक्षणावली [क्षायोपशमिक भाव क्षायोपशभिक-अवधिज्ञानावरणीय - गुणपरि- शमिक नाम स्यादवस्थान्तरं स्वतः ।। (पंचाध्या. णामप्रत्ययाः क्षयोपशमनिर्वत्ताः क्षायोपशमिकाः। २-२६२)। (प्राव. हरि. वृ. नि. २५, पृ. २७) ।
१ मतिज्ञानावरणादि और वीर्यान्तराय कर्म के सर्वक्षयोपशम से रचित अवधिज्ञानावरणप्रकृतियां घाती स्पर्द्धकों के उदयाभावी क्षय से तथा अनदयक्षायोपशमिक या गणपरिणामप्रत्यय कहलाती हैं प्राप्त उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से होने वाले और वे मनुष्य व तियंचों के होती हैं।
मति प्रादि ज्ञानों को क्षायोपशमिक ज्ञान कहते हैं। क्षायोपशमिक गुण-कर्मणां क्षयादुपशमाच्चो- क्षायोशमिक भाव-१. उभयात्मको मिश्रः ।
(स. सि. २-१); सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयक्षयात् त्पन्नो गुणः क्षायोपशमिकः । (धव. पु. १, पृ.
तेषामेव सदुपशमाद्देशघातिस्पर्द्धकानामुदये क्षायोप१६१)। कर्मों के क्षय और उपशम (क्षयोपशम) से जो गुण
शमिको भावो भवति । (स. सि. २-५) । २. सर्वउत्पन्न होता है उसे क्षयोपशमिक गुण कहते हैं।
घातिस्पर्द्धकानामुदयक्षयात्तेषामेव सदुपशमाद्देशघा.
तिस्पर्द्धकानामुदये क्षायोपशमिको भाबः ।xxx क्षायोपशमिकगुरपयोग - प्रोहि-मणपज्जयादोहि
तत्र यदा सर्वघातिस्पर्द्ध कस्योदयो भवति तदेषजीवस्स जोगो खग्रोवस मियगुण जोगो णाम । (धव.
दप्यात्मगुणस्याभिव्यक्ति स्ति, तस्मात्तदुदयस्याभावः पु. १०, पृ. ४३३)।
क्षय इत्युच्यते, तस्यैव सर्वघातिस्पर्द्धकस्यानूदयप्राप्तअवधि और मनःपर्यय आदि गुणों के साथ जो
स्य सदवस्था उपशम इत्युच्यते, अनुभूतस्ववीर्यजीव का सम्बन्ध होता है उसे क्षायोपशमिक सचि
वृत्तित्वात् प्रात्मसाद्भावितत्सर्वघातिस्पर्द्धकस्योदयत्तगुणयोग कहते हैं।
क्षये देशघातिस्पर्द्धकस्य चोदये सति सर्वघात्यभावाक्षायोपशमिक चारित्र-अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान
दुपलभ्यमानो भाव: क्षायोपश मिक इत्युच्यते । (त. प्रत्याख्यानद्वादशकषायोदयक्षयात् सदुपसमाच्च सं.
वा. २, ५, ३)। ३. कर्मण एव कस्यचिदंशस्य ज्वलनकषायचतुष्टयान्यतमदेशघातिस्पर्द्धकोदये नो
क्षयः, कस्यचिदुपशमः, ततश्च क्षयश्चोपशमश्च कषायनवकस्य यथासम्भवोदये च निर्वत्तिपरिणामः
क्षयोपशमो, ताभ्यां निवत्तः क्षायोपशमिकः। (अनुप्रात्मनः क्षायोपशमिकं चारित्रम । (स. सि. २-५;
यो. हरि. व. पु. ३८)। ४. क्षयोपशमाभ्यां त. वा. २, ५, ८)।
निवत्तः क्षायोपशमिकः । (त. भा. हरि.व. २-१)। अनन्तानुबन्धी प्रादि बारह कषायों के उदयाभावी
५. कम्मोदए संते वि जं जीवगुणक्खंडमुवलंभदि सो क्षय से, उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से तथा संज्व
खम्रोवसमियो भावो णाम । (धव. पु. ५, पृ. १८५); लनकषायचतुष्क में से किसी एक के देशघातिस्पर्स
पडिबंधिकम्मोदए संत वि जो उवल भइ जीवगुणो कों के उदय से और नौ नोकषायों में से यथा
सो खग्रोवसमित्रो उच्चइ। कुदो ? सव्वघादणसम्भव उदय होने पर जो विषय-कषायों से प्रात्मा
सत्तीए प्रभावो खग्रो उच्चदि, खो चेव उवसमो में निवृत्ति परिणाम उत्पन्न होता है, उसे क्षायोप
खोवसमो, तम्हि जादो भावो खग्रोवसमिमो। शमिक चारित्र कहते हैं।
(धव. पु. ५, पृ. १९८); सम्मत्तस्स देशधादिमायापशमिक ज्ञान-१. मतिज्ञानाद्यावरण-वीर्या- फहयाण उदएण सह वट्टमागो सम्मत्तपरिणामो न्त रायकर्मद्रव्याणामनुभागस्य सर्वघातिस्पर्धकानामु- खग्रोवसमियो। (धव. पु. ५, पृ. २००)। ६. तपा. दयाभावः क्षयः, तेषामेवानुदय प्राप्तानां सदवस्था ज्ञानादिघातिनां पुद्गलाना क्षयोपशमो-केचित उपशम:, क्षयश्चासौ उपशमश्च क्षयोपशम;, तत्र क्षपिता: केचिदुपशान्ता इति क्षयोपशमावुच्येते, भवानि तत्प्रयोजनानि वा क्षायोपशमिकानि । (गो. ताभ्या निवतोऽध्यवसायः क्षामोशमिकः। (त. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३००)। २. क्षायोप- भा. सिद्ध. व. १-५, पृ. ४८); क्षयोपशमाभ्यां शमिकं ज्ञानमक्षयाकर्मणां सताम् । प्रात्मजातेश्च्यु- निर्वृत्तो मिश्रः प्रजायते । (त. भा. सिद्ध. व. २-१)। तेरेतदबद्धं चाशु द्वमक्रमात् ।। (पंचाध्या. २-१२१); ७. सर्वघा तिस्पर्द्ध कानामुदयक्षयात् तेषामेव सदुपतत्रालापस्य यस्योच्चैर्यावदंशस्य कर्मणः। क्षायोप- शमात् नईशघातिस्पर्द्धकानामुदयात् क्षायोपशमिको
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षायोपशमिक भाव]
३६०, जैन-लक्षणावली
[क्षायोपशमिक सम्यक्त्व
भावः । (त. श्लो. २-५)। ८. कर्मणां फलदान- खीणे मिच्छे अणुदिन्नगम्मि उवसते । सम्मीभावसमर्थतयोद्भतिरुदयः, अनुभूतिरुपशमः, उद्भूत्यनु. परिणतो वेयंतो पोग्गले मीसो ।। जो चरमपोग्गले
द्भूती क्षयोपशमः, xxx क्षयोपशमेन युक्तः पुण वेदेती वेयगं तयं विति । केसिं च अणादेसो क्षायोपशमिकः। (पंचा. का. अमृत. व. ५६)। वेयगदिट्ठी खग्रोवस मो। (बहत्क. १२६-३०)। ६. कर्मणां च क्षयश्च उपशमश्च क्षयोपशमः, तत्र ३. मिच्छत्तं जसुदिन्नं तं खीणं अणुइयं च उवसंतं । भवो भावो xxx । (सिद्धिवि.व. ४-१२, प. मोसीभावपरिणयं वेयिज्जतं खग्रोवसमं ॥ (धा. २७१, पं. १६) । १०. उदयो जीवस्स गुणो खो- प्र. ४४; धर्मसं. हरि. ७६७) । ४. सम्मत्तदेसघाइ. वसमिग्रो हवे भावो । (गो. क. ८१४)। ११. सर्व- वेदयसम्मत्तदएणुप्पण्ण वेदयसम्मत्तं खग्रोवस मियं । प्रकारेणात्मगुणप्रच्छादिकाः कर्मशक्तयः सर्वघाति- (धव. पु. १, पृ. १७२); सम्मत्तस्स देसघादि. स्पर्द्धकानि भण्यन्ते, विवक्षितकदेशेनात्मगुणप्रच्छादि- फद्दयाणमुदएण सह वट्टमाणो सम्मत्तपरिणामो काः शक्तयो देशघातिद्धकानि भण्यन्ते, सर्वघातिस्प- खग्रोवसमियो । (धव. पु. ५, प. २००); र्द्धकानामुदयाभाव एव क्षयस्तेषामेवास्तित्वमुपशम वेदगसम्मत्तस्स दंसणमोहणीयावयवस्स देशघादिउच्यते, सर्वघात्युदयाभावलक्षणक्षयेण सहित उप- लक्खणस्स उदयादो उप्पण्णसम्मादिट्टिभावो खमो. शमः तेषामेकदेशघातिस्पर्द्धकानामुदयश्चेति समुदा- वसमियो। (धव. पु. ५, पृ. २११) । ५. तासायेन क्षयोपशमो भण्यते । क्षयोपशमे भवः क्षायोप- मेव कासांचिदुपशमात अन्यासां च क्षयादुपजातं शमिको भावः । अथवा देशघातिस्पर्द्धकोदये सति श्रद्धानं क्षायोपशमिकम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. जीव एकदेशेन ज्ञानादिगुणं लभते यत्र स क्षायोप. ३१) । ६. उदयाभावो जत्थ य पयडीणं ताण शमिको भावः । (ब. द्रव्यसंग्रह टी. ३४)। १२. सव्वधादीणं । छण्णाण उवसमो वि य उदयो सम्मत्ततथा क्षयश्च प्रभावः, उदयावस्थस्य उपशमश्च पयडीए । खयउवसमं पबत्तं सम्मत्तं परमवीयराविष्कम्भितोदयत्वम्, तदन्यस्य क्षयोपशमौ, ताभ्यां येहिं । उवसमियपंकसरिसं णिच्चं कम्मक्खवणहेउ ।। निर्वतः क्षायोपशमिकः। (उत्तरा. नि. शा. व. (भावसं. दे. २६८-६९)। ७. प्रण उदयादो छण्हं ४८, पृ. ३३) । १३. कर्मक्षयोपशमनिष्पन्न : शुभा- सजाइरूवेण उदयमाणाणं । सम्मत्तकम्म उदए खयशभः सर्वः क्षायोपशमिकः । (प्राव. भा. मलय. वृ. उवसमियं हवे सम्म ।। (कातिके. ३०९)। ८. क्षी१८६, प. ५७८)3 उदितकमांशस्य क्षयेण अनुदित- णोदयेषु मिथ्यात्व-मिश्रानन्तानबन्धिष । लब्धोदये स्योपशमेन निर्वृत्तः क्षायोपशमिकः। (प्राव. भा. च सम्यक्त्वे क्षायोपशामकं भवेत् ।। (पंचसं. अमित. मलय.व. २०२, पृ. ५६३) । १४. यो भावः सर्वतो २६२, पृ. ३६)। ६. प्रशमे कर्मणां षण्णामुदयस्य घातिस्पर्द्धकानदयोदभवः । क्षायोपशमिको स स्यादु- क्षये सति । प्रादत्ते वेदकं वन्द्यं सम्यक्त्वोदये सति । दयाशघातिनाम् ॥ (पंचाध्या. २-६६६)। (अमित. श्रा. २-५५)। १०. सम्मत्तदेसघादिस्स१ सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयक्षय (उदयाभाव), दयादो वेदगं हवे सम्म । (गो. जी. २५)। ११. उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम और देशघाती क्षयो मिथ्यात्वमोहनीयस्यानन्तानबन्धिनां च उदि. स्पर्द्धकों का उदय होने पर जो भाव होता है ताना देशतो निर्मूलनाशः अनुदितानां चोपशमः, उसे क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। ५ प्रति- क्षयण युक्त उपशमः क्षयोपशमः, स प्रयोजन मस्य बन्धक कर्म के उदय के होने पर भी जो जीव- क्षायोपशमिकम् । तच्च सत्कर्मवेदनाद्वेदकमप्युच्यते। गण का अंश पाया जाता है उसे क्षायोपशमिक (योगशा. स्वो. विव. २-२)। १२. तेषामेव च भाव कहते हैं।
षण्णानुदयाभावलक्षणे क्षयेऽनुदयप्राप्तानां सन्मात्रावक्षायोपशमिक सम्यक्त्व-१. अनन्तानुबन्धिक- स्थितिलक्षणे चोपशमे तथा सम्यक्त्वदेशघातिस्पर्धषायचतुष्टयस्य मिथ्यात्व-सम्यमिथ्यात्वयोश्चोदय- कोदये सत्युत्पन्न सम्यक्त्वं क्षायोपशमिकम। (भ. क्षयात् सदुपसमाच्च सम्यक्त्वस्य देशघातिस्पर्द्धकस्यो- प्रा. मूला. टी. ३१)। १३. मिच्छत्तखोबसमा दये तत्त्वार्थश्रद्धानं क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वम् । (स. खानोवसमं ववइसंति। (प्रव. सारो.९४४) । सि. २-५; त. वा. २, ५, ८)। २. जो उ उदिन्ने १४. मिथ्यात्वस्य मिथ्यात्वमोहनीयकर्मणः उदीर्णस्य
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व]
३६१, जैन-लक्षणावली
[क्षारतंत्र चिकित्सादोष
चोपशमात् सम्यक्त्वरूपतापत्तिलक्षणाद्विष्कम्भितो. उदय को प्राप्त चार संज्वलन और सात नोकषायों दयस्वरूपाच्च क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं व्यपदिशन्ति (हास्य, रति, परति व शोक में से यथासम्भव दो कथयन्ति । (प्रव. सारो. व. ९४४); सम्यक्त्वमपि से रहित) के देशघाती स्पर्धकों की उपशम संज्ञा, क्षायोपश मिकं दर्शन सप्तकक्षयोपशमे। (प्रव. सारो. क्योंकि उनकी चारित्र के घातने की शक्ति का वृ. १२६२)। १५. तत्र उदीर्णस्य मिथ्यात्वस्य । उपशम पाया जाता है तथा उदय के विनष्ट हो क्षयेणानुदीर्णस्य चोपशमेन सम्यक्त्वरूपतापत्तिलक्ष- जाने से उन्हीं के सर्वघाती स्पर्धकों की क्षय संज्ञा णेन विष्कम्भितोदयस्वरूपेण च य निर्वृत्तं क्षायोप- है। इन दोनों के प्राश्रय से उत्पन्न होने वाले संयम शमिकम् । (षडशी. मलय. व. १७, पृ. २१)। को क्षायोपशमिक संयम कहा जाता है। अथवा १६. दर्शनमोहनीय भेदस्य सम्यक्त्वप्रकृते: सर्वघाति- उक्त ग्यारह प्रकृतियों के उदय का नाम ही क्षयोस्पर्धकाना मुदयाभाव लक्षणे क्षये तेषामेव सदवस्था- शम है, कारण कि चारित्रविघातक शक्ति के प्रभाव लक्षणे उपशमे च उदयनिषेकदेशघातिस्पर्द्धकस्यो- की क्षयोपशम संज्ञा सम्भव है। उससे उत्पन्न दयात् क्षायोपशमिक सम्यक्त्वं तत्त्वार्थश्रद्धान भवेत्। प्रमादसंगत संयम को क्षायोपशमिक कहा जाता है। (गो. जी. म. प्र. टी. २५)। १७. सर्वघ्नस्पर्धकानां क्षायोपशामिक संयमासंयम-अनन्तानुबन्ध्यप्रत्यायः पाकाभावात्मकः क्षयः। सत्तात्मोपशमो यत्र । ख्यानकषायाष्टकोदयक्षयात् सदुपशमाच्च प्रत्याख्याक्षायोपशमिकं हि तत् ।। उदितास्ते क्षयं याताः नकषायोदये संज्वलनकषायदेशघातिस्पर्धको दये नोस्पर्धकाः सर्वघातकाः। शेषाः प्रशमिताः सन्ति क्षा. कषायनवकस्य यथासम्भवोदये च विरताविरतपरियोपशमिकं ततः ।। (भावसं. वाम. ३९८-९६)। णामः क्षायोपशमिकः संयमासंयम इत्याख्यायते । १८. अनन्तानुबन्धिचतुष्क-मिथ्यात्व-सम्यमिथ्या- (स. सि. २-५; त. वा. २, ५, ८)। त्वानां षण्णामुदयक्षयात् सद् पोशमात् सम्यक्त्वनाम- अनन्तानुबन्धी चार और अप्रत्याख्यान चार इन मिथ्यात्वस्य देशघातिनः, न तु सर्वघातिनः उद- पाठ कषायों के उदयक्षय और सदवस्थारूप उपयात् मिश्रं सम्यक्त्वं भवति, क्षायोपामिकं सम्य- शम के साथ प्रत्याख्यान के उदय, संज्वलन कषाय क्त्वं स्यात्. तद्वेदकमित्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत, के देशघातिस्पर्धकों के उदय तथा नोकषायों का
यथासम्भव उदय होने पर जो विरताविरतपरिणाम यत् । क्षायोपशमिकं नाम सम्यक्त्वं तन्निगद्यते ॥ उत्पन्न होता है उसे क्षायोपमिक संयमासंयम (धर्मसं. श्रा. ४-६७)।
कहते हैं। १ अनन्तानुबन्धी चार, मिथ्यात्व और सम्यग्मि- क्षायोपशमिकी लब्धि - प्रागुपात्त कर्मपटलानुथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयक्षय और उन्हीं के भागस्पर्द्धकानां शुद्धियोगेन प्रति समयानन्तगुणहीनासदवस्थारूप उपशम से तथा सम्यक्त्वप्रकृति के नामुदीरणा क्षायोपशमिकी लब्धिः । (पंचसं. श्रमित. देशघाती स्पर्धकों के उदय से उत्पन्न होने वाले पृ. ३६; अन. ध. स्वो. टी. २-१६)। तत्त्वार्थश्रद्धान को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। पूर्वसंचित कर्मपटल के अनुभागस्पर्द्धकों की जो क्षायोपनिक संयम-पत्तोदयएक्कारसचारित्त- शुद्धि के योग से प्रतिसमय अनन्तगुण हीन होते हुए मोहणीयपयडिदेसघादिफयाण मुवसमसण्णा, निरव- उदीरणा होती है उसका नाम क्षायोपश मिकी सेसेण चारित्तघायणसत्तीए तत्थुवसमूवलंभा । लब्धि है। तेसि चेव सम्वघादिफयाणं खयसण्णा, णट्रोदयभा- क्षारतंत्र चिकित्सादोष-क्षारतंत्र क्षारद्रव्यं दृष्टवत्तादो। तेहि दोहिम्हि उप्पण्णो संजमो खग्रोव- व्रणादिशोधन करम् । xxx एवमष्टप्रकारेण समियो । प्रधवा एक्कारसकम्माणमुदयस्सेव खग्रो- चिकित्साशास्त्रेणोपकारं कृत्वाहारादिक गृह्णाति वसमसण्णा । कुदो? चारित्तघायणसत्तीए अभाव- तदानीं तस्याष्टप्रकारचिकित्सादोषो भवत्येव, सावस्सेव तव्ववएसादो। तेण उप्पण्ण इति खग्रोवसमि- द्यादिदोषदर्शनादिति । (मला. वृ. ६-३३) । प्रो पमादाणुविद्धसंजमो। (धव. पु. ५, पृ. २२०, क्षार द्रव्य घावों को शद्ध करने वाला है। कौमार २२१)।
प्रादि पाठ प्रकार के चिकित्साशास्त्रों में से प्रत
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षितिशयन व्रत ]
क्षारतंत्र से उपकार करके दातार के यहाँ श्राहार ग्रहण करने पर साधु क्षारतंत्र चिकित्सादोष का भागी होता है ।
क्षितिशयन व्रत -- १. फासूयभूमिपए से अप्पमसंथारिदम्हि पच्छण्णे । दंडं धणुव्व सेज्जं खिदिसयणं एयपासेण । (मूला. १-३२ ) । २. प्रासुकभूमिप्रदेशे चारित्राविरोधेनाल्प संस्तरितेऽसंस्तरिते श्रात्मप्रमाणेनात्मनैव वा संस्तरित प्रच्छन्ने दण्डेन धनुषा एकपार्श्वेन मुनेर्या शय्या शयनं तत् क्षितिशयन व्रतमित्यर्थ: । (मूला वृ. १-३२) ।
१ स्वल्प संस्तर से भी रहित और प्रच्छन्नस्त्री व पशु श्रादि से विहीन- ऐसे प्रासुक ( जीवजन्तु से शून्य) भूमिप्रदेश में दण्ड (सीधे ) श्रथवा धनुष के समान एक पार्श्व से शयन करने को क्षितिशयन व्रत कहते हैं । क्षिप्र प्रत्यय - १ क्षिप्रग्रहणमचिरप्रतिपत्त्यर्थम् । (स. सि. १-१६) । २. क्षिप्रग्रहणमचिरप्रतिपत्त्य र्थम् । अचिरप्रतिपत्तिः कथं स्यात् इति क्षिप्रग्रहणं क्रियते । (त. वा. १, १६. १० ) । ३. क्षिप्रवृत्ति: प्रत्ययः क्षिप्रः । (धव. पु. 8, पृ. १५२); ग्राश्वर्थग्राही क्षिप्रप्रत्ययः । ( धव. पु. १३, पृ. २३७ ) । ४. क्षिप्रं च झटिति ( ग्रहणम्) । (सिद्धिवि. यू. १, २७, पृ. ११६) । ५. आशुग्रहणं क्षिप्रावग्रहः । ( मूला. वृ. १२ - १८७ ) । ६. श्राश्वर्थस्य ग्रहः क्षिप्रम् XX X। ( श्राचा. सा. ४-१६) ।
१ पदार्थ के शीघ्रता से ग्रहण करने को क्षित्र प्रत्यय या क्षिप्रावग्रह कहते हैं । क्षीणकषाय - १. णिस्सेसखीणमोहो फलिहामलभायणुदयसमचित्तो । खीणकसाग्री भण्णदि णिग्गंथो वीयरायेहि ॥ ( प्रा. पंचसं. १-२५; धव. पु. १, पू. १६० उद्.; गो. जी. ६२) । २. सर्वस्य मोहस्य X X X क्षपणात् X XX क्षीणकषाय इति व्यपदेशमर्हति । (त. वा. ६, १, २२) । ३. क्षीणाः कषाया येषां ते क्षीणकषायाः । द्रव्यकर्मणां कषायवेदनीयानां विनाशात्तन्मूला अपि भावकषायाः प्रलयमुपगता इति क्षीणकषाया इति भण्यन्ते । (भ. प्रा. विजयो. २७) । ४. णिस्सेसमोहखीणे खीणकषायं तु णाम गुणठाणं । पावइ जीवो णूणं खाइयभावेण संजुत्तो ॥ जह सुद्धफलियभायणि खित्तं णीरं खु णिम्मलं सुद्धं । तह जिम्मलपरिणामो खीण
[क्षीरधात्री उत्पादनदोष
कसा मुणेcoat || ( प्रा. भावसं. ६६१-६२ ) । ५. भवेत् क्षीणकषायोऽपि मोहस्यात्यन्तसंक्षयात् । (त.सा. २ - २८ ) । ६. उपशमश्रेणिविलक्षणेन क्षपकश्रेणिमार्गेण निष्कषायशुद्धात्मभावनाबलेन क्षीणकषायाः द्वादशगुणस्थानवर्तिनो भवन्ति । (बृ. द्रव्यस. टी. १३) । ७. क्षीणा प्रभावमापन्नाः कषा
यस्य स क्षीणकषायः । ( कर्मस्त. गो. वृ. २, पू. ५ ) ८. सूक्ष्मसाम्परायक्षपकचरमसमये चारित्रमोहस्य प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशानां बन्धोदयोदीरणासत्त्वेषु व्युच्छिन्नेषु तदनन्तरोत्तरसमये निःशेषक्षीणमोहनिरवशेषविनष्टचारित्रमोहः सन् स्फटिकामलभाजनोदकसमचित्तो जीवः, अतिनिर्मल स्फटिकघटसंभूतेन निर्मलजलेन सदृशं चित्तं भावमनो विशुद्धिपरिणामो यस्यासौ स्फटिकामलभाजनोदकसमचित्तः, यथा तज्जलं संक्षोभैः प्रकारैः कलुषितं न भवति तथा यथाख्यातचारित्रपवित्रक्षीणकषायविशुद्धिपरिणामोऽपि कुतश्चिदपि कारणात् कलुषितो न भवति, स वीतरागः क्षीणकषाय इति भणित: । (गो. जी. म. प्र. टी. ६२ ) । ६. निश्शेषक्षीणाः प्रकृति-स्थित्यनुभाग- प्रदेश रहिता मोहप्रकृतयो यस्यासौ निश्शेषक्षीणमोह इति निरवशेष मोहप्रकृतिसत्त्वरहितः क्षीणकषायः । (गो. जी. जी. प्र. टी. ६२) । १ जिसका सब मोह ( कषायें ) क्षय को प्राप्त हो चुका है, अतएव जो स्फटिकमणिमय पात्र में स्थित जल के समान निर्मल मन की परिणति से सहित हुआ है उसे क्षीणकषाय कहते हैं । क्षीणमोह -- देखो क्षीणकषाय । १. जिदमोहस्स दुजइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स । तइया हु खीणमोहो भणदि सो णिच्छयविदृहि । ( समयप्रा. ३८ ) । २. तदेवाम्भो यथान्यत्र पात्रे न्यस्तं मलं विना । प्रसन्नं मोहने क्षीणे क्षीणमोहस्तथा यतिः ॥ (पंचसं अमित १-४८ ) । ३. मोहस्य तु क्षये जाते क्षीणमोहं प्रचक्षते । (योगशा. स्वो विव. १ - १६, पृ. ११२ ) ।
१ मोह के विजेता साधु का मोह जब जब सर्वथा क्षय को प्राप्त हो जाता है, तब उसे क्षीणमोह कहा जाता है ।
क्षीरधात्री उत्पादनदोष-क्षीरं धारयति दधाति या सा क्षीरधात्री स्तनपायिनी । x x x येन क्षीरं भवति येन च विधानेन बालाय क्षीरं दीयते
३६२, जैन-लक्षणावली
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षीरस्रवी] ३६३, जैन-लक्षणावली
[क्षुद्विजय तदुपदिशति यस्मै दात्रे स भक्तः दाता दानाय भवन्ति, ते क्षीरस्राविण उद्यन्ते । (त प्रवर्तते । तद्दानं यदि गृह्णाति तदा तस्य क्षीरधात्री ३-३६) । नामोत्पादनदोषः। (मला. व. ६-२८)।
१ जिस ऋद्धि के प्रभाव से हाथों में रखे हुए रूखे जिस विधि से उसकी मां के दूध में वृद्धि होती है
पाहार आदि उसी समय दूध रूप परिणत हो तथा बालक को जिस प्रकार से दूध पिलाना
जाते हैं, उसका नाम क्षीरस्रवी ऋद्धि है। अथवा चाहिए, इत्यादि प्रकार का गहस्थ को उपदेश देकर
जिसके प्रभाव से मुनि के वचनों के सुनते ही
मनुष्यों और तियंचों के दुःख आदि शान्त हो जाते उसके यहां पाहार ग्रहण करने पर क्षीरधात्री नाम
हैं, वह भी क्षीरस्रबी ऋद्धि कहलाती है। ४ जिनके का उत्पादन दोष होता है।
वचन श्रोताओं को दूध के स्वाद के समान सुखोक्षीरस्रवी (खोरासवी)--- १. करयलणिक्खित्ताणि त्पादक होते हैं वे क्षीरावी-क्षीराव साव) रुक्खाहारादियाणि तक्कालं । पावति खीरभावं जीए ऋद्धि के धारक-कहे जाते हैं। खीरोसवी रिद्धी ।। अहवा दुक्खप्पहडी जीए मुणि- क्षीराश्रव-देखो क्षीरस्रवी। वयणसवणमेत्तेणं । पसमदि णर-तिरियाणं स च्चिय क्षीरालवी-देखो क्षीरस्रवी। खीरोसबी रिद्धी॥ (ति. प. ४,१०८०-८१)। क्षीरास्त्रावी-देखो क्षीरस्रवी। २. विरसमप्यशनं येषां पाणिपुटनिक्षिप्तं क्षीररसगुण- क्षुत, क्षुधा-१. निवृत्तसर्वसंस्कारविशेषस्य शरीरपरिणामि जायते, येषां वा वचनानि क्षीरवत् क्षीणा- मात्रोपकरणसन्तुष्टस्य तप:संयमविलोपं परिहरतः नां सन्तर्पकाणि भवन्ति ते क्षीरास्रविणः। (त. वा. कृत - कारितानुमतसंकल्पितोद्दिष्टसंक्लिष्ट क्रयागत३, ३६, ३, पृ. २०४; चा. सा. पृ. १००)। प्रत्यात्तपूर्वकर्म-पश्चात्कर्मदशविघदोषविप्रमुक्तषणस्य ३. खीरं दुद्धं, सविसादो खीरस्स सवी खीरसवी, देश-काल-जनपदव्यवस्थापेक्षस्य अनशनाध्वरोगपाणि-पत्तणिवदिदासेसाहाराणं खीरसादुप्पायणसत्ती तपःस्वाध्याय-श्रम - वेलातिकमावमौदर्यासद्वेद्योदयावि कारणे कज्जुवयारादो खीरसवी णाम । (धव. दिभ्यः नानाहारेन्धनोपरमे जठराग्निदाहिनी मारुतापू. ६, पृ. ९९)। ४. तस्य क्षीरानवित्वं शृण्वत- लोलिताग्निशिखेव समन्ताच्छरीरेन्द्रिय-हृदयसंक्षोभस्तदीयवचनं क्षीरमिव स्वदते । (त. भा. सिद्ध. व. करी क्षुदुत्पद्यते । (त. वा. ६, ६, २, चा. सा. १०-७, पृ. ३१७) । ५. क्षीरवन्मधुरत्वेन श्रोतृणां पृ. ४८)। २. असातावेदनीयतीव्र-मन्दक्लेशकरी कर्ण-मनःसुखकरं वचनमास्रवन्ति क्षरन्ति येते क्षघा। (नि. सा. टी. ६)। क्षीराश्रवाः । (औपपा. अभय. व. १५, पृ. २८)। २ असातावेदनीय के तीव्र या मन्द उदय से जो ६. क्षीरं दुग्धं श्रोतृजनकर्णपूरेषु प्राश्रवति क्षरति तीव्र या मन्द संक्लेश को उत्पन्न करती है उसे भाषमाणो यस्यां लब्धौ सा क्षीरावा, क्षीरमिव भुषा (भूख की वेदना) कहा जाता है। वचनमासमन्तात श्रवन्तीति क्षीराश्रवाः इति व्युत्प- क्षद्विजय-१. भिक्षोनिरवद्याहारगवेषिणस्तदलाभे त्तेः। (ध. बि. म.व. ५.२६)। ७. येषां पात्र- ईषल्लाभे च अनिवृत्तवेदनस्याकाले प्रदेशे च भिक्षां पतितं कदन्नमपि क्षीररसवीर्यविपाक जायते, वचनं प्रति निवृत्तेच्छस्यावश्यकपरिहाणि मनागप्यसहमावा शरीर-मानसदुःखप्राप्तानां देहिनां क्षीरवत् नस्य स्वाध्याय-ध्यानभावनापरस्य बहुकृत्वः स्वसन्तर्पकं भवति ते क्षीरास्राविणः। (योगशा. स्वो. कृत-परकृतानशनावमोदर्यस्य नीरसाहारस्य तप्तभ्राविव. १-८, पृ. ३६)। ८. यद्वचनमाकर्ण्यमानं मन:- ष्ट्रपतितजलबिन्दुकतिपयवत्सहसा परिशुष्कपानस्योशरीरसुखोत्पादनाय प्रभवति ते क्षीराश्रवाः, क्षीर- दीर्णक्षद्वेदनस्यापि सतो भिक्षालाभादलाभमधिकगुणं मिव वचनमासमन्तात् श्रवन्तीति क्षीराश्रवाः इति मन्यमानस्य क्षुद्बाधां प्रत्यचिन्तनं क्षुद्विजयः । (स. व्युत्पत्तेः। (प्राव. नि. मलय. वृ. ७५)। ६. येषां सि. ६, ९)। २. प्रकृष्ट वग्निप्रज्वलने धृत्यम्भसोपपाणिपात्रगतं भोजनं नीरसमपि क्षीरपरिणामि शमः क्षज्जयः ।XXXतस्याः (क्षुधः) प्रतिकारं भवति, वचनानि वा क्षीणवत क्षीणसन्तर्पकाणि त्रिप्रकारम् अकाले संयमविरोधिभिर्वा द्रव्यः स्वयम
ल. ५०,
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षुद्विजय ]
कुर्वतोऽन्येन क्रियमाणमसेवमानस्य मनसा चानभिसन्दधतः दुस्तरेयं वेदना महांश्च कालो दीर्घाह इति दीर्घाह इति (चा. सा. - दीर्घमह इति) विषादमनापद्यमानस्य त्वगस्थि - सिरावतान (चा. सा. - वितान ) मात्रकलेवरस्यापि सतः श्रावश्यक क्रियादिषु नित्योद्यतस्य क्षुद्वशप्राप्तानर्थंकाराबन्धनस्थ (चा. सा - नर्थाञ्चारकबंधस्थ) मनुष्यान् पञ्जरगत तिर्यक्प्राणिनः क्षुदयदितान् परतन्त्रानपेक्षमाणस्य ज्ञानिनो घृत्यम्भसा संयम कुम्भघारितेन क्षुदग्नि शमयतः तत्कृतपी डां प्रत्ययवगणयन् (चा. सा. - प्रत्यविगणनं ) क्षुज्जय इत्युच्यते । (त. वा. ६, ६, २; चा. सा. पृ. ४८, ४९) । ३. तत्र क्षुत्परीषहः क्षुद्वेदनादिनाऽऽगमावहितेन चेतसा स [श ] मयतोऽनेषणीयं परिहरत: क्षुत्परीषहजयो भवति । ( त. भा. हरि वृ. ६-६ ) । ४. क्षुद्वेदनामुदिताशेषवेदनातिशायिनीं सम्यग्विषह
३६४, जैन - मक्षणावली
माणस्य
जठरान्त्रविदाहिनीमागमविहितेनान्यसा (सिद्ध. वृ. - विधिना ) शमयतो ऽनेषणीयं च परिहरतः क्षुत्परिषहजयः भवति । (श्राव. हरि. वृ. ४, पृ. ६५७; त. भा. सि. वृत्ति ६-६ ) । ५. क्षुधार्तः शक्तिमान् साधुरेषणां नातिलङ्घयेत् । यात्रामात्रो - तो विद्वानदीनोऽविप्लवश्चरेत् ।। (श्राव. नि. हरि. वृ. ९१८, पृ. ४०३ उद्) । ६. प्रकृष्टक्षुदग्नि प्रज्वलते घृत्यम्भसोपशमः क्षुज्जय: । (त. इलो. ε-)। ७. क्षुत्चारित्रमोहनीय वीर्यान्तरापेक्षयाऽसातावेदनीयोदयादशनाभिलाषः । XXX एतैः परीष हैव्रताद्य भंगेऽपि संक्लेशकरणं भावविचिकित्सा | X X X क्षुत्परीषहक्षमणं X XX । ततः परीषहजयो भवति, ततश्च भावविचिकित्सादर्शनमलं निराकृतं भवतीति । (मूला. वृ. ५, ५७-५८ ) । 5. क्षत्तीक्ष्णानशनादिजाक्षनिकरं स्वज्ञेयवीक्षाक्षमं स्वान्तं भ्रान्ततरं करोति बलवत्प्राणान् प्रयाणोन्मुखान् । या ऽन्यादीनजने ऽफलाऽतिसफला त्यागात्तपःपुष्टये तस्या घृत्यमृताशनेन शमनं कुर्वन् व्रती क्षुज्जयः ॥ ( श्राचा. सा. ७-३) । ६. यो मुनिनिरवद्याहारं मार्गयति, तस्याहारस्याप्राप्तो स्तोकाहार - प्राप्तौ वा श्रप्रणष्टवेदनोऽपि सन् प्रकालेऽयोग्यदेशे च भुक्ति नेच्छति, षडावश्यकपरिहाणिमीषदपि न सहते, ज्ञान-ध्यानभावनापरो भवति, बहून् वारान् स्वयमेवानशनमवमौदर्यं च कृतवान् वर्तते, रसहीनभोजनं च विधत्ते, तेन च शीघ्रमेव परिशुष्यच्छरीरो
[ क्षुल्लक
भवति । किवत् ? तप्ताम्बरीषनिपतितकतिपयाम्बुबिन्दुवत् । समुद्भूतबुभुक्षावेदनोऽपि सहनशीलः सन् पुरुषो यो भिक्षालाभादलाभं बहुगुणं मन्यते, क्षुधाबाघां प्रति चिन्तां न कुरुते, तस्य क्षुत्परीषहविजयो वेदितव्यः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-९ ) ।
१ निर्दोष श्राहार का खोजने वाला जो साधु उसके सर्वथा प्राप्त न होने पर, अथवा थोड़ा सा प्राप्त होने पर, उससे भूख की वेदना के शान्त न होने पर भी प्रयोग्य समय और देश में भिक्षा प्राप्त करने की कभी इच्छा नहीं करता हुश्रा श्रावश्यकों की हानि को नहीं सहता है तथा स्वाध्याय और ध्यान में उद्यत रहता हुआ भिक्षालाभ की अपेक्षा उसके श्रलाभ को महत्त्व देता है वह क्षुधापरीषह का विजयी होता है। ४ जो साधु उदर और प्रांतों को सन्तप्त करने वाली भयानक क्षुधा की वेदना को भली भांति सहता हुआ श्रागमोक्त विधि से प्राप्त भोजन के द्वारा उसे शान्त करता है और प्रषणीय ( सदोष भोजन) का परित्याग करता है, वह क्षुधापरीषहविजयी होता है । क्षुरप्रमुद्रा - कनिष्ठिकामङ्गुष्ठेन संपीड्य शेषाङ्गुलीः प्रसारयेदिति क्षुरप्रमुद्रा । ( निर्वाणक. ५, पृ. ३१) ।
कनिष्ठा श्रंगुली को अंगूठे से दबाकर शेष अंगुलियों के फैलाने पर क्षुरप्रमुद्रा होती है । क्षुल्लक — देखो उत्कृष्ट श्रावक । १. आद्यो विदध [ति ] क्षौरं प्रावृणोत्येकवाससम् । पञ्चभिक्षाशनं भुंक्ते पठते गुरुसन्निधौ ॥ ( भावसं वाम. ५४४ ) । २. क्षुल्लकः कोमलाचारः शिखा-सूत्राङ्कितो भवेत् । एकवस्त्रं सकोपीनं वस्त्र - पिच्छ - कमण्डलुम् ॥ भिक्षापात्रं च गृह्णीयात् कांस्यं यद्वाप्ययोमयम् । एषणादोषनिर्मुक्तं भिक्षाभोजनमेकशः ॥ क्षौरं श्मश्रुशिरोलोम्नां शेषं पूर्ववदाचरेत् प्रतीचारे समुत्पन्ने प्रायश्चित्तं समाचरेत् ॥ यथानिर्दिष्टकाले स भोजनाथं च पर्यटेत् । पात्रे भिक्षां समादाय पञ्चागारादिहालिवत् । तत्राप्यन्यतमे गेहे दृष्ट्वा प्रासुकमम्बुकम् । क्षणं चातिथिभागाय संप्रेक्ष्याध्वं च भोजयेत् ॥ देवात् पात्रं समासाद्य दद्याद्दानं गृहस्थवत् । तच्छेषं यत्स्वयं भुङ्क्ते नो चेत् कुर्यादुपोषितम् ।। (लाटीसं. ७-६–८) ।
२ जो उद्दिष्टभोजन का त्यागी चोटी और यज्ञो
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षेत्र]
३६५, जैन-लक्षणावली
[क्षेत्रचरण
पवीत का धारी हो; एक वस्त्र, एक लंगोटी, वस्त्र कहा जाता है। ३ द्रव्यों का जहां अवगाह होता की पीछी, कमण्डलु और कांसे या लोहे का भिक्षा- है उसे क्षेत्र कहा जाता है। ६ द्रव्यागम और पात्र रखता हो; तथा एक बार भोजन करता हो भावागम का अाधारभत शरीर क्षेत्र कहलाता है। शिर और दाढ़ी के बालों को कैंची या उस्तरे से ७ दृश्यमान-अदृश्यमान रूपी-प्ररूपी द्रव्यों के बनवाता हो; ऐसे प्रथमोकृष्ट (ग्यारहवीं प्रतिमा- प्राधार का नाम क्षेत्र है। धारी) श्रावककको क्षुल्लक कहते हैं।
क्षेत्रकायोत्सर्ग- सावद्यक्षेत्रसेवनादागतदोषध्वंस. क्षेत्र-१. क्षेत्र निवासो वर्तमानकालविषयः । नाय कायोत्सर्ग:. कायोत्सर्गपरिणतसेवितक्षेत्र वा क्षेत्र(स. सि. १-८); क्षेत्रं सस्याधिकरणम् । (स. सि. कायोत्सर्गः। (मला. वृ. ७-१५१) । ७-२६; त. वा. ७, २६, १) । २. विषयवाची सावध क्षेत्र के सेवन से प्राये हुए दोषों को दूर क्षेत्रशब्दः, यथा राजा जनपदक्षेत्रेऽवतिष्ठते, न च करने के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है उसे कृत्स्नं जनपदं स्पृशति । (त. वा. १,८,१८)। क्षेत्रकायोत्सर्ग कहते हैं। अथवा, कायोत्सर्ग से ३. यत्रावगाहस्तत् क्षेत्रम् । (प्राव. नि. हरि.बु. १३, परिणत जीव के द्वारा सेवित क्षेत्र को क्षेत्रकायोप्र. १९ व २१)। ४. क्षेत्रमवगाहमात्रम् । (अनुयो. सर्ग जानना चाहिए। हरि. व.पृ. ३५)। ५. इह दव्वं चेव णिवासमित्त
क्षेत्रकारक-क्षेत्रे भरतादौ यः कारको यस्मिन् पज्जायतो मतं खेत्तं । (धर्मसं. ३१)। ६. क्षियत्य
वा क्षेत्रे कारको व्याख्यायते स क्षेत्रकारकः । क्षैषीत क्षेष्यत्यस्मिन् द्रव्यागमो भावागमो वेति त्रि
(सूत्रकृ. नि. शी. व. १-४)। विधमपि शरीरं क्षेत्रम्, आधारे प्राधेयोपचाराद्वा।।
भरतादिक क्षेत्रविशेष में जो करता हैं उसे, अथवा (धव. पु. ४, पृ. ६); क्षियन्ति निवसन्ति अस्मिन
जिस क्षेत्र में कारक की व्याख्या की जाती है उस जीवा इति कर्मणां क्षेत्रत्वसिद्धेः । Xxx उक्तं
क्षेत्र को क्षेत्रकारक कहते हैं। च-खेत्तं खलु आगासं Xxx। (घव. पु. ४,
क्षेत्रकृतपरत्वापरत्व-क्षेत्रकृते (परत्वापरत्वे) पृ. ७); षडद्रव्याणि क्षियन्ति निवसन्ति यस्मिन
एकदिक्कालावस्थितयोविप्रकृष्टः परो भवति सन्नितत्क्षेत्रम्, षड्द्रव्यस्वरूपमित्यर्थः। (धव. पु.६, पृ. २२१); विसिट्ठागासदेसो खेत्तं । (षव. पु. १४,
कृष्टोऽपरः । (त. भा. ५-२२, पृ. ३५३)।
एक दिशा और एक काल में अवस्थित दो वस्तनों पृ. ३६)। ७. क्षेत्रम् अाकाशं दृश्यमानादृश्यमानरूप्यरूपिद्रव्याधारः । (त. भा. सिद्ध.व.१-२६)।
में से दूरवर्ती को क्षेत्रकृत पर और समीपवर्ती को ८. xxxक्षेत्रं त्रिभुवनस्थितिः। (म. पु. १.
क्षेत्रकृत अपर कहा जाता है । १२३); क्षेत्रं त्रैलोक्यविन्यासःXxx। (म. पु. क्षेत्रचतुविशति - क्षेत्रचतुर्विंशतिविवक्षया चतु२-३६)। ६. वर्तमाननिवाससामान्य क्षेत्रम् ।
विशतिः क्षेत्राणि भरतादीनि, क्षेत्रप्रदेशा बा चतु(न्यायकु. ७६, पृ. ८०३)। १०. तत्र क्षेत्र सस्यो.
विशतिः क्षेत्रचतविशतिः, चविशतिप्रदेशावगाढं त्पत्तिभूमिः । (ध. बि. मु. वृ. ३-२७; योगशा. वा द्रव्यं क्षेत्रचतुर्विशतिः। (प्राव. भा. मलय. ब. स्वो. विव. ३-६५)। ११. द्रव्यमेव सत प्राकाशं १९२, पृ. ५६०)। निवासमात्रपर्यायतः - निवासमात्र पर्यायमाश्रित्य भरतादि चौबीस क्षेत्रों को, अथवा चौबीस मंत्र. क्षमिति मत सम्मतम् । तदुक्तम्-खेत्तं खलु प्रागा प्रदेशों को क्षेत्र चतुर्विशति कहते हैं। अथवा चौबीस समिति । (धर्मसं. मलय. व. ३१) । १२. क्षेत्र प्रदेशों की अवगाहनायुक्त द्रव्य को भी क्षेत्रचतुर्वि. लोकालोकम् । (गो. जी. जी. प्र. टी. ३६६)। शति कहते हैं। १३. क्षेत्रं निवासः, स तु वर्तमानकालविषयः । (त. क्षेत्रचरण-क्षेत्रचरणं यस्मिन् क्षेत्रे गच्छति वत्ति श्रुत. १-८) । १४. क्षेत्रं धान्योत्पत्तिस्थानं भक्षयति वा, यस्मिन् वा क्षेत्रे चरणं व्यावर्ण्यते । क्षेत्रम । (कातिके. टी. ३४०) ।
(उत्तरा. चू. १५, पृ. २३६)। १ वर्तमानकालीन निवास का नाम क्षेत्र है। अन्न के जिस क्षेत्र में जाता है या खाता है अथवा जिस प्राधार को उत्पत्तिस्थान को भी क्षेत्र (खेत) क्षेत्र में चरण (चारित्र) का व्याख्यान किया
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षेत्रचार] ३९६, जैन-लक्षणावली
[क्षेत्रपरिवर्तन जाता है, उस क्षेत्र को द्रव्यनिक्षेप से क्षेत्रचरण एक प्रदेश प्रवगाह वाले, दो प्रदेश अवगाह वाले, कहते हैं।
तीन प्रदेश प्रवगाहवाले, इस प्रकार असंख्यात प्रदेश क्षेत्रचार--क्षेत्रं पुनर्यस्मिन् क्षेत्रे चारः क्रियते अवगाह वाले परमाणुषों के समूह तक क्षेत्रवर्गणा यावद्वा क्षेत्र चर्यते स क्षेत्राचारः। (प्राचारा. नि. कही जाती है। शो. वृ. २४६, पृ. १८३)।
क्षेत्रधर्म-१. जो तस्साय-सभावोऽमुत्तादी खेत्त. जिस क्षेत्र में चार (गमन) किया जाता है, अथवा धम्मो सो ॥ (धर्मसं. ३१, पृ. २०) । २. यस्तस्य जितना क्षेत्र गतिका विषय बनाया जाता है, वह क्षेत्रस्यात्मस्वभावोऽमूर्तत्वादिकः स क्षेत्रधर्मः, धर्मः क्षेत्रचार कहलाता है।
स्वभाव इत्यनयोरनन्तिरत्वात् । (धर्मस. मलय. क्षेत्रज्ञ-क्षेत्रं स्वस्वरूपं जानातीति क्षेत्रज्ञः । व. ३१) । (धव. पु. १, पृ. १२०); षड्द्रव्याणि क्षियन्ति आकाशरूप क्षेत्र का जो प्रात्मस्वभाव-अमूर्तत्व निवसन्ति यस्मिन् तत्क्षेत्रम् षड्द्रव्यस्वरूपमित्यर्थः, प्रादि है-वह क्षेत्रधर्म कहलाता है। तज्जानातीति क्षेत्रज्ञः । अथवा प्रदेशज्ञः जीव इत्य- क्षेत्रपरावर्त-देखो क्षेत्रपरिवर्तन । लोग यमस्यार्थः, क्षेत्रज्ञशब्दस्य कुशलशब्दवत् जहत्स्वार्थ- एसा जया मरतेण एत्थ जीवेणं । पुट्ठा कमुक्कमेणं वृत्तित्वात् । (धव. पु. ६, पृ. २२१)।
खेत्तपरट्टो भवे थूलो ॥ जीवो जइया एगे खेत्तपयेजो प्रात्मस्वरूप को अथवा छह द्रव्य स्वरूप लोक- संमि अहिगए मरइ । पुणरवि तस्साणंतरि बीयपएक्षेत्र को जानता है वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है। संमि जइ मरए । एवंतरतमजोगेण सम्बखत्तंमि क्षेत्रज्ञान-क्षेत्रज्ञानं किमिदं मायाबहुलमन्यथा जइ मनो होइ। सुहुमो खेत्तपरट्टो अणुक्क मेण नणु वा ? तथा साधभिरभावितं भावितं वा नगरादीति गणेज्जा ।। (प्रंव. सारो. १०४४-४६)। विमर्शनम । (उत्तरा. नि. शा. ७.५८, पृ. ४०)। बादर और सूक्ष्म के भेद से क्षेत्रपरावर्त दो प्रकार क्या यह क्षेत्र मायाप्रचुर है अथवा उससे विहीन का है। जीव जब लोकाकाश के किसी एक प्रदेश है, तथा क्या वह साधु जनों से अधिष्ठित नगरादि पर मरकर तत्पश्चात् वह क्रम से या प्रक्रम से भी से रहित है या सहित है। इस प्रकार के विवेक लोकाकाश के समस्त प्रदेशों को अपने मरण से का नाम क्षेत्रज्ञान है। यह पाठ प्रकार की गणि- व्याप्त कर लेता है, तब उसका एक बादर क्षेत्रपरा. संम्पदा के अन्तर्गत सातवी प्रयोगमति सम्पदा के वर्त पूरा होता है। पर जब वह किसी एक लोकाचार भेदों में तीसरा है।
काश के प्रदेश को प्राप्त करके मरता है और क्षेत्रतः क्रमोत्तर-क्षेत्रत: (क्रमोत्तरं) एकप्रदे- तत्पश्चात् पुनः मरण को प्राप्त होकर जब वह गावगाडात द्विप्रदेशावगाढः, ततोऽपि त्रिप्रदेशाव- उसके द्वितीय प्रदेश को अपने मरण से व्याप्त गाढ, एवं यावदवसानववंसंख्येयप्रदेशावगाढः । करता है (बीच में यदि वह अन्यत्र मरता है, तो (उत्तरा. नि. वृ. १, पृ. ४)।
वह गिनती में नहीं प्राता), इसी क्रम से वह यथाक्षेत्र की अपेक्षा एक प्रदेश प्रवगाढ़ क्षेत्र से दो क्रम से उस लोक के तृतीय-चतुर्थ प्रादि प्रदेशों को प्रदेश प्रवगाढ क्षेत्र, उससे भी तोन प्रदेश प्रवगाढ़ अपने मरण से व्याप्त करता हया जब उसके समस्त क्षेत्र इस प्रकार अन्तवर्ती असंख्यात प्रदेश प्रवगाढ़ ही प्रदेशों को मरण से व्याप्त कर लेता है तब क्षेत्र पर्यन्त यह सब क्षेत्रतः क्रमोत्तर कहलाता है। उसका सूक्ष्म क्षेत्रपरावर्त पूरा होता है। क्षेत्रतः जीव-क्षेत्रतोऽसंख्येयप्रदेशावगाढः । (प्राव. क्षेत्रपरिवर्तन-देखो क्षेत्रपरावर्त व परक्षेत्रमा नि. मलय. वृ. १२६, पृ. १३१) ।
१. सव्वम्हि लोयखेत्ते कमसो तण्णस्थि जण्ण उप्पजो असंख्यात प्रदेशों को अवगाहित किये हुए है, णं । उग्गाहणेण बहुसो परिभमिदो खेत्तसंसारे ।। वह क्षेत्रत: जीव कहालाता है।
(द्वादशानु. २६)। २. जत्थ ण जादो ण मदो क्षेत्रतः वर्गणा - क्षेत्रतः एकप्रदेशावगाढानां हवेज्ज जीवो अणंतसो चेव । काले तीदम्मि इमो यावदसंख्येयप्रदेशावगाढानाम् । (प्राव. हरि. व. ण सो पदेसो जए अस्थि ।। (भ. पा. १७७५) । ३६, पृ. ३४) ।
३. सूक्ष्मनिगोदजीवोऽपर्याप्तकः सर्वजघन्यप्रदेश
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षेत्रपरिवर्तन]
३९७, जैन-लक्षणावली
[क्षेत्रपूजा
शरीरो लोकस्याष्टमध्यप्रदेशान् स्वशरीरमध्यप्रदे- एकैकनभःप्रदेशप्रतिसमयापहारेण यावता कालेन शान् कृत्वोत्पन्नः, क्षुद्रभव ग्रहणं जीवित्वा मृतः, स सर्वात्मना निष्ठामुपयाति, तावान् कालविशेषो एव पुनस्तेनैवावगाहेन द्विरुत्पन्नस्तथा त्रिस्तथा बादरं क्षेत्रपल्योपमम् । एतच्चासंख्येयोत्सपिण्यवचतुरित्येवं यावद् धनांगुलस्यासंख्येयभागप्रमिता- सर्पिणीमानम् ।xxx तथा स एव पूर्वोक्तः काशप्रदेशास्तावत्कृत्वस्तत्रैव जनित्वा पुनरेकैक- पल्यः पूर्ववदेकैकं बालाग्रमसंख्येयखण्डं कृत्वा तैराप्रदेशाधिकभावेन सर्वो लोकः प्रात्मनो जन्मक्षेत्र- कर्ण भूतो निचितश्च तथा क्रियते यथा मनागपि न भावमुपनीतो भवति यावत्तावत् क्षेत्रपरिवर्तनम् । तत्राग्न्यादिकमाक्रामति, एवं भृते तस्मिन् पल्ये ये (स. सि. २-१०, भ. प्रा. विजयो. १७७५)। आकाशप्रदेशास्तैर्बालाः स्पृष्टा ये च न स्पृष्टास्ते ४. सो कोऽवि णत्थि देसो लोयायासस्स णिरवसे- सर्वेऽप्येककस्मिन् समये एकैकाकाशप्रदेशापहारेण सस्स । जत्थ ण सव्वो जीवो जादो मरिदो य बहु- समुध्रियमाणा यावता कालेन सर्वात्मना निष्ठामुपवारं ।। (कातिके. ६८)। ५. सूक्ष्मनिगोदजीवः यान्ति तावान् कालविशेषः सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपमम । अपर्याप्तक: सर्वजघन्यप्रदेशशरीरः लोकस्याष्टमध्य- इदमप्यसंख्येयोत्सपिण्यवसपिणीमानमेव केवलं पूर्वप्रदेशान् स्वशरीरमध्ये कृत्वा उत्पन्नः क्षुद्रभवग्रहणं स्मादसंख्येयगुणम् । (प्रव. सारो. व. १०२६, प. जीवित्वा मतः, स एव जीवः पुनस्तेनाऽवगाहेन ३०४) । दो वारानुत्पन्नः, त्रीन् वारानुत्पन्नश्चतुर्वारानुत्पन्नः १ क्षेत्र से अभिप्राय प्रागमोक्त विधि के अनुसार इत्येवं यावत अगुलस्य असंख्येयभागप्रमिताकाश. पल्य में भरे हुए बालानों से स्पष्ट प्राकाश का है। प्रदेशास्तावतो वारान तत्रैवोत्पद्य पूनः एकैकैकप्रदे- उसके उन प्रदेशों में से प्रत्येक समय में दोनों प्रोर शाधिकत्वेन सर्वलोक: निजजन्मक्षेत्रत्वमुपनीतो से एक-एक प्रदेश के अपहृत करने पर जितने काल भवति यावत्तावत्क्षेत्रपरिवर्तनं कथ्यते । (त. वृत्ति में वे सब समाप्त हों उतने कालविशेष को क्षेत्रश्रुत. २-१०)।
पल्योपम कहा जाता है। ३ सर्वजघन्य अवगाहना वाला सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्य- क्षेत्रपालमुद्रा-ऊर्ध्वशाखं वामपाणि कृत्वाऽङगपर्याप्तक जीव लोक के पाठ मध्यप्रदेशों को अपने ष्ठेन कनिष्ठिकामाक्रमय दिति क्षेत्रपालमुद्रा । शरीर के मध्य में करके उत्पन्न हम्रा और क्षुद्रभव- (निर्वाणक. पृ. ३१) । ग्रहण तक जीवित रहकर मरा। फिर वही उसी बायें हाथ की अंगुलियों को ऊपर फैलाकर अंगठे अवगाहना से धनांगल के प्रसंख्येय भाग प्रमाण से कनिष्ठा को दबाने पर जो मद्रा बनाती है. उसे जितने प्राकाशप्रदेश हैं उतने बार वहीं उत्पन्न क्षेत्रपालमुद्रा कहते हैं। होकर तत्पश्चात् एक-एक प्राकाशप्रदेश की प्रषि क्षेत्रपुरुष-यो यस्मिन् सुराष्ट्रादौ क्षेत्रे भवः कता से जव समस्त लोक को अपना जन्मक्षेत्र कर स क्षेत्रपुरुषो यथा सौराष्ट्रिक इति, यस्य वा यत लेता है तब उसका क्षेत्रपरिवर्तन पूरा होता है। क्षेत्रमाश्रित्य पुंस्त्वं भवतीति । (सूत्रकृ. नि. शी. क्षेत्रपल्योपम-१. तथा क्षेत्रमित्याकाशम्, ततश्च
पम-१. तथा क्षत्रमित्याकाशम्, ततश्च वृ. ५५, पृ. १०३) । प्रतिसमयमुभयथापि क्षेत्रप्रदेशापहारे क्षेत्रपल्योप- जो जिस सौराष्ट्र प्रादि क्षेत्र में उत्पन्न हम्मा है उसे मम् । (अनुयो. हरि. व. प. ८४)। २. क्षेत्रमा- वहां का क्षेत्रपुरुष कहते हैं । जैसे---सौराष्ट्रिक । काशप्रदेश रूपं तत्प्रधानं क्षेत्रपल्योपमम् । (संग्रहणी. अथवा जिस क्षेत्र का प्राश्रय लेकर पुरुष के परुषत्व दे. ५.४, पृ. ५) । ३. बायरसुहुमायासे खेत्तपएसा- होता है उसे क्षेत्रपुरुष कहते हैं। णुसमयमवहारे । बायरसुहमं खेत्तं उस्सप्पिणीयो क्षेत्रपूजा-१. जिणजम्मण-णिक्खमणे णाणपनीर असंखेज्जा ।। (प्रव. सारो. १०२६)। ४. इयमत्र तिस्थचिण्हेसु । णिसिहीसु खेत्तपूजा पुव्वविहाणेण भावना-स एवोत्सेधागुलप्रमितयोजनप्रमाणवि- कायव्वा ॥ (वसु. श्रा. ४५२)। २. जन्म-निःक्रमणविष्कम्भायामावगाढःपल्यःपूर्ववदेकाहोरात्रं यावत्स- ज्ञानोत्पत्तिक्षेत्रे जिनेशिनाम । निषिष्यास्वति प्ताहोरात्रप्ररूढ लागैराकणं निचितो भ्रियते, तत- कर्तव्या क्षेत्र पूजा यथाविधि ॥ (गण. पा. २२३)। स्तै लायें नभःप्रदेशाः स्पृष्टास्ते समये समये ३. गर्भ-जन्म-तपो-ज्ञानलाभ-निर्वाणसम्भवे । क्षेत्र
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षेत्रप्रतिक्रमण] ३६८, जैन-लक्षणावली
[क्षेत्रमंगल निषद्यकासु प्राविधिना क्षेत्रपूजनम् ॥ (धर्मसं. प्रत्याख्यान है। श्रा. ६-६५)।
क्षेत्रप्रमारण-अंगुलादियोगाहणाप्रो खेत्तपमाणं, १ तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, कैवल्यप्राप्ति और 'प्रमीयन्ते अवगाह्यन्ते अनेन शेषद्रव्याणि' इति तीर्थ के चिह्नस्वरूप निषोधिका स्थानों में जो विधि- अस्य प्रमाणत्वसिद्धेः । (जयध. १, पृ. ३६)। पूर्वक पूजा की जाती है उसे क्षेत्रपुजा कहते हैं। अंगुल प्रादि अवगाहनात्रों को क्षेत्रप्रमाण कहा क्षेत्रप्रतिक्रमण-१. उदक-कर्दम-स-स्थावरनि- जाता है। चितेषु क्षेत्रेषु गमनादिवर्जनं क्षेत्रप्रतिक्रमणम् । क्षेत्रफल-१. समवट्टवासवग्गे दहगुणिदे करणि
जयो. टी. ११६); त्रस-स्थावरबहलस्य परिधो होदि । वित्थारतरिमभागे परिधिहदे स्वाध्याय-ध्यानविघ्नसंपादनपरस्य वा परिहरणं तस्स खेत्तफलं ।। (ति. प. १-११७) । २. वासो क्षेत्रप्रतिक्रमणम् ।। (भ. प्रा. विजयो. टी. ४२१)। तिगुणो परिही वासच उत्थाहदो दु खेत्तफलं । (त्रि. २. क्षेत्राश्रितातीचारान्निवर्तनं क्षेत्रप्रतिक्रमणम् । सा. १७)। (मूला. वृ. ७-११५)।
१ विवक्षित क्षेत्र की परिधि को उसके बिस्तार के १ जल, कर्दम (कीचड़) तथा स-स्थावर जीवों से चतुर्थ भाग से गुणित करने पर जो प्रमाण प्राता व्याप्त क्षेत्रों में गमनागमन के परित्याग को क्षेत्र- है उसे क्षेत्रफल कहते हैं। यह गोल क्षेत्र सम्बन्धी प्रतिकमण कहते हैं । अथवा स्वाध्याय व ध्यान में क्षेत्रफल के लाने का विधान है। विघ्न उत्पन्न करने वाले प्रचुर त्रस-स्थावर जीव- क्षेत्रमंगल-१. गुणपरिणदासणं परिणिक्कमणं यक्त क्षेत्र के परिहार को प्रतिक्रमण कहते हैं। केवलस्स णाणस्स । उपत्ती इयपहुदी बहुभेयं क्षतिसेवना-१. वर्षासु कोशागमनम्, अर्धयो. खेत्तमंगलयं । एदस्स उदाहरणं पावाणगरुज्जयन्तजनं वा, ततोऽधिकक्षेत्रगमनं क्षेत्रप्रतिसेवना । अथवा चंपादी । पाहुट्टहत्थपहुदी पणवीसभहियपणसयप्रतिषिद्धक्षेत्रगमनं विरुद्धराज्यगमनं छिन्नाध्वगमनं घणि ।। देहप्रवट्टिदकेवल णाणावट्टद्धगयणदेसो वा । ततो रक्षणीयागमनम्, तस्या? यदातिक्रान्तः, सेढिघणमेत्तअप्पप्पदेसगयलोयपूरणापुण्णा ।। विस्साउन्मार्गेण वा गमनम्, अन्तःपुरप्रवेशः, अननुज्ञात- णं लोयाणं होदि पदेसा वि मंगलं खेतं । (ति. गृहभूमिगमनम्, इत्यादिना क्षेत्रप्रतिसेवा । (भ. प. १, २१-२४)। २. तत्र क्षेत्र मङ्गलं गुणपरिप्रा. विजयो. ४५०) । २. खेत्तं वर्षासु साधूनां परिणतासन-परिनिष्क्रमण-केवलज्ञानोत्पत्ति- परिनिक्रोशं द्विक्रोश वा गमनमिष्टम् । ततो ऽधिकक्षेत्र- र्वाणक्षेत्रादिः। तस्योदाहरणं ऊर्जयन्त-चम्पा-पावागमनं क्षेत्रप्रतिसेवना। अथवा निषिद्धक्षेत्र विरुद्ध- नगरादिः । अर्धाष्टारल्यादि-पञ्चविंशत्यूत्तरपंचराज्य-छिद्राद्युन्मार्गान्तःपुराननुज्ञातगृहभूमि • द्रोण्या- धनुशतप्रमाणशरीरस्थित-कैवल्याद्यवष्टब्धाकाशदेशा दिगमनं क्षेत्रप्रतिसेवना । (भ. प्रा. मूला. ४५०)। वा, लोकमात्रात्मप्रदेशैलॊकपूरणापूरितविश्वलोक१ वर्षा ऋतु में साधु के लिए प्राधा कोश अथवा प्रदेशा वा । (धव. पु. १, पृ. २८-२६) । पाधा योजन जाने का विधान है, उससे अधिक १ जिन स्थानों पर साधु जनों ने उत्तमोत्तम गणों जाना, यह क्षेत्रप्रतिसेवना है। अथवा निषिद्ध क्षेत्र की प्राप्ति के कारणभूत वीरासनादि से स्थित में, विरुद्ध राज्य में, और त्रुटित मार्ग में गमन होकर ध्यान किया है, जहाँ पर दीक्षा ग्रहण की इत्यादि क्षेत्रप्रतिसेवना है।
है, केवलज्ञान और निर्वाण प्राप्त किया है, उन क्षेत्रप्रत्याख्यान-अयोग्यानि वानिष्टप्रयोजनानि स्थानों को क्षेत्रमंगल कहते हैं। जैसे-पावानगर संयमहानि संक्लेशं वा संपादयन्ति यानि क्षेत्राणि ऊर्जयन्त व चम्पापुर प्रादि। साढ़े तीन हाथ से तानि त्यक्ष्यामि इति क्षेत्रप्रत्याख्यानम् । (भ. प्रा. लेकर पांच सौ पच्चीस धनुष तक के शरीर में विजयो. ११६)।
स्थित और केवलज्ञान से व्याप्त प्राकाशप्रदेशों को अयोग्य व अनिष्ट प्रयोजन वाले तथा जो क्षेत्र संयम- भी क्षेत्रमंगल कहते हैं। तथा लोकपूरण समदद्यात विनाश और संक्लेश को उत्पन्न करते हैं उनका में दशा में केवली भगवान् के प्रात्मप्रदेशों से सर्वस्याग करूंगा, इस प्रकार के नियम का नाम क्षेत्र- लोक के व्याप्त होने के कारण लोक के समस्त
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षेत्रमास] ३६६, जैन-लक्षणावली
त्रिव्यतिरेक प्रदेशों को भी क्षेत्रमङ्गल कहते हैं।
३. क्षेत्रवृद्धिश्चंकतो योजनशतमभिग्रहीतमन्यतो क्षेत्रमास-यस्मिन क्षेत्रे मासस्य वर्णना स मास-- दशयोजनानि । ततस्तस्यां दिशि समुत्पन्ने कार्य क्षेत्रप्राधान्यविवक्षायां तत्क्षेत्रमास इत्यपि द्रष्टव्यम् । योजनशतमध्यादपनीयान्येषां दशादियोजनानां तत्रैव (व्यव. भा. मलय, वृ. २-१४, पृ. ६)।
स्वबुद्धधा प्रक्षेपो वृद्धिकरणमिति । (श्रा. प्र. टी. जिस क्षेत्र में मास का वर्णन किया जावे उसे क्षेत्र. २८३) । ४. अभिगृहीताया दिशो लोभावेशादाधिप्रधानता की विवक्षा से क्षेत्रमास कहते हैं। क्याभिसम्बन्धः क्षेत्रवृद्धिः। (त. लो. ७-३०)। क्षेत्रलोक-१. आयासं सपदेसं उड्ढमहो तिरिय- ५. प्राग दिशो योजनादिभिः परिच्छिद्य पुनर्लोभ. लोगं च । खेत्तलोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं ।। वशात्ततोऽधिकाकांक्षणं क्षेत्रवद्धिः। (चा. सा. पु. (मूला. ७-४६%; धव. पु. ४, पृ. ७ उद्.)। २. २८)। ६. तथा क्षेत्रस्य पूर्वादिदेशस्य दिग्व्रतविअागासस्स पएसा उड्ढं च अहे य तिरियलोए य। षयस्य हस्वस्य सतो वद्धिर्वर्द्धनं पश्चिमादिक्षेत्रान्तजाणाहि खित्तलोग अणंतजिणदेसि सम्म। (प्राव. रपरिमाणप्रक्षेपेण दीर्धीकरणं क्षेत्रवृद्धिः। (ध. बि. भा. १९७, पृ. ४६५) । ३. क्षेत्रलोक आकाश- मु. वृ. ३-२८% योगशा. स्वो. विव. ३-६७; सा. मात्रमनन्तप्रदेशात्मकम् । (स्थानां. अभय. व. १, घ. ५-५)। ७. व्यासंग-मोह-प्रमादादिवशेन लोभा
वेशाद योजनादिपरिच्छिन्न दिकसंख्याया अधिका१ प्रदेशयुक्त आकाश तथा ऊर्ध्व, अषः और कांक्षणं क्षेत्रवृद्धिः । यथा मन्या[मान्य] खेटावस्थितिर्यक लोक इस सब को क्षेत्रलोक समझना तेन केनचित् श्रावकेण क्षेत्रपरिमाणं कृतं यत् 'धाराचाहिए।
पुरीलङ्घनं मया न कर्तव्यम् इति', पश्चात् उज्जक्षेत्रवर्गरणा-एगागा[सपदे]सोग्गाहणपहुडि पदे- यिन्याम् अन्येन भाण्डेन महान् लाभो भवतीति सुत्तरादिकमेण जाव देसूणघणलोगे त्ति ताव एदामो तत्र गमनाकाक्षा गमनं वा क्षेत्रवृद्धिः । दक्षिणाखेत्तवग्गणाओ। (घव. पु. १४, पृ. ५२)। पथागतस्य धारायाः उज्जयिनी पञ्चविंशतिगव्यूएक आकाशप्रदेश प्रवगाहना से लेकर प्रदेशाधिक तिभिः किचिन्यूनाधिकाभि: परतो वर्तते । (त. बृ. क्रम से कुछ कम घनलोक तक जितने विकल्प हैं, श्रत. ७-३०, कार्तिके. टी. ३४१-४२)। ८. यथा ये सब क्षेत्रवर्गणाएं कहलाती हैं।
सत्यमित: क्रोशः शतं यावद् गतिर्मम । क्रोशा मालक्षेत्रविमोक्ष - क्षेत्रविमोक्षस्तु यस्मिन क्षेत्रे वदेशीया क्षेत्रवृद्धिश्च दूषणम् ॥ (लाटीसं. ६-१२०)। चारकादिके व्यवस्थितो विमुच्यते, क्षेत्रदानाद्वा, १ ग्रहण किये गये दिशा के प्रमाण से लोभवश उससे यस्मिन वा क्षेत्र व्यावर्ण्यते स क्षेत्रविमोक्षः । अधिक का अभिप्राय रखना, इसका नाम क्षेत्रवृद्धि (पाचारा. नि. शी.बु. १, ७, १. २५८, पृ. २३६)। है। यह अतिक्रमण प्रमाद, मोह अथवा कार्यब्याप्राणी चारक (कारागार) प्रादि जिस क्षेत्र में संग से होता है। ३ दिग्वत में किसी ने एक ओर अवस्थित रहकर मुक्ति पाता है वह क्षेत्रविमोक्ष सौ योजन प्रमाण और दूसरी ओर दस योजन कहलाता है । अथवा क्षेत्र के दान से जिस क्षेत्र से प्रमाण जाने का नियम किया, पश्चात् जिस ओर छुटकारा पाता है वह क्षेत्र विमोक्ष है। अथवा जिस दस योजन का नियम किया था उस प्रोर कार्यक्षेत्र में विमोक्ष का वर्णन किया जाता है उसे क्षेत्र विशेष के उपस्थित होने पर सौ योजन प्रमाण विमोक्ष जानना चाहिए।
क्षेत्र में से कुछ योजनों को कम करके स्वबुद्धि से क्षेत्रवृद्धि --१. परिगृहीताया दिशो लोभावेशादा- उधर के क्षेत्र में उतने योजन बढ़ा लेना, यह उस धिक्याभिसन्धिः क्षेत्रवृद्धिः, स एषोऽतिक्रमः प्रमा- दिग्वत में क्षेत्रवृद्धि नाम का अतिचार है। दान्मोहाद् व्यासङ्गाद्वा भवतीत्यवसेयः। (स. सि. क्षेत्रव्यतिरेक-अपि यश्चैको देशो यावदभिव्याप्य ७-३०) । २. अभिगमीताया दिशो लोभावेशादा- वर्तते क्षेत्रम् । तत्तत्क्षेत्र नान्यद भवति तदन्यच्च धिक्याभिसन्धिः क्षेत्रवृद्धिः । प्राग् दिशं योजनादि क्षेत्रव्यतिरेक: ।। (पंचाध्या. १-१४८) । भिः परिच्छिद्य पुनर्लोभवशात्ततोऽधिकाकांक्षणं क्षेत्र- जो एक देश-काशी कौशल प्रादि-जितने वृद्धिरित्यध्यवसीयते । (त. वा. ७, ३०, ५)। को व्याप्त करके स्थित है, वह उसका क्षेत्र है, अन्य
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षेत्रशुद्धि ]
नहीं है। उससे श्रन्य क्षेत्र क्षेत्रव्यतिरेक है । क्षेत्रशुद्धि - १. व्याख्यातृव्यवस्थित प्रदेशाच्चतसृष्वपि दिवष्टाविंशतिसहस्रायतासु विण्मूत्रास्थि-केशनख त्वगाद्यभावः षष्ठातीतवाचनात: आरात् पंचेन्द्रियशरीरार्द्रास्थि त्वग्- मांसास्रक्सम्बन्धाभावश्च क्षेत्रशुद्धि: । ( धव. भाग. ६, पृ. २५३) । २. एकान्ते निर्मले स्वास्थ्यकरे शीतादिवर्जिते । वन्दनां कुर्वतो देशे क्षेत्रशुद्धिश्च सा मता ॥ ( धर्मसं. श्री. ७-४५)।
४००, जैन - लक्षणावली
१ शास्त्रव्याख्याता जिस क्षेत्र में स्थित हो उसकी चारों दिशाओं में अट्ठाईस हजार (धनुष) लम्बे क्षेत्र में मल, मूत्र, हड्डी, बाल, नाखून और चमड़े श्रादि के प्रभाव को तथा छठी प्रतीत वाचना से निकटवर्ती क्षेत्र में पंचेन्द्रिय प्राणी के शरीर की गीली हड्डी, चमड़ा, मांस और रक्त के प्रभाव को भी क्षेत्रशुद्धि कहते हैं। यह शुद्धि शिष्याध्यापनरूप वाचना से सम्बद्ध है । क्षेत्रसमवाय - १. जम्बूद्वीप- सर्वार्थसिद्धघप्रतिष्ठाननरक - नन्दीश्वरैकवापीनां तुल्ययोजनशतसहस्रविकम्भप्रमाणेन क्षेत्रसमवायनात् क्षेत्रसमवायः । (त. वा. १ २०, १२; धव. पु. ६, पृ. १६९ ) । २. खेत्तदो सीमंतणिरय माणुसखेत्त उडुविमाण-सिद्धि खेत्तं च समा । ( धव. पु. १, पु. १०१ ); सिद्धिमनुष्यक्षेत्र विमान सीमन्तनरकाणां तुल्ययोजनपंचचत्वारिंशच्छतसहस्राविष्कम्भप्रमाणेन क्षेत्रसमवायः । ( धव. पु. ६, १६९ ) । ३. सीमंत माणुसखेत्त-उडुविमाण- सिद्धिखेत्ताणि चत्तारि वि सरिसाणि एसो खेत्तसमवा । ( जयध. पु. १, पृ. १२४) । ४. क्षेत्राश्रयेण सीमान्तनरक- मनुष्यक्षेत्र ऋत्विन्द्रकाणि सदृशानि अवधिस्थाननरक- जम्बूद्वीप- सर्वार्थसिद्धिविमानानि सदृशानि इत्यादिः क्षेत्रसमवायः । (गो. जी. म. प्र. टी. ३५६ ) । ५. क्षेत्राश्रयेण सीमन्तनरक - मनुष्यक्षेत्र - ऋत्विन्द्रक - सिद्धक्षेत्राणि प्रदेशतः सदृशानि श्रवधिस्थाननरक-जम्बूद्वीपसर्वार्थसिद्धिविमानानि सदृशानि इत्यादिः क्षेत्रसमवायः । (गो. जी. जी. प्र. टो. ३५६ ) । १ जम्बूद्वीप, सर्वार्थसिद्धि, श्रप्रतिष्ठाननरक प्रौर नन्दीश्वरद्वीपस्थ प्रत्येक वापी का समानरूप से एक लाख योजन प्रमाण विस्तार होने के कारण इसे क्षेत्रसमवाय कहा जाता है ।
[क्षेत्रससार
क्षेत्र समाधि - क्षेत्र साधिस्तु यस्य यस्मिन् क्षेत्रे व्यवस्थितस्य समाधिरुत्पद्यते स क्षेत्रप्राधान्यात् क्षेत्रसमाधिः, यस्मिन् वा क्षत्रे समाधिर्व्यावर्ण्यते इति । (सूत्र. नि. शी. वृ. १०५, पृ. १८७) । जिस क्षेत्र में अवस्थित जिस किसी पुरुष के चित्त की एकाग्रतारूप समाधि उत्पन्न हो, उसे क्षेत्र की प्रधानता से क्षेत्रसमाधि कहते हैं । श्रथवा जिस क्षेत्र में समाधि का वर्णन किया जाता है उसे क्षेत्रसमाधि जानना चाहिए ।
क्षेत्रसंयोग - से कि तं खित्तसंजोगे ?, २ भारहे एरवए हेमवए हेरण्णवए हरिवासए रम्मगवास ए देवकुरुए पुण्वविदेह प्रवरविदेहए, ग्रहवा मागहे मालवए सोरट्ठए मरहट्ठए कुंकणए, से तं खेत्तसंजोगे । ( अनुयो. सू. १३०, पृ. १४४ ) ।
भरत व ऐरावत श्रादि क्षेत्रों में उत्पन्न हुए जीवों के उन क्षेत्रों के सम्बन्ध से जो भारत व ऐरावत आदि नाम प्रसिद्ध होते हैं उन्हें क्षेत्र के संयोग से जानना चाहिए ।
क्षेत्रसंसार - १. स्वशुद्धात्मद्रव्यसम्बन्धि सहजशुद्धलोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशेभ्यो भिन्ना ये लोकक्षेत्रप्रदेशास्तत्र कैकं प्रदेशं व्याप्यानन्तवारान यत्र न जातो न मृतोऽयं जीवः स कोऽपि प्रदेशो नास्तीति क्षेत्रसंसार: । (बृ. ब्रव्यसं. टी. ३५, पृ. ८६-६० ) । २. तेषा - मेव ( जीव- पुद्गलानामेव ) क्षेत्रे चतुर्दशरज्वात्मके यत्संसरणं स क्षेत्रसंसार: । यत्र वा क्षेत्रे संसारो व्याख्यायते तदेव क्षेत्रमभेदोपचारात् संसारो यथा रसवती गुणनिकेत्यादि । ( स्थाना. श्रभय वृ. ४, १, २६१) । ३. चतुरशीतिलक्षसीमन्तका दिनरकादिध्वतीते कालेऽनन्ता जन्म-मरणयोर्वृत्तिर्भविष्यति सान्ता भव्यानामनन्ता चाभव्यानां क्षेत्रसंसारः । (भ. प्रा. मूला. ४३० ) ।
१ सहज शुद्ध लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण जो शुद्ध श्रात्मा के प्रवेश हैं उनसे भिन्न लोकक्षेत्र के प्रवेशों में ऐसा कोई प्रदेश नहीं हैं, जिसे व्याप्त करके यह जीव अनन्त बार जन्म-मरण को न प्राप्त हुआ हो, यही क्षेत्रसंसार है । २ चौदह राजस्व - रूप क्षेत्र में जो जीव और पुद्गलों का परिभ्रमण होता है, इसका नाम क्षेत्रसंसार है । अथवा जिस क्षेत्र में संसार का व्याखन किया जाता है, उसे
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षत्रसामायिक] ४०१, जेन-लक्षणावली
[क्षेत्रानुपूर्वी भी अभेदं के उपचार से क्षेत्रसंसार कहा जाता है, (२४) तीर्थंकरों की मध्यमा क्षेत्राख्या प्रतिष्ठा जैसे रसोई व गुणनिका आदि।
जाननी चाहिए। क्षेत्रसामायिक-१. जयर-खेट-कव्वड-मडंव-पट्टण- क्षेत्रातिक्रम-क्षेत्र स्याद्वसतिस्थानं धान्याधिष्ठानदोण मुह-जणवदादिसु राग-दोसणिरोहो सगावास- मेव वा। गवाद्यागारमात्रं वा स्वीकृतं यावदाविसयसंपरायणिरोहो वा खेत्तसामाइयं णाम । त्मना ।। ततोऽतिरिक्ते लोभान्मूच्र्छावृत्तिरतिक्रमः । (जयध. १, पृ. १८) । २. कानिचित् क्षेत्राणि न कर्तव्यो व्रतस्थेन कुर्वतोपधितूच्छताम् ।। (लाटीसं. रम्याणि अाराम-नगर-नदी-प-वापी-तडाग जनप
६,६८-६९)। दोपचितानि, कानिचिच्च क्षेत्राणि रूक्ष-कण्टक
क्षेत्रका अर्थ रहने का स्थान, धान्य का अधिष्ठान विषम-विरसास्थि-पाषाणसहितानि जीर्णाटवी-शष्क
(खेत) अथवा गायों आदि का बाड़ा होता है। परिनदी मरुसिकतापुंजादिबाहुल्याति, तेषूपरि राग- ग्रहपरिमाण में जितने क्षेत्र को स्वीकार किया गया द्वेषयोरभावः क्षेत्रसामायिकं नाम । (मूला. वृ. ७, है उससे अधिक में लोभ के वश प्रासक्ति रखना, १७)। ३. ग्राम-नगर-वनादिक्षेत्रेषु इष्टानिष्टेषु
यह उस व्रत का क्षेत्रातिक्रम नाम का अतिचार राग-द्वेषनिवृत्तिः क्षेत्रसामायिकम् । (गो. जी. म. प्र.
होता है । व्रती को उसका प्रतिक्रमण नहीं करना टी. ३६७)। ४. क्षेत्रसामायिकमाराम-कण्टक- चाहिए। वनादिषु शुभाशुभक्षेत्रेषु समभाव: । XXXक्षेत्र
- क्षेत्राननुगामी - यत्क्षेत्रान्तरं न गच्छति स्वोत्पन्नसामायिक सामायिकपरिणतजीवाधिष्ठितं स्थान
क्षेत्रे एव विनश्यति, भवान्तरं गच्छतु मा वा, मूर्जयन्त-चम्पापुरादि। (अन.ध. स्वो. टी. ८-१६)।
तत्क्षेत्राननुगामि । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ५. णाम-गाम-णयर-वणादिखेत्तेसु इट्ठाणि? सु राय
३७२)। दोसणियट्टी खेत्त सामाइयं । (अंगप. पू. ३०६)।
जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्तिक्षेत्र से अन्य क्षेत्र १ नगर, खेट, कर्वट, मटंब, पट्टन, द्रोणमुख और
___ में स्वामी के साथ नहीं जाता है, किन्तु वहीं पर जनपद आदि के विषय में राग-द्वेष न करना,
नष्ट हो जाता है। वह क्षेत्राननुगामी अवधिज्ञान अथवा अपने निवासस्थानविषयक कषाय को दूर
कहलाता है। वह अपने उत्पन्न होने के भव से करना, इसका नाम क्षेत्रसामायिक है।।
अन्य भव में जा भी सकता है और कदाचित् न क्षेत्रस्तव-१. कैलाश-सम्मेदोर्जयन्त-पावा-चम्पा
भी जाय। नगरादिनिर्वाणक्षेत्राणां समवस तिक्षेत्राणां च स्तवनं क्षेत्रस्तवः । Xxx चतुविशतिस्तवसहितं क्षेत्र
क्षेत्रानुगामी-स्वोत्पन्नक्षेत्रादन्यस्मिन् क्षेत्रे विहXXXक्षेत्रस्तवः । (मला. व. ७-४१)। २.
रन्तं जीवमनुगच्छति, भवान्तरं नानुगच्छति, क्षेत्रस्तवोऽहतां स स्यात्तत्स्वर्गावतरादिभिः । पतस्य तत्क्षेत्रानुगामि । (गो. जी.. प्र. व जी. प्र. टी. पूर्वनाद्रयादेर्यत्प्रदेशस्य वर्णनम् । (अन. ध. ८,
३७२)।
जो अवधिज्ञान अपनी उत्पत्ति के क्षेत्र से अन्य क्षेत्र ४२)।
में स्वामी के जाने पर उसके साथ रहता है-नष्ट १ कैलाश पर्वत, सम्मेदाचल, ऊर्जयन्तगिरि, पावापुर
नहीं होता, उसे क्षेत्रानुगामी अवधि कहते हैं। यह और चम्पापुर आदि निर्वाणभूमियों एवं समव. सरणस्थानों के गुणकीर्तन को क्षेत्रस्तव कहते हैं ।
अवधिज्ञान भवान्तर में साथ नहीं जाता है। अथवा चौवीस तीथंकरों के स्तवन सहित क्षेत्र को क्षेत्रानुपूर्वी-द्रव्यावगाहोपलक्षितं क्षेत्रमेव क्षेत्राक्षेत्रस्तव जानना चाहिए।
नुपूर्वी । (अनुयो. हरि. वृत्ति पृ. ४४)। क्षेत्राख्या प्रतिष्ठा-ऋषभाद्यानां तु तथा सर्वेषा- द्रव्य (तीन प्रादि परमाणुओं के स्कन्ध) को अवमेव मध्यमा ज्ञेया । (षोडश. ८-३)।
गाहना (तीन-चार प्रादि प्रदेशों) से उपलक्षितव्यक्त्याख्या, क्षेत्राख्या और महाख्या के भेद से परिचय में पाया हया-क्षेत्र ही क्षेत्रान पूर्वी प्रतिष्ठा तीन प्रकार की है। उनमें ऋषभादि सभी कहलाता है।
ल. ५१
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षेत्रानुयोग] ४०२, जैन-लक्षणावली
[क्षेत्राहार क्षेत्रानुयोग-तथा क्षेत्रस्यकस्य जम्बूद्वीपादेरनुयोगो च चक्रवर्तिविजयेषु । (त. भा. ३-१५)। २. यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः, तस्या जम्बूद्वीपलक्षणक- क्षेत्रार्याः काशी-कोशलादिषु जाताः। (त. वा. ३, क्षेत्रव्याख्यानरूपत्वात् । बहूनां क्षेत्राणामनुयोगो ३६, २) । ३. क्षेत्रार्याः पञ्चदशसू जायन्ते कर्मयथा द्वीप-सागरप्रज्ञप्तिः, बहूनां द्वीप-समुद्राणां तया भूमिषु । तत्रेह भारते सार्धपञ्चविंशतिदेशजा: ॥ व्याख्यानात् । क्षेत्रणानुयोगो यथा पृथिवीकायिका- (त्रि. श. पु. च. २, ३, ६६५)। ४. कौशलदिसङ्ख्याव्याख्यानं जम्बूद्वीपं प्रस्थकं कृत्वा। उक्त काश्यवन्ति-अंग-बग-तिलंग-कलिंग-लाट-कर्णाट-भोटच-जम्बुद्दीवपमाणा पुढविजियाणं तु पत्थयं काउं। गोड-गुर्जर-सौराष्ट्र-मरु-वाग्जड-मलय-मालव - कुंकएवं मविज्जमाणा हवंति लोगा असंखेज्जा ॥ क्षेत्र णाभीर - सौरभस - काश्मीर-जालंघरादिदेशोद्भवाः रनुयोगो यथा बहु-द्वीपसमुद्र प्रमाणं प्रस्थकं कृत्वा क्षेत्रार्याः । (त. वृत्ति श्रत. ३-३६)। पथिवीकायादिसङ्ख्याभणनम् । उक्तं च-खेत्तेहि १जो पन्द्रह कर्मभूमियों में, तथा भरतक्षेत्रों में बहुदीवेहिं पुढविजियाणं तु पत्थयं काउं । एवं वर्तमान साढ़े पच्चीस देशों में तथा शेष क्षेत्रगत मविज्जमाणा हवंति लोगा असंखेज्जा ।। क्षेत्रेऽनु- चक्रवतिविजयों में उत्पन्न हुए हैं वे क्षेत्रार्य कहे जाते योगस्तिर्यग्लोके भरतादो वा, क्षेत्रेष्वनुयोगोऽर्द्धतृती- हैं। २ काशी और कौशल प्रादि देशों में उत्पन्न येषु द्वीप-समुद्रेषु । (प्राव. नि. मलय. व. १२६, हुए मनुष्य क्षेत्रार्य कहलाते हैं। पृ. १३१)।
क्षेत्रावग्रह-१. पुवावरायया खलु सेढी लोगस्स अनयोग नाम विशेष विवरण या व्याख्यान का है। मझयारम्मि । जा कुणइ दुहा लोग दाहिण तह प्रकृत में यह क्षेत्रानुयोग कई प्रकार का है। जैसे- उत्तरद्धं च ।। साधारण प्रावलिया मज्झम्मि अवद्ध१ जम्बूद्वीप आदि किसी एक ही क्षेत्र का अनु- चंदकप्पाणं । अद्धं च परक्खित्ते तेसि श्रद्धं च सविखयोग । यथा-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति । २ बहुत क्षेत्रों का ते ।। सेढीइ दाहिणेणं जा लोगो उड्ढ मो सकविअनुयोग । जैसे-द्वीप-सागरप्रज्ञप्ति । ३ एक क्षेत्र माणा । हेट्ठा वि य लोगंतो खित्तं सोहम्मरायस्स ।।
रा अनुयोग । जैसे-जम्बूद्वीप को प्रस्थक (वृहत्क. ६७२-७४)। २. यो यत्क्षेत्रमवगृह्णाति (माप का एक उपकरण) करके पृथिवीकायिक स क्षेत्रावग्रहः। स च समन्तत: सक्रोशं योजनमेकप्रादि जीवों की संख्या का व्याख्यान । ४ वहत से स्मिन् क्षेत्रेऽवगृहीते सतीति । (प्रव. सारो. १२६) । क्षेत्रों के द्वारा अनुयोग। जैसे-बहुत द्वीप-समद्रों १ लोक के मध्य में पूर्व-पश्चिम लंबी एक प्रदेशरूप के प्रमाण को प्रस्थक करके पृथिवीकायिकादि जीवों श्रेणि है जो लोक को दो भागों में विभक्त करती की संख्गा का विवरण । ५ एक क्षेत्र या बहुत से है-दक्षिणार्ध और उत्तरार्थ। इनमें दक्षिण अर्धक्षेत्रों में अनयोग। जैसे-तिर्यग्लोक में या भरतादि लोक का अधिपति सौधर्म और उत्तर प्रलोक का क्षेत्रों अथवा अढाई द्वीप-समद्रों में।
अधिपति ईशान इन्द्र है। प्रचन्द्राकार सौधर्म व क्षेत्राभिग्रह-अ उ गोयरभूमी एलुगविक्खंभ- ईशान कल्पों में जो विमानपंक्ति है वह साधारण मित्तगहणं च । सग्गाम परग्गामे एव इय घराय है-पूर्व-पश्चिम दिशागत तेरह प्रस्तरों में कुछ खित्तम्मि । (बहत्क. भा. १६४६)।
सौधर्म इन्द्र के और कुछ ईशान इन्द्र के हैं। इत्यादि ऋज्वी, गत्वाप्रत्यागतिका, गोमत्रिका, पतगवीथिका, प्रकार का जो क्षेत्रविभाग है, यह देवेन्द्र का क्षेत्रापेडा, अर्धपेडा, अभ्यन्तरशम्बूका और बहिःशम्बू. वग्रह है। अभिप्राय यह कि इन्द्र व चक्रवर्ती प्रादि का; इन पाठ गोचरभूमियों का भिक्षार्थ नियम जितने क्षेत्र में अपना प्राधिपत्य रखते हैं, उसे करना, कमर के प्रमाण भोजन लेने का नियम क्षेत्रावग्रह कहा जाता है। करना तथा अपने गांव में या अन्य के गांव में क्षेत्राहार-क्षेत्राहारस्तु यस्मिन् क्षेत्रे पाहारः इतने घर तक जाऊंगा इत्यादि प्रकार का नियम क्रियते उत्पद्यते व्याख्यायते वा। यदि वा नगरस्य करना; इसका नाम क्षेत्राभिग्रह है।
यो देशो धान्येन्धनादिनोपभोग्यः स क्षेत्राहारः । क्षेत्रायं-१. क्षेत्रार्याः पञ्चदशसु कर्मभूमिष जाताः तद्यथा-मथुरायाः समासन्नो देशः परिभोग्यो तथा भरतेषु अर्धषड्विंशतिषु जनपदेषु जाता शेषेषु मथुराहारो मोढेरकाहाराः खेडाहार इत्यादि ।
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षत्रोज्झित] ४०३, जैन-लक्षणावली
[क्षेम-क्षेमरूप (सूत्रकृ. नि. शी. व. २, ३, १६६, पृ. ८७)। जाता है उसे क्षेत्रोपक्रम कहते हैं। यथा-हल जिस क्षेत्र में प्राहार किया जाता है, उत्पन्न होता और कुलिक (जिस काष्ठविशेष से घास प्रादि को है, अथवा व्याख्यान किया जाता है उसे क्षेत्राहार निकाला जाता है वह मारवाड़-प्रसिद्ध एक खेती कहते हैं। अथवा नगर का जो देश (भाग) धान्य का उपकरण) आदि के द्वारा खेतों का जो उपक्रम व इन्धन प्रादि के द्वारा उपभोग के योग्य होता है किया जाता है- उन्हें बीज बोने आदि के योग्य वह भी क्षेत्राहार कहलाता है।
बनाया जाता है, यह परिकर्म रूप में क्षेत्रोपक्रम क्षेत्रोज्झित - अमुगिच्चगं ण भुंजे उवणीयं तं च है। तथा हाथी के बन्धन प्रादि से-उनके मलकेणई तस्स । जं बुज्झे कप्पडिया स देश बहवत्थदेसे मूत्र आदि के द्वारा-जो खेतों का उपक्रम किया वा ॥ (बृहत्क. ६१२)।
जाता है-उन्हें विनष्ट किया जाता है, यह वस्तुमैं प्रमक देश के वस्त्र का उपभोग न करूंगा, ऐसी
नाशरूप में क्षेत्रोपक्रम है। प्रतिज्ञा करने के पश्चात यदि कोई उसे वही वस्त्र क्षेत्रोपसम्पत्-१. संजम-तव-गुण-सीला जम-णियभेंट करे तो उसके नहीं ग्रहण करने को क्षेत्रोज्झित मादी य जम्हि खेत्तम्हि । वडुति तम्हि वासो खेत्ते कहते हैं। अथवा कार्पटिक-अपने देश की ओर उवसंपया णेया ।। (मूला. ४-१४१) । २. यस्मिन् लौटकर पाने वाले या अपने देश से अन्य देश की क्षेत्र संयम-तपोगण-शीलानि यम-नियमादयश्च वर्द्धमोर जाने वाले–बीच में चोरों के भय आदि से न्ते तस्मिन् वासो यः सा क्षेत्रोपसम्पत् । (मूला. जो वस्त्रों का परित्याग कर देते हैं, अथवा वस्त्र- व. ४-१४१)। प्रचुर देश में अन्य सुन्दर वस्त्र को लेकर पुराने को १जिस क्षेत्र में रहने पर संयम, तप, गुण, शील, यम छोड़ देना, इत्यादि सब क्षेत्रोज्झित कहलाता है। और नियमादिक वृद्धि को प्राप्त होते हैं उस क्षेत्र क्षेत्रोत्तर- क्षेत्रोत्तरं मेर्वाद्यपेक्षया यदुत्तरम् । में निवास करने को क्षेत्र-उपसम्पत् कहा जाता है। (उत्तरा. शा. १, पृ. ३)।
क्षेम-क्षेमं च लब्धपालनलक्षणम् । (ललितवि. मेरु प्रादि की अपेक्षा जो उत्तरदिशागत क्षेत्र है वह म. पं. पृ. ३०)। . क्षेत्रोत्तर कहलाता है।
प्राप्त हुए राज्यादि के विधिपूर्वक रक्षण करने को क्षेत्रोत्सर्ग-यत्क्षेत्रं दक्षिणदेशाद्युत्सृजति, यत्र वा- क्षेम कहते हैं। ऽपि क्षेत्र उत्सर्गो व्यावय॑ते, एष क्षेत्रोत्सर्गः ।
क्षेमंकर-क्षेमं' शान्तिः रक्षा, तत्करणशीलः क्षेम. (प्राव. हरि. व. १४५२, पृ. ७७१)।
करः । (सूत्रकृ. सू. शी. व. २. ६, ४, पृ. १४१)। दक्षिण आदि जिस क्षेत्र का त्याग किया जाता है,
क्षेम नाम शान्ति या रक्षा का है। जिसका स्वभाव अथवा जिस क्षेत्र में उत्सर्ग का वर्णन किया जाता
शान्ति या रक्षा करने का है उसे क्षेमकर कहा है, उसे क्षेत्रोत्सर्ग कहते हैं। क्षेत्रोपक्रम-१. से कि तं खेत्त वक्कमे ?, २ जण्णं
जाता है। हल-कुलियाईहिं खेत्ताई उवक्कमिज्जति से तं क्षेम-प्रक्षेमरूप- तथा क्षेमोऽक्षेमरूपस्तु सः (ज्ञाखेत्तोवक्कमे । (अनयो. सू. ६७)। २. क्षेत्रस्योप- नादिसमन्वितः) एव भावसाधुः कारणिकद्रव्यलिङ्गक्रमः परिकर्म-विनाशकरणं क्षेत्रोपक्रमः । xxx रहितः। (सूत्रकृ. नि. शी. व. १, ११, १११.प्र. यदत्र हल-कूलिकादिभिः क्षेत्राण्यूपक्रम्यन्ते-बीजव. १९९)। पनादियोग्यतामानीयन्ते स कर्मणि क्षेत्रोपक्रमः, अन्तरंग में ज्ञान-संयमादि के धारक, किन्तु बाह्य में प्रादिशब्दाद् गजेन्द्रबन्धनादिभिः क्षेत्राण्युपक्रम्यन्ते साधुपदोचित प्रयोजनीभूत द्रव्यलिंग से रहित साप विनाश्यन्ते स वस्तुनाशे क्षेत्रोपक्रमः, गजेन्द्र मूत्रपुरी- को क्षेम-प्रक्षेमरूप भावमार्ग कहते हैं । षादिदग्धेष हि क्षेत्रेष बीजानामप्ररोहणात् विन- क्षेम-क्षेमरूप-ज्ञानादिसमन्वितो द्रव्यलिङ्गोपेतश्च ष्टानि क्षेत्राणि इति व्यपदिश्यन्ते । (अनुयो. मल. साधुः क्षेमः क्षेमरूपश्च । (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. १, हेम. व. ६७, पृ. ४८)।
११, १११, पृ. १६६)। २ खेत का जो परिकर्म (संस्कार) और विनाश किया अन्तगङ्ग में ज्ञानादि से युक्त तथा बाह्य में द्रव्य
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षोभ] ४०४, जैन-लक्षणावली
[खलीन दोष लिंग से भी युक्त साधु को क्षेम-क्षेमरूप भावमार्ग १ घड़े के कपाल-शर्करा आदि टुकड़ों को खण्ड कहते हैं।
कहते हैं। क्षोभ-निर्विकारनिश्चलचित्तवृत्तिरूपचारित्रस्य वि- खण्डकूट-यस्य पुन रेकपाश्र्व खण्डेन हीनता स नाशकश्चारित्रमोहाभिधानः क्षोभ इत्युच्यते । (प्रव. खण्डकुटः । (प्राव. नि. मलय. वृ. १३६, पृ. १४३)। सा. जय. वृ. ८)।
एक बाजू से फूट हुए घड़े को खण्डकुट कहते हैं। निविकार और निश्चल चित्तवत्तिरूप चारित्र के । खण्ड कुट-समान शिष्य-यस्तु व्याख्यानमण्डल्याविनाशक चारित्रमोह को क्षोभ कहते हैं।
मुपविष्टोऽर्द्धमात्र त्रिभागं चतुष्कं वा हीनं वा सूत्रा
र्थमवधारयति तथाऽवधारितं च स्मरति स खण्डक्षमालीक-क्ष्मालीक परस्वकामपि भूमिमात्मस्वकां विपर्ययं वा वदतो भवेत् । (सा.प. स्वो. टी.
कुटसमानः । (प्राव. नि. मलय. ब. १३६, पृ.
१४३) । ३-३६) ।
जैसे खण्डित हुए घड़े में धारण किया गया जल दूसरे की भी भूमि को अपनी बतलाने तथा अपनी
अल्प मात्रा में ठहरता है, इसी प्रकार जो शिष्य को दूसरे की भूमि बतलाने को क्षमालीक कहते हैं।
व्याख्यानमण्डली में बैठकर गरु के द्वारा उपदिष्ट अभिप्राय यह कि भूमि-सम्बन्धी प्रसत्य वचन को क्ष्मालीक कहते हैं।
सूत्रार्थ को प्राधा, तृतीयांश, चतुर्थांश अथवा और
भी हीन अवधारण करता है व अवधारित का श्वेलौषधि-१. जीए लाला सें भच्छीमल-सिंहाण
स्मरण करता है उसे खण्डकुट समान शिष्य प्रादिना सिग्छ । जीवाण रोगहरणा स च्चिय खेलो
कहते हैं। सही रिद्धी ।। (ति. प. ४-१०६६)। २. क्ष्वेलो
खण्डाभेद-से कि तं खंडाभेदे ? जण्णं प्रयखडाण निष्ठीवनमौषधिर्येषां ते वेलौषधिप्राप्ताः । (त. वा.
वा तउखंडाण वा तंबखडाण वा सीसखंडाण वा ३, ३६, ३)। ३. सेंभ-लाला-सिंघाण-विप्पुसादीण
रययखडाण वा जातरूवखंडाण वा खंडएण भेदे खेलो त्ति सण्णा । एसो खेलो अोसहित पत्तो जेसि
भवति से तं खंडाभेदे । (प्रज्ञाप. ११-१७१)। ते खेलोसहिपत्ता । (धव. पु. ६, पृ. ६६)।
लोहा, त्रपु (संगा), तांबा, शीशा, चांदी और १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से कफ, प्रांख का मल।
सोना; इनके खण्डों का जो खण्डरूप से भेद होता और नासिका का मल प्रादि जीवों के रोग को
है उसे खण्डाभेद कहते हैं। शीघ्र दूर करने वाले होते हैं वह क्वेलौषधि ऋद्धि
खलता-XXX अपगुणकथाभ्यासखलता । कहलाती है।
(युक्त्य नु. ६४) । खगचर-विज्जाए विणा सहावदो चेव गगण
अवगणों की कथा के अभ्यास का नाम खलता है। गमणसमत्थेसू खगयरत्तप्पसिद्धीदो। (घव. पु. ११, खलोन दोष-१. यः खलीनपीडितोऽश्व इव दन्तपृ. ११५)।
कटकटं मस्तकं कृत्वा कायोत्सर्ग करोति तस्य विद्या के बिना स्वभाव से ही जो प्राकाश में गमन
खलीनदोषः । (मला. व. ७-१७१) । २. खलीनकरने में समर्थ हो वह खगचर कहलाता है। मिव रजोहरणं पुरस्कृत्य स्थान खलीलनदोषः । खडगमद्रा-दक्षिणकरेण मुष्टि बद्ध्वा तर्जनी अन्ये खलीनार्तहयवदूर्वाधःशिरकम्पन खलीनदोषमध्ये प्रसारयेदिति खड्गमुद्रा । (निर्वाणक. पृ. माहुः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। ३.xx
xखलीनितम् । खलीनार्ताश्ववहन्त घृष्टयोवधिश्च दाहिने हाथ की मट्ठी बांध कर तर्जनी अंगुली के लच्छिरः। (अन. प. ८-११६) । फैलाने को खड्गमुद्रा कहते हैं।
१ खलीन नाम घोड़े की लगाम का है। खलीन से स्वर -१. खण्डो घटादीनां कपाल-शर्करादिः । पीड़ित घोड़े के समान दांतों की कटकटाहट यक्त
५-२४; त. वा. ५, २४, १४; कातिके. मस्तकको करके जो कायोत्सर्ग करता है उसके खलीन टा. २०६)। २. घट-करकादीनां भित्त-शर्करादि- दोष होता है। २ खलीन के समान रजोहरण को करणं खण्ड: प्रतिपाद्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२४)। : प्रागे करके स्थित होना, यह खलीनदोष कहलाता
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
खात]
४०५, जन-लक्षणावलो
है। दूसरे प्राचार्यों का कहना है कि लगाम से भांति नियंत्रित, शत्र से अभेद्य, बहुत धन-धान्यादि पीड़ित घोड़े के समान ऊपर-नीचे शिर के कंपाने से परिपूर्ण और अयोध्य होते हैं; इत्यादि प्रकार का नाम खलीनदोष है।
से खेट आदि के सम्बन्ध में कथा-वार्ता करना, इसे खात-१. खातं भूमिगृहादि । (योगशा. स्वो. खेटादिकथा कहते हैं। विव. १-६५) । २. खातं तूभयत्रापि सममिति। खेद-अनिष्टलाभः खेद:। (नि. सा. टी. ६)। (जम्बद्वी. शा. व. १२. पृ. ७६: जीवाजी. मलय. अनिष्ट के संयोग से चित्त में होने वाली खिन्नता व. ३, १, ११७, पृ. १५६)।
को खेद (अठारह दोषगत एक दोष) कहते हैं । १ भूमिगृह (तलघर) का नाम खात है।
खेलौषधि ऋद्धि-देखो श्वेलौषधि। खातोच्छित-खातोच्छितं भूमिगृहस्योपरि गृहा- गगन-पागासं गगण देवपथं गोझगाचरिदं प्रव. दिसन्निवेशः । (योगशा. स्वो. विव. ३-६५)। गाहणलक्खणं आधेयं वियापगमाघारो भूमि ति भूमिगह के ऊपर बनाये गये गहादि को खातोच्छित एयट्रो। (धव. पु. ४, पृ. ८)। कहते हैं।
जो अन्य द्रव्यों को स्थान देने वाला है उसे गगन खाद्य-शर्करादि वा । खाद्यं xxxII (लाटी- ___ कहते हैं। प्राकास, देवपथ, गद्यकाचरित, अवगासं. २-१६)
हनलक्षण, प्राधेय, व्यापक, प्राधार और भूमि; ये शक्कर प्रादि खाद्य कहलाते हैं।
उसके समानार्थक नाम हैं। खारी-षोडशद्रोणा खारी। (त. वा. ३,३८,३)। गगनगामिनी-देखो आकाशगामिनी। गच्छेदि सोलह द्रोण प्रमाण मापविशेष को खारी कहते हैं। जीए ऐसा रिद्धी गयणगामिणी णाम 1 (ति.प. खेट-१. गिरि-सरिकदपरिवेढं खेडं xxx ॥ ४-१०३४) । (ति. प. ४-१३६८)। २. सरित्पर्वतावरुद्धं खेडं जिसके प्रभाव से प्राकाश में गमन किया जा सकती णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३३५)। ३. खेट नद्या- है उसे गगनगामिनी ऋद्धि कहते हैं। प्राकाशद्विवेष्टिम् । (मला. व. 8-८६)। ४. खेटं घुली- गामिनी भी इसी का दूमरा नाम है। प्राकारम् । (प्रश्नव्या. अभय. व. पु. १७५; गच्छ--१. तिपुरिसओ गणो, तदुवरि गच्छों में प्रौपपा. अभय. वृ. ३२, पृ. ७४) । ५. पांसु-प्राका- (धव. पु. १३, पृ. ६३) । २. एकाचार्यप्रणयरनिबद्धं खेटम् । (जीवाजी. मलय. वृ. १-३६); साधुसमूहो गच्छः। (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-२४, पांशप्राकारनिबद्धानि खेटानि । (जीवाजी. मलय. योगशा. स्वो. विव. ४-१०)। ३. साप्तपुरुषिको व. ३, २, १४७, पृ. २७६)।
गच्छः । (मूला. व. ४-१५३)। १पर्वत और नदी से वेष्टित क्षेत्र को खेट कहा १ तीन पुरुषों का गण और उसके प्रागे गच्छ होता जाता है। ४ जिस नगर के चारों ओर धूलि- है। २ एक प्राचार्य के नेतृत्व में रहने वाले साधनों मिट्टी से बना हुमा-कोट हो, उसे खेट कहते हैं। के समह को गच्छ कहते हैं। खटादिकथा-खेट नद्याद्रिवेष्टितं नदी-पर्वतरव- गड्डी-दहरदोचक्कापो धण्णादिहलुअदव्वभरुव्वरुद्धः प्रदेश: । कर्वट सर्वत्र पर्वतेन वेष्टितो देशः। हणक्खमाणो गड्डीनो णाम । (धव. पु. १४, १. कथात्र सम्बध्यते-कर्वटकथा: खेटकथास्तथा संवा- ३८)। हन-द्रोणमुखादिकथाश्च, तानि शोभनानि निविष्टानि धान्य प्रादि हलके द्रव्य के भार के होने में समर्थ सुदुर्गाणि वीरपुरुषाधिष्ठितानि सुयंत्रितानि परचक्रा- दो चाकों वाली गाड़ी को गड्डी कहा जाता है भेद्यानि बहुधन-धान्यार्थनिचितानि, सर्वथायोधानि, गरग-१. गणः स्थविरसन्ततिः । (स. सि., न तत्र प्रवेष्टुं शक्नोतीत्येवमादिवाक्प्रलापाः खेटा- २४; त. श्लो. ६-२४; भावप्रा. टी. ७८)ी दिकथा:। (मला. व.8-८६)
२. गणः स्थविरसन्ततिसंस्थितिः। (ता. भा. नदी और पर्वत से अवरुद्ध प्रदेश को खेट कहते हैं। २४)। ३. गण: स्थविरसन्ततिः । स्थविराणां ये खेट, संवाहन व द्रोणमुख प्रादि सुन्दर, उत्तम सन्ततिर्गण इत्युच्यते । (त. वा. ९, २४, ८)। दुर्ग से सहित, शर-वीर पुरुषों से अधिष्ठित, भली ४. गण इति एकवाचनाचार-क्रियास्थानां समुदाय:।
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
गणक]
( धाव. नि. हरि. व मलय. वृ. २११) । ५. तिपुरि गण । ( धव. पु. १३, पू. ६३ ) । ६. स्थवि राणां सन्ततिर्गुणः । (चा. सा. पृ. ६६ ) । ७. त्रपु रुषिको गणः (मूला. ४ - १५३) । ८. कुलसमुदायो गणः । (योगशा. स्वो विव. ४-६० ) । ६. गणः कुलानां समुदाय: । ( श्रौपपा. अभय वू. २०, पृ. ३२) । १०. गणो मल्लगणादि: । ( व्यव. मलय. वृ. पू. ११७) । ११. वृद्धमुनिसमूहो गणः । (त. वृत्ति श्रुत. ९-२४ कार्तिके. टी. ४५७) ।
१ जो साधु स्थविर - मर्यादा के उपदेशक या श्रुत में वृद्ध होते हैं उनके समूह को गण कहा जाता है । गणक - गणक: संख्याविद् देवज्ञो वा । ( नीतिवा. १४-२७) ।
संख्या के जानकार गणितज्ञ को अथवा देवज्ञ ( ज्योतिषी) को गणक कहते हैं । गणधर - १. XXX गणपरिरक्खो मुणेयव्वो । (मूला. ४-३५, पू. १३५ ) ; पियधम्मो दढम्मो संविग्गोऽवज्जभीरु परिसुद्धो । संगह- णिग्गहकुसलो सददं सारक्खणाजुत्तो || गंभीरो दुद्धरिसो मिदवादी अप्पको दुहल्लो य | चिरपव्वइदो गिहिदत्यो प्रज्जाणं गणधरो होदि ॥ (मूला. ४, ६२-६३, पु. १५७-५८ ) । २. अनुत्तरज्ञान दर्शनादिधर्मगणं धारयतीति गणधरः । (दशवं. नि. हरि. वृ. १४, पू. १० ) । ३. गणा द्वादश यत्यादयो जिनेन्द्रसभ्याः । गणान् धारयन्ति दुर्गतिमार्गान्मिथ्याश्रद्धानादविनिवृत्य शिवमार्गे सम्यग्दर्शनादौ स्थापयन्तीति गणधराः सप्तविधद्धिप्राप्ताः धर्माचार्याः । ( भ. प्रा. मूला. ३४ ) । ४. यस्त्वाचार्यदेशीयो गुर्वा देशात् साधुगणं गृहीत्वा पृथग् विहरति स गणधरः । (प्राचा. शी. वृ. २, ११०, २७६, पू. ३२२) । ५. प्रभावनाधिको बाधमन्नाद्यः संघवर्तकः । जगदादेयवाग्मूर्तिर्वर्तकः कालदेशवित् ॥ समर्थस्थितिसद्गीतिः स्थविरः स्याद् गुणस्थिरः । रणरक्षाक्षमः सूरिगुंणी गणधरः स्मृतः । (प्राचा. सा. २-३५, ३६)
११ जो गण का रक्षण करता है वह गणधर कहलाता है । २ जो अनुपम ज्ञान दर्शनादिरूप धर्मंगण को धारण करता है उसे गणधर कहते हैं । ४ प्राचार्यसदृश जो गुरु की आज्ञा से साधुगण को लेकर पृथक् विहार करता है वह गणधर कहलाता है ।
४०६, जैन - लक्षणावली
[गणनाम
गणधरत्व - गणधरत्वं श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमप्रकर्षनिमित्तम् । (त. वा. ८ १२, ४१ ) । श्रुतज्ञानावरण के प्रकृष्ट क्षयोपशम के निमित्त से गण के धारण में समर्थ होना, इसका नाम गणघरत्व है
गणना - गणनं परिसंख्यानमेकं द्वे त्रीणि इत्यादि । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १, २, पृ. २) ।
।
एक, दो व तीन इत्यादि संख्या करने का नाम गणना है गणनाकृति ( गणणकदो ) - जा सा गणणकदी णाम सा प्रणेयविहा । तं जहा - एत्रो णोकदी, दुवे भवतव्वा कदित्ति वा णोकदित्ति वा तिप्पहूडि जाव संखेज्जा वा श्रसंखेज्जा वा श्रणंता वा कदी, सा सव्वा गणणकदी णाम । ( षट्खं ४, १, ६६ – पु. ६, पृ. २७४) । नोकृति, प्रवक्तव्यकृति और कृति श्रादि के भेद से गणनाकृति अनेक प्रकार की है। इनमें एक (१) का चूंकि वर्ग सम्भव नहीं है, अतः वह नोकृति है । दो (२) का वर्ग करने पर वर्ग तो होता है. पर उसके वर्ग में से वर्गमूल को कम करके वर्ग करने पर वृद्धि नहीं होती (२=४; ४-२२), प्रत: न उसे कृति कहा जा सकता है और न नोकृति ही; इसीलिए वह प्रवक्तव्य कृति है। आगे की तीन (३) श्रादि किसी भी संख्या के वर्ग में से वर्गमूल को कम करके वर्ग करने पर वृद्धि होती है, अतः ये सब संख्याएं कृति कहलाती हैं। जैसे – ३=६ ; ६-३=६; ६२ = ३६ इत्यादि । गरगनानन्त - जं तं गणणाणतं तं तिविहं — परिताणतं, जुत्ताणंत, घणंताणंतमिदि । ( धव. पु. ३, पू. १८) ।
परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त को गणनानन्त कहा जाता है । इनके लक्षण उन उन शब्दों में द्रष्टव्य हैं
गणनाम से कि तं गणनामे १, २ मल्ले मल्लदिन्ने मल्लधम्मे मल्लसम्म मल्लदेवे मल्लदा से मल्लसेणे मल्लरक्खिए, से तं गणनामे । ( अनुयो. १३०, पू. १४६ ) ।
जो नाम (शब्द) मल्ल, मल्लदत्त, मल्लधर्म, मल्लसाम्य (या मल्लश्रम ), मल्लदेव, मल्लदास, मल्लषेण और मल्लरक्षित; इन गणविशेषों में वर्तमान
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
गणनामान ]
हो वह गणनाम कहलाता है । गणनामान - एक द्वि-त्रि- चतुरादिगणितमानं गणनामानम् । (त. वा. ३, ३८, ३, पृ. २०५ ) । एक, दो, तीन और चार आदि संख्यारूप मान को गणनामान कहते हैं ।
गरगना संख्येय- देखो सख्येय । ज तं गणणासंखेज्जयं तं तिविहं - परित्तासंखेज्जयं, जुत्तासंखे ज्जयं असं खेज्जासंखेज्जयं चेदि । ( धव. पु. ३, पृ. १२६)।
गणना संख्यात परीता संख्यात, युक्तासंख्यात श्रौर श्रसंख्याता संख्यात के भेद से तीन प्रकार का है । ( इनके पृथक्-पृथक् लक्षण उन्हीं शब्दों में देखना चाहिए ।)
गणाधिप – गणाधिपः घर्माचार्यस्तादृग्गृहस्थाचार्यो वा । (सा. ध. स्वो. टी. २-५१) । धर्माचार्य, अथवा उसके समान गृहस्थाचार्य को गणाधिप कहा जाता है । गरगावच्छेदक - गणावच्छेदकस्तु गच्छकार्य चिन्तकः । ( आचारा. शी. वृ. २, १,१०, २७६, पृ. ३२२) ।
गच्छ के - एक प्राचार्य के नेतृत्व में वर्तमान साधुसमूह के कार्यों की जो चिन्ता करता है, वह गणावच्छेदक कहलाता है ।
गणितपद - विक्खंभपायगुणिउ परिरउ तस्स गणिययं । (लघु संग्रहणी ७ ) ।
वृत्त क्षेत्र की परिधि को विष्कम्भ के चतुर्थ भाग से गुणित करने पर उसका गणितपद (क्षेत्रफल) होता है ।
गणिम-से कि तं गणिमे ?, २ जण्णं गणिज्जइ । तं जहा - एगो दस सयं सहस्सं दससहस्साई सयसहस्सं दससय सहस्साई कोडी । एएणं गणिमप्पमाणे कि पोणं ? एएणं गणिमपमाणेणं भितगभिति भत्त-वेश्रण प्रायव्वयसंसिघ्राणं दव्वाणं गणियप्यमाणनिव्वित्तिलक्खणं भवइ, से तं गणिमे । (अनुयो. सू. १३२, पृ. १५४) ।
एक, दश, शत, सहस्र, दशसहस्र, शतसहस्र (लक्ष), दशशतसहस्र और कोटि आदि संख्याओं को गणिम कहते हैं। भृतक (सेवक ), भृति ( पदाति श्रादिकों की वृत्ति), भोजन एवं जुलाहे आदि का वेतन; इन सबके प्राय-व्यय से सम्बद्ध रुपया आदि द्रव्यों
४०७, जैन-लक्षणावली
[गतरूपध्यान
के लेखा-जोखा की सिद्धि यह उक्त गणिम का प्रयोजन है ।
गरणी - १. एकादशाङ्गविद् गणी । ( धव. पु. १४, पृ. २२) । २. गच्छाधिपो गणी । ( श्राधारा. शी. वृ. २, ९, १०, पू. ३२२ ) ।
१ ग्यारह अंगों के ज्ञाता को गणी कहते हैं । २ गच्छ के स्वामी को गणी कहते हैं ।
गण्डि - गच्छति प्रेरितः प्रतिपथादिना डीयते च कूर्दमानो विहायोगमनेनेति गण्डि: । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १- ६४, पृ. ४९ ) ।
प्रेरित किये जाने पर जो कुमार्ग से जाता है तथा उछलते-कूदते हुए जो प्राकाशगमन से भी छलांग मारता है उसे गण्डि कहते हैं ।
गण्डिका - इहैक वक्तव्यतार्थाधिकारानुगता वाक्यपद्धतयो गण्डिका उच्यन्ते । ( नन्दी. हरि. व. पु. १०६; समवा. अभय. व. १४७ ) । एक वक्तव्यतारूप अर्थाधिकार से प्रनुगत वाक्यपद्धतियों को गण्डिका कहते हैं। fusaraयोग तासां (गण्डिकानां) अनुयोग: श्रर्थं कथनविधिः गण्डिकानुयोगः । ( नन्दी. हरि. यू. पू. १०६; समवा. अभय वू. १४७, पृ. १२२ ) । गण्डिकाओं के अर्थ की कथनविधि को गण्डिकानयोग कहते हैं ।
-
गतप्रत्यागततप - यया वीथ्या गतः पूर्वं तयंव प्रत्यागमनं कुर्वन् यदि लभते भिक्षां गृह्णाति नान्यथा । (भ. प्रा. विजयो. २१८ ) ।
पहले जिस वीथी (गली) से गया था, उसी वोयो से लौटते हुए यदि भिक्षा मिले तो ग्रहण करे, अन्यथा ग्रहण न करे; इस प्रकार के नियम लेने को गतप्रत्यागतवृत्तिपरिसंख्यानतप कहते हैं । गतरूपध्यान - ण य चितइ देहत्थं देहबहित्थं ण चितए कि पि । ण सगय-परगयरूवं तं गयरूवं निरालंबं । जत्थ ण करणं चिता अक्खररूवं ण धारणा धेयं । ण य वावारो कोई चित्तस्स य तं निरालंब || इंदियविसयवियारा जत्थ स्वयं जंति राय-दोसं च । मणवावारा सव्वे तं गयरूवं मुष्णेयव्वं ॥ ( भावसं. वे. ६२८-३० ) ।
जिस ध्यान में न बेहस्थ किसी वस्तु का चिन्तन किया जाता है, न देह के बाहिर स्थित किसी वस्तु का चिन्तन किया जाता है, न स्वगत रूप का
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
पति ४.८, जैन-सक्षणायली
[गतिपरिणाम चिन्तन किया जाता है, न परगत रूप का चिन्तन नामकर्म के उदय से जो प्रात्मा की पर्याय उत्पन्न किया जाता है। जहां करण, चिन्ता ब अक्षर-रूप होती है उसे गति कहते हैं। नहीं है। घारणा. व ध्येय नहीं है; चित्त का कोई गतिनाम-१. यदुदयादात्मा भवान्तरं गच्छति सा ध्यापार नहीं है तथा जहां इन्द्रियविषयों सम्बन्धी गतिः । (स. सि. ८-११; त. श्लो . ८-११, भ. व्यापार, राग-द्वेष और सब मन के व्यापार नहीं प्रा. मूला. २०६५) । २. गतिनामकर्मोदयादात्मनम्ब गतरूप (रूपातीत) ध्यान कहा स्तद्भावपरिणामाद गतिरोदयिकी। येन कर्मणा
प्रात्मनो नारकादिभावावाप्तिर्भवति तद्गतिनाम । पति-१. देखो गतिपरिणाम । गइकम्मविणिव्वत्ता (त. वा. २,६,१); यदुक्यादात्मा भवान्तरं गच्छति जा चेट्ठा सा राई मुणेयच्वा । जीवा हु चाउरंगं गच्छंति सा गतिः । यस्य कर्मण उदयवशात् प्रात्मा भवात्ति य गई होई ॥ (प्रा. पंचसं. १-५६; धव. पु. न्तरं प्रत्यभिमुखो व्रज्यामास्कन्दति सा गतिः । (त. १५. १३५ उद्.)। २ गभ्यतेऽसाविति गति र- वा. ८, ११, १)। ३. गतिनाम यदुदयान्नरकादि
गतिगमनम् । (श्रा. प्र. टी. २०)। ४. गतिनाम १२)। ३. गतिकर्मणा समुत्पन्न प्रात्मपर्यायः गतिः। प्रति स्वं ( ? ) गत्याभिधानकारणम् । (अनुयो. हरि. (षव. पु. १, पृ. १३५); गतिर्भवः संसार इत्यर्थः। व.पृ.६३)। ५. जं णिरय-तिरिक्ख-मणुस्स-देवाणं xxx जम्हि जीवभावे प्राउकम्मादो लद्धा- णिवत्तयं कम्मं तं गदिणामं । (धव. पु. १३, पृ. वट्ठाणे संते सरीरादियाई कम्मादिमृदयं गच्छति सो ३६३)। ६. गतिनामोदयादेव गति: xxxn भावो जस्स पोग्गलक्खंधस्स मिच्छत्तादिकारणेहि (तत्त्वा. श्लो. २, ६, २)। ७. गतिर्भति जीवानां पत्तकम्मभावस्स उदयादो होदि तस्स कम्मक्खंधस्स गतिकर्मविपाकजा । (त. सा. २-३८)। ८. यया गदि त्ति सण्णा । (धव. पु. ६, पृ. ५०); भवाद गच्छन्ति संसारं या कृता गतिकर्मणा । शुभ्रगत्यादिभइसक्रान्तिर्गतिः। (धव. पु. ७, पृ. ६); इच्छिद- भेदेन गतिः सास्ति चतुर्विधा ।। (पंचसं. अमित. गदीदो अण्णगदिगमणं गदी णाम । (धव. पु. १३, १-१३६, पृ. २७) । ६. गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति तथाप..३४६) ४. देशान्तरप्राप्तिहेतुः परिणामो गतिः। विधकर्मोदयसचिवा जीवास्तामिति गति:नारकादिप(त. भा. सिद्ध. व. ५-१७) । ५. गइउदयजपज्जा- र्यायपरिणतिस्तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृति रपि गतिः, संव या उगइगमणस्स हेउ वा हु गई। णारय-तिरिक्ख- नाम गतिनाम । (कर्मस्त. गो. व. १०, पृ. १६) । माणुस-देवगइ ति य हवे चदुधा (गो. जी. १०. गतिनाम यदुदयान्नारकादित्वेन जीवो व्यप१४६)। ६. गति: देशान्तरसंचाररूपा । (घ. बि. दिश्यते । (समवा. अभय. वृ. ४२, पृ. ६३)। ११. मु.व. ७-१९)। ७. मरणानन्तरं मनुजत्वादेः गतिनामकर्मोदयाज्जातो नारकत्वादिपर्यायो गतिः, सको शान्नारकत्वादी जीवस्य गमनं गतिः । (स्थाना. कार्य कारणोपचारात् । अत्र कर्मोदयवशवतिना अभय.. १-२५, पृ. २०); चलनं मृत्वा वा जीवेन गम्यते प्राप्यते इति गति: इति निरुक्तिः । गत्यन्तरगमनलक्षणः । (स्थाना. अभय.व. २, ३, अथवा संसारिणां चतुर्गतिगमनस्य हेतुर्गतिनामकर्म । ८५, ५.१६२)। ८. तत्र गम्यते नरयिकादिगति विवक्षितनारकादिपर्यायं गच्छन्ति संसारिणो जीवा कौंदर्यशादवाप्यते इति गतिः नरयिकत्वादि- यया सा गतिरिति निरुक्त्या गतिनामवर्मण एव पर्यायपरिणतिः । (प्रज्ञाप. मलय. व. १३-१५०) चतुर्गतिगमन हेतृत्व सिद्धः। (गो. जी. म. प्र. १४६)। गम्यते तथाविधकर्मसचिवैः प्राप्यते इति गतिौर. १जिस कर्म के उदय से जीव अन्य भव को जाता कत्वादिपर्यायपरिणति: । (प्रज्ञाप. मलय.' वृ: २३, है उसे गतिनामकर्म कहते हैं। ३ जिसके उदय से २६३, पृ. ४६९)। म .
नरकादिगति के लिए गमन होता है वह नरकगति १ गतिनामकर्म के उदय से जो चेष्टा निर्मित होती" नामकर्म कहलाता है। है उसे गति जानना चाहिए। २ 'गभ्यते ऽसाविति गतिपरिणाम- १. देशाद्देशान्तरप्राप्तिहेतुर्गतिः । गतिः' इस निरुक्ति के अनुसार नारक आदि के (स. सि. ४-२१ व ५-१७; गो. जी. जी. प्र. ___ *गति कहा जाता है। ३ गति १०५; त.वृत्ति श्रुत. ४-२१)। २. देशान्तर
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
गत्याख्यान ४०६, जैन-लक्षणावली
[गरुडमुद्रा प्राप्तिहेतुर्गतिः । उभयनिमित्तवशात् उत्पद्यमानः या दुर्गन्ध उत्पन्न हो उसे गन्धनाम कहते हैं । कायपरिस्पन्दो गतिरित्युच्यते । (त. वा. ४, २१, गन्धर्व- देखो गान्धर्व । १. इन्द्रादीनां गायकाः १); द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः परिणामो गतिः। गन्धर्वाः । (धव. पु. १३, पृ. ३६१) । २. गन्धर्वा: द्रव्यस्य बाह्याभ्यन्त रहेतुसन्निधाने सति परिणममा- प्रियदर्शनाः सुरूपाः सुमुखाकारा: सुस्वरा: मौलिनस्य देशान्तरप्राप्तिहेतु: परिणामो गतिरित्युच्यते । मुकुटधरा हारविभूषणाः। (बृहत्संग्रहणी मलय. (त. वा. ५, १७, १) । ३. उभयनिमित्तवशाशा - व. ५८)। न्तरप्राप्तिनिमित्तः कायपरिस्पन्दो गतिः। (त. श्लो. १ इन्द्र आदि के जो गान करने वाले देव होते हैं ४-२१)।
वे गन्धर्व कहलाते हैं। २ जो व्यन्तदेव देखने में १ जो अवस्था किसी एक देश से दूसरे देश की। सुन्दर, उत्तम स्वर से संयक्त तथा मकुट व हार प्रति में कारण होती है उसे गति परिणाम कहा से विभूषित होते हैं वे गन्धवं कहलाते हैं। जाता है।
___ गमनक्रिया सूर्याभिमुखगमनादिका गमनक्रिया । गत्याख्यान-नरकादिप्रभेदेन चतस्रो गतयो मताः। (भ. प्रा. विजयो. व मूला. ८६)। तासां संकीर्तनं यद्धि गत्याख्यानं तदिष्यते ।। (म. पु. सूर्य के अभिमुख जाने को गमनक्रिया कहते हैं। ४-१०)।
स्थानक्रिया, प्रासनक्रिया, शयनक्रिया और गमननरकादि चारों गतियों का व्याख्यान करने को क्रिया; ये नग्नता के माहात्म्य को सचित करने गत्याख्यान कहते हैं।
वाली क्रियायें हैं। गदामुद्रा-वामहस्तमुष्टरुपरि दक्षिणमुष्टि कृत्वा गमिकश्रुत-भिन्ने यदर्थजाते सदशाक्षरालापक गात्रेण सह किञ्चिदुन्नामयेदिति गदामुद्रा । (निर्वा- तद् गमिकम् । (कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. १३)। णक. १६-७, पृ. ३२)।
अर्थ की भिन्नता के होते हुए भी अक्षरों की समानता बायें हाथ की मुट्ठी के ऊपर दाहिने हाथ की मुट्ठी रखने वाले पाठों से युक्त शास्त्र को गमिक श्रुत को रखकर शरीर के कुछ ऊंचा करने को गदामुद्रा कहते हैं । कहते हैं।
गरिमा-१. वज्जाहिंतो गुरुवत्तणं च गरिम त्ति गन्धनाम-१. यदुदयप्रभवो गन्धस्तद्गन्धनाम। भण्णति ।। (ति. प. ४, १०२७)। २. वज्रादपि (स. सि. ८-११; त. वा. ८, ११, १०) गुरुतरशरीरता गरिमा । (त. वा. ३, ३६, ३) । २. शरीरविषयं सौरभं दुर्गन्धित्वं च यस्य कर्मणो ३. वज्रादपि गुरुतरदेहता गरिमा। (चा. सा. पृ.
पाकान्निवर्तते तद्गन्धनास । (त. भा. हरि. व ६७)। ४. गुरुशरीरविधानं गरिमा। (त. वृत्ति सिद्ध. वृ. ८-१२)। ३. जस्स कम्मक्खंधस्स उद- श्रुत. ३-३६) । एण जीवसरीरे जादिपडिणियदो गंधो उप्पज्जदि १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से वज्र से भी गरुतर तस्स कम्मक्खंधस्स गंधसण्णा। (धव. पु. ६, पृ. शरीर बनाया जा सके उसे गरिमा ऋद्धि कहते हैं । ५५); जस्स कम्मस्सुदएण सरीरे दुविहगंधणिप्फत्ती गरुडा-गरुडाकारविकरणप्रिया: गर होदि तं गंधणामं । (धव. पु. १३, पृ. ३६४)। १३, पृ. ३६१)।
. ४. गन्धनाम सुरभि-गन्धदुरभिगन्धनिबन्धनम् । जो देव गण्ड के प्राकाररूप विकिया के करने में (धर्मसं. मलय. वृ. ६१८)। ५. तथा गन्ध अर्दने, अनुराग रखते हैं वे गरुड कहे जाते हैं।' गाध्यते पाघ्रायते इति गन्धः xxx तन्निबन्धनं गरुडमद्रा-प्रात्मनोऽभिगूखदक्षिणहस्तकनिष्टिकया गन्धनाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३-२६३, पृ. वामकनिष्ठिका संगृह्याधःपरावर्तितहस्ताभ्यां गरुड४७३)। ६. यदुदयाद् गन्धस्तद् गन्धनाम । (भ.पा. मुद्रा । (निर्वाणक. १६, ६, ६, पृ. ३३)। मला. २१२४)। ७. यदुदयेन गन्धो भवति स गन्धः। अपने अभिमख दाहिने हाथ की कनिष्ठिका अंगली (त. वृत्ति श्रुत. ८-११)।
से बायें हाथ की कनिष्ठिका को ग्रहण करके हाथों १, २ जिस नामकर्म के उदय से शरीर में सुगन्ध के नीचे परावर्तित करने से गरुडमुद्रा होती है।
ल. ५२
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
गर्दतोय] ४१०, जैन-लक्षणावली
[गल गर्दतोय-गर्दाः शब्दाः तोयवत् प्रवहन्ति, लहरीत- (प्राव. नि. १०५०) । ३. परसाक्षिकी गरे । रङ्गवत् प्रवर्तन्ते येषु ते गई तोयाः । (त. वृत्ति (दशवं. हरि. वृ. ४-२, पृ. १४४) । ४. गर्हणं श्रुत. ४-२५)।
गर्दा कुत्सा, शास्त्रप्रतिसिद्धवागनुष्ठानं गहितम्, शब्दों को गर्द और जल को तोय कहते हैं । जिनके कुत्सितमिति यावत् । (त. भा. सिद्ध. वृ. ७-९)। मुख से शब्द जल की तरंग के समान प्रवाहित ५. गर्दा परेषा "वं (सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेर्मार्गो हों उन लोकान्तिक देवों को गर्वतोय कहते हैं। मया तु पातकेन वस्त्र-पात्रादिकः परिग्रहः परीषहगर्भ-१. स्त्रिया उदरे शुक्र-शोणितयोर्गरणं मिश्रणं भीरुणा गृहीतः इत्येवं) कथनम् । (भ. प्रा. विजयो. गर्भः, मात्रोपभुक्ताहारगरणाद्वा गर्भः। (स. सि. ८७)। ६. जाते दोष द्वेष-रागादिदोषरग्रे भक्त्या२-३१) । २. शुक्र-शोणितयोग रणाद् गर्भः । यत्र
दोषा सोक्ता गर्दा गर्हणीयस्य हन्त्री॥ (अमित. पभुक्ताहारात्मसात्करणाद्वा। अथवा मात्रोपभुक्त- श्रा. २-७७)। ७. गुरुसाक्षिकी गरे । (स्थानां. स्याहारस्यात्मसात्करणाद् गरणाद् गर्भः । (त. वा. अभय. वृ. ३, ३, १६८; योगशा. स्वो. विव. २, ३१, २-३)। ३. गर्भ इति स्त्रीयोनी शुक्र- ३-८२; कातिके. टी. ३२६)। ८. गरहणंशोणितपुद्गलादानं गर्भणं गर्भः। (त. भा. हरि. निदेव, गुर्वादिसाक्षिकेत्यर्थः। (भ. प्रा. मूला. ८७)। ७. २-३२ । ४. शुक्र-शोणितगरणाद् गर्भः, मातृ. ६. गर्हणं तत्परित्यागः पञ्चगुर्वात्मसाक्षिकः । प्रयुक्ताहारात्मसात्करणाद्वा । (त. श्लो. २-३१)। निष्प्रमादतया नूनं शक्तित: कर्महानये ५. तथा योषिद्योनार्वकध्यमागत्य ग्रहणं शुक्र-शोणि- ३-११७; पंचाध्या. २-४७४) । तयोर्यत क्रियते जीवेन जनम्यभ्यवहृताहार रसपरि- १हिसा, कठोरता और पिशनता प्रावि से युक्त पोषापेक्षं तद गर्भजन्मोच्यते । (त. भा. सिद्ध व. वचन सत्य होने पर भी गर्दा यक्त होने से गहित २-३२)। ६. गर्भः शक्र-शोणितसंपातः । (सिद्धिवि. कहे जाते हैं। २ दूसरे के समक्ष जो प्रात्मनिन्दा की ३.६-२५, पृ.६३८) । ७. शरीरपरिणतिकारण- जाती है उसका नाम गहीं है। ५. समस्त प शुक्र-शोणितस्य गरणं स्वीकारो गर्भः। (गो. जी. का छोड़ना, यह मुक्ति का मार्ग है। पर मुझ म. प्र. टी. ८३)। ८. जायमानजीवेन शुक्र-शोणित- पापी ने परीषह से डरकर वस्त्र व पात्र प्रावि रूपपिण्डस्य गरणं-शरीरतया उपादानं गर्भः। (गो. परिग्रह को ग्रहण किया है, इस प्रकार दूसरों से जी. जी. प्र. टी. ८३, कार्तिके. टी. १३०)। कहना; इसका नाम गरे है। ६. मातुरुदरे रेतःशोणितयोः गरणं मिश्रणं जीव- गहित वचन-देखो गरे । १. कक्कसवयणं णिठ्ठसंक्रमणं गर्भः। (त. वत्ति श्रुत. २-३१)। रवयणं पेसुण्ण-हासबयणं च । जं कि चि विप्पलावं १ स्त्री की योनि में जो वीर्य और रज का मिश्रण गरहिदवयणं समासेण ॥ (भ. प्रा. विजयो. ८३०)। होता है उसे गर्भ कहते हैं, अथवा माता के द्वारा २. पैशून्य-हासगर्भ कर्कशमसमञ्जसं प्रलपितं च । उपभुक्त प्राहार के प्रात्मसात् करने का नाम अन्यदपि यदुत्सूत्रं सत्सर्वं गर्हित गदितम् ॥ (पु. सि. गर्भ है।
१६)। ३. हिंसन-ताडन-भीषण-सर्वस्वहरण-पुर:गर्भजन्मा-जायमानजीवेन शुक्र-शोणितरूपपिंडस्य सरबिशेषम् । गह्य वचो भाषन्ते गोज्झितवचनगरणं शरीरतयोपादानं गर्भः, ततो जाता ये गर्भजाः मर्मज्ञाः ।। (अमित. श्रा. ६-५५)। तेषां गर्भजानां जन्म उत्पत्तिर्येषा ते गर्भजन्मानः। १ कर्कश, निष्ठर, पैशन्य (परदोषसचक और (कातिके. टी. १३०)।
हास्यभित वचनों को गहित वचन कहते हैं। गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीवों को गर्भजन्मा इतके अतिरिक्त जो कुछ भी वकवाद किया जाता कहते हैं।
है, यह सब गहित वचन कहलाता है। गर्दा-१. गति हिंसा-पारुष्य-पशून्यादियुक्तं वचः गल-गलो नाम प्रान्तन्यस्तामिषो लोहमयः सत्यमपि गहितमेव भवतीति । (त. भा. ७-६)। कण्टको मत्स्यग्रहणार्थं जलमध्ये सचारितः । २. गरहा वि तहा जाईअमेव नवरं परप्पगासणया। (उपदे. प. मु. वृ. १८८, पृ. १५१) ।
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
गलि ]
मछली पकड़ने के लिए लोहे के जिस कांटे के प्रन्त में मांस का टुकड़ा लगा कर पानी में फेंकते हैं उसे गल कहते हैं ।
गलि -- गिलत्येव केवलं न तु वहति गच्छति वेतिगलि: । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १-६४, पृ. ४६ ) । जो केवल निगलता है, परन्तु न बोझा ढोता है और न चलता है उस दुष्ट घोड़े का नाम गलि है । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार गलि ( अविनीत ) घोड़ा बार-बार चाबुक के मारने पर चलता व लौटता है, उसी प्रकार जो शिष्य पुनः पुनः गुरु के वचन की अपेक्षा करके प्रवृत्ति-निवृत्ति करता है, वह गलि शिष्य कहलाता है । गवादिसंख्यातिक्रम - गौरनड्वाननड्वाही च, स श्रादिर्यस्य द्विपद् चतुष्पदवर्गस्य स गवादिः । श्रादिशब्दान्महिष-मेषाऽविक करभ - रासभ तुरग हस्त्यादिचतुष्पदानां हंस-मयूर कुर्कुट शुकसारिका पारावतचकोरादिपक्षिद्विपदानां पत्नी - उपरुद्ध दासी दासकर्मकरपादात्यादिमनुष्याणां च संग्रहः, तस्य संख्या व्रतकाले यावज्जीवं चतुर्मासादिकालावधि वा यत्परिमाणं गृहीतं तस्या प्रतिक्रम उल्लङ्घनं संख्यातिक्रमोऽतिचारः । (योगशा. स्वो विव. ३-६५) । परिग्रहपरिमाण करते समय जो प्रमाण द्विपद व चतुष्पदादितियंचों का तथा दासी दास श्रादि मनुष्यों का ग्रहण किया गया है, उसके उल्लंघन करने को - बढ़ा लेने को — गवादिसंख्यातिक्रम कहते हैं । गवानृत -- देखो गवालीक | गवानृतं अल्पक्षी रामेव बहुक्षीरां वक्ति विपर्ययो वा । (श्रा. प्र. टी. २६०)। थोड़े दूध वाली गाय को बहुत दूध वाली अथवा इससे विपरीत भाषण करना, यह गवानृत कहलाता है । गवालीक - गवालीकमल्पक्षीरां बहुक्षीरां विपर्यय वा वदतः, इदमपि सर्वचतुष्पदविषयस्यालीकस्योपलक्षणम् । (योगशा. स्वो विव. २- ५४; सा. ध. ४–३ε)।
४११, जैन-लक्षणावली
गाय सम्बन्धी प्रसत्य वचन के बोलने को गवालीक कहते हैं । जैसे-कम दूध देने वाली गाय को अधिक 'देने वाली कहना और अधिक दूध देने दूध वाली को कम दूध देने वाली कहना । इससे गाय श्रादि सभी चतुष्पदों को ग्रहण करना चाहिए । गवेषरणा - १. गवेषणा व्यतिरेकधर्मस्वरूपालोचना । (नन्दी, हरि वू. पू. ७८ ) । २. व्यतिरेक
[गायक
धर्मालोचना गवेषणा । (श्राव. नि. हरि. व मलय. वृ. १२) । ३. गवेष्यते श्रनया इर्ति गवेषणा । ( घव. पु.१३, पृ. २४२) ।
१ व्यतिरेक धर्म के स्वरूप की श्रालोचना का नाम गवेषणा है । ३ जिसके द्वारा श्रवग्रह से गृहीत अर्थ का अन्वेषण किया जाता है उसे गवेषणा कहते हैं । यह ईहा मतिज्ञान का पर्याय नाम है ।
गव्यूत ( गाउम्र ) - १. एएणं घणुप्पमाणेणं दो घणुसहस्साइं गाउयं । ( भगवती ६, ७, १, पृ. ८२) । २. दो घणुसहस्साइं गाउ । ( श्रनुयो. सू. १३३, पृ. १५७) । ३. द्वे दण्डसहस्र गव्यूतम् । (त. वा. ३, ३८, ६) । ४. वेहि दंडसहस्सेहि एवं गाउ
होदि । ( धव. पु. १३, पू. ३३६ ) । ५. वेदंडसहस्सेहि य गाउदमेगं तु होइ णिद्दिट्ठा | (जं. दी. प. १३-३४) ।
१ दो हजार धनुष को गव्यूत (कोश) कहते हैं । गव्यूत पृथक्त्व - तं (गाउ ) अट्ठहि गुणिदे गाउअधत्तं । ( धव. पु. १३, पृ. ३३९ ) । दो हजार धनुष प्रमाण गव्यूत को श्राठ से गुणित करने पर व्यूतपृथक्त्व कहलाता है ।
गव्यूति - देखो गव्यूत । द्विसहस्रदण्डैर्गव्यूतिः । (त. वृत्ति श्रुत. ३ - ३८ ) ।
दो हजार धनुष प्रमाण माप को गव्यूति कहते हैं । गान्धर्व - देखो गन्धर्व । १. गान्धर्वा रक्तावदाता गम्भीराः प्रियदर्शनाः सुरूपाः सुमुखाकाराः सुस्वरा मौलिघरा हारविभूषणास्तुम्बुरुवृक्षध्वजाः । ( त. भा. ४ - १२ ) । २. मातुः पितुर्बन्धूनां चाप्रामाण्यात् परस्परानुरागेण मिथः समवायाद् गान्धर्वः । ( नीतिवा. ३१-६; योगशा. स्वो विव. १-४७ ) । ३. परस्परानुरागेण मिथः समवायाद् गान्धर्वः । (ध. वि. मु. वृ. १ - १२) |
१ जो देव रक्त प्रवदात, गम्भीर, प्रियदर्शन, सुन्दर, उत्तम मुखाकृति से सम्पन्न, सुन्दर स्वरवाले, मुकुट के धारक और हार से विभूषित होते हैं वे गान्धवं कहलाते हैं । २ माता-पिता और बन्धुजनों की अनुमति के बिना श्रापस के अनुराग से वर-कन्या के परस्पर सम्मिलन को गान्धर्व विवाह कहते हैं । गायक - रूपाजीवावृत्त्युपदेष्टा गायक: । (नीतिवा. १४-२४) ।
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
गारव]
वेश्याओं के लिए आजीविका के उपदेश वाले को गायक कहते हैं ।
४१२, जैन- लक्षणावली
1
गारव - गारवम् ऋद्धि-रस- सातासक्तिः, तेन परिवारे लोभात् परकीयस्य प्रिययचनादीनाम् ग्रात्मसात्करणं वा गन्धमाल्य- ताम्बूलादिसेवनम् श्रनिष्ट रसत्यागेष्ट र सादरौ यथेष्टभोजन- शयनादितत्परत्वं च । ( भ. प्रा. मूला. ६१३) । ऋद्धि, रस और सात -- - सुखसामग्री में प्रासक्ति रखना, इसका नाम गारव है । श्रथवा परिवार में लोभ के वशीभूत होने से प्रियवचन आदि के द्वारा दूसरे की वस्तु को अपने श्राधीन करना तथा गन्ध व ताम्बूल (पान) श्रादि का सेवन करना ( ऋद्धिगारव), अनिष्ट रस का त्याग व अभीष्ट रस में अनुराग रखना ( रस- गारव) तथा इच्छानुसार भोजन एवं शयन श्रादि में तत्पर रहना ( सातगारव); यह गारव का लक्षण है । गार्द्धय - प्राप्तेष्टवस्तुषु गाद्धर्यं प्रभिरक्षणादिकार्यं गृद्धिलक्षणम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ८-१० ) । प्राप्त हुई इष्ट वस्तुओं के विषय में गृद्धिस्वरूप संरक्षणादि कार्य करना, इसे गाय कहते हैं । यह लोभ का पर्याय नाम है ।
गिल्लो - फिरिक्की गिल्लीयो णाम । का फिरि क्की णाम ? चुंद्रेण वट्टुलागारेण घडिदणेमि तुंबा घारसरलट्ठकट्टा फिरिक्को णाम ।
ferent को गिल्ली कहते हैं । जो गोल श्राकार वाले चंद (?) से रचित नेमि और तुम्ब (गाड़ी की नामि) को श्राश्रय देने वाली सीधी प्राठ लकड़ियों युक्त एक विशेष जाति की गाड़ी फिरिक्की कहलाती हैं ।
गुरण - १. द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः । (त. सू. ५, ४०)। २.X X X एगदव्वस्सिया गुणा: । (उत्तरा २८- ६ ) । ३. अन्वयिनो गुणा: । ( स. सि. ५ - ३८ ) । ४. सहवर्तनो गुणाः । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ६७८, पृ. ४४५ ) । ५. गुणो णाम पज्जायादि- परोप्पर - विरुद्ध विद्धो वा । ( धव. पु. १, पृ. १८); भुवो हि : । (धव. पु. १, पृ. १७४ ) ; आदवनाविणणाः । (घव. पु. ६, पृ. १३७; याकु. पृ. ०७ )। ६. गुणाः शक्तिविशेषाः । त. भा. सिद्ध. वृ- ५-३७ ) । ७. अनेकान्तात्मअस्य वस्तुनोऽन्वयिनो विशेषा गुणाः । (पंचा. का.
[गुणप्रत्यय-अवधिज्ञान
अमृत. वृ. १० ) । ८. गुण्यते पृथक् क्रियते द्रव्यं द्रव्यान्तराद्यैस्ते गुणा: । ( श्रालापप. ४, पृ. १४० ) । ६. सरिसो जो परिणामो प्रणाइणिहणो हवे गुणो सो हि । सो सामण्णसरूवी उप्पज्जदि णस्सदे णेयं । ( कार्तिके. २४१ ) । १०. गुणाः सहभाविनो जीवस्य ज्ञानादयः, पुद्गलस्य रूपादय: । (सिद्धिवि. वृ. ३-२०, पृ. २२३, पं. १ ) । ११. गुणाश्च सहभुवो धर्माश्चेतनस्य सुख-ज्ञान-वीर्यादयः XX X प्रचेतनस्य रूप-रसादयः । XXX सहवृत्तयो गुणाः । ( न्यायवि विव. १-११५, पृ. ४२८ - २६) । १२. द्रव्यान्वयिनो गुणाः । निर्गुणाश्चेतनाद्यास्ते X X X ॥ ( श्राचा. सा. ३-८ ) । १३. गुणः सहभावी धर्मः । (प्र. न. त. ५-७ ) । १४. यावद् द्रव्यभाविनः सकलपर्यायानुवर्तिनो गुणाः वस्तुत्वरूप-रस-गन्ध-स्पर्शादयः । ( न्यायदी. पृ. १२१) । १५. सहभूता गुणा ज्ञेया सुवर्णे पीतता यथा । ( भावसं. वा. ३७४) । १६. गुण्यते विशिष्यते पृथक् क्रियते द्रव्यं द्रव्यात् यैस्ते गुणाः (त. वृत्ति श्रुत.
५ - ३८ ) । १७. द्रव्याश्रया गुणाः स्युर्विशेषमात्रास्तु निर्विशेषाश्च । करतलगतं यदेतैर्व्यक्तमिबालक्ष्यते वस्तु ।। अयमर्थो विदितार्थः समप्रदेशाः समं विशेषा ये । ते ज्ञानेन विभक्ताः क्रमतः श्रेणीकृता गुणा ज्ञेया: । ( पंचाध्या. १, १०४ - ५ ) । १५. अहो द्रव्याश्रयत्वाच्च गुणा निर्गुणलक्षणाः । ( जम्बू. च. ८-२४) । १६. श्रन्वयिनः किल नित्या गुणाश्च निर्गुणावयवो (वा) ह्यनन्ताशा: । द्रव्याश्रया वि नाशप्रादुर्भावाः स्वशक्तिभिः शश्वत् ॥ ( अध्यात्मक. २-६) ।
१ जो द्रव्य के श्राश्रय से रहा करते हैं तथा स्वयं अन्य गुणों से रहित होते हैं वे गुण कहलाते हैं । गुरणगुरु-गुणैर्ज्ञान-संयमादिभिर्गुरवो महान्तो गुणगुरवः । (सा. ध. स्वो. टी. १-११) । ज्ञान व संयमादि गुणों से जो महान् होते हैं उन्हें गुणगुरु कहते हैं ।
गुणप्रतिपन्न - गुणं सजमं संजमासंजमं वा पडिवष्णो गुणपडवण्णो । ( धव. पु. १५, पृ. १७४) । जो जीव संयम अथवा संयमासयम गुण को प्राप्त हैं उन्हें गुणप्रतिपन्न कहा जाता है । गुणप्रत्यय-अवधिज्ञान - देखो क्षयोपशमनिमित्त । १. अणुव्रत महाव्रतानि सम्यक्त्वाधिष्ठानानि गुणः
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुणधारणा] ४१३, जैन-लक्षणावली
[गुणश्रेणि कारणं यस्यावविज्ञानस्व तद् गुणप्रत्ययकम् । (धव. युक्त गुणवान् के वन्दना व नमस्कारादिरूप आदरपु. १३, पृ. २६१) । २. गुणप्रत्ययं तु सम्यग्दर्शन- सत्कार को गुणवत्प्रतिपत्ति कहते हैं । यह वन्दना गुणनिमित्तमसंयतसम्यग्दृष्टः, संयमासंयमगुणहेतुकं अध्ययन (अावश्यक) का अर्थाधिकार है। संयतासंयतस्य, संयमगुणनिबन्धनं संयतस्य; सत्य- गुरगवत-१. दिग्वतमनर्थदण्डवत च भोगोपभोगतरंगहेती बहिरंगस्य गुणप्रत्ययस्य भावे भावात् । परिमाणम् । अनुबृहणाद् गुणानामाख्यान्ति गुणव(प्रमाणप. पृ. ६६)।
तान्यार्याः ।। (रत्नक. ३-२१)। २. अणुव्रताना१ सम्यक्त्व से अधिष्ठित अणुव्रत और महाव्रत रूप मेवोत्तरगुणभूतानि व्रतानि गुणव्रतानि दिव्रतगण जिस अवधिज्ञान के कारण हैं वह गुणप्रत्यय भोगोपभोगपरिमाणकरणानर्थदण्डविरतिलक्षणानि. अवधिज्ञान कहलाता है।
एतानि च भवन्ति त्रीण्येव । (श्रा. प्र. टी. गुरगधारणा- अपगतव्रतातिचारेतरोपचितकर्मवि- ६) । ३. भोगोपभोगसहारोऽनर्थदण्डव्रतान्वितः । शरणार्थमनशनादिगुणसंधारणा प्रत्याख्यानस्य । गुणानुबृहणाद् ज्ञेयो दिग्वतेन गुणवतम् ॥ (क्षत्रच. (प्राव. नि. हरि. वृ. ७६, पृ. ५३)।
७-२४)। ४. उत्तरगुणरूपं व्रतं गुणव्रतम्, गुणाय विनष्ट हए व्रतातिचारों से भिन्न अन्य अतिचारों के चोपकाराय अणुव्रतानां व्रतं गणव्रतम् । (योग. द्वारा संचित कर्म को दूर करने के लिए अनशनादि शा. स्वो. विव. ३-१) । ५. दिग्देशान गुणों को धारण करना, इसका नाम गुणधारणा दण्डे भ्यो विरतिस्तु गुणवतम् । भोगोपभोगसंख्यानं है। यह प्रत्याख्यान नामक छठे आवश्यक का अर्था- केचिदाहुगुणवतम् ।। (जीव. च. ७-१७) । ६. धिकार है।
गुणार्थमणुव्रतानामुपकारार्थं व्रतं गुणवतम् । (सा. गुगपुरुष-तथा गुणा: व्यायाम-विक्रम-धैर्य-सत्त्वा- ध. स्वो. टी. ४-४)। ७. यद्गुणायोपकारायाणदिकास्तत्प्रधानः पुरुषो गुणपुरुषः। (सूत्रकृ. नि. व्रतानां ब्रतानि तत् । गुणव्रतानि xxx॥ शी. व. ४, १, ५७) ।
(सा. घ. ५-१)। ८. गुणाय चोपकारायाsहिंसादीव्यायाम, विक्रम, धैर्य और सत्त्व आदि गुणों से नां व्रतानि तत् । गुणव्रतानि xxx ॥ (धर्मयुक्त पुरुष को गुणपुरुष कहते हैं।।
सं. श्रा.७-२) । गुणप्रमाण-१. गुणनं गुणः, स एव प्रमाणहेतु- १. अणुव्रतों के उपकारक होने से दिग्वत, अनर्थत्वाद् द्रव्यप्रमाणात्मकत्वाच्च प्रमाणं प्रभीयते गुण- दण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाणवत को गुणवत ईव्यमिति । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ६६) । २. गुणो कहा जाता है। ज्ञानादिः, स एव प्रमाणं गुणप्रमाणम्, प्रमीयते च गुणश्रेणि-१.गुणो गुणगारो, तस्स सेढी अोली गणद्रव्यम्, गणाश्च गुणरूपतया प्रमीयन्ते ऽतः प्रमा- पंती गुणसेडी णाम । (धव. पु. १२, पृ.८०)। णता । (अनुयो. मल. हेम. व. पृ. २१०)। २. गुणश्रेणी चैवं-सामान्यतः किल कर्म बह्वल्प१ प्रमाण के हेतु और द्रव्यप्रमाणस्वरूप होने के मल्पतरमल्पतमं चेत्येवं निर्जरणाय रचयति, यदा त कारण गुणों को गणप्रमाण कहा जाता है। परिणामविशेषात् तत्र तथैव रचिते कालान्तरवेद्यगरणवत्त्व-क्रोधादिमत्वात् गुणवत्त्वं ज्ञानाद्यात्मक- मल्पं बहु बहुतरं बहुतमं चेत्येवं शीघ्रतरक्षपणाय स्वाद् वा, परमाण्वादावपि गुणवत्त्वमेकवर्णादित्वात् रचयति तदा सा गुणश्रेणीत्युच्यते। (औपपा. अभय. समानम् । (त. भा. सिद्ध.व.२-७)।
वृ.सू. ४३, पृ. ११३)। ३. उपरितनस्थितेविशद्धिजीव द्रव्य के ज्ञानादिगुणों से और पुद्गल के वर्णादि वशादपवर्तनाकरणेनावतारितस्य दलिकस्यान्तमहतगणों से युक्त होने के कारण उनके गुणवत्त्व है। प्रमाणमुदयक्षयादुपरि क्षिप्रत रक्षपणाय प्रतिक्षणमगणवत्प्रतिपत्ति--गुणा ज्ञानादयः मूलोत्तराख्या संख्येयगुणवृद्ध्या विरचनं गुणश्रेणिरित्युच्यते । वा, तेऽस्य विद्यन्ते इति गुणवान्, तस्य गुणवतः । (कर्मस्त. गो. वृ. २, पृ. ४)। प्रतिपत्तिर्वन्दनाध्ययनस्य । (प्राव. नि. हरि. वृ. ३ परिणामों की विशुद्धि की वृद्धि से अपवर्तना ७६, पृ. ५३)।
करण के द्वारा उपरितन स्थिति से हीन करके ज्ञानादि गणों अथवा मुलगुणों या उत्तरगुणों से अन्तमूहूर्त काल तक प्रतिसभय उत्तरोत्तर असंख्यात
ताहा
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुणसंक्रम
गुणित वृद्धि के क्रम से कर्मप्रदेशों की निर्जरा के लिये जो रचना होती है उसे गुणश्रेणी कहते हैं । गुणसंक्रम- १. गुणसंकमो अवज्भंतिगाण असुभावकरणाई । (कर्मप्र. संक्र. ६६. पू. १०५ ) । २. गुण संकमो गुणसंकमो समए समए असंखेज्ज - गुणसंकमणं गुणसंकमो वृच्चति असुभाणं कम्माणं । ( कर्मप्र. चू. संक्र. ६६, पृ. १०५ ) । ३. अप्प - मत्तादो उवरिमगुणठाणेसु बंधविरहिदपयडीणं गुणसंकमो सव्वसंकोच होदि । ( धव. पु. १६, पृ. ४०६) । ४. समयं पडि प्रसंखेज्जगुणाए सेढीए जो पदेससंकमो सो गुणसंकमो त्ति भण्णदे । ( जयध. ६, पृ. १७२) । ५. शुभप्रकृतिष्वशुभप्रकृतिदलिकस्य प्रतिक्षणमसंख्येयगुण वृद्धया विशुद्धिवशान्नयनं गुणसंक्रमः । (कर्मस्त. गो. वृ. २, पृ. ४) । ६. असुभाण एस बज्मंती सुं असंखगुणणाए । सेढीए अपुवाई छुभंति गुणसंकमो एसो ।। (पंचसं. च. सं. ७७, पृ. ७२) । ७. अशुभप्रकृतीनां प्रदेशाचं असंख्ये· यगुणवृद्ध्या अपूर्वकरणप्रवृत्ते [ प्रभूते ]रपूर्वकरणाद्या अबध्यमानानां बध्यमानासु यत् कर्मदलं संक्रामयन्त्येष गुणसंक्रमः इति । ( पञ्चसं. स्वो वृ. संक्र. ७७, पृ. ७२)। ८. पडिसमयमसंखगुणं दव्वं संक्रमदि श्रप्पस - त्या । बंधुझियपयडीणं बंघंतसजादिपयडीसु || ( ल.सा. ३६७) । एत्तो गुणो प्रवंधे पयडोणं अप्पसत्थाणं । ( गो . क. ४१६) । ६. अपूर्व करणादयोऽपूर्वकरण प्रभृतयो अबध्यमानानामशुभप्रकृतीनां सम्बन्धि कर्मदलिकं प्रतिसमय संख्येयगुणतया बध्यमानासु प्रकृतिषु यत् प्रक्षिपन्ति स गुणसंक्रमः, गुणेन प्रतिसमयमसंख्येयलक्षणेन गुणकारेण संक्रमो गुणसंक्रमः । ( कर्मप्र. मलय. वृ. संक्र. ६६, पृ. १०६) । १०. अबध्यमानानामशुभप्रकृतीनां सम्बन्धि प्रदेशा प्रतिसमय संख्येयगुणनया श्रेण्या बध्यमानासु प्रकृतिष्व पूर्व करणादयः - श्रपूर्वकरणगुणस्थानकादयो यत् छु भन्ति – संक्रमयन्ति स गुणसंक्रमः । गुणेन प्रति समयमसंख्येयलक्षणेन गुणकारेण संक्रमो गुणसंक्रमः । (पंचसं. मलय. वू. संक्र. ७७, पृ. ७३) । ११. प्रति समयमसंख्येयगुणश्रेणिक्रमेण यत्प्रदेशसंक्रमणं तद् गुणसंक्रमणं नाम । ( गो . क. जी. प्र. टी. ४१३) ।
1
३ श्रप्रमत्त गुणस्थान से श्रागे के गुणस्थानों में बन्ध से रहित प्रकृतियों का गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम
४१४, जैन-लक्षणावली
[गुप्ति
होता है । ५ बिशुद्धि के वश प्रतिसमय श्रसंख्यात गुणित वृद्धि के क्रम से श्रबध्यमान अशुभ प्रकृतियों के द्रव्य को जो शुभ प्रकृतियों में दिया जाता है, इसका नाम गुणसंक्रम है ।
गुणस्थान - १. जेहिं दु लक्खिज्जते उदयादिसु संभवेहि ( गो . क. – उवसमग्रादीसु जणिद) भावेहि । जीवा ते मुसा णिद्दिट्ठा सव्वदरसीहि । (पंचसं १-३; गो. जी. ८; गो. क. ८१२ ) । २. तत्र गुणाः ज्ञान-दर्शन- चारित्ररूपा जीवस्वभावविशेषाः, स्थानं पुनरत्र तेषां शुद्धयशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतः स्वरूपभेदः, तिष्ठन्त्यस्मिन् गुणा इति कृत्वा यथाऽध्यवसायस्थानमिति, गुणानां स्थानं गुणस्थानमिति । ( कर्मस्त. गो. वृ. २, पू. २ ) । ३. XXX गुणसण्णा साच मोह-जोगभवा । (गो. जी. २) ।
१ कर्मों को उदयादि श्रवस्थानों में होने वाले जिन भावों से जीव देखे जाते हैं उनकी 'गुण' यह संज्ञा है - वे गुणस्थान कहलाते हैं । २ शुद्धि-शुद्धि के प्रकर्ष - अपकर्ष के द्वारा जो जीव के स्वभावभूत ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप गुणों के स्वरूप में भेव किया जाता है, इसे गुणस्थान कहते हैं । गुणाधिक - १. सम्यग्ज्ञानादिभिः प्रकृष्टा गुणाधिका: । ( स. सि. ७-११) । २. सम्यग्ज्ञानविभि: प्रकृष्टा गुणाधिकाः । सम्यग्ज्ञान- दर्शनादयो गुणास्तैः प्रकृष्टा गुणाधिका इति विज्ञायन्ते । (त. वा. ७, ११, ६) ।
१ सम्यग्ज्ञान आदि गुणों में जो अपने से अधिक हैं उन्हें गुणाधिक कहते हैं ।
गुप्त-गुत्तीणाम मणसा असोभणं संकप्पं वज्जयंतो वाया य कज्जमेत्तं भासतो ( दशवं. चू.८,
पू. २८० ) ।
मन में उत्पन्न होने वाले दुष्ट संकल्प को छोड़ कर वचन से केवल श्रावश्यक कार्य के लिये भाषण करने वाले पुरुष को गुप्त कहते हैं ।
गुप्ति (गुत्ती ) - १. सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः । (त. सू. - ४) । २. यतः संसारकारणादात्मनो गोपनं सा गुप्तिः । ( स. सि. ६ - २ ) । ३. सम्यगिति विधानतो ज्ञात्वाभ्युपेत्य सम्यग्दर्शनपूर्वकं त्रिविधस्य योगस्य निग्रहो गुप्तिः । ( त. भा. ६-४) । ४. छेत्तस्स वदी णयरस्स खाइया अहव होइ पायारो । तह पावस्स णिरोहो ताम्रो गुत्तीम्रो साहुस्स 1
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुप्ति (गुत्ती)] ४१५, जैन-लक्षणावली
[गुरु (भ. प्रा. ११८९)। ५. संसारकारणगोपनाद १६. सावद्ययोगेभ्यः आत्मनो गोपनं रक्षणं निवारणं गुप्तिः। यतः संसारकारणात् प्रात्मनो गोपनं भवति गुप्तिः । (भ. प्रा. मूला. १६)। २०. भवकारणात सा गुप्तिः। (त. वा. ६, २, १)। ६. गुप्यतेऽन- मनोवाक्कायव्यापारात प्रात्मनो गोपनं रक्षणं गुप्तिः । येति, संरक्ष्यते ऽनयेत्यर्थः । (त. भा. हरि. ब. ६, (त. वृत्ति श्रुत. ६-२); य: सम्यग्योगनिग्रहो २)। ७. गोपनं गप्तिः, स्त्रियां क्तिन् [पा. ३, ३, मनोवाक्कायव्यापारनिरोधनं सा गुप्तिरित्युच्यते । १४], आगन्तुककर्म-कववरनिरोध इति हृदयम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-४)। २१. योगनां मनोवचन(प्राव. नि. हरि. वृ. १०३)। ८. सावद्ययोगेभ्यः कायानां निरोधो गोपनं गुप्तिः। (कार्तिके. टी. पात्मनो गोपनं गप्तिः । (भ. प्रा. विजयो. १६); ६७)। संसारस्य द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भावपरिवर्तनस्य कार- १ सम्यक प्रकार से सम्यग्दर्शनपूर्वक-मन, णं कर्म ज्ञाभवरणादि, तस्मात् संसारकारणादा- वचन व काय योगों के निग्रह करने को गप्ति कहते स्मनो गोपनं रक्षा गप्तिरित्याख्यायते, भावे क्तिः। हैं। २ संसार के कारण से-मिथ्यात्वादि सेअपादानसाधनो वा--यतो गोपनं सा गुप्तिः, गोप- प्रात्मा के संरक्षण का नाम गुप्ति है। यतीति कर्तृसाधनो वा क्तिन् । (भ.प्रा. विजयो. गप्तिकर-गोपनं गुप्तिः कर्म-कचवरागमनिरोधः, ११५)। ६. संसारकारणगोपनाद् गुप्तिः । (त. श्लो. तत्करणशीलो गुप्तिकरः । (धर्मसं. मलय. व. ९-२); योगानां निग्रहः सम्यग्गुप्तिः । (त. श्लो. ११७५, पृ. ३८६) । १-४) । १०. गुत्ती जोगणिरोहो xxx। कर्मरूपी कचरे को भीतर न आने देने रूप गुप्ति के (कातिके. १७)। ११. योगानां निग्रहः सम्यग्गप्ति- पालन करने वाले पुरुष को गप्तिकर कहते हैं। रित्यभिधीयते । (त. सा. ६-४)। १२. निश्चयेन गुरु-१. अधोगमनहेतुर्गुरुः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ५, सहजशुद्धात्मभावनालक्षणे गूढस्थाने संसारकारण- २३)। २. गृणाति शास्त्रार्थमिति गुरुः । (नन्दी. रागादिभयात् स्वस्यात्मनो गोपनं प्रच्छादनं झम्पनं हरि. व. पु. ५, श्रा. प्र. टी. १)। ३. गृणन्ति प्रवेशनं रक्षणं गुप्तिः, व्यवहारेण बहिरङ्गसाधनाथं शास्त्रार्थमिति गुरवः, धर्मोपदेशादिदातारः इत्यर्थः । मनोवचन-कायव्यापारनिरोधो गुप्तिः । (बृ. द्रव्यसं. टी. (प्राव. नि. हरि. व. १७९)। ४. दीक्षादाताऽध्याप३५, पृ.८७)। १३. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि गप्य- यिता कृताचार्यादिवाचनः । दोषच्छेदी कृतान्ता[न्त्या] न्ते रक्ष्यन्ते यकाभिस्ता: गप्तयः । अथवा मिथ्यात्वा- Y गुरुरित्यभिधीयते ।। यो यो गणाधिको मूलगणसंयमकषायेभ्यो गोप्यते रक्ष्यते अात्मा यकाभिस्ता गच्छाद्यलंकृतः । स सर्वोऽप्युच्यते जनगुरुरित्युज्झिगुप्तय इति । (मूला. व. ५-१३६)। १४. दोषेभ्यो तस्मयः ॥ (नीतिसा. ८४-८५)। ५. रत्नत्रयविगोपनं रक्षा व[व]तानां गुप्तिरिष्यते । (प्राचा. शुद्धः सन् पात्रस्नेही परार्थकृत् । परिपालितधर्मो हि सा. ३, १३७) । १५. गोपनं गुप्ति:-मनःप्रभृतीनां भवाब्धेस्तारको गुरुः । (क्षत्रचू. २-३०)। ६. कुशलानां प्रवर्तनमकुशलानां च निवर्तनमिति, प्राह गृणाति शास्त्रार्थमिति व्युत्पत्त्या प्राप्तयथार्थाभिधानः च-मणगुत्तिमाइयाप्रो गुत्तीयो तिम्नि समयकेउहिं। स्व-परतंत्रवेदी पराशयवेदक: परहितनिरतो यति. पवियारेयररूवा णिद्दिशनो जत्रो भणियं ।। (स्था- विशेषो गुरुः । (उपदेशप. मु. वृ. २६) । ७. गुरुः स ना. अभय. वृ. ३, १, १२६)। १६. गोपनानि एव यो ग्रन्थैर्मुक्तो बाह्य रिवान्तरैः । (धर्मश. गुप्तयः-मनःप्रभृतीनामशुभप्रवृत्तिनिरोधनानि शुभ- २१-१२६)। ८. महाव्रतघरा धीरा भैक्षमात्रोपप्रवृत्तिकरणानि च । (समवा. अभय. वृ. सू. ३, पृ. जीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः ।। ६)। १७. गोपनं गुप्ति:-कर्मकचवरागमनिरोबः। (योगशा. २-८); गृणन्ति सद्भूतं शास्त्रार्थमिति (वर्मस. मलय. व. ११७५, पृ. ३८६)। १८. गोप्त गरवः । (योगशा. स्वो. विव. २-८) । रत्नत्रयात्मानं स्वात्मानं प्रतिपक्षतः। पापयोगान्नि- ६. निरम्बरो निरारम्भो नित्यानन्दपदार्थनः । गृह्णीयाल्लोकपंक्त्यादिनिस्पृहः ॥ प्राकार-परिखा- धर्मदिक् कर्मधिक् साधुगुरुरित्युच्यते बुधः ॥ (रत्नवरैः पुरवद्रत्नभासुरम् । पायादपायादात्मानं मनो- माला ८)। १०. गृणन्ति जीवादितत्त्वमिति गुरवः वाक्कायगुप्तिभिः ॥ (अन. प. ४, १५४-५५)। गौतमादयः । (प्राव. हरि.व. मल. हेम. टि. पृ. १)।
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुरुगति]
४१६, जैन-लक्षणावली
[गूढब्रह्मचारी ११. गृणाति यथावस्थितः प्रवचनार्थमिति गुरुः। २ यथायोग्य गुरु की वैयावृत्ति प्रादि करना, गुरु के (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १, पृ. ३)। १२. गृणन्ति प्रति निर्मल अन्तःकरण से सद्भावना रखना, गुरु यथावस्थितं शास्त्रार्थमिति गुरवो धर्मोपदेशदातारः। के द्वारा किये उपकार का सदा स्मरण रखना, (प्राव. मलय. वृ. १७६)। १३. अर्थाद् गुरुः उनकी प्राज्ञा का परिपालन करना तथा जिस स एवास्ति श्रेयोमार्गोपदेशकः। भगवांस्तु यत: कार्य के लिए कहा गया हो उसे यथार्थता से पूरा साक्षान्नेता मोक्षस्य वर्त्मनः ।। तेभ्योऽर्वागपि छन- करना; यह सव गुरुविनय कहलाती है। स्थरूपास्तद्रूपधारिणः । गुरवः स्युगु रोन्निान्यो- गुरूपास्ति-१. निर्व्याजया मनोवृत्त्या सानुवृत्त्या ऽवस्था विशेषभाक ॥ अस्त्यवस्थाविशेषोऽत्र युक्ति- गुरोर्मनः । प्रविश्य राजवच्छश्वद् विनयेनानुरजस्वानुभवागमात् । शेषसंसारिजौवेभ्यस्तेषामेवाति
__ येत् ॥ (सा. ध. २-४६)। २. क्रियते गन्धपुष्पाद्यैशायनात् ।। (लाटीसं. ४, १४२-४४; पंचाध्या. गरुपादाब्जपूजनम । पादसवाहनाय च गरूपास्तिर्भ२, ६२०-२२)।
वत्यसौ ॥ (भावसं. ५९८) । १ जो गुण अधोगमन का कारण होता है वह गुरु १ निश्छल मनोवृत्तिपूर्वक राजा के समान गुरु की कहलाता है। ३ जो शास्त्र के अर्थ को ग्रहण कराता
इच्छानुसार उसके मन को अनुरंजायमान करना, है---उसका व्याख्यान आदि करता है-उसे गरु
" इसका नाम गुरूपास्ति है। २ गन्ध-पुष्प आदि के कहा जाता है। ४ जो दीक्षा देता है, अध्यापन कराता
द्वारा गुरु के चरणों की पूजा के साथ पादमर्दन है, प्राचार्यादि वाचना को कर चका है. निर्दोष
आदि करना, इसे गरूपास्ति कहा जाता है। होकर अभ्यन्तर प्रयोजन को सिद्ध करने वाला होता है; तथा जो गुणों में अधिक होता हा मल, गुह्यभाषरण-तथा गुह्यं गृहनीयं न सर्वस्मै यत्कगण एवं गच्छ आदि से अलंकृत होता है उसे
। थनीयं राजादिकार्यसम्बद्धं तस्यानधिकृतेनैवाकारेजानना चाहिए।
ङ्गितादिमिर्जात्वा ऽन्यस्मै प्रकाशनं गह्यभाषणम् । गुरुगति-पाषाणायःस्फालानां गरुगतिः। (त. वा. यथा-एते हीदमिदं च राजविरुद्धादिकं मंत्रयन्ते । ५, २४, २१)।
अथवा गुह्यभाषणं पैशुन्यम् । यथा द्वयोः प्रीती पाषाण और लोहखण्डों की गति को गरुगति कहते
सत्यामेकस्याकारादिनोपलभ्याभिप्रायमितरस्य तथा
कथयति यथा प्रीतिः प्रणश्यति । (योगशा. स्वो. हैं। यह दस प्रकार की क्रियानों में से एक है।
विव. ३-६१, पृ. ५५१)। गुरुत्व-गुरुत्वं वज्रादपि गुरुतरशरीरतया इन्द्रादिभिरपि प्रकृष्टबलसहता। (योगशा. स्वो, विव. राजकार्यादि से सम्बद्ध जो बात सबसे नहीं कही १-८, पृ. ३७)।
जा सकती है ऐसी गुप्त बात को प्राकार व शारीजिस ऋद्धि के प्रभाव से वज्र से भी अतिशय
रिक चेष्टा श्रादि से जानकर दूसरे से कहना कि महान शरीर वाला होने से बलिष्ठ इन्द्रादि के द्वारा 'ये राजा के विरुद्ध इस इस प्रकार का विचार कर भी दुर्घर हो उसे गुरुत्व ऋद्धि कहते हैं।
रहे हैं', यह गाभाषण कहलाता है। अथवा दो के गुरु नामकर्म- जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्ग
मध्यगत प्रीति को नष्ट करने के लिए एक दूसरे लाणं गुरुप्रभावो होदि तं गुरुप्रणाम । (धव. पु. ६,
की चुगली करना, इसे गुह्यभाषण कहते हैं। यह पृ. ७५)।
सत्याणुव्रत का एक अतिचार है। जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गलों में भारी- गूढब्रह्मचारी- १. गुढब्रह्मचारिणः कुमारश्रमणाः पन हुआ करता है उसे गुरुनामकर्म कहते हैं। सन्तः स्वीकृतागमाभ्यासा बन्धुभिःसहपरीषहैरागुरुविनय-१. श्रुतग्रहणं कुर्वतो गुरोविनयः कार्यः, त्मना नृपतिभिर्वा निरस्तपरमेश्वररूपा गृहवासविनयः अभ्युत्थान-पादधावनादिः । (दशव. नि. हरि. रता भवन्ति । (चा. सा. पृ. २१; सा. ध. स्वो. टी. वृ. १८४, पृ. १०४)। २. औचित्याद् गुरुवृत्तिर्बहुमा- ७-१६)। २ कुमार श्रमणा: सन्त: स्वीकृतागमनस्तत्कृतज्ञताचित्तम् । अाज्ञायोगस्तत्सत्यक रणता विस्तराः। बान्धवर्धरणीनाथैर्दु सहैर्वा परीषहैः ।। चेति गुरुविनयः ॥ (षोडश. १३-२) ।
पात्मनवाऽथवा त्यक्तपरमेश्वररूपकाः । गृहवासरता
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
गृहन] ४१७, जन-लक्षणावली
[गृहमेधी ये स्युस्ते गूढब्रह्मचारिणः ॥ (धर्मसं. बा. ९-१६व फैला कर अवस्थित होने को गोलीन कहा जाता २०)। जो कुमार अवस्था में साधु वेष को धारण कर गृहकर्म-गिहाणि जिणघरादीणि, तेसु कदपडिपागम का अभ्यास करते हैं तथा पीछे बन्धु जनों ___ मानो गिहकम्म, हय-हत्थि-णर-वराहादिसरूवेण या राजादि के प्राग्रह से, दु:सह परीषहों से डरकर, घडिदघराणि गिहकम्ममिदि वृत्तं होदि। (धव. पु. अथवा स्वयं ही साधुवेष को छोड़कर गृहस्थाश्रम ६, पृ. २४६-५०); गोपुराणं सिहरेहितो अभेदेण को स्वीकार करते हैं उन्हें गूढ ब्रह्मचारी कहते हैं। इट्ट-पत्थरादीहि चिदपडिमानो गिहकम्माणि गाम । गृहन-तत्थ गृहणं किचि कहणं भण्णइ। (दशवै. (धव. पु. १३, प.१०); जिणहरादीणं चंदसाला. चू. पृ. २८५)।
दिसु अभेदेण घडिदपडिमानो गिहकम्माणि णाम । छिपाने या कुछ प्रकट न करने को गहन कहते हैं। (धव. पु. १३, पृ. २०२); मट्टियपिंडेण पासादेसु
घडिदरूवाणि गिहकम्माणि णाम। (धव. पु. १४ गृघ्रपृष्ठमरण-१. गेद्धपढें णाम मृतशरीरमनु
पृ. ६); गृह (गिह) कट्ठियाहि बद्धकुड्डा उवरि प्रविश्य गृध्रद्वाराऽऽत्मानं भक्षयति । (उत्तरा. चू.पू. वंसिकच्छण्णा गिहा णाम । (घव. पु. १४, पृ. १२६) । २. शस्त्रग्रहणेन यद् भवति तद् गिद्धपुट- असा मित्युच्यते । (भ. प्रा. विजयो. २५)। ३. गृधेः
। ३. गृधः जिनालय प्रादि को गृह कहा जाता है। उनमें जो स्पृष्टं स्पर्शनं यस्मिस्तद् गृध्रस्पृष्टम्, यदि वा गृध्रा- मतियों की रचना की जाती है, इसे गृहकर्म कहते णां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदरादि च तद्भक्ष्यकरि
हैं। अभिप्राय यह है कि घोड़ा, हाथी, मनुष्य और करभादिशरीरानुप्रवेशेन महासत्त्वस्य मुमूर्षोर्यस्मिस्तत् शकर प्रादि के प्राकार से जो गृह रचे जाते हैं, इसे गृदध्रपृष्ठम् । (स्थानां. अभय.व. २, ४, २०२), गहकर्म कहा जाता है। गद्धादिभक्खणं गद्धपट्ठमुव्वंधणादि वेहासं । एते ।
गहकल्प-अण्णो पाखंडिकम्रो गिहकप्पो गंथपरिदोन्नि वि मरणा कारणजाए अणुन्ना वा ॥ (स्थानां..
कलियो।। (भावसं. दे. १३२)।। अभय. व.पृ. ६४ उद्.)। ४. हस्तिकलेवरादिषु
अन्य परिग्रह संयुक्त वेष को गृहकल्प कहते हैं । यह प्रविश्य मरणं गृध्रपष्ठमरणम् । (भ. प्रा. मला.
कल्प पाखंडियों द्वारा किया गया है। २५, पृ.९०)। ५. गृध्राः प्रतीताः, ते पादिर्येषां
गृहत्यागक्रिया-गृहत्यागस्ततो ऽस्य स्याद् गृहवासाद् शकूनिका-शिवादीनां तैर्भक्षणम, गम्यमानत्वादात्म
विरज्यतः। योग्यं सूनं यथान्यायमनुशिष्य गृहोज्झनः, तदनिवारणादिना तदभक्ष्यकरि-करभादिशरी
नम् ॥ (म. पु. ३६-७६) । रानुप्रवेशेन च गृध्रादिभक्षणम्, xxx अधेः
गृहवास से विरक्त होकर योग्य पुत्र को न्यायानुसार स्पृष्टं स्पर्शनं यस्मिन् तद् गृध्रस्पृष्टम्, यदि वा गृध्रा
शिक्षा देते हुए गृह के परित्याग करने को गृहत्यागणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदरादि च मर्तुर्यस्मिन्
क्रिया कहते हैं। तद् गृध्रपृष्ठं, स ह्यलक्तकपूणिकापुटप्रदानेनात्गानं
गृहपति - गृहपति-वैदेहिको ग्रामकूटश्रेष्ठिनी । गृध्रादिभिः पृष्ठादो भक्षयतीति । (प्रव. सारो. वृ.
(नीतिवा. १४-११)।। १०१६, पृ. ३००)।
ग्रामकूट-गांव के मुखिया-को गृहपति कहा १ मृत शरीर में प्रविष्ट होकर गीष के द्वारा अपना
जाता है। भक्षण कराने से जो मरण होता है उसे गृध्रपृष्ठ- गहमेधी-१. त्रि-चतुःपञ्चभिर्युक्ता गुण-शिक्षाणुमरण कहा जाता है।
भिवतः। तत्त्वधी रुचिसम्पन्ना सावद्या गृहमेधिनः॥ गद्नोलोन (गिद्धोलोरण)-गिद्धोलीणं गृध्रस्यो- (भत्रचू. ७-२२)। २. पञ्चाणुव्रतसम्पन्ना गुण
र्ध्वगमनमिव बाहू प्रसार्यावस्थानम् । (भ. मा. शिक्षाव्रतोद्यताः। सम्यग्दर्शन-विज्ञाना सावद्या गृहविजयो. व मूला. टी. २२३)।
मेधिनः ।। (जीव. च. ७-१५) । गोध के ऊर्ध्वगमन के समान दोनों भुजानों को जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न होकर
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
गृहस्थ] ४१८, जैन-लक्षणावली
[गृहिधर्मयोग्यगृही पांच अणुवत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षा- धम्मरयणस्स जुगो अक्खुद्दो रूववं पगइसोमो । व्रतों को धारण करते हुए कुछ अंश में पाप से लोअप्पियो अकूरो भीरू असढो सुदप्पिणो ॥ लज्जासहित होते हैं उन्हें गृहमेधी-गृहस्थ श्रावक-कहा लुप्रो दयालू मज्झत्थो सोमदिट्ठी गुणरागी। सक्कजाता है।
हसपक्खहुत्तो सुदीहदंसी विसेसन्नू । बुद्धाणुगो गहस्थ-१. गृहम् अगारम्, तत्र तिष्ठन्तीति गृहस्थाः। विणीग्रो कयन्तुप्रो परहित्थकारी अ। तह चेव (सूत्रकृ. शी. व. १-१४, पृ. २६५)। २. क्षान्ति- लद्धलक्खो इगवीसगुणो हवइ सड्ढो । (प्रा. दि. योषिति यो सक्तः सम्यग्ज्ञानातिथिप्रियः। स गृह- पृ. ४२-४३ उद्.)। २. न्यायसंपन्न विभवः शिष्टास्थो भवेन्नून मनोदैवतसाधकः ।। (उपासका. ८७३)। चारप्रशंसकः । कुल-शीलसमैः साद्धं कृतोद्वाहोऽन्यगो३. नित्य-नैमित्तिकानुष्ठानस्थो गृहस्थः । (नीतिवा. जैः ।। पापभीरुः प्रसिद्धं च देशाचार समाचरन् । २-१८)।
अवर्णवादी न क्वापि राजादिषु विशेषतः ।। अनति२ जो क्षमारूप स्त्री में प्रासक्त रहकर सम्यग्ज्ञानरूप व्यक्तगुप्ते च स्थाने सुप्रतिवेश्मिके ।। अनेकनिर्गमअतिथि से प्रेम करता है तथा मनरूप देवता का द्वारविजितनिकेतनः ॥ कृतसङ्गः सदाचारसाधक-उसे वश में रखने वाला-है उसे गृहस्थ तापित्रोश्च पूजकः । त्यजन्नुपप्लुतं स्थानमप्रवृत्तकहते हैं। ३ श्रावकोचित नित्य और नैमित्तिक श्च गहिते ॥ व्ययमायोचित कुर्वन् वेषं वित्तानुसाअनुष्ठानों के करने वाले मनुष्य को गहस्थ कहते रतः । अष्टभिर्धीगुणर्युक्तः शृण्वानो धर्ममन्वहम् ।।
अजीर्ण भोजनत्यागी काले भोक्ता च सात्म्यतः । गृहस्थधर्म-देखो गृहिधर्म । गृहे तिष्ठतीति गृह- अन्योन्याप्रतिबन्धेन त्रिवर्गमपि साधयन् ।। यथावदस्थः, तस्य धर्मो नित्य-नैमित्तिकानुष्ठानरूपः । (ध. तिथौ साधौ दीने च प्रतिपत्तिकृत् । सदानभिनिवि. बि. मु. वृ. १-१)।
ष्टश्च पक्षपाती गुणेषु च ॥ प्रदेशाकालयोश्चयां घर में जो रहता है वह गही या गहस्थ कहलाता त्यजन् जानन् बलाबलम् । वृत्तस्थज्ञानवृद्धानां है। उसका धर्म नित्य और नैमित्तिक अनन्ठान है। पूजकः पोष्यपोषकः ।। दीर्घदर्शी विशेषज्ञः कृतज्ञो गहस्थाचार्य - क्रियास्वन्यासू शास्त्रोक्तमार्गेण लोकवल्लभः। सलज्जः सदयः सौम्यः परोपकृतिकरणं मता । (?) कुर्वन्नेवं क्रियां जैनो गृहस्था- कर्मठः ॥ अन्तरङ्गारिषड्वर्गपरिहारपरायणः । चार्य उच्यते ।। (रत्नमाला ५०)।
वशीकृतेन्द्रिय ग्रामो गृहिधर्माय कल्पते ॥ (योगशा. गृहस्थोचित अन्य क्रियाओं को शास्त्रोक्त मार्ग से १,४७-५६)। कराने वाले प्राचार्य को गहस्थाचार्य कहते हैं। २ न्याय से-स्वामि-मित्रद्रोहादिसे रहित होकरगहिरपी-गृहिणी कोलीन्यादिगुणालंकृता पत्नी। धनका उपार्जन करने वाला, सदाचारप्रशंसक, समान (सा. घ. स्वो. टी. १-११)।
कुल व शील वालों के साथ विवाह को करने वाला, कुलीनता प्रादि गुणों से अलंकृत पत्नी को गृहिणी पाप से भयभीत, देश के अनकूल आचरण करने कहते हैं।
वाला, परनिन्दा से रहित; जो गह न प्रतिव्यक्त गहिधर्म-देखो गृहस्थधर्म । १ पंच य अणुव्वयाई हो-गृहान्तरों से दूरवर्ती हो-और न अतिगुणव्वयाई च होंति तिन्नेव । सिक्खावयाइं चउरो गुप्त-गृहान्तरों से अतिशय घिरा हुमा होगिहिधम्मो बारसविहो अ।। (दशवै. नि. ६, २, जहां पड़ोस अच्छा हो, तथा जो जाने-माने २४६) । २. सोऽपि द्वादशव्रतधारण-यतिजनोपास- के बहुत द्वारों से रहित हो ऐसे गृह में रहने
टर्न.टान-ठील-जपोभावनासंधयादिभिरुपचीय. वाला; सत्संगति में तत्पर, माता-पिता का पूजक, मानः । (प्रा. दि. पृ. २)।
निरुपद्रव स्थान में निवसित, निन्द्य माचरण से १ पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावत दूरवर्ती, प्राय के अनुसार व्यय एवं धन के अनुसार इन बारह व्रतों के पालन को गृहिधर्म कहते हैं। वेष करने वाला, पाठ बुद्धिगुणों से सम्पन्न, प्रतिगृहिधर्मयोग्य गही- १. संस्कारचतुर्दशकसंस्कृतो दिन धर्म को सुनने वाला, अजीर्ण होने पर भोजनगृही गृहिधर्माय कल्पते । (प्रा, दि. पृ. ४२); त्यागी, समय पर सात्म्य-प्रकृति के अनुकूल-भोजन
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
गृहिलिङ्ग ]
करने वाला, परस्पर के विरोध से रहित धर्मादि तीन पुरुषार्थों का साधक; प्रतिथि, साघु एवं दीन जन का यथोचित उपकार करने वाला, दुरभिनिवेश - दुष्ट अभिप्राय - से सदा दूर रहने वाला, गुणों का पक्षपाती, देश-काल के प्रतिकूल श्राचरण से रहित, बलाबल का ज्ञाता, व्रती व ज्ञानी जन का पूजक, पोष्यवर्ग - माता-पिता श्रादि- का पोषक, दीर्घदर्शी, विशेषज्ञ, कृतज्ञ, लोकवल्लभ, लज्जालु, दयालु, सौम्य – क्रूरता से रहित श्राकृति का धारक, पर उपकारक, अन्तरङ्ग शत्रुरूप षड्वर्ग - काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष- का परित्याग करने वाला तथा जितेन्द्रिय; इन गुणों से युक्त मनुष्य गृहस्थधर्म का धारण करने वाला होता है ।
गृहिलिङ्ग – गृहिलिङ्ग दीर्घकेश - कच्छाबन्धादिः । ( त. भा. सि. वृ. १०-७ ) ।
लम्बे केश रखने और कच्छा (कटिवस्त्र) बांधने प्रादि रूप गृहस्थों के वेष को गृहिलिङ्ग कहते हैं । गृहिलिङ्गसिद्ध - १. गृहिलिङ्गे स्थिताः सन्तो ये सिद्धा ते गृहिलिङ्ग सिद्धा: । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ७८) । २. गृहिलिङ्गे सिद्धाः गृहिलिङ्गसिद्धाः मरुदेवीप्रभृतय: । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-४, पृ. २२ ) । १ गृहस्थ के वेष में स्थित होते हुए जिन्होंने सिद्धपद प्राप्त किया है उन्हें गृहिलिङ्गसिद्ध कहते हैं । गृहिसंक्लिष्ट - गृहिसम्बन्धिनां तु द्विपद-चतुष्पद - धन-धान्यादीनां त (तृ)प्तिकरणप्रवृत्तो गृहिसं क्लिष्टः । एवंभूतः संसक्तोऽतिशयेनाविशुद्धत्वात संक्लिष्टोऽभिधोयते । (श्राव. ह. वृ. मल. हेम. टि. पृ. ८४ ) । जो गृहस्थ सम्बन्धी दास-दासी श्रादि द्विपद, गायभैंस श्रादि चतुष्पद और धन-धान्यादि की तृप्ति - सन्तोषार्थं उनके संग्रह -- में संलग्न रहता है, वह विशुद्धिरहित होने से गृहिसंक्लिष्ट कहलाता है । गृहीतग्रहणाद्धा - श्रप्पिदपोग्गल परियदृभंतरे गहिदपोग्गलाणं चेय गहणकालो गहिदगहणद्धा णाम । (घव. पु. ४, पृ. ३३८ ) । विवक्षित पुद्गल परिवर्त के भीतर केवल गृहीत पुद्गलों के ग्रहण का जो काल है उसे गृहीतग्रहणाद्वा काल कहा जाता है । गृहीतमिथ्यादर्शन - १. परोपदेशतो जातं तत्त्वार्थानामरोचनम् । गृहीतमुच्यते सद्भिमिथ्यादर्शन
४१६, जैन-लक्षणावलो
[गौचार
मङ्गिनाम् ॥ ( पंचसं श्रमित. १-३०७ ) । २. संसर्गाज्जायते यच्च गृहीतं तच्चतुर्विधम् । ( धर्मसं. श्रा. ४-३३ ) ।
१ जो दूसरे के उपदेश से तत्त्वार्थ का अश्रद्धान होता है उसे गृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं । गृहीशिता - शुभवृत्तिक्रियामंत्र विवाहैः स्वोत्तरक्रियैः ॥ अनन्यसदृशैरेभिः श्रुतवृत्तिक्रियादिभिः । स्वमुन्नति नयन्नेष तदार्हति गृहीशिताम् ।। (म. पु. ३८, १४५, - ४६ ) ; विशुद्धस्तेन वृत्तेन ततोऽभ्येति गृहीशिताम् । वृत्ताध्ययनसम्पत्त्या परानुग्रहणक्षमः ॥ प्रायश्चित्तविधानज्ञः श्रुतिस्मृतिपुराणवित् । गृहस्थाचार्यतां प्राप्तस्तदा घत्ते गृहीशिताम् ॥ (म. पु. ३६, ७३-७४) ।
जो उत्तर क्रियाओं के साथ उत्तम वृत्ति, उत्तम क्रिया, मन्त्र और विवाह आदि के द्वारा उन्नति करता है वह गृहीशिता - गृहस्थों की प्रमुखता - के योग्य होता है ।
गोचार - १. यथा सलील-सालंकारवरयुवतिभिरुपनीयमानघासो (चा. सा. - घासे) गौर्न तदङ्गगतसौन्दर्यनिरीक्षणपरः, तृणमेवात्ति, यथा वा तृणोलूप (चा. सा- तृणोलपं) नानादेशस्थं यथालाभमभ्यवहरति, न योजनासम्पदमवेक्षते तथा भिक्षुरपि भिक्षापरिवेषकजन मृदुल लितरूप-वेष-विलासावलोकन नि रुत्सुकः शुष्क द्रवाहारयोजना विशेषं चानवेक्षमाणः यथागतमश्नाति इति गौरिव चारो गोचार इति व्यपदिश्यते, तथा गवेषणेति च । (त. वा. ६, ६, १६; चा. सा. पृ. ३५) । २. कान्तातारुण्यलावण्यलीलालोकन जल्पन । स्मेरास्याब्जपदन्यासविलासाद्यनिरीक्षणः | गौर्यथाऽत्ति तृणव्रातं क्षिप्तं भुञ्जीत यत्नतः । तथाऽन्नाद्यमनास्वाद्य गोचरज्ञो यथोचितम् ॥ ( श्राचा. सा. ५, १२५ - २६ ) । ३. गोर्बलीवर्दस्येव चारोऽभ्यवहारो गोचारः प्रयोक्तृजन सौन्दर्यं निरीक्षणविमुखतया यथालाभमनपेक्षितस्वादोचित संयोजनाविशेषं चाभ्यवहरणात् । (अन. ध. स्वो. टी. ६–४ε) ।
१ जैसे गाय घास डालने वाली स्त्री के श्रंगगत सौन्दर्य को नहीं देखकर केवल घास का ही भक्षण करती है श्रथवा अनेक देशों में स्थित जो भी तृणसमह उपलब्ध होता है उसका ही उपभोग करती है, उसकी योजना को नहीं देखती उसी प्रकार साधु भी
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोतीर्थ ४२०, जैन-लक्षणावली
[गोमूत्रिकागति पाहार परोसने वाले के अंग व वेष-भूषा आदि पर कार्य कारणोपचारात्, यद्वा कर्मणोऽपादानविवक्षा दृष्टि न रखकर जैसा भी भोजन प्राप्त होता है गूयते शन्द्यते उच्चावचः शब्दैरात्मा यस्मात्कर्मण उसे ग्रहण करते हैं। इसीलिये उसे गौ के समान उदयात्तद् गोत्रम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २२-२८८, वृत्ति होने से गोचार या गोचरी वृत्ति कहते हैं। पृ. ४५४, प्रव. सारो. वृ. १२५०, पृ. ३५६)। गोतीर्थ-गोतीर्थमिव गोतीर्थम-क्रमेण नीचो ११. गूयते शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैरात्मा यस्मात् नीचतरः प्रवेशमार्गः। (जीवाजी. मलय. वृ. ३, २, कर्मणस्तद् गोत्रम् । (धर्मसं. मलय. य. ६०८)। १७१ पृ. ३२५)।
२ जिसके द्वारा जीव ऊंच और नीच कहा जाता है जहां पर गाय-भैंस प्रावि पानी पीते हैं और जो वह गोत्र कर्म कहलाता है। ५ मिथ्यात्व प्रादि ऊपर से नीचे की ओर ढाल होता है ऐसे नदी व कारणों के द्वारा जीव के साथ सम्बन्ध को प्राप्त तालाब प्रादि के घाट को गोतीर्थ कहते हैं। इस हा जो कर्म-पूदगलस्कन्ध उच्च अथवा नीच गोतीर्थ के समान जो लवण समुद्र के उभय पार्श्व (लोकनिन्ध) कुल में उत्पन्न कराता है, उसे गोत्र भागों में क्रम से नीचे नीचे प्रवेशमार्ग से सहित कहते हैं। ६ सन्तानक्रम से पाये हए प्राचरण का स्थान है वह 'गोतीर्थ' नाम से प्रसिद्ध है।
नाम गोत्र है। गोत्र -१. उच्चर्नीचैश्च गूयते शध्द्यत इति वा गोदोहिका-१. गोदोहिगा गोदोहने आसनमिवागोत्रम् । (स. सि. ८-४)। २. गूयते तदिति सनम् । (भ. प्रा. विजयो. २२४) । २. पाणिभ्यां गोत्रम् । गूयते शब्द्यते तदिति गोत्रम् । (त. वा. ६, तु भुवस्त्यागे तत्स्याद् गोदोहिकासनम् । (योगशा. २५, ५); उच्चर्नीचश्च गूयते शब्द्यतेऽनेति ४-१३२)। ३. गोदोहिगा गोदोहे आसनमिव गोत्रम् । (त. वा. ८, ४, २)। ३. गोत्रं उच्चनी. पाणिद्वयमुक्षिष्याग्रपादाभ्यामासनम् । (भ. प्रा. चभेदलक्षणम्, तद् गच्छति प्राप्नोत्यात्मेति गोत्रम् । मूला. २२४) । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ८-५); १ गोदोहन के समय जिस प्रकार दोनों एड़ियों को यदयाज्जीवो गच्छत्युच्चीचैश्च जातीरुच्चाबचा- ऊपर उठा कर बैठा जाता है, इस प्रकार के प्रासनस्तन गोत्रम् । (त. भा. हरि. व सिद्ध. व. विशेष को गोदोहिका कहा जाता है। ८-१३)। ४. तथा गां वाचं त्रायत इति गोत्रम्, गोनिषद्या-देखो गोदोहिका । गोणिसेज्जा जंघाद्विष हि क्रिया कर्मव्युत्पत्त्या , नार्थक्रियार्था द्वयं संकोच्य गोरिवासनम्। भ.प्रा. मला. २२४)। इत्यच्च र्भावादिनिबन्धनमदृष्टमित्यर्थः। (श्रा. प्र. दोनों जंघात्रों को संकुचित करके गाय के समान टी.१५. गमयत्युच्च-नीचकुलमिति गोत्रम्, उच्च- बैठने को गोनिषद्या कहते हैं। नीचकुलेसु उप्पादो पोग्गलक्खंघो मिच्छत्तादिपच्च- गोनिषद्यापपर्यङ्क (गोरिणसेज्जाद्धपलियंक)एहि जीवसंबद्धो गोदमिदि उच्चदे। (षव. पु. ६, गोणिसेज्जप्रद्धपलियंकं गोनिषद्या गवासनमिव अर्द्धपृ. १३; पु. १३, पृ. २०)। ६. संताणकमेणागय- पर्यकम् । (म. प्रा. विजयो. २२४)। जीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा । (गो.क. १३)। गाय के बैठने के समान अर्घपयंक प्रासन को गोनि७. गोत्रं तु यथार्थकुलं वा। (विपाक. अभय. वृ., पृ. षद्यार्थपर्यक कहते हैं। ८); गोत्रं प्रावर्थिकी संज्ञवेति । (विपाक. अभय. गोपुर-पायाराणं वारे घडिदगिहा गोवुरं णाम । इ., पृ. १३)। ८. गोत्रं नाम तथाविधकपुरुषप्रभवो (धव. पु. १४, पृ. ३६) । वंशः । (योगशा. स्वो. विव. १-४७)। ६. गां प्राकारों के द्वार पर जो गृह बनाये जाते हैं उन्हें त्रायत इति गोत्रम्, शुभाशुभां वाचमुच्चारणकाला- गोपुर कहा जाता है। तरार्थप्रतिपत्तिजनकत्वात् पालयतीति यावद्, गूयते गोमत्रिकागति-१. गोमूत्रिकेव गोमत्रिका। क शुभाशुभता प्राणिनां यद्वशात् तद्वा गोत्रम् । (पंचसं. उपमार्थः ? यथा गोमूत्रिका बहुवा तथा त्रिविस्वो. वृ. ३-११६, पृ. ३३-३४)। १०. तथा गूयते ग्रहा गतिर्गोमूत्रिका चातुःसामयिकी। (त. वा. २, शब्द्यते उच्चावचैः शब्दर्यत्तद् गोत्रं उच्च-नीचकुलो- २८, ४, धव. पु. १, पृ. ३००)। २. गोमुत्तिो त्पत्तिलक्षणः पर्यायविशेषः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि गोत्रं तिविग्गहो। (धव. पु. ४, पृ. ३०)।
हा
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोवरपीठ]
४२१, जैन-लक्षणावली [गौरववन्दनादोष गोमूत्र की तरह टेढ़ी-मेड़ी तीन विग्रह वाली पर्यायों को ग्रहण करता है-उसे गौण प्रत्यक्ष गति गोमूत्रिका गति कहलाती है। यह गति चार कहते हैं । समय में परिपूर्ण होती है।
गौण्य-१. गुणानां भावो गौण्यम् । तद् गौण्यं पदं गोवरपीठ-छाणेण लेविदूण जाणि पीडा[ढा]णि स्थानमाश्रयो येषां नाम्नां तानि गोण्यपदानि । यथा किज्जति ताणि गोवरपीडाणि णाम । (धव. पु. १४, आदित्यस्य तपनो भास्कर इत्यादीनि नामानि । पृ. ४०)।
(धव. पु. १, पृ. ७४); गुणेण णिप्पण्णं गोण्णं । गोबर से लेप करके जो पीठ किये जाते हैं वे गोवर- जहा सूरस्स तवण-भक्खर-दिणयरसण्णा । (धव. पु. पीठ कहलाते हैं।
६, पृ. १३५) । २. गुणेण णिप्पण्णं गोण्णं । जहा गोवृत्तिक - गोवृत्तिकाः गोश्चर्यानुकारिणः । (अनु- सूरस्स तवण-भक्खर-दिणयरसण्णाओ। वड्ढमाणयो. हरि. व. पृ. १७)।
जिणिदस्स सव्वण्हु-वीयराय-परहंत-जिणादिसण्णागायों की चर्या का अनुकरण करने वाले अर्थात् जो ओ। (जयध. १, पृ. ३१)। गायों के समान निर्गमन, प्रवेश, स्थान और प्रासन १ जो पद गुण के प्राश्रय से निष्पन्न होते हैं, उन्हें प्रादि क्रियाओं को करते हैं तथा गायों के समान गोण्य पद कहा जाता है। जैसे—सूर्य के तपन श्रीर भोजन भी करते हैं वे गोवृत्तिक साधु कहलाते हैं। भास्कर प्रादि नाम । गोवषमुद्रा-बद्धमुष्टेर्दक्षिणहस्तस्य मध्यमातर्ज- गौतम-गौतमाः- लघुतराक्षमालाचचितविचित्रन्योविस्फारितप्रसारणेन गोवृषमुद्रा । (निर्वाणक. पादपतनादिशिक्षाकलापवद्वृषभकोपायत: कणभिपृ. ३२)।
क्षाग्राहिणः । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. १७)। दाहिने हाथ की मटी बांध करके मध्यमा और अतिशय छोटी अक्षमाला से लिप्त विचित्र पैरों के तर्जनी अंगुलि फैला कर पसारने को गोवृषमुद्रा पतनादि को शिक्षा से युक्त बैल के प्राश्रय से भिक्षा कहते हैं।
के ग्रहण करने वाले तापसों को गौतम कहा गोसर्ग-देखो गौसगिककाल ।
जाता है। गौण-से कि तं गोण्णे? २ खमइत्ति खवणो गौरव-गुणावबोधप्रभवं हि गौरवम् xxx || तवइत्ति तवणो जलइत्ति जलणो पवइत्ति पवणो से (द्वात्रिशिका ६-२८)। तं गोण्णे । (अनुयो. सू. १३०, पृ. १४०)। गुणों के ज्ञान से जो महानता उत्पन्न होती है उसे क्षमाशील होने से क्षमण, तापकारक होने से तपन, धर्म का गौरव कहते हैं। जलाने से ज्वलन और वहने से पवन; इन नामों को गौरववन्दनक-१.xxx गारवं सिस्वाति क्रमश: क्षमादि गण के अनुसार निष्पन्न होने से णीयोऽहं । (प्रव. सारो. १६२) । २. शिक्षा बन्दनगौण नाम कहा जाता है।
कप्रदानादिसामाचारीविषया, तस्यां विनीतः कुशलोगौण काल- गौणकालस्तु पर्याय स्थितिः स्यात् ऽहमित्यवगच्छन्त्वमी सर्वेऽपि साधव इत्यभिप्रायवान समयादिका । (प्राचा. सा. ३-२३)।
यथावदावर्ताद्याराधयन् यत्र वन्दते तद् गौरववन्दपर्यायों की स्थितिस्वरूप समय व प्रावली प्रादि को नकमित्यर्थः। (प्रव. सारो. व. १६२, पृ. ३७)। गौण काल या व्यवहार काल कहते हैं।
वन्दना देने प्रादि की सामाचारी (अनुष्ठानविशेष) गौरण प्रत्यक्ष-गौणं तु संव्यवहारनिमित्तमसर्व विषयक शिक्षा में 'मैं विनीत व दक्ष 'ऐसा सभी पर्यायद्रव्यविषयमिन्द्रियानिन्द्रियप्रभवमस्मदाद्यध्यक्षं साधु समझ लें; इस अभिप्राय से जो यथायोग्य विशदमच्यते । (सन्मति. अभय. व. २-१, पृ. मावर्त प्रादि का प्राराधन करते हुए जहां वन्दना ५५२)।
की जाती है, यह गौरववन्दनक दोष कहलाता है। इन्द्रिय और मन के प्राश्रय से उत्पन्न होने वाला यह वन्दना के ३२ दोषों में १४वां दोष है। हम जैसों का जो प्रत्यक्ष निर्मल होकर समीचीन गौरववन्दनादोष-१. गारवं गौरवम् आत्मनो व्यवहार का कारण है तथा सब द्रव्यों और उनकी माहात्म्या[त्म्यमा] सनादिभिरावि:कृत्य रस-सुखपर्यायों को विषय नहीं करता है-द्रव्य को कुछ ही हेतो; यो वन्दनां करोति तस्य गौरववन्दनादोषः ।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
गौसर्गिककाल ]
(मूला. वृ. ७-१०७) । २. गौरवं स्वस्य महिमन्याहारादावथ स्पृहा || ( अन. ध. ८ - १०३ ) । ३. गौरवाद्वन्दनकसमाचारी कुशलोऽहमिति गर्वादन्येऽप्यवगच्छन्तु मामिति यथावदावर्तादीनाराधयतो वन्दनम् । (योगशा. स्वो विव. ३ - १३० ) ।
१ श्रासन आदि के द्वारा अपने गौरव को प्रकट करके अथवा रस और सुख के हेतु से श्राचार्य की वन्दना करने वाले के गौरव नामक वन्दनादोष होता है ।
गौसगिककाल -- गवां पशूनां सर्गो निर्गमो यस्मिन् काले स कालो गोसर्गः । गोसर्ग एव गौसर्गिको द्विघटिकोदयादूर्ध्व कालो द्विघटिकासहितः मध्याह्नात् पूर्व: । (मूला. वृ. ५-७३) । गायों के निकलने के काल को गौसर्गिक काल कहते हैं, अर्थात् दो घड़ी सूर्योदय के पश्चात् और मध्याह्न से दो घड़ी पूर्व के काल का नाम गौसर्गिक काल है ।
४२२, जैन- लक्षणावली
ग्रन्थ - १. ग्रथ्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वाऽर्थं इति ग्रन्थः । (श्राव. नि. हरि. वृ. १३०, पृ. ८७ ) । २. विप्रकीणार्थग्रथनाद् ग्रन्थः । ( अनुयो, हरि वृ. पृ. २२) । ३. गणहरदेव विरइददव्वसुदं गंथो । ( धव. पु. ६, पृ. २६० ) ; अरहंतवुत्तत्थो गणहरदेवगंथि सद्दकला गंथो । (घव. पु. ६, प. २६८ ) ; आयरियाणमुवएसो गंथो । ( धव. पु. १४, पु. ८) । ४. ग्रथ्नन्ति रचयन्ति दीर्घीकुर्वन्ति संसारमिति ग्रन्थाः । (भ. श्री. विजयो. व मूला. ४३) । १ जिसके द्वारा, जिससे अथवा जिसमें अर्थ को गूंथा जाता है वह ग्रन्थ कहलाता है । ४ जो संसार को लंबा करते हैं उन्हें ग्रन्थ (परिग्रह ) कहा जाता है । ग्रन्थकर्ता - बीजपदणिलीणत्यपरूवयाणं दुवैालसं गाणं कारओ गणहरभडारो गंथकत्तारो । X X X वीजपदाणं वक्खाणश्रोत्ति । ( धव. पु. ६, पृ. १२७) ।
बीजपदों में निहित अर्थ के प्ररूपक बारह अंगों के कर्ता व बीजपदों के व्याख्याता गणधर भट्टारक को ग्रन्थकर्ता कहा जाता है । ग्रन्थकृति -जा सा गन्थकदी णाम सा लोए वेदे समये सद्दपबंधणा अक्खरकव्वादीणं जा च गंथरचणा कीरदे सा सव्वा गंथकदी णाम । ( ष. खं. ४, १, ६७ - व. पु. ६, पृ. ३२१) ।
[ग्रहण
लोक, वेद श्रथवा समय विषयक जो शब्दप्रवन्ध रूप रचना की जाती है, तथा अक्षरात्मक काव्यादिकों की भी जो रचना की जाती है, उसे ग्रन्थकृति कहते हैं । लोक से यहाँ हस्ती, अश्व, तंत्र, कौटिल्य एवं वात्सायन आदि शास्त्र; वेद से द्वादशांग और समय से नैयायिक-वैशेषिकादि दर्शन अभीष्ट रहे हैं ।
ग्रन्थसम —- गणहरदेवविरइददव्वसुदं गंथो, तेण समं सह वट्टदि उपज्जदित्ति बोहिय-बुद्धाइरियेसु ट्ठिदबार हंगसुदणाणं गंथसमं । ( धव. पु. 8, पृ. २६० ); अरहंतवृत्तत्थो गणहरदेवगंथिश्रो सद्दकलाओ गंथो णाम । तत्तो समुप्पण्णो भद्दबाहुआदिथेरेसु वट्टमाणो कदिप्रणियोगो गंथेण सह उत्तदो गंथसमं णाम । ( धव. पु. ६, पृ. २६८ ) । अरहन्त के द्वारा जिसका श्रर्थं कहा गया है तथा गणधर देव के द्वारा जो प्रथित किया गया है, ऐसे शब्दसमूह का नाम ग्रन्थ है। उस शब्दसमूह रूप ग्रन्थ से जो बोधितबुद्ध श्राचार्यों के भद्रबाहु श्रादि स्थविरों के द्वादशांग श्रुत का ज्ञान रहा है, वह ग्रन्थ के साथ उत्पन्न होने से ग्रन्थसम कहलाता है ।
ग्रन्थि - १. गंठित्ति सुदुब्भेतो कक्खड घण- रूढ गूढगण्ठिव्व । जीवस्स कम्मजणितो घणरायद्दोस परिणमो ॥ (विशेषा. भा. ११६२ ) । २. राग-द्वेषपरीणमो दुर्भेदो ग्रन्थिरुच्यते । (योगशा. स्वो विव. १-१७) ।
१ जिस प्रकार किसी वृक्षविशेष की कठोर गांठ अतिशय दुर्भेद्य होती है उसी प्रकार कर्मोदय से उत्पन्न जो जीव के घनीभूत राग-द्वेष परिणाम उस गांठ के समान दुर्भेद्य होते हैं, उन्हें ग्रन्थि कहा जाता है ।।
ग्रन्थिम - गंथण किरियाणिफण्णं फुल्ल मादिदव्वं गंथिमं णाम । ( धव. पु. ६, पृ. २७२ ) । ग्रथन क्रिया से सिद्ध होने वाले पुष्पमाला प्रावि रूप द्रव्य को ग्रन्थिम कहा जाता है ।
ग्रहरण - १. ग्रहणं शास्त्रार्थोपादानम् । ( नीतिवा. ५-४७; योगशा. स्वो विव. १-५१, पृ. १५२ ) । २. ग्रहणं सद्गुरूपदिष्टार्थविज्ञानम् । (भ. श्री. मूला. ४३१) ।
१ शास्त्र के अर्थ के उपादान - श्रात्मसात् करने
-
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रहसम] ४२३, जैन-लक्षणावली
[प्रैवेयक को ग्रहण कहा जाता है । यह पाठ बुद्धिगुणों में से निरन्तरं यथाशक्तिनानाविधतपःपरः । संयम सप्त
दशधा धारयन्नविखण्डितम् ।। अष्टादशप्रकारं च ग्रहसम-प्रथमतो वंश-तंत्र्यादिभिर्यः स्वरो गृहीत- ब्रह्मचर्य समाचरन् । यत्रेदक ग्राहको दानं तत् स्याद् स्तत्समेन स्वरेण गीयमानं ग्रहसमम । (अनुयो. मल. ग्राहकशुद्धिमत् ।। (त्रि. श. पु. च. १, १,१७८ से हेम. वृ. गा. ५०, पृ. १३२) ।
१८२)। बांसुरी व बीणा प्रादि से निकले हए स्वर को पहले २ जो सर्वसावद्य योगसे विरत, तीन प्रकार के गौरव प्रहण करके पीछे उसी स्वर के समान स्वर से गाये से रहित, तीन गप्तियों व पांच समितियों से युक्त, जाने वाले गीत को ग्रहसम कहते हैं।
राग-द्वेष से रहित; नगर, वसति, शरीर और उपग्राम-१. तत्र ग्रसति बुद्धयादीन् गुणान् इति करणादि विषयक ममता से रहित; अठारह हजार ग्रामः। (दशवै. हरि. व. ४-६, पृ. १४७)। शीलों के धारण में कुशल, रत्नत्रय का धारक, २. वृतिपरिवृतो ग्रामः (धव. पु. १३, पृ. ३३६)। सुवर्ण व ढेले को समान समझने वाला, दो उत्तम ३. ग्रामो जनपदाश्रितः सन्निवेशविशेषः । (प्रश्न- ध्यानों (धर्म्य व शक्ल) का ध्याता, यथाशक्ति व्या. अभय. वृ. पृ. १७५)। ४. ग्रामो जनपदाध्या- निरन्तर नाना प्रकार के तप में निरत, निर्दोष सात सितः। (औपपा. अभय. वृ. ३२, प. ७६)। प्रकार के संयम का धारक और अठारह प्रकार के ५. वृत्यावृतो ग्रामः । (नि. सा. टी. ५८)। ब्रह्मचर्य का परिपालक होता है; ऐसा साधु जिस ६. ग्रसति बुद्ध यादीन् गुणानिति, यदि वा गम्यः दान का ग्राहक हो उसे ग्राहकशुद्ध दान कहा शास्त्रप्रसिद्धानामष्टादशानां कराणामिति ग्रामः। जाता है। (जोवाजी. मलय. व. सू. ३६, पृ. ३६, तथा सू. ग्रोवाधोनयन- xxx शिरोधेर्बहुधाप्यधः ॥ १४७, पृ. २७६)।
(अन. ध. ८-११६); बहुधा बहुभि: प्रकारैः, १ जो बुद्धि प्रादि गुणों को प्रसता है जहां कृषक अप्यध: अधस्तादपि बहुधा ग्रीबानयनम् xxx प्रादि मन्दबुद्धि जन रहते हैं, विशेष बुद्धिमान् ग्रीवाघोनयनं दोषः । (अन. ध. स्वो. टी. ८-११९)। जन नहीं रहते-उसे ग्राम कहते हैं । २ कांटों की कायोत्सर्ग करते समय बार-बार शिर के नीचा वृति (बारी) से घिरे हुए घरों के समुदाय को करने को ग्रीवाधोनयन दोष कहते हैं। यह कायोग्राम कहा जाता है। ६ जो शास्त्रप्रसिद्ध अठारह लर्ग के ३२ दोषों में २१वां दोष है।। प्रकार के करों (टैक्सों) का गम्य है वह ग्राम कह- ग्रीवोनयन-xxx ऊर्ध्वं नयनं शिरोधेः लाता है।
XXX॥ (अन. ध. ८-११६); शिरोधेर्गीवाया ग्रामदाह-ग्रामदाहोऽग्निना दाहे ग्रामस्य xx ऊर्ध्व नयन xxx ग्रीवोनयन दोषः । (अन.
x (अन. ध. ५-५७); ग्रामदाहो नाम भक्ति - ध. स्वो. टी. ८-११६)। विघ्नः स्यात् । क्व सति ? अग्निना दाहे ग्रामस्य- कायोत्सर्ग करते समय ग्रीवा के ऊपर करने को स्वाध्यासितग्रामे दह्यमाने सति । (अन. घ. स्वो. ग्रीवो नयन दोष कहते हैं। टी. ५-५७)।
ग्रेवेयक-१. लोकपुरुषस्य ग्रीवास्थानीयत्वात् अपने द्वारा अधिष्ठित गांव के जलने को ग्रामदाह ग्रीवाः, ग्रीवासु भवानि ग्रैवेयकाणि विमानानि, कहते हैं। यह भोजन के अन्तरायों में से एक है। तत्साहचर्यादिन्द्रा अपि ग्रैवेयका: । (त. वा. ४, १६, ग्राहकशुद्ध दान-१. तत्र ग्राहकशुद्धं तु यत्र गृहीता २)। २. लोकपुरुषग्रीवास्थाने भवानि ग्रेवेयकानि चारित्रगुणयुक्तः । (विपाक. अभय. व. २-१, प. विमानानि । (प्राव. नि. हरि. व. ५० व ६५) । ६३)। २. सावद्ययोगविरतो गौरवत्रयजितः। ३. ग्रेवेयकास्तु लोकपुरुषस्य ग्रीवाप्रदेश विनिविष्टा त्रिगुप्तः पंचसमितो राग-द्वेषविनाकृतः ।। निर्ममो ग्रीवाभरणभूता ग्रेवा ग्रीच्या वेया ग्रेवेयका इति । नगरवसत्यगोपकरणादिषु । ततोऽष्टादशशीलाग- (त. भा. सि. ४-६०)। सहस्रधरणोद्धरः ।। रत्नत्रयधरो धीरः समकाञ्चन- १ लोकरूप पुरुष के ग्रीवास्थान पर अवस्थित लोष्ठकः । शुभध्यानद्वयस्थास्नुजिताक्षः कुक्षिसंबलः॥ विमानों को प्रैवेयक कहा जाता है। उन विमानों
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
घटिका] ४२४, जन-लक्षणावली
[घातक्षुद्रभवग्रहण में रहने से वहां के इन्द्र भी वेयक कहलाते हैं। दाहिने हाथ की मुट्ठी बांधकर और तर्जनी को ग्लान-१. रुजादिक्लिष्टशरीरो ग्लानः। (स. सि. ऊंची उठाकर बाई हथेली के नीचे रखकर घण्टा के ६-२४; श्लो. वा. ९-२४; चा. सा.प.६६, समान हिलाने को घण्टामुद्रा कहते हैं। भावप्रा. टी. ७८) । २. रुजादिक्लिष्टशरीरो घन--१. ताल-घण्टा-लालनाद्यभिघात जो घनः । ग्लानः । रुजादिभिः क्लिष्टशरीरो ग्लान इत्युच्यते। (स. सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, ६)। २. धनः (त. वा. ६, २४, ७)। ३. ग्लानो मन्दोऽपटुा - कांस्यभाजन-काष्ठशलाकादिजन्यः । (त. भा. हरि. ध्यभिभूतः। (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-२४)। ४. व सिद्ध. व. ५-२४)। ३. धनं तालसमुत्थितम् । ग्लानो रोगादिभिरसमर्थः। (स्थानां. अभय. वृ. (पद्मपु. २४-२०)। ४. घणो णाम जयघंटादि३, ४,२०८)। ५. रोगादिक्लिष्टशरीरो ग्लानः। घणदव्वाणं संघाहाविदो सहो। (धव. पु. १३, पृ. (योगशा. स्वो. विव. ४-६०)। ६. रोगादिपीडित
२२१)। ५. कांस्यतालादिजो घनः। (त. श्लो. शरीरो ग्लानः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२४; कातिके. ५-२४) । ६. धनं कंसिकादि । (रायप. अभय. वृ. टी. ४५७)।
पृ. ६६)। ७. ताल-कंसतालनाद्य भिघातजातः । १ जिसका शरीर रोग प्रादि से अभिभूत हो उसे (त. वृत्ति धृत. ५-२४) । ग्लान कहा जाता है। ३ जो मन्द, अपटु व व्याधि १ ताल (कंसिका), घण्टा और लालन प्रादि के से पराभूत है वह ग्लान कहलाता है।
ताडन से जो शब्द होता है उसे घन कहते हैं। घटिका--१. जलभाजनादिबहिरङ्गनिमित्तभूतपून- २कांसे के वर्तन प्रादि से उत्पन्न होने वाले शब्द गलप्रकटीक्रियमाणा घटिका। (पंचा. का. जय. का नाम घन है। वृ. २५) । २. द्वात्रिंशत्कलाभिर्घटिका । (नि. सा.
घनलोक-१. स (प्रतरलोक:) एवाऽपरया जगव. ३१) । ३. पञ्चदशकलाः घटिका। (काव्यानु. च्छण्या संगितो घनलोकः । (त. वा. ३, ३८, ५-६४)। १ जलपात्र प्रादि रूप बाह्य निमित्तभूत पुद्गलों के
८) । २. सत्तरज्जुघणपमाणो लोगो घण
लोगो। (धव. पु. ४, पृ. १८); रज्ज सत्त गुणिदा द्वारा जो प्रगट की जाती है उसे घटिका(कालविशेष)
जगसेढी, सा वग्गिदा जगपदरं, सेढीए गणिदजगकहा जाता है। २ बत्तीस कला प्रमाण काल को
पदरं घणलोगो त्ति परियम्मसूत्तेण सव्वाइरियसमघटिका या घड़ी कहते हैं। ३ पन्द्र कलानों की
देण विरोहपसंगादो च। (धव. पु. ४, पृ. १८४ एक घटिका होती है।।
उक्.; धव. पु. ७, पृ. ३७२ उद्.)। घटोत्पादानुभाग - छदव्वाणं सत्ती अणुभागो णाम । xxx [मट्टिया] पिंड-दंड-चक्क-चीवर
२ सात राजु प्रमाण प्राकाश की प्रदेशपंक्ति को
जगश्रेणी, जगश्रेणी के बर्ग को जगप्रतर और जगजल-कुंभारादीण घडुप्पायणाणुभागो। (धव. पु.
प्रतर को जगश्रेणी से गणित करने पर घनलोक १३, पृ. ३४६)।
होता है। छह द्रव्यों की शक्ति का नाम अनुभाग है । जैसेमिट्टी का पिण्ड, दण्ड, वक्र, चीवर, जल और घनाङ्गुल-१.XXX घणे घणंगुलं लोगो। कुम्हार; इन सब में संयुक्त रूप से जो घट के (ति. प. १-१३२) । २. तत्प्रतराङ्गुलमपरेण सूच्यउत्पादनविषयक शक्ति है: यह उनका घटोत्पादन- गुलेनाभ्यस्तं घनाङ्गुलम् । (त. वा. ३, ३८, ८)। अनुभाग है।
३. पदरंगलं उस्सेधेण गणिदे घणंगलं होदि । (धव. घण्टामद्रा- प्रधोमुखवामहस्ताङ्गुलीर्घण्टाकाराः पु. ४, पृ. ४३)। प्रसार्य दक्षिणेन मुष्टि बद्ध्वा तर्जनीमूवीं कृत्वा २ प्रतरांगुल को दूसरे सूच्यंगुल से गुणित करने पर वामहस्ततले नियोज्य घण्टावच्चालनेन घण्टामुद्रा। घनामुल होता है । (निर्वाणक. १६, ६, ८, पृ. ३१) ।
घातक्षद्रभवग्रहण-णिसेयखुद्दाभवग्गहणादो प्रावबायें हाथ की अंगुलियों को नीचे की ओर मुख लियाए असंखेज्ज दिभागेणणजीवणियकालो णिसे यकरके घण्टा के प्राकार में पसार कर उसके नीचे खुद्दाभवग्गहणस्स संखेज्जे भागे घादिदूण विदसंखे.
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
घातसत्त्वस्थान] ४२५, जैन-लक्षणावली
[घोरतप ज्जदिभागो वा घादखुद्दाभवग्गहणं । (घव. पु. १४, मुणिददिव्ववयणस्स । उवसामदि जीवाणं एसा पृ. ३६२) ।
सप्पियासवी रिद्धी ।। (ति. प. ४, १०८६-८७)। निषेकक्षद्रभवग्रहण से प्रावली के असंख्यातवें भाग २. येषां पाणिपात्रगतमन्नं रूक्षमपि सीरसवीर्यकम जो जीवनकाल है उसे, अथवा निषेकक्षुद्रभव- विपाकानाप्नोति, सपिरिव वा येषां भाषितानि ग्रहण के संख्यात बहमागों को घातकर स्थापित प्राणिनां सतर्पकाणि भवन्ति ते सपिरास्रविणः । (त. संख्यातवें भाग को घातक्षद्रभवग्रहण कहते हैं। वा. ३, ३६, ३, पृ. २०४)। ३. येषां पाणिपात्रगतघातसत्त्वस्थान (धादसंतहारण)-घादसंतट्ठा- मन्नं रूक्षमपि घृत रसपरिणामि भवति, वचनानि णं णाम बंधसरिसअळंक-उव्वंकाणं विच्चाले हेट्ठिम- श्रोतृणां घृतपानस्वादं जनयन्ति, ते घृतस्राविणः । उव्वंकादो अणंतगुणं उवरिमअळंकादो अणंतगुण- (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६)। हीणं होदूण चेदि । (धव. पु. १२, पृ. १३०)। १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से हाथ पर रखा हुआ रूक्ष बन्धसदृश अष्टांक और ऊवंक के मध्य में अधस्तन भी पाहार प्रादि क्षण मात्र में घृत रसवाला हो ऊर्वक से अनन्तगणा और उपरिम अष्टांक से अन- जाता है, अथवा जिसके प्रभाव से साघु के मुख न्तगुणा हीन होकर जो सत्त्वस्थान अवस्थित होता से निकले हुए दिव्य वचन के सुनने से दुखी है उसे घातसत्त्वस्थान कहते हैं ।
जनों का दुःख प्रादि नष्ट हो जाता है उसे घातिकर्म-१. णाणावरण-दसणावरण-मोहणीय- घृतस्रावी या सपिस्रावी ऋद्धि कहते हैं। अंतराइयाणि घादिकम्माणि, केवलणाण-दंसण- घृताधब-घृतमिव वचनमाश्रवन्तीति घृताश्रवाः। सम्मत्त-चरित्त-वीरियाणमणेयभेयभिण्णाणं जीवगुणा- (प्राव. नि. मलय. वृ. ७५, पृ. ८०)। ण विरोहित्तणेण तेसिं घादिववदेसादो। (घव. पु. जिनके वचन घी के समान निकलते हैं वे घृताधव ७, पृ. ६२)। २. तत्र घातीनि चत्वारि कर्माण्य- कहलाते हैं। न्वर्थसंज्ञया । घातकत्वाद् गुणानां हि जीवस्यैवेति घोटकदोष-१. घोटकस्तुरगः, स यथा एक पादवास्मतिः ।। (पंचाध्या. २-६६८)।
मक्षिप्य विनम्य वा तिष्ठति तथा यः कायोत्सर्गेण १ क्रम से केवलज्ञान, केवलदर्शन, सम्यक्त्व व चारित्र तिष्ठति तस्य घोटकसदृशो घोटकदोषः। (मला.. तथा वीर्य रूप जीवगणों के घातक ज्ञानावरण, ७-१७१)। २. आकूञ्चितकपादस्य घोटकस्येव दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार कर्मों स्थानं घोटकदोषः। (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। को घातिकर्म कहा जाता है।
३. कायोत्सर्गमलोऽस्त्येकमुत्क्षिप्याघ्रि वराश्ववत् । घृणाक्षरन्याय-१. स घुणाक्षरन्यायो यन्मूर्खेष तिष्ठतोऽश्व: xxx॥ (अन. ध. ८-११२) । मंत्रपरिज्ञानम् । (नीतिवा. १०-६३, पृ. १३४)। १ घोड़े के समान एक पांव को उठाकर जो कायो२. घणः कृमिविशेषः, स शनैः काष्ठं भक्षयति, तेन त्सगं से स्थित होता है, यह घोटक नामक तस्य भक्ष्यमाणस्य विचित्रा रेखा भवन्ति; तासां का दोष है। मध्यात् काचिद्रेखा ऽक्षराकारा भवति । (नीतिवा. घोरगुण-धोरा रउद्दा गुणा जेसि ते घोरगुणा । टो. १०-६३)।
कधं चउरासीदिलक्खगणाणं घोरत्तं ? घोरकज्जकाघन के कोड़े द्वारा खाये जाने वाले काष्ठ में किसी रिसत्तिजणणादो। (धव. पु. ६, पृ.९३)। अक्षर के आकार के बन जाने के समान-जो प्रायः जो महर्षि घोर-भयानक कार्यों की करने वाली असम्भव है-यदि कदाचित् कोई कार्य सिद्ध हो शक्ति के जनक-गुणों से संयुक्त होते हैं वे घोरजाता है तो उसे 'घुणाक्षरन्याय से सिद्ध माना गुण ऋद्धि के धारक होते हैं। जाता है।
घोरतप-१. जलसूलप्पमुहाणं रोगेणच्चंतपीडिघतस्त्रावी--१. रिसिपाणितलणिखित्तं रुक्खाहा- अंगा वि । साहंति दुद्धरतवं जीए सा घोरतवरिद्धी॥ रादियं पि खणमेत्ते । पावेदि सप्पिरूवं जीए सा (ति. प. ४-१०५५) । २. वात-पित्त-श्लेष्मसप्पियासवी रिद्धी॥ अहवा दुक्खप्पमुहं सवणेण सन्निपातसमुद्भूतज्वर-कास-श्वासाक्षिशूल-कूष्ठ-प्रमे
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
घोरतप]
हादिविविध रोगसंतापित देहा प्रप्यप्रच्युता ऽनशनकायक्लेशादितपसो भीमश्मशानाद्रिमस्तक- गुहा दरी कन्दर - शून्य प्रामादिषु प्रदुष्टयक्ष राक्षस-पिशाचप्रनृत्तवेतालरूपविकारेषु परुष शिवारुतानुपरत सिंहव्याघ्रादिव्यामृग भीषणस्वनघोरचौरादिप्रचरितेष्वभिरुचितावासाश्च घोरतपसः । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०३ ) । ३. उववासेसु छम्मासोववासो प्रमोदरिया एक्ककवलो, उत्तिपरिसंखासु चच्चरे गोयराभिग्गहो, रसपरिच्चागेसु उण्हजलजुदोयणभो यणं, विवित्तरायणासणेसु वय वग्घ-तरच्छ छवलादिसावयसेवियासु सज्भ - विज्भुडईसु णिवासो, कायव्हिवासादिणिवदंत विसएसु प्रब्भोकासरुक्खमूला दावण जोगग्गहणं । एवमब्भंत रतवेसु वि उक्त परूवणा कायव्वा । एसो वारहविहो वि तवो कायरजणाणं सज्झसजणणो त्ति घोरतवो । सो जेसि ते घोरतवा । ( धव. पु. ६, पृ. २) । ४. वात-पित्त - श्लेष्म- सन्निपातसमुद्भूतज्वर कासाक्षिशूल- कुष्ठ- प्रमेहादिविविध रोगसन्तापितदेहा प्रप्यप्रच्युतानशनादितपसोऽनशने षण्मासोपवासाः, अवमौदर्ये एककवलाहाराः, वृत्तिपरिसंख्याने चत्वरगोचराव] [भ] ग्रहाः, रसपरित्यागे उष्णजलधीतोदनभोजिनः, विविक्तशयनासने भीमश्मशान - गिरिगुहा-दरी कन्दर शून्यग्रामादिषु प्रदुष्टयक्ष- रक्षः - पिशाच- प्रनृत्य त्प्रेत- वेतालरूपविकारेषु पु[प]रुष- शिवारुतानुपरत सिंह- न्याघ्रादि- व्याल - मृगभीषणस्वनघोरचौरादिप्र चलितेष्वभिरुचितावासाः, कायक्लेशेऽतितीव्रशीता
तपवर्षानिपातप्रदेशेष्वभ्रावकाशातापनवृक्षमूलयोगग्रा हिणः । (चा. सा. पू. १००) । ५. सिंह-शार्दूलाद्याकुलेषु गिरिकन्दरादिषु भयानकश्मशानेषु च प्रचुरतरशीतवातादियुक्तेषु गत्वा दुर्द्धरोपसर्गसहनपरा घोरतपसः । ( प्रा. योगिभ. टी. १५, पृ. २०३ )। ६. सिंह-व्याघ्रर्क्ष-चित्रक-तरक्षुप्रभृतिक्रूरश्वापदाकुलेषु गिरिकन्दरादिषु स्थानेषु भयानकश्मशानेषु च प्रचुरतरशीतवातातपादियुक्तेषु स्थानेषु स्थित्वा दुर्घ रोपसर्गसहनपरा ये मुनयस्ते घोरतपसः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६) ।
४२६, जैन- लक्षणावली
२ वात, पित्त, कफ एवं संनिपात श्रादि के श्राश्रयसे उत्पन्न हुए ज्वर, कास, श्वास, प्रक्षिरोग, शूल, कोढ़ और प्रमेह आदि अनेक प्रकार के रोगों से पीड़ित होने पर भी जो अनशन एवं कायक्लेशादि तप से
[ घोरब्रह्म चारित्व
भ्रष्ट नहीं होते हैं; भयानक श्मशान, पर्वत शिखर, गुफा एवं शून्य ग्राम आदि में रहते हुए जो शृगाल और सिंहादि के भयावह शब्दों को सुनकर भयभीत नहीं होते, तथा जो उन हिंस्र पशुनों और चोर आदि की बाधा को प्रसन्नतापूर्वक सहते हैं वे घोरतपस्वी कहे जाते हैं ।
घोरपराक्रमतप - १. णिरुवमवड्ढततवा तिहुवणसंहरणकरणसत्तिजुदा । कंटयसिलग्गिपव्वयधूमुक्कापहुदिवरिसणसमत्था || सहस त्ति सयलसायरसलिलुप्पीलस्स सोसणसमत्था । जायंति जीए मुणिणो घोरपरक्कमतव त्ति सा रिद्धी । (ति. प. ४, १०५६-५७) । २. ते ( घोरतपस: ) एव गृहीततपोयोगवर्द्धनपराः घोरपराक्रमाः । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०३) । ३. ते ( घोरतपस: ) एव गृहीततपोयोगवर्द्धनपराः त्रिभुवनोपसंहरण - महीवलयग्रसनसकलसागरसलिल संशोषण जलाग्निशिला - शैलादिवर्षणशक्तयो घोरपराक्रमाः । (चा. सा. पृ. १०० ) । ४. भूत-प्रेत-वेताल-राक्षस - शाकिनीप्रभृतयो यान् दृष्ट्वा विभ्यन्ति ते घोरपराक्रमाः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६) ।
१ जिनका अनुपम तप उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता है, जो तीनों लोकों के संहार करने की शक्ति से युक्त होते हुए कांटों, पत्थरों, श्रग्नि, पर्वत, धूम और उल्का आदि के वरसाने में समर्थ होते हैं; तथा जो सहसा समुद्र के समस्त जल को सुखा सकते हैं, ऐसे मुनि घोरपराक्रमतप ऋद्धि के धारक होते हैं ।
घोरब्रह्मचारित्व - १. जीए ण होत खेत्तम्मि वि चोरपहुदिबाधाओ । कालमहाजुद्धादी रिद्धी सा घोरबह्मचारिता ।। उक्कस्सक्ख उवस मे चारित्तावरण मोहक मस्स । जा दुस्सिमणं णासइ रिद्धी सा घोरबाचारिता । अथवा - सब्वगुणेहिं अघोरं महेसिणो ब्रह्मसद्दचारितं । विष्फुरिदाए जीए रिद्धोसा घोरबह्मचारिता । ( ति प ४, १०५८ से १०६०) । २. चिरोषिताऽस्खलित ब्रह्मचर्यवासाः प्रकृष्टचारित्रमोहनीयक्षयोपशमात् प्रणष्टदुःस्वप्नाः । घोरब्रह्मचारिणः । (त. वा. ३, ३६, ३; चा. सा. पू. १००)। ३. चिरोषित - [ता-] स्खलित ब्रह्मचर्याSSवासाः प्रकृष्टचारित्रमोहक्षयोपशमात् प्रणष्टदु:स्वप्ना घोरब्रह्मचारिणः । अथवा अघोरब्रह्मचारिण
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२७,
घोष ]
इति पाठे अघोरं शान्तं ब्रह्म चारित्रं येषां ते अघोरगुणब्रह्मचारिणः । (चा. सा. पृ. १०० ) । ४. सिंहव्याघ्रादिसेवितपादपद्माः घोरगुणब्रह्मचारिणः । (त. वृत्ति श्रुत. ३ - ३६) ।
१ जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनि के द्वारा श्रधिठित क्षेत्र में भी चोर आदि की बाघायें तथा महामारी व महायुद्धादि नहीं होते वह घोरब्रह्मचारित्व ऋद्धि कहलाती है । चारित्रमोहनीय के उत्कृष्ट क्षयोपशम के होने पर जो ऋद्धि दुःस्वप्नों को नष्ट किया करती है उसे घोरब्रह्मचारित्व ऋद्धि जानना चाहिए । अथवा जिस ऋद्धि के प्रगट हो जाने पर महर्षि का ब्रह्मचारित्व सब गुणों के श्राश्रय से अघोर ( शान्त या श्रखण्डित) रहता है उसका नाम घोरब्रह्मचारित्व ऋद्धि है ।
घोष - घोसो णाम घस्समाणदव्वजणिदो | ( धव. पु. १३, पृ. २२१) ।
घिसे जाने वाले द्रव्य से जो शब्द उत्पन्न होता है उसे घोष कहा जाता है । घोषविशुद्धिकरणता - घोषविशुद्धि करणता उदातानुदात्तादिस्वरशुद्धिविधायिता । (उत्तरा. नि. वृ. ५८, पृ. ३९) ।
उच्चारण में उदात्त और प्रनुदात्त श्रादि स्वरों की शुद्धि करना, यह घोषविशुद्धिकरणता नाम की एक (चौथी) श्रुतसम्पत् है ।
घोषसम - घोसेण दव्वाणिओगद्दारेण समं सह वदृदि उप्पज्जदित्ति घोससमं णाम अणियोगसुदगाणं XXX उदात्त अणुदात्त सरिदस रंभेएण पढणं घोससममिदि के वि श्राइरिया परूर्वेति । ( धव. पु. ६, पृ. २६१ ) ; तस्स कदिप्रणियोगद्दा रस्एगाणिप्रोगो घोसो । तत्तो समुप्पण्णो कदि प्रणिपोगो, तत्तो असमुप्पज्जिय एदेण समो वि घातसमो । ( धव. पु. ६, पृ. २६६ ) ; बारहंगसद्दागमं सुर्णेतस्स जस्स सुदपरिबद्धत्थविसयमेव सुदगाणं समुपणं सो घोससमं । (घव. पु. १४, पृ. ८-६)।
घोष का अर्थ द्रव्यानुयोगद्वार है, उसके साथ रहने या उत्पन्न होने से अनुयोग श्रुतज्ञान घोषसम कहलाता है । द्वादशांगरूप द्रव्यश्रुत को सुनते हुए जिसके श्रुत से सम्बद्ध अर्थ को विषय करने वाला
जैन-लक्षणावलो
-
[ घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह
हो श्रुतज्ञान उत्पन्न हुआ है वह घोषसम कहलाता है ।
घ्राण - १. वीर्यान्तराय मतिज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भात् श्रात्मना X × × घायतेऽनेनेति घ्राणम् । ( स. सि. २ -१९ ) । २. वीर्यान्तराय प्रतिनियतेन्द्रियावरण- (घ्राणेन्द्रियावरण ) क्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भात् X X X जिघ्रत्यनेनेति घ्राणम् (त. वा. २, १६, १) । ३. वीर्यान्तराय घ्राणेन्द्रियावरण क्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भात् जिघ्रत्यनेनात्मेति घ्रा णम् । (घव. पु. १, पू. २४३) । ४. घ्रायते गन्धः उपादीयते आत्मना अनेनेति घ्राणम्, जिघ्रति गन्धमिति घ्राणम् । (त. वृत्ति श्रुत. २ -१९ ) ।
१ जिसके द्वारा श्रात्मा वीर्यान्तराय और घ्राणेन्द्रियमतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से और अंगोपांग नामकर्म के साहाय्य से वस्तुगत सुगन्ध और दुर्गन्ध को ग्रहण किया करता है उसे घ्राणेन्द्रिय कहते हैं ।
घ्राणनिरोध - १. पयडीवासणगंधे जीवाजीवप्पगे सुसु । रागद्द साकरणं घाणनिरोहो मुणिवरस्स । (मूला. १ - १९ ) । २. जीवगते अजीवगते च प्रकृतिगन्धे वासनागन्धे च सुखरूपेऽसुखरूपे च यदेतद् राग-द्वेषथोरकरणं मुनिवरस्य तत् घ्राणेन्द्रियनिरोधव्रतं भवतीत्यर्थः । ( मुला. वृ. १ - १६) । ३. प्रकृतिप्रयोगगन्धे जीवाजीवोभयाश्रये । शुभेऽशुभे मनः साम्यं घ्राणेन्द्रियजयं विदुः ॥ ( श्राचा. सा. १ - ३० ) ।
१ जीव या प्रजीवगत प्राकृतिक या प्रयोगरूप सुगन्ध में राग नहीं करने को, तथा दुर्गन्ध में द्वेष नहीं करने को घ्राणनिरोध कहते हैं । घ्राणनिवृति - प्रतिमुक्तकपुष्पसंस्थाना श्रङ्गुलस्यासंख्येयभाग प्रमिता घ्राणनिर्वृतिः । ( धव. पु. १, पू. २३५) ।
प्रतिमुक्तक पुष्प के श्राकार जो अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण पुद्गल की रचना होती है वह घ्राण इन्द्रिय की बाह्यनिवृत्ति है । घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह सुगंधो दुग्गंधो च बहुभेयभिण्णो घाणिदियविसयो, तेसु सुगंध - दुग्गंघपोग्गलेसु आगंतूण प्रदिमुत्तयपुप्फसंठाणट्ठिदघाणिदियम्मि पविट्ठेसु जं पढममुप्पज्जदि सुगंध - दुग्गंध
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहावरणीय ] ४२८, जैन- लक्षणावली
दव्वविसय विष्णाणं सो घाणिदियवंजणोग्गहो णाम । ( धव. पु. १३, पू. २२२) ।
प्राण इन्द्रिय का विषय अनेक प्रकार का सुगन्ध श्रौर दुर्गन्ध है । सुगन्ध और दुर्गन्ध रूप पुद्गलों के अतिमुक्तक पुष्प के श्राकार स्वरूप घ्राण इन्द्रिय के भीतर प्रविष्ट होने पर जो उक्त सुगन्ध औौर दुर्गन्ध द्रव्यविषयक प्रथम ज्ञान उत्पन्न होता हैं उसे घ्राणेन्द्रियव्यंजनावग्रह कहते हैं । घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहावर रणीयकर्म - तस्स (घाणिदियवं जणोग्गहस्स) जमावारयं कम्मं तं घाणिदियवंजणोग्गहावरणीयं णाम । (धव. पु. १३, पू. २२५ ) ।
जो कर्म घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह को श्राच्छादित करता है उसे घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहावरणीय कर्म कहते हैं ।
घ्राणेन्द्रियार्थावग्रह - घाणिदियादो उक्कस्सखस्रोवसमं गदादो एत्तियमद्धाणमंतरिय द्विददव्वम्मि जं गंधणाणमुपज्जदि सो घाणिदियप्रत्थोग्गहो । (घव. पु. १३, पृ. २२८ ) । उत्कृष्ट क्षयोपशम को प्राप्त घ्राण इन्द्रिय से इतने मात्र (सं. पं. प. ६ यो, असं पं. प. ४०० ध., च. प. २०० ध, त्री. प. १०० ध.) क्षेत्र का अन्तर करके स्थित द्रव्य के गन्ध का जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे घ्राणेन्द्रिय-प्रर्थावग्रह कहते हैं । घ्राणेन्द्रियार्थावग्रहावरणीय कर्म -- तस्स घाणिदित्थोग्गहस्ख) जमावारयं कम्म तं धाणिदियश्रत्थोग्गहावरणीयं णाम । (धव. पु. १३, पृ. २२८ ) । घ्राणेन्द्रिय- श्रर्थावग्रह के निरोधक कर्म को प्राणेन्द्रियग्रथग्रहावरणीय कहते हैं । घ्राणेन्द्रियावायज्ञान - XX X एवं सव्वेसि अवायावरणीयाणं पुध पुध परूवणा जाणिय कायव्वा (चाणिदिय-ईहाणाणेण अवगलगावट्टभबलेण एगवियम्मि उप्पण्णणिच्छम्रो घाणिदिय प्रवायो णाम ) | ( धव. पु. १३, पू. २३२) । घ्राणेन्द्रिय-ईहाज्ञान से श्रवगत लिंग के बल से एक विकल्प में उत्पन्न हुए निश्चय का नाम घ्राणेन्द्रियश्रवाय है । घ्राणेन्द्रियवायावरणीय- --तस्स (घाणिदियावायस्स) आयं कम्मं घाणिदियावायावरणीयं । ( धव. पु. १ पृ. २३२) ।
[ चक्रमुद्वा
उस (घ्राणेन्द्रिय प्रवायज्ञान) का श्रावारक कर्म घ्राणेन्द्रियावायावरणीय कर्म कहलाता है । घ्राणेन्द्रियेहाज्ञान - घाणिदिएण गंधमवग्गहिदूण एसो गंधो कि गुणरूवो किमगुणरूवो कि दुस्सहाओ किमदुस्सहाम्रो कि जच्चतमावण्णो त्ति पंचण्णं वियपाणमण्णदमवियप्पलिगण्णेसणं एदेण होदव्वमिदि पच्चयपज्जवसाणं घाणिदियगदईहा । ( धव. पु. १३, पृ. २३१) ।
घ्राण इन्द्रिय के द्वारा गन्ध का अवग्रह करके 'यह गन्ध क्या गुणरूप है क्या श्रगुणरूप है, क्या दुष्ट स्वभाव वाला है, क्या अदुष्ट (उत्तम) स्वभाव वाला है, अथवा क्या जात्यन्तर स्वभाव को प्राप्त है; इन पांच विकल्पों में से किसी एक विकल्प के हेतु को खोजकर वह यह गुण प्रगुणादिरूप होना चाहिए, इस प्रकार का जो अन्त में ज्ञान होता है उसे घ्राणेन्द्रियजनित ईहाज्ञान कहते हैं । घ्राणेन्द्रियेहावरणीय कर्म - तिस्से ( घाणिदियईहाए ) प्रवारयं कम्म घाणिदियईहावरणीयं । (घव. पु. १३, पृ. २३१) । घ्राणेन्द्रियजनित ईहाज्ञान को जो श्राच्छादित करता है उसे घ्राणेन्द्रियेहावरणीय कर्म कहते हैं । चक्रकदूषण - त्रिभिरावर्तनं चक्रकदूषणम् । त्रितयादिसिद्धाव्यवधानेन त्रितयाद्यपेक्षा चक्रक्रत्वम्, अथवा पूर्वस्य पूर्वापेक्षित मध्यमापेक्षितोत्तरापेक्षितत्वम्, अथवा स्वापेक्षणीयापेक्षित सापेक्षत्वनिबन्धनप्रसङ्गत्वमिति । (प्र. र. मा. टि. ३ - ६५ पृ. २२८ ) ।
तीन आदि की सिद्धि के लिए श्रव्यवधान से उन्हीं तीन श्रादि की अपेक्षा रहना, यह चक्रकदूषण कहलाता है । जैसे -- सर्वज्ञाभाव की सिद्धि के लिए कर्ता का स्मरण हेतु - कर्ता के श्रस्मरण से सर्वज्ञाभाव सिद्ध हो, सर्वज्ञाभाव सिद्ध होने पर वेद का प्रामाण्य सिद्ध हो, और वेद के प्रामाण्य से कर्ता का अस्मरण सिद्ध हो; इस प्रकार चक्र के समान तीनों के एक दूसरे पर श्राश्रित रहने से उनमें से एक की भी सिद्धि सम्भव नहीं है ।
चक्रमुद्रा - वामहस्ततले दक्षिणहस्तमूलं सन्निवेश्य करशाखा विरलीकृत्य प्रसारयेदिति चक्रमुद्रा । (निर्वाणक. पू. ३२) ।
बायें हाथ के तल पर दाहिने हाथ के मूल को रख
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
[चक्षुर्दर्शन
जो एक विकल्पविषयक निश्चय उत्पन्न होता है उसे चक्षु इन्द्रिय श्रवायज्ञान कहते हैं ।
चक्रवर्ती- - १. छक्खंडभरहणाहो बत्तीससहस्समउड- चक्षुरिन्द्रियावायावरणीय - तस्स (चविखदियाबद्धपदी | होदि सयलचक्की XX X ॥ वायणाणस्स) प्रवारयं कम्मं चक्खिदिय-श्रवाया( ति प १-४८ ) । २. चक्रवर्तिनः चतुर्दश रत्नावरणीयं ! ( धव. पु १३, पृ. २३२ ) । धिपाः षट्खण्डभरतेश्वराः । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ७०, पृ. ४८ ) । ३. षट्खण्डभरतनाथं द्वात्रिंशद्धरणिपतिसहस्राणाम | दिव्यमनुष्यं विदुरिह भोगागारं सुचक्रधरम् ।। ( धव. पु. १, पृ. ५८ उद्.) । १ षट्खण्ड भरतक्षेत्र के अधिपति और बत्तीस हजार मुकुटबद्ध आदि राजानों के स्वामी को चक्रवर्ती कहते हैं ।
चक्षु इन्द्रिय- श्रवायज्ञान के प्रावारक कर्म को चक्षुइन्द्रिय- श्रवायावरणीय कहते हैं । चक्षुरिन्द्रियेहाज्ञान - चक्खिदिएण श्रवगहिदत्थविसेसाकखणं विसे सुवलं भणिमित्तविचारो ईहेत्ति घेत्तव्वा । (धव. पु. १३, पू. २३१) ।
चक्षु इन्द्रिय- श्रवग्रह के द्वारा जाने गये पदार्थ के विषय में जो विशेष प्राकांक्षा -- विशेषज्ञान का कारणभूत विचार - होता है उसका नाम चक्षुइन्द्रिय- हाज्ञान है।
चक्षुरिन्द्रियेहावरणीय - तिस्से ( चक्खिदियेहाणाणस्स ) प्रवारयं कम्मं चक्खिदिय - ईहाव रणीयं णाम । ( धव. पु. १३. पू. २३१) ।
चक्षु इन्द्रिय-ईहाज्ञान के श्रावारक कर्म को चक्षुइन्द्रिय-ईहावरणीय कहा जाता है । चक्षुर्दर्शन- देखो चक्षुर्दर्शनोपयोग । १. चवखण जं पयासइ दीसइ तं चक्खुदंसणं विति । (प्रा. पंचसं १ - १३९; धव. पु. १, पृ. ३८२ व पु. ७, पृ. १०० उद्.; गो. जी. ४८४) । २. तत्र चक्षुर्दर्शनं तावच्चक्षुरिन्द्रियावरणक्षयोपशमे द्रव्येन्द्रियानुपघाते च तत्परिणामवतः श्रात्मनो भवति । ( श्रनुयो. हरि. वृ. पृ. १०३) । ३. चक्षुषा सामान्यस्यार्थस्य ग्रहणं चक्षुदर्शनम् । ( धव. पु. १, पृ. ३७९ ) ; चक्षुर्ज्ञानोत्पासम्भावनाहेतुश्चक्षुर्दर्शनम् । ( धव. पु. ६, पू. ३३); दक प्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदने रूपदर्शनक्षमोऽहमिति X X X को सो परमत्थत्यो ? वुच्चदे --जं यत्, चक्खूणं चक्षुषाम् पश्यति दृश्यते वा तं तत् चवखुदंसणं चक्षुर्दर्शनमिति वेंति ब्रुवते । चक्खिदियणाणादो जो पुव्वमेव सुवसत्तीए सामण्णा अणुहवो चक्खुणाणुपत्तिनिमित्तो तं चवखुदंसणमिदि । (धव. पु. ७, पु. १०१ ) ; चक्खुविण्णाणुप्पायणकारणं सगसंवेयणं चक्खुदंसणं णाम । ( धव. पु. १३ पृ. ३५५); बज्झत्थे सु पडिबद्धत्तसगसत्ति संवेयणं चक्खुदंसणं । ( धव. पु. १५, पृ. १० ) खल्वनादिदर्शनावरण कर्मावच्छन्न प्रदेशः सन् यत्तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुरिन्द्रियावलम्बाच्च
४. स
मूर्तद्रव्यं
चक्रवर्ती]
कर अंगुलियों को विरल करते हुए पसारने पर चक्रमुद्रा होती है ।
४२६, जैन-लक्षणावली
चक्षुरिन्द्रिय- १. [ वीर्यान्तराय - मतिज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भात् आत्मा] चष्टेरनेकार्थत्वाद् दर्शनार्थविवक्षायां चष्टे अर्थात् पश्यत्यनेनेति चक्षुः । ( स. सि. २- १६; त. वा. २, १६, १ ) । २. चष्टे पश्यत्यर्थान् आत्माऽनेनेति चक्षुः । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १६ ) ।
१ वोर्यान्तराय और चक्षुरिन्द्रियमतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के श्रालम्बन से श्रात्मा जिसके द्वारा पदार्थों को देखता है उसे चक्षुरिन्द्रिय कहते हैं । चक्षुरिन्द्रियार्थावग्रह – चक्खिदियादो एत्तियाणि जोयाणि अंतरिय द्विददव्वे जं णाणमुप्पज्जदि सो चक्खिदित्थोग्गहो । ( धव. पु. १३, पृ. २२७) । चक्षु इन्द्रिय से इतने ( यथासम्भव ४७२६३० प्रादि) योजन के अन्तर से स्थित द्रव्य के विषय में जो ज्ञान (श्रवग्रह) उत्पन्न होता है उसे चक्षु इन्द्रिय- श्रर्थावग्रह कहते हैं । चक्षुरिन्द्रियार्थावग्रहावरणीय - तस्स ( चक्खिदियत्थोग्गहस्स) जमावरणं तं चक्खिदिय प्रत्थोग ग्हावरणीय णाम क्रम्मं । ( धव. पु. १३, पू. २२७) । चक्षु इन्द्रिय- श्रर्थावग्रह के श्रावारक कर्म का नाम चक्षु इन्द्रिय- श्रर्थावग्रहावरणीय है ।
चक्षुरिन्द्रियावायज्ञान चक्खिदिय-ईहाणाणेण अवगर्योलगावट्टभबलेण एगवियप्पम्मि उप्पण्णणिच्छो चक्खिदिय-श्रवाओ णाम । ( धव. पु. १३, पू. २३२) ।
चक्षु इन्द्रिय-ईहाज्ञान से जाने गये लिंग के श्राश्रय से
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
चक्षुर्दर्शन] ४३०, जन-लक्षणावलो
चिंक्रमण विकलं सामान्येनावबुध्यते तच्चक्षुर्दर्शनम् । (पंचा. जो प्रावरण करता है उसे चक्षुर्दर्शनावरण कहते हैं। का. अमृत वृ. ४२) । ५. आत्मा हि जगत्त्रय-काल- चक्षुर्दर्शनावरणीय - देखो चक्षुदैर्शनावरण । त्रयवर्तिसमस्तसामान्यग्राहकसकलविमलकेवलदर्शन- एतद् (चक्षुर्दर्शनम् ) पावृणोतीति चक्षुर्दर्शनावरणी. स्वभावस्तावत् पश्चादनादिकर्मबन्धाधीनः सन् चक्षु- यम् । (धव. पु. ६, पृ. ३३); तस्स (चक्खुदंसदर्शनावरणक्षयोपशमाद् बहिरङ्गद्रव्येन्द्रियालम्बना- णस्स) प्रावारयं कम्म चक्खुदंसणावरणीयं । (धव. च्च मूर्तसत्तासमान्यं निर्विकल्पं संव्यवहारेण प्रत्यक्ष- पु. १३, पृ. २५५)। मपि निश्चयेन परोक्षरूपेण कदेशेन यत्पश्यति तच्च- चक्षुर्दर्शन के प्रावारक कर्म का वाम चक्षुर्दर्शनावरक्षुर्दर्शनम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४)। ६. चक्षु- णीय है। आनोत्पादकप्रयत्नानुविद्धगुणीभूतविशेषसामान्यालो- चक्षुर्दर्शनोपयोग-१. तत्र (चक्षुर्दर्शनम् ) चक्षुर्दचनं चक्षुर्दर्शनं रूपदर्शनक्षम । (मूला. व. १२, र्शनावरणीयकर्मक्षयोपशमतः अवबोधव्यापृतिमात्र१८८)। ७. चक्षुर्दर्शनावरणक्षयोपशमे सति बहि- सारं सूक्ष्मजिज्ञासारूप मवग्रहप्राग्जन्ममतिज्ञानावर रङ्गचक्षुर्द्रव्येन्द्रियावलम्बनेन यन्मूतं वस्तु निर्वि- णक्षयोपशमसम्भूतं सायान्यमात्र ग्राह्यवग्रहव्यंग्यं स्ककल्पसत्तावलोकेन पश्यति तच्चक्षुदर्शनम् । (पंचा. धावारोपयोगवत् । (त. भा. हरि. व. २-५)। का. जय. वृ. ४२) । ८. चक्षुषा सामान्यग्राही बोध- २. पश्यत्यनेनात्मेति चक्षुः, सर्वमेवेन्द्रियमात्मनः साश्चक्षुर्दर्शनम् । (कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. १५)। मान्य-विशेषावबोधस्वभावस्य करणद्वारं, तद्द्वारकं च ६. रूपसामान्यपरिच्छेदश्चक्षुर्दर्शनम् । (जीवाजी. सामान्यमात्रोपलम्भनमात्मपरिणतिरूपं चक्षदर्शनम । मलय. व. १३. प्र.१८)। १०. चक्षषा चक्षरिन्द्रि- (त. भा. हरि.व सिद्ध.व.८.८)। ३. चक्षदर्शनोपयोग येण दर्शनं रूपसामान्य ग्रहणं च चक्षुर्दर्शनम् । इति चक्षुरालोचनाकारपरिणाम आत्मनस्तादात्म(प्रज्ञाप, मलय. व. ३१२, पृ. ५२७)।
कत्वं तद्रूपता । (त. भा. सिद्ध. व. २-६)। १ नेत्रों को जो दिखता है-चाक्षुष ज्ञान के पूर्व में १ चक्षु इन्द्रिय के द्वारा आत्मपरिणतिरूप जो सामा. ही जो चाक्षुष ज्ञानको उत्पत्ति में निभित्तभूत अपनी न्य मात्र की उपलब्धि होती है उसका नाम चक्षुसामान्य स्वसंवेदन रूप शक्ति का अनुभव होता दर्शन है। है-उसे चक्षुर्दर्शन कहते हैं । २ चक्षु-इन्द्रियावरण चक्षुनिरोधव्रत-१. सच्चित्ताचित्ताणं किरियाके क्षयोपशम और द्रव्येन्द्रिय के अनुपात में जो संठाणवण्णभेएसु । रागादिसंगहरणं चक्खुणिरोहो तत्परिणामवान्-चक्षुर्दर्शन गुण परिणामयुक्त-- हवे मुणिणो ॥ (मूला. १-१७)। २. चेतनेतरप्रात्मा के जो सामान्य का ग्रहण होता है उसे चक्षु- वस्तूनां हर्षामर्षकरक्रिया। वर्ण-संस्थानभेदेष चक्ष:दर्शन कहते हैं।
रोधोऽविकारधीः ।। (प्राचा. सा. १-२८)। चक्षर्दर्शनावरण-१. नयनं लोचनं चक्षुरिति १चेतन व अचेतन पदार्थों की क्रिया (नत्य-गीतादि), पर्यायाः, ततश्च नयनदर्शनावरणं चक्षुर्दर्शनावरणं प्राकार और वर्णभेद के विषय में राग-द्वेष रूप वेति चक्षुःसामान्योपयोगावरणमित्यर्थः । (श्रा. प्र. प्रासक्ति को दूर करना-उसे न उत्प न होने देना, टो. १४)। २. नयनाभ्यां दर्शनं नयनदर्शनम्, यह मुनि का चक्षुनिरोधव्रत-चक्षु-इन्द्रिय के विजय यस्यावरणं नयनदर्शनावरणम् । (पंचसं. स्वो. व. स्वरूप मूलगुण है। ३-४, पृ. १०६)। ३. xxx चक्खू पावरइ चक्षुःस्पर्श-चक्षुषा स्पृश्यते गृह्यमाणतया युज्यत चक्खप्रावरणं । (कर्मवि. ग. २५)। ४. चक्षुषा इति चक्षुःस्पर्श स्थूलपरिणतिमत्पुद्गलद्रव्यम् । सामान्यग्राही बोघश्चक्षुर्दर्शनम्, तस्यावरणं चक्षुर्दर्श- (उत्तरा. नि. व. १८६, पृ. १६६)। नावरणम् । (कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. १५)। चक्षु के द्वारा ग्रहण किये जाने के योग्य स्थल ५. नयनं चक्षुस्तद्दर्शनावरणं चक्षुर्दर्शनावरणम्, परिणाम वाले पुद्गल द्रव्य को चक्षःस्पर्श कहते हैं। चक्षनिमित्तसामान्योपयोगावरणमित्यर्थः। (धर्मसं. चक्रमण-१. इतस्तो गमनम्। (भ. प्रा. विजयो. मलय. वृ. ६११, पृ. २२९)।
६४६)। २. चंक्रमणं इतस्तो परिचरणम् । (भ. प्रा. १ चक्षु इन्द्रिय से होने वाले सामान्य उपयोग का मला. ६४६) ।
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
चञ्चलत्व]
४३१, जैन-लक्षणावली
[चतुर्थ असत्य
इधर-उधर घूमने को चंक्रमण कहते हैं ।
क्षयोपशमात् चतुर्विज्ञानभाजः चतुरिन्द्रियाः।xx चञ्चलत्व-चञ्चलत्व कुत्राप्यवस्थितचित्तत्वा- xचतुरिन्द्रियाणां जातिनाम चतुरिन्द्रियजातिनाम । भावः । (योगशा. स्वो. विव. २-८४)।
(कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. १७)। ३. यदुदयाज्जचित्त की कहीं पर भी स्थिरता के न रहने का नाम न्मी चतुरिन्द्रिय इत्यभिधीयते तच्चतुरिन्द्रियजाति. चञ्चलत्व या चञ्चलता है।
नाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११)। चण्डालोक-चण्डः क्रोधस्तद्वशादलीकम अनत- १ जिस कर्म के उदय से जीवों के चतुरिन्द्रियरूप से भाषणं चण्डालीकम् । भयालीकाद्यपलक्षणमेतत् । समानता होती है उसे चतुरिन्द्रिय जातिनामकर्म यद्वा-चण्डेनाऽऽलमस्य चण्डेन वा कलितश्चण्डालः, कहते हैं । २ स्पर्शनादि चार इन्द्रियों से होने वाले स चातिक्ररत्वाच्चण्डाल जातिस्तस्मिन भवं चाण्डा- चार ज्ञानों के प्रावरण के क्षयोपशम से जो जीव लिक कर्मेति गम्यते । (उत्तरा. सू. शा. व. १-१०, चार ज्ञानों से युक्त होते हैं वे चतुरिन्द्रिय कहे पृ.४७)।
जाते हैं। चतुरिन्द्रियों का जातिनामकर्म चतुरिन्द्रिय चण्ड नाम क्रोध का है, उसके वश जो असत्य जातिनामकर्म कहलाता है।। भाषण किया जाता है वह चण्डालीक कहलाता है। रिन्द्रिय जीव-१. फासिदियादिच उर्हि इंदिअथवा-क्रोध के कारण वह कलंकित होता है एहिं जुत्तो जीवो चतुरिंदिनो णाम । (धव. पु. ७,
चण्ड (क्रोध) से यक्त होने से उसे पृ. ६५) । २. एते स्पर्शन-रसना-घ्राण-चक्षरिन्द्रियाचण्डाल कहा जाता है। इस प्रकार अतिशय र वरणक्षयोपशमात श्रोत्रेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रियाकर्म के कारण चण्डाल जाति प्रसिद्ध हुई। इस वरणोदथे च सति स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णानां परिच्छेचण्डाल जाति में होने वाले कर्म को चाण्डालिक। त्तारश्चतुरिन्द्रिया अमनसो भवन्तीति । (पंचा. कहा जाता है।
का. अमृत. व. ११६)। चतरङ्ग-जल्प-चत्वारि वादि-प्रतिवादि-प्राश्निक- १ स्पर्शन प्रादि चार इन्द्रियों से युक्त जी परिषद्बललक्षणानि अङ्गानि यस्य स चतुरनो रिन्द्रिय कहलाता है । २ स्पर्शन, रसना, घ्राण और जल्पः। (सिद्धिवि. व.५, २, पृ. ३१३, पं. चक्षइन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम से तथा श्रो १२-१३)।
न्द्रियावरण और नोइन्द्रियावरण कर्म का उदय होने वादिबल, प्रतिवादिबल, प्राश्निकबल और परिषद- पर स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण के जानने वाले जीवों बल इन चार अङ्गों से युक्त जल्प को चतुरङ्ग-जल्प को चतुरिन्द्रिय कहते हैं । वे मन से रहित कहा जाता है।
होते हैं। चतुरस्रनाम-१. जस्सुदएणं जीवे चउरंसं नाम चतुरिन्द्रियलब्धि- जिब्भा-फास-घाण चक्खिदिोड संठाणं । तं चउरसं नाम xxx ॥ (कर्म- यावरणाणं खग्रोवसमेण समुप्पण्णा सत्ती चउरिदियवि. ११३)। २. चतुरस्र चतुष्कोणं । (संग्रहणी लद्धी । (घव. पु. १४, पृ. २०) । दे. वृ. २७२)।
जिह्वा, स्पर्श, घ्राण और चक्षु इन्द्रियावरणों के १ पैर के अंगठे से लेकर शिर के बालों तक जितना क्षयोपशम से जो शक्ति उत्पन्न होती है उसका ऊंचाई का प्रमाण हो उतना ही प्रमाण दोनों नाम चतुरिन्द्रियलब्धि है। भजात्रों के फैलाने पर तिरछा भी हो, इसे चतुरस्र
निगोद-जे देव-णे रइय-तिरिक्ख-मणुस्सेकहा जाता है। जिस कर्म का उदय होने पर इस सुप्पज्जियूण पुणो णिगोदेसु पविसिय अच्छंति ते चदुप्रकार के प्राकार वाला जीव का शरीर होता है गइणिगोदा भण्णंति । (धव. पु. १४, पृ. २३६)। उसे चतुरस्र नामकमै कहते हैं।।
जो निगोद जीव देव, नारकी, तियंच और मनुष्यों चतुरिन्द्रियजातिनाम-१. जस्स कम्सस्स उद- में उत्पन्न होकर पुनः निगोद जीवों में प्रविष्ट एण जीवाणं चउरिदियभावेण समाणत्तं होदि तं होते हैं वे चतुर्गतिनिगोद कहलाते हैं । कम्मं चउरिदियजादिणामं । (धव. पु. ६ पृ. ६८)। चतुर्थ असत्य-देखो असत्य (चतुर्थ)। गहित२. चतुर्णा स्पर्शन-रसना घ्राण-चक्षुर्ज्ञानानाम् आवरण• मवद्यसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामा
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थ मूलगुण] ४३२, जैन-लक्षणावली
[चतुर्विंशतिस्तव न्येन त्रेघा मतमिदमनृतं तुरीयं तु ॥ (पु. सि. १५)। ५. चतुर्मुखं मुकुटबद्धैः क्रियमाणा पूजा, सैव महागहित, सावद्य और अप्रिय वचनों के बोलने को महः । (कातिके. टी. ३६१) । असत्य कहते हैं । यह असत्य का चौथा भेद है। मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो जिनपूजा की चतुर्थ मूलगुरण-दिव्वादिमेहुणस्स य विवज्जणं जाती है उसे चतुर्मुखमह कहते हैं। २ प्राणी मात्र के सव्वहा चउत्थो उ । (धर्मसं. हरि. ८६०)। प्रति कल्याणकारक होने से उसी को सर्वतोभद्र और देवी प्रादि (मानुषी आदि) के साथ मैथुनकम का अष्टाह्निक पूजन से बड़ी होने के कारण महामह भी सर्वथा परित्याग कर देना, यह साधु का चौथा कहते हैं। मूल गुण है।
चतविशतिस्तव-१. उसहादिजिणवराणं णामचतुर्थी प्रतिमा-चतुरो मासांश्चतुष्पव्या पूर्वप्रति- णिरुत्ति गुणाणुकित्ति च । काऊण अच्चिदूण य मानुष्ठानसहिताऽखण्डितपोषधं पालयतीति चतुर्थी। तिसुद्धिपणमो थवो णेप्रो ॥ (मूला. १-२४) । (योगशा. स्वो. विव. ३-१४८) ।
२. चतुर्विंशतिस्तवः तीर्थकराणामनुकीर्तनम् । (त. चार मास पर्यन्त चारों पर्यों में पूर्व प्रतिमानों के वा. ६, २४, ११)। ३. चविशतीनां तीर्थकृतामअनष्ठान के साथ प्रखण्ड पौषधव्रत का पालन प्यन्येषां च स्तवाभिधायी चविंशतिस्तवः । (त. भा. करना, यह श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में चौथी हरि. व. १-२०)। ४. चउवीसत्थो चउवीसण्हं प्रतिमा है।
तित्थयराणं वंदणविहाणं तण्णाम-संठाणुस्सेह-पंचचतर्दशपूर्वित्व-१. सयलागमपारगया सुदकेवलि- महाकल्लाण चोत्तीसअइसयसरूवं तित्थयरवंदणाए णामसुप्पसिद्धा जे । एदाण बुद्धिरिद्धी चोद्दसपुचि सहलत्तं च वण्णेदि। (धव. पु. १, पृ. ६६); त्ति णामेण ।। (ति. प. ४-१००१)। २. सम्पूर्ण- चदुवीसत्थो उसहादिजिणिदाणं तच्चेइय-चेइयश्रुतकेवलिता चतुर्दशपूर्वित्वम् । (त. वा. ३, ३६, हराणं च कट्टिमाकट्टिमाणं दव्व खेत्त-काल-भावपमा३)। ३. सयलसुदणाणधारिणो चोदसपुग्विणो। गादिवण्णणं कुणदि । (धव. पु. ६, पृ. १८८)। (धव. पु. ६, पृ. ७०)।
५. चउवीसतित्थ यरविसयदण्णये णिराकरिय च उ१ सम्पूर्ण श्रुत-चौदह पूर्वो-के पारगामी होकर वीसं पि तित्थय राणं थवणविहाणं णाम-टूवणा-दव्व. जो श्रुतकेवलो के नाम से प्रसिद्ध हैं, उनकी बुद्धि भाव-भेएण भिण्णं तप्तं च च उवीसत्थरो परूऋद्धि को चतर्दशपवित्व कहते हैं।
वेदि । (जयध. १, पृ. १०८)। ६. साबद्ययोगचतुर्मुख - चतुर्मुखं यस्माच्चतसृष्वपि दिक्ष विरहं सामायिकमेकभावगं चित्तम् । गुणकीर्तिस्तीपन्थानो निस्सरन्ति । (जीवाजी. मलय. वृ. ३, २, र्थकृतां चतुरादेविंशतिस्त वकः ॥ (ह. पु. ३४, १४२, पृ. २५८)।
१४३)। ७. चतुर्विशतोनां पूरणस्यारादुपकारिणो
यत्र स्तवः शेषाणां च तीर्थ कृतां वर्ण्यते स चतूविशचतुर्मुख या चौराहा कहते हैं।
तिस्तवः । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-२०)। ८. चतुर्विचतुर्मुखमह-१. चतुर्मुख मुकुटबद्धः क्रियमाणा शतिस्तवस्तीर्थकरपुण्यगुणानुकीर्तनमिति । (चा. पूजा, सैव महामहः सर्वतोभद्रः। (चा. सा. पृ. २१)। सा. पृ. २६)। ६. वृषभादीनां चतुस्त्रिशदतिशयप्रा२. भक्त्या मुकुटबद्धर्या जिनपूजा विधीयते । तदाख्या सर्वतोभद्र-चतुर्मुख-महामहाः ॥ (सा. घ. २, (श्रुतभ. टी. २४, पृ. १७६)। १०. चतुर्विशते२७); तत्र सर्वत्र प्राणिवृन्दे कल्याणकरणात् सर्व- स्तीर्थकराणां नामोत्कीर्तनपूर्वकं स्तवो गुणकीर्तनम्, तोभद्रः, चतुर्मुखमण्डपे विधीयमानत्वाच्च तस्य च कायोत्सर्गे मनसाऽनृध्यानं शेषकाल व्यक्तअष्टाह्निकापेक्षया गुरुत्वान्महामहः। (सा. ध. स्वो. वर्णपाठः। (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। ११. टी. २-२७)। ३. पूजा मुकुटबद्ध र्या क्रियते सा तत्तत्कालसम्बन्धिनां चतुर्विशतेस्तीर्थ कराणां नामचतुर्मुखः ।। (धर्मसं. श्रा. ९-३०)। ४. नपर्म कुट- स्थापना-द्रव्य-भावानाश्रित्य पञ्चमहाकल्याण-चतुबद्धाद्यैः सन्मण्डपे चतुर्मुखे । विधीयते महापूजा स स्त्रिशदतिशयाष्टप्रातिहार्य-परमौदारिकदिव्यदेह-समस्याच्चतुर्मुखो महः ॥ (भावसं. वाम. ५५६)। वसरणसभा-धर्मोपदेशनादि-तीर्थकरत्वमहिमस्तुतिश्च
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुश्शरीरी जीव] ४३३, जैन-लक्षणावली
[चन्द्रप्रभ तुर्विंशतिस्तवः, तत्प्रतिपादकं शास्त्रमपि चतुर्विंशति- चतुष्पदसचित्तप्रधानोत्तर-चतुष्पदमनन्यसाधास्तव इत्युच्यते । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. रणशौर्य-धैर्यादियोगतः सिंहः । (उत्तरा. नि. ३६७)।
शा. वृ. १-१, पृ. ४)। १ नामनिरुक्ति के साथ वृषभादि चौबीस तीर्थ- अनुपम शौर्य एवं धीरता प्रादि से संयुक्त सिंह करों के गुणों का कीर्तन करते हुए मन, वचन, काय चतुष्पदसचित्तप्रधानोत्तर माना जाता है। को शुद्धिपूर्वक पूजा व प्रणाम करने को चतुर्विश- चत्वर-चत्वरं बहुरथ्यापातस्थानम् । (जीवाजी. तिस्तव कहते हैं।
मलय. वृ. ३, २, ४२, पृ. २५८)। चतुश्शरीरी जीव-चत्तारि सरीराणि जेसि ते जहां पर बहुत गलियां आकर मिलती हैं, उस चदुसरीरा । के ते? ओरालियावे उब्विय तेजा-कम्म- स्थान को चत्वर कहते हैं। इयसरीरेहि ओरालिय-ग्राहार-तेजा कम्मइयसरीरेहि चन्द्रप्रज्ञप्ति-१. चदपण्णत्ती णाम छत्तीमलक्खवा बट्टमाणा । (धव. पु. १४, २३८) ।
पचपदसहस्से हि ३६०५००० चंदायु परिवारिद्धिऔदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्मण अथवा गइ-बिंबुस्सेहवण्णणं कुणइ । (धव. पु. १, पृ. १०६); प्रौदारिक, प्राहारक, तैजस और कार्मण इन चार चन्द्रप्रज्ञप्तौ पंचसहस्राधिकषत्रिंशत्शतसहस्रपदायां शरीरों के साथ वर्तमान जीव चतुःशरीरी कह- चन्द्रबिम्ब-तन्मार्गायुःपरिवारप्रमाणं चन्द्रलोकः लाते हैं।
तद्गतिविशेषः तस्मादुत्पद्यमानचन्द्रदिनप्रमाणं राहुरःक्रियाकर्म-सम्वकिरियाकम्म चसिरं चन्द्रबिम्बयोः प्रच्छाद्य-प्रच्छादकविधानं तत्रोहोदि । तं जहा-सामाइयस्स आदीए जं जिणिदं त्पत्तेः कारणं च निरूप्यते । (धव. पु. ६, पृ. २०६)। पडि सीसणमणं तमेगं सिरं। तस्सेव अवसाणे जं २. चंदपण्णत्ती चंदविमाणाउ-परिवारिद्धि-गमणसीसणमणं तं विदियं सीसं । त्थोस्सामिदंडयस्स हाणि-बढि सयलद्ध-च उत्थभागग्गहणादीणि वणेआदीए जं सीसणमणं तं तदियं सिरं। तस्सेव अव- दि । (जयध. १, पृ. १३२)। ३. चन्द्रायुर्गतिवैभ. साणे जं णमणं तं चउत्थं सिरं । एवमेगं किरियाकम्म वादिप्रतिपादिका पंचसहस्रषत्रिंशत्लक्षपदपरिमाणा चसिरं होदि ।Xxxअथवा सव्वं पि किरिया- चन्द्रप्रज्ञप्तिः । (श्रुतभ. व. ६, पृ. १७४)। ४. तः कम्मं चदुसिरं चदुप्पहाणं होदि, अरहंत-सिद्ध-साहु- चन्द्रप्रज्ञप्तिः चन्द्रस्य विमानायुःपरिवार-ऋद्धिधम्मे चेव पहाणभूदे कादूण सव्वकिरियाकम्माणं गमन वृद्धि-हानि-सकलार्द्ध-चतुर्भागग्रहणाद्रीनि वर्णपउत्तिदसणादो। (धव. पु. १३, पृ. ८९-१०)। यति । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३६१)। सब क्रियाकर्म चतुःशिर होता है। यथा-सामा- ५. पंचसहस्राधिकषत्रिंशत्लक्षपदप्रमाणा चन्द्रायुर्गयिक के आदि में जो जिनेन्द्र देव को सिर नमाया तिविभवप्ररूपिका चन्द्रप्रज्ञप्तिः। (त. वृत्ति श्रुत. जाता है वह एक सिर है। उसी के अन्त में सिर १-२०)। ६. चंदस्सायुविमाणे परिया रिद्धी च नमाना, यह दूसरा सिर है। 'थोस्सामि' दण्डक के अयण गमणं च। सयलद्धपायगहणं वण्णेदि वि आदि में सिर नमाना, यह तीसरा सिर है। तथा चंदपण्णत्ती ।। (अंगप्र. २-२, पृ. २७४)। उसी के अन्त में नमस्कार करना, यह चौथा सिर १ चन्द्रमा के विमान, प्रायु-प्रमाण, परिवार, चन्द्र है। इस प्रकार एक क्रियाकर्म चतुःशिर होता है। का गमनबिशेष, उससे उत्पन्न होने वाले दिन-रात्रि xxx अथवा सभी क्रियाकर्म चतुःशिर अर्थात् का प्रमाण, राहु व चन्द्र विम्बों में प्रच्छाद्य-प्रच्छाचतुःप्रधान होता है; क्योंकि प्ररहन्त, सिद्ध, दकभाव और वहां उत्पन्न होने का कारण; इन साधु और धर्म को प्रधान करके सव क्रियाकर्मों सबकी जिसमें प्ररूपणा की जाती है वह चन्द्रप्रज्ञकी प्रवृत्ति देखी जाती है।
प्ति कहलाती है। चतष्क-चतुष्कं चतुष्पथयूक्तम् । (जीवाजी. मलय चन्द्रप्रभ-चन्द्रस्येव प्रभा ज्योत्स्ना सौम्यलेश्या७. ३, २, १४२, पृ. २५८) ।
विशेषोऽस्येति चन्द्रप्रभः, तथा देव्याश्चन्द्रपानदोहचार मार्गों से संयुक्त स्थान को चतुष्क कहते हैं। दोऽभूत, चन्द्र समवर्णश्च भगवानिति चन्द्रप्रभः ।
ल. ५५,
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
चन्द्रमास]
(योगशा. स्वो विव. ३ - १२४ ) । जिनकी प्रभा -- सौम्य लेश्याविशेष- चन्द्रमा को ज्योत्स्ना (चांदनी) के सदृश थी, जिनकी माता को चन्द्रपान का दोहद उत्पन्न हुआ था, तथा जो चन्द्र के समान वर्णवाले थे; वे भगवान 'चन्द्रप्रभ' इस सार्थक नाम से प्रसिद्ध हुए । चन्द्रमास – एकोनत्रिंशद् दिनानि द्वात्रिंशच्च द्विषष्टिभागा २६ दिवसस्य चन्द्रमास: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ४-१५) ।
उनतीस दिन और एक दिन के बासठ भागों में से बत्तीस भाग (२६६३) प्रमाण काल को चन्द्रमास कहते हैं ।
चन्द्र संवत्सर - पुष्णिमपरियट्टा पुण बारस संवच्छरो हवइ चंदो । (ज्योतिष्क. २ - ३५) । बारह पूर्णिमानों के परिवर्तन काल को चन्द्रसंवत्सर कहते हैं ।
चयन १. सोधम्मिद। दिदेवाणं सगसंपयादो विरहो चयणं णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३४६) । २. चयनं कषायपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्रम् । ( स्थाना. अभय वृ. ४, १, २५०, पृ. १८४) ।
१ सौधर्म इन्द्र श्रादि देवों का अपनी सम्पत्ति से जो वियोग होता है वह चयन कहलाता है । चयनलब्धि - णामं - चयणविहि लद्धिविहिं च वण्णेदि, तेण चयणलद्धि त्ति गुणणामं । ( धव. पु. १, पृ. १२४ ) । चयनविधि श्रौर लब्धिविधि का वर्णन करने वाले वस्तु नामक अर्थाधिकार को चयनलब्धि कहते हैं । यह ग्रायणीय पूर्व का सार्थक नाम वाला पांचवां अधिकार है ।
चररणकुशील - १. कोउयभूतिकम्मे परिणापसिणे निमित्तमाजीवी । कक्ककुरुयाइ लक्खणमुवजीवति विज्ज- मंतादी ॥ ( व्यव. भा. १, पृ. ११७; प्रव. सारो. १११ ) । २. एतानि ( कौतुकादीनि ) य उपजीवति स चरणकुशीलः । ( व्यव. भा. मलय. व. १, पृ. ११७) । ३. कौतुक - भूतिकर्मणी प्रश्नाप्रश्नो निमित्तां प्राजीविकां कल्कुरुकां चः समुच्चये, लक्षणं विद्या मंत्रादिकं च य उपजीवति स चरणकुशीलः । ( प्रव. सारो. वृ. १११, पृ. २६) । १ जो कौतुक, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त श्राजी
४३४, जैन - लक्षणावलो
[चरमसमयस योगिभ.
विका, कल्ककुरुका, लक्षण और विद्या मंत्रादि; इनका श्राश्रय लेता वह चरणकुशील कहलाता है । ( कौतुक श्रादि के लक्षण प्रव. सारो. गा. ११२-१५ में देखे जा सकते हैं ।) चरणपुलाक - १. मूलोत्तरगुणप्रति सेवनातश्चरणपुलाक: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-४६ ) । २. मूलोत्तरगुणप्रतिषेवणया चारित्रविराधनतश्चरणपुलाकः । ( प्रव. सारो. वू. ७२३, पृ. २१० ) ।
२ मूलगुणों और उत्तरगुणों की प्रतिसेवना के साथ चारित्र की विराधना करने वाले साधुनों को चरणलाक कहते हैं । चरणविनय - देखो चारित्रविनय । चररणानुयोग -- १. गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्ति-वृद्धि-रक्षाङ्गम् । चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति । ( रत्नक. ४५ ) । २. चरणादिस्तृतीयः स्यादनुयोगो जिनोदितः । यत्र चर्याविधानस्य परा शुद्धिरुदाहृता ॥ ( म. पु. २ - १०० ) । ३. ममेदं स्यादनुष्ठानं तस्यायं रक्षणक्रमः । इत्थमात्मचरित्रा rsनुयोगश्चरणाश्रितः ।। ( उपासका ९१८ ) । ४. उपासकाध्ययनादौ श्रावकधर्मम्, आचाराराधनादौ यतिधर्मं च यत्र मुख्यत्वेन कथयति स चरणानुयोगो भण्यते । (बृ. द्रव्यसं. ४२ ) । ५. सकलेतरचारित्रजन्मरक्षा विवृद्धिकृत् । विचारणीयश्चरणानुयोगश्चरणादृतैः ।। (न. ध. ३-११) ।
१. गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के विधान करने वाले अनुयोग को चरणानुयोग कहते हैं । चरमशरीर - चरमं संसारान्तर्वति तद्भवमोक्षकारण रत्नत्रयाराधकजीवसम्बन्धिशरीरं वज्रवृषभनाराचसंहननयुक्तं यस्यासौ चरमशरीरः । (गो. जी. मं. प्र. व जी. प्र. टी. ३७४) । संसार के अन्त में वर्तमान तथा तद्भव मोक्ष के कारणभूत रत्नत्रय की श्राराधना करने वाले जीव से सम्बद्ध ऐसे वज्रवृषभनाराचसंहनन युक्त शरीर के धारक को चरमशरीर या चरमशरीरी कहा जाता है ।
चरमसमयसयोगिभवस्थ केवलज्ञान - यत्स योगित्वावस्थायाश्चरमसमये वर्तमानं तत् चरमसमयसयोगिभवस्थ केवलज्ञानम् । (श्राव. मलय. वृ. गा. ७८, पृ. ८३) ।
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
चरिका) ४३५, जैन-लक्षणावली
[चर्यापरीषहजये सयोगिकेवली अवस्था के अन्तिम समय में वर्तमान जातचरणखेदस्यापि सत: पूर्वोचितयान वाहनादिकेवली के ज्ञान को चरमसमयसयोगिभवस्थकेवल- गमनमस्मरतो यथाकालमावस्यकापरिहाणिमास्कन्दज्ञान कहते हैं।
तश्चर्यापरिषहसहनमवसेयम् । (स. सि. ६-६)। चरिका-चरिका अष्टहस्तप्रमाणो नगर-प्राकारा- २. व्रज्यादोषनिग्रहश्चर्याविजयः । (त. वा. ६, ६, न्तरालमार्गः । (जीवाजी. मलय. वृ. ३, २, १४२, १४; त. श्लो. ६-६); दीर्घकालाभ्यस्त गुरुकुलपृ. २५८)।
ब्रह्मचर्यस्याधिगतबन्ध-मोक्षपदार्थतत्त्वस्य कषायनिनगर और उसके कोट के मध्यवर्ती पाठ हाथ चौड़े ग्रहपरस्य भावनापितमतेः संयमायतनादिभक्ति हेतोमार्ग को चरिका कहते हैं।
देशान्तरातिथेः गुरुणाभ्यनुज्ञातस्य नानाजनपदव्याचरित-१. चरियं नाम जं सव्वं सद्भूतं वत्तं तेण हार-व्यवहाराभिज्ञस्य ग्रामे एकरात्रं नगरे पंचरात्रं जस्स दिट्ट तो कीरइ त चरियं । (दशव. चु. १, प्रकर्षेणावस्थातव्यमित्येवं संयतस्य वायोरिव नि:पृ. ४०)। २. तत्र चरितमभिधीयते यद् वृत्तम्, संगतामुपगतस्य देश-कालप्रमाणोपेतमध्वगमनमनुतेन कस्यचिद् दार्टान्तिकार्थप्रतिपत्तिजन्यते । भवतः क्लेशक्षमस्य भीमाटवीप्रदेशेषु निर्भयत्वात् तद्यथा---दुःखाय निदानम्, यथा ब्रह्मदत्तस्य । सिंहस्येव सहायकृत्यमनपेक्षमाणस्य परुषशर्करा-कण्ट(दशवे. नि. हरि. व. १-५३, पृ. ३४)। ३. एक- कादिव्यधनजातपादखेदस्यापि सतः पूर्वोचितयान-वापुरुषाश्रिता कथा चरितम् । (रत्नक. टी. २-२)। हनादिगमनमस्मरतः सम्यक् व्रज्यादोषं परिहरतः २ जो वृत्त घटित हुआ है, उसका जब किसी के चर्यापरीण्हजयो वेदितव्यः । (त. वा. ६, ६, १४; लिए उदाहरण दिया जाता है तब वह चरित कह- चा. सा. पु. ५२)। ३. वजितालस्य: ग्राम-नयनलाता है। जैसे-निदान ब्रह्मदत्त के समान दुःख- (गर-) वसतिनिर्ममत्वः प्रतिमासं चर्यामाचरेदिदायक होता है।
त्येवं चर्यापरीषहजयः कार्यः। (त. भा. हरि. वृ. चर्या-१. प्राचारादिसूत्रप्रपञ्चितविचित्रयतिवृत्त- ६-९)। ४. ग्रामाद्यनियतस्थायी सदा वाऽनियतसमस्तसमुदयरूपे तपसि चेष्टा चर्या । (पंचा. का. लयः। विविधाभिग्रहैर्य क्तश्चर्यामेकोऽप्यधिश्रयेत् ॥ अमृत. वृ. १६०)। २. चरणं चर्या ग्रामानुग्रामं (प्राव. नि. हरि. वृ. ६१८, पृ. ४०३ उद्.)। विहरणात्मिका, सैव परीषहः चर्यापरीषहः । ५. तजितालस्यो ग्राम-नगर-कुलादिष्वनियतवसतिनि(उत्तरा. नि. शा. व.८६ प. ८३)। ३. चर्या ममत्वः प्रतिमासं चर्यामाचरेदित्येवं चर्यापरीषहग्रामादिष्वनियतविहारित्वम् । (समवा. अभय. व. जयः। (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-९)। ६. चर्या २२, पृ. ३६)। ४. चर्या परे गणे अन्यस्मिन् संघे आवश्यकाद्यनुष्ठानपरस्यातिश्रान्तस्याप्युपानकादिगमनम् । (अन. ध. स्वो. टी. ७-६८)।
रहितस्यापि मार्गयानम्। (मूला. व. ५-५७)। १ प्राचारांग प्रादि श्रुत में विस्तार से वणित साधु ७. शार्दूलमिलितेच्छभल्लभुजगाऽभोगे भयकास्पदे, के अनेक प्रकार के प्राचरण के समुदाय स्वरूप तप गन्धान्धद्विरदोत्करे करिरिपुक्रीडैकनीडे वने । स्वर में जो प्रवृत्ति होती है, उसे चर्या (चारित्र) कहा कण्टक-कर्करादिपरुषेऽप्यत्राणपादश्चरन्नेकः सिंह जाता है। २ गांव-गांव में विहार करना, इसका इवाति भीतिविजयी व्रज्याति जित्संयमी ॥ (प्राचा. नाम चर्या है, यह २२ परीषहों के अन्तर्गत हैं। सा. ७-६) । ८. बिभ्यद्भवाच्चिरमुपास्य गुरून्नि४ अन्य संघ में जाने को कर्या कहते है।
रूढ ब्रह्मव्रत-श्रुत-शमस्तदनुज्ञयकः । क्षोणीमटन् गुणचर्यापरीषहजय-१. दीर्घकालमुषितगुरुकुलब्रह्मच. रसादपि कण्टकादि-कष्टे सहत्यनधियन् शिविकादि यस्याधिगतबन्ध-मोक्षपदार्थतत्त्वस्य-संयमायतनादिभ- चर्याम् ।। (अन. ध. ६-६७) । ६. यो मूनि: चिरक्ति हेतोर्देशान्तरातिथेगुरुणाऽभ्यनुज्ञातस्य पवनवनिः- कालसेवित गुरुकुलब्रह्मचर्यो भवति, बन्ध-मोक्षपदा. सङ्गतामङ्गीकुर्वतो बहशोऽनशनावमौदर्य-वृत्ति-परि- र्थमर्म जानाति, संयमायतनयतिजनविनयभक्त्यर्थ गरु. संख्यान-रसपरित्यागादिबाधापरिक्लान्तकायस्य देश- जनेनानुज्ञातो देशान्तरं गच्छति, नभस्वानिव निस्सकालप्रमाणोपेतमध्वगमनं संयमविरोधि परिहरतो ङ्गो भवति, उपवास-सामिभोजन-गृहवस्तुसंख्याधुतानिराकृतपादावरणस्य परुष-शर्करा-कण्टकादिव्यधन- दिरसपरिहरणादिकायक्लेशसहनशीलकायो भवति
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
चलदोष] ४३६, जैन-लक्षणावली
[चान्द्रसंवत्सर देश-कालानुसारेण संयमाविरोधि गमनं करोति, चर- २५)। ४. चलम् प्राप्तागम-पदार्थश्रद्धानविकल्पेषु णावरणरहितः कठिनशर्करोपलकण्टकमृत्खण्डपी- नानारूपेण चलतीति चलम् । यथा-स्वकारितेऽर्हडनसंजातपादबाधोऽपि बाधां न मन्यते, गृहस्थाव- च्चैत्यादौ देवोऽयं मे, अन्यकारिते अन्यस्यायमिति स्थोचितवाहनयानादिकानां न स्मरति, कालानुसारेण तथा सम्यक्त्वप्रकृतेरुदयात् चलम् । (कातिके. टी. षडावश्यकानां परिहाणि न करोति, तस्य मुनेश्चर्या- ३०८) । पहीषहजयो वेदितव्य: । (त. वृत्ति श्रुत. ३-६)। २ जो श्रद्धान प्रात्मीय अनेक विशेषों में चंचलता १ जो साधु दीर्घ काल तक ब्रह्मचर्यपूर्वक गुरुकुल को प्राप्त होता है वह चल दोष से दूषित होता में रहा है, जिसने बन्ध-मोक्षादि पदार्थों के रहस्यों है। जैसे- सभी प्ररहन्त अनन्त शक्ति सहित को जान लिया है। संयमपरिपालन और प्रायतन
__ होते हैं-हीनाधिक शक्ति वाले नहीं होते, फिर (धर्मस्थान) की भक्ति के कारण जो गुरु की भी भगवान् शान्तिनाथ इस शान्तिकार्य के लिए अनज्ञापूर्वक देशान्तर का अतिथि होता है-अन्य समर्थ हैं, अथवा भगवान् पार्श्वनाथ इस विघ्नदेश में जाता है, जो वायु के समान निःसंग-परि- विनाशनरूप कार्य के लिए समर्थ हैं, इत्यादि प्रकार ग्रह से रहित (निर्ममत्व) होता है, बहुत प्रकार का श्रद्धान।
दि तपों के कारण कृश शरीर को धारण चाण्डालिक-देखो चण्डालीक । करता है, देश व काल के प्रमाण के अनुसार जो चातुर्य-१. तच्चातुर्यं यत्परप्रीत्या स्वकार्यसाधमार्ग में गमन करता है,: संयमविरोधी मार्गगमन नम् । (नीतिवा. २७-५२) । का परित्याग करता है, पादावरण-पादुका- दूसरे को प्रसन्न करके जो अपना कार्य सिद्ध किया आदि से रहित होकर कठोर कंकड़ व कांटे आदि को जाता है, इसे चातुर्य कहते हैं। व्यथा से पादपीड़ा के होने पर भी पूर्वानुभुत चान्द्रमास-१. एकश्च पूर्णमासीपरावर्त एकरथादि के आश्रित होने वाले गमन का स्मरण नहीं श्चान्द्रमासः, तस्मिश्च चान्द्रमासे रात्रिदिवपरिमाकरता है, तथा समयानुसार प्रावश्यकों का परि- णचिन्तायामेकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वात्रिंशद द्वाषष्टि. पालन करता है। ऐसा साधु चर्यापरीषह का विजेता भागा रात्रिंदिवस्य । (सूर्यप्र. मलय. व. १, २०, होता है।
५६); एकस्मिश्चाद्रमासे अहोरात्रा एकोनत्रिशद् चलदोष-१. लसत्कल्लोलमालासु जलमेकमिव भवन्ति द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य । स्थितम् । नानात्मीयविशेषेषु चलतीति चलं यथा ॥ (सूर्यप्र. मलय. वृ. १०, २, ५६) । २. चंदो एगुण(अन. ध. २-६०) । २. चलं नानात्मीयविशेषषु तीसं विसट्रिभागा य बत्तीसं। (सर्यप्र. मलय. व. चलतीति चलम् । तद्यथा-सर्वेषामर्हतामनन्तशक्ति- १०, २०, ५७ उद.)। ३. चन्द्रे भवश्चान्द्रः, युगादो त्वे समानेऽपि अयं देवः शान्तिनाथः अस्मै शान्ति- श्रावण मासे बहलपक्षप्रतिपद प्रारभ्य यावत्पौर्णमासीकर्मणे समर्थः, एष पार्श्वनाथ प्रस्मै विघ्नविनाश- परिसमाप्तिस्तावत्कालप्रमाणश्चान्द्रो मास:, एकपो.. कर्मणे समर्थः इत्याद्याप्तश्रद्धानादिश्चलत्वम् । (गो. र्णमासीपरावर्तश्चान्द्रो मास इति यावत् । अथवा जी. म. प्र. टी. २५)। ३. तत्र चलत्वं यथा-नाना- चन्द्रचारनिष्पन्नत्वादुपचारतो मासोऽपि चन्द्रः ।(व्य. त्मीय विशेषेषु चलतीति चलं स्मृतम् । लसत्कल्लोल- व. भा. मलय. व. २-१५, पृ. ६) । मालासु जलमेकमवस्थितम् ।। नानात्मीयविशेषेषु ३ युग के प्रारम्भ में श्रावण मास सम्बन्धी कृष्ण
आप्तागम-पदार्थश्रद्धानविकल्पेषु चलतीति चलं पक्ष की प्रतिपदा से लेकर पौर्णमासी तक के कालस्मृतम् । तद्यथा--स्वकारितेऽहंच्चैत्यादौ देवोऽयं प्रमाण को एक चान्द्र मास कहा जाता है। इसका मेऽन्यकारिते। अन्यस्यायमिति भ्राम्यन् मोहाच्छा- अभिप्राय यह है कि एक पौर्णमासी के परिवर्तन को द्धोऽ५ चेष्टते ।।XXX अत्र दृष्टान्तमाह-नाना- चान्द्र मास कहते हैं। अथवा चन्द्र के संचार से कल्लोलमालासु जलमेकमवस्थितम्, तथापि नाना- उत्पन्न होने के कारण मास को भी चान्द्र मास रूपेण चलति, तथा मोहात् सम्यक्त्वप्रकृत्युदयात् कहा जाता है। श्रद्धानं भ्रमणं चेष्टते । (गो. जी. जी. प्र. टी. चान्द्रसंवत्सर-१. एवंप्रकारेण मासेन द्वादश
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
चारक]
४३७, जैन-लक्षणावली
[चारित्र
मासपरिमाणश्चान्द्रः संवत्सरः। स चायं त्रीणि नुपपत्त्या चरणमिह विशिष्टं गमनमभिगृह्यते । शतान्यह्नां चतुःपंचाशदुत्तराणि द्वादशद्विषष्टिभागा X ततोऽयमर्थ:-अतिशायि चरणसमर्थाश्चारणाः । (३५४१३) इति । (त. भा. सिद्ध. व. ४-१५)। प्राह च भाष्यकृत् स्वकृत भाष्यटीकायाम्-अति२. उक्तं च-पुण्णिमपरियट्टा पुण वारस संवच्छरो शयचरणाच्चारणा:, अतिशयगमनादित्यर्थः । (प्रज्ञा. हवइ चंदो। त्रीणि शतानि चतुष्पंचाशदधिकानि प. मलय. व. २१-२७३, पृ. ४२४; प्राव. मलय, रात्रिदिवानां द्वादश च द्वाषष्टिभागा रात्रिदिवस्य .. ७०, पृ. ७८)। एवंपरिमाणश्चान्द्रः संवत्सरः । द्वादशपूर्णमासी. १ जल, जंघा, तन्तु (धागा), पुष्प, पत्र, श्रेणि परावर्ता यावता कालेन परिसमाप्तिमुपयान्ति तावान् (प्राकाशप्रदेशपंक्ति) और अग्नि की शिखा प्रादि कालविशेषश्चान्द्रः संवत्सरः। (सूर्यप्र. मलय. व. के पालम्बन से गमन में समर्थ साध चारण१०, २०, ५६); तिन्नि अहोरत्तसया च उपन्ना चारण नामक ऋद्धि के धारक-होते हैं। नियमसो हवइ चंदो। भागो य वारसेव य बावट्रि- २ जिसके प्रभाव से साधु अतिशय यक्त गमन में कएण छेएण ॥ (सूर्यप्र. ५६, पृ. १५४); चन्द्र- समर्थ होते हैं, ऐसी चारणऋद्धि से सम्पन्न साधनों संवत्सरस्य परिमाणं त्रीण्यहोरात्रशतानि चतुष्पञ्चा- को चारण कहते हैं। शदधिकानि द्वादश च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य । चारित्र-१. चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो (सूर्यप्र. मलय. वृ. १०, २०, ५६, पृ. १५४); समो त्ति णिट्ठिो । मोहक्खोहविहीणो परिणामो ससिसमग पुन्निमासि जोइंता विसमचारिनक्खत्ता। अप्पणो हू समो। (प्रव. सा. १-७)। २. तं कडुनो बहुउदवो य तमाहुसंवच्छरं चंदं । (सूर्यप्र. चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं ।। (मोक्षप्रा. ५८, पृ. १७२) यस्मिन् संवत्सरे नक्षत्राणि विष- ३७) । ३. इच्चेसि छण्हं जीवनिकायाणं नेव सर्य मचारीणि, मासविसदशनामानीत्यर्थः, शशिना समकं दंडं समारंभिज्ज़ा, नेवन्नेहिं दंडं समारंभाविज्जा योगमपगतानि तां तां पौर्णमासी युञ्जन्ति- दंडं समारंभंतेऽवि अन्ने न समजाणामि. जावज्जी. परिसमापयन्ति, यश्च कटकः शीतातपरोगादिदोष-वाए तिविहं तिविहेणं मणेण वायाएका बहुलतया परिणामदारुणो बहूदकश्च तमाहुमहर्षयः करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि. संवत्सरं चान्द्रं चन्द्रसम्बन्धिनम् । (सूर्यप्र. मलय. तस्स भते पडिक्कमामि निदामि गरिामि प्रय वृ. ५८, पृ. १७२)।
वोस्सरामि । (दशवै. सू. ४-२, पृ. १४३)। २ पौर्णमासी के १२ परिवर्तनों को चान्द्र संवत्सर ४. जत्थ अहिंसा सच्च अदत्तपरिवज्जणं बम्भं च । कहा जाता है। इसमें तीन सौ चौवन दिन-रात दुविहपरिग्गहविरई तं हवइ सया सचाग्निं ।।
और एक दिन-रात के बासठ भागों में बारह भाग (पउमच. १०२-१८३) । ५. हिसानता होते हैं (३५४६३ दिन-रात)।
मैथुनसेवापरिग्रहाभ्यां च । पापप्रणालिकाभ्यो विरचारक-चारको बन्धन गृहम् । (प्राव. भा. हरि. तिः संज्ञस्य चारित्रम् । (रत्नक. ४६)E.in वृ. ३, पृ. ११४)।
कारणनिवृत्ति प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवत: कर्मादाननिमिबन्धनगह या बन्दीगृह को चारक कहते हैं । यह तक्रियोपरमः सम्यक् चारित्रम् । (स. सि.. भरत चक्रवर्ती की परिभाषणा, मण्डलीबन्ध, चारक वा. १, १, ३)। ७. दर्शनज्ञानपर्यायेषत्तरोत्तरभा. और छविछेद हुन चार दण्डनीतियों में तीसरी है। विषु । स्थिरमालम्बनं यद्वा माध्यस्थ्यं सूखदःखयोः ।। चारण-देखो आकाशचारण । १. चारणाः जल- ज्ञाता दृष्टाऽहमेकोऽहं सुखे दुःखे न चापरः। इती जंघा-तन्तु पूष्प-पत्र-श्रेण्यग्निशिखाद्यालम्बनगमनाः। भावनादाढ चारित्र xxx (त. वा. ३,३६, ३)। २. अतिशयचरणाच्चारणा: १३-१४)। ५. चारित्रं विरतिलक्षणम ।
नायगमनादित्यर्थः । तत्सम्पन्नलब्धिरित्यर्थः। नि. हरि.व. ८२२)। ६. चरन्त्यनिन्दितमनेनेति (योगशा. स्वो. विव. १.६)। ३. तत्र चरणं गमनम, चरित्र क्षयोपशमरूपम्, तस्य भावश्चारित्रम्, अशेषतद्विद्यते येषां ते चारणा:। XXX । तत्र गमन- कर्मक्षयाय चेष्टा इत्यर्थः । (प्रको मन्येषामपि मुनीनां विद्यते । ततो विशेषणान्यथा- १०३)। १०. वृत्तं चारित्रं खल्वसदारम्भविनिवति
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
चारित्र ]
मत् तच्च । सदनुष्ठानं प्रोक्तं कार्ये हेतूपचारेण ॥ ( षोडश. १-७) । ११. चारित्रमोहनीयक्षय क्षयोपशोपशमसमुत्था तु सदसत्क्रियाप्रवृत्ति निवृत्तिलक्षणा विरतिः चारित्रम् । ( त. भा. हरि वृ. १ - १ ) 1 १२. पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रम् । (थव. पु. ६, पृ. ४०); रागाभावो चारितं । ( घव. पु. १३, पृ. ३५८); राग - दोसा बज्झत्थालंबणा, तेसि णिरोहो चारितं । ( धव. पु. १५, पृ. १२) । १३. सदसत्क्रियाप्रवृत्ति निवृत्तिलक्षणं चारित्रम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. २- ३ ) । १४. चारित्रं सकलविरतियोगः । (भ. श्री. विजयो. ६); कर्तव्याकर्तव्यपरिज्ञानं पूर्वम्, तदुत्तरकाले प्रकर्त्तव्यतापरिहरणं यत्तच्चारित्रम् ॥XXX मनसा वाचा कायेन कर्त्तव्यस्य च संवर हेतोरुपादानं गुप्ति समिति धर्मानुपेक्षा परिषहजयानामुपादानं चारित्रम् (भ. प्रा. विजयो ε); दुस्त्यजशरीर ममत्वनिवृत्तिर्ममेदं शरीरं न भवति, नाहमस्येति भावना, सा च परिग्रहपरित्यागोपयोग एवेति चारित्रम् । (भ. प्रा. विजयो. १० ) ; समता चारित्रम् । (भ. श्री. विजयो. १५८ ); कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमो हि चारित्रम् । (भ. प्रा. विजयो. ३०० ) । १५. चारित्रं भवति यतः समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् । सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ॥ ( पु. सि. ३६)। १६. स्वरूपे चरणं चारित्रं स्वसमयप्रवृत्तिः । ( प्रव. सा. अमृत. वृ. १-७) । १७, श्राचारादिसूत्रप्रपञ्चित विचित्रयतिवृत्त समस्तसमुदयरूपे तपसि चेष्टा चर्या । (पंचा. का. अमृत. वृ. १६० ) । १८. अप्प - सरूवं वत्युं चत्तं रायादिएहि दोसेहि । सज्झाम्मि णिलीणं तं जाणसु उत्तमं चरणं ॥ (कार्तिके. ६) । १६. पापारम्भपरित्यागश्चारित्रमिति
कथ्यते । (चन्द्र. च. १८ - १२४) । २०. पापारम्भनिवृत्तिस्तु चारित्रं वर्ण्यते जिनैः । ( धर्मश. २१-१६२) । २१- सर्वासां हि क्रियाणामुपरतिमसमां प्राहुतच्चरित्रम् X XXI ( अध्यात्मत. ३४ ) । २२. कर्मादाननिमित्ताया: क्रियाया परमं शमम् । चारित्रोचितचातुर्याश्चारुचारित्रमूचिरे । ( उपासका. ६); अधर्मकर्मनिर्मुक्तिर्धर्मकर्म विनिर्मितिः । चारित्रं तच्च सागारानगारयतिसंश्रयम् ॥ ( उपासका २६२)। २३. शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चय रत्नत्रयपरि णते स्वशुद्धात्मस्वरूपे चरणमवस्थानं चारित्रम् ।
४३८, जैन- लक्षणावलो
[ चारित्रपण्डित
(बृ. द्रव्यसं. ३५ ) ; प्रशुभान्निवृत्तिः शुभे प्रवृत्तिश्चापि जानीहि चारित्रम् (बृ. द्रव्यसं. ४५) । २४. चारित्रं पापक्रियानिवृत्तिः । (मूला. वृ. ५- २ ) । २५. चरण हिंसादिनिवृत्तिलक्षणं चारित्रम् । (रत्नक. टी. ३- १) । २६. शुद्धचित्स्वरूपे चरणं चारित्रम् । ( प्रव. सा. जय. बू. ८) । २७. सर्वसावद्ययोगानां त्यागश्चारित्रमिष्यते । (त्रि. श. पु. च. १, ३, ६२० ) । २८. सर्वसावद्ययोगानां त्यागचारित्रमिष्यते । कीर्तितं तदहिंसादिव्रतभेदेन पञ्चधा ॥ (योगशा. स्वो १ - १८ ) । २६. चारित्रं सावद्येतरयोगनिवृत्ति प्रवृत्तिलिङ्गमात्मपरिणामरूपम् । (धर्मसं. मलय. बु. ६१२ ) । ३०. चारित्रमाश्रवनिरोधः । ( व्यव. सू. भा. मलय. वृ. १, गा. २२७, पृ. १११) । ३१. चरन्ति गच्छन्त्य निन्दितमनेनेति चरित्रं XX X चरित्रभेव चारित्रम्, X XX अन्यजन्मोपात्ताष्टविधकर्मसंचयापचयाय चरणं सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिरूपं चारित्रम् । (श्राव. नि. मलय. वृ. ११०, पृ. ११७) । ३२. कर्मादाननिदानानां भावानां च निरोधतः । चारित्रं X x X ॥ ( जम्बू. च. ३- १८ ) । ३३. कर्मादानक्रियारोधः स्वरूपाचरणं च यत् । धर्मः शुद्धोपयोगः स्यात् सेष चारित्रसंज्ञकः ।। (पञ्चाध्या. २ - ७६३) । १ चारित्र नाम समतारूप धर्म का है । २ पुण्य और पाप इन दोनों के परित्याग को चारित्र कहा जाता है । ३ छह जीवनिकाय-पांच प्रकार के स्थावर और त्रस जीवों के दण्ड (पीड़न) में मैं न तो स्वयं प्रवृत्त होऊंगा, न दूसरों को प्रवृत्त कराऊंगा, और न प्रवृत्त होते हुए अन्य किन्हीं की अनुमोदना भी करूंगा । जीवन पर्यन्त मैं उपर्युक्त प्राणिपीडन को तीन प्रकार से मन, वचन व काय से-न करूंगा, न कराऊंगा और न करते हुए अन्य का अनुमोदन करूंगा, इस प्रकार से अन्य श्रसत्य श्रादि का भी त्याग करना चारित्र है । २३ शुभ कर्म में प्रवृत्ति मौर प्रशुभकर्म से निवृत्ति इसका नाम चारित्र है । चारित्रधर्म - चारित्रधर्मः प्राणातिपातादिनिवृत्तिरूप: । ( दशवं. नि. हरि. वृ. २१६ ) । हिंसा आदि की निवृत्ति का नाम चारित्रधर्म है । चारित्रपण्डित - १. सामायिक - छेदोपस्थापना-परिहारविशुद्धि-सूक्ष्म साम्पराय यथाख्यात चारित्रेषु कस्मिश्चित्प्रवृत्तश्चारित्रपण्डितः । ( भ. प्रा. विजयो.
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
चारित्रबाल] ४३६, जैन-लक्षणावली
[चारित्रविनय २५) । २. पञ्चविधचारित्रान्यतमचारित्रपरिणतः य गुत्तीहिं । एस उ चरित्तविणो अट्ठविहो होइ श्चारित्रपण्डितः। (भावप्रा. टी. ३२)।
नायब्वो। (व्यव. भा. १-६५)। ४. इदाणि १ सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशद्धि, सूक्ष्म- चरितविणग्रो कहिज्जइ सो पचविधो भवइ । तं जहा साम्पराय और यथाख्यात; इनमें से जो किसी एक -सामाइयचरित्तविणो, छेदोवढावणियचरित्तविचारित्र में प्रवृत्त है वह चारित्रपण्डित कहलाता है। विणो, परिहारविसुद्धियचरित्तविणो, सुहुमसंपचारित्रबाल-१. प्रचारित्राः प्राणभृतश्चारित्र- रागचरित्तविणो, अहक्खायचरित्तविणो त्ति । बालाः । (भ. प्रा. विजयो. २५)। २. प्रचारित्रा- एतेसि पंचण्ह चरित्ताणं को विणो ? भण्णतिश्चारित्रबालाः। (भावप्रा. टी. ३२)।
पंचविहस्स जा सद्दहणा वा सद्दहियस्त जा काएण १ चारित्र से रहित प्राणियों को चारित्रबाल कहा पासणया भव्वाणं च पुरो परूवणया चरित्तविणजाता है।
प्रो वण्णिनो । (दशवै. चू. १, पृ. २७)। ५. सामाचारित्रमोहनीय-१. चारित्रं मोहयति मोहनं वा इयाइचरणस्स सद्दहाणं तहेव काएणं । संफासणं परचारित्रमोहः । (त. वा. ६, १४,३)। २. चारित्रं वणमह पुरुषो भव्वसत्ताणं ।। मण-वइ-काइयविणो विरतिरूपम्, तन्मोहयतीति चारित्रमोहनीयम । प्रायरियाईण सव्वकालंपि । अकुसलमणोनि रोहो (श्रा. प्र. टी. १५)। ३. पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रम्, कुसलाण उदीरणं तह य ॥ (दशवं. नि. हरि. वृ. घादिकम्माणि पावं, तेसि किरिया मिच्छत्तासंजम. ४८, पृ. ३१ उद.)। ६. चरित्तविणो णाम कसाया, तेसिमभावो चारित्तं, तं मोहेइ अावारेदि सीलवदेसु णिरदिचारदा आवासएसु अपरिहीणदा त्ति चारित्तमोहणीयं । (धव. पु. ६, पृ. ४०); जहाथामे तहा तवो च । (धव. पु. ८, पृ. ८१)। रागाभावो चारित्तं, तस्स मोहयं तप्पडिवक्खभाव- ७. चरणविनयः समिति-गुप्तिप्रधानः। (त. भा. प्पाययं चारित्तमोहणीयं । (धव. पु. १३, पृ. सिद्ध. कु. ६-२३); सामायिकादिस्वरूपश्रद्धानपूर्वक ३५८) । ४. प्राणातिपातादिविरतिश्चारित्रम्, चानुष्ठानविधिना च प्ररूपणमित्येष चारित्रविनयः । तन्मोहनाच्चारित्रमोहनीयम् । (त. भा. सिद्ध. व. (त. भा. सिद्ध. व. ९-२३)। ८. नवकोटिपरि८-१०)। ५. तथा चारित्रं सावद्ययोगविरतिलक्षणो शुद्धा भिक्षा क्व लप्स्यते खलेषु कृतज्ञता वेति मनसो जीवपरिणामः, तन्मोहयतीति चारित्रमोहनीयम् । ऽप्यप्रणिधानं चारित्रविन यः । (भ. प्रा. विजयो. (कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. १५)। ६. चारित्रं ११६); कर्मपरिग्रहनिमित्तानां क्रियाणां परिवर्जन सावद्येतरयोगनिवृत्ति - प्रवृत्ति लिङ्गमात्मपरिणामरू- चारित्रविनयः । (भ. प्रा. विजयो. ३००)। ६. पम्, तन्मोहयतीति चारित्रमोहनीयम् । (प्रव. सारो. दर्शन-ज्ञानयुक्तस्य या समाहितचित्तता । चारित्रं वृ. १२५६-५७, पृ. ३५८)। ७. चारित्रमोहनीयं प्रति जायेत चारित्रविनयो हि सः॥ (त. सा. ७, तु विरतिप्रतिषेधकम् । (त्रि.श. पु. च. २,३, ३३) । १०. ज्ञान दर्शन-चारित्र-तपोवीर्यवतो दुश्च४७१) । ८. एवं जीवस्य चारित्रं गुणोऽस्त्येकः प्रमा- रचरणश्रमणानन्तरमुभिन्नरोमांचाभिव्यज्यमानान्तणसात् । तन्मोहयति यत्कर्म तत्स्याच्चारित्रमोहनम ॥ भक्तेः परं प्रसादमस्तकाञ्जलिक रणादिभिर्भावयत(पंचाध्या. २-१००६)।
श्चानुष्ठातृत्वं, चारित्रविनयः । (चा. सा. पृ. ६५)। १ जो बाह्य और अभ्यन्तर क्रियानों को निवत्तिरूप ११. सयमे संयमाघारे संयमप्रतिपादिनि । आदरं चारित्र को मोहित करता है-उसे विकृत करता है कुर्वतो ज्ञेयश्चारित्रविनयः परः॥ (अमित. श्रा. -उसे चारित्रमोहनीय कहते हैं।
१३-१२)। १२. पंचविहं चारित्तं अहियारा जे य चारित्रविनय-१. इंदिय-कसायपणिहाणं पिय वणिया तस्स । जं तेसि बहमाणं वियाण चरित्तगुत्तीग्रो चेव समिदीयो। एसो चरित्तविणो समा- विणो सो ॥ (वसु. श्रा. ३२३)। १३. भक्तिसदो होइ णायन्वो ॥ (मूला. ५-१७२) । २. तन- श्चारित्रवस्त्व [वत्स्व] न्यवृत्ताऽनिन्दनमुद्यमः । परीतश्चारित्रे समाहितचित्तता चारित्रविनयः। (स. षहजयादी च चारित्रविनयो मनेः ॥ (प्राचा. सा. सि. ९-२३; त. वा. ६, २३, ४; त. श्लो. ६, ६-७६) । १४. चारित्रवतश्चारित्रे समाहितचित्त२३) । ३. पणिहाणजोगजुत्तो पंचहि समिईहिं तिहिं ता चारित्रविनयः । (योगशा. स्वो. विव. ४-६०)।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
चारित्रसंवर]
४४०, जैन-लक्षणावली [चालनीसमान शिष्य १५. पञ्चभिः समितिभिस्तिसृभिश्च गुप्तिभिर्यः प्र. होइ नायव्वो ॥ (दशवै. नि. १८५) । २. प्रणिधानं धानयोगयुक्त एष चारित्रविनयः। (व्यव. भा. -चेतःस्वास्थ्यम्, तत्प्रधाना योगा व्यापारास्तैर्युक्तः मलय, वृ१-६५)। १६. रुच्यारुच्य हृषीकगोचर- समन्वितः प्रणिधानयोगयुक्तः, अयं चौधतोऽविरतरति-द्वेषोज्झनेनोच्छलत-क्रोधादिच्छिदयाऽसकृतसमि- सम्यग्दृष्टिरपि भवत्यत प्राह - पञ्चभिः समितितिषूद्योगेन गुप्त्यास्थया । सामान्येतरभावनापरिच- भिस्तिसृभिश्च गुप्तिभिर्यः प्रणिधान योगयुक्तः, एतयेनापि व्रतान्युद्ध रन्, धन्यः साधयते चरित्रविनयं द्योगयुक्त एतद्योगवानेव, अथवा पञ्चसु समितिसु श्रेयःश्रियः पारयम् ॥ (अन. ध. ७-६९)। १७. तिसृष गुप्तिष्वस्मिन् विषथे एता प्राश्रित्य प्रणिज्ञान-दर्शनवतः पुरुषस्य दुश्च रचरित्रे विदिते सति धानयोगयुक्तो य एष चारित्राचारः। (दशव. नि. तस्मिन् पुरुषे भावतोऽतीव भक्तिविधानं भवति, हरि. ७.३ १८७, पृ. १०६) । ३. पापक्रियानिवृत्तिस्वयं चारित्रानुष्ठानं च चारित्रविनयः भवति । परिणतिश्चारित्राचारः। (भ. प्रा. विजयो. टी. (त. वृत्ति श्रुत. ९-२३) । १८. ज्ञान-दर्शनवतो ४६); हिंसादिनिवृत्तिपरिणतिश्चारित्राचारः । दुश्चरचरणे तद्वति च ज्ञातेऽतिभक्तिर्भावतश्चरणानु- (भ. प्रा. विजयो. टी. ४१९)। ४. तत्रैव शुभाशुभष्ठानं चरणविन य: । (भावप्रा. ७८, पृ. २२४)। संकल्पविकल्परहितत्वेन नित्यानन्दमयसुखरसास्वाद१६. चारित्र व्रत-समिति-गुप्तिलक्षणे त्रयोदशप्रकारे स्थिरानुभवनं च सम्यकचारित्रम्, तत्राचरणं परिसामायिकादिपंचप्रकारे वा तदाचरणं तल्लक्षणो- णमनं चारित्राचारः । (परमा. टी. १-७) । पायेन यत्नः चारित्रे विनयः । तथा इन्द्रिय-कषाया- ५. प्राणिवधपरिहारेन्द्रियसं यमन प्रवृत्तिश्चारित्राचाणां प्रसरनिवारणं इन्द्रियकषायव्यापारनिरोधनम् रः। (मूला. वृ. ५-२) । ६. चारित्राचारः चारिइति चारित्रविनयः । (कार्तिके. टी. ४५६); त्रिणा समित्यादिपालनात्मको व्यवहारः। (समवा. चारित्रे त्रयोदशप्रकारे सर्वातिचारराहित्येन पंच- अभय. व. सू. १३६, पृ. १०८)। ७. हिंसादिनिपंचभावनायुक्तत्वेन वा प्रवृत्तिः स्व-स्वरूपानुभवनं वा चारित्रविनयः। (कार्तिके. टी. ४५७)। . . ४१६)। १ इन्द्रियों और कषायों के प्रसार को रोकना तथा १पांच समितियों और तीन गप्तियों के साथ मन गप्तियों व समितियों के परिपालन में प्रबत्नशील के स्वास्थ्य के अनुरूप प्रवृत्ति करना, इसका नाम रहना, यह चारित्रविनय कहलाता है। ४ सामायिक चारित्राचार है। ३ पापक्रिया की निवत्ति रूप प्रादि पांच प्रकार के चारित्र का श्रद्धान करना, श्रद्धा परिणति को चारित्राचार कहा जाता है। का विषय बन जाने पर फिर काय से स्पर्श करना
चारित्राराधना--१.तेरहविहस्स चरणं चारित्त-उसका परिपालन करना-और तत्पश्चात् भव्य
स्सेह भावसुद्धीए । दुविसंजमचानो चारित्ताराजीवों के प्रागे उसका प्ररूपण करना; इसे
हणा एसा ॥ (प्रा. सा. ६)। २. त्रयोदशविधस्य चारित्रविनय कहा जाता है।
चारित्रस्य इह भावशुद्धया चरणं द्विविधासंयमत्याग रित्रसंवर-मणवयणकायगुत्तिदियस्स समिदीस्
एषा चारित्राराधना भवति । (प्रा. सा. टी. ६)। अप्पमत्तस्स । पासवदारणिरोहे णवकम्मरयासवो
पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्तिरूप ण हवे ॥ (मूला. ८-५१) ।
तेरह प्रकार के चारित्र का भावश द्धिपूर्वक प्राचरण मन, वचन और काय के द्वारा इन्द्रियों का संरक्षण
करने तथा इन्द्रियासंयम और प्राणि-असंयम के करने वाले-तीन गप्तियों के परिपालक-और समितियों में अप्रमत्त-सदा सावधान रहने वाले
परित्याग को चारित्रराधना कहते हैं । -चारित्रवान् साधु के प्रास्त्रवों का निरोध हो . चालनीसमान शिष्य-चालनी लोकप्रसिद्धा यया जाने पर जो नवीन कर्मों का प्रास्रव रुकता है, कणिक्कादि चाल्यते तत्र यथा चालन्यामुदक' प्रक्षिइसका नाम चारित्रसंवर है।
प्यमाणं तत्क्षणादेव गच्छति, न पुन: कियन्तमपि चारित्राचार-१. पणिहाणजोगजुत्तो पंचहिं समि- कालमवतिष्ठते, तथा यस्य सूत्रार्थः प्रदीयमानो ईहिं तिहिं य गुत्तीहिं । एस चरित्तायारो अट्टविहो यदैव कर्णे प्रविशति तदैव विस्मृतिपथमुपैति स
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
चिकित्सादोष] ४४१, जैन-लक्षणावली
[चित्रकर्म चालणीसमानः । (प्राव. मलय. वृ. १३६, पृ. तानागतवर्तमानग्राहि ।(दशवं. भा. हरि. व. ४.१६, १४३)।
पृ. १२५) । ३. प्रात्मनः परिणामविशेषश्चित्तम् । जिस प्रकार चलनी (पाटा छानने का उपकरण) में प्रात्मनश्चैतन्यपरिणामविशेषश्चित्तम् । (त. वा. २, जल के डालने पर वह उसी क्षण निकल जाता है, ३२, १)। ४. यत्पुन रनवस्थितं तच्चित्तम् । (ध्यानथोड़े समय भी उसमें स्थित नहीं रहता, इसी श.-प्राव. हरि. व. अ. ४, पृ. ५८३)। प्रकार जिस शिष्य के लिए दिया गया सूत्रार्थ कानों १ जो भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालों में प्रविष्ट होने के साथ ही विस्मृत हो जाता है वह को सामान्य से विषय करता है वह चित्त कहलाता शिष्य चलनी के समान माना गया है।
है। ३ प्रात्मा के चैतन्य परिणामविशेष को चित्त चिकित्सादोष-१. कोमार-तणुति गिछा- रसायण- कहते हैं। विस-भूद-खारतंतं च । सालंकियं च सल्लं तिगि
चित्तप्रसाद परिणाम-१. तस्यैव (मोहस्यैव) छदोसो दु अट्टविहो । (मूला. ६-३३) । २. अष्ट.
मन्दोदये विशुद्धपरिणामता चित्तप्रसादपरिणामः । विधया चिकित्सया लब्धा [वसति:] चिकित्सो.
(पंचा. का. अमत. व. १३१) । २. तस्यैव मोहस्य त्पादिता। (भ. प्रा. विजयो. २३०)। ३. वैद्य
मन्दोदये सति चित्तस्य विशुद्धिश्चित्तप्रसादो भण्यते । कर्मणा दुष्टा चिकित्सादृष्टा । (भ. प्रा. मूला.
(पंचा. जय. वृ. १३१)। २३०)। ४. चिकित्सा रुक्प्रतीकारात् Xxx।
१ मोहकर्म का मन्द उदय होने पर जो परिणामों Xxx अश्नतः ॥ (अन.ध. ५-२५)।
की विशद्धि होती है उसे चित्तप्रसाद परिणाम १ कौमारचिकित्सा, तनुचिकित्सा, रसायन, विष, ।
कहते हैं। भूत, क्षारतंत्र, शालाकिक या शालाक्य और शल्य
चित्तविप्लव-चित्तविप्लवः प्रशमसौख्यविपर्यासः । इस पाठ प्रकार की चिकित्सा के द्वारा आहार के प्राप्त करने पर चिकित्सा नाम का उत्पादन दोष
(योगशा. स्वो. विव. १२४)। होता है। २ पाठ प्रकार की चिकित्सा द्वारा वस
धनादि के न होने पर भी मर्जी के कारण जो तिका के प्राप्त करने पर वसतिका सम्बन्धी चिकि- प्रशमसुख का अभाव-मानसिक क्लेश-होता है त्सा नाम का उत्पादन दोष होता है।
उसका नाम चित्तविप्लब है। चिकित्सापिण्ड- १. सूक्ष्मेतरचिकित्सयाऽवाप्त- चित्रकर्म-पड-कुड्ड-फलहियादीसु णच्चणादिकिरिश्चिकित्सापिण्डः । (प्राचारा. शी. व. २, १, २७३, यावावददेव-णे रइय-तिरिक्ख-मणुस्साणं पडिमाओ पृ. ३२०)। २. वमन-विरेचन-वस्तिकर्मादि कारयतो चित्तकम्म, चित्रेण क्रियन्त इति व्युत्पत्तेः। (धव. वैद्यभैषज्यादि सूचयतो वा पिण्डाथं चिकित्सापिण्डः। पु. ६, पृ. २४९); एदामो चेब चउविहायो (योगशा. स्वो. विव. १-३८, पृ. १३५)। (दुवय-चउप्पय-अपाद-पादसंकुलाओ) पडिमानो १ सूक्ष्म अथवा स्थूल चिकित्सा-रोग के उपचार कुड्डु-पड-त्थंभादिसु रायवट्टादिवण्णविसे सेहिं चित्ति. -द्वारा प्राप्त किया गया प्राहार चिकित्सापिण्ड यायो चित्तकम्माणि णाम । (धव. पु. १३, पृ. नामक दोष से दूषित होता है।
६); कुडु-कट सिला-थंभादिसू विविहवण्णविसेसेहि चिकूराग्र—देखो बालाग्र । अष्टभिः रथ रेणुभिः लिहिदपडिमाग्रो चित्तकम्माणि णाम । (धव. पु. पिण्डिताभिरेकं चिकुराग्रमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १३, पृ. २०२); चित्तारेहितो वण्णविसे सेहि णिप्फ
ण्णाणि चित्तकम्माणि णाम । (धव. पु. १४, पृ. पाठ रथरेणगों के समुदाय को एक चिकुरान ५)। (बालाग्र) कहते हैं।
नर्तन प्रादि क्रिया में प्रवृत्त हुए देव, नारकी, चित्-देखो चेतना।
तिर्यञ्च और मनुष्यों की प्रतिमानों को जो वस्त्र चित्त-१. चित्तं तिकालविसयं । (दशवं. भा. १६, भित्ति और पटिया आदि के ऊपर अङ्कित किया पृ. १२५) । २. चित्तं त्रिकालविषयम् -प्रोघतोऽती- जाता है, यह चित्रकर्म कहलाता है।
ल. ५६
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
चित्रान्तरगण्डिका]
४४२, जैन-लक्षणावलो
[चुडली
चित्रान्तरंगण्डिका-चित्राः अनेकार्था अन्तरे- ३ विशिष्ट क्षयोपशम के वश अपने धर्म से अन्वित ऋषभाजित तीर्थकरान्तरे-गण्डिका एकवक्तव्यताधि- सद्भत अर्थविशेष का जो बार बार चिन्तन होता है, कारानुगताः । एतदुक्तं भवति-ऋषभाजिततीर्थक- उसफा नाम चिन्ता है। ४ वर्तमान अर्थ को विषय रान्तरे तद्वंशजभूपतीनां शेषगतिगमनव्युदासेन शिव- करने वाले मतिज्ञान से विशषित जीव को चिन्ता गतिगमनानुत्तरोपपातप्राप्तिप्रतिपादिकाश्चित्रान्तरग- कहा जाता है, जो मनःपर्ययज्ञान का विषय है। ण्डिका इति । (नन्दी. हरि. व. पृ. १०६) ।
५ अग्नि के बिना कहीं व कभी भी धम नहीं होता ऋषभ और अजित तीर्थंकरों के अन्तराल में उनके तथा प्रात्मा के बिना शरीर में व्यापार व वचन वंश में उत्पन्न हुए राजाओं की शेष गतियों सम्बन्धी आदि नहीं होते, इत्यादि विचार का नाम चिन्ता गमन को छोड़कर मोक्षगति एवं अनुत्तर विमानों है । इसे ऊहा भी कहा जाता है। में उपपात (जन्म) की प्राप्ति का जहां प्रतिपादन चिन्ताज्ञान-चिन्ताज्ञानमागामिनो वस्तुन एवं किया जाता है वे चित्रान्तरगण्डिका कहलाती हैं। निष्पत्तिर्भवति अन्यथा नेति, यथैवं ज्ञानादित्रय. चिदात्मा-प्रस्ति पुरुष श्चिदात्मा विवजितः स्पर्श- समन्विते तत्रैव परमसुग्वावाप्तिरन्यथा नेत्येतच्चिगन्ध-रस-वणः । गण-पर्ययसमवेतः समाहितः समदय- ताजानं मनोज्ञानमेव । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-१३)। पय-ध्रौव्यैः ॥ (पु सि. ६)।
प्रागामी वस्तु की निष्पत्ति (सिद्धि) इस प्रकार से रूप, रस, गन्ध व स्पर्श से रहित; गण-पर्यायों से होती है. अन्य प्रकार से नहीं; इस प्रकार के ज्ञान समवेत-उनसे तादात्म्य रखने वाला-तथा उत्पाद,
को चिन्ताज्ञान कहा जाता है। जैसे-ज्ञानादि व्यय एवं ध्रौव्य से सहित प्रात्मा को चिदात्मा तीन (रत्नत्रय) से युक्त होने पर ही परम (पुरुष) कहते हैं।
सुख की प्राप्ति होती है, अन्य प्रकार से नहीं होती। चिन्ता-१. चिन्तनं चिन्ता ।(स. सि. १-१३: त. चिह्नलोक-जं दिळं संठाणं दवाण गुणाण वा. १, १३, ५)। २. चिन्ता अन्तःकरणवत्तिः। पज्जयाणं च । चिणलोगं वियाणाहि अणंतजिणअन्तःकरणस्य वृत्तिरर्थेषु चिन्तेत्युच्यते । (त. वा. देसिदं । (मूला. ७-५०)। ६, २७, ४) । ३. ततो मुहर्महः क्षयोपशमविशेषतः द्रव्य, गुण और पर्यायों के संस्थान या प्रकार को स्वधर्मानुगतसद्भूतार्थविशेषचिन्तनं चिन्ता। (नन्दी. चिह्नलोक कहते हैं । यह नाम-स्थापनादि नौ लोकहरि. व. पृ. ६५); तथा चिन्ता अन्वयधर्मपरिज्ञा
1. वासना भेदों में से एक है। नाभिमुखा चेष्टा । यथा मधुरत्वादयस्त्वेवभूता चीनांशुकपट्ट-चीणविसयुप्पण्णो चीणांशुयपट्टो। इति । (नन्दी. हरि. व. पृ. ७८) । ४. वट्टमाण- (अनुयो. चू. पृ. १५) । स्थविसयमदिणाणेण विसेसिदजीवो चिता णाम। चीन देश में उत्पन्न वस्त्र को चीनांशुकपट कहा (धव. पु. १३, पृ. ३३३)। ५. अग्निना विना
जाता है। क्वचित् कदाचिद घमो न भवत्यात्मना विना शरीरे चूडली-देखो चुरुलित दोष । चुडली उल्मूकम्, व्यापार-वचनादिकं न भवतीत्यादितर्कणमहश्चिन्ता। यथोल्मुकं गृह्यते तथा रजोहरणं गृहीत्वा वन्दनम, (अन. ध. स्वो. टी. ३.४), ६. चिन्तनं चिन्ता-देशा- यद्वा यत्र दीर्घहस्तं प्रसार्य वन्दे इति भणतो वन्दनम्, न्तरे कालान्तरे च यावान् कश्चिद्धमः स सर्वोऽप्यग्नि- अथवा हस्तं भ्रामयित्वा सर्वान वन्दे इति वदतो जन्मा, अनग्निजन्मा वा न भवतीति व्याप्ति ग्रहण- वन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। मूहाख्यं सम्यग्ज्ञानं कथ्यते । (त. सुखबो. १-१३)। चुडली का अर्थ उल्मुक या अलात होता है। जिस ७. यथा अग्नि विना घमो न स्यात्, तथा प्रात्मानं प्रकार उल्मक को ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार विना शरीरव्यापार-वचनादिकं न स्यादिति वित- रजोहरण को ग्रहण कर वन्दना करना, यह चुडली र्कणमूहनं चिन्ता अभिधीयते । (त. वृत्ति श्रुत. दोष होता है । अथवा लम्बा हाथ फैलाकर 'वग्दे'
कहते हुए वन्दना करना या हाथ को घुमाकर २ पदार्थों के विषय में जो अन्तःकरण की प्रवत्ति 'सर्वान वन्दे' ऐसा कहते हुए वन्दना करना, इसे -मन से चिन्तन-होता है उसे चिन्ता कहते हैं। वन्दना का चुडली दोष समझना चाहिये।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
चुरुलितदोष ४४३, जैन-लक्षणावलो
[चेतनत्व चुरुलित दोष-एकस्मिन् प्रदेशे स्थित्वा कर मुकुलं दिफलानि (भिक्षार्थं चूर्ण प्रयुजानस्य चूर्णपिण्ड:)। संभ्राम्य सर्वेषां यो वन्दना करोत्यथवा पंचमादि- (योगशा. स्वो. विव. १-३८) । स्वरेण यो वन्दनां करोति, तस्य चुरुलितदोषो १ वशीकरण आदि के लिए द्रव्यचूर्ण के प्राश्रय से भवति । (मला. व. ७-१०)।
भोज्य वस्तु को प्राप्त करना, यह चूर्णपिण्ड नाम एक स्थान में खड़े होकर और जुड़े हुए हाथों को का उत्पादन दोष है। घुमाकर सब साधुनों को एक साथ वन्दना करना चूरिणका-१. चूणिका मास-मुद्गादीनाम् : (स. अथवा पंचमादि स्वर के साथ वन्दना करना, यह सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, १४; कातिके. टी. कृतिकर्म का चुरुलित नाम का ३२वां दोष है। २०६) । २. अतिसूक्ष्माऽतिस्थूलवजितं मुद्ग भाषचूडा-देखो चूलिका । घुडा इव चूडा, इह दृष्टि
राजमाष-हरिमंथकादीनां दलनं चूणिका । (त. वा. वादपरिकर्म-सूत्र-पूर्वगतानुयोगोक्तानुक्तार्थसंग्रहपरा टी. ५-२४)। ग्रन्थपद्धतयश्चूडा। (समवा. अभय. वृ. १४७, पृ. २ उड़द और मूंग प्रादि के दलने से जो अतिशय १२२)।
सूक्ष्मता और अतिशय स्थलतासे रहित कण उत्पन्न दृष्टिवाद के परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत और अनुयोग में होते हैं उन्हें चूर्णिका कहा जाता है। उनसे सम्बद्ध जिन विषयों का निरूपण नहीं किया चूलिका-देखो चूडा। १. xxx एक्केण गया है उनका संग्रह करके निरूपण करने वाली दोहि सव्वे हि वा अणियोगद्दारेहि सूइदत्थाणं विसेसग्रन्थपद्धति को चूडा, चूला या चूलिका कहते हैं। परूवणा चूलिया णाम । (धव. पु. ७, पृ. ५७५); चूरग-१. चूर्णो यव-गोधमादीनां सक्तकणिकादिः । सुत्तसुइदत्थपयासणं चूलिया णाम । (धव. प्र.
१०, पृ. ३९५); जाए प्रत्थपरूवणाए कदाए (स. सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, १४, कातिके. टी. २०६) । २. पिटू-पिट्रियाकाणिकादि
पुवपरूविदत्थभ्मि सिस्साणं णिच्छयो उप
ज्जदि सा चूलिया त्ति भणिदं होदि। (धव. पृ. दव्वं चुण्णणकिरियाणिप्फण्णं चुण्णं णाम । (धव.
११, पृ. १४०)। २. चतुरशीतिश्चूलिकाङ्गशतपु. ६, पृ. २७३)। ३. यव-गोधूम-चणकादीनां सक्तु
सहस्राणि एका चूलिका । (जीवाजी. मलय. व. ३. कणिकादिकरणं चूर्णम् । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२४) ।
२, १७८, पृ. ३४५)। १ गेहूं और जो आदि के सक्तु (सतुआ) रूप कणों
१ पूर्वनिरूपित अनयोगद्वारों में एक, दो अथा प्रादि को चूर्ण कहते हैं।
सभी अनुयोगद्वारों से सूचित अर्थों की विशेष प्ररू. चूर्णदोष -१. णेत्तस्संजणचुण्णं भूमणचुण्णं च पणा जिस सन्दर्भ के द्वारा की जाती है उसका नाम गतसोभयरं । चुण्णं तेणुप्पादो चुण्णयदोसो हवदि चूलिका है। २ चौरासी लाख चूलि कांगों की एक एसो। (मूला. ६-४१)। २. पाठसिद्धादिमंत्राणा- चूलिका (गणनाभेद) होती है। मङ्गशृङ्गारकारिणः । चूर्णादेर्देशने स्यातां मंत्रचूर्णो
चूलिकाङ्ग - चतुरशीतिर्नयुतशतसहस्राणि एक पजोवने । (प्राचा. सा. ८-४४)। ३. दोषो भोजन
चूलिकाङ्गम् । (जीवाजी. मलय. व. ३, २, १७८, जननं भूषाजन चूर्ण योजनाच्चूर्णः। (अन. घ. ५, पृ. ३४५।। २७)। ४. चूर्णा देरुपदेशनं चूर्णोपजीवनम् । (भाव. चौरासी लाख नयुतों का एक चूलिकाङ्ग (गणनाप्रा. टी. ६९)।
भेद) होता है। १नेत्रों के अंजन चूर्ण (कज्जल), प्राभूषणा के चेटिका-देव-शास्त्र-गुरून नत्वा बन्धुवत्मिसाक्षिचूर्ण (क्षारादि द्रव्य) और शरीर के चूर्ण (पाउडर कम् । पत्नी पाणिगृहीता स्यात्तदन्या चेटिका मता ॥ पादि) के आश्रय से पाहार के उत्पादन करने को चर्णदोष कहते हैं।
विवाहित पत्नी के अतिरिक्त रखी हुई अन्य स्त्री चूर्णपिण्ड-१. वशीकरणाद्यर्थं द्रव्यचूर्णादवाप्तश्चू- चेटिका कहलाती है। पिण्डः । (प्राचारा. शी. वृ. २, १, ३७३, पृ. चेतनत्व-चेतनत्वं चैतन्यवत्त्वम् । (ललितवि. ३२०) । २. चूर्णानि नयनाञ्जनादीनि अन्तर्धाना- म. पं.पू. २५) ।
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
चेतना]
४४४, जैन-लक्षणावली
[चैत्यावर्णवाद
चैतन्य से युक्त होने का नाम चेतनत्व है।
सकलाभिमतपुरुषार्थसिद्धिहेतूतया उपासनीयानीति चेतना- १. xxx चेयण पच्चक्ख सन्नमणु- चैत्यमहत्ताप्रकाशनं चैत्यवर्णजननमिति । (भ. प्रा. सरणं । (दशवै. भा. १९)। २. चेतनं चेतना, सा विजयो. ४७) । २. अर्हदादीनां शान्तरूपत्व-वीतराप्रत्यक्षवर्तमानार्थग्राहिणी । (दशव. हरि. व. ४-१६, गत्वादिगुणानुस्मरणात पूर्वपापनिरोधोऽभिनवपुण्यात्रप. १२५) । ३. अन्वितमहमहमिकया प्रतिनियता- वणं पूण्योदयस्फारीभावः पापोदयापकर्षश्च xx विभासिबोधेषु । प्रतिमासमानमखिलैर्य द्रूपं वेद्यते । (भ. प्रा. मूला. ४७) । सदा सा चित् ।। (अन. ध. २-३४) ।
१ वर्ण शब्द का अर्थ यहां प्रशंसा अभीष्ट है। तद१ प्रत्यक्षरूप से वर्तमान पदार्थ के ग्रहण का नाम नुसार जिस प्रकार साक्षात् परहन्त प्रादि भव्य चेतना है। ३ प्रतिनियत पदार्थों को प्रतिभासित जीवों के लिए शभोपयोग के कारणभूत हैं उसी करने वाले ज्ञानों में 'अहम् अहम्' रूप से-जिस प्रकार उनके प्रतिबिम्ब भी शभोपयोग के कारणमैंने पूर्व में घट को देखा था वही मैं अब पट को भूत हैं, क्योंकि बाह्य द्रव्य के प्राश्रय से जीवों के देख रहा हूं, इत्यादि स्वरूप से-जो प्राकार प्रति- शुभ व अशुभ परिणाम हुआ करते हैं। प्रकृत में भासित होता है उसे चित् या चेतना कहा जाता प्रतिबिम्ब अरहन्त आदि के गुणों के स्मरण का
कारण है। इस गणानस्मरण से नवीन पाप प्रकृचैतन्य-देसो चेतना । त्रिकालगोचरानन्तपर्याया- तियों के प्रास्रव के निरोधरूप संवर और पुण्य त्मकस्य जीवस्वरूपस्य स्वक्षयोपशमवशेन संवेदनं प्रकृतियों का आगमन होता है। साथ ही पूर्वबद्ध चैतन्यम् । (धव. पु. १, पृ. १४५)।
शुभ प्रकृतियों के अनुभाग में वृद्धि और अशुभ तीनों कालों को विषय करने वाली अनन्त पर्याय प्रकृतियों के अनुभाग में हानि भी हुमा करती है । स्वरूप जीव के स्वरूप का जो अपने क्षयोपशम के इससे जिनप्रतिबिम्बों की उपासना करना योग्य अनसार संवेदन होता है उसका नाम चैतन्य है। है। इस प्रकार जिनप्रतिबिम्बों के महत्त्व को प्रगट
चैत्य-चिते: लेप्यादिचयनस्य भावः कर्म वा चैत्यम्, करना, यह चैत्यवर्णजनन कहलाता है। तच्च संज्ञाशब्दत्वाद देवताप्रतिविम्बे प्रसिद्धम्, तत- चैत्यवक्ष (चइतरुक्ख)-१. तेषां (चत्य वृक्षपीस्तदाश्रयभूतं यदेवताया गृहं तदप्युपचाराच्चत्य- ठानां) मध्ये सिद्धार्थनामकाः चैत्यवृक्षाः सिद्धार्थमुच्यते । (जम्बूद्वी. शा. १, पृ. १४; सूर्यप्र. मलय. तीर्थकरप्रतिकृतिपवित्रीकृता: षोडशयोजनोच्छाय-चवृ. पृ. २)।
तुर्योजनोत्सेघ-योजनविष्कम्भस्कन्धा: द्वादशयोजनोभित्ति आदि के चिनने रूप क्रिया से जो निर्मित च्छाय-तावबाहल्यविटपा: । (त. वा. ३, १०, होता है उसे चैत्य कहा जाता है, यह मुख्य रूप से १३, पृ. १७८)। २. चउपासट्टियजिणिद-यंददेवता के प्रतिबिम्बरूप अर्थ में प्रसिद्ध है, पर उप- पडिबिम्बसंबंधेण पत्तच्चणचइत्त रुक्खएहि xx चार से उस चैत्य के प्राश्रयभूत देवालय को भी x। (धव. पु. ६, पृ. ११०)। चैत्य कहा जाता है।
१ सिद्धार्थ (कृतकृत्य) तीर्थंकर की प्रतिमाओं से चैत्यवर्णजनन-१. यथा वीतराग-द्वेषास्त्रिलोक- पवित्र किये गये- उनसे अधिष्ठित-व नियमित चलामणयोऽहंदादयो भव्यानां शुभोपयोगकारणता- ऊंचाई आदि से सहित जो सिद्धार्थ नामक वृक्ष मूपयन्ति तद्व देतान्यपि तदीयानि प्रतिबिम्बानि । होते हैं वे चैत्यवृक्ष कहलाते हैं। बाह्यद्रव्यावलम्बनो हि शंभोऽशुभो वा परिणामो चैत्यावर्णवाद-१. स्वकल्पनाभिरयमहन्नेष सिद्धः जायते । यथा-यात्मनि मनोज्ञामनोज्ञविषयसान्नि- इत्यचेतनस्य व्यवस्थापनायामपि दारिकाणां कृत्रिमध्याद राग-द्वेषौ, स्वपुत्रसदृशदर्शनं पुत्रस्मृतेरालम्ब- पुत्रकव्यवहृतिरिब न मुख्यवस्तूपसे वनोद्भवं फलं नम. एवमहदादिगुणानुस्मरणनिबन्धनं प्रतिबिम्बम् । लभ्यते । न प्रतिबिम्बादिस्था अहंदादयः, तदगुणतथानुस्मरणम् अभिनवाशुभप्रकृतेः संवरणे, प्रत्यग्र- वैकल्यान्न प्रतिबिम्बानामहंदादित्वमिति चैत्यावर्णशुभकर्मादाने, गृहीतशुभप्रकृत्यनुभवस्फारीकरणे, वादः । (भ. प्रा. विजयो. १-४७) । २. सोऽय
ताशभप्रकृतिपटलरसापहासे च क्षममिति हन्नित्यादिस्वकल्पनया पाषाणादावचेतने तव्यव
वापस
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
चोरप्रयोग ]
स्थायामपि कन्यकानां कृत्रिमपुत्रकव्यवहृताविव न मुख्य वस्तू सेवनोद्भवं फलमुपलभ्यते इति न प्रतिमादिषु संक्रान्ता ग्रहंदादयो नापि प्रतिमादोनामर्हदादित्वमस्ति तद्गुणशून्यत्वात्ततोऽन्यपाषाणादिवन्न तेषा - माराधने किञ्चित्फलमस्ति, इत्यादिश्चैत्यानाम् ( अवर्णवादः) । (भ. श्री. मूला. ४७) ।
४४५, जैन-लक्षणावली
१ अपनी कल्पना से 'यह श्ररहन्त या सिद्ध हैं' इस प्रकार अचेतन पाषाण उनकी स्थापना करने पर प्रत्यक्ष में उनकी प्राराधना से कुछ फल प्राप्त होता है यह सम्भव है । जैसे – कन्यायें कृत्रिम पुत्र ( प्रतिकृतिरूप ) में जब पुत्र का व्यवहार करती हैं तब यथार्थ पुत्र का फल उन्हें कभी प्राप्त नहीं होता, वैसे ही श्ररहंत आदि की प्रतिमानों की पूजा आदि से वह फल नहीं प्राप्त हो सकता । कारण यह कि न तो प्रतिमानों में अरहन्त प्रादि स्थित होते हैं और न उनके गुणों से शून्य होने के कारण वे प्रतिमायें स्वयं अरहन्त प्रादि हो सकती हैं। इस प्रकार से कुयुक्तिपूर्वक प्रतिमानों की निन्दा करने को चैत्यावर्णवाद कहा जाता है । चोरप्रयोग - देखो चौरप्रयोग |
चौरकथा - १. स चौरो निपुणः खातकुशलः, स च वर्त्मनि ग्रहणसमर्थः पश्यतां गृहीत्वा गच्छति तेन सर्व प्राक्रान्ता इत्येवमादिकथनं चौरकथा । (मूला. वृ. ६-८६ ) । २. चौराणां चौरप्रयोगकथनं चौरकथाविधानम् । (नि. सा. वृ. ६७) ।
१ वह चोर सेंध लगाने में बड़ा निपुण है, मार्ग में चलते हुए लोगों को देखते-देखते लूट कर चला जाता है, वह सभी पर आक्रमण करने वाला है; इत्यादि प्रकार से चोरों की चर्चा करने को चौरकथा कहते हैं ।
चौरप्रयोग - १. चोरप्रयोगः चोरयतः स्वयमेवान्येन वा प्रेरणं प्रेरितस्य वाऽन्येनानुमोदनम् । (रत्नक. टी. ३ - १२) | २. चोरप्रयोगः - चोरयतः स्वयमन्येन वा चोरय त्वमिति चोरणक्रियायां प्रेरणम्, प्रेरितस्य वा साधु करोषीत्यनुमननम् । कुशिका - कर्तरिकाघर्घरिकादिचौरोपकरणानां वा समर्पणं विक्रयणं वा । (सा. ध. स्व. टी. ४ - ५० ) ।
१ चोरी करने वाले को चोरी के लिए स्वयं प्रेरित करना, अन्य से प्रेरणा करना या उसकी अनुमोदना
[ च्यवन
करना, इसे चौरप्रयोग कहते हैं । यह अचौर्याणुव्रत का एक प्रतिचार है । चौरार्थादान - १. चौरार्थादानं च प्रप्रेरितेनाननुमतेन च चोरेणानीतस्यार्थस्य ग्रहणम् । ( रत्नक. टी. ३-१२ ) । २. चौराहृतग्रहः -- प्रेरितेनाननुमतेन च चौरेणानीतस्य कनक वस्त्रादेरादानं मूल्येन मुद्रिका वा । (सा. ध. स्वो. टी. ४-५० ) । १ जिसे चोरी के लिए प्रेरणा व अनुमोदना नहीं की गई है, ऐसे चोर के द्वारा लाये हुए अर्थ ( सुवर्णादि) के लेने को चौरार्थादान कहते हैं । यह अचौर्याणुव्रत का एक प्रतिचार है । चौराहृतग्रह - देखो चौरार्थादान |
चौर्य - १. प्रदत्तस्य स्वयं ग्राहो वस्तुनः चौर्य मीर्यंते । संक्लेशपरिणामेन प्रवृत्तियंत्र तत्र तत् । (ह. पु, ५८, १३१) । २. स्तैन्यं परद्रव्यापहरणाभिप्रायः । ( मूला. वृ. ५- १६६ ) । ३. प्रदत्तस्य यदादानं चौर्यमित्युच्यते बुधैः । (लाटीसं. ६-३३ ) ।
1
१ संक्लेश परिणामपूर्वक बिना दी हुई वस्तु के ग्रहण करने को चौर्य या चोरी कहते हैं । चौर्यानन्द - १. तह तिव्वकोह- लोहाउलस्स भूग्रोव - घायणमणज्जं । परदव्वहरणचित्तं परलोयावायनिरवेवखं ।। (ध्यानश. २१) । २. चौर्योपदेशबाहुल्यं चातुर्यं चौर्यकर्मणि । यच्चौर्येकपरं चेतस्तच्चोर्यानन्द इष्यते ॥ यच्चौर्याय शरीरिणामहर हरिचन्ता समुत्पद्यते, कृत्वा चौर्यमपि प्रमोदमतुलं कुर्वन्ति यत्सन्ततम् । चौर्येणापि हृते परैः परधने यज्जायते संभ्रमस्तच्चौर्य प्रभवं वदन्ति निपुणा रौद्रं सुनिन्दास्पदम् || (ज्ञाना. २५-२६, पृ. २६६-६७ ) । ३. परद्रव्यहरणे तत्परता प्रथमं रौद्रम् । (मूला. वृ. ५-१६६ । १ तीव्र क्रोध व लोभ से अभिभूत प्राणी का चित्त जो दूसरे के द्रव्य के अपहरण में संलग्न रहता है, यह चौर्यानन्द या स्तेयानुबन्धी रौद्र ध्यान कहलाता है । २ चोरी करने का उपदेश देना, चोरी करने में चातुर्य रखना, चित्त को सदा चोरी में लगाये रखना, निरन्तर चोरो का चिन्तन करना, चोरी करके हर्षित होना; इत्यादि प्रवृत्ति को चौर्यानन्द नाम का रौद्रध्यान कहा जाता है ।
च्यवन - १. च्युतिः च्यवनम्, वैमानिक ज्योतिष्काणां मरणम् । ( स्थाना. अभय वू. १-२७, पृ. १९) ।
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
च्यावित ]
२. च्यवनमुद्वर्तनं मरणमिति पर्याय: । ( संग्रहणी दे. बृ. २, पृ. ३) ।
१ वैमानिक और ज्योतिषी देवों के मरण को च्यवन या च्युति शब्द से कहा जाता है । २ च्यवन, उद्वर्तन और मरण ये समानार्थक शब्द हैं । च्यावित - १. च्यावितं तेभ्यः ( देवादिभ्यः ) एवायुःक्षयेण भ्रंशितम् | X XX उक्तं च वृद्ध: - X X X चइयंमि चावितं जं जह कप्पा संगमो सुरिदेणं । तह चावियमिति जीवा पलिएणा उक्खएणं ति । ( अनुयो. हरि वृ. उद्, पृ. १४) । २. चइदं णाम कदलीघादेण छिण्णायुक्खयपदिद शरीरं । उक्तं च विस-वेयण रत्तक्खय-सत्थग्गहणसंकिले से हि । आहारोस्सासाणं णिरोहदो छिज्जदे आऊ ( धव. पु. १, पृ. २२ ) ; कयलीघादेण मरणकंखाए जीवियासाए जीविय-मरणसाहि विणा वा पदिदसरीरं चइदं । ( घव. पु. १, पु. २५ ) ; उवसग्गेण पदिदसरीरो XX X चइददेहो णाम । ( धव. पु. ६, पु. २६९ ) । ३. चेतनस्योपसर्गबलाद्वा च्यावितशब्देनोच्यते । (भ. प्रा. विजयो. ७५३) । ४. च्यावितं कदलीघातपतितं त्यागवर्जितम् । ( श्राचा. सा. ६-१२ ) । ५. कदलीघातेत पतितं च्यावितम् । (न. घ. स्वो. टी. ८ - १६) ।
१ प्रायु के क्षय से देवता श्रादि से भ्रष्ट कराये गये शरीर को व्याक्ति कहते हैं । २ कदलीघात - विषभक्षण, वेदना व रक्तक्षय प्रादि-से खण्डित हुई श्रायु के क्षय से नष्ट हुए शरीर का नाम च्यावितशरीर है ।
४४६, जैन-लक्षणावली
च्युत - १. च्युतं देवादिभ्यो भ्रष्टम × × × उक्तं च वृद्धेः - चुतमिह ठाणभट्ट देवो व्व जहा विमाणवासा | जीवितचेयणादिकिरियाभट्ठ चुतं भणिमो || (अनुयो. हरि बृ. उद्, पृ. १४) । २. चुदं णाम कदलीघादेण विणा पक्कं पि फलं व कम्मोदएण ज्झीयमाणायुक्खयपदिदं । ( धव. पु. १, पृ. २२); सयमेव आयुक्खएण पदिदसरीरो चुददेहो णाम । ( धव. पु. ६, पृ. २६६ ) । ३. श्रायुषो निःशेषगलनादात्मनश्च्युतम् एकम् । (भ. प्रा. विजयो. ७५३ ) । ४. XX X चुदं सपाकेण । पडिदं कदलीघादपरिच्चागेणूणयं होदि । ( गो. क. ५६) । ५. च्युतं त्यागं विनायुष्कक्रमक्षयगतात्मकम् । (आचा. सा. - ११ )। ६. पक्व फलमिव
[छद्मस्थ
स्वयमेवायुषः क्षयेण पतितं च्युतम् । (अन. ध. स्वो. टी. ८ - १९ ) । ७. तत्र च्युतं स्वपाकेन पतितमपि कदलीघात - सन्यासाभ्यामूनं भवति । ( गो . क. जी. प्र. ५६ ) ।
१ देवादि गर्याय से शरीर के छूटने पर वह च्युतशरीर कहलाता है। २ कम के उदय वश कदलीघात के विना श्रायु के क्षय से पके हुये फल के समान जो शरीर स्वयं छूटता है उसे च्युत शरीर कहा जाता है ।
छत्र - छत्रं प्रसिद्धम्, तदाकारो योगोऽपि छत्रम् । ( सूर्यप्र. मलय. वू. १२-७८, पू. २३३ ) । छत्र के श्राकार वाले योग को भी छत्र कहते हैं । छत्रातिछत्र -छत्रात् सामान्यरूपात् उपर्यंन्यान्यछत्रभावतोऽतिशायि छत्रं छत्रातिछत्रम्, तदाकारो योगोऽपि छत्रातिछत्रम् । ( सूर्यप्र. मलय. व. १२, ७८, पृ. २३३) । सामान्य रूप से छत्र के ऊपर अन्य अन्य छत्र के सद्भाव से जो प्रतिशय युक्त छत्र होता है वह छत्रातिछत्र कहलाता है, उसके श्राकार वाले योग को भी छत्रातिछत्र कहते हैं । छद्म- १. छद्म ज्ञान - दृगावरणे । धव. पु. १, पु. १८८ ) ।२. छद्म ज्ञान दर्शनावरणद्वयं भण्यते । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४४, पृ. १६५ ) । ३. छादयतीति छद्मज्ञानावरणीयादिघातिकर्मचतुष्टयम् । (श्राव. नि. मलय. वृ. २३३ ) । ४. छादयत्यात्मनो यथावस्थितं रूपमिति छद्म ज्ञानावरणा दिघाति कर्मचतुष्टयम् । ( संग्रहणी दे. वृ. ११४, पृ. ५७) ।
१ ज्ञानावरण और दर्शनावरण का नाम छ है । ४ यथावस्थित श्रात्मस्वरूपको श्राच्छादित करने वाले ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों को छ कहते हैं ।
छद्मस्थ--- १. छद्म ज्ञान दृगावरणे, तत्र तिष्ठन्तीति छद्मस्था: । (घव. पु. १, पू. १८८; बृ. द्रव्यस. ४४, पू. १६५ ) ; छपनि प्रावरणे तिष्ठन्तीति छद्मस्थाः । (घव. पु. १, पू. १६० ); छदुमं णाम श्रावरणं, तम्हि चिट्ठदित्ति छउमत्थो । ( धव. पु. १०, पृ. २६६) । २. छद्म आवरणम्, तत्र स्थिताः, सावरणज्ञाना: छद्मस्था: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-४८) । ३. छादयत्यात्मस्वरूपं यत्तच्छद्म ज्ञानावरणादिघातिकर्म । तत्र तिष्ठतीति छद्मस्थः श्रकेवली ।
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
छद्मस्थमरण]
( स्थाना. अभय वृ. २, १, ७२ ) । ४. छाद्यते केवलज्ञान- दर्शनमात्मनोऽनेनेति छद्म ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तराय-मोहनीयकर्मोदयः सति तस्मिन् केवलस्यानुत्पादात्तदपगमानन्तरं चोत्पादाच्छद्मनि तिष्ठतीति छद्मस्थ: । ( कर्मस्त. गो. वृ. २, पृ. ५) । ५. छाद्यते यथावस्थितमात्मनः स्वरूपं येन तच्छद्म ज्ञानावरणीयादि कर्म, तस्मिन् तिष्ठन्तीति छद्मस्था: । (बृहत्सं. मलय. वृ. १७० ) । ६. छादयतीति छद्म ज्ञानावरणीयादिघातिक्रमं चतुष्टयम्, छद्मनि तिष्ठतीति छद्मस्थ: । (श्राव. नि. मलय. वृ. २३३, पृ. २०२) ।
१ ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का नाम छद्म है, इस छद्म में जो स्थित रहते हैं उन्हें छद्मस्थ कहते हैं ।
४४७, जैन- लक्षणावली
छद्मस्थमररण - १. छउमत्थमरणं छउमत्थसंयताण मरणं जाव मणपज्जवणाणीणं । (उत्तरा चू. पू. १२६ ) । २. छद्मस्थमरणम् – अकेवलि - मरणम् । (समवा. श्रभय. य. १७, पृ. ३३) । ३. मणपज्जवोहिणाणी सुय-मइणाणी मरंति जे समणा । छउमत्थमरणमेयं XX X ॥ ( प्रव. सारो. १०१५ ) । ४. मन:पर्ययज्ञानिनोऽबधिज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनो मतिज्ञानिनश्च म्रियन्ते ये श्रमणाः तपस्विनः छादयन्तीति छद्मानि ज्ञानावरणादीनि कर्माणि तेषु तिष्ठन्तीति छद्मस्थास्तेषां मरणं छद्मस्थमरणम् । ( प्रव. सारो वृ. १०१५ पृ. ३०० ) ।
१ मन:पर्ययज्ञानी तक चार क्षायोपशमिक ज्ञान वाले - छद्मस्थ संयतों के मरण को छद्मस्थमरण कहते हैं ।
छन्दना - १. Xx X पुव्वगहिएण छंदण X X X ।। (श्राव. नि. ६६७ ) । २. पूर्वगृहीतेनाशनादिना छन्दना शेषसाधुभ्यः कर्तव्या - इदं मयाऽशनाद्यानीतम्, यदि कस्यचिदुपयुज्यते ततोऽसाविच्छाकारेण ग्रहणं करोत्विति । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ६६७) । ३. छन्दना प्रोत्साहना, इदं भक्तं भुंक्ष्व इति । ( श्रनुयो, हरि वृ. पू. ५८ ) ।
२ इस प्रशन (भोजद) श्रादि को मैं लाया हूं, यदि किसी के लिए उपयोगी हो तो इच्छाकार के साथ ग्रहण कर ले, इस प्रकार पूर्व गृहीत प्रशन आदि से शेष साधुनों के लिए छन्दना की जाती है ।
[छन्नदोष
छन्दोनिरोध -- छन्दो वशस्तस्य निरोधः छन्दोनिरोधः -- स्वच्छन्दतानिषेधः x x x यद्वा छन्दसा - गुर्वभिप्रायेण, निरोधः श्राहारादिपरिहाररूप: छन्दोनिरोध: X X X अथवा छन्दो वेद ग्रागम इत्यनर्थान्तरम्, ततः छन्दसा 'प्राणाए च्चिय चरणं इत्यादिना निरोधः इन्द्रियादिनिग्रहात्मकः छन्दोनिरोध: । (उत्तरा. सू. शा. वृ. ४-८, पृ. २२२, २३) ।
छन्द का अर्थ वश या प्रभुता है, उसके निरोध कोस्वच्छन्दता के निषेध को – छन्दोनिरोध कहते हैं । reat गुरु के अभिप्रायानुसार श्राहार आदि के निरोध को भी छन्दोनिरोध कहते हैं । अथवा छन्द का अर्थ वेद या श्रागम होता है। तदनुसार छन्द अर्थात् 'प्रज्ञा के अनुसार आचरण करना चाहिये' इत्यादि श्रागम से किये जाने वाले इन्द्रियों के निग्रह रूप निरोध को छन्दोनिरोध जानना चाहिए। छन्दोऽनुवर्तन - १. छंदाणुवट्टणं नाम आयरियाण सीसेण कालं तुलेऊणं आहार उवहि उवस्सगाण उववायणं कायव्वं । (दशवं. चू. १, पृ. २८) । २. छन्दोऽनुवर्तनम् अभिप्रायानुवृत्तिः । (समवा. अभय वृ. १, पृ. ८९ ) ।
१ शिष्य के द्वारा समय के अनुसार प्राचार्यों के लिये श्राहार, उपधि और उपाश्रय की जो व्यबस्था की जाती है, इसका नाम छन्दोनुवर्तन है । यह सात प्रकार की श्रौपचारिक विनय में से एक है । छन्दोऽनुवर्ती – छन्दो गुरूणामभिप्रायस्तमनुवर्तते श्राराघयतीत्येवंशीलः छन्दोऽनुवर्ती । ( व्यव. सू. भा. मलय. वृ. १-७८ ) |
गुरुजनों के अभिप्रायानुसार उनकी सेवा करने वाले को छन्दोऽनुवर्ती कहते हैं ।
छन्नदोष – १. ईदृशे व्रतातिचारे सति किं नः [ नुः ] स्यत् प्रायश्चित्तमित्युपायेन गुरूपासना षष्ठः । (त. वा. ६, २२, २ ) । २. ईदृशे दोषे किं प्रायश्चित्तमित्युपाथेन प्रच्छन्न [न] म् । (त. इलो, ६-२२) । ३. छष्णं प्रदृष्टालोचना । (भ. श्री. विजयो. ५६२) । ४. ईदृशे व्रतातिचारे सति नुः किं स्यात् प्रायश्चित्तमित्युपायेन गुरूपासना षष्ठच्छन्नदोषः । (चा. सा. पृ. २१) । ५. दोषे सतीदृशे देयं कि प्रायश्चित्तमित्यलम् । प्रश्न: स्वच्छादनेन स्याच्छन्नं लज्जाभयादिभि: ।। ( श्राचा. सा. ६-३३ ) ।
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
छदिदोष]
४४८, जैन-लक्षणावली
[छादन
६. प्रच्छन्नं पालोचयति किल मुक्तं भवति । लज्जा. १अर्थभेद को उद्भावित करके बचन के विघात लुतामुपदापराधानल्पशब्देन तथालोचयति यथा करने को छल कहते हैं। जैसे-यदि कोई देवदत्त केवलमात्मैव शृणोति, न गुरुरित्येषः (छन्न) षष्ठ को नवीन कम्बल से यक्त देखकर 'नवकम्बलो देवआलोचनादोषः । (व्यव. भा. वृ. १, ३४२, दत्तः' ऐसा कहता है तो कहां हैं नो कम्बल, एक पृ. १६)। ७. छन्नं कीदृचिकित्सेदगदोषे पृष्ट- ही कम्बल तो उसके पास है' ऐसा कहते हुए उसके वेति तद्विधिः । (अन. ध. ७-४२); ईदशे दोषे कथन को असत्य वतलाना। यह ३२ सूत्रदोषों में सति कीदृश प्रायश्चितं क्रियते, इति स्वदोषोद्देशेन पांचवां है। गुरुं पृष्ट्वा तदुक्तं प्रायश्चित्तं कुर्वतश्छन्नं नामा- छविच्छेद-१. छविः शरीरम्, तस्य छेदः पाटनं लोचनादोषः स्यादित्यर्थः । (प्रन. घ. स्वो. टी. ७, करपत्रादिभिः । (श्रा. प्र. टी. २५८)। २. छवि४२) । ८. छन्नं यदा कोऽपि न भवत्याचार्यसमीपे च्छेदः हस्त-पाद-नासिकादिच्छेद इति । (प्राव. तदा एकान्ते पापं प्रकाशयतीति छन्नदोषः। (भाव- हरि. व. १६६, भा. ३, पृ. ११४)। ३. छवी प्रा. टी. ११८) ।
शरीरं, तस्स णहादीणं किरियाविसेसेहि खंडणं छेदो १ इस प्रकार के व्रतविषयक अतिचार के होने पर छविच्छेदो। (धव. पु. १४, पृ. ४०१)। ४. छवि मनष्य के लिए क्या प्रायश्चित्त होता है, इस प्रकार शरीरं त्दक वा, छेद: पाटनं द्विधारणम् । (त. भा. उपाय से गुरु की उपासना करना; यह आलोचना सिद्ध. वृ. ७-२०)। ५. छवि: त्वक, तद्योगाच्छरीका छन्न नामक छठा दोष है। ३ अदृष्ट रहकर रमपि छविः, तस्य छेदः-प्रसिपुत्रिकादिभिः पाटनम् । पालोचना करने से छन्न दोष का भागी होता है। (घ.बि.म.व. ३-२३)। ८ जब प्राचार्य के पास में दूसरा कोई न हो तब १ करपत्र (करोंत) आदि से शरीर के छेदने एकान्त में पाप को प्रकाशित करना, यह आलोचना का नाम छविच्छेद है। यह अहिंसाणुव्रत का का छठा छन्न दोष है।
एक अतिचार है। ३ छवि नाम शरीर का है, दि (दोष)-१. तथा छदिर्वमनमात्मनो यदि उसके नख प्रादि अवयवों का विशिष्ट क्रिया के भवति । (मला. व. ६-७६)। २. xxx द्वारा खण्डन करना; इसे छविच्छेद कहते हैं। छदिरात्मना। छर्दनम् xxx ॥ (अन. घ. विदोष-१. छविः अलंकारविशेषस्तेन शून्य५-४४)।
मिति । (प्राव. नि. हरि. वृ. ८८४, पृ. ३७५)। २. १ साधु के प्राहार करते समय वमन हो जाने पर छवि: अलंकारविशेषता[ष:], तेन शून्यता तेन शून्यता छदि नामक भोजन का अन्तराय होता है। छविर्दोषः । (प्राव. मलय. वृ. ८८३, पृ. ४८३)। दित-घृतादिच्छर्दयन् यद्ददाति तत् छदितम्, छवि का अर्थ अलंकारविशेष होता है। अलंकारछद्यमाने घृतादौ तत्रस्थस्यागन्तुकस्य वा सर्वस्य विशेष से रहित सूत्र-ग्रागमवाक्य-की रचना जन्तोर्मधूबिन्दूदाहरणन यिधनासम्भवात् । (योग. करने पर छवि नाम का सूत्रदोष होता है। यह शा. स्वो. विव. १-३८, पृ. १३७)।
३२ सुत्रदोषो में २३वां है। घी आदि को गिराते हुए पाहारादि के देने पर छव्याई-छविअद्द तु यत् स्निग्धत्वग्द्रव्यं मुक्ताछदित दोष होता है। कारण कि घी आदि के फल रक्ताशोकादिकं तदभिधीयते । (सूत्रकृ. नि. गिराने से वहां रहने वाले अथवा आगन्तुक सभी के शी. व. २, ६, १८५, पृ. १३६)। मधुबिन्दु के उदाहरण से विरना को सम्भावना मोती व लाल अशोक आदि गीली त्वचा से युक्त है। यह १० एषणादोषों में अन्तिम है।
द्रव्य को छवि-प्रार्द्र कहा जाता है। छल- १. वचन विघातोऽर्थविकल्पोपपत्त्या छलं छादन-१. अनुभूतवृत्तिता छादनम् । प्रतिबन्धवाकछलादि । यथा-नवकश्बलो देवदत्त इत्यादि। कहेतुसन्निधाने यति अनुद्भुतवत्तिताऽनाविर्भाव: प्राव. नि. हरि. वृ. ८८१, पृ. ३७५) । २. अर्थवि. छादनमित्यवसीयते । (त. वा. ६, २५, ३)। २. कल्पोपपत्त्या वचनविघातः छलम् । (प्राव. मलय. अनुदभूतवृत्तिता छादनम् । (त. इलो. ६-२५)। व.८८१, पृ. ४८३)।
३. छादनं संवरणं स्थगनम्, द्वेषात् पृष्टो ऽपृष्टो
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
छाया] ४४६, जैन-लक्षणावली
[छिन्ननिमित्त वा नाचष्टे गुणान् सतोऽपि । (त. भा. सिद्ध. व. मुपविष्टः सर्वमर्थमववुध्यते व्याख्यानादुत्थितश्च ६-२४) ।
न किमपि स्मरति स छिद्र कुटसमानः, यथा हि १ प्रतिबन्धक हेतु के सन्निधान में दूसरे के समीचीन छिद्र कुटो यावत्तदवस्थ एव गाढमवनितलसंलग्नो या विद्यमान गुणों को प्रगट नहीं करना, यह छादन ऽवतिष्ठते तावन्न किमपि जलं ततः श्रवति, स्तोक शब्द का अभिप्राय है।
वा किंचिदिति, एवमेषोऽपि यावदाचार्यः पूर्वापरानुछाया - १. छाया प्रकाशावरणनिमित्ता। (स. सि. सन्धानेन सूत्रार्थ मुपदिशति तावदवबुध्यते, उत्थितश्चेद् ५-२४; त. वा. ५, २४, १६)। २. पृथिव्यादि- व्याख्यानमण्डल्याः तर्हि स्वयं पूर्वापरानुसन्धानघनपरिणाम्युपश्लेषात् देहादिप्रकाशावरणतल्या कारेण विकलत्वान्न किमपि अनुस्मरति । (प्राव. नि.मलय. छिद्यते, छिनत्त्यात्मानमिति वा छाया। (त. वा. ५, बृ. १३६, पृ. १४३) २४, १) । ३. वृक्षाद्याश्रयरूपा मनुष्यादिप्रति. जिस घड़े के नीचे मूल में छेद हो उसे छिद्र कूट बिम्बरूपा च छाया विज्ञेया। (बृ. द्रध्यसं. टी. १६)। कहते हैं । जैसे छिद्रकुट जब तक भूमि के ऊपर ४. प्रकाशावरणकारणभूता छाया द्विप्रकारा । एका ।
संलग्न रहता है तब तक उससे जल नहीं निकलता वर्णादिविकृतिपरिणता। कोऽर्थः ? गौरादिवर्ण परि- है, या कुछ थोड़ा सा ही निकलता है। वैसे ही त्यज्य श्यामादिभावं गता । द्वितीया छाया प्रतिच्छन्द- जो शिष्य जब तक व्याख्यानमण्डली में बैठा रहता मात्रात्मिका । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२४) । ५. वृक्षा
है तब तक उपदिष्ट अर्थ को पूर्ण रूप से प्रहण द्याश्रयरूपा मनुष्यादिप्रतिबिम्बरूपा वर्णादिविकार
करता है, तत्पश्चात् कुछ भी स्मरण नहीं करता परिणता च छाया। (कातिके. टी. २०६) । है, उसे छिद्रकुट समान शिष्य कहा जाता है। ६. छ्यति छि नत्ति वा तपमिति छाया । (उत्तरा. छिन्ननिमित्त-देखो छिन्नमहानिमित्त । १. सुरनि. शा. वृ. १-५७, पृ. ३८)।
दाणव-रक्खस-णर-तिरिएहिं छिण्णसत्थ-वत्थाणि । १ प्रकाश के प्रावरण के निमित्त से जो प्रतिबिम्ब पासाद-णयर-देसादियाणि चिण्हाणि दणं ॥ (परछाई) पड़ता है उसका नाम छाया है।
कालत्तयसंभूदं सुहासुहं मरणविविहदव्वं च । सुहछायागति-ते कि तं छायागतिः ? ३ जंण हय
दुक्खाई लक्खइ चिण्हणिमित्तं ति तं जाणइ। (ति. छायं वा गयछायं वा नरछायं वा किण्णरछायं वा
प. ४,१०११-१२) । २. वस्त्र-शस्त्र-छत्रोपानदामहोरगछायं वा गंधवछायं वा उसहछायं वा
सन-शयनादिषु देव-मानुष-राक्षसादिविभागः शस्त्र
कण्टक-मषिकादिकृतछेदनदर्शनात् कालत्रयविषयरहछायं वा छत्तछायं वा उवसंपत्तिज्जा णं गच्छति से तं छायागतिः । (प्रज्ञाप. १६,
लाभालाभ-सुखदुःखादिसूचनं छिन्नम् । (त. वा,
३, ३६, ३)। ३. तत्र बीजपदादध:स्थितान्येव२०५, पृ. ३२७)।
पदानि बीजवदस्थितिलिगेन जानाति [वस्त्रघोड़ा, हाथी, मनुष्य, किन्नर, महोरग, गन्धर्व,
शस्त्र-छनोपानदासन-शयनादिषु देव-मानुष-राक्षसावृषभ रथ अथवा छत्र की छाया की समीपता से जो गमन होता है, इसका नाम छयागति है।
दिवि ] भागः शस्त्र-कण्टक-भूषिकादिकृत्च्छेददर्शनात्
कालत्रयविषयलाभालाभ-सूखदुःखादिसंस्तवनं छिन्नछायानुपातगति-से कि त छायाणवायगती ?
म् । (चा. सा. पृ. ६६)। ४. यं प्रहारं छेदं जे णं पुरिसं छाया अणुगच्छति नो पुरिसे छायं
वा दृष्ट्वा पुरुषस्यान्यस्य वा शुभाशुभं ज्ञायते अणुगच्छति, से तं छायाणुवायगती । (प्रज्ञाप.
तच्छिन्न निमित्तं नाम । (मूला. वृ. ६-३०)। १६-२०५, पृ. ३२७)।
१ देव, दानव, राक्षस, मनुष्य और तिर्यचों के छाया जो पुरुष के पीछे चलती है, पुरुष छाया के
द्वारा छदे गये शस्त्र और वस्त्र प्रादि को तथा पीछे नहीं चलता, यह छायानुपातगति कहलाती है।
छिन्न प्रासाद, नगर एवं देश आदि को देखकर तीनों छिद्रकुटसमान शिष्य-यस्य अधो बुध्ने छिद्रः कालों सम्बन्धी शुभ-अशुभ, मरण एवं सुख-दुःखादि स छिद्र कूटः। xxx यो व्याख्यानमण्डल्या- को जान लेना, यह छिन्ननिमित्त कहलाता
ल. ५७
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
[छेद
14
छिन्नपुष्टसंहनन]
४५०, जैन-लक्षणावली है । २ वस्त्र, शस्त्र, छत्र, जूता, आसन तहारूअं अवराहं णाऊण परियारो छिज्जइ। सं और शय्या प्रादि में देव, मनुष्य और राक्षस प्रादि जहा-अहोरत्तं वा पक्खं वा मासं वा संवच्छरं वा के विभाग से शस्त्र, कांटा और चहा प्रादि के द्वारा एवमादि छेदो भवति । दशव. च. पृ. २६) । किये गये छेदन को देखकर तीनों कालों सम्बन्धी ५. कर्ण-नासिकादीनामवयवानाम् अपनयनं छेद लाभ-अलाभ व सुख-दुःख प्रादि की सूचना करना, इति व.थ्यते। (त. वा. ७, २५, ३; त. श्लो. इसे छिन्ननिमित्त कहते हैं ।
७-२५); दिवस-पक्ष-मासादिना प्रव्रज्याहापनं संहनन-छिन्नानि अन्तरितानि, पुष्टानि छेदः । चिर प्रव्रजितस्य दिवस-मासादिविभागेन अस्थीनि, येन प्रभवता तच्छिन्न पुष्टं षष्ठं संहननम्। प्रबज्याहापनं छेद इति प्रत्येतव्यम् । (त. वा. ६, पंचसं. च. स्वो. व. ३-१२७, पृ. ३७)।
२२, ८)। ६. दिवस-पक्ख-मास उदु-अयण-संवच्छजिसके प्रभाव से शरीर की हडडियां अन्तर-सहित रादिपरियाय छेत्तण इच्छिदपरियायादो हेट्रिमहों उसे छिन्नपुष्ट संहनन कहते हैं।
भूमीए ठवणं छेदो णाम पायच्छित्तं । (धव. पु. १३, छिन्नमहानिमित्त-बेखो छिन्ननिमित्त । अंग- पृ. ६१) ७ कर्णाद्यपनयच्छेद: xxx। (ह. पु. छ याविवज्जास-वत्थालंकारछेदं मणव-तिरिक्खादीणं ५८-१६४)। ८. छेदोऽपवर्तनमपहार इत्यभिन्नार्थाः चेट्टा-संठाणाणि दट्टण सुहासुहावगमो छिण्णं णाम पर्याया: । स च छेदः पर्यायस्य महावतारोपणकालामहाणिमित्तं । (धव. पु. ६, पृ. ७३)।
दारभ्य गण्यते । XXX प्रव्रज्यादिवसो यत्र शरीरछाया की विपरीतता, वस्त्र व अलंकार का महावतारोपणं कृतं तदादिः पर्यायः। तत्र पंचछेद तथा मनुष्य और तियंच प्रादिकों की चेष्टा व कादिछेदपर्यायस्य यथा यस्य तावद दशवर्षाण्याप्राकार को देखकर शभाशुभ का जानना, यह छिन्न- रोपितमहाव्रतस्यापराधानुरूपः कदाचित् पञ्चकच्छेदः महानिमित्त कहलाता है।
कदाचिच्च दशक इत्यादि यावत् षण्मासछिन्नस्वप्न (छिण्णसुमिरण)-१. करि केसरि- परिमाणच्छेदो लघुर्गुरुर्वा, एवंविधेन छेदेन पहृदीण दंसणमेत्तादि चि[छि ] बहस उणतं । (ति. छिद्यमानः प्रव्रज्यादिवसमप्यपहरतीति । (त. भा. प. १०१६) । २. वसह-मायंग-सीह-सायर-चंदा- सिद्ध वृ. ६-२२)। ६. असंयमजुगुप्सार्थमेव प्रव्रज्या. इच्च-जलकलियकलस-पउमाहिसेय-जलण-पउमायर- हापन छेदः। (भ. प्रा. विजयो. ६)। १०. अशुद्धोभवणविमाण - रयणरासि-सीहासण : कीडतमच्छ- पयोगो हि छेदः, शुद्धोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य पफुलदामजुवलाणं अण्णोण्णसंबंधविरहियाणं छेदनात् तस्य हिंसनात् । (प्रव. सा. अमृत. व. सुत्ततित्थयरमादूणं सोलसण्णं दसणं छिण्णसुमि- ३-१६)। ११. प्रव्रज्याहापनं छेदो मास पक्ष-दिनाणो णाम | (धव. पु. ६, पृ. ७४) ।
दिना। (त. सा. ७-२६) । १२. चिर-प्रव्रजितस्य २ परस्पर के सम्बन्ध से रहित बैल, हाथी, सिंह सहजबलस्स स्वभावशूरस्य गवितस्य कृतदोषस्य और समुद्र प्रादि १६ स्वप्न, जो तीथंकर की माता दिवस-मासादिभागेन प्रव्रजनं छित्त्वा छिन्नकालादिको दिखते हैं, उन्हें छिन्नस्वप्न कहा जाता है। नाऽवस्थानं छेदो नाम । (चा. सा. पृ. ६२)। छेद-१. अपयत्ता वा चरिया सयणासण-ठाण- १३. छेदेन व्रतभेदेन xxx (प्रव. सा. जय. व. चंकमादीसु । समणस्स सम्बकाल हिंसा सा संततत्ति ३-६); निर्विकल्पकसमाधिरूपसामायिकस्यैकदेशेन मदा ।। प्रव. सा. ३-१६)। २. कर्णनासिकादीनाम- च्युतिरेकदेशश्छेदः, सर्वथा च्यतिः सकल देशश्छेदः वयवानामपनयन छेदः। (स. सि. ७-२५; चा. सा. इति देश-सकल भेदेन द्विधा छेदः । (प्रव. पृ. ५; रत्नक. ती. ३-८; सा. घ. स्वो. टी. सा. जय. वृ. ३-१०); स्वस्थभावच्युत लक्षणः ४-१५); दिवस-पक्ष-मासादिना प्रव्रज्याहापनं छेदः। छेदो भवति । (प्रव. सा. जय. वृ. ३-११)। (स. सि. ६-२२त. श्लो. ६-२२)। ३. छदो- १४. छेद: दिवस-मासादिना प्रव्रज्याहापनम् । ऽपवर्तनमपहार इत्यनन्तरम् । स प्रव्रज्यादिवस- (मला. व. ११-१६)। १५. दिवसादितपश्छेदश्छेदपक्ष-मास-संवत्सराणामन्यतमेषां भवति । (त. भा. संयमपर्यये । सदपंकृतदोषस्य चिरदीक्षाहितैषिणा ।।
पुनर्दीक्षा ग्रहो मूल सर्वा पूर्वा तपःस्थितिम् । छित्त्वो
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
छैद] ४५१, जन-लक्षणाचली
[छेदोपस्थापक मार्गस्थ पार्श्वस्थप्रभतिश्रमणेष्विदम् ।। (प्राचा. सा. छेदन - छेदनं शरीरस्यान्यस्य वा खड्गादिनेति x ६, ४७-४८) । १६. छे दस्तपसा दुर्दमस्याहोरात्र- xxअथवा छेदनं कर्मण: स्थितिघातः । (स्थाना. पञ्चकादिना क्रमेण श्रमणपर्यायश्छेदनम् । (योगशा. अभय. व. १-३४, पृ. १०)। स्वो. विव. ४-६०)। १७. चिरप्रवजितादृप्तशक्त- खड्ग प्रादि से शरीर के छेदने अथवा परिणामशरस्य सागसः। दिनपक्षादिना दीक्षाहापनं छेद- विशेष से कमों की स्थिति के घात करने को मादिशेत् ।। (अन. ध. ७-५४)। १८. शब्दग्रह- छेदन कहते हैं। नासिकांगुलिवरांग-चक्षुरादीनामवयवानां विनाशनं छेदति-देखो सेवार्त्त । तथा यत्रास्थीनि परस्पर छेदः (त. वृत्ति श्रुत. ७-२५); दिवस-पक्ष-मासादि- छेदेन वर्तन्ते, न कीलिकामात्रेणापि बन्धस्तत् षष्ठ विभागेन दीक्षाहापन छेदो नाम प्रायश्चितम् । छेदवति तच्च प्रायो मनुष्यादीनां नित्यं स्नेहा. (त. वत्ति श्रुत.६-२२, भावप्रा. टी.७८ कार्तिके. म्यङ्गादिरूपां परिशीलनामपेक्षते । (जीवाजी. टी. ४४६) । १६. कर्ण-कंबल-नासिकांगुलि-प्रजनन- मलय. व. १३, पृ. १५) । चक्ष गदीनामवयवानां विनाशनं छेदः । (कातिके. जिसमें हड्डियां परस्पर छेद से यक्त हों, कीलों से टी. ३२२) । २०. छेदो नासादिछि द्रार्थः काष्ठ- भी संबद्ध न हों; यह छेदति नाम का छठा स[शलादिभिः कृतः। तावन्मात्रातिरिक्तं तन्न संहनन है। वह प्रायः मनुष्यों आदि के होता है और विधेयं प्रतिमान्वितैः । (लाटीसं. ५-२६५)। सदा तेलमर्दन आदि की अपेक्षा करता है। १ सोना बैठना स्थान और चलना आदि क्रियाओं छेदत्पष्ट-देखो छदवति व सेवात संहनन । में जो सदा साधु की प्रयत्न के बिना प्रवृत्ति होती छेदाहं-छयारिहं जम्मि य पडिसेविए संदसियहै-उन्हें असावधानी से सम्पन्न किया जाता है- पुवपरियायदेसावईयण कीरइ, नाणाविवाहि. यह प्रवृत्ति हिसारूप मानी गई है। शुद्धोपयोगरूप मुनि- संदूसियगोवंगछयणमिव सेससरीरावयव परिपालणत्थं, धर्म के छेद (विनाश) का कारण होने से उसे छेद तहेहावि से सपरियाय रक्ख णत्थं एयं छयरिह । (अशुद्ध उपयोगरूप) कहा गया है । २ कान और (जीतक. चू. ४, पृ. ६ । नाक प्रादि शरीर के अवयवों के काटने का नाम जिस प्रकार अनेक प्रकार की व्याधि से दूषित शरीर छेद है, यह अहिंसाणवत के पांच अतिचारों के के किसी अवयव का शष शरीरावयवों के रक्षणार्थ अन्तर्गत है। दिन, पक्ष प्रयवा मास प्रादि के विभाग छेद किया जाता है-उसे काट कर अलग कर से अपराधी साध के दीक्षाकाल को कम करना, दिया जाता है-उसी प्रकार जिसका सेवन करने इसे छेद कहा जाता है। यह नौ प्रकार के पर दूषित हुई पूर्व पर्याय-श्रामण्य अवस्था काप्रायश्चित्त में से एक है। ८ छेद का अर्थ अपवर्तन कुछ अंश में-दिन, पक्ष व मास प्रादि के क्रम है । यह महावत-प्रारोपण के दिन से लेकर दीक्षा- से- छंद कर दिया जाता है-कम कर दिया पर्यायका किया जाता है। जैसे-जिस साधु के जाता है-वह छेदाहं प्रायश्चित्त कहलाता है। महाव्रत को स्वीकार किये दस वर्ष हए हैं उसके यह दस प्रकार के प्रायचित्त में एक है। अपराध के अनसार कदाचित् पांच दिन का और छेदोपस्थापक-१. तेसु (मूल गुणसू) पमत्तो समणो कदाचित दस दिन का, इस प्रकार छह मास प्रमाण छदोवट्ठावगो होदि । (प्रव. सा. ३-६)। तक दीक्षापर्याय का छेद किया जा सकता है। २. छेत्तण उ परियाग पोराणं जो ठवेइ अप्पाण । इस प्रकार के छेद से दीक्षा का काल उतना कम धम्ममि पंचजामे छेदोवट्ठावणो स खलू ।। (भगवती. हो जाता है।
४ खं., २५, ७, ६, पृ. २६२)। ३. छत्तूण य छेदगति - मृदंग-भेरी-शंखादिशब्दपुद्गलानां छि- परियायं पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं । पंचजमे धम्म नानां गतिः छेदगतिः। (त. वा. ५, २४, २१)। सो छेदोवट्ठावगो जीवो।। पंचसं. १-१३०; धव. मृदंग, भेरी और शंख आदि के छेद को प्राप्त हुए पु. १, पृ. २७२ उद् ; गो. जी ४७०)। शब्दपुद्गलों की गति या गमन को छेदगति कहते हैं। १. अट्ठाईश मूलगुणों में प्रमादयक्त साध छेदोयह दस प्रकार की क्रिया में तीसरी है।
पस्थापक होता है।
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
छैदोपस्थापन] ४५२, जैन-लक्षणावलो
[छेदोपस्थापना छेदोपस्थापन-देखो छदापस्थापक । १ छेदश्चोप- १ जिस चरित्र में पूर्व पर्याय को छेद कर उसे स्थापनं च यस्मिस्तच्छेदोपस्थापनम् । एतदुक्तं भवति खण्डित कर-महावतों में स्थापित किया जाता है -पूर्वपर्यायस्य छेदो महाव्रतेषु चोपस्थापनमात्मनो वह छे दोपस्थापनचारित्र कहलाता है। ३ जिस चरित्र यत्र तच्छेदोपस्थापनम् । (प्राव. नि. हरि. व. २१४, में हिंसादि के भेदपूर्वक सावध कर्म का त्याग किया पृ.८०)। २. तथा छेदोपस्थापनम् इह यत्र पूर्व- जाता है, अथवा व्रत का विनाश होने पर विशद्धि पर्यायस्य छेदो महाव्रतेषु चोपस्थापनमात्मनः को जाती है उसे छेदोपस्थापन कहते हैं । तच्छे दोपस्थापन मुच्यते । (अनुयो. हरि. व. पृ. छेदोपस्थापनशुद्धिसंयम- देखो छेदोपस्थापन । १०४)। ३. यत्र हिंसादिभेदेन त्याग: सावद्यकर्मणः। तस्य एकस्य (सामयिकशुद्धिसंयमस्य) व्रतस्य छेदेन व्रतलोपे विशुद्धिर्वा छेदोपस्थापनं हि तत् ॥ (त. सा. द्वि-त्र्यादिभेदेनोपस्थापनं व्रतसमारोपणं छेदो. ६-४६) । ४. व्रतानां भेदनं कृत्वा यदात्मन्यधिरो- पस्थापनशुद्धिसंयमः ।Xxx तदेवक (सामयिकपणम । शोधनं वा विलोपेन च्छेदनोपस्थापनं शुद्धिसंयम) व्रतं पंचधा बहुधा वा विपाट्य धारणात् मतम् । (पंचसं. अमित. २४०, पृ. ३०) । ५. यदा पर्यायाथिकनयः छ दोपस्थापनशुद्धिसंयमः । (धव. युगपत्समस्तविकल्पत्यागरूपे परमसामयिके स्थातु- पु. १, पृ. ३७०)। मशक्तोऽयं जीवस्तदा समस्तहिंसानृतस्ते याब्रह्मपरि- सामायिकशुद्धि संयम रूप एक व्रत के छेद सेग्रहेभ्यो विरतिव्रतमित्यनेन पञ्चप्रकारविकल्पभेदेन दो-तीन आदि के भेद से- व्रत के प्रारोपित करने व्रतच्छेदेन रागादिविकल्परूपसावधेभ्यो निवर्त्य को छेदोपस्थापनशद्धि संयम कहते हैं। यह निजशुद्धात्मन्यात्मानमुपस्थापयतीति छेदोपस्था- पर्यायाथिक नयके प्राश्रित है। पनम । अथवा छेदे व्रतखण्डे सति निर्विकारसंवित्ति- छेदोपस्थापना - देखो छेदोस्थापनशद्धिसंयम । रूपनिश्चयप्रायश्चित्तेन तत्साधकबहिरङ्गव्यवहार- १. प्रमादकृतानर्थप्रबन्धविलोपे सम्यकप्रतिक्रिया प्रायश्चित्तेन वा स्वात्मन्युपस्थापनं छेदोपस्था- छेदोपस्थापना विकल्पनिवृनिर्वा । (स. सि. पनम् । (बृ. द्रव्यसं. ३५)। ६. व्रतसमिति गुप्तिगः ६-१८)। २. प्रमादकृतानर्थप्रबन्धविलोपे सम्यक पंच-पंचत्रिभिर्मतेः । छदै दैरुपात्यर्थं स्थापनं प्रतिक्रिया छेदोस्थापना । त्रस-स्थावरजन्तु-देश काल. स्वस्थितिक्रिया ।। छदोपस्थापनं प्रोक्तं सर्वसावद्य- प्रादुर्भाव-निरोधाप्रत्यक्षत्वात् प्रमादवशादभ्युपगतवर्जने । व्रतं हिंसानृतस्ते याब्रह्मसगेष्वसंगमः । निरवद्यक्रियाप्रबन्धविलोपे सति तदुपात्तस्य कर्मणः (प्राचा. सा. ५. ६-७) । ७. तत्र छेदः पूर्वपर्यायस्य, सम्यक् प्रतिक्रिया छेदोपस्थापना बिज्ञेया। विकल्पउपस्थापना च महाव्रतेषु यस्मिन् चारित्रे तत् छेदो- (निवृ[]त्तिर्वा । अथवा, सावध कर्म हिंसादिभेदेन पस्थापनम । (प्राव. नि. मलय. वृ. ११४, विकल्पनिवृ [व] त्तिः छेदोपस्थापना। प. ११६% षडशी. मलय. वृ. १५, पृ. २०)। ८. ६,१८, ६-७)। ३. त्रस-स्थावरजन्तुदेशकालप्रा. तथा छेदः सातिचारस्य यतेनिरतिचारस्य वा दुर्भावनिरोधाप्रत्यक्षत्वात् प्रमादवशादभ्युपगत निरवद्यशिक्षकस्य तीर्थान्तररसम्बन्घिनो वा तीर्थान्तरं प्रतिप- क्रियाप्रबन्धप्रलोपे सति तदुपात्तस्य कर्मणः सम्यक द्यमानस्म पूर्वपर्यायव्यवच्छेदरूपः, तद्युक्तोपस्थापना प्रतिक्रिया छेदोपस्थापनाऽथवा सावद्यकर्मणो हिंसादिमहाव्रतारोपणरूपा यस्मिन् तत् छेदोपस्थापनं भेदेन विकल्पान्निवृत्तिश्छेदोपस्थापना। (चा. सा. भवेत् । (उत्तरा. ने. व. २८-३२, पृ. ३२३)। पृ. ३७) । ४. प्रमादेन कृतो यो ऽत्यर्थः प्रबन्धो हि ६. सामायिकसंयतो भूत्वा प्रच्युत्य सावधव्यापार- हिसादीनामव्रतानामनुष्ठानं तस्य विलोपे सर्वथा प्रतिपन्तो यो जीवः पुराणं प्राक्तनं सावद्यव्यापार- परित्यागे सम्यगागमोक्तविधिना प्रतिक्रिया पर्वता. पर्यायं प्रायश्चित्तश्छित्त्वा प्रात्मानं व्रतधारणादि रोपणं छेदोपस्थापना, छेदेन दिवस-पक्ष.मामालि. पंचप्रकारसंयमरूपधर्म स्थापयति स छेदो- प्रवज्याहापनेनोपस्थापना व्रतारोपणं छेदोपस्थापना । पस्थापनसंयतः स्यात्, छेदेन प्रायश्चित्ताचरणेन सकल्पविकल्पनिषेधो वा छेदोपस्थापना। (त. वत्ति. उपस्थापनं यस्य स छेदोपस्नापनम् । (गो. जी. जी. श्रुत.६-१८)। ५. सामायिक संयतो भुत्वा प्रच्यत्य प्र. ४७१)।
सावधव्यापारप्रतिपन्नो यो जीव: पुराणं प्राक्तनं
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
छोटितदोष ]
स
सावद्यव्यापारपर्यायं प्रायश्चित्तंछित्त्वा श्रात्मानं व्रतधारणादिपं च प्रकारसंयमरूपधर्मे स्थापयति छेदोपस्थापन संयतः स्यात् । (गो. जी. जी. प्र. टी. ४७१) ।
१ प्रमाद के वश होकर किये गये अनर्थ समूह ( दोषों) के दूर करने के विषय में जो उचित प्रतीकार किया जाता है उसका नाम छेदोपस्थापना चारित्र है । श्रथवा विकल्प के हिंसादि के भेद से होने वाले सावद्य कर्म के भेद के – सद्भाव को छेदोपस्थापना चारित्र जानना चाहिये । छोटितदोष -- भुज्यते बहुपातं यत्करक्षेप्यथवा करात् । गलद् भित्वा करो त्यक्त्वाऽनिष्टं वा छोटितं च तत् ॥ ( श्रन. ध. ५-३१) । अधिक अन्न-पान नीचे गिराते हुए भोजन करना, परोसने वाले के हाथ से अथवा अपने हाथ से दूधछांछ प्रादि नीचे गिरते हुए भोजन करना, अथवा प्रिय वस्तु को छोड़कर प्रिय वस्तु को खाना, इत्यादि प्रकार से भोज्य सामग्री को छोड़ते हुए भोजन करने को छोटित दोष कहते हैं । जगत् - १. स्थिति-जनननिरोधलक्षणं चरमचरं च जगत्प्रतिक्षणम् । (स्वयंभू. ११४) । २. सकल चेतनेत रक्षणपरिणाम लवविशेषाः परस्परविविक्तात्मानस्तदन्योन्याभावमात्रं जगत् । ( श्रष्टश. १-१४) । ३. जगत् चेतनाचेतनद्रव्यसंहतिः । (भ. श्री. विजयो. ८२ ) ।
१ जिसका लक्षण प्रत्येक समय में होनेवाली धौव्य, उत्पाद और व्यय रूप अवस्था है तथा जो चराचर ( स्थावर-जंगम ) पदार्थों से परिपूर्ण है उसे जगत् कहा जाता है । ३ चेतन और श्रचेतन द्रव्यों के समुदाय को जगत् कहते हैं ।
1
जगत्श्रेणी - - १. उद्वारपल्लछेदो तस्सासंखेयभागमेत्ते य पनघणं गुलबग्गिदसंवग्गिदयम्हि सूइजग सेढी ॥ ( ति. प. १ - १३१ ) । २. असंख्येयानां वर्षाणां यावन्तः समयास्तावत्खण्डमद्धापल्यं कृतम्, ततोऽसंख्येयान् खण्डानपनीयाऽसंख्येयमेकं भागं बुद्ध्या विरलीकृत्य एकैकस्मिन् घनाङ्गुलं दत्त्वा परस्परेण गुणिता जाता जगच्छ्रेणी । (त. वा. ३, ३८, ७) । ३. रज्जू सत्तगुणिदा जगसेढी । धव. पु. ४, पृ. १८४) । ४. होदि प्रसंखेज्जदिमप्पमाणबिदंगुलाण हदी । ( त्रि. सा. ७) ।
[जघन्य अन्तर्मुहूर्तं
१ श्रद्धापत्यको श्रद्धच्छेद राशि के असख्यातवें भाग प्रमाण घनांगुलों को रखकर उनको परस्पर गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न होती है उसे जगच्छ्र ेणी कहते हैं ।
जगत्स्वभाव - १ तत्र जगत्स्वभावो द्रव्याणामनाद्यादिमत्परिणाममयुक्ताः प्रादुर्भाव तिरोभावस्थित्यन्यतानुग्रहविनाशा: । ( त. भा. ७–७ ) । २. तांस्तान् देव मानुष- तिर्यङ्-नारकपर्यायानत्यर्थं गच्छतीति जगत्-- प्राणिजातमुच्यते धर्मादिद्रव्यस न्निवेशो वा X X X । तत्र जगत्स्वभावस्तावत् प्रियविप्रयोगाप्रियसम्प्रयोगेप्सितालाभ-दारिद्र्य दौर्भाग्य-दौर्मनस्य-वध-बन्धनाभियोगासमाधि- दुःख संत्रेदनलक्षणः, तथा "माता भूत्वा दुहिता [प्रशमरति १५६ ]" इत्यादि । तथा सर्वस्थानान्यशाश्वतानि संसारिणां संसार इति । धर्मादिद्रव्याणां च परिणामित्वादनन्तपर्यायरूपेण गमनात् तेष्वपि परि नामनित्यतां भावयेत् । (त, भा. सिद्ध. वृ. ७-७ ) । १ द्रव्यों के अनादि और श्रादिमान् (सादि) परिणामों से युक्त प्रादुर्भाव ( उत्पाद), तिरोभाव (व्यय) स्थिति, भिन्नता, परस्पर का उपकार और प्रायोगिक विनाश रूप परिणाम; यह सब जगत् का स्वभाव है । २ देव, मनुष्य, तिथंच और नारकी श्रादि श्रवस्थाओं को जो बार-बार प्राप्त किया जाता है, इसी का नाम जगत् (संसार) है । उसमें प्राणी का इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, इच्छित वस्तु का लाभ, दरिद्रता, दुर्भाग्य, दुष्ट विचार, वध, बन्धन, अभियोग और समाधि रूप दुःखों का जो अनुभव होता है; यही जगत् का स्वभाव 1 जघन्य अन्तरात्मा - प्रविरयसम्मादिट्ठी होंति जहण्णा जिदिपयभत्ता । अप्पाणं णिदंता गुणगहणे सुट्टु श्रणुरता || (कार्तिके. १६७ ) । जो जिनेन्द्रचरणों के भक्त होते हुए गुण ग्रहण में अतिशय अनुरक्त रहते हैं और श्रात्म-निन्दा से युक्त होते हैं ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टियों को जघन्य अन्तरात्मा कहा जाता है । जघन्य अन्तर्मुहूर्त - ग्रावल्युपरि एकः समयोऽधिको यदा भवति तदा जघन्योऽन्तर्मुहूर्तो भवति । ( चारित्रप्रा. टी. १७) ।
एक समय अधिक प्रावलीको जघन्य अन्तर्मुहूर्त कहते हैं ।
४५३, जैन-लक्षणावली
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
जघन्य अपहृतसंयम ४५४, जैन-लक्षणावली
[जङ्घाचारणा जघन्य अपहृतसंयम-प्रासुकवसत्याहारमात्रबाह्य- १ अविरत सम्यग्दृष्टि जीवको जघन्य पात्र कहते साधनस्य, स्वाधीनेतरज्ञान चरणकरणस्य बाह्यजन्तु- हैं। २ शीलवान् मिथ्यादृष्टि पुरुष जघन्य पात्र पनिपातेxxxउपकरणान्तरेच्छया जीवान् परि- कहलाता है । पालयतो जघन्यापहृतसंयमः । (त. वा. ६, ६, १५ जघन्य स्थितिसंक्रम--१. एक्का ठिई जहण्णो त. इलो. ६-६; चा. सा., पृ. ३२)।
अणुद इयाणं निहयसेसा । (पंचसं. सं. क. ४३, पृ. जो प्रासुक वसति और प्राहार मात्र बाह्य साधनों ४८); एकस्याः स्थितेयः सङ्क्रमः स जघन्यसङ्से युक्त होकर ज्ञान, चारित्र एवं अन्य आवश्यक क्रमः, अनुदयवतीनां तु या निहतशेषा जघन्या क्रियाओं में उद्युक्त होता हा बाह्य जीवों का स्थितिः सा जघन्यसक्रम इति । (पंचसं. सं. स्वो. वृ. समागम होने पर मयूरपिच्छ से भिन्न अन्य उपकरण क, ४३)। २. उदयवतीनां प्रकृतीनां समयाधिकाके द्वारा उनका संरक्षण करता है वह जघन्य अपहृत वलिकाशेणयां स्थितौ एकस्याः समयमात्रायाः संयम वाला होता है।
स्थितेयः संक्रमः स जघन्यस्थितिसंक्रमः, अनुदयव. जघन्यपद-अल्पबहत्व-तत्थ अण्णं कम्माणं जह- तीनां पुनः प्रकृतीनां यो निहतशेषा स्थितिरुद्ध []ण्णदव्वविसयमप्पाबहुगं जहण्णपदप्पाबहगं णाम । रति, तस्याः संक्रमे जघन्यः स्थितिसंक्रमः। (पञ्चस. (धव. पु. १०, पृ. ३८५)।
सं. क. ४३, पृ. ४६)। पाठ कर्मों के जघन्य द्रव्यविषयक अल्पबहत्व को १ उदयमें वर्तमान प्रकृतियों स्थिति में को एक समय जघन्य-पद-प्रल्पबहुत्व कहते हैं ।
अधिक प्रावलीकालके शेष रह जाने पर एक समय जघन्यपदमीमांसा-जत्थ पंचण्हं सरीराणं जहण्ण- प्रमाण वाली स्थिति के संक्रमण को जघन्य स्थितिदव्वपरिक्खा कीरदि सा जहण्णपदमीमांसा । संक्रम कहते हैं, तथा उदय से रहित प्रकृतियों की (धव. पु. १४, पृ. ३६७)।
घातने से शेष रही स्थिति के संक्रमण को जघन्य जिस प्रकरण में पांच शरीरों के जघन्य द्रव्य की स्थितिसंक्रम कहते हैं। परीक्षा की जाती है उसका नाम जघन्यपदमीमांसा जङ्गम प्रतिमा--मोक्षगमनकाले एकस्मिन् समये
जिनप्रतिमा जंगमा कथ्यते । (द. प्रा. टी. ३५) । जघन्य पात्र-१. जघन्यमुदितं पात्रं सम्यग्दष्टि- मक्तिगमन के काल में एक समय में अरिहन्तों की रसंयतः । (ह. पु. ७-१०६) । २. जघन्यं शील- मूर्ति को जंगमप्रतिमा कहते हैं । वान् मिथ्यादृष्टिश्च पुरुषो भवेत् । (म. पु. २०, जङ्गलक्षेत्र-जंगलक्षेत्रं नाम त्रसप्रचुरं खादीसम१४०, पुरु. च. ८-१८)। ३. अविरइसम्माइट्री तदादि अन्येषां कर्म राष्ट्र (?) मरुविषय-पारियात्रजहण्णपत्तं तु अक्खियं समये। (भावसं. दे. ४९८)। मालवादि, यत्र प्रचुरं पानीयं नास्ति ।(प्रायश्चित्तस. ४. कुमुदबान्धवदीधितिदर्शनो भवजरामरणातिवि- टी. पृ. ४१६)। भीलुकः । कृतचतुर्विधसङघहितेहितो जननभोगशरी- त्रस जीवों से व्याप्त और प्रचुर जल से रहित क्षेत्र रविरिक्तधीः ।। भवति यो जिनशासनभासकः सतत. को जंगलक्षेत्र कहते हैं। जैसे-मारवाड़, पारियात्र निन्दन-गर्हणचञ्चुरः । स्व-परतत्त्वविचारणकोविदो और मालव प्रादि। व्रतविधाननिरुत्सुकमानसः ।। जिनपतीडिततत्त्ववि. जङ्काचारणा-१. चउरंगुलमेतमहिं छडिय गयचक्षणो विपुलधर्मफलेक्षणतोषितः । सकलजन्तुदया- णम्मि कुडिलजाणु विणा। जं वहुजोयणगमणं सा द्वितचेतनस्तमिह पात्रमुशन्ति जघन्यकम् ॥ (अमित. जंघाचारणा रिद्धी ॥ (ति. प. ४-१०३७)। श्रा. १०,३१-३३)। ५.xxxव्रतेन रहित २. अतिसयचरणसमत्था जंघाविज्जाहि चारणा सुदृशं जघन्यम् । (सा.प. २-६७ टि.);Xxx मुणयो । जंघाहि जाति पढमो णीसं कातुं रविकरं अधमम् । सुदृष्टिस्तुXxx ॥ (सा.ध, ५.४४)। वि ।। एगुप्पादेण गतो रुयगवरमितो ततो परिणि६. केवलं यस्य सम्यक्त्वं विद्यते न पुनर्वतम् । यत्तो। वितिएणं गंदीस्सरमिध ततो एति ततितज्जघन्यमिति प्राहुः पात्रं निर्मल बुद्धयः ।। (पू. एणं ।। पढमेण पंडगवणं वितिउप्पातेण णंदणं एति । उपासका. ४७)।
तति उप्पादेण ततो इध जंघाचारणो एति ।। (विशेषा.
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
बननी ]
७८२ - ८४; प्रव. सारो ५६७-६६ ) । ३. भुव उपर्याकाशे चतुरङ्गुलप्रमाणे जङ्घोत्क्षेप-निक्षेपशीघ्रकरणपटवो बहुयोजनशताऽऽशुगमनप्रवणा जङ्घाचारणाः । (त. वा. ३, ३६, ३, चा. सा. पू. ७) । ४. भूमी पुढविकाइयजीवाणं वाह्मकाऊण अणेगजोयणसयगामिणो जंघाचारणा णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ८० ) । ५. जङ्घाभ्यां क्षणार्द्ध योजनशतादिकमक्लेशेन गन्तारश्च जङ्घायां वा अग्रे तिर्यक्कृतायामपि चारणा अप्रतिहतगमना: ( जङ्घाचारणाः ) । ( प्रा. योगिभ. टी. २०, पृ. २०५ ) ६. अपरे – भुव उपरि चतुरङ्गुलप्रमिते श्राकाशे जङ्घानिक्षेपोत्क्षेपनिपुणा जङ्घाचारणाः । (योगशा. स्वो विव. १- ६, पृ. ४१; प्रव. सारो. वृ. ६०१ ) । ७. तत्र ये चारित्र तपोविशेषप्रभावतः समुद्भूतगमनविषयलव्धिविशेषास्ते जङ्घाचारणाः । (श्राव. नि. मलय. वृ. ७०; प्रज्ञाप. मलय. वृ. २१-२७३, पृ. ४२५; नन्दी. मलय. वृ. १३, पृ. १०६) ८. भूम्युपरि चतुरङ्गुलान्तरिक्षगसनं जङ्घाचारणत्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. ३ - ३६) ।
१ जिसके प्रभाव से साधु पृथिवी से चार अंगुल ऊपर प्रकाश में घुटनों के मोड़े बिना बहुत योजन तक गमन करने में समर्थ होता है वह जंघाचारणा ऋद्धि कहलाती है । २ जघाचारण ऋषि रविकिरण को भी निःश्री (फीका) कर एक पांव से रुचकवर द्वीप में जाकर व दूसरे पांव से लौटकर नंदीश्वर द्वीप में श्रा जाता है, वही एक पांव से पाण्डुक वन में जाकर दूसरे पांव से नन्दन वन में श्रा जाता है, फिर तीसरे पांव से अपने स्थान में आ जाता है; यह जंघाचारणा ऋद्धि का प्रभाव है । जननी - जनयति प्रादुर्भावयत्यपत्यमिति जननी । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ५७, पृ. ३८ ) । सन्तान उत्पन्न करनेवाली स्त्री को जननी कहते हैं। जनपद - १. देसस्स एगदेसो जणवप्रो णाम । जहा सूरसेण-गांधार- कासी प्रावतिप्रादयो । (धव. पु. १३, पृ. ३३५) । २. जनस्य वर्णाश्रमलक्षणस्य द्रव्योत्पत्तेर्वा पदं स्थानमिति जनपदः । ( नीतिवा. १६- ५, पृ. १६१) ।
१ देश का एक देश जनपद कहलाता है। जैसेशूरसेन, गान्धार, काशी और श्रवंती श्रादि । २ वर्णाश्रम रूप जनका अथवा द्रव्य की उत्पत्ति का
[ जन्तु
जो पद (स्थान) है उसे जनपद कहा जाता है । जनपद सत्य - १. जनपदसच्चं जघ प्रोदणादि य वुच्चदि य सव्वभासेण । ( मूला. ५ - ११२ ) । २. तत्थ जणवयसच्चं नाम जहा एगम्मि चेव अमिधे प्रत्थे प्रयाणं जणवयाणं विप्पडिवत्ति भवति, ण च तं असच्चं भवति । ( दशवं. चू. पू. २३६ ) । ३. द्वात्रिंशज्जनपदेष्वायनार्यभेदेषु धर्मार्थ-काम-मोक्षाणां प्रापकं यद्वचस्तज्जनपदसत्यम् । (त. वा. १, २०, १२; धव. पु. १, पृ. ११८; चा. सा. पृ. २९ ) । ४. जनपदसत्यं नाम नानादेशभाषारूपमप्यविप्रतिपत्त्या यदेकार्थप्र त्यायनव्यवहारसमर्थमिति । ( दशवं. हरि. वृ. २७३, पृ. २०८ ) । ५. यदार्यानार्थनानात्वनानाजनपदेष्विह । चतुर्वर्गकरं वाक्यं सत्यं जनपदाश्रितम् ।। ( ह. पु. १० - १०४ )। ६. नानाजनपदप्रसिद्धा सुसंकेतानुविधायिनी वाणी जनपदसत्यम् । (भ. श्री. विजयो. ११६३) । ७. नानाजनपदेष्वार्यानार्यभेदेषु यद्वचः । धर्मार्थ-काम-मोक्षादिस्वरूपोपाय देशकम् । प्रत्येकं नियतं सत्यं स्यात्तु जनपदाश्रयम् । धर्मोदयात्मका राजा राणेत्यादि वचो यथा ॥ (श्राचा. सा. ५, ३५-३६ ) । ८. अन्धसि भक्ते चोर इति व्यपदेशो जनपदसत्यम् । ( श्रन. घ. स्वो टी. ४–४७)। ६. जनपदसत्यं नानादेशप्रसिद्धवचनम् । ( भ. प्रा. मूला. ११९३ ) । १०. जनपदे तत्र तत्र देशे व्यवहर्तृ जनानां रूढं यद्वचः तज्जनपदसत्यम् । (गो. जी. मं. प्र, व जी. प्र. टी. २२३) ।
१ सब भाषाओं में जो श्रोदन (भात) श्रादि का भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा निर्देश किया जाता है, यह जनपदसत्य कहलाता है । जैसे- द्रविड़ भाषा में चोर, कर्णाटक में कूल और गौड भाषा में भक्त श्रादि । २ कहने योग्य किसी एक ही अर्थ के विषय में अनेक जनपदों में विरोध के दिखते हुए भी वह असत्य नहीं होता । ३ श्रार्य - श्रनार्य के भेदभूत बत्तीस जनपदों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रापक वचन को जनपदसत्य कहा जाता है । जन्तु - चउगइसंसारे जायदि जणयदि त्ति जंतू । ( धव. पु. १, पृ. १२० ) ; चतुर्गतिसंसारे आत्मानं जनयति जायते इति वा जन्तुः । ( धव. पु. 8, पृ. २२१) ।
१ चतुर्गतिस्वरूप संसार में जो अपनेको उत्पन्न करता है या उत्पन्न होता है उसका नाम जन्तु है ।
४५५, जेन - लक्षणावली
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
जन्तुवध ]
जन्तुवध – जन्तुवधः आत्मनोऽन्येन वा पुरतो जीववधो यदि क्रियते ( तदा जन्तुवधनामान्तरायः ) । (मूला. वृ. ६-७७)।
४५६, जैन-लक्षणावली
प्रहार करते समय यदि अपने सामने अपने या दूसरे के द्वारा प्राणी का घात किया जाता है तो वह जीववध नाम का प्रन्तराय होता है ।
जन्म – १. प्राणग्रहणं जन्म । ( भ. आ. २५) । २. केवलेन शुभकर्मणा केवलेनाशुभकर्मणा मायया शुभाशुभमिश्रेण देव-नारक- तिर्यङ मनुष्य पर्यायेषूत्पत्तिजन्म | (नि. सा. वृ. ६) । ३. जन्म च कर्मवशाच्चतुर्गतिषूत्पत्तिः । ( रत्नक. टी. ६) ।
२ केवल शुभ कर्म, केवल अशुभ कर्म, माया प्रौर शुभाशुभ मिश्र कर्म; इनके द्वारा क्रमश: देव, नारक, तिर्यंच श्रौर मनुष्यों में जो उत्पत्ति होती है उसका नाम जन्म है । जम्बूद्वीप - १. माणुसजगबहुमज्भे विवखादो होदि जंबुदीति । एक्कज्जो पण लक्खच्चिवखंभजुदो सरिसवट्टो || ( ति प ४ - ११ ) । २. तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्रीपः । (त. सू. ३-९) । ३. कथं जम्बूद्वीपः ? जम्बू वृक्षोपलक्षितत्वात् । उत्तरकुरूणां मध्ये जम्बूवृक्षोऽनादिनिधनः पृथिवीपरिणामोऽकृत्रिमः सपरिवारस्तदुपलक्षितोऽयं द्वीप: । (स. सि. ३ - ९ ) । ४. प्रतिविशिष्टजम्बूवृक्षासाधारणाधिकरणत्वाज्जम्बूद्वीपः
I
( त. वा. ३, ७, १; त. इलो. ३-७ ) ; प्रयं हि द्वीप: प्रतिविशिष्टस्य जम्बूवृक्षस्य सपरिवारस्यासाधारणाधिकरणत्वं विभक्ति, नान्ये घातकीखण्डादयो द्वीपास्ततोऽस्य साहचर्यात् जम्बूद्वीप इति संज्ञा अनादिकालप्रवृत्ता । (त. वा. ३, ७, १ ) । ५. तत्रैवास्मिन्न संख्येयसागर द्वीपवेष्टितः । जम्बूद्वीप: स्थितो वृत्तो जम्बूपादपलक्षितः । (ह. पु. ५, २ ) । ६. जंबू जोयणलक्खो वट्टो तदुगुणद्गुणवासेहि || (त्रि. सा. ३०८ ) ।
१ मनुष्यलोक के ठीक मध्य में एक लाख योजन विस्तार वाला समान गोल जम्बूद्वीप है । ३ उत्तर कुरुक्षेत्रों के मध्य में पृथिवीस्वरूप प्रनादिनिधन जम्बवृक्ष स्थित है। उससे उपलक्षित होने से उसका जम्बूद्वीप यह सार्थक नाम है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति - १. जंबूदीवपण्णत्ती तिण्णिल
[ जया
क्ख-पंचवीसपदसहस्सेहि ३२५००० जंबूदीवे जाणाविमणुयाणं भोग- कम्म भूमियाणं प्रणसिं च पव्वद - दह-इ-वेइयाणं वस्सावासाकट्टिमजिणहरादीणं वण्णणं कुणइ । ( धव. पु. १, पृ. ११० ) ; जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ती पंचविशतिसहस्राधिकत्रिशतसहस्रपदायां ३२५००० वर्षधर वर्षा ह्रद चैत्य चैत्यालयभरत रावतगत सरित्संख्याश्च निरूप्यन्ते । (धव. पु. ६, पृ. २०६-७) । २. जबूदीवपण्णत्ती जंबूदीवगयकुलसेल-मेरु- दह - वस्स- वेइया-वणसंड वेंतरावास-महाइयाणं वण्णणं कुणइ । ( जयध. १, पृ. १३३ ) । ३. पंचविशतिसहस्र-लक्षत्रयपदपरिमाणा जम्बूद्वीपस्य अखिलवर्ष वर्षधरादिसमन्वितस्य प्ररूपिका जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति: । ( श्रुतभ. टी. ६) । ४. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः जम्बूद्वीपगतमेरु- कुलशैल - ह्र द वर्ष- वेदिकावनखण्ड-व्यन्तरावास - महानद्यादीनां वर्णनं करोति । (गो. जी. मं. प्र. व जी. प्र. टी. ३६१ ) । ५. जम्बूद्वीपवर्णनाकथिका पंचविंशतिसहस्राधिकत्रिलक्षपदप्रमाणा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति: । (त. वृत्ति श्रुत. १ - २० ) । ६. जंबूदीवे मेरु एक्को कुलसेलछक्क वणसंडा । छव्वीस वीसं च दहावि य वीसं वक्खारणग वस्सा | चोत्तीसं भोगधरा छक्कं वेंतरसुराणमावासा । जंबूसालमलिरुक्खा विदेउ चारि णाहिगिरी || सुष्णणव सुण्णदुगणवत्तरककमेण णईसंखा । वणे दि जंबूदीवा पण्णत्ती पयाणि जत्यत्थि || ( अंगप. १, ५-७, पृ. २७५) ।
१ जिसमें जम्बूद्वीपस्थ भोगभूमि और कर्मभूमि में उत्पन्न हुए नाना प्रकार के मनुष्य तथा दूसरे ( तियंचादि) जीवों का; तथा पर्वत, ब्रह, नदी, वेदिका, वर्ष, श्रावास और प्रकृत्रिम चैत्यालय श्रादि का वर्णन किया गया हो उसे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति कहते हैं ।
जय - स्वपक्षस्य सिद्धिर्जयः । ( प्रमाणमी. २, १, ३१) ।
अपने पक्ष की सिद्धि को जय कहते हैं ।
जया - पूर्वापरविरोधपरिहारेण विना तंत्रार्थकथनं जया । (धव. पु. ६, २५२ ) । पूर्वापरविरोध का परिहार न करके केवल सिद्धान्त के अर्थ का कथन करना, यह जया नाम की वाचना कहलाती है ।
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
जरा ]
जरा - १. जरा वयोहानिलक्षणा । ( ललितवि. पू. १०१; पंचसू हरि वृ. पू. १३; श्रा. प्र. टी. ३६०; प्रव. नि. हरि. वृ. ३४१ व ५६६; ध. बि. मु. वृ. ८-३५; प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-१. पू. ३; सूत्र. मलय. वृ. २- १०८, पृ. २७) । २. जीर्य - न्ति विनश्यन्ति रूप वयोबलप्रभृतयो गुणा यस्यामत्रस्थायां प्राणिनः सा जरा (भ. श्री. विजयो. ७१) । ३. तिर्यङ्मानवानां वयः कृतदेह विकार एव जरा (नि. सा. वृ. ६) ।
1
१ श्रायु की हानि को जरा ( वृद्धत्व ) कहा जाता है । २ जिस श्रवस्था में प्राणी के रूप वय (उम्र) और बल श्रादि गुण जीर्णता को प्राप्त होते हैं उसे जरा कहते हैं । जरायिक जरायिकाः जालवत्प्राणिपरिवरणं विततमांस- रुधिरं जरायुः कथ्यते, तत्र कर्मवशादुत्पत्त्यर्थमाय श्रागमनं जरायः, जरायुरेव जरः तत्र आय: जरायः, जरायो विद्यते येषां ते जरायिकाः पृष्टोदरादित्वात् युलोपः गो-महिषी- मनुष्यादयः सावरणजन्मान: । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १४) । जो विस्तृत मांस व रुधिर प्राणी को जाल के समान वेष्टित करता है उसका नाम जरायु-जर है, इस जरायु में कर्मवश जीव का जो भाय- श्रागमन - होता है वह जराय कहलाता है, वह जराय जिन जीवों के हुआ करता है वे जरायिक कहे जाते हैं । जैसेगाय, भैंस और मनुष्य श्रादि ।
जरायु - यज्जालवत् प्राणिपरिवरणं विततमांससोणितं तज्जरागुः । (स. सि. २-३३; त. वा. २, ३३, १; गो. जो जी. प्र. टी. ८४) । गर्भ में प्राणी के शरीर को श्राच्छादित करने वाला जो विस्तृत रुधिर और मांस रहता है उसे जरायु कहते हैं ।
४५७, जैन - लक्षणावली
जरायुज- देखो जरायिक | १. जरायो जाता जरायुजाः । ( स. सि. २-३३; त. वा. २, ३३, ३; त. इलो. २-३३)। २ यत्प्राणिनामानायवत् जालवत आवरण प्रविततं पिशितरुधिरं तद्वस्तु वस्त्राकार जरायुः, X XX जरायो जाता जरायुजाः । (त. वृत्ति श्रुत. २-३३ ) |
१ जरायु में जो उत्पन्न होते हैं वे जरायुज कहलाते हैं।
च.५८
[जलचारण
जलगता चूलिका - १. तत्थ जलगया दोकोडि णवलक्ख - एऊणणवु इस हस्स- वेसदपदेहि २०६८६२०० जलगमण जलत्थ भणकारणमंत-तंत-तवच्छरणाणि वण्णेदि । ( धव. पु. १, पृ. ११३ ) ; जलगतायां द्विकोटि नवशतसहस्रं कान्नवतिसहस्र-द्विशनपदायां २०६८६२०० जलगमन हेनवो मंत्रोषध तपोविशेषा निरूप्यन्ते । (धव. पु. ६, पृ. २०६ ) । २. तत्थ जलगया जलत्थ भण जलगमण हे भूदमंत-तंत तवच्छ र. ण णं श्रग्गित्यं भण भवरुण मण वणादिकारणपश्रोए चवणेदि । ( जयध. १, पृ. १३९ ) । ३. तत्र कोटिद्वय नवलक्षैकोननवतिसहस्र- शतद्वयपदपरिमा णा जलगमन-स्तम्भनादिहेतूनां मंत्र-तंत्र तपश्चरणानां प्रतिपादिका जलगता । ( श्रुतभ. टी. ६) । ४. त्र जलगता जलस्तम्भन जलगमनाग्निस्तम्भन भक्षण:सन प्रवेशनादिकारणमंत्र-तंत्र तपश्चरणादीनि वर्णयति । (गो. जी. म. प्र. टी. ३६२ ) । ५. तत्र जलगता चूलिका जलस्तम्भन जलगमनाग्निस्तम्भनाग्निभक्षणाग्न्यासनाग्निप्रवेशनादिकारण मंत्र-तंत्र तप श्चरणादीन् वर्णयति । (गो. जी. जी. प्र. टी. ३६२ ) । ६. जलस्तम्भन - जलवर्षणादिहेतुभूतमंत्रतंत्रादिप्रतिपादिका द्विशताधिकन वाशीतिसहस्रनवलक्षाधिकद्विकोटिपदप्रमाणा जलगता चूलिका (त. वृत्ति श्रुत. १-२०) । ७. जलथंभणजलगमण वण्णदि वहिस्स भवखण जं ॥ वेसण सेवण-मतं तंतं तवचरणपमुहवि - हिए | गह गह दुग णव ग्रड णत्र णह दुष्णिपाणि अंककमे || ( अंगप. ३, १-२, पृ. ३०३ ) ।
१ जिसमें जलमें गमन और जलस्तम्भन के कारणभूत मंत्र, तंत्र और तपश्चरण श्रादि का वर्णन होता है उसे जलगता चूलिका कहते हैं । उसमें २०६८६२०० पद होते हैं । जलचाररण- १. अत्रिराहियप्काए जीवे पदखेवहि ज जादि । धावेदि जलहिज्भे स च्चिय जलचारणा रिद्धी || ( ति प ४-१०३६ ) । २. जलमुपादाय बाप्यादिवाकयान् जीवान् प्रविधियन्तः भूमाविव पादोद्धार निक्षेपकुश । जलचारणाः । (त. वा. ३, ३६, ३; चा. सा. पृ. ९७ ) । ३. भूमीए इव जलकाइयजीवाणं पीडम ऊग जलमसंता जहिच्छाए जलगमणसमत्था रिसो जलचारणा णाम । ( षव. पु. ६, पृ. ७६ ) । ४. जल .
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
जलूका (जलौकस्)] ४५८, जन-लक्षणावली
[जाति मुपेत्य वापी-निम्नगा-समुद्रादिष्वप्कायिकजीवानवि- ६. जल्ल इति मल: स एव परीषहो जल्लपरीषहः । गधयन्तो जले भूमाविव पादोत्क्षेप निक्षेपकूशला (उत्तरा. नि. शा. व. ८६, पृ. ८३) । ७. जल्ल: जलचारणाः । (योगशा. स्वो विव. १- प्रव. शरीर-वस्त्रादिमल: । (समवा. अभय व. २२, पृ. सारो. वृ. ६०१)। ५. जलमस्पृश्य जलोपरि गमनं ३६)। ८. सर्वाङ्गमलो जल्लः। (योगिभ. टी. जलचारणत्वम् : (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६)। १३)। ६. जल्ल-धनीभूतमुपर्युपरि शरीरमल जल्लः, १ जिसके प्रभाव स जलकायिक जीवों को विरा- सर्वाङ्गीणमलो वा जल्लः। (भ. प्रा. मूला. ६५)। धना न करके पांवों को उठाते-रखते हुए समुद्र के १ पसीने के प्राश्रय से जो धुलि का समह संलग्न मध्य में दौड़ सकता है वह जलचारण ऋद्धि कह- होता है उसका नाम जल्ल है। ४ कठिनता को लाती है।
प्राप्त हुए मल का नाम जल्ल है। इसको शरीर में जलूका (जलौकस्) समान शिष्य-१. जलुगा धारण करना-उसे दूर करने के लिए स्नान आदि व अदू में तो पिबइ सुसीसो वि सुयनाणं ।। (विशेषा. न करना, इसे जल्लपरीषहजय कहते हैं। १४७८)। २. यथा जलौका: शरीरमदुन्वती रुधिर. जल्लौषधि-१. सेयजलो अंगरयं जल्लं भण्णेत्ति माकर्षति तथा शिष्योऽपि योऽदन्वन् श्रतज्ञानमापि- जीए तेणावि। जीवाण रोगहरणं रिद्धी जल्लोसही वति स जलूकासमानः। उक्तं च – “जलुगाव तम णामा ।। (ति. प. ४-१०७०)। २. स्वेदालम्बनो (अ) दूमितो, पियइ सुसीसोऽवि सुयनाणं ।" (प्राव. रजोनिचयो जल्लः, स प्रोषधिप्राप्तो येषां ते जल्लो. मलय. वृ. १३६, पृ. १४४)।
षधिप्राप्ताः । (त. वा. ३, ३६, ३, चा. सा. पृ. २ जैसे जोंक शरीर को पीड़ा नहीं देती हुई रक्त ६६) । ३. जल्लो अंगमलो बाहिरो, सो प्रोसहितं को पीती है, उसी प्रकार जो शिष्य गुरु को कुछ पत्तो जेसि तवोबलेण ते जल्लोसहिपत्ता । (धव. भी पीड़ा नहीं देते हुए श्रुतज्ञान को ग्रहण करता है पु. ६, पृ. ९६) । ४. जल्लो मलः, स प्रोषधिर्यस्य उसे जलूका समान शिष्य कहते हैं।
स तथा । (प्राव. मलय. व. ६९, पृ. ७८)। अल्प-१. साध्ये परतिरस्कारो जल्पः xxx। २ जल्ल का अर्थ पसीने के प्राश्रय से संचित धूलि(प्रमाणसं. ५५) । २. समर्थवचनं जल्पं चतुरङ्ग विद्- समहरूप मल है। जिस महर्षि का वह मल प्रौषधि बुधाः । (सिद्धिवि. ५-२) ।
को प्राप्त है-रोग को दूर करने वाला है -वह १ साध्य के विषय में दूसरे को तिरस्कृत करना,
जल्लोषधि ऋद्धि का धारक होता है। इसका नाम जल्प है। २ वादी, प्रतिवादी, प्राश्निक जातकल्प-जातकल्पनाम यो गीतार्थः सूत्रार्थऔर परिषत् इन चार बल रूप अंग वाले अथवा तदुभयकुशलः । (व्यव. मलय. व. ४-१६)। चार अवयवों वाले समर्थ वचन को जल्प कहा सूत्र, अर्थ और उभय के पारगामी गीतार्थ साध जाता है।
को जातकल्प कहते हैं। जल्ल-देखो मलपरीषह। १. स्वेदालम्बनो रजो- जाति-१. तासु नरकादिगतिष्वव्यभिचारिणा निचयो जल्ल: । (त. वा. ३, ३६, ३) । २. जल्लो सादृश्येनेकीकृतोऽर्थात्मा जातिः। (स. सि. ८-११ अंगमलो बाहिरो। (धव. पु. ६, पृ. ६६) । ३. जल्ल त. वा. ८, ११, २, भ. प्रा. मूला. २०६६; त.
-धनीभूतमुपर्युपरि प्रचितं शरीरमलं जल्ल इत्यु- वृत्ति श्रुत. ८-११)। २. अव्यभिचारी सादृश्यकीच्यते । (भ. प्रा. विजयो. ६५)। ४. जल्लं कठिन- कृतोऽर्थात्मा जातिः। (त. वा. ८, ११, २; त. तापन्नं मलम्, उपलक्षणत्वात् पङ्क-रजसी च । कायेन श्लो. ८-११)। ३. तत्र मिथ्योत्तरं या (जा)तिः शरोरेण धारयेत् । Xxx मम तु सम्यक् सह- यथाऽनेकान्तविद्विषाम् ।। (प्रमाणसं. ५५; न्या. वि. मानस्य महान् गुण इति मत्त्वा न तदपनयनाय २-२०३) । ४. जाति: मातृसमुत्था। (प्राव. नि. स्नानादि कुर्यात् । (उत्तरा. शा. व. २-३७, पृ. हरि. व, ८३१) । ५. तत्थ जाई तब्भवसारिच्छ१२३) । ५. जल्ल सर्वांगप्रच्छादकं मलम् । (मूला. लक्खणसामण्ण । (धव. पु. १, पृ. १७ ; चेदणाव. १.३१); जल्ल-सर्वांगीण म नमस्नानादिजनित- दिसमाणपरिणामो जाई ण म । (धव. पु. ३, प. प्रस्वदायुद्भवा पीडा । (मूला. व. ५-५८)। २५०); जातिर्जीवानां सदृश परिणामः । (धव. पु.
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
जातिकथा ]
६, पृ. ५१ ) ; जादी णाम सरिसप्पच्चयगेज्झा | ( धव. पु. १३, ५. ३६३) । ६. मातुरन्वयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिधीयते । ( म. पु. ३६-८५) । ७. साधर्म्य - वैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं जाति: [ न्यायसू. १, २, १८ ] ( सिद्धिवि. टी. ५-२, पृ. ३१८, पं. २ ) । ८. प्रचारमात्रभेदेन जातीनां भेदकल्पनम् । न जातिर्ब्राह्मणीयास्ति नियता क्वापि तात्त्विकी ॥ संयमो नियमः शीलं तपो दानं दमो दया । विद्यन्ते तात्त्विका यस्यां सा जातिर्महती सताम् ॥ (धर्मप १७–२४ व २ε) । ६. प्रमाणोपपन्ने साध्ये धर्मे यस्मिन् मिथ्योत्तरं — भूतदोषस्योद्भावयितुमशक्यत्वेनासद्वृषणोद्भावनं सा जातिरिति । ( न्यायवि. विव. २ - २०३, पू. २३३ ) । १०. मातृपक्षो जातिः । ( व्यव. मलय. वृ. १-३३६, पृ. १९ ) ।
१ नरकादि गतियों में जिस निर्बाध सदृशता के द्वारा अनेक पदार्थों में एकरूपता होती है उसे जाति कहा जाता है । ३ मिथ्या उत्तर देने का नाम जाति है । ४ माता के वंश से जाति का प्रादुर्भाव होता है । ५ तद्भव सादृश्यरूप सामान्य का नाम जाति है । जातिकथा - ब्राह्मणीप्रभृतीनामन्यतमाया या प्रशंसा निन्दा वा सा जात्या जातेर्वा कथेति जातिकथा । यथा - घिग् ब्राह्मणीर्धवाभावे या जीवन्ती मृता इव । धन्या मन्ये जने शूद्री: पतिलक्षेऽप्यनिन्दिता: । ( स्थाना. अभय वृ. ४-२८२, पृ. १६९ ) । ब्राह्मण व क्षत्रिय श्रादि जातिविशेष में उत्पन्न हुई किसी एफ स्त्री की निन्दा या प्रशंसा करने को जातिकथा कहते हैं । जैसे- उन ब्राह्मणियों को धिक्कार है जो पति के प्रभाव में मरे हुए के समान जीती हैं। मैं तो उन शूद्र स्त्रियों को धन्य समझता हूं जो लाख पतियों के रहने पर भी अनिन्दित रहती हैं। जातिनाम - १. तन्निमित्तं ( जातिनिमित्तं) जातिनाम (स.सि. ८-११; त. वा. ८, ११, २) । २. जातिनाम यदुदय । दे केन्द्रियादिजात्युत्पत्तिः । (वा. प्र. टी. २०; धर्मसं. मलय. वृ. ६१७) । ३. जातिनाम पंचविध मे केन्द्रियजातिनामादिकारणम् । (अनुयो. हरि. वृ. पू. ६३) । ४. जत्तो कम्म क्खंधादो जीवाणं भूश्रो सरिसत्तमुप्पज्जदे सो कम्मक्खंधो जादिणाम । (घव. पु. ६, पृ. ५१ ); एइंदि य-बेइं दिय-ते इंदिय- चउरिदिय-पंचिदियभावणिवत्तयं
४५६, जैन- लक्षणावली
[जात्याय
जं कम्मं तं जादिणामं । (घव. पु. १३, पृ. ३६३) । ५. इग दुग-तिग- चउरिदियजाई पंचिदियाण पंचमिया । खयउवसमिए भावे हुति हु एया जो श्राह ॥ ( कर्मवि. ग. ८६ )। ६. जातिनाम यदुदयादेकेन्द्रियादिर्भवति । (समवा. अभय, वृ. ४२, पृ. ६३) । ७. जननं जातिरेकेन्द्रियादिशब्दव्यपदेश्येन पर्यायेण जीवानामुत्पत्तिः, तद्भावनिबन्धनभूतं नाम जातिनाम । ( कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. ८५) । ८. जायते जन्यते वा जातिरेकेन्द्रियादिका, यदुदये एकेन्द्रियादिकत्वं भवति जीवस्य तदेकेन्द्रियनाम ॥ ( कर्मवि. पू. व्या. ७१ ) । ६. तथा एकेन्द्रियादानामेकेन्द्रियत्वादिरूप समान परिणामलक्षणमे केन्द्रियादिशब्दव्यपदेशभाक् यत्सामान्यं सा जातिस्तज्जनकं नाम जातिनाम । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३-२६३, पृ. ४६८ ) ।
१ श्रव्यभिचारी सादृश्यस्वरूप जाति के निमित्तभूत कर्म को जातिनामकर्म कहा जाता है । २ जिस कर्म के उदय से जीव एकेन्द्रिय श्रादि जाति में उत्पन्न होता है उसे जातिनामकर्म कहते हैं । जातिब्राह्मण - तपः श्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स: । (म. पु. ३८-४३ ) । तप और शास्त्रज्ञान से रहित ब्राह्मण को जातिब्राह्मण - जन्मत: ब्राह्मण - कहा जाता है, कर्म से नहीं । जातिविद्या - सगमादुपक्खादो लद्धविज्जाम्रो जादिविज्जा णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ७७)। माता के पक्ष (वंश) से प्राप्त होने वाली विद्यायें जातिविद्यायें कहलाती हैं । जातिस्थविर - १. षष्ठिवर्षजातो जातिस्थविरः । ( व्यव. मलय. वृ. १० - ७४६ ) । २. जातिस्थविरा: षष्ठिवर्ष प्रमाणाः । ( श्राव. नि. मलय. वृ. १७६, पृ. १६१) ।
१ साठ वर्ष के वृद्ध को जातिस्थविर कहते हैं । प्रतिङ्गित-जातिहुङ्गितो नीचजातिः कारुको ऽन्त्यजो वा पितृ - मातृशुद्धिविवर्जितो वेश्या दास्यादितनयः । ( मा. वि. १, पू. ७४) । शिल्पी और अन्त्यज ( भंगी श्रादि ) नीच जाति तथा माता-पिता की शुद्धि से रहित वेश्या धौर दासी आदि से उत्पन्न सन्तान को हुङ्गित कहते हैं । जात्यार्य - १. जात्यार्या इक्ष्वाकवो विदेहा हरयो - Sम्बष्ठाः ज्ञाताः कुरवो बुंबुनाला उग्रा भोजा
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
जानुव्यतिक्रम ]
राजन्या इत्येवमादयः । ( त. भा. ३ - १५ ) । २. इक्ष्वाकु ज्ञातिभोजादिषु कुलेषु जाताः जात्यार्याः । (त. वा. ३, ३६, २ ) । ३. इक्ष्वाकवो ज्ञातहरिविदेहाः कुरवोऽपि च । उग्रा भोजा जात्यार्या एवमादयः । (त्रि. श. पु. च. २, ३, ६७४)।
राजन्याश्च
१ इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न, विदेह देश में उत्पन्न, हरिवंशोत्पन्न, श्रम्बष्ठ नाम के देश में उत्पन्न, ज्ञातृवंशोत्पन्न कुरुवंशज, बुंबुनाल, उग्रवंशीय, भोजवंशीय धौर क्षत्रिय इत्यादि जात्यार्य कहलाते हैं । जानुव्यतिक्रम- जानुदघ्नतिरश्चीन काष्ठाद्युपरिलङ्घनम् । जानुव्यतिक्रमः XXX ॥ ( अन. ध. ५–४७) ।
४६०, जेने-लक्षणावली
जानु के बराबर श्राड़े पड़े हुए काष्ठ व पाषाण आदि को लांघ करके श्राहार के लिए जाना, इसे जानुव्यतिक्रम अन्तराय कहते हैं । जान्वधः परामर्श -- स्याज्जान्वधः परामर्श: हस्तेन जान्वधः । ( श्रन. ध. ५ - ४६ ) । श्राहार के समय सिद्धभक्ति करने के पश्चात् हाथ से जान से नीचे के भाग के स्पर्श करने को जान्वध:परामर्श अन्तराय कहते हैं । जाहरूमान शिष्य- जाहक: तिर्यग्विशेषः, तदुदाहरण भावना यथा जाहकः स्तोकं स्तोकं क्षीरं पीत्वा पाश्र्वाणि लेढि तथा शिष्योऽपि पूर्व गृहीतं सूत्रमर्थं वा प्रतिपरिचितं कृत्वा अन्यत् पृच्छति जाहकसमान: । (श्राव. नि. मलय वृ. १३६, पृ. १४४)।
स्पर्शो
जैसे जाहक (साही या सेही ) थोड़ा-थोड़ा दूष काजू-बाजू के भागों को चाटती है, उसी प्रकार जो शिष्य गुरु से उपदिष्ट सूत्र और अर्थ को ग्रहण कर उसे अच्छी तरह स्मरण करके पुनः आगे के सूत्र और अर्थ को गुरु से पूछता है, उसे - जाहक समान शिष्य कहते हैं । जिगोषु -- स्वीकृतधर्मव्यवस्थापनार्थं साघन दूषणाभ्यां परं पराजेतुमिच्छुजिगीषुः । (प्र. न. स. ८- ३ ) । अपने स्वीकृत धर्म को प्रतिष्ठित करने के लिए अपने पक्ष के साधक प्रमाणों से तथा विपक्ष को बाधा पहुंचाने वाले दूषणों से विपक्षी को जीतने के इच्छुक वादी को जिगीषु कहते हैं ।
[ जिन जिघ्रास मररण- घ्राणनिरोध कृत्वा मरणं जिघ्रासमरणम् । (भ. श्री. मूला. २५) ।
नाक बन्द करके — श्वास को रोक कर मरने को जिघ्रासमरण कहते हैं ।
जित - नैस वृत्तिजितम्, जेण संसकारेण पुरिसो भादागमम्मि श्रक्खलियो संचरइ तेण संजुत्तो पुरिसो तब्भावागमो च जिदमिदि भण्णदे । ( धव. पु. ६, पू. २५२ ) ; पडिवखलणेण विणा मंथर गईए सगविसए संचरमाणो कदिग्रणियोगो जिदं णाम । (घव. पु. ε, पू. २६८ ) ; जो अवगयमत्थं सणि सणि चितऊण वोत्तुं समत्थो सो जिदं णाम सुद
| (घव. पु. १४, पृ. ८) । स्वाभाविक वृत्ति का नाम जित है, अर्थात् जिस संस्कार से पुरुष भावागम में निर्बाध गति से संचार करता है उससे युक्त वह पुरुष और वह भावागम भी जित कहलाता है ।
जितमोह - जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुइ प्रा । तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया विति । ( समय प्रा. ३७ ) ।
जो मोह को जीत करके ज्ञा.क स्वभाव से अधिक - उस ते परिपूर्ण - श्रात्मा का अनुभव करता है उस साधु को जितमोह कहते हैं । जितेन्द्रिय - १. जो इंदिये जिणत्त । णाणसहादाधिश्र मुणदि प्रदं । तं खलु जिदिदियं ते भांति जे णिच्छिदा साहू || ( समय प्रा. ३६) । २. जित्वेन्द्रि याणि सर्वाणि यो वेत्त्यात्मानमात्मना । गृहस्थो वानप्रस्थो वा स जितेन्द्रिय उच्यते ॥ ( उपासका. ८५८) ।
१ जो इन्द्रियों को जीत कर ज्ञानस्वभाव से अधिक -- तत्स्वरूप -- श्रात्मा को जानता है उसे जितेन्द्रिय कहते हैं ।
जिन - १. जिदको ह-माण माया जिदलोहा तेण ते जिणा होंति । (मूला. ७-६४; श्राव. नि. १०७६ ॥ २. राग-द्वेप - कषायेन्द्रिय परीषहोपसर्गाष्ट प्रकार कर्मजेतृत्वाज्जिना: । ( श्राव. सू. हरि. वृ. २- १, पु. ४६४; मलय. वृ. पू. ५६२ ) । ३. तत्र राग-द्वेषकषायेन्द्रिय परीषहोपसर्ग-घातिक मंजेतृत्वाज्जिनाः । (ललितवि. पृ. ५६; दशवं. नि. हरि. वृ. १-१४)। ४. तथा रागादिजेतारो जिना: । ( ललितवि. पु. ६० ) । ५. जिनेन्द्रो देवता तत्र रागद्वेषविवर्जितः ।
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिन ]
हतमोहमहामल्लः केवलज्ञान-दशनः । सुरासुरेन्द्रसंपूज्यः सद्भूतार्थोपदेशकः । कृत्स्नकर्मक्षयं कृत्वा संप्राप्तः परमं पदम् ।। ( षड्द. स. ४५-४६ ) । ६. रागादिजेतृत्वाज्जिनः । (अनुयो हरि वू. पू. ६२) । ७. जि जये, अस्य श्रीणादिक-नकप्रत्ययान्तस्य जिन इति भवति, रागादिजयाज्जिन इति । ( नन्वी. हरि. बृ. पू. ६ ८५ इति ध्यानाग्निनिर्दग्धकर्मेन्धनचयो जिनः । बभावुद्भूतकैवल्यविभवो विभवोद्भवः ।। (म. पु. २० - ६६ )। ६. आवरणमोहजयाज्जिनाः । (भ. प्रा. विजयो. ३) । १०. राग-द्वेषादयो येन जिता कर्म - महाभटाः । कालचक्रविनिर्मुक्तः स जिनः परिकीर्तितः ॥ (प्राप्तस्व. ३१) । ११. काम-क्रोधादिदोषजयेनाऽनन्तज्ञानादिगुणसहित जिन: । (बृ. द्रव्यसं. १४) । १२. जियकोहो जियमाणो जियमायालोह जियमयो । जियमच्छरो य जम्हा तम्हा णामं जिणो उत्तो ॥ ( धर्म र. १३५) । १३. अनेकभवगहन विषयव्यसनप्रापण हेतून् कर्मारातीन् जयतीति जिन: । (पंचा. का. जय. वृ. १, पृ. ४) । १४. अनेक जन्माटवीं प्रापणहेतून् समस्त मोह रागद्वेषादीन् जयतीति जिन: । (नि. सा. बृ. १ ) । १५. जयति रागद्वेषमोहस्वरूपानन्तरङ्गान् रिपूनिति जिन इति । (ध. बि. मु. वृ. १-३) । १६. रागादिजेतृत्वाज्जिनः । (योगशा. स्वो विव. ३-१२४)। १७. जयन्ति रागादिशत्रूनभिभवन्ति जिना: । ( प्रज्ञाप मलय. वृ. १-१, पू. ३); जिना जितरागादिशत्रवः । (प्रज्ञाप मलय. वृ. ३६-३४७, पृ. ६०५ । १८. साकल्येनेकदेशेन कर्मारातिजितो जिना । ( प्रतिष्ठासा. १-१) । १६. रागादिशत्रून् जयति स्म (इति) जिन: । ( जीवाजी. मलय वृ. १-१) । २०. जिनो
कविषमभवगन व्यसनप्रापण हेतून् कर्मातीन् जयतीति जिनः । ( भावप्रा. टी. १५१; जिनसह श्रुत. वृ. १ - १ ) । २१. स्वभावज्ञानजामर्त्यविहिताऽतिशयान्वितः । प्रातिहार्येरनन्तादिचतुष्केन युतो जिन: । ( धर्मसं. श्री. १०-११४) । २२. Xx X जिनः कर्मारिशातनात् । (लाटीसं. ४ - १३१; पंचाध्या. २ - ६०९ ) ।
१ जिन्होंने क्रोधादि कषायों को जीत लिया है वे जिन कहलाते हैं ।
जिनकल्प, जिनकल्पिक
जितराग-द्वेष-मोहा
४६१, र्जन-लक्षणावली
[जिनदेव
उपसर्ग परीषहा रिवेगसहाः जिना इव विहरन्ति इति जिनकल्पिका: । (भ. प्रा. विजयो. १५५, पृ. ३५६ ) । २. सो जिणकप्पो उत्तो उत्तमसंहणणघारिस्स ॥ जत्थण कंटयभग्गो [ग्गे ] पाये णयणम्मि रयपविट्ठम्मि । फेडंति सयं मुणिणो परावहारे य तुहिक्का ॥ जलव रिसणवायाई गमणे भग्गे य जम्म छम्मासं । अच्छति निराहारा काम्रोसग्गेण छम्मासं ॥ प्यारसंगवारी एग्राई घम्म सुक्कझाणी य । चत्तासेस कसःया मोणवई कंदरावासी ॥ बहिरंत रगंथचुवा णिण्णेहा णिष्पिहा य जइवइणो । जिण इव विहरंति सया ते जिणकप्पे ठिया सवणा ॥ ( भावसं. दे. ११६-२३) ।
१ राग, द्वेष व मोह के विजेता होकर उपसर्ग और परीषहों के सहन करने वाले जो साधु जिनदेव के समान विहार करते हैं उन्हें जिनकल्पिक कहते हैं । २ जिनकल्प उत्तम संहनन धारी के होता है। इस जिनकल्प में स्थित मुनि जन कांटे से पांव के विध जाने पर उसे स्वयं नहीं निकालते, दूसरे के द्वारा निकाले जाने पर मौन धारण करते हैं, वर्षा के पात या संभावात के कारण गमन के भग्न होने पर छह मास तक कायोत्सर्ग के साथ निराहार रहते हैं, ग्यारह अंगों के वे धारक होते हैं, धर्म व शुक्ल ध्यान में रत रहते हैं, कषायों से रहित होते हुए मौनव्रती होते हैं, गुफाओं में निवास करते हैं, तथा निःस्पृह रहते हुए बाह्य व अभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह से रहित होते हैं । जिनदेव - १. सो देवो जो प्रत्थं धम्मं कामं सुदेइ णाणं च । सो देइ जस्स प्रत्थि दु प्रत्थो धम्मो य पव्वज्जा ।। धम्मो दयाविसुद्धो पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता । देवो ववगयमोहो उदयकरो भव्वजीवाणं ।। ( बोघप्रा. २४-२५) । २. निःशेषदोषनिर्मुक्तो मुक्ति-कान्तास्वयम्वरः । लोकालोकोल्ल सज्ज्ञानो देवोsस्तीह जिनेश्वरः ॥ ( जिनद. च. ४ - ६५ ) । ३. कल्याणातिशयं राढघो नवकेवललब्धिमान् । समस्थितो जिनो देवः प्रातिहार्य पतिः स्मृतः । ( प्राप्तस्व. ५८ ) । ४. क्लेश कर्म विपाकाशरपरामृष्टः पुरुषविशेषो देवः । (नीतिवा. २५, ६६) । ५. विराग केवलालोकविलोकितजगत्त्रयः । परमेष्ठी जिनो देवः सर्वगीर्वाणवन्दितः ॥ ( धमप. १८- ७३, पृ. २५८ ) । ६. णिदा विसादहीणो जो
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिनमुद्रा
४६२, जन-लक्षणावल
[जिह्वन्द्रियव्यञ्जनावग्रह
सुर-मणुएहिं पूजिदो णाणी। प्रदृद्धकम्मरहिदो सो जिनरूपता-देखो जिनमुद्रा। त्यक्तचेलादिसङ्गदेप्रो तिहयणे सयलो ।। जो कल्लाणसमग्गो अइसय- स्य जनीं दीक्षामुपेयुषः । धारण जातरूपस्य यत्त चउतीसभेदसंपुण्णो । वरपाडिहेरसहिदो सो देवो त्स्याज्जिनरूपता ॥ अशक्यघारणं चेदं जन्तूनां होदि सव्वण्हू ॥ (जं. दी. प. १३, ८७-८८)। कातरात्मनाम् । जैन निःसङ्गतामुख्यं रूपं धीरैनि७. दसग्रदोस रहियो सो देवो णत्थि संदेहो । (नि. षेव्यते ॥ (म. पु. ३८, १६०-६१); ततोऽस्य सा.व. ६ उद्.)। ८. निविकल्पश्चिदानन्दः परमेष्ठी जिनरूपत्व मिष्यते त्यक्तवाससः । धारणं जातरूपस्य सनातनः। दोषातीतो जिनो देव: xxx॥ युक्ताचाराद् गणेशिनः ।। (म. पु. ३६, ७८)। (रत्नमाला. ७)। ६. दोषो रागादिचिदभाव: १ वस्त्रादि परिग्रह को छोड़ कर जैनी दीक्षा के स्यादावरणं च कर्म तत् । तयोरभावोऽस्ति निःशेषो साथ दिगम्बर वेष को धारण करना, यह जिनयत्रासो देव उच्यते ॥ (पंचाध्या. २-६०३; लाटी- रूपता या जिनमुद्रा कहलाती है। सं. ४-१२५)।
जिवनचन-सर्वज्ञानां सर्वदर्शिनां वीतरागदबानां १ जो धर्म, अर्थ, काम और ज्ञान को देता है वह वचनं जिनवचनम् । (भ. प्रा. विजयो. ३)। देव कहलाता है। जिसके पास अर्थ, धर्म और सर्वज्ञ, सर्वदर्शी व वीतरागी जिन देव के वचनों का सर्वसंग परित्यागस्वरूप प्रव्रज्या है वही इनको दे जिनवचन कहते हैं। सकता है। ऐसा देव-जिन देव-मोह से रहित जिह्वेन्द्रिय-फासिदियावरणसव्वधादिफयाणमु(वीतराग) होता हा भव्य जीवों के अभ्युदय- दयक्खपण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदयोवसमेण इस लोक सम्गन्धी उत्कृष्ट सुख के साथ मुक्ति- वा देसघादिफद्दयाणमुदएण जिभिदियावरणस्स सुख-का कारण होता है। ३ जो कल्याणरूप सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण अतिशयों से सम्पन्न होकर केवलज्ञान दर्शनादि रूप अणुदोबसमेण वा देसघादिफयाणमदएण चक्खुनौ केवललब्धियों से विभूषित होता हा पाठ सोद-धाणिदियावरणाणं देसधादिफयाणमुदधक्खप्रतिहायो से अधिष्ठित होता है उसे देव माना एण तेसिं चेव संतोवसमेण अणुदोवसमेण वा गया है।
सम्वधादिफयाणमुदएण खग्रोवसमियं जिभिदियं जिनमुद्रा-१. दढसंजममुद्दाए इंदियमुद्दा कसाय- समुप्पज्जदि । (धव. पु. ७, पृ. ६४)। दढमहा। मुद्दा इह णाणाए जिणमुद्दा एरिसा स्पर्शन-इन्द्रियावरण और जिहा-इन्द्रियावरण के भणिया ।। (बोधप्रा. १९)। २. चत्तारि अंगुलाई सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय से, उन्हीं के सदवपुरो ऊणाई जत्थ पच्छिमनो। पायाणं उस्सग्गो स्थारूप उपशम अथवा अनुदयरूप उपशम से, और एसा पुण होइ जिणमुद्दा ॥ (चैत्यवं. १६)। ३. देशघाती स्पर्धकों के उदय से तथा शेष घ्राण प्रादि चतुरङ्गुलमग्रतः पादयोरन्तर किञ्चिन्यूनं च पृष्ठ इन्द्रियावरणों के देशघाती स्पर्धकों के उदयक्षय व तः कृत्वा समपादकायोत्सर्गेण जिनमुद्रा । (निर्वाणक. उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम अथवा अनुदयरूप १६, ६, ३, पृ. ३३)।
उपशम और सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से जो रस१ दृढ़ संयममुद्रा और ज्ञानमुद्रा के साथ इन्द्रिय- ग्रहण में समर्थ क्षायोपशमिक इन्द्रिय उत्पन्न होती मद्रा-जितेन्द्रियता-और कषायमद्रा--क्रोधादि है उसका नाम जिह्वा-इन्द्रिय है। कषायों के प्रभाव- का नाम जिनमुद्रा है। अभि- जिह्वन्द्रियव्यञ्जनावग्रह - तित्त कडुव कसायांप्राय यह है कि जिस वेष में इन्द्रियों और कषायों बिल-महुरदव्वाणि जिभिदियविसयो। तेसु दम्वेसु को जीतकर संयम में दृढ़ होते हुए शानाभ्यास बउलपत्तसंठाणट्टिदजिभिदिएण बद्ध-पुट-पविग्रंगांमें प्रवृत्ति होती है उसे जिनमुद्रा (जिनलिंग) गिभावगदसंबंधमुवगदेसु जं रसविण्णाणमुप्पज्जदि कहते हैं। २ दोनों पांवों के मध्य में प्रागे चार । सो जिभिदियवंजणोग्गहो। (धव. पु. १३, पृ. अंगल का और पीछे इससे कुछ कम अन्तर करके २२५) । स्थित होते हुए जो उत्सर्ग (कायोत्सर्ग) किया तीखे, कडवे, कषायले, आम्ल और मधुर रस वाले जाता है, यह जिनमुद्रा होती है ।
द्रव्य जिह्वा-इन्द्रिय के विषय हैं। बद्ध, स्पृष्ट पार
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिह्वेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहावरणीय] ४६३, जैन- लक्षणावली
[जीव
के
प्राप्त हुए उक्त द्रव्यों के विषय में बकुल वृक्ष पत्ते के आकार में स्थित जिह्वा इन्द्रिय के द्वारा जो रस का ज्ञान उत्पन्न होता है, वह जिह्वा इन्द्रियव्यञ्जनावग्रह कहलाता है । जिह्वेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहावररणीय - तस्स (जिभिदियवंजणोग्गहस्स) जमावारयं कम्मं तं जिम्भिदिवंजणोवग्गहावरणीयं । (धव. पु. १३, पृ. २२५)।
प्रविष्ट होकर अंग-अंगिभावगत सम्बन्ध को जिह्वेन्द्रियेहाज्ञान - जिब्भिदिएण रसमादाय कि मुत्तो किममुत्तो कि दुस्सहाओ किमदुस्सहाओ कि जच्चतरमावण्णो त्ति विचारपच्चयो जिभिदिय गदहा । ( धव. पु. १३, पृ. २३१) । जिह्वन्द्रिय के द्वारा रस को ग्रहण करके क्या वह मूर्त है या अमूर्त, क्या दु:स्वभाव है या प्रदु:स्वभाव है अथवा क्या जात्यन्तर अवस्था को प्राप्त है; इस प्रकार के विचार के प्राश्रित जो ज्ञान होता है उसका नाम जिह्वन्द्रिय-ईहाज्ञान है ।
जिह्वा - इन्द्रियव्यञ्जनावग्रह के प्रावारक कर्म को जिह्वेन्द्रियेहावरणीय - तिस्से ( जिब्भिदियगदजिह्वा इन्द्रियव्यञ्जनावग्रहणीय कहते हैं । ईहाए) प्रवारयं कम्मं जिब्भिदिय-ईहावरणीयं जिह्वेन्द्रियार्थावग्रह- उक्कस्सखग्रोव समगदजि- णाम । ( धव. पु. १३, पृ. २३१ ) । भिदियादो एत्तियमद्धाणमंतरिय द्विददव्वस्स रस- जिह्वन्द्रिय ईहाज्ञान के श्रावरक कर्म को जिह्व द्रिविसयं जं णाणमुपज्जदि सो जिब्भिदियप्रत्थोग्गहो -हावरणीय कहते हैं । णाम । ( धव. पु. १३, पृ. २२८ ) । उत्कृष्ट क्षयोपशम को प्राप्त हुई जिह्वा इन्द्रिय से इतने श्रध्वान का अन्तर करके-संज्ञी पंचेन्द्रिय श्रादि जीवों में यथासम्भव उक्त इन्द्रिय के विषयभूत क्षेत्र की दूरी पर स्थित द्रव्य के रसविषय का जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसका नाम जिह्वन्द्रिय- अर्थावग्रह है । जिह्वेन्द्रियार्थावग्रहावर खोय-त - तस्स (जिब्भिदियत्थोग्गहस्स) जमावारथं कम्मं तं जिब्भिदियप्रत्थोग्गहावरणीयं णाम । ( धव. पु. १३, पृ. २२८) ।
जातव्यवहार- असुह - कम्म मल-मइलियस्स परमविसोहणं जीयववहारं ति । ( जीतक. चू. १, पृ. २)। अशुभ कर्मरूपी मैल से होने वाली मलिनता को श्रतिशय शुद्ध करना — उसे दूर करना, इसका नाम जीतव्यवहार है ।
जिद्रिय श्रर्थावग्रह के श्रावारक कर्म को जिह्व - न्द्रिय अर्थावग्रहावरणीय कहते हैं । जिह्वेन्द्रियावायज्ञान - जिभिदिय-ईहाणाणेण अवगलगाव भबण एगवियप्पम्मि उप्पण्णणिच्छो जिब्भिदिय-अवाम्रो णाम । ( धव. पु. १३, पृ. २३२) । जिह्वन्द्रिय ईहाज्ञान से जाने गये हेतु के बल से किसी एक ही विकल्पविषयक जो निश्चयात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है उसका नाम जिह्न न्द्रियश्रवायज्ञान है । जिह्वेन्द्रियावायावरणीय- --तस्स (जिब्भिदिय अवायणाणस्स) प्रवारयं कम्मं जिब्भिदिय-श्रावायावरणीयं णाम । (घव. पु. १३, पृ. २३२ ) । जिह्वन्द्रिय श्रवायज्ञान के श्रावारक कर्म को जिह्व ेद्रियवायावरणीय कहते हैं ।
जोव - १. जीवो त्ति हवदि चेदा उवश्रोगविसेसिदो पहू कत्ता । भोत्ता य देहमत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो ॥ (पंचा. का. २७) । २. पाणेहि चदुहि जीवदि जीवस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं । सो जीवो पाणा पुण पुग्गलदव्वेहि णिव्वत्ता ॥ (पंचा. का. ३०; प्रव. सा. २५५ ) । ३. उवयोगमप्रो जीवो XXX। ( प्रव. सा. २ - ८३ ) । ४. चेदणभावो जी XXX ॥ ( नि. सा. ३७) । ५. उपयोगो लक्षणम् । (त. सू. २ - ८ ) । ६. सामान्यं खलु लक्षणमुपयोगो भवति सर्वजीवानाम् 1 ( प्रशमर. १-६४) । ७. चेतनालक्षणो जीवः । ( स. सि. १-४) । ८. औपशमिकादिभावयुक्तो द्रव्यं जीवः । ( त. भा. १ - ७ ) ; ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवाः । (त. भा. ९० - ६ )। ६. X XX जीवो उवग्रोगलक्खणो । नाणेणं दंसणेण च, सुहेण य दुहेण य ॥ नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा । वीरियं उवः श्रोगो य एवं जीवस्स लक्खणं || ( उत्तरा २८, १०-११ ) । १०. प्रमाता स्वान्यनिर्भासी कर्ता भोक्ता विवृत्तिमान् । स्वसंवेदनससिद्धो जीवः क्षित्याद्यनात्मकः ।। ( न्यायाव. ३१) । ११. जीवि - ष्यन्ति च जीवन्ति जीवा यच्चाप्यजीविषुः
37
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीव] ४६४, जैन-लक्षणावली
[जीव (वसंगच. २६-७)। १२. त्रिकालविषयजीवनानु- षयपरिच्छेदिनोऽतीतानागतवर्तमानेषु समानकतृ कभवनात् जीवः । दशमु प्राणेषु यथोपात्तप्राणपर्यायेण क्रियाः तत्फल भुजः अमूर्तभावाः । (त. भा. सिद्ध. त्रिषु का लेषु जीवनानुभवनात् जीवति अजीवीत् व. १-४); प्रौपशमिकादिभावयुक्तो द्रव्यं जीवः । जीविष्यति इति वा जीव: । (त. वा. १, ४, ७); (त. भा. सिद्ध. वृ. २-१); जीवो ज्ञानचेतनास्वभावत्वात्तद्विकल्पलक्षणो जीवः। xxx दर्शनोपयोगस्वभावः । (त. भा. सिद्ध. ५-८); यत्सनिसानादारमा ज्ञाता दृष्टा कर्ता भोक्ता च द्रव्य-भावप्राणरजीवन् जीवन्ति जीविष्यन्ति चेति भवति तल्लक्षणो जीवः ।। (त. वा. १, ४, १४)। जीवाः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ७-२०); जीवास्तु १३. अप्रत्यक्षः सुषप्नादी बुद्धः प्रत्येकलक्षणः। जीव- ज्ञान-दर्शनोपयोगलक्षणाः। (त. भा. सिद्ध. बु.१०, तीति पत: मोय जीव प्रात्मोपयोगवान् ।। (न्याय- ६, पृ. ३००)। २४, त्रिकालजीवनाज्जीवाः । वि. २-५३, पृ. ८७) । १४. प्राप्त व्यक्ति-तिरो- (प्राचारा. शो. वृ. ५१, पृ. ६४; न्यायाव. वृ. ३१)। भावो जीव: सिद्वः प्रतिक्ष गम् । स स्वापादिप्रबो. २५. जीवाश्च प्राणधारणलक्षणाः । (सूत्रकृ. शी. य. धात्माऽनादिः संसारमुज्झति ।। (सिद्धिवि. ७-८, २,१, १३); जीवा उपयोगलक्षणा:। (सूत्रकृ. शी. पृ. ४६०)। १५. पुखदुःखज्ञानोपयोगलक्षणो जीवः। वृ. २, ५, १३)। २६. जीवो प्रणाइणिच्चो उव(प्राव. नि. हरि.व. १०५७, पृ. ४६४; त. भा. प्रोगसंजुदो देहमित्तो या कत्ता भोत्ता चेत्ता ण हु हरि. व.१-४)। १६. जीवो प्रणाइणिहणो नाणा. मुत्तो सहाव उड्ढगई। (भावसं. दे. २८६)। २७. वरणाइकम्मसंजुतो। (श्रा. प्र. ८); जीवतीति चैतन्यलक्षणो जीवास्तिकाय एवेह जीवः । (पंचा. जीवः । (श्रा. प्र. टी. ७)। १७. जीवो प्रणादि. का. अमृत. वृ. १०८)। २८. अनाद्यनन्तमचलं णिहणोऽमतो परिणामी जाणतो कता। मिच्छत्ता- स्वसंवेद्यमिदं स्फुटम् । जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चदि-कतस्स य णियकम्मफलस्स भोत्ता उ ॥ (धर्मसं. चकचकायते (समय. क. २-९) । २६. अन्यासाहरि. ३५); धम्मा अवगहादी धम्मी एतेसिं जो स धारणा भावाः पञ्चोपशमिकादयः । स्वतत्त्वं यस्य जीवो तु । तप्पच्चक्खत्तणतो पच्चक्खो चेव तो तत्त्वस्य जीवः स व्यपदिश्यते । (त. सा. २-२): अस्थि ।। (धर्मसं. हरि. ४६)। १८. तत्र ज्ञानादि- अनन्यभूतस्तस्य स्यादुपयोगो हि लक्षणम् । (त. सा. धर्मेभ्यो भिन्नाभिन्नो विवृत्तिमान् । शुभाशुभकर्म- २-६)। ३०. किं जीवा उवसमाइएहि भावेहि कर्ता भोक्ता कर्मफलस्य च ।। चैतन्यलक्षणो जीवः संजुयं दव्वं । (पंचसं. च. २-३२, पृ. ४३)। xxx। (षडदस. ४५-४६, पृ. १३८) । ३१.कि जीवा:? उपशमादिभिर्भावःसंयतं द्रव्यम। १९. जीवदि जीविस्सदि पुव्वं जीविदो त्ति जीवो। (पंचसं. च. स्वो. ५.२-३५, पृ. १३)। ३२. चेत(धव. पु. १, पृ. ११६); ववगदपंचवण्णो बवगद- नालक्षणो जीवः कर्ता भोक्ता स्वकर्मणाम् । स्थितः पंचरसो ववगददुगंधो ववगदप्रट्रफासो सहमो प्रमत्ती शरीरमानेन स्थित्युपत्तिव्ययात्मकः ।। (चन्द्र. च. अगुरुलहुग्रो असंखेज्जपदेसिनो अणिद्दिट्टसंठाणो त्ति १८-४) । ३३. ज्ञानस्वभावो जीवः । (सिद्धिवि. एवं जीवस्स साहारणलक्खणं । (धव. पु. ३, पृ. व. ७-१२, पृ. ४७०)। ३४. शुद्धनिश्चयनयेन २); चेयणलक्खणं जीवदव्वं । (धव. पु. १५, विशुद्धज्ञान-दर्शनस्वभावं शुद्धचैतन्यं प्राणशब्देनोच्यते, पृ. ३३)। २०. जावदब्वभाविणाण-दसणलक्खणो तेन जीवतीति जीव: । व्यवहारनयेन पुनः कर्मोदयजीवो। (जयध. १. प. ५०); चेतनालक्षणो जीवः। जनितद्रव्य-भावरूपैश्चभिःप्राण: जीवति, जीविष्य(जयध. १, पृ. २१३) । २१. चेतनालक्षणो सो- ति, जीवितपूर्वो वा जीवः। (. द्रव्यसं. २७)। ऽनादिनिधनस्थितिः। ज्ञाता द्रष्टा च कर्ता च भोक्ता ३५. जीवितवान् जीवति जीविष्यति चेति जीवः, देहप्रमाणक: ।। गुणवान् कर्मनिर्मुकावूर्वव्रज्यास्व. प्राणधारणधर्मा प्रात्मा। (स्थाना. अभय. वृ. १, भावकः। परिणनोपसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपबत् ॥ १७, पृ. १३)। ३६. जीवनं जीवो भावप्राणधारण(म. पु. २४, ९२-९३)। २२. उपयोगः स्वरूपम् । मरणधर्मत्वम् । (समवा. अभय. वृ.१०)। ३७. (प्रष्टस. १-१५) । २३. जीवा औपशमिकादिभा- चतुभिः प्राणीवति जीविष्यति जीवितपूर्वो वा बाधिताःसाकारानाकारप्रत्ययलाञ्छनाः शब्दादिवि. जीवः। (पंचा. का. जय.ब. २७); ज्ञान-दर्शन
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीव]
स्वभावो जीवपदार्थ: । (पंचा. का. जय. बु. १०८ ) । ३८. जीवाश्चेतनलक्षणा ज्ञान-दर्शन- सुख-दुःखानुभवनशीला: । (मूला. वू. ५-६ ) । ३६. जीवत्य जीवीजीविष्यतीति जीवश्चिदात्मना । ज्ञाता द्रष्टा जगन्मात्र देशोऽमृतंश्च निर्वृतः ॥ कर्ता स्वकर्मणो भोक्ता तत्फलस्योध्वंगः क्षयात् । तस्य स्वगात्रमात्र
[ जीव- पुद्गलवन्ध
४६५, जैन-लक्षणावली योगसामान्यं स्वरूपम् । ( सप्तभं. पू. ४७) । ५३. उपयोगलक्षणो जीवः । ( प्रमाल. बु. ३०६ ) ।
१ जो चंतव्यपरिणामस्वरूप उपयोग से विशेषता को प्राप्त है उसे जीव कहते हैं। यह (संसारी जीव ) प्रभु - द्रव्य भाव कर्मों के प्रानवादि का स्वामी, कर्मो का कर्ता, भोक्ता, प्राप्त शरीर के प्रमाण, कर्म के साथ होने वाले एकत्व परिणाम की अपेक्षा मूर्त और कर्म से संयक्त है । ६ ज्ञान, दर्शन, सुख और दुख से लक्षित होने के कारण जीव का लक्षण उपयोग है ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, यीयं और उपयोग ( प्रवधानता ), यह जीव का लक्षण है । जीव-उत्तरप्रयोगकरण- देखो जीवप्रयोगकरण । जीवत्व - जीवभावो जीवत्वं स्वार्थिको भावप्रत्य यः । जीव एव जीवत्वमसंख्येयप्रदेशाः चेतनेति । ( त. भा. सिद्ध बु. २- ७ ) ।
जीव का जो लक्षण चेतना है यही जीवत्व है । जीवन- प्राउप्रादिपाणाणं धारणं जीवण । ( धव. पु. १४, पु. १३ ) ।
प्रायु आदि प्राणों के धारण करने का नाम जीवन है ।
जीवनं सृष्टिकी - जीवाज्जीवेन वा हेतुभूतेन वस्तूदकादि निसृजति यस्यां जीवनिपातनात् सा जीवनंसृष्टिकी, अत्र हि राजादिजीवात् - तदादेशादित्यर्थः, तेन वा राजा हेतुभूतेनोदकं यंत्रादिभिः कूपादेराकृष्य निसृजति XXX अथवा जीवे - गुर्वादो, जीवंस्वशिष्यं पुत्रं वा प्रविधिना निसृजति - ददाति यस्यां सा जीवसृष्टिकी । (श्राव. हरि. वृ. हेम. टि. पू. ε४) । जोव से राजा प्रादि के प्रदेश से अथवा जीव के द्वारा यंत्रादि की सहायता से कुएँ से जलादि के निकालने की क्रिया को जीवनंसृष्टिको कहते हैं । प्रथवा विधिके विना गुरु प्रादिके लिए अपने शिष्य या पुत्रके समर्पण करने को जीवन सृष्टिको कहते हैं । जीव- पुद्गलबन्ध मोरालिय- वे उव्विय प्राहारतेय कम्मइयवग्गणाणं जीवाणं जो बन्धो सो जीवपोग्लबन्धो णाम । ( धव. पु. १३, पू. ३४७ ) । प्रौदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण वगंणाओं का और जीवों का जो बन्ध होता है वह जीव- पुद्गलबन्ध कहलाता है ।
स्याद्विसर्पण संहृतेः । (प्राचा. सा ३, ६-१० ) । ४०. स्पर्शन- रसन- घ्राण चक्ष श्रोत्र मनोवाक्कायुरुच्छ्वास निःश्वासाभिधानं दशभिः प्राणः जीवति जीविष्यति जीवति स्म पूत्रों वा जोवः । निश्चयेन भावप्राणधारणाज्जीवः, व्यवहारेण द्रव्यप्राणधारणात् जीवः । (नि. सा. वृ. ९) । ४१. जीवश्चेतनालक्षण: । (भ. प्रा. मूला. ३९; लघीय. प्रभय. व. ३१, पृ. ५२; भा. प्रा. टी. ६५) । ४२. जीवन्तिप्राणान् धारयन्तीति जीवः । (प्रज्ञाप., मलय. व. १, पू. ७) । ४३. तत्र सुख-दुःख- ज्ञानोपयोगलक्षणो जीवः । (श्राव. भा. भलय. व्. १६७, पृ. ५६२ । ४४. जीबति प्राणान् धारयतीति जीवः । ( धर्मसं. मलय. बु. ३५ ) ; यश्चैतेषामवग्रहादिधर्माणां धर्मी स एव जीवः । (घमंसं मलय. वृ. ४६ ); उपयोगादिलक्षणो जीवः । ( धर्मसं. मलय. वृ. १३१) । २४.५. जीवदि जीविस्सदि जो हि जीविदो बाहिरेहि पाहि । श्रभंत रेहि नियमा सो जीवो तस्स परिलामो || ( भा. त्रि. १३) । ४६. जीवितो दशभिः प्राणर्जीविष्यति च जीवति । स जीवः कथ्यते सद्भिर्जीवतत्त्वविदां वरैः । ( भावसं वाम. ३३६) । ४७. ज्ञानादिभेदेनानेकप्रकारा चेतना, सा लक्षणं यस्य स जीवः । (त. वृत्ति श्रुत. १-४) । ४८. दशभिर्द्रव्यप्राणः यथासम्भवं जीवति जीविष्यति जीदितः स जीवः । ( कार्तिके. टी. ३९) । ४६. ववहारेण जीवदि दसपाणेह, णिच्छयणएण य केवलनाण- दंसण-सम्मत्तरूपपार्णोह जीविहिदि जीविदपुब्वो जीवदित्ति जीवो। (अंगप. पू २ε५) । ५०. चेतनालक्षणो जीवो X XX। यतो जीवत्यजी वच्च जीविष्यति च जन्मसु । ततो जीवोऽयमाम्नातः XXX ।। ( जम्बू. च. ३- २५ व २८ ) । ५१. प्राणजीवति यो हि जीवितचरो जीविष्यतीह ध्रुवम् । जीवः सिद्ध इतीह लक्षणबलात् × × × ( अध्यात्मक. मा. ३-२ ) । ५२. जीवस्य तावदुप ब. ५६
-
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
जीवपुद्गलयुति]
४६६, जैन-लक्षणावली [जीवविषया दृशिक्रिया जोव-पद्गलयुति-जीवाणं पोग्गलाणं च मेलणं स्वभाव वाले जीव का जो प्रौपाधिक राग-द्वेष.. जीवपोग्गलजुडी णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३४८)। मोहरूप पर्यायों के साथ एकत्व परिणाम होता है जीवों और पुदगलों के सम्मेलन का नाम जीव- उसे जीवबन्ध कहते हैं। पुद्गलयुति है।
जीवमंगल-तत्र जीवविषयं यथा सिन्धुविषये जोवप्रयोगकरण-१. जीवापयोगकरण दुविहं अग्नेमंगल मिति नाम । (प्राव. मलय. ब. प.६)। मूलप्प प्रोगकरणं च । उत्तरपयोगकरण पंचसरीराइं जीव-विषयक मंगल को जीवमंगल कहते हैं। जैसे पढमंमि ।। पोरालिया इमाई पोहेणियर पयोगग्रो -सिन्धु देश में अग्नि का 'मंगल' यह नाम । जमिह । णिप्फण्णा णिप्फज्ज इ पाइल्लाणं तं तिण्हं॥ जोवमलप्रयोगकरण-देखो जीवप्रयोगकरण । (प्राव. भा. १५८-५९)। २. एतदुक्तं भवति- जीवविचय-'जीवविचयं जीव उपयोगलक्षणो पञ्चानामौदारिकसरीराणामाद्यं सङ्घातकरणं मूल- द्रव्यार्थादनाद्यनन्तोऽसंख्येयप्रदेशः स्वकृतशभाशुभप्रयोगकरणमुच्यते । अङ्गोपाङ्गादिकरण तूत्तरकग्ण- कर्मफलोपभोगी गुणवान् प्रारमोपात्तदेहमात्र: प्रदेशमौदारिकादीना त्रयाणाम्, न तु तेजस-कार्मणयोः, संहरण-विसर्पणधर्मा सूक्ष्मः अव्याघात ऊध्र्वगतिस्वतदसम्भवात् । (प्राव. भा. हरि. वृ. १५८-५, · भाव अनादिक मंबनमनबद्धस्तत्क्षयान्मोक्षभागी इत्याप. ४५८)। ३. जीवन उपयोगलक्षणेन यदौदारि- दिनाम-स्थापना-द्रव्य-भाव-निर्देशादि-सदादि-प्रमाण कादिशरीरमभिनिर्वय॑ते तज्जीवप्रयोगकरणम् । नय-निक्षेपविषय इत्यादि जीवस्वभावानुचिन्तनं वा (उत्तरा. नि. शा.व. ४-१८८, पृ. १६७)। जीवा उपयोगमया अनाद्यनिधना मुक्ते तररूपा जीव१जीवप्रयोगकरण मलप्रयोगकरण और उत्तर प्रयो. स्वरूपचिन्तन जीवविचयः तृतीयं धर्म्यम । (कातिगकरण के भेद से दो प्रकार का है। प्रौदारिक के. टी. ४८२)। प्रादि पांच शरीर सामान्य से प्रथम मलप्रयोगकरण जीव उपयोगमयी है, द्रव्याथिकनय से अनादिहैं। प्रादि के तीन-ौदारिक, वैक्रियिक और अनन्त है, असंख्यातप्रदेशी है, स्वकृत शभाशभ कर्म प्राहारक शरीरों के अंग-उपांग जो प्रयोग से निष्पन्न के फल का भोक्ता है, गणवान है, प्राप्त शरीर के हैं या निष्पन्न किये जाते हैं, यह इतर-जीव प्रमाण है, संकोच-विस्तारस्वभाव वाला है, सूक्ष्म है, उत्तरप्रयोगकरण है।
अव्याघाती है तथा ऊर्ध्वगतिस्वभाव वाला है; जीवप्रादोषिकी-जीवप्रदोषिकी तावत् पुत्र-कल- इत्यादि प्रकार से जीब के स्वभाव के चिन्तवन त्रादिस्व-परजनविषया। (त. भा. सिद्ध वृ. ६-६)। करने को जीवविचय धर्मध्यान कहते हैं। स्त्री-प्रत्रादि स्वकीय वा परकीय जनविषयक जीवविप्रमुक्त-एवमुक्तेन विधिना जोवेनप्रादोषिकी क्रिया को जीवप्रादोषिको कहते हैं। मात्मना विविधमनेकधा प्रकर्षण मक्तं जीवविप्र. जीवबन्ध-१. बंधो जीवस्स रागमादीहिं xx मुक्तम् । तथा चान्य रप्युक्तम् - बघणछेदतणयो x। (प्रव. सा. २-८५)। २. एगसरीरट्रिदाण- आउक्खयउव्व जीवविप्पयजढं । विजढति पगारेणं मणंताणताणं णिगोदजीवाणं अण्णोण्णबंधो सो जीव- जीवणभावद्वितो जीवो।। (प्रनयो. हरि. व. प. बंधो णाम | xxx जेण कम्मेण जीवा अणंता. १४)। जंता एक्कम्मि सरीरे अच्छंति तं कम्मं जीवबंधो जीव के द्वारा विधिपूर्वक जिस शरीर को अनेक गाम । (धव. पु. १३, पृ. ३४७) । ३. यस्तु जीव. प्रकार से छोड़ा गया है वह जीवविप्रमुक्त कहस्यौपाधिकमोह-राग-द्वेषपर्यायरेकत्वपरिणामः स लाता है। केवलजीवबन्धः । (प्रव, सा. ममत. व. २-२५)। जीवविषया दृशिक्रिया-तत्र प्रमादिनो नप२ एक शरीर में स्थित अनन्तानन्त निगोद जीवों निर्याण-प्रवेश-स्कन्धावार-सन्निवेश-नट-तंक मल्लका जो परस्पर बन्ध होता है उसका नाम जीवबन्ध मेष-वृष-युद्धादिष्वालोकनादरो यः सा जीवविषया है, जिस कर्म के निमित्त से अनन्तानन्त जीव एक दृशिक्रिया । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६)। शरीर में रहते हैं उस कर्म को जीवबन्ध कहा प्रमादी मनुष्य के जो राजा का निर्गमन व प्रवेश, नाता है। ३ अमर्त ज्ञान, दर्शन, सुख एवं वीर्यादि सेना का पड़ाव, नट का खेल, नतंक का नृत्य तथा
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
नावसमास |
मल्ल, मेष और बैलों के युद्ध श्रादि के देखने में जो श्रादरभाव होता है; यह जीवविषयक दृशि (दर्शन) क्रिया कहलाती है । जीवसमास -- १. जीवाः समस्यन्तं एष्विति जीवसमासा: । ( धव. पु. १, पृ. १३१ ) । २. जेहि प्रणया जीवा णज्जते बहुविहा वि तज्जादी । ते पुण संगहित्या जीवसमासात्ति विष्णेया ॥ (गो. जी.
७० ) ।
४६७, जंन-लक्षणावलो
१ जीवों का जहां संक्षेप किया जाता है वे (चौदह गुणस्थान) जीवसमास कहलाते हैं । २ जिनके द्वारा अनेक प्रकार के जीवों का और उनकी विविध जातियों का परिज्ञान होता है उन अनेक अर्थो के संग्राहकों को जीवसमास कहते हैं । जीवस्पर्शन क्रिया- तत्र जीवस्पर्शनक्रिया योषित्पुरुष नपुंसकाङ्गस्पर्श नलक्षणा राग-द्वेष-मोहभाजः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६) । राग, द्वेष व मोह के वशीभूत होकर स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक के शरीर के स्पर्श करने की क्रिया को जीवस्पर्शनक्रिया कहते हैं । जीवाजीव विषयबन्ध - जीवाजीवविषयः कर्म-नोकर्मबन्धः । (स. सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, ६) । जीव के साथ कर्म और नोकर्म के बन्ध को जीवाजीवविषय बन्ध कहते हैं । जीवादत्त-जीवादत्तं यत्स्वामिना दत्तमपि जीवेनादत्तम् यथा प्रव्रज्यापरिणामविकलो मातापितृभ्यां पुत्रादिर्गुरुभ्यां दीयते । (योगशा. स्वो विव. १-२२, पृ. १२० ) ।
स्वामी के द्वारा दिया गया भी जो जीव के द्वारा नहीं दिया गया है वह जीवादत्त माना जाता है । जैसे - प्रव्रज्या परिणाम से रहित पुत्रादि को जो माता-पिता गुरु के लिए देते हैं, यह जीवादत्त है। जीवभाग - प्रसव्वावगमो जीवाणुभागो । ( धव. पु. १३, पृ. ३४६) ।
समस्त द्रव्यों के जान लेने की शक्ति का नाम जीवानुभाग है । जीवाप्रत्याख्यानक्रिया - जीवविषये प्रत्याख्याना भावेन यो वन्चादिर्व्यापारः सा जीवाप्रत्याख्यानक्रिया | (स्थाना. अभय वृ. २-६०, पृ. ३८) प्रत्याख्यान का अभाव होने से जो जीव के विषय
[जोविताशस
में बन्धादि व्यापार रूप क्रिया होती है उसे जीवाप्रत्याख्यानक्रिया कहते हैं । जीवित - १. भवधः रणकारणायुगख्य कर्मोदयाद् भवस्थितिमादधानस्य जीवस्य पूर्वोक्तप्राणापानक्रियाविशेषाव्युच्छेदो जीवितम् । ( स. सि. ५-२० ) । २. भवस्थितिनिमित्तायुर्द्रव्यसम्बन्धिनो जीवस्य प्राणापानलक्षण क्रियाविशेषाव्युपरमो जीवितम् । भवधारणकारणमायुराख्यं कर्म तदुदयापादितां भवस्थितिमादधानस्य जीवस्य पूर्वोक्तस्य प्राणापानलक्षणस्य क्रियाविशेषस्याविच्छेदो जीवितमिति प्रत्येतव्यम् । (त. वा. ५, २०, ३) । ३. माउपमाणं जीविदं णाम । ( धव. पु. १३, पु. ३३३ ) । ४. प्राणानां धारणं जीवितम् (भ. श्री. विजयो. २५) । ५. जीवितं प्राणधारणात्भकम् । (उतरा. नि. शा. वृ. ७, पृ. २१७ ) । ६. भवधारणकारणस्य श्रायुकर्मण उदयात् भवस्थिति घरतो जीवस्य प्राणापानक्रियाया: प्रविच्छेदो जीवितम् । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२० ) ।
१ नर-नारकादि भवों में धारण करने के कारणभूत श्रायु कर्म के उदय से भवस्थिति का श्राश्रय लेने वाले जीव की श्वास-उच्छ्वास क्रिया का चालू रहना, इसका नाम जीवित है । जीविताशंसा- १. श्रवश्य हेयत्वे शरीरावस्थानादरो जीविताशंसा । (त. वा. ७, ३७ ३; त. इलो. ७-३७ ); शरीरमिदमवश्यं हेयं जलबुद्बुदवर्दानत्यमस्यावस्थानं कथं स्यादित्यादरो जीविताशंसा प्रत्येतव्या । (त. वा. ७, ३७, ३; चा. सा. पृ. २३) । २. जीवितं प्राणधारणम्, तत्राशंसा अभिलाषो यदि बहुकालं जीवेयमिति । वस्त्र-माल्य पुस्तकवाचनादिपूजादर्शनात् बहुपरिवारदर्शनाच्च लोकश्लाघाश्रवणाच्चैवं मन्यते -- जीवितमेव श्रेयः प्रत्याख्याताशनस्यापि यत एवंविधा मदुद्दशेनेयं विभूतिर्वर्तते इति । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७-३२) । ३. जीविताशंसा शरीरमिदमवश्ययं जलबुद्बुदवदनित्यमित्यादिकमस्मरतोऽस्यावस्थानं कथं स्यादित्यादरः । पूजाविशेषदर्शनात् प्रभूतपरिवारावलोकनात् सर्वलोकश्लाघाश्रवणाच्चैवं हि मन्यते प्रत्याख्यातचतुविधाहारस्यापि मे जीवितमेव श्रेयः, यतः एवंविधा मदुद्देशेन विभूतिर्वर्तते इत्याकांक्षेति यावत् । (सा.प. स्व. टी. ८-४५) । ४. श्राशंसा
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीविताशंसाप्रयोग]
४६८, जैन-लक्षणावलो
.
.
[जैन शासन
जीविते मोहाद् यथेच्छेदपि जीवितम् । यदि जीव्ये तज्जुगुप्सामोहनीयम्, जुगुप्साजनक मोहनायं जुगुप्सावरं तावदोषोऽयं यत्समस्यते। (लाटीसं. ६-२३८)। मोहनीयम्। (प्रज्ञाप. मलय. व. २३-२६३, पृ. १ शरीर अवश्य हेय है फिर भी उसके स्थिर रखने ४६६)। १०. यदुदयादात्मदोषसंवरणम्, अन्यमें प्रादर रखना, यह सल्लेखना का जीवितार्शसा दोषसाधारण सा जुगुप्सा । (भ. प्रा. मला. नाम का एक अतिचार है।
२०६७) । ११. यदुदयात्परदोषानाविष्करोति जीविताशंसाप्रयोग--जीवितं प्राणघारणम्, तत्रा- प्रात्मदोषान् संवृणोति सा जुगुप्सा। (त. वृत्ति भुत. भिलाषप्रयोगः--यदि बहुकालं जीवेयम् इति । इयं ५-६)। च वस्त्र-माल्य-पुस्न वाचनादिपूजादर्शनाद बहुपरि- १ जिस कर्म के उदय से अपने दोषों का संवरण वारदर्शनाच्च लोकश्लाघाश्रवणाच्चंव मन्यते- प्रौर पर के दोषों का प्रकाशन किया जाता है उसे जीवितमेव श्रेयः, प्रत्याख्याताशनस्यापि यत एवं. जुगुप्सा नोकषाय कहते हैं। विघा मदुद्दे शेनेयं विभूतिवर्तते । (श्रा. प्र. टी. जेन कुल-जिनो देवता येषां ते जैनास्तेषां कुलं ३८५; त. भा. हरि. ५.७-३२)।
पूर्वपुरुषपरम्पराप्रभवो वंशः। (सा. घ. स्वो. टी. वस्त्र, माल्य, पुस्तकवाचन प्रादि एवं पूजा को तथा २-२०)।। बहत परिवार को देखकर मोर लोगों के द्वारा की जो जिनदेव को ही अपना इष्ट देव मानते हैं, वे जाने वाली प्रशंसा को सुनकर प्राणघारणस्वरूप जैन कहलाते हैं। उनके कुल को-पूर्वपुरुषों की जीवित के विषय में जो जीवित रहना उत्तम है, परम्परा से उत्पन्न वश को-जैन कल कहते हैं। क्योंकि भोजन का परित्याग कर देने पर भी मेरे
जैन लिग-जघजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं प्राधय से यह वैभव दिख रहा है' इस प्रकार की अभिलाषा होती है उसे जीविताशंसाप्रयोग कहते
सुद्धं । रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्म हवदि लिगं ।। हैं। यह सल्लेखना का एक प्रतिचार है।
मुच्छार भविमुत्त जुत्त उवजोग-जोगसुद्धीहि । लिगं
ण परावेक्ख प्रपुणब्भवकारणं जेण्हं ।। (प्रव. सा. जुगुप्सा-१. यदुदयादात्मदोषसंवरणं परदोषा
३, ५-६) । विष्करणं सा जुगुप्सा। (स. सि. ८-१) । २..
सिद्धि का गमक लिग दो प्रकार का है बहिरंग इन्द्रियाणां च पञ्चानां योऽर्थान् लब्ध्वा मनोरमान् ।
और अन्तरग। उनमें ययाजातरूप-दिगम्बर वेष जुगुप्सते विपुण्यात्मा जुगुप्साकर्मपीडितः ।। (वरांग
--के धारण से उत्पन्न हुमा, शिर और दाढ़ी च. ४-८८) ३. कुत्साप्रकारो जुगुप्सा Xxx
के बालों के लोच से चिह्नित, सर्वसावध की निमात्मीयदोषसवरणं गुगुप्सा । (त. वा. ८, ६, ४) ।
त्तिरूप शुद्धि को प्राप्त, हिसा प्रादि से रहित, तथा ४. चेतनाचेतनेषु वस्तुषु व्यलीककरण जुगुप्सा।
प्रतिकर्म-शरीरसंस्कार-से भी रहित वेष बहिरंग (धा. प्र. टी. १८) । ५. जुगुप्सनं जुगुप्सा। जेसि
लिंग माना जाता है । तथा जो मूर्छा (ममत्व) कम्माणमुदएण दुगुंछा उप्पज्जदि तेसि दुगंछा इदि
एवं प्रारम्भ से रहित, उपयोग-निविकार स्व. सण्णा । (धव. पु. ६, पृ.४८); जस्स कम्मस्स
संवेदन-एवं निविकल्प समाधि की शति से सम्पन्न, उदएण दव्व-खेत्त-काल-भावेसु चिलिसा समुप्पज्जदि
परावलम्बन से विहीन और अपनव-मक्तिप्राप्ति तं कम्मं दुगुंछा णाम । (घव. पु. १३, पृ. ३६१)।
का कारण है; उसे अन्तरंग लिग कहा जाता है। ६. दुग्गंधमलिणगेसु य अभितर बाहिरेसु दन्वेसु । जेण विलीयं जीवे उप्पज्जइ सा दुगुंछा उ ।। (कर्म- जैन शासन--सिद्ध ध्रौव्य-व्ययोत्पादलक्षणद्रव्यसावि.ग.६.)। ७. यदुदयेन शकृदादिबीभत्सपदार्थ. धनम्। जैन द्रव्याद्यपेक्षातः साधनाद्यथशासनम् ॥ भ्यो जुगुप्सते उद्विजते तज्जुगुप्सावेदनीयम् । (कर्म- (ह. पु.१-१)। स्तव. गो. बु. १०, पृ. १६)। ८. यस्योदयेन पुनः जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप लक्षण से युक्त पुरीषादिबीभत्सपदार्येषु जुगुप्सावान् भवति तत् द्रव्य का सापक होकर द्रष्याथिक और पर्यायायिक
जुगुप्सावेदनीयम् । (पर्यसं. मलय. ब. ६१५)। नयों को अपेक्षा से सावि और अनादि भी है, वह .. पदव्याशासनः शुभमशुभ वा वस्तु जुगुप्सते प्रमाणसिक मतगनशासन कहलाता है।
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६६, जन-लक्षणावली [ज्ञशरोर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यश्रुत ज्ञ-जानाति ज्ञास्यत्यज्ञासीदनेन ज्ञ इति स्मृतम् । धिकार के अथवा अनेक अधिकारों के जानने (माचा. सा. ४-२) ।
वाले के शरीर को -जो अचेतन अवस्था को प्राप्त जो वर्तमान में जानता है, भूत में जानता था, और होकर उच्छ्वासादि प्राणों से रहित (च्यत) हमा भविष्य में जानेगा वह ज्ञ (आत्मा) कहलाता है। है या उनसे रहित कराया गया है (च्यावित) इस ज्ञशरीर द्रव्यश्रत-देखों ज्ञगरीरद्रव्यावश्यक । १. प्रकार से जो पाहारादिपरिणतिजनित उपचय से से कि तं जाणयसरीरदब्वसु ? २-पुत्ति पयत्था. रहित हुआ है (त्यक्त), वह चाहे सर्वाग प्रमाण हिगारजाणयस्स जं सरीरय ववगय चुन-चाविन- शय्या पर स्थित हो, चाहे अढ़ाई हाथ प्रमाण संस्तार चत्तदेह तं चेव पुव्वणिग्रं भाणिअव्वं जाव से तं पर स्थित हो, चाहे सिद्धशिलागत हो (जहां जाकर जाणयशरीरदव्वसुग्रं। (अनुयो. सू. ३५) । ३. प्राराधक ने भक्तपरिज्ञादि अनशन को स्वीकार ज्ञातवानिति ज्ञस्तस्य शरीर तदेवानुभूतभावत्वात किया है, करता है, या भविष्य में स्वीकार करेगा द्रव्यश्रतं ज्ञशरीरद्रव्यश्रुतम्, श्रुतमिति यत्पदं तदर्था- वह सिशिला कही जाती है), नषेधिकीगत होधिकारज्ञायकस्य यच्छरीरक व्यपगतादिविशेषणवि. शवस्थापन की भूमि में स्थित हो, जिसे देखकर शिष्टं तज्ज्ञशरीरद्रव्यश्रुतमित्यर्थः। (अनुयो. मल. कोई यह कह सके कि इस शरीर ने जिनदृष्ट भाव हेम. वृ. ३५, पृ. ३३)।
से प्रावश्यक पद को ग्रहण किया है, ज्ञापित कराया श्रुत के अधिकारों के ज्ञाता पुरुष के प्रचेतन च्यत, है व प्ररूपित किया है -- ऐसे ज्ञाता के शरीर को च्यावित या त्यक्त शरीर को (देखो सूत्र १६, पृ. ज्ञशरीरद्रव्यावश्यक कहते हैं। १६-२०) ज्ञशरीरद्रव्यश्रुत कहते हैं।
ज्ञशरीरद्रव्योपक्रम-तत्र यदुपक्रमशब्दार्थज्ञस्य ज्ञशरीरद्रव्य -से कि तं जाणयसरीरदव्वा
शरीरं जीवविप्रमुक्तं सिद्धिशिलातलादिगतं तद भूत. णुपुन्वी ?, प्राणुपुत्वीपयत्थाहिगारजाण यस्स जं
भावत्वात् ज्ञशरीरद्रव्योपक्रमः। (जम्बूद्वी. शा. व. सरीरयं ववगयचुय-चाविय चत्तदेह, सेस जहा दवा
पृ.५; व्यव. भा. मलय. वृ. पृ. १)। बस्सए तहा आणिग्रव्वं जाव से तं जाणयसरीरदब्वा.
उपक्रम शब्द के अर्थ के ज्ञायक पुरुष के सिद्ध शिलाणुपुवी। (अनुयो. सू. ७२, पृ. ५१-५२)।
तल प्रादि को प्राप्त च्यत, च्यावित या त्यक्त मानपूर्वी पद के अधिकारों के जानने वाले पुरुष
शरीर को ज्ञशरीरद्रव्योपक्रम कहते हैं। के अचेतन च्युत, च्यावित या त्यक्त देह को ज्ञशरीरद्रव्यानपूर्वो कहते हैं।
जशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यश्रत-से कि ज्ञशरीरद्रव्यावश्यक-१. से किं तं जाणयशरीर
तं जाणयसरीर-भविग्रसरीरव इरित्तं दध्वसुग्रं ?, २दवावस्सय? २-यावस्सएत्ति पयत्था हिगारजाणय
पत्तय-पोत्थयलिहिलं, अहवा जाणयसरीर-भविप्रससस ज सरीरयं ववगयचुत-चावित-चत्त देहं जीवविप्प
रीरव इरित्त दब्बसुमं पंचविहं पण्णत्तं । तं जहाजहँ सिज्जागयं वा संथारगयं दा निसाहियागयं वा अंडयं बोडयं कीडय बालयं वागयं। अंडयं हंसगम्भासिद्धसिलातलगयं वा पासित्ता गं कोई भणेज्जा- दि, बोडयं कप्पासमाइ, कीडयं पंचविहं पण्णत्तं । तं ग्रहोणं इमेणं सरीरसमुस्सएण जिणदिठेणं भावेणं जहा-पट्टे मलए अंसुए चीणंसुए किमिरागे ।
H ai Gori Rat बालयं पंचविहं पण्णत्तं। तं जहा-उण्णिए उदिए दंमिश्र निदंसिय उवदंसिय। जहा को दिळंतो?,
मिअलोमिए कोतवे किट्टिसे । वागयं सणमाइ, से तं अयं महकमे पासी, अयं धयक पासी, से तं जाण- जाणयसरीर-भविप्रसरीरवइरित्तं दध्वसुनं।xxx यसरीरदव्वावस्सयं । (अनुयो. सू. १६)। २. ज्ञात- (अनुयो. सू. ३७)। वानिति ज्ञः, तस्य शरीरं उत्पादकालादारभ्य प्रति- ताडपत्र, भोजपत्र, कागज की पोथी अथवा वस्त्र क्षणं शोर्यत इति शरीरम् । तदेवानुभूतभावत्वात् । प्रादि पर लिखे हुए श्रुत को ज्ञशरीर-भव्यशरीरद्रव्यावश्यक ज्ञशरीरद्रव्यावश्यकम् । (अनुयो. हरि. व्यतिरिक्त द्रव्यश्रुत कहते हैं । सुत्त (सत्र) का अर्थ वृ. पृ. १४)।
डोरा भी होता है, उसे लक्ष्य में रखकर विकल्प प्रावश्यक पद के वाच्यभूत शास्त्र के अर्थरूप अर्था- रूप में यह भी यहां कहा गया है-अथवा उक्त
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञातभाव]
४७०, जैन-लक्षणावली
ज्ञातृधमकथा.
द्रव्यसूत्र अण्डज, बोण्डज, कीटज, बालज और परिमाणा तीर्थकराणा गणघराणां च कथोपकथावल्कज के भेद से पांच प्रकार का है।
प्रतिपादिका ज्ञातृकथा । (श्रुतभ. टी. ७, पृ. १७३)। ज्ञातभाव-१. अयं प्राणी हन्तव्य इति ज्ञात्वा २. तीर्थकर-गणघरकथाकथिका पटपंचागत्सहस्राप्रवृत्तितिम् । (स. सि. ६-६)। २. ज्ञातमात्रं घिकपंचलक्षपदप्रमाणा ज्ञातृकथा । (त. वत्ति श्रुत. ज्ञात्वा वा प्रवृत्ततिम् । 'हिनस्मि' इत्यसति परि- १-२०)। णामे प्राणव्यपरोपणे ज्ञातमात्र मया व्यापादित इति १जो अग तीर्थकर और गणधरों की कथा उपायानों ज्ञातम्, अथवा 'अय प्राणी हन्तव्यः' इति ज्ञात्वा का निरूपण करता है उसे ज्ञातकथा कहा जाता है। प्रवृत्तेः ज्ञातमित्युच्यते । (त. वा. ६, ६, ३)। उसके पदों का प्रमाण पांच लाख पचास हजार है। ३. ज्ञातस्य भावो ज्ञातभावः । ज्ञातमस्यास्तीति अर्शा- ज्ञातधर्मकथा-१. ज्ञातृधर्मकथायां पाख्यानोदिपाठादेव ज्ञात आत्मा, ज्ञानादुपयुक्तस्य तस्य यो पाख्यानानां बहुप्रकाराणां कथनम् । (त. वा. १, भावः परिणाम: स ज्ञातभावः-अभिसन्धाय प्राणा- २०, १२)। २. णायधम्मकहाणाम अग पचलक्खतिपातादौ प्रवृत्तिः। (त. भा. सिद्ध. वृ.६-७)। छप्पण्णसहस्सपदेहिं ५५६००० सुत्तपोरिसीसु तित्थ४. हनिष्यामि एतं पुमांसमिति ज्ञात्वा प्रवर्तनं यराणं घम्मदेसणं गणहरदेवस्स जादसंसयस्स सदेहज्ञातम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-६)।
छिदणविहाणं बहुविहकहानो उवकहाम्रो च वण्णे१ इस प्राणी को मारना है, इस प्रकार जानकर दि । (धव. पु. १, पृ. १०१-२); ज्ञातृधर्मकथा. जो प्रवृत्ति होती है, इसका नाम ज्ञात है। ३ ज्ञात यां सपंचलक्षषट्पंचाशत्सहस्रपदायां ५५६००० सूत्रशब्द से प्रात्मा अभिप्रेत है, ज्ञान से उपयोगयुक्त पौरुषीषु भगवतस्तीर्थकरस्य ताल्वोष्टपुटविचलनप्रात्मा के परिणाम को ज्ञातभाव कहते हैं। तात्पर्य मन्तरेण सकलभाषास्वरूपदिव्यध्वनिधर्मकथनविधानं यह है कि अभिप्रायपूर्वक जो हिंसा आदि में प्रवृत्ति जातसंशयस्य गणधरदेवस्य संशयच्छेदनविधानमाहोती है उसे ज्ञातभाव समझना चाहिए।
ख्यानोपाख्यानानां च बहुप्रकाराणां स्वरूप कथ्यते । ज्ञाताधर्मकथा-देखो ज्ञातृधर्मकथांग । १. से कि (धव. पु. ६, पृ. २००)। ३. नाथः त्रिलोकेध्वरातं नायाधम्मकहामो? नायाधम्मकहासु णं नायाणं णां स्वामी तीर्थक र परमभट्टारकः, तस्य धर्मकथा नगराई उज्जाणाई चेइमाइ वणसंडाहं समोसरणाइं जीवादिवस्तुस्वभावकथनम्, घातिकर्मक्षयानन्तरकेरायाणो अम्मापियरो धम्मायरिया धम्मकहानो x वलज्ञानसहोत्पन्नतीर्थकरत्वपुण्यातिशयविजम्भितम. xx अंतकिरिश्रानो अपाघविज्जति । xx हिम्नः तीर्थंकरस्य पूर्वाह्न-मध्याह्नापराह्रार्घ रात्रंषु ४।(नन्दी. स. ५०, पृ. २३०)। २. ज्ञातानि षट्पट्धटिकाकालपमन्तं द्वादशगणसभामध्ये स्वभाउदाहरणानि, तत्प्रधाना धर्मकथाः ज्ञाताधर्मकथाः। वतो दिव्यध्वनिरुद्गच्छति, अन्यकालेऽपि गणधर(नन्दी. हरि. वृ.पृ. १०३)। ३. ज्ञाता दृष्टान्ता- शक्र-चक्रधरप्रश्नानन्तरं चोद्भवति, एवं समुद्भूतो स्तानपादाय धर्मो यत्र कथ्यते ता: ज्ञाताधर्मकथाः। दिव्यध्वनिः समस्तासन्नश्रोतृगणानुत्तमक्षमादिलक्षणं (त. भा. सिद्ध. व. १-२०)। ४. ज्ञातानि उदा- रत्नत्रयात्मक वा धर्म कथयति । अथवा ज्ञातुर्गणहरणानि, तत्प्रधाना धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथा xx घरदेवस्य जिज्ञासमानस्य प्रश्नानुसारेण तदत्तरx अथवा प्रथमश्रुतस्कन्धो ज्ञाताभिधायकत्वात् वाक्यरूपा घर्मकथा तत्पृष्टास्तित्व-नास्तित्वादिज्ञातानि, द्वितीयस्तु तथैव धर्मकथाः, ततश्च ज्ञातानि स्वरूपकथनम् । अथवा ज्ञातृणां तार्थकर-गणधरच धर्मकथाश्च ज्ञाताथर्मकथाः। (समवा. अभय. चक्रवर्यादीनां धर्मानुबन्धिकथोपकथाकथनं नाथधर्म. १४१, पृ. १०८)।
कथा ज्ञातृधर्मकथा नाम वा षष्ठमलम। (गो. जी. १ जिस अंगभुत में उदाहरणभूत पुरुषों के नगर, म.प्र. व जी. प्र. टी. ३५६)। उद्यान एवं चैत्य यादि का कथन किया जाता है २ जिस अंगश्रुत में पांच लाख छप्पन हजार उसे ज्ञाताधर्मकथा कहते हैं। इसमें उदाहरणों की (५५६०००) पदों के द्वारा सूत्रपौरुषियोंप्रधानता से धर्म क. कथन किया जाता है। सिद्धान्तोक्त स्वाध्यायकाल-में तीर्थंकरों ज्ञातृकथा-१ षट्पंचाशत्सहस्राधिकपंचलक्षषद- को धर्मदेशना, सन्देहयुक्त गणधरवेव के
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञान]
सन्देह के नष्ट करने की विधि और वहुत प्रकार की कथोपकथानों की प्ररूपणा की जाती है उसका नाम ज्ञातृधर्मकथांग है ।
।
५. जं जह थक्कउ
अप्प
कर उ
ज्ञान - १. जं जाणइ. तं णाणं x x x । (मोक्षप्रा. ३७) । २. x x x विसे सिय णाण । ( सम्मति. २- १ ) । ३. जाणइ तिकालसहिए दव्वगुण- पज्जए बहु-भेत् । पच्चवखं च परोक्खं प्रणेण णाण त्ति ण विनि । (प्रा. पंचसं. १-११७; गो. जी. २६६ ) । ४. अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विनाच विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमामिनः । ( रत्नक. ४२ ) दव्वु जिय तं तह जाणइ जो जि । भावडउ णाणु मुणिज्जइ सो जि ।। (परमात्र. २ - २९ ) । ६. पदार्थावबोधो ज्ञानम् । (त. वा. ६, पृ. १); तत्त्वार्थावबोधो ज्ञानम् । (त. वा. ६, ७, ११) । ७. तथा प्रधान विशेषमुपसर्जनीकृतसामान्यं च ज्ञानम् । ( ललितवि. पृ. ६३ ) । ८. ज्ञानावरणक्षय-क्षयोपशमसमुत्थः तत्त्वावबोधो जानम् । ( त. भा. हरि. वृ. १- १ ) ; विशेषावबोधो ज्ञानम् । ( त. भा. हरि. वू. २-६ )। ६. सविशेषं पुण णाणं XXX ॥ ( धर्मसं. हरि. १३६४) । १०. तत्त्वसंवेदनं चैव ज्ञानमाहुर्महर्षयः ॥ ( ज्ञानाष्टक ६ - १ ) । ११. भूतार्थप्रकाशकं ज्ञानम् । ( धव. पु. १, पृ. १४२ ) ; सद्भावविनिश्चयोपलम्भकं ज्ञानम् । X X X तत्त्वार्थोपलम्भकं ज्ञानम् । (घव. पु. १, पृ. १४३ ) ; सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं ज्ञानम् । (घव. पु. १, पृ. १४७ ) ; प्रकाशो ज्ञानम् । ( धव. पु. १, पृ. १४६ ) ; यथार्थ - श्रद्धानुविद्वावगमो ज्ञानम् । ( धव. पु. १, पृ. ३६३); यथायथं प्रतिभासितार्थं प्रत्ययानुविद्धावगमो ज्ञानम् । ( धव. पु. १, पु. ३६४ ) ; स्वस्माद् भिन्नवस्तुपरिच्छेदनं ज्ञानम् । ( धव. पु. १, पृ. ३८३ ) ; जानाति परिच्छिनत्ति जीवादिपदार्थानिति ज्ञानम् । (घव. पु. ६, पृ. १४२ ); बाह्यार्थपरिच्छेदिका जीवशक्तिर्ज्ञानम् । (घव. पु. १३, पृ. २०६) । १२. आकारवच्च विज्ञानम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. २-६ ) ; ज्ञानं हिताहितप्राप्ति परिहारविषयो बोधः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७-६ ) । १३. श्रात्मनो विषयाकारपरिणतिर्ज्ञानं तदावरणक्षयोपशमजनितम् । (भ. प्रा. विजयो. ४ ) ; प्रपेतमिथ्यात्वक लंकस्यात्मनो वस्तु
४७१, जैन - लक्षणावली
[ज्ञान
तत्वपरिज्ञानं ज्ञानम् । (भ. प्रा. विजयो १६ ) ; तद्- ( वस्तु-) याथात्म्यावगमो ज्ञानम् (भ. मा. विजयो. १५८ ) । १४. तज्ज्ञानं यत्र नाज्ञानम् ××× (श्रात्मानु. ४६; उपासका २६१; जम्बू. च. ४ - १५ ) 1 १५. साकारं हि भवेज्ज्ञानम् x x x । (त. सा. २ - १० ) ; साकारमिष्यते ज्ञानम् XX X 11 (त. सा. २ - ११ ) ; तत्त्वार्थस्यावबोधो हि ज्ञानं XX X I (त. सा. २ - ८३ ) । १६. विशेषग्राहि ज्ञानम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. ४० ) । १७. मोह- सन्देहविभ्रान्तिवजितं ज्ञानमुच्यते । ( उपासका ५ ) । १८. समाधीन्द्रियद्वारेण विप्रकृष्ट सन्निकृष्टावबोधो ज्ञानम् । ( नीतिवा. ६ - ६ ) । १६ गुण पर्यंयवद् द्रव्यं प्रोव्योत्पाद व्ययात्मकम् । तत्त्वतो ज्ञायते येन तज्ज्ञानं कथ्यते जिनैः । (पंचर्स. श्रमित. २१३ ) । २०. त्रिकालगांचरानन्तगुणपर्यायसंयुताः । यत्र भावा: स्फुरन्त्युच्चैस्तज्ज्ञानं ज्ञानिनां मतम् ॥ (ज्ञाना. ७- १)। २१- यद् द्रव्यं यथास्थितं सत्तालक्षगमुत्पाटव्यय ध्रौव्यलक्षणं वा गुण-पर्यायलक्षणं वा सप्तभङ्ग्यात्मक वा तत्तथा जानाति य आत्मसम्बन्धी स्वपरपरिच्छेदको भाव: 'परिणामस्तत् संज्ञानं भवति । अयमत्र भावार्थ:- व्यवहारेण सविकल्पावस्थायां तत्त्वविचारकाले स्व-परपरिच्छेदकं ज्ञानं भण्यते । निश्चयनयेन पुनर्वीतरागनिर्विकल्पसमाघिकाले बहिरुपयोगी यद्यप्यनीहितस्तथापी हापूर्वक विकल्पाभावाद् गोणतत्त्वमिति कृत्वा स्वसंवेदनमेव ज्ञानमुच्यते । (परमा. व. २-२६, पू. १६४-६५) । २२. तत्त्वप्रकाशकं ज्ञानम् × × × । ( चन्द्र च १८ - १२४) । २३. ज्ञानं तत्त्वप्रकाशनम् । (मूला. वृ. ५-२) । २४. ज्ञानं विशेषावबोध: । ( श्रपपा. अभय. व. १०, पू. १५) । २५. ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्तेऽर्था श्रनेनास्मिन्नस्माद्वेति ज्ञानम्, ज्ञान-दर्शनावरणयोः क्षयः क्षयोपशमो वा, ज्ञातिर्वा ज्ञानम् - आवरणद्वयक्षादाविर्भूत आत्मपर्ययविशेषः सामान्य-विशेषात्मके वस्तुनि विशेषांशग्रहणप्रवणः सामान्यांशग्राहकश्च ज्ञानपञ्चकाज्ञानत्रयदर्शनचतुष्टय रूपः । ( स्थाना. अभय वृ. ४३, पृ. २१); ज्ञानं हि द्रव्य - पर्यायविषयो बोध: । ( स्थाना. श्रभय. वृ. ३, १८७ ) । २६. ज्ञानं पुनः हेयोपादेयवस्तुविभागनिश्चयः । (ध. वि. मु. वृ. १-४६ ) । २७. ज्ञानं स्यान्नूतनात्मार्थ व्यवसायनिराकृतिः । (प्राचा. स.
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञान]
४ - २ ) । २८. ज्ञातिर्ज्ञानम्, XX X ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्त्वनेनास्मादस्मिन्वेति वा ज्ञानम् जानाति स्वविषयं परिच्छिनत्तीति वा ज्ञानम्, ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशम-क्षयजन्यो जीवस्वतत्त्वभूतो बोध इत्वर्थः । ( अनुयो. मल. हेम. वृ. १, पृ. २) । २६. ज्ञानं शास्त्राव बोध: । (योगशा. स्वो विव. ३ – १६ ) ; ज्ञानं हेयोपादेयवस्तुविनिश्चयः । (योगशा. स्वो. विव. ६ - ५४) । ३०. ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानम् - सामान्य विशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोध: । ( प्रव. सारो वृ. १२४६, पृ. ३५६) । ३१. विशेषविषयं ज्ञानम् । ( श्राव. नि. मलय. व. ६७७ ) ; ज्ञायते यथावस्थितं वस्त्वनेनेति ज्ञानम् । (प्राव. नि. मलय. १०७२ ) ; विशिष्टग्रहणं ज्ञानम् । ( श्राव. नि. मलय. १०६०) । ३२. ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम् - सामान्य विशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मकोऽवबोधः । ( षडशी. मलय. बु. १२, पू. १८ ) । ३३. ज्ञायतेऽर्थो विशेषः पतयाऽनेनेति ज्ञानम् । ( धर्मसं. मलय. वृ. ६०७ ), सवि शेषं पुनः सामान्याकारमुत्सृज्य विशेषरूपतया पुनस्तेषामेव घटादिविशेषाणां ग्रहो ज्ञानम् । ( धर्मसं. मलय. वृ. १३६४) । ३४. ज्ञायते वस्तु परिच्छिद्यतेऽनेनेति ज्ञानम् । ( व्यव. मलय. वृ. ३) । ३५. सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोधो ज्ञानम् । ( कर्मस्त. गो. वृ. पृ. १० ) । ३६. साकारं च विशेषगोचरमिति ज्ञानं XXX। ( प्रतिष्ठासा. २-६० ) । ३७. ज्ञानं स्वार्थ निर्णयः । (भ. श्री. मूला. १-२ ) । ३८. यदा तु प्रात्मनः सकाशात् प्रात्मानं जानाति तदा ज्ञानं भष्यते । (श्रारा. सा. टी. ९) । ३६. साकारं ज्ञानम्, XX X वस्तुनो विशेषपरिज्ञानं ज्ञानम् । (त. वृत्ति श्रुत. २ - ९)। ४०. स्वाऽपूर्वार्थद्वयोरेव ग्राहकं ज्ञानमनेकशः । (पंचाध्या. २-३६७) । ४१. जेण जाणामि अप्पाणं, आवी वा जत्ति वा रहे । अज्जयारि अणज्जं वा तं गाणं श्रयलं ध्रुवं ।। (ऋषिभा. ४ - ५ ) । १ जो जानता है वह ज्ञान कहलाता है । ३ तीनों erefore बहुत भेदयुक्त द्रव्य, गुण और पर्यायों को जो प्रत्यक्ष व परोक्षरूप से जानता है उसका नाम ज्ञान है । ७ जो सामान्य को गौण कर विशेष की प्रधानता से वस्तु को ग्रहण करता है उसे ज्ञान कहा जाता है ।
४७२, जैन - लक्षणावली
[ज्ञानदान
ज्ञानकुशील - १. नाणे नाणायारं जो उ विराहेइ कालमाईयं । ( प्रव. सारो. ११० ) । २. ज्ञानाचारं कालादिकं यो विराधयति स ज्ञाने ज्ञानविषये कुशील इति शेषः । इदमुक्तं भवति - काले विजये बहुमाणे उवहाणे तह अनिण्हवणे । वंजण-प्रत्थतदुभये श्रदृदिहो नाणमायारो || १ || इत्य मुमष्टविघं ज्ञानाचारं यो विराधयति न सम्यगनुतिष्ठति स ज्ञानकुशीलः । (श्राव. हरि. वृ. मल. हे. टि. पृ. ८२ ) । ३. यो ज्ञानाचारं कालादिकं 'काले विणये' इत्यादिरूपं विराधयति स ज्ञाने ज्ञानकुशील उच्यते । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १, पृ. ११७) । १ जो काल-विनयादिरूप प्राठ प्रकार के ज्ञानाचार की विराधना करता है वह ज्ञानकुशील कहलाता है।
ज्ञानचेतना - १ x x x णाणमध एक्को । चेदयदि X XX XX X पाणित्तमदिक्कता गाणं विदति ते जीवा ।। (पंचा. का. ३८-३९ ) । २. अन्यतरे तु प्रक्षालितसकल मोहक लङ्केन समुच्छि - न्नकृत्स्नज्ञानावरणतयाऽत्यन्तमुन्मुद्रितसमस्तानुभावेन
चेतकस्वभावेन समस्तवीर्यान्तरायक्षयासादितानन्तवीर्या श्रपि निर्जीणं कर्मफलत्वादत्यन्तकृतकृत्यत्वाच्च स्वतो व्यतिरिक्तं स्वाभाविक सुख ज्ञानमेव चेतयन्ते इति । (पंचा. का. अमृत. वृ. ३८); केवलज्ञानिनो ज्ञानं चेतयन्ते । (पंचा. का. प्रमृत. वृ. ३९) । ३. एकौ जीवराशिस्तेनैव चेतकभावेन विशुद्धशुद्धात्मानुभूतिभावनाविनाशितकर्म मलकलङ्केन केवलज्ञानमनुभवति । (पंचा. का. जय. वृ. ३८); विशिष्टशुद्धात्मानुभूतिभावनासमुत्पन्नपरमानन्दैक सुखा मृतसमरसीभावबेलन दशविधप्राणत्वमतिक्रान्ता सिद्धजीवास्ते केवलज्ञानं विन्दति । (पंचा. का. जय. व. ३६) । ४. एकवा चेतना शुद्धा शुद्धस्यैकविधत्वतः । शुद्धाशुद्धोपलब्धित्वाज्ज्ञानत्वाज्ज्ञानचेतना । (पंचाघ्या. २ - १६४) ।
१ प्राणों से रहित होकर केवल एक मात्र ज्ञान का ही जो अनुभव किया जाता है उसे ज्ञानचेतना कहते
| ३ मोहनीय, ज्ञानावरण और अन्तराय के क्षीण हो जाने पर कृतकृत्य होकर चेतक स्वभाव से अपने से प्राभन्न स्वाभाविक ज्ञान - केवलज्ञान - का धनुभव करना, यह ज्ञानचेतना का लक्षण है । ज्ञानदान - दानं धर्मानभिज्ञेभ्यो वाचना- देशनादि
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञाननय] ४७३, जैन-लक्षणावली
[ज्ञानप्रवाद ना। ज्ञानसाधनदानं च ज्ञानदानमितीरितम् ।। (त्रि. किन्तु केवलज्ञानमरण और मनःपर्ययज्ञानमरण मनुश. पु. च. १, १, १५४) ।
ध्यक्षेत्र के भीतर ही होता है। धर्म से अनभिज्ञ जीवों के लिए सूत्र व अर्थ के उपदेश ज्ञानपरीषहजय-देखो अज्ञानपरीषहजय। ज्ञानं
आदि तथा ज्ञान के साधनभूत शास्त्रादि के देने को तु श्रुताख्यं चतुर्दशपूर्वाण्येकादशाङ्गानि, समस्तश्रुतज्ञानदान कहते हैं।
घरो ऽहमिति गर्वमुद्वहते, तत्रागर्वकरणात् ज्ञानज्ञाननय-१. णायंमि गिण्हियव्वे अगिहियव्वम्मि परीषहजयः। ज्ञानप्रतिपक्षणाप्यज्ञानेनागमशून्यतया चेव प्रत्थंमि । जइयब्वमेव इह जो उवएसो सो परीषहो भवति, ज्ञानावरणक्षयोपशमोदयविजृम्भिनो नाम । (दशवै. नि. १४६)। २.xxxय तमेतदिति स्वकृतकर्मफलपरिभोगादपैति तपोऽनुउपदेशो ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम, ज्ञान- ष्ठानेन चेत्येवमालोचयतो ज्ञानपरीषहजयो भवति । नय इत्यर्थः । (दशव. नि. हरि. वृ. १४६, पृ.८० (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६)। व २८५) । ३. xxx य उपदेशो ज्ञानप्राधान्य ज्ञान से तात्पर्य चौदह पूर्व और ग्यारह अंगरूप ख्यापन परः स नयो नाम, ज्ञाननय इत्यर्थः। (विशे- श्रुतज्ञान का है। इस ज्ञान के प्राश्रय से 'मैं समस्त
को. व. ४३३६, पृ. ९७६% प्राव. नि. श्रतज्ञान का धारक हैं' इस प्रकार का अभिमान मलय.व. १०६६, पृ. ५८७)। ४. ज्ञानमेव प्रधान- होना सम्भव है, उसे न करना यह ज्ञानपरीषहमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितम्, इत्येव- जय है। मुक्तेन न्यायेन य उपदेशो ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः ज्ञानपुलाक-१. स्खलितादिभिनिपुलाकः । (त. स नयो नाम, ज्ञाननय इत्यर्थः। (अनुयो. हरि. भा. सिद्ध. वृ. ६-४६)। २. स्खलित-मिलितादिभिवृ. पृ. १२७)।
रतिचारानमाश्रित्यात्मानमसारं कुर्वन् ज्ञानपुलाकः । ४'ज्ञान ही इस लोक और परलोक में सुख का प्रधान (प्रव. सारो. व. ७२३, पृ. २१०)। कारण है' इस न्याय के अनुसार ज्ञान के माहा- २ स्खलित (विस्मरण) और मिलित आदि अतित्म्य की प्रधानता के प्रगट करने वाले उपदेश को चारों के द्वारा ज्ञान का प्राश्रय लेकर अपने को ज्ञाननय कहते हैं।
निस्सार-चारित्रहीन- करने वाला साधु ज्ञानज्ञानपण्डित-१. मत्यादिपञ्चप्रकारसम्यग्ज्ञानेषु पुलाक कहलाता है ।। परिणतः ज्ञानपण्डितः। (भ. प्रा. विजयो. २५ ज्ञानप्रवाद-१. पञ्चानामपि ज्ञानानां प्रादुर्भाव२. पञ्चविधज्ञानपरिणतो ज्ञानपण्डितः। (भावप्रा. विषयायतनानां ज्ञानिनाम् अज्ञानिनामिन्द्रियाणां च टी. ३२)।
प्राधान्येन यत्र विभागो विभावित: तज्ज्ञानप्रवादम् । १मति प्रादि पांच प्रकार के सम्यग्ज्ञान में से (त. वा. १, २०, १२)। २. णाणपवादं णाम पूवं यथासम्भव सम्यग्ज्ञान से परिणत जीव को ज्ञान- वारसण्हं वत्थूणं १२ विसदचालोसपाहुडाणं २४० पण्डित कहते हैं।
एगणकोडिपदेहिं पंचणाणाणि तिणि अण्णाणाणि ज्ञानपण्डितमरण-१. ज्ञानपण्डितमरणानि च तेषु वण्णेदि । दव्वट्ठिय-पज्जवट्ठियणयं पडच्च प्रणादि(नरके भवनेषु विमानेषु ज्योतिष्केषु वान-व्यन्तरेषु अणिहण-क्षणादिसणिण सादिणिहण-सादिसणिहद्वीपसमुद्रेषु) एव। मनुष्यलोके एव केवल-मनःपर्यय- णाणि वण्णेदि, णाणं णाणसरूवं च वण्णेदि । ज्ञानपण्डितमरणं भवति । (भ. प्रा. विजयो. २५)। (धव. पु. १, पृ. ११६); पञ्चानामपि ज्ञा२. नरके भवनेषु विमानेषु ज्योतिष्केषु वान-व्यन्तरेषु नानां प्रादुर्भावविषयायतनानां ज्ञानिनामज्ञानिनाद्वीपसमुद्रेषु च ज्ञानपण्डितमरणम् । मनःपर्ययमरणं मिन्द्रियाणां च प्राधान्येन यत्र विभागोऽनाद्यनिघनामनुष्यलोक एव मरणम् । (भावप्रा. टी. ३२)। नादिसनिधन-साद्यनिधन - सादिसनिधनादिविशेषवि१ज्ञानपण्डित के मरण को ज्ञानपण्डितमरण कहते भावितस्तज्ज्ञानप्रबादम्। (धव. पु. ९, पृ. २०१६)। हैं। यह मरण विमानवासी देवों, नारक, भवन- ३. णाणप्पवादो मदि-सुद-प्रोहि-मणपज्जव केवलवासी, वानव्यन्तर और द्वीप-समद्रों में ही होता है। णाणाणि वण्णेदि। पच्चक्खाणुमाणादिसयलपमा
ल.६०
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञानबाल] ४७४, जन-लक्षणावली
[ज्ञानविनय णाणि अण्ण हाणुववत्तिएक्कलक्खणहे उसरूवं च परू- ज्ञानविनय-१. काले विणए उवधाणे बहुमाणे वेदि । (जयध. १, प. १४१)। ४. एकोनकोटि- तहेवणिण्हवणे । वंजण प्रत्थ त भए विणो णाणम्मि पदम् अष्टज्ञानप्रकाराणां य[त] दुदयहेतूनां तदाधा- अट्ठविहो ॥ (भ. प्रा. ११३; मूला. ५-१७०)। राणां च प्ररूपकं ज्ञान प्रवादम् EEEEEER I (श्रुत- २. सबहुमानं मोक्षार्थ ज्ञान ग्रहणाभ्यास-स्मरणादिभ. टी. ११, पृ. ९७)। ५. ज्ञानप्रवादं पञ्चमम, निविनय:। (स. सि. ६-२३; त. वा. ६, २३, तस्मिन् मतिज्ञानादिपञ्चकस्य भेदप्ररूपणा यस्मात २; त. श्लो. ९-२३)। ३. तत्थ णाणविणो कृता तस्मात् ज्ञानप्रवादम् । (समवा. अभय. व. सू. पंचविधो-अभिणिबोहियणाणविणो सुतणाणवि१४७, पृ. १२१)। ६. ज्ञानानां प्रवादः प्ररूपणम् णमो प्रोहिणाणविणो मणपज्जवणाणविणो केवअस्मिन्निति ज्ञानप्रवादं पञ्चमं पूर्वम् । तत् मति- लणाणविणग्रो त्ति, से णाणविणो कहं भवइ? श्रुतावधि-मनःपर्यय-केवलानि पञ्चज्ञानानि कूमति- तं जहा-जस्स एतेसु णाणेसु पंचसुवि भत्ती बहकुश्रुत-विभंगाख्यानि त्रीण्यज्ञानानि; स्वरूप-संख्या- माणो वा, जे वा एतेहिं नाणेहिं पंचहिं भावा दिट्टा विषय-फलान्याश्रित्य तेषां प्रामाण्याप्रामाण्यविभाग दीसंति दीसिस्संति वा तेसि सद्दहणत्तं एस णाणविच वर्णयति । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. णमो। (दशवं. चू. १, पृ. २६)। ४. अनल सेन ३६६)। ७. अष्टज्ञान-यदुत्पत्तिकारण-तदाघारपुरुष- शुद्धमनसा देश-कालादिविशुद्धिविधानविचक्षणेन सबप्ररूपकं एकोनकोटिप्रमाणं ज्ञानप्रवादपूर्वम् । (त. हुमानो (चा. सा.-सबहुमानेन) यथाशक्ति निषे. वृत्ति श्रुत. १-२०)।
व्यमाणो मोक्षार्थ ज्ञानग्रहणाभ्यास-स्मरणादिर्ज्ञान१ जिस पूर्वश्रत में उत्पत्ति, विषय, प्रायतन, विनयो वेदितव्यः । (त. वा. ६, २३, २; चा. सा. ज्ञानी जन, अज्ञानी जन और इन्द्रियों की प्रधानता से पृ. ६५)। ५. णाणविणो णाम अभिक्खणभिपांचों ज्ञानों के विभाग का विचार किया गया है क्खणं णाणोवजोगजुत्तदा बहुसुभत्ती पवयणभत्ती वह ज्ञानप्रवादपूर्व कहलाता है। ५ मतिज्ञानादि च । (धव. पु. ८, पृ. ८०)। ६. तत्र ज्ञान विनयः पांच प्रकार के ज्ञानों को प्ररूपणा करने के कारण काल-विनय-बहुमानोपधानादिः। (त. भा. सिद्ध. पांचव पूर्व ज्ञानप्रवाद के नाम से प्रसिद्ध हा है। व.६-२३); अस्मिन् सति ज्ञानादिपञ्चके भक्तिज्ञानबाल-वस्तुयाथात्म्यग्राहिज्ञानन्यूना ज्ञानबा- बहमानो ज्ञानस्वरूपश्रद्धानं तद्विषयं श्रद्धानं च ज्ञानलाः । (भ. प्रा. विजयो. २५; भावप्रा. टी. ३२)। विनयः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ९-२३) ७. ज्ञानवस्तु के यथार्थ स्वरूप के ग्राहक ज्ञान से रहित स्य ग्रहणाभ्यास-स्मरणादीनि कुर्वतः । बहुमानादिभि: जीवों को ज्ञानबाल कहते हैं।
सार्द्ध ज्ञानस्य विनयो भवेत् ।। (त. सा. ७-३२)। ज्ञानबोधि-बोधन बोधि: जिनधर्मलाभ:, ज्ञान- ८. प्रागमाध्ययनं कार्य कृतकालादिशुद्धिना । विनबोधि:-ज्ञानावरणक्षयोपशमसम्भूता ज्ञानप्राप्तिः। यारूढचित्तेन बहमान विधायिना । (अमित. श्रा. (स्थाना. २, ४,१०४, पृ. ६१)।
१३-१०)। ६. णाणे णाणुवयरणे य णाणवंतम्मि तह ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए ज्ञान की य भत्तीए । जं पडियरण कीरइ णिच्चं तं णाणप्राप्ति को ज्ञानबोधि कहते हैं।
विणो हु ।। (वसु. श्रा. ३२२)। १०. द्रव्यादिज्ञानमूढ-ज्ञानमूढा उदितज्ञानावरणा: । (स्थाना. शोधनं वस्तु प्रमाणावग्रहादिकम् । बहुमानः श्रुतज्ञेषु अभय. वृ. २, ४, १०४, पृ. ६१)।।
श्रुतज्ञाऽऽसादनोज्झनम् ॥ वयःशील-श्रुतेनाधिकाज्ञानावरणकर्म के उदययुक्त प्राणियों को ज्ञानमढ़ ___युपाध्यायकीर्तनम् । चाऽनि हवेन ये नायं ज्ञानावरणकहा जाता है।
कारणम् । स्वराक्षर-पद-ग्रन्थाहीनाध्ययनादिकज्ञानमोह-ज्ञानं मोहयति पाच्छादयतीति ज्ञान- म्। स्याज्ज्ञानविनयः सम्यग्ज्ञान-स्वर्मोक्षकारणम् ।। मोहो ज्ञानावरणोदयः। (स्थाना. अभय वृ. २, ४, (प्राचा. सा. ६, ७२-७४) । ११. तत्र सबहुमान १०४, पृ. ६१)।
ज्ञानग्रहणाभ्यास-स्मरणादि ज्ञानविनयः। (योगशा. जो ज्ञान को मोहित-विपरीत-करता है उसे स्वो. विव. ४-६०)। १२. शुद्धव्यञ्जन वाच्यतदज्ञानमोह कहते हैं।
द्वयतया गूर्वादिनामाख्यया योग्यावग्रहधारन समये
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञानविनय] ४७५, जैन-लक्षणावलो
[ज्ञानातिचार तद्भाजि भक्त्यापि च । यत्काले विहिते कृताञ्ज- विभ्रम से रहित-निश्चयात्मक बोध होता है उसे लिपुटस्याव्य ग्रबुद्धेः शुचेः, सच्छास्त्राध्ययनं स बोध- ज्ञानसमय कहते हैं। विनयः साध्योऽष्टधापीष्टदः ।। (अन. प. ७-६७)। ज्ञानाकार - अनुपयुक्तप्रतिविम्बाकारादर्शतलवत् १३. अनलसेन देश-काल-द्रव्य-भावादिशुद्धिकरणेन ज्ञानाकारः। (त. वा. १, ६, ५, पृ. ३४) । बहुमानेन मोक्षार्थ ज्ञानग्रहणं ज्ञानाभ्यासो ज्ञानसंस्म- प्रतिबिम्ब के आकार से रहित शुद्ध दर्पणतल के रणादिकं यथाशक्ति ज्ञानविनयो वेदितव्यः । (त. समान ज्ञान का प्राकार होता है। वृत्ति अत.-२३)। १४. अनलसेन देश-कालादि- ज्ञानाचार-१. काले विणए उवहाणे बहमाणे विशद्धिविधान ज्ञेन सबहमानो यथाशक्ति क्रियमाणो तहेवणिण्हवणे । वंजण प्रत्थ भए णाणाचारो दु मोक्षार्थ ज्ञानग्रहणाभ्यास-स्मरणादिः ज्ञानविनयः। अट्टविहो॥ (मला. ५-७२)। २. काले विणए (भावप्रा. टी. ७८)। १५. ज्ञाने जिनोक्तसिद्धान्ते बहमाणे उवहाणे तह य अनिण्हवणे। वंजण अत्थ द्वादशाङ्ग चतुर्दशपूर्वाणां कालशुद्धया पठनं व्या- तदुभए अट्ठविहो णाणमायारो॥ (दशवे. नि. १८४; ख्यानं परिवर्तनम्, हस्त-पादौ प्रक्षाल्य यत् पठति व्यव. भा. १-६३; पंचाश. ७१३; नन्दी. हरि. वृ. थस्मात् पाठयति तयोः कीर्तनम्, व्यञ्जनशुद्धम्, पृ. ९७ उद्.)। ३. तस्मिन् वस्तुयाथात्म्यग्राहिज्ञाने अर्थशुद्धम्, व्यञ्जनार्थ शुद्धमिति ज्ञाने अष्टप्रकारो परिणतिर्ज्ञानाचारः। (भ. प्रा. विजयो. ४६); विनयः । (कातिके. टी. ४५६); ज्ञाने द्वादशाङ्ग- पञ्चविधे स्वाध्याये वृत्तिर्ज्ञानाचारः। (भ, मा. लक्षणे व्यजनोजितादिना पठन पाठनं वा चिदा. विजयो. व मूला. ४१६)। ४. संशय-विपर्यासाननन्दैकस्वस्वरूपपरिज्ञाने वा ज्ञानविनयः। (कातिके. ध्यवसायरहितत्वेन स्वसंवेदनज्ञानरूपेण ग्राहकबुद्धिः टी. ४५७)।
सम्यग्ज्ञानम्, तत्राचरणं परिणमनं ज्ञानाचारः । २ मोक्ष के निमित्त अतिशय सम्मान के साथ ज्ञान (परमा. वृ. १-७)। ५. ज्ञानाचार:-श्रुतज्ञानको ग्रहण करना, उसका अभ्यास करना और बिषय: कालाध्ययन-विनयाध्ययनादिरूपो व्यवहारोअभ्यस्त विषय का स्मरण रखना; इत्यादि सब ऽष्टधा । (समवा. अभय. वृ. १३६, पृ. १००)। ज्ञानविनय कहलाता है। ६ काल, विनय, बहुमान ६. पञ्चविधज्ञाननिमित्त शास्त्राध्ययादिक्रिया और उपधान आदि रूप पाठ प्रकार के ज्ञानाचार ज्ञानाचारः । (मूला. वृ. ५-२)। का नाम ज्ञानविनय है।
१,२ काल. विनय, उपधान, बहुमान, अनिलव, ज्ञानविराधना-ज्ञानस्य विराधना ज्ञानविराधना व्यञ्जन, अर्थ और तदुभय (दोनों); इन पाठ -ज्ञानप्रत्यनीकता निह्नवादिरूपा। (समवा. अभय. ज्ञानाङ्गों के साथ ज्ञान का अभ्यास करना, इसका वृ. ३, पृ. ७)।
नाम ज्ञानाचार है। ३ वस्तु के यथार्थ स्वरूप के -ज्ञान का अपलाप करना एवं गुरु ग्रहण करने वाले ज्ञान में जो परिणति होती है, आदि के नाम को छिपाना इत्यादिरूप-ज्ञान के इसे ज्ञानाचार कहा जाता है। प्रतिकल पाचरण करने का नाम ज्ञानविराधना है। ज्ञानातिचार-१. अक्षर-पदादीनां न्यूनताकरणम, ज्ञानसमय-१. तेषाम् (पञ्चानामस्तिकाया- अतिवृद्धिकरणम्, विपरीतपौर्वापर्यरचना, विपरीतानाम् ) एव मिथ्यादर्शनोदयोच्छेदे सति सम्यगवायः । थनिरूपणा, ग्रन्थार्थयोर्वपरीत्यम; अमी ज्ञानातिपरिच्छेदो ज्ञानसमयो ज्ञानागम इति यावत् । (पंचा. चारः । (भ. प्रा. विजयो. १६) । २. ज्ञानस्य का. अमृत.व.३) । २. तेषामेव पचानां मिथ्या- [अतिचारा:] द्रव्यादिशुद्धि विनाध्ययनम, वर्ण-पदात्वोदयाभावे सति संशय-विमोह-विभ्रमरहितत्वेन दीनां न्यूनाधिकत्वकरणम, विपरीतपौर्वापर्यरचना. सम्यगवायो बोधो निर्णयो निश्चयो ज्ञानसमयोऽर्थ- विपरीतार्थनिरूपणम् ग्रन्थार्थयोर्वपरीत्यम; सग्देहपरिच्छित्तिर्भावश्रतरूपो भावागम इति यावत् । सन्देहविपर्यासानध्यवसाया वा। (भ, प्रा. मला. (पंचा. का. जय. वृ. ३)। १ मिथ्यात्व के उदय का प्रभाव हो जाने पर पांचों ग्रन्थ के अक्षर और पद प्रादि में कभी करना, अतिअस्तिकायों का जो सम्यक्-संशय, विमोह और शय वृद्धि करना, पूर्वापरविरोधी विपरीत रचना
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञानानुभूति]
[ज्ञानोपयोग
करना, विपरीत अर्थका निरूपण करना तथा ग्रन्थ व अर्थ की विपरीतता करना; ये ज्ञानातिचार हैं । ज्ञानानुभूति - श्रात्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुद्धया । श्रात्मानमात्मनि निवेश्य सुनिःप्रकम्पमेकोऽस्ति नित्यमबबोधनः समन्तात् ॥ ( समय. क. १३) ।
ज्ञानावरणम् । (पंचसं स्वो वृ. ३-११६, पू. ३३) । ६. मइ १ सुय २ श्रोही ३ मण ४ केवलाणि जीवस्स श्रावरिज्जति । जस्स प्पभावश्रो तं नाणावरणं भवे कम्मं ।। ( प्रव. सारो. १२५३) । ७. तत्र ज्ञानावरणं तावत् सामान्य विशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोघो ज्ञानम्, तस्यावरणं
ज्ञानानुभूति कहा जाता है । ज्ञानाराधना - १. सुत्तत्थभावणा वा तेसि भावाणमहिगमो जो वा । णाणस्स हवदि एसा उत्ता
शुद्ध नयस्वरूप जो श्रात्मा का अनुभवन है, इसे ही ज्ञानावरणम् । ( कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. १३) । ८. जन्तोः सर्वज्ञरूपस्य ज्ञानमाव्रियते सदा । येन चक्षुः पठेनेव ज्ञानावरणकर्म तत् ।। (त्रि. श. पु. च. २, ३, ४६५) । ε. ज्ञायतेऽर्थो विशेषरूपतयाऽनेनेति ज्ञानं मतिज्ञानादि, प्राव्रियतेऽनेनेति प्रावरणम् प्रावृणोतीति वा, ज्ञानस्यावरणं ज्ञानावरणम् । ( धर्मसं. मलय. वू. ६०७ ) । १०. ज्ञायते परिच्छि द्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानम्, सामान्य विशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोधः, आव्रियते प्राच्छाद्यते श्रने नेत्यावरणीयम्, ज्ञानस्यावरणीयं ज्ञानावरणीयम् । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३ - २८८, पू. ४५३ ) । ११. निरुणद्धघात्मनो ज्ञानं ज्ञानस्यावरणोदयः । (पंचाध्या २-६८८ ) ।
राहणा सुत्ते ।। (श्रारा. सा. ५) । २. ज्ञानस्य श्रुतस्याराधना — कालाध्ययनादिष्वष्टष्वाचारेषु प्रवृत्त्या निरतिचारपरिपालना ज्ञानाराधना । ( स्थाना. अभय वृ. ३, ४, १६५, पृ. १५० ) । १ सूत्र व श्रर्थ की भावना अथवा जीवादि भावों का जो अधिगम होता है, इसे ज्ञानाराधना कहते हैं । २ नियत काल में अध्ययन आदि ( विनय वहुमानादि) रूप श्राठ प्रकार के ज्ञानाचार में प्रवृत्त होने से जो श्रुतज्ञान का निरतिचार परिपालन होता है उसका नाम ज्ञानाराधना है। ज्ञानावरण, ज्ञानावरणीय - १. श्राब्रियतेऽनेनावृणोतीति वावरणम्, ज्ञानस्यावरणं ज्ञानावरणम् । ( श्रा. प्र. टी. १० ) । २ णाणमवबोहो श्रवगमो परिच्छेदो इदि एठ्ठो । तमावारेदित्ति णाणावरणीयं कम्मं । ( धव. पु. ६, पृ. ६); णाणावारश्रो पोग्गलक्खंधी पवाहसरूवेण श्रणाइबंघणबद्धो णाणावरणीयमिदि भण्णदे । (धव. पु. ६, पृ. ८-8) ; ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयम् । ( धव. पु. १३, पृ. २०६ ) ; सायारो णाणं, तदावारयं कम्मं णाणावरणीयमिदि । ( धव. पु. १३, पृ. २०७ ); ३. ज्ञा
१ ज्ञान के श्रावारक कर्म को ज्ञानावरण कहते हैं । ज्ञानावरणीयवेदना - ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीयं कर्मद्रव्यम्, ज्ञानावरणीयमेव वेदना ज्ञानावरणीवेदना । (घव. पु. १०, पृ. १४) । जो कर्मद्रव्य ज्ञान को प्राच्छादित करता है, उसका नाम ज्ञानावरणीय है, इस ज्ञानावरणीयरूप कर्मद्रव्य को ही ज्ञानावरणीयवेदना कहा जाता है । ज्ञानोपयोग - १. जीवादिपदार्थ स्वतत्त्वविषये सम्यज्ञाने युक्तता ज्ञानोपयोगः । (स. सि. ६-२४) । २. ज्ञानभावनायां नित्ययुक्तता ज्ञानोपयोगः । मत्यादिविकल्पं ज्ञानं जीवादिपदार्थ स्वतत्त्वविषयं प्रत्यक्षपरोक्षलक्षणम् श्रज्ञाननिवृत्त्यव्यवहितफलं हिताहितानुभयप्राप्ति - परिहारोपेक्षाव्यवहितफलं यत्, तस्य भावनायां नित्ययुक्तता ज्ञानोपयोगः । (त. वा. ६, २४, ४) । ३. सागारो णाणोवजोगो । (घव. पु. ११, पू. ३३४) । ४. मत्यादिविकल्पं परोक्ष- प्रत्यक्षलक्षणं ज्ञानम्, तस्य भावनायामुपयुक्तता उपयोग:, ज्ञानस्योपयोगी ज्ञानोपयोगः । (त. सुखबो. ६ - २४ ) । १ जीवादि पदार्थों के स्वरूप को विषय करने वाले सम्यग्ज्ञान में प्रवृत्त रहने को ज्ञानोपयोग कहते हैं । यह षोडशकारण भावनाओंों में एक है । ३ साकार
मायते येन कर्मणा तत् ज्ञानावरणम् । ( त. भा. सिद्ध. वू. ८- २ ) ; ज्ञानावरणं ज्ञानाच्छादनस्वभावं मौलभेदतः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ८-४); ज्ञानमेव बोधलक्षणो विशेषविषयः पर्याय श्रात्मनः, XXX तस्य श्रावरणम्, श्राच्छादनमावृतिः श्रावरणम्, श्राव्रियते वाऽनेनेति भाव- करणयोर्व्युत्पत्तिः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ८-५) । ४. सरउग्गयस सिणिम्मलरस्स जीवस्स छायणं जमिह । नाणावरणं कम्मं पडोवमं होइ एवं तु ॥ ( कर्मवि. ग. १० ) । ५. ज्ञायन्ते जीवादयः पदार्था येन तज्ज्ञानम्, तस्यावरणं
४७६, जैन-लक्षणावली
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञायकशरीर ]
- विशेष पदार्थविषयक उपयोग को ज्ञानोपयोग कहा जाता है । ज्ञायकशरीर - देखो ज्ञशरीरद्रव्यश्रुत | ५. ज्ञातुर्यच्छरीर त्रिकालगोचरं तत् ज्ञायकशरीरम् । ( स. सि. १-५; त. वा. १, ५, ७) । २. ज्ञायको ज्ञो वा, तस्य शरीरं ज्ञायकशरीरं ज्ञशरीरं बा जीवरहितं सिद्धशिलातलगतं निषीधिकागतं वा । (उत्तरा. नि. शा. वृ. २-६६, पृ. ७२ ) । ३. तत्र ज्ञायकशरीरं त्रिकालगोचरं यत् ज्ञातुः शरीरं तत् ज्ञायकशरीरम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-५ ) ।
१ तीनों कालविषयक ज्ञाता के शरीर को ज्ञायकशरीर कहा जाता है । २ जो जानता है वह ज्ञायक श्रथवा ज्ञ कहलाता है, उसके सिद्धशिलागत या निषोधिकागत निर्जीव शरीर को ज्ञायकशरीर श्रथवा ज्ञशरीर कहते हैं । ज्ञायकशरीर अर्हन्- ज्ञायकशरीरार्हन्नाम तत्प्राभृतज्ञस्य त्रिकाल गोचरं शरीरम् । (भ. प्रा. विजयो. ४६)।
श्रत्प्राभूत के ज्ञाता के तीनों कालविषयक शरीर को ज्ञायकशरीर श्रर्हन् कहते हैं । ज्ञायकशरीरद्रव्यकृति - जाणयस्स सरीरं जाणयशरीरं । कस्स जाणो ? कदिपाहुडस्स । कथमेदं नव्वदे ? पयरणवसादो । तदेव दव्वकदी जाणुगसरीरoत्रकदी । (धव. पु. ६, पृ. २६७ ); तस्स कदि - पाहुडजायणस्स चुद-चइद- चत्त देहस्स इमं सरीरमिदि कट्टु, ताणि सव्वसरीराणि जाणुगसरीरदव्वकदी णाम । ( धव. पु. ६, पृ. २७० ) । च्युत, च्यावित अथवा त्यक्तशरीर वाले कृतिप्राभूत के ज्ञाता का जो शरीर है उसे ज्ञायकशरीरद्रव्यकृति कहते हैं । ज्ञायकशरीरद्रव्यानन्त - तत्थ जाणुगतरीरदव्वातं प्रणतपाहुजाणुगसरीरं तिकालजादं । (घव. पु. ३, पृ. १३) ।
अनन्तप्राभूत के ज्ञाता के तीनों कालविषयक शरीर को ज्ञायकशरीरद्रव्यानन्त कहते हैं । ज्ञायकशरीरद्रव्या संख्येय - जं तं जाणुगसरीरदव्वासंखेज्जयं तं श्रसंखेज्जपाहुडजाणुगस्स सरीरं भविय वट्टमाण- ससुज्झादत्तणेण तिभेदमावण्णं ।
( धव. पु. ३, पृ. १२३ ) । असंख्येयप्राभूत के ज्ञाता के भावी, वर्तमान शौर
४७७, जैन-लक्षणावली
[ ज्ञेयाकार
समुज्झित ( त्यक्त) शरीर को ज्ञायकशरीरद्रव्यासंख्येय कहा जाता है । ज्ञायकशरीर - भाविव्यतिरिक्तद्रव्यकृति- -जा सा जाणुगसरीर भविय-वदिरित्तदव्वकदी णाम सा प्रणेयविहा । तं जहा -- गंथिम वाइम - वेदिम-पूरिम- संधादिम-प्रहोदिमणिक्खोदिम- प्रोव्वेलिम उब्वेल्लिमवण्ण- चुण्ण- गंध विलेवणादीणि जे चामण्णे एवमादिया सा सव्वा जाणुगसरीर भवियवदिरित्तदव्वकदी णाम । ( ष. खं. ४, १, ६५ - पु. ६, पृ. २७२) । ज्ञायकशरीर- भाविव्यतिरिक्त द्रव्यकृति अनेक प्रकार की है । जैसे— ग्रन्थिम, वाइम, वेदिम, पूरिम, संघातिम, होदिम, णिक्खोदिम, श्रोवेल्लिम, उब्वेल्लिम, वर्ण, चूर्ण, गन्ध और विलेपन आदि तथा श्रौर भी जो इसी प्रकार के अन्य हैं उन सबको ज्ञायकशरीर- भाविव्यतिरिक्तद्रव्यकृति कहा जाता है । ज्ञायकशरीरभावोजीव - १. भवियंति भवियकाले कम्मागमजाणगो स जो जीवो। जाणुगसरीरभवियं एवं होदित्ति पिट्ठि ।। ( गो . क. ६२ ) । २. यः कर्मागमज्ञायको भाविकाले भविष्यति स जीवो ज्ञायकभाविशरीरं स्यात् । (गो. क. जी. प्र. टी. ६२) ।
१ जो जीव भविष्य में कर्मागम का ज्ञाता होने वाला है उसे ज्ञायकशरीर भावी जीव कहते हैं । ज्ञायकशरीरव्रत - व्रतज्ञस्य शरीरं त्रिकाल गोचरं ज्ञायकशरीरव्रतम् । (भ. प्रा. विजयो. ११८५) । व्रतों के जानने वाले जीव के त्रिकालविषयक शरीर को ज्ञायकशरीरव्रत कहते हैं। ज्ञायकशरीरसिद्ध - ज्ञायकशरीरसिद्धः सिद्धप्राभृतज्ञस्य शरीरं भूतं भवत् भावि वा । (भ. प्रा. विजयो. १); सिद्धप्राभृतज्ञस्य शरीरं ज्ञायकशरीरम् । (भ. प्रा. विजयो. ४६ ) ।
सिद्धप्राभूत के ज्ञाता का तीनों कालों सम्बन्धी शरीर ज्ञायकशरीरसिद्ध कहलाता है ।
ज्ञेय - ज्ञेयं हि वस्तु सामान्य विशेषात्मकमत्र यत् । ( श्राचा. सा. ४-३) । सामान्य विशेषात्मक वस्तु को ज्ञेय कहते हैं । ज्ञेयाकार - प्रतिबिम्बाकारपरिणतादर्शतलवत् ज्ञेयाकारः । (त. वा. १, ६, ५, पृ. ३४, पं. ३०) । प्रतिबिम्ब के आकार से परिणत दर्पणतल के समान ज्ञेय का प्राकार होता है ।
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्येष्ठत्व] ४७८, जैन-लक्षणावली
[झषावत ज्येष्ठत्व-ज्येष्ठत्वं माता-पितृ-ग्रहस्थोपाध्याया- ज्योतिष विमान की किरणों के सम्बन्ध से जो यिकादिभ्यो महत्त्वमनुष्ठानेन वा श्रेष्ठत्वम् । (भ. पृथिवी के समान प्रकाश में पावों से चल-फिर प्रा. मला. ४२१, पृ. ६१८)।
सकते हैं वे ज्योतिरश्मिचारण कहलाते हैं। माता, पिता, गृहस्थ, उपाध्याय, प्रायिका प्रादि की ज्वलनमुद्रा-हस्ताम्यां सम्पुटं विधायागुलीः अपेक्षा महत्त्व की प्राप्ति अथवा अनुष्ठान के द्वारा पद्मवद्विकास्य मध्यमे परस्परं संयोज्य तन्मूललग्नांङ्प्राप्त श्रेष्ठता का नाम ज्येष्ठत्व है। यह दस प्रकार गुष्ठो कारयेदिति बलन मुद्रा। (निर्वाणक. १६, के श्रमणकल्प में सातवां है।
६, १५)। ज्योतिश्चारण-अध-उडढ-तिरियपसरे किरणे दोनों हाथों को मिलाकर, अंगलियों को कमल के अवलंबिदूण जोदीणं । जं गच्छेदि तवस्सी सा समान विकसित कर और दोनों मध्यमा अंगलियों रिद्धी जोदिचारणा णाम ॥ (ति. प. ४-१०४६) । को परस्पर में जोड़कर उनके मूल भाग में अंगूठों जिसके प्रभाव से साधु नीचे, ऊपर और तिरछी के लगाने को ज्वलनमुद्रा कहते हैं । फैलने वाली सूर्य-चन्द्रमादि ज्योतिषियों की किरणों झल्लरी-झल्लरी चविनद्धविस्तीर्णवलयाकारा का अवलम्बन ले करके प्राकाश में गमन किया जा पातोद्यविशेषरूपा देशविशेषप्रसिद्धा । (प्रज्ञाप. सकता है उसे ज्योतिश्चारण ऋद्धि कहते हैं। मलय. वृ. ३३-३१६, पृ. ५४२)। ज्योतिष्क--१. द्योतयन्त इति ज्योतींषि विमा- किसी विशेष देश में प्रसिद्ध चमड़े से मढ़े हुए गोल नानि, तेष भवा ज्योतिष्काः, ज्योतिषो वा देवाः, प्राकार वाले बाजे को झल्लरी कहते हैं। ज्योतिरेव वा ज्योतिष्काः। मुकुटेषु शिरोमुकुटोप- झल्लरोसंस्थान-मज्झम्हि सयभुरमणोदहिपरिगहिभिः प्रभामण्डलकल्पैरुज्ज्वल: सूर्य-चन्द्र-तारा- क्खित्तदेसेण चंदमण्डलमिव समतदो असंखेज्जजोमण्डलैर्यथास्वं चिह्न विराजमाना यतिमन्तो ज्योति- यणरुदेण जोयणलक्खबाहल्लेण झल्लरीसमाणत्तादो
का भवन्तीति । (त. भा. ४-१३) । २. द्योतन. [झल्लरीस ठाणो मज्झिमलोग्रो]। (धव. पु. ४, प. स्वभावत्वाज्ज्योतिष्काः । (त. वा. ४, १२, १)। २१) । ३. द्योतयन्ति प्रकाशयन्ति जगदिति ज्योतींषि स्वयंभूरमण समुद्र से वेष्टित चन्द्रमण्डल के समान विमानानि , तेषु भवा ज्योतिष्काः, यदि वा द्योत- गोल, असंख्यात योजन विस्तृत तथा एक लाख यन्ति शिरोमुकुटोपगृहिभिः प्रभामण्डलकल्पः सूर्या
योजन वाहल्यवाले (ऊंचे) क्षेत्र को झालर के दिमण्डल : प्रकाशयन्तीति ज्योतिषो देवा सूर्यादयः। प्राकार होने से झल्लरीसंस्थान (मध्यलोक) कहा (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-३८, पृ. ७०)। ४. तथा
जाता है। द्योतनं ज्योतिः, प्रोणादिको शब्दव्युत्पत्तिः, ज्योति- झषावतं-१. उट्टित-निवेसिंतो उव्वत्तइ मच्छउव रेषामस्तीति ज्योतिष्का: 'ब्रीह्यादिभ्य' इति मत्वर्थीय जलमज्झे। वंदिउकामो वान्नं झषो व परियत्ता इक्प्रत्ययः, तत प्रादेरिकारलोपः। (बृहत्सं. मलय. तुरियं ।। (प्रव. सारो. १५६)। २. उत्तिष्ठन् निवि. व. २)। ५. ज्योतिःस्वभावत्वाज्ज्योतिष्का: । (त. शमानो वा जलमध्ये मत्स्व इब उद्धर्तत-उल्लात वत्ति श्रुत. ४-१२) ।
यत्र तन्मत्स्योवृत्तम्, अथवा एकमाचार्या दक वन्दिलोक को प्रकाशित करने वाले विमानों में उत्पन्न त्वा तत्समीप एवापरं वन्दनाह कंचन वन्दितुमिच्छंहोने वाले देवों को ज्योतिष्क या ज्योतिषी देव स्तत्समीपं जिगमिषुरुपविष्ट एव झष इव मत्स्य इव कहते हैं। अथवा विमानगत ज्योति (प्रभा) से त्वरितमङ्गं परावृत्य यद्गच्छति तन्मत्स्योदवत्तम सम्बन्ध रखने वाले देव ज्योतिष्क कहलाते हैं। इत्थं च यदङ्गपरावर्तनं तज्झषावर्तमित्यभिधीयते । ज्योतीरश्मिचारण-देखो ज्योतिश्चारण । चन्द्रा- (प्रव. सारो. व. १५६, पु. ३७)। क-ग्रह-नक्षत्राद्यन्यतमज्योतीरश्मिसम्बन्धेन भुवीव २ जिस प्रकार जल में मछली घूमती है उसी पादविद्यारकशलाः ज्योतीरश्मिचारणाः। (योगशा. प्रकार वन्दना करते समय जzi a
प्रकार वन्दना करते समय जहां उठते हए या बैठते स्वो. विब. १-६; प्रव. सारो. वु. ६०१)। हए घूमकर वन्दना की जाती है, अथवा एक चन्द, सर्य, ग्रह, और नक्षत्र इनमें से किसी एक प्राचार्य प्रादि की वन्दना करके उनके समीपवर्ती
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
झुषिर (शुषिर)] ४७६, जैन-लक्षणावली
[तत किसी दूसरे प्राचार्य की वन्दना करने के लिए (निर्वाणक. १६, ९, १४, पृ. ३३)। बैठे-बैठे ही शीघ्रता से घूम कर जो जाना है, इसे दाहिने हाथ की मट्टी बांध कर कनिष्ठा और मत्स्योवृत्त कहते हैं, इस प्रकार से जो शरीर का अंगुष्ठ को पसार कर डमरू के समान चलाने को परावर्तन किया जाता है, यह एक झपावर्त नामक डमरुकमुद्रा कहते हैं। कृतिकर्म का दोष है।
डायस्थिति-१. जत्थ ठितिठाणट्रितो तीए चेव झुषिर (शुषिर)-तत्र शाल्यादिपलालतणमयो पगतीए उक्कोसितं ठिति बंधति सा डायट्ठिति झुषिरः। (व्यव. मलय. वृ. ८-८, पृ. ३)। वुच्चति । (कर्म. च. उद्व. क. ६, पृ. १४६) । धान्य प्रादि के पलाल (पुग्राल) तणरूप संस्तर को २. उक्कोस रायठिई xxx। (पंचसं. उद. झुषिर कहते हैं।
क. १५)। ३. यतः स्थितिस्थानादपवर्तनाकरणझोष-यस्मिन् प्रक्षिप्ते समो भागहारो भवति स वशेन उत्कृष्टां स्थिति याति तावती स्थिति यराशिः समकरणो झोषः। (ब्यव. भा. १-१८६, स्थितिरित्युच्यते । xxx यत: स्थितिस्थानान्मपृ. ६७)।
ण्डक प्लुतिन्यायेन डायां-फालां दत्त्वा या स्थितिर्वजिस राशि के मिलाने पर भागहार सम होता है ध्यते ततः प्रभति तदन्ता तावती स्थितिबंद्धा डायउसे झोष राशि कहते हैं।
स्थिरिहोच्यते । सा चोत्यर्षतोऽन्तःसागरोपमटंक-सिलामयपव्वएस् उक्किण्णवाबी कूव-तलाय- कोटीकोटयनसकल कर्मस्थितिप्रमाणा वदितव्या । जिणधरादीणि टंकाणि णाम । (घव. पु. १४, पृ. (पंचसं. मलय. व. बं. क. ११२, पृ. ६२)। ४६५)।
४. यतो यस्याः स्थितेरारभ्य परमः उत्कृष्टो शिलामय पर्वतों पर उकेरी गई बावड़ी, कुमां, बन्धो भवति-उत्कृष्टां स्थिति बध्नाति, तस्याः तालाब और जिनगृह आदि टंक कहलाते हैं। प्रभति सर्वाऽपि स्थितिॉयस्थितिरित्युच्यते । सा टोलगतिवन्दनक-१. टोल्लोव्व उप्फिडंतो प्रोस चोत्कर्षतः किञ्चिद्ना-किञ्चिदूनकर्म स्थितिप्रमाणा क्क हिसक्कणे कुणइ ।। (प्रव. सारो. १५७)। वेदितव्या। (पंचसं. मलय. वृ. उद्व. क. १५) । २. उत्ष्वष्कणं अग्रत: सरणम्, अभिष्वष्कणं पश्चा- १जहां स्थितिस्थान में स्थित होकर उसी प्रकृति दपसरणम्, ते उत्ष्वष्काणाभिष्वष्कणे, टोलवत् तिड्ड. की उत्कृष्ट स्थिति को बांधता है उस स्थिति का वत् उत्प्लुत्य उपप्लुत्य करोति यत्र तट्टोलगतिवन्द नाम डायस्थिति है। ४ जिस स्थिति से लगाकर नकम् । (प्राव. हरि. व. मल. हे. टि. पृ. ८७)। उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध होता है उससे लेकर ३. अवष्वष्कणं पश्चाद् गमनम्, अभिष्वष्कणम् समस्त स्थिति को डायस्थिति कहते हैं। अभिमुखगमनम् , ते अवष्वष्कणाभिष्वष्कणे, टोलोव्व ढड्ढर-ढड्ढरं महता शब्देनोच्चारयतो वन्दनम् । तिडवदुत्प्लवमानः करोति यत्र तट्टोलगतिवन्दनकम्। (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। (प्रव. सारो. व. १५७, पृ. ३६) ।
उच्च स्वर से उच्चारण करते हुए वन्दना करना, १ टिड्डी अथवा शलभ (पतंगा)के समान उछल उछल । यह वन्दना का एक ढड्ढर नामका दोष है। करके कभी पागे और कभी पीछे वन्दना करने को तटच्छेद-दोहि वि तडेहि णदीपमाणपरिच्छेदो, टोलगतिवन्दनक कहते हैं।
अथवा दवाणं सयमेव छेदो तडच्छेदो णाम । डमरकर-काय वाङ्मनोभिविचित्रं ताडन डम- (धव. पु. १४. पू. ४३६)। रम, तत्करणशीलो डमरकरः। (प्राव. मलय. व. दोनों तटों से नदीके प्रमाणके जानने का नाम तट१०८६, पृ. ५६७)।
च्छेद है, अथवा द्रव्यों का जो स्वयं ही छेदकाय, वचन और मन के द्वारा विचित्र प्रकार के खण्डन-होता है उसे तटच्छेद जानना चाहिए। ताडन (डमर) करने वाले व्यक्ति को डमरकर तत-१. चर्मतनननिमित्तः पुष्कर-भेरी-दर्दरादिकहते हैं। यह अप्रशस्त भावकर है।
प्रभवस्ततः। (स. सि. ५-२४)। २. ततं तंत्रीडमरुक मुद्रा-दक्षिणकरेण मुष्टि बध्वा कनिष्ठि- समुत्थानमवनद्धं मृदंगजम् । (पद्मपु. २४-२०)। काङगष्ठौ प्रसार्य डमरुकवच्चालयेदिति डमरुकमुद्रा। ३. धर्मतननात्तत: पुष्कर-भेरी-दर्दरादिप्रभवः । (त.
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व ] ४८०, जन-लक्षणावली
तत्त्वार्थ वा. ५, २४, ५; त. श्लो. ५-२४)। ४. तदो स्वभाव वाला है-नयविवक्षा से परस्पर विरोधी णाम वीणा-तिसरि- पालावणि-वव्वीस-खुक्खणादि- नित्य-अनित्य व एक-अनेक प्रादि धर्मों का समन्वय जणिदो। (धव. पु.१३ पृ. २२१)। ५. नतो करने वाला है-उसे प्रमाणसिद्ध तत्त्व समझना मृदंग-पणवाद्यातोद्यसमुत्थः। (त. भा. रि, वृ. चाहिए। ५-२४)। ६. ततो मृदंग पटहादिसमुद्भवः । (त. तत्त्वज्ञ-तत्वज्ञः वस्तुतत्त्ववेदी । (पञ्चव. वृ. भा. सिद्ध. वृ. ५-२४) । ७. ततं मृदंगपटहादि । ११, पृ. ४) । (रायप. मलय. वृ. पृ. ६६) । ८. ततः शब्द: चर्म वस्तुस्वरूप के जानने वाले को तत्त्वज्ञ कहते हैं । तननेन सजातः । योऽसौ पुष्करः पटहः भेरी दुन्दु- तत्त्वज्ञान-देखो तत्त्वाभिनिवेश । १. तत्त्वज्ञानं भिः दर्दरो जलावादिनविशेषः ततः 'र बाब' इति च जीवादितत्त्वयाथात्म्यनिश्चयः । (१ देश्याम, इत्यादिकः तत इति कथ्यते । (त. वृत्ति १६)। २. तत्त्वज्ञानमूहापोहविज्ञानविशुद्धमिदमिश्रुत. ५-२४)।
स्थमेवेति निश्चयः । (योगशा. स्वो. विव. १-५१)। १ चमड़ा के तनने के निमित्त से भेरी, मृदंग और १जीवादि तत्त्वों को यथार्थता के निश्चय को तत्त्ववर्टर (एक बाजा) प्रादि से निकलने वाले शब्द ज्ञान कहा जाता है। २ ऊहापोह रूप विशिष्ट को तत कहते हैं।
ज्ञान से अतिशय शुद्ध 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार तत्त्व-देखो तत्त्वार्थ । १. एकान्तदष्टिप्रतिषेधि का जो निश्चय होता है, उसका नाम तत्त्वज्ञान है। तत्त्वं प्रमाणसिद्धं तदतत्स्वभावम् । (स्वयंभू ४१); यह बुद्धि के शुश्रूषादि पाठ गुणों में अन्तिम है। य एव नित्य-क्षणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षाः स्व- तत्त्वनिरिणनीषु-तथैव तत्त्वं प्रतितिष्ठापयिषुपरप्रणाशिनः । त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः पर- स्तत्त्वनिणिनीषुः । (प्र. न. त. ८-४)। स्परेक्षाः स्व-परोपकारिणः ।। (स्वयंभ. ६१); साधन और दूषण द्वारा तत्व के प्रतिष्ठापन की विधेयं वायं चानुभयमुभयं मिश्रमपि तत, विशेषः इच्छा रखने वाले पुरुष को तत्त्वनिणिनीष कहते हैं। प्रत्येक नियमविषयैश्चापरिमितः । सदान्योऽन्यापेक्षः तत्त्वानुरूपत्व-तत्त्वानुरूपत्वं विबक्षितवस्तस्वसकल भुवनज्येष्ठगुरुणा, त्वया गीतं तत्त्वं बहनयवि. रूपानुसारिता। (समवा. अभय. वृ. ३५, पृ. ६०; वक्षेतरवशात् ।। (स्वयंभू ११८)। २. तत्त्वं त्वने- रायप. मलय. वृ.पृ. १६)। कान्तमशेषरूपं, द्विधा भवार्थव्यवहारवत्त्वात । विवक्षित वस्तुस्वरूप के अनुसरण करने को तत्त्वा(युक्प्यनु. ४७); प्रतिक्षणं स्थित्युदयव्ययात्मतत्त्व. नुरूपत्व कहते हैं। यह ३५ सत्यवचनातिशयों में व्यवस्थं सदिहार्थ रूपम् ।। (युक्त्यनु. ४६) । ३. तस्य १५वां है। भावस्तत्त्वम । तस्य कस्य ? योऽथों यथावस्थित- तत्त्वाभिनिवेश-देखो तत्त्वज्ञान । विज्ञानोहापोस्तथा तस्य भवनमित्यर्थः। (स. सि. १-२)। हानुगमविशुद्धमित्थमेवेति निश्चयस्तत्त्वाभिनिवेशः। ४. चित्तं सदसदात्मक तत्त्वं साधयति स्वतः। (ललितवि. पृ. ४३; घ. बि. १-३३; नीतिवा. (लघीय. ९); द्रव्य-पर्यायात्मकम उत्पाद-व्यय- ५-५३) । ध्रौव्ययुक्तं वस्तु तत्त्वम् । (लघीय. स्वो. विवृ. विज्ञान, ऊहापोह और अनुगम से विशुद्ध जो 'यह ६) । ५. तदिति विधिः, तस्य भावस्तत्त्वम् ऐसा ही है' इस प्रकार का निश्चय होता है उसे xxx तत्त्वं श्रुतं ज्ञानम् । (धव. पु. १३, तत्त्वाभिनिवेश कहते हैं। यह एक बुद्धि का गुण है। पृ. २८५-८६)। ६. चेतनोऽचेतनो वार्थो यो तत्त्वार्थ-देखो तत्त्व । १. तस्य भावस्तत्त्वम् । यथैव व्यवस्थितः। तथैव तस्य यो भावो याथा- तस्य कस्य ? योऽर्थों यथावस्थितस्तथा तस्य भवनत्म्यं तत्त्वमुच्यते ॥ (तत्त्वानु. १११) । ७. योऽर्थो मित्यर्थः, अर्यत इत्यर्थों निश्चीयत इति यावत्, यथावस्थितस्तस्यार्थस्य तथाभावो भवनं तत्त्वम् । तत्त्वेनार्थस्तत्त्वार्थः । अथवा xxx तत्त्वमेवार्थ(त. वृत्ति श्रुत. १-२) । ८. जीवादीनां पदार्थानां स्तत्त्वार्थः। (स. सि. १-२)। २. तत्त्वेनार्यत इति याथात्म्यं तत्त्वमिष्यते । (जम्बू. च. ३-१७)। तत्वार्थः। अर्यते गम्यते ज्ञायते इत्यर्थस्तत्त्वेनार्थ१ जो एकान्त दृष्टि का निषेधक होकर तदतत् स्तत्त्वार्थः। (त. वा. १, २, ६)। ३. यत्त्वेनाव
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वार्थाधिगम] ४८१, जैन-लक्षणावली
[तत्सेवी स्थितो भावस्तत्त्वेनवार्यमाणकः । तत्त्वार्थः सकलो- -जैसे व्रीहि (एक प्रकार का धान्य) में कणरहित ऽन्यस्तु मिथ्यार्थ इति गम्यते || xxx तेन एत- धान्य का तथा घी में चर्वी को, मिलाकर व्यबहार दुक्तं भवति-यत्त्वेन जीवादित्त्वेनावस्थितःप्रमाण- करना-बेचना, इसे तत्प्रतिरूपकव्यवहार कहते हैं। नयैर्भावस्तेनैवार्यमाणस्तत्त्वार्थः सकलो जीवादिः। यह प्रचौर्याणवत का एक अतिचार है। (त. इलो. १, २, ५)। ४. मानेनार्थ्यत इत्यर्थ- तत्सेवी-१. पासत्थो पासत्थस्स अणुगदो दुक्कड स्तत्त्वं चार्थः स्वरूपतः । (प्राचा. सा. ३-६)। परिकहेइ । एसो वि मज्झसरिसो सम्वत्थ वि १ जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है उसी रूप से दोससंच इमो॥ जाणादि मज्झ एसो सुहसीलत्तं च निश्चित वह तत्त्वार्थ कहलाता है।
सव्वदोसे य। तो एस मे ण दाहिदि पायच्छित्त तत्त्वार्थाधिगम-तत्त्वम् अविपरीतोऽर्थः सुख-दुःख- महल्लित्ति ।। पालोचिदं असेसं सव्वं एदं मए त्ति हेतुः, अधिगम्यते अनेनास्मिन्निति तत्त्वार्थाधिगमः। जाणादि । सो पवयणपडिकुद्धो ट्रो] दस मो आलो(त. भा. हरि. वृ. का. २२, पृ. ११)।
चणादोसो ॥ (भ. सा. ६०१-३)। २. अस्यासुख-दुख का कारणभूत यथावस्थित पदार्थ जिसके पराधेन ममातिचारः समानः, तमयमेव वेत्ति, अस्म द्वारा या जिसमें जाना जाता है उसका नाम तत्त्वा- यद्दत्तं तदेव मे युक्तं लघुकर्तव्यमिति स्वदुश्चरितर्थाधिगम है।
संवरणं दशमो (चा.-'दशमस्तत्सेवित') दोषः । तत्त्वावबोध-पदार्थस्वरूपपरिज्ञानं तत्त्वावबोधः । (त. वा. ६, २२, २; चा. सा. पृ. ६२)। ३. पर(त. भा. सिद्ध. वृ. ६-३७) ।
गृहीतस्यैव प्रायश्चित्तस्यानूमतेन स्वदुश्चरितसंवरपदार्थस्वरूप के परिज्ञान का नाम तत्वावबोध है। णम् । (त. श्लो. ६-२२)। ४. तत्सेवी यात्मना तत्परुष-तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः, दोषैः संपूर्णस्तस्य यो महाप्रायश्चित्तभयादात्मीयघवलश्चासौ वृषभश्च विशेषण-विशेष्यबहुल मिति दोष प्रकटयति तस्य तत्सेवी नामा दशम पालोचनातत्पुरुषः । धवलत्वं विशेषणं वृषभेण विशेष्येण सह । दोषो भवेत् । (मूला. व. ११-१५)। ५. मादृशो समस्यति, द्वे पदे एकमर्थं ब्रवते इति समानाधिकर- वेत्त्यसावेव ममागोऽस्म यदर्पितम्। तन्ममेति स्वणत्वम् । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ७३)।
दोषोक्तिरस्मै तत्से वितं मतम् ॥ (प्राचा. सा. ६, समानाधिकरणयुक्त कर्मधारय समास को, जिसमें ३७)। ६.xxx समात्तत्सेवितं त्वसी। (अन. विशेषण-विशेष्य की बहुलता रहती है, तत्पुरुष घ. ७-४३)। ७. शिष्यो यमपराधमालोचयिष्यति समास कहते हैं। जैसे-'धवलवृषभ' यहां धवल तमेव सेवते यो गुरुरसो तत्सेवी । तत्समीपे यदपराविशेषण और वषभ विशेष्य है तथा दोनों पदों का घालोचनमेष ममातिचारेण तल्यस्ततो न किमपि मे एक ही प्रर्थ होने से उनमें सामानाधिकरण भी है। प्रायश्चित्तं दास्यत्यल्पं वा दास्यति । न च मांस तत्प्रतिबद्ध-तत्प्रतिबद्धं च वृक्षस्थगुन्द-पक्वफला- पट यष्यति यथा विरूपं कृतं त्वयेति बुद्धया तदा. दिलक्षणम् । (था. प्र. टी. २८६)।
लोचनं तरोत्री एष दशमः (तत्सेवी) आलोचनावक्ष में स्थित गोंद और पके हुए फलादि को दोषः । (व्यव. मलय. वृ. ३४२, पृ. १९)। ८. तत्प्रतिबद्ध कहते हैं। यह पौषधोपवास का एक- यत्पापं गुवं प्रकाशितं तत्सर्वथा न मुंचति पुनरपि अतिचार है।
तदेव कुरुते स तत्सेवी कथ्यते । अथवा य प्राचार्यतत्प्रतिरूपकव्यवहार-तथा तत्प्रतिरूपव्यवहर- स्तं दोषं करोति तद ग्रे पापं प्रकाशयति, निर्दोषाणम्-तेनाधिकृतेन प्रतिरूपं सदृशं तत्प्रतिरूपम्, तेन चार्याग्रे पापं न प्रकाशयतीति तत्सेवी दोषः। (भावव्यवहरणं यद्यत्र घटते ब्रीह्यादि-घृतादिषु पलजी- प्रा. टी. ११८)। वसादि, तस्य तत्र प्रक्षेपेण विक्रयः। (श्रा. प्र. टी. २ मेरा अपराथ इसके अपराध के समान ही है, उसे २६८)।
यही जानता है, गुरु ने जो प्रायश्चित्त इसे दिया अधिकृत वस्तु के साथ उसके समान किसी अन्य है वही मुझे कर लेना चाहिए। यह सोचकर अपने अल्पमूल्य वाली वस्तु को, जहां जो घटित होती हो दुराचरण को प्रकाशित नहीं करना, यह मालोचना
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
तथाकार ]
का तत्सेवी नाम का दसवां दोष है । ७ शिष्य जिस अपराध की श्रालोचना करेगा उसी का सेवन करने वाला जो गुरु है वह तत्सेवी है, उसके समीप आलोचना करने पर चूंकि यह मेरे प्रतिचार के समान है इसलिए वह मुझे कुछ प्रायश्चित्त नहीं देगा या बहुत थोड़ा देगा तथा 'तुमने यह निकृष्ट कार्य किया है' ऐसा कहकर मुझे तिरस्कृत नहीं करेगा, इस विचार से जो प्रालोचना की जाती है यह तत्सेवी नाम का दसवां आलोचनादोष है । तथाकार - १. वायणपडिछण्णाए उवदेसे सुत्त-अत्थकहणाए । भवितह मेदत्ति पुणो पडिच्छणाए तघाकारो ।। (मूला. ४-१३३ ) । २. वायणपडिसुणगाए उवएसे सुत्त श्रत्थकहणाए । वितहमेयंति तहा पडिसुणणाए तहक्कारो ॥ (श्राव. नि. ६८६ ) । ३. तथाकरणं तथाकार:, स च सूत्रप्रश्नगोचरो यथा भवद्भिरुक्तं तथेदमित्येवं स्वरूपः । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ६६६, पृ. २५६ ) ; तथाकार इति कोऽर्थ इति ? ग्रह - श्रवितथमेतत् यदाहुर्यूयमिति । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ६८६, पृ. २६५ ) । ४. वाचनाप्रतिश्रवणे उपदेशे सूत्रार्थयोजने गुरुणा क्रियमाणे अवितथमेतदिति कृत्वा पुनरपि यच्छ्रवणं तत्तथाकारः । (मूला. वसु. वृ. ४- १३३ ) । ५. तत्त्वाख्यानोपदेशादी नान्यथा भगवद्वचः । तत्तथेत्यादरेणोक्तिस्तथाकाशे गुणाकरः ॥ ( श्राचा. सा. २ - ८ ) | १, २ वाचना के सुनने में, उपदेश के विषय में तथा सूत्र और प्रथं के कथन में 'श्रापका कथन यथार्थ है, इस प्रकार फिर से जो उसका श्रवण किया जाता है, यह तथाकार कहलाता है । तथाकार का अभिप्राय यही है कि जैसा आप तत्त्व का व्याख्यान कर रहे हैं वह यथार्थ है । इस प्रकार का तथाकार उक्त वाचनाप्रतिश्रवण आदि के विषय में करना चाहिये । यह दस प्रकार के समाचार के अन्तर्गत है |
४८२, जैन - लक्षणावली
तदानीतादान-देखो चौरार्थादान । तथा तच्छब्देन स्तेन परामर्शः, स्तेनंरानीतमाहृतं कनक- वस्त्रादि, तस्यादानं ग्रहणं मूल्येन मुधिकया वा तदानीतादानम् । स्तेनानीतं हि काणक्रयेण मुघिकया वा प्रच्छन्नं गृह्ण श्चोरो भवति, ततश्चौर्यकरणाद् व्रतभङ्गः, वाणिज्यमेव मया क्रियते न चौरिकेत्यध्यवसायेन व्रतसापेक्षत्वान्न तद्भङ्ग इति भङ्गाभङ्गरू
[तदुभय
पोऽतिचार: । (योगशा. स्वो विव. ३-६२; पृ. ५५२-५३) ।
'तदानीत' में तत् शब्द से चोर को ग्रहण किया गया है, उसके द्वारा लाये गये सुवणं व वस्त्र श्रादि को मूल्य देकर अथवा बिना मूल्य दिये ही लेना, इसका नाम तदानीतादान है । यह अचोर्याणुव्रत का प्रतिचार इसलिये है कि चोरी से लाये गये सुवर्णादि को छिप करके मूल्य से या बिना मूल्य दिये ही ग्रहण करता है, इस प्रकार चोर होने के कारण व्रत को भंग करता है, तथा 'मैं तो व्यापार करता हूं, चोरी नहीं करता' इस प्रकार व्रत की अपेक्षा रखने से व्रत का भंग नहीं भी होता है । तदाहृतादान - देखो तदानीतादान । १. अप्रयुक्तेनाननुमतेन च चौरेणानीतस्य ग्रहणं तदाहृतादानम् । ( स. सि. ७-२७, चा. सा. पृ. ६) । २. स्तेनैराहृतस्य द्रव्यस्य मुधा क्रयेण वा ग्रहणं तदाहृतादानम् । ( त. भा. ७-२२) । ३. चोरानीतग्रहणं तदाहृतादानम् । प्रप्रयुक्तेनाननुमतेन चोरेणानीतस्य ग्रहणं तदाहृतादानं प्रत्येतव्यम् । (त. वा. ७, २७, २ ) । ४. तदाहृतादानमिति तच्छब्देन स्तेनपरामर्शः, तैराहृतम् आनीतं कनक वस्त्रादि, तस्यादानम् - ग्रहणं मूल्येन मुधिकया वा । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७-२२) । ५. तथा तैराहृतस्य कुङ्कुमादिद्रव्यस्यादानं संग्रहः । (घ. वि. मु. वृ. ३-२५) । ६. चौरेण चौराभ्यां चौरैर्वा यद्वस्तु चोरयित्वा श्रानीतं तद्वस्तु यत् मूल्यादिना गृह्णाति तत् तदाहृतादानम् । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२७)। ७. अप्रेरितेन केनापि दस्युना स्वयमाहृतम् । गृह्यते धन-धान्यादि तदाहृतादानं स्मृतम् ॥ ( लाटीसं. ६-५० ) ।
१ अपनी प्रेरणा या सम्मति के बिना चोर के द्वारा लाये हुए द्रव्य के ग्रहण करने को तदाहृतादान कहते हैं ।
तदुभय- १. [ तदुभय-] संसर्गे सति विशोधनात्तदुभयम् । ( स. सि. ६ - २२; त. इलो. ६ - २२ ) । २. तदुभयसंसर्गे सति शोधनात्तदुभयम् । किंचित् कर्म आलोचनमात्रादेव शुद्ध्यति, अपरं प्रतिक्रमणेण, इतरत् पुनः तदुभयसंसर्गे सति शुद्धिमुपयातीति तदुभयमित्युपदिश्यते । (त. वा. ६, २२, ४) । ३. अभिव्यक्तप्रतीकारं मिथ्या मे दुष्कृतादिभिः । प्रतिक्रान्तिस्तदुभयं संसर्गे सति शोधनात् । (त. सा.
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
तदुभयकल्पिक ]
७-२३) । ४. किंचित्कर्माऽऽलोचनमात्रादेव शुद्धघ त्यपरं प्रतिक्रमणेनेतरं [रत् ] दुःस्वप्नादिकं तदुभयसंसर्गेण शुद्धिमुपयाति । (चा. सा. पृ. ६२) । ५. उभयं आलोचन-प्रतिक्रमणे संसर्गदोषे सति विशोधनात्तदुभयम् । (मूला. वृ. ११ - १६) । ६. स्यात्तदुभयमालोचना-प्रतिक्रमणद्वयम् । दुःस्वप्नदुष्टचिन्तादिमहादोषसमाश्रयम् || ( श्राचा. सा. ६-४२) । ७. दु:स्वप्नादिकृतं दोषं निराकर्तुं क्रियेत यत् । प्रालोचनप्रतिक्रान्तिद्वयं तदुभयं तु तत् ॥ (अन. घ. ७, ४८)।
२ प्रालोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों का सम्बन्ध होने पर जो श्रात्मशुद्धि होती है उसे तदुभय प्रायचित्त कहते हैं । तदुभयकल्पिक - तदुभयकप्पियजुत्तो तिगम्मि एगाहिगे ठाणेसु । णियधम्मऽवज्जभीरु प्रवम्मं श्रज्ज - वहिहि || (बृहत्क ४०९) । जो एक अधिक तीन स्थानों में- सूत्र में, सूत्र व श्रर्थ उभय में तथा सूत्र, अर्थ व उभय इन तीनों में - युक्त है अर्थात् उनके ग्रहण करने में समर्थ है उसका नाम तदुभयकल्पिक है। 'प्रियधर्म' से प्रियधर्मा, दृढधर्मा, प्रियधर्मा-दृढधर्मा तथा न प्रियधर्मा न दृढधर्मा ये चार भंग अभिप्रेत हैं। इनमें चौथा भंग वस्तुस्वरूप है, अतः उसे छोड़कर शेष तीन भंगों में जो युक्त है वह तदुभयकल्पिक कहलाता है, जो पाप से भयभीत होता ही है। यहां प्रायं वज्र का उदाहरण है । तदुभयप्रत्ययिक - श्रजोवभावबन्ध - जे दोहि वि कारणेहि (मिच्छत्तासं जमकसायजोगेहितो तेहि विणा वि) समुपण्णा तेसि तदुभयपच्चइयो प्रजीवभाव
धोत्ति सण्णा । ( धव. पु. १४, पृ. २३) । जो प्रजीवभाव मिथ्यात्वादि कारणों से और उनके बिना भी दोनों ही प्रकार से उत्पन्न होते हैं, उनका नाम तदुभयप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध है । तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध - कम्माणमुदयउदीरणाहितो तदुवसमेण च जो उप्पज्जइ भावो सो तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो णाम । ( धव. पु. १४, पृ. १०) ।
जो जीवभाव कर्मों के उदय और उदीरणा से तथा उनके उपशम से भी उत्पन्न होता है उसका नाम तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध
I
४८३, जैन-लक्षणावली
[ तद्भवमरण
तदुभयवक्तव्यता -- जत्थ दो वि परूवेऊण परसमय दूसिज्जदि ससमयो थाविज्जदि सा तद्भयवत्तव्वदा णाम । ( धव. पु. १. पू. ८२) । जहां स्वसमय और परसमय दोनों की ही प्ररूपणा करके परसमय को दूषित और स्वसमय को स्थापित किया जाता है उसका नाम तदुभयवक्तव्यता है ।
तदुभयाचार - शब्दार्थशुद्धया पाठादि तदुभयाचार: । (मूला. व. ५-७२ ) ।
शब्द और अर्थ की शुद्धि के साथ पाठ श्रादि के करने को तदुभयाचार कहते हैं । तदुभयार्ह - तदुभयारिहं जं पडिसेविय गुरुणो श्रालोइज्जइ गुरुसंदिट्ठो य पडिक्कमइत्ति पच्छा मिच्छा दुक्कडं ति भणइ, एयं तदुभयारिहं । ( जीतक. चू. पृ. ६) ।
जिस दोष का सेवन कर गुरु के समक्ष प्रालोचना करता है, गुरु का सन्देश पाकर प्रतिक्रमण करता है, तथा पीछे 'मेरा दुष्कृत मिथ्या हो' यह कहता है, वह तदुभयार्ह कहा जाता है । तद्भवमररण- १. तब्भवमरणं जो जमि भवग्गहणे मरति रइयभवग्गणादि । ( उत्तरा चू. ५, पु. १२७) । २. तद्भवमरणं भवान्तरप्राप्त्य- (चा. सा. 'प्तिर' - ) नन्तरोप श्लिष्टं पूर्वभवविगमनम् । (त. वा. ७, २२, २; चा. सा. पृ. २३) । ३. भवान्तरप्राप्तिरनन्तरोपसृष्टपूर्वं भवविगमनम् । ( भ. प्रा. वि. जयो. २५; भावप्रा. ३२ ) । ४. मोत्तुं प्रकम्मभूमिय नर-तिरये सुरगणे य नेरइये । सेसाणं जीवाणं तब्भवमरणं च केसिचि ।। ( प्रव. सारो. १०१२; स्थाना. श्रभय. वृ. १०२ उद्) । ५. यस्मिन् भवे वर्तते जन्तुस्तद्भव योग्यमेवायुर्बद्ध्वा पुनप्रियमाणस्य मरणं तद्भवमरणम् । एतच्च संख्यातायुष्कनर- तिरश्चामेव, तेषामेव हि तद्भवायुर्बन्धो भवतीति । (स्थाना. अभय. वृ. २, ४, १०२, १.८९ ) । ६. भुज्य - मानायुषश्चरमसमये मरणं तद्भवमरणम् । (म. प्रा. मूला. २५) ।
१ जो जिस भवग्रहण में मरता है वह तद्द्भवमरण कहलाता है । जैसे- नारकभवग्रहण आदि । २ भवान्तरप्राप्ति के अनन्तर पूर्व भव का जो विनाश होता है उसे तद्भवमरण कहा जाता है । ४ श्रकर्मभूमिज (भोगभूमिज ) मनुष्य, तिर्यंच, देवगण और नार
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
तद्भाव] ४८४, जन-लक्षणावली
तरिक्त परीषह कियों को छोड़कर शेष जीवों-कर्मभूमिज मनुष्य कर्मा नन्त और नोकर्मानन्त को तद्व्यतिरिक्त द्रव्याऔर तियंचों में-किन्हीं का तद्भवमरण होता है, नन्त कहा जाता है। अर्थात् ये मरकर पुन: उसी भव में उत्पन्न होते हैं। तव्यतिरिक्त द्रव्याहत्-तीर्थकरनामकर्म तद्तद्भाव-१. कस्तभावः? प्रत्यभिज्ञानहेतुता। व्यतिरिक्तद्रव्याहन् । (भ. प्रा. विजयो. ४६)। तदेवेदमिति स्मरणं प्रत्यभिज्ञानम् । तदकस्मान्न तीर्थकरनामकर्म को तव्यतिरिक्त द्रव्य-प्रर्हत् कहा भवतीति योऽस्य हेतुः स तद्भावः । भवनं भावः, जाता है। तस्य भावः तद्भावः । येनात्मना प्राग्दृष्टं वस्तु तेनै- तद्व्यतिरिक्त द्रव्यासंख्यात-जं तं तव्वदिरित्तवात्मना पुनरपि भावात् तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते। दव्वास खेज्जयं तं दुविहं-कम्मासंखेज्जयं णोकम्मा(स.सि.५-३१, त. वा.५, ३१,१). २. इत्यभिज्ञा- संखेज्जयं चेदि । (धव. पु. ३, पृ. १२४) । नहेतुत्वं तद्भावस्तु निगद्यते । (त. सा. ३-१४)। कर्मासंख्यात और नोकसिख्यात को तद्व्यतिरिक्त ३.तेषां धर्मादीनां द्रव्याणां येन स्वरूपेण भवनं भावः द्रव्यासंख्यात कहा जाता है। तद्भावः । (त. वृत्ति श्रुत. ५-४२)।
तद्व्यतिरिक्त नोग्रागमद्रव्यकाल-ववगददो१ 'यह वही है इस प्रकार के प्रत्यभिज्ञान का जो गंध-पंचरसट्ठफास-पचवण्णो कुंभारचक्कहेट्ठिमसिल व्व कारण है उसे तदभाव कहते हैं। सद्भाव का अभि- वत्तणालक्खणो लोगागासपमाणो अत्थो तव्वदिरित्तप्राय यह है कि जो वस्तु जिस रूप से पूर्व में देखी जोग्रागमदव्वकालो णाम । (धव. पु. ४, प. ३१४, गई है उसी रूप में उसका फिर भी बना रहना, ३१५) । इसका नाम तद्भाव है।
जो दो गन्ध, पांच रस, पाठ स्पर्श और पांच वर्ण aद्रिहीनाभ्यन्तर सचित्तस्थान-जं तं तविही- स राहत हा कुम्हार क चाक क नाच का कोल के णमभंतरं सच्चित्तट्ठाणं तं केवलणाण-दसणहराणं
समान वर्तनास्वरूप है, तथा लोकाकाश के प्रमाण है, अमोक्खठिदि-बंधपरिणयाण सिद्धाणं प्रजोगिकेवलीणं
वह तदव्यतिरिक्त नोग्रागमद्रव्यकाल कहलाता है। वा जीवदव्वं । (धव. पु. १०, पृ. ४३५)। तव्यतिरिक्त नोग्रागमद्रव्यदृष्टिवाद-दिट्टि
खलजान और केवलदर्शन के धारक तथा मोक्ष व वादसूदहेभूददव्वाणि अाहारादीणि तव्वदिरित्तस्थितिबन्ध से अपरिणत सिद्धों या अयोगिकेवलियोंका णोपागमदव्वदिद्विवादो। (धव. पु. ६, पृ. २०४)। जीवद्रव्य तद्विहीन (संकोच-विकोचविहीन) अभ्यन्तर दृष्टिवाद श्रुत के हेतुभूत आहारादि द्रव्य तद्व्यतिसचित्तनोग्रागमद्रव्यस्थान कहलाता है।
रिक्त नोग्रागमद्रव्यदृष्टिवाद कहलाते हैं। तव्यतिरिक्त द्रव्यलेश्या-तव्वदिरित्तदव्वलेस्सा तव्यतिरिक्त नोकर्मद्रव्यासंख्यात-दीव-समूपोग्गलखंधाणं चविखदियगेज्झो बण्णो। (घव. पू. वादि णोकम्मासंखेज्जयं । (धव. पु.३, प.१२४)। १६, पृ. ४८४)।
द्वीप व समुद्र आदि को तव्यतिरिक्त नोकर्मद्रव्याचक्षु इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य जो पुद्गल- संख्यात कहा जाता है। स्कन्धों का वर्ण होता है उसका नाम तद्व्यतिरिक्त तद्व्यतिरिक्त नोकर्मानन्त-जं तं णोकम्माणतं द्रव्यलेश्या है।
तं कडय-रुजगदीव-समूहादि एयपदेसादिपोग्गलदध्वं तव्यतिरिक्त द्रव्यवर्गणा-तव्वदिरित्तदव्ववग्गणा वा । (धव. पु. ३, पृ. १५)। विहा-कम्मवग्गणा णोकम्मवग्गणा चेदि । (धव. कटक, रुचक, द्वीप व समुद्र प्रादि अथवा एक प्रदेशी पु. १४, पृ. ५२)।
प्रादि रूप पुद्गल द्रव्य; ये सव्यतिरिक्त नोकर्माकर्मवर्गणा और नोकर्मवर्गणा को तव्यतिरिक्त द्रव्य- नन्त कहलाते हैं। वर्गणा कहा जाता है।
तव्यतिरिक्त परीषह-ताभ्यां ज्ञशरीर भव्यशतव्यतिरिक्त द्रव्यानन्त-जं तं तन्वदिरित्तदव्वा- रीराभ्यां व्यतिरिक्तः पृयग्भूतः तद्व्यतिरिक्तः, स च तं तं दविहं-कम्माणतं णोकम्माणंतमिदि। (घव. प्रकृतत्वात् द्रव्यपरीषहो भवेत् । (उत्तरा.नि. शा.
वृ. ७२)।
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
[तप
तद्व्यतिरिक्त संयमलब्धिस्थान] ४८५, जैन-लक्षणावली ज्ञशरीर प्रौर भव्यशरीर से व्यतिरिक्त परीषह को क्लेशस्तपः। (स. सि. ६-२४; त. वा. ६, २४, तव्यरिरिक्तद्रव्यपरीषह कहते हैं।
७); कर्मक्षयार्थ तप्यते इति तपः। (स. सि. ६-६ तव्यतिरिक्त संयमलब्धिस्थान- (उप्पादट्टाण- त. वा. ६, ६, १७); अनशनावमोदर्यादिलक्षणं पडिवादट्ठाणवदिरित्ताणि) सेससव्वाणि चेव चरित्त- तपः। (स. सि. ६-२२)। ४. तवो णाम तावयति ट्राणाणि तव्वदिरित्त (संजमलद्धि) हाणाणि । (धव. अट्टविहं कम्मगंठि, नासेतित्ति वुत्तं भवइ । (दशवै. पु. ६, पृ. २८३)।
चु, १, पृ. १५)। ५. कर्मनिर्दहनात्तपः । यथाग्नि: उपपादस्थान और प्रतिपातस्थानों को छोड़कर शेष सचितं तृणादि दहति तथा कर्म मिथ्यादर्शनाजित सब चारित्रस्थान तव्यतिरिक्त संयमलब्धिस्थान निर्दहतीति तप इति निरुच्यते । देहेन्द्रियतापाद्वा । कहलाते हैं।
अथवा देहस्येन्द्रियाणां च तापं करोतीत्यनशनादि[प्रतः] तनक्लेश-देखो कायक्लेश। तथा तनुः कायः, तप इति निरुच्यते । (त. वा., १६, २०-२१); तस्याः क्लेशः शास्त्राविरोधेन बाधनं तनुक्लेशः। तपोऽनशनादि । अनशनावमोदर्य-वृत्तिपरिसंख्यानादि (योगशा. स्वो. विव. ४-८९, पृ. ३११) . तपोऽवगन्तव्यम् । (त. वा. ६, २२, ७)। ६. तपतन का अर्थ शरीर है, उसे पागमाविरोष से बाधा तीति तपः, कर्तर्यसुन्, संयमात्मनः शेषाशयविशोधपहुंचाना; इसका नाम तनुक्लेश है।
नार्थ बाह्याभ्यन्तरतापनं तपः, शरीरेन्द्रियतापात् तनुचिकित्सा-तनुचिकित्सा ज्वरादिनिराकरणं कर्मनिर्दहनाच्च तपः । अपरः प्राह-विशेषेण कायकण्ठोदरशोधनकारणं च । (मूला. वृ. ६-३३)। मनस्तापविशेषात् तपः । (त. भा. हरि. व सिद्ध. ज्वर आदि के निराकरण तथा कण्ठ व उदर की शुद्धि वृ. ६-६)। ७. तापयत्यनेकभवोपात्तमष्टप्रकार का जो कारण है उसका नाम तनुचिकित्सा है। कर्मेति तपोऽनशनादि । (दशव. सू. हरि. वृ. १-१, तन्तचारणा-१. मक्कडयतंतुपंतीउरि प्रदि- पृ. २१)। ८. विशिष्टज्ञान-संवेग-शमः लघमो तरिदपदखेवे । गच्छेदि मुणिमहेसी सा मक्क. क्षायोपशमिकं ज्ञेयमव्याबाधसुखात्मकम् ।। (तपोडतंतूचारणा रिद्धी । (ति. प. ४-१०४५)। २. ष्टक ११-८) । ६. तापयत्यनेकभवोपात्तमष्टप्रकारं तन्तुमस्पृश्य तन्तूपरि गमनं तन्तुचारणत्वम् । (त. कर्मेति तपः। (प्राव. नि. हरि. व. १०३, प. ७२: वृत्ति श्रुत. ३-३६)।
धर्मसं. मलय. . ११७५); कर्म तापयतीति तपःजिस ऋद्धि के प्रभाव से महर्षि अतिशय लघु- पृथिव्यादिसंघट्टनादौ निर्विग (कृ)तिकादि । (प्राव. गरुता से रहित-होकर मकड़ी के तन्तु के ऊपर से नि. हरि. वृ. १४१८, पृ. ७६४)। १०. तिण्हं रयपादक्षेप करते हुए गमन करने में समर्थ होते हैं उसे णाणमाविब्भाव?मिच्छाणिरोहो तवो । (धव. पु. तन्तुचारण ऋद्धि कहते हैं।
१३, पृ. ५४-५५); खबणायंबिल-णिब्वियडि-पुरितन्त्र-१. तन्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वा अर्थ इति मंडलेयट्ठाणाणि तवो णाम । (धव. पु. १३, पृ. तन्त्रम। (प्राव. नि. हरि. वृ. १३०. पू. ८७) । ६१)। ११. मनोऽक्षग्राम-कायानां तपनात् सन्निरो२. स्वमण्डलपालनाभियोगस्तन्त्रम् । (नीतिवा. धनात् । तपो निरुच्यते तज्ज्ञस्तदिदं द्वाशात्मकम् ॥ ३०-४६, प. ३५६)।
(म. पु. २०-२०४)। १२. तपो ह्यनागताघौघप्रव१ जिसके द्वारा, जहां से अथवा जहां पर अर्थ को र्तननिरोधनम् । तज्जन्महेतुसंघातप्रतिपक्षयतो यथा विस्त किया जाता है वह तंत्र कहलाता है। यह (?) | भविष्यत्कालकूटादिविकारौघनिरोधनम । सूत्र या प्रन्थ का पर्यायवाची नाम है।
मंत्र-ध्यानविधानादि स्फुट लोके प्रतीयते ॥ नृणातप-१. विसय-कसायविणिग्गहभावं काऊण झा
मागविणिरभावं काऊण झा- मप्यधसम्बन्धो राग-द्वेषादिहेतकः । दःखादिफलहेत. पा.मभा। जो भावइ अप्पाणं तस्स तवं होदि त्वादतिभुक्तिविषादिवत् ॥ तद्विरोधिविरागादिरूपं णियमेण ॥ (द्वादशान. ७७) । २.चरणाम्म तम्मि तप इहोच्यते । तदसिद्धावतज्जन्मकारणप्रतिपक्षता॥ जो उज्जमो य पाउंजणा य जो होई। सो चेव (त. श्लो. ३७-४०, पृ. १६); अनिग्रहितवीर्यस्य जिणेहिं तवो भणिदो असढं चरंतस्स ॥ (भ.प्रा.
सम्यग्मार्गाविरोधतः । कायक्लेशः समाख्यातं विशुद्धं १०।। ३. अनिहितवीर्यस्य मार्गाविरोधिकाय- शक्तितस्तपः ।। (त. श्लो. ६, २४, ६)। १३. अन
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
तप ]
शनादिपरित्यागात्मिका क्रिया अनपेक्षित दृष्टफला द्वादशविधा तपः । ( भ. प्रा. विजयो. टी. ४६ ) । १४. परं कर्मक्षयार्थं यत्तप्यते तत्तपः स्मृतम् । (त. सा. ६-१९ ) । १५. इह-परलोयसुहाणं णिरवेक्खो जो करेदि समभाबो । विविहं कायकिलेसं तवधम्मो णिम्मलो तस्स || ( कार्तिके. ४०० ) । १६. तपो ऽनशनादिद्वादशविधानुष्ठानम् । (चा. सा. पृ. २२ ) ; रत्नत्रयाविर्भावार्थमिच्छा निरोधस्तपः । अथवा कर्मक्षयार्थं मार्गाविरोधेन तप्यते इति तपः । (चा. सा. पू. ५६ ) ; गुणालंकृतेन कृतापराधेनोपवासकस्थानाचाम्ल - निर्विकृत्यादिभिः क्रियमाणं तप इत्युच्यते । (चा. सा. पू. ६३) । १७. प्रनिगूहितवीर्यस्य कायक्लेशस्तपः स्मृतम् । तच्च मार्गाविरोधेन गुणाय गदितं जिनैः । अथवा - अन्तर्बहिर्मलप्लोषादात्मनः शुद्धिकारणम् । शारीरं मानसं कर्म तपः प्राहुस्तपोघनाः ॥ ( उपासका २२-२३) । १८. इन्द्रियमनसोनियमानुष्ठानं तपः । ( नीतिवा. १-२० ) । १६. तत्तपो यत्र जन्तूनां सन्तापो नैव जातुचित् । ( क्षत्रचू. ६-१४) । २०. तपति दहति शरीरेन्द्रियाणि तपः बाह्याभ्यन्तरलक्षणं कर्मदहनसमर्थम् । (मूला. वृ. ५-२ ); कर्मक्षयार्थं तप्यन्ते शरीरेन्द्रयाणि तप: । (मूला. वृ. ११ - ५ ) । २१. समस्तरागादिपरभावे च्छात्यागेन स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं तपः । ( प्रव. सा. जय. वृ. १-७९ ) । २२. तपः प्राहुरनुष्ठानं मानसाक्षनियामकम् । ( श्राचा. सा. ६- ३ ) । २३. कर्ममलविलय हेतोर्बोधदृशा तप्यते तपः प्रोक्तम् । तद् द्वेधा द्वादशधा जन्माम्बुधियानपात्रमिदम् ॥ ( पद्म. पं. १-६८ ) । २४. × × × सो वि तवो विसयणिग्गहो जत्थ । (नि. सा. वृ. ६ उद्धृत) । २५• तपस्तु च्छेदग्रन्थानुसारेण जीतकल्पानुसारेण वा येन केनचित् तपसा विशुद्धिर्भवति तत् तद् देयमासेवनीयं च । (योगशा. स्वो विव. ४ - ६०, पृ. ३१२) । २६. यत्तापयति कर्माणि तत्तपः परिकीर्तितम् । (त्रि. श. पु. च. १, १, १९७) । २७. तपो मनोऽक्ष-कायाणां तपनात् सन्निरोधनात् । निरुच्यते दृगाद्याविर्भावायेच्छानिरोधनम् ॥ यद्वा मार्गाविरोधेन कर्मोच्छेदाय तप्यते । अर्जयत्यक्ष-मनसोस्तत्तपो नियमक्रिया ॥ (अन. घ. ७. २-३ ) । २८. तप इन्द्रिय- मनसोर्नियमानुष्ठानम् । (भ. श्री. मूला. टी. २ ) ।
४८६, जैन - लक्षणावली
[ तप-प्राराधना
१ विषय कषायों का निग्रह करके ध्यान व स्वाध्याय में निरत होते हुए श्रात्मचिन्तन करने का नाम तप है । ४ जो आठ प्रकार की कर्मग्रन्थि - कर्मरूप गांठ को सन्तप्त करता है—उसे नष्ट करता है, उसे तप कहा जाता है। ५ जो शरीर और इन्द्रियों को सन्तप्त करता हुआ कर्म को नष्ट करता है वह तप कहलाता है।
तप श्राचार- १. द्वादशविधेऽपि तपसि XX X साभ्यन्तर-बाह्यळेऽनशनादि प्रायश्चित्तादिलक्षणे कुशलदृष्टे - तीर्थंकरोपलब्धे - प्रग्लान्या, न राजवेष्टिकल्पेन यथाशक्त्या वा अनाजीवको निःस्पृहः फलान्तरमधिकृत्य यो ज्ञातव्यो ऽसौ तप श्राचारः, प्राचारतद्वतोरभेदात् । ( दशवं. नि. हरि. वू. १८१, पृ. १०६) । २. तपाचारः - बारसविहम्मि वि तवे सभितर बाहिरे जिणुवदिट्ठे । अगिलाए अणाजीवी णायव्वो सो तवायारो ॥ ( नन्दी. हरि. वृ. पू. ६७ उद्) । ३. अनशनादिक्रियासु वृत्तिस्तप-प्राचारः । (भ. प्रा. विजयो. ४६ ) ; चतुर्विधाहारत्यजनं न्यूनभोजनं वृत्तेः परिसंख्यानं रसानां त्यागः कायसंतापनं विविक्तावास इत्येवमादिकस्तपःसंज्ञित प्रचारः । (भ. श्री. विजयो, ४१६ ) । ४ [ तप श्राचारः ] द्वादशविधतपोविशेषानुष्ठितः । (समवा. अभय वृ. १३६, पृ. १०० ) । ५. कायक्लेशाद्यनुष्ठानं तपआचार: । (मूला. वृ. ५- २ ) । ६. अनशनादितपश्चरणपरिणतिस्तप-प्राचारः । (भ. प्रा. मूला.
४१९)।
१ अनशनादिरूप छह बाह्य और प्रायश्चित्तादि रूप छह अभ्यन्तर, इस प्रकार बारहों प्रकार के तप में उत्साहपूर्वक अथवा यथाशक्ति अनाजीवक (निःस्पृह) होकर फलान्तर की अपेक्षा से जो ज्ञातव्य है, उसका नाम तप श्राचार है। यहां श्राचार और श्राचारवान् (जीव) में अभेद की विवक्षा रही है। ३ श्रनशनादिरूप क्रियानों में प्रवृत्त होने को तपश्राचार कहते हैं ।
तप श्राराधना - वारहविहतवयरणे कीरइ जा उज्जमो ससत्तीए । सा भणिया जिणसुत्ते तवम्मि श्राराहणा णूणं ॥ (श्रारा. सा. ७) । अपनी शक्ति के अनुसार बारह प्रकार के तप के श्राचरण में जो उद्यम किया जाता है, उसे तपश्राराधना कहते हैं ।
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
तपप्रायश्चित्त]
तप प्रायश्चित्त-उपवासादि पूर्वोक्तं षड्विधं बाह्य तपस्तपो नाम प्रायश्चित्तम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२२) ।
४८७, जैन- लक्षणावली
उपवासादिरूप छह प्रकार के बाह्य तप का नाम तप प्रायश्चित्त है ।
तपविद्या ( तपोविद्या ) - छुट्टट्टमादिउववासविहाहि साहिदा तवबिज्जाम्रो । ( धव. पु. ६, पृ.
पु. ७७)।
षष्ठ व श्रष्टम उपवासादि के करने से जो विद्यायें सिद्ध की जाती हैं वे तपविद्यायें कहलाती हैं । तपविनय (तपोविनय ) - १. उत्तरगुणउज्जोगो सम् अहियासणा यसद्धा य । श्रावासयाणमुचिदाण परिहाणीयणुस्सेहो ॥ भत्ती तवोधियम्हि य तवम्हि अहीलणा य सेसाणं । एसो तवम्हि विणो जहुत्तचारित साहुस्स ॥ (मूला. ५, १७३-७४) । २. तपो. ऽधिके तपसि च भक्तिः, अनासादना च परेषां तपोविनयः । (भ. प्रा. विजयो. १०); अनशनादितपोजनितक्लेश सहनं तपोविनयः । (भ. श्री. विजयो. ३०० ) । ३. महातपःस्थिते साधौ तपःकार्ये ससंयमे । भक्तिमात्यन्तिकीं प्राहुस्तपसो विनयं बुधाः ॥ ( श्रमित. श्रा. १३ - १३ ) । ४. बालोऽयं बुड्ढोऽयं संकल्पं वज्जिऊण तवसीणं । जं पणिवायं कीरइ तवविषयं तं वियाणीहि । (वसु. श्री. ३२४) । ५. ययोकमावश्यकमावहन् सहन् परीषहानग्रगुणेषु चोत्सहन् । भजंस्तपोवृद्धतपांस्य हेलयन् तपोलघूनेति तपोविनीतताम् ॥ ( श्रन. ध. ७-७५) । ६. द्वादशभेदे तपसि अनशनावमौदर्यादिद्वादशप्रकारे तपसि अनुष्ठानम् उत्साहः उद्योग:, तथा प्रतापनाद्युत्तरगुणेषु उद्यमः उत्साहः, समता स्तव वन्दना-प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान कायोत्सर्गाणाम् श्रावश्यकानामपरिहाणिः, तथा यस्यावश्यकस्य यावन्तः पठिताः कायोत्सर्गाः तावन्त एव कर्त्तव्याः, न तेषां हानिवृद्धिर्वा कार्या, द्वादशविधतपोऽनुष्ठाने भक्तिरनुरागः तपस्विनां भक्तिः, इति तपसि विनयः । ( कार्तिके. टी. ४५६); अनशनादिद्वादशभेदभिन्नतपोविधानेषु प्रखे देन प्रवृत्तिः तदाचरणे उत्साहः प्रहारेन्द्रिय- कषाया णां राग-द्वेषयोश्च परित्यागः इत्यादितपोविनयः । (कार्तिके. टी. ४५७) ।
१ उत्तरगुणों के परिपालन में उत्साह रखना, इसमें होने वाले परिश्रम को निराकुलतापूर्वक सहना,
[ तपस्वी
उसमें श्रद्धा - निर्मल परिणाम — रखना, उचित rass की हानि - वृद्धि न होने देना, जो तप में अधिक हैं उनमें और तप में भक्ति (अनुराग) रखना, श्रौर शेष - तप से हीन - साधुनों की श्रवहेलना न करना; यह सब तप का विनय कहलाता है ।
तपस्वी - १. विषयाशावशातीतो निरारम्भोपरिग्रहः । ज्ञान-ध्यान तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।। ( रत्नक. १० ) । २. महोपवासद्यनुष्ठायी तपस्वी । ( स. सि. ६ - २४; त. इलो. ६- २४; त. वृत्ति श्रुत. ६- २४; भावप्रा. टी. ७८ ) । ३. विकृष्टोग्रतपोयुक्तस्तपस्वी । ( त. भा. ६-२४) । ४. तव संजमे तबस्सी XXX ।। ( ब्यव. भा. पी. २- १२ ) । ५. महोपवासाद्यनुष्ठायी तपस्वी । महोपवासादिलक्षणं तपोऽनुतिष्ठति यः स तपस्वी । (त. वा. ६, २४, ५) । ६. विचित्रं अनशनादिलक्षणं तपो विद्यते येषां ते तपस्विनः, सामान्यसाधवो वा । (श्राव. नि. हरि. वृ. १७६, पृ. ११६) । ७. प्राचाम्लवर्द्धन सर्वतोभद्र सिंहनिष्क्रीडित शातकुम्भ- मन्दरपंक्ति-विमानपंक्ति-नन्दीश्वरपंक्ति-जिनगुणसम्पत्ति श्रुतज्ञान-कनकावलि मुक्तावलि - मृदङ्गमध्य - वज्रमध्य-कर्मक्षपणत्रैलोक्यसारादिमहोपवासानुष्ठायी तपस्वी । (चा. सा. पृ. ६६) । ८. ज्ञानैर्मनो वपुवृतैर्नियमैरिन्द्रियाणि च । नित्यं यस्य प्रदीप्तानि स तपस्वी न वेषवान् ।। ( उपासका ८७७) । ६. तपस्वी क्षपकः । ( स्थाना. अभय वृ. ३, ४, २०८, पृ. १५६ ) । १०. तपस्वी - अष्टमादिक्षपकः । ( औपपा. प्रभय. वृ. २०, पृ. ४३ ) । ११. तपो विकृष्टमष्टमाद्यस्यास्तीति तपस्वी । (योगशा. स्वो विव. २- १६ ) ; विकृष्टं दशमादि किञ्चिन्न्यून षण्मासान्तं तपः कुर्वस्वपस्वी । (योगशा. स्वो विव. ४-६०, पृ. ३१४ ) । १२. तपःसंयमे —– तपः प्रधानसंयमे — वर्तमानस्तपस्वी, तपोऽस्यास्तीति तपस्वीति व्युत्पत्तेः । ( व्यव. मलय. वू. पी. २- १२, पृ. ६) । १३. महोपवासादितपोऽनुष्ठानं विद्यते यस्य स तपस्वी । (त. वृत्ति श्रुत. ९-२४) । १४. महोपवास - कायक्लेशादितपोSनुष्ठानं विद्यते यस्य स तपस्वी । ( कार्तिके. टी. ४५ε)।
१ जो विषयों की इच्छा के वशीभूत न होकर आरम्भ व परिग्रह से रहित होता हुआ ज्ञान ब ध्यान
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
तपःसमाधि ]
में उद्यत रहता है वह तपस्वी प्रशंसा का पात्र होता है । २ जो महोपवासादिरूप तप का प्राचरण करता है वह तपस्वी कहलाता है । ३ जो विप्रकृष्ट - दसमादि कुछ कम छह मास तक - भयानक तप से युक्त होता है उसे तपस्वी कहा जाता है ।
४८८, जैन - लक्षणावली
तपःसमावि 1 - १. भवइ ग्र इत्थ सिलोगो - विविह गुणतवोरए य निच्चं भवइ निरासए निज्जरट्ठिए । तवसा धुणइ पुराणपावगं जुत्तो सया तवसमाहिए || ( वशवै. सू. ६, ४, ४ पृ. २५७ ) । २. तपःसमाधिनापि विकृष्टतपसोऽपि न ग्लानिर्भवति तथा क्षुत्तृष्णादिपरीषहेभ्यो नोद्विजते, तथा अभ्यस्ताभ्यन्तरतपोध्यानाश्रितमनाः स निर्वाणस्थ इव न सुखदुःखाभ्यां बाध्यते । (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. १, १०, १०६, पृ. १८८) ।
१. जो अनेक गुणयुक्त तप में सदा रत रहता है, इहलोकादि की श्राशा से रहित है, तथा कर्मनिर्जरा का अभिलाषी है; वह विशुद्ध तप से पुरातन कर्म को नष्ट करता हुआ और नवीन कर्म को न बांधता हुधा तपःसमाधि में युक्त होता है।
-
तपः संयम - तपः अनशनादिः तत्प्रधानः संयमः - पञ्चाश्रवविरमणादिस्तपः संयमः । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ३ - १५६, पृ. १४४ ) । अनशनादिरूप तप की प्रधानता युक्त संयम - पांच श्राश्रवों से विरति आदि का नाम तपःसंयम है । तपः सिद्ध - १. न किलम्मइ जो तवसा सो तवसिद्धो दढप्पहारव्व । ( श्राव. नि. ९५२) । २. न क्लाम्यति न क्लमं गच्छति यः सत्त्वस्तपसा बाह्याभ्यन्तरेण स एवम्भूतस्तपः सिद्धः अग्लानित्वाद्, दृढप्रहारिवत् । ( श्राव. नि. हरि व मलय. वू. ε५२) ।
२ जो बाह्य और अभ्यन्तर तप से संक्लेश को प्राप्त न हो उसे तपःसिद्ध कहते हैं । जैसे - दृढ़ता से प्रहार करने वाला पुरुष उत्साहयुक्त होने से कभी खेद को नहीं प्राप्त होता । तपोऽहं- तवारिहं जम्मि पडिसेविए निव्वीयाइम्रो छम्मासपज्जवसाणो तवो दिज्जइ एवं तवारिहं । ( जीतक. चू. पू. ६ ) । जिस अपराध के सेवन करने पर निविकृति श्रादि छह माह तक चलने वाला तप दिया जावे वह अप
[ लम
राध तप प्रायश्चित्त के योग्य (तपोऽहं ) होता है। तपोदानकथा - यादृशं स्यात्तपोदानमनीदृशगुणोदयम् । कथनं तादृशस्यास्य तपोदानकथोच्यते ॥ ( म. पु. ४-६ ) ।
अनुपम गुणों की अभिवृद्धि से युक्त तप और दान की कथा करने को तपोदानकथा कहते हैं । तपोमानवशार्तमररण - तपो मयानुष्ठीयते, अन्यो मत्सदृशश्चरणे नास्ति इति संकल्पयतस्तपोमानवशार्तमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५) । जैसा महान् तपश्चरण मैं करता हूं वैसा दूसरा नहीं कर सकता, इस प्रकार के संकल्प या अभिमान के साथ होने वाले मरण को तपोमानवशातंमरण कहते हैं ।
I
तपोविद्या- देखो तपविद्या | तपोविनय - देखो तपविनय ।
तप्ततप - १. तत्ते लोहकडाहे पडिबुकणं व जीए भुतण्णं । झिज्जदि घाऊहि सा णियभाणाए तत्ततवा ॥ ( ति प १०५३) । २. तप्तायसकटाहपतितजलकणवदाशुशुष्काल्पाहारतया मल- रुधिरादिभावपरिणामविरहिताभ्यवहाराः तप्ततपसः । (त. वा. ३, ३६, ३) । ३. तप्तं दग्धं विनाशितं मूत्रपुरीष- शुऋदि येन तपसा तदुपचारेण तप्ततपः । जेसि भुत्तच उव्विहाहारस्स तत्तलोहपिडागरिसिदपाणियस्सेत्र णीहारो णत्थि ते तत्ततवा ( धव. पु. ६, पृ. ९१ ) 1 ४. येषां पाणिपात्रगतमन्नं (?) मल- रुधिरादिभावपरिणामविरहिताभ्यवहरणास्तप्ततपसः । (चा. सा. पृ. १०० ) । ५. तप्तायः पिण्डपतितजलकणवद् गृहीताहारशोषणान्नीहाररहितास्तप्ततपसः । ( प्रा. योगिभ. टी. १५, पृ. २०३ )। ६. तप्तायसपिण्डपतितजलबिन्दुवत् गृहीताहारशोषणपरा नीहाररहिताः ये ते तप्ततपसः । (त. वृत्ति श्रुत. ३ - ३६) ।
१ जिस ऋद्धि के प्रभाव से तपी हुई लोह की कड़ाही पर गिरी हुई जल की बूंदों के समान खाया हुना श्राहार शीघ्र सूख जाने से मल व रुधिर श्रादिरूप परिणत नहीं होता वह तप्ततपऋद्धि कहलाती है ।
तम - १. तमो दृष्टिप्रतिवन्धकारणं प्रकाश विरोधि । (स.सि. ५ - २४ ) । २. पूर्वोपात्ताशुभकर्मोदयात् ताम्यति श्रात्मा, तम्यतेऽनेन तमनमात्रं वा
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
तक] ४८१, जैन-लक्षणावली
[বলিন तमः । (त. वा. ५, २४, १); तमो वृष्टिप्रतिबन्ध- भिधीयते । (न्यायकु. ३-१०, पृ. ४१८-१९)। कारणम् । दृष्टे: प्रतिबन्धकं वस्तु तम इति व्यप- ७. तर्कश्चेत्थमेव सम्भवति, नानित्थमिति व्याप्तिदिश्यते, यदपहरन् प्रदीपः प्रकाशको भबति । (त. परिज्ञानात्मा प्रमाणम् । (प्रमाणनि. पृ. ३५) । वा. ५, २४, १५ । ३. तमो दृष्टिप्रतिबन्धकारणं ८. उपलम्भानुपलम्भसम्भवं त्रिकालीकलितसाध्य-साकेषांचित् । (त. श्लो. ५-२४)। ४. दृष्टिप्रतिब- धनसम्बन्धाद्यालम्बनमिदमस्मिन् सत्येव भवतीत्यान्धकोऽन्धकारस्तमः । (बृ. द्रव्यसं. टी. १६; काति- द्याकारं संवेदनमूहापरनामा तर्कः। (प्र.न. त. ३, के. टी. २०६)। ५. तमयति खेदयति जनलोचना- ५)। ६. उपलम्भानुपम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः । नीति तमः। (उत्तरा. नि. शा. व. ५७, पृ. ३८)। (प्रमाणमी. १, २, ५)। १०. अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां ६. प्रकाशविपरीतं चक्षःप्रतिबन्धनिमित्तं तमोऽपि व्याप्तिज्ञान दर्शन-स्मरणभ्यां गृहीतप्रत्यभिज्ञाननिपुद्गल विकारः । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२४)। बन्धनं तर्कः चिन्ता। यथाग्नौ सत्येव धमस्तदभावे न १ जो प्रकाश का विरोधी होकर दृष्टि के प्रतिबन्ध भवत्येवेति । (लघीय. अभय. व. ३-१०, पृ. २६); का कारण है-पदार्थों के देखने में बाधा उत्पन्न चिन्ता तर्कः। (लघीय. अभय. वृ. ४-४, पृ. ४५)। करता है-उसे तम कहते है। ३ जो किन्हीं ११. व्याप्तिज्ञानं तर्कः । साध्य-साधनयोर्गम्य-गमक(मनुष्यादि) जीवों की दृष्टि में बाधक होता है उसे भावप्रयोजको व्यभिचारगन्धासहिष्णुः सम्बन्धविशेषो तम कहा जाता है। ५ जो प्राणियों के नेत्रों को व्याप्तिरबिनाभाव इति च व्यपदिश्यते । (न्या. पीड़ित करता है-पदार्थों के दर्शन में बाधक होता दी. प्र. ६२) । है-वह तम (अन्धकार) कहलाता है।
३ जिस ज्ञान के द्वारा व्याप्ति से साध्य-साधनरूप तर्क-१, सम्भवप्रत्ययस्तर्कः प्रत्यक्षानुपलम्भतः। अर्थों के सम्बन्ध का निश्चय करके अनमान में
प्रवृत्ति होती है उसे तक कहा जाता है। १२); समक्षविकल्पानुस्मरणपरामर्शसम्बन्धाभिनि
तर्कशास्त्र- दुर्गमदुर्मत-महाकर्दमशोषणप्रवणार्क बोधस्तर्कः प्रमाणम् । (प्रमाणसं. स्वो. विव. १२)। तर्कशास्त्रम् । (गद्यचि. २, पृ. ५४) । २. तर्कों हेतु पकमित्यनर्थान्तरम् । (धव, पु. १३, जो दुर्गम मिथ्या मतरूप महान् कीचड़ के सुखा देने पृ. ३४६)। ३. सम्बन्धं व्याप्तितोऽर्थानां विनिचित्य में सूर्य के समान समर्थ होता है वह तर्कशास्त्र प्रवर्तते । येन तर्कः स संवादात प्रमाणं तत्र गम्यते ॥ कहलाता है। येन हि प्रत्ययेन प्रतिपत्ता साध्य-साधनार्थानां व्याप्त्या सम्बन्धं निश्चित्यानुमानाय प्रवर्तते स तर्कः। (परीक्षा. ६-१०)। २. असत्यामपि व्याप्ती तदवत. श्लो. १, १३, ८४); xxx स्वविषयभूत. भासस्ताभासः। (प्र. न. त. ६-३५) । ३. असस्य साध्य-साधन सम्बन्धाज्ञाननिवृत्तिरूपे साक्षात् म्बद्ध व्याप्तिग्रहणं तर्काभासः । (लघीय. अभय. व. स्वार्थनिश्चयने फले साघकतमस्तर्कः, परम्परया तु ४-४, पृ. ४६)। स्वार्थानुमाने हानोपादानोपेक्षाज्ञाने वा प्रसिद्ध एवे. १ व्याप्तिरूप सम्बन्ध के न रहने पर भी उसका ति । (त. श्लो. १, १३, ११५)। ४. यावान ज्ञान होना, यह तकाभास है। कश्चिद् धूमः स सर्वः पावकजन्मैव, अपावकजन्मा तर्जा-तर्जा हस्तादिना चौर्य प्रति प्रेषणादि
भवतीति सकलदेश-कालव्याप्तसाध्य-साधनसं- संज्ञाकरणम् । (प्रश्नव्या. अभय. व.पृ. ९३)। बन्धोहापोहलक्षणो हि तर्क: प्रमाणयितव्यः। (प्रमा- हाथ मादि से चोरी करने के लिए भेजने प्रादि का णप. पृ. ७०)। ५. 'यदित्थं तदियता कालेन साम• संकेत करने को तर्जा कहते हैं। ग्रीविशेषेण वा इत्थम्भूतकार्यकारि' इति चिन्ता जित-१. तजितम्-न कुप्यसि नापि प्रसीदसि तर्कः। (सिद्धिवि. बु. १-२३, पृ. १०६)। ६.कः काष्ठशिव इत्येवमादि तर्जयन् निर्भत्सयन वन्दते. पुनरयं तर्को नाम इति चेत् व्याप्तिज्ञानम् । व्याप्ति- अङ्गुल्यादिभिर्वा तर्जयत् । (प्राव. नि. हरि. . हि साध्य-साधनयोरविनाभावः, तग्राहि ज्ञानं तों- १२०९)। २. न वि कुप्पसि न पसीयसि कसिवो
ल.६२
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
तजित]
४६०,
तज्जेइ गुरुं
चेव तज्जियं एयं । सीसंगुलिमाईहि य पणिवयंत ॥ ( प्रव. सारो. १६६ ) । ३. काष्ठघटितशिवदेवताविशेष इवावन्द्यमानो न कुप्यसि तथा वन्द्यमानोऽप्यविशेषज्ञतया न प्रसीदस्येवं तर्जयन् वन्दते - निर्भर्त्सयन् यत्र वन्दते तत्तर्जितमुच्यते, यदि वा मेलापकमध्ये वन्दनकं मां दापयन् तिष्ठस्थाचार्य ! परं ज्ञास्यते तवैकाकिन इत्यभिप्रायवान् यदा शीर्षेणाङ्गुल्या वा प्रदेशिनीलक्षणया तर्जयन् गुरुं प्रणिपतन् - वन्दमानस्तर्जयन् वन्दते तद्वा तर्जितं भवति । ( द्याव. हरि वू. मल. हेम. टि. ६६, पू. ८६) । ४. अन्यांस्तर्जयन्नन्येषां भयमुत्पादयन् यदि वन्दनां करोति तदा तर्जितदोषस्तस्य, श्रथवाऽऽचार्यादिभिरगुल्यदिना तर्जित: शासितो "यदि नियमा दिकं न करोषि निर्वासयामो भवन्तम्" इति तर्जितो यः करोति तस्य तर्जितदोष: । (मूला. वृ. ७-१०८ ) । ५. तर्जितमवन्द्यमानो न कुप्यसि वन्द्यमानश्चाविशेषज्ञतया न प्रसीदसि इति निर्भर्त्सयतो यद्वा बहुजनमध्ये मां वन्दनं दापयंस्तिष्ठसि ज्ञास्यते मया तवं काकिन इति घिया तर्जन्या शिरसा वा तर्जयतो वन्दनम् । (योगशा. स्वो विव. ३ - १३० ) । ६. तर्जितं तर्जनान्येषां स्वेन स्वस्याथ सूरिभिः ॥ ( प्रन. घ. ८-१०५)।
३ काष्ठ से निर्मित शिव (महादेव) के समान तुम वन्दना न करने पर न तो कोषित होते हो घोर न वन्दना के करने पर प्रसन्न ही होते हो, इस प्रकार सिर व अंगुलि आदि से निर्भर्त्सना करते हुए गुरु की वन्दना करने पर तजित नाम का दोष होता है । श्रथवा हे श्राचार्य ! मेलाके मध्य में तुम मुझसे वन्दना कराते हुए स्थित रहते हो, मैं तुम्हें अकेले में देखूंगा; इस अभिप्राय के साथ शिर या अंगुलि से भर्त्सना करते हुए जो वन्दना की जाती है, यह उस वंदना का तर्जित नामक दोष है । ६ अन्य साधुनों की तर्जना करते हुए — उन्हें भयभीत करते हुएवन्दना करना प्रथवा श्राचार्य (संघ) के द्वारा स्वयं तर्जित (शासित ) होकर वंदना करना, यह वन्दना का एक तजित नाम का दोष है । तलवर - १. तलवरः परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्ध - भूषितः । ( श्रनुयो. हरि. वृ. पृ. १६) । २. तलवर: परितुष्टन र पतिप्रदत्त पट्टबन्धविभूषितो राजस्थानीयः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १६- २०५ पु. ३३० ) ।
जैन - लक्षणावली
[ताप
३. तलवशे नाम परितुष्ट नरपतिप्रदत्तरत्नालंकृतसौवर्णपट्टविभूषितशिराः । ( जीवाजी मलय. वृ. ३, २, १४७, पृ. २८० ) ।
१ प्रसन्न हुए राजा के द्वारा दिये गये सुवर्णमय पट्टबन्ध से जो भूषित होता है उसे तलवर कहते हैं । तस्कर - संक्लेशाभिनिवेशेन तृणमप्यन्यभर्तृ कम् । श्रदत्तमाददानो वा ददानस्तस्करो ध्रुवम् ॥ (सा. घ. ४-४७) ।
रागादि के वश होकर जिसका कि स्वामी अन्य है, ऐसे तृण प्रावि को— तुच्छ वस्तु को भी बिना दिये स्वयं ग्रहण करने वाला अथवा दूसरे को देने वाला तस्कर (चोर) कहलाता है । तस्करप्रयोग - देखो चौरप्रयोग | तस्कराश्चौरास्तेषां प्रयोगो हरण क्रियायां प्रेरणमभ्यनुज्ञा 'हरत यूयम्' इति तस्करप्रयोगः । (श्रा. प्र. टी. २६८ ) । 'तुम अमुक वस्तु का अपहरण करो' इस प्रकार चोरों को चोरी करने के लिए प्रेरित करना, इसे तस्करप्रयोग कहा जाता है । तादात्विक - यः किमप्यसंचित्योत्पन्नमर्थं व्ययति (योगशा. - अपव्येति ) स तादात्विक: । ( नीतिवा. २-७)।
जो कुछ भी विचार न करके उत्पन्न धन का प्रपव्यय करता है उसे तादात्विक कहते हैं । ताप - १. परिवादादिनिमित्तादाविलान्तःकरणस्य तीव्रानुशयस्तापः । ( स. सि. ६-११; त. इलो. ६- ११ ) । २. परिवादादिनिमित्तादाविलान्त:करणस्य तीव्रानुशयस्तापः । परिवादः परिभवः, परुषवचनश्रवणादिनिमित्तापेक्षया कलुषान्तःकरणरय तीव्रानुशयः परिणामः ताप इत्यभिधीयते । (त. वा. ६, ११, ३) । ३. तापस्तत्फलभूतो देहपीडाविशेषः । ( त. भा. हरि. वृ. ६-१२ ) । ४. उभयनिबन्धनभाववादस्ताप इति । ( घ. बि. २ - ३७ ) । ५. अ भिमतद्रव्यवियोगादिपारिभाव्यादाविलान्तःकरणस्य तीव्रानुशयपरिणामस्तापः । ( त. भा. सिद्ध वू. ६ - १२) । ६. तापनं तापः, निन्दाकारणात् मानभंगविधानाच्च कर्कशवचनादेश्च संजातः श्राविलान्तःकरणस्य कलुषितचित्तस्य तीव्रानुशयोऽतिशयेनपश्चात्तापः खेदः इत्यर्थ: । (त. वृत्ति श्रुत. ६-११ ) । ७. प्रतापनामकर्मोदयाद् रविमण्डलानामुष्णः प्रकाशस्तापः । ( जम्बूद्वी. शा. वृ. १२६, पू. ४३३) ।
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ तिर्यक्सामान्य
१ जिस नामकर्म के उदय से शरीरगत पुद्गल तिक्त रसस्वरूप से परिणत होते हैं वह तिक्त नामकर्म कहलाता है । ३ जिसके उदय से प्राणियों के शरीर में मिर्च श्रादिकों के समान तीखा रस होता है उसे तिक्त नामकर्म कहते हैं ।
तिरोभाव - तिरोभावस्तु सन्तानरूपेणावस्थितो वैस्रसिको विनाश एवादिलक्षण: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७–७) ।
सन्तान रूप से अवस्थित आदि स्वरूप ( सादि ) वैत्रसिक ( स्वाभाविक ) विनाश को ही तिरोभाव कहते हैं ।
तापस- १. बाह्यव्रत- विद्याभ्यां लोकदम्भ हेतुस्तापसः | ( नीतिवा. १४- १२. पू. १७३) । २० तापस × × × जे जडिला ते उ तावसा गीया । ( प्रव. सारो. ७३२) ।
तिर्यक्प्रचय- १. प्रदेशप्रचयो हि तिर्यक्प्रचयः । ( प्रव. सा. अमृत. वू. २- ४९ ) । २. स च प्रदेशप्रचयलक्षणस्तिर्यक्प्रचय: । ( प्रव. सा. जय. व्. २-४ε)।
१ बाहिरी व्रत और विद्या के द्वारा जो लोगों के ठगने में कारण ( वंचक) होता है वह तापस कहलाता है । २ जटाधारी वनवासी पाखण्डी साबुनों को तापस कहते हैं । ताल–तालस्तु कंसिकादिशब्दविशेषः । ( अनुयो तिर्यक् सामान्य - १० तिर्यक् सामान्य नानाद्रव्येषु
१ प्रदेशों के समुदाय को - जैसे श्राकाश आदि के श्रनन्त श्रादि प्रदेशों को— तिर्यक्प्रचय कहते हैं ।
मल. हेम. वृ. १२७, पृ. १३२) । कंसिका (एक बाजा) श्रादि के विशेष शब्द को कहते हैं ।
पर्यायेषु च सादृश्यप्रत्ययग्राह्यं सदृशपरिणामरूपम् । ( युक्त्यन. टी. ४०, पू. ० ) । २. सदृशपरिणामस्तिर्यक् । ( परीक्षा. ४ - ४ ) । ३. प्रतिव्यक्ति तुल्या परिणतिस्तिर्यक्सामान्यम्, शबल- शाबलेयादिपिण्डेषु गोत्वं यथा । (प्र. न. त. ५ - ४ ) । ४ तिर्यक्सामान्यं च गवादिषु सदृशपरिणामात्मकम् । (स्याद्वादर. ३ - ५ ) । ५. परिणामः समस्तिर्यक् खण्ड-मुण्डादिगोषु वा । गोत्वं विशेषः पर्याय- व्यतिरेकद्विभेदवान् ॥ श्राचा. सा. ४-५ )। ६. तिर्यक्सामान्यं च गवःदिषु गोत्वादिस्वरूपसदृशपरिणामात्मकम् । ( रत्नाकरा. ३-५, पृ. ३ जद्.) ; तिर्यगुल्लेखिनाऽनुवृत्ताकारप्रत्ययेन गृह्यमाणं तिर्यक्सामान्यम् । (रत्नाकरा. ५-४, पृ. ७४ उद्.) । ७. सामान्यं सदृशपरिणामलक्षणं तिर्यक्सामान्यम् । ( लघीय. अभय वू. पू. ६७) ।
;
१ अनेक द्रव्यों व पर्यायों में जो सादृश्यज्ञान का विषयभूत सदृश परिणाम पाया जाता है उसे तिर्यक्सामान्य कहा जाता है । ३ प्रत्येक व्यक्ति में जो समान परिणाम होता है उसका नाम तिर्यक्सामान्य है - जैसे शबल (चितकबरी) एवं शाबलेय आदि विभिन्न गायों में पाया जाने वाला गोत्वसास्ना (गले के नीचे लटकती चमड़ी ) ।
तापस ]
।
४ कष (देखो
१ निन्दा आदि के निमित्त से हुए जो तीव्र पश्चात्ताप होता है है । ३ शोक के फलस्वरूप जो होती हैं उसे ताप कहा जाता है कषशुद्ध' शब्द) और छेद का कारण जो परिणमनशील विवक्षित जीवादि पदार्थ है उसके बाद ( निरूपण ) का नाम ताप है । ७ प्रताप नामकर्म के उदय से सूर्यमण्डलों का जो उष्ण प्रकाश होता है उसे ताप कहते हैं ।
४६१, जैन-लक्षणावली
कलुषितचित्त होते उसका नाम ताप
शरीर में पीड़ा
तालसम — यत्परस्पर/भिहत हस्ततालस्वरानुसारिणा स्वरेण गीयते तत्तालसमम् । (अनुयो मल. हेम. वृ. १२७, पृ. १३२ ) ।
परस्पर श्राहत हाथों की ताली के स्वर का अनुसरण करने वाले स्वर से जो गाया जाता है उसका नाम तालसम है ।
तिक्त - १. श्लेष्मादिदोषहन्ता तिक्तः । ( धनुयो हरि. वृ. पू. ६० ) । २. श्लेष्मशमनकृत् तिक्तः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ५-२३) ।
१ कफ आदि दोषों के नाशक रस को तिक्त कहते हैं । तिक्तनाम- १. जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपो गला तित्तरसेण परिणमति तं तित्तं णाम । (घवः पु. ६, पृ. ७५ ) । २. यस्य कर्मण उदयेन शरीर पुद्गलास्तिक्तरसस्वरूपेण परिणमन्ति तत्तिक्तनाम | (मूला. वू. १२ - १६४ ) । ३. तत्र यदुदयात् जन्तुशरीरेषु तिक्तो रसो भवति - यथा मरिचादीनाम् - तत्तिक्तरसनाम । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३-२६३, पू. ४७३) ।
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
तिर्यसूरि] ४६२, जन-लक्षणावली
[लियंग्योनि तिर्यकसूरि-१. तिरियसूरी य तिर्यगवस्थितं दिन के समूह को तिर्यग्गति कहते हैं, अथवा तियंच करं कृत्वा गमनम् । (भ. प्रा. विजयो. २२२)। जीवों की गति को तिर्यग्गति समझना चाहिए। २. तिरियसूरि सूर्य पार्वतः कृत्वा गमनम्। (भ. तिर्यग्गतिनाम-१. जस्स कम्मस्स उदएण तिरिप्रा. मूला. २२२)।
यभावो जीवाणं होदि तं कम्म तिरियगदि त्ति सूर्य को पार्श्व में (एक ओर) करके गमन करने उच्चदि । (धव. पु. ६, पृ. ६७); जं कम्म जीवाणं को तिर्यसूरि कहते हैं।
तिरिक्खभावणिवत्तयं तं तिरिक्खगदिणाम। (धव. तिर्यगतिक्रम- १. बिलप्रवेशादेस्तिर्यगतिक्रमः । पु. १३, पृ. ३६३)। २. यदुदयाज्जीवस्तिर्यग्गति(स.सि. ७-३०; त. श्लो.७-३०)। २. बिलप्र. भावस्तत्तिर्यग्गतिनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११) । वेशादिस्तिर्यगतीचारः। भूमिबिल-गिरिदरीप्रवेशा. १ जिस नामकर्म के उदय से जीवों के तिर्यचपना दिस्तिर्यगतीचारो द्रष्टव्यः । (त. वा. ७, ३०, ४)। प्राप्त होता है उसे तिर्यग्गतिनामकर्म कहते हैं। ३. भूमिबिल-गिरिदरीप्रवेशादिस्तिर्यगतिक्रमः । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वोनाम-जस्स कम्मस्स (चा. सा. पृ. ८)।
उदएण तिरियगई गयस्स जीवस्स विग्गहगईए बट्ट१ भूमिगत बिल और पर्वत की गुफा ग्रादि में माणयस्स तिरियगइपापोग्गसं ठाणं होदि तं तिरियप्रवेश करके दिग्वत की सीमा का उल्लंघन करना, गइपामोग्गाणुपुवीणाम । (धव. पु. ६, पृ.७६)। यह तिर्यगतिक्रम नामक दिग्व्रत का अतिचार है। जिस कर्म के उदय से तिर्यंचगति को प्राप्त हए तिर्यगाय-देखो तिर्यग्योनि। १. जेसि कम्मक्खं- जीव के विग्रहगति में वर्तमान होने पर तियंचगति
तिरिक्ख भवस्स अवट्ठाणं होदि तेसि के योग्य प्राकार होता है उसे तिर्यग्गतिप्रायोग्यानतिरिक्खाउअमिदि सण्णा । (धव. पु. ६, पृ. ४८, पूर्वी नामकर्म कहते हैं। ४९); जं कम्म तिरिक्खभवं धारेदि तं तिरिक्खा- तिर्यग्दिग्वत-१. तिर्यक दिशस्तिर्यगदिश:उणाम । (धव. पु. १३, पृ. ३६२)। २. यन्नि- पूर्वादिकास्तासां सम्बन्धि तासु वा व्रतं तिर्यव्रतम्, मित्तं तिर्यग्योनिष जीवति जीवः स तैर्यग्योनम् एतावती दिग पूर्वेणावगाहनीया, एतावती दक्षिणेने(तिर्यगायुः) । (त. वृत्ति श्रुत. ८-१०)। त्यादि, न परत इत्येवंभूतमिति भावार्थः । (प्राव. १ जिस कर्म के उदय से जीव का तिर्यच पर्याय में नि. हरि. वृ. ६, पृ. ८२७)। २. एवंभूतं तिर्यग्दिकअवस्थान होता है उसे तिर्यगायु कर्म कहते हैं। परिमाणक रणं तिर्य ग्दिग्वतम्-एतावती दिक पूर्वेणातिर्यग-तिरियंति कुडिलभावं विग्यसुसण्णा णिकः वगाहनीया एतावती दक्षिणेनेत्यादि, न परत इत्येवट्रमण्णाणा। अच्चंतपावबहुला तम्हा तिरिच्छया मात्मकम् । एतदित्थं त्रिधा दिक्षु परिमाणकरणम् । भणिया ।। (प्रा. पंचसं. १-६१; धव. पु. १. प. (श्रा. प्र. टी. २८०)। २०२, उद. गो. जी. १४७)।
१पूर्व दिशा में इतनी दूर और दक्षिण दिशा में जोटिलता-मन, वचन व काय की विरूपता- इतनी दूर जाऊंगा, उससे प्रागे न जाऊंगा: इत्यादिको प्राप्त हैं, जिनकी माहारादि संज्ञाएँ प्रगट हैं, रूप से तिर्यग्दिशानों-पूर्वादिक तिरछी दिशात्रों जो अतिशय प्रज्ञानी हैं, तथा अत्यन्त पापी हैं वे में-जाने का प्रमाण करने को तिर्यदिव्रत कहा तिर्यग् (तियंच) कहलाते हैं।
जाता है। नियंगति-सकलतिर्यक्पर्यायोत्पत्तिनिमित्ता तिर्य- तिर्यग्योनि-देखो तिर्यगाय । १.तिरश्चां योनिजना अथवा तिर्यग्गतिकर्मोदयापादिततिर्यक्पर्या. स्तियंग्योनिः, तिर्यग्गतिनामकर्मोदयापादितं जन्म । यकलापस्तिर्यग्गतिः। अथवा तिरो वकं कुटिलमि- (स. सि. ३-३६)। २.तिर्यङ्नामकर्मोदयापादितं व्यर्थः तदञ्चन्ति व्रजन्तीति तिर्यञ्चः, तिरश्चां गतिः जन्म तिर्यग्योनिः । तिर्यग्गतिनाम्नः कर्मण उदयेनातिर्यग्गतिः । (धव. पु. १, पृ. २०२)।
पादितं जन्म तिर्यग्योनिरिति व्यपदिश्यते । (त. वा. समन तियंच पर्यायों की उत्पत्ति में जो निमित्त ३, ३६, १); तिरोभावात्तियंग्योनिः। (त. वा. ४.
कोतिर्यगति कहते हैं, अथवा तियंग्गति नाम- २७,३)। ३. तिर्यङनामकर्मोदयापादित जन्म तिर्यकर्म के उदय से प्राप्त होने वाली तियंच अवस्थानों ग्योनिः । (त. श्लो. ३-४०)।
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
तिर्यग्लोक ]
९ तिर्यग्गति नामकर्म के उदय से प्राप्त जन्म को तिर्यग्योनि कहते हैं । तिर्यग्लोक - तिरियलोगो णाम जोयणलक्खसत्तभागमेत्तसूचिअंगुल बाहल्ल जगपदरमेत्तो । धव. पु. ४, पृ. ३७ ); तिरियलोगपमाणं जोयणलक्खसत्तभाग बाहल्लं जगपदरं । (घव. पु. ४, पृ. ४१ ) । एक लाख योजन के सातवें भाग मात्र सूचिचंगुल के बाहल्यरूप जगप्रतर को तिर्यग्लोक कहते हैं । तिर्यग्वरिज्या - १. गो-महिष्यादीन् प्रमुत्र (चा.सा. 'अत्र') गृहीत्वा अन्यत्र देशे व्यवहारे कृते भूरिवित्त लाभ इति तिर्यग्वणिज्या । (त. बा. ७, २१, २१ चा. सा. पृ. ९ ) । २. प्रस्माद् देशात् सुरभि महिषीबलीवर्द - क्रमेलक - गन्धर्वादीन् यदि अन्यत्र देशे विक्रीणीते तदा महान् लाभो भवतीति तिर्यग्वणिज्यानामको द्वितीयः पापोपदेशो भवति । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२१) ।
१ इस देश के गाय-भैंस आदि पशुओंों को लेकर दूसरे देश में बेचने पर अधिक लाभ होगा, इस प्रकार का उपदेश देने को तिर्यग्वणिज्या नाम का पापोपदेश कहते हैं । तिर्यग्व्यतिक्रम - देखो तिर्यगतिक्रम । १. तिर्यक् पूर्वादिदिक्षु योऽसौ भागो नियमितः प्रदेशः, तस्य व्यतिक्रमः ( तिर्यग्भागव्यतिक्रमः) । (योगशा. स्वो विव. ३ - ६७) । २. सुरंगादिप्रवेशस्तिर्यग्व्यतिक्रमः । (त. वृत्ति श्रुत. ७-३०)। ३. सुरंगादिप्रवेशस्तिर्य - ग्व्यतिक्रमः तिर्यग्दिशः प्रतिलङ्घनम् प्रतिचारः । ( कार्तिके. टी. ३४२ ) ।
१ तिरछी पूर्वादिक दिशानों के जितने भाग में जाने का नियम किया गया है उसके उल्लंघन करने को तिर्यग्व्यतिक्रम कहते हैं। यह दिग्व्रत का एक अतिचार है ।
तिर्यञ्च - देखो तिर्यग्गति । १. असेसकम्मुदयाविणाभावितिरिक्खग इणामकम्मोद इल्ला तिरिक्खा णाम । (घव. पु. १४, पृ. २३९ ) । २. कुटिला ये तिरोऽञ्चन्ति विवेकविकलाशयाः । मायाकर्मबलोपन्नास्ते तिर्यञ्चः प्रकीर्तिताः । (पंचसं श्रमित. १-१३८, पृ. २०)। ३ तिरस्तियंगञ्चन्ति गच्छन्ति, यदि वा तिरोहिताः स्वकर्मवशवर्तिनः सर्वासु गतिषु गच्छन्त्युत्पद्यन्त इति तिर्यञ्चः १ ( संग्रहणी दे. वृ. १, पृ. ३) ।
४ε३, जैन-लक्षणावली
[ तीर्थ
१ समस्त कर्मों के उदय के श्रविनाभावी तिर्यग्गति नामकर्म के उदय से युक्त जीव तिर्यञ्च कहलाते हैं । ३ जो वक्र गमन करते हैं अथवा अन्तर्हित होकर अपने कर्म के अनुसार सभी गतियों में जाते हैं— उत्पन्न होते हैं - वे तिर्यञ्च कहलाते हैं । तीक्ष्ण - द्रव्यहेतोः कृच्छ्रेण कर्मणा यः स्वजीवितविक्रयी स तीक्ष्णोऽसहनो वा । (नीतिवा. १४-३५, पृ. १७४) ।
धनादि द्रव्य के लिए श्रत्यन्त कष्टप्रद कार्य करके अपने जीवन को बेचने वाले गुप्तचर को तीक्ष्ण या असन चार कहते हैं । तीर्थ - देखो तीर्थंकर | १. तीर्थमपि स्वं जननसमुद्र त्रासितसत्त्वोत्तरणपथोऽग्रम् । (बृ. स्वयंभू. १०६) । २. तित्थं चाउव्वण्णो संघो सो पढमए समोसरणे । उप्पण्णो उ जिणाणं वीरजिणिदस्स वीमि ॥ ( आव.नि. २८७ ) । ३. तित्यंति पुव्वभणियं संघो जो णाण चरणसंघातो । इह पवयणं पि तित्थं तत्तोऽणत्यंतरं जेण ॥ (विशेषा. १३८७ ) । ४. तत्र येनेह जीवा जन्म-जरा-मरणसलिलं मिथ्यादर्शनाविरतिगम्भीरं महाभीषणकषायपातालं सुदुर्ल
.
ङ्घ्यमोहावर्तरौद्रं विचित्र दुःखौघदुष्टश्वापदं रागद्वेषपवनविक्षोभितं संयोग-वियोग-वीचीयुक्तं प्रबल - मनोरथवेलाकुलं सुदीर्घसंसार सागरं तरन्ति तत्तीर्थं - मिति । (ललितवि. पृ. १८); तीर्यतेऽनेनेति तीर्थम् । (ललितवि. पृ. ९०; श्राव. नि. हरि. वू. ८०, पृ. ५) । ५. तत्र येनेह जीवा जन्म-जरा-मरणसलिलं मिथ्यादर्शनाविरतिगम्भीरं विचित्रदुःखगणकरि-मकरं राग-द्वेषपवनप्रक्षोभितमनन्तसंसारसागरं तरन्ति तत्तीर्थमिति । तच्च यथावस्थितसकलजीवा• जीवादिपदार्थ प्ररूपकम् अत्यन्तानवद्यान्याविज्ञातचरण करणक्रियाधारम्, अचिन्त्यशक्तिसमन्विताविसंवाधुडुपकल्पं चतुस्त्रिशदतिशय समन्वित परमगुरुप्रणीतं प्रवचनम् । एतच्च संघः प्रथमगणधरो वा । तथा चोक्तम्- "तिस्थं भंते तित्थं ? तित्थकरे तित्थं ? गोयमा ! अरिहा नियमा ताव तित्थंकरे, तित्थं पुण जाउव्वण्णो समणसंघो पढमगणहरो वा" इत्यादि । (नन्दी. हरि. वू. पृ. ५० )। ६. एदेहि ( सम्मदंसण णाण-चरितेहि ) संसार- सायरं तरंति त्ति एदाणि तित्थं । ( धव. पु. ८, पृ. २); तित्थं दुवाल संगं XX X | ( धव. पु. १३, पु. ३६६) ।
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीथकर] ४६४, जैन-बसणावनी
[तीर्थकरनाम ७. मुक्त्युपायो भवेत्तीर्थ पुरुषास्तन्निषेविणः ॥ (म. कश्चन [केचन] तरन्ति श्रुतेन गणधरर्वालम्बनपु. २-३९); संसाराब्धेरपारस्य तरणे तीर्थमिष्यते। भूतैरिति श्रुतं गणधरा वा तीर्थम् । तदुभयकरणा(म. पु. ४-८)। ८. तरन्ति संसार-महार्णवं येन तीर्थकरः, xxx अथवा 'तिसु तिट्ठदि त्ति निमित्तेन तत्तीर्थम् । (युक्त्यनु. टी. ६२) । ६. तित्थं' इति व्युत्पत्तो तीर्थशब्देन मार्गो रत्नत्रयात्मतरन्ति संसारं येन भव्यास्तत्तीर्थम् । (भ. प्रा. कः उच्यते, तत्करणात्तीर्थकरो भवति । (भ. प्रा. विजयो. ३०२)। १०. धर्मसमबायिनः कार्यसम- विजयो. ३०२)। ५. 'तीर्थकरत्वेऽपि' अष्टमहावायिनश्च पुरुषास्तीर्थम् ॥ (नीतिवा. २-५)। प्रातिहार्यपूजोपचारभाजि प्राणिविशेषे xxx ११. दृष्ट-श्रुतानुभूतविषयसुखाभिलाषरूपनीरप्रवेश- यथायं भुवनाद्भुतभूतविभूतिभाजनं भुवनैकप्रभुः
तेन परमसमाधिपोतेनोत्तीर्णसंसार-समुद्रत्वात प्रभूतभक्तिनिर्भरामरनिकरनिरन्तरनिषेव्यमाणचरणो अन्येषां तरणोपायभूतत्वाच्च तीर्थम् । (प्रव. सा. भगवांस्तीर्थकरो वर्तते । (ललितवि. पं. प्र.६४. जय. ब.१-३)। १२. तीर्थ संसारनिस्तरणोपा-६५)। ६. तीर्यते संसार-समुद्रोऽनेनेति तीर्थम, यम । (प्राप्तमी. वसु. व. ३)। १३. भवोदधि तत्करणशीलास्तीर्थकराः। (जीवाजी. मलय. व. भव्यास्तरन्त्यनेनेति तीर्थम् । (चारित्रभ. टी. ८)। २-१४२, पृ. २५५)। १४. तीथं नद्यादेरिव संसारस्य तरणे सुखावतारो १ जो अनुपम पराक्रम के धारक-क्रोधादि मार्गः। (योगशा. स्वो. विव. २-१६); तीर्यते कषायों के उच्छेदक, अपरिमित ज्ञानी-केवलज्ञान संसार-समुद्रोऽनेनेति तीर्थम्, प्रवचनाधारश्चतुर्विध- से सम्पन्न, तीर्ण-संसार-समुद्र के पारंगत, सुगतिसंघः प्रथमगणधरो वा । (योगशा. स्वो. विव. ३, गतिगत-उत्तम पञ्चम गति को प्राप्त और १२४) । १५. तीर्यते संसार-ससुद्रोऽनेनेति तीर्थम्, सिद्धिपथ के उपदेशक हैं, वे तीर्थकर कहलाते है। तच्च सङ्घः इत्युक्तम् । इह तु तदुपयोगानन्यत्वात् उन्हें नियुक्तिकार नमस्कार करते हैं। ४ जिसके प्रवचनं तीर्थमुच्यते । (प्राव. नि. मलय. व. १२७, प्राश्रय से भव्य जीव संसार से पार उतरते हैंपु. १२६); तीर्थं नाम चातुर्वर्णः श्रमणसंघः। मुक्त होते हैं-वह तीर्थ कहलाता है। कितने ही (प्राव. नि. मलय. वृ. २३३, पृ. २०२); तीथं भव्य श्रुत अथवा गणधरों के प्राश्रय से तरते हैं, नाम प्रवचनम । तच्च निराधारं न भवतीति चतु. अतः श्रुत और गणधर भी तीर्थ कहलाते है।
सह उच्यते । (प्राव. नि. मलय.व. २८७, उक्त दोनों प्रकार के-श्रुत व गणधररूप-तीर्थ प. २०६)। १६. तीर्यते संसार-सागरोऽनेनेति को जो किया करते हैं वे तीर्थकर कहलाते हैं। तीर्थम् । (प्राव. भा. मलय. वृ. १६६, पृ. ५९२). अथवा रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग को भी तीर्थ कहा १ संसार-समुद्र से दुखी प्राणियों के पार उतारने जाता है। उसके करने से तीर्थकर कहे जाते हैं। वाले श्रेष्ठ मार्ग को तीर्थ कहते हैं। २ चातुर्वर्ण संघ तीर्थकरनाम-१. पार्हन्त्यकारणं तीर्थकरत्वनाम । को तीर्थ कहा जाता है। यह तीर्थ ऋषभादि २३ (स. सि. ८-११; त. श्लो. १-११; त. वृत्ति तीर्थंकरों के प्रथम ही समवसरण में उत्पन्न हुमा, श्रुत. ८-११)। २. तीर्थकरत्वनिर्वतंक तीर्थकर. किसन वीर जिनेन्द्र के द्वितीय समवसरण में उत्पन्न नाम। (त. भा. ८-१२) । ३. अर्हन्त्यकारणं
चतरूप चातर्वर्ण धमणसंघ अथवा तीर्थकरत्वं नाम। यस्योदयादान्त्यमचिन्त्यविभति. प्रथम गणधर को तीर्थ माना जाता है।
विशेषयुक्तमुपजायते तत्तीर्थकरत्वनामकर्म प्रतिपत्ततीर्थकर-१. तिस्थयरे भगवंते अणुत्तरपरक्कमे अमियनाणी। तिण्णे सुगइगइगए सिद्धिपहपदेसए उदयात् तीर्थ दर्शन-ज्ञान-चरणलक्षणं प्रवर्तयति. वंदे (प्राव. नि.८०)। २. चरण-करणसंपन्ना यति-गृहस्थधर्म च कथयति प्रालेप-मंत्री परीसपरायगा महाभागा । तित्थयरा भगवंतोx निर्वेदद्वारेण भव्यजनसंसिद्धये. सरास xx॥ (बहत्क. भा. १११५)। ३. तीर्थकरणशी- जितश्च भवति तत्तीर्थकरनामेति । (त. भार मातीकराः। (प्राव.नि. हरि.व.८० व ७४२)। व सिद्ध. वृ. ८-१२)। ५. तत्र तीर्थकरणशीला: ४ नोकर:-तरन्ति संसारं येन भव्यास्तत्तीर्थम् । तीर्थंकराः, अचिन्त्यप्रभावमहापुण्यसंज्ञिततन्नामकर्म
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीर्थकरसिद्ध] ४६५, जैन-लक्षणावली
[तीथसिद्ध विपाकतः । (ललितवि. पु. १८) । ६. तीर्थकरनाम तीर्थकर होकर सिद्ध होनेवाले जीवों के केवलज्ञान यदुदयात् सदेव-मनुष्यासुरस्य जगतः पूज्यो भवति । को तीर्थकरसिद्ध केवलज्ञान कहते हैं। (श्रा. प्र. टी. २४; धर्मसं. मलय. वृ. ६२१)। तीर्थकरादत्त-तीर्थकरादत्तं यत्तीर्थकरः प्रतिषि७. जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स तिलोगपूजा होदि धमाधाकर्मिकादि गृह्यते । (योगशा. स्वो. विव. तं तित्थयरं णाम । (धव. पु. ६, पृ. ६७); तित्थ- १-२२)। यरणामकम्मुदयजणिदअट्ठमहापाडिहेर - चोत्तिसदि- तीर्थङ्करों के द्वारा निषिद्ध प्राधार्मिक प्रादि का सयसहिया तित्ययरा। (घव. पु. ६,पृ. २४६); ग्रहण करना, इसे तीर्थकरादत्त कहते हैं। जस्स कम्मस्सुदएण जीवो पंच महाकल्लाणि पावि. तीर्थक्षत्रिय-मन्त्र्यादिपदमारूढा जीवने तीर्थदूण तित्थं दुवालसंग कुणदि तं तित्थयरणामं । (धव. क्षत्रियाः ।। (धर्मसं. श्रा. ६-२२७)।। पु. १३, पृ. ३६६)। ८. उदए जस्स सुरासुर. जीवननिर्वाह के लिए राज-मन्त्री प्रादि के पदों पर नरवइनिव हेहिं पूइयो होइ । त तित्थयरं नाम तस्स काम करनेवालों को तीर्थक्षत्रिय कहते हैं। विवागो उ केवलिणो ॥ (कर्मवि. ग. १४६)। तीर्थयात्रा-सा तीर्थयात्रा यस्यामकृत्यनिवृत्तिः । ६. यदुदयादष्टमहाप्रातिहार्ययुक्ताश्चतुस्त्रिशदतिशया (नीतिवा. २७-५०)। अनुभूयन्ते तत्तीर्थकरनाम । (पंचसं. स्वो. वृ. ३,१२७, प्रकार्य से निवृत्त होना, यही तीर्थयात्रा है । पृ. ३८) । १०. यस्य कर्मण उदयेन परमार्हन्त्यं त्र- तीर्थव्यवच्छेदसिद्ध तीर्थस्य व्यवच्छेदः सुविधिलोक्यपूजाहेतुर्भवति तत्परमोत्कृष्टं तीर्थकरनाम। स्वाम्याद्यपान्तरालेषु, तत्र ये जातिस्मरणादिनाsप(मला. व. १२-१९६)। ११. यदुदयाज्जीवः सदे- वर्गमार्गमवाप्य सिद्धास्ते तीर्थव्यवच्छेदसिद्धाः । व मनुजासुरलोकपूज्यमुत्तमोत्तमपदं धर्मतीर्थस्य । (प्रज्ञाप. मलय. वृ.७, पृ. १९) । प्रवर्तयितृत्वमवाप्नोति तत्तीर्थकरनाम । (कर्मस्त. सबिधि स्वामी प्रादि तीर्थंकरों के अन्तरालों में गो. व. १०, पृ. ८८) । १२. यदुदयवशात् अष्टम- तीर्थ का विच्छेद हना है, उसमें जो जातिस्मरणादि हाप्राति हाम्रप्रमुखाश्चतुस्त्रिशदतिशयाः प्रादुष्ष्यन्ति के द्वारा मोक्षमार्ग को प्राप्त करके सिद्ध हुए हैं वे तत्तीर्थकरनाम । (प्रव. सारो. व. १२६६, प्रज्ञाप. तीर्थव्यवच्छेदसिद्ध कहलाते हैं। मलय. वृ. २३-२६३, पृ. ४७५)।
तीर्थसंकथा-चेष्टितं जिननाथानां तस्योक्तिस्ती१ जो कर्म अरहन्त अवस्था की प्राप्ति का कारण र्थसंऋथा। (म. पु. ४-८)। है वह तीर्थकर नामकर्म कहलाता है। ४ जिस कर्म जिननाथ (तीर्थङ्करादि) के चेष्टित-जीवनवृत्तके उदय से दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप तीर्थका प्रव. के कहने को तीर्थसंकथा कहते हैं। र्तन किया जाता है, प्राक्षेप, संक्षेप, संवेग एवं तीर्थसिद्ध-१.तत्र तीर्थे चतुर्विधश्रमणसंधे उत्पन्ने निर्वेद द्वार से भव्य जनों की सिद्धि के लिए मनि- सति ये सिद्धाः ते तीर्थसिद्धाः । (योगशा. स्वो. विव. धर्म व गृहस्थधर्म का उपदेश दिया जाता है; तथा ३-१२४, पृ. २३१) । २. तीर्यते संसार-सागरोऽनेसुरेन्द्र, असुरेन्द्र एवं चक्रवर्ती से पूजित होता है उसे नेति तीर्थ यथावस्थितसकलजीवाजीवादिपदार्थसातीर्थकरनाम कहा जाता है।
र्थप्ररूपकं परमगुरुप्रणीतं प्रवचनम्, तच्च निराधारं न तीर्थकरसिद्ध-१. तीर्थकरसिद्धाः तीर्थकरत्वमनु- भवति इति संघःप्रथमगणघरो वा वेदितव्यः । उक्तं भूय सिद्धा: । (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४)। च-तित्थं भन्ते, तित्थं तित्थकरे तित्थं ? गोयमा, २. तथा तीर्थकराः सन्तो ये सिद्धास्ते तीर्थकरसि- अरिहा ताव (नियमा) तित्थकरे, तित्थं पुण चाउद्धाः। (प्रज्ञाप. मलय. वृ.७, पृ.१६) ।
वण्णो समणसवो पढमगणहरो वेति । तस्मिन्नुपपन्ने १तीर्थकर होकर सिद्ध होने वाले जीवों को तीर्थ- ये सिद्धास्ते तीर्थसिद्धाः। (प्रज्ञाप. मलय. कृ.७, करसिद्ध कहते हैं। तीर्थकरसिद्ध केवलज्ञान-तीर्थकरा: सन्तो ये सि- २जिसके द्वारा संसाररूपी समुद्र को पार किया द्धास्तेषां केवलज्ञानं तीर्थकरसिद्धकेवलज्ञानम् । जाता है वह तीर्थ कहलाता है, जो यथावस्थित (प्राव. मलय. व.७८, पृ. ८४)।
जीवाजीवादि पदार्थसमूह के प्ररूपक परमगुरु प्रणीत
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीर्थ सिद्ध केवलज्ञान]
४१६,
प्रवचनस्वरूप है । वह चूँकि निराधार सम्भव नहीं है, अतएब संघ अथवा प्रथम गणधर को तीर्थ समझना चाहिए। इस तीर्थ के उत्पन्न होने पर जो सिद्ध हुए हैं वे तीर्थसिद्ध कहलाते हैं । तीर्थ सिद्ध केवलज्ञान --ये तीर्थंकराणां तीर्थे वर्तमाने सिद्धास्तेषां यत्केवलज्ञानं तत्तीर्थं सिद्ध केवलज्ञानम् । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ७८, पृ. ८४) । तीर्थंकरों के तीर्थ के रहते हुए जो सिद्ध हुए हैं उनके केवलज्ञान को तीर्थ सिद्ध केवलज्ञान कहा जाता है ।
तीथंकर - देखो तीर्थंकर । तीव्रभाव – १. बाह्याभ्यन्तरहेतुदीरणवशादुद्रिक्तः परिणामस्तीव्रः (स. सि. ६ - ६ ) । २. प्रतिप्रवृद्धक्रोधादिवशात् तीवनात्तीव्रः । बाह्याभ्यन्तर हेतूदीरणवशादुद्रिक्तः परिणामः तीवनात् स्थूलभावात् तीव्रः इत्युच्यते । (त. वा. ६, ६,१) । ३. प्रति प्रवृद्धक्रोधादिवशात्तीव्रः स्थूलत्वादुद्रिक्तः परिणामः । (त. इलो. ६-६ ) । ४. बहिरन्तः कारणोदी रणवशात्तीव्र [व] ते स्थूलो भवति उद्रेकं प्राप्नोति उत्कटो भवति यः परिणामः स तीव्रः इत्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ६ - ६)।
१ अन्तरंग और बहिरंग कारणों की उदीरणा के वश उत्पन्न होनेवाले उत्कट परिणाम को तीव्रभाव कहते हैं ।
तीव्र - मन्दभाव - तत्थ तिव्व मंदभावो णाभ"सम्मत्तप्पत्ती विय सावय- विरदे अणतकम्मंसे । दंसणमोहक्खवए कसाय - उवसामए य उवसंते ॥ खवए य खीणमोहे जिणे यणियमा भवे असंखेज्जा ।
विवरीदो कालो संखेज्जगुणाए सेडीए ||" एदेसि सुत्तद्दिपरिणामाणं पगरिसापगरिसत्तं तिब्ब-मंदभाबो णाम । ( धव. पु. ५, पृ. १८६०८७) । 'सम्मत्तप्पत्ती विय' आदि गाथासूत्रों में निर्दिष्ट परिणामों की प्रकर्षता और प्रप्रकर्षता को तीव्रमन्दभाव कहा जाता है ।
जैन - लक्षणावली
तुच्छ – तुच्छास्त्वसारा मुद्गफलीप्रभृतय इति । ( श्रा. प्र. टी. २८६) ।
प्रसार वस्तु – जैसे मूंग की फली श्रादि को तुच्छ कहते हैं ।
तुला - पलशतं तुला । (त. वा. ३, ३८, ३) । सौ पल प्रमाण माप को तुला कहते हैं।
[तृणस्पर्शपरोषहजय
तुषित - तुष्यन्ति विषयसुख पराङ्मुखाः भवन्ति तुषिताः । त. वृत्ति श्रुत. ४ - २५ ) । जो विषयसुखों से पराङ्मुख होकर श्रात्म-सुख में सन्तुष्ट रहते हैं ऐसे ब्रह्मलोकान्तवासी विशेष लौकान्तिक देवों को तुषित कहते हैं ।
तुष्टि - १. XX X तुष्टिस्तद्देश वृत्तिता । (द्वात्रि. सिद्ध. १३ - १५) | २. तुष्टिः दत्ते दीयमाने च प्रहर्षः । (सा. ध. स्वो. टी. ५-४७)।
२ श्राहारादि के दे देने पर और देते समय भी उत्कृष्ट हर्ष को प्राप्त होना, यह तुष्टि नाम का एक दाता का गुण है ।
तृणसंस्तर - णिस्संधी य अपोल्लो णिरुवहदो समधिवास्सणिज्जंतु । सुहपडिले हो मउम्र तणसं - थारो हवे चरिमो ।। (भ. प्र. ६४४) । जो तृणसंस्तर (तृण से निर्मित बिस्तर) गांठ से रहित, निश्छिद्र, अखण्डित तृणों से निर्मित, जिसके ऊपर सोना-बैठना आदि भली भांति हो सकता हैजो खुजली श्रादि का करनेवाला न हो, तथा जन्तु रहित, सरलता से प्रतिलेखन योग्य और कोमल हो, वह अन्तिम (चतुर्थ) तृणसंस्तर होता है । तृणस्पर्श परीषहजय - १. तृणग्रहणमुपलक्षणं कस्यचिद् व्यघनदुःखकारणस्य, तेन शुष्कतृण परुषशकरा - कण्टक- निशितमृत्तिका शूलादिव्यघनकृतपादवेदनाप्राप्तो सत्यां तत्राप्रणिहितचेतसश्चर्या शय्यानिषद्यासु प्राणिपीडापरिहारे नित्यमप्रमत्तचेतसस्तृणादिस्पर्शबाधापरिषहविजयो वेदितव्यः । ( स. सि. E - 2 ) 1 २. तृणादिनिमित्त [मित ] वेदनायां मनसोsप्रणिधानं तृणस्पर्शजयः । यथाभिनिर्वृत्ताधिकरणशायिन: शुष्कतृण पत्र भूमि कण्टक फलक- शिलातलादिषु प्रासु केष्व संस्कृतेषु व्याधि-मागंगमन-शीतोष्णजनितश्रमविनोदार्थं शय्यां निषद्यां वा भजमानस्य तृणादिवाधित मूर्तेरुत्पन्नकण्डुविकारस्य दुःखमनभिचिन्तयतः तृणादिस्पर्शबाघावशीकृतत्वात् तृणस्पर्शसहनमवगन्तव्यम् । (त. वा. ६, ६, २२; चा. सा. पू. ५५ ) । ३. प्रभूताल्पाणुचेलत्वे कादाचित्कं तृणादिषु । तत्संस्पर्शोद्भदं दुःखं सहेन्नेच्छेच्च तान् मृदून् । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ६१८, पृ. ४०३ उद्.) । ४. शुषितृणस्य दर्भादेः परिभोगोऽनुज्ञातो गच्छ निर्गतानां गच्छ्वासिनां च तत्र येषां शयनमनुज्ञातं निष्पन्नानां तेषां (निशायां ते तान् ? ) दर्भान् भूमा
.
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीय प्रतिमा ]
४६७, जैन - लक्षणावली
[तेका
२ सातावेदनीय की तीव्र, तीव्रतर मन्द अथवा मन्दतर पीड़ा से जो प्यास की बाधा होती है उसका नाम तृषा है |
वास्तीर्य संस्तारकोत्तरपट्टकौ च दर्भाणामुपरि तृषा - १. पिपासा च तृषा । ( रत्नक. टी. ६) । विधाय शेरते, चौरापहृतोपकरणो वा प्रतनुकसंस्ता- २. असातावेदनीयतीव्र तीव्रतर मन्द मन्दतरपीडया कादिपट्टी वाऽत्यन्तजीर्णत्वात् तथापि तं परुषकुश- समुपजाता तृषा । (नि. सा. वृ. ६) । दर्भादितॄणसस्पर्शं सम्यगधिसहते यस्तस्य तृणस्पर्शपरीषहजयः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६ - ६ ) । ५. तृणा[मित] वेदनायां मनसोऽप्रणिधानं तृणस्पर्शजय: । (त. इलो. E-E)। ६. तृणस्पर्शः शुष्कतृण- परुषदशर्करा - कण्टक- निशितमृत्तिका कृतशरीरपादवेदनासहनम् । (मूला. वृ. ५-५८ ) । ७. श्रान्तः सन् श्रुतभावनाऽनशन सद्ध्यानाऽध्वयानादिमिः, स्तोकं कालमतिश्रमापहृतये शय्या-निषद्ये भजन् । शुद्धोर्वीतृण-पत्र संस्तर-शिलापट्टेषु तत्पीडन, कण्डूयादिसहो भवेदिह तृणस्पर्शक्षमी संयमी ॥ ( प्राचा. सा. ७-१२ ) । ८. तृणादिषु स्पर्शखरेषु शय्यां भजन्निपद्यामथ खेदशान्त्ये । संक्लिश्यते यो न तदतिजातखर्जुस्तृणस्पर्श तितिक्षुरेषः । (अन. घ. ६- १०५ ) । ६. यो मुनिः शुष्कतृणपत्र परुषशर्क रोपलनिशितकण्टमृत्तिकाशूल कटफलकशिला दिव्यधन विहितपादवेदdisपि सन् तत्राविहितचेताः चर्यायां शय्यायां निषद्यायाँ च जन्तुपीडां परिहरन् निरन्तरमेवाप्रमत्तचेताः शृणस्पर्शपरीषहसहः स हि वेदितव्यः । (त. वृत्ति श्रुत. ६ - ६ ) ।
१ सूखे तृण, कठोर कंकड़, कांटे, तोखी मिट्टी और कोल आदि के चुभने पर पैरों में वेदना के होते हुए जो उस ओर ध्यान न देकर चर्या (गमन), निषद्या ( बैठना ) और शय्या में प्राणिरक्षा के लिये सदा सावधान रहता है वह तुणस्पर्शबाघापरीषह का विजयी होता है ।
तृतीय प्रतिमा - त्रीन् मासानुभयकालमप्रमत्तः पूर्वोक्तप्रतिमानुष्ठानसहितः सामायिकमनुपालयतीति तृतीया । (योगशा. स्वो विव. ३ -१४८) । प्रमादरहित होकर दोनों कालों में पूर्व दो प्रतिमात्र के श्रनुष्ठानपूर्वक तीन मास तक सामायिक के परिपालन को तीसरी सामायिक प्रतिमा कहते हैं । तृतीय मूलगुरण - एवं चिय गामादिसु अप्प - बहु ( प्रदत्त) विवज्जणं तइम्रो । ( धर्मसं. हरि. ८५९ ) । इसी प्रकार क्रोधादि के वश होकर ग्राम व नगरावि में बिना दी हुई थोड़ी-बहुत वस्तु के ग्रहण करने के त्याग को तीसरा ( अचौर्य) मूलगण कहते हैं ।
ल. ६३.
तृषापरीषहजय-देखो पिपासापरीषहजय व पिपासासहन । १. तृषा - चारित्रमोहनीय वीर्यान्तरायापेक्षाsसातावेदनीयोदयादुदकपानेच्छा XXX तत्स हनं तृषापरीषहजयः । (मूला. वृ. ५-५७)। २. चण्डश्चण्डकरः स्थलस्थितपयः संचारिणः प्राणिनो भ्रष्टप्लुष्टतनूंस्तनोति नितरां यस्मिंस्तपे तापने तस्मिन् स्निग्धविरुद्ध भोजन रुजाऽऽतापादिपुष्यत्तृषां त्यक्ते निःस्पृहतामृतेन कृतधीर्मुष्णाति तृष्णाजयः ।। ( प्राचा. सा. ७-४) । ३. पत्रीवानियतासनोदवसतः स्नानाद्यपासी यथा लब्धाशी क्षपणाध्वपित्तकृदवष्वाणज्वरोष्णादिजाम् । तृष्णां निष्कुषिताम्बरीवदनां देहेन्द्रियोन्माथिनीं सन्तोषोद्धकरीरपूरितवरध्यानाम्बुपानाज्जयेत् ॥ ( झन. व. ६-६०) । २ सन्तापजनक जिस ग्रीष्म ऋतु में तीक्ष्ण सूर्य स्थलचर और जलचर जीवों के शरीर को प्रतिशय जलाया करता है उस (ग्रीष्म ऋतु) में चिक्कण भोजन के विपरीत (रूख) भोजन से उत्पन्न ताप (ज्वर) आदि से वृद्धिगत प्यास की बाधा को जो मनस्वी साधु निःस्पृहतारूप अमृत से शान्त करता है वह तृषापरीषहजयी होता है ।
तृष् - तृषः प्रभिष्वङ्गलक्षणाया: X XXI ( आव. नि. हरि. वृ. १०६७, पू. ४६८ ) । इन्द्रियविषयों में प्रासक्ति रखना, इसका नाम तृष् (तृष्णा) है।
तेज - १. मूलोष्णवती प्रभा तेजः । ( धव. पु. ८, पू. २०० ) । २. इतस्ततो विक्षिप्तं जलादिसिक्तं वा प्रचुर भस्मप्राप्तं वा मनाक् तेजोमात्रं तेज: कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १३ ) ।
१ मूल में जो अग्नि प्रादि की उष्ण प्रभा हुआ करती है उसका नाम तेज है ।
तेजकाय - १. तेऊ चित्तमंतमवखाया श्रणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्यपरिणएणं । ( दशवं. सू. ४,
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
कायिक ]
१, पृ. १३६ ) । २. भस्मादिकं परित्यक्तशरीरं तेजस्कायः । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १३ ) ।
१ तेजकाय या तेजकायिक जीव वे कहे जाते हैं जो चेतन्ययुक्त ('चित्तमत्त' पाठान्तर में 'अल्प चेतना वाले') होकर अनेक हैं व पृथक्-पृथक् हैं। २ प्रग्निकायिक जीव के द्वारा छोड़े गये भस्म प्रादिरूप कायको तेजकाय कहते हैं । तेजकायिक- १. तेज उष्णलक्षणं प्रतीतम्, तदेव कायः शरीरं येषां ते तेजःकायाः, तेजः काया एव तेजः कायिका: । ( दशवं. सू. हरि. यू. ४- १, पु. १३८ ) । २. तेजः कायत्वेन गृहीतं येन सः तेजकायिकः । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १३ ) । १ तेज नाम उष्ण का है, वही जिन जीवों का शरीर है वे तेजकाय या तेजकायिक कहलाते हैं । २ जिस जीव ने तेज - अग्नि प्रादि- को शरीर के रूप में धारण कर रक्खा है वह तेजकायिक कहलाता है ।
तेजजीव - विग्रहगती प्राप्तो जीवः तेजोमध्येऽवतरिष्यन् तेजोजीवः प्रतिपाद्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २-१३) ।
विग्रहगति में विद्यमान जो जीव श्रागे जाकर प्रग्निशरीर को धारण करने वाला है उसे तेजोजीव कहते हैं ।
तेजोजराशि - जम्हि रासिम्हि चदुहि श्रवहिरिज्जमाणे तिणि द्वांति सो तेजोजं । ( धव. पु. ३, पू. २४९); जो रासी चदुहि प्रवहिरिज्जमाणो XX X तिगग्गो सो तेजोजो । (घव. पु. १०, पृ. २३); चदुहि अवहिरिज्जमाणे जत्थ तिष्णि एंति सो तेजोजो । (धव. पु. १४, पृ. १४७ ) । जिस राशि में ४ का भाग देने पर ३ शेष रहें वह तेजोज राशि कहलाती है। तेजोलेश्या - - १. जाणइ कज्जाकज्जं सेयासेयं च सव्वसमपासी । दय-दाणरदो य विदू लक्खणमेयं तु ते उस्स || (प्रा. पंचसं. १-१५०; धव. पु. १, पु. ३८९ उद्.; गो. जी. ५१५ ) । २. दृढमित्रता - सानु क्रोशत्व सत्यवाद दानशीलात्मीयकार्यसम्पादनपटु - विज्ञानयोग - सर्वधर्म समदर्शनादि तेजोलेश्यालक्षणम् । (त. वा. ४, २२, १०)। ३: जाणइ कज्जमकज्जं सेयमसेयं च सव्वसमपासी । दय-दाणरत्र मउम्रो तेऊए कीरए जीवो ॥ ( धव. पु. १६, पृ. ४६१
४६८, जैन-लक्षणावली
[ तैजस
उद्) । ४. सम्यग्दृष्टिरविद्विष्टो हिताहितविवेचकः । वदान्यः सदयो दक्षस्तेजोलेश्यो महामनाः ॥ ( पंच. प्रमित. १-२७६, पृ. ३५) ।
१ कार्य प्रकार्य व सेव्य असेव्य का जानना, सबको समानरूप से देखना, दया दान में निरत रहना, तथा विद्वता ('मिट्ट' पाठ के अनुसार सरल परिणाम ) ; ये सब तेजोलेश्या के लक्षण हैं । २ दृढमित्रता, दाता, सत्यभाषित्व, दानशीलता, प्रात्मीक कार्य में कुशलता, विवेकिता और सर्वधर्मसमदशित्व प्रादि तेजोलेश्या के लक्षण हैं । तेजस - १. तेयप्पहगुणजुत्तमिदि तेजइयं । (ष. सं. ५, ६, २४० - पु. १४, पृ. ३२७ ) । २. यत्तेजोनिमित्तं तेजसि वा भवं तत्तेजसम् । ( स. सि. २-३६ ) । ३. तेजसो विकारस्तंजसं तेजोमयं तेजः स्वतत्त्वं शापानुग्रहप्रयोजनम् । ( त. भा. २-४६, पू. २१४ ) । ४. तेजोनिमित्तत्वात्तंजसम् । यत्तेजोनिमित्तं तत्तंजसमिदम्, तेजसि भवं वा तेजसमित्याख्यायते । (त. वा. २, ३६, ८ ); शंखधवलप्रभा लक्षणं तंजसम् । (त. वा. २,४६, ८ ); शङ्खघवलप्रभालक्षणं तेजसम् । तद् द्विविधम् - निःसारणात्मकमितरच्च । श्रौदारिक- वैक्रियिकाहारक देहाभ्यन्तरस्थं देहस्य दीप्तिहेतुरनिःसरणात्मकम् । यतेरुप्रचारित्रस्यातिक्रुद्धस्य जीवप्रदेशसंयुक्तं बहिर्निष्क्रम्य दाहा परिवृत्यावतिष्ठमानं निष्पावहरित फल परिपूर्णां स्थालीमग्निरिव पचति, पक्त्वा च निवर्तते, प्रथ चिरमवतिष्ठते श्रग्निसाद् दाह्यार्थी भवति, तदेततन्निःसरणात्मकम् । (त. वा. २, ४६, ८ ) । ५. तेजोभावस्तेजसं रसाद्याहारपाकजननं लब्धिनिबन्धनं च X XX। उक्तं च- xxx सव्वस्स उम्हसिद्धं रसादिश्राहारपागजणणं च । तेयगल द्धिनिमित्तं तेयगं होइ नायव्वं ||७|| ( धन्यो. हरि. वृ. पू. ८७ )। ६. इहोष्मभावलक्षणं तेजः सर्वप्राणिनामाहारपाचकम्, तस्य तेजसो विकारस्तैजसं तेजःसमावस्थान्तरापत्तिः । ( त. भा. हरि. बु. २- ५० ) ; तेजोगुणद्रव्यारब्धमुष्णगुणमाहारपरिपाचनक्षमं तेजःशरीरम् । ( त. भा. हरि. वृ. ८, १२) । ७. तेजोमयं तेजसम् । (भाव. नि. हरि. बु. ४३, पु. ३६ तथा १४३४ पू. ७६७) । ८. तेजइयणोकम्मसंचिदपदेसपिंडो तेजासरीरं णाम । ( घव. पु. १३, पू. ३१०); शरीरस्कन्धस्य पद्मरागमणि
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
तैजसशरीरनाम] ४६६, जैन-लक्षणावली
तेजससमुद्धात वर्णस्तेजः, शरीराम्निर्गत रश्मिकला प्रभा, तत्र भवं शरीररूपतया परिणमयति परिणमय्य च जीवप्ररोजसं शरीरम् ; तेजःप्रभागुणयुक्तमिति यावत् । देशः सह परस्परानुगमरूपतया सम्बन्धयति तत्तंज(धव. पु. १४, पृ. ३२८)। ६. तेजोनिमित्तत्वात्तै- सशरीरनाम । (प्रज्ञाप. मलय. व. २३-२६३, पृ. जसम् । (त. श्लो. २-३६)। १०. तेज इत्यग्निः , ४६९)। तेजोगुणोपेतद्रव्यवर्गणासमारब्धं तेजोविकारस्तेज १ जिस कर्म के उदय से तैजस वर्गणा के स्कन्ध एव वा तंजसमुष्णगुणं शापानुग्रहसामर्थ्याविर्भाव- नि:सरण-प्रनि:सरणरूप (शरीर से बाहर निकलने नम्, तदेव यदोत्तरगुणप्रत्यया लब्धिरुत्पन्ना भवति वन निकलने वाले) मोर प्रशस्त-अप्रशस्त तेजतदा परं प्रति दाहाय विसृजति रोष-विषाध्मात- सशरीरस्वरूप से परिणत होते हैं वह कारण में मानसो गोशालादिवत्, प्रसन्नस्तु शीततेजसाऽनुगृ- कार्य के उपचार से तैजसशरीर नामकर्म कहह्णाति । यस्य पुनरुत्तरगुणलब्धिरसती तस्य सतत- लाता है। मम्यवहृताहारमेव पाचयति, यच्च तत् पाचनशक्ति- तैजसशरीरबन्धननाम-१. जस्स कम्मस्स उदयुक्तं तत्तैजसमवसेयम् । (त. भा. सिद्ध. व. २, एण तेजासरीपरमाणू अण्णोण्णेण बंधमागच्छंति तं ३७): उष्णभावलक्षणं तेजः संसिद्धं सर्वप्राणिषु तेजासरीरबंधणणाम । (धव. पु. ६, पृ.७०)। पाचकमन्धसः, तस्यैवंविधस्य तेजसो विकारस्तंज- २. यदुदयात्तैजसपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां समवस्थान्तरापत्तिरिति । (त. भा. सिद.. च परस्परं कार्मणपुदगलैश्च सह सम्वन्धस्तत्तजस२-४९)। ११. तेजसमन्तस्तेजः शरीरोष्मा यतो बन्धननाम । (प्रज्ञाप. मलय. व. २३-२९३, पृ. भुक्तान्नादिपाको भवतीति । (न्यायकु. ७-७६, पृ. ४७०)। ८५२)। १२. तेजसां तेजःपुद्गलानां विकारस्तंज- १ जिस कर्म के उदय से तेजसशरीर के परमाणु सम्, तत् औष्मलिङ्गं भुक्ताहारपरिणमनकारणम्, परस्पर बन्धन को प्राप्त होते हैं वह तेजसशरीरततश्च विशिष्टतपःसमुत्थलब्धिविशेषस्य पुंसस्ते. बन्धन नामकर्म कहलाता है। २ जिसके उवय से जोलेश्याविनिर्गमः । (जीवाजी. मलय. वृ. १३, गृहीत और गृह्यमाण तैजस पुद्गलों का परस्पर में पृ. १४; प्रज्ञाप. मलय. वृ. २०-२६७)। १३. व कार्मण पुद्गलों के साथ सम्बन्ध होता है उसे तेजसनामकर्मोदयात् तेजोवर्गणया तेजसशरीरम् । तेजसबन्धन नामकर्म कहते हैं।। (गो. जी. जी. प्र. ६०६)। १४. तेजसनामकर्मो- तेजसशरीरसंघातनाम-जस्स कम्मस्स उदएण दयनिमित्तं वपुस्तेजःसम्पादकं यत्तत्तजसम्, तेजसि तेयासरीरक्खंधाणं सरीरभावमुवगयाणं बंधणणामवा भवं तेजसम् । (त. वृत्ति श्रुत. २-३६)। कम्मोदएण एगबंधणबद्धाणं मट्टत्तं होदि तं तेया१ जो शरीर तेज-शरीर-स्कन्ध का पनरागमणि सरीरसंघादं णाम । (धव. पु. ६, पृ.७०)। जैसा वर्ण-और प्रभा-शरीर से निकलने वाली जिस कर्म के उदय से शरीर अवस्था को प्राप्त हुए किरणकला-गुण से युक्त होता है उसे तैजस कहा तथा बन्धननामकर्म के उदय से एकबन्धनबद्धहए खाता है। ६ समस्त प्राणियों के माहार का पाचक तैजसशरीरस्कन्धों के स्रष्टता (चिक्कणता) होती जो उष्णतारूप तेज है उसके विकार को तेजस है उसे तैजसशरीरसंघातनामकर्म कहते हैं। शरीर कहते हैं।
तैजससमुद्घात-देखो तैजस । १. जीवानुग्रहोपतैजसशरीरनाम-१. जस्स कम्मस्स उदएण तेज- घातप्रवणतेजःशरीरनिर्वर्तनार्थस्तेजस्समुद्घातः। (त. इयवग्गणक्खंघा हिस्सरणाणिस्सरण-पसत्थापसत्थ- वा. १, २०, १२, पृ. ७७)। २. तेजासरीरप्पयत्तेयासरीरसरूवेण परिणमंति तं तेयासरीरं समुग्धादो णाम तेज इयसरीरविउव्वणं। (घव. पू. णाम, कारणे कज्जुवयारादो। (घव. पु.६, पृ. ४, पृ. २७) । ३. स्वस्य मनोऽनिष्टजनक किञ्चि६९)। २. यदयात्तजसवर्गणापुद्गलस्कन्धा निः- कारणान्तरमवलोक्य समुत्पन्नक्रोधस्य संयमनिषासरणानिःसरणप्रकामप्राप्तसमस्त-प्रत्येकस्वरूपेण भव- नस्य महामुनेर्मूलशरीरमत्यज्य सिन्दूरपुञ्जप्रभो
त तत्तजसशरीरं नाम । (मूला. व. १२-१९३)। दीर्घत्वेन द्वादशयोजनप्रमाणः सूच्यंगुलसंख्येयभाग ३. यदयात् तेजसशरीरप्रायोग्यानादाय तैजस- मूलविस्तारो नवयोजनाप्रविस्तारःकाहलाकृतिपरुषो
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
तंजससमुद्घात ]
वामस्कन्धान्निर्गत्य वामप्रदक्षिणेन हृदये निहितं विरुद्ध वस्तु भस्मसात्कृत्य तेनैव संयमिना सह स च भस्म व्रजति द्वीपायनवत् श्रसाव शुभस्तेजः समुद्धातः । लोकं व्याधि-दुभिक्षादिपीडितमवलोक्य समुत्पन्नकृपस्य परमसंयमनिधानस्य महर्षेर्मूलशरीरमत्यज्य शुभ्राकृतिः प्रागुक्तदेहप्रमाणः पुरुषो दक्षिणप्रदक्षिणेन व्याधिदुभिक्षादिकं स्फोटयित्वा पुनरपि स्वस्थाने प्रविशति असौ शुभरूपस्तेजः समुद्घातः । ( बु. द्रव्यसं. १०, पृ. २१) । ४. तेजसेन हेतुभूतेन समुद्घातस्तेजससमुद्घातः तेजसशरीरनामकर्माश्रयः । (जीबाजी. मलय. वू. १३. पू. १७ ) । १ जीवों के अनुग्रह और निग्रह करने में समर्थ ऐसे तैजसशरीर के कारणभूत समुद्धात को तैजससमुद्घात कहते हैं । ३ अपने मन को श्रनिष्ट प्रतीत होने वाले किसी कारणान्तर को देखकर जिसे क्रोध उत्पन्न हुआ है ऐसे संयम के धारक महामुनि के मूल शरीर को न छोड़कर सिन्दूरसमूह के समान प्रभा वाला, बारह योजन प्रमाण दीर्घ, सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण मूल विस्तार से व नौ योजन प्रमाण अग्र विस्तार से सहित घर काहल ( एक बाजा) के समान प्राकृति का धारक जो पुरुष उक्त मुनि के बायें कन्धे से निकल कर वाम प्रदक्षिण से मन में स्थित विरुद्ध वस्तु को निर्मूल जलाकर उसी संयमी मुनि के साथ स्वयं भी भस्मसात् हो जाता है— जैसे द्वीपा यन नामक मुनि, यह प्रशुभ तेजससमुद्धात है । लोक को रोग या प्रकाल से पीड़ित देखकर दयार्द्र हुए संयमी महर्षि के मूल शरीर को न छोड़कर धवल प्राकृति वाला पूर्वोक्त शरीर के प्रमाण पुरुष दक्षिण- प्रदक्षिण से उक्त रोग व अकाल आदि को नष्ट करके फिर भी अपने स्थान में प्रविष्ट हो जाता है, यह शुभरूप तजससमुद्घात है । तैर्यग्योन - देखो तिर्यग्योनि । १. क्षुत्पिपासाशीतोष्णादिकृतोपद्रवप्रचुरेषु तिर्यक्षु यस्योदयाद् बसमं ततैयंग्योनम् । क्षुत्पिपासा - शीतोष्ण - दंशमशकादिविविधव्यसनविधेयीकृतेषु तिर्यक्षु यस्योदयाद् वसनं भवति तत्र्त्तर्यग्योनमायुरवगन्तव्यम् । (त. वा. ८, १०, ६) । २. क्षुत्पिपासाशीतोष्ण वातादिकृतोपद्रव प्रचुरेषु तिर्यक्षु यस्योदयाद् वसनं तत्तैर्यग्योनम् । (त. इलो. ८-१० ) ।
ܘܘܥ
जैन - लक्षणांवली
[त्यक्तदेह
१ जिस कर्म के उवय से भूख प्यास, शीत श्रौर उष्ण आदि के अनेक उपद्रवों के सहने वाले तियंचों में रहना पड़ता है उसे तैर्यग्योन ( तिर्यगायु ) कहते हैं ।
तोरण - पुराणं पुराणं [ गोपुराणं] पासादाणं बंदणमालबंघणट्ठ पुरदो दुविदरुक्खविसेसा तोरणं णाम । (घव. पु. १४, पृ. ३९ ) । नगरगत गोपुरों के प्रासादों के वन्दनमाला बांघने के लिए जो वृक्षविशेष ( कदलीस्तम्भ आदि) स्थापित किये जाते हैं वे तोरण कहलाते हैं । तौष्टिक - तुष्टिर्दत्तवतो यस्य ददतश्च प्रवर्तते । देयासक्तमतेः शुद्धास्तमाहुस्तौष्टिकं जिनाः ॥ (प्रमित. आ. ६ - ५ ) ।
जो पूर्व में दे चुका है श्रथवा वर्तमान दे रहा है उसके देय द्रव्य में अनासक्त बुद्धि होने से सन्तोष रहता है, इसी से उसे तौष्टिक कहा जाता है । त्यक्तकृत्य - चियत्ते त्ति- संजमा हिकारियाणि छड्डेऊण सेवइ स त्यक्तकृत्यः । ( जीतक. चू. १, पू. ३, पं. १८ ) ।
जो संयमोचित कार्यों को छोड़कर सेवन करता है, अर्थात् रोगादि के कारण या असमर्थ अवस्था में अपवादरूप से जिनका सेवन करना पड़ा उनको यदि नीरोग व समर्थ होते हुए फिर भी सेवन करता है, तो वह त्यक्तकृत्य कहलाता है ।
त्यक्तदेह – १. त्यक्तदेहम् — जीवसंसर्गसमुत्थशक्तिजनिताहारादिपरिणामप्रभवपरित्यक्तोपचयम् । x X X उक्तं च वृद्धैः - आहारसत्तिजणिताऽऽहारेसुपरिणामजोवचयसुण्णं । भण्णइ हु चत्तदेहं देहोवरश्रोत्ति एगट्ठा ||४|| ( अनुयो. हरि वू. पू. १४) । २. जीविद मरणासाहि विणा सरूवोवलद्धिणिमित्तं व ( ? ) चत्त बज्भंत रंगपरिग्गहस्स कदलीघादेणियरेण वा पदिदसरीरं चत्तदेहमिदि । ( धव. पु. १, पृ. २६); भत्तपच्चक्खाणि गिणि पानवगमण विहाणेहि छंडिदसरीरो साहू XXX चत्तदेहो णाम । ( धव. पु. ६. पू. २६९ ) । ३. श्रायुषो भवमवेत्य प्रात्मनंव यत्यक्तं तत्त्यवतशब्देनोच्यते । (भ. श्री. विजयो. टी. ७५३ ) । ४. घादेण अघादेण व पडिदं चागेण चसमिदि । (गो. क. ५८ ) । ५. त्यक्तं भक्तादिकत्यागैर्घाताघातगतात्मकम् । ( श्राचा. ε-१२) । ६. त्यक्तं प्रायोपगमनेङ्खिनी - भक्तप्रत्या
सा.
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्यक्तदोष ]
ख्यानभेद समाधिमरणविसृष्टम् । ( लघीय. अभय. वृ. ७६, पृ. ६८ ) ।
१ जीव के सम्बन्ध से उत्पन्न हुई शक्ति के श्राश्रय से जो श्राहारादि का परिणमन होता है उसके प्रभाव से होने वाली वृद्धि के त्याग से शरीर के छूटने पर उसे व्यक्तदेह कहा जाता है । २ जीवन व मरण की अभिलाषा के विना श्रात्मस्वरूप की प्राप्ति के निमित्त बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रह का परित्याग कर देने वाले साधु का कदलीघात या अन्य प्रकार से जो शरीर छूटता है उसे त्यक्तदेह कहते हैं ।
त्यक्तदोष -- १. बहुपरिसाडणमुज्झिय श्राहारो परिगलंत दिज्जंतं । छंडिय भुंजणमहवा छंडियदोषो हवे णेश्रो ।। (मूला. ६ - ५६ ) । २. श्राहारं परिगलन्तं दीयमानं तक्र - घृतोदकादिभिः परिस्रवन्तं छिद्रहस्तैश्च बहुपरिसातनं च कृत्वाहारं यदि गृह्णाति त्यक्त्वा चैकमाहारमपरं भुंक्ते यस्तस्य त्यक्तदोषो भवति । (मूला. वू. ६-५६ ] ।
१ दाता के द्वारा देते समय नीचे गिरने वाले छांछ, घी व जल श्रादि के लेने को, अथवा स्वयं अपने ही छेदयुक्त हाथों में से नीचे गिरते हुए भी देखकर प्रहार के ग्रहण करने को त्यक्त अशनदोष कहते हैं ।
त्याग - १. णिव्वेग [य]तियं भावइ मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु । जो तस्स हवे चागो इदि भणिदं जिणवरिदेहि || ( द्वादशानु. ७८ ) । २. त्यागो दानम्, तच्छक्तितो यथाविधि प्रयुज्यमानं त्यागः । ( स. सि. ६-२४); संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्यागः । (स. सि. ६–६); ३. बाह्याभ्यन्तरोपघिशरीरान्नपानाद्याश्रयो भावदोषपरित्यागस्त्यागः । ( त. भा. ६ - ६ ) । ४. चागो णाम वेयावच्चकरणेण श्रायरियोवज्भयादीणं महंती कम्मनिज्जरा भवइ, तम्हा वत्थ पत्त- प्रोसहादीहि साहूण संविभागकरणं कायव्वंति । (दशवे. चू. १, पू. १८) ५. परप्रीतिकरणातिसर्जनं त्यागः । श्राहारो दत्तः पात्राय तस्मि नहनि तत्प्रीतिहेतुर्भवति, अभयदानमुपपादितमेकभवव्यसननोदनकरम्, सम्यग्ज्ञानदानं पुनः अनेकभवशतसहस्रदुःखोत्तरणकारणम् । श्रत एतत् त्रिविधं यथाविधि प्रतिपद्यमानं त्यागव्यपदेशभाग्भवति । (त. वा. ६, २४, ६ ) ; परिग्रहनिवृत्तिस्त्याग. ।
५०१, जैन-लक्षणावली
[ त्यागी
परिग्रहस्य चेतनाचेतनलक्षणस्य निवृत्तिस्त्याग इति निश्चीयते । (त. वा. ६, ६, १८ ) । ६. शक्तितरित्याग उद्गीतः प्रीत्या स्वस्यातिसर्जनम् । नात्मपीडाकर नापि सम्पद्यनतिसर्जनम् ॥ (त. इलो. ६, २४, ८ ) ; परिग्रहनिवृत्तिस्त्यागः । XX X दानं वा स्वयोग्यं त्याग: । (त. इलो. ६-६ ) । ७. बाह्या भ्यन्तरपरित्यजनं त्यागः । ( युक्त्यनु. टी. ६) । ८. जो चयदि मिट्टभोज्जं उवयरणं राय-दोससंजणयं । वर्साद ममत्तहेतुं चायगुणो सो हवे तस्स || (कार्तिके. ४०१) । ६. न चोज्झनमात्रं त्यागशब्देनोच्यते । कि तहि ? दानं विशिष्टसंप्रदानकमित्यर्थः । (त. भा. सिद्ध. ७-३३) । १०. संयत प्रायोग्याहारादिदानं त्यागः । (भ. श्री. विजयो. टी. ४६ ) । ११. त्यागस्तु धर्मशास्त्रादिविश्राणनमुदाहृतम् । (त. सा. ६-१९ ) । १२. त्यागः संयतस्य योग्यज्ञानादिदानं त्यागः । (मूला वू. ११-५) । १३. व्याख्या यत्क्रियते श्रुतस्य यतये यद्दीयतें पुस्तकम् । स्थानं संयम साधनादिकमपि प्रीत्या सदाचारिणा ॥ स त्यागः × × × ॥ ( पद्म. पं. १ - १०१ ) । १४. शक्त्या दोषैकमूलत्वान्निवृत्तिरुपधेः सदा । त्यागो ज्ञानादिदानं वा सेव्यः सर्वगुणाग्रणीः ॥ (अन. ध. ६-५२) । १५. श्राहाराभय-ज्ञानानां त्रयाणां विधिपूर्वकमात्मशक्त्यनुसारेण पात्राय दानं शक्तितस्त्याग उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २-२४); सयमिनां योन्यं ज्ञान-संयम-शौचोपकरणादिदानं त्यागः । (त. वृत्ति श्रुत. ९-६) ।
१ जो सब द्रव्यों में मोह को छोड़कर संसार, शरीर और भोग सम्बन्धी निर्वेद का चिन्तन करता है उसके त्याग होता है । २ संयत (साधु) के योग्य ज्ञान आदि के देने को त्याग कहते हैं । ३ बाह्य व अभ्यन्तर उपधि, शरीर और अन्न-पान आदि के प्राश्रय से होनेनाले भावदोष- मूर्छा, स्नेह व गृद्धि प्राबि के परित्याग का नाम त्याग धर्म है।
त्यागी- - १. जे य कंते पिए भोए, लद्धे वि पिट्ठि कुब्वइ । साहीणे चयई भोए, से हु चाइत्ति वुच्चइ ॥ ( दशवं. सू. २-३ ) । २. मार्गपादप इव स त्यागी यः सहते सर्वेषां संबाधाम् । (नीतिवा. ३२- ३, पृ. ३६१ ) । ३. यथा – मार्गपादपः सर्वेरभ्यागतैः पत्र-पुष्प फलैरुपचित्यमानोऽपि उपद्रवं
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्रयी ]
सहते तथा त्यागवानपि भोजन शयनादिभिः संबाध्यमानोऽप्यभ्यागतैः सहत । तथा च गुरुः- यथा मार्गतरुस्तद्वत् सहते य उपद्रवम् । अभ्यागतस्य लोकस्य स त्यागी नेतरः स्मृतः ॥ (नीतिवा. टी. ३२-३२) । जो शोभायमान व प्रिय भोगों को प्राप्त करके भी स्वाषीनतापूर्वक उनको पीछे करता है- उनसे विमुख होता है - और स्वेच्छा से छोड़ देता है वही त्यागी कहलाता है । २ जो मार्ग में स्थित वृक्ष के समान सभी श्रभ्यागतों की बाधा को—उपद्रव कोसहता है उसे त्यागी समझना चाहिए । त्रयी - १. जातिर्जरा मृतिः पुंसां त्रयी संसृतिकारणम् । एषा त्रयी यतस्त्रय्याः क्षीयते सा त्रयी मता ॥ ( उपासका ८८५) ।
जन्म, जरा और मरणरूप त्रयी (तीन) जीवों के संसार का कारण है । उसका जिस त्रयी- सम्यग् - दर्शन, ज्ञान और चारित्र — के द्वारा विनाश होता है उसे यथार्थं त्रयी कहते हैं ।
५०२, जन-लक्षणावली
त्रस - से जे पुण इमे भ्रणेगे वहवे तसा पाणा । तं जहा - अंडया पोयया जराउया रसया संसेइमा संभुच्छिमा उब्भिया उववाइया । जेसि के सिचि पाणाण श्रभिक्कतं पडिक्कतं संकुचियं पसारियं रुयं भंत तरियं पलाइयं प्रागइ-गइविन्नाया। जे य कीड-पयंगा जाय कुंथु - पिपीलिया सव्वे बेइंदिया सव्वं तेइंदिया सब्वे चउरिदिया सब्वे पचिदिया सव्वे तिरिक्खजोणिया सव्वे नेरइया सब्वे मणुना सव्वे देवा सव्वे पाणा परमाहम्मिश्रा एसो खलु छट्टो जीवनिकाओ तसकाउ त्तिपवुच्चइ । (दशवे. सू. ४-१, पृ. १३६ ) । २. त्रसनामकर्मोदयवशीकृतास्त्रसाः । ( स. सि. २, १२ ) । ३. त्रसनामकर्मोदयापादितवृत्तयस्त्रसाः । त्रसनामकर्मणो जीवविपाकिनः उदयापादितवृत्तिविशेषाः साः इति व्यपदिश्यन्ते । (त. वा. २, ११, १ ) । ४. तत्थ तसंतीति ( दशवं. चू. ४, पृ. १४७ ) । ५. परिस्पन्दादिमन्तः त्रसनामकर्मोदयात् त्रस्यन्तीति त्रसाः । ( त. भा. हरि. वृ. २- १२ ) । ६ त्रसनामकर्मोदयापादितवृत्तयस्वसाः । ( धव. पु. १, पृ. २६५-६६; त. इलो. २ - १२; त. वृत्ति श्रुत. २ - १२ ) । ७ त्रस्यन्तीति त्रसाः — त्रसनामकर्मोदयाः द्वीन्द्रियादयः । (सूत्रकृ. शी. बृ. २, ६, ४, पृ. १४० ) । ८ त्रसनामकर्मोंदयात् श्रस्यन्तीति त्रसाः द्वीन्द्रियादयः । ( स्थाना.
तसा ।
[सनाम
अभय. व. २-५७, पृ. ३६; व २, १, ७६, पृ. ५६ ) । ६. सन्ति उष्णाद्यभितप्ताः सन्तो विवक्षितस्थानादुद्विजन्ति गच्छन्ति च छायाद्यासेवनार्थं स्थानान्तरमिति त्रसाः । अनया च व्युत्पत्त्या सास्त्रनामकर्मोदयवर्तन एव परिगृह्यन्ते, न शेषाः । ( जीवाजी. मलय. वू. ६, पृ. ९ ) ।
१ बहुत से स प्राणी ये हैं- अण्डज (पक्षी आदि), पोत - हाथी श्रादि, जरायुज - गाय, भेंस व मनुष्य आदि; रसज-तक प्रादि में होने वाले पायुकृमि के प्रकार के श्रतिशय सूक्ष्म जीव, संस्वेदज— खटमल व जूं श्रादि सम्मूच्छिम - शलभ व चींटी आदि, उद्भिज-पतंगादि और श्रोपपातिक - वेबनारकी । इनमें किन्हीं के प्रभिमुख गमन, प्रतिकूल गमन, शरीरसंकोचन, प्रसारण, इधर-उधर गमन दुख से उद्वेजन, पलायन और गति श्रगति का ज्ञान भी होता है । कृमी आदि सब दोइन्द्रिय, कुन्थु प्रादिक सब तीन इन्द्रिय, पतंग श्रादि सब चौइन्द्रिय तथा गाय आदि तियंच, सब नारकी, सब मनुष्य और सब देव ये पंचेद्रिय होते हैं। ये सब त्रस माने गये हैं । २ सनामकर्म के वशीभूत जीव (द्वीन्द्रियादि) त्रस कहलाते हैं ।
त्रसनाम - ९. यदुदयाद् द्वीन्द्रियादिषु जन्म तत् त्रसनाम । ( स. सि. ८-११ त श्लो. ८-११ ) । २. भावनिर्वर्तक त्रसनाम । ( त. भा. ८-१२) । ३. यदुदयाद् द्वीन्द्रियादिषु जन्म तत् त्रसनाम । यस्योदयाद् द्वीन्द्रियादिषु प्राणिषु जंगमेषु जन्म लभते तत् त्रसनाम । (त. वा. ८, ११, २१) । ४. त्रस्यन्तीति त्रसाः -- द्वि- त्रि- चतुः पंचेन्द्रियलक्षणाः प्राणिन: यस्मात् तस्य कर्मण उदयात् तेषु परिस्पन्दोऽञ्जसा लक्ष्यते स तादृशो गमनादिक्रियाविशेषो यस्य कर्मण उदयाद् भवति तत् सत्वनिवर्तकं त्रसनाम । ( त. भा. हरि व सिद्ध. बृ. ८- १२ ) । ५ त्रसनाम यदुदयाच्चलनं स्पन्दनं च भवति । ( श्रा. प्र. टी. २२) । ६. जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं तसत्तं होदि तस्स कम्मस्स तसेत्ति सण्णा । (घव. पु. ६, पृ. ६१ ) ; जस्स कम्मस्सु - दएण जीवाणं संचरणासंचरणभावो होदि तं कम्मं तसणामं । ( धव. पु. १३, पृ. ३६५) । ७ त्रसन्ति उष्णाद्यभितप्ताः छायाद्यभिसर्पणेनोद्विजन्ते तस्मादिति सा द्वीन्द्रियादयः, तत्पर्यायविपाकवेद्यं कर्मापि
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
सनाली] ५०३, जैन-लक्षणावली
[त्रायस्त्रिश वसनाम । (कर्मस्त. गो. व. १०, पृ.८७)। ८. द्वी- दिवायुप्रेरितः सन् चलनधर्मा भवति, त्रस्यति पौरग्द्रियादिषु जन्मनिमित्तं वसाख्यं नाम । (भ. प्रा. स्त्यादिवायुप्रेरितः सन् गच्छतीति सः, स चासोमूला. टी. २१२१)। ६. सन्ति ऊष्माद्यभितप्ताः रेणुरिति व्युत्पत्तेः । (ज्योतिष्क. मलय. व. २-७४, सन्तो विवक्षितस्थानादुद्विजन्ते गच्छन्ति च छाया- पृ. ४३-४४)। ७. अष्टभिः परमाणुभिः (?) द्यासेवनार्थ स्थानान्तरमिति सा द्वीन्द्रियादयः, एकस्त्रसरेणुः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३८)। तत्पर्यायपरिणतिर्वेद्य नामकर्मापि त्रसनाम । (प्रज्ञाप. १ पाठ ऊर्ध्व रेणुमों का एक प्रसरेणु होता है। मलय. वृ. २३-२६३, पृ. ४७४)। १०. सनाम २ पाठ टिरेणुगों के समुदाय को त्रसरेण कहते यदुदयाच्चलन-स्पन्दने भवतः, चंक्रमणमेवान्ये । हैं । ७ पाठ परमाणुओं से एक प्रसरेणु होता है। (धर्मसं. मलय वृ. ६१६, पृ. २३३)। ११. यदुद- त्रसस्थिति-- पुवकोडिपुत्तेणब्भहियबेसागरोवमयेन द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियेषु जन्म सहस्समेता तसट्ठिदी। (धव. पु. ५, पृ. ६५)। भवति तत् त्रसनाम । (त. वत्ति अत. ८-११)। पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक दो हजार सागरोपम १ जिस कर्म के उदय से द्वीन्द्रियादि जीवों में जन्म प्रमाण त्रसस्थिति है। होता है उसे त्रसनामकर्म कहते हैं। २ जो कर्म त्राण-त्राणम् अनर्थप्रतिहननम्, तद्धेतुत्वात् त्राणम् । त्रसभाव (त्रस पर्याय) को उत्पन्न करने वाला है (ोपपा. अभय. वृ. ६, पृ. १५)। उसे असनामकर्म कहा जाता है।
अनर्थ के विधात का नाम त्राण है, उसके कारण त्रसनाली-१. लोयबहुमज्झदेसे तरुम्मि सारं व होने से श्रमण भगवान महावीर को त्राण कहा रज्जुपदरजुदा । तेरसरज्जुच्छेहा किचूणा होदि गया है। तसनाली ॥ उववाद-मारणंतियपरिणदतस लोयपूर- त्रास्त्रिश-१. मंत्रि-पुरोहितस्थानीया: त्राय
ण गदो। केवलिणो अवलंबिय सव्वजगो होदि स्त्रिशाः, त्रयस्त्रिशदेव त्रायस्त्रिशाः। (स. सि. ४, तसनाली। (ति.प.२-६ व ८)। २. लोयबह- ४)। २. त्रास्त्रिशा मंत्रि-पुरोहितस्थानीयाः। (त. मज्झदेसे रुक्खे सारव्व रज्जुपदरजुदा। चोद्दसर- भा. ४-४)। ३. मंत्रि-पुरोहितस्थानीयास्त्रायस्त्रिज्जुत्तुंगा तसणाली होदि गुणणामा ॥ (त्रि. सा. शाः । यथेह राज्ञां मंत्रि-पुरोहिताः हितानुशासिन१-१४३)।
स्तथा तन्द्राणां त्रायस्त्रिशा वेदितव्याः । (त. वा. १ वृक्ष के मध्यगत सार के समान लोक के बहमध्य ४, ४, ३)। ४. त्रयस्त्रिशति जाता त्रायस्त्रिशाः भाग में स्थित एक राजु लम्बे-चौड़े और कुछ कम xxx महत्तर-पितृ-गुरूपाध्यायतुल्याः। (त. (३२१६२२४१३ धनुष) तेरह राजु ऊंचे क्षेत्र को इलो. ४-४) । ५. त्रायस्त्रिशास्त्रयस्त्रिशदेव देवाः प्रसनाली कहते हैं । अथवा उपपाद और मरणान्तिक- प्रकीर्तिताः । पुरोधोमंत्र्यमात्यानां सदृशास्ते दिवीगत त्रस और लोकपूरणसमुद्घातगत केवलीको अपेक्षा शिनाम् ॥ (म. पु. २२-२५)। ६. त्रयस्त्रिशदेव त्रयसमस्त लोक को ही असनाली समझना चाहिए। स्त्रिशत्संख्याका एव त्रायस्त्रिशाः,xxxते पुनरित्रसरेणु-१. अट्ठ उड्ढरेणू प्रो सा एगा तसरेणू। न्द्राणां राज्यभरचिन्तादिशान्तिक-पौष्टिकादिकर्मका(भगवती. ६, ७, १; जम्बुद्वी. २-१९)। २. ति- रिणो मंत्रि-पुरोहितस्थानीयाः । (संग्रहणी. दे. वृ. १, त्तियमेत्तहदेहि तुडिरेणूहि पि तसरेणू । (ति. प. पृ. ४)। ७. त्रास्त्रिशा मंत्रि-पुरोहितप्राया हरेः १-१०४) । ३. अष्टौ त्रुटिरेणवः संहताः एकस्त्र- पुनः। (त्रि.श. पु. च. २, ३, ७७२)। ८. तथा सरेणुः । (त. वा. ३, ३८, ६)। ४. पुरस्तदादि- त्रयस्त्रिशदेव त्रयस्त्रिशत्संख्याका एव त्रायस्त्रिशाः, वायुना प्रेरितः त्रस्यति-गच्छतीति तसरेणुः। त्रायस्त्रिशा इन्द्राणां मंत्रि-पुरोहितस्थानीयाः । (अनुयो. चू. पृ. ५४)। ५. ते अष्टौ त्रसरेणुः। (बहत्सं. मलय. वृ. २)। ६. त्रयस्त्रिशदेव संख्या (संग्रहणी दे. वृ. २४५, पृ. १११); त्रस्यति पूर्वा- येषां ते त्रायत्रिंशा मंत्रि-पुरोहितसमानाः । (त. वृत्ति दिवातप्रेरितो गच्छति यो रेणः स त्रसरेणुः। श्रुत. ४-४) । (संग्रहणी दे. वृ. २४६, पृ. १११)। ६. अष्टा- १ इन्द्रों के मंत्री व पुरोहित के समान जो देव संख्या वूर्वरेणव एकस्त्रसरेणुः, सरेणु म यः पौरस्त्या- में तेतीस ही होते हैं वे बायर्यास्त्रश कहलाते हैं।
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
बासनी]
५०४, जैन-लक्षणावली [त्रिःकृत्वा (तिक्खुत्त) त्रासनी-बद्धमुष्टेर्दक्षिणहस्तस्य प्रसारिततर्जन्या जन्म, जरा और मरणरूप तीन पुरों को ध्यानरूपी वामहस्ततलताडनेन त्रासनी । (निर्वाणक. १६, ६, अग्नि से भस्म करने वाले अरिहंतदेव को त्रिपुरा१८)।
न्तक कहते है। दाहिने हाथ को मुट्ठी बांधकर और तर्जनी को त्रिलोचन-तृतीयज्ञान नेत्रेण त्रैलोक्यं दर्पणायते । पसार कर बाई हथेली पर ताड़ने को त्रासनी मुद्रा यस्यानवद्यचेष्टायां स त्रिलोचन उच्यते ।। (प्राप्तकहते हैं।
स्व. २८)। त्रिक-त्रिकोणं स्थानं त्रिकं यत्र रथ्यात्रयं मिलति। केवलज्ञानरूप ततीय नेत्र से तीन लोकों के जानने (जीवाजी. मलय. व. २-१४२, पृ. २५८)। देखने वाले अरिहन्तों को त्रिलोचन कहते हैं। जिस स्थान पर तीन ओर से मार्ग आकर मिलते हैं
त्रिवलित-१. त्रिवलितं शरीरस्य त्रिषु कटिउसे त्रिक कहते हैं।
हृदय-ग्रीवाप्रदेशेष मंगं कृत्वा ललाटदेशे वा त्रिवलि त्रिकावनत (तियोरगद)-प्रोणदं अवनमनम्,
कृत्वा यो विदधाति वन्दनां तस्य त्रिवलितदोषः । भूमावासनमित्यर्थः। तं च तिणि वारं कीरदे त्ति
(मूला. वृ.७-१०८)। २. त्रिवलितं कटि-ग्रीवातियोणदमिदि भणिदं। तं जहा-सुद्धमणो धोदपादो
हृद्भगो भ्रकुटिर्नवा ।। (अन. ध. ८-१०६)। जिणिददसणजणिदहरिसेण पूल इदंगो संतो जं जिण
१कटि, हृदय और ग्रीवा को भंग कर (शकाकर) स्स अग्गे वइसदि तमेगोणदं। जमुट्रिऊण जिणिदा
अथवा ललाट पर त्रिवली पाड़ करके प्राचार्यादि दीणं विणत्ति कादण वइसणं तं विदियमोणदं ।।
की वन्दना करने को त्रिवलित दोष कहते हैं। पुणो उट्रिय सामाइयदंडएण अप्पद्धि काऊण सकसायदेहस्सग्गं करिय जिणाणंतगूणे ज्झाइय चउवीस
त्रिशिखमुद्रा-संमुखहस्ताम्यां वेणीवन्धं विधाय तित्थराणं वंदणं काऊण पुणो जिण-जिणालय-गुर
मध्यमाङ्गुष्ठ कनिष्ठिकानां परस्परयोजनेन त्रिशिख
मुद्रा। (निर्वाणक. १६, ६, १०)। वाणं संथवं काऊण जं भूमीए वइसणं तं तदियमोण
सामने की ओर दोनों हाथों को जोड़कर मध्यमा, दं । एवं एक्केक्कम्हि किरियाकम्मे कीरमाणे तिण्णि चेव प्रोणमणाणि होति । (धव. पु. १३, पृ. ८९)।
अंगष्ठ और कनिष्ठिका अंगलियों के परस्पर जोड़ने 'प्रोणव' का अर्थ अवनमन अर्थात् भूमि में बैठना
को त्रिशिखमुद्रा कहते हैं। है, वह चूंकि तीन बार किया जाता है, अत: उसे
त्रिस्थानबन्धक-एत्थ असादाणु भागो पुव्वं व सेतिम्रोणद–त्रिकावनत-कहा जाता है। यथा- डिआगारेण ठइदूण चत्तारिभागेसु कदेसु तत्थ पढमपादप्रक्षालनपूर्वक शद्ध मन से जिनेन्द्र के दर्शन
भागो णिबसभो एगदाणं, विदियभागो कंजीरसमो करके हर्ष से रोमांचित होता हया जो जिनदेव के विदियट्ठाण, तदियभागो विससमो तदियआगे बैठता है. यह एक अवनमन है। फिर उठ ढाणं । तत्थ तिण्णि ठाणाणि जम्हि अणभागकरके जिनेन्द्र प्रादि की विज्ञप्ति करके बैठना,
बंधे सो तिढाणो णाम, तस्स बंधया जीवा तिट्ठाणयह दूसरा अवनमन है। पश्चात् उठ करके सामा- बंधा ।(धव. पु. ११, पृ. ३१२-१४) । यिकदण्डक से प्रात्मशद्धि करके कषाय के साथ असातावेदनीय के अनुभाग को श्रेणिके आकार से शरीर से ममत्व छोड़ता हा जिनेन्द्रों के अनन्त
स्थापित कर चार भाग करने पर प्रथम स्थान गणों का ध्यान करता है, फिर चौबीस तीर्थकरों नीम के समान, दूसरा कांजीर के समान, तीसरा की वन्दना करके पश्चात् जिन, जिनालय व गरु विष के समान और चौथा हलाहल के समान है। की स्तुति करता हा जो भूमि में बैठता है। यह इन चार स्थानों में से तीन स्थान जिस अनभागतीसरा अवनमन है। इस प्रकार एक-एक क्रिया- बन्ध में होते हैं वह त्रिस्थानबन्ध और उसके बन्धक कर्म करते हुए तीन अवनमन होते हैं।
त्रिस्थानबन्धक कहलाते हैं । त्रिपुरान्तक -जन्म-मृत्यु-जराख्यानि पुराणि ध्या- त्रिःकृत्वा (तिक्खुत्त) - पदाहिण-णमंसणादिन-बह्निना । दग्धानि येन देवेन तं नौमि त्रिपू. किरियाणं तिण्णिवारकरणं तिक्खत्तं णाम । अधवा रान्तकम् ॥ (प्राप्तस्व. २५)।
एकम्हि चेव दिवसे जिण-गुरु-रिसिवंदणामो तिण्णि
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्रीन्द्रियजातिनाम ]
वारं किज्जति त्ति तिक्खुत्तं णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ८) ।
प्रदक्षिणा और नमस्कार आदि क्रियानों के तीन बार करने का नाम तिक्खुत्त या त्रिः कृत्वा है । श्रथवा एक ही दिन में जो तीन बार जिन, गुरु और ऋषियों को वन्दना की जाती है उसे तिवखुत्त जानना चाहिए । त्रीन्द्रियजातिनाम - १. जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं तीइंदियभावेण समाणत्तं होदि तं तोइंदिय जादिणाम । ( व. पु. ६, पृ. ६८ ) । २. यदुदयाज्जीवस्त्रीन्द्रिय इति शब्द्यते तत् त्रीन्द्रियजातिनाम | (त. वृत्ति श्रुत. ८-११) ।
१ जिस कर्म के उदय से जीवों के श्रीन्द्रिय श्रवस्था से समानता होती है उसे त्रीन्द्रिय जातिनाम कर्म कहते हैं ।
त्रीन्द्रिय जीव - १. कुंथु - पिपीलिय-मंक्कुण विच्छियजूदिगोव- गोम्ही य । उत्तिग-मट्टियाई णेया तेईदिया जीवा ॥ ( प्रा. पंचसं. १-७१; धव. पु. १, पृ. २४३ उद्.) । २. त्रीणि इन्द्रियाणि (स्पर्शनरसन घ्राणानि येषां ते त्रीन्द्रियाः । (घव. पु. १, पृ. २४२); त्रीन्द्रियजातिनामकर्मोदयात् त्रीन्द्रियः । ( धव. पु. १, पू. २४८ व २६४ ) ; तं चेव घाणिदियं फास - जिभिदियाविणाभावेण तेइंदियजादिणामक मोदयाविणाभावेण वा तेइंदियो णाम । तेण जुत्तो जीव वि इंदियो होदि । ( धव. पु. ७, पृ. ६५) । ३. स्पर्शन - रसन- घ्राणेन्द्रियावरण क्षयोपशमात् शेषेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रियावरणोदये च सति स्पर्शरस-गन्धानां परिच्छेत्तारस्त्रीन्द्रिया श्रमनसो भवन्ती ति । (पंचा. का. अमृत. वृ. ११५) । ४. त्रयाणां स्पर्शन-रसन-घ्राणेन्द्रियज्ञानानां (आवरणक्षयोपशमात् तत्रज्ञान भाजः ) त्रीन्द्रिया: । ( कर्मस्त. गो. वृ. १०, पू. १७ ) ।
३ स्पर्शन, रसना और घ्राण इन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम से तथा शेष इन्द्रियावरण और नोइन्द्रियावरण कर्म का उदय होने पर स्पर्श, रस प्रौर गन्ध के जानने वाले जीवों कोत्रीन्द्रिय जीव कहते हैं । त्रुटित - चतुरशीतिः त्रुटिताङ्गशतसहस्राणि एकं त्रुटितम् । (जीवाजी. मलय. वृ, २-१७८, पृ. ३४५ ; ज्योतिष्क, मलय. वृ. २ - ६६, पृ. ४० ) ।
ल. ६४
[योजकृतयुग्म
चौरासी लाख त्रुटितांगों का एक त्रुटित होता है । त्रुटिताङ्ग – १. चतुरशीतिः पूर्ववर्षशतसहस्राणि एकं त्रुटिताङ्गम् । (जीवाजी. मलय. वृ. २- १७८, पृ. ३४५ ) । २. चतुरशीतिमहाकुमुदशतसहस्राण्ये कं त्रुटिताङ्गम् । ( ज्योतिष्क मलय. वृ. २-६८, पू. ४० ) ।
१ चौरासी लाख पूर्व वर्षों को एक त्रुटितांग कहते हैं । २ चौरासी लाख महाकुमुदों को एक त्रुटितांग कहते हैं ।
५०५, जैन - लक्षणावली
त्रुटिरेणु - १. श्रट्टट्ठ े गुणिदेहि सण्णासण्णेहि होदि तुडरेणू । ( ति प १ - १०४ ) । २. भ्रष्टो संज्ञासंज्ञा एकत्रुटि रेणु: । (त. वा. ३, ३८, ६) । ३. ताभिरप्यष्टसंज्ञाभिः त्रुटि रेणुः स्फुटीकृत: । (ह. पु. ७-३८) ।
१ श्राठ संज्ञासंज्ञों का एक त्रुटिरेणु होता है । त्रेता, त्रेतौज-१. चतुर्विभवते XX X त्रिशेषः त्रेतासंज्ञः । (पंचसं स्वो वृ. बं. क. ५८, पृ. ५० ) । २. केचिद् विवक्षिता राशयश्चत्वारः स्थाप्यन्ते तेषां चतुभिः भागो ह्रियते, भागे च हृते सति XXX यस्य त्रयः शेषाः स त्रेतोजो, यथा पञ्चदश । (पंचसं. मलय. वृ. ब. क. ५८, पृ. ५० ) ।
१ जिस राशि में चार का भाग देने पर तीन शेष रहें उसे त्रेता या त्रेतौज कहा जाता है । जैसे१५ : ४ = ३, शेष ३ । त्रैलोक्यगुरु - त्रैलोक्यवासिसत्वेभ्यो गृणन्ति शास्त्रामिति त्रैलोक्यगुरवः । (पञ्चसू. हरि. वू. पृ. १ ) । जो त्रिलोकवासी प्राणियों को शास्त्र के अर्थ को कहते हैं, उन्हें त्रैलोक्यगुरु कहते हैं ।
त्र्यत्र - यत्र त्रिकोणम् । ( संग्रहणी दे. वृ. २७२ ) । त्रिकोण वस्तु को यत्र कहते हैं । त्र्योजकल्योज - जेणं रासी चउवकएणं प्रवहारेणं वहीरमाणे एगपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेोया से तं तेश्रोगकलिप्रोगे । ( भगवती ३५, १, १ ) ।
जिस राशि में चार का भाग देने पर एक शेष रहे और उसके अपहार समय त्र्योज हो उसे योजकल्योज राशि कहते हैं ।
त्र्योजकृतयुग्म - जेणं रासी चउक्कएणं श्रवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए, जेणं तस्स रासि -
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
योजत्र्योज]
५०६, जैन-लक्षणावली [दण्ड (मापविशेष) स्स अवहारस मया तेप्रोगे से तं तेप्रोगकडजुम्मे। जो द्रव्य त्वक् और नोत्वक् का स्पर्श करता है वह (भगवती. ३५, १, १)।
सब त्वक्स्पर्श कहलाता है। जिस राशि में चार का भाग देने पर चार शेष
दक्षत्व-दक्षत्वम् प्राशकारित्वम् । xxx रहें-कुछ भी शेष न रहे-और उसके अपहार दक्खत्तं किरियाणं जं करणमहीणकालंमि ॥ (प्राव. समय योज हों उसे ज्योजकृतयग्म कहते हैं। नि. हरि. वृ. ८४३, पृ. ३४६) । म्योजव्योज-जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं जिस प्रकार यान व प्रावरण (कवच) प्रादि सामग्री अवहीरमाणे तिपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अव- से यक्त योद्धा जयलक्ष्मी को प्राप्त करता है उसी हारसमया तेश्रोया से तं तेप्रोगतेप्रोगे। (भगवती प्रकार जीवरूप योद्धा यथासम्भव व्रतादिरूप यानादि ३५, १, १)।
सामग्री से सुसज्जित होकर कर्मरूप शत्रु पर विजय जिस राशि में चार का भाग देने पर तीन शेष रहें प्राप्त करता हा मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करता और अपहार समय ज्योज हों उसे योजत्र्योज है। उस सामग्री के अन्तर्गत एक दक्षत्व भी है । कहते हैं।
यद्ध में आवश्यक कार्य को शीघ्रता से सम्पन्न योजद्वापरयुग्म-जे णं रासी चउक्कएणं अव- करना, इसका नाम दक्षत्व है । इसी प्रकार कर्महारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए, जे णं तस्स रासि- रूप शत्रु पर विजय प्राप्त करने में प्रावश्यक स्स अवहारसमया तेग्रोया से तं तेप्रोगदावरजुम्मे । क्रियानों को ठीक समय पर करने रूप दक्षत्व की (भगवती. ३५, १, १)।
भी प्रावश्यकता रहती है। जिस राशि में चार का भाग देने पर दो शेष रहें दक्षिरणत्व-दक्षिणत्वं सरलता। (प्रौपपा. मलय.
और उसके अपहार समय त्र्योज हों उसे व्योज- व. १०, पृ. २२; रायप. मलय. वृ. ४, पृ. २७)। द्वापरयुग्म कहते हैं।
सरलता को दक्षिणत्व कहते हैं । यह ३५ वचनात्वक् (तय)-तयो णाम रुक्खाणं गच्छाणं कंघाणं तिशयों में छठा है। वा वक्कलं। (घव. पु. १३, पृ. १६)।
दण्ड (मापविशेष)- १. बेरिक्कूहि दंडोx वृक्ष, गच्छ और स्कन्ध के बकला को त्वक् (त्वचा) xx। (ति. प. १-१५) । २. दो कुच्छीग्रो कहा जाता है।
दंडं घणू जुगे नालिया अक्खे मुसले। (अनुयो. स. त्वक्पानक (तयापारणए)-से किं तं तयापा. १३३, पृ. १५७)। ३. दंडं घj जुगं नालिया य गए ? जण्णं अंबं वा अंबाडगं वा जहा परोगपदे अक्ख मुसलं च चउहत्था । (ज्योतिष्क. २-७६, जाव वोरं बा तिदुरुयं वा तरुणागं वा प्रामगं वा पृ. ४१)। ४. दण्डः किष्कुद्वयं दण्डः धनुर्नाड्या प्रासगंसि प्रावीलेति वा पवीलेति वा ण य पाणियं समा मता: । (ह. पु. ७-४६) । ५. चउरयणि दंड पियइ से तं तयापाणए । (भगवती खं. ३, १५, मणि भवहि । (म. पु. पुष्प. १, पृ. २४)। ६.x २७, पृ. ३८८)।
xx वे किवखहि य हवे तहा दंडो। (जं. दी. प. जो प्राम अथवा प्रांवला इस प्रकार प्रयोगपद १३-३३)। ७. दण्डो हि चतुःकरः । (समवा. (प्रज्ञापना १६-२०५, पृ. ३२८) में कहे अनुसार अभय. वृ. ६६, पृ. ६१)। ८. चत्वारो हस्ता दण्डो बेर पर्यन्त तथा तिन्दुरुक (तेंदू) भी, ये चाहे धनुर्वा युगं वा नालिका वा क्षो वा मुसलं वा। तरुण-अधपके-हों या कच्चे हों, उन्हें मुख में (ज्योतिष्क. मलय. व. २.७६, प. ४४)। ६. चतुभिः डालकर थोड़ा चबाने या अधिक चबाने, किन्तु हस्तमपित एको दण्डः1xxx चतुर्भी रत्निभिः पानी न पीने; वह त्वचापानक (त्वचा पानी) कह- दण्डः कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३८)। लाता है।
१ दो रिक्कुप्रों (किष्कुओं) का एक दण्ड होता है । त्वकस्पर्श (तयफास)-जं दव्वं तयं वा णोत्तयं २ दो कुक्षियों (कुक्षि२ हाथ) का एक दण्ड होता वा पुसदि सो सव्वो तयफासो णाम । (धव. पु. है। ३ दण्ड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष व मसल ये १२, .. १६)!
समानार्थक नाम हैं।
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
दण्ड (अपराधप्रतीकार)] ५०७, जन-लक्षणावली
[दण्डुक्कल दण्ड (अपराधप्रतीकार)-१. वधः परिक्लेशो- तत्थ जं पढमसमए देसूणचोद्दसरज्जुउस्सेहं सगविऽर्थहरणं दण्डः। (नीतिवा. २६-७४, पृ. ३३३)। क्खंभपमाणवट्टपरिवेद []मप्पाणं कादूण ट्रिदीए प्र२. दण्डयते-ज्ञानाद्यैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते प्रा- संखेज्जे भागे अणुभागस्स अणंते भागे घादेदण त्माऽनेनेति दण्डः । (स्थाना. अभय. वृ. १-३, पृ. चेदि तं दंडं णाम । (धव. पु. १३, पृ. ८४)। १३)। ३. दण्डः शरीर-धनयोरपहारः। (विपाक. २. अंतोमुहुत्ताउगे सेसे केवली समुग्धादं करेमाणो अभय. व.४, पृ. ४२)। ४. यत्र शत्रोर्वधः क्रियते, पुवाहिमुहो उत्तराहिमुहो वा होदूण काउस्सग्गेण परिक्लेशो वार्थहरणं वा क्रियते स दण्ड उच्यते। वा करेदि, पलियंकासणेण वा। तत्थ काउस्सग्गेण तथा च जैमिनि:-वधस्तू क्रियते यत्र परिक्लेशो- दंडसमुग्घादं कुणमाणस्स मूलसरीरपरिणाहेण ऽथवा रिपोः। अर्थस्य ग्रहणं भूरिदण्डः स परि- देसूणचोद्दसरज्जुमायामेण दंडायारेण जीवपदेसाणं कीर्तितः॥ (नीतिवा. टी. २६-७४)। विसप्पणं दंडसमुग्घादो णाम । (जयघ. प. १२३८%; १ शत्रु का वध करना, उसे कष्ट देना, अथवा घव. पु. ६, पृ. ४१२, टि. ४)। उसकी सम्पत्ति का अपहरण करना; इसका नाम १ अन्तर्मुहूर्त मात्र प्रायु के शेष रह जाने पर
सयोगकेवली दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण दण्डनीति-यथादोषं दण्डप्रणयनं दण्डनीतिः । समुद्घातों को करते हैं । इनमें प्रथमतः दण्डसमह. (नीतिवा. ६-२, पृ. १०६)।
घात के करने में उनके जो प्रात्मप्रदेश अपने शरीर अपराध के अनुसार दण्ड की व्यवस्था करना, यह के विस्तार प्रमाण अथवा उससे तिगने विस्तार दण्डनीति कहलाती है।
प्रमाण, विस्तार से तिगुनी परिधिवाले तथा चौदह दण्डपारुष्य-वधः परिक्लेशोऽर्थहरणं वा क्रमेण राजु प्रमाण लम्बे दण्ड के आकार में निकलते हैं। दण्डपारुष्यम् । (नीतिवा. १६-३०, पृ. १७६)। इसका नाम दण्डसमुद्घात है। अपराधी का वध करने, क्लेश पहुंचाने या धन के दण्डायतशयन-१. दण्डवदायतं शरीरं कृत्वा अपहरण करने को दण्डपारुष्य-दण्ड की कठोरता- शयनम् । (भ. प्रा. विजयों. २२५) । २. दण्डव. कहते हैं।
दायतं शरीरं कृत्वा शेते इत्येवं व्रतं यस्य स दण्डापरमा-दक्षिणहस्तेन मष्टि बध्वा तर्जनी प्रसा- यतशायी साधुस्तत्साहचर्यात्तच्छयनमपि तथोक्तं रयेदिति दण्डमुद्रा। निर्वाणक. १६, ७, १)। दण्डायतशयनम् । (भ. प्रा. मूला. २२५) । दाहिने हाथ की मट्री को बांध कर तर्जनी के पसारने १ दण्ड के समान शरीर को लम्बा करके सोने को को दण्डमुद्रा कहते हैं।
दण्डायतशयन कहते हैं। दण्डसमुद्घात- १. तत्थ दंडस मुग्घादो णाम दण्डासन-श्लिष्टांगुली श्लिष्टगुल्फो अश्लिष्टोक पूबसरीरबाहल्लेण तत्तिगुणबाहल्लेण वा सविक्खं- प्रसारयेत् । यत्रोपविश्य पादौ तद्दण्डासनमुदीरितमा सानो गाटियतिगणपरिटाण केवलिजीवपदेसाणं (योगशा. स्वो. विव.४-१३१.प.मा, दंडागारेण देसूणचोद्दस रज्जुविसप्पणं । (धव. पु. ४, जिस प्रासन में बैठ करके दोनों पैरों को अंगलियों, प. २८); पढमसमये दंडं करेदि । तम्हि ट्ठिदीए गुल्फों (गाँठों) और जंघाओं को संसष्ट (संबडी असंखेज्जे भागे हणदि । सेसस्स च अणुभागस्स करते हुए उनको फैलाते हैं उसे दण्डासन कहते है। अप्पसत्थाणमणते भागे हणदि । (धव. पु. ६, पृ. दण्डुक्कल-से किं तं दंडुक्कले ? दण्डुक्कले णामं ४१२); तत्थ पढमसमए देसूणचोद्दसरज्जुमायामेण जेणं दंडदिळंतेणं आदिल्ल-मज्झवसाणाणं (प्रादिल्लसगदेहविक्खंभादो तिगुणविक्खंभेण सगदेहविक्खंभेण मज्भवसाण) पण्णवणा, एसमुदयमेत्ताभिधाणाई. वा विक्खंभतिगणपरिरएण एगसमएण वेदणीयट्ठिदि णस्थि सरीरातो परं जीवो त्ति भगवति वोडेयं व खंडिदण विणासिदसंखेज्जाभागं अप्पसत्याणं कम्मा- से तं दंडक्कले । (ऋषिभाषित २०, ५.१५) गं अणभागस्स घादिदग्रणंताभागं दंडं करेदि । (धव. दण्ड के दृष्टान्त द्वारा जीव के प्रावि, मध्य और अन्त प.१०.प्र. ३२०); सजोगिजिणो अंतोमुहुत्तावसेसे की प्ररूपणा करना व यह कहना कि शरीरको पाउए दंड-कवाड-पदर-लोगपूरणाणि करेदि । छोड़कर अन्य कोई जीव नहीं है, इस प्रकार जीव
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
दत्ति]
५०८, जैन-लक्षणावली
[दयादत्ति के प्रभाव को बतलाना, इसे दंडुक्कल (दण्डोत्कल) (श्रा. प्र. टी. २८८)। २. दन्त-केश-नखास्थिकहा जाता है। यह पांच उत्कलभेदों में प्रथम है। त्वग्रोम्णो ग्रहणमाकरे । सांगस्य वाणिज्याथं दन्तदत्ति-तत्र करस्थालादिभ्यो ऽव्यवच्छिन्नघारया बाणिज्यमुच्यते । (योगशा. ३-१०७, पृ. ५६९%3 या पतति भिक्षा सा दत्तिरभिधीयते, भिक्षाविच्छेदे त्रि. श. पु. च. ६, ३, ३४१) । ३. दन्तवाणिज्यं च द्वितीया दत्तिः, सिक्थमात्रेऽपि पात्रे पतिते भिन्नैव यत्पूर्वमेव पुलिन्दाणां मूल्यं ददाति दन्तान् मे यूयं दत्तिरिति । (प्रव. सारो. व. १९७)।
दद्याते ति, ततस्ते हस्तिनो घ्नन्ति अचिरादसौ हाथ के थाल प्रादि से प्रखण्ड धारापूर्वक जो भिक्षा वाणिजक एष्यतीति कृत्वा। (धर्मबिन्दु व. ३-२६)। गिरती है उसे दत्ति कहते हैं, भिक्षा का विच्छेद ४. दन्तवाणिज्यं हस्त्यादिदन्ताद्यवयवानां पुलिन्दाहोने पर दूसरी दत्ति कहलाती है, पात्र में सीथ दिषु द्रव्यदानेन तदुत्पत्तिस्थाने वाणिज्याथं ग्रहमात्र के भी गिरने पर भिन्न ही दत्ति मानी जाती णम् । (सा. ध. स्वो. टी. ५-२२)। है। इस प्रकार एक-दो प्रादि दत्तियों की संख्या के दांतों को देने के लिए जो पहिले ही भीलों को अनुसार जो भोजन ग्रहण किया जाता है वह दस मूल्य दे दिया जाता है उसके लिए भील पीछे 'वह प्रकार के प्रत्याख्यान में परिमाणकृत प्रत्याख्यान शीघ्र ही प्राने वाला होगा' इस विचार से हाथी माना जाता है।
का घात करते हैं, यह दन्तवाणिज्य कहलाता है। दत्ति-ग्रासपरिमारण---१. दत्ति घासपरिमाणं एके- दन्तसंस्कार-दन्तमलापकर्षणं तद्रंजनं वा दन्तनैव दीयमानं द्वाभ्यामेवेति दानक्रियापरिमाणम्, संस्कारः। (भ. प्रा. विजयो. टी.९३)। पानीतायामपि भिक्षायाम् इयत एवं ग्रासान् गृह्णामि दांतों के मैल के निकालने तथा उनके रंगने को इति वा परिमाणम् । (भ. प्रा. विजयो. २१६)। दन्तसंस्कार कहते हैं। २. दत्ति-घासपरिमाणं एके नैव दायकेन द्वाभ्यां वा दम-१. मनोज्ञामनोजेन्द्रियविषयेषु राग द्वेषविरदीयमानस्य ग्रहणं दत्तिपरिमाणम्, पानीतायामपि तिर्दमः संयमः। (युक्त्यनु. टी. ६)। २. दम इन्द्रिभिक्षायां इयत इव ग्रासान् ग्रहीष्यामि इति धास- यजयः । (योगशा. स्वो. विव. २-३१, पृ. २७५)। परिमाणम् । (भ. प्रा. मूला. २१६) ।
१ इष्ट-अनिष्ट इन्द्रियविषयों में राग-द्वेष के छोडने एक ही दाता के द्वारा अथवा दो ही दाताओं के द्वारा का नाम दम-संयम है। २ इन्द्रियों पर विजय दिये जाने वाले भोजन को ग्रहण करूंगा, इस प्रकार प्राप्त करना, इसे दम कहते हैं। के दानक्रिया के प्रमाण को दत्तिपरिमाण कहते हैं। दम्भ-दम्भनं दम्भो वेष-वचनाद्यनुमेयः । (त. भा. लाई गई भिक्षा में भी इतने ही ग्रासोंको ग्रहण करूंगा, सिद्ध. व.८-१०)। इस प्रकार ग्रासों का प्रमाण करने को प्रासपरि- वेष और वचन प्रादि से जिस छल-कपट का अनमाण कहा जाता है। .
मान किया जा सकता है उसे दम्भ कहते हैं। यह दस्तकर्म-हत्थिदंतेसु किण्णपडिमानो दंतकम्म। माया कषाय का पर्याय नाम है। (धव. पु. ६, पृ. २५०); हत्थिदंतुक्किण्णपडिमानो दया-१.xxx दया प्राण्यनुकम्पनम् । (म. दंतकम्माणि णाम। (धव. पु. १३, पृ. १०); पु. ५-२१)। २. दया भूतानुकम्पा। (योगशा.
तविकणजिणिदपडिमानो दंतकम्माणि स्वो. विव. २-४); दया करुणा । (योगशा. स्वो. मामा (धव. पु. १३, पृ. २०२); दंतिदंतादिसु विव. ३-१६)। ३. दया दुःखार्तजन्तुत्राणाभिलाषः । घडिदरूवाणि दंतकम्माणि णाम । (धव. पु.१४, (अन. घ. स्वो. टी.४-१) ।
१प्राणियों के प्रति अनुकम्पा करने को-उनके मामी के दांतों पर उकेरी गई प्रतिमानों को दन्तकम दुःख को देखकर स्वयं दुख के अनुभव करने कोकहते हैं।
दया कहते हैं। दन्तवाणिज्य-१. दन्तवाणिजं-पुचि चेव दयादत्ति- १. सानुकम्पमनुग्राह्य प्राणिवन्टेपूलिदाणं मुल्ल देइ दंते देज्जाहित्ति, पच्छा पुलिंदा भयप्रदा । त्रिशुद्धयनुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधः। हत्थि पाएति अचिरा सो वाणियनो एतित्ति काउं। (म. पु. ३८-३६) । २. दयादत्तिरनुकम्पयाऽनु
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
टट रटाष-१.ददरमात्मायशब्दनान्यषा शब्दा. गागा एम'
दयावत] ५०६, जैन-लक्षणावली
[दर्शन (उपयोग) ग्राह्य भ्यः प्राणिभ्यस्त्रिशुद्धिभिरभयदानम् । (चा. क्रियते सा दपिका (व्यव. सू. भा. मलय. व. सा. पृ. २१, कार्तिके. टी. ३६१, पृ. २६०)। २-३८, पृ. १४)। १ अनुग्रह के योग्य प्राणिसमूह के लिए मन, वचन बिना कारण जो बाह्य वस्तु का सेवन किया जाता और काय की शुद्धिपूर्वक अभयदान देना-उनके है, उसका नाम दपिका प्रतिसेवना है। कष्ट को दूर करना, इसका नाम दयादत्ति है। दर्शन (सम्यग्दर्शन)-१. दंसेइ मोक्खमग्गं दयावत—साकल्येन देशतो वा प्राणिहिंसातो विर- सम्मत्तं संयम सुधम्म च। निग्गंथं णाणमयं जिणतिर्दयावतम् । (युक्त्यनु. टी. ६)।
मग्गे दंसणं भणियं ।। (बो. प्रा. १४)। २.xx प्राणिहिंसा के एकदेश या सर्वदेश त्याग को दयावत x जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं । (मो. प्रा. ३७)। (अहिंसावत) कहते हैं।
३. दंसणं अत्तागम-पदत्थेसु रुई पच्चो सद्धा फोसप्रात्मीयशब्देनान्येषां शब्दा- णमिदि एयट्ठो। (धव. पु.६,.३८); अत्तागमनभिभूय महाकलकलं बृहद्बलेन कृत्वा यो वन्दनां पयत्येसु पच्चो रुई सद्धा पासो च दंसणं णाम । करोति तस्य दर्दुरदोषः। (नूला. व. ७-११०)। (धव. पु. १३, पृ. ३५७-३५८)। ४. वस्तुयाथात्म्य२. दुर्दरो [दर्दुरो] ध्वनिनाऽन्येषां स्वेन च्छादयतो श्रद्धानं दर्शनम् । (भ.प्रा. विजयो. १६) । ५. दर्शध्वनीन् । (अन. घ. ८-११०)।
नमात्मविनिश्चिति: xxx। (पु. सि. २१६)। अपने शब्दों से दूसरे के शब्दों को दबाकर अतिशय ६.xxx दर्शनं तत्त्वरोचकम् । (चन्द्र. च.१८, बलपूर्वक महान कलकल करते हुए वन्दना करने १२४)। ७. दृश्यन्ते-श्रद्धीयन्ते पदार्था अनेनास्मादको दर्दुरदोष कहते हैं।
स्मिन् वेति दर्शनम्, दर्शनमोहनीयस्य क्षयःक्षयोपशमो दर्प-१. दो वलकृतः ।(त. भा. सिद्ध. व. ८-१०)। वा, दृष्टिर्वा दर्शनम्-दर्शनमोहनीयक्षयाद्याविर्भूत२. तत्थ दप्पो धावण-डेवणाई । (जीतक. स्तत्त्वश्रद्धानरूप प्रात्मपरिणामः। (स्थाना. अभय. चू. १, पृ. ३)। ३. अमीषामयमर्थः-धावण त्ति व.१-४३, पृ. २१-२२)। ८. रुचिराप्तागमनिःकारणेण खडयप्पयाणं धावणं, डेवणं गत्तवर- पदार्थानां दर्शनं मढवजितम् । (प्राचा. सा. ३-३)। डाईफडणं। आदिशब्दात् मल्लवत् बाहजुद्धकरणं ६. दर्शनविशोधिकानि यानि सूत्राणि शास्त्राणि वा लगुडिभमाडणं । (जीतक. चू. वि. व्याख्या पृ. तानि दर्शनम् । (ब्यव. भा. मलय. व. १-१०३, ३४)। ४. पुनरकुशलपरिणामतः प्रतिषेवणा सा पृ. ३२)। १०.xxxदर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धानम । दर्पः । दर्पप्रतिसेवना, दपिका इत्यर्थः। (व्यव. सू. (भ.प्रा. मूला. २)। ११. Xxx श्रद्धानं तस्य भा. मलय. वृ. १-३६, पृ. १६); दो निष्कारणो दर्शनम् । (धर्मश. २१-१६२) । १२. प्राप्तागमऽनादरः। (व्यव. सू. भा. मलय. वृ. ४-३२६, पृ. पदार्थानां श्रद्धानं दर्शनं विदुः । (जी. चम्पू. ७-६)। ६१); व्यायाम-वल्गनादिषु व्यापृततया यो नि- १जो मोक्षमार्ग, सम्यक्त्व, संयम और उत्तम धर्म कारणोऽनादरः उपस्थापनाया: स दर्प उच्यते । को दिखलाता है तथा जो परिग्रह से रहित होकर (व्यव. सू. भा. मलय. वृ. ४-३२७, पृ. ६२); ज्ञानस्वरूप है उसे दर्शन कहा गया है। ३ प्राप्त, दो निष्कारणधावन-वल्गन-वीरयुद्धादिकरणम् । प्रागम और पदार्थों में जो रुचि होती है उसे दर्शन (व्यव. सू. भा. मलय. व. १०-१३४, पृ. ८४)। कहते हैं। रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा और दर्शन ये समा. १ बलकृत अहंकार का नाम दर्प है। ३ निष्प्रयो. नार्थक शब्द हैं। जन दौड़कर, उछल-कूदकर और युद्धादि करके दर्शन (उपयोग)-१. जं सामण्णग्गहणं सणअपने बल के प्रदर्शन करने को वर्प कहते हैं। मेयं xxx (सन्मति. २-१) । २. अनाकार ४ अकुशल परिणाम से-अविरति मादिरूप भाव दर्शनम् । (त. वा. ३, ६, १); दर्शनावरणक्षयसे-बाह्य वस्तु के प्रतिसेवन का नाम दर्प-दपिका क्षयोपशमाविर्भूत वृत्तिरालोचनं दर्शनम् (त. वा. ९, प्रतिसेवना है। बिना प्रयोजन के दौड़ना व वीर- ७, ११, पृ. ६०४)। ३. जीवस्वाभाव्यात् सामायुद्धादि करना, इसे दर्प कहा जाता है। न्यप्रधानं उपसर्जनीकृतविशेषमर्थग्रहणं दर्शनमुच्यते । पिका-देखो दर्प। या कारणमन्तरेण प्रतिसेवना (ललितवि. पृ. ६३)। ४. सामान्यावबोधो दर्शनम ।
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
दर्शन (उपयोग)] ५१०, जैन-लक्षणावली
[दर्शन (उपयोग) (त. भा. हरि. व. २-६)। ५. दर्शनावरणकर्म- ६. किंचिदित्यवभास्यत्र वस्तुमात्रमपोद्घतम् । तद्क्षयोपशमादिजं सामान्यमात्रग्रहणं दर्शन मिति । ग्राहि दर्शनं ज्ञेयमवग्रहनिबन्धनम्। (त. श्लो. १, उक्तं च-जं सामण्णग्गहणं भावाणं कटु नेय १५, ११)। १०. दर्शनस्यानाकारग्रहणं स्वरूपम् । प्रागारं । अविसेसिऊण अत्थं दंसणमिति वुच्चए (अष्टस. १५, पृ. १३२)। ११.xxx शुद्धसमए ।। (अनुयो. हरि. वृ. पृ. १०३; अनुयो.मल, नयः पुनरनाकारमेव सङ्गिरते दर्शनम् प्राकारहेम. वृ. १४४, पृ. २२०) । ६. जं एत्थ णिवि- वच्च ज्ञानम्। (त. भा. सिद्ध. व. २-६) । सेसं गहो विसेसाण दंसणं होति । (धर्मसं. हरि. १२. यद्विशेषमकृत्वैवं गृहीते वस्तुमात्रकम् । निरा१३६४) । ७. अप्पविसनो उवोगो दंसणं । (घव. पु. ६, प. ६); तदात्मक-(सामान्य-विशेषात्मक-) २-१२); दर्शनावरणस्य स्यात् क्षयोपशमसन्निधौ ।
मालोचनं पदार्थानां दर्शनं तच्चतविधम ॥ (त. सा. नामाकारं प्रतिकर्मव्यवस्थामकृत्वा यद् ग्रहणं तद्द- २-८६)। १३. सामान्यग्राहि दर्शनम् । (पंचा. र्शनम् (धव. पु. १, पृ.१४७); मालोकनवृत्तिर्वा- का. अमृत. वृ. ४१)। १४. भावाणं सामण्णदर्शनं । अस्य गमनिका-मालोकत इत्यालोकन- विसेयाणं सरूवमेत्तं जं। वण्णणहीणग्गहणं जीवेण मात्मा, वर्तनं वृत्तिः, पालोकनस्य वृत्तिरालोकनवृत्तिः य दंसणं होदि । (गो. जी. ४५३)। १५. रूपादीनां स्वसंवेदनम, तद्दर्शनमिति लक्ष्यनिर्देशः । प्रकाश- पदार्थानां सामान्यास्यावलोकनम् । चतुर्घा दर्शनं वृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका-प्रकाशो ज्ञानम्, ज्ञेयं जीवसामान्यलक्षणम् ॥ (पंचसं. अमित. १, तदर्थमात्मनो वृत्तिः प्रकाश वृत्तिस्तद्दर्शनम् । विषय- २४६, पृ. ३१)। १६. यदा कोऽपि किमप्यवलोकविषयिसम्पातात् पूर्वावस्था दर्शनमित्यर्थः । (धव. यति पश्यति, तदा यावत् विकल्पं न करोति तावत् पु. १, पृ. १४८-१४६); स्वरूपसंवेदनं दर्शनम् । ___ सत्तामात्रग्रहणं दर्शनम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४३) । (धव. पु. १, पृ. ३८३); स्वतोऽभिन्नवस्तुपरिच्छे- १७. दर्शनं सामान्यार्थबोधरूपम् xxx । दकं दर्शनम् । (धव. पु. १, पृ. ३८४); ज्ञानो- (स्थाना. अभय. व. २-१०५)। १८. दा त्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदो दर्शनम्, प्रात्मविषयो- सामान्यावबोधः । (प्रोपपा. अभय. बु. १०, प. पयोग इत्यर्थः । (धव. पु. ६, पृ. ३२-३३); प्रका- १५)। १६. अविद्यमान आकार: भेदो ग्राह्यस्य शवृत्तिदर्शनम् । (घव. पु. ७, पृ. ७); जं साम- अस्येत्यनाकारं दर्शनमुच्यते । (सन्मति. अभय. व. ण्णग्गहणं भावाणं णेव कट्ठ पायारं । प्रविसेसिदूण २-१, पृ. ४५८) । २०. विषय-विषयिसन्निपाताप्रत्थे दंसणमिदि भण्णदे समए ॥ (घव. पु. ७, पृ. नन्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरं दर्शनम् । (प्र. न. १०० उत्., गो. जी. ४८२, द्रव्यसं. ४३); प्रणा- त. २-७); विषयो द्रव्य-पर्यायात्मकोऽथ यासबजोगो दंसणं । को प्रणागारुवजोगो णाम ? चक्षुरादिरिन्द्रियानिन्द्रियग्रामः, तयोः समीचीनो सायारुवजोगादो अण्णो । कम्म-कत्तारभावो भ्रान्ताद्यजनकत्वेनानुकूलो यो निपातो योग्यदेशावप्रागारो, तेण प्रागारेण सह बट्टमाणो उवजोगो स्थानम्, तस्मादनन्तरं समुद्भूतमुत्पन्नं यत्सत्तामात्रसागारो ति । (धव. पु. १३, पृ. २०७); गोचरं निश्शेषविशेषवैमुख्येन सन्मात्रविषयं दर्शन रसादयोऽर्थाः विषयः, षडपीन्द्रियाणि विषयिणः। निराकारावबोधः । (स्या. र.२-७); इन्द्रियार्थयोज्ञानोत्पत्तः पूर्वास्था विषय-विषयिसंपातः र्योग्यतालक्षणसम्बन्धे सति सकलहेयोपादेयतासाधाज्ञानोत्पादनकारणपरिणामविशेषसन्तत्युत्पत्युपलक्षि- रणगोचरं निराकारबोधस्वरूपं दर्शनम्। (स्या. र. तः अन्तमुहूर्तकालः दर्शनव्यपदेशभाक् । (धव. पु. २-१०) । २१. दर्शनस्य किंस्विदित्यादिरूपेणाकार१३, पृ. २१६); सरूवस्स बज्झत्यपडिबद्धस्स ग्रहणं स्वरूपम् । (सप्तभं. पु. ४७)। २२. अनाकार संवेयणं दंसणं णाम । (घव. पु. १५, पु. ६)। दर्शन तत्कीर्तित मुनिपुङ्गवः ॥ (मोक्षपं. ३) । ८.xxx अनाकारं च दर्शनम् ॥ भेदग्रहणमा- २३. सामान्यविषयं दर्शनम् । (प्राव. नि. मलय. व., कारः प्रतिकर्मव्यवस्थया । सामान्यमानिर्भासादना- पृ. २७७); निविशेष विशेषाणां ग्रहो दर्शनमुच्यते । कारं तु दर्शनम् ॥ (म. पु. २४, २०१-२)। (प्राय. नि. मलय. व. १०६१, पृ. ५६८ उद्.) ।
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
दर्शन कुशील ]
२४. दृश्यते सामान्यरूपतया ऽवगम्यतेऽर्थोऽनेनेति दर्शनम् । ( धर्मसं. मलय. वृ. ६०७ ) ; यत् यस्मादत्र विशेषाणां घटादीनाम्, निर्विशेषं विशेषरूपतापरिहारेण, सामान्याकारेणेति यावत्, ग्रहो दर्शनं भवति । ( धर्मसं. मलय. वू. १३६४ ) । २५. दर्शनं नाम सामान्य विशेषात्मके वस्तुनि सामान्याववोधः । ( जीवाजी. मलय. वृ. १ - १३, पू. १८ ) । २६. सत्तालोचनमात्रमित्यपि निराकारं मतं दर्शनम् X X X | ( प्रतिष्ठासा. २ - ० ) । २७. दृश्यतेऽनेनेति दर्शनं सामान्य विशेषात्मके वस्तुनि सामान्यग्रहणात्मको बोध: । ( प्रव. सारो वृ. १२४९ ) । २८. दर्शनंवस्तुसामान्यांशग्राहि । ( संग्रहणी दे. वृ. २७३)। २६. भावानां सामान्य विशेषात्मकबाह्य पदार्थानाम्, आकारं भेदग्रहणम्, अकृत्वा यत्सामान्यग्रहणं स्वरूपमात्रावभासनं तत् दर्शनम् । (गो. जी. जी. प्र. टी. ४८२ ) । ३०. विशेषमकृत्वा सत्तावलो - कनमात्रं दर्शनम् । (त. वृत्ति श्रुत. २-६) । १ जो सामान्य को — द्रव्यार्थिक नय की विषयभूत सामान्य वस्तु को ग्रहण करता है उसे दर्शन कहा जाता है । २ दर्शनावरण के क्षय या क्षयोपशम से जो निराकार प्रालोचन मात्र श्राविर्भूत होता है उसका नाम दर्शन है । ३. सामान्य को प्रधान और विशेष को गौण कर जो पदार्थ का ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं । ७ म्रात्मविषयक उपयोग दर्शन कहलाता है । सामान्य विशेषात्मक श्रात्मस्वरूप के ग्रहण का नाम दर्शन है। दर्शनकुशील- १. दंसण दंसणयारं (जो उ विराहेइ) X X X ॥ ( प्रव. सारो. ११० ) । २. निस्सं किननिक्कंखि निव्विति गच्छा श्रमूढदिट्ठी न । उववूहथिरीकरणे वच्छल्ल - पभावणे श्रटु । अमुं पुनरष्टप्रकारं दर्शनाचारं विराधयति स दर्शने दर्शनविषये कुशीलः । (श्राव. ह. व. मल. हे. टि. पृ. ८२ ) । ३. दर्शनाचारं (निःशंकितादिकं ) यो विराधयति, दर्शने दर्शनविषये कुशीलः । (प्रव. सारो. वृ. ११० ) । ४. यस्तु दर्शनाचारं निःशंकितत्वादिकं विराधयति स दर्शने दर्शन कुशीलः । ( व्यव. सू. भा. मलय. वृ., पृ. ११७) ।
१ निःशंकित और निःकांक्षित प्रादि रूप प्राठ प्रकार के दर्शनाचार की विराधना करने वाले साधु को दर्शन कुशील कहते हैं ।
५११, जैन - लक्षणावली [ दर्शनप्रतिमा दर्शनक्रिया - १. रागादिकृतत्वात् प्रमादिनो रमणीयरूपावलोकनाभिप्रायो दर्शनक्रिया । (स. सि. ६-५; त. वा. ६, ५, ६) । २. रागाद्रकृत चित्तत्वात् प्रशस्तस्य [ प्रसक्तस्य ] प्रमादिनः । रम्यरूपावलोकान्याभिप्रायो दर्शनक्रिया ।। (ह. पु. ५८-६९ ) । ३. रागार्द्रस्य प्रमत्तस्य सुरूपालोकनाशयः । स्याद्दर्शनक्रिया XXX ।। (त. इलो. ६, ५, १२) । ४. रागाद्रकृतस्य प्रमादवतः हृद्यरूपविलोकनाभिनिवेशो दर्शनक्रिया । (त. वृत्ति श्रुत. ६ - ५ ) ।
१ राग के वशीभूत होकर प्रमादी हुए जीव के जो रमणीय रूप के देखने की अभिलाषा होती है उसे दर्शनक्रिया कहते हैं ।
दर्शनपण्डित - १. क्षायिकेण क्षायोपशमिकेनोपशमिकेन वा सम्यग्दर्शनेन परिणतः दर्शनपण्डितः । (भ. प्रा. विजयो. टी. २५ ) । २. त्रिविधान्यतमसम्यक्त्वः दर्शन पण्डितः । (भा. प्रा. टी. ३२ ) । १ क्षायिक, क्षायोपशमिक प्रथवा श्रौपशमिक सम्यक्त्व से परिणत हुए जीव को दर्शनपण्डित कहते हैं । दर्शनपण्डितमररण- व्यवहारपण्डितस्य मिथ्यादृष्टे : बालमरणं यथा भवति सम्यग्दृष्टेस्तदेव दर्शनपण्डितमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. २५) । सम्यग्दर्शन से युक्त जीव के मरण को दर्शनपण्डितमरण कहते हैं ।
दर्शनपुलाक - कृदृष्टिसंस्तवादिभिर्दर्शनपुलाकः । ( त. भा. सिद्ध. वू. ९-४६; प्रव. सारो. वृ. ७२३ )। मिध्यादृष्टियों की प्रशंसा - स्तुति श्रादि करने वाले साधु को दर्शनलाक कहते हैं ।
दर्शनप्रतिमा - १. श्रावको यस्यां निःशंकिता दिसम्यग्दर्शनो मासं स्यात् सा प्रथमा । × × × प्रथमं दर्शनप्रतिमा, तस्यां नन्दिचैत्यवन्दनकक्षमाश्रमणवासक्षेप विधिः दर्शनप्रतिमाभिलापेन । (श्रा. दि. पू. ५१ ) । २. पसमाइगुणविसिद्धं कुग्गहसंकाइसल्लपरिहीणं । सम्मदंसणमणहं दंसणपडिमा हवाइ पढमा || ( प्रव. सारो. ६८२ ) । ३. श्रयमत्र भावार्थ:- सम्यग्दर्शनस्य कुग्रहशंका दिशल्य रहितस्याव्रतादिगुणविकलस्य योऽभ्युपगमः सा दर्शनप्रतिमा । ( प्रव. सारो. वृ. ६८२ ) ।
२ प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा व प्रास्तिक्य इन पांच गुणों से युक्त और दुराग्रह व शंकादि शल्यों से
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
दर्शनबाल] ५१२, जैन-लक्षणावली
[दर्शनविनय विहीन जो निर्मल सम्यग्दर्शन है उसे दर्शनप्रतिमा शुद्धात्मरुचिरहितस्य व्यवहाररत्नत्रय-तत्त्वार्थरुचिकहते हैं। वह ग्यारह प्रतिमानों में प्रथम है। रहितस्य वा योऽसौ विपरीताभिनिवेशपरिणामः स दर्शनबाल-मिथ्यादृष्टयः सर्वथा तत्त्वश्रद्धानरहि- दर्शनमोहः । (पंचा. का. जय.व. १३१)। ६. शुद्धाताः दर्शनबालाः । (भ. प्रा. विजयो. टी. २५)। त्मादितत्त्वेषु विपरीताभिनिवेशजनको मोहो दर्शनतत्त्वार्थश्रद्धान से सर्वथा रहित मिथ्यादृष्टि जीवों मोहो मिथ्यात्वम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४८) । ७. तत्र को दर्शनबाल कहते हैं।
दर्शनं सम्यग्दर्शनम्, तन्मोहयतीति दर्शनमोहनीयम् । दर्शनबालमरण-देखो इच्छाप्रवृत्त व अनिच्छा- (श्रा. प्र. टी. १५)। ८. तत्त्वार्थश्रद्धानं दर्शनम, प्रवृत्त दर्शनबालमरण।
तन्मोहयति विपर्यासं गमयतीति दर्शनमोहनीयम् । दर्शनबाल-इच्छामरण-तयोराद्यमग्निना घूमेन (कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. १५)। ६. दर्शनं सम्यशस्त्रेण विषेण उदकेन मरुत्प्रपातेन उच्छवासनिरो- ग्दर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणम्, तन्मोहयतीति दर्शनधेन अतिशीतोष्णपातेन रज्ज्वा क्षधा तुषा जिहो- मोहनीयम् । (धर्मसं. मलय. वृ. ६१२) । १०. तत्पाटनेन विरुद्धाहार सेवनया वाला मृति ढोकन्ते त्रापि दृष्टिमोहाख्यं मिथ्यादृष्टिविपाक कृत् । (त्रि. कुतश्चिन्निमित्ताज्जीवितपरित्यागैषिणः। (भ. प्रा. विजयो. टी. २५)।
क्त्वे गुणे जीवस्य सर्वतः। तं मोहयति यत्कर्म दृङ्अग्नि, घूम, शस्त्र, विष, जल, वायुप्रपात, उच्छ- मोहाख्यं तदुच्यते ॥ (पंचाध्या. २-१००२)। वासनिरोध, अति शीतपात, अति उष्णपात, रस्सी, १जो तत्त्वार्थश्रद्धानरूप दर्शन को मोहित करता भुख, प्यास, जीभ का उत्पाटन और विरुद्ध प्राहार है उसे दर्शनमोह कहते हैं । के सेवन से जो दर्शनबाल मरण को प्राप्त होते हैं दर्शनविनय-१. जे अत्थपज्जया खलु उवदिट्ठा उनके इस प्रकार के मरण को दर्शनबाल-इच्छामरण जिणवरेहिं सूदणाणे । ते तह रोचेदि णरो दंसणकहते हैं।
विणयो हवदि एसो।। (मूला. ५-१६६% ७-८८)। दर्शनबोधि-दर्शनबोधिः दर्शनमोहनीयक्षयोप- २. भत्ती पूया वण्णजणणं च णासणमवण्णवादस्स । शमादिसम्पन्नः श्रद्धानलाभः । (स्थाना. अभय.. प्रासादणपरिहारो दंसणविणो समासेण ॥ (भ. २, ४, १०३, पृ. ६१)।
प्रा. ४७)। ३. शंकादिदोषविरहितं तत्त्वार्थश्रद्धानं दर्शनमोहनीयकर्म के क्षयोपशमादि से सम्पन्न जो दर्शनविनयः। (स.सि. ९-२३)। ४. पदार्थधद्धाने सम्यक्त्वको प्राप्ति होती है उसे दर्शनबोधि कहते हैं। नि:शंकितत्वादिलक्षणोपेतता दर्शनविनयः। सामादर्शनमोह-१. दर्शनं मोहयति मोहनं व दर्शन- यिकादी लोकबिन्दुसारपर्यन्ते श्रुतसमुद्रे ये यथा मोहः । (त. वा. ६, १३, १३); दर्शनमोहस्य प्रकृतिः भगवभिरुपदिष्टाः पदार्थाः तेषां तथा श्रद्धाने नि:तत्त्वार्थाश्रद्धानम् । (त. वा. ८, ३, ४; अन. घ. शंकितत्वादिलक्षणोपेतता दर्शनविनयो वेदितव्यः । स्वो. टी. २-३६) । २. दर्शनं मोहयति मोहनमात्रं (त. वा. ९, २३, ३; चा. सा. पृ.६५)। ५. शंकावा दर्शनमोहः । (त. इलो. ६-१३) । ३. तत्त्वार्थ- कांक्षादिनिरासो दर्शनविनयः। (भ. प्रा. विजयो. श्रद्धानं दर्शनम्, तन्मोहनाद् दर्शनमोहनीयम् । (त. ३००)। ६. तत्त्वार्थश्रद्धाने निःशंकितत्वादिलक्षणोभा. सिद्ध.. ८-१०)। ४. सणं अत्तागम-पदत्थेसु पेतता दर्शनविनयः । (त. इलो.-२३) । ७. दसरुई पच्चो सद्धा फोसणमिदि एयट्ठो, तं मोहेदि णविणो णाम पवयणेसुवइट्ठसव्व भावसद्दहणं तिम्विवरीयं कुणदि त्ति दंसणमोहणीयं । जस्स कम्मस्स ढादो प्रोसरणमट्ठमलच्छद्दणमरहंत-सिद्धभत्ती खणउदएण अणत्ते अत्तबुद्धी अणागमे आगमबुद्धी अप- लवपडिबुज्झणदा लद्धिसंवेगसपण्णदा च । (धव. यत्थे पयत्थबुद्धी अत्तागमपयत्थेसु सद्धाए पत्थिरत्तं पु. ८, पृ.८०)। ८. दर्शनविनयो निःशंक-नि:कांक्षादोसु वि सद्धा वा होदि तं दसणमोहणीयमिदि उत्तं दिभेदः। (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-२३)। ६. यत्र होदि । (धव. पु. ६, पृ. ३८); सणस्स मोहयं निःशंकितत्वादिलक्षणोपेतता भवेत् । श्रद्धाने सप्तविवरीयभावजणणं दंसणमोहणीयं णाम । (धव. पु. तत्त्वानां सम्यक्त्वविनयः स हि ॥ (त. सा. ७-३१)। १३, पृ. ३५८) । ५. दर्शनमोहोदये सति निश्चय- १०. जिनेशानां विमुक्तानामाचार्याणां विपश्चिताम् ।
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशनविशुद्धि ]
साधूनां जिनचैत्यानां जिनराद्धान्तवेदिनाम् ॥ कर्तव्या महती भक्तिः सपर्या गुणकीर्तनम् । प्रपवादतिरस्कारः सम्भ्रमः शुभदृष्टिभिः ॥ ( श्रमित. था. १३, ८-९ ) । ११. येऽर्थपर्याया जीवाजीवादयः सूक्ष्म स्थूलभेदेनोपदिष्टाः स्फुटं जिनवरैः श्रुतज्ञाने द्वादशांगेषु चतुर्दश पूर्वेषु तान् पदार्थास्तथैव तेन प्रकारेण याथात्म्येन रोचयति नरो भव्यजीवो येन परिणामेन स एष दर्शन विनयः । (मूला. वृ. ५, ६६); शंकादिपरिणामपरिहारे यत्नः उपगूहनादि - परिणामानुष्ठाने च यत्नो दर्शनविनयः । (मूला वृ. ५- १७१) । १२. णिस्संकियसंवेगाइ जे गुणा वण्णिया मए पुण्वं । तेसिमणुपालणं जं स वियाणीहि दंसणे विणश्रो । ( वसु. श्रा. ३२१) । १३. सामायिकादो लोकविन्दुसारपर्यन्ते श्रुते भगवत्प्रकाशितपदार्थान्यथात्वासम्भवात् तत्त्वार्थश्रद्धा निःशंकितत्वादिना दर्शन विनयः । (योगशा. स्वो विव. ४, ६०) । १४. दर्शनं प्रति विनीतत्वाद्दर्शनप्राधान्यविवक्षया दर्शन विनय उच्यते । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १-६४, पू. २७) । १५. तत्त्वार्थश्रद्धाने शंकादिदोषरहितत्वं दर्शनविनयः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२३) । १६. तत्त्वश्रद्धाने निःशंकितत्वादिदर्शन विनयः । ( भा. प्रा. टी. ७८) । १७. दर्शने तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणे निश्चय व्यवहारसम्यक्त्वे नि:शंकितत्वादिदोषरहितं स्वस्वरूप शुद्ध बुद्धकात्मनि श्रद्धानरुचिलक्षणं वा दर्शनविनयः । ( कार्तिके. टी. ४५५) ।
४ चूंकि आगम में जिनप्ररूपित पदार्थों का स्वरूप अन्यथा हो नहीं सकता, प्रतएव निःशंकित प्रादि आठ अंगों के साथ तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना, इसका नाम दर्शनविनय है ।
दर्शन विशुद्धि - १. जिनेन भगवताऽर्हत्परमेष्ठिनोपदिष्टे निर्ग्रन्थलक्षणे मोक्षवत्र्त्मनि रुचिर्दर्शन विशुद्विः । (स. सि. ६-२४) । २. जिनोपदिष्टे निर्मन्थे Haarift रुचि: निःशंकितत्वाद्यष्टांगा दर्शनविशुद्धि: । जिनेन भगवताऽर्हता परमेष्ठिनोपदिष्टे निर्ग्रन्थ लक्षणे मोक्षवर्त्मनि रुचिर्दर्शन विशुद्धिः । (त. वा. ६, २४, १) । ३. दंसणं सम्मदंसणं, तस्स विसुज्झदा । XXX तिमूढावोढ- प्रट्ठमलवदिरित्तसम्मदंसणभावो दंसणविसुज्झदा णाम । ( धव. ल. ६५
५१३, जैन- लक्षणावली
[ दर्शनशुद्ध
पु. ८, पू. ७६ - ८० ) । ४. निःशंकाद्यष्टगुणा जिनकथिते मोक्षसत्पथे श्रद्धा । दर्शनविशुद्धिराद्यस्तीर्थकरप्रकृतिकृद्धेतुः । (ह. पु. ३४ - १३२) । ५. जिनोद्दिष्टेति नैर्ग्रन्थ्यमोक्षवर्त्मन्यशंकनम् । अनाकांक्षणमप्यत्रामुत्र चैतत्फलाप्तये ।। विचिकित्सान्यदृष्टीनां प्रशंसा-संस्तवच्युतिः । मौढयादिरहितत्वं च विशुद्धिः सादृशो मता । (त. इलो. ६, २४, १-२ ) । ६. निःशंकितत्वादिगुणपरिणतिर्दर्शन विशुद्धिः । (भ. प्रा. विजयो. १६७ ) । ७. दृष्टि: दर्शनं तत्त्वविषया रुचिः प्रीति: जीवादिषु प्रत्ययावधारणम्, तस्य दर्शनस्य नाना (वि) शुद्धिः निर्मलता × × × क्षायोपशमिकोपशमिक क्षायिकाणां सम्यग्दर्शनानां यथास्वं नाना शुद्धिविशुद्धि: XXX। ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-२३) । ८. उपलब्धनिजस्वरूपस्य सम्यग्दर्शनस्य प्रथम द्वितीयोपशमक-वेदक क्षायिकान्यतमविशिष्टस्य ज्ञान दर्शन तपश्चारित्रेषु तद्वत्सु च विनये, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग संवेगयुक्तत्वे, साधुभ्यः प्रासुकप्रदाने, द्वादशविधतपसि साधूनां समाधिवैयावृत्यकरणे प्रर्हत्सु व्रतशीलावश्यक सम्पन्नाचार्येषु च बहुश्रुतेषु प्रवचने च भक्तौ प्रवचनप्रभावने, प्रवचनवत्सलत्वे प्रवर्तनं विशुद्धता । (चा. सा. पू. २५ ) । ६. दृश: सम्यक्त्वस्य विशुद्धिः शंकादिमल निरासेन सम्पादितप्रसादो नमंल्यमिति यावत् । (अन. ध. स्वो. टी. २- ११० ) । १०. दर्शनस्य सम्यक्त्वस्य विशुद्धिनिर्मलता दर्शन विशुद्धिः । (त. वृत्ति श्रुत. ६ - २४ ) । ११. एतैरष्टभिः (निःशंकितत्वादिभिः) गुणैर्युक्तत्वं चर्म- जल-तैल-घृत- भूतनाशनाऽप्रयोगत्वं मूलक गर्जरसूरण· कन्द-गृ' जन- पलाण्डु-विश दौग्धिक कालिंगपंचपुष्प संघानक कौसुंभपत्र - पत्रशाक मांसादिभक्षकभाजन- भोजनादिपरिहरणं च दर्शन विशुद्धिः । ( भा. प्रा. टी. ७७) ।
१ जिन देव के द्वारा प्ररूपित निर्ग्रन्थतारूप मोक्षमार्ग के विषय में जो रुचि होती है उसे दर्शनविशुद्धि कहते हैं ।
दर्शनशुद्ध - भय- वसण - मलविवज्जिय संसार- सरीरभोगणविणो । अट्टगुणंगसमग्गो दंसणसुद्धो हु पंचगुरुभत्तो || ( रयणसार ५ ) ।
-
सात भय, सात व्यसन और पच्चीस दोषों से रहित; संसार, शरीर और भोगों से विरक्त तथा निः
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
दर्शनसमाधि] ५१४, जैन-लक्षणावली
[दशनावरण शंकितादि माठ अंगों से युक्त होकर जो पांच पर. क्षमा या क्षपक (तपस्वी), ज्योतिषी, वैद्य, राजा मेष्ठियों का भक्त होता है उसे वर्शनशुद्ध कहा और गणसाम्यक; ये तीर्थ को प्रभावित करते हैं। जाता है।
दर्शनघाती-णव य पदत्था एदे जिणदिट्ठा वण्णिदा दर्शनसमाधि-(सम्यगाघियते व्यवस्थाप्यते मोक्षं मए तच्चा। एत्थ भवे जा संका दंसणघादी वदि तन्मार्ग वा प्रति येनात्मा धर्मध्यानादिना स समाधिः एसो ॥ बलदेव-चक्कवटी-सेट्री-रायत्तणादिअहिधर्मध्यानादिकः) दर्शनसमाधी व्यवस्थितो जिन• लासो। इह परलोगे देवत्तपत्थणा दंसणाभिघादी वचनभावितान्तःकरणो निवातशरणप्रदीपवन कुम- सो॥ (मूला. ५, ५१ व ५३)। तिवायुभिर्धाम्यते । (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. १०६, जिन भगवान के द्वारा तत्त्वस्वरूप जिन नौ पदार्थों पृ. १८७)।
का वर्णन किया गया है उनके विषय में जो शंका जिसके द्वारा जीव धर्मध्यान प्रादि के माधय से रखते हैं वे दर्शनघाती हैं। इसी प्रकार इस लोक मोक्ष या उसके मार्ग में स्थापित किया जाता है में जो बलदेव, चक्रवर्ती, श्रेष्ठी (सेठ) पौर राजा उसका नाम समाधि है जो धर्मध्यानादिस्वरूप है। मादि के पद की अभिलाषा करते हैं एवं परलोक जिसका अन्त:करण जिनागम के संस्कार से निर्मल में देवत्व की प्रार्थना करते हैं वे भी दर्शनघाती है। हो चुका है वह वर्शनसमाधि में स्थित होता हमा दर्शनावरण-१. दर्शनावरणस्य अर्थानालोचनम् । वायुविहीन दीपक के समान कुद्धिरूप वाय के (त. वा. ८, ३, ४) । २. दंसणमावारेदि त्ति दंसवशीभूत होकर इधर-उधर चतुर्गतिरूप संसार में णावरणीयं । जो पोग्गलक्खंघो मिच्छत्तासंजमपरिभ्रमण नहीं करता है।
कसाय-जोगेहि कम्मसरूवेण परिणदो जीवसमवेदो दर्शनाचार-१.णिस्संकिय णिक्कंखिय णिवि. दसणगुणपडिवंधनो सो दंसणावरणीयं । (षव. पू. तिगिच्छा ममूढदिट्टी य । उववाह-थिरीकरणे वच्छ-६, पृ.१०); दंसणस्स आवारयं कम्मं दसणावर. ल्ल-पभावणे प्र? ॥ प्रतिसेस इडिङ प्रायरिय णीयं । (घव. पु. १३, प. २०८)। ३. सणसीले बादि धम्मकधि खमग मित्ती। विज्जा राया गण- जीवे दंसणघायं करेइ ज कम्मं । तं पडिहारसमाणं सम्मया य तित्थं पभाति ।। (दशवै. नि. १८२-८३ दंसणवरणं मवे वीयं ।। जह रणो पडिहारो मणप. १०१)। २. तत्त्वश्रद्धानपरिणामो दर्शनाचारः। भिप्पेयस्स सो उ लोयस्स । रणो तहि दरिसावं (भ. प्रा. विजयो.४६); जीवादितत्त्वश्रद्धानपरि- न देइ दळुपि कामस्स ॥ जह राया तह जीवो णतिः दर्शनाचारः। (भ. प्रा. विजयो. ४१६)। पडिहारसमं तु दंसणावरणं । तेणिह विवंधएणं न ३. चल-मलिनावगाढरहितत्वेन निश्चयश्रद्धानबुद्धिः पिच्छए सो घडाई यं ॥ (कर्मवि. ग. १६-२१)। सम्यक्त्वम्, तत्राचरणं परिणमनं दर्शनाचारः । ४. त एव दृश्यन्तेऽवलोक्यन्ते येन तद्दर्शनम्, तस्या(परमा. टी. ७)। ४. दर्शनाचारः सम्यक्त्ववर्ता वरणं दर्शनावरणम् । (पंचसं. स्वो. व. ३-११६, व्यवहारो निःशंकितादिरूपोऽष्टघा । (समवा. अभय. प. ३३)। ५. एवमिह दंसणावरणमेयमावरइ दरिव. १३६, प. १००)। ५. तत्त्वार्थविषयपरमार्थ- सणं जीवे । (प्रव. सारो. १२५५)। ६. दृश्यतेश्रद्धानुष्ठानं दर्शनाचारा। (मला. व. ५-२); ऽनेनेति दर्शनम्-सामान्य-विशेषात्मके वस्तुनि सादर्शनाचारः शंकाद्यभावेन तत्त्वश्रद्धानविषयो यत्नः। मान्यग्रहणात्मको बोधो दर्शनम्, तस्यावरणस्वभावं (मूला. व. ५-१७१)। ६. दर्शने निर्मला वृत्ति- कर्म दर्शनावरणम् । (प्रज्ञाप. मलय. व. २२-२८, नि-चारित्रसम्पदः । पदे मुक्तिरमादर्श दर्शनाचार पृ. ४५३; कर्मस्त. गो. व. १०, पृ. १४; प्रव. ईरितः ।। (माचा. सा. ३-७२) । ७. जीवादि. सारो. व. १२४६) । ७. पंचनिद्रादर्शनानां चतुष्कतत्त्वश्रद्धानपरिणतिदर्शनाचारः। (भ. पा. मूला. स्यावृतिश्च या । दर्शनावरणीयस्य विपाकः कर्मणः टी. ४१६)।
स तु ॥ यथा दिदृक्षुः स्वमीशं प्रतिहारनिरोधतः। १ नि.शंकितादि पाठ अंगयुक्त सम्यक्त्व का परि. न पश्यति तथाऽत्मापि येन दृष्टयावृतिस्तु तत् ॥ पालन करना, इसका नाम दर्शनाचार है। अतिशय- (त्रि. श. पु. च. २, ३, ४६७-८)। यक्त, ऋद्धि धारक, प्राचार्य, वादी, धर्मकथक, १ दर्शनावरण की प्रकृति पदार्थ का अवलोकन न
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
दर्शनावरणीय ]
होने देना है, अर्थात् जो पदार्थ के दर्शन में वाधक हो उसे दर्शनावरण कहते हैं । ३ दर्शन गुण के आवारक कर्म को दर्शनावरण कहा जाता है । जैसे- प्रतीहार ( द्वारपाल ) राजा के दर्शन की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को उसके दर्शन में बाघा पहुंचाता है वैसे ही दर्शनावरण कर्म पदार्थों के दर्शन में बाधा पहुंचाता है । दर्शनावरणीय - देखो दर्शनावरण |
दर्शनार्य - दर्शनार्या दशघा प्राज्ञा-मार्गोपदेश-सूत्रबीज-संक्षेप-विस्तारार्थावगाढ- परमावगाढरुचिभेदात् । (त. वा. ३, ३६, २) ।
गुणी जन जिनकी सेवा किया करते हैं उन्हें प्रायं कहा जाता है । सम्यग्दर्शन से सम्पन्न श्रायं दर्शन श्रार्य कहलाते हैं। वे श्राज्ञारुचि, मार्गदचि और उपदेशरुचि यादि के भेद से दस प्रकार के हैं । ( इन सबके लक्षण पृथक् उन उन शब्दों में देखिए ) । दर्शनिक – १. सम्यग्दर्शनशुद्धः संसार- शरीर भोगनिर्विण्णः । पंच गुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः ॥ ( रत्नक. १३७ ) । २. बहु-तससमणिदं जं मज्जं मंसादि णिदिदं दव्वं । जो ण य सेवदि णियदं सो दंसणसावप्रो होदि ॥ (कार्तिके. ३२८ ) | ३. तत्र दार्शनिकः संसार-शरीर भोगनिर्विण्णः पंचगुरुचरणभक्तः सम्यग्दर्शनविशुद्धश्च भवति । ( चा. सा. पु. २ ) । ४. यो निर्मलां दृष्टिमनम्यचित्तः पवित्रवृत्तामिव हारयष्टिम् । गुणावनद्धां हृदये निघत्ते स दर्शनी घन्यतमोऽभ्यधायि ॥ ( श्रमित. था. ७-६७) । ५. शङ्कादिदोषनिर्मुक्तं संवेगादिगुणावितम् । यो घत्ते दर्शनं सोऽत्र दर्शनी कथितो जिनः ॥ ( सुभा. सं. ८३३) । ६. हारयष्टिरिव तापहारिणी यस्य दृष्टिरवतिष्ठते हृदि । यामिनीपतिमरीचिनिर्मला दर्शनी भवति सोऽनघद्युतिः ॥ ( धर्मप. २० - ५३ ) । ७. सम्यक्त्वपूर्वकत्वेन मद्यमांस- मधुत्यागोदुम्बरपंचक परिहाररूपाष्टमूल गुणस हितः सन् संग्रामादिप्रवृत्तोऽपि पापद्धर्थादिभिनिष्प्र योजनजीवघातादी निवृत्तः प्रथमो दर्शनिक श्रावको भण्यते । (बु. द्रव्यसं. टी. ४५) । ८. पंचुंवरसहियाई सत्तवि विसणाइ जो विवज्जेई । सम्मत्तविशु
मई सो दंसणसावो भणिश्रो ।। (वसु. श्री. ५७)। ६. पाक्षिकाचारसंस्कारदृढीकृत विशुद्धदृक् । भवांगभोगनिर्विण्णः परमेष्ठिपदैकधीः ॥ निर्मूलयन् मलान्
५१५, जैन- लक्षणावली
[दवदान
मूलगुणेष्वगुणोत्सुकः । न्याय्यां वृत्ति तनुस्थित्यं तन्वन् दर्शनिको मतः ॥ (सा. घ. ३, ७-८ ) । १०. गृही दर्शनिकस्तत्र सम्यक्त्वगुणभूषितः । संसारभोगनिर्विण्णो ज्ञानी जीवदयापरः ॥ ( भावसं. वाम. ४४८ ) । ११. पाक्षिकाचारसम्पत्त्या निर्मलीकृतदर्शनः । विरक्तो भव भोगाम्यामहंदादिपदाचंकः ॥ मलान् मूलगुणानां निर्मूलयन्नग्रिमोत्सुकः । न्याय्यां वात वपुः स्थित्यं दधद्दर्शनिको मतः । (तं. भा.
५, १४-१५) । १२. भ्रष्टमूलगुणोपेतो द्यूतां दिव्यसनोज्झितः । नरो दर्शनिकः प्रोक्तः स्याच्चेत् सद्दशनान्वितः ॥ (लाटीसं. २-६ ) ।
१ जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध होकर संसार, शरीर और भोगों से विरक्त है तथा पांच परमेष्ठियों के चरणों को शरण मानता है वह दर्शनिक श्रावक कहलाता है ।
दर्शनी - देखो दर्शनिक |
दर्शनीय - दर्शनीयो यं पश्यच्चक्षुनं श्राम्यति । ( विपाक. अभय वृ. २., पृ. २२) ।
जिसे देखते हुए नेत्र थकते नहीं उसे दर्शनीय कहते हैं ।
दर्शनोपयोग - १. को दंसणोवजोगो णाम ? अंतरंगउवजोग । (घव. पु. ११, पृ. ३३३) । २. अंतरंग विसयस्स उवजोगस्स दंसणत्तब्भुवगमादो । XXX तम्हा विषय विसयिसंपायादो पुव्वं चेव विसयीकयंतरंगो दंसणुवजोगो उत्पज्जदि त्ति घेत्तव्वो । ( जयष. १, पृ. ३३७-३३८) ।
१ अन्तरंग - प्रात्मविषयक उपयोग का नाम दर्शनोपयोग है ।
दवदान - १. व्यसनात् पुण्यबुद्धधा वा दबदानम् भवेद् द्विधा । (योगशा. ३ - ११४); दवस्य दावा
तृणादिदहननिमित्तं दानं वितरणं दवदानम् । (योगशा. स्वो विव. ३ - ११४ ) । २. दवदानं दावाग्नेस्तृणादिदहनार्थं वितरणम् । (सा. घ. स्वो. टी. ५-२२) ।
१ व्यसन से - फलनिरपेक्ष अभिप्राय से- घास श्रादि के जलाने के लिए अग्नि को प्रज्वलित करना, जैसे भील जंगल में लाग लगाया करते हैं । अथवा पुराने घास आदि जला देने पर नवीन तृणांकुर उत्पन्न होंगे और उन्हें गायें चरेंगी, इस प्रकार की पुण्य
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशपूर्वी]
५१६, जैन-लक्षणावली [दंशमशकपरीषहजय बुद्धि से अग्नि को प्रज्वलित करना, इसका नाम पिंडविशुद्धि च जं परूवेदि । दसवेयालियसुत्तं दह दवदान है।
काला जत्थ संवुत्ता ॥ (अंगप. ३-२४, पृ. ३०८)। दशपूर्वी-१. रोहिणिपहृदीण महाविज्जाणं देव- १ मनक नामक पुत्र के हित के लिए शय्यमभव दामो पंच सया। अंगुट्ठपसे णाई खुल्लयविज्जाण सूरि के द्वारा प्रकाल में रचे गये दश अध्ययन सत्त सया ।। एत्तण पेसणाई मग्गते दसमपुत्वपढ- स्वरूप श्रुत को दशवकालिक कहा जाता है। णम्मि । णेच्छंति संजमत्ता तामो जे ते अभिण्णदस- २ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का प्राश्रय लेकर पुवी ॥ भुवणेसु सुप्पसिद्धा विज्जाहरसमणणाम- मुनियों के प्राचार और गोचर (भिक्षाटन) की विधि पज्याया। ताणं मुणीण बुद्धी दसपुवी णाम बोद्ध- अथवा प्राचारविषयक विधि के वर्णन करने वाले व्वा ॥ (ति.प.४, ६६८-१०००)। २. महा- श्रुत को दशवकालिक कहते हैं। रोहिण्यादिभिस्त्रिभिरागताभिः प्रत्येकमात्मीयरूपसा- दहन-१. दहनं प्रतीतमूल्मुकादिभिः। (ध्यानश. माविष्करणकथनकुशलाभिरविचलितचारित्रस्य हरि. वृ. १६) । २. बालादित्यसमज्योतीरत्युष्णदशपूर्वदुस्तरसमुद्रोत्तरणं दशपूर्वित्वम् । (त. वा. ३, श्चतुरंगुलः । पावर्तवान् वहन्नूवं पवनो दहनः
स्मृतः ॥ (योगशा. ५-५१)। १ दश विद्यानुवाद पूर्व के पढ़ते हुए रोहिणी प्रादि १ उल्मक (मलात) प्रादि के द्वारा वहन प्रसिद्ध पांच सौ महाविद्यानों के तथा अंगुष्ठप्रसेनादि सात है। २ उदित होते हुए सूर्य के समान कान्ति वाली, सौ छोटी विद्यानों के द्वारा सिद्ध होकर अभीष्ट अत्यन्त उष्ण और चार अंगुल ऊंची ऐसी ऊपर कार्यसिद्धि के लिए प्रार्थना करने पर भी जो संचार करने वाली प्रावर्त (गोलाकार भ्रमण) उनकी इच्छा न करते हुए चारित्र से विचलित नहीं युक्त वायु को दहन कहा जाता है। होते हैं उन विद्याधर श्रमणों को दशपूर्वी कहते हैं। दंशमशकपरीषहजय-१. दंशमशक-मक्षिकादशमी प्रतिमा- दशमासानात्मार्थनिष्पन्नमाहारं पिशु क-पुत्तिका-मत्कुण-कीट-पिपीलिकावश्चिकादिन भक्त इति दशमी। (योगशा. स्वो. विव. कृतां वाधामप्रतिकारां सहमानस्य टेषां बाघां
त्रिधा ऽप्यकुर्वाणस्य निर्वाणप्राप्तिमात्रसंकल्पप्रावरअपने निमित्त बने हुए प्राहार के खाने का दस मास णस्य तद्वेदनासहनं दंशमशकपरिषहक्षमा। (स. सि. तक त्याग करने को दशमी प्रतिमा कहते हैं। ६-९)। २. दंशमशकादिबाधासहनमप्रतीकारम् ।
६-९)। २. दंशमशकादिबाघासह कावकालिक-१. दश विकाले पुत्रहिताय प्रत्याख्यातशरीराच्छादनस्य क्वचिदपि प्रप्रतिवद्धचेस्थापितान्यध्ययनानि दशवकालिकम् । (त. भा. तसः परकृतायतन-गुहा-गह्वरादिष रात्री दिवा वादंशहरि.प.१-२०)। २. दशवेयालियं पायार-गोयर. मशक-मक्षिका-पिशुक-पुत्तिका-यूक-मत्कूण-कीट-पिपी. विहिं वण्णे इ । (घव. पु. १, पृ. ६७); दसवेयालियं लिका-वृश्चिकादिभि: तीक्ष्णपातैर्भक्ष्यमाणस्यातितीव्रदब्व-खेत्त-काल-भावे अस्सिदूण आयारगोयरविहि बेदनोत्पादकैः अव्यथितमनसः स्वकर्मविपाकमनवण्णेदि । (धव. पु. ६, पृ. १९०)। ३. साहूण- चिन्तयतो विद्या-मंत्रोषादिभिः तन्निवृत्ति प्रति निरुमायार-गोयरविहि दसवेयालियं वण्णेदि। (जयध. त्सुकस्य मा शरीरपतनादपि निश्चितात्मनः परबलप.१.प्र. १२०)। ४. दुम-पुष्पितादिदशाधिकार- प्रमर्दनं प्रति प्रवर्तमानस्य मदान्धगन्धसिन्धरस्य मनिजनाचरणसचकं दशवकालिकम् । (श्रुतभ. टी. रिपुजनप्रेरितविविधशस्त्रप्रतिघातादपराङनखस्य नि:२४.प. १७६) । ५. विशिष्टाः काला विकाला- प्रत्यूहविजयोपलम्भनमिव कर्मागतप्रतानापराभवं . लेख भवानि वैकालिकानि वर्ण्यन्तेऽस्मिन्निति प्रति प्रयतनं दंशमशकादिबाघासहनमप्रतीकारमिदशवकालिकम, तत्साधूनामाचार-गोचरविधि पिण्ड- त्याख्यापते । (त. वा. ६,६, ८)। ३. नदष्टो
च वर्ण यति । (गो. जी. म. प्र. व जी. देशमशस्त्रासं द्वेष मुनिवजेत् । न वारयेदपेक्षेत प्र. टी. ३६७-६८)। ६. वृक्षकुसुमादीनां दशानां सर्वाहारप्रियत्ववित् ॥ (प्राव. नि. हरि.व. १८. भेदकथकं यतीनामाचारकथकं च दशवैकालिकम् । पृ.४०३ उद.)। ४. दंशमशकादिभिः दश्यमानोऽपि न (त. वत्ति. श्रुत. १-२०)। ७. जदिगोचरस्स विहि ततः स्थानादपगच्छेत, न च तवपनयनाथं घमादिना
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
दाक्षिण्य]
५१७, जैन-लक्षणावलो
दिान
यतेत, न च व्यजनादिना निवारयेदित्येवं दंशमशक- संस्थितः ॥ प्रासन्नभिणी वेश्या दास्यन्तरिता परीषहजयः कृतः स्यात्, नान्यथेति । (त. भा. सिद्ध. ऽशुचिः । भक्षयन्ति किमप्येवमाद्या दोषास्तु दातृगाः॥ ७.६-९)। ५. दंशमशकादीनां सहनम् । (त. श्लो. (प्राचा. सा. ८,५०-५१) । ६-६)। ६. दंशाश्च मशकाश्च दंशमशकम्, दंश- नग्न, मद्यपायी, पिशाच, अन्ध, पतित, मतक का मशकैः खाद्यमानस्य शरीरपीडा दंशमशकमित्युच्यते अनुगामी, तीव्ररोगी, घावयुक्त, विगी(?), नीचेकार्ये कारणोपचारात् xxx तत्सहनं दंशमश- ऊंचे स्थान में स्थित, प्रासन्नभणी, वेश्या, दासी, कादिसहनम् । (मूला. व. ५-५७)। ७. शून्यागार- अन्तरिता, अपवित्र और कुछ भी खाने वाली, दरी-गुहादिशुचिनि स्थाने विविक्ते स्थितस्तीक्ष्णर्म- इत्यादि ये दाता के दोष हैं। त्कुण-कीट-दंशमशकाद्यैश्चंडतुंडैः कृताम् ।। स्वाङ्गाति दातृविशेष-१. अनसूयाविषादादितृविशेषः। परदेहजातिमिव तां यो मन्यमानो मूनिनिसंगः स (स. सि. ७-३६% त. श्लो. ७-३६)। २. दातृसुखी च दंसमशकक्लेशं क्षमी तं नुमः।। (प्राचा. विशेषः प्रतिगृहीतर्यनसूया, त्यागेऽविषादः, अपरिसा. ७-८)। ८. दंशादिदंशककृतां बाघामघजिधां. भाविता, दित्सतो ददतो दत्तवतश्च प्रीतियोगः सया 1 नि:क्षोभं सहतो दंशमशकोर्मीक्षमा मुनेः।। कुशलाभिसन्धिता, दृष्टफलानपेक्षिता, निरुपधत्व(अन. . ६-९३)। ६. दंशमशकादिभिर्भक्ष्यमा- मनिदानत्वमिति । (तत्त्वा. भा. ७-३४)। ३. अनणस्याचलितचेतसः कर्मविपाकं स्मरतो निवृत्तप्रती- सूयाविषादादितिविशेषः । प्रतिगृहीतरि अनसूया कारस्य शस्त्रघातादिपराङ्मुखस्य दंशादिबाघासह- त्यागेविषादः दित्सतो ददतो दत्तवतश्च प्रीतियोगः नम् । (प्रारा. सा. टी. ४०)।
कुशलाभिसन्धिता दृष्टफलानपेक्षिता निरुपरोषत्व१ डांस, मच्छर, मक्खी, पिस्सू, मधुमक्खी, खटमल, मनिदानत्वमित्येवमादिः दातृविशेषोऽवसेयः। (त. कीट, चींटी और बिच्छू प्रादि के द्वारा की गई बाधा वा. ७, ३६, ४)। को बिना किसी प्रकार के प्रतिकार के सहते हए १वातविशेष (विशेष दाता) उसे कहा जाता है जो उनको मन-वचन-काय से पीड़ा न पहुंचाना, इसे प्रसूया (ईया) और विषाद प्रादि से रहित होता वंशमशकपरिषहजय कहा जाता है।
है। २ पात्र के विषय में प्रसूया का प्रभाव-क्षमादाक्षिण्य-दाक्षिण्यं परकृत्येष्वपि योगपरः शभा- शीलता व प्रसन्नचित्तता, त्याग में अखिन्नता, शयो ज्ञेयः। गाम्भीर्य-धैर्यसचिवो मात्सर्यविघातकृत् प्रादरबुद्धि देने के इच्छक, वर्तमान में देते हए परमः।। (षोडश. ४-४)।
एवं प्रतीत में दे चुकने वाले दाता के प्रति अनुरागगम्भीरता और धीरता को धारण कर जो दूसरों के भाव; काशरूप कुशा (कास) के काटनेरूप कुशकार्यों में भी मात्सर्य से विहीन होकर निर्मल अभि- लता का अभिप्राय, सांसारिक दृष्ट फल की उपेक्षा, प्राय से उत्तम प्रयत्न किया जाता है उसे दाक्षिण्य निष्कपटता और निदान का प्रभाव; इन गुणों से कहते हैं।
युक्त दाता दातृविशेप (विशिष्ट दाता) माना दाता-१. श्रद्धान्वितो भक्तियुतः समर्थों विज्ञान- गया है। वांल्लोभविवर्जितश्च । क्षान्त्यान्वितः सत्त्वगुणोप- दान-१. अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसगों दानम् । (त. पन्नस्तादृग्विधो दानपतिः प्रशस्तः ॥ (वरांगच. सू. ७-३३)। २. नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः सप्तगुण७-३०)। २. नवकोटीविशुद्धस्य दाता दानस्य यः समाहितेन शुद्धेन । अपसूनारम्भाणामार्याणामिष्यते पतिः । भक्ति-श्रद्धा-सत्त्व-तुष्टि-ज्ञानालोल्य-क्षमा- दानम् ॥ (रत्नक. ११३)। ३. परानुग्रहबुद्धया गुणः। (सा. घ. ५-४७)।
स्वस्यातिसर्जनं दानम् । (स. सि. ६-१२; त. वा. २. भक्ति. श्रद्धा, सत्त्व, सन्तोष, विज्ञान, प्रलोभ ६, १२, ४, त. श्लो, ६-१२); स्व-परोपकारो और क्षमा इन सात गणों से युक्त नवधा भक्ति- ऽनुग्रहः।xxx अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानं समन्वित दान देने वाले पुरुष को दाता कहते हैं। वेदितव्यम् । (स. सि. ७-३८%; त. वा. ७, ३८, दातृदोष-नग्नः शोण्डः पिशाचोऽन्धः पतितो २)। ४. प्रात्म-परानुग्रहार्थं स्वस्य द्रव्यजातस्यान्नमृतकाऽनुगः । तीब्ररोगी व्रणी विंगी नीचोच्चस्थान- पानादेः पात्रेऽतिसर्गो दानम् । (त. भा. ७-३३) ।
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
दानविधि] ५१८, जैन-लक्षणावली
[दापना ५. दानं सर्वेष्वेतेषु स्वस्याहारादेः प्रतिसर्जनलक्षणम्। नोत्सहते दातुम् । (श्रा. प्र. टी. २६)। २. जस्स (त. भा. हरि. व.६-१३)। ६. रत्नत्रयवद्भ्यः कम्मस्स उदएण देंतस्स विग्धं होदि तं दाणंतरास्ववित्तपरित्यागो दानं रत्नत्रयसाधनदित्सा वा। इयं । (धव. पु. ६, पृ.७८); दानस्य विघ्न कृदन्त(धव. पु. १३, पृ. ३८६)। ७. स्वं धनं स्यात् रायो दानान्तरायः। (घव. पु. १३, पृ. ३६०); परिन्यागोनिसर्गस्तस्य त स्फट: । तहानमिति दाणविग्घयरं दाणंतराइयं । (धव. प. १५. प. १४)। निर्देशोऽतिप्रसंगनिवत्तये ।। (त. इलो, ७-३८)। ३. दानं देयम् । सत्यपि द्रव्ये न ददाति तद्धि कर्मो८. यत् तेष दानं भक्त-पान-वस्त्र-पात्राश्रयादेर्दाना- दितं दीयमानस्य कर्मणो विघ्नम्-अन्तरायमन्तनाथ-वनीपकादिषु अगारिष्वनगारेषु च ज्ञान-दर्शना- धनं करोतीति दानान्तरायः। द्रव्ये प्रतिग्राहके च चरणसम्पन्नेषु त्वेकान्तकर्मनिर्जराफलं च भवति । सन्निहितेऽस्मै दत्तं महाफलमिति जानानोऽपि अथवा xxx स्वस्य परानुग्रहाभिप्रायेणातिसर्गो दातव्यं न ददाति । (त. भा. सिद्ध.व. ८-१४)। दानम् । (त. भा. सिद्ध. . ६-१३)। ६. परात्म- ४. सइ फासुयंमि दाणे दाणफलं तह य बुज्झई नोरन्ग्राही धर्मवृद्धिकरत्वतः। स्वस्योत्सर्जनमिच्छ. अउलं । बंभच्चेराइजुयं पत्तंपि य विज्जए तत्थ ।। न्ति दानं नाम गृहिव्रतम् ॥ (त. सा. ४-६६)। दाउं नवरि न सक्कइ दाणविधायस्स कम्मणो १०. प्रात्मनः श्रेय सेऽन्येषां रत्नत्रयसमृद्धये। स्वपरा. उदए । दाणंतरायमेयं xxx॥ (कर्मवि. ग. नग्रहायेत्थं यत्स्यात्तहानमिष्यते ॥ (उपासका. १६०-६१)। ५. सति दातव्ये वस्तुनि समागते च ७६६)। ११. दानं पात्रष द्रव्यविश्राणनम् । (योग- गुणवति पात्रे दानस्य च कल्याणकं फल विशेष शा. स्वो. विव. २-३१)। १२. अनुग्रहार्थं स्वोप- विद्वानपि यदुदयादातुं नोत्सहते तद्दानान्तरायम् । काराय विशिष्टगुणसंचयलक्षणाय परोपकाराय (कर्मस्त. गो. व. १०, पृ.८८)। ६. तत्र यदुदयवसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रादिवृद्धये स्वस्य धनस्य शात् सति विभवे समागते च गुणवति पात्रे दत्तप्रतिसो ऽतिसर्जनं विश्राणनं प्रदानं दानम् । (त. मस्मै महाफलमिति जानन्नपि दातुं नोत्सहते तद्दावृत्ति श्रुत.७-३८)।
नान्तरायम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३-२९३, पृ. १ अपने और दूसरे के अनुग्रह के लिए जो धन का ४७५) । ७. तत्र यदुदयात् सति दातव्ये पात्रवित्याग किया जाता है उसे दान कहते हैं । ३ दान से शेषे च प्रतिग्राहके स्वर्गाङ्गनोपभोगसम्प्राप्यादि च वाता के जो पुण्य का संचय होता है, यह हुआ दानफलं जानन्नपि दातुं नोत्सहते तत् दानान्तरा
कानया साथ ही उसके प्राश्रय से पात्र के यम् । (धर्मसं. मलय. व. ६२३)। ८. यस्यान्तजो सम्यग्ज्ञानादि की अभिवृद्धि होती है, इसे उससे रायस्य प्रभावतो दातुं न लभते जीवस्तहानान्तरा. पर का उपकार भी जानना चाहिए।
यम् । (प्रव. सारो. व. १२६०)। दानविधि-१.प्रतिग्रहादिक्रमो विधिः। (स. सि. १जिसके उदय से देने योग्य वस्तु के होने पर, ७-३६)। २. प्रतिग्रहादिक्रमो विधिः। प्रतिग्रह ग्राहक पात्र विशेष के उपस्थित रहने पर तथा दान उच्चदेशस्थापनं पादप्रक्षालनम् अर्चनं प्रणमनमि- के फल को जानते हए भी देने के लिए उत्साह त्येवमादिक्रियाविशेषाणां क्रमो विधिरित्याख्यायते। नहीं होता है उसे दानान्तराय कहते हैं। २ जो
.वा. ७.३९.१)। ३. तत्र प्रतिग्रहोच्चदेश- कर्म दान देने में विघ्न किया करता है वह दानास्थापनमित्येवमादीनां क्रियाणामादरेण करणं विधि. न्तराय कहलाता है। विशेषः। (चा. सा. पृ. १५)।
दान्त-दान्तो नाम इन्द्रिय-नोइन्द्रियजयसम्पन्नः। अ शान करना. ऊंचे स्थान में बैठाना, परों का (व्यव. भा. मलय. व. १-३४०, पृ. १६)।
जा करना और प्रणाम करना; इत्यादि इन्द्रिय और मन के वश में रखने वाले पुरुष को क्रियाविशेषों के क्रम को दान की विधि कहा दान्त कहते हैं । जाता है।
दापना-दापना शय्याहारोपधि-स्वाध्याय-शिष्यदानान्तराय-१. तत्र दानान्तरायं यदुदयात् सति गणानां प्रदापनम् । (व्यव. भा. मलय. ५-४६)। दातव्ये प्रतिग्राहके च पात्रविशेषे दानफलं च जान- शय्या, माहार, उपधि, स्वाध्याय और शिष्यसमह
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
दायकदोष] ५१६, जन-लक्षणावली
[दिक्कुमार के दिलाने को दापना कहा जाता है।
द्विपदं पुत्र-कलत्र-दासी-दास-कर्मकर-शुक-सारिकादि, दायकदोष-१. दायकः परिवेषकः, तेनाशुद्धेन चतुष्पदं गवोष्ट्रादि, तेषां यत्परिमाणं तस्य गर्भादीयमानमाहारं यदि गृह्णाति साधुस्तदा तस्य दायक- धानविधापनेनातिक्रमो ऽतिचारो भवति । (ध. बि. नामानशनदोषः। (मला.. ६-४३)। २. मलिनी- मु.व. ३-२७) । गभिणी-लिगिम्यादिनार्या नरेण च । शवादिनापि पुत्र, स्त्री, दासी, दास व सेवक मनुष्य एवं तोता, क्लीवेन दत्तं दायकदोषभाक् ।। (मन. घ.५-३४)। मंना प्रादि पक्षी इन द्विपदों का तथा गाय और ऊंट प्रशुद्ध परोसने वाले के द्वारा दिये जाने वाले माहार प्रादि चतुष्पदों का जो प्रमाण किया गया है उसका को यदि साषु ग्रहण करता है तो वह दायकदोष का गर्भाधान कराकर उल्लंघन करना; यह दासी-दासपात्र होता है।
प्रमाणातिकम नाम का परिग्रहपरिमाण अणुव्रत का दायकदोषदुष्टा-१. मृत-जातसूतकयुक्तगृहिजनेन एक अतिचार है। मत्तेन व्याधितेन नपुंसकेन पिशाचगृहीतेन नग्नया दाह-दाहो णाम संकिलेसो । कुदो ? इह-परभववा दीयमाना वसतियकदृष्टा। (भ. मा. विजयो. संतावकारणत्तादो। (घव. पु. ११, पृ. ३३९)। २-३०)। २. मृत-जातसंयुक्तेन मत्तेन नपुंसकेन इस भव प्रौर परभव में सन्तापजनक संक्लेश को पिशाचगृहीतेन नग्नया वा दीयमाना वसति: दायक- दाह कहा जाता है। दुष्टा। (भ. पा. मूला. टी. २-३०)। ३. मृत- दाहस्थिति- दाहो उक्कस्सट्ठिदिपामोग्गसंकिजातसूतकयुक्तगृहिजनेन व्याषितेन गृथिलेन दीय- लेसो, तस्स दाहस्स कारणभूट्ठिदी दाइट्ठिदी माना वसतिर्दायकदुष्टा । (कार्तिके. टी. ४४८.४६, णाम । (धव. पु. ११, पृ. ३४१)।। पृ. ३३८)।
उत्कृष्ट स्थिति के योग्य संपलेश का नाम दाह है, १मरण व जन्म के सूतकसे युक्त गहस्थजन, उन्मत्त, उसकी कारणभूत स्थिति को दाहस्थिति कहा रोगी, नपुंसक और पिशाच से पीड़ित जन के द्वारा जाता है। तथा नग्न स्त्री के द्वारा दी जाने वाली वसति दिक-१. ग्राकाशप्रदेशवेणी दिक् । माकाशस्य दायकदोष से दुष्ट कही जाती है।
प्रदेशाः परमाणुपरिच्छेदात् प्रविभक्ता श्रेणीकृता दायकशुद्ध-दायकशुद्धं तु यत्र दाता प्रौदार्यादि- दिग्व्यपदेशमर्हन्ति । (त. वा. ७, २१, १)। गुणान्वितः । (विपाक. अभय. वृ. पृ. ६३)। २. आकाशप्रदेशश्रेणी दिक् । (त. श्लो. ७-२१)। दाता के उदारतादि गुणों से युक्त होने पर दान १ परमाणु प्रमाण से विभक्त माकाश के प्रदेशों की दायकशुद्ध माना जाता है।
श्रेणी को दिक या दिशा कहते हैं। दारक (परत्)-निजपते रुत्कर्षजनकत्वेन शत्रु- दिक्कुमार - १. जङ्घामपादेष्वधिकप्रतिरूपाः हृदयं दारयति भिनत्तीति दरत् (दारकम्)। (नीति- श्यामा हस्तिचिह्ना दिक्कुमाराः। (त. भा. ४-११) वा. १६-६, पृ. १६१) ।
२. दिक्कुमारा भूषणनियुक्तगजपचिह्नधारिणः । जो अपने स्वामी का उत्कर्ष बढ़ाकर शत्रुनों के (जीवाजी. मलय. व. ३, १, ११७, पृ. १६१) । हृदय को विदीर्ण किया करता है उसे दारक या ३. दिक्कुमारा जङ्घानपदेष्वत्यन्तरूपाः स्वर्णगौराः। वरत् कहते हैं।
(संग्रहणी दे. व. १७, पृ. १३)। ४. दिशन्ति अतिदास-दासो मूल्य क्रीतः । (पा. दि. पृ. ७४)। सर्जयन्ति अवकाशमिति दिशः, दिक्क्रीडायोगादमूल्य देकर खरीदे हुए सेवक को दास कहते हैं। मृतान्धसोऽपि दिशः, दिशः च ते कुमारा: दिक्कुमादासी-दासकर्मरता दासी क्रीता वा स्वीकृता राः। (त. वृत्ति भुत. ४-१०)। सती । (लाटीसं. ६-१०५)।।
१जो देव जंघानों पोर पावों के अग्रभाग में प्रषिक दासकर्म करने वाली या क्रीत (खरीदी हुई) स्वीकृत सुन्दर, वर्ण से श्याम और हाथी के चिह्न से युक्त (रखंल) स्त्रीको दासी कहते हैं।
होते हैं वे विक्कुमार कहलाते हैं। ४ जो अवकाश दासी-दासप्रमारणातिक्रम-तथा दासीदासप्रमा- देती हैं वे दिशायें कहलाती हैं। दिशामों में क्रीड़ा णातिक्रम इति सर्वद्विपद-चतुष्पदोपलक्षणमेतत् । तत्र करने वाले अमृतभोजियों (देवों) को भी विक
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिक्शुद्धि] ५२०, जैन-लक्षणावलो
[दिग्विरति (दिशा) कहा जाता है। तदनुसार दिशास्वरूप वधि दिक्षु दशस्वपि निजेच्छया । नाक्रामति पुनः देवों को दिक्कुमार जानना चाहिए।
प्रोक्तं प्रथमं तद् गुणवतम् ॥ (सुभा. सं. ७९२) । दिकशुद्धि-दिकशद्धिः प्राच्यदीचीजिन-जिन चैत्या. ११. कबष्टकेऽपि कृत्वा मर्यादां यो न लङयति धधिष्ठिताशासमाश्रयणस्वरूपा। (ध. वि. म.व. धन्यः । दिग्विरतेस्तस्य जिनर्गुणवतं व.थ्यते प्रथमम् ।। ३-१४)।
(अमित. श्रा. ६-७६) । १२. यद्दशस्वपि काष्ठासु पूर्व व उत्तर दिशागत जिन और जिनचैत्यालय । विधाय विधिनाऽवधिम् । न ततः परतो याति मादि से अधिष्ठित दिशात्रों के प्राश्रय से की जाने प्रथमं तद् गुणवतम् ।। (धर्मप. १९-७४, पृ. २७६)। वाली शुद्धि को दिक्शुद्धि कहते हैं।
१३. तत्र प्राची-प्रवाची-उदीधी-प्रतीची-ऊर्ध्व-अधोदिगाचार्य-दिगाचार्य: सचित्ताचित्त-मिश्रवस्त्वनु- विदिशश्चेति । तासां परिमाणं योजनादिभिः पर्व. ज्ञायी। (त.भा. सिद्ध. वृ. ६-६, पृ. २०८ तादिप्रसिद्धाभिज्ञानश्च, ताश्च दिशो दुष्परिहारः योगशा. स्वो. विव. ४-६०)।
क्षुद्रजन्तुभिराकुला । अतस्ततो बहिर्न यास्यामीति सचित्त, प्रचित्त और मिश्र वस्तनों के प्रहण करने निवृत्तिदिग्विरतिः। (चा. सा. पृ.८) । १४. पूवकी अनुज्ञा देने वाले प्राचार्य को विगाचार्य कहते हैं। त्तर-दक्खिण-पच्छिमासु काऊण जोयणपमाणं । परदो दिग्दाह-दिशां दाह उत्पातेन दिशोऽग्निवर्णाः ।। गमणणियत्ती दिसि विदिसि गुणव्वयं पढमं ॥ (वसु. (मूला. व. ५-७७)।
श्रा. २१३)। १५. तत्र सूर्योदयलक्षिता पूर्वा, उपद्रवस्वरूप से दिशामों के अग्नि के समान लाल शेषाश्च पूर्व-दक्षिणादिकाः सप्त, तथा ऊर्ध्वमधश्च वर्ण होने को दिग्दाह कहा जाता है।
द्वे, एवं दशसु दिक्षु विषये गमनपरिमाणकरणलक्षणं दिग्विरति-१. दिसि विदिसि माण पढमं व्रतं नियमो दिग्वतम्। (घ. बि. मु.ब. ३-१७) । xxx 1 (चा. प्रा. २४) । २. दिग्वलयं परि. १६. जंतु दिसावेरमणं गमणस्स दुजं च परिमाणं। गणितं कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि । इति सङ्कल्पो- तं च गुणव्वयपढमं भणियं जियरायदोसेहि ।। (धर्मदिग्वतमामृत्यणुपापविनिवृत्त्य ।। (रत्नक.४-६८)। र. १४८)। १७. दशस्वपि कृता दिक्षु यत्र सीमा ३. दिक् प्राच्यादिः, तत्र प्रसिद्धरभिज्ञानरवधिं कृत्वा न लध्यते । ख्यातं दिग्विरतिरिति प्रथमं तद् गुणनियमनं दिग्विरतिव्रतम् । (स. सि. ७-२१)। व्रतम् ॥(योगशा. ३-१; त्रि.श. पु. च. १, ३, ६५); ४. दिग्वतं नाम तिर्यगूर्वमधो वा दशानां दिशां ऐन्द्री, माग्नेयी, याम्या, नैऋती, वारुणी, वायव्या, यथाशक्ति गमनपरिमाणाभिग्रहः। (त. भा.७-१३)। कौवेरी, ऐशानी, नागी, ब्राह्मीति दश दिशस्तासु, ५. ऊधिोदिग्विदिकस्थानं कृत्वा तत्परिमाणतः। अपिशब्दादेक-द्वि-व्यादिदिक्ष्वपि, सीमा मर्यादा पूनराक्रम्यते नैव प्रथमं तद गुणव्रतम ।। (वरांगच. कृता प्रतिपन्ना यत्र व्रते सति न लध्यते नाति१५-११७) । ६. तत्र दिशा सम्बन्धि दिक्ष वा व्रत- क्रम्यते तत्प्रथम गुणवतम् । (योगशा. स्वो. विव. मेतावत्सु पूर्वादिविभागेषु मया गमनाद्यनुष्ठेयम्, न ३-१) । १८. यत्प्रसिद्ध रभि ज्ञानः कृत्वा दिक्षु दशपरतः; इत्येवंभूतं दिग्वतम् । (प्राव. हरि. वृ. ६, स्वपि । नात्येत्यणुव्रती सीमा तत्स्यादिग्विरतिव्रतम् ॥ पृ. ८२७)। ७. यः प्रसिद्धरभिज्ञानः कृतावध्य- (सा. घ. ५-२)। १६. कृत्वा संख्यानमाशायां नतिक्रमः। दिग्विदिक्ष गुणेष्वाद्यं वेद्यं दिग्विरवि- ततो बहिर्न गम्यते । यावज्जीवं भवत्येतद् दिग्वतव्रतम् ॥ (ह. पु. ५८-१४४)। ८. जह लोहणासण→ संगपमाणं हवेइ जीवस्स । सव्वदिसाण दिक्षु प्रदिक्षु च हिमाचल-विन्ध्यपर्वतादिकमभिज्ञानपमाणं तह लोहं णासए णियमा ॥ जं परिमाणं पूर्वक मर्यादां कृत्वा परतो नियमग्रहणं दिग्विरतिकोरदि दिसाण सव्वाण सुप्पसिद्धाणं । उवमोगं व्रतमुच्यते । (त. वृत्ति भुत. ७-२१)। २१. दशजाणित्ता गुणव्वदं जाण तं पढम ॥ (कातिके. दिक्ष्वपि संख्यानं कृत्वा यास्यामि नो बहिः । तिष्ठे३४१-४२)। ६. प्रविधाय सुप्रसिद्धर्मर्यादा सर्वतो- दित्याऽऽमृतेयंत्र तत्स्याद् दिग्विरतिव्रतम् ।। (धर्मसं. .ऽप्यभिज्ञानः। प्राच्यादिभ्यो दिग्भ्यः कर्तव्या विरति- श्रा. ७-३) । २२. सुप्रसिद्धानां जगद्विख्यातानां रविचलिता ।। (पु. सि. १३७)। १०. यद्विधाया- दशदिशानामाशानां पूर्व-पश्चिम-दक्षिणोत्तर-दिशानां
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिग्वत] ५२१, जैन-लक्षणावली
[दिवाब्रह्मचारी चतसृणां अग्नि-नैऋत्य-वायवीशानविदिशानां चत- १ तीस मुहूतों का एक दिन होता है। २ चार सृणां ऊर्ध्वदिशः अधोदिशश्चेति दशदिशां परिमाणं पौरुषियों का एक दिवस या दिन होता है। ४ चार मर्यादा योजनाद्यः संख्या, अतः परं अहं न गच्छामि प्रहर का एक दिवस होता है, अथवा सूर्य के द्वारा इति नियमेन मर्यादा क्रियते । अथवा दशसू दिक्ष जो प्राकाश का भाग अपनी प्रभा से व्याप्त किया हिमाचल-विन्ध्यपर्वतादिकं अभिज्ञानपूर्वकं मर्यादां जाता है वह दिवस कहलाता है । ५ सोलह मुहूर्त कृत्वा परतो नियमग्रहणं दिग्विरतिव्रतमुच्यते। का दिवस होता है। १० बारह प्रादि महूतों का (कातिके. टी. ३४१-४२) । २३. परिमाणवतं दिवस होता है । ग्राह्य दिक्षु सर्वासु सर्वदा। स्वशक्त्याऽऽम- [त्म.] दिवसभृतक-भ्रियते पोष्यते स्मेति भृतः, स गुरोः पाश्व तदाद्यं स्याद् गुणव्रतम् ।। (पू. उपा. एवानुकम्पितो भूतकः, कर्मकर इत्यर्थः । प्रतिदिवस २८) । २४. दिग्विरतिर्यथानाम दिक्षु प्राच्यादि- नियतमूल्येन कर्मकरणार्थ यो गृह्यते स दिवसभृतकः । कासु च । गमनं प्रतिजानीते कृत्वा मीमानमाहंतः॥ xxx इह गाथे-दिवसभयो उ घेप्पइ (लाटीसं. ६-१११)।
छिण्णेण धणेण दिवस देवसियं (स्थाना. अभय. वृ. २ दिशासमूह को मर्यादित करके "मैं इससे बाहिर ४,१,२७१)। नहीं जाऊंगा" ऐसा जीवन पर्यन्त के लिए नियम अनुकम्पापूर्वक जिसका भरण-पोषण किया जाता है करके उससे बाहिर नहीं जाना, इसे दिग्विरति या वह भतक कहलाता है। जो भूतक प्रतिदिन निश्चित दिग्वत कहते हैं।
मल्य से-नियमित वेतन देकर--कार्य करने के दिग्व्रत-देखो दिग्विरति ।
लिए ग्रहण किया जाता है उसे दिवसभृतक दिनब्रह्मचारी-देखो दिवाब्रह्मचारी। दिवस-१. xxx मुहुत्तया तीसं । दिवसो दिवाब्रह्मचारी-१. निषेवते यो दिवसे न नारीxxx॥ (ति. प. ४-२८८)। २. चउपोरिसियो मुद्दामकन्दर्पमदापसारी । कटाक्षविक्षेपशरैरविद्धो दवसो xxx ॥ (प्राव. नि. ७३०) । बदिन ब्रह्मचर: स बद्धः ॥ (अमित. श्रा. ७-७२) ३. xxx त्रिंशन्मुहूर्ता दिनरात्रिरेका। (वरांग- २. मैथुनं भजते मर्यो न दिवा यः कदाचन । दिवाच. २७-५)। ४. दिवसश्चतुष्प्रहरात्मकः, यद्वा मैथुननिर्मुक्तः स बुधैः परिकीर्तितः॥ (सुभा. सं. आकाशखण्डमादित्येन स्वभाभिाप्तं तदिवसम् ८३८) । ३. धर्ममना दिवसे गतरागो यो न करोति इत्युच्यते । (प्राव. नि. हरि.. ६६३, पृ. २५७)। वधजनसेवाम् । तं दिनमैथुनसंगविरक्तं धन्यतमं ५. षोडश मुहूर्ता दिवसः । (प्राव. भा. हरि. व. निगदन्ति महिष्ठाः ।। (धर्मप. १६-५८) । ४. मण१९८, प. ४६५) । ६. एक्कबीससहस्स-छस्सय- वयण-काय-कय-कारियाणुमोएहि मेहणं णवधा। मेत्तपाणेहि संवच्छरियाण दिवसो होदि। एत्थ पुण दिवसम्मि जो विवज्जइ गुणम्मि सो सावनो छट्टो । एगलक्ख-तेरहसहस्स-णउदिसयपाणेहिं दिवसो होदि। (वसु. बा. २६६)। ५. मनोवाक्कायसंशुद्धया (धव. पु. ३, पृ. ६७); त्रिंशन्मुहूर्तो दिवसः। दिवा नो भजतेऽङ्गनाम् ॥ भण्यतेऽसौ दिवाब्रह्म(धव. पु. ४, पृ. ३१८); तीसमुहुत्तेहि दिवसो चारीति ब्रह्मवेदिभिः ॥ (भावसं. वाम. ५३८) । होदि । (धव. पु. १३, पृ. ३००)। ७. तीसमुहुत्तो १ उद्धत कामदेव के मद को नष्ट करने वाला जो दिवसो xxx1 (भावसं. दे. ३१४)। ८. तीस- स्त्री के कटाक्षपात रूप बाणों से न बेधा जाकर मुहत्तं दिवसं xxx (जं. दी. प. १३-७)। दिन में उक्त स्त्री का सेवन नहीं करता है वह ६. चतुष्प्रहरात्मको दिवसः यदि वा यावदाकाश- दिनब्रह्मचारी या दिवाब्रह्मचारी कहलाता है। खण्डमादित्येन स्वप्रभाभिप्तिं तावदाकाशपरि- ४ जो मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमोदना भ्रमणच्छिन्नः कालो दिवसः। (प्राव. मलय. व. इन नौ प्रकारों से दिन में मैथुन का परित्याग करता ६६३, पृ. ३४१)। १०. द्वादशादिमुहतों दिवसः। है उसे छठा-छठी प्रतिमा का धारक-श्रावक (प्राव. भा. मलय. व. २००, पृ. ५६३)। जानना चाहिए।
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिव्यध्वनि ]
दिव्यध्वनि- - १. जादे प्रणतणाणे णट्ठे छदुमट्ठिीमामि । णवत्रिपदत्थसारा ( धव. - त्थगन्मा) दिव्वणी कहइ सुत्तत्यं ॥ ( ति प १–७४; धव. पु. १, पृ. ६४ उद्) । २. स्वर्गापवर्गगममार्गविमाणेष्टः सद्धर्मतस्त्वकथने कपटुस्त्रिलोक्या: । दिव्य ध्वनिर्भवति ते विशदार्थ सर्वभाषास्वभाव परिणामगुणप्रयोज्यः ॥ ( भक्तामर ३५ ) । ३. केरिसा सा (दिव्वज्भुणी ) ? सब्वभासासरूवा श्रक्खराणक्खरपिया अणंतत्थगम्भबीजपदघडियसरीरा तिसंज्भू-३-११८) | विसय छघडियासु निरंतरं पयट्टमाणिया इयरकाले सु संसय-विवज्जासाणज्भवसाय भावगयगणहरदेवं पडि वट्टमाणसहावा संकर व दिगराभावादो विसदसरूवा एकणवीसम्म कहाकहणसहावा । ( जयध. १, पू. १२६) । ४. सकलवचनभेदाकारिणी दिव्यभाषा । जीव. व. ६-१६, पु. १११ ) । १स्थ अवस्था के ज्ञान ( क्षायोपशमिक [मत्यादि) के नष्ट हो जाने पर प्रगट हुए अनन्त ज्ञान ( क्षायिक केवलज्ञान ) के द्वारा जो जीवाजीवादि नौ पदार्थो से सम्बद्ध सूत्र व अर्थ का कथन करती है उसे दिव्यध्वनि कहा जाता है । ३. जो सर्वभाषामयी है, अक्षरात्मक भी है धोर अनक्षरात्मक भी है, अनन्त प्रर्थ-गभित बीजपदों से युक्त है, तीनों संध्या समयों में छह घड़ी निरन्तरप्रवर्तमान होती है, इतर समय में संशय, विपर्यय, व अनध्यवसाय को प्राप्त गणधरदेव के प्रति प्रवर्तमान होती है, संकर-व्यतिकर दोषों के प्रभाव से निर्मल स्वरूप वाली है, तथा जो स्वभावत: उन्नीस धर्मकथानों का निरूपण करती है; ऐसी प्रतिशय वाली तीर्थंकरों की वाणी को दिव्यध्वनि या दिव्यभाषा कहते हैं ।
दिव्यभाषा - देखो दिव्यव्वनि ।
दिशा - १. सगट्टाणादो कंडुज्जुवा दिसा णाम । ( व. पु. ४, पृ. २२६ ) । २. दिसा परलोक बिगुपदर्शनपरसूरिणा स्थापितः भवतां दिशं मोक्षवर्त[ ] न्याश्रयमुपदिशति यः सूरिः स दिशा इत्युच्यते । (भ. आ. विजयो. ६८ ) । ३. दिसा एलाचार्य: संघाधिपतिना यावज्जीवमाचार्यकत्यागेन स्वपदेप्रतिष्ठितः स्वसमानगुणग्रामः, स्वशिष्यः इत्यर्थः । (भ. प्रा. मूला. ६८ ) ।
१ अपने स्थान से वाण के समान सीधे क्षेत्र को
[दीपक सम्यक्त्व
५२२, जैन-लक्षणावली दिशा कहा जाता है । २ जो संघाधिपति के द्वारा अपने पद पर प्रतिष्ठित किया गया है, प्रापको ( या भव्य जीवों को) परलोक की दिशा दिखलाने वाला है, तथा मोक्षमार्ग के प्राश्रय का उपदेशक है, ऐसे सूरि को दिशा कहा जाता है। दीक्षा - १. दीक्षा सर्वसत्त्वाभयप्रदानेन भावसत्रम्। ( पंचव. स्वो वृ. ६, पृ. ४) । २. दीक्षां सर्वसंगपरित्यागलक्षणां भवनाशिनीम् । ( जम्बू. म.
१ समस्त प्राणियों को अभयदान के द्वारा जो भावसत्र - अन्तरंग सदावर्त (दैनिक अन्नदान का स्थान ) है उसका नाम दीक्षा है । २ समस्त परिग्रह के परित्याग को दीक्षा कहा जाता है । दीक्षागुरु - १. लिंगरगढ़णे तेसि गुरु त्ति पव्वज्जदायगो ! होदि । ( प्रव. सा. ३- १० ) । २. यतो लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन यः किलाचार्यः प्रव्रज्यादायक: स गुरुः । ( प्रव. सा. प्रमृत. वृ. ३ - १० ) ।
लिंग (जिनलग) ग्रहण के समय दोक्षादानपूर्वक निर्विकल्प सामायिक संयम के प्रतिपादक प्राचार्य को दीक्षागुरु कहते हैं ।
दीक्षायोग्य - सुद्धो जाइ-कुलेणं रुवेणं तह य उवसमी धीरो । संविग्गमणो तुट्ठो पव्वज्जं कप्पए पुरिसो ॥ (श्रा. दि. पृ. ७५ उद्) । जो जाति और कुल से शुद्ध रूपवान, शान्तपरिणामी, धीर, सन्तुष्ट एवं संसार से उदासीन हो; वह दीक्षा ग्रहण करने के योग्य होता है ।
दोन - दीनाः पुनः "दीङ् क्षये" इति वचनात् क्षीणसकलघमर्थि· कामाराधनशक्तयः । (ध. बि. मु. व. १-१८) ।
जिसकी धर्म, अर्थ श्रोर कामसेवन की समस्त शक्तियां क्षीण हो गई हों उसे दोन कहते हैं । दीपक सम्यक्त्व - १. सयमिह मिच्छद्दिट्ठी षम्मकहाईहि दीवइ परस्स | सम्मत्तमिणं दीवग कारणफलभावओ नेयं ॥ ( भा. प्र. ५० ) । २. दीपकं तद्यदन्येषामपि सम्यक्त्वदीपकम् । (त्रि. श. पु. च. १, ३, ६१० ) ।
१ जो स्वयं मिथ्यादृष्टि होकर धर्मकथा प्रादिकों के द्वारा दूसरे के सम्यक्त्व का प्रकाशक होता है उसे
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
दीप्ततप]
कारण में कार्य के उपचार से दीपक सम्यक्त्व कहा जाता है ।
दीप्ततप - १. बहुविहउववासेहि रविसमवंत काय किरणोघो । काय-मण-वयणबलिणो जीए सा दित्त तवरिद्धी । ति प ४ - १०५२) । २. महोपवासकरणेऽपि प्रवर्धमान काय वाङ्मानसबलाः विगन्धरहितवदनाः पद्मोत्पलादिसुरभिनिःश्वासाः प्रप्रच्युतमहादीप्तिशरीरा: दीप्ततपसः । (त. वा. ३, ३६, ३) । ३. दीप्तिहेतुत्वाद्दीप्तं तपः, दीप्तं तपो येषां ते दीप्ततपसः । चउत्थ छुट्टमादिउववासेसु कीरमाणेसु जेसि तव जणिदत्त द्विमाहप्पेण सरीरतेजो पडिदिणं वड्ढदि घवलपक्खचंदस्सेव ते रिसप्रो दित्ततवा । (घव. पु. ६, पू. ६० ) । ४. महोपवासकरणेऽपि प्रवर्द्धमानकायवाङ्मनोबलाः दुर्गन्धरहितवदना पद्मोत्पलादिसुरभिनिःश्वासाः प्रतिदिन प्रवर्द्धमानाऽप्रच्युतमहादीप्तिशरीरा: दीप्तमनसः [ तपसः ] । ( चा. सा. पृ. ८) । ५. देहदीप्त्या प्रहृतान्धकारा दीप्तितपसः । ( योगिभ. टी. १४) । ६. शरीरदीप्त्या द्वादशार्कतेजस्काः दीप्ततपसः। (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६) । २ जिस ऋद्धि के प्रभाव से महाउपवासों के करने पर भी जिनका मनोबल, वचनबल और कायबल बढ़ता ही रहता है; मुख दुर्गन्ध से रहित और निःश्वास कमल-पुष्पादि के समान सुगन्धित होती है, तथा जिनके शरीर की दीप्ति प्रविनष्ट रहती है; वे दीप्ततप-दीप्ततप नामक - ऋद्धि के धारक होते हैं ।
दीर्घ - द्विमात्रो दीर्घः । ( धव. पु. १३, पृ. २४८ ) । दो मात्रा उच्चारण काल वाले स्वरको दीर्घ कहते हैं । दीर्घ ह्रस्व अनुयोगद्वार - दीहे रहस्सेति अणियोगद्दारं पयडि-द्विदि-प्रणुमाग- पदे से अस्सिदूण दीहरहस्यत्तं परुवेदि । ( धव. पु. ६, पृ. २३५) । दीर्घ-ह्रस्व अनुयोगद्वार वह है अ: प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का आश्रय लेकर दीर्घ ह्रस्वता की प्ररूपणा करता है ।
: दुरभि - दोर्मुख्यकृतः दुरभि: । (अनुयो. हरि. बृ. पू. ६० ) ।
दुर्मुखता (विमुखता ) को उत्पन्न करने वाली गन्ध का नाम दुरभि है । दुरभिगन्धनाम - १. जस्स कम्मस्स उदएण सरीरपोग्गला दुग्गंधा होंति तं दुरहिगंवं णाम ।
५२३, जंन-लक्षणावली
[ दुर्णय
( व. पु. ६, पृ. ७५) । २. यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन शरीरपुद्गला दुर्गन्धा भवन्ति तद् दुर्गन्धनाम | (मूला. व. १२-१६४ ) । ३. यदुदयाद् दुरभिगन्ध: शरीरेषूपजायते, यथा लशुनादीनाम्, तद् दुरभिगन्धनाम । ( प्राय मलय. वृ. २३-२६३. पू. ४७३) । १ जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गल दुर्गन्धयुक्त होते हैं उसे दुरभिगन्ध या दुर्गन्ध नामकर्म कहते हैं ।
दुर्ग - १. यस्याभियोगात् परे दुःखं गच्छन्ति दुर्जनोद्योगविषया वा स्वस्यापदो गमयतीति दुर्गम् । ( नीतिवा. २० - १, पृ. १६८) । २. XX X तथा च शुक्रः - यस्य दुर्गस्य संप्राप्तेः शत्रवो दुःखमाप्नुयुः । स्वामिनं रक्षयत्येव व्यसने दुर्गमेव तत् ॥ दंष्ट्राविरहितः सर्पो यथा नागो मदच्युतः । दुर्गेण रहितो राजा तथा गम्यो भवेद् रिपोः ॥ जिसके रहने से शत्रु दुःख को प्राप्त होते हैं प्रथवा जो शत्रुओंों के खोजने के उद्योगविषयक प्रपनी श्रापत्तियों को जतलाता है वह दुर्ग कहलाता है । यह दुर्ग का निरुक्त लक्षण है । दुर्गन्धनाम - देखो दुरभिगन्धनाम । दुर्जन - XXX दुर्जना दोषवित्तकाः । (म. पु. १-८४) ।
दोषरूप धन से सम्पन्न – दूसरों के दोषों के देखने वाले- पुरुषों को दुर्जन कहते हैं
दुर्णय - १ तथा चोक्तम् - XXX दुर्णयस्तन्निराकृति. ॥ तत्प्रत्यनीकप्रतिक्षेपो दुर्णयः । (भ्रष्टश. १०६) । २. भेदाभेदात्मके ज्ञेये भेदाभेदाभिसन्धयः । ये तेऽपेक्षाऽनपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते नय-दुर्नया: ॥ ( लघीय. ५- ३०, पृ. ६०५ ) । ३. सावधारणानि वाक्यानि दुर्णया: । ( धव. पु. ६, पू. १८३ ) । ४. प्रविशेषेण गुण- पर्यायेषु मिथ्यात्वप्रतिपत्या द्रव्यार्थावधारणं क्वचित् केषुचित् वा प्रत्यभिज्ञाविसंवादात् सर्वेण तद्विसंवादात् पर्यायावधारणं च दुर्णयः तत्त्वप्रतिक्षेपात् । (सिद्धिवि. स्वो वृ. १०-६, पू. ६६८, पं. २७-२८ ) ; सर्वथा द्रव्यप्रतिक्षेपे पर्यायप्ररूपणक्रमोऽयं दुर्णयः । (सिद्धिवि. स्वो वृ. १०-२७. पु. ६६६, पं. २६ ) ; निरपेक्षाः परविषयनिषेद्धारः नयाः दुर्णया: । (सिद्धिवि. स्वो वृ. १०-२७, पू. ६६१, पं. १४ ) ; विज्ञेया दुर्णयाश्च कुमतिभूताः । ( सिद्धिवि. वू. १०-२८, पू. ६६१, पं २५) ।
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुर्दर] ५२४, जैन-लक्षणावली
[दुर्वृष्टि ५. अपेक्षातो निष्क्रान्तो निरस्तो वा अपेक्षा येनासो कम्मस्मुदएण जीवो दूहवो होदि तं दूहवं णाम । निरपेक्षः--दुनयः । (न्यायकु. ६-७१, पृ. ७६३)। (धव. पु. १३, पृ. ३६६)। ७. यतोऽप्रीतिकरो६. इतरेतराकांक्षारहितस्तु दुर्नयः । (प्राव. नि. ऽन्येषां नाम्ना दुर्भगनाम तत् । (ह. पु. ५८-२७)। मलय. वृ. ५४, पृ. ३७०)।
८. सौभाग्यविपरीतलक्षणं दुर्भागनाम। (त. भा. • २ भेदाभेदस्वरूप वस्तु में जो अनपेक्षा से-विरुद्ध सिद्ध. वृ. ८-१२)। ६. दुर्भगनामकर्मोदयादुपकारं
धर्म की अपेक्षा न करके-भेद-प्रभेद का अभिप्राय कुर्वन्नपि जनाप्रियो भवति । (पंचसं. स्वो. व. ३, होता है, इसे दुर्नय कहा जाता है।
१२६, प. ३८)। १०. दहगकम्मदए पूण दहनो दुर्दर-देखो दर्दुरदोष ।
सो सयललोयस्स। (कर्मवि. ग. १४४)। ११. दुर्भगदिन-दुर्दिनः पतदुदकाभ्रसंयुक्तो दिवसः । नाम यदुदयादुपकारकृदपि जनस्य द्वेष्यो भवति । (नूला. व. २-७५)।
उक्तं च-उवगारकारगो वि हुन रुच्चए दुब्भगस्सुजल बरसाते हुए मेघों से व्याप्त दिन को दुदिन दए। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३, पृ. ४७४; प्रव. कहते है।
सारो. वृ. १२६५)। १२. तद्विपरीतं दुर्भगनाम । दुर्ध्यान-दुरिति शब्दो वैकृते वर्तते, विकृतो वर्णो उक्तं च-उपकारकारगो वि हु ण रुच्चइ दुब्भदुर्वर्ण इति यथा, एवं विकृतं ध्यानं विकारान्तर. गस्सुदए । (धर्मसं. मलय. व. ६२०)। १३. यदुमापन्नं दुनि मिति । अथवा व्युद्धो दुःशब्दः, ऋद्धि- दयेन रूपलावण्यसहितोऽपि दृष्ट: श्रुतो वा परेषामवियुक्ता यवना दुर्यवनम्, दुष्कं (ष्टं ?) बीजमिति, प्रीतिजनको भवति तद् दुर्भगनाम । (त. वृत्ति श्रुत. एवं ध्यानलक्षणविनिर्मुक्तं दुर्ध्यानम् । अनीप्सायां ८-११)। १४. यदुदयात् रूपादिगुणोपेतेऽपि अप्रीति वा दःशब्दः, अनीप्सितोऽस्या भग इति दुर्भगा कन्या, विदघाति जनः तद् दुर्भगनाम । (गो. क. जी.प्र. एवमनीप्सितं दुर्ध्यानमिति । (त. भा. सिद्ध. वृ. ३३)। ६-२८)।
१ जिस कर्म के उदय से रूपादि गुणों से सम्पन्न . ध्यान के साथ उपयुक्त 'दुर' शब्द विकार अर्थ का होकर भी प्रीतिकर नहीं होता उसे दुर्मग नामकर्म वाचक है--जैसे दुर्वर्ण, अत: विकृत ध्यान का नाम कहते हैं। २ दुर्भगता के जनक कर्म को दुर्भग दृान है। अथवा 'दुर' का अर्थ ऋद्धि से विहीन नामकर्म कहा जाता है। ११ जिस कर्म के उदय से है, तदनुसार ऋद्धि से रहित ध्यान को दुनि उपकार करने वाला भी व्यक्ति लोगों को अभिय जानना चाहिए। अनिच्छित अर्थ में भी 'दुर' का होता है उसे दुर्भग नामकर्म कहते हैं। उपयोग होता है - जैसे दुर्भगा कन्या, इस प्रकार दुर्भिक्ष-सालि-बीहि-जव-गोधूमादिधण्णाणं दुल्लजो ध्यान अभीष्ट नहीं है वह दुनि कहलाता है। हत्तं दुब्भिक्खं णाम । (धव. पु. २३, पृ. ३६६) । दुर्भगनाम-१. यदुदयाद् रूपादिगुणोपेतोऽप्य- सालि, ब्रीहि, जो और गेहूं आदि की दुर्लभता का प्रीतिकरस्तद् दुर्भगनाम । (स. सि. ८-११, त. नाम दुर्भिक्ष है।।
१; भ. प्रा. विजयो. २१२४, मूला. व. दुविनोत-१. यो युक्तायुक्तयोरविवेकी विपर्यस्त१२-१६६)। २. दौर्भाग्यनिर्वर्तकं दुर्भगनाम । मतिर्वा स दुविनीतः। (नीतिवा. ५-४०, पृ. ५७)। (त. भा. ८-१२)। ३. यदुदयाद् रूपादिगुणोपेतो. २. तथा च नारद:-युक्तायुक्तविवेक यो न जानाति .sवि अप्रीतिकरस्तद दुर्भगनाम । रूपादिगुणोपेतोऽपि महीपतिः। दुर्वत्तः स परिज्ञेयो यो वा वाममतिर्भ• सन् यस्योदयात् परेषामप्रीतिहेतुर्भवति तद् दुर्भग- वेत् ॥ (नीतिया. टी. ५-४०, पृ. ५७) ।
नाम । (त. वा. ८, ११, २४)। ४. दीर्भाग्यं योग्य-अयोग्य के विवेक से रहित अथवा विपरीत . नामानिष्टो मनसो योऽप्रियः दुर्भगस्तद्भावो दौ - बुद्धि वाले राजा को दुविनीत कहते हैं।
ग्यं यस्य कर्मण उदयादिति । (ल. भा. हरि. व. दुर्वृष्टि-अतिवृष्टय वृष्टिलिङ्गा स्वगतक्षारत्वादि.८-१२) । ५. तद्विपरीतं स मेति । (श्रा. गुणेन सस्यसम्पादने प्रक्षमा वा दृष्टिः । (धव. पु. प्र. टी. २३)। ६. इत्थी-पुरिसाण दुहवभावणिव्व- १३, पृ. ३३६)। त्तयं दहवं णाम । (धव. पु.६, पृ. ६५); जस्स अधिक वर्षा का होना या वर्षा का न होना, अथवा
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुष्ट]
५२५, जैन-लक्षणावली [दुष्प्रयुक्तकायक्रिया अपने में वर्तमान क्षारता प्रादि गण के कारण जो प्रतिलेखनं जीवप्रमादमन्तरेण दष्प्रतिलेखसंयमः । धान्य के उत्पादन में असमर्थ रहती है उसे दुष्टि (मूला. वृ. ५-२२०)। कहा जाता है।
भली भांति प्रमार्जन न करके इस प्रकार से प्रमार्जन दुष्ट-दुष्टः कषायविषय[विष] दूषितः । (प्राचा. करना कि जिससे जीवों का विघात हो अथवा दि. पृ. ७४)।
उन्हें पीड़ा पहुंचे, इसका नाम दुष्प्रतिलेख है। कषायरूप विष से दूषित मनुष्य को दुष्ट कहते हैं। उसका संयमन करना-प्रयत्नपूर्वक सावधानी से दुष्पक्वाहार-१. असम्यक्पक्वो दुःपक्वः । (स. प्रतिलेखन करना, इसे दुष्प्रतिलेखसंयन कहा सि. ७-३५)। २. दुष्पक्वास्त्वर्धस्विन्नाः। (श्रा. जाता है। प्र. टी. २८६)। ३. असम्यक् पक्वो दुष्पक्वः ।
- दुष्टमुभ्रान्तचेतसः प्रत्यूपेक्षणं अन्तस्तण्डुलभावेनातिक्लेदनेन वा दुष्ठ पक्व पाहारो
। (श्रा. प्र. टी.३२३)। दुष्पक्व इत्युच्यते । (त. वा. ७, ३५, ६)।
व्याकुलचित्त होकर देखी गई भूमि पर शय्या व ४. दुष्पक्वं मन्दपक्वमभिन्नतन्दुल फल-लोष्ट-यव
संस्तर विछाना और मल-मत्रादि का क्षेपण करना, गोधूम-स्थूलमण्डककण्डुकादि, तस्याभ्यवहारः ऐहिक
यह दुष्प्रत्युपेक्षण नाम का प्रोषधोपवास का एक प्रत्यवायकारी यावता वांशेन सचेतनस्तावता पर
अतिचार है। लोकमप्युपहन्तीति । (त. भा. सिद्ध. वृ.७-३०)।
दुष्प्रमुष्टदोष-पालोक्याऽसम्यक् प्रतिलिख्य तद् ५. सान्तस्तन्दुल भावेनातिक्लेदनेन वा दुष्टः पक्वो
गृहृतो निक्षिपतो वा तृतीयो दुष्प्रमृष्ट संज्ञो दोषः । दुष्पक्वाहारः । (चा. सा. पृ. १३)। ६. तथा
(भ. प्रा. मूला. ११९८)। दुष्पक्वो मन्दपक्वः, स चासाहारश्च दुष्पक्वाहारः ।
देखकर भलीभांति प्रमार्जन न करते हए किसी स चार्घस्विन्नपृथुक-तन्दुल-यव-गोघूम-स्थूलमण्डक
वस्तु के उठाने या रखने को दुष्प्रमृष्टदोष कहते कर्कटकफलादिरैहिकप्रत्यवायकारी, यावता चांशेन सचेतनस्तावता परलोक मुपहन्ति, पृथकादेर्दष्पक्वतया है। यह प्रादाननिक्षेपसमिति का तीसरा दोष है। सम्भवत्सचेतनावयत्वात्, पक्वत्वेनाचेतन इति भुजा- दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण-- दुष्प्रमृष्ट मुपकरणादि नस्यातिचारः पञ्चमः । (योगशा. स्वो. विव. निक्षिप्यमाणं दुष्प्रमृष्ट निक्षेपाधिकरणम्, स्थापनाधि. ३-१८)। ७. असम्यक् पयो दुःपक्वः अस्विन्न:, करणं वा दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरणम्। (भ. प्रा. प्रतिक्लेदनेन वा दुष्ट: पक्वो दग्धपक्वः दुःपक्वः, विजयो. ८१४)। तस्य पाहारः दुःपक्वाहारः। (त. वृत्ति श्रुत. ७, रखे जाने वाले उपकरणादि के अच्छी तरह प्रमा३५) । . पाहारं स्निग्धग्राहिश्च (?) दुर्जरं जठ- जन किये बिना या असावधानी से प्रमार्जन करते राग्निना । असंख्यातवतस्तस्य दोषो दुष्पक्वसंज्ञकः ।
हुए रख देने को अथवा जहां उन्हें स्थापित करना (लाटीसं. ६-२१८)।
है उस स्थान का प्रमार्जन न करके ही स्थापित १ ठीक से न पके हुए प्राहार को दुष्पक्वाहार कहते करने को दुष्प्रमृष्ट निक्षेपाधिकरण कहते हैं। हैं। २ प्राधे पके हुए पाहार का नाम दुष्पक्वाहार दुष्प्रयुक्तकायक्रिया-१. प्रमत्तसंयतस्याने कर्तव्य. है। ६ मन्द पके हुए (अधपके) आहार को तासु बहुप्रकारा दुष्प्रयोगकायक्रिया । (त. भा. सिद्ध. दुष्पक्वाहार कहते हैं। जैसे-अधपके पृथुक (शाक- व.६-६)। २. दुष्प्रयुक्तस्य दुष्टप्रयोगवतो दप्र. विशेष), चावल, जौ, गेहूं, स्थूलमण्डक (मोटी णिहितस्येन्द्रियाण्याश्रित्गेष्टानिष्ट बिषयप्राप्ती मनाक रोटी ?) और ककड़ी प्रादि जो स्वास्थ्य के लिए संवेग-निर्वेदगमनेन तथा अनिन्द्रिमाश्रित्याशुभमनः हानिकारक है ऐसे दष्पक्व माहार के ग्रहण करने संकल्पद्वारेणापवर्गमागं प्रति दर्व्यवस्थितस्य पर दुष्पक्बाहार नाम का भोगोपभोगपरिमाणवत प्रमत्तसंयतस्येत्यर्थः, कायक्रिया दुष्प्रयुक्तकायक्रिया। का अतिचार होता है।
(स्थाना. अभय. व. २-६०, पृ. ३८) । दुष्प्रतिलेखासंयम- दुःप्रतिलेखो दुष्ठु प्रमार्जनं ३. दुष्टं प्रयुक्तं प्रयोगः कायादीनां यस्य स दाप्रथक्तः, जीवघात-मर्दनादिकारकम, तस्व संननं यत्नेन तस्य कायिकी दुःप्रयुक्तकायिकी, इयं प्रमत्तस्यापि
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुष्प्रयोगकायक्रिया] ५२६, जैन-लक्षणावली
[दुःश्रुति भवति, प्रमत्ते सति कायदुःप्रयोगसम्भवात् । (प्रज्ञाप. पीडालक्षणः परिणाम प्रात्मनो दुःखमित्यर्यः । (त. मलय. वृ. २२-२७६, पृ. ४३५-३६) ।
भा. सिद्ध. व. ६-१२) । ६. पारतंत्र्यं हि दुःखम् । १ प्रमत्तसंयत के अनेक कर्तव्य कार्यों के विषय में (त. श्लो. २४५, पृ. ५०); पीडालक्षणः परिणामो जो बहुत प्रकार से योगों की दुष्प्रवृत्ति होती है उसे दुःखम् । (त. श्लो. ६-११)। ७. जं णोकसायदुष्प्रयोगकायक्रिया कहते हैं । २ दुष्ट प्रयोग वाला- विग्घंच उक्काण बलेण दुक्खपहुदीणं । असुहपयडीणअसावधान-व्यक्ति इन्द्रियों के प्राश्रय से इष्ट- दयभवं इंदियखेदं हवे दुक्खं ॥ (ल. सा. ६१०)। अनिष्ट विषयों की प्राप्ति होने पर जो किंचित् ८.दुःखम् असातोदयरूपं तत्कारणं च । (सूत्रकृ. सू. संवेद और निर्वेद को प्राप्त होता है तथा मन का शी.व. १, १२, २१)। ६. दुःखमप्रीतिः। (नीतिवा. प्राश्रय करके प्रशभ संकल्प द्वारा मोक्षमार्ग के प्रति ६-१७)। १०. यस्मिन् वस्तूनि दुष्टे पाच्छादिते अव्यवस्थित रहता है उस प्रमत्तसंयतके शरीर से वा प्रीतिर्वैराग्यं भवति तद् दुःखमभिधीयते श्रेष्ठेहोने वाली प्रवृत्ति का नाम दुष्प्रयुक्तकायक्रिया है। ऽपि च वस्तूनि । तथा च शुक्र:-यत्र नो जायतेदुष्प्रयोगकायक्रिया-देखो दुष्प्रयुक्तकायक्रिया । प्रीतिर्दष्टे वाच्छादितेऽपि वा । तच्छष्ठमपि दुहिता-दोग्घि च केवलं जननी स्तन्यार्थमिति दुःखाय प्राणिनां सम्प्रजायते ॥ (नीतिवा. टी. ६, दुहिता। (उत्तरा. नि. शा. वृ. १-५७, पृ. ३८)। १७) । ११. दुःखयतीति दुःखं वेदनालक्षणः परि. जो केवल दूध के लिए माता का दोहन करती है णामः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-११)। उप्तका नाम दुहिता (पुत्री) है। यह दुहिता का १ अन्तरंग में असातावेदनीय कर्म का उदय होने पर निरुक्त लक्षण है।
बाह्य द्रव्यादि के परिपाक का निमित्त मिलने से जो दुःकथा- दुःकथा दुष्टा-चित्तकालुष्यकारिणी, चित्त में परिताप (पीड़ा) परिणाम होता है उसे कथा काम-क्रोधादिकथा राजादिकथा वा। (सा.घ. वःख कहते हैं। ६-१४)।
दुःखविपाक-से कि तं दुहुविवागा ? दुहविवागेसु चित्त को कलुषित करने वाली काम-क्रोधादि की णं दुहविवागाणं नगराई उज्जाणाई वणसंडाई चेइया राजादि को कथा (चर्चा) करने को दु:कथा आई समोस रणाई रायाणो अम्मापियरो घम्माकहते हैं।
अरिमा धम्मकहाणो इहलोइन-परलोइया इढिदुःख-१. असद्वेोऽन्तरङ्गहेतौ सति बाह्यद्रव्यादि- विसेसा निरयगमणाई संसारभवपवंचा दहपरंपरायो परिपाकनिमित्तवशादुत्पद्यमानः परितापरूपः परि- दुकुलपच्चायाईप्रो दुलहबोहिमत्तं प्राधविज्जइ से तं णामः दुःखमित्याख्यायते । (स. सि. ५-२०); दुहविवागा। (नन्दी. सू. ५५, पृ. २३४)। पीडालक्षणः परिणामो दुःखम् । (स. सि. ६-११; जिसमें दुःखके विपाक से युक्त जीवों के नगर, उद्यान, त. इलो. ६-११) । २. तथा असद्वद्योदयात् आत्म- वनखण्ड, चैत्य, समवसरण (एकत्र मिलाप), राजा, परिणामो यः संक्लेशप्रायः स दुःखम् । (त. वा. ५, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक व पार. २०, २)3; पीडालक्षण: परिणामो दुःखम् । विरोधि. लौकिक ऋद्धि विशेष, नरकगतिगमन, संसारभवप्रपंच दव्योपनिपाताभिलषितवियोगानिष्ट-निष्ठ र श्रवणादि- (६०-७० वर्ष की अवस्था), दःख की परम्परा, बाह्यसाधनापेक्षादसद्धेद्योदयादुत्पद्यमानः पीडालक्षणः निन्द्य फुल में उत्पत्ति और बोधि की दुर्लभता, परिणामो दुःखमित्याख्यायते । (त. वा. ६,११,१)। इत्यादि की प्ररूपणा की जाती है वह द:खविपाक ३. तत्र दुःखयतीति दुःखं बाधालक्षणं शारीरादिः। कहलाता है। (त. भा. हरि. व. ६-१२)। ४. असादं दुक्खं । दुःपक्वाहार-देखो दुष्पक्वाहार । (धव. पु. ६, पृ. ३५); अणिट्ठत्थतमागमो इट्टत्थ- दुःप्रयुक्तकायिकी-देखो दुष्प्रयुक्तकायक्रिया। वियोगो च दुखं णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३३४); दुःश्रुति-१. प्रारम्भसङ्गसाहसमिथ्यात्वद्वेषरागसिरोवेयणादी दुक्खं णाम । (धव. पु. १५, पृ. ६)। मदमदनैः । चेत: कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भ५. तत्र दुःखयतीति दुःखं वधलक्षणं विरोधिद्रव्यान्तरो- वति ।। (रत्नक. ७९)। २. हिंसा-रागादिप्रवर्धनपनिपातादभिमतवियोगानिष्टश्रबणादसद्वद्योदयापन्नः दुष्ट कथाश्रवण-शिक्षण-व्यापृतिरशुभश्रुतिः । (स.
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुःषमदुःषमा ]
सि. ७-२१; त. वा. ७, २१, १४) । ३. हिंसादिकथाश्रवणाभीक्ष्णव्यावृ [पृ] तिलक्षणाच्चाशुभश्रुतेः × × × । (त. इलो. ७ - २१) । ४. हिंसा रागा दिसंधिदुः कथाश्रुति - शिक्षया । पापवन्धनिबन्धो यः सः स्यात् पापाशुभश्रुतिः । (ह. पु. ५८-१५२ ) । ५. जं सवणं सत्थाणं भंडण वसियरण- कामसत्थाणं । परदोसाणं च तहा अणत्थदंडो हवे चरिमो ॥ (कार्तिके. ३४८ ) । ६. रागादिवर्द्धनानां दुष्टकथानामबोध बहुलानाम् । न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षणादीनि ॥ (पु. सि. १४५ ) । ७. रागादिप्रवृद्धितो दुष्टकथाश्रवण-शिक्षणव्यावृतिरशुभश्रुतिः । (चा. सा. पु. १० ) । ८. चित्तकालुष्य कृत्कामहिंसाद्यर्थं श्रुतश्रुतिम् । न दुःश्रुतिमपध्यानं नार्तरौद्रा त्म चान्वियात् ॥ (सा. प. ५-६ ); XXX दु: श्रुति कामादिशास्त्रश्रवणलक्षणां XX X | ( सा. घ. स्वो . टी. ५ - ६ )। ६. यत्राऽधीते श्रुते कामोच्चाटनक्लेश मूच्र्छनैः । प्रशुभं जायते पुंसामशुभश्रुतिरिध्यते ॥ ( धर्मसं. श्री. ७-१३) । १०. हिंसा प्रवर्तकं शास्त्रम् अश्वमेघादि, रागप्रवर्तकशास्त्र कुक्कोकनामादि, द्वेषप्रवर्तकं शास्त्रं नानाप्रकारम्, मधु-मांसादिप्रवर्तकं शास्त्रं स्मृत्यादि, तेषां शास्त्राणां कथनं शिक्षणं व्यापारश्च दुःश्रुतिरुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७ - २१) ।
१ श्रारम्भ, परिग्रह, पराक्रम, मिथ्यात्व, राग, द्वेष, अभिमान और विषयाकांक्षा इनके द्वारा — इन्हें उत्पन्न करके - जो शास्त्र चित्त को कलुषित करने वाले हैं उनके सुनने को दुःश्रुति कहते हैं । २ हिंसा और राग-द्वेष आदि के बढ़ाने वाली कथानों के सुनने व शिक्षा देने प्रादि में प्रवृत्त होना; इसका नाम दु:श्रुति है ।
५२७, जैन - लक्षणावली
दुःषमदुःषमा – एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दुसमदुसमा । (भगव. ६, ७, ५) । इक्कीस हजार वर्ष वाले काल को दुःषमदुःषमाकाल कहते हैं ।
दुःषमसुषमा - १. एगा सागरोवमकोडाकोडीभो बायालीसए वाससहस्सेहि ऊणिया कालो दुसमसुसमा । ( भगव. ६, ७, ५) । २. ततः क्रमेण हानी सत्यां दुःषमसुषमा भवति एकसागरोपमकोटाकोटी द्विचत्वारिशद्वर्षसहस्रोना । (त. वा. ३. २७, ५) ।
[दुःस्वरनाम
१ ब्यालीस हजार वर्षोंसे होन एक कोड़ाकोडि सागर प्रमाण काल का नाम दु:षमसुषमा है । दुःषमा - १. एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दुसमा । (भगव. ६, ७, ५) । २. ततः क्रमेण हानी सत्यां दुःषमा भवति एकविंशतिवर्षसहस्राणि । (त. वा. ३, २७, ५) ।
१ इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण काल का नाम दुःषमाकाल है ।
दुःस्वरनाम - १० तद्विपरीतं ( यन्निमित्तम् श्रमनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं तत्) दु:स्वरनाम । ( स. सि. ६- ११; त. इलो. ८ - ११) । २. दो: स्वर्य निर्वर्त कं दुःस्वरनाम । ( त. भा. ८-१२) । ३. तद्विपरीतं दुःस्वरनाम । तद्विपरीतफलत्वात् तद्विपरीतम् श्रमनोज्ञस्वरनिर्वर्तनकरं दुःस्वरनाम । (त. वा. ८, ११, २६) । ४. तथा दुःस्वरं चैवेति सुस्वरनामोक्तविपरीतम् । (श्रा. प्र. टी. २३) । ५. तद्विपरीतं दुःस्वरनाम । यत्तु श्रूयमाणमसुखमावहति तद् दुःस्वरनामेति । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ८ - १२) | ६. श्रमहुरो सरो दुस्सरो, जहा गद्दहुट्ट- सियालादीणं । जस्स कम्मस्स उदएण जीवे दुस्सरो होदि तं कम्मं दुसरं णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ६५ ) ; जस्स कम्मस्सुदएण खरोट्टाणं व कण्णसुहो सरो ण होदि तं दुसरं णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३६६ ) । ७. श्रनिष्टं स्वर हेतुर्यत्प्रोक्तं दुःस्वरनाम तत् । (ह. पु. ५८- २७१) । ८. दूसरउदए वि सरो जंपतो होइ जणवेसो | ( कर्मवि. ग. १४५ ) । यदुदयात् दुःस्वरताऽमनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं तत् दुःस्वरनाम । (मूला. वृ. १२ - १६५ ) । १०. यदुदयात् खरभिन्नहीनदीनः स्वरो भवति तद् दुःस्वरनाम । ( कर्मस्त. गो. वृ. १०, पू. १६; प्रव. सारो. वू. १२६५) । ११. दुःस्वरनाम यदुदयात् काकोलूकस्वरकल्प: स्वरो भवति । ( धर्मसं. मलय. वृ. ६२० ) । १२. दुःस्वरनाम यदुदयात् स्वरः श्रोतॄणामप्रीतये भवति । ( प्रज्ञाप. मलय वू. २३-२६३, पु. ४७४ ) । १३. श्रमनोज्ञस्वरनिर्वर्तकं दुःस्वरनाम । ( भ. बा. मूला. २१२४) । १४. यदुदयात् श्रमनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं भवति तद् दुःस्रनाम । (गो. क. जी. प्र. टी. ३३) । १५. यदुदयेन खर- मार्जार- काकादिस्वरवत् कर्णशूलप्रायः स्वर उत्पद्यते तद् दुःस्वरनाम | (त. वृत्ति श्रुत. ८-११) ।
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
दूतदोष] ५२८, जैन-लक्षणावली
[दूरश्रवणत्व १ जिसके उदय से सुस्वर के विपरीत-गधा व दूर-अर्थ- १. दूराः देशविप्रकृष्टाः। (प्रा. मी. ऊंट प्रादि के समान - अमनोज्ञ स्वर उत्पन्न होता है वसु. वृ. ५) । २: दूरार्था भाविनोऽतीता रामउसे दुःस्वरनाम कहते हैं।
रावणचक्रिणः । (लाटीसं. ४-८)। दूतदोष-देखो दूतीपिण्ड । १. जल-थल-प्रायास- १ देश की अपेक्षा दूरवर्ती पदार्थों को दूर अर्थ कहा गदं सय-परगामे सदेस परदेसे। संबंधिबयणणयणं जाता है। दूदीदोसो हवदि एसो ॥ (मूला. ६-२६) । दूरघ्रारणत्व-घाणिदिय-सुदणाणावरणाणं वीरि. २. ग्रामान्नगरान्तराच्च देशादन्यदेशतो वा सम्बन्धि- यंतरायाए । उक्कस्सक्ख उवसमे उदिदंगोवंगणामनां वार्ताममिधायोतादिता दूतकर्मोत्पादिता। (भ. कम्मम्मि ।। घाणुक्कस्सखिदीदो वाहिं संखेज्जजोप्रा. विजयो. २३०, कातिके. टी. ४४८-४६)। यणगदाणि । बहुविहगंधाणि तं घादयदि दूर३. स्वग्रामात परग्रामं गच्छति जले नावा तथा घाणत्तं ।। (ति. प. ४, १०९१-६२)।। स्वदेशात् परदेशं गच्छति जले नावा, तत्र तस्य घ्राणेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय गच्छतः कश्चिद गृहस्थ एवमाह-भट्टारक मदीयं कर्म के उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म सन्देशं गृहीत्वा गच्छ। स साधुस्तत्सम्बन्धिनो वचनं का उदय होने पर घ्राणेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषयनीत्वा निवेदयति यस्मै प्रहितम् । स परग्रामस्थः क्षेत्र से बाहिर संख्यात योजनगत अनेक प्रकार के परदेशस्थश्च तद्वचनं श्रुत्वा तुष्टः सन् दानादिकं गन्ध के सूंघने की जो शक्ति प्राप्त होती है उसे ददाति । तद्दानादिकं यदि साधुहाति तदा तस्य दूरघ्राणत्व ऋद्धि कहते हैं । दूत कर्मणोत्पादनं दोषः। (मूला वृ. ६-२६)। दूरदर्शन-रूविदिय-सुदणाणावरणाणं वीरियंतरा४. XXX दूतता मता। दूरबन्धुजनानां वाग्नयः याए । उक्कस्सक्खउवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मनानयनक्रिया । (प्राचा. सा. ८-३७) । ५. दूतो-म्मि ।। रू उक्कस्सखिदीदो बाहिं संखेज्जजोयणठिदाई। ऽशनादेरादानं संदेशनयनादिना । तोषिताद्दातुः जं बहुविहदवाई देवखइ तं दूरदरिसिणं णाम ।। xxx ॥ (अन. घ. ५-२१)। ६. ग्रामास्तरा- (ति. प. ४, ६६६-६७)। देलेशं संदेशं वाशं(?) वा संपाद्योत्पादिता दूतकम- चक्षुरिन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय दुष्यः । (भ. प्रा. मूला. २३०) । ७. दूरबन्धुजना- के उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म का नां वचनानां नयनमानयनं च दूतत्वम् । (भावप्रा. उदय होने पर चक्षुरिन्द्रिय के उत्कृष्ट विषयक्षेत्र से टी. ७६) ।
बाहिर संख्यात योजनों में स्थित बहुत प्रकार के १ जल, स्थल अथवा प्राकाश का प्राश्रय लेकर पदार्थों के देखने की जो शक्ति प्राप्त होती है उसे अपने ग्राम से अन्य ग्राम को या अपने देश से अन्य दूरदर्शन ऋद्धि कहते हैं। देश को जाते हुए यदि किसी सम्बन्धी के सन्देश को दूरश्रवणत्व-सोदिदिय-सूदणाणावरणाणं वीरिले जाता है तथा उससे सन्तुष्ट होकर अन्य ग्रामस्थ । यंतरायाए। उक्कस्सक्ख उवसमे उदिदंगोवंगणामया देशस्थ मनुष्य यदि उसे दान देता है तो उस कम्मम्मि । सोदुक्कस्सखिदीग्रो बाहिरसंखेज्जजोयणदान के ग्रहण करने पर दूत नामक उत्पादनदोष पएसे । चे©ताणं माणुस-तिरियाणं बहुवियप्पाणं ।। होता है। २ ग्राम, नगर अथवा देश प्रादि से अन्य प्रक्खर-अणक्ख रमए बहविहसद्दे विसेससंजुत्ते । ग्राम प्रादि में जाकर व किन्हीं सम्बन्यिों की बात उप्पण्णे प्रायण्णइ ज भणिय दूरसवणत्तं ॥ (ति.प. को कहकर जो वसति प्राप्त की जाती है वह दूत- ४, ६६३-६५) । दोष से दूषित होती है।
श्रोत्रेन्द्रियावरण, धुतज्ञानाबरण और वीर्यान्तराय दूतीपिण्ड-तथा कार्यसंघटनाय दौत्यं विधत्ते कर्म का उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म इति दूतोपिण्डः । (प्राचारा. शी. वृ. २, १, २७३, का उदय होने पर श्रोत्रेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषयक्षेत्र पृ. ३२०)।
से बाहिर संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में रहने वाले कार्य की सिद्धि के लिए दूत का काम करके मनुष्य और तियंचों के अक्षर-मनक्षरात्मक विविध भोजन प्राप्त करना, इसका नाम दूतीपिण्ड है। प्रकार के शब्दों के उत्पन्न होने पर उनके सुनने का
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
दूरसादित्त ]
जो महान् सामर्थ्य प्राप्त होता है उसे दूरभबणत्व ऋद्धि कहते हैं ।
दूरसादित्त - १. जिब्भिदिय सुरणाणावरणाणं वोरि यंतरायाए । उक्कस्सक्ख उवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि || जिब्भुक्कस्सखिदीदो बाहि संखेज्जजोयणठियाणं । विविहरसाणं सादं जं जाणइ दूरसादित्तं ॥ ( ति प ४, १८७-८८ ) । २. तप:शक्तिविशेषाविर्भावितासाधारणरसनेन्द्रिय श्रुतावरण वीर्यान्तरायक्षयोपशमांगोपांगनामलाभापेक्षस्याऽवघृत नवयोजन क्षेत्राद् बहिर्ब हुयोजन विप्रकृष्टक्षेत्रादायातस्य रसस्याऽऽस्वादनसामर्थ्यम् । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०२ ) ।
१ रसनेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यातराय कर्म का उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म का उदय होने पर रसनेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषयक्षेत्र से बाहिर संपात योजन दूर स्थित विविध रसों के स्वाद लेने की जो शक्ति प्राप्त होती है उसे
रास्वादित्व ऋद्धि कहते हैं ।
दूरस्पर्श - १. पासिदिय सुदणाणावरणाणं वीरियंतरायाए । उक्कत्सक्ख उवसमे उदिदंगोवं गणामकम्ममि || पासुक्क सखिदीदो वाहि संखेज्जजोयणठियाणि । भट्ठविहप्पासाणि जं जाणइ दूरपात्तं ॥ ( ति. प. ४, ६८६ - ६० ) । २. एवं (श्रोत्रेन्द्रियविषय इव) शेषेष्वपि इन्द्रियविषयेषु श्रवघुतक्षेत्राद् बहि
योजन प्रकृष्ट देशादायातेषु ग्रहणसामथ्यं योज्यम् । (त. बा. ३, ३६, ३, पू. २०२ ) ।
१ स्पर्शनेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यातरायकर्म के उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म का उदय होने पर स्पर्शनेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषयक्षेत्र से बाहिर संख्यात योजनों की दूरी पर स्थित प्राठों प्रकार के स्पर्श को जान लेने का जो सामर्थ्य प्राप्त होता है उसे दूरस्पर्शत्व ऋद्धि कहते हैं । दूरापकृष्टि - १. जत्तो ट्ठिदिसंतकम्मावसेसादो संखेज्जे भागे घेत्तूण ठिदिखंडए घादिज्जमाणे घादिदसेसं णियमा पलिदोवभस्स प्रसंखेज्जदिभागपमाणं हो चिट्ठदि तं सव्वपच्छिमं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागप्रमाणं द्विदिसंतकम्मं दूरावकिट्टि त्ति भण्णदे । XXX पलिदोवमट्ठिदिसंतकम्मादो सुट्ठ दूरयरमोसारिय सव्वजहणपलिदोवमसं खेज्जभागस रूयेणा
ल. ६७
५२६, जैन - लक्षणावली
[ दृष्टदोष (मालोचनादोष )
वट्टाणादो । पत्योपमस्थितिकर्मणोऽधस्ताद् दूरतरमपकृष्टत्वादति कृशत्वाच्च दूरापकृष्टिरेषा स्थितिरित्युक्तं भवति । श्रथवा दूरतरमपकृष्टा तस्याः स्थितिकाण्डकमिति दूरापकृष्टिः । इतः प्रभृत्यसंख्येयान् भागान् गृहीत्वा स्थितिकाण्डकघातमाचरतीत्यतो दूरापकृष्टिरिति । (धव. पु. ६, पृ. २५५ का टिप्पण ३) । २. पल्ये उत्कृष्टसंख्यातेन भक्ते यल्लब्धं तस्मादेकेकहान्या जघन्यपरिमितासंख्यातेन भक्ते पल्ये यल्लब्धं तस्मादेकोत्तरवृद्धया यावन्तो विकल्पास्तावन्तो दूरापकृष्टिभेदाः । तेषु कश्चिदेव विकल्पो जिनदृष्टभावो दूरापकृष्टिसंज्ञितो वेदितव्यः ( ल. सा. टी. १२० ) ।
१ कर्म के जिस स्थितिसत्व के अवशेष संख्यात बहुभाग को ग्रहण कर स्थितिकाण्डक का घात करते हुए घात करने से शेष रहा नियम से पल्योपम के श्रसंख्यातवें भाग प्रमाण होकर स्थित होता है, पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण उस सर्वान्तिम स्थितिसत्कर्म का नाम दूरापकृष्टि है ।
दूषरण - १. वादिना प्रमाणमुपन्यस्तम्, तच्च प्रतिवावादिना दुष्टतयोद्भावितं पुनर्वादिना परिहृतम्, तदेव तस्य साधनं भवति प्रतिवादिनश्च दूषणमिति । (प्र. र. मा. ६-७३) । २. साघनदोषोद्भावनं दूषणम् । (प्रमाणमी. २,१,२८ ) ।
१ वादी ने किसी प्रमाण को प्रस्तुत किया, पर प्रतिवादी ने उसे सदोष बतलाया, तत्पश्चात् वादी ने प्रतिवादी के द्वारा प्रदर्शित दोष का निराकरण कर दिया; इस प्रकार से उक्त प्रमाण वादी के लिए सतु और प्रतिवादी के लिए दूषण हो जाता है । २ साधन में दोष के प्रगट करने को दूषण कहते हैं । दूषणाभास प्रभूतदोषोद्भावनानि दूषणाभासा जात्युत्तराणि । (प्रमाणमी. २, १, २९ ) । साधन में जो दोष सम्भव नहीं हैं उनके उद्भावन को दूषणाभास कहते हैं। इनको जात्युत्तर भी कहा जाता है ।
दृष्ट दोष (प्रालोचनादोष)- - १. जं होदि अण्णदिट्ठ तं आलोचेदि गुरुसयासम्मि | अद्दिट्ठ गृहंतो माथिल्लो होदि णायव्वो । दिट्ठ व अदिट्ठ वा जदि ण कहेइ परमेण विणएण । प्रायरिय पायमूले तदिश्रो भालोयणादोसो ।। (भ. प्रा. ४, ५७४-७५)।
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
दृष्टदोष (वन्दनादोष ) ]
५३०,
२. मन्यादृष्टदोषगूहनं कृत्वा प्रकाश (चा. सा. 'दृष्ट' ) दोषनिवेदनं मायाचारस्तृतीयो (चा. सा. 'यो यद्दृष्टदोष:') दोष: । (त. वा. ६, २२, २; चा. सा. पृ. ६१ ) । ३. परादृष्टदोषगृहनेन प्रकटदोषनिवेदनम् । (त. इलो. ६ - २२ ) । ४. परिर [ ल ]क्षिताग:संकीर्तिः स्याद् दृष्टं XXX ॥ ( श्राचा. सा. ६-३१) । ५० यद् दृष्टं अन्यंदवलोकितं दोषजातं तदालोचयत्यदृष्टमवगूह्यति यस्तस्य सुतियो दृष्टनामाऽऽलोचनादोषः । (मूला. वृ. ११-१५ ) । ६. यद् दृष्टमपराधजातं क्रियमाणमाचार्यादिना तदेवालोचयति नापरमिति तृतीय : (दृष्टः ) आलोचनादोष: । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १-३४२, पृ. १९ ) 1 ७. यद् दृष्टं दूषणस्यान्यदृष्टस्यैव प्रथा गुरोः । ( श्रन. घ. ७-४१) ।
१ जो दोष दूसरे के द्वारा देखा जा चुका है उसकी झालोचना गुरु के पास में करता है, पर श्रदृष्ट दोष को छिपाता है; ऐसा करने वाला वह साधु मायाचारी होता है । प्राचार्य के पादमूल में यदि वृष्ट दोष के समान अदृष्ट दोष को भी विनयपूर्वक नहीं कहता है तो वह तीसरे दृष्ट नामक झालोचनादोष से लिप्त होता है ।
दृष्ट दोष (वन्दनादोष ) - १. दृष्टम् - प्राचार्यादिभि: दृष्टः सन् सम्यग्विधानेन वन्दनादिकं करोत्यन्यथा स्वेच्छयाऽथवा दिगवलोकनं कुर्वन् वन्दनादिकं यदि विदधाति तदा तस्य दृष्टो दोषः । (मूला. व. ७- १०९ ) । २. दृष्टं पश्यन् दिशः स्तौति पश्यत्स्वन्येषु सुष्ठु वा । (अन. घ. ८-१०८ ) ।
१ श्राचार्य आदि के द्वारा देख लेने पर यदि विधि - पूर्वक वन्दना करता है, अन्यथा मनमाने ढंग से वन्दना करता है; अथवा दिशाओं का अवलोकन करता हुआ यदि वन्दना श्रादि करता है तो वह दृष्ट दोष का भागी होता है । दृष्टादृष्टवन्दनक - १. अंतरिम्रो तमसे वा न वंदई वंदई उ दीसंतो । एयं दिट्ठमदिट्टं XXX ॥ ( प्रव. सारो. १६९ ) । २. बहुषु वन्दमानेषु साध्वादिना केनचिदन्तरितः, तमसि वा -- सान्धकारप्रदेशे व्यवस्थितो मौनं विद्यायोपविश्य वाऽऽस्ते, न तु वन्दते, दृश्यमानस्तु वन्दते, एतद् दृष्टादृष्टं वन्दनकमभिधीयते । (प्राव. ह. वू. मल. हेम. टि. पृ. ८६; प्रव. सारो. ब. पृ. १६९ ) । ३. दृष्टादृष्टं तमसि स्थित: केन
जन-लक्षणावली
[दृष्टान्त
चिदन्तरित एषमेवास्ते, दृष्टस्तु वन्दत इति । (योगशा. स्वो विव. ३ - १३० ) ।
२ जब बहुत साधु जन वन्दना कर रहे हों तब किसी श्रादि से व्यवहित होकर, प्रथवा प्रन्धकारपूर्ण प्रदेश में स्थित होकर, अथवा मौनपूर्वक बैठ कर स्थित होता है; पर वन्दना नहीं करता है। किसी के द्वारा देखा जाने पर वन्दना करता है । इस प्रकार से वन्दना करने न करने में दृष्टा• दृष्टवन्दनक दोष होता है ।
-
दृष्टान्त - १. यत्र लौकिकानां परीक्षकाणां च बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः, तत्थ लोइयगहणेण गोवालादी तत्तवाहिरो जणो गहिनो, परिवखगगहणेण जेहि सद्दसत्याणि णायादीणि सत्याणि प्रधीतानि ते परिवखगा, एतेसि लोइयाणं परिवखगाणं च जमि प्रत्ये बुद्धिविसंवादो न भवइ सो दिट्ठतो । ( वशवं . चू. पृ. ३८) । २. सम्बन्धो यत्र निर्ज्ञातः साध्यसाधनधर्मयोः । स दृष्टान्त XX X ॥ ( न्यायवि. २ - ११) । ३. दृष्टमर्थंमन्तं नयतीति दृष्टान्तः, प्रतीन्द्रियप्रमाणादृष्टं संवेदननिष्ठां नयतीत्यर्थः । ( दशवं. नि. हरि वू. ५२, पृ. ३४ ) । ४. तत्र साध्य-साघनान्वय-व्यतिरेक प्रदर्शनमाहरणम्, दृष्टान्त इति । (प्राव. नि. हरि. वृ. ८६ ) ; दृष्टमर्थं मतं नयतीति दृष्टान्तः । XXX साध्योपमाभूतस्तु दृष्टान्तः । उक्तं च - यत: साध्यस्योपमाभूतः स दृष्टान्त इति कथ्यते । (श्राव. नि. हरि. व. ६४८; नन्दी. हरि. वृ., पृ. ६२ ) । ५. तत्र दृष्टमथं मतं नयतीति दृष्टान्तः । लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्त इत्यन्ये । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. १५) । ६. दृष्टावन्तो धर्मों स्वभावावग्नि- धूमयोरिव साध्य-साधकयोर्वादि-प्रतिवादिभ्यां कर्तृभूताम्यामविवादेन यत्र वस्तुनि स दृष्टान्त: । (पंचा. का. जय. वृ. २७) । ७. प्रतिबन्धप्रतिपत्ते रास्पदं दृष्टान्तः । ( प्र. न. त. ३ - ४० ) । ८. साध्यव्याप्तिप्रदर्शनविषयो दृष्टान्त: । ( उपदे. मु. वू. ४८ ) । ६. स (दृष्टान्तः) व्याप्तिदर्शनभूमि: । (प्रमाणमी. १, २, २० ) । १०. दृष्ट: अन्तः परिच्छेदो विवक्षितसाध्यसाघनयोः सम्बन्धस्याविनाभावरूपस्य प्रमाणेन यत्र ते दृष्टान्ता: । (प्रज्ञाप. मलय. वू. ३०-३१४, पृ. ५३२ ) । ११. व्याप्तिसम्प्रतिपत्तिप्रदेशो दृष्टान्तः । ( न्यायदी. १०४) ।
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
दृष्टान्ताभास]
१ जिस अर्थ के विषय में लौकिक जनों - तत्त्व से वहिर्भूत ग्वाला प्रादि-प्रोर परीक्षक जनों मेंव्याकरण एवं न्यायादि शास्त्रों के ज्ञाता विद्वानों मेंबुद्धि की समानता हो - किसी प्रकार का विसंवाद न हो, उसे दृष्टान्त कहते हैं । २ जहाँ साध्य श्रौर साधन धर्मों का सम्बन्ध जाना जाता है वह दृष्टान्त कहलाता है ।
५३१, जैन - लक्षणावलो
दृष्टान्ताभास - १. XX X तदाभासाः साध्यादिविकलादय: । ( न्यायवि. २ - २११) । २. साध्यसाघनोभयविकला दृष्टान्ताभासाः । (लघीय. अभय. बृ. ४–३, पृ. ४६) ।
१ साध्य आदि ( साघन ) से रहित दृष्टान्तों को दृष्टान्ताभास कहते हैं ।
दृष्टि-विष, दृष्टि निर्विष - १. रोग-विसेहि पहदा दिट्ठीए जीए भत्ति पावंति । णीरोग णिव्विसत्तं सा भणिदा दिट्टिणिव्विसा रिद्धी ॥ ( ति. प. ४- १०७६) । २. येषामालोकनमात्रादेवातितीव्रविषदूषिता श्रपि सन्तः विगतविषा भवन्ति ते दृष्टयविषाः । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०३; चा. सा. पृ. ६६ ) । ३. अथवा X XX दृष्टिविषाणां विषमविषं येषां ते दृष्टयविषाः । (चा. सा. पृ. EE ) ।
१ जिसके प्रभाव से रोग व विष से व्याप्त प्राणी देखने मात्र से ही शीघ्र नीरोग व विष से रहित हो जाते हैं उसे दृष्टिनिविषा ऋद्धि कहते हैं । ३ श्रथवा जिनके देखने मात्र से दृष्टिविष सप का विष विषरूपता से रहित हो जाता है वे दृष्ट्यविष कहलाते हैं ।
दृष्टिपात - देखो दृष्टिवाद ।
दृष्टिराग - १० तत्र त्रयाणां त्रिषष्ट्यधिकानां प्रावादुकशतानामात्मीयात्मीयदर्शनानुरागो दृष्टिरागः । यथोक्तम् - असियसयं किरियाणं अकिरियवाईणमाहु चुलसीई | अन्नाणिय सत्तट्ठी वेणइयाणं च 'बत्तीसा || जिणवयणवाहिरमई मूढा णियदंसणाणुराए । सव्वष्णुकहियमेते मोक्खपहं न उ पवज्जंति ॥ (प्राव. नि. हरि. वू. ६१८ ) । २. दृष्टिरागः पुनर्येयं दर्शनिनां निज- निजदर्शनेषु युक्तिपथावताचन्हसे ष्वपि कम्बललाक्षारागवत् प्रायेणोत्तारयितुमशक्यः पूर्वराग (स्नेहराग-कामराग) द्वयापेक्षयातिदृढस्व
[दृष्टिवाद
भावः प्रतिबन्धो विजृम्भते स इति । ( उपदे, मु. बू. १८६) ।
१ तीन सौ तिरेसठ प्रवादियों का अपने-अपने दर्शनविषयक जो राग है उसे दृष्टिराग कहते हैं । दृष्टिवाद - १. से किं तं दिट्टिवाए ? दिट्टिवाए जं सव्वभावपरूवणा श्राघविज्जइ । (नन्दी. सू. ५६, पृ. २३५) । २. कौत्कल- काणेविद्धि कौशिक हरिश्मश्रुमांछ (घव. 'मांद्ध' ), पिक- रोमश हारीत मुण्डाश्वलायनादीनां क्रियावाददृष्टीनामशीतिशतम्, मरीचि - कुमारकपिलोलूक- गार्ग्य व्याघ्रभूति वाद्वलि माठरमौद्गल्यायनादीनामक्रियावाददृष्टीनां चतुरशीतिः, साकल्य- वल्कल - कुथुमि सात्य मुग्रि नारायण कठ (घव. 'कण्व') - माध्यं दिन- मोद-पैप्पलाद वादरायणाम्बष्ठिकृदीबिकायन- (. 'वादरायणः स्वष्टकृदैतिकायनं' ) बसु - जैमिन्यादीनामज्ञानिक दृष्टीनां सप्तषष्टिः, वशिष्टपाराशर जदु ग- ( घव. 'कर्ण' ) - वाल्मीकि-रोमहर्षाणि (घव. 'हर्षणी') - सत्यदत्त - व्यासंलापुत्रोपमन्यवेन्द्रदत्तायस्थूणादीनां वैनयिकदृष्टीनां द्वात्रिंशत् । एषां दृष्टिशतानां त्रयाणां त्रिषष्ठ्युत्तराणां प्ररूपणं निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते । (त. वा. १, २०, १२; धव. पु. १, पू. १०७; धव. पु. ६, पृ. २०३-२०४ ) । ३. दृष्टीनां प्रज्ञानिकादीनां यत्र प्ररूपणा कृता स दृष्टिवादः, तासां व यत्र पातः । ( त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. १ -२० ) ; दृष्टयो दर्शनानि, वदनं वादः, दृष्टीनां वादः दृष्टिवादः, दृष्टीनां वा पातो यत्रासो दृष्टिपातः, सर्वनयदृष्टय एवेहाख्यायन्त इत्यर्थः तथा चाह - दृष्टिवादेन दृष्टिपातेन दृष्टिवादे दृष्टिपाते वा सर्वभावप्ररूपणा श्राख्यायते । ( नन्दी. हरि. वृ. पृ. १०६ ) । ४. दिट्ठीओ वददीदि ! दिट्टिवादं ति गुणणामं । ( धव. पु. १, पृ. १०९ ) । ५. दृष्टयो दर्शनानि नयाः, उद्यन्ते श्रभिधीयन्ते पतन्ति वा प्रव तरन्ति यस्मिन्नसो दृष्टिवादी दृष्टिपातो वा द्वादशमङ्गम् । ( स्थाना. अभय वृ. ४, १, २६२ ) । ६. दिट्ठीणं तिष्णिसया तेसट्टीणं वि मिच्छवायाणं । जत्थ णिराकरणं खलु तण्णामं दिट्टिवादंगं ॥ ( अंगप १-७३) ।
१ जिस श्रुत में सब भावों (पदार्थों) की प्ररूपणा की जाती है वह दृष्टिवाद अंग कहलाता है । २ जिसमें कौत्कल, काणेविद्धि, कौशिक, हरिश्मश्रु, मांछपिक, रोमश, हारीत और मुण्डाश्वलायन प्रादि
-
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
दृष्टिविष! ]
१५० क्रियावाददृष्टियों; मरीचिकुमार, कपिल, उलूक, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वाद्वलि, माठर और मौद्गलायन श्रादि ८४ अक्रियावाददृष्टियों; साकल्य, वल्कल, कुथुमि, सात्यमुग्रि, नारायण, कठ, माध्यंदिन, मोद, पैप्पलाद, वादरायण, श्रम्बष्ठ, कृदोविकायन, वसु और जैमिनि आदि ६७ प्रज्ञानिकदृष्टियों; तथा वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षणि, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, श्रौपमन्य, इन्द्रदत और प्रस्थूण श्रादि ३२ वैनयिकदृष्टियों; इन ३६३ दृष्टियों की प्ररूपणा और उनका निग्रह किया जाता है उसे दृष्टिवाद अंग कहा जाता है । दृष्टिविषा - १. जीए जीनो दिट्ठो महासिणा रोसभरिदहिदएण | अहिदट्टं व मरिज्जदि दिट्ठि विसा णाम सा रिद्धी ॥ ( ति प ४-१०७९) । २. उत्कृष्ट तपसो यतयः क्रुद्धा यमीक्षन्ते स तदैवोग्रविषपरीतो म्रियते ते दृष्टिविषाः । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०४; चा. सा. पृ. ६६) । ३. दृष्टिरिति चक्षुर्मनसोर्ग्रहणम्, तत्रोभयत्र दृष्टिशब्दप्रवृत्ति - दर्शनात् । तत्साहचर्यात् कर्मणोऽपि । रुट्ठो जदि जोएदि चितेदि किरियं करेदि वा 'मारेमि'त्ति तो मारेदि, अण्णं पि श्रसुहकम्मं संरंभपुष्वावलोयणेण कुणमाणो दिट्ठिविसो णाम । ( धव. पु. ६.८६ ) । ४. तपोबला मुनयः क्रुद्धाः सन्तो यमक्षितमीक्षते स पुमान् तत्क्षणादेव तीव्ररसपरीतः पंचत्वं प्राप्नोति, एवंविधं सामथ्यं येषां ते दृष्टिविषाः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६) ।
१ जिस ऋद्धि के प्रभाव से क्रोधित महर्षि के द्वारा देखा गया जीव सर्पदष्ट के समान मरण को प्राप्त हो जाता है उसे दृष्टिविषा ऋद्धि कहते हैं । दृष्टिसंमोह - गुणतस्तुल्ये तस्ये संज्ञाभेदागमान्यथादृष्टिः । भवति यतोऽसावधमो दोषः खलु दृष्टिसंमोहः । ( षोडशक ४ - ११) ।
१ अभ्यन्तर हेतुभूत देवगति नामकर्म का उदय होने पर जो बाह्य वैभव के साथ द्वीप, पर्वत एवं समुद्र प्रादि प्रदेशों में इच्छानुसार क्रीडा किया करते हैं वे
गुण- उपकारफल - को प्रपेक्षा विवक्षित वो वस्तुनों बेव कहलाते हैं । २ विव नाम प्राकाश का है, उसमें
जो रहते हैं, उन्हें देव कहा जाता है ।
में तत्व के समान होने पर भी जिस दोष के कारण प्राणी नामभेद के श्राश्रय से श्रागम के विषय में विपरीत बुद्धि को प्राप्त होता है वह निकृष्ट दृष्टि संमोह दोष है । अथवा अहिंसा एवं प्रशम आदि के तत्त्वों के अन्य दर्शनों में भी समान होने पर जिस दोष के कारण परिभाषाभेदमात्र से प्राणी प्रागमों
[देव (अर्हन्)
में अन्यथा भाव को प्राप्त होता है उसका नाम दृष्टिसंमोह है ।
५३२, जैन-लक्षणावली
देयशुद्ध दान-देयं शुद्धं द्विचत्वारिशद्दोष रहितं भवेत् । (त्रि.श. पु. च. १, १, १८३ ) ' ब्यालीस दोषों से रहित श्राहार आदि को शुद्ध देयदेने योग्य द्रव्य - कहा जाता है ।
देव (सुर ) - १. देवगतिनामकर्मोदये सत्यभ्यन्तरे तो बाह्यविभूतिविशेष: द्वीपाद्रि-समुद्रादिषु यथेष्टं दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः । ( स. सि. ४ - १ ) । २. देवा णाम दीवं भागासं, तंमि आगासे जे वसंति ते देवा: । ( दशवं. चू. पृ. १५) । ३. देवगतिनामकर्मोदये सति द्युत्याद्यर्थावरोधाद् देवाः । अन्तरङ्गहेतो देवगतिनामकर्भोदये सति बाह्यद्युत्यादिक्रियासम्बन्धमन्तर्नीय दीव्यन्तीति देवाः इति व्यपदिश्यन्ते । (त. वा. ४, १, १ ) । ४ तत्र दीव्यन्तीति देवाः, निरुपमक्रीडामनुभवन्तीत्यर्थः । ( नन्दी. हरि. वू. पृ. २९ ) । ५. कीडंति जदो णिच्चं गुणेहि अट्ठ हि दिव्वभावेहि । भातदिव्वकाया तम्हा ते वणिया देवा ।। (प्रा. पंचसं. १-६३; धव. पु. १, पृ. २०३ उब्. ; गो. जी १५० ) । ६. प्रणिमाद्यष्टगुणावष्टम्भवलेन दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः । ( धव. पु. १, पृ. २०३ ) । ७. देवगतिनामकर्मोदये सति दीव्यन्तीति देवाः । (त. इलो. ४-१ ) । ८. केसट्ठि मंस नह-रोम - रुहिर-वस-चम्म- मुत्त- पुरिसेहि । रहिमा निम्मलदेहा सुगंधिनीसासगयलेवा । अंतमुहुत्तेणं चित्र पज्जत्ता तरुण रिससंकासा । सव्वंग भूषणधरा श्रजरा निरुमा समा देवा || अणिमिसनयणा मणकज्जसाहणा पुष्कदामअभिलाणा । चउरंगुलेण भूमि न छिवंति सुरा जिणा विति ॥ ( संग्रहणी. १४६-४८) ।
देव ( श्रर्हन्) - देखो जिनदेव । १. दीव्यते - स्तूयते भक्तिभरनिर्भरामरप्रभुप्रभृतिभिर्भव्यं रनवरत मिति देवः, स च क्लेश-कर्म विपाकशते [काशयै ] रपरामृष्टः पुरुषविशेषः । (ध. वि. मु. बु. १ - १८ ) । २. सर्वज्ञो
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
देवगतिनाम ]
जितरागादिदोषस्त्रलोक्यपूजितः । यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ।। (योगशा. २ - ४ ) । १ 'दीव्यते स्तूयते इति देव:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसकी स्तुति भक्ति से परिपूर्ण देवेन्द्रादि के द्वारा की जाती है तथा जो क्लेश, कर्म, विपाक और प्राशय से रहित होता है ऐसे प्राप्त को देव कहा जाता है ।
देवगतिनाम - १. प्रणिमाद्यष्टगुणावष्टम्भबलेन दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः । देवानां गतिः देवगतिः । अथवा देवगतिनामकर्मोदयोऽणिमादिदेवामिघानप्रत्ययव्यवहारनिबन्धन पर्यायोत्पादको देवगतिः । देवगतिनामकर्मोदयजनितपर्यायो वा देवगतिः, कार्ये कारणोपचामारात् । ( धव. पु. १, पृ. २०३ ) ; जस्स कम्मस्स उदएण देवभावो जीवाणं होदि तं कम्मं देवदित्ति उच्चदि । (धव. पु. ६, पृ. ६७); देवभावणिव्वत्तयं कम्मं देवगदिणामं । ( धव. पु. १३, पृ. ३६३) । २. यदुदयाज्जीवो देवभावस्तद् देवगतिनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११) ।
साहा ॥ ( जं. दी. प. ५,२५-२६) ।
१ अणिमा महिमा आदि आठ गुणों के जो कीड़ा किया करते हैं उन देवों की देवगति कहते हैं । देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी - १. यदा छिन्नायुर्मनुष्यस्तिर्यग्वा पूर्वेण शरीरेण वियुज्यते तदैव देवभावं प्रत्यभिमुखस्य तस्य पूर्वशरीरसंस्थानानिवृत्तिकारणं विग्रहगतावुदेति तद् देवगतिप्रायोग्यानुपूव्यं नाम । (त. वा. ८, ११, ११) । २. जस्स कम्मस्स उदएण देवगईं गयस्स जीवस्स विग्गहगईए बट्टमाणस्स देवगइपाओग्गसं ठाणं होदि तं देवगदिपाश्रोग्गाणुपुव्वीणामं । ( धव. पु. ६, पृ. ७६ ) ।
१ वसति के भीतर गर्भगृह में जो देवच्छन्द होता है वह दो योजन ऊंचा, एक योजन विस्तृत श्रोर चार योजन लम्बा होता है । 'लोकविनिश्चयकर्ता' के मतानुसार वह सोलह योजन ऊंचा और उससे प्रा ( ८ यो . ) विस्तार वाला समचतुष्कोण हुग्रा करता है । २ जिनालय के मध्य में सोलह योजन लम्बे और इससे प्राधे (प्राठ म्राठ योजन) विस्तार व ऊंचाई से सहित देवच्छन्द हुना करते हैं । (यह देवच्छन्द का विस्तारादि उत्कृष्ट जिनभवनों का है । मध्यम व जघन्य जिनभवनों के देवच्छन्द का विस्तारादि यथायोग्य उससे होन समझना चाहिए।) देवदेव - एदेहि बाहिरेहि य प्रब्भरतगुणगणे हि संजुत्तो । सो होदि देवदेवो जो मुक्को कम्मकलुसादो ॥ ( जं. दी. प. १३ - १३० ) ।
१ मनुष्य या तिथंच जीव विवक्षित प्रायु के समाप्त हो जाने से जब पूर्व शरीर से रहित होकर देव भव के श्रभिमुख होता है तब उसके विग्रहगति में पूर्व शरीर गत आकार के अविनाश के कारणभूत जिस कर्म का उदय रहता है उसे देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य कहा जाता है । २ जिस कर्म के उदय से देवगति को प्राप्त हुए जीव का विग्रहगति में देवगति प्रायोग्य प्रकार होता है उसे देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी कहते हैं ।
जो इन प्रातिहार्यादिरूप बाह्य गुणों से तथा श्रनन्तचतुष्टयादिरूप अभ्यन्तर गुणों से युक्त धौर कर्मकालिमा से रहित हो उसे देवदेव कहा जाता है । देवभाव - देवर्गादिणामकम्मोदएण अणिमादिगुणं णीदो देवभावो होदि । ( धव. पु. १४, पृ. ११ ) । देवगति नाम कर्मके उदय से अणिमा श्रादि गुणों को प्राप्त होना, इसका नाम देवभाव (देवत्व ) है । देवमूढता - १. ईसर- बंभा-विण्हू-अज्जा-खंदादिया य जे देवा । ते देवभावहीणा देवत्तणभावणे मूढो ॥
(मूला. ५-६३ ) । २. वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामृढमुच्यते ॥
देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य- देखो देवगतिप्रायोग्या- ( रत्नक. १ - २३ ) । ३. क्षुधाद्यष्टादशदोषरहितनुपूर्वी । मनन्तज्ञानाद्यनन्तगुणसहिते वीतरागसर्वज्ञतास्वरूप
[देवमूढता
रत्नमया
देवच्छन्द - १. वसहीए गब्भगिहे देवच्छंदो दुजोयच्छे हो । इगिजोयण वित्थारो चउजोयणदीहसंजुत्तो ॥ सोलसको सुच्छेहं समचउरस्सं तदद्भवित्थारं । लोयविणिच्छयकत्ता देवच्छंद परूवेइ ॥ (ति. प. ४, १८६५-६६ ) । २. श्रर्हदायतनमध्यदेश निवेशिनः षोडशयोजनायाम-तदर्घ विष्कम्भोच्छ्राया देवच्छन्दाः ।। (त. वा. ३, १०, १३, पृ. १७८ ) । ३. देवच्छंदो हेमो दुग-ग्रड- चउवासदीहुदश्रो | (त्रि. सा. ९८४) । ४. फलिहमणिभित्तिणिवहा णाणामणि रयणजालपरियरिया || वेरुलियखं भपउरा वसंत || दिव्वामोदसुगंधा देवळंदे त्ति णामदो णेया । वरगन्मघरा दिट्ठा पइण्णकुसुमच्च
५३३, जैन-लक्षणावली
प्राश्रय से गति को
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
देवर्षि]
५३४, जैन-लक्षणावली
[देश
मजानन् ख्याति-पूजा-लाभ-रूप-लावण्य-सौभाग्य-पुत्र- जो प्ररहन्त भगवान् उत्पन्न हए केवलज्ञान और कलत्र-राज्यादिविभूतिनिमित्तं राग-द्वेषोपहतात- केवलदर्शन के धारक होकर सर्वदर्शी (सर्वज्ञ) होते
रौद्रपरिणतक्षेत्रपाल-चण्डिकादिमिथ्यादेवानां यदा- हैं उन्हें देवाधिदेव कहा जाता है। राधनं करोति जीवस्तद् देवतामूढत्वम् । (बृ. द्रव्यसं. देवायु-१. शारीर-मानससुखप्रायेषु देवेषु जन्मोटी. ४१)। ४. ब्रह्मोमापति गोविन्द-शाक्येन्दु-तपना- दयात् देवायुषः । (त. वा. ८, १०, ८; त. श्लो. दिषु । मोह-कादम्बरीमत्तेष्वाप्तधीर्देवमूढता ॥ ८-२०)। २. जेसि कम्मक्खंधाणमुदएण उद्धगमण(प्राचा. सा. ३-४६)। ५. ऐहिकाशावशित्वेन सहावस्स जीवस्स देवभवाम्म अवदाणं होदि तेसि कुत्सितो देवतागणः । पूज्यते भक्तितो वाढं सा देव. देवाउअमिदि सण्णा। (धव. पु.६, पृ. ४५-४६)3B मढता मता ॥ (भावसं. वाम. ४०५)। ६. सदोषा जं कम्मं देवभवं घारेदि तं देवाउग्रं णाम । (घव. देवता लम्याद्यर्थं सेवेत यन्नराः। अवादि देवता- पु. १३, पृ. ३६२)। मूढमरागैविश्ववेदिभिः ॥ (धर्मसं. श्रा. ४-४०)। १ जिस कर्म के उदय से शारीरिक और मानसिक ७. राग-द्वपमलीमसदेवानां सेवा देवमूढता ॥ सुखों से परिपूर्ण देवों में जन्म होता है उसे देवायु (कार्तिके. ३२६)। ८. अदेवे देवबुद्धिः स्यादधर्म कहते हैं। धर्मघीरिह । अगरी गुरुबुद्धिर्या ख्याता देवादिमूढता॥ देवावर्णवाद-१. सुरा-मांसोपसेवाद्याघोषणं देवा(लाटोसं. ४-११७; पञ्चाध्या. २-५६५) । वर्णवादः। (स. सि. ६-१३; त. श्लो. ६-१३)। १ ईश्वर (महादेव), ब्रह्मा, विष्णु, प्रार्या (भगवती) २. सुरामांसोपसेवाद्याघोषणं देवावर्णवादः । सुरां और स्कन्द (कार्तिकेय) प्रादि जो वस्तुतः देवत्व से मांसं चोपसेवन्ते देवाः, प्राह (अहि)ल्यादिष सक्तचेतसः रहित हैं-जिनमें न प्राप्तता है और न जो चार इत्याद्याघोषणं देवावर्णवादः। (त. वा. ६, १३, प्रकार के देवों के भी अन्तर्गत है-उन्हें देवता १२)। ३. तेषां (चविधानां देवानां) चाववाद:मानना; इसका नाम देवमूढता है। २ वरप्राप्ति xxx परस्परप्रवीचाराः खलु देवा: षण्ढवत्, की इच्छा से प्राशावान् होकर जो राग-द्वेष से अपरे वलवन्तोऽल्पबलं देवमप्यभियुज्य मैथुनमामलिन देवताओं की उपासना की जाती है, इसे सेवन्ते स्तब्धलोचनपूटास्तथात्यन्तासदभूतदोषप्रख्यादेवमूढता कहा जाता है।
पनशुक्र-शोणितबल्युमहाराशिनो देवा:, अहल्याय जार देवषि-१. देवर्षयो गगनगमनद्धिसंयुक्ताः । (चा. इन्द्रः कृतभगसहस्रः छात्रषित इत्याद्यशिष्टव्यवहारासा.प. २२) । २. नभस्तलविसी यो देवर्षिः पर- वघोषणं देवानामवर्णवादः। (त. भा. सिद्ध.व. मागमे । (धर्मसं. श्रा.-२८७)।
६-१४)। १ अाकाश-गमन ऋद्धि से संयुक्त भिक्षुओं को देवर्षि २ देव सुरा (मद्य) और मांस का सेवन करते हैं कहते हैं ।
तथा प्रहिल्या (एक ऋषिपत्नी) आदि में प्रासक्तदेवागम-देवास्त्रिदशास्तेषां स्वर्गावतरण-जन्म- चित्त रहते हैं, इत्यादि रूप से देवों में दोषों के निष्क्रमण-केवलज्ञानोत्पत्ति-मुक्तिगमनस्थानेषु मागम- कथन को देवावर्णवाद कहते हैं । नम् आगमः अवतारः देवागमः । (प्राप्तमी. वसु. देश-१. xxx तस्स (खंघस्स) दु अद्धं व. १)।
भणंति देसो त्ति । (पंचा. का. ७५; मला. ५-३४; तीर्थकरों के गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान की प्राप्ति गो. जी. ६०४)। २. ग्रामादीनामवधतपरिमाणप्रदेशो और मक्तिगमन इन पांच कल्याणकों में देवों के देशः। (स. सि.७-२१, त. श्लो. ७-२१)। आगमन को देवागम कहते हैं। .
३. देशः त्रिभागश्चतुर्भागादिः। (उत्तरा. चू. ३६, देवाधिदेव-एवं वच्चइ देवाधिदेवा:? देवाधि- पू. २८१) । ४. कृत्स्नो घर्मास्तिकायः, तदर्द्ध देशः। देवा गोयमा! जे इमे अरः । शगतंतो उप्पण्णणाण. (त. वा. ५, २४, ७); कुतश्चिद्दिश्यते इति देशः । दसणधरा जाव सम्वदरिस तेणठेणं जाव देवा- कुतश्चिदवयवात् दिश्यते इति देशः प्रदेशः, एकदेश घिदेवा । (भगवती. १२ ६, ५, खण्ड ३, इत्यर्थः। (त. वा. ७, २, १); ग्रामादीनामवधतपृ.२८६)। ।
. .
परिमाणः प्रदेशो देश: । ग्राम-नगर-गृहापवरकादी
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
देशक ]
नामवघृतपरिमाणानां प्रदेशो देश: । (त. वा. ७, २१, ३) । ५. नानाव्रीहि कोद्रव कगु-गोधूमादिनिष्पत्तिभाग्देशः । ( श्रा. प्र. टी. ३२५ )। ६. X X X तस्स य श्रद्धं च बुच्चदे देसो । ( भावसं. दे. ३०४)। ७. भर्तुर्दण्ड-कोशवृद्धि च दिशति ददातीति देश: । ( नीतिवा. १६ - २, पृ. १६१) । ८ सयलं मुणेहि खंध अद्धं देशोXXX। ( वसु श्रा. १७) । ६. प्रतो हीनाणुतो यावदर्द्ध देश: × × ×। ( श्राचा. सा. ३ - १६ ) 1
१ स्कन्ध के श्राधे भाग को देश कहते हैं । २ देशव्रत में ग्रामादि के श्राश्रय से जितने प्रदेश का नियम किया जाता है वह प्रदेश देश कहलाता है । ३ तीसरे और चौथे श्रादि भाग को देश कहा जाता है । ४ किसी अवयवविशेष से जिसका निर्देश किया जाता है उसका नाम देश है। जैसे- श्रणुव्रत में हिंसादि से देशत: निवृत्ति । ५ ब्रीहि, कोदों, कांगनी और गेहूं प्रादि अनेक धान्यों की उत्पत्ति के स्थान को देश (खेत ) कहते हैं । ७ राजा के सैन्य और कोश की वृद्धि को जो देता है वह देश कहलाता है ।
देशक- संसार ज्वरसंतापच्छेदि यद्वचनामृतम् । पीयते भव्यलोकेन प्रीत्या नित्यं स देशक: 11 ( श्राचा. सा. २-३४) ।
जिसका वचनरूप प्रमृत (उपदेश ) संसाररूप ज्वर के सन्ताप को नष्ट करता उसे देशक - उपाध्याय - कहा जाता है ।
देशकथा - तथा देशकथा – यथा दक्षिणापथः प्रचुरान्नपानः स्त्रीसंभोगप्रघानः पूर्वदेशो विचित्रवस्त्र गुड-खण्ड शालि मद्यादिप्रधानः, उत्तरापथे शूगः पुरुषाः जविनो वाजिनो गोधूमप्रधानानि धान्यानि सुलभं कुंकुमं मधुराणि द्राक्षा-दाडिम कपित्थादीनि पश्चिमदेशे सुखस्पर्शाणि च वस्त्राणि सुलभा इक्षवः शीतं वारीत्येवमादिः । (योगशा. स्वो विव. ३-७९) ।
विभिन्न देशों की— उनमें उत्पन्न होने वाले धन धान्यादि को — कथा करने को देशकथा कहते हैं । जैसे- दक्षिण देश बहुत श्रन्न-पान से परिपूर्ण है; पूर्व देश में अनेक प्रकारके वस्त्र, गुड़, खांड, चावल, एवं मदिरा श्रादि पदार्थ प्रचुरता से उपलब्ध होते हैं; उत्तर देश में पुरुष शूरवीर, घोड़े वेगशाली,
[देशकांक्षा
गेहूं प्रादि प्रमुख धान्य, सुलभ केसर और मीठे अंगूर व अनार आदि होते हैं; तथा पश्चिम देश में सुखप्रद स्पर्शवाले वस्त्र और सुलभ गन्ने आदि पाये जाते हैं; इत्यादि । देशकरगोपशमना - १. पगइ ठिई प्रणुभागप्पएसमूलुत्तराहिपविभत्ता । देशकरणोवसमणा तीए समियस श्रपयं । ( कर्मप्र. उपश. ६६ ) । २. दंसणमोहणीये उवसामिदे उदयादिकरणेसु काणि वि करणाणि उवसंताणि, काणि वि करणाणि श्रणुवसंताणि, तेणेसा देसकरणोवसामणा त्ति भण्णदे । ( कसायपा. टि. २, पृ. ७०७) । ३. देसकरणोपसमणा भण्णति, पगइ ठिति प्रणुभाग-पदेसाणमज्भवसाणविसेसेणं थोवं उवसामिज्जति ण सव्वं; तम्हा देसकरणोपसमणा वुच्चति । ( कर्मप्र. चू. उपश. ६६) । ४. देशत: करणाभ्यां यथाप्रवृत्तापूर्वकरणसंज्ञाभ्यां कृत्वा प्रकृत्यादीनामुपशमना देशकरणोपशमना । इदमुक्तं भवति -- यथाप्रवृत्तकरणापूर्व करणाभ्यां यत् प्रकृत्यादिकं देशतः उपशमयति, न सर्वात्मना, सा देशकरणोपशमना । ( कर्मप्र. मलय. वू. उपश. ६६) ।
२ दर्शनमोहनीय का उपशम कर देने पर उदयादि करणों में कुछ करणों का तो उपशम हो जाता है और कुछ कारणों का उपशम नहीं भी होता है, इसी से उसे देशकरणोपशामना कहा जाता है । ४ श्रध्यवसानविशेष से अधःकरण और पूर्वकरण परिणामों के द्वारा जो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का अल्प मात्रा में उपशम किया जाता है उसे देशकरणोपशमना कहते हैं । देशकाल - देश: प्रस्तावोऽवसरो विभागः पर्याय इत्यनर्थान्तरम्, तस्य कालो देशकालः, अभीष्टवस्त्ववाप्त्यवसरकाल इति भावः । ( श्राव. मलय. वृ. ६६० ) ।
देश, प्रस्ताव, अवसर, विभाग और पर्याय ये समानार्थक शब्द हैं । इस प्रकार के देश का जो काल है उसे देशकाल अर्थात् श्रभीष्ट वस्तु की प्राप्ति का श्रवसरकाल कहा जाता है । देशकांक्षा - १ तस्स देशकंखा जहा कोई एगं कुतित्थियमतं कखइ, ण सेसाणि मताणि, एसा देशकंखा । ( दशवं. चू. पू. ६५) । २. देशविषया एकमेव सौगतं दर्शनमाकांक्षति चित्तजयोऽत्र प्रतिपादितो.
५३५, जैन- लक्षणावली
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
देशक्रम ]
यमेव च प्रधानो मुक्ति हेतुरिति श्रतो घटमानकमिदं न दूरापेतमिति । (श्रा. प्र. टी. ८७) । ३. देशकांक्षा त्वेकादिदर्शनविषयः । यथा सुगतेन भिक्षूणामक्लेशको धर्म उपदिष्टः स्नानान्न-पानाच्छादन-शयनीयादिषु सुखानुभवनद्वारेण । (योगशा. स्वो विव. २-१७) ।
१ किसी एक ही कुर्तीर्थिक - मिथ्यादृष्टिप्रणीत - मत की अभिलाषा करना, अन्य मतों की नहीं, इसका नाम देशकांक्षा है |
देशक्रम —- युगपद्भाविनां देशप्रत्यासत्तिरूपो देश- कहते हैं । क्रमः । ( न्यायकु. १ - ५, पृ. १५१) । युगपत् उत्पन्न होने वाले पदार्थों को देश सम्बन्धी समीपता को देशक्रम कहते हैं । देशघातिस्पर्द्धक - १. स्वस्य ज्ञानादेर्गुणस्य देशं मतिज्ञानादिलक्षणं घातयन्तीत्येवं शीलानि देशघातीनि । ( कर्मप्र. मलय. व. २ - ४४) । २. स्वघा - त्यज्ञानादेर्गुणस्य देशं मतिज्ञानादि लक्षणं घातयन्ती त्येवंशीलानि देशघातीनि । (पंचसं संक्रम. मलय.
. ५२ ) । ३. विवक्षित क देशेनात्मगुणप्रच्छादिकाश्च देशघातिस्पर्द्धकानि । (अन. ध. स्वो टी. २-४६, ४७) । ४. उक्तशेषा घातिकर्मप्रकृतयः पंचविशतिदेशघतिन्यः, तासां ज्ञानादिगुणैकदेशघातित्वात् ॥ ( कर्मप्र. यशो. वृ. १-१, पृ. ११) ।
१ अपने ज्ञानादिगुणों के मतिज्ञानाविरूप देश का जो घात करते हैं वे देशघाती कहलाते हैं । देशचारित्र – प्रगारिणां गृहस्थानां देशतः एकदेशविरतिलक्षणम् (देशचारित्रम्) । (योगशा. स्वो. विव. १-४६ ) ।
हिंसादि पापों से की जाने वाली एकदेशविरति का नाम देशचारित्र है, जो गृहस्थों के होता है। देशच्छन्दकथा - देशे मगषादी छन्दो गम्यागम्यविभागो यथा लाटदेशे मातुलभगिनी गम्या, अन्यत्रागम्येति । ( स्थाना. प्रभय. वृ. २८३, पृ. २०० ) । गम्य - श्रगम्य (भोग्याभोग्य) के विभाग का नाम छन्द है । मगधादि देश में गभ्यागम्य - स्त्री के सेव्यासेव्य की कथा करने को देशछन्दकथा कहते हैं । जैसे - लाट देश में मामा की बहन ( पुत्री ? ) भोग्य मानी जाती है, अन्य देश में नहीं । देशजिन
अवरे ( प्ररहंत - सिद्धवदिरिता ) माइ
—
५३६, जैन - लक्षणावली
[देशनालब्धि
रिय-उवज्झाय- साहू देसजिणा, तिव्वकसाईदियमोहविजयादो । ( धव. पु. ६, पू. १०) । श्राचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीव्रकषाय, इन्द्रियों श्रौर मोह के जीत लेने से देशजिन कहलाते हैं । देशज्ञानावरणीय - देशम् - ज्ञानस्याऽऽभिनि बोधिकादिकमावृणोतीति देशज्ञानावरणीयम् । ( स्थाना. अभय. बृ. २, ४, १०५) ।
जो ज्ञान के देशभूत श्राभिनिवोधिक प्रादि को श्राच्छादित करता है उसे देशज्ञानावरणीय
देशत्यागी - देशस्य जन्मक्षेत्रादेस्त्यागो देशत्यागः, स यस्मिन्नविनये प्रभुगालीप्रदानावस्ति स देशत्यागी । ( स्थाना. अभय वू. ३, ३, १८७ ) । स्वामी को गाली देने श्रादि रूप जिस श्रविनय में जन्मक्षेत्रादि का त्याग होता है वह देशत्यागी नामक अविनयरूप मिथ्यात्व किया है । देशना - १. छदव्व णवपदत्योवदेसो देसणा णाम । ( धव. पु. ६, पृ. २०४) । २. दिश्यते परस्मै प्रतिपाद्यते इति देशना उपदेश्यमानो घर्भो धर्मोपदेशनं वा देशना । (अन. घ. स्वो टी. १-५) ।
१ छह द्रव्य और नौ पदार्थों के उपदेश को देशना कहते हैं । २ विश्यते इति देशना श्रर्थात् जिस घमं का दूसरे के लिए प्रतिपादन किया जाता है उस धर्म को प्रथवा उसके उपदेश को देशना कहा जाता है ।
देशनालब्धि- १. तीए देसणाए परिणदनाइरियादीणमुवलंभो, देसिदत्यस्स गहण धारण- विचारणसत्तीए समागमो अ देसणलद्धी णाम । (घव. पु. ६, पृ. २०४ ) । २. छद्दव्व णवपयत्योपदेसयरसूरिपहुदिलाहो जो । देसिदपदत्थधारणलाहो वा तदियलद्धी दु । ( ल. सा. ६) । ३. यथार्थतत्त्वोपदेश- तदुपदेशकाचार्याद्युपलब्धिरुपदिष्टार्थ ग्रहण - धारणा-विचारणशक्तिर्वा देशनिकी लब्धि: । (पंचसं. प्रमित. १- २८७, पू. ३६, धन. घ. स्वी. टी. २, ४६-४७) । ४. × × × षड् द्रव्याणि जीव- पुद्गल धर्माधर्मकालाकाशानि पञ्चास्तिकाया अत्रान्तर्भूताः । नव पवार्थाः जीवाजीवास्रध-बन्ध-संवर निर्जरा मोक्ष पुण्यपापानि सप्ततत्त्वाम्यत्रवान्तर्भूतानि तेषामुपदेशकराः श्राचार्योपाध्यायादय:, तेषां लाभो यस्तद्द ेश
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
देशनिर्जरा] ५३७, जैन-लक्षणावली
[देशविधिकथा नाप्राप्तिः चिरातीतकाले उपदेशितपदार्थधारणलाभो वधि-मनःपर्ययं च यज्ज्ञानम् । देशं नोइन्द्रिय-मनवा स देशनालब्धिः । (ल. सा. जी. प्र. ६)। उत्थात् प्रत्यक्षमितरनिरपेक्षात् ॥ (पंचाध्या. १, १ देशना से परिणत-उसमें व्यापूत-प्राचार्य ६६९)। प्रादि की उपलब्धि तथा उपदेशित तत्व के ग्रहण, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान जो क्षायोपशमिक हैं दे धारण एवं चिन्तन की शक्ति के समागम को ईषत् इन्द्रियरूप मन के मालम्बन से उत्पन्न होने के देशनालब्धि कहते हैं।
कारण देशप्रत्यक्ष कहलाते हैं। प्रकृत देशप्रत्यक्ष देश निर्जरा-संसारे संसरंतस्स खोवसमगदस्स अप्रतिपाती होने से अविनश्वर और प्रतिपाती होने कम्मस्स । सव्वस्स वि होदि जगे xxx॥ से विनश्चर भी है। मूला. ८-५५)।
देशप्रत्यासत्तिकृत संयोगसम्बन्ध - देसपच्चाचतुर्गतिमय संसार में परिभ्रमण करने वाले सवं सत्तिको णाम दोण्हं दव्वाणमवयवफासं काऊण संसारी जीवों के क्षयोपशम को प्राप्त हुए कर्म की जमच्छणं सो देसपच्चासत्तिको संजोगो। (घव. पु. जो निर्जरा होती है उसे देशनिर्जरा कहते हैं और १४, पृ. २७)। वह सभी संसारी जीवों के होती है।
वो द्रव्य परस्पर अवयवों का स्पर्श करके जो स्थित देशनेपथ्यकथा-देशे मगधादौ xxx नेपथ्यं रहते हैं, इसे देशप्रत्यासत्तिकृत संयोग कहा जाता है। स्त्री-पुरुषाणां वेषः स्वभाविको घिभूषाप्रत्ययश्चेति । देशयति-पंच य अणुव्वदाई सत्त य सिक्खाउ स्थाना. अभय. वृ. ४,२, २८२)।
देसजदिधम्मो । सब्वेण य देसेण य तेण जुदे होदि मगधाविदेश में स्त्री-पुरुषों की स्वाभाविक वेशभूषा देसजदी। (भ. प्रा. २०६७)। को चर्चा करने को देशनेपथ्यकथा कहते हैं। पांच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को देशयतिधर्म देशपरिक्षेपी नैगम-देशो विशेषः परमाण्वादि- कहा जाता है। इससे जो पूर्णतया अथवा एकदेशगतस्तं परिक्षेप्तुं शीलमस्येति देशपरिक्षेपी, विशेष रूप से युक्त होता है उसे देशयति कहते हैं। ग्राहीत्यर्थः । (त. भा. सिद्ध.व.१-३५)। देशविकल्पकथा-देशे मगधादौxxxविकल्पः देश से अभिप्राय परमाणु माविगत विशेष का है, -सस्यनिष्पत्तिः व-कूपादि-देवकुल-भवनादिविउसे ग्रहण करने वाले विशेषनाही नैगमनय को शेषश्चेति, तत्कथा। (स्थाना. अभय. वृ. ४, २, देशपरिक्षेपी नेगमनय कहते हैं।
२८२)। देशपावस्थ-१. सेज्जायरकुलनिस्सिय ठवणकुल- विकल्प का अर्थ धान्य की उत्पत्ति व कोट, कुप्रां, पलोयणाभिहडे य । पुब्धि पच्छा संथव निइअग्गपिंड- देवगृह और भवन प्रादि की विशेषता है। उनकी भोइपासत्थो। (व्यव. भा.३-२३०, पृ. १११)। मगधादि देशविशेष की अपेक्षा चर्चा करना, यह २. नित्यपिण्डमग्रपिण्डं च यो भक्ते स देशतः देशविकल्पकथा कहलाती है। पार्श्वस्थः । (व्यव. भा. मलय. वृ. ३-२३०)। देशविचिकित्सा-तत्थ देसवितिगिच्छा सोहणं २ नित्यपिण्ड और अग्रपिण्ड के खाने वाले साप को साहणं जह पण जीवाउलो न लोगो दिलो होतो तो देशपावस्थ कहते हैं।
सुटठ्यरं होन्तंति एवमाइ देसवितिगिच्छा भण्णइ । देशप्रकृतिविपरिणामना-जासि पयडीणं देसो (वशवं. चू. २, पृ. ९५)। णिज्जरिज्जदि अघटिदिगलणाए सा देशपयडिवि- साधनों को यदि जीवों से व्याप्त लोक न दिखता परिणामणा णाम । (षव. पु.१५, पृ. २५३)। तो बहुत अच्छा होता, इस प्रकार के विचार करने प्रध:स्थितिगलन से जो प्रकृतियों का एक देश को देशविचिकित्सा कहते हैं। निर्जीर्ण होता है उसका नाम देशप्रकृतिविपरिणा- देशविधिकथा-देशे मगषादी विधिः-विरचना मना है।
भोजन-मणिभूमिकादीनाम्, भुज्यते बा यद्यत्र प्रथमदेशप्रत्यक्ष-क्षायोपशमिकमपरं देशप्रत्यक्षमक्षयं तयेति देशविधिः, तत्कथा देशविधिकथा। (स्थाना. क्षयि च ॥ (पंचाध्या. ६६७); देशप्रत्यक्षमिहाप्य- अभय.व. २, ४, २८२)।
स. ६८
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
हैं।
देशविप्रकृष्ट]
५३८, जैन-लक्षणावली [देशविषय मिथ्यादृष्टिप्रशंसा विधि का अर्थ भोजन व मणिमय भूमिका मादि की ७-२१)। २. ग्रामादीनां प्रवक्तपरिमाणः प्रदेशो रचना है, यह देशविधि है। अथवा जो जहां प्रथमतया देशः । ग्राम-नगर-गृहापवरकादीनामवधृतपरिमाणाखाया जाता है। अभिप्राय यह है कि अमुक देश में नां प्रदेशो देशः इत्युच्यते । xxx विरमणं अमुक प्रकार की भोजनपद्धति प्रादि है तथा अमुक विरतिः, निवृत्तिरिति यावत्, देशाद् विरतिः देशदेश के लोग पहले प्रमक वस्तु को खाते हैं, इत्यादि विरतिः। (त. वा. ७, २१, ३-४)। ३. ग्रामादीनां प्रकार से विभिन्न देशों के भोजन प्रादि की विधि प्रदेशस्य परिमाणकृतावधिः । बहिर्गत निवृत्तिर्या की कथा करने को देशविधिकथा कहते हैं। तद् देशविरतिव्रतम् ॥ (ह. पु. ५८-१४४) । देशविप्रकृष्ट-देशविप्रकृष्टा मष्टिस्थादि द्रव्यम्। ४. ग्रामादीनामवधूतपरिमाणप्रदेशो देशः।xxx (मा. मी. वसु. वृ, ५)।
ततो विरतिव्रतम् । (त. श्लो. ७-२१)। ५. तथापि मट्टी में स्थित प्रादि द्रव्य को देश विप्रकृष्ट कहते च परिमाणं प्रामापण-भवन-पाटकादीनाम् । प्रवि.
घाय नियतकालं करणीयं विरमणं देशात् ॥ (पु. देशविरत-देखो देशयति । १. सण वय सामा. सि. १३९)। ६. मदीयस्य गृहान्तरस्य तागस्य इय पोसह सचित्त रायभत्ते य । बम्हारंभ परिग्गह वा मध्यं मुक्त्वा देशान्तरं न गमिष्यामीति तम्निअणुमण उद्दिट्ट देशविरदेदे ॥ (चारित्रप्रा. २१; वृत्तिर्देशविरतिः। (चा. सा. पृ. ६)। ७. देशाद्वादशान. ६६, प्रा. पंचसं. १-१३६; गो. जी. वधिमपि कृत्वा यो नाकामति सदा पुनस्षा । ४७३) । २. सर्वासंयमप्रत्याख्यानस्यासमर्थः हिसा- देशविरतेद्वितीयं गुणवतं तस्य जायेत ॥ (अमित. द्येकदेशाद्विरतः स्थूलभूतप्राणातिपातादिपंचकाद् देश- भा. ६-७८)। ८. यदि विज्ञानतः कृत्वा देशावधिविरतः। (भ. प्रा. विजयो. २०६८)। ३. देश- महर्निशम् । नोल्लभ्यते पुनः पुंसां द्वितीयं तद् गुणविरतस्तु पूर्वोक्तस्त्रिभिः पदैः शुद्धः एकव्रतादियुक्तो व्रतम् ॥ (सुभा. सं. ७६६)। ६. यद् देशस्यावधि यावदुत्कृष्टोऽनुमतिसेवको भवति । (पंचसं. स्वो. व. कृत्वा गम्यते न दिवानिशम । ततः परं बुधरुक्तं द्वितीयं उपश. ३०)। ४. स्थूलहिंसादिपंचकान्मनोवाक्काय- तद् गुणव्रतम् ॥ (प. प. १६-७७, पृ. २७४) । कृतादिना व्यावृत्तो देशविरतः। (भ. प्रा. मला. १०. वयभंगकारणं होइ जम्मि देसम्मि तत्थ णिय२०७८) । ५. एकव्रतविषयस्थूलसावद्ययोगादौ सर्व. मेण । कीरइ गमणणियत्ती तं जाण गुणव्वयं व्रतविषयानुमतिवर्जसावद्ययोगान्ते करणत्रय-योग- विदियं ॥ (सु. पा. २१५)। ११. कृत्वा कालात्रयविषयसर्वसावद्ययोगस्य, देशे विरतमस्यास्तीति वर्षि शक्त्या कियत्प्रदेशवर्जनम् । तद् देशविरतिर्नाम देशविरतः । (कर्मस्त. गो. व. २, पृ. ३)। व्रतं द्वितीयकं विदुः ।। (भावसं. वाम. ४६०)। ६. यस्तु देशतो विरतः स देशविरतः । (पंचसं. १२. गन्तव्यायामपि दिशि नियतदेशात् ग्राम-नदीमलय. वृ. उपश. ३०, पृ. १६७)।
क्षेत्र-योजन-वन-गृह-कटकादिलक्षणात् परतो विरमणं १ दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तविरत, देशविरतिव्रतम् । (त. वृत्ति भुत. ७-२१)। रात्रिभक्तविरत, अब्रह्मविरत, प्रारम्भविरत, परिग्रह- १३. इयन्तीं मां गमिष्यामि कृतसंख्यां दिशं तथा। विरत, अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत ये ग्यारह इत्युक्त्वा गम्यते यत्तत् द्वितीयं स्याद् गुणवतम् ।। देशविरत श्रावक माने गये हैं । २ सर्व असंयमभाव (पू. उपासका. २६)। के छोड़ने में असमर्थ जो व्यक्ति हिंसादि पांच पापों १ प्राम-नगरादि के जितने प्रदेश का प्रमाण निश्चित के एकदेश से विरत होता है उसे स्थूल हिंसादि पांच किया गया है उसका नाम देश है। उसके बाहिर पापों से देशविरत कहते हैं। ३ ज्ञान, ग्रहण और गमन का परित्याग करना, इसे देश विरतिव्रत कहा अनुपालन इन तीन पदों से शुद्ध एक व्रत प्रावि- जाता है। प्रथम प्रतिमा से लेकर-उत्कृष्ट अनुमतिसेवक तक देशविषय मिथ्यादृष्टिप्रशंसा-देशविषयं तु इददेशविरत कहलाता है।
मेब बुद्धवचनं साङ्ख्य-कणादादिवचनं वा तत्त्वमिति । देशविरति-१. ग्रामादीनामववृतपरिमाणः प्रदेशो (योगशा. स्वो. विव. २-१७)। देशः । ततो बहिनिवृत्तिर्देशविरतिव्रतम् । (स. सि. यह बुद्ध का वचन, सांख्य का वचन अथवा कणाद
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
देशव्यतिरेक] ५३६, जैन-लक्षणावली
[देशसत्य प्रावि का वचन ही तत्त्व (यथार्थ) है, इस प्रकार १ प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने से पूर्ण मिथ्यामत की प्रशंसा करना, यह देशविषयक संयम तो नहीं होता, पर स्तोक (देशतः) व्रत होता मिथ्यादृष्टिप्रशंसा है।
है, इसी से पांचवें गुणस्थानको देशविरत कहा देशव्यतिरेक-स यथा चको देशः स भवति नान्यो जाता है। ।। भवति स चाप्यन्यः । सोऽपि न भवति स देशो देशवती-यश्च[श्चा-प्रत्याख्यानावरणसंज्ञिद्वितीयभवति स देशश्च देशव्यतिरेकः ॥ (पंचाध्या. कषायक्षयोपशमे जाते सति पृथिव्यादिपञ्चस्थावरवधे १-१४७)। .
प्रवृत्तोऽपि यथाशक्त्या त्रसवधे निवृत्तः स पञ्चमजो एक देश है वह वही है, दूसरा नहीं है, और जो
गुणस्थानवर्ती श्रावकः। (बृ. द्रव्यसं. टी. ४५)। दूसरा देश है वह दूसरा ही है, अन्य नहीं है। इस
अप्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम होने पर प्रकार के व्यतिरेक को देशव्यतिरेक कहते हैं।
पृषिवी प्रादि पांच प्रकार के स्थावरों के घात में देशवत (एक गुरगवत)-देखो देशविरतिव्रत ।
प्रवृत्त होता मा भी जो यथाशक्ति त्रस जीवों की १. देशवतं नाम अपवरक-गृह-ग्रामसीमादिषु यथा- सा से विरत रखतावरगावी
. शक्ति प्रविचाराय परिमाणाभिग्रहः। तत्परतश्च स्थानवर्ती) श्रावक कहलाता है। (सर्वभूतेष्वर्थतोऽनयंतश्च) सर्वसावद्ययोगनिक्षेपः ।
देशशंका-१. तत्थ देससंका जहा समाणे जीवत्ते (त. भा. ७-१६)। २. देशे भागेऽवस्थापनं प्रतिदिनं
कहमेस भविप्रो इमो अभविउ ति, ण पूण चितेइ प्रतिप्रहरं प्रतिक्षणमिति xxx दिपरिमाण
जहा भावा हे उगेज्झा अहेतुगेज्झा य, तत्थ हेउगेज्झा स्यैकदेशो देशस्तद्विषयं व्रतं देशनियमस्तच्च प्रयो
जहा जीवस्स अस्थित्तं एवमादी, अहेउगेज्झा जहा जनापेक्षमेकादिदिक्कं सर्वदिक्कम् । (त. भा. हरि.
भविया अभविया य, (केवलि) नेयो भावोत्ति, वृ.७-१६)।
एसा देससंका । (दशवै. च. २, पृ.९५) । २. देश१ अपवरक (गह का एक भाग), गह और ग्राम की
शङ्का देशविषया यथा किमयमात्मासंख्येयप्रदेशात्मकः सीमादिक में यथाशक्ति गमनादि के लिए-उसके
स्यादथ नि:प्रदेशो निरवयवः स्यादिति । (श्रा. प्र. नियमनार्थ-परिमाण का नियम करना, यह देश
- टी. ८७)। ३. देशशङ्का एकैकवस्तुधर्मगोचरा। व्रत कहलाता है। कृत परिमाण के बाहिर प्रयोजन व
(योगशा. स्वो. विव. २-१६) । उसके बिना भी समस्त प्राणियों में पूर्ण सावनयोग
१ जीवत्व के समान होने पर यह भव्य है और का परिहार हो जाता है, यह इस व्रत का फल है।
यह प्रभव्य है, ऐसा क्यों; इस प्रकार की शंका देशवत (पंचम गुणस्थान)-१. पच्चक्खाणुदयादो संजमभावो ण होदि णवरि तु। थोववदो
देशशंका कही जाती है। वह यह विचार नहीं होदि तदो देशवदो होदि पंचमनो ॥ (गो. जी.
करता कि कुछ भाव हेतु से ग्राह्य हैं और कुछ बिना
हेतु के, उनमें हेतुग्राह्य जैसे जीव के अस्तित्व प्रावि ३०)। २. सम्यग्दृष्टि: सन् भूमिरेखादिसमानक्रोघादिद्वितीयकषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेने- भाव । अहेतुग्राह्य जैसे भव्यत्व-प्रभव्यत्व, ये भाव कदेशरागादिरहितस्वाभाविकसुखानुभूतिलक्षणेष बहि. कंवलज्ञानगम्य हैं। विषयेषु पुनरेकदेशहिंसानुतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहनिवृत्ति- देशसत्य-१. ग्राम-नगर-राज-गण-पाखण्ड लक्षणेषु एकादशनिलयेषु वर्तते स पञ्चमगुणस्थान- कुलादिधर्माणामुपदेष्ट्ट यद्वचस्तद् देशसत्यम् । (त. वर्ती श्रावकः। (बृ. द्रव्यसं. टी. १३)। ३. प्रत्या- वा. १, २०, १२; धव. पु. १, पृ. ११८ चा. सा. ख्यानावरणकषायाणां सर्वघातिस्पर्धकोदयाभावलक्षणे पृ. ६)। २. यद् ग्राम-नगराचार-राज-धर्मोपदेशक्षये तेषामेब सदवस्थालक्षणे उपशमे च देशघाति- कृत् । गणाश्रमपदोद्धासि देशसत्यं त तमा स्पर्घ कोदयादुत्पन्नत्वाद् देशसंयमः क्षायोपशमिकः। (ह.पु. १०-१०५)। ३. सर्वदेशकवाग देशसत्य(गो. जी. म. प्र. ३०)। ४. देशेन एकदेशेन प्रस- मोदमपाकवाक् । यथा वृत्त्या व्रतो ग्राम इति ग्रामावघनिवृत्त्याश्रयेण संयतो विरतो देशसंयतः। (गो. विवर्णनम् । (माचा. सा. ५-३३) । जी. जी. प्र. ३१) ।
१ ग्राम, नगर, राजा, गण, पाखण्ड, जाति और कुल
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
देशसंयम ]
श्रादि धर्मों के उपदेशक वचन को देश लत्य कहते हैं । देशसंयम - देखो देशव्रत । १. देशविरते प्रत्याख्यानावरणकषायाणां सर्वघातिस्पर्घ कोदयाभावलक्षणे क्षये तेषामेव हीनानुभागरूपतया परिणतानां सदवस्थालक्षणे उपशमे च देशघातिस्पर्ध कोदयसहिते उत्पन्नं देशसंयम रूपचारित्रं क्षायोपशमिकम् । (गो. जी. म. प्र. १३) । २. देशसंयतापेक्षया प्रत्याख्यानावरणकषायाणाम् उदयागतदेशघातिस्पर्धकानन्तबहुभागानुभागोदयेन सहानुदयागतक्षीयमाणविवक्षितोदयनिषेक सर्व घातिस्पर्धकानन्तबहुभागानामुदया - भावलक्षणक्षये तेषामुपरितन निषेकाणां श्रनुदयप्राप्तानां सदवस्था लक्षणोपशमे च सति समुद्भूतत्वात् चारित्रमोहं प्रतीत्य देशसंयमः क्षायोपशमिकभावः । (गो. जी. जी. प्र. १३ ) ।
१ प्रत्याख्यानावरण कषायों के सर्वघातिस्पर्धकों का उदयाभावस्वरूप क्षय, हीन अनुभागरूप से परिणत उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम और देशघातिस्पर्धकों का उदय होने पर देशविरत (पांचवें ) गुणस्थान में देशर्सयम रूप क्षायोपशमिक चारित्र होता है । देश संवर - शेषकाले (बादर- सूक्ष्मयोगनिरोधकालात् प्राक् ) चरणप्रतिपत्तेरारभ्य देशसंवरपरिणतिभागात्मा भवति । XX X देशसंवरस्तु सामायिकादिचारित्रवतां सत्यपि परिस्पन्दवत्वे विदिततत्त्वानां संसारजलधेरुत्तरीतुमभिवाञ्छतां प्रधानसंवराभावेऽपि न्यस्तसमस्तप्रमादस्थानानां देशसंवरः समस्त्येवेति । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६- १) । बादर व सूक्ष्म योगों के निरोध से पूर्व चारित्रप्राप्ति से लेकर प्रात्मा देशसंवर से युक्त हो जाता है । सामायिक श्रादि चारित्र वाले जीव यद्यपि परिस्पन्दन से युक्त होते हैं, फिर भी तत्त्वों के ज्ञाता होकर वे चूंकि संसार से पार होने के इच्छुक होते हैं, इसीलिए प्रधान संबर के न होने पर भी समस्त प्रमादस्थानों का उनके देशसंवर होता ही है । देशस्नान देशस्नानमधिष्ठानशोचातिरेकेणाक्षिपक्ष्मप्रक्षालनमपि । ( वशवे. सु. हरि. वृ. ३२, पृ. ११६)।
अधिष्ठान प्रदेश की पवित्रता के अतिरिक्त प्रांखों के पलकों के धोने को भी देशस्नान कहा जाता है । देशाख्यान - तदेकदेशदेशाद्रि-द्वीपान्ध्यादिप्रपञ्च • नम् । देशाख्यानम् । XXX ॥ ( म. पु. ४ - ५ ) |
-
[देशावका शिकव्रत
लोक के एकदेशभूत देश, पर्वत, द्वीप और समुद्रादि का विस्तारपूर्वक कथन करने को देशाख्यान कहते हैं ।
देशाभिहृत - एकदेशादागतमोदनादिकं देशाभिघटकम् । (मूला. बु. ६-१६ ) ।
एक वेश से घाये हुये प्रोवन (भात) आदि भोज्य सामग्री के ग्रहण करने को देशाभिघट (देशाभिहृत) दोष कहते हैं ।
देशामर्शक - जेणेदं सुत्तं देसामासयं, तेण उत्तासेसलक्खणाणि देण उत्ताणि । एदं देसामासियसुत्तं कुदो ? एग देसपदुप्पायणेण एत्थतणसयलत्थस्स सूचयत्तादो । एदं देसामासि यसुत्तं, तेणेदेण आमासयत्थेण अणामासियत्यो उच्चदे । (धव. पु. १, पृ. ८ का टिप्पण नं १ )
जो सूत्र आमृष्ट - स्पृष्ट या विवेचित- अर्थ के साथ उससे सम्बद्ध अन्य समस्त अर्थ का सूचक होता है उसे देशामर्शक कहते हैं । देशावका शिकव्रत - देखो देशविरति । १. देशाव - काशिकं स्यात् कालपरिच्छेदनेन देशस्य । प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य ।। ( रत्नक. ६२ ) । २. दिसिव्वयगहियस्स दिसापरिमाणस्स पइदिणं परिमाणकरणं देसावगासियं । ( श्राव. ६-१० ) । ३. [ देश: ] दिग्व्रतगृहीतदिक्परिमाणस्यैकदेशः श्रंशः, तस्मिन्नवकाशः - गमनादिचेष्टास्थानं देशावकाशिकस्तेन निर्वृत्तं देशावकाशिकम् । (श्राव. वृ. ६- १०, पृ. ८३५) । ४. पुव्वपमाणकदाणं सव्वदिसीणं पुणो विसंवरणं । इंदियविसयाण तहा पुणो वि जो कुणदि संवरणं । वासादिकयपमाणं दिणे दिणे लोह - कामसमट्ठ | सावज्जवज्जणट्ठे तस्स चउत्थं वयं होदि ॥ (कार्तिके. ३६७-६८ ) । ५. देशेऽवकाशो देशावकाशः, तत्र भवं देशावकाशिकम् । इदमुक्तं भवतिपूर्वगृहीतस्य दिव्रतस्य योजनशतादिकस्य यत्प्रतिदिनं संक्षिप्ततरं योजन-गव्यूति-पत्तन- गृहमर्यादादिकं परिमाणं विधत्ते तद् देशावकाशिकमित्युच्यते । (सूत्रकृ.शी. वू. २, ७, ७६, पृ. १८२ ) । ६. देशे विभागे प्राक्प्रतिपन्नदिव्रतस्य योजनशतादिपरिमाणरूपस्य अवकाशो गोचरो यस्य प्रतिदिनं प्रत्याख्येयतया तत्तथा । (ध. बि. मु. वृ. ३-१८) । ७. देशावका शिकं देशे मर्यादीकृत देशमध्येऽपि स्तोकप्रदेशेऽवकाशो नियतकालमवस्थानम्, सोऽस्यास्तीति
५४०, जैन - लक्षणावली
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
देशावधि] ५४१, जैन-लक्षणावलो
[देशोपशमना देशावकाशिकं शिक्षाव्रतम् । (रत्नक. टी. ४-२)। दित करता है उसे देशज्ञानावरण कहते है। जिस ८. दिग्वते परिमाणं यत्तस्य संक्षेपणं पुनः । दिने प्रकार मेघों से प्राच्छादित सूर्य की थोड़ी सी प्रभा रात्रौ च देशावकाशिकव्रतमुच्यते ।। (योगशा. ३, दृष्टिगोचर होती है उसी प्रकार ज्ञानावरण से ८४, त्रि. श. पु.च. १, ३, ६४०); देशे दिग्व्रत- माच्छादित ज्ञान के वेशभूत मतिज्ञान प्रावि प्रगट गृहीतपरिमाणस्य विभागे अवकाशोऽवस्थानं देशाव- रहते हैं। ज्ञान के देशभूत मतिज्ञानादि को प्रावत काशः, सोऽत्रास्तीति देशावकाशिकम् । (योगशा. करने वाले मतिज्ञानावरणादि थोड़ी सी सर्यप्रभा स्वो. विव.३-६४)। 8. दिग्व्रतपरिमितदेशविभागे के माच्छादक कट व कुटी प्रादि के समान है। ऽवस्थानमस्ति मितसमयम् । यत्र निराहुर्देशावका- देशावसन्न-पावस्सय-सज्झाए पडिलेहणभिक्खशिकं तदव्रतं तज्ज्ञाः ॥ (सा.प. ५-२५) । झाणभत्तठें। पागमणे णिग्गमणे ठाणे य निसीयण१०. दिग्धतादृतदेशस्य यत्संहारो घनस्य च । क्रियते तुयट्टे ॥मावस्सयाइयाई न करेइ प्रहवा विहीणसावधिः सीम्नां तत्स्याद् देशावकाशिकम् ॥ (धर्मसं. महियाई। गुरुवयणवलाय तहा भणिनो वेसावसश्रा. ७-३४)।
स्नोति । (प्रव. सारो. १०७-८); यदेतान्यावश्यक१ प्रणयती श्रावक दिवसादिरूप काल के नियम. स्वाध्यायादीनि स्थानानि सर्वथा न करोत्यथवा पूर्वक जो प्रतिदिन दिग्वत में ग्रहण किये विशाल हीनाधिकानि करोति प्रतिषिद्धकालकरणादिदोषदेश का संकोच किया करते हैं, इसे देशावकाशिक- दुष्टानि वा करोति तदा देसावसन्नो भवतीत्यर्थः । व्रत कहा जाता है। ५ दिग्व्रत में जो सौ योजनादि (प्रब. सारो. व. १०७-८)। रूप दिशा का प्रमाण किया गया है उसमें प्रतिदिन जो प्रतिक्रमणादि प्रावश्यक, स्वाध्याय, प्रतिलेखन, संक्षेप करके एक योजन, कोश, प्राम व गृह मादि भिक्षा (गोचरी), ध्यान, भोजन, मागमन, निर्गमन, का प्रमाण करना; यह देशावकाशिकवत कह- स्थान (कायोत्सर्गादि में प्रवस्थान), निषीदम लाता है।
(बैठना) और स्वरवर्तन (शयन); इन प्रावश्यक देशावधि-भवं प्रतीत्य यो जातो गुणं व प्राणि- क्रियानों को या तो सर्वथा ही नहीं करता है या नामि देशावधिः स विज्ञेयो दृष्टिमोहाद् विपर्ययः॥ होनाधिक रूप में करता है, प्रयवा निषित काल में (त. श्लो. १, ३२, ११३, पृ. २६७)। उन्हें करता है वह देशावसन्न (साघु) कहलाता भव या गुण (क्षयोपशम) के माश्रय से जो जीवों है जो वन्दना के अयोग्य होता है। के अवधिज्ञान होता है उसे देशावधि कहते हैं । वह देशोपशमना-१. मूलुत्तरकम्माणं पगडिद्वितिमावर्शनमोह के उदय से विपर्यय (विभंग) हुमा करता दि होइ चउमेया। देशकरणेहिं देसं समेह जं देस
समणातो॥ (पंचसं. उपश. ६५, पृ. २०६) । देशावधिमरण-यत्सांप्रतमुदत्यायुर्यथाभूतं तथा- २. देशोपशमना करणकृता करणरहिता च । xx भूतमेव बध्नाति देशतो यदि तद् देशावधिमरणम्। र तत्र या करणरहिता तस्या व्याख्या नास्ति, (भ. प्रा. बिजयो. २५; भा. प्रा. टी ३२)। तद्वतृणामभावात् । सा च गिरिनदीपाषाणवत्तावर्तमान समय में जैसा प्रायकर्म उदय में पा रहा दिभाववत् संसारस्थजीवानां करण-विशिष्टगणा. है, उसी प्रकार का यदि एक देश रूप से बांषता है भ्यां विनापि वेदनानुभवनादिकारणभवति । (पंचसं. तो इसे देशावधिमरण कहते हैं।
स्वो. व. उपश. १); मूलोत्तरकर्माणि प्रकृतिदेशावरण-देशं ज्ञानस्याऽऽभिनिबोषादिमावृणो- स्थित्यनुभाग-प्रदेशभेदाच्चतुर्द्धा भवन्ति, देशकरण: तीति देशज्ञानावरणीयम् । xxx मत्याद्या- (णाभ्यां) यथाप्रवृत्तापूर्वकरणसंजः (ज्ञाभ्या) देशं वरणं तु धनातिच्छादितादित्येषत्प्रभाकल्पस्य केवल- किञ्चिन्मानं प्रकृति-स्थित्यादीनां यत उपशामज्ञानदेशस्य कट-कुटयादिरूपावरणतुल्यमिति देशा- यति प्रतो देशोपशमना भण्यते । (पंचसं. स्वो.. वरणमिति । (स्थाना. अभय. व. २, ४, १०५, उपश. ६५, पृ. २०६) । ३. देशोपशमना विधा पृ. ६१)।
करणकृता करणरहिता च । xxx करणानि जान के देशभत प्राभिनिवोष प्रादि को जो पाच्छा- यथाप्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिसंज्ञानि, ते कृता करणकृता।
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
देह ]
तद्विपरीता करणरहिता या संसारिणां जीवानां गिरिनदीपाषाणवृत्ततादिसंभवत्यथाप्रवृत्तादिकरणसाध्य क्रियाविशेषमन्तरेणापि वेदनानुभवनादिमि: कारणैरुपजायते । तस्याश्च सम्प्रत्यनुयोगों व्यवच्छिन्नः, तद्वेतॄणामभावात् । ( पंचर्स. मलय. वृ. उपश. १ ) ; यत् यस्मात्कारणाद् देशभूताभ्यामेकदेशभूताभ्यां यथाप्रवृत्तापूर्वकरणसंज्ञिताभ्यां करणाभ्यां प्रकृतिस्थित्यादीनां देशमेकदेशं शमयत्युपशमर्यात, श्रतो देशोपशमनाभिधीयते । (पंचसं. मलय. वृ. उपश. ६५) ।
१ देशकरणरूप श्रधःप्रवृत्त श्रोर अपूर्वकरण परि णामों के द्वारा जो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग श्रीर प्रदेश का अल्प मात्रा में उपशम किया जाता है उसे देशकरणोपशमना कहा जाता है ।
देह - देहोऽपि प्रौदारिक- वैक्रियिकाहारकवर्गणागतपुद्गलपिण्डः, कर-चरण- शिरोग्रीवाद्यययवः परिणतो वा । (मूला. वृ. १२-२ ) । औदारिक, वैऋियिक और आहारक वर्गणानों के पुद्गलपिण्ड को देह कहते हैं । अथवा हाथ, पैर, शिर और ग्रीवा आदि श्रवयवस्वरूप से परिणत पुद्गलपिण्ड को देह कहा जाता है ।
५४२, जैन-लक्षणावली
दव - १. योग्यता कर्म पूर्वं वा दैवमुभयमदृष्टम् । ( अष्ट. ८८ ) । २. जमुदग्गं थेवेणं कम्मं परिणमइ इह पयासेण । तं दइवं XXX ॥ ( उपदे. प. ३५०); वहुकम्मणिमित्तो पुण प्रज्भवसानो उ दइवोति ॥ ( उपदे. प. ३५१) । ३. यदुदग्रमुत्कट - रसतया प्राक् समुपार्जितं स्तोकेनापि कालेन परिमि तेन कर्म सर्व्वद्यादि परिणमति फलदानं प्रति प्रह्वीभवति इह जने प्रयासेन राजसेवादिना पुरुषकारेण, तद् दैवं लोके समुद्धृष्यते । ( उपदे. प. मु. वृ. ३५०); अथवा X XX बहु प्रभूतं पुरुषकार माश्रित्य कर्म निमित्तं यत्र स पुनरध्यवसाय इह नञोऽल्पार्थत्वादल्पो व्यवसायः पुनर्देवमिति । यत्र हि कार्यसिद्धावरूपः कर्मणो भावो बहुश्च पुरुषप्रयासस्तत्कार्यं पुरुषकारसाध्यमुच्यते । यत्र पुनरेतद्विपर्ययस्तत् कर्मकृतमिति । ( उपदे. प. मु. वू. ३५१) ।
१ योग्यता अथवा पूर्व कर्म को दैव कहते हैं, जिन्हें अदृष्ट कहा जाता है । २ पूर्वोपार्जित कर्म जो परिमित समय में ही तीव्र अनुभागस्वरूप से साता
[दोलायित
वेदनीय श्रादिरूप परिणत होता हुआ फल देने के उन्मुख होता है, इसका नाम देव है । श्रथवा पुरुपार्थ की अपेक्षा जिस श्रध्यवसाय में बहुत कर्म निमित्त होता है उसे देव कहा जाता है । दैवकृत-प्रतकितोपस्थितमनुकूलं प्रतिकूलं वा देवकृतम् । (अष्टश. १) । प्रतकित - विना किसी प्रकार के विचारादि के - जो अनुकूल या प्रतिकूल सामग्री प्राप्त होती है वह देवकृत कहलाती है ।
दैवविवाह - १. स देवो विवाहो यत्र यज्ञार्थमृत्विजः कन्याप्रदानमेव दक्षिणा । ( नीतिवा. ३१, ५, पृ. ३७४; व. वि. मु. वृ. १-१२; योगशा. स्वो विव. १-४७, पृ. १४७) । २. तथा च गुरुःकृत्वा यज्ञविधानं तु यो ददाति च ऋत्विजः । समाप्ती दक्षिणां कन्यां देवं वैवाहिकं हि तत् ॥ (नीतिवा. टी. ३१-५) ।
यज्ञ करके उसके समाप्त होने पर याज्ञिक के द्वारा ब्राह्मण को दक्षिणा के रूप में कन्या के देने को देव विवाह कहते हैं ।
दैवसिक -- दिवसेन निर्वृत्तो दिवसपरिणामो वा दैवसिक: । (श्राव. हरि. वृ. ४, पृ. ५७१) दिन के श्राश्रय से या दिन प्रमाण जो प्रतिचार किया जाता है वह देवसिक कहलाता है । दोग्रन्थिकप्राभृत (दोगंधियपाहुड ) - परमाणंदानंद मेत्तीणं 'दोगंधिय' इत्ति ववएसो । तेसि कारणदव्वाणं पि उवयारेण 'दोगंधिय' ववएसो । तत्थ [ परमाणंद- ] श्राणंदमेत्तीणं पटुवणाणुबवत्तीदो तणिमित्तदव्वपट्ठवणं दोगंधियपाहुडं । ( जयध. पु. १, पृ. ३२४) ।
परमानन्द और श्रानन्द मात्र का नाम दोग्रन्थिक है। उनमें चूंकि परमानन्द और श्रानन्द मात्र का प्रस्थापन ( प्रेषण) घटित होता नहीं है, अतएव उनके निमित्तभूत द्रव्यों के प्रस्थापन को दोग्रन्थिकप्राभृत कहा जाता है। यह नोश्रागम की अपेक्षा प्रशस्त भावप्राभूत माना गया है । दोलायित - १. दोलायितं दोलामिवात्मानं चलाचलं कृत्वा शयित्वा वा यो विदधाति वन्दनां तस्य दोलायितदोष: । (मूला. वू. ७ - १०६ ) । २. दोलायितं चलन् कायो दोलावत् प्रत्ययोऽथवा । (धन. घ. ८-१६) ।
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
दोष] ५४३, जैन-लक्षणावली
[द्रव्य १ हिंदोले के समान अपने को चल-अचल करके द्रवशील-भासइ दुयं दुयं गच्छए प्रदरिउ व्व अथवा लेट कर वन्दना करने पर दोलायित. दोष गोविसो सरए । सव्वद्दुय-दुयकारी. फुट्टइ व ठिो का भागी होता है। २ अथबा अस्थिर प्रत्यय- वि दप्पेणं ॥ (बृहत्क. १२६६)। स्तुत्य, स्तुति एवं उसके फल विषयक सन्देह-का जो शरद ऋतु के अभिमानी बैल के समान अति
शय शीघ्रतापूर्वक विना सोचे-बिचारे बोलता है व दोष-१. अज्ञानादिर्दोषः स्व-परपरिणामहेतुः। जाता है, जो सभी क्रियाओं को बिना विचारे (अष्टश. ४) । २. दोषः . प्रज्ञानादि, अतिशय शीघ्रता से करता है, तथा जो तीव्र अभिxxx अथवा मोहान्त राया दोषाः । (प्रा. मी. मान से स्थित भी रहता है, उसे द्रवशील कहा वसु. व. ४)।
जाता है। १ स्व-परपरिणाम जनित प्रज्ञान प्रादि दोष कह- द्रविक-द्रविका नाम राग-द्वेषविनिर्मुक्ता, द्रवः लाते हैं।
संयमः सप्तदशविधान: कर्मकाठिन्यद्रवणकारित्वातदोष (वन्दनादोष)-जह वेलबगलिंगं जाणंतस्स विलयहेतुत्वात्, स येषां विद्यते ते द्रविकाः । नमो हवाइ दोषो । निद्धंधसमिय नाऊण वंदमाणे (प्राचारा. शी.. १, ७, ५८, पृ.७०)। धुवो दोसो।। (प्राव. नि. ११३७)।
कर्म की कठिनता को विलीन करने के कारण विदूषक मादि विडम्बकों के द्वारा धारण किये गये सत्तरह प्रकार के संयम को द्रव कहा जाता है। साषु के वेष को जानते हुए भी नमस्कार करना इस द्रव के धारक-राग-द्वेष से रहित-जीवों का तथा इसी प्रकार निर्लज्ज पार्श्वस्थ मादि को भी नाम द्रविक है। मानते हुए वन्दना करना, यह वन्दना का दोष है। द्रव्य-१. अपरिच्चत्तसहायेणुप्पादव्वय-धुवत्तसंबद्ध। दोषज दुःख-दोषजं वात-पित्त-कफवैषम्यसम्भू- गुणवं च सपज्जायं जं तं दव्व त्ति वुच्चंति ।। (प्रव. तम् । (नीतिवा. ६-२१, पृ.७३)।
सा. २-३)। २. दवियदि गच्छदि ताई ताई सब्भावात, पित्त और कफ की विषमता से उत्पन्न होने वपज्जयाई जं। दवियं तं भण्णते अणण्णभूदंतु वाले दुख को दोषज दुःख कहते हैं।
सत्तादो ॥ दब्वं सल्लक्खणियं उप्पादन्वय-धुवत्तअति-१. शरीर-वसनाभरणादिदीप्तिः द्युतिः । संजुत्तं । गुण-पज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ।। (स. सि. ४-२०; त. वा. ४, २०, ४; त. श्लो. (पंचा. का. ६-१०) । ३. सद् द्रव्यलक्षणम् । (त. ४-२०) । २. द्युतिः शरीराभरणादिदीप्तिः । सू. ५-२६); गुण-पर्ययवद् द्रव्यम् । (त. सू. ५, (प्रौपपा. अभय. वृ. ३८, पृ. ८७)। ३. द्युतिः ३८)। ४. गुणर्दोष्यते गुणान् द्रोष्यतीति वा द्रव्यम् । शरीराभरणादिप्रभा। (प. बि. ७-८, पृ.८७)। (स. सि. १-५) । ५. तदुभयं (गुण पर्यायाः) यत्र ४. शरीर-वस्त्राभरणादीनां द्युतिर्दीप्तिः । (त. वृत्ति विद्यते तद् द्रव्यम् । गुण-पर्याया अस्य सन्त्यस्मिन् वा श्रुत. ४-२०)।
सन्तीति गुण-पर्यययवत् । (त. भा. ५-३७) । १ शरीर, वस्त्र और प्राभूषण प्रादि को दीप्ति को ६. नयोक्नयकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः । युति कहते हैं।
अविभ्राड्भावसम्बन्धो द्रव्यमेकमनेकधा ।। (प्रा. मी. द्यूत-प्रक्षपासादिनिक्षिप्तं वित्ताज्जय-पराजयम् । १०७)। ७. गुणाणमासमो दव्वं । (उत्तरा. २८, क्रियायां विद्यते यत्र सर्व द्यतमिति स्मृतम् ।। (लाटी- ६)। ८. दव्वं पज्जवविउयं दवविउत्ता य पज्जवा सं.२-११४) ।
त्थि । उप्पाय-ठिइ-भंगा हंदि दविलक्खणं एमं ॥ जिस क्रिया में चौसर के पांसे प्रादि पर निक्षिप्त (सन्मति. १२)। ६. ऋते द्रव्यान्न पर्याया द्रव्यं धन से जय-पराजय होता है उसे द्यूत कहते हैं। बा पर्ययविना। स्थित्युत्पत्तिनिरोधोऽयं द्रव्यलक्षणद्रव-रात्रिचतुःप्रहरैः प्रक्लिन्नप्रोदनो द्रव उच्यते। मुच्यते ॥ (वरांग. २६-५५)। १०. द्रोष्यते (त. वृत्ति श्रुत. ७-३५)
गम्यते गुणोष्यति गमिष्यति गुणानिति वा द्रव्यम् । रात्रि के चार प्रहरों में पकाये गये भात को द्रव .xxx अनागतपरिणामविशेष प्रति गृहाताभिकहा जाता है।
..
मख्यं द्रव्यम्-यभाविपरिणामप्राप्ति प्रति योग्य
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्य ]
तामादधानं तद् द्रव्यमित्युच्यते । (त. वा. १, ५, ३); इर्यात पर्यायानयंते वा तरित्यर्थी द्रव्यम् । (त. वा. १, १७, १); स्वपर्यायान् द्रवति द्रूयते वा तैरिति द्रव्यम् । (त. वा. १, २६, १); स्व-परप्रत्ययोत्पाद- विगमपर्यायः द्र्यन्ते द्रवन्ति वा तानीति द्रव्याणि । (त. वा. ५, २, १) । ११. ××× द्रव्यमेकान्वयानुगम् ॥ XXX निश्चयात्मकम् × × × । ( लघीय. ६६-६७ ) । ११. अद्रवद् द्रवति द्रोष्यत्येकानेकं स्वपर्ययम् । ( न्यायवि. ११४) । १३. तदेकान्तानां विपक्षोपेक्षालक्षणानां त्रिकालविषयाणां समितिर्द्रव्यम् । (अष्टश. १०७) । १४. द्रवति द्रोष्यति प्रदुद्रवदिति वा द्रव्यम् । (लघीय. स्वो वृ. २- ३० ) । १५. अनादिनिधनं द्रव्यमुत्पित्सु स्थास्तु नश्वरम् ॥ स्वतोऽन्यतो विवर्तेत क्रमाद्धेतु-फलात्मना । (सिद्धिवि. ३ - १६, पृ. २१०, पं. ८-९ ) । १३. गुणपर्ययवद् द्रव्यम् XXX | ( न्यायविं. १ - ११५; प्रमाणसं. स्वो. वू. ५६) । १७. द्रोष्यत्यदुद्रुवत्तांस्ता न् पर्यायानिति द्रव्यम् । ( धव. पु. १, पृ. ८३ ) ; द्रवति द्रोष्यति प्रदुदुवत् पर्यायानिति द्रव्यम् । अथवा द्रूयते द्रोष्यते अद्रावि पर्याय इति द्रव्यम् । (धव. पु. ३, पृ. २); ' उप्पाद - द्विदि-भंगा हंदि दवियलक्खणं' इक्चारिवादोत्ति । ( षव. पु. ४, पृ. ३३६); स्वकासाधारणलक्षणा परित्यागेन द्रव्यान्तरासाधारणलक्षणपरिहारेण द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रुवत् तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यम् । (घब. पु. १५, पृ. ३३) । १८. द्रवति गच्छति तांस्तान् पर्यायान्, द्रूयते गम्यते तैस्तैः पर्यायैरिति वा द्रव्यम् । (जयष १, पृ. २११ ) ; तिकालगोयराणंतपज्जयायं समुचमो अजहउत्तिलक्खणो घम्मी, तं चैव दव्वं । ( जयध. १, पृ. २८६ ) । १६. द्रवति मच्छति तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यम् । XX X द्रव्यलक्षणं चेदम् - भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तद् द्रव्यं तत्त्वज्ञेः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥ (अनुयो. हरि वृ. पृ. ८ उद्; भाव मलय. व. पृ. ६उद्.) । २०. स्व-परप्रत्ययोत्पाद- विगमपर्याययन्ते द्रवन्ति वा तानीति द्रव्याणि । (त. इलो. ५, २ ) । २१. द्रव्यस्य लक्षणं गुण-पर्ययवत्त्वम् । (प्रष्टस. ७१, पृ. २२८ ) ; ततः सूक्तम् - त्रिकाल - वर्तनयोपनयविषयपर्यायविशेषसमूहो द्रव्यमेकाने
५४४, जैन- खक्षणावली
[ द्रव्य
कात्मकं जात्यन्तरं वस्त्विति (प्रष्टस. १०७, पृ. २० ) । २२. समुत्पाद-व्यय घ्रौव्यलक्षणं क्षीणकल्मषाः । गुण- पर्ययवद् द्रव्यं वदन्ति जिनपुङ्गवाः ।। (त. सा. ५- १२१) । २३. द्रवति गच्छति सामान्यरूपेण व्याप्नोति तांस्तान् क्रमभुवः सहभुवश्च सद्भावपर्यायान् स्वभावविशेषानित्यनुगतार्थया निरुक्त्या द्रव्यं व्याख्यातम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. 2); सद्द्रव्यलक्षणमुक्तलक्षणायाः सत्ताया अविशेषाद् द्रव्यस्य सत्स्वरूपमेव लक्षणम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १० ) ; द्रव्यं हि गुणानां समुदाय: । (पंचा. का. अमृत. वृ. ४४ ) । २४. निजनिजप्रदेशसमूहैरखण्डवृत्त्यास्वभाव - विभाव पर्यायान् द्रबति द्रोष्यति प्रदुदुवदिति द्रव्यम् । ( श्रालापप., पृ. १४०)। २५. दवदि दविस्सदि दविदं जं सब्भावे हि विविपज्जाए । ( द्रव्यस्व. ३६) । २६. द्रूयते गुणपर्यायैर्यद्यद् द्रवति तानथ । तद् द्रव्यं X X X॥ (योगशा. २ - ५ ) । २७. द्रव्यं पूर्वोत्तरविवर्तवयंस्वयप्रत्ययसमधिगम्यम् ऊर्ध्वतः सामान्यम् । (न्यायकु. १-५, पृ. ११७ ) । २८. यत्र सद्भिराधीयमाना गुणा संक्रामन्ति तद् द्रव्यम् । (नौतिबा ५-४१, पृ. ५७) । २६. शुद्धगुण पर्यायाधारभूतं शुद्धात्मद्रव्यं द्रव्यम् । ( प्रव. सा. जय. वृ. २-२३) । ३०. अवस्थान्तरं द्रवति गच्छतीति द्रव्यम् । श्रा. मी. वसु. बु. १०) । ३१. स्थित्युत्पत्ति व्ययात्मा द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रुवत् । स्वपर्यायानिति द्रव्यमर्थस्तान् तान् विवक्षितान् ॥ गुणपर्ययवद्द्रव्यं स्याद् XX X॥ (प्राचा. सा. ३, ७-८ ) । ३२. तत्र द्रव्यमन्वयिरूपम् । ( धर्मसं. मलय. वू. पृ. ३३८ ) ; अत्वयि - रूपमिह द्रव्यमुच्यते । ( धर्मसं. मलय. वू., पृ. ३४१) । ३३. द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रुवदिति द्रव्यम् । ( लघीय. अभय. वृ., पृ. ५) । ३४. दूयन्ते गम्यन्ते प्राप्यन्ते यथास्वं यथायथं यथात्मीयं पर्यायेर्यानि तानि द्रव्याणि, द्रवन्ति वा पर्यायः प्रवर्तन्ते यानि तानि द्रव्याणि । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२ ) । ३५. गुणपर्ययवद् द्रव्यं लक्षणमेतत् सुसिद्धमविरुद्धम् । गुणपर्ययसमुदायो द्रव्यं पुनरस्य भवति वाक्यार्थः ॥ गुणसमुदायो द्रव्यं लक्षणमेतावताऽप्युशन्ति बुधाः । समगुणपर्यायो वा द्रव्यं कैश्चिन्निरूप्यते वृद्धः ॥ ( पंचाध्या. १, ७२-७३) । ३६. गुण पर्ययवद् द्रव्यं विगमोत्पाद- ध्रुवत्वबच्चापि । सल्लक्षणमिति
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यकरण]] ५४५, जैन-लक्षणावली
[द्रव्यकाल च स्याद् द्वाभ्यामेकेन वस्तु लक्ष्येद्वा ॥ (अध्यात्मक. ज्ञोऽनुपयुक्तस्तच्छरीरं वा द्रव्यकायोत्सर्गः। (मूला. २-५)।
वसु. ७. ७-१५१) । २. सावद्यद्रव्यसेवनद्वारेणा१ जो अपने स्वभाव को न छोड़ता हा उत्पाद, गतातीचारनिहरणाय कायोत्सर्गः, कायोत्सर्गव्याव्यय और प्रौव्य से सम्बद्ध रहकर गुण और पर्याय वर्णनीयप्राभृतज्ञोऽनुपयुक्त स्तच्छरीरं भाविजीवस्तद्से सहित होता है, उसे द्रव्य कहते हैं। ६ नय और व्यतिरिक्तो वा द्रव्यकायोत्सर्गः । (मन. घ. स्वो. उपनय के जो त्रिकालविषयक एकान्त हैं उनके टी. ८-७०)। समदाय का नाम द्रव्य है, इसे वस्तु भी कहा जाता १ जो कायोत्सर्ग के वर्णन करने वाले प्राभत का ज्ञाता है । ७ जो गुगों का आश्रय होता है उसे द्रव्य कहा हो करके वर्तमान में उसके उपयोग से रहित है ऐसे जाता है।
जीव को, अथवा उसके शरीर को द्रव्यकायोत्सर्ग द्रव्यकरण-१. द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्यनिमित्तं वो कहते हैं । करणम्-अनुष्ठानं द्रव्यकरणम् । (सूत्रकृ. नि. शी. द्रव्यकारक-द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्य भूतो वा कारको वृ. १, ५, पृ. ३) । २. द्रव्य-य द्रव्येण द्रव्ये वा द्रव्यकारकः । (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. ४)।। करणं द्रव्यकरणमिति । (प्राव. भा. मलय. बु. द्रव्य के, द्रव्य के द्वारा अथवा द्रव्यस्वरूप कारक को १५३, पृ. ५५८)।
द्रव्यकारक कहते हैं। १ द्रब्य का द्रव्य के द्वारा या द्रव्य के निमित्त अनु- द्रव्यकाल-१. चेयणमचेयणस्स व दव्वस्स ठिइ उ ष्ठान करने को द्रव्यकरण कहते हैं।
जा च उविगप्पा। सा होइ दव्वकालो प्रहवा दवियं द्रव्यकर्म-१. जाणि दवाणि सब्मावकिरिया- तु तं चेव ॥ (प्राव. नि. ६६१)। २. दव्वस्स णिफण्णाणि तं सव्वं दव्वकम्मं णाम। (घटखं. ५, वत्तणा जा स दव्वकालो तदेव वा दव्वं । न हि ४, १५-धव. पु. १३, पृ. ४३) । २. पोग्गलपिंडो वत्तणाविभिण्णं जम्हा दव्वं जमोऽभिहिमं ॥ दव्वं (कम्म)xxx॥ (गो. क. ६)। सुत्ते जीवाजीवा समयाऽऽवलियादो पच्चंति । १ जो द्रव्य स्वभावत: सद्भावक्रिया से निष्पन्न हैं, दव्वं पुण सामन्नं भण्णइ दब्वट्ठयामेत्तं ॥ (विशेषा. इस सबको द्रव्यकर्म कहा जाता है। जीव का जो २५२५-२६)। ३. वर्तनादिलक्षणो द्रव्यकालः । ज्ञान-दर्शनस्वरूप से परिणमन है, यह जीवद्रव्य की। (प्राव. नि. हरि. वृ. ६६०, पृ. २५७)। ४. 'द्रव्य' इति सद्भावक्रिया है, पुदगल का जो वर्ण रसादिरूप वर्तनादिलक्षणो वाच्यःxxxतत्र चेतनस्य सूरापरिणमन है, यह पुद्गलद्रव्य की सद्भावक्रिया है। देव्यस्य अचेतनस्य स्कन्धादेव्यस्य या स्थिति:-या इसी प्रकार धर्मादि द्रव्यों की भी सद्भावक्रिया अवस्था चतुर्विकल्पा-चतुर्भङ्गा-सा द्रव्यकालो जानना चाहिए। २ द्रव्य और भाव के भेद से भवति, द्रव्यस्य कालो द्रव्यकाल इति षष्ठीतत्पुरुषो कर्म दो प्रकार का है। उनमें ज्ञानावरणादि रूप से भेदे, अथवा तदेव सुरादिद्रव्यं काल उच्यते, पर्यायपरिणत पुद्गल पिण्ड को द्रव्यकर्म कहा जाता है। पर्यायिणोरभेदोपचारात् ।xxxद्रवतीति द्रव्यम्, द्रव्यकाय-द्रव्यकायो ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरि. तस्य द्रव्यस्य या वर्तना दब्धकालो-सा द्रव्यकालो क्तः, शरीरत्वयोग्या प्रगृहीतास्तत्स्वामिना वा जीवेन भण्यते । वा-अथवा तदेव द्रव्यं कालो द्रव्यकाल मुक्ता यावत् तं परिणामं न मुञ्चन्ति ताबद् द्रव्य- इति कर्मधारयः समासः। xxx जीवाजीवा: कायः । (प्राव. सू. १, मलय. व. पृ. ५५७)। समयादयोऽभिधीयन्ते, जीवादय: काल उच्यते इत्यर्थज्ञायकशरीर और भव्यशरीर से व्यतिरिक्त द्रव्य- स्तस्माद् द्रव्यमेव कालो द्रव्यकाल इति । (विशेषा. काय कहलाता है । शरीर के योग्य प्रगृहीत अथवा भा. को. व. २५२८-२६, पृ. ६०६-७)। उसके स्वामी जीव के द्वारा छोड़े गये पुद्गलस्कन्ध १ चेतन-प्रचेतन द्रव्य की जो चार भंग (सादिजब तक उस परिणाम (अवस्था) को नहीं छोड़ते सपर्यवसान, सादि-प्रपर्यवसान, अनादि-अपर्यवसान हैं तब तक उन्हें द्रव्यकाय कहा जाता है।
व अनादि-सपर्यवसान) रूप-स्थिति है, उसे द्रव्यकाल द्रव्यकायोत्सर्ग-१. कायोत्सर्गव्यावर्णनीयप्राभृत- (अध्य का काल) कहा जाता है।
ल. ६६
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यकीत]
५४६, जैन-लक्षणावली
[द्रव्यतः इन्द्रियविवेक
द्रव्यक्रोत-सचित्तं गो-वलीवादिकं दत्त्वा संय. एण तीदाणागय-वट्टमाणसरीराणं दव्वजिणत्तं पडि. तार्थ क्रीतम्, अचित्तं वा घृत-गुड-खण्डादिकं दत्त्वा विरोहाभावादो (जिणाहारपज्जाएण तीदाणागदक्रीतं (वेश्म) द्रव्यक्रीतम् । (भ. प्रा. २३०; वट्टमाणसरीरा दव्वजिणा) । (धव. पु. ६, पृ. ७)। कातिके. टी. ४४८-४६)।
२. दव्व जिणा जिणजीवा xxx ॥ (चैत्यवन्दसचित्त गाय-बैल आदि को देकर अथवा प्रचित्त घी, गुड एवं खांड प्रादि को देकर ग्रहण की गई वसति- १ जिनकी प्राधारभूत पर्याय के प्राश्रय से प्रतीत, का द्रव्य क्रीत नामक उद्गम दोष से दूषित होती है। अनागत और वर्तमान शरीर को द्रव्यजिन कहा द्रव्यक्रोध-दव्वकोहो णाम भावकोप्पत्तिणिमित्त जाता है। २ जिन जीवों-तीथंकरों (समवसर. दव्वं । (धव. पु. ७, पृ. ८२) ।
णस्थ तीर्थकर को छोड़कर)-को द्रव्यजिन भावकोष की उत्पत्ति के कारणभत द्रव्य को द्रव्य- कहते हैं। क्रोध कहते हैं।
द्रव्यजीव-१. यथेन्द्रार्थमानीतं काष्ठमिन्द्रप्रतिमाद्रव्यगत पिण्डदोष-द्रव्यमूदगमादिदोषसहितमप्य. पर्यायप्राप्ति प्रत्यभिमुखम् इन्द्रः इत्युच्यते तथा धःकर्मणा युक्तं द्रव्यगतमित्युच्यते । (मूला. वृ. जीव-सम्यग्दर्शनपर्यायप्राप्ति प्रति गृहीताभिमुख्यं ६-६६)।
द्रव्यं द्रव्यजीवो द्रव्यसम्यग्दर्शन मिति चोच्यते । (त. उद्गमादि दोषसहित भी अध:कर्म से युक्त भोज्य- वा. १, ५, ४)। २. द्रव्यं तद्गुणवियुक्तः । पदार्थ द्रव्यगत पिण्डदोष (आहारदोष) से दूषित xxx विवक्षया ज्ञानादिगुणवियुक्तत्वं द्रव्यहोता है।
जीवः । (त. भा. हरि. व. १-५)। ३. द्रव्यजीवो द्रव्यगत स्वभाव-बाह्यतरोपाधिसमग्रतेयं कार्येष नाम योऽयमस्मिन् शरीर प्रात्मा स यदा भावेते द्रव्यगतः स्वभावः । (बृहत्स्व. स्तो. ६०)। निादिभिवियुतो विवक्ष्यते स द्रव्यजीवः । (त. भा. कार्यों के विषय में अन्तरंग और बहिरंग कारणों सिद्ध.बु. १-५)। की पूर्णता को द्रव्यगत स्वभाव कहा जाता है। १ जीवनपर्याय (मनुष्यादिविशेषरूप) की प्राप्ति द्रव्यचविशति-द्रव्यचतुर्विशतिश्चतुर्विंशतिर्द्रव्या. के प्रति अभिमुख द्रव्य को द्रव्यजीव और सम्यग्दणि, सचित्ताचित्त-मिश्रभेदभिन्नानि । (प्राव. भा. र्शनपर्याय की प्राप्ति के अभिमुख द्रव्य को द्रव्यमलय. व. १६२, पृ. ५८६)।
सम्यग्दर्शन कहा जाता है। २ विवक्षावश ज्ञानादिसचित्त, अचित्त और मिश्ररूप चौबीस द्रव्यों को गणों की वियुक्तता का नाम द्रव्यजीव है । द्रव्यचतुविशति कहते हैं।
द्रव्यज्ञान-तथा द्रव्यज्ञानमनुपयुक्ततावस्था । (त. द्रव्यचारित्र-द्रव्यचारित्रमभब्यस्य भव्यस्य वाऽनु- भा. सिद्ध. वृ. १-५)। पयुक्तस्य । (त. भा. सिद्ध. व. १-५)।
ज्ञान की उपयोग रहित अवस्था को द्रव्यज्ञान प्रभव्य अथवा भव्य के उपयोग से रहित चारित्र को कहते हैं। द्रव्यचारित्र कहा जाता है ।
द्रव्यतः इन्द्रियविवेक-१. रूपादिविषये चक्षरादीद्रब्यच्छेदना-दवियं णाम उप्पाद-दिदि-भंगलक्ख- नामादरेण कोपेन वा अप्रवर्तनम् इदं पश्यामि णं तं पि छेदणा होदि, दव्वादो दब्वंतरस्स परिच्छेद- शृणोमि वा, तथा तस्या निविड़कुचतटं पश्यामि, दसणादो । (धव. पु. १४, पृ. ४३५)।
नितम्बरोमराजिबा विलोक यामि, पृथुतरं जघनं द्रव्य का लक्षण उत्पाद, स्थिति और भंग (व्यय) स्पृशामि, कल गीतं सावधानं शृणोमि, मुख-कमलहै। इस प्रकार का द्रव्य भी छेदनारूप है, क्योंकि परिमलं जिघ्रामि, बिम्बाधरमास्वादयामि इति एक द्रव्य (कुडव-धान्य के नापने का एक माप) वचनानुच्चारणं वा द्रव्यतः इन्द्रियविवेकः। (भ. से दूसरे द्रव्य (धान्य) का छेद-प्रमाण का ज्ञान प्रा. विजयो., पृ. १६८)। २. रूपादिषु चक्षुरादीनां होता देखा जाता है।
रागेण द्वेषेण वा अप्रवर्तनमिदं पश्यामीत्यादिरूपेणाद्रव्यजिन-१. घणुहसहचारपज्जाएण तीदाणागय- न्तर्विकल्पेन वाग्व्यापारेण वा द्रव्यतः इन्द्रियविवेकः । वट्टमाणमणुगाणं धणुहववएसो व्व जिणाहारपज्जा. (भ. प्रा. मला., पृ. १६८)।
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यतः क्रमोत्तर] ५४७, जैन-लक्षणावली
[द्रव्यद्रव्य १रूप-रसादिरूप इन्द्रिय विषयों में प्रादर (राग) नहीं है। यही द्रव्यतः न भावतः हिंसा कहलाती है। से अथवा कोप (द्वेष) के वश प्रवृत्त न होना, इसे द्रव्यतीर्थ-१. दाहोपसमण तहाछेदो मलपंकपद्रव्यतः इन्द्रियविवेक कहते हैं अथवा इसे देखता वहणं चेव । तिहिं कारण हिं जुत्तो तम्हा तं दव्वदो हूं, उसे सुनता हूं, उस स्त्री के कुचों को देखता हूं, तित्थं ।। (मूला. ७-६२)। २. द्रव्यतीर्थ तीर्थकृतां अथवा नितम्बगत रोमपंक्ति को देखता हं, इत्यादि जन्म-दीक्षा-ज्ञान-निर्वाण-स्थानम् । यदाह-जम्म रूप से वचन का उच्चारण न करना; इसे द्रव्यतः दिक्खा णाणं तित्थयराणं महाणुभावाणं। जत्थ य इन्द्रियविवेक जानना चाहिए।
किर निव्वाणं पागाढं दसणं होई । (योगशा. स्वो. द्रव्यतः क्रमोत्तर-तत्र द्रव्यत: परमाणोद्विप्रदे- विव. २-१६)।। शिकः ततोऽपि त्रिप्रदेशिकः एवं यावदन्तोऽनन्तप्रदे- १सन्ताप की शान्ति, तुष्णा का विनाश और मल. शिकः स्कन्धः। (उत्तरा. नि. शा.व. १.१, पृ. ४)। रूप कीचड़ का दूर करना; इन तीन कारणों से परमाण की अपेक्षा द्विप्रदेशी स्कन्ध, उसकी अपेक्षा जो युक्त है-उनका कारण है-उसे व्यती त्रिप्रदेशी स्कन्ध, इस प्रकार अन्तिम अनन्तप्रदेशी कहते हैं। २ तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, ज्ञान और स्कन्ध तक उत्तरोत्तर बढ़ते हुए स्कन्धों को द्रव्यतः निर्वाण स्थानों को द्रव्यतीर्थ कहा जाता है। क्रमोत्तर कहते हैं।
द्रव्यदिक्-तेरसपएसियं खलु तावइएसं भवे पएद्रव्यतः लोभविवेक-द्रव्यतो लोभविवेको यत्रास्य सेसुं । जं दध्वं प्रोगाढं जहण्णयं तं दसदिसागं ।। लोभस्तदुद्दिश्य कराप्रसारणादिकः कायेन, ममेद- (प्राचारा. नि. ४१. पृ. १२) । मित्याद्यवचनं वाचा । (भ. प्रा. मला., १६८)। प्रागम और नोमागम के भेद से द्रव्यदिक दो प्रकार जिस वस्तु के विषय में इसे लोभ है उसको लक्ष्य की है। उनमें दिशानिरूपक प्रागम का ज्ञाता होकर बनाकर हाथ फैलाने मादिरूप काय से प्रवत्ति नहीं जो जीव वर्तमान में तद्विषयक उपयोग से रहित करना तथा 'यह मेरा है' इत्यादि प्रकार से वचन है उसे पागम द्रव्यदिक कहते हैं। जायकारी का उच्चारण न करना, उसे द्रव्यतः लोभविवेक और भव्यशरीर से भिन्न जो तेरह प्रदेशी व्य कहा जाता है।
तेरह प्रदेशवाले क्षेत्र में स्थित है वह नोमागम की द्रव्यतः न भावतः (हिंसा)-या पुनद्रव्यतो न अपेक्षा द्रव्यदिक् कहलाती है। वह दस दिशानों भावतः सा खल्बीर्यादिसमितस्य साधोः कारणे का विभाग करनेवाली है। गच्छत इति । उक्तं च-उच्चालिमम्मि पाए द्रव्यद्रव्य-१. द्रव्यद्रव्यं नाम गुण-पर्यायवियक्तं इरियासमिअस्स संकमट्राए। वावज्जेज कूलिंगी प्रज्ञास्थापितं धर्मादीनामन्यतमत् । केचिदप्याहःमरिज्ज तं जोग्गमासज्जा ।। न य तस्स तपिण- यद् द्रव्यतो द्रव्यं भवति तच्च पूदगल द्रव्यमेवेति मित्तो बंधो सूहमो वि देसिप्रो समए । जम्हा सो प्रत्येतव्यम् । प्रणवः स्कन्धाश्च, सजातभेदेश्य उत्प. अपमत्तो सा य पमानो त्ति निद्दिट्टा ॥ (दशवं. नि. धन्त इति वक्ष्यामः । (त. भा.१-५)। २. व्य. हरि. वृ. ४५)।
द्रव्यमिति उभाभ्यां द्रव्यशब्दाभ्यां गुणादिभ्यो ईर्यासमिति से युक्त साधु जब कारणवश कहीं अन्यत्र निष्कृष्य द्रव्यमाने स्थाप्यते । xxx केचित जाता है तब वह पैरों को जो उठाता धरता है पुनवते यदित्यणुकादि द्रव्यतो द्रव्यमिति । ततीया उसके प्राश्रय से द्वीन्द्रिय प्रादि क्षुद्र प्राणियों का पञ्चम्यर्थे वा तसिरुत्पाद्यः-द्रव्यः सम्भय यत मरण सम्भव है, फिर भी उसके प्राश्रय से उसे सूक्ष्म क्रियते, यथा बहुभिः परमाणुभिः सम्भूय स्कन्धस्त्रिबन्ध भी पागम में नहीं कहा गया, कारण इसका प्रदेशिकादिरारभ्यते तद् द्रव्यद्रव्यम् । अथवा यद यह है कि वह प्रमाद से रहित है, अर्थात जीवरक्षा द्रव्यात् तस्मादेव स्कन्धात् त्रिप्रदेशिकादेर्यदैकः परमें सावधान है, और प्राणिहिंसा जो होती है वह माणुः पृथग्भूतो भवति तदा तस्माद् भिद्यमानात प्रमाद से ही हुआ करती है । इस प्रकार उक्त साधु त्रिप्रदेशिकात् स्कन्धात् परमाणुश्च निष्पद्यते वि. के द्वारा जीवहिंसा (द्रव्यतः) के होने पर भी प्रदेशिकश्च स्कन्ध इति स परमाणुरपि द्रव्यद्रव्यं वैसा भाव न होने से वस्तुत: (भावतः) हिंसा द्विप्रदेशिकोऽपि द्रव्यद्रव्यं भवतीति । तच्चतद द्रव्य.
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यधर्म] ५४८, जैन-लक्षणावली
[द्रव्यनिर्जरा द्रव्यं पुद्गलमेव भवतीति प्रत्येतव्यम् । (त. भा. १ 'उसके लिए नमस्कार हो' इत्यादि शब्दों का सिद्ध. ७.१-५, प. ४६-५०)।
उच्चारण करना, मस्तक का झकाना और हाथों १ गण और पर्याय से विहीन बद्धि में स्थापित की अंजलिका बांधना-हाथों का जोड़ना, यह धर्माधर्मादिकों में से किसी एक को द्रव्यद्रव्य कहा द्रव्यनमस्कार कहलाता है। जाता है। किन्हीं प्राचार्यों के मत से द्रव्य-द्रव्य- द्रव्यनिक्षेप-१. अनागतपरिणामविशेष प्रति द्रव्य से द्रव्य-संघात और भेदके कारण पुद्गल गृहीताभिमुख्यं द्रव्यम् । (लघीय. स्वो. ७६, प. द्रव्य ही होता है।
७९६) । २. यत्स्वतोऽभिमुखं वस्तु भविष्यत्ययं यं द्रव्यधर्म-१. सचित्तेतरभेदस्स होइ दव्वस्स जो प्रति । तद् द्रव्यं द्विविधं ज्ञेयमागमेत रभेदतः ॥ (त. खलू सहावो। एसो उ दव्वधम्मोऽणवउत्तस्सऽहव श्लो. १, ५, ६०, प. १११)। ३. भाविनः परिसुयमादी । (धर्मसं. ३०)। २. द्रव्यस्य-अनुप- णामस्य यत्प्राप्ति प्रति कस्यचित् । स्याद् गृहीताभियुक्तस्य-धर्मो मूलोत्तरगुणानुष्ठानं द्रव्यधर्मः । मुख्यं हि तद् द्रव्यं ब्रुवते जिनाः।। (त. सा. १-१२)। इहानुपयुक्तो द्रव्यम् ; 'अनुपयोगो द्रव्यम्' इति वच. ४. विवक्षितासाम्प्रतिकपर्यायविशेषस्थितिव्यनिक्षे. आत् । द्रव्यमेव वा धर्मो द्रव्यधर्मः-धर्मास्तिकायः, पः। (सिद्धिवि. व. १२-२, पृ. ७३६, पं. १३) । xxx तिक्तादि द्रव्यस्य स्वभावो द्रव्यधर्मः। ५. प्रागामिगुणयोग्योऽथों द्रव्यन्यासस्य गोचरः। xxx गम्यादिधर्मः स्त्रीविषयो द्रव्यधर्मः। तत्र (उपासका. ८२७) । ६. द्रव्यं भविष्यत्पर्यायं गताकेषांचित् मातुलदुहिता गम्या, केषांचिदगम्येत्यादिः। पितविवति च। (प्राचा. सा. ६-७)। ७. गण(प्राव. नि. मलय. व. १०७५)।
द्रुतं गतं प्राप्तं द्रव्यम्, गुणान् वा द्रुतं गतं प्राप्त १ सचित्त-चेतन मनुष्य प्रादि-और अचित्त- द्रव्यम्, गुणोष्यते द्रव्यम्, गुणान् द्रोष्यतीति द्रव्यम् । धर्मास्तिकायादि-द्रव्यों के निज स्वभाव को द्रव्य- (त. वृत्ति श्रुत. १-५)। ८. वर्तमानतत्पर्यायाधर्म कहते हैं। प्रथवा अनुपयुक्त-तत्तद्विषयक दन्यद्व्य म् । (परमा. त. १-६)। उपयोग से रहित-जीव का जो श्रुत प्रादि है उसे १ जो भावी परिणामविशेष (पर्याय) की प्राप्ति द्रव्यधर्म जानना चाहिए।
के प्रति अभिमुख हो-उसकी योग्यता को धारण द्रव्यनपुंसक-१. नपुंसकवेदोदययुक्ताङ्गोपाङ्गनाम- करता हो-उसे द्रव्यनिक्षेप कहते हैं ।
यात स्मश्र कूर्च-स्तन-योन्यादिलिंगाभाववि- द्रव्यनिबन्धन-निबध्यते तदस्मिन्निति निबन्धनमा शिष्टदेहं द्रव्यनपंसकं भवति । (गो. जी. म. प्र. जं दव्वं जम्हि णिबद्ध तं णिबंधणं ति भणिदं होदि २७१)। २. नपुंसकवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदय- XXX ज दव्वं जाणि दवाणि अस्सिदूण परि. युक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयेन उभयलिङ्गव्यतिरिक्त. णमदि, जस्स वा दव्वस्स सहावो दव्वंतरपडिबद्धो देहाङ्कितो भवप्रथमसमयमादि कृत्वा तद्भवचरम- तं दव्बणिबंधणं । (धव. पु.१५, पृ.१-२) । समयपर्यन्तं द्रव्यनपुंसकजीवो भवति । (गो. जी. जी. जो द्रव्य जिन द्रव्यों का प्राश्रय लेकर परिणमता है. प्र. २७१)।
अथवा जिस द्रव्य का स्वभाव द्रव्यान्तर से सम्बद्ध १ नपंसक वेद के उदय के साथ अंगोपांगनामकर्म के है उसका नाम द्रव्यनिबन्धन है। उदय से स्मधु, कूर्च, स्तन पौर योनि प्रादि द्रव्यनिद्रा-तत्र द्रव्यनिद्रा निद्रावेदो वेदनमनुभवः, चिह्नों से रहित देह को द्रव्यनपुंसक कहते हैं। दर्शनावरणीयविशेषोदय इति यावत् । (सूत्रकृ.नि. द्रव्यनमस्कार-१. नमस्तस्मै इत्यादिशब्दोच्चारणं शी. व. ४२, पृ. ५६)। उत्तमांगावनतिः कृतांजलिता च द्रव्यनमस्कारः। दर्शनावरणीयविशेष के उदय से जो निद्रा का वेदन (भ. प्रा. विजयो. ७२२)। २. वाचा अर्हत्-सिद्ध. या अनुभव होता है उसे द्रव्यनिद्रा कहते हैं। प्रमुखपरमेष्ठिस्वरूपशुद्धपरमात्मद्रव्यबस्तुस्तवगुणस्त
द्रव्यनिर्जरा-१. द्रव्यनिर्जरा नाम गृहीतानामवनगम्भीरोदारार्थविराजमानसकलशब्दब्रह्मबीजभूत- शनपानादिद्रव्याणां एकदेशापगमनं वमनादि नानास्तोत्ररूपः, कायेन पंचागनत्या प्रणमनरूपो द्रव्य- (भ. प्रा. विजयो. १८४७; अन. घ. स्वो. नमस्कारः। मारा. सा. टी. १, पृ. ४)। टी. २-४२)। २. द्रव्यनिर्जरा मोक्षाधिकारशून्या
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यनिर्देश] ५४६, जन-लक्षणावली
[द्रव्यपरिवर्तन ब्रीह्यादीनाम् । (त. भा. सिद्ध. व. १-५, पृ ४६)। द्रव्यनिर्देश जानना चाहिए। ३. तदनुभावनीरसीभूतानामेकदेशसक्षयः समुपात्त- द्रव्यनिविचिकित्सागुरण-भेदाभेदरत्नत्रयाराधककर्मपुद्गलानां द्रव्यनिर्जरा । (पंचा. का. अमृत. व. भव्यजीवानां दुर्गन्धबीभत्सादिकं दृष्ट्वा धर्मबुद्धया १४४) । ४. तस्स कर्मणो गलनं यच्च सा द्रव्य- कारुण्यभावेन वा यथायोग्यं विचिकित्सापरिहरणं निर्जरा। (बृ. द्रव्यसं. ३६)। ५. तेन शुद्धोपयोगेन द्रव्यनिविचिकित्सागुणः । (बृ. द्रव्यसं. ४१)। नीरसीभूतस्य चिरन्तनकर्मण एकदेशगलनं द्रव्यनि- भेद-प्रभेदरूप रत्नत्रय के धारक भव्य जीवों के जरा। (पंचा. का. जय. व. १०८); नस्य शुद्धो- दुर्गन्धित व बीभत्स शरीर प्रादि को देख करके पयोगस्य सामर्थ्यन नीरसीभूतानां पूर्वोपाजितकर्म- धर्मबुद्धि से या करुणाभाव से ग्लानि नहीं करने को पुद्गलानां संवरपूर्वकभावेनैकदेशसंक्षयो द्रव्यनिर्जरा। द्रव्य निविचिकित्सागुण कहते हैं। (पंचा. का. जय. व. १४४)। ६. प्रात्मनो गलनं द्रव्यपक्व-उस्सेइमाइ तं चिय पक्विधणजोगतो द्रव्यकर्मणां द्रव्यनिर्जरा। (प्राचा. सा. ३-३५)। पक्वं ॥ (बृहत्क. नि. १०३४) । ७. पूर्व निबद्धकर्मणां निर्जरणं द्रव्यनिर्जरा । (परमा. जो उत्स्वेदिम, संस्वेदिम, उपस्कृत और पर्यायरूप त. ६-१)। ८. प्रात्मनः शुद्धभावस्य तपसोऽति- प्राम द्रव्य कहे गये हैं। उनको इंधन के संयोग से शयादपि । यः पात: पूर्वबद्धानां कर्मणां द्रव्यनिर्जरा॥ पका लेने पर द्रव्यपक्व कहा जाता है। (जम्बू. च. १३-१२८)। ६. शुद्धादुपयोगादिह द्रव्यपरिवर्तन-देखो कर्मद्रव्यपुद्गलपरिवर्तन व निश्चयतपसश्च सयमादेर्वा । गलति पुरा बद्धं किल नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन। १. अण्णं गिण्हदि देहं तं पण कमषा द्रव्पनिर्जरा गदिता ॥ (अध्यात्मक. ४-१३)। मुत्तण गिण्हदे अण्णं । घडिजतं वय जीवो भमदि १ पक्षण किये गये भोजन-पानादिरूप द्रव्यों का इमो दब्वसंसारे ।। (भ. प्रा. १७७३)। २. णोकम्मवमन-विरेचनादिरूप में एक देश निर्जीर्ण होना, पोग्गलपरियट्टणं कम्मपोग्गलपरियट्टणं च दवपरिइसका नाम द्रव्यनिर्जरा है । २ मोक्ष के अधिकार वट्टणं । (धव. पु. ४, पृ. ३२५) । ३. बंधदि को छोड़कर जो ब्रीहि (धान्यविशेष) प्रादि का मुंचदि जीवो पडिसमयं कम्मपुग्गला विविहा । विनाश होता है, यह द्रव्यनिर्जरा कहलाती है। णोकम्मपुग्गला वि य मिच्छत्त-कसाय३ फलानुभवन के पश्चात् नीरस हुए पूर्वसंचित संजुत्तो।। (कार्तिके. ६७)। ४. द्रव्यसंसारो नाम कर्मरूप पुद्गलों के एकदेश क्षय को द्रव्यनिर्जरा शरीरग्रहण-मोक्षणाभ्यावृत्ति रस कृत् । (भ. मा. कहते हैं।
विजयो. ४४६)। ५. शुद्धात्मद्रव्यादितराणि स द्रव्यनिर्देश-द्रव्यस्यापि त्रिविधस्य सचित्तादेर्य- पूर्वापूर्वमिश्रपुद्गलद्रव्याणि ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मविशिष्टमभिधानं स द्रव्यनिर्देशः। तत्र सचित्त- रूपेण शरीरपोषणार्थाशन-पानादि-पंचेन्द्रियविषयद्रव्यविशेषस्य निर्देशो यथा गौरित्यादि, अचित्त- रूपेण चानन्तवारान् गृहीत्वा विमुक्तानीति द्रव्यद्रव्यविशेषस्य यथाऽयं दण्ड इत्यादि, मिश्रद्रव्यवि- संसारः । (ब. द्रव्यसं. टी. ३५, पृ. ८६)। ६. तत्र शेषस्य यथाऽयं रथोऽश्वयुक्त इत्यादि । तेन सचित्ता- संसरणम्-इतश्चेतश्च परिभ्रमणं संसारः। तत्र विटाविशेषण निर्देशो यथा गोमानित्यादि । (प्राव. संसारशब्दार्थज्ञस्तत्रानुपयुक्तो द्रव्याणां वा जीवनि. मलय. व. १४०)।
पुद्गललक्षणानां यथायोगं भ्रमणं द्रव्यसंसारः । सचित्तादि द्रव्यों का जो विशेषता से युक्त कथन (स्थानां. अभय. व. ४, १, २६१) । ७. नारकादिकिया जाता है उसे द्रव्यनिर्देश कहते हैं। सचित्त शरीराणां ग्रहण-मोक्षणाभ्यामसकृवृत्तिव्यसंसारः। उदय का निर्देश जैसे-'यह गाय है' इत्यादि, इसी (भ. मा. मूला. ४३०)। ८. तावत्स द्रव्यसंसारो पकार प्रचित्त द्रव्यविशेष का निर्देश जैसे-'यह लक्ष्यो सूक्ष्मार्थदर्शिभिः। कर्म-नोकर्मरूपेण पदगला. पर इत्यादि, तथा मिश्र द्रव्यविशेष का निर्देश दानलक्षणः ॥ गृहीताश्चागृहीताश्च मिश्राश्चापि जैसे-'यह घोड़ों से युक्त रथ है' इत्यादि। इस निसर्गतः । विद्यन्ते पुद्गलास्त्रेधा लोकेऽस्मिन निचिप्रकार सचित्त प्रादि द्रव्यविशेष से जो निर्देश किया ताः स्फुटम् ॥ तद्विवक्षितजीवेन ते त्रेधापीह पदगलाः। जाता है-जैसे यह गाय वाला है, इत्यादि, इसे कर्म-नोकर्मभावेन नीत्वा वाराननन्तशः ॥ भक्तो
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यपर्याय ]
५५०,
ज्झिताः पुनश्चापि पुनर्नीत्वा पुनस्तथा । एवं समुदितः सर्वो द्रव्यसंसार उच्यते ॥ ( जम्बू. च. १३, २७-३०) ।
१ प्राणी एक शरीर को ग्रहण करता है, पश्चात् उसे छोड़ अन्य को ग्रहण करता है, फिर उसे भी छोड़ अन्य को ग्रहण करता है। इस प्रकार नरहट की घटिकाओं के समान उत्तरोत्तर पूर्व शरीर को छोड़कर अन्य अन्य शरीर को ग्रहण करता हुआ संसार में जो परिभ्रमण करता है, इसका नाम द्रव्यपरिवर्तन है । ६ इधर उधर परिभ्रमण का नाम संसार है। संसार शब्द के अर्थ का ज्ञाता होकर जो तद्विषयक उपयोग से रहित होता है उसे द्रव्यसंसार कहते हैं, प्रथवा जीव व पुद्गल द्रव्यों का जो यथायोग्य परिभ्रमण होता है उसे द्रव्यसंसार जानना चाहिए। इसे द्रव्यपरिवर्तन भी कहा
जाता है ।
जैन - लक्षणावली
द्रव्यपर्याय - श्रनेकद्रव्यात्मिकाया ऐक्यप्रतिपत्तनिबन्धकारणभूतो द्रव्पर्यायः श्रनेकद्रव्यात्मिकैकयानवत् । (पंचा. का. जय. वृ. १६) ।
अनेक द्रव्यस्वरूप एक यान (नौका श्रादि) के समान अनेक द्रव्यस्वरूप एकताप्रतिपत्ति ( प्रभेदज्ञान ) की कारणभूत पर्याय को द्रव्यपर्याय कहते हैं । वह अचेतन परमाणुत्रों के स्कन्धरूप सजातीय और भवान्तर्गत जीव की शरीरनोकर्मपुद्गल के साथ मनुष्यादि पर्यायस्वरूप असमान जातीय के भेद से दो प्रकार की है । द्रव्यपर्यायार्थिकनगम - १. द्रव्यार्थिकनय विषयं पर्यायार्थिकयविषयं च प्रतिपन्नः द्रव्य-पर्यायार्थिकनैगमः । ( जयध. १, पृ. २४५ ) । २. द्रव्य-पर्यायाfrernaयविषयः नैगमोद्वंदज: । ( धव. पु. ६, पृ. १८१) ।
जो द्रव्याथिक श्रीर पर्यायार्थिक दोनों ही नयों के विषय को ग्रहण करता है उसे द्रव्यपर्यायार्थिक नैगमनय कहते हैं ।
द्रव्यपाप - १. पुद्गलस्य कर्तृनि (अन. 'कर्तु नि') श्चयकर्मतामापन्नोऽविशिष्ट प्रकृतित्वपरिणामो जीवा - शुभपरिणामनिमित्तो द्रव्यपापम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १३२; धन. ध. स्वो टी. २-४०) । २. तन्निमित्तेन ( भावपापनिमित्तेन) क्रसद्वेद्याद्य
[द्रव्यपुद्गलपरावर्त
शुभप्रकृतिरूपः पुद्गल पिण्डो द्रव्यपापम् । (पंचा. का. जय. वृ. १०८ ) ।
जीव के अशुभ परिणाम के निमित्त से जो पुद्गल का विशिष्ट प्रकृतित्वरूप - ज्ञानावरणादि स्वभावरूप - परिणमन होता है उसे द्रव्यपाप कहते हैं । पुद्गल के इस परिणमन का कारण स्वयं पुद्गल है, परन्तु अज्ञानी जीव अपने को उसका कर्ता मान उसमें कर्मता का निश्चय करता है । द्रव्यपापात्रव - तन्निमित्तो ( भावपापास्रवनिमितो) शुभकर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यपापास्रवः । (पंचा. का. अमृत. वृ. १३६) । भावपापात्रव के निमित्त से योगरूप द्वार से प्रविष्ट होते हुए पुद्गलों का जो अशुभ कर्मरूप परिणमन होता है उसे द्रव्यपापात्रव कहते हैं । द्रव्यपुण्य - १. पुद्गलस्य कर्तृ निश्चयकर्मतामापन्नो विशिष्ट प्रकृतित्वपरिणामो जीवशुभपरिणामनिमित्तो द्रव्यपुण्यम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १३२ ) । २. भावपुण्यनिमित्तेनोत्पन्नः सद्वेद्यादिशुभप्रकृतिरूपः पुद्गल परमाणुपिण्डो द्रव्यपुण्यम् । (पंचा. का. जय. वृ. १०८ ) । ३. यावता ( येन कारणेन ) पुद्गलस्य कर्तुर्निश्चयकर्मतामापन्नो विशिष्टप्रकृतित्वपरिणामो जीवशुभपरिणामनिमित्तो द्रव्यपुण्यम् । (न. घ. स्वो. टी. २-४० ) । जीव के शुभ परिणामों के निमित्त से जो पुद्गल का विशिष्ट प्रकृतिरूप परिणमन होता है उसे द्रव्यपुण्य कहते हैं । पुद्गल के इस परिणमन का कारण स्वयं पुद्गल ही है, पर अज्ञानी जीव अपने को उसका कर्ता मान उसमें कर्मता का निश्चय करता है ।
द्रव्यपुण्यास्रव - तन्निमित्त: ( भावपुण्यास्रवनिमित्तः) शुभकर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यपुण्यास्रव: । (पंचा. का. अमृत. वू. १३५) ।
योगरूप द्वार से प्रविष्ट होते हुए पुद्गलों का जो भावपुण्यास्रव के निमित्त से शुभ कर्मरूप परिणमन होता है उसे द्रव्यपुण्यात्रव कहते हैं । द्रव्यपुद्गलपरावर्त - श्रोराल- विउब्वा-तेय कम्म भासाणपाण मणएहि ॥ फासेवि सव्वपोग्गलमुक्का ग्रह वायर परट्टो । श्रहव इमो दव्वाई श्रोरालविउब्व-तेय-कम्मेहिं । नीसेसदव्वगहणंमि बायरो
-
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यपुरुष] ५५१, जैन-लक्षणावली
[द्रव्यप्रतिक्रमण होइ परियट्टो ॥ दम्वे सुहुमपरट्टो जाहे एगेण अह द्रव्यपुलाक-दव्वपुलामो पलंजि भण्णइ । (दशवं. सरीरेणं । फासे वि सम्बपोग्गल अणुक्कमेणं नणु चू. पृ. ३४६)।। गणिज्जा । (प्रव. सारो. १०४१-४३)। पलंजी-भूसा या पुपाल (धान्य के निकाल लेने पर एक जीव ने संसाररूप वन में भटकते हुए अनन्त
शेष रहे सूखे तृणों का समुदाय)-को द्रव्यपुलाक भवों में प्रौदारिक, वैक्रियिक, तेजस, कार्मण, भाषा,
कहते हैं। पानपान और मन इन सात के रूप में समस्त पुद्
द्रव्यपूजा-१. गन्ध-पुष्प-धूपाक्षतादिदानम् अहंदागलों को छकर-उनका उपभोग करके उन्हें
धुद्दिश्य द्रव्यपूजा। (भ. प्रा. विजयो. ४७)। छोड़ा । इस प्रक्रिया में उसका जितना काल व्य
२. वचोविग्रहसंकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । तत्र तीत हुप्रा उत्तने कालविशेष का नाम एक बादर
मानससंकोचो भावपूजा पुरातनः ॥ गन्ध-प्रसून द्रव्यपुदगलपरावर्त है। अथवा मतान्तर के अनसार सान्नाह्य दीपधुपाक्षतादिभिः । क्रियमाणाऽथवा ज्ञेया एक जीव के द्वारा सर्वलोकगत पुदगलों को प्रौदा- द्रव्यपूजा विधानतः ॥ (अमित. श्रा. १२, १२-१३)। रिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्नण इन चार शरीरों ३. दम्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दव्वपूजा के रूप में ग्रहण करके छोड़ देने पर एक बादर सा । (वसु. श्रा. ४४८) । ४. द्रव्यपूजाऽर्हदादीनुद्रव्यपुद्गलपरावर्त होता है। सूक्ष्म द्रव्यपदगल. द्दिश्य गन्धाक्षतादिदानम्। (अन. घ. २-११० परावर्त - कोई एक जीव संसार में परिभ्रमण
भ. प्रा. मला. टी. ७)। ५. सचित्ताचित्त-मिश्रेण करता हा उक्त औदारिक प्रादि शरीरों में से द्रव्यपूजा त्रिधा भवेत् । प्रत्यक्षमहदादीनां सचित्ताऽर्चा एक किसी शरीर के रूप में अन क्रम से समस्त जलादिमिः ।। तेषां तु यच्छरीराणां पूजनं सा परापुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें छोड़ता है। इसमें चना। यत् पुनः क्रियते पूजा द्वयोः सा मिश्रसंज्ञिका ।। उसका जितना काल लगता है उसे सक्षम पदगल- (धर्मसं. श्रा. ६, ९२-९३)। द्रव्यपरावर्त कहा जाता है। इस सूक्ष्म पुद्गल द्रव्य
१ अर्हत्-सिद्धादि को लक्ष्य बनाकर गन्ध, पुष्प, धूप परावर्त में जो पुद्गल मध्य में विवक्षित शरीर से और अक्षत आदि के देने का नाम द्रव्यपूजा है। अन्य शरीररूप से परिणत होते हैं उनकी गणना २ वचन और शरीर के संकोच को-उनके उस नहीं है, किन्तु जब-जब विवक्षित शरीर रूप से वे
प्रोर लगाने को द्रव्यपूजा कहते हैं। Xxx परिणत होते हैं तभी उनकी गणना की जाती है।
अथवा गन्ध, पुष्प, नैवेद्य, दीप और धूप प्रादि के प्राहारकशरीर चूंकि एक जीव के अधिक से अधिक द्वारा जो पूजा की जाती है वह द्रव्यपूजा कहचार वार ही सम्भव है, अत एव उसका पुद्गल
लाती है। परावर्त में उपयोग न होने से उसे उक्त शरीर के द्रव्यपूति- गंधाइगुणसमिद्धं ज दव्वं असुइगंघदव्व. साथ नहीं ग्रहण किया गया है।
जुयं । पूइत्ति परिहरज्जइ तं जाणसु दव्वपूइत्ति ॥
(पिण्डनि. २४४)। द्रव्यपरुष-१. पुंवेदोदयविशिष्टांगोपांगनामकर्मो- सगन्ध प्रादि गणों से समृद्ध होकर भी जो द्रव्य दयवशात् स्मश्रु-कूर्च-शिश्नादिलिगांकित शरीरो जीवः पीछे अपवित्र गन्धद्रव्य से संयुक्त होकर पूतिद्रव्यपुरुषः भवति । (गो. जी. म. प्र. टी. २७१)। दुर्गन्धयक्त-हमा है उसे द्रव्य पूति कहते हैं। यह २. वेदोदयेन निर्माण नामकर्मोदय युक्तांगोपांगनाम- भोजन सम्बन्धी १६ उद्गम दोषों में तीसरा है, कर्मोदयवशेन श्मश्रु कूर्च शिश्नादिलिंगांकितशरीर- जिसे छोड़ना चाहिए। प्रकृत पिण्डनिर्यक्ति में प्रागे विशिष्टो जीवो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भव- (२४५-४६) इसके लिए एक उदाहरण भी दिया चरमसमयपर्यन्तं द्रव्यपुरुषो भवति । (गो. जी. जी.
गया है। प्र. टी. २७१)।
द्रव्यप्रतिक्रमण- १. वास्तु-क्षेत्रादीनां दशप्रका१ वेद के उदय से युक्त अंगोपांगनामकर्म के उदय राणां उद्गमोत्पादनेषणादोषदुष्टानां वसतीनाम् के वश स्मश्र, कूर्च और शिश्न प्रादि चिह्नों से उपकरणानां भिक्षाणां च परिहरणम्, अयोग्यानां अंकित शरीर को द्रव्यपुरुष कहते हैं।
चाहारादीनां गृद्धदर्पस्य च कारणानां संक्लेश हेतूनां
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यप्रतिसेवना]
वा निरसनं द्रव्यप्रतिक्रमणम् । (भ. प्रा. विजयो. ११६, पृ. २७५); सचित्तमचित्त मिश्रमिति त्रिवि कल्पं द्रव्यं तस्य परिहरणं द्रव्यप्रतिक्रमणम् । ( भ. प्रा. विजयो. ४२१) । २. सावद्यद्रव्यसेवायाः परिणामस्य निवर्तनं द्रव्यप्रतिक्रमणम् । (मूला. वू. ७- ११५) ।
१ वास्तु क्षेत्र प्रादि दस प्रकार के परिग्रह; उद्गम, उत्पादन श्रोर एषणा दोष से दूषित वसतियों; उपकरणों और भिक्षात्रों का परित्याग करना; तथा लोलुपता व अभिमान के कारणभूत प्रथवा संक्लेश के हेतुभूत प्रयोग्य प्राहारादि का छोड़ना, इसका नाम द्रव्यप्रतिक्रमण है । २ पापयुक्त द्रव्य के सेवन विषयक परिणाम के छोड़ने को द्रव्यप्रतिक्रमण कहा जाता है।
द्रव्यप्रतिसेवना -- तत्र या तस्य तस्य वस्तुनः प्रतिषेव्यमानता सा द्रव्यरूपा प्रतिषेवणा । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १-३६, पृ. १६) । विवक्षित वस्तु की प्रतिसेव्यमानता - प्रतिसेवन की योग्यता या कल्प्यताको द्रव्यप्रतिसेवना कहा जाता है।
५५२, जैन-लक्षणावली
द्रव्य प्रत्याख्यान - १. दव्त्रम्मि निण्हगाई XX X | ( श्राव. नि. १०५३) । २. द्रव्यमिति द्वारपरामर्शः, निण्हगाइत्ति निह्नवादिप्रत्याख्यानम् । श्रादिशब्दाद् द्रव्ययोर्द्रव्याणां द्रव्यभूतस्य द्रव्यहेतोर्वा यत् प्रत्याख्यानं तद् द्रव्यप्रत्याख्यानमिति । ( श्राव. नि. हरि वृ. १०४०)। ३. द्रव्यतो भावतश्चैव प्रत्याख्यानं द्विधा मतम् । अपेक्षादिकृतं ह्याद्यमतोऽन्यच्चरमं मतम् । अपेक्षाचाविधिश्चैवापरिणामस्तथैव च । प्रत्याख्यानस्य विघ्नास्तु वीर्याभावस्तथापरः । उदग्रवीर्यविरहात् क्लिष्टकर्मोदयेन यत् । बाघते तदपि द्रव्यप्रत्याख्यानं प्रकीर्तितम् ॥ (अष्टक. ८, १-२ व ६ ) । ४. अयोग्याहारोपकरणद्रव्याणि न ग्रहीष्यामीति चिन्ताप्रबन्धो द्रव्यप्रत्यास्थानम् । (म. प्रा. विजयो. ११६, पृ. २७६) । ५. द्रव्य प्रत्याख्यानं तु द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्याद् द्रव्ये द्रव्यभूतस्य वा प्रत्याख्यानं द्रव्यप्रत्याख्यानम्, तत्र सचित्ताचित्तमिश्रभेदस्य द्रव्यस्य प्रत्याख्यानं द्रव्यप्रत्याख्यानम्, द्रव्यनिमित्तं वा प्रत्याख्यानम् यथा घम्मिलस्स (सुत्रकृ. नि. शी. वृ. २, ४, १७६ )। ६. पापबन्धकारणद्रव्यं सावद्यं निरवद्यममि तपोनिमित्तं त्यक्तं
[द्रव्यप्रमाणानुगम
न भोक्तव्यं न भोजयितव्यं नानुमन्तव्यमिति द्रव्यप्रत्याख्यानम् । ( मूला. वृ. ७- १३५ ) । ७. द्रव्ये द्रव्यविषयं प्रत्याख्यानं निह्नवः, द्रव्यस्य द्रव्ययोर्द्रव्याणां द्रव्यभूतस्य द्रव्यहेतोर्वा प्रत्याख्यानम् । (श्राव. नि. मलय. वू. १०५३, पृ. ५७६) ।
१ द्रव्यविषयक प्रत्याख्यान व निह्नव - सत्यके अपलाप - श्रादि के प्रत्याख्यान का नाम द्रव्यप्रत्याख्यान है । ४ मैं प्रयोग्य आहार व उपकरण द्रव्य को ग्रहण नहीं करूँगा, इस प्रकार के विचार की निरन्तरता को द्रव्यप्रत्याख्यान कहते हैं । ५ द्रव्यका, द्रव्यके द्वारा, द्रव्य से, द्रव्य के विषय में अथवा द्रव्यस्वरूप वस्तु प्रत्याख्यानको द्रव्य प्रत्याख्यान कहते हैं । सचित्त, प्रचित्त व सचित्त प्रचित्त द्रव्य के प्रत्याख्यान का अथवा द्रव्य के निमित्त किये जाने वाले प्रत्याख्यानको द्रव्य प्रत्याख्यान कहा जाता है । जैसेधम्मिल्ल ( बद्धकेश) का प्रत्याख्यान । द्रव्यप्रमारण- प्रमिनो[णो]ति प्रमीयते वा परिच्छिद्यते येनार्थस्तत्प्रमाणम्, तत्र द्रव्यमेव प्रमाणं दण्डादिद्रव्येण वा धनुरादिना शरीरादेर्द्रव्यर्वा दण्ड- हस्तागुलादिभिः द्रव्यस्य वा जीवादेः द्रव्याणां वा जीवघ
धर्मादीनां द्रव्ये वा परमाण्वादी पर्यायाणां द्रव्येषु वा तेष्वेव तेषामेव प्रमाणं द्रव्यप्रमाणम् । ( स्थाना. अभय. वृ. ४, १, २५८ ) ।
'जो मापता है' इस विग्रह के अनुसार द्रव्य ही प्रमाण होता है अथवा जिसके द्वारा पदार्थ जाना जाता है उसका नाम प्रमाण है । तदनुसार धनुष श्रादि द्रव्य के द्वारा शरीरादि को ऊँचाई का प्रमाण जाना जाता है; दण्ड, हाथ व अंगुल आदि द्रव्यों के द्वारा एक जीवादि द्रव्यका श्रथवा जीव, धर्म व अधर्म श्रादि अनेक द्रव्यों का प्रमाण जाना जाता है; इसी प्रकार परमाणु श्रादि द्रव्यगत पर्यायों का प्रमाण जाना जाता है। इस क्रमसे द्रव्यप्रमाण अनेक प्रकार का सम्भव है ।
वा ।
द्रव्यप्रमारणानुगम - यथावस्त्ववबोधः अनुगमः, केवलि श्रुतकेवलिभिरनुगतानुरूवेणावगमो द्रव्यप्रमाणस्य द्रव्यप्रमाणयोर्वा अनुगमः द्रव्यप्रमाणानुगमः । (घव. पु. ३, पृ. ८) ।
वस्तु के यथार्थ श्रवबोध का नाम अनुगम है । अथवा केवली और श्रुतकेवली के परम्परागत उपदेश के अनुसार जो वस्तु का बोध होता है वह अनुगम
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यत्राण] १५३, बैन-पक्षणावनी
- [रण्ययन कहलाता है । द्रव्य के प्रमाण का बोध कराने वाले प्रसौ द्रव्यबन्धः । (कातिके. टी. २०६) । १२. द्रव्यं अथवा द्रव्य और प्रमाण दोनों का ही बोध कराने पौदगलिकः पिण्डो बन्धस्तच्छक्तिरेव वा । (पञ्चावाले अधिकार को द्रव्यप्रमाणानगम कहा जाता है। ध्या. २-४७)। जैसे-षट्खण्डागमके प्रथम खण्डभूत जीवस्थानगत १ जिस मोह, राग और द्वेषरूप भाव से जीव विषतृतीय अनुयोगद्वार इत्यादि ।
यता को प्राप्त-दृष्टव्य या ज्ञेय-वस्तु को देखता द्रव्यप्राग-१. पुद्गलसामान्यान्वयिनो द्रव्यप्राणाः। व जानता है, तथा उसी से जो अनुरक्त होता है; (पंचा. का. अमृत. व. ३०)। २. द्रव्यप्राणा: इन्द्रिय- इसका नाम भावबन्ध और उसके निमित्त से जो पंचक-बलत्रिकोच्छासनिःश्वासायु:कर्मानुभवलक्षणाः। पौदगलिक कर्म बवता है उसका नाम द्रव्यबन्ध है। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १८-२३२)। ३. चित्सामान्या. ४ सांकल प्रादि बन्धन के कारणों को द्रब्यबन्ध नुविधायिपुद्गल परिणामो द्रव्यप्राणा: । (प्रन. घ. कहा जाता है। ४-२२)। ४. पौद गलि व द्रव्यं न्द्रियादिव्यापार रूपाः द्रव्य-भावतः हिंसा-द्रव्यतो भावतश्चेति "जहा
केइ पुरिसे मिप्रवहपरिणामपरिणए मियं पसित्ता १ पुद्गल सामान्य से अनुगत इन्द्रिय प्रादि को प्रायन्नाइढियकोदंड-जीवे सरं णिसिरिज्जा, से अ द्रव्यप्राण कहा जाता है। २ इन्द्रियां पांच, बल मिए तेण सरेण विद्धे मए सिया एसा दव्वो हिंसा तीन, उच्छवास-नि:श्वास और प्राय कर्म; इनके भावो वि।” (यशवं. नि. हरि. व. ४५)। अनुभवन स्वरूप द्रव्यप्राण कहलाते हैं।
कोई वधक मृग के घात का विचार करता हमा द्रव्यबन्ध-१. भावेण जेण जीवो पेच्छदि जाणादि उसे देख कर कर्ण पर्यन्त धनुष की डोरी को खींचता प्रागदं विसए। रज्जदि तेणेव पुणो बज्झदि कम्म है और बाण को छोड़ देता है। उससे विद्ध होकर त्ति उवएसो ॥ (प्रव. सा. २-८४)। २. द्रव्यबन्धः मृग मर जाता है। इस प्रकार की हिंसा मग के कर्म-नोकर्मपरिणतः पुदगलद्रव्यविषयः । (त. वा. प्राणों का घात करने के साथ बधक के तदनुरूप २, १०, २)। ३. पुद्गलानां नूरादानं बन्धो द्रव्या. परिणाम के भी रहने से द्रव्य मोर भाव दोनों से त्मकः स्मृतः। योग्यानां कर्मण: स्वेष्टानिष्टनिर्वर्त- हया करती है। नात्मनः॥ (त. श्लो. ८, २,१)। ४. द्रव्यबन्धो द्रव्यमन-१. पुद्गलविपाकिकर्मोदयापेक्षं द्रव्यमनः । निगडादिः। (त. भा. सिद्ध. व. १-५)। ५. पुन- (स. सि. २-११ त. वा. २, ११, १७ बव. पु. स्तेनैव (भाबबन्धेनैव) पोद्गलिक कर्म बध्यत एव, १, पृ. २५६ त..२-११)। २. तत्थ मणइत्येष भावबन्धप्रत्ययो द्रव्यबन्धः । (प्रव. सा. अमृत. पज्जत्तिणामकम्मुदयातो जोग्गे मणोदवे घेत्तुं मण. २-८४)। ६. कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं जोगपरिणामितिा दव्वा दब्वमणो भण्णइ । (नन्दी. इदरो ॥ (द्रव्यसं. ३२) । ७. भावबन्धनिमित्तेन चू. पृ. २६)। ३. द्रव्यमनश्च रूपादियोगात पुद्कर्मप्रदेशानामात्मप्रदेशानां च क्षीर-नीरवदन्योन्य- गलद्रव्यविकार:। (त. वा. ५, ३, ३); द्रव्यमनश्च प्रवेशनं संश्लेषो द्रव्यबन्धः। (ब. द्रव्यसं. टी. ३२)। ज्ञानावरण वीर्यान्त रायक्षयोपशमलाभप्रत्ययाः गुण८. भावबन्धनिमित्तेन तेलम्रक्षितशरीरे घुलिबन्धव. दोष-बिचार-स्मरणादिप्रणिधानाभिमुखस्याऽऽत्मनोज्जीव-कर्मप्रदेशानामन्योन्यसंश्लेषो द्रव्यबन्धः। (पंचा. ऽनुग्राहका: पुदगला वीयंविशेषावर्जनसमर्थाः मनका. जय. वृ. १०८)। ६. भावानवातितापात्मलोह- स्त्वेन परिणताः इति कृत्वा पौदगलिकं नाकाश. स्वात्मकदेहगम्। पादत्ते सर्वतोऽनन्तानन्तकर्माणु- मयम् । (त. पा. ५, १६,२०)। ४. तत्र मनोऽभिजीवनम् ॥ प्रात्मनस्तेन संश्लेषो द्रव्य वन्धश्चतुर्विधः। नित्य यद् दलिकद्रव्यमुपात्तमात्मना सा मन:स स्यात् प्रकृति-प्रदेशानुभाग-स्थितिभेदतः ॥ पर्याप्तिम करणविशेषः, तेन करणविशेषेण सर्वा(प्राचा. सा. ३,३८-३६)। १०. जीव-कर्मप्रदेशा- त्मप्रदेशवतिना यानन्तप्रदेशान् मनोवर्गणायोग्यान नामाश्लेषो द्रव्यबन्धनम् । (भावसं. वाम. ३८७)। स्काधान् चित्तार्थमादत्ते ते करणविशेषपरिगृहीता ११. यस्तु कर्म-नोकमरूपः जीव-पुद्गलसयोगवन्धः स्कन्धाः द्रव्यमनोऽभिधीयते (न्ते) । (त. भा. सि. वृ. . स. ७०
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रव्यमन]
५५४, पेन-सक्षणावली
[ग्यसंगम
२-११)। ५. हिदि होदि है दव्यमणं वियसिय- द्रव्यमल-द्रव्यमलं द्विविधं बाघमाभ्यन्तरं । भट्टच्छदारविदं वा। अंगोवगूदयादो मणवग्गण- तत्र स्वेद-रजोमलादि बाह्यम् । घन-कठिनजीवप्रदेशखंघदो णियमा । (गो. जी. ४४३)। ६. द्रव्यमन- निबद्धप्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेश विभक्तज्ञानावरणाद्यइच ज्ञानावरण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमलाभप्रत्यया ष्टविधकर्म प्राभ्यन्तरद्रव्यमलम् । (धव. पु. १.पृ. गुण-दोषविचार - स्मरणादिप्रणिधानाभिमुखस्यात्म- ३२)। नोऽनुग्राहका पुदगला वीर्यविशेषावर्जनसमर्था मन- बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से द्रव्यमल दो प्रकार स्त्वेन परिणताः। (चा. सा. पृ. ३६) । ७. तत्र का है। इनमें पसीना मोर धूलि प्रादि को बाह्म मनःपर्याप्तिनामकर्मोदयतो यत् मन:प्रायोग्यवर्गणाद- द्रव्यमल तथा प्रात्मप्रदेशों से सम्बद्ध प्रकृति व लिकमादाय मनस्त्वेन परिणमितं तद् द्रव्यरूपं मनः। स्थिति प्रादि भेदों में विभक्त ज्ञानावरणादि पाठ तथा चाह चूणिकृत्-मणपज्जति नामकम्मोदयग्रो प्रकार के कर्म को भावमल कहते हैं। तज्जोग्गे मणोदव्वे घेत्तं मणतेण परिणामिया दव्वा द्रव्यमंगल-१. सूरि-उवझय-साहूदेहाणि हु दम्वदव्वमणो भष्णइ । (नन्दी. मलय. वृ. २६, पृ. मंगलयं ॥ (ति. प. १-२०)। २. दवए दुयए १७४; प्रज्ञाप. मलय. व. १५-२००, पृ. ३११)। दोरबयवो विगारो गुणाण संदावो। दव्वं भावं ८. द्रव्यमनो ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तं तद्योग्य- भावस्स भूप्रभावं च जं जोगं ॥ (विशेषा. २८)। पुद्गलमयम् । (प्राव. सू. मलय. व.पृ. ५५७)। ३. उत्तरगुणनिप्फन्ना, सलक्खणा जे उ होति ६. तत्र द्रव्यमनो विशिष्टाकार परिणता: पुदगलाः। कुंभाई। तं दव्वमंगलं खलु जह लोए मटू मंगल(योगशा. स्वो. विव.४-३५)। १०. तदभिमुख- गा॥ गंतियं मणच्चंतियं च दवे उ मंगलं होह। स्यास्यवानुप्राही पुद्गलोच्चयो द्रव्यमनः। (भ.पा. (बृहत्क. ९-१०)। ४. 'दु द्रु गतौ' द्रवते दूयते या मला. १३२)। ११. नोइन्द्रियावरण-वीर्यान्तराय- द्रोरवयवो विकारो वा द्रव्यं 'द्रव्यं च भव्ये' [पा. क्षयोपशमसन्निधाने सति द्रव्यमनसा xxx ५।३।१०४] यत्प्रत्ययान्तस्य प्रव्यं तत्र ज्ञात-भव्य(मन. प. स्वो. टी. १-१, पृ. ४)। १२. द्रव्यम- शरीराभ्यां व्यतिरिक्तं द्रव्यमंगलं दध्यक्षत-सुवर्गनोऽपि ज्ञानावरणवीर्यान्त रायक्षयोपशमांगोपांगनाम- सिद्धार्थक-पूर्णकलशादि । (दशवं. प., पृ. २) । कमलाभप्रत्यय गुण-दोषविचार-स्मरणादिप्रणिधाना- ५. भूतस्य भाविनो भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । भिमुखस्यात्मनोऽनुग्राहकपुद्गलानां तथात्वेन परि- तद् द्रव्यं तत्त्वज्ञः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥xxx णमनात पोद्गलिकम् । (गो. जी. जी. प्र. टी. द्रवति गच्छति तांस्तान् पर्यायान् क्षरति चेति ६०६ कातिके. टी. २०६); वीर्यान्त राय नोइन्द्रि- द्रव्यम्, xxx सचेतनम् अनुपयुक्तपुरुषाख्यम्, यावरणक्षयोपशमेन अंगोपांगनामोदयेन च मन:- अचेतन शरीगदि तथा भूतमन्यद् वा।xxx पर्याप्तियुक्तजीवस्य मनोवर्गणायात पुद्गलस्कन्धा- द्रव्यं च तन्मंगलं चेति समासः। (प्राव. हरि वृ. मामष्ट च्छदारविदाकारेण हृदये निर्माणनामोदय- १, पृ. ५)। ६. दवमंगलं णाम अणागयपज्जायसंपादितं द्रव्यमनः । (गो. जी. जी. प्र. टी. ७०३)। विसेस पडुच्च गहियाहिमुहियं दव्वं अतभावं वा। १ पुद्गलविपाको नामकर्म के उदय से जो पृद्- (धब. पु १, पृ. २०)। गल मनरूप से परिणत होते हैं उन्हें द्रव्यमन कहा १ प्राचार्य, उपाध्याय और साधु के शरीर को जाता है। २ मन:पर्याप्ति नामकर्म के उदय से योग्य द्रव्यमंगल कहा जाता है। २ जो अपनी पर्यायों को मनोव्य-मनवर्गणा-को ग्रहण करके मनरूप प्राप्त होता है. अथवा उनके द्वारा स्वयं प्राप्त परिणमाये गये द्रव्यों का नाम द्रव्यमान है। किया जाता है उसे द्रव्य कहते हैं । 'दु के अवयवद्रव्यमनोयोग-ततः (भावमनोयोगतः) समुत्पन्नो सत्ता के विकार को भी द्रव्य कहा जाता है मनोवर्गणानां द्रव्यमनःपरिणामरूपो द्रव्यमनोयोगः। गुणों का समुदाय भी द्रव्य कहलाता है। जो (गो. जी. म. प्र. व जी प्र. २२६)।
प्रागामी पर्याय के योग्य है उसे और भूतभाव को भावमनोयोग से उत्पन्न होने वाले मनोवगणाम्रों के द्रव्य (निक्षेप) कहा जाता है। प्रकृत में भविष्य में प्रख्यमनरूप परिणमन को बध्यममोयोग कहते हैं। होने वाली पर्याय विधक्षित है। जो तथ्य मंगलरूप
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
ध्यमोस]
५५५, जन-सक्षणावसौ द्रव्यलिङ्ग (द्रव्यवैद) पर्याय के योग्य है उसे द्रव्यमंगल मानना चाहिए। उन्हीं शब्दों में देखिये। द्रध्यमोक्ष-१. जो संवरेण जुत्तो णिज्जरमाणोध द्रव्ययोग-१. दवे मण-वइ-काए जोग्गा दवा सम्वकम्माणि । ववगदवेदाउस्सो मूयदि भवं तेण सो
Xxx। (प्राव. नि. १०५२)। २. मनोवामोक्खो ॥ (पंचा. का. १५३) । २. कम्म- काययोग्यानि द्रव्याणि द्रव्ययोगः । इयमत्र भावना दध्वमोक्यो णोकम्मदवमोक्खो च दवमोक्खो।
-जीवेनागृहीतानि गृहीतानि वा स्वव्यापाराप्रवृ. (घव. पु. १५, पृ. ३३७) । ३. द्रव्य
त्तानि द्रव्ययोग इति, द्रव्याणां वा हरीतकादीनां मोक्षो निगडादिविप्रयोगः । (त. भा. सिद्ध.. योगो द्रव्ययोगः । (प्राव. नि. मलय. ५. १०५२)। १-५)। ४. खलु भगवतः केवलिनो भावमोक्षे
३. तद्विशिष्टात्मप्रदेशानां यः परिस्पन्दः किचिच. सति प्रसिद्धसंवरस्योत्तरकर्मसन्तती निरुद्धायां
लनरूपः स द्रध्ययोगः। (गो. जी.जी. म.प्र.ब परमनिराकारण ध्यानप्रसिद्धौ सत्यां पूर्व कर्मसंततो
जी.प्र. टी. २१६)। कदाचित् स्वभावेनैव कदाचित् समुद्घातविघानेनायु:
१ मन, वचन एवं काय के योग्य द्रव्यों को समयकर्म सम्भूतः[त]स्थित्यामायु:कर्मानुसारेणव निर्जीय.
योग कहा जाता है। माणायामपुनर्भवाय तद्भवत्यागसमये बेदनीयायु
द्रव्यलक्षण-१. लक्खिज्जइ जे जेणं दग्वं तं तस्स नाम-गोत्ररूपाणां जीवेन सहात्यन्तविश्लेष: कर्मपुद्
लक्खणं तं च। (विशेषा. २६४६)। २. यद द्रव्यं गलानां द्रव्यमोक्षः । (पंचा. का. अमृत. व. १५३)।
येनान्यतो व्यवच्छिद्य लक्ष्यते-स्वस्पेऽवस्थाप्यते, ५. दवविमोक्खो य कम्मपुधभावो। (द्रव्यसं.
तत्तस्य लक्षणम् । (विशेषा. को. व. २६४६) । ३७)। ६. टंकोत्कीर्णशुद्धबुद्धकस्वभावपरमात्मनः
जिसके द्वारा द्रव्य को अद्रव्यों से पृथक कर स्वरूप पायुरादिशेषाघातिकमणामपि य प्रात्यन्तिकपृथ
में स्थापित किया जाता है वह प्रध्य का लक्षण ग्भावो विश्लेषणो विघटनम् । (ब. द्रव्यसं. टी.
होता है। ३७)। ७. भावमोक्षनिमित्तेन जीवकर्मप्रदेशानां निरवशेषः पृथग्भावो द्रव्यगोक्षः। (पंचा. का. जय. द्रव्यालङ्ग (साधुका बाह्य वेष)-तत्र व्यलिलं व.१०८)। ८. तबलेन (शुद्धोपयोगललणभाव- रजोहरण-मुखदस्त्रिकादि । xxx द्रव्यलिङ्ग मोक्षबलेन) जोवप्रदेश-कर्मप्रदेशानामत्यन्त विश्लेषो प्रतीत्य भाज्या:-कदाचित् रजोहरणादि भवति द्रव्यमोक्षः। (प्रव. सा. जय. व. १.८४)। ६. कर्म. कदाचिन्नेति, मरुदेवी-भरतप्रभतीनामिति । (. पूदगलानां जीवेन सहात्यन्तविश्लेष: द्रव्यमोक्षः। भा. सिद्ध. व. ६-४६)। (अन. घ. स्वो. टी. २०४४)। १०. जायते द्रव्यमोक्षस्तु ममक्ष का व्यलिंग रजोहरण (प्रमार्जन का एक जीव-कर्मपृथकक्रिया। (भावसं. वाम. ३९१)।
उपकरण) और मुखवस्त्रिका (महपत्ति) प्रादि ११. परमसमाधिबलादिह बोधावरणादिसकलकर्मा
होता है। उसकी अपेक्षा पुलाकादि मुनि भाज्य हैंणि । चि शेभ्यो भिन्नीभवन्ति स द्रव्यमोक्ष इह उक्त प्रयलिग पुलाकादि मुनियों में किन्हीं के तो
होता है और किन्हीं के वह नहीं भी होता है। गीतः।। (अध्यात्मक. ४-१६)। १संवर से यक्त जीव समस्त कर्मों की निर्जरा जसे-मरुदेवी व भरत आदि के वह नहीं रहा है। करता हुआ वेदनीय और प्राय कर्म से रहित होकर द्रव्यलिङ्ग (द्रव्यवेद)--१. द्रव्यलिङ्गं योनिभोजको संसार को-नाम और गोत्र को) छोड़ मेहनादि नामकमदियनिवतितम। (स.सि.२.५२॥ देना इसका नाम द्रव्यमोक्ष है। ३ सांकल २. यद् द्रव्यलिङ्ग नामकर्मोदयापादितम् xxxi प्रादि के बन्धन से मुक्ति पा लेने का नाम द्रव्य- (त. वा. २, ६, ३); नामकर्मोदयात् योनि-मेहनादि मोक्ष है।
द्रव्य लिङ्गं भवति । (त. वा. २, ५२, १)। द्रव्ययति-दव्यजुडी तिविहा जीवजुडी पोग्गलजुडी ३. नामकर्मोदयात् स्मरमन्दिरमेहनादिकं द्रव्य. जीव-पोग्गलजुडी चेदि । (धव. पु. १३, पृ. ३४८)। लिङ्गम् । (त. वृत्ति श्रुत. २-५२)। जीवयुति, पुद्गलयुति और जीव-पुद्गलयुति ये तीनों १ नामकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले योनिक द्रव्ययुति के अन्तर्गत हैं । इनका लक्षण पृथक-पृथक् मेहन (पुरुषेन्द्रिय) आदि को व्यलिङ्ग कहते हैं।
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यलेश्या] ५५६, जैन-लक्षणावली
[द्रव्यव्युत्सर्ग द्रव्यलेश्या-१. द्रव्यलेश्या पुद्गलविपाकिकर्मो- द्रव्यविचिकित्सा - उच्चार-प्रश्रवणादिषु मूत्रदयापादिता। (त. वा. २, ६, ८); शरीरनामो- पुरीषादिदर्शने विचिकित्सा द्रव्यगता। (मूला. व. दयापादिता द्रव्यलेश्या। (त. वा. ६, ७, ११)। ५-५५) । २. वण्णोदयेण जणिदो सरीरवण्णो दु दव्वदो मल-मूत्रादि को देखकर जो ग्लानि होती है उसे लेस्सा। (गो. जी. ४६४); वण्णोदयसंपादिद. सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा । (गो. जी. ५३६)। द्रव्यविवेक-xxx विवेक द्रव्यतो बहिः३. द्रव्यलेश्या कृष्णादिद्रव्याण्येव । (स्थाना. अभय. सङ्गपरित्यागरूपं xxx (उत्तरा. सू. शा. व. व. १-५१) । ४. वर्णनामकर्मोदयजनितशरीरवर्ण- ४-१०, पृ. २२५) । स्तु द्रव्यलेश्या। (गो. जी. जी. प्र. टी. ४६४)। बाहिरी परिग्रह के त्यागरूप विवेक को द्रव्यविवेक १ पुदगलविपाकी वर्ण नामकर्म के उदय से जो कहते हैं। लेश्या-शरीरगत वर्ण-होता है उसे द्रव्यलेश्या द्रव्यविशेष-१. तपःस्वाध्यायपरिवृद्धिहेतुत्वादिकहते हैं। २ वर्ण नामकर्म के उदय से जो शरीर द्रव्यविशेषः। (स. सि.७-३९; त. इलो. ७-३६)। का वर्ण होता है उसे द्रव्यलेश्या कहा जाता है। २. द्रव्यविशेषोऽन्नादीनामेव सार-जाति-गुणोत्कर्ष३ कृष्ण, नील व पीतादि द्रव्यों को ही द्रव्यलेश्या योग: । (त. भा. ७-३४)। ३. तप:स्वाध्यायकहते हैं।
परिवृद्धि हेतुत्वादिद्रव्यविशेषः । दीयमानेऽन्नादौ द्रव्यलोक-१. जीवाजीवं रूवारूवं सपदेसमपदेसं प्रतिगृहीतुस्तपःस्वाध्यायपरिणामविवृद्धि कारणत्वादि. च । दव्वलोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं ।। द्रव्यविशेष: इति भाष्यते । (त. वा. ७,३९, (मला. ७-४७) । २. जीवमजीवे रूवमरूवी सप्प. ३)। ४. दीयमानेऽन्नादौ प्रतिगृहीतस्तपःस्वाध्यायएसमप्पएसे य । जाणाहि दव्वलोगं निच्चमनिच्च च परिवृद्धिकरणत्वाद् द्रव्यविशेषः । (चा. सा. पृ.१५)। जं दव्वं । (प्राव. भा. १९७)। ३. द्रव्यलोको १ साधु के लिए दिये जाने वाले अन्न प्रादि में जीवाजीवद्रव्यरूपः । (स्थामा. अभय. वृ. १-५)। उसे ग्रहण करने वाले साधु के तप व स्वाध्याय १ जीव, अजीव (काल, प्रकाश, धर्म, अधर्म व प्रादिविषयक वृद्धि की कारणता का होना, यह पुदगल); रूपी (पुदगल), प्ररूपी (काल, प्राकाश, द्रव्यगत विशेषता है। २ अन्न आदि के गन्धधर्म, अधर्म और जीव); सप्रदेशी जीव प्रादि तथा रसादिविशिष्टतारूप सार; शालि, ब्रीहि व गेहूं प्रप्रदेशी कालाणु व परमाणु इस सबका नाम द्रव्य- प्रादि जाति, और स्निग्ध-मधुरता रूप गुण; इनकी लोक है।
उत्कर्षता के सम्बन्ध को द्रव्यविशेष कहा जाता है। द्रव्यवर्गरणा-तत्र द्रव्यतः एकप्रदेशिकानां याव- द्रव्यविहङ्गम-धारेइ तं तु दव्वं तं दव्वविहङ्गम दनन्त प्रदेशिकानाम् । (प्राव. नि. हरि. व. ३९, वियाणाहि । (दशव. नि. ११७)।
विहंगम नाम पक्षी का है। जो पक्षी पर्याय के हेतुएकप्रदेशी से लेकर अनन्तप्रदेशी तक पुद्गलों की भूत कर्मपुद्गलरूप द्रव्य को धारण करता है उसे वर्गणाओं को द्रव्यवर्गणा कहा जाता है।
द्रव्यविहंगम कहते हैं। अभिप्राय यह है कि जो द्रव्यवाक्-१. तत्सामोपेतेन क्रियावतात्मना पक्षी अवस्था के कारणभूत कर्म को बांधकर प्रेर्यमाणाः पृगला वाक्त्वेन विपरिणमन्त इति द्रव्यवागपि पौद्गलिकी। (त. वा. ५-१६)। है उसे द्रव्यभ्रमर समझना चाहिए। २. द्रव्यवाक् ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्ता शब्द- द्रव्यवेद-देखो द्रव्यलिंग । नामकर्मोदयोत्पम्नो परिणामयोग्याः जीवपरिगृहीता। (प्राव. सू. मलय. द्रव्यवेदोऽपि च त्रिधा। (पंचसं.अमित.१-१८) बृ. १, पृ. ५५७)।
नामकर्म के उदय से शरीर में मो योनि-लिंगादि १ भाववाक्य गत सामर्थ्य से सहित क्रियावान प्रात्मा उत्पन्न होते हैं, यह द्रव्यवेद कहलाता है। के द्वारा प्रेरित होकर बचनरूप से परिणत होने द्रज्यव्युत्सर्ग-द्रव्यव्युत्सर्गो-गणोपधि-शरीरान्नबाले प्रगलों को न्यबाक कहा जाता है। पानादिव्युत्सर्गः, अपना उन्मन्युत्सर्गो नाम मार्तध्या
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यशल्य] ५५७, जैन-लक्षणावली
(द्रव्यसमाधि नादिध्यायिनः कायोत्सर्गः। (प्राव. नि. मलय. व. अङ्गबाहयं च प्रकीर्णकाख्यं सामायिकादि चतुर्दश१०६३)।
भेदम् । (अन. घ. स्वो. टी. ३-६) । ३. वर्ण-पदगण (समान प्राचारवाले साधनों का समूह), वाक्यात्मकं द्रव्यरूपं (श्रुतम्) । तस्य भावश्रुतस्य उपधि (रजोहरणादि), शरीर और अन्न-पान वा श्रवणं श्रुतमिति निरुक्तेः। (लघीय. अभय. व. प्रादि के परित्याग का नाम द्रव्यव्यत्सर्ग है। प्रथवा ६-१२, पृ. ८३)। ४. पुद्गलद्रव्यरूपं वर्ण-पदप्रात प्रादि ध्यान करने वाले के कायोत्सर्ग को वाक्यात्मकं द्रव्यश्रुतम् । (गो. जी. म. प्र. व जो. प्र. द्रव्यव्युत्सर्ग जानना चाहिए।।
टी. ३४८)। द्रव्यशल्य - मिथ्यादर्शन-माया-निदानशल्यानां १ अक्षरों की प्राप्ति अथवा उच्चारण, यह द्रव्यश्रत कारणं कर्म द्रव्यशल्यम् । (भ. प्रा. विजयो. २५)। कहलाता है। २ भावभुत के प्राश्रय से उत्पन्न मिथ्यादर्शन, माया और निदान इन तीनों शल्यों होने वाले श्रुत को-बारह अंग और चौदह प्रकार के कारणभूत कर्म को द्रव्यशल्य कहते हैं। के अंगबाह्य रूप वचनात्मक भूत को द्रव्यश्रत कहा द्रव्यशस्त्र - कप्पणि-कहाणि - असियग-दत्तिय- जाता है। कुहाल-वासि-परसू प्र। सत्थं वणस्सईए हत्था पाया द्रव्यसमवाय--१. धर्माऽधर्मास्तिकाय-लोकाकाशेमुहं अग्गी ॥ किंची सकायसत्थं किंची परकाय तदुभयं कजीवानां तुल्यासंख्येयप्रदेशत्वादेकेन प्रमाणेन किंची। एयं तु दव्वसत्थं xxx॥ (प्राचारा. द्रव्याणां समवायनाद् द्रव्यसमवायः। (त. वा. १, नि. १४९-५०, ५५)।
२०, १२, धव. पु. ६, पृ. १६६)। २. तत्थ कल्पनी (शस्त्रविशेष-कैची या निहानी), कुहाणी दव्वसमवायो धम्मत्थिय-अधम्मत्थिय लोगागास
या कुल्हाडी), असियंग (हंसिया), एगजीवपदेसा च समा। (धव. पु. १, प. १०१) । वात्रिका (छोटो हसिया), कूवारी, वसला और ३. द्रव्याश्रयेण धर्मास्तिकायेन अधर्मास्तिकायः फरसा; ये वनस्पति छेदने प्रादि के शस्त्र; हाथ, सदृशः, संसारिजीवेन संसारिजीवः सदृशः, मुक्तजीपैर, मुंह और अग्नि मादि सामान्य शस्त्र; कुछ वेन मुक्तजीवः सदृशः, इत्यादिद्रव्यसमुदायः। (गो. स्व(वनस्पति)काय शस्त्र (लाठी प्रादि) तथा कुछ जी. म. प्र. व जी. प्र. ३५६)। परकायशस्त्र (पाषाण व अग्नि प्रावि); ये सब धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और द्रव्यशस्त्र कहलाते हैं।
एक जीव; इन द्रव्यों के असंख्यात प्रदेशरूप एक द्रव्यशुद्धि-१. दव्वसोधी मलिनं वस्त्रादि पानी- प्रमाण से चूंकि समानता है, प्रतएव इसे (समान येन शुद्धयतः । (उत्तरा. चू. १२, पृ. २११)। समुदाय को) द्रव्यसमवाय कहा जाता है। २. ज्वर-कुक्षि-शिरोरोग दुःस्वप्न-रुधिर-विण्मूत्र- द्रव्यसमाधि-१. दव्वं जेण व दम्वेण समाही लेपातीसार-पूयस्रावादीनां शरीरे प्रभावो द्रव्यशुद्धिः। प्राहियं च जं दव्वं । (दशवे. नि. ३२७)। २. पंचसु (धव. पु. ६, पृ. २५३)।
विसएसु सुभेसु दव्वं मि ता भवे समाहित्ति । (सूत्रकृ. १ मलिन वस्त्र प्रादि, जो जल से शुद्ध होते हैं, यह नि. १, १०, १०५) । ३. द्रव्यसमाधिः येन द्रव्येण द्रव्यशदि कहलाती है। २ शरीर में ज्वर, कुक्षि- समाधिः उत्पद्यते । (उत्तरा. चू. १५, प. रोग, शिरोरोग, दुःस्वप्न, रुधिर, विष्ठा, मूत्र, २३६)। ४. पञ्चस्वपि शब्दादिषु मनोज्ञेषु विषलेप, प्रतीसार और पौव का वहना; इत्यादि के येष श्रोत्रादीन्द्रियाणां यथास्वं प्राप्ती सत्यां यस्त. न रहने का नाम द्रव्यशुद्धि है।
ष्टिविशेषः स द्रव्यसमाधिः,xxx यदि वा द्रव्यश्रत-देखो द्रव्यसूत्र । १. तत्थक्खरलंभे अभि- द्रव्ययोद्रव्याणां वा सम्मिश्राणामविरोधिनां सतां न लावे वा दब्वसुत्तं । (नन्दी. च. प. ३४)। रसोपघातो भवति, अपि तु रसपुष्टिः स द्रव्यसमा२. तन्निमित्तं (भावश्रुतनिमित्तं) तु वचनं द्रन्य- घिः, तद्यथा-क्षीर-शर्करयोर्दधि-गुर-चातुर्जातकादीनां श्रुतम् । (अन. प. स्वो. टी. ३-५); द्रव्यतोऽङ्ग- चेति । येन वा द्रव्येणोपभुक्तेन समाधिपानकादिना प्रविष्टाङ्गवाह्यभेदाद द्विधा मतम् ॥ (अन. प. ३, समाधिर्भवति तद् द्रव्यं द्रव्यसमाधिः । तुलादावारो. . ६) द्रव्यश्रुतं त्वाचारादिद्वादशभेदमङ्गप्रविष्टम्, पितं वा यत् द्रव्यं समतामुपतीत्यादिको द्रन्यसमा...
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यसम्यग्दर्शन १५८, पैन-लक्षणाची
[द्रध्यक्षवर धिः । (सूत्रकृ. नि. शी. १, १०, १०५१, पृ. (तलवार) और परश प्रावि द्रव्य के निमित्त से १८६-८७)।
पुरुषों के भी जो धनुष, असि पोर परशु प्रादि नाम १ पात्ररूप द्रव्य को अथवा प्रविरोधी दूध एवं गुड़ प्रसिद्ध होते हैं उन्हें द्रव्यसंयोगपद कहा जाता है। प्रादि द्रव्य को द्रव्यसमाधि कहा जाता है, तथा द्रव्यसंलेखना-सर्वोन्मादमहारोगनिदानानां समत्रिफला प्रादि, जिस द्रव्य के उपयोग से समाधान न्ततः । शोषणं सर्वसाधूनां द्रव्यसंलेखना मता ।। होता है, उसे भी द्रव्यसमाधि कहते हैं, अथवा तराजू (त्रि. श. पु.च.१,६,४३५) । या कांटे प्रादि पर स्थापित सो पल (तोला आदि समस्त उन्माद-विषयासक्ति-और प्रबल रोगों जैसा मापविशेष) आदि के समान जो द्रव्य स्व. के मल कारणों का सर्वतः शोषण करना-उन्हें स्थान में समता को करता है उसे द्रव्यसमाधि दूर करना, यह सब साधनों की द्रव्यसंलेखना मानी जानना चाहिए । २ अभीष्ट शब्दादि पांच इन्द्रिय- गई है। विषयों के प्राप्त होने पर अथवा दो प्रादि अवि- द्रव्यसंवर-१. तन्निरोघे तत्पूर्वककर्मपदगलादानरोधी व्यों के सम्मिश्रण से जो सन्तोष होता है विच्छेदो द्रव्यसंवरः। (स. सि. ९-१; त. इलो. उसे द्रव्यसमाधि जानना चाहिए।
६-१)। २. तन्निरोधे तत्पूर्वककर्मपुद्गलादानद्रव्यसम्यग्दर्शन-तथा द्रव्य सम्यग्दर्शनं ये मिथ्या- विच्छेदो द्रव्यसंवरः। तस्य ससार कारणस्य भावदर्शनपुद्गला भव्यस्य सम्यग्दर्शनतया शुद्धि प्रति- बन्धस्य निरोधे तत्पूर्वकस्य कर्मपुद्गलस्य निरासो पत्स्यन्ते तद् द्रव्यसम्यग्दर्शनम् । (त. भा. सिद्ध. द्रव्यसंवर इति निश्चीयते । (त. वा. ६,१,)। व. १-५)।
३. तत्कर्मपुदगलादानविच्छेदो द्रव्यसंवरः। (ह.पु. मिथ्यादर्शन (दर्शनमोहनीय) कर्म के जो कर्मपर- ५८-३००)। ४. द्रव्यसंवरोऽपिघानम् । (त. भा. माण भव्य जीव के सम्यग्दर्शनरूप से भविष्य में सिद्ध.. १-५)। ५. तन्निमित्तः (भावसंवरनिशद्धि को प्राप्त करने वाले हैं उन्हें द्रव्यसम्यग्दर्शन मित्तः) शुभाशुभकर्मपरिणामनिरोधो योगद्वारेण कहते हैं।
प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यसंवरः । (पंचा. का. अमृत. द्रव्यसंकोच-१. तत्र कर-शिर:-पादादिसंन्यासो वृ. १४२) । ६. दुरितास्रवविच्छेदस्तद्रोधे द्रव्यद्रव्यसंकोचः । (ललितवि. पृ. ६)। २. तत्र द्रव्य- संवरः ॥ (योगसा. अमित. ५-२)। ७. यः कर्मसंकोचनं कर-शिरः-पादाद्यवयवसंकोचः । (प्राव. पुद्गलादानविच्छेदः स्यात्तपस्विनः। स द्रव्यसंवरः नि. मलय. वृ. ८६०; जम्बूद्वी. शा. वृ. १, पृ. प्रोक्तो ध्याननि—तकल्मषः ॥ (ज्ञाना, ५-२) । १०)।
८. भाविकल्मषविशेषरोधकं द्रव्यसंवरमपास्तकल्म१ हाथ, पैर व शिर प्रादि के संचालनादि के रोक षम् । (प्रमित. पा. ३-६०)। ६. xxx देने को द्रव्यसंकोच कहते हैं। यह द्रव्यसंकोचरूप दव्वासवरोहणो अण्णो । (द्रव्यसं. ३४)। १०. भावसंपूजा है।
वरात् कारणभूतादुत्पन्न: कार्यभूतो नवतरद्रव्यकर्माद्रव्यसंयोग-द्रव्योव्याणां वा संयोगो द्रव्यसंयोगः। गमनाभावः स द्रव्यसंवरः। (बृ. द्रव्यसं. ३४)। (उत्तरा. चू. पृ. १५)।
११. तेन भावनिमित्तेन नवतर द्रव्यकर्मागमनिरोधो धिक व्यों के संयोग को द्रव्यसंयोग द्रव्यसंवरः। (पंचा: का. जय.व. १०८); भावकहते हैं।
संवराधारेण नवतरकर्मनिरोधो द्रव्यसंवरः। (पंचा. दव्यसंयोगपद-द्रव्यसंयोगपदानि यथा-इभ्यः का. जय. ब. १४२)3; तन्निमित्तद्रव्यकर्मनिरोधो गौथः दण्डी छत्री गर्भिणी इत्यादीनि, द्रव्यसंयोग- द्रव्यसंवरः । (पंचा. का. जय. व. १४३)। १२. निबन्थनत्वात्तेषाम् । (घव. पु. १, पृ. ७७); घणु- द्रव्यतो जलमध्यगतनावादेरनवरतप्रविशज्जलानां हासि-परसादिसंजोगेण संजुत्तपुरिसाणं घणुहासि• छिद्राणां तथाविधद्रव्येण स्थगनं संवरः। (स्थाना. परसुणामाणि दव्वसंजोगपदाणि । (षव. पु. ६, पृ. अभय. पू. १-१४, पृ. १९) । १३. यः कर्मपदगला. १३७)।
दानच्छेदः स द्रव्यसंवरः। (योगशा. ४-५०)। बनवान्, गोय, दण्डी, छत्री, गाभणी, धनुष, मसि १४. व्रतात्तः कर्मसंरोषः स भवेद् द्रव्यसंवरः ।
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यसंसार
५५९, जैन-ममतापनी (भावसं. बाम. २८९)। १५. भावसंवरपूर्वको ३. द्रव्यसामायिकं सुबर्ण-मत्तिकादिद्रज्येष रम्यारम्ये. द्रव्यसंवरः कर्मपुदगल ग्रहणविच्छेद इत्यर्थः । (त. ष समदशित्वम् । xxx द्रव्यसामायिकं भविवृत्ति श्रुत. ६-१)। १६. कर्मणामाश्रयो भावो ष्यत्परिणामाभिमुखमतीततत्परिणामं वा वस्तु द्रव्यम्, रागादीनामभावतः । तारतम्यतया सोऽपि प्रोच्यते । तस्य सामायिकम् । (अन. घ. स्वो. टी. ८-१९)। द्रव्यसंवरः। (जम्बू. च. १३-१२४)। १७. चिद. ४. इष्टानिष्टेषु चेतनाचेतन द्रव्येष राग-द्वेषनि वृत्तिः, चिदभेदज्ञानान्निविकल्पात्समाधितश्चापि । कर्मा- सामायिकशास्त्रानुपयुक्त.ज्ञायक: तच्छरीगदि वा गमननिरोधस्तत्काले द्रव्यसंवरो गीतः। (अध्यात्म- द्रव्यसामायिकम् । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. क. ४-१२)।
३६७-६८)। ५. इट्ठाणिढेसु चेदणाचेदणदव्वेसु १ संसार के कारणभूत भावबन्ध के रुक जाने पर राय-दोसणियटी सामाइयसस्थाणुवजुत्तणायगो तस्सतत्पूर्वक कर्मपुद्गलों के ग्रहण के प्रभाव को द्रव्य- रीरादि बा दव्वसामाइयं । (अंगप. ३-१३, पृ. संवर कहते हैं। १२ बल के मध्यगत नाव के जल ३०५)। साने वाले छेदों को उस प्रकार के द्रव्य से स्थगित चेतन-प्रचेतन द्रव्यों के विषय में राग-द्वेष के न कर देना, इसका नाम द्रव्यसंवर है।
करने को द्रव्यसामायिक कहा जाता है। द्रव्यसंसार-देखो द्रव्यपरिवर्तन ।
द्रव्यसूत्र-देखो द्रव्यश्रत | xxx जिणबयणद्रव्यसाधु-१. दवम्मि लोइमाई xxx॥ विणिग्गयत्थादो प्रविसंवादेण केवलणाणसमाणादो षड-पड-रहमाईणि उ साहंता हंति दवसाहुत्ति । उसहसणादिगणहरदेवेहि विरइयस हरयणादो दव्यपहवावि दव्वभूमा ते हंती दव्यसाहत्ति ।। (प्राव. सुत्तादो xxx। (धव. पु. ६, पृ. ३)। मि. १००८-६)। २. व्यसाह घड-पडाईणि साध- जिन भगवान के मख से जिसका अर्थ निकला है. यंतो दव्यसाह भण्णइ तहा बोडियणिण्हवगादि जो विसंवाद रहित होने से केवलज्ञान के समान है, दवसाधू । (वशवं. चू. पृ. २६१)। ३. द्रव्यसाघु- तथा जिसकी शब्दरचना वषभसेन प्रादि गणधरों
शरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तः लोकिकादिस्त्रिविधः। के द्वारा की गई है उसे द्रव्यसूत्र या द्रव्यभुत जानना तद्यथा-लौकिको लोकोत्तरः कुप्रावचनिकश्च । चाहिए। तत्र यो लोके शिष्टसमाचार: घट-पटादिसाघको वा द्रव्यस्तव-१. दम्वत्थमो पुप्फाई xxx॥ स लौकिकः । कुप्रवचनेष निज-निजसमाचारसम्यक- (प्राव. भा. १९३) । २. 'चउबीसण्हं पि तित्थयरपरिपालनरतः कुप्रावनिकश्च । लोकोत्तरे निहवः सरीराणं विस-सस्थग्गि-पित्त वाद से भजणिदार सअन्यथा पदार्थप्ररूपण तस्तस्य मिथ्यादृष्टित्वात्, वेयणुम्मुक्काणं महामंडलतेएण दससु वि दिसासु शिथिलब्रतो वा वेषमात्रधारणात् । (प्राव. मलय. बारहजोयणेहितो प्रोसारिदंघयाराणं सस्थि-अंकुसा
दिचउस ट्ठिलक्खणावुण्णाणं सुहसंठाण-संघडणाणं सु१लौकिक मादि-लोकिक, लोकोत्तर और प्रा- रहिगधेणामोइयतिहवणाणं रत्तणयण कदक्खसरमो. बचनिक द्रव्यसाषु कहलाते है। घट-पट मादि के क्ख सेय-रय-बियारादिवज्जियाणं पमाणट्ठियणहसिद्ध करने वाले द्रव्यसाधु माने जाते हैं। अथवा रोमाणं खीरोगबेलातरंगजलघवलच उवसट्टिसुवण्णद्रव्यस्वरूप-भाव से विरहित वेषधारी–साधु दंडसुरहिचामरविराइयाणं सुहवण्णाणं सरूवाणुसरणद्रव्य-साथ कहे जाते हैं अथवा जो भविष्य में साथ पुरस्सरं तक्कित्तणं दव्वत्थयो। (जयघ. पु. १, अवस्था को प्राप्त करने वाला है उसे द्रव्यसाथ प.११०-११)। ३. तीर्थकरशरीराणं परमौदामानना चाहिए।
रिकस्वरूपाणां वर्णभेदेन स्तवनं द्रव्यस्तवः। 'मूला. द्रव्यसामायिक-१. सच्चित्ताचित्तदम्वेसु राग- . ७-४१) । ४. वपुर्लक्ष्मगुणोच्छ यजनकादिमुखेन दोसणिरोहो दब्वसामाइयं । (जयष. १, प. या। लोकोत्तमानां सकीर्तिश्चित्रो द्रव्यस्तवोऽस्ति २८) । २. सुवर्ण रजत-मुक्ताफल-माणिक्यादि- सः॥ (प्रन. प.८-४१)। ५. द्रव्यविषयो द्रव्यस्तमत्तिका-काष्ठ-लोष्ठ-कण्टकादिषु समदर्शनं राग-द्वेष- वः xxx द्रव्यस्तदः पुष्पादिः, प्रादिसब्दात् योरभावो द्रव्यसामायिकं नाम । (मूला. वृ. ७-१७)। गन्धधुपादिपरिग्रहः कारणे कार्योपचाराच्चवमाह,
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यस्त्री]
... ५.,पन-लक्षणावती
समानुयोग
प्रन्यथा द्रव्यस्तवः पुष्पारिभिः समभ्यर्चनमिति . दब्बफासो। (षट्कं. ५, ३, १२)। २. एयपोग्गलद्रष्टव्यम् । (प्राव. भा. मलय. व. १६३, पृ.५६०)।. दम्वस्स सेसपोग्गलदम्वेहि संजोगो समवाप्रो वा १ पुष्प व गन्ध-धुपादि रूप पूजा की सामग्री को दवफासो णाम। अघवा जीवदम्बस्स पोग्गलदव्वस्स कारण में कार्य के उपचार से द्रव्यस्तव कहा जाता य जो एयत्तेण संबंधो सो दव्वफासो णाम । (धव. है। २ विष-शस्त्रादि जनित वेदना से रहित, अपने पु.१३, पृ. ११) । तेज से दसों दिशानों में बारह योजन प्रमाण क्षेत्र १एक द्रव्य अन्य द्रव्य का जो स्पर्श करता है, इसे से अन्धकार को दूर करने वाले, स्वस्तिक व अंकुश द्रव्यस्पर्श कहते हैं। २ एक पुद्गल द्रव्य का जो प्रादि चौसठ लक्षणों से परिपूर्ण, उत्तम संस्थान व शेष पुदगल द्रव्यों के साथ संयोग या समवायरूप संहनन से सहित, सुरभि गन्ध से तीनों लोकों को सम्बन्ध होता है इसका नाम द्रव्यस्पर्श है। अथवा सुगन्धित करने वाले, लाल नेत्र व कटाक्षरूप बाणों जीवद्रव्य का पुद्गल द्रव्य के साथ जो एकत्वरूप से के छोड़ने प्रावि रूप विकार से विरहित तथा सम्बन्ध होता है उसे भी द्रव्यस्पर्श कहा जाता है। प्रमाणयुक्त नख-रोमादि से संयुक्त ऐसे चौबीस द्रव्यागार-द्रव्यागारमगैः- द्रुम-दृषदादिभिःतीथंकरों के शरीरों का स्वरूपानसरणपूर्वक कीर्तन निर्वृत्तम् । (उत्तरा. नि. शा. व. १-१ पृ. १६)। फरना, इसका नाम द्रव्यस्तव है। ५ द्रव्यविषयक वृक्ष (लकड़ी) एवं पत्थर प्रादि से बनेए घर स्तवन-पुष्प एवं गंध-घुपादि-को कारण में कार्य को द्रव्यागार कहते हैं। का उपचार करके द्रव्यस्तव कहा जाता है। अधि- द्रव्याग्नि-दव्वाइसन्निकरिसा उप्पन्नो नाणि प्राय यह है कि पुष्पादि द्रव्य से पूजा करना, इसे चेव डहमाणो । दम्वम्गित्ति पवुच्चइ प्रादिमभावाइद्रव्यस्तव कहते हैं।
जुत्तो वि ।। (बृहत्क. २१४७) । द्रव्यस्त्री-१. स्त्रीवेदोदयसहितांगोपांगनामकर्मों- जो द्रव्य-प्ररणि काष्ठ व पुरुष-प्रयत्न-के दयात् निर्लोम मूख-स्तन योन्यादिलिंगलक्षितशरीरा सम्बन्ध से उत्पन्न होकर उन्हीं काष्ठ मादि द्रव्यों द्रव्यस्त्री। (गो. जी. म. प्र.टी. २७१) । २. स्त्री को जला देता है वह प्रादिम (प्रोदयिक) भाववेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्तांगोपांगमामकर्मो- अग्निनामकर्म के उदय व पारिणामिक भाव-से दयेन निर्लोममुख-स्तन-योनादिलिंगलक्षितशरीरयुक्तो संयुक्त होने पर भी द्रव्य अग्नि कहलाता है। जीवो भवप्रथमसमयमादि कृत्वा तद्भवचरमसमय- द्रव्याजीव- द्रव्याजीवो गुणादिवियुतो बुद्धिस्थापर्यतं द्रव्यस्त्री । (गो. जी. जी. प्र. टी. २७१)। पितः। (त. भा. सिद्ध. ५.१-५, पृ. ४६)। १ स्त्रीवेद के उदय के साथ अंगोपांगनामकर्म के गुणादि से रहित बुद्धि में स्थापित पदार्थ को द्रव्याउदय से जिसका शरीर रोमरहित मुख के साथ जीव कहते हैं। स्तन और योनि प्रादि चिह्नों से उपलक्षित हो उसे द्रव्याधःकर्म-जं दब्बं उदगाइसु छुडम हे वयइ जं द्रव्यस्त्री कहते हैं।
च भारेणं । सीईए रज्जूएण व प्रोयरण दहे. द्रव्यस्थान-द्रव्यस्थानं सर्वद्रव्याणां स्थानमाकाशः। कम्मं ।। (पिण्डनि. १८)। (उत्तरा. चू. १६. पृ. २४०)।
जो पाषाणादि पानी में छोड़ने पर भार के कारण सर्व द्रव्यों के स्थानभूत प्राकाश द्रव्य को द्रव्यस्थान नीचे जाते हैं तथा जो (पुरुषादि) नसैनी या रस्सी कहते हैं।
के प्राश्रय से क्रमश: नीचे जाते हैं उनकी नीचे द्रव्यस्नाम-जलेन देहदेशस्य क्षणं यच्छद्धिकार- जाने रूप इस क्रिया को द्रव्य-प्रधःकर्म कहा णम् । प्रायोऽन्यानुपरोघेन द्रव्यस्नानं तदुच्यते । जाता है। (अष्टक २-२)।
द्रव्याधिकरण-तत्र द्रव्याधिकरणं छेदन-भेदनादि अन्य के उपरोध के बिना जो जल से क्षण भर के शस्त्रं च दसविधम् । (त. भा. ६-८)। लिए शरीर देश को शुद्धि का कारण है उसे द्रव्य- छेदन-भेदने प्रादि के उपकरणों और दश प्रकार के स्नान कहते हैं।
शस्त्रों को द्रव्याधिकरण कहते हैं। द्रव्यस्पर्श-१. जं दवं दध्वेण पुसदि सो सम्बो द्रव्यानुयोग-१. जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये व
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
दम्याभिग्रह) ५५१, जैन-लक्षणावली
च्यार्थिकमय बन्ध-मोक्षी ध। द्रव्यानुयोग-दीपः श्रुतविद्यालोक- तद्विषयो द्रव्याथिकः। (स. सि. १.३३) । २. तित्यमातनुते ॥ (रत्नक. ४६) । २. दव्वस्स जोडणुप्रोगो यरवयणसंगहविसेसपत्थारमूलवायरणी। दव्वट्टियो दब्वे दव्वेण दव्वहेऊ वा। दव्वस्स पज्जवेण व जोगो य पज्जयणयो य सेसा वियप्पासि ॥ दव्वट्ठियणयदब्वेण वा जोगो ॥ बहुवयणप्रोऽवि एवं नेपो जो पयई सुद्धा संगहपरूवणाविसयो। (सन्मति. १, वाकहे अणुव उत्तो। दबाणुयोग एसो xxx॥ ३-४)। ३. द्रव्यमस्तीति मतिरस्य द्रव्यभवनमेव (विशेषा. १३९८-९९)। ३. जीवाजीवपरिज्ञानं नातोऽन्ये भावविकाराः, नाप्यभावस्तव्यतिरेकेणाघर्माधर्मावबोधनम् । बन्ध-मोक्षज्ञता चेति फलं नुपलब्धेरिति द्रव्यास्तिक: । xxx अथवा द्रव्यद्रव्यानुयोगतः ॥ (उपासका. ६१६)। ४. प्राभत- मेवार्थोऽस्य, न गुण-कर्मणी, तदवस्थारूपत्वादिति तत्त्वार्थसिद्धान्तादौ यत्र शुद्धाशुद्धजीवादिषड्द्रव्या- द्रव्याथिकः । xxx घथवाऽर्यते गम्यते निष्पादीनां मुख्य वृत्त्या व्याख्यानं क्रियते स द्रव्यानुयोगो द्यत इत्यर्थः कार्यम् । द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारभण्यते । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४२, पृ. १६०)। णम् । द्रव्यमेवार्थोऽस्य कारणमेव कार्य नार्थान्तरम्. ५. द्रव्यस्य द्रव्याणां द्रव्येण द्रव्यद्रव्ये द्रव्येषु वा न च कार्य-कारणयोः कश्चिद् रूपभेदः तदुभयमेका. अनुयोगो द्रव्यानुयोगः। (प्राव. नि. मलय. व. कारमेव पर्वांगुलिद्रव्यवदिति द्रव्याथिकः।xxx १२६, पृ. १३०)। ६. जीवाजीवौ बन्ध-मोक्षी अथवा ऽर्थनमर्थः प्रयोजनम्, द्रव्यमेवार्थोऽस्य प्रत्ययापुण्य-पापे च वेदितुम् । द्रव्यागुयोगसमयं समयन्तु भिघानानुप्रवृत्तिलिंगदर्शनस्य निह्नोतुमशक्यत्वादिति महाधियः ॥ (अन. प. ३-१२) ।
द्रव्याथिकः। (त. वा. १, ३३, १)। ४. द्रवति १ जो श्रुतज्ञान के प्रकाश में जीव-अजीव, पुण्य-पाप- द्रोष्यति प्रदुद्रुवदिति वा द्रव्यम्, तदेवार्थो यस्य स मौर बन्ध-मोक्ष प्रादि तत्त्वों को दीपक के समान द्रव्याथिकः, सोऽभेदाश्रयः। (लघीय. स्वो. पु. ३०, प्रगट करता है उसे दृव्यानुयोग कहते हैं । २ द्रव्य पृ. ६०७) । ५. द्रोष्यत्यदुद्रुवत्तांस्तान् पर्यायानिति का, द्रव्य में, द्रव्य के द्वारा अथवा द्रव्यहेतुक जो द्रव्यम्, द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्याथिकः । मनुयोग होता है उसका नाम द्रव्यानयोग है। (धव. पु. १, पृ. ८३); द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनइसके अतिरिक्त द्रव्य का पर्याय के साय अथवा मस्येति द्रव्याथिकः। (घव. पु. ६, प. १७०)। द्रव्य का द्रव्य के ही साय जो योग (सम्बन्ध) होता ६. द्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्याथिकः। तदभव. है उसे भी द्रव्यानुयोग कहा जाता है। इसी प्रकार लक्षणसामाग्येनाभिन्नं सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नबहुवचन (द्रव्यों का व द्रव्यों में इत्यादि) से भी मभिन्नं च वस्त्वभ्युपगच्छन् द्रव्याथिक इति । (जयजानना चाहिए।
ष. १, पृ. २१६)। ७. पज्जयगउणं किच्चा द्रव्याभिग्रह - लेवडमलेवर्ड वा अमुगं दव्वं च दव्वं पि य जो हु गिहए लोए। सो दवस्थिय प्रज्ज भिच्छामि । प्रमुगेण व दवेणं अह दव्वाभि- भणिनो xxx॥ (ल. न.च. १७; द्रव्यस्व. ग्गहो नाम । (बहत्क. १६४८)।
१९०)। ८. अनुप्रवृत्तिः सामान्यं द्रव्यं चैकार्थवालेपकृत (लेपमिश्रित जगारी प्रादि) या लेप से चकाः । नयस्तद्विषयो यः स्याज्ज्ञेयो द्रव्याथिको हि रहित (बाल व चना मादि) भोज्य वस्तु को, सः॥ (त. सा. १-३९)। ६. जो साहदि सामण्णं अथवा अमुक (मंडक प्रादि) वस्तु को मैं माज प्रविणाभूदं विसेसरूवेहिं । णाणाजुत्तिबलादो दव्वग्रहण करूंगा, अथवा प्रमुक द्रव्य-जैसे कलछी या त्थो सो णमो होदि ॥ (कातिके. २६६)। चम्मच आदि-के द्वारा दिये गये भोज्य पदार्थ १०. द्रव्यमेवार्थों विषयो यस्यास्ति स द्रव्याथिकः । को ही मैं प्राज ग्रहण करूंगा; इस प्रकार के नियम- (प्र. क. मा. ६-७४, पृ. ६७६)। ११. द्रव्यमेवार्थः विशेष का नाम द्रव्याभिग्रह है।
प्रयोजनमस्येति द्रव्याथिकः। (नि. सा. वृ. १६)। द्रव्याथिकनय-१. द्रव्यमथं प्रयोजनमस्येत्यसो १२. द्रवति द्रोष्यति अदुद्रवत् तांस्तान् पर्यायानितिद्रव्याथिकः । (स. सि. १-६; धव. पु. ६, पृ. द्रभ्यम्, तदेवार्थः, सोऽस्ति यस्य विषयत्वेन स द्रव्याथि१७०); द्रव्यं सामान्यमुत्सर्गः अनुवृत्तिरित्यर्थः, कः। (रत्नाकरा. ७-५, पृ. १२५)। १३. द्रव्यं सामा
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
दण्यार्थिकनिक्षेप] ५६२, जैन-वक्षणाबली
[द्रव्यावश्यक ग्यमभेदोऽन्वय उत्सर्गोऽयों विषयो येषां ते द्रव्याथि- विषय को ग्रहण करता है उसे द्रव्याथिक नंगममय काः । (लघीय. अभय. व. ३०, पृ. ५१)। १४. द्रव्यं कहते हैं । सामान्यम् उत्सर्गः अनुवृत्तिरिति यावत्, द्रव्यम् द्रव्यावग्रह-१. चेयणमचित्त मीसग दव्वा खलु अर्थो विषयो यस्य स द्रव्याथिकः । (त. वृत्ति श्रुत. उग्गहेसु एएसु । जो जेण परिम्गहिरो सो दवे उग्ग१-३३)। १५. द्रव्यं सन्मुखतया केवलमर्थः प्रयो- हो होइ॥ (बहत्क. ६८१)। २. सचित्तादिद्रव्याजनं यस्य । भवति द्रव्याथिक इति नयः स्वधात्वर्थ- वग्रहणं द्रव्यावग्रहः। (प्राव. नि. हरि. व. १२२१, संज्ञकश्चकः । (पञ्चाध्या. १-५१८)।
पृ. ५४६)। ३. द्रव्यस्य मुक्ताफलादे रवग्रहणं द्रव्याव१ जिसका प्रयोजन द्रव्य है, अर्थात् जो द्रव्य ग्रहः । (प्रव. सारो. व. १२६)। (सामान्य) को विषय करता है उसे द्रव्याथिकनय १ देवेन्द्र, राजा, गहपनि, सागारिक और सामिक कहते हैं। १२ जो विविध पर्यायों को वर्तमान में इन पांच प्रवग्रहों में जो चेतन-स्त्री-पुरुषादिक, प्राप्त करता है, भविष्य में प्राप्त करेगा, और अचेतन-वस्त्र-पात्रादि-और मिश्र-अलंकारजिसने भूतकाल में उन्हें प्राप्त किया है, उसका युक्त स्त्री-पुरुषादि-द्रव्य हैं, वे तत् तत् (देवेन्द्र नाम द्रव्य है। इस द्रव्य को विषय करने वाला प्रादि) द्रव्यावग्रह कहलाते हैं। २ सचित्त प्रादि नय द्रव्याथिक नय कहलाता है।
द्रष्य के प्रवग्रहण का नाम द्रव्याव ग्रह है। नाम व द्रव्याथिकनिक्षेप-द्रवति अतीतानागतपर्यायान- स्थापनादि के भेद से छह प्रकार के प्रवग्रह में यह धिकरणत्वेन अविचलितरूपं स (सत) गच्छतीति तीसरा है।। द्रव्यम्, तच्च भूत-भाविपर्यायकारणत्वात् चेतनम- द्रव्यावधिमरण-किमुक्तं मवति ? अवधि: चेतनं वा अनुपचरितमेव द्रव्याथिकनिक्षेपः । मर्यादा, ततश्च यानि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽय:(सन्मति. अभय. वृ. ६, पृ. ३८७)।
कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते पुनर्यदि तान्येवानुभूय जो स्थिर स्वरूप (ध्रवना) को प्राप्त होता हा मरिष्यति तदा द्रव्यावधिमरणम्, तद्रव्यापेक्षया भूत और भविष्यत् काल की पर्यायों को प्राधार पुनस्तद्ग्रहणावधेर्यावज्जीवस्य मृतत्वात्, सम्भवति रूप से प्राप्त होता है उसका नाम द्रव्य है। वह हि गृहीतोज्झितानामपि कर्मदलिकानां पुनर्ग्रहणं चेतन अथवा प्रचेतन द्रव्य ही निश्चय से भत और परिणामवैचित्र्यादिति । (प्रव. सारो.व. १००६, भावी पर्यायों का कारण होने से अनुपचरित पृ. २६६)। द्रव्याथिकनिक्षेप कहलाता है। उदाहरण के रूप में प्रवधिका अर्थ मर्यादा होता है। नारक प्रादि शब्द के कृतक (अनित्य) होने पर भी वह संकेत भव के कारण रूप से जिन प्राय कर्म के प्रदेशों का द्वारा जिस-जिस अर्थ में नियक्त किया जाता है अनभव करके मरता है, वह यदि फिर से उन्हीं उस-उस अर्थ में वह वाचक रूप से प्रवृत्त का अनभव करके मरेगा तो यह द्रव्यावधिमरण होता है। इस प्रकार द्रव्य के सदृश होने से कहलाता है। कारण यह है कि उन द्रव्यों की वह द्रव्याथिक निक्षेप है। कारण यह कि वाच्य अपेक्षा उनके फिर से ग्रहण होने तक जीव मरण
और वाचक एवं उनके सम्बन्ध के नित्य होने से को प्राप्त होता है। इसका भी कारण यह है कि द्रव्यार्थता वहां है ही।
परिणामों की विचित्रता से जिन कर्मप्रदेशों को द्रव्याथिकनैगम-१. सर्वमेकं सदविशेषात्, सर्व ग्रहण करके छोड़ दिया है उनका फिर से ग्रहण द्विविधं जीवाजीवभेदादित्यादियुक्त्यवष्टम्भबलेन होना सम्भव है। विषयी कृतसंग्रह व्यवहारनयविषयः द्रव्याथिकनेगमः। द्रव्यावश्यक-१. तत्र द्रवति गच्छति तांस्तान् (जयध. पु. १, प. २४४)। २. न एकगमो नैगम पर्यायानिति द्रव्यं, द्रव्यं च तदावश्यकं च द्रव्यावइति न्यायात् Xxx (शुद्धाशुद्ध) द्रव्याथिकनय- श्यकम, भावावश्यककारणमित्यर्थः । (अनयो. हरि. द्वयविपयः द्रव्याथिकनेगमः । (धव. पु. ६, पृ. व. पृ.८)। २. तत्र द्रवति गच्छति तांस्तान् पर्या१८१)।
यानिति द्रव्यम्-विवक्षितयोरतीत-भविष्यद्भावयोः १ जो संग्रह और व्यवहार इन दोनों नयों के कारणम्, अनुभूतविवक्षित भावमनुभविष्यद्विवक्षित.
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यावीचिमरण]
५६३, जैन-लक्षणावली
[द्रव्येन्द्रिय
भावं वा वस्त्वित्यर्थः, द्रव्यं च तदावश्यकं च द्रव्या- समासवदि । दश्वासवो स यो प्रणेयभेप्रो जिणवश्यकम्, अनुभूतावश्यकपरिणाममनुभविष्यदावश्यक- क्खादो ।। (द्रव्यसं. ३१)। ३. लघृण तं णिमित्तं परिणाम वा साधुदेहादीत्यर्थः। (अनुयो. मल. हे. जोगं जं पुग्गले पदेसत्थं । परिण मदि कम्मभावं तं पि वृ. सू. १२)।
हु दवासवं जीवे ॥ (द्रव्यस्व. १५३)। ४. भावा. २ प्रतीत और भविष्यत् विवक्षित पर्याय का जो नवनिमित्तेन तेलमृक्षितानां धूलिसमागम इव ज्ञानाकारण है वह द्रव्य कहलाता है, द्रव्यस्वरूप प्राव- वरणादिद्रव्यकर्मणामास्रवणमागमनं द्रव्यास्रवः । श्यक को द्रव्यावश्यक जानना चाहिए। अभिप्राय (व. द्रव्यसं. टी. २६)। ५. भावनिमित्तेन कर्म. यह है कि जो प्रावश्यक परिणाम का अनुभव कर वर्गणायोग्य पुद्गलानां योगद्वारेणागमनं द्रव्यास्रवः । चुका है या भविष्य में अनुभव करने बाला है ऐसे (पंचा. का. जय. व. १०८)। ६. उदयोदीरणाकर्म साधु-शरीरादि को द्रव्यावश्यक जानना चाहिए। द्रव्यास्रवो मतः (?) । (प्राचा. सा. ३-३०)। द्रव्यावीचिमरण-१. अणुसमयनिरंतरमाविइस- ७. ततो द्रव्यास्रवो योऽसौ कर्माष्टकसमाश्रयः । न्निय तं भणंति पंचविहं। दवे खेत्ते काले भवे य (भावसं. वाम. १८६)। ८. सत्सु भावास्रवेष्वाश भावे य संसारे ॥ (प्रव. सारो. १००८)। २. तत्र योग्या: कार्मणर्गणाः। गच्छन्ति कर्मपर्यायः स च
'चिमरण नाम यन्नारक-तिर्यग्नरामराणामूत्प- द्रव्यानवः स्मृतः ।। (जम्ब.च. ३-५५); तदेतो: त्तिसमयात् प्रभृति निज-निजायुःकर्मदलिकानामनुस-- कर्मरूपेण भावो द्रव्यासवः स्मृतः। (जम्बू. च. मयमनुभवनाद्विचटनम् । (प्रव. सारो. वृ. १००८, १३-१०१)। पृ. २६९)।
१ अात्मा में समवाय को प्राप्त हए जो कर्मपुदगल नारकी, तिर्यंच, मनष्य और देवों के उत्पन्न होने के रागादि परिणामरूप से उदय को प्राप्त नहीं है प्रथम समय से लेकर प्रतिसमय अपने-अपने उन्हें द्रव्यास्रव कहा जाता है। २ ज्ञानावरणादि के आयुकर्म के निषेक उदय में प्राकर जो झड़ते जाते योग्य पुद्गलों के प्रागमन को द्रव्यास्रव कहते हैं। हैं उसे द्रव्यावीचिमरण कहते हैं।
द्रव्येन्द्रिय--१. निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् । (त. द्रव्यास्तिक-देखो द्रव्याथिकनय । १. तथा अव्य- सू. २-१७)। २. द्रव्येन्द्रियं पुद्गलात्मकम् । वच्छित्तिप्रतिपादनपरो नयः अव्यवच्छित्तिनयः, (लघीय. स्वो. व. १-५)। ३. द्रव्येन्द्रियं बाह्यद्रव्यास्तिकनय इत्यर्थः । (नन्दी. हरि. व. पृ.८४)। निवृत्तिसाधकतमकरणरूपम् । (ललितवि.पू. ३६)। २. एवं च ध्रौव्यद्रव्यास्तिकः, अस्तीति मतिरस्ये- ४. तत्र पुद्गलैबर्बाह्यसंस्थाननिर्वृत्तिः कदम्ब पुष्पाद्यात्यास्तिकः द्रव्य एवास्तिको द्रव्यास्तिकः । (त. भा. कृतिविशिष्टोपकरणं च द्रव्येन्द्रियम् । (नन्दी. हरि. सिद्ध. वृ. ५-२६, पृ. ३७५); अस्ति मतिरस्येत्या- व. पृ. २८)। ५. प्रात्मभावपरिणामस्य भाविनो स्तिकम्, xxx द्रव्ये आस्तिकं द्रव्यास्तिकम् । यत् सहायतया क्षमं द्रव्यं तदिह द्रव्येन्द्रियं प्रस्थदाxxx अथवा अधिकरणशेषभावविवक्षायां द्रव्य- रुवदेषितव्यम् । (त. भा. सिद्ध. व. २-१७)। स्यास्तिकं द्रव्यास्तिकम् । अथवा प्रास्तिकमस्तिमति। ६. द्रव्येन्द्रियं नाम निर्वृत्त्युपकरणो मसरिकादिकिं तत् ? नयरूपं प्रतिपायितु । कस्य प्रतिपाद- संस्थानो यः शरीरावयवः कर्मणा निर्वय॑ते इति कम् ? द्रव्यस्य । (त. भा. सिद्ध. व. ५-३१, प. निर्वृतिः। (भ. प्रा. विजयो. ११५); द्रव्येन्द्रियं ४००)।
पुद्गलस्कन्धाः प्रात्मप्रदेशाश्च तदाधाराः। (भ.प्रा. १ अव्यवच्छित्ति (ध्रुवता) के प्रतिपादन करने विजयो. ३१३)। ७. निवृत्तिश्चोपकरणं द्रव्येन्द्रिवाले नय को अव्यवच्छित्तिनय या द्रव्यास्तिकनय यमुदाहृतम् । (त. सा. २-४०, पृ. १०४)। कहा जाता है।
८. द्रव्येन्द्रियं पुद्गलात्मकम्-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शद्रव्यानव-१. द्रव्यास्रवस्तु आत्मसमवेताः पुद्गला वन्तो हि पुद्गलाः, तदात्मकं तत्परिणामविशेषस्व. प्रनदिता रागादिपरिणामेन । (त. भा. सिद्ध. व. भावम् । (न्यायकु. १-५, पृ. १५५) । 8. के. १-५) । २: xxx कम्मासवणं परोहोदि। न्द्रियं गोल कादिपरिणामविशेषपरिणतरूप-रस-त. (व्रव्यसं. २६); णाणावरणादीणं जोग्गं जं पुग्गलं स्पर्शवत्पुद्गलात्मकम् । (प्र. क. मा. २-५, प.
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रध्योत्थान] ५६४, जन-लक्षणावली
[हिल २२६) । १०.xxx तु दव्वं देहुदयजदेहचिण्हं चेव । (मूला. ७-५५); दन्वज्जोवोज्जोवो पडि. तु ॥ (गो. जी. १६५)। ११. पुद्गलपरिणामो हण्णदि परिमिदम्हि खेत्तम्हि । (मूला. ७-५८) । द्रव्येन्द्रियं निर्वृत्त्युपकरणलक्षणम् । (लघीय. अभय. अग्नि, चन्द्र, सूर्य एवं मणि; ये द्रव्योगोतस्वरूप वृ. १-५, पृ. १४)। १२. द्रव्यं पुद्गलपर्यायः, हैं। यह द्रव्योद्योत परिमित क्षेत्र में रहता और तदुपमिन्द्रियं द्रव्येन्द्रियम्। (गो. जी. मं. प्र. टी. अन्य द्रव्य के द्वारा प्रतिघात को भी प्राप्त होता है। १६५)। १३. प्रतिनियतसंस्थानाभिव्यंजकरूप[पि] द्रव्योपक्रम-१. तत्र द्रव्यस्य नटादेरुपक्रमणंपुदगलद्रव्यात्मकमिन्द्रियं द्रव्येन्द्रियम् । (गो. जी. जी. कालान्तरभाविनापि पर्यायेण सहेदानीमेबोपायविशेप्र. १६५)।
षतः संयोजनं द्रव्योपक्रमः, अथवा द्रव्येण-घृतादि१निवत्ति सौर उपकरण को द्रव्येद्रिय कहा जाता ना, द्रव्ये भूम्यादी, द्रव्यतः घृतादेरेवोपक्रमो द्रव्योपहै। ४ पुद्गलों के द्वारा जो बाहिरी प्राकार की क्रम इत्यादिकारकयोजना विवक्षया कर्तव्येति । रचना होती है उसे तथा कदम्बपुष्पप्रादि के प्राकार (अनुयो. मल. हेम.. ६०, पृ. ४५)। २. द्रव्यस्य से युक्त उपकरण-ज्ञान के साधन-को द्रव्येन्द्रिय द्रव्याणां द्रव्येण द्रव्यर्वा द्रव्ये द्रव्येषु वा उपक्रमो कहते हैं।
द्रव्योपक्रमः। तत्र द्रव्यस्योपक्रमो यथा एकस्य पुरुषस्य द्रव्योत्थान-द्रव्योत्थानं शरीरं स्वा
शिक्षाकरणम्, द्रव्याणामुपक्रमो यथा तेषामेव बहुनाम, अविचलमवस्थानम् । (भ. प्रा. विजयो, ११६)। द्रव्येणोपक्रमो यथा फलकेन समुद्रतरणम्, द्रव्यरूपकायोत्सर्ग करते समय शरीर को स्थाणु (बूंठ) के क्रमो बहुभियंथा फलकै बं निष्पाद्य समुद्रोल्लंघनम्, समान ऊंचा स्थिर रखने को द्रव्योत्थान कहते हैं। द्रव्ये उपक्रमो यथा कस्याप्ये कस्मिन् फलके उपयह उत्थितोत्थित कायोत्सर्ग के प्रसंग में कहा गया विष्टस्य शिक्षाकरणम्, द्रव्येषूपक्रमो बहुषुपविष्टद्रव्योत्थान का लक्षण है।
स्य । (प्राव. नि. मलय.व. ७६)। -यत्र द्रव्ये उत्सृजति द्रव्यभूतो वा अनु- १ नट आदि द्रव्य का कालान्तर में होने वाली भी पयुक्तो वा उन्सृजति एष द्रव्योत्सर्गः। (माव. नि. पर्याय के साथ उपायविशेष से वर्तमान में ही संयोहरि. व. १४५२, ५७७१)।
जन करने को द्रव्योपक्रम कहते हैं। अथवा घी जिस द्रव्य के विषय में त्याग करता है उसे प्रादि के द्वारा, अथवा भूमि प्रादि द्रव्य के विषय द्रव्योत्सर्ग कहते हैं, अथवा जो द्रव्यभूत या तद्विष. में अथवा घृत प्रादि द्रव्य से जो उपक्रम किया यक उपयोग से रहित ज्ञाता है उसे द्रव्योत्सर्ग जाता है उसे द्रव्योपक्रम जानना चाहिए; इत्यादि जानना चाहिए।
विवक्षा के अनुसार कारकों को योजना करना द्रव्योत्सत (कायोत्सर्ग)-१. धम्म सुक्कं च दुवे चाहिए। नवि झायइ नवि य अट्ट-रुद्दाई। एसो काउस्सग्गो द्रुहिल-द्रोहस्वभावं द्रुहिलम्, यथा-"यस्य दव्युसियो होइ नायव्वो ॥ (माव. नि. १४८०)। बुद्धिनं लिप्यते हत्वा सर्वमिदं जगत् । प्राकाशमिव २. धर्म शुक्लं च द्वे नापि ध्यायति, नापि भार्त-रौद्रे, पङ्कन नासो पापेन युज्यते ॥" कलुषं वा दृहिलम्, एष कायोत्सगो द्रव्योत्सतो भवति । (प्राव. नि. येन समता पुण्य-पापयोरापाद्यते, यथा- एतावानेव हरि. वृ. १४८०)।
लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः। भद्रे वृकपदं पश्य सोनोधर्म और शक्ल इन दो का ध्यान करता यद वदन्ति बहश्रुताः ।। इत्यादि। (प्राव.नि.रि. है और न मार्त व रौद्र इन दो का भी ध्यान व मलय. वृ. ८८१)। करता है, यह द्रव्योत्सृत कायोत्सर्ग कहलाता है। द्रोहात्मक वचन को हिल कहा जाता है। जैसेद्रव्योद्गम-दव्वंमि लड्डगाइ xxx । समस्त लोक को नष्ट करके जिसकी बुद्धि लिप्त (पिण्डनि. ८६)।
नहीं की जाती है वह, जैसे कीचड़ से प्राकाश द्रव्य-लडडू मादि-विषयक उद्गम को द्रव्योद- कभी लिप्त नहीं होता, वैसे पाप से लिप्त नहीं गम कहा जाता है।
होता है। प्रथवा जिस वचन के द्वारा पुण्य और द्रव्योद्योत-दन्वज्जोवो भग्गी चंदो सूरो मणी पाप में समानता दिखलायी जाती है ऐसे मलिन
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
दोण]
५६५, जैन-लक्षणावली द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म वचन को हिल जानना चाहिए। यह ३२ सूत्र- द्वापरयुग्म-देखो बादरयुग्म । इयमत्र भावनादोषों में छठा सूत्रदोष है।
केचिद्विवक्षिताः राशयश्चत्वारः स्थाप्यन्ते, तेषां द्रोण-१. चतुराढक द्रोणः। (त. वा. ३, ३८, चतुभिर्भागो ह्रियते, भागे च हृते xxx द्वी ३, पृ. २०६) । २. चतुर्भिराढकोणो xxx
शेषौ स द्वापरयुग्मः, यथा चतुर्दश । (पंचसं. मलय. (गणितसा. १-३७)।
ब. अनु. ५८, पृ. ५०)। १चार प्राढक प्रमाण माप को द्रोण कहते हैं। जिस राशि में चार का भाग देने पर दो शेष रहते द्रोणपथ-देखो द्रोणमुख । द्रोणपथं जल स्थल
हैं उसे द्वापरयुग्म कहते हैं। जैसे-१४:४३, पथोपेतम् । जलपथयुक्तं स्थलपथयुक्तं वा रत्नभू
शेष २)। मिः इत्यन्ये । (प्रश्नव्या. अभय.व. पृ. १७५)। द्वापरयुग्मकल्योज-जे णं रासी चउक्कएणं प्रवजो नगर जलमार्ग और स्थलमार्ग दोनों से संयक्त हारेणं अबहीरमाणे एगपज्जवसिए जे णं तस्स होता है उसे द्रोणपथ कहते हैं। दूसरे किन्हीं का रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा, से तं दावरकहना है कि जलमार्ग अथवा स्थलमार्ग से युक्त जुम्मकलिगोगे। (भगवती ४, ३५, १, २, पृ. रत्नमूमि को द्रोणपथ कहा जाता है। द्रोणमुख-देखो द्रोणपथ । १. दोणामुहाभिधाणं
जिस राशि में चार का भाग दिये जाने पर एक सरिव इवेलाए वेढियं जाण । (ति.प.४-१४००)।
शेष रहे और उस राशि के जो प्रवहारसमय २. समुद्र-निम्नगासमीपस्थमवतरम्नौनिवहं द्रोणमुखं
द्वापरयुग्म होते हैं उसे द्वापरयुग्मकल्योज कहते हैं । नाम । (धव. पु. १३, पृ. ३३५)। ३. द्रोणमुखं
द्वापरयुग्मकृतयुग्म-जे णं रासी चउक्कएणं अवजलपथ-स्थलपथोपेतम् । (प्रोपपा. अभय. व. ३२,
हारेण प्रवहीरमाणे चउपज्जवसिए जे णं तस्स पृ.७४)।
रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा, से तं दावर१ समुद्र की बेला से वेष्टित पुर को द्रोणमुख कहा जुम्मकडजुम्मे । (भगवती ४, ३५, १, २, पृ. जाता है । २ समुद्र पौर नदी के समीपवर्ती स्थान । ३३६)। को, जहाँ नौकाएं उतरती हैं, द्रोणमुख कहते हैं।
जिस राशि में चार का भाग दिये जाने पर दो ३ जलमार्ग और स्थलमार्ग से युक्त स्थान को शष रहे और उस राशि के जो प्रवहारसमय द्रोणमुख कहते हैं।
द्वापरयुग्म होते हैं उसे द्वापरयुग्मकृतयुग्म कहते हैं । द्वन्द्वसमास-१. तयोरितरेतरयोगलक्षणो द्वन्दः। द्वापरयुग्मध्योज-जे णं रासी चउक्कएणं अवतयोरितरेतरयोगलक्षणो द्वन्द्वो वेदितव्यः-द्रव्याणि हारेण प्रवहीरमाणे तिपज्जवसिए जे णं तस्स च पर्यायाश्च द्रव्य-पर्याया इति । (त. वा. १, २६,
रासिस्स प्रवहारसमया दावरजुम्मा से तं दावर५) । २. उभयप्रधानो द्वन्द्वः । (अनुयो. हरि. व. जुम्मतेप्रोगे । (भगवती ४, ३५, १, २, पृ. ३३६) । पृ.७३)।
जिस राशि में चार का भाग दिये जाने पर तीन १ दो पदों के मध्य में जो परस्पर सम्बन्धरूप शेष रहें और उस राशि के जो प्रवहारसमय समास होता है उसका नाम समान हैं प्रकृत में द्वापरयुग्म होते हैं उसे द्वापरयुग्मन्योज कहते हैं। द्रव्य क्षौर पर्याष इन दो शब्दों में द्वन्द्वसमास को द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म-जे णं रासी चउक्कएणं सूचना की गई है। २ जिस समास में दोनों पद
अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए जे णं तस्स प्रधान होते हैं उसे द्वन्द्वसमात कहते हैं।
रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा से तं दावरद्वापर-देखो द्वापरयुग्म । चतुर्विभक्ते द्विशेषो जुम्मदावरजुम्मे । (भगवती ४, ३५, १, २, पृ. द्वापरसंज्ञः। (पञ्चसं. स्वो. कृ. ब. क. ५८, पृ.
जिस राशि में चार का भाग दिये जाने पर दो जिस राशि में चार का भाग देने पर दो शेष रहते शेष रहें और उस राशि के प्रवहारसमय द्वापरउसे वापर कहते है।
मुग्म होते हैं उसे द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म कहते हैं।
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विगुसमास]
५६६, जैन-चक्षणावलो [द्वीन्द्रियजातिनामः द्विगुसमास-संख्यापूर्वकस्तत्पुरुषो द्विगुः समासः। चान्यतरराज्यनिवासिनः इतरराज्ये प्रवेश: xx यथापञ्चनदमित्यादि । (धव. पु. ३, पृ. ७)। ४ । (योगशा. स्वो. विध. ३-६२) । संख्या के साथ जो तत्पुरुष समास होता है वह शत्रुस्वरूप दो राजाओं के राज्य-भूमि अथवा द्विगसमास कहलाता है। जैसे-पञ्चनद (पांच कटक-का उल्लंघन करना, यह द्विडराज्यलंघन नदियों का समूह)।
नामक तीसरे प्राचार्याणवत का एक अतिचार है। द्विचरम-१. चरमत्वं देहस्य मनुष्यभवापेक्षया। द्वितीय मूलगुरण-कोहादिपगारेहिं एवं चिय द्वौ चरमो देही येषां ते विचरमाः। विजयादिभ्य- मोसविरमणं बितिम्रो । (धर्मसं.८५६)। ३च्युता अप्रतिपतितसम्यक्त्वा मनुष्येषत्वद्य संयम. प्रथम अहिंसावत के समान क्रोध व लोभ आदि माराध्य पुनर्विजयादिषूत्पद्य ततश्च्युताः पुनर्मनुष्य- किसी भी कारण से असत्य वचन नहीं बोलना. यह भवमवाप्य सिद्धयन्तीति द्विचरमत्वम् । (स. सि. साधु का दूसरा (प्रसत्यविरमण) व्रत है। ४-२६)। २. द्विचरमा इति ततश्युताः परं द्विर्ज- द्वितीया प्रतिमा-द्वो मासौ यावदखण्डितान्यविनित्वा सिद्धयन्तीति । (त. भा. ४-२७)। राषितानि च पूर्वप्रतिमानुष्ठानसहितानि द्वादशापि ३. द्विधरमत्वं मनुष्यदेहद्वयापेक्षम् । xxx द्वौ व्रतानि पालयतीति द्वितीया। (योगशा. स्वो. विव, चरमौ देही येषां ते द्विचरमाः, तेषां भावो द्विचर- ३-१४८)। मत्वम्, एतन्मनुष्य देहद्व यापेक्षमवगन्तव्यम्-विजया- दो माह तक पूर्व (प्रथम) प्रतिमा के अनुष्ठान दिभ्यः च्युता अप्रतिपतितसम्यक्त्वा मनुष्येषूत्पद्य सहित अखण्डित बारह व्रतों का परिपालन करना संयममाराध्य पुनविजयादिषूत्पद्य च्युता मनुष्यभव. ब उनकी विराधना न होने देना, यह दूसरी मवाप्य सिध्यन्ति इति द्विचरमदेहत्वम् । (त. वा. प्रतिमा है। ४, २६, २)।
द्वितीयोपशमसम्यक्त्व-तथोपशान्तमोहस्योपशम १ सत्र में चरमपने का निर्देश मनुष्यशरीर की श्रेणियोगतः। मोहोपशमजमौपशमिकं तु द्वितीयअपेक्षा से किया गया है। उसका अभिप्राय यह है कम् ।। (त्रि. पु. च.१,३,६०१)।। कि विजयादिक विमानों से च्युत होकर सम्यक्त्व उपशमणि के योग से जिसका मोह (दर्शनमोह) को न छोड़ते हुए जो मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं उपशान्त हो चुका है उसके जो मोह के उपशम से
और वहां संयम का परिपालन करके फिर से सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह द्वितीयोपशम सम्यविजयादि विमानों में उत्पन्न होते हैं, पश्चात् वहां क्त्व कहलाता है। से च्युत होकर पुनः मनुष्य होते हुए मुक्ति को प्राप्त द्विदल-द्विदलं मुद्ग-माषादिधान्यम् । (सा. घ.. होते हैं उनके दो मनष्यभवों की अपेक्षा द्विचरमता स्वो. टी. ५-१८)। सिद्ध है। २ जो विजयादि विमानों से च्युत होते मंग व उड़द प्रादि जिस धान्य के दो भाग हो हए दो बार मनुष्य जन्म लेकर मुक्ति को प्राप्त जाया करते हैं उसे द्विदल कहा जाता है। इसे करते हैं वे द्वि चरम कहलाते हैं।
कच्चे दूध, दही या छांछ के साथ मिलाने पर वह द्विज-द्विजः द्विजर्जातो मातृगर्भ जिनसमयज्ञानगर्भ जीवाश्रित हो जाने के कारण प्रभक्ष्य-खाने के चोत्पादात् द्विजः ब्राह्मण-क्षत्रिय-विशामन्यतमः । लिए अयोग्य-होता है। (सा. घ. स्वो. टी. २-१९)।
द्विपद-सचित्त-प्रधानोत्तर - द्विपदमनुत्तरपुण्यप्रमाता के गर्भ से मौर जैनागम के ज्ञानरूप गर्भ से कृतितीर्थकरनामाद्यनुभवनतः तीर्थकरः। (उत्तरा. जो दो बार जन्म लेते हैं ऐसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और नि. शा. वृ. १-१, पृ. ४)। वंश्यों में किसी को भी द्विज कहा जाता है। अनुपम पुण्य प्रकृतिरूप तीर्थकर नामकर्म का अनदिडराज्यलअन्न-देखो विरुद्ध राज्यातिक्रम । तथा भव करने वाले तीर्थकर द्विपद-सचित्त-प्रधानोत्तर द्विषोविरुद्धयोः राज्ञोरिति शेषः, राज्यं नियमिता कहे जाते हैं।
मिः कटकं वा, तस्य लङ्घनं व्यवस्थातिक्रमः। द्वीन्द्रियजातिनाम-१. जस्स कम्मस्स उदएण व्यवस्था च परस्परविरुद्धराजकृतव, तल्लङ्घनं - जीवाणं बीइंदियत्तणेण समाणत्तं होदि तं कम्म
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
डीद्रियजीव ]
५६७,
बीइं दियणामं । ( व. पु. ६, पृ. ६८ ); बेइंदियभावणिव्वत्तयं जं कम्मं तं बीइंदियजादिणामं । (घव. पु. १३, पृ. ३६३) । २ यदुदयादात्मा द्वीन्द्रिय इत्यभिधीयते तद् द्वीन्द्रियजातिनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११) ।
१ जिस कर्म के उदय से जीवों के द्वीन्द्रिय रूप से समानता होती है उसे द्वीन्द्रियनामकर्म कहते हैं । द्वीन्द्रिय जोव - १. संबुक्क मादुवाहा संखा सिप्पी अपादगो य किमी जाणंति रसं फासं जे ते बेइं दिया जीवा || ( पंचा. का. ११४) । २. खुल्ला वराड संखा श्रक्खुणह अरिट्ठगा य गंडोला । कुक्खि किमि सिपिचाई या बेइंदिया जीवा ॥ ( प्रा. पंचसं. १-७० ) । ३. द्वे इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रि याः । के ते ? शंख- शुक्ति कृम्यादयः । उक्तं चकुक्खि किमि सिप्पि-संखा गंडोलारिट्ठ अक्खखुल्ला य । तह य वराडय जीवा णेधा बीइंदिया एदे || ( धव. पु. १, पृ. २४१ ) ; द्वीन्द्रियजातिनामकर्मोदयाद् द्वीन्द्रियः । ( धव. पु १, पृ. २४८ व २६४ ); फासिंदियावरणसन्वघादिफद्दयाणमुदयवखएण तेसि चेव संतोवसमेण श्रणुदोवसमेण वा देसघादिफद्दयाणमुदण ज़िभिदियावरणस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदयखएण तेसि चेव संतोत्रसमेण प्रणुदप्रोव समेण वा देसघादिफद्दयाणमुदएण चक्खु सोद घाणिदियावरणाणं देसघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसि चैव संतोवस मेण श्रणुदप्रोवसमेण वा सव्वघादिफद्दयाणयुदण खवस मियं जिम्भिदियं समुप्पज्जदि । फासिंदियाविणाभावेण तं चेव जिभिदियं बीइंदियं ति भण्णदि, बोइंदियजादिणामकम्मोदयाविणाभावादो वा । तेण वेइं दियेण वेइंदिएहि वा जुत्तो जेण बीइंदिओ णाम तेण खम्प्रोवसमियाए लद्धीए बीइंदिश्रोत्ति सुत्ते भणिदं । ( धव. पु. ७, पृ. ६४) । ४. स्पर्शन - रसनेन्द्रियावरणक्षयोपशमात् शेषेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रियावरणोदये च सति स्पर्श - रसयोः परिच्छेतारो द्वीन्द्रिया श्रमनसो भवन्तीति । (पंचा. का. अमृत. वृ. ११४) । ५. अनेनैवाभिलापेन द्वयोः स्पर्शन - रसनज्ञानयो: ( प्रावरणक्षयोपशमाद् द्विकविज्ञानभाजः द्वीन्द्रियाः) । ( कर्मस्त. गो. वृ. १, पृ. १७) ।
१ शम्बूक ( एक जलजन्तु), मातृवाह ( एक क्षुद्र कीड़ा), शंख, सीप और पैरों से रहित कृमि प्रादि
जैम-लक्षणावली
[ द्वीपसागर प्रशि
जो जीव स्पर्श और रस को ही जानते हैं वे हीन्द्रिय कहलाते हैं । ५ स्पर्शन और रसना ज्ञानाज्ञानावरण के क्षयोपशम से जो जीव स्पर्श और रस विषयक ज्ञान से युक्त होते हैं उन्हें द्वीन्द्रिय कहते हैं । द्वीपकुमार - १. उरः स्कन्ध - बाह्वप्रहस्तेष्वधिक प्रतिरूपाः श्यामावदाताः सिंहचिह्वा द्वीपकुमाराः । (त. भा. ४ - ११ ) । २. द्वीपकुमारा भूषणनियुक्त सिंहरूपचिह्नराः । ( जीवाजी. मलय. वृ. ११७, पृ. १६१) । ३. द्वीपकुमाराः स्कन्ध-वक्षःस्थल- बाह्वप्रहस्तेष्वधिकशोभाः उत्तप्तहेमप्रभा: । ( संग्रहणी दे. बृ. ३७) । ४. द्वीपक्रीडायोगात् दिविषदोऽपि द्वीपाः । XXX द्वीपाश्च ते कुमाराः द्वीपकुमारा: । (त. वृत्ति श्रुत. ४ - १० ) ।
१ जो भवनवासी देव कन्धों, बाहुनों के अग्रभागों और हाथों में अधिक सुन्दर, वर्ण से श्याम तथा सिंह के चिह्न से युक्त होते हैं वे द्वीपकुमार कहलाते हैं । ४ जो द्वीपों में क्रीडा किया करते हैं उन्हें द्वीपकुमार कहते हैं ।
द्वीप - सागरप्रज्ञप्ति - १. दीव - सायरपण्णत्ती वावण्णलक्ख· छत्तीसपदसहस्सेहि ( ५२३६०००) उद्धारपल्लपमाणेण दीव- सायरपमाणं अण्णं पि दीव-सायरंतब्भूदत्थं बहुभेयं वण्णेदि । ( धव. पु. १, पृ. ११० ) ; द्वीप - सागर प्रज्ञप्तो षट्त्रिंशत्सहस्राधिकद्वापञ्चाशच्छतसहस्रपदायां (५२३६००० ) द्वीपसागराणामियत्ता तत्संस्थानं तद्विस्तृतिः तत्रस्थजिनालयाः व्यन्तरावासाः समुद्राणामुदकविशेषाश्च निरूप्यन्ते । (घव. पु. ६, पृ. २०६ ) । २. जा दीव सागरपण्णत्ती सा दीव- सायराणं तत्थट्ठियजोयिस-वण- भवणावासाणं श्रावासं पडि संट्ठिदकट्टिम - जिणभवणाणं च वण्णणं कुणइ । ( जयघ. १, पृ. १३३ ) । ३. षट्त्रिंशत्सहस्रद्विपंचाशल्लक्षपदपरिमाणा प्रसंख्यातद्वीप समुद्रस्वरूपप्ररूपिका द्वीप सागरप्रज्ञप्तिः । (श्रुतभ. टी. ६, पृ. १७४) । द्वीप - सागर प्रज्ञप्ति: श्रसंख्यातद्वीप-सागराणां स्वरूपस्य तत्रस्थितज्योतिर्वान-भावनावासानाम् श्रावासं प्रति विद्यमाना कृत्रिमजिन भवनादीनां च वर्णनं करोति । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३६१) । ५. तियसुण पणवग्गतियलक्खा दीव-जलहिपण्णत्ती । श्रड्ढाइ ( जा ) उघारसायरमिददीव
४.
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुष] १६८, जैन-मक्षणावली
[धरण जलहिस्स ।। (अंगप. २-८, पृ. २७५) । ६. सर्व १दो स्निग्ध या रुक्ष परमाणुनों के परस्पर श्लेषद्वीप-सागरस्वरूपनिरूपिका षट्त्रिंशत्सहस्राधिकद्वा• रूप बन्ध के होने पर जो स्कन्ध उत्पन्न होता है पंचाशल्लक्षपदप्रमाणा द्वीप-सागरप्रज्ञप्तिः । (त. उसे घणुकस्कन्ध कहते हैं। वृत्ति श्रुत. १-२०)।
धन-धान्यप्रमाणातिक्रम-१. तथा घनं गणिम१ जिसमें बावन लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा घरिम-मेय-परिच्छेद्यभेदाच्चविधम् । तत्र गणिमं द्वीप-समुद्रों के प्रमाण और उनके अन्तर्गत अन्य पूगफलादि, धरिमं गुडादि, मेयं घृतादि, परिच्छेद्यं पदार्थों की भी प्ररूपणा की जाती है उसे द्वीप- माणिक्यादि, धान्यं ब्रीह्यादि । एतत्प्रमाणस्य सागरप्रज्ञप्ति कहते हैं।
बन्धनतोऽतिक्रमोऽतिचारो भवति । (ध. वि. म. द्वेष-१. तत्रैवाग्निज्वालाकल्पमात्सर्यापादनाद् द्वेष ५. ३-२७)। २. घनं गणिम-धरिम-मेय-परीक्ष्यइति । (घ. बि.८-१०)। २. तत्र द्विष्यतेऽनेनेति लक्षणम् । xxx घान्यं सप्तदशविधम् । द्वेष: द्वेषवेदनीयं कर्म, प्रात्मनः क्वचिदप्रीतिपरिणा- यदाह-व्रीहिर्यवो मसूरो गोधूम-मुद्ग-माष-तिल. मापादनात् । द्वेषणं द्वेषः द्वेषवेदनीयकर्मापादितो चणकाः। प्रणवः प्रियङ्गु-कोद्रव-मकुष्ठकाः शालिभावोऽप्रीतिपरिणाम एव । (पंचसू. व्या., पृ. १)। राढक्यः।। किं च कलाय-कुलत्थो सणसप्तदशानि ३. अप्रीतिलक्षणो द्वेषः। (भा.प्र. टी. ३६३: घाम्यानि । घनं च धान्यं च धनधान्यम, तस्य धनप्राव. भा. हरि. व. २०१; मलय. व. २०३)। घानस्य Xxx संख्या व्रतकाले यावज्जीवं चतु४. क्रोध-मानारति-शोक-जगप्सा-भयानि द्वेषः। मर्मासादिकालावधि वा यत्परिमाणं गृहीतं तस्या (धव. पु. १२, पृ. २८३)। ५. तद्-(प्रेम-)विपरी- अतिक्रम उल्लङ्घनं संख्यातिक्रमोऽतिचारः। (योगतस्त्वात्मीयोपघातकारिणि द्वेषः (अप्रीतिलक्षणः)। शा. स्वो. विव. ३-६५) । (सूत्रकृ. नि. शी. व. २-२२, पृ. १२९) । १गणिम-सुपारी प्रावि, परिम-गुड़ प्रादि, मेय६. द्वेषः अनभिव्यक्तक्रोध-मानव्यक्तिकमप्रीतिमा- घी मावि और परिच्चेद्य-माणिक्य मादि के भेद त्रम् । (प्रोपपा. अभय. वृ. ३४, पृ. ७६)। से धन चार प्रकार का है। २ ब्रीहि, जो, मसूर, गेहूं, ७. अनिष्ट विषये अप्रीतिपरिणामो द्वेषः । (पंचा. मूंग, उड़द, तिल, चना, प्रण (बोहिभेद), प्रियंगु, का. जय.व. १३१)। ८. असह्यजनेषु वापि चास- कोद्रव, मकुष्ठ, शालि, माढकी, कलाय (मटर), ह्यपदार्थसार्थेषु वा वरस्य परिणामो द्वेषः। (नि. कुलत्थ और शण; यह सत्तरह प्रकार का पान्य है। सा. बु. ६६)। ६. तत्र द्विष्यते ऽनेनेति देषः देष. इन दोनों के नियमित प्रमाण का अतिक्रमण करना, वेदनीयं कर्म, क्वचिदनिष्ट वस्तूनि तेनात्मनोऽप्रीति- यह धन-धान्यप्रमाणातिक्रम नाम का परिग्रहपरिणामापादनात्, द्वेषणं वा द्वेषः-द्वेषवेदनीय- परिमाणवत का प्रतिचार है। कर्मविपाकोदयजनितो जन्तोरप्रीतिपरिणाम एव। धन-धान्यसंख्यातिक्रम-देखो धन-धान्यप्रमाणा(धर्मसं. मलय. व. १)।
तिक्रम। २ द्वेष वेदनीय कर्म के उदय से जो प्रप्रीतिरूप धनुष-१. छण्णवइ अंगुलाणि से एगे दंडेइ वा परिणाम होता है उसे द्वेष कहते हैं। ४ क्रोध, घणइ वा जुएइ वा नालियाइ वा प्रक्खेइ वा मुसमान, अरति, शोक, जुगुप्सा और भय ये द्वेष- लेइ वा । (भगवती ६, ७, १) । २. दंडं घणं जुगं
नालिया य अक्खं मुसलं च चउहत्था। (ज्योतिष्क. द्वयणु कस्कन्ध-१. द्वच णुकादिपरिणामः द्वयोः ७६)। ३. चउहत्थं घणु । (संग्रहणी २४७)। स्निग्घरूक्षयोरण्वोः परस्परश्लेषलक्षणे बन्धे सति १छचानव अंगुल या चार हाथ प्रमाण माप को
यणुकस्कन्धो भवति । (स. सि. ५-३३; त.बा. घनष कहते हैं। इसके वण्ड, युग, नालिका, अक्ष ५, ३३, २)। २. द्वयोः परमाण्वोः संघातादेको द्वघकणुस्कन्धपर्यायः । (पंचा. का. प्रमत. व.७५)। धरण-सोलस रूप्पियमासा एक्को घरणो हवेज्ज ३. परमाणुद्वयं संघातेन द्वघणुकस्कन्धो भवति । संखित्तो। (ज्योतिष्क. १८) । (पंचा. का. जय. वृ.७५) ।
सोलह रौप्यमास (तोला) का एक धरण होता है।
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
घरणी] ५६९, जन-लक्षणावला
[धर्म घरणी-धरणीव बुद्धिधरणी । यथा धरणी गिरि- .१-२०, पृ. १३; प्राव. नि. हरि.. २११ व सरित्-सागर-वृक्ष-क्षुपाश्मादीन् धारयति तथा ५७४; प्राव. सू. २, हरि..पृ.४६४)।१०. वचनिर्णीतमथं या बुद्धिर्धारयति सा धरणी नाम ।। नाद्यदनुष्ठानमविरुद्धाद्यथोदितम् । मैत्र्यादिभाव(धव. पु. १३, पृ. २४३)।
संयुक्तं तद्धर्म इति कीर्त्यते ॥ (ध. बि. १, श्लोक जिस प्रकार धरणी (पृथिवी) पर्वत, नदी और समुद्र ३)। ११. घारेइ दुग्गतीए पडंतमप्पाणगं जतो प्रादि को धारण करती है उसी प्रकार जो बुद्धि तेणं । धम्मोत्ति सिवगतीइ व सततं धरणा सम. निर्णीत अर्थ को धारण करती है उसे धरणी कहा क्खाग्रो ॥ (धर्मसं. हरि. २०)। १२. धर्मो दयाजाता है।
मयः प्रोक्त: जिनेन्द्रजितमृत्युभिः। (वरांगच. १५, धरणीकम्प-धरणीकम्पः पर्वत-प्रासादादिसमन्वि- १०७); यत् प्राणिनां जन्म-जरोग्रमृत्युमहाभयत्रासताया भूमेश्चलनम् । (मूला. वृ. ५-७८)। गिराकृतानाम् । भैषज्य भूतो हि दशप्रकारो धर्मों पर्वत और भवन आदि से संयुक्त पृथिवी के चलन जिनानामिति चिन्तनीयम्। (वरांगच. ३१-९७)। (कम्पन) को धरणीकम्प कहते हैं।
१३. धारणार्यो धृतो धर्मशब्दो वाचि परिस्थितः ।। धर्म-१. धम्मो दयाविशुद्धो xxx1 (बोध. पतन्तं दुर्गती यस्मात् सम्यगाचरितो भवेत् । प्राणिनं प्रा. २५); मोहवखोहविहीणो परिणामो अप्पणो धारयत्यस्माद् धर्म इत्यभिधीयते । (पपु. १४, धम्मो ।। (भावप्रा. ८१)। २. सदृष्टि-ज्ञान- १०३-४)। १४. धम्मो णाम सम्मदंसण-णाणवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । (रत्नक. ३; तत्त्वानु. चरित्ताणि । (धव. पु. ८, पृ. ६२)। १५. यतो ५१) । ३. तो भणइ मुणी धम्मो जीवदया निग्गहो ऽभ्युदयनिःश्रेयसार्थसंसिद्धिरंजसा । सद्धर्मः xx कसायाणं । एएसु चेव जीवो मुच्चइ घणकम्म- x॥ (म. पु. १-१२० व ५-२०); स धर्मो बंधानो। (पउमच. २६-३४)। ४. धम्मो मंगल• विनिपातेभ्यो यस्मात् संधारयेन्नरम् । घत्ते चाभ्यु. मुक्किठें अहिंसा संजमो तवो। (यशवं. सू. दयस्थाने निरपायसुखोदये ॥ (म. पु. २-३७); १-१)। ५. अहिंसालक्षणस्तदागमदेशतो धर्मः। दयामूलो भवेद् धर्मो xxx। (म. पु. ५-२१); (स. सि. ६-१३, इष्टे स्थाने धत्ते इति धर्मः। ध्रियते धारयत्युच्चविनेयान् कुगतेस्ततः ॥ धर्म (स. सि. ६-२)। ६. यस्माज्जीवं नारक-तिर्यग्योनि- इत्युच्यते सद्भिः xxx । (म. पु. ४७, कुमानुष-देवत्वेषु प्रपतन्तं धारयतीति धर्मः । उक्तं ३०२-३) । १६. घ्रियते वा धारयतीति वा धर्मः। च-दुर्गतिप्रसृतान् जीवान् यस्माद् धारयते ततः। (उत्तरा.चु. ३, पृ. १८)। १७. महिसालक्षणो धत्ते चतान शभे स्थाने तस्माद धर्म इति स्थितः॥ धर्मः । (त. श्लो. ६-१३); इष्टे स्याने धत्ते इति (दशवे. चू. पु. १५)। ७. अहिंसादिलक्षणो धर्मः। धर्मः। (त. इलो. ६-२)। १८. स धर्मों यत्र (त. वा. ६, १३, ५); इष्टे स्थाने धत्त इति नाधर्म: xxx। (प्रात्मानु. ४६; उपासका. धर्मः। प्रात्मानमिष्टे नरेन्द्र-सुरेन्द्र मुनीन्द्रादिस्थाने २६१) । १६. दुर्गतिप्रस्थितजीवधारणात् शुभे घत्त इति धर्मः। (त. वा. ६, २, ३)। ८. धर्म- स्थाने वा दधाति इति धर्मः। (भ. मा. विजयो. स्तु सम्यग्दर्शनादिरूपो दान शील-तपोभावनामयः ४६); अभ्युदय-निःश्रेयससुखानि च प्रयच्छति साश्रवानाश्रवो महायोगात्मकः। (ललितवि. पृ. सुचरितो धर्मः। (भ. मा. विजयो. १४६) । १६); चेतःस्वास्थ्यसाध्यश्चाधिकृतो धर्मः। (ललि- १०. क्षान्त्यादिलक्षणो धर्मः स्वाख्यातो जिनपुङ्गवः। तवि. पृ. ३६); तथा दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धार- अयमालम्बनस्तम्भो भवाम्भोधौ निमज्जताम् । यतीति धर्मः। उक्तं च-दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून् (त. सा. ६-४२)। २१. धर्मः श्रुत-चारित्रात्मको यस्माद् धारयते ततः। धत्ते चेतान् शुभे स्थाने जीवस्यात्मपरिणामः कर्मक्षयकारणम् । (सूत्रकृ. सू. तस्माद्धर्म इति स्मृतः॥ (ललितवि. पृ. ६. शी. व. २, ५, १४) । २२. धम्मो दयापहाणो माव. सू. मलय.. पृ. ५६२)। ६. दुर्गती प्रप- xxx ॥ (कातिके. ६७); धम्मो वत्थुसहावो तन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः। (दशवं. नि. हरि. खमादिभावो य दसविहो घम्मो। रयणत्तयं च
ल. ७२
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्म] . ५७०, जन-लक्षणावली
[धम धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो ।। (कातिके. ४७८)। 'तुजातधारणात स्वर्गादिसुगतो धानाच धर्मः। २३. यतोऽभ्युदय निःश्रेयस सिद्धि स धर्मः। (नीति- (ध. बि. मु. वृ. १, श्लोक ३)। ३७. दुर्गतिप्रपतवा. १-१, पृ.८)। २४. यस्मादभ्युदयः पुंसां निः- प्राणिधारणाद् धर्म उच्यते । (योगशा. २-११; श्रेयसफलाश्रयः । वदन्ति विदिताम्नायास्तं धर्म धर्म- त्रि. श. पु. च. १, १, १५२); धोऽभ्युदय-निःश्रेसूरयः ॥ (उपासका. २)। २५. प्रात्मानमिष्ट- यसकारणम् । (योगशा. स्वो. विव. २-४०); नरेन्द्र-सुरेन्द्र मुनीन्द्र-मुक्तिस्थाने धत्त इति धर्मः। दुर्गती प्रपतन्तं सत्त्वसंघातं धारयतीति धर्मः । (योग(चा. सा. प. २); चतुर्दशगुणस्थानानां गत्यादिच- शा. स्वो. विव. ३-१२४) । ३८. सम्यग्दर्शनाद्यातुर्दशमार्गणास्थानेषु स्वतत्त्वविचारलक्षणो धर्मः। स्मारणामलक्षणो धर्मः । (धर्मसं. मलय. वृ. २५)। (चा. सा. पृ. ८६) । २६. धारयतीति धर्मः दुर्गतौ ३६. ध्रियन्ते तिष्ठन्ति नरकादिभ्यो गतिभ्यो पतन्तं सत्त्वमिति । (प्रोधनि. भा. द्रो. व. ५)। निवृत्ता जीवास्तेन सुगताविति घरत्यात्मानं सुगता२७. संसारे पतन्तं जीवमुदत्य नागेद्र नरेन्द्र देवे. विति वा धर्मस्तम्, रत्नत्रयलक्षणं मोहक्षोभविवजिन्द्रादिवन्द्य प्रव्याबाघानन्तसुखाद्यनन्तगुणलक्षणे मो. तात्मपरिणामरूपं वा, वस्तुयाथात्म्यस्वभावं वा, क्षपदे घरतीति धर्मः अहिंसालक्षणः सागारानगार- उत्तमक्षयादिदशलाक्षणिकं वा XXX । (मन. लक्षणो वा उत्तमक्षमादिलक्षणो वा निश्चय-व्यव- प. स्वी. टी. १-५); धर्मः पुंसो विशुद्धिः सुदृगहाररत्नत्रयात्मको वा शुद्धात्मसंवित्त्यात्मकमोह- वगम-चारित्ररूपा स च स्वां, सामग्री प्राप्य मिथ्याक्षोभरहितात्मपरिणामो वा धर्म:। (बृ. द्रव्यसं. टी. रुचिमतिचरणाकारसंक्लेशरूपम् । मूलं बन्धस्य ३५) । २८. धारयति दुर्गती प्रपततो जीवान् दुःखप्रभवभवफलस्याबधन्वन्नधर्म संजातो जन्मदु:धारयति सुगतौ वा तान स्थापयतीति धर्मः। उक्त खाद धरति शिवयुखे जीवमित्युच्यतेऽ च-दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून् यस्माद्धारयते ततः । धत्ते घ.१-६०)। ४०. धर्मः स्वदारसन्तोषाद्यात्मकचैतान् शुभे स्थाने तस्माद्धर्म इति स्मृतः ।। (स्थाना. संयमलक्षणो देवादिपरिचरणस्वरूपः सत्पात्रदानादिप्रभय. व. १-४०, पृ. २१)। २६. धर्म श्रुत- स्वभावश्च । (सा. घ. स्वो. टी. २-५) । चारित्रात्मकं दुर्गतिप्रपतज्जन्तुधारणस्वभावं xx ४१. धर्मो वस्तुस्वभाव: शम धृतिरथवा स्वोत्थशुXI (सनवा. अभय. व. १, पृ. ४) । ३०. धर्मो खोपयोगः, सद्वृत्तं वा श्रुतं वा दशविधविलसल्लक्षणो नाम कृपामूल: xxx। (क्षत्रच. ५-३५)। वापि धर्मः। (प्रात्मप्र. ८६)। ४२. अहिंसा३१. धर्मः सदेद्य-शुभायुर्नाम-गोत्रलक्षणं पुण्यम्, लक्षणो धर्मो यज्ञादिलक्षणोऽथवा। (भावसं. वाम. उत्तमक्षमादिस्वरूपो वा, तत्माध्यः कर्तृ शुभफलदः ३०६)। ४३. अहिसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्य निःसंग. पृद्गलपरिणामो वा, जीवादिवस्तुनो यथावस्थित- त्वमित्यादिलक्षणोपलक्षितः सर्वज्ञ-वीतरागप्रणीतः स्वभावो वा। (न्यायकु. १,प. ३)। ३२. मिथ्या- धर्मः, दुर्गतिदुःखादुद्धत्य इन्द्रादिपूजितपदे धरतीति स्व-रागादिसंसरणरूपेण भावसंसारे पतन्तं प्राणि- धर्मः। (त. वृत्ति धुत. ६-१३); संसार-सागरानमुद्धृत्य निविकारशुद्धचेतन्ये धरतीति धर्मः। दुद्धृत्य इन्द्र-नरेन्द्र-धरणेन्द्र-चन्द्रादिवन्दिते पदे (प्र. सा. जय. वृ. १-८)। ३३. सो धम्मो जत्थ मात्मानं घरतीति धर्मः । (त. वृत्ति श्रुत.९-२)। दयाxxx। (नि. सा. व. ६ उद.)। ३४. दुर्ग• ४४. xxx धर्मो हिंसादिवजितः। (पू. उपातिप्रपतत्प्राणिधारणाद् धर्म उच्यते । (प्राचा. दि. प. सका. ३)। ४५. दयादिलक्षणो धर्मः सर्वज्ञोक्तः ४८)। ३५. धारयति दुर्गतौ निपततो जीवानिति स्वशक्तितः । पतन्तं दुर्गती पत्ते चेतनं सुखदे पदे ॥ धर्मः। तथा च वाचक:-प्राग लोकबिन्दुसारे (धर्मसं. था. १०-९६) । ४६. सर्वप्राणिदयालक्ष्मो सर्वाक्षरसन्निपातपरिपठितः। धन धरणार्थों घात- गृहस्थ-शमिनोद्विधा । रत्नत्रयमयो धर्मः स विधा स्तदर्थयोगाद् भवति धर्मः।। दुर्ग तनयप्रपाते पतन्त. जिनदेशितः।। (जम्ब. च. ३-१५१); यस्मादुच:मभयरदुलं भत्राणे। सम्यक चरितो यस्माद धार- पदे धत्ते जीवं नीचे पदादपि ॥ धर्मों वस्तुस्वभाव: यति तत: रमृतो धर्मः ।। (उत्तरा. सू. शा. बु. स्यारकर्मनिर्मूलनक्षमः । तच्चंब शुद्धचारित्रं साम्य३-२, पृ. १८४)। ३६. 'धर्म' इति दुर्गतिपतज्ज- भावचिदात्मनः ।। (जम्बू. च. १३, १५३-५४) ।
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मकथा ]
४७. अहिंसा परमो धर्म: XX X | ( लाटीसं. २ - १ ) ; धर्मो नीचैः पदादुच्चं पदे घरति धार्मि कम् । तन्नाजवञ्जवो नीचैः पदमुच्चैस्तदत्ययः ॥ सम्यग्ग्ज्ञप्ति चारित्रं धर्मो रत्नत्रयात्मकः । (लाटीसं. ४, २३७-३८ ) । ४८. संसारदुःखादुद्धृत्य मोक्षसुखे धरतीति धर्मः । ( कार्तिके. टी. ४०५ ) । १ मोह और क्षोभ से रहित ग्रात्मा के शुद्ध परिनाम को धर्म कहते हैं । सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को धर्म माना गया है । ३ जीवों की दया और कषायों के निग्रह को धर्म कहा जाता है, कारण यह कि इन्हीं के प्राश्रय से जीव क्लिष्ट कर्मबन्धन से छुटकारा पाता है। धर्मकथा - १. धम्मका नाम जो श्रहिंसादिलक्खणं सव्वष्णुपणीयं धम्मं अणुयोगं वा कहेइ एसा धम्मका । ( वशवै. चू. पू. २६) । २. अहिंसालक्षणघ मन्विाख्यानं धर्मकथा । ( श्रनुयो. हरि. वृ. पू. १० ) । ३. एक्कंगस्स एगाहियारोवसंहारो धम्मकहा । तत्थ जो उवजोगो सो वि धम्मकहात्ति घेत्तव्वो । ( धव. पु. ६, पृ. २६३ ) ; वत्थु श्रणियोगादिविप्रो भावो धम्मकहा णाम । ( धव. पु. १४, पू. ९) । ४. यतोऽभ्युदय निःश्रेयसार्थं संसिद्धिरंजसा । सद्धर्मस्तन्निबद्धा या सा सद्धर्मकथा स्मृता ॥ ( म. पु. १ - १२० ) । ५ सयलंगेक्कंगेक्कंग हियारसवित्रं ससंखेवं । वण्णणसत्थं यय-थुइ धम्मकहा होइ नियमेण । ( गो . क. ८८) ।
I
१ सर्वज्ञोक्त श्रहिंसादिस्वरूप धर्म का जो कथन किया जाता है उसे अथवा अनुयोग के विचार को धर्मकथा कहते हैं । ३ एक अंग के एक अधिकार का जो उपसंहार किया जाता है, इसका नाम धर्मकथा है । तद्विषयक उपयोग को भी धर्मकथा कहा जाता है । धर्मकथी - धर्मकथा प्रशस्यास्तीति धर्मकथी । (योगशा. स्वो विव. २ - १६) । प्रशंसनीय धर्मकथा से युक्त पुरुष को धर्मकथी कहा जाता है ।
धर्मचररण - धर्मचरण क्षान्त्याद्यासेवनम् । (पंचव स्वो स्वो विव. ६) ।
उत्तमक्षमादि धर्मो का प्राचरण करने को धर्मचरण कहते हैं ।
धर्मतीर्थकर - धर्म एव धर्मप्रधानं वा तीर्थं धर्म
५७१, जैन-लक्षणावली
[ धध्यान
तीर्थम्, तत्करणशीला घर्मतीर्थंकराः । ( ललितवि. पू. ६० ) 1
धर्मरूप या धर्मप्रधान तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले महापुरुष को धर्मतीर्थ कहते हैं ।
धर्मदेव - से केणट्ठण भंते एवं वुच्चइ घम्मदेवा ? धम्मदेवा गोयमा ? जे इमे अणगारा भगवतो • इरियासमिया जाव गुत्तबभयारी से तेणट्ठेणं जाव धम्मदेवा | ( भगवती १२, ६, २, पृ. १७६५) । ईर्यासमिति से युक्त होकर ब्रह्मचयं को सुरक्षित रखने वाले अनगारों (साधुनों ) को धर्मदेव कहते हैं ।
धर्मद्रव्य - देखो धर्मास्तिकाय । १. तत्थ धम्मदव्वस्स लक्खणं वुच्चदे - ववगदपचवण्णं ववगदपचरसं ववगददुगंधं ववगदश्रदृफासं जीव-पोग्गलाणं गमणागमणकारणं असं खेज्जपदेसियं लोगपमाणं घम्मदव्वं । ( धव. पु. ३, पृ. ३); धम्मदव्वस्स जीव-पोग्गलदव्वाणं गमणागमण हे उभावेण परिणामो सम्भावकिरिया । ( धव. पु. १३, पृ. ४३); जीव-पोग्गलाणं गमनागमणकारणं घम्मदव्वं । (घव. पु. १५, पृ. ३३ ) । २. एकजीव परीमाणसंख्यातीत प्रदेशको लोकाकाशमभिव्याप्य धमाधम व्यवस्थितो ॥४८॥ स्वयं गन्तुं प्रवृत्तेषु जीवाजीवेषु सर्वतः । सहकारी भवेद्धर्मः पानीयमिव यादसाम् ॥४६॥ ( योगशा स्व. वि. १ - १६, पृ. ११३) ।
१ जो पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और प्राठ प्रकार के स्पर्श से रहित होता हुआ जीव व पुद्गुलों के गमनागमन का कारण एवं लोक प्रमाण प्रसंख्यात प्रदेशों वाला उसे धर्मद्रव्य कहते हैं । धर्मध्यान - १. धम्मस्स लक्खणं से प्रज्जव-लहुगत्त-मद्दवोवसमा [मद्दववदेसा ] । उवदेसणा य सुत्ते सिग्गजाश्रो रुचीनो दे ।। (भ. श्री. १७०६) । २. प्राज्ञापाय- विपाक संस्थान विचयाय धर्म्यम् । (त. सू. बि. ६-३६); श्राज्ञापाय- विपाक संस्थान विचया धर्ममप्रमत्तसंयतस्य । (त. सू. श्वे. ६-३७) । ३. धर्मादनपेतं घर्म्यम् । ( स. सि. ३- २८, त. वा. ६, २८, ३; त. इलो. ६ - २८ ) । ४. श्राज्ञाविचयाय अपायविचयाय विपाकविचयाय संस्थान विचयाय च स्मृतिसमन्वाहारो घर्मध्यानम् । तदप्रमत्तसंयस्य भवति । ( त. भा. ६-३७) । ५. दसवि० समजधम्मसमणुगतं धम्मं । ( वशखं. चू. पू. २९)+
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मध्यान] ५७२, जैन लक्षणावली
[धर्मरुचि ६. इत्याश्रवनिरोधोऽयं कषायस्तम्भलक्षणः । तद् तम् ॥ (प्राचा. सा. १०-४५)। १७. धर्मो वस्तुधम्यम् XXX॥ (द्वात्रिशिका १०-२७) । स्वभावः शम-घतिरथवा स्वोत्थशुद्धोपयोगः सद्वृत्तं ७. तत्रानपेतं यद्धर्माद् घHध्यानमितीष्यते । धर्मो वा श्रुतं वा दशविधविलसल्लक्षणो वापि धर्मः । हि वस्तयाथात्म्यमुत्पादादित्रयात्मकम् ॥ (ह. पु. धर्मस्थं धर्मघाम प्रगुणगुणगणं पंचकं वा गुरूणां २१-२३); बाह्यात्मिकभावानां याथात्म्यं धर्म नेदृक्षाद् ध्येयधर्माद् व्यपगतमिति हि ध्यानमाभाति उच्यते । तद्धर्मादनपेतं यद्धम्यं तद् ध्यानमुच्यते ॥ धर्म्यम् ॥ प्राज्ञामपायं बिविधं विपाकं संस्थानमित्थं (ह. पु. ५६-३५)। ८. सूत्रार्थसाधनमहाव्रतधार• न तदन्यथेति । वै चिन्त्यते येन यतोऽथ यत्र चत्वारि णेष बन्ध-प्रमोक्षगमनागमहेतुचिन्ता। पञ्चेन्द्रिय- तत्त्वानि तदेव धर्म्यम् ॥ (प्रात्मप्र. ८६-८७)। व्युपरमश्च दया च भूते ध्यानं तु धर्ममिति तत्प्र. १८. धर्मों वस्तुस्वरूपम्, तस्मादनपेतम् प्राश्रितं वदन्ति तज्ज्ञाः ॥ (दशवं. हरि. वृ., प. ३२ उद्.)। धर्म्यम् । (भावप्राटी. ७८)। है. जिनप्रणीतभाव-श्रद्धानादिलक्षणं धर्म्यम् । (प्राव. १ प्रार्जव (सरलता), लघता (अपरिग्रहता), प्र.४, हरि. व. पृ. ५८२)। १०. दहलक्खण- मदुता-जात्यादिविषयक अभिमान का प्रभाव संजुत्तो अहवा धम्मो त्ति वण्णिप्रो सुत्ते । चिंता जा और हितोपदेश ये धर्मध्यान के लक्षण हैं । २ प्रा. तस्स हवे भणियं तं धम्मझाणुत्ति ॥ अहवा वत्थ. ज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानसहावो धम्मं वत्थू पुणो व सो अप्पा । झायंताणं विचय के लिए जो बार बार स्मृति को उसी मोर कहियं धम्मज्झाणं मुणिदेहि ।। (भावसं. दे. ३७२, लगाया जाता है; यह धर्मध्यान या धर्मध्यान कह३७३) । ११. जिनप्रणीतभावश्रद्धानादिलिङ्ग लाता है। विचय का अर्थ विवेक या विचारणा धर्म्यम् । (त. भा. सिद्ध.व.६-२७)। १२. वज्जि- है। ५ दस प्रकार के मनिधर्म से जो प्रनगत य सयलवियप्पे अप्पसरूवे मणं णिरुंघतो। जं चित- होता है उसे धर्मध्यान कहा जाता है। दि साणंदं तं धम्म उत्तमं झाणं ॥ (कातिके. धर्मध्यान का ध्याता-सम्यनिर्णीतजीवादिध्येय४८२)। १३ सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वराः वस्तुव्यवस्थितिः। प्रार्त-रौद्रपरित्यागाल्लब्धचित्त. विदुः । तस्माद्यदनपेतं हि घम्यं तद् ध्यानमभ्यधुः॥ प्रसत्तिकः ।। मुक्त.लोकद्वयापेक्षः षोढाशेषपरीषहः । प्रात्मनः परिणामो यो मोहक्षोभविवजितः। स च अनुष्ठितक्रियायोगो ध्यानयोगे कृतोद्यमः ॥ महाधर्मोऽनपेतं यत्तस्मात् तद्धय॑मित्यपि ॥ शून्यीभवदिदं सत्त्वः परित्यक्तदुर्लेश्या शुभभावनः । इतीदृग्लक्षणो विश्व स्वरूपेण धृतं यतः। तस्माद् वस्तुस्वरूपं हि ध्याता धर्मध्यानस्य सम्मतः ॥ (तत्त्वानु. ४३-४५)। प्राहधर्म महर्षयः ।। ततोऽनपेतं यज्ज्ञातं तद् धम्यं जिसने ध्येयभूत जीवादि तत्त्वों की व्यवस्था का ध्यानमिष्यते । धर्मो हि वस्तुयाथात्म्यमित्यार्षेऽप्य- भली भांति निर्णय कर लिया है, जिसने प्रातं और भिधानतः ।। यस्तूत्तमक्षमादिः स्याद्धमों दशतया रौद्र ध्यान से रहित होकर चित्त की प्रसन्नताको परः । ततोऽनपेत यद् ध्यानं तद्वा धर्म्यमितीरितम् ॥ प्राप्त कर लिया है, जो उभय लोक की अपेक्षा से (तत्त्वान. ५१-५५)। १४. माज्ञापाय-विपाकानां रहित है, सर्व परीषहों का सहन करने वाला है. विवेकाय च संस्थितेः । मनसः प्रणिधानं यद् धर्म- क्रियायोग के अनुष्ठानपूर्वक ध्यानयोग में उद्यत है. ध्यानं तदुच्यते ॥ (त. सा. ७-३९) । १५. सुत्त तथा जो प्रशुभ लेश्या व अशुभ भावना से रहित है. स्थधम्ममग्गण-वय-गुत्ती-समिदि-भावणाईणं । जं ऐसा जीव धर्नध्यान का ध्याता होता है। कीरड चितवणं धम्मज्झाणं च इह भणियं ।। धर्मपत्नी-परिणीतात्मज्ञातिश्च धर्मपत्नी च संव जीवाइ जे पयत्था कायव्वा ते जहट्टिया चेव । च। धर्मकार्य च सध्रीची यागादौ शभकर्मणि ।। धम्मज्झाणं भणियं रायबोसे पमुत्तूणं ॥ (जा. सा. (लाटीसं. २-१८०)। १६-१७) । १६. श्रद्धानं सदशंकितादिसदनं तत्त्वा- जिसके साथ विधिपूर्वक विवाह किया गया है, जो थं संचिन्तनं संवेगः प्रशमोदयेन्द्रियदमः प्राज्योद्यमः सजातीय है, और पूजादिरूप धर्मकार्यों में सदा सहसंयमः ।। वैराग्यं वरगुप्तिताऽतिमृदुता निर्मायिता- योग प्रदान करती है। उसे धर्मपत्नी कहते है। इसंगता धर्मस्येति समस्तवस्तुपरमोपेक्षा च लक्ष्मोदि. धर्मरुचि-जो अस्थिकायघम्म सयधम्म खलु
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मवर्णजनन]
चरित्तधम्मं च । सद्दहइ जिणाभिहियं सो घम्मरुइ नियन्त्र | ( प्रज्ञाप. गा. १३०; प्रव. सारो. ε६०)।
जो निरूपित अस्तिकायधर्म, श्रुतधर्म और चारिधर्म का श्रद्धान करता है उसे धर्मरुचि - सराग दर्शन श्रार्य (दसवां ) - कहा जाता है । धर्मवर्णजनन - १. दुःखात् त्रातुम् सुखं दातुम्, निधीनां चाधिपत्ये स्थापयितुम्, स्वचक्रविक्रमान मितसकल भूपाल- खेचरगणबद्धमरुच्चक्रांश्चक्रलांछनान् पादयोः पातयितुम्, सुरविलासिनीचेतः संमोहावहं तदीयविलुठत्पाठीन लोचनरागमभिवर्धयन्ती हर्षभरपरवशद्भिन्नसांद्ररोमांचक चुकमाचरितुम् उद्यतां रूपशोभामन्दिरां संपादयितुम् ; प्रतिशयिताणिमादिगुणप्रसाधनां सामानिकादिसुरसहस्रानुया नोपनीत महत्तां सतत प्रत्यग्रयुक्तालिंगतां सुभगतालता रोहयष्टिम् अनेकसमुद्रबिन्दुगणना गणितायु:स्थिति मेरु-कुरु-सुरसरित्कुलाचला दिगोचरस्वेच्छाविहारचतुरां सुरांगना पृथुल नितंब बिबाधरकठिननिविडसमुन्नतकुचतट क्रीडालोकनस्पर्शनादिक्रियोपयोगामितप्रीतिविस्मितां शतमखतामखेदने झटिति घटयितुम्, विरूपताजननीजरा डाकिनीना मगोचरां शोकवृकानुल्लंघितां विपद्दावानलशिखाभिरनुपप्लुतां रोगोर रदष्टवपुषं यम-महिषखुराखंडितां भीतिवरासमितिभिरनुल्लिखितां संक्लेशशतशरभैरनध्यासि तां प्रियनियोगचंडपुंडरीकै रसेविताम्, अनर्घ्य सुख रत्नप्रभवभूमि, निवृति प्रापयितुं समर्थो जिनप्रणीतो धर्म इति धर्मस्वरूपकथनं घर्मवर्णजननम् । (भ. प्रा. विजयो ४७ ) । २. चतुर्गतिदुःखात् त्रातुं निरातं कातिशयितदीर्घकालोपलालितं सुखं दातुं सकलसाम्राज्यं स्वर्गाधिराज्यं चाधिकर्तुं सुरेन्द्रनागेन्द्रान् पादयोः पातयितुं समवसरणादिबहिरंगानंतज्ञानाद्यन्तरंगलक्ष्मीलक्षणां जीवन्मुक्ति सम्यक्त्वा -
गुणलक्षणामात्यतिकीं परममुक्ति च सम्पादयितुं समर्थो जिनप्रणीत एव धर्मो नान्य इति धर्ममहिमख्यापनं धर्मवर्णजननम् । (भ. प्रा. मूला. ४७ ) । १ दुःखों से रक्षा करने, सुख के देने, निधियों के स्वामित्व में स्थापित करने, तथा अपने चक्ररत्न के प्रभाव से समस्त राजानों एवं विद्याधरों आदि के चरणसेवक बनाने आदि में धर्म ही सर्वथा समर्थ है । इस प्रकार वह सांसारिक उत्कृष्ट सुख के साथ
५७३, जैन-लक्षणावली
[ धर्मानुप्रेक्षा
निर्बाध मोक्षसुख को भी प्राप्त कराने वाला है । इत्यादि प्रकार से धर्म के कीर्तन करने को धर्मवर्णजनन कहा जाता है |
धर्मवाद - परलोकप्रधानेन मध्यस्थेन तु धीमता । स्वशास्त्रज्ञाततत्त्वेन धर्मवाद उदाहृतः । ( श्रष्टक १२-६) ।
J
स्वसमय के रहस्य के जानने वाले व परलोक के मानने वाले मध्यस्थ बुद्धिमान पुरुष के द्वारा जो धर्मचर्चा की जाती है उसे धर्मवाद कहते हैं. धर्मानुकम्पा - १. धर्मानुकम्पा नाम परित्यक्तासंयमेषु, मानावमान- सुखदुःख - लाभालाभ-तृणसुवर्णादिषु समानचित्तेषु दान्तेन्द्रियान्तःकरणेषु मातरमिव मुक्तिमाश्रितेषु परिहृतो कषाय-विषयेषु दिव्येषु भोगेषु दोषान् विचिन्त्य विरागतामुपगतेषु, संसार- महासमुद्राद् । भयेन निशास्वप्यल्पनिद्रेषु श्रगीकृत निःसंगत्वेषु क्षमादिदशविधधमं परिणतेषु याऽनुकम्पा सा धर्मानुकम्पा । (भ. प्रा. विजयो. १८३४) । २. धर्मानुकम्पा नाम यया प्रयुक्तो विवेकिलोकः स्वशक्त्यनिनिगूहनेन संयम निष्ठेभ्यस्तद्योग्यान्न-पान- वसत्युपकरणौषधादिकं संयमसाधनं प्रयच्छति । (भ. प्रा. मूला. १८३४) ।
१ जिन्होंने सर्व प्रकार के प्रसंयमों को छोड़ दिया है; जो मान-अपमान, सुख-दुःख, लाभ-श्रलाभ श्रौर तृण-सुवर्णादि में समानचित्त रहते हैं, जिन्होंने इन्द्रियों व मन को जीत लिया है, तथा जो माता के समान मुक्ति के प्राश्रित हैं; इत्यादि गुणों से विभूषित धर्मात्मा जनों के ऊपर जो दया की जाती है उसे धर्मानुकम्पा कहते हैं । धर्मानुप्रेक्षा - १. संसारविसमदुग्गे भवगहणे कह वि मे भमंतेण । दिट्ठो जिणवरदिट्ठो जेट्ठो धम्मो ति चितेज्जो ॥ ( मूला. ८-६४ ) । २. श्रयं जिनोपदिष्टो घर्मो हिसालक्षणः सत्याधिष्ठितो विनयमूल: क्षमाबलो ब्रह्मचर्यं गुप्त उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतालम्बनः, तस्यालाभादनादिसंसारे जीवाः परिभ्रमन्ति दुष्कर्मविपाकजं दुःखमनुभवन्तः । अस्य पुनः प्रतिलम्भे विविधाभ्युदयप्राप्तिपूर्विका निःश्रेयसोपलब्धिर्नियतेति चिन्तनं धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा । ( स. सि. ६-७ ) । ३. जीवस्थान- गुणस्थानानां गत्यादिमार्गणालक्षणो धर्मः स्वाख्यात: XXX एवमादिलक्षणो धर्मो निःश्रेयसप्राप्तिहेतुरहो भग
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मानुप्रेक्षा] ५७४, जैन लक्षणावली
[धर्मास्तिकाय वभिरर्हदभिर्व्याख्यात इति चिन्तनं धर्मस्वाख्या- सेवन करने वाले असुर होने वाले हैं, इत्यादि प्रकार तत्वानप्रेक्षा । (त.वा.६, ७,१०, पृ. ६०३व से धर्म की निन्दा करने को धर्मावर्णवाद करते हैं। २०७, पं. ३-४)। ४. जीवस्थान-गुणस्थानानां धर्मास्तिकाय-१. धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगधं गत्यादिष मार्गणालक्षणो धर्मः। (त. इलो. ६-७)। असद्दमप्फासं। लोगोगाढं पूठं पिहलमसंखादिय५. चतुर्दशगुणस्थानानां गत्यादिचतुर्दशमार्गणास्था- पदेसं । अगुरुगलघुगेहि सया तेहिं प्रणतेहिं परिणदं नेष स्वतत्त्वविचारलक्षणो धर्म: निःश्रेयसप्राप्तिहेतु- णिच्च । गदिकिरियाजुत्ताणं कारण भूदं सयमकज्जं ।। रहो भगवभिरर्हद्भिः स्वाख्यात इति चिन्तनं धर्म- (पंचा. का. ८३-८४)। २. गमणणिमित्तं धम्म स्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा । (चा. सा. पृ. ८६)। xxx । (नि. सा. ३०) । ३. गतिपरिणामि६. दाताऽभीष्टविशिष्ट वस्तुनिचयस्याकांक्षिणेऽपि. नां जीव-पुद्गलानां गत्युपग्रहे कर्तव्ये धर्मास्तिकायः क्षणाद्वतिर्नर-नारकादिभवसंभूतेः स्मृतेर्भीकृतेः । साधारणाश्रयः । (स. सि. ५-१७) । ४. गइलक्खहन्ताऽऽक्रान्तजगत्त्रयान्तक-रिपोर्यः स्वान्तगः संस्तुत- णो उ धम्मो xxx। (उत्तरा. २८-९)। स्त्राताऽत्राणशरीरिणां न हि परो धर्मात् सुशर्मप्र- ५. धर्माधी यथासंख्यं गति-स्थित्योस्तु कारणम् । दात् ।। (प्राचा. सा. १०-४४)। ७. लोकालोके (वरांगच. २६-२३)। ६. पढमे धम्मस्थिकाए, सो रविरिव करैरुल्लसन् सत्क्षमाद्यः, खद्योतानामिव गइलरखणो। (दशव. च. पृ. १६) । ७. जीवघनतमोद्योतिनां यः प्रभावम् । दोपोच्छेदप्रथितमहिमा पोग्गलदव्वाण गतिकिरियापरिणयाण उवम्गहकरणहन्ति धर्मान्तराणाम्, स व्याख्यात: परमविशद- तणमो धम्मो, अस्तीति ध्रौव्यं, पायत्ति कायः ख्यातिभिः ख्यातु धर्मः ।। (अन. ध. ६-८०)। उत्पाद विनाशः, अस्ति चासौ कायश्च अस्तिकायः २ अहिंसा जिसका लक्षण है. सत्य से जो अधिष्ठित धर्मश्चासावस्ति कायश्च धर्मास्तिकायः । (अनयो. है, विनय जिसका मूल है व क्षमा बल है, ब्रह्मचर्य च. पृ. २६)। ८. स्वयं क्रियापरिणामिनां साचिसे जो सुरक्षित है, उपशमप्रधान है, और अपरि- व्यधानाद् धर्म। स्वयं क्रियापरिणामिनां जीव. महता जिसका पालम्बन है; इत्यादि यह जिनोप- पुद्गलानां यस्मात् साचिव्यं दधाति तस्माद्धर्म विष्ट धर्म है। इसके विना जीव संसार में परि- इत्याख्यायते । (त. वा. ५, १, १६)। ६. जीबानां भ्रमण करते हैं और उसे पा करके वे अनेक अभ्य. पुद्गलानां च गत्युपष्टम्भकारणम् । धर्मास्तिकायो बय के साथ मोक्ष को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार ज्ञानस्य दीपश्चक्षुष्मतो यथा ।। (धा. प्र. टी. ७८ का विचार करने को धर्मानुप्रेक्षा करते हैं। उव.)।१०.गतिपरिणामपरिणतानां जीव-पूदगला. धर्मावर्णवाद--१. जिनोपदिष्टो धर्मो निर्गुणस्त- नां गत्युपष्टम्भको धर्मास्तिकायः। (माव. नि. हरि. दुपसेविनो ये ते चासुरा भविष्यन्तीत्येवमभिधानं व.८६)। ११. जीव-पुद्गलानां स्वाभाविके क्रियाधर्मावर्णवादः । (स. सि. ६-१३)। २. निर्गुण- वत्त्वं गतिपरिणतानां तत्स्वभावधारणाद् धर्मः, स्वाद्यभिधानं धर्मे। जिनोपदिष्टो दशविकल्पो धर्मों अस्तयः प्रदेशास्तेषां कायः संघातः प्रस्तिकायः निर्गुणः, तदुपसेविनो ये ते चासुरा भवन्ति, इत्येव- धर्मश्चासावस्तिकायश्चेति समासः। (प्रनयो. हरि. माद्यभिधानं धर्मावर्णवादः । (त. वा. ६, १३, ११)। वृ.पृ. ४१)। १२. तत्र यो हि गतिपरिणामपरि३. अन्तःकलुषदोषादसद्भूतमलोद्भावनमवर्णवादः। णतयोर्जीव-पुद्गलयोर्गत्युपष्टम्भहेतु लमिव झषस्य, xxx निर्गुणत्वाद्यभिधानं धर्म। (त. श्लो. स खल्वसंख्येयप्रदेशात्मकोऽमूर्ती धर्मास्तिकाय इति । ६-१३)। ४. दुर्गतिप्रतिबन्धं स्वर्गादिकं च फलं (नन्दी. हरि. व. पृ. ५८)। १३. जीव-पुदगलयोर्यविधत्ते धर्म इति कथमदृष्टं श्रद्धीयते ? न हि त्स्याद् गत्युपग्रहकारणम् । धर्मद्रव्यं xxx॥ सन्निहितकारणस्य कार्यस्यानुद्भवोऽस्ति यथांकु- (म. पु. २४-३३)। १४. सकृत्सकलगतिपरिणामिरस्य। सुखप्रदायी स्वनिष्पत्त्यनन्तरं सुखमात्मन कि नां सांनिध्यधानाद् धर्मः। (त श्लो. ५-१०। न करोति इति धर्मावर्णवादः। (भ. प्रा. विजयो. १५. गतिपरिणती धर्म उपकारकः । (त. भा. सिद्ध.
व. ५-७)। १६. गतिपर्यायस्य बाह्य गति हेतुस्व१ जिनेन्द्र के द्वारा उपदिष्ट धर्म निर्गुण है, इसका, संज्ञितं गुणं धारयतीति धर्मः । (भ. प्रा. विजयो.
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मास्तिकाय]
५७५, जैन-लक्षणावली
[धर्मास्तिकायानुभाग
३६)। १७. जीवाण पुग्गलाणं गइप्पवत्ताण कारणं पमाणममुत्तं अचेयणं गमणलक्खणं धम्म । (द्रव्यस्व. धम्मो। (भावसं. दे. ३०६)। १८. क्रियापरिणता. १३४)। ३२. जीवानां पुद्गलानां च स्वभावत एव नां यः स्वयमेव क्रियावताम् । मादधाति सहायत्वं स गतिपरिणामपरिणतानां तत्स्वभावधारणात्-तत्स्वधर्मः परिगीयते ॥ जीवानां पुद्गलानां च कर्तव्ये भावपोषणाद् धर्मः, अस्तयश्चेह प्रदेशास्तेषां काय: गत्युपग्रहे । जल वन्मत्स्यगमने धर्मः साधारणाश्रयः ॥ संघातः,xxx अस्तिकाय: प्रदेशसंघात इत्यर्थः । (त. सा. ३, ३३-३४)। १६. धम्ममधम्म दबं धर्मश्चासावस्तिकायश्च धर्मस्तिकाय: । (प्रज्ञाप. गमण ट्राणाण कारणं कमसो। जीवाण पूग्गलाणं मलय. व. १-३, प.८% जीवाजी. मलय. व. ५, विण्णि वि लोगप्पमाणाणि । (कार्तिके. २१२ । पृ. ६)। ३३. जीव-पद्गलयोः साधारण्येन गति२०. विवादापन्नाः सकलजीव-पुद्गलाश्रया: सकृद्- निमित्तं धर्म: । (भ. प्रा. मूला. ३६)। ३४. गतिगतयः साधारणबाह्यनिमित्तापेक्षाः, युगपद्भावित्वात् हेतुर्भवेद् धर्मो जीव-पुद्गलयोर्द्वयोः। (भावसं. वाम. एकसरस्सलिलादिना अनेकमत्स्यादिगतिवत् xxx ३६३) । ३५. गतिक्रियावतोर्जीव-पुदगलयोः तरिक्रयत् साधारणं गतिनिमित्त स धर्मः । (न्याय कु. २७, यासाधनभूतं धर्मद्रव्यम् । (गो. जी. जी. प्र. टी. पृ. ३४०)। २१. गदि-ठाणोग्गहकिरियासाधण भूदं ६०५) । ३६. जीव-पद गलयोऽर्थः स्याद गत्युपग्रहखु होदि धम्मतियं । (गो. जी. ६०४) । २२. जल- कारणम् । धर्मद्रव्यं XXX । (जम्बू. च. ३, वन्मत्स्ययानस्य तत्र यो गतिकारणम् । जीवादीनां ३४)। ३७. धर्मद्रव्यगुणो हि पुद्गल-चितोश्चिद्पदार्थानां स धर्मः परिवर्णित: ।। (चन्द्र. च. १८, द्रव्ययोरात्मभा[त्मना] गच्छदभाववतोनिमित्तगति६६)। २३. गइपरिणयाण धम्मो पुग्गल-जीवाण हेतुत्वं तयोरेव यत् । मत्स्यानां हि जलादिवद् भवति गमणसहयारी। तोयं जह मच्छाणं अच्छंता व सो चौदास्येन सर्वत्र च, प्रत्येक सकृदेव शश्वदनयोर्गकई ॥ (द्रव्यसं. १७)। २४. निष्क्रियोऽमूतों निष्प्रे- त्यात्मशक्तावपि ।। (अध्यात्मक, ३-३०, पृ. ७३)। रकोऽपि धर्मास्तिकायः स्वकीयोपादानकारणेन १जो रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द से रहित गच्छतां जीव-पुद्गलानां गते: सहकारिकारणम्। है; सर्व लोकाकाश में व्याप्त है। स्पृष्ट-प्रयुत(बृ. द्रव्यसं. टी १७)। २५. स लोकगगनव्यापी सिद्ध प्रदेशों वाला-है, विस्तृत है, असंख्यातप्रदेशी धर्मः स्याद् गतिलक्षणः । (ज्ञाना. ६-३२, पृ. ६७)। है, प्रतिसमय होने वाली छह वृद्धियों व हानियों २६. जीव-पुदगल योर्गति हेतुलक्षणो धर्मः। (पंचा. के प्राश्रय से अनन्त अविभागप्रतिच्छेदों से परिणत का. जय. वृ. ३) । २७. जीव-पुद्गलजालस्य व्रजतः है तथा गमनक्रिया से युक्त जीव और पुद्गलों के स्वेन हेतुना। धर्मो याननिमित्तं स्याज्जलं वा जल- गमन में सहकारी है। ऐसे द्रव्य को धर्मास्तिकाय चारिणाम् ।। (प्राचा. सा. ३-३०)। २८. जीव. कहते हैं । पुद्गलानां स्वाभाविके क्रियावत्त्वे सति गतिपरि- धर्मास्तिकायदेश-तथा तस्यैव बुद्धिपरिकल्पितो णतानां तत्स्वभावधारणाद् धर्मः, स चास्तीनां प्रदे. द्वयादिप्रदेशात्मको विभागो धर्मास्ति कायस्य देशः । शानां सङ्घातात्मकत्वात् कायोऽस्तिकाय इति । (जीवाजी. मलय. वृ. ४, पृ. ६)। xxx घमों हि जीव-पुद्गलानां गत्युपष्टम्भ- धर्मद्रव्य के बुद्धि के द्वारा कल्पित दो प्रादि प्रदेशकारी। (स्थाना. अभय. वृ.७, पृ. १५); धर्मः- स्वरूप विभाग को धर्मास्तिकाय का देश कहते हैं । धर्मास्तिकायो गत्युपष्टम्भगृणः। (स्थाना. अभय. धस्तिकायप्रदेश-धर्मास्तिकायस्य प्रदेशा:बृ. २-५८, पृ. ४०)। २६. स्वभाव-विभावगति- प्रकृष्टा देशा: प्रदेशाः, प्रदेशा निविभागा भागा इति। क्रियापरिणतानां जीव-पुदगलानां गति हेतुः धर्मः। (जीवाजी. मलय. व ४, पृ. ६)। (नि. सा. व. ६); यथोदकः पाठीनानां कारणं धर्मास्तिकाय के निविभागी अंशों को धर्मास्तिकायतथा तेषां जीव पुद्गलानां गम रणं स धर्मः। प्रदेश कहते हैं। (नि. सा. वृ. ३०)। ३०. धर्म: स तात्त्विकैरुक्तो धर्मास्तिकायानुभाग- जीव-पोग्गलाणं गम भागमयो भवेद् गतिकारणम् । जीवादीनां पदार्थानां मत्स्या- णहेदुत्तं धम्मत्थियाणुभागो। (धव. पु. १३, पृ. नामुदकं यथा ॥ (धर्मश. २१-८३)। ३१. लोय- ३४६)।
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मोपदेश] ५७६, जैन-लक्षणावली
[धात्रीपिण्ड जीव और पुद्गलों के गमन और प्रागमन में सह- कथनं स्तुति-देववन्दनादिकं च धर्मोपदेशः। (कातिकारी होना, यह धर्मास्तिकाय का अनुभाग है। के. टी. ४६६) । धर्मो-१. प्रसिद्धो धर्मी। (परीक्षा. ३-२७)। १ धर्मकथा प्रादि के अनुष्ठान को धर्मोपदेश कहा २. कारणादिव्यपदेशं द्रव्यं धर्मी, स्वधर्मायेक्षया जाता है। ३ दृष्ट प्रयोजन के परित्यागपूर्बक कुमार्ग द्रव्यस्य धमिव्यपदेशः। (प्रा. मी. वसु. ७५)। से निवृत्त होने, सन्देह का विनाश करने और अपूर्व ३. आनुमानिकप्रतिपत्त्यबसरापेक्षया तु पक्षापर. प्रर्थ के प्रकाशित करने के लिए जो धर्मकथा प्रादि पर्यायस्तद्विशिष्टः प्रसिद्धो धर्मी। (प्र. न. त. ३, का प्राचरण किया जाता है इसे धर्मोपदेश कहते हैं। २०)। ४. धमों प्रमाण सिद्धः । बुद्धिसिद्धोऽपि । धर्म्यध्यान-देखो धर्मध्यान । १. धर्मामाज्ञादि(प्रमाणमी. १, २, १६-१७)।
पदार्थस्वरूपपर्यालोचनैकाग्रता। (समवा. अभय. १ जो (साध्य धर्म से विशिष्ट पक्ष) प्रमाण से, वृ. ४, पृ. ९)। २. श्रुत-चरणधर्मादनपेत धय॑म् । विकल्प से अथवा दोनों से प्रसिद्ध होता है उसे (स्थाना. अभय, ७.४, १, २४७)। अनुमान के प्रकरण में धर्मों कहा जाता है। प्राज्ञा व अपाय प्रादि के स्वरूप का एकाग्रता से २ कारण प्रादि नाम वाला द्रव्य अपने धर्म की विचार करना, यह धर्म्यध्यान कहलाता है। अपेक्षा धर्मों कहलाता है।।
घात्रीदोष-देखो घात्रीपिण्ड । १. मज्जण-मंडणधर्मोपदेश- १. धर्मकथाद्यनुष्ठान धर्मोपदेशः । धादी खेल्लाबण खीर अंबधादी य । पंचविधधादि. (स. सि. ६-२५; त. श्लो. ९-२५)। २. अर्थों- कम्मेणुप्पादो धादिदोसो दु॥ (मूला. ६-२८) । पदेशो व्याख्यानमनुयोगवर्णनं धर्मोपदेश इत्यना- २. पंचविघानां धात्रीकर्मणां अन्यतमेनोत्पादिता न्तरम् । (त. भा. ६-२५; योगशा. स्वो. विव. वसतिः काचिद्दारकं स्नपयति भूषयति क्रीडयति ४-९०)। ३. धर्मकथाद्यनष्ठान धर्मोपदेशः । दष्ट. प्राशयति स्वापयति वा वसत्यर्थमेवमुत्पादिता प्रयोजनपरित्यागादुन्मार्गनिवर्तनाथं सन्देहव्यावर्तना- वसतिर्धात्रीदोषदुष्टा। (भ. प्रा. विजयो. २३०%3B पूर्वपदार्थप्रकाशनार्थ धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेश कातिके. टी. ४४८-४६)। ३. पंचविधानां घात्रीइत्याख्यायते। (त. वा. ६, २५, ५)। ४. प्राक्षेपणी णां क्रियया कर्मणा य माहारादिरुत्पद्यते स धात्री विक्षेपणी संवेजनी निवेदनीति चतस्रः कथाः. तासां नामोत्पादनदोषः। (मला. ७.६-२८)। ४. बालकथनं कर्मोपदेशः। (भ. प्रा. बिजयो. १०४)। लालन-शिक्षादिर्धात्रीत्वं xxx । (प्राचा. सा. ५. कथा धर्माद्यनुष्ठानं बिज्ञेया धर्मदेशना । (त. ८-३७; भावप्रा. टी. ९९)। ५. मार्जन-क्रीडनसा. ७-१९)। ६. दुष्टप्रयोजनपरित्यागादमार्ग- स्तन्यपान-स्वापन-मण्डनम् । बाले प्रयोक्तूयत्प्रीतो निवर्तनाथ सन्देहव्याबर्तनार्थमपूर्वपदार्थप्रकाशनार्थ दत्ते दोषः स धात्रिका। (मन. घ. ५-२०)। धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेशः । (चा. सा. पु. ६७)। ६. दारकाणां स्नपनेनालंकरणेन कोडनेन भोजनेन ७. द्वादशांगैकदेशोपदेशो धर्मोपदेशनम् । (प्राचा. स्वापेन वा धात्रीवत्कर्मणा संयतेनोत्पादिता वसति: सा. ४-६२)। ८. धर्मोपदेशः स्याद् धर्मकथा घात्रीदोषदुष्टा । (भ. प्रा. मूला. २३०) । संस्तुतिमङ्गला। (अन. प. ७-८७)। ६. दृष्टा- १ मज्जनयात्री, मण्डनधात्री, श्रीडनधात्री, क्षीरदृष्टप्रयोजनानपेक्षमुन्मार्गनिवर्तन-सन्देहच्छेदापूर्वार्थ- धात्री और अम्बधात्री; इन पांच धायों के क्रमशः प्रकाशनाद्यर्थों धर्मकथानुष्ठानं धर्मोपदेशः। (भाव- स्नान, अलंकरण, क्रीडन, दुग्धपान और सुलानेरूप प्रा. टी. ७८, पृ. २८५)। १०. दृष्टादृष्टप्रयोजन- कार्य से अथवा तद्विषयक उपदेश के द्वारा जो मनपेक्ष्य उन्मार्गविच्छेदनार्थ सन्देहच्छेदनार्थमपूर्वा- भोजन प्राप्त किया जाता है वह इस पात्रीदोष से थंप्रकाशनादिकृते केवलमात्मश्रेयोऽथं महापुराणादि. दूषित होता है। धर्मकथाद्यनुकथनं धर्मोपदेशः। (त. बत्ति श्रत. धात्रीपिण्ड-देखो घात्रीदोष । १. तत्राशनाद्यर्थ ६-२५) । ११. दृष्टादृष्टप्रयोजनमनपेक्ष्य उन्मान. दातुरपत्योपकारे वर्तत इति धात्रीपिण्डः । (प्राचाविच्छेदनाय सन्देहच्छेदनार्थम् अपूर्वार्थप्रकाशनादि. रा. सू. शी. व. २७३, पृ. ३२०)। २. बालस्य कृते केवलमात्मश्रेयोऽयं महापुराणादिधर्मकथाद्यनु- क्षीर मज्जन-मण्डन - क्रीडनाङ्कारोपणकर्मकारिण्यः
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
घानुष्क] ५७७, जैन-लक्षणावली
[धारणा पञ्च घायः, एतासां कर्म भिक्षार्थ कुर्बतो मुने/- १ गृहीत (अनुभूत) बात को नहीं भूलना, इसका श्रीपिण्डः । (योगशा. स्वो. विव. १-३८)। नाम चारण है। १ भौजन प्रादि के लिये दाता की सन्तान के उप. धारणा-१. धरणी धारणा ढवणा कोट्ठा पदिट्ठा कारार्थ पांच प्रकार के धात्रीकर्म में प्रवृत्त होने पर (एदे पच धारणाए पज्जायसद्दा)। (षट्खं. ५, जो भोजन प्रादि प्राप्त होता है वह धात्रीपिण्ड ५, ४०-पु. १३, पृ. २४३) । २. अवेतस्य काला: नामक उत्पादन दोष से दूषित होता है।
न्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा । (स. सि. १-१५)। धानुष्क-धानुष्को घनुषो योगात् xxx (पद्मपु. ३. धारणा प्रतिपत्तियथास्वं मत्यवस्थानमवधारणं ६-२०८)।
च । धारणा प्रतिपत्ति रवधारणमवस्थान निश्चयो. धनुष धारण करनेवाले को उसके निमित्त से ऽवगमः अवबोध इत्यनर्थान्तरम् । (त. भा. १-१५)। धानष्क कहते हैं।
४. xxxघरणंमि य धारण विति ।। (प्राव. नि. घान्य -धान्य ब्रीह्यादि अष्टादशभेदसुसस्यम् । ३)॥ ५. xxxघरणं पुण घारणं विति ।(विशेषा. उक्तं च-गोम-शालि-यव-सर्षप-माष-मुदगा: भा. १७६); Xxx अविच्चुई धारणा तस्स ॥ श्यामाक-कङगु-तिल कोद्रव-राजमाषाः। कीनाश- (विशेषा. भा. १८०)। ६. तन्विसेसावगमस्स धरणं नालमथ वणव-माढकी च सिबा-कूलत्य-चणकादि- प्रविच्चुनी, धारणा इत्यर्थः । (नन्दी. च. पृ. २५) । सुबीजघान्यम् ।। (कातिके. टी. ३४०)।
७. निर्माताऽविस्मतिर्धारणा। भाषा-वयोरूपादिबीह प्रादि अठारह प्रकार के अनाज को धान्य विशेषर्याथात्म्येन निर्णीतस्य (प्रर्थस्य) पुरुषस्योत्तरकहा जाता है।
कालं स एवायमित्यविस्मरण यतो भवति साधारणा। धान्यमानप्रमारण-से कि तं धन्नमाणपमाणे ? (त. वा. १, १५, ४)। ८. धारणा स्मृतिहेतुः २ दो असईओ पसई दो पसईग्रो सेतिया चत्तारि xxx। (लघीय. ६); स्मृतिहेतुर्धारणा. से इग्रामो कुलो चत्तारि कुलया पत्थो चत्तारि संस्कार:। (लघीय. स्वो. वि. ६)। ६. अवगतार्थपत्थया पाढगं चत्तारि आढगाइ दोणो सट्टि माढ- विशेषधरणं धारणा। xxx परिच्छिन्नस्य याइं जहन्नए कुंभे असीइ पाढयाई मज्झिमए भे। वस्तुनोऽविच्युति-स्मति-वासनारूपं तद धरणं पुनर्धामाढयसयं उक्कोसए कुंभे प्र? य पाढयस इए वाहे। रणांबते । (प्राव. नि. हरि.व.३) १०. धारणा एएणं घण्णमाणमाणेणं कि पत्रोअणं? एएणं घण्ण- प्रतिपत्तिः, यथास्वं मत्यवस्थानमवधारणं च । (अने, माणपमाणेणं मुत्तोलीमुख इदुरअलिंदग्रोचारसंसियाणं ज. प., पृ. १८)। ११. तथा तदर्थविशेषधरणं घण्णाणं घण्णमाणप्पमाणनिवित्तिलक्खणं भवइ, धारणा, अविच्युति-स्मृति-वासनारूपा । (नन्दी. से तं घण्णमाणपमाणे । (अन्यो. सू. १३२, पृ. हरि. व. पृ. ६३); अपायानन्तरमवगतार्थमविच्युत्या १५१)।
जघन्योत्कृष्टमन्तमुहूर्तमानं कालं धारयतो धारणेति घान्य के मापने के बांटों को धान्यमानप्रमाण कहते भण्यते, ततस्तमेवार्थ उपायोगाच्यतो जघन्येनान्तमहैं। जैसे-दो प्रसतिको एक प्रसूति, दो प्रसूतियों हूर्तादुत्कृष्टतोऽसंख्येयकालात परत: स्मरतो धरणं की एक सेतिका, चार सेतिकात्रों का एक कुडव, धारणोच्यते । (नन्दी. हरि. व. पु. ६६); धरणं चार कुडवों का एक प्रस्थ, चार प्रस्थों का पाढक, संख्येयवर्षायुषां संख्येयमसंख्येयवर्षायषामसंख्येयम् । चार माढकों का द्रोण, साठ माढकों का जघन्य कुम्भ, (नन्दी. हरि. व. पु. ६७)। १२. कालान्तरेऽप्यप्रस्सी प्राढकों का मध्यम कुम्भ, सौ प्राढकों का विस्मरणसंस्कारजनकं ज्ञानं धारणा । (धव. पु. १० उत्कृष्ट कुम्भ और पाठ सौ पाढकों का वाह होता १.३५४); निकितस्यार्थस्य कालान्तरे अविस्मतिहै। ये सब धान्य के मापविशेष हैं।
र्धारणा। जत्तो णाणादो कालंतरे वि अविस्मरणधारण-१. गृहीतस्याविस्मरणं धारणम् । (त. हेदुभूदो जीवे संसकारो उप्पज्जदि तण्णाणं धारणा भा. सिद्ध. वृ. ७-६)। २. धारणमविस्मरणम्। णाम । (घव. पु. ६, पृ. १८); निर्णीतार्थाविस्मृ.. (योगशा. स्वो. विव. १-५१) ।
तियंतस्सा धारणा । (धव. पु. ६, पृ. १४४); अवे.
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
धारणा] ५७८, जैन-लक्षणावली
[धारणा तस्य कालान्तरे अविस्मरणकारणं ज्ञानं धारणा। प्नोतीति । (रत्नाकरा. २-१०, पृ. ६२) । २७. (धव. पु. १३, पृ. २१८-१६);xxx अवेदवत्थु- स्मृति हेतुर्धारणा । (प्रमाणमी. १, १, ३०)। लिंगग्गहणदुवारेण कालंतरे अविस्सरणहेदुसंकारजणणं २८. धारणा अर्हदगुणाविस्मरणरूपा। (योगशा. विण्णाणं धारणेत्ति अब्भुवगमादो : (धव. पु. १३, स्वो. विव. ३-१२४)। २६. अवायज्ञानानन्तरमप, २३३); धार्यते निर्णीतोऽर्थः अनया इति तसुहर्त यावत्तदुपयोगादविच्यवनमविच्यतिः ततधारणा । (षव. पु. १३, पृ. २४३)। १३. कालंतरे स्तदाहितो थः संस्कार: संख्येयमसख्येयं वा कालं संभरणणिमित्तसंसकारहे उणाणं धारणा । (जयघ १, यावत् स वासनेत्युच्यते । पुनः कालान्तरे कुतश्चित्तापृ. ३३२); जं कालंतरे अविस्मरणहे उसंसकारुप्पा- दृशार्थदर्शनादिकात् कारणात् संस्कारस्य प्रबोधे सति ययं गाणं णिण्णयसरूवं सा धारणा। (जयध. १, यत् ज्ञानमुदयते तदेवेदं यत् प्रागुपलब्धमित्यादि तत् पू. ३३६)। १४. धारणा श्रुतिनिर्दिष्टबीजानामव- स्मतिः । एतानि च त्रीण्यप्यविच्यत्यादीनि ज्ञानानि धारणम् । (म. पु. २१-२७) । १५. xxx अविशेषेण धारणाशब्दवाच्यानि । यदाह-तदनंतरं स्मतिहेतुः सा धारणा । (त. श्लो. १, १५, ४)। १६. तदत्थाविच्चवणं जो य वासणाजोगो। कालंतरेण सावधारणज्ञानं कालान्तराविस्मरणकारणं धारणा- जो पुण अणुपरणं धारणा सा उ ।। (धर्मसं. ज्ञानम् । (प्रमाणप., प.६८)। १७. यदा तु मलय. व.४४); अवग्रहादिक्रमेण निश्चितार्थविषये निश्चितं सन्तमविच्युतिरूपेण धारयति लब्धिरूपेण तदुपयोगादभ्रंशोऽविच्युतिः, तज्जनितः संस्कारविशे. वा कालान्तरानुस्मरणे वा सा धारणा । (त. भा. षो वासना, तत्सामर्थ्यादुत्तरकालं पूर्वोपलब्धार्थविष. सिद्ध. . १-१५); तस्यैव स्पर्शादेरर्थस्य परि. यमिद तदित्यादिज्ञानं स्मृतिः, अविच्युति-वासना. च्छिन्नस्योत्तरकालमबिस्मृतिर्या सा धारणा । (त. स्मृतयश्च धारणलक्षण सामान्यान्वर्थ योगाद् धारणेति भा. सिड.. १-१७)। १८. तह य प्रवायमदिस्स व्यपदिश्यते । (धर्मसं. मलय. वृ. ८२३)। ३०. कंजरसह ति णिच्छिदत्थस्स । कालंतरविसरणं तस्यैवार्थस्य निर्णीतस्य घरणं धारणा । (प्राव. नि. सा होदि य धारणा बुद्धी ।। (जं. दी. प. १३-६०)। मलय. वृ. २, पृ. २३)। ३१. धारणा स्मृतिः । (व्यव. १६. स्मृतेः अनुभूतवस्तुविषयायाः तच्छब्दपराम- भा. मलय. वृ. १०-२७६) । ३२. तथा निश्चिष्टायाः प्रतीतेः हेतुः धारणा-भावना, संस्कार तस्यैवाविच्युति-स्मृति-वासनारूपं धरणं धारणा। इति यावत् । (न्यायकु. ६, पृ. १७३) । २०. (प्रव. सारो. वृ. १२५३; कर्मस्त. गो. व. १०, तस्यैव (अवायविषयस्यैव) कालान्तरस्मरणयोग्य- पु. १३)। ३३. ततः स एव अवायः पुनः पुनः प्रवृ. तया ग्रहणं धारणा। (प्रमाणनि. प. २८)। त्तिरूपाभ्यासजनितसंस्कारात्मक: सन् कालान्तरेऽपि २१. कालान्तरे वि णिण्णिदवत्थुसमरणस्स कारणं निर्णीतवस्तुस्मरणकारणत्वेन तुर्य धारणाख्यम् । तुरियं । (गो.जी. ३०९)। २२.धारणमविस्मरणम। (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३० (नीतिवा. ५.४६, पृ.५६) । २३. निर्णीतस्यार्थस्य कालान्तराविस्मरणयोग्यतया तस्यैव ज्ञानं धारणा। कालान्तरेष्वविस्मतिर्धारणा यस्माज्ज्ञानात्कालान्तरे. (न्यायदी., पृ. ३७)। ३५. अवेतस्य सम्यकारऽप्यविस्मरणहेतुभूतो जीवसंस्कार उत्पद्यते तज्ज्ञानं ज्ञातस्य यत्कालान्तरे अविस्मरण कारणं ज्ञानं धारणा । (मूला. वृ. १२-१८७)। २४. कालान्तरे सा धारणेत्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १-१५); परिज्ञातवस्तुस्मरणकारकः। संस्कारो यस्तदुत्पत्ति. धारणा तु अवगृहीतार्थानामविस्मरणकारणमिति । कारणं धारणाह्वयम् ।। (प्राचा. सा. ४-१५)। (त. व. श्रुत. १-१६)। २५. स एव दृढतमावस्थापन्नो धारणा। (प्र. न. १ धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा ये त. २-१०)। २६. स इत्यवायो दृढतमावस्थापन्नो धारणा के समानार्थक शब्द हैं। २ प्रवायसे जाने विवक्षितविषयावसाय एव सादरस्य प्रमातुरत्यन्तो. हुए पदार्थ के कालान्तर में नहीं भूलने का जो पचितः कंचित् कालं तिष्ठन् धारणेत्यभिधीयते । कारण है उसे धारणा कहते हैं । ३ विषय के अनुदृढतमावस्थापन्नो ह्यवायः स्वोपढौकितात्मशक्ति- सार प्रतिप्रत्ति-गृहीत अर्थविषयक उपयोग के विशेषरूपसंस्कारद्वारेण कालान्तरे स्मरणं कतु पर्या. अविनाश, मति में प्रवस्थान- अन्यत्र उपयोग जाने
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
धारणावरणीय ]
पर लब्धिरूप में धारणारूप मति की विद्यमानता - श्रौर अवधारण को धारणा कहा जाता है । धारणावरणीय - एतस्या: ( धारणायाः ) आवारकं कर्म धारणावरणीयम् । (धव. पु. १३, पृ. २१ε)।
इस धारणा मतिज्ञान का प्राच्छादन करनेवाले कर्म को धारणावरणीय कहते हैं । धाररणाव्यवहार-धारणाववहारो संविग्गेण गीयत्येणारिएणं दव्वखेत्त-काल-भाव- पुरिसप डिसेवणासु अवलोएऊण जम्मि जं अवराहे दिन्नं पच्छित्तं तं पासिऊण प्रन्नो वि तेसु चेव दव्वाइएसु तारिसावराहे तं चैव पच्छित्तं देइ, एस धारणाववहारो । अहवा वेयावच्चगरस्स गच्छोवग्गहकारिणो फड्डुगपइणो वा संविग्गस देसदरिसणसहायस्स वा बहुसो पडितप्पियस्स श्रवसेस सुयाणुओगस्स उचियपायच्छित्तद्वाणदाणधारणं धारणाववहारो भन्नइ । (जीतक. चू. पृ. ४) ।
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पुरुषतिसेवना के विषय में देखकर संसार से भयभीत गीतार्थ - श्रागम के ज्ञाता - श्राचार्य के द्वारा जिस अपराध के होने पर जो प्रायश्चित्त दिया गया है उसका विचार करके अन्य श्राचार्य भी जो उक्त द्रव्यादि के श्राश्रित यंसे अपराध के होने पर वही प्रायश्चित्त देता है; इसका नाम धारणा व्यवहार है । प्रथवा वैयावृत्त्य करके गच्छ का उपकार करनेवाले, ब गण के प्रवान्तर विभाग के स्वामी, संविग्न (मोक्षाभिलाषी ) ; देशतः दर्शन की सहायता से युक्त, बहुत प्रकार से प्रतितर्पित तथा अवशेष श्रुत के उपयोग से सहित अन्य प्रायश्चित्तदाता श्राचार्य के प्रायश्चित्त के देने के धारण को व्यवहार कहा जाता है । धाराचाररण - श्रविराहिय तल्लीणे जीवे घणमुबकवारिधाराणं । उवर जं जादि मुणी सा धाराचारणा रिद्धी ॥ ( ति प ४ - १०४४) । जिसके प्रभाव से साधु मेघों से छोड़ी हुई जलधारा का प्राय करके ऊपर गमन करते हुए जलधारागत जीवों की विराधना नहीं करता है उसे धाराचारण ऋद्धि कहते हैं ।
धार्मिक - धर्मे श्रुत चारित्रात्मके भवः, स वा प्रयोजनमस्येति धार्मिकः । ( स्थाना. ३, ३, १८८, पृ. १५४) ।
५७६, जैन-लक्षणावली
[धूमचारण
श्रुत धौर चारित्र स्वरूप धर्म में होने वाला प्रथवा उक्त धर्म जिसका प्रयोजन है वह धार्मिक कहलाता है ।
धार्मिक राजा (धम्मितो राया ) - १. उभतो जोणी शुद्धो राया दस भागमेत्तसंतृट्ठो । लोए वेदे समए कयागमो धम्मितो राया ॥ ( व्यव. भा. ३) । २. यो राजा उभययोनिशुद्धो मातृ-पितृपक्षपरिशुद्धः, तथा प्रजाभ्यो दश (म) भागमात्र ग्रहण संतुष्टः तथा लोके लोकाचारे, वेदे समस्तदर्श निनां सिद्धान्ते, समये नीतिशास्त्र कृतागमः कृतपरिज्ञानो धार्मिको धर्मश्रद्धावान् स राजा । ( व्यव. भा. मलय. वू. ३, पृ. १२६) । जिसका मातृपक्ष और पितृपक्ष शुद्ध हो, जो प्रजा से उसकी चाय का दशम भाग सेने में ही सन्तुष्ट रहता हो; तथा जो लोकव्यवहार, वेद - सब दर्शनियों के सिद्धान्त और नीतिशास्त्र का ज्ञाता हो वह धार्मिक राजा कहलाता है । धीर- १. धीरः सत्त्वसम्पन्नः । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ८७४, पृ. ३७२)। २. घीरा : कर्मविदारणसहिष्णवो धीरा वा परीषहोपसर्गाक्षोभ्याः, धिया बुद्धया राजन्तीति वा धीरा ये केचनासन्न सिद्धिगमनाः । (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. १, ६, ३३, पृ. १८५) । २ जो घी अर्थात् बुद्धि से सुशोभित होते हैं वे धीर कहलाते हैं और वे परोषह व उपसर्ग से विचलित न होकर थोड़े ही समय में मुक्ति को प्राप्त करने वाले होते हैं ।
धूमकेतु - १. उप्पादकाले चेव घूमलट्ठि व्व श्रागासे उवलब्भमाणा धूमकेदू णाम । ( षव. पु. १४, पृ. ३५) । २. धूमकेतुर्गगने धूमाकाररेखाया दर्शनम् । (मूला. बु. ५ - ७८ ) ।
१ उत्पात के समय में ही आकाश में जो धूमाकार रेखा दिखाई पड़ती है उसे घूमकेतु कहते हैं । धूमचारण- १. श्रध उड्ढ - तिरियपसरं घूमं प्रव लंबिऊण जं देंति । जं पदखेवे अक्खलिश्रा सा रिद्धी धूमचारणा णाम || ( ति प ४ - १०४२) । २. घूमबति तिरश्चीनामूर्ध्वगां वा श्रालम्ब्यास्खलि• तगमनास्कन्दिनो धूमचारणाः । (योगशा. स्वो विव. १-६; प्रव. सारो. वृ. ६०१, पृ. १६८ ) । १ जिसके प्रभाव से ऋषि जन तिरछे फैलने वाले बुएँ का
मीचे, ऊपर प्रौर अवलम्बन करके
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
धूमदोष] ५८०, जैन-लक्षणावलो
[ध्याता अस्खलित पादक्षेप करते हुए गमन करते हैं उसे तर्जनी के मिला देने पर जो गाय के स्तन के धमचारण ऋद्धि कहते हैं।
प्राकार वाली मुद्रा बन जाती है उसे धेनुमुद्रा धूमदोष-१. तं पुण होदि सधमं जं पाहारेदि कहते हैं। गिदिदो। (मला. ६-५८)। २. शीतवातातपाद्यु- ध्याता-१. णाहं होमि परेसि ण मे परे संतिपदव सहिता वसतिरियमिति निन्दा कुर्वतो वसनं णाणमहमेक्को। इदि जो झायदि झाणे सो अप्पाणं धमदोषः। (भ. प्रा. विजयो. २३०, कातिके. टी. हवदि झादा।। (प्रव. सा. २-६९); जो खविद४४८-४४६, पृ. ३३६) । ३. तथाऽन्त [न्य] मोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता। सम. प्रान्तादावाहारद्वेषाच्चारित्रस्याभिधूमनाद् धूम्रदोषः। वट्ठिदो सहावे सो अप्पाणं हवदि धादा ॥ (प्रव. सा. (प्राचारा. सू. शी. व. २-१, २७३, पृ. ३२१)। २-१०४) । २. पुवकयब्भासो भावणाहि झाणस्स ४. यस्मादाहरति निन्दन् जुगुप्समानो विरूपकमे- जोग्गयमुवेइ । ताप्रो य नाण-दसण-चरित्त-वेरग्गतनिष्टं मम एवं कृत्वा यदि भुंक्ते तदानीं धूमो । जणियाम्रो ।। णाणे णिच्चब्भासो कुणइ मणोधारणं नाम दोषः । (मूला. वृ. ६-५८)। ५. निन्दन् विसुद्धि च । णाणगुणमुणिय सारो तो झाइ सुणिच्चलपमचारिन्धनं दहन् धूमकरणाद् धूमो दोषः। मईयो।। संकाइदोस रहियो पसमत्थेज्जाइगणगणो(योगशा. स्वो. विव. १-३८)। ६. धूमोऽनिष्टा- वेग्रो। होइ असं मूढमणो दंसणसुद्धीए झाणंमि ।। न्न-पानादौ यद् द्वेषेण निषेवनम् । (प्राचा. सा. नवकम्माणायाणं पोराणविणिज्जरं सुभायाणं । ८-५७) । ७. XXX अश्नतो धूमो निन्दया । चारित्तभावणाए ज्झाणमयत्तेण य समेइ॥ सुविxxx(अन. घ. ५-३७)।
दियजगस्सहावो णिस्संगो निभग्रो णिरासोय । १ यह पाहार मेरे लिए अनिष्टकर है, इस प्रकार वेरग्गभावियमणो ज्झाणमि मुनिच्चलो होइ॥ निन्दा करते हुए उसे ग्रहण करने पर वह घूमदोष (ध्यानश. ३०-३४; धव. पु. १३, पृ. ६८ उद.)। मेक्षित होता है। ३ अन्त [अन्य] प्रान्त मादि में ३. उत्तमसंघडणो प्रोघबलो मोघम्रो चोहसपव्वपाहारविषयक द्वेष के वश चारित्र चूंकि धूमित हरो वा [दस-]णवपुवहारो वा xxx सम्मा(मलिन) होता है, अतएव इसे धूम या धूम्रदोष इट्ठी xxx चत्तासे सबझंतरंगगथो xxx कहा जाता है।
विवित्तपासुयगिरि-गुहा-कंदर-पब्मार-सुसाण-प्राराधैति-१. निःश्रेयसधर्मभूमिकानिबन्धनभूता धुतिः। मुज्जाणादिदेसत्थोxxx जहासुहत्थोxxx (ललितवि. प. ३८); घृति: मनःप्रणिधानम्। अणियदकालो xxx सलंबणो xxx सुख (ललितवि. पृ. ८१)। २. धृतिः चित्तस्वास्थ्यम् । तिरयणेसु भावियप्पा xxx विसएहितो दिट्टि (समवा. अभय. व. १४१)। ३. धृतिः समाधि- णिरंभियूण ज्झेये णिरुद्धचित्तो xxx। एवं लक्षणा । (योगशा. स्वो. विश्व. ३-१२४)। ज्झायंतस्स लक्खणं परूविदं । (घव. पु. १३, पृ. १ मोक्षप्रापक धर्म की भूमिका का जो कारण है ६४-६६)। ४. ध्याताऽषायकलुषितो गुप्तेन्द्रिउसे धति (धर्य) कहा जाता है, मन की एकाग्रता यश्च । (चा. सा. पृ. ७४) । ५. मुमुक्षर्जन्मनिविको धृति कहते हैं।
ण्णः शान्तचित्तो वशी स्थिरः। जिताक्षः संवृतो धतिमान-धतिः संयमे रतिः, सा विद्यते येषां धीरो ध्याता शास्त्रे प्रशस्यते ।। (जाना. ४-६, पृ. ते धतिमन्तः । (सूत्रकृ. सू. शी. प. १, ६, ३३)। ६६); विरज्य काम-भोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम् । संयम में रति या अनुराग के करने वालों को धृति- यस्य चित्तं स्थिरीभूतं स हि श्याता प्रशस्यते ॥ मान् कहा जाता है।
(जाना. ५-३, पृ.८३)। ६. अमुचन् प्राणनाशेऽपि धेनुमुद्रा- अन्योन्यग्रन्थितागुलीषु कनिष्ठिका- संयमैकधुरीणताम् । परमप्यात्मवत्पश्यन् स्वस्वरूपा. नामिकयोमध्यमा-तर्जन्योश्च संयोजनेन गोस्तना- परिच्युतः ।। उपतापमसंप्राप्तः शीतवातातपादिभिः। कारा धेनुमुद्रा । (निर्वाणक. १६, ३, २)। पिपासुरमरीकारि योगामृतरसायनम् ॥ रागादिभिदोनों हाथों की अंगुलियों को परस्पर में भिड़ाकर रनाक्रान्तं क्रोधादिभिरदूषितम् । प्रात्मारामं मनः *प्रथित कर-कनिष्ठा-अनामिका मोर मध्यमा- कुर्वन् निर्लेपः सर्वकर्मसु ॥ विरत; काम-भोगेभ्यः
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
ध्यान]
स्वशरीरेऽपि निःस्पृहः । संवेगह्वदनिर्मग्नः सर्वत्र श्रमतां श्रयन् ।। नरेन्द्रे वा दरिद्रे वा तुल्यकल्याणकामनः । श्रमात्र करुणापात्रं भवसौख्यपराङ्मुखः ॥ सुमेरुरिव निष्कम्पः शशीवानन्ददायकः । समीर इव निःसंगः सुधीर्ध्याता प्रशस्यते ।। (योगशा. ७, २-७) । ७. स्वात्मसंवित्तिरसिको ध्याता X X X | (इष्टोप. टी. ३६) । ८. आहारासन निद्राणां विजयो यस्य जायते । पंचानामिन्द्रियाणां च परीषहसहिष्णुता || गिरीन्द्र इव निष्कम्पो गम्भीरस्तोयराशिवत् । श्रशेषशास्त्रविद् धीरो ध्याताऽसौ कथ्यते बुधैः ॥ ( भावसं. वाम. ६५७-५८ ) ।
ध्यान -
१.
१ मैं पर (अन्य ) का नहीं हूं औौर पर मेरे नहीं हैं, मैं तो एक ज्ञानस्वरूप हूं; इस प्रकार से जो ध्यान में श्रात्मचिन्तन करता है उसे ध्याता जानना चाहिए । जो कषायों को कलुषता से रहित व विषयों से विरक्त होता हुआ मन को रोक कर स्वभाव में स्थित होता है वह ध्याता कहलाता है । उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोघो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् । (त. सू. ६ - २७) । २. चित्त - विक्षेषत्यागो ध्यानम् । ( स. सि. ९-२० ) । ३. उत्तमसहननं वज्रर्षभनाराचं वज्रनाराचं नाराचं अर्धनाराचं च तद्युक्तस्यैकाग्रचित्तानिरोधश्च ध्यानम् । ( त. भा. E - २७) । ४. तस्स ( झाणस्स ) य इमं लक्षणं । तं ० - दढमज्भवसाणंति । केई पुण प्रायरिया एवं भांति — एगगगस्स चिन्ताए निरोधो भाणं, एगtree किर चिन्ताए निरोधो तं भाणमिच्छंति, तं छउमत्थस्स जुज्जइ, केवलिणो न जुज्जइत्ति । ( वशवे. चू. १, पृ. २९ ) । ५. जं थिरमज्भवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं । तं होज्ज भावणा वा प्रणुपेहा वा श्रहव चिता ॥ (ध्यानश. २ ) । ६. ध्यानशब्दो भाव-कर्तृ - करणसाधनो विवक्षाशात् । श्रयं ध्यानशब्दः भाव-कर्तृकरणसाधनो विवक्षाशाद् वेदितव्यः । तत्र ध्येयं प्रति प्रव्यापृतस्य भावमात्रेणाभिधाने ध्यातिर्ध्यानमिति भावसाधनो ध्यानशब्दः । ध्यायतीति ध्यानमिति बहुलापेक्षया कर्तृसाघनश्च युज्यते । करणप्रशंसापरायामभिधानप्रवृत्तौ समीक्षितायां यथा साध्वसिलत्तीति प्रयोक्तृ-निवं त्र्त्ययोः सतोरप्युद्यमन-निपातनयोरविशेषतंत्रस्वाच्छेदनस्य कर्तृ धर्माध्यारोपः क्रियते, तथा दिध्यासोरप्याज्ञानावरण-वीर्यान्तरायक्षयोपश्च मविशेषतंत्र
त्मनः
५८१, जैन - लक्षणावली
[ ध्यान
त्वात् ध्यानपरिणामस्य युज्यते कर्तृत्वम् । करणत्वमपि चास्य पर्याय पर्यायणोर्भेदपरिकल्पनासद्द्भावात् युज्यते अग्नेर्दाह-पाक स्वेदादिक्रियाप्रवृत्तस्यात्मभूतौष्ण्यकरणपरिकल्पनवत् । (त. बा. ६, २७, ८) । ७. यत् स्थिरमध्यवसानं तद् ध्यानम् । (ध्यानश. हरि. वू. २ ) । ८. अन्तर्मुहूर्तकालं चित्तस्यैकाग्रता भवति ध्यानम् । (प्राव. नि. हरि. बृ. १४६३, पृ. ७७४) । ६. उत्तमसंहननस्य एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् । एत्थ गाहा— जं थिरमज्झवसाणं तं भाणं जं चलं तयं चित्त । तं होइ भावणा वा अणुपेहा वा अद्द व चिता || ( धव. पु. १३, पू. ६४ उव्.); दंसमसय सोह-वय-वग्धतरच्छच्छहरुले हि खज्जतो वि वासीए तच्छिज्जतो [वि]करवतेहि फाडिज्जतो वि दावानलसिहामुहेण कवलिज्जतो वि सीद वादादवेहि बाहिज्जं तो [वि] अच्छरसयकोडीहि लालिज्जतम्रो बि जिस्से अवस्थाए ज्यादो ण चलदि सा जीवावस्था उभाणं णाम । (घव. पु. १३, पृ. ७४); अंतोमुहुत्तमेतं चितावस्थाणमेगवत्थुम्हि । छदुमत्याणं उभाणं जोगणिरोहो जिणाणं तु || (ध्यानश. ३; धव. पु. १३, पू. ७६ उद्) । १०. ध्यानमेकाग्रचिन्ताया घनसंहननस्य हि । निरोधोऽन्तर्मुहूर्तं स्याच्चिन्ता स्यादस्थिरं मनः ॥ (ह. पु. ५६-३) । ११. ऐकाप्रयेण निरोधो यश्चितस्यैकत्र वस्तुनि । तद् ध्यानं वज्रकं यस्य भवेदान्तर्मुहूर्ततः ॥ स्थिरमध्यवसानं यत्तद् ध्यानं X x X ॥ घीबलायत्तवृत्तित्वाद् ध्यानं तज्ज्ञैनिरुच्यते । यथार्थमभिसन्धानाद् अपध्यानमतोऽन्यथा । ( म. पु. २१, ८-६ व ११); प्रशस्तप्रणिधानं यत् स्थिरमेकत्र वस्तुनि । तद् ध्यानमुक्तं मुक्त्यङ्गं घम्यं शुक्लमिति द्विधा । (म. पु. २१-१३२ ) । १२. ततोऽयं ध्यानशब्दो भाव-कर्तृकरणसाधनो विवक्षावशात् ध्येयं प्रति व्यावृत्तस्य भावमात्रत्वात् ध्यातिष्यनिमिति भवति । करणप्रशंसापरायां वृत्तौ कर्तुं साथनत्वं ध्यायतीति ध्यानम् । साधकतमत्वविवक्षायां कारणसाधनं ध्यायत्यनेन ज्ञानावरण- वीर्यान्तरायविरामविशेषोद्भूतशक्तिविशेषेणेति ध्यानमिति । (त. इलो. ६ - २७, पू. ४९९ ) । १३. राग-द्वेष - मिथ्यात्वासंश्लिष्टं प्रर्थयाथात्म्यस्पर्शिप्रतिनिवृत्तविषयान्तरसंचारं ज्ञानं ध्यानम् । (भ. प्रा. विजयो. २१); ध्यानं एकाग्रचिन्तारोषः । ( भ. प्रा. विजयो. ७०);
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
ध्यान]
५८२, जैन-बक्षणावली
[ध्येय वस्तुयाथात्म्यावबोधो निश्चलो यः स ध्यानम् । (भ. चराचलमनो ध्यानं तदन्तमुहूर्तावस्थानमतीव दुर्धरप्रा. विजयो. ७१) । १४. वाक्काय-चित्तानां तया नाऽतः परं तिष्ठति। (प्राचा. सा. १०-१२)। प्रागमविधानेन निरोधो ध्यानम् । (त. भा. सिद्ध. २६. अन्तर्मुहूतं यावच्चित्तस्यै काग्रता योगनिरोधश्च व.६-२०); अतो निश्चलं स्थिरमध्यवसान मेका. ध्यानम् । (समवा. अभय. व. ४, पृ. लम्बनं छद्मस्थविषयं ध्यानम् । केवलिनां पुनर्वा- २७. ध्यानमेकाग्रचिन्तानिरोधः । (मारित्रभ. टी. काययोगनिरोध एव ध्यानम्, अभावान्मनसः। ५, भ. प्रा. मला. ७०)। २८. महन्तिमनस्थयं (त. भा. सिद्ध. व.६-२७)। १५. एकाग्रचिन्ता- ध्यानं छद्मस्थयोगिनाम् । धयं शुक्लं च तद् द्वेषा निरोधो यः परिस्पन्देन वजितः। तद् ध्यानं निर्जरा- योगरोधस्त्वयोगिनाम् ॥ (योगशा. ४-११५)। हेतूः संवरस्य च कारणम् ।। द्रव्य-पर्याययोर्मध्ये २६. ध्यातिान मेकाग्रचिन्तानिरोधः, एकवस्तुनिप्राधान्येन यदपितम् । तत्र चिन्तानिरोधो यस्तद् ष्ठमात्मनो ज्ञानमित्यर्थः। xxxएकस्मिन विव. ध्यानं बभजिनाः ॥ (तत्त्वान. ५६ व ५८); क्षितेऽग्ने मुखे व्यालम्बने चिन्ताया यथोक्तपरिस्पन्दवनिश्याद् व्यवहाराच्च ध्यानं द्विविधमागमे । स्व- च्चतन्याश्रिताया अन्तःकरणप्रवृत्तनिरोथोऽवरोधो रूपालम्बनं पूर्व परालम्बन मुत्तरम् ॥ (तत्त्वानु. नानार्थव्यावर्तनेन तवावस्थापनमेकाग्रचिन्तानि६६)। १६. एकाग्रत्वेऽतिचिन्ताया निरोधो ध्यान- रोधो ध्यानस्यार्णं लक्षणमुपलक्षणीयम्। (भ. मिष्यते । अन्तर्मुहूर्ततस्तच्च भवत्युत्तमसंहतेः ।। (त. प्रा. मूला. टी. १६६६)। ३०. एकाग्रचिन्तनं सा. ७-३८)। १७. ततोऽनन्तशक्तिचिन्मात्रस्य ध्यानं चतुर्भेदविराजितम् । (भावसं. वाम. ६५६)। परमस्यात्मनः एकाग्रसंचेतनलक्षणं ध्यानं स्यात् । ३१. मनोविभ्रमपरिहरण ध्यानमुच्यते । (त. वृत्ति (प्रव. सा. अमृत.व.२-१०२); तत्तु (स्वभावे श्रुत.६-२०) एकमग्रं मुखमवलम्बनं द्रव्यं पर्यायः समवस्थानं) स्वरूपप्रवृत्तानाकुलैकाग्रसंचेतनत्वात् तदुभयं स्थूलं सूक्ष्म वा यस्य स एकानः; एकाग्रस्य ध्यानमित्युपगीयते । (प्रव. सा. अमृत.व. २.१०४)। चिन्तानिरोधः आत्मार्थं परित्यज्यापरचिन्तानिषेध १८. शुद्धस्वरूपेऽविचलितचैतन्यवृत्तिहि ध्यानम् । एकानचिन्तानिरोधे ध्यानमुच्यते । (त्त. वृत्ति श्रुत. (पंचा. का. अमृत. व. १४६)। १६. एकाग्रचिन्ता- ६-२७)। ३२. कृत्स्नचिन्तानिरोधेन सः शुद्धस्य निरोधो ध्यानम्, एकस्मिन् त्रियासाधनेऽग्रं मुखं चिन्तनम् । एकाग्रलक्षणं ध्यानं तदुक्तं परमं तपः ।। यस्याश्चिन्ताया इत्ये काग्रचिन्ता, तस्या निरोधो- (लाटीसं.७-८७)।
संचारस्तदेकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् । १ उत्तम संहनन वाले जीव के जो एक अग्र मेंxxx ध्यानं चिन्ताप्रबन्धलक्षणम् । (चा. सा. अनियमित भोजन-गमनादि रूप अनेक क्रियानों में से पृ. ७४) । २०. चित्तस्यैकाग्रता ध्यानं XXXI किसी एक ही क्रिया के कर्ता रूप में-चिन्ता का (उपासका. ६१६)। २१. एक चिन्तानिरोधात् जो निरोध होता है उसे ध्यान कहते हैं । वह अन्तर्म. पुतरिदमुभयं ध्यानमान्तर्मुहूर्तम् । (अध्यात्मत. हूतं काल तक ही होता है । ५ स्थिर अध्यवसान१५)। २२. उत्कृष्टं कायबन्धस्य साधोरन्तर्मुहूर्त. प्रात्मपरिणाम-का नाम ध्यान है। तः। ध्यानमाहुरथैकाग्रचिन्तारोधो बुधोत्तमाः ॥ ध्येय-१. जिणो वीयरायो केवलणाणेण अवगयतिएकचिन्तानिरोधो यस्तद् ध्यानं xxx। (ज्ञाना. कालगोयराणंतपज्जाप्रोवचियछद्दध्वो णवकेवललद्धि१५-१६, पृ. २५५-५६) । २३. जं किंचि वि पहुडिप्रणंतगुणे हि मारद्धदिव्वदेहधरो प्रजरो अमरो चितंतों गिरीहवित्ती हवे जदा साहू । लळूण य प्रजोणिसंभवो अदज्झो अछेज्जो अबत्तो णिरंजणो एयत्तं तदाहु तं तस्स णिच्चयं झाणं ॥ (द्रव्यसं. णिरामो अणवज्जो सयलकिलेसुम्मूक्को तोसवन्जि. ५५)। २४. एकाग्रचिन्तानिरोधेन च पूर्वोक्तविवि- यो वि सेवयजणकप्परुक्खो, दोसवज्जियो वि सगघध्येयवस्तुनि स्थिरत्वं निश्चलत्वं ध्यानलक्षणम् । समयपरम्मुहजीवाणं कयंतोवमो सिद्धसज्मोजिय. (व. द्रव्यसं. टी. ५५)। २५. एकस्मिन् विषयेऽग्र- जेयो संसार-सायरुत्तिण्णो सुहामियसायरणिबडढा. माननमभूदस्या मतेरित्यसावेकाना विषयोपयोग- सेसकर-चरणो णिच्चो णिरायूहभावेण जाणा. निता चिन्तानिरोधो चला-वस्था स्यान्निजगो- वियपडिवक्खाभावी सव्वलक्खणसंपण्णदप्पणसंकंत
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
ध्येय]
५८३, जैन-लक्षणावली
[ध्रुवराहु माणुसछायागारो संतो वि सयलमाणुसपहावृत्तिण्णो ध्रुवप्रत्यय-१. स एवायमहमेव स इति प्रत्ययो अव्वरो अक्खो xxx सगसरूवे दिण्णचित्त- ध्रुवः । (धव. पु. ६, पृ. १५४) । २. स्यान्नित्यजीवाणमसे सपावपणासमो जिणउव इटुणवपयत्था वा त्वविशिष्टस्य स्तम्भादग्रहणं ध्रवः। (प्राचा. सा. ज्झेयं होति । xxx बारसअणुपेक्खायो उब- ४-२६) । समसे ढि-ख वगसेढिचढणविहाणं तेवीसवग्गणाप्रो पंच १ वही यह है, मैं ही वह हं, इस प्रकार का जो परियट्टाणि दिदि-प्रणुभाग-पयडि - पदेसादि सव्वं प्रत्यय होता है वह ध्रवप्रत्यय कहलाता है। २ नित्यपिज्झेयं होदि त्ति स्टूब्वं । (धव. पु. १३, पृ. ६६, त्वविशिष्ट स्तम्भ प्रादि के ग्रहण करने को ध्रुव७०)। २. अथवा पुरुषार्थस्य परां काष्ठामधिष्ठि- प्रत्यय कहते हैं। तः। परमेष्ठी जिनो ध्येयो निष्ठितार्थो निरजन:॥ ध्रवबन्धप्रकृति-जस्स पयडीए पच्चयो जत्थ स हि कममलापायाच्छुद्धिमात्यन्तिकी श्रितः । कत्थ वि जीवे अणादिधुवभावेण लब्भइ सा धुवबंध. सिद्धो निरामयो ध्येयो ध्यातॄणां भावशुद्धये ॥ (म. पयडी। (धव. पु. ८, पृ. १७) । पु. २१, ११२-१३); ध्येयं स्यात् परमं तत्वमवाङ्- जिस कर्म प्रकृति का प्रत्यय जिस किसी भी जीव मानसगोचरम् ।। (म. पु. २१-२२८) । ३. ध्येयम में अनादि व ध्रुवस्वरूप से पाया जाता है वह ध्रुवप्रशस्त-प्रशस्तपरिणामकारणम् । (चा. सा. पृ. बन्धप्रकृति कहलाती है । ७४) । ४. यथावद्वस्तुनो रूपं ध्येयं स्यात् संयम [मे] ध्रुव-बाह्य-सचित्तनोग्रागमद्रव्यस्थान-जं तं सतां ॥ (भावसं. वाम. ६५८)।
धुवं तं सिद्धाणमोगाहणट्ठाणं । कुदो ? तेसिमोगा१ केवल ज्ञानादि रूप अनेक उत्तम गुणों से सम्पन्न हणाए बडिढ-हाणीणमभावेण थिरसरूवेण अवट्ठाबीतराग जिन व उनके द्वारा उपदिष्ट नो पदार्थ णादो । (घव. पु. १०, पृ. ४३४)। ध्येय हैं-ध्यान करने योग्य हैं। इनके अतिरिक्त ध्र वबाह्यसचित्तनोप्रागमद्रव्यस्थान सिद्धों का प्रवबारह अनुप्रेक्षायें, उपशम श्रेणि और क्षपक गाहनास्थान है, क्योंकि उनकी अवगाहना वृद्धिश्रेणि पर प्रारुढ होने की विधि, तेईस वर्गणायें, हानि से रहित होकर स्थिर स्वरूप से अवस्थित है। पांच परिवर्तन और प्रकृति-स्थिति प्रादि बन्धभेद ध्रुवराहु-१. तत्थ णं जे से धुवराहू से गं बहुभी ध्येय (चिन्तनीय) हैं।
लपक्खस्स पाडिवए पण्ण रसइभागेणं भागं चंदस्स ध्रुव-अचित्त-द्रव्यवर्गरणा (जघन्य)-१. ध्रुवन- लेसं पावरेमाणे चिट्ठति तं पढमाए पढमं भाग जावं चित्तदव्ववग्गणा जहण्णा णाम तहाविहपरिणामपरि- पन्नरसमं भागं चरमे समए चंदे रत्ते भवति, णएहिं अचित्तखंधेहिं सव्वकालं अविरहितो लोगो प्रवसेसे समए चंदे रत्ते य विरत्ते य भवइ, अण्णे उप्पज्जति अण्णे विगच्छति । (कर्मप्र.च.ब. तमेव सूक्कपक्खे उबदसेमाणे २ चिट्ठति, तं क. १६, पृ. ४२)। २. भ्रवाचित्तद्रव्यवर्गणा नाम पढमाए पढमं भागं जाव [पण्ण र सम भागं, चरमे याः सर्वदैव लोके प्राप्यन्ते । तथा हि-एतासां ___ समए] चंदे विरत्ते भवइ, अबसे से समए चंदे रत्ते मध्येऽन्या उत्पद्यन्तेऽन्या विनश्यन्ति, न पूनरेताभिः विरत्ते य भवइ । (सूर्यप्र. २०-१०५, पृ. २८८)। कदाचनापि विरहितो भवति, अचित्तत्वं चासो २. तत्र यः सदैव चन्द्रविमानस्याधस्तात् सञ्चरति जीवेन कदाचनापि अग्रहणादवसेयम् । (कर्मप्र. स ध्रुबराहुः। (सूर्यप्र. मलय. व. २०-१०५)। मलय. व. ब. क. १६, पृ. ४६)।
ध्र वराह कृष्णपक्ष में प्रतिपदा के दिन चन्द्र के २ जो प्रचित्तद्रव्यवर्गणायें लोक में सदा ही पायी पन्द्रहवें भाग को आच्छादित करता है। इस क्रम जाती हैं वे ध्रुव अचित्त द्रव्यवर्गणायें कहलाती हैं। से वह प्रतिदिन एक एक भाग को प्राच्छादित अभिप्राय यह है कि इन वर्गगानों में अन्य उत्पन्न करता है। इस प्रकार अन्तिम समय (अमावस्या) होती हैं और अन्य विनष्ट होती हैं, परन्तु इनसे में चन्द्र रक्त (पूर्णतया प्राच्छादित) रहता है, शेष लोक कभी रहित नहीं होता। प्रचित्त उन्हें इस दिनों में वह कुछ प्राच्छादित और कुछ प्रगट रहता लिए कहा जाता है कि जीव ने उन्हें कभी ग्रहण है। यही क्रम शुक्ल पक्ष में उसके छोड़ने का नहीं किया।
समझना चाहिए । यही ध्र वराहु कहलाता है।
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
ध्रुवसत्ताक ५८४, जैन-लक्षणावली
[नक्षत्रमास ध्रुवसत्ताक-ध्रुवं सत् सत्ता यासां ता ध्रुवसत्ता- ६. वर्समानं ध्रुवं प्रोक्तं xxx। (मोक्षपं. काः। (पंचसं. मलय. व. सं. क. ५१, पृ. ५६)। १०)। जिन प्रकृतियों को सत्ता सत्त्वम्युच्छित्ति के होने १ अनादि परिणामिक स्वभाव की अपेक्षा व्यय तक नियम से पाई जाती है उन्हें ध्रुवसत्ताक और उत्पाद सम्भव न होने से जो द्रव्य की स्थिरता प्रकृतियां कहते हैं।
है उसका नाम ध्रौव्य है। ध्रुवावग्रह-देखो ध्रुवप्रत्यय । सोऽयमित्यादि ध्वजमुद्रा-संहतो गुलिवामहस्तमूले चाङ्गुष्ठं ध्रुवावग्रहः । (धव. पु. १, पृ. ३५७); णिच्चत्ताए तिर्यग्विधाय तर्जनीचालनेन ध्वजमुद्रा। (निर्वा. गहणं धुवावग्गहो । (धव. पु. ६, पृ. २१)।
णक. १६, पृ. ३२।१)। नित्यरूप से जो वस्तु का ग्रहण होता है वह धूवा
वायें हाथ की अंगुलियों को मिला कर और उसके वग्रह कहलाता है। जैसे-वह यही है, इत्यादि ।।
मूल में अंगूठे को तिरछा रखकर तर्जनी के चलाने
से ध्वजमुद्रा होती है। ध्रवोदय-अव्वोच्छिण्णो उदो जाणं पगईण ता .
नकर-नकरं प्रकरदायिलोक xxx। (प्रश्नधुवोदइया। (पंचसं. ३, १५६, पृ. ४८); जीवकर्मसम्बन्धादव्यवच्छिन्नो ऽनुसन्ततो यासामुदित
व्या. अभय. व. पृ. १७५)।
कर (टैक्स) नहीं देने वाले व्यक्ति को नकर कालं यावदुदयस्ता ध्रुवोदयाः, प्रतिनिवृत्तो न भव
कहते हैं। तीति भावः । (पंचसं. स्वो. वृ. ३, १५६, पृ.
नक्षत्रनाम-से कि तं णक्खत्तणामे ?, २ कित्ति४८)।
माहि जाए कित्तिए कित्तिमादिण्णे कित्तिमाघम्मे जिन प्रकृतियों का उदय उदित रहने के काल तक
कित्तिपासम्मे कित्तिपादेवे कित्तिपादासे कित्तिमानष्ट नहीं होता है उन्हें ध्रुवोदयी प्रकृतियां सेणे कित्तिपारविखए, रोहिणीहिं जाए रोहिणिए कहते हैं।
रोहिणिदिन्ने रोहिणिधम्मे रोहिणिसम्मे रोहिणिदेवे ध्रीव्य-१. अनादिपारिणामिकस्वभावेन व्ययो- रोहिणिदासे रोहिणिसेणे रोहिणिरविखए य, एवं दयाभावात् ध्रुबति स्थिरीभवतीति ध्रुवः, ध्रबस्य सम्वनक्खत्तेसु नामा भाणिनव्या । एत्थ संगहणिगाभावः कर्म वा ध्रौव्यम्। (स. सि. ५-३०)। हामो-कित्तिम-रोहिणि मिगसिर-प्रद्दा य पुणव्वसू २. ध्रुवे: स्थर्यकर्मणो ध्रवतीति ध्रवः। प्रनादि. प्र पुस्से प्र। तत्तो प्र अस्सिलेस्सा महा उ दो पारिणामिकस्वभावत्वेन व्ययोदयाभावात् ध्रवति फग्गुणीमो अ॥ हत्थो चित्ता साती विसाहा तह य स्थिरीभवति इति ध्रुवः, ध्रुवस्य भावः कम वा होइ अणुराहा। जेट्ठा मूला पुव्वासाढा तह उत्तरा धोव्यम्, यथा पिण्ड-घटाद्यवस्थासू मदाद्यन्वयात। चेव ॥ अभिई सवण धणिट्ठा सतभिसदा दोहोति (त. वा. ५, ३०, ३) । ३. प्रवेः स्थर्यकर्मणो भद्दवया। रेवई अस्सिणि भरणी एसा नक्खत्तपरिध्रुवतीति ध्रुवस्तस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यम्। वाडी ।। (अनुयो. सू. १३०, पृ. १४५) । (त. श्लो. ५-३०)। ४. अनादिना स्वभावेन तद् कृत्तिका प्रादि किसी नक्षत्र के प्राश्रय से किसी के ध्रौव्यं ब्रूवते जिनाः। (त. सा.३-८)। ५. पूर्वो- नाम की जो स्थापना की जाती है उसे नक्षत्रनाम तरभावोच्छेदोत्पादयोरपि स्वजातेरपरित्यागो ध्रो. कहा जाता है। जैसे-कृत्तिका में उत्पन्न होने वाले व्यम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १०)। ६. काल- मास को कातिक और कृत्तिका से दिये गये को त्रयानुयायित्वं यद्रूपं वस्तुनो भवेत् । तद् ध्रौव्यत्व- कृत्तिकादत्त कहा जाता है, इसी प्रकार कृत्तिकामिति प्राहुर्वृषभाद्या: गणाधिपाः॥ (भावसं. वाम. धर्म, कृत्तिकाशर्म, कृत्तिकादेव, कृत्तिकादास, कृत्ति. ३७६)। ७. प्रवति स्थिरीसंपद्यते यः स ध्रुवः, कासेन और कृत्तिकारक्षित प्रादि कृत्तिकाश्रित तस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यम् । (त. वृत्ति अत. अन्य नामों को तथा रोहिणी प्रादि शेष प्रन्य नक्षत्रों ५-३०)। . तद्भावाव्ययमिति वा ध्रौव्यं तत्रापि के प्राश्रित नामों को भी जानना चाहिए। सम्यगयमर्थः । यः पूर्व परिणामो भवति स पश्चात् नक्षत्रमास-१. नक्खत्तो खलु मासो सत्तावीसं स एव परिणामः ॥ (पंचाध्या. १-२०४)। भवे अहोरता। अंसा य एकवीसा सत्तढिकएण
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
नक्षत्रसंवत्सर
५८५, जैन-लक्षणावली
[नक्षत्रसंवत्सर
छएण ॥ (ज्योतिष्क. ३८)। २. नक्षत्रमासस्त्व- अहोरात्रा एकविंशतिश्च सप्तषष्टिभाग अहोरात्रस्य । यम्-सप्तविंशतिदिनान्येकविंशतिः सप्तषष्टि मागः एष राशियदा द्वादशभिर्गण्यते तदा त्रीप्यहो(२७२१)। (त. भा. सिद्ध. व. ४-१५)। ३. अत्र रात्रशतानि सप्तविंशत्यधिवानि एकपञ्चापुनरे कानितनक्षत्र पर्याययोग एको नक्षत्रमासः सप्त- शच्च सप्तष्टि भागा अहोरात्रस्य एतावत्प्रविंशत्यहोरात्रा एकविंशतिश्च सप्तषष्टिभागा अहो. माणो नक्षत्रसंवत्सरः । xxx इह एकः रात्रस्य । (सूर्यप्र. मलय. व. १०, २०, ५५)। समस्तनक्षत्रयोगपर्यायो द्वादशभिर्गणितो नक्षत्रसंव. ४. तत्र नक्षत्रेषु भवो नाक्षत्र: । किमुक्तं भवति ? त्सरः। ततो ये नक्षत्रसंवत्सरस्य पूरका द्वादश चन्द्रश्चारं चरन् यावता कालेनाभिजित प्रारभ्यो- समस्तनक्षत्रयोगपर्यायाः श्रावण-भाद्रपदादिनामातराषाढानक्षत्रपर्यन्तं गच्छति तत्प्रमाणो नाक्षत्रो नस्तेऽप्यवयवे समुदायोपचारात् नक्षत्रसंवत्सरः । मास: । यदि वा चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डले परिवर्तनता- ततः श्रावणादिभेदात् द्वादश विधो नक्षत्रसंवत्सरः। निष्पन्न इत्युपचारतो मासोऽपि नक्षत्रम् । (जम्ब. Xxx किमुक्तं भवति-यावता कालेन बृहद्वी. शा. व. ७-१५१, पृ. ४८६; व्यव, मलय. व. स्पतिनामा महाग्रहो योगमधिकृत्याभिजिदादीन्यष्टा२-१५, पृ. ६)।
विशतिमपि नक्षत्राणि परिसमापयति तावान् काल१ सत्ताईस दिन-रात और एक दिन के सड़सठ विशेषो द्वादशवर्षप्रमाणो नक्षत्रसंवत्सरः। (सूर्यप्र. भागों में से इक्कीस भाग प्रमाण (२७२१) एक मलय. व. १०, २०, ५४-५५); यस्मिन् संवत्सरे नक्षत्रमास होता है । ४ चन्द्रमा के अभिजित् नक्षत्र समकं समकमेव एक कालमेव, ऋतुभिः सहेति गम्यते, से लेकर उत्तराषाढा नक्षत्र तक संचार या परि- नक्षत्राणि उत्तराषाढाप्रभतीनि योगं युञ्जन्तिभ्रमण करने में जितना काल लगता है उसे नक्षत्र. चन्द्रेण सह योगं युञ्जन्ति चन्द्रेण सह योग मास कहते हैं। अथवा चन्द्र की नक्षत्रमण्डल में युञ्जन्ति सन्ति तां पौर्णमासी परिसमापपरिवर्तनता से उत्पन्न मास को भी उपचार से यन्ति तथा समकमेव एककालमेव तया तया नक्षत्र कहा जाता है ।
परिसमाप्यमानया पौर्णमास्या सह ऋतवो निदाघानक्षत्रसंवत्सर-१. ताणक्खत्तसंवच्छरे णं दुवा. द्याः परिणमन्ति या परिसमाप्तिमुपयन्ति, इयमत्र लसविहे पण्णत्ते । तं सावणे भद्दवए जाव आसाढे भावना-यस्मिन् संवत्सरे नक्षत्रांससदृशनामस्तस्य जं वा वहस्सतीमहग्गहे दुवालसहिं संवच्छरेहि सव्वं तस्य ऋतोः पर्यन्तवर्ती मासः परिसमाप्यते, तेष च णखत्तमंडलं समाणेति । (सूर्यप्र. १०, २०,५५); तां तां पौर्णमासी परिसमापयत्सु तया तया पौर्णसमगं णक्खत्ता जोयं जोएंति समगं उऊ परिणमंति।। मास्या सह ऋतवोऽपि निदाघादिकाः परिसमाप्तिनच्चुण्हं नाइसीए बहुउदए होइ नक्खत्ते ।। (सूर्यप्र. मुपयन्ति । यथा उत्तराषाढानक्षत्रं प्राषाढी पौर्ण१०, २०, ५८, गा. १, पृ. १७१)। २. नक्खत्त- मासी परिसमापयति तया प्राषाढपौर्णमास्या सह चंदजोगो बारस गणियो उ नक्खत्तो। (ज्योतिष्क. निदाघोऽपि ऋतुः परिसमाप्तिमुपैति, स नक्षत्रसंव३५)। ३. एवं विधद्वादशमासनिष्पन्नो नक्षत्रसंव- त्सरः, नक्षत्रानुरोधेन तस्य तथा तथा परिणममानत्सरः। स चायं त्रीणि शतान्यह्नां सप्तविंशत्यूत्त. त्वात्, एतेन च लक्षणद्वयमभिहितं द्रष्टव्यं, तथा न राण्ये कपञ्चाशच्च सप्तषष्टिभागाः (३२७५३)। विद्यतेऽतिशयेन उष्णम् उष्णरूप: परितापो यस्मिन् (त. भा. सिद्ध. व. ४-१५) । ४. स च द्वादशगुणो स नात्युष्णः, तथा न विद्यतेऽतिशयेन शीतं यत्र स
परः। (जम्बद्वी. शा. व. २५१. प. नातिशीतो बह उदकं यत्र स बहदकः एवरूपः ४८६)। ५. यावता कालेनाष्टाविंशत्यापि नक्षत्रः पञ्चभिः समर्लक्षणरुपेतो भवति नक्षत्रसंवत्सरः। सह क्रमेण योगपरिसमाप्तिस्तावान् कालविशेषो द्वा- (सूर्यप्र. मलय. व. १०, २०, ५७, पृ. १७२)। दशभिर्गुणितो नक्षत्रसंवत्सरः। उक्तं च-नवखत्त- १ श्रावण-भादों प्रादि बारह मासों का एक नक्षत्रचंदजोगो बारसगुणियो य नक्खत्तो। अत्र पूनरेको- संवत्सर होता है। प्रयवा बृहस्पति महाग्रह बारह नितनक्षत्रपर्याययोग एको नक्षत्रमासः, सप्तविसति- वर्षों में जो समस्त नक्षत्रमण्डल को समाप्त करता
ल.७४
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
नखसंस्कार] ५८६, जैन-लक्षणावलो
[नपुंसक है उतने काल का नाम नक्षत्रसंवत्सर है । ३ बारह पृ. ३४२ उद्.; गो. जी. २७५) । ३. नपुंसकवेदा. नक्षत्रमासों को अर्थात् तीन सौ सत्ताईस अहोरात्र शुभवेदोदयान्नपुंसकानि । चारित्रमोहविकल्पनो
त्रि के सड़सठ भागों में से इक्यावन कषायभेदस्य नपुंसकवेदस्याशभनाम्नश्चोदयान्न स्त्रिभाग प्रमाण काल को (३२७५३) नत्रत्रसंवत्सर यो न पूमांस इति नपंसकानि। (त. वा. २, ५०, कहते हैं।
४); नपुंसक वेदोदयात् तदुभयशक्तिविकलं नपुंसनखसंस्कार-१. निर्वर्तन-विलेखन-घर्षण-रंजना. कम्। (त. वा. २, ५२, १); यत्कर्मोदयात् दिको नखसंस्कारः। (भ. प्रा. विजयो. ९३)। नपुंसकान् भावानुपत्र जति स नपुंसकवेदः । (त. वा. २. लेखन-वर्तन-घर्षण-रंजनादिको नखसंस्कारः। ८, ९, ४)। ४. तदुभयात्यये नपुंसकम् । (लघीय. (भ. प्रा. मला. ६३)।
स्वो. विव. ४७)। ५. नपुंसकस्य तु नपुंसकवेदो२ नखों के लिखने, काटने, घिसने और रंगने श्रादि दयादुभयाभिलाषः। (श्रा. प्र. टी. १८)। ६. न को नखसंस्कार कहते हैं।
स्त्री न पुमान् नपुंसकम्भयाभिलाष इति । (धव. नगर-१. चतुर्गोपुरान्वितं नगरम् । (धव. पु. १३, पु. १, पृ. ३४१); जेसि मुदएण इट्टावागग्गिसारिपृ. ३३४) । २. चतुभिर्गोपुरैभासुरं नगरम् । (नि. च्छेण दोसु वि प्राकंखा उत्पज्जइ तेसिं णउंसयवेदो सा. व. ५८)।
त्ति सपणा । (धव. पु. ६, पृ. ४७); णपुंसयवेदो१ चार गोपुरों से युक्त पुर को नगर कहते हैं। दएण णवूसय वेदो होदि । (धव. पु. ७, पृ. ७६); नग्न-य: सर्वसङ्गसंत्यक्तः स नग्नः परिकीर्तितः। जस्स कम्मस्स उदएण इत्थि-पुरिसेसु अहिलासो (उपासका. ८६०)।
उप्पज्जदि तं काम णपंसयवेदो णाम। (धव. पू. जो सर्व प्रकार के परिग्रह से रहित हो उसे नग्न १३, पृ. ३६१)। ७. न स्त्री न पुरुषः पापो द्वय(दिगम्बर मुनि) कहते हैं।
रूपो नपुंसकः । (पंचसं. अमित. १६५, पृ. २६); नन्दा-पूर्वपक्षीकृतपरदर्शनानि निराकृत्य स्वपक्ष- सुष्ठ क्लिष्ट मनोवृत्तिर्द्वयाकांक्षी नपुंसकः । नरप्रजास्थापिका व्याख्या नन्दा । (धव. पु. ६, पृ. २५२)। वतीरूपो दुःसहाधिकबेदनः । (पंचसं. अमित. २०१, अन्य दर्शनों को पूर्व पक्ष के रूप में उपस्थित करके पृ. २६)। ८. तदुभयात्यये स्त्यान-प्रसवनोभयाउनका निराकरण करते हुए अपने पक्ष को स्थापित भावे नपुंसकम् । (न्यायकु. २-४७, पृ. ६४८) । करने वाली व्याख्या को नन्दा कहते हैं।
६. इत्थी-पुरिसाणुवरि जस्सिह उदएण राग उप्पनन्दिवर्धन-सुनाभिनन्दिवर्धनः। (निर्वाणक. ४, ज्जे । नगरमहादाहसमो सो उ विवागो अपुमवेए ॥ पृ. ८)।
(कर्मवि. ग. ५३)। १०. येषां च पुद्गलस्कन्धाजिस शंख की नाभि सुन्दर हो उसे नन्दिवर्धन कहते नामुदयेनेष्ट काग्निसदृशेन द्वयोराकांक्षा जायते तेषां हैं। यह पाठ शंखभेदों में चौथा है।
नपुंसकवेद इति सज्ञा। (मूला. वृ. १२-१९२) । नन्दी-महाकुक्षीनन्दी। (निर्वाणक. ४,प.)। ११. नपंसकवेदं नपंसकभावप्राप्ति निमित्तोदयकषायजिसका उदर या मध्य भाग बड़ा हो उस शंख को वेदनीयविशेष क्षपयति । (भ. प्रा. मूला. २०६७)। नन्दी कहते हैं। यह पाठ शंखभेदों में तीसरा है। १२. यदुदयेन पण्डकस्य स्त्री-पुंसयोरुभयोरभिलाषः नपंसक-१. चारित्रमोहविकल्पनोकषायभेदस्य पित्तश्लेष्मणोरुदयेन मजिकाभिलाषवत् स महानगरनपुंसक वेदस्याशुभनाम्नश्चोदयान्न स्त्रियो न पुमांस दाहाग्निसमानो नपुंसकवेदः। (कर्मस्त. गो. वृ. १०, इति नपुंसकानि भवन्ति । (स. सि. २-५०); पृ. ८४; धर्मसं. मलय. व. ६१५)। १३. उभयो. नपुंसकवेदोदयात्तदुभयशक्तिविकलं नपुंसकम् । (स. रप्यभिलाषो नपुंसक भेदः। (जीवाजी. मलय. व. सि. २-५२); यदुदयान्नपुंसकान् भावानुपव्रजति १३, पृ. १८) । १४. नपुंसकस्य वेदो नपुंसकवेदः । स नपुंसकवेदः। (स. सि. ८-९; त. वृत्ति श्रुत. नपुंसकस्य स्त्रियं पुरुषं च प्रत्यभिलाष इत्यर्थः, ८-९) । २. वित्थी ण य पुरिसो णउंसमो उहय- तद्विपाकवेद्यं कर्मापि नपुंसकवेदः । (प्रज्ञाप. मलय. लिंगवदिरित्तो । इट्ठावग्गिसमाणो वेदणगरुनो कलु- वृ. २३-२६३, पृ. ४६३) । सचित्तो॥ (प्रा. पंचसं. १-१०७; धव. पु. १, १ चारित्रमोह के विकल्परूप नोकषाय के भेदभुत
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
नियं
नपुंसकद]
५८७, जैन-लक्षणावली नपुंसकवेव और अशुभ नामकर्म के उदय से जो न जीव जो स्तुति और सिर झुकाने रूप अपने वचन स्त्री होते हैं और न पुरुष भी, वे नपुंसक कहे जाते और काय की क्रिया को करता है, इसे नमस्कार हैं। xxx जिसके उदय से जीव नपुंसक के कहा जाता है। भावों को प्राप्त होता है उसे नपुंसकवेद (नोकषाय- नमस्कृतिमुद्रा-संलग्नौ दक्षिणाङ्गुष्ठाक्रान्तवाभेद) कहते हैं । ९ जिसके उदय से स्त्री और पुरुष माङ्गुष्ठपाणोति नमस्कृतिमुद्रा। (निर्वाणक. १६. के ऊपर नगर के महादाह के समान राग उत्पन्न ६, ७, पृ. ३३) । होता है उसे नपुंसकवेद जानना चाहिए।
दाहिने अंगूठे से प्राक्रान्त वायें अंगूठे से युक्त संलग्न नपुंसकवेद-देखो नपुंसक ।
दोनों हाथों की जो अवस्था होती है, इसे नमस्कृतिनभ-देखो माकाश । भायणं सव्वदव्वाणं नहं मुद्रा कहते हैं। प्रोगाहलक्खणं ।। (उत्तरा. २८-६)।
नमस्यन-देखो नमस्कार । जो सब द्रव्यों का भाजन (प्राधार) है व जिसका नमि-परीषहोपसर्गादिनामनाद नमिः, तथा गर्मस्थे अवकाश देना स्वभाव है उसे नभ (आकाश) भगवति परचक्रनृपैरपि प्रणतिः कृतेति नमिः । कहते हैं।
(योगशा. हेम. पृ. ३-१४२)। नभोनिमित्त-रवि-ससि-गहपहदीणं उदयत्थमणा. परीसह व उपसर्ग प्रादि के नमाने के कारण तथा दिमाइ दण। खीणत्तं दुक्ख-सूहं जं जाणइ तं हि शत्रु राजाओं के द्वारा भी नमस्कार किये जाने के णहणिमित्तं ॥ (ति. प. ४-१००३) ।। कारण इक्कीसवें तीर्थकर 'नमि' कहलाये। सूर्य, चन्द्र और ग्रह आदि के उदय और अस्तमन नय-१. गुणोऽपरो मुख्य नियामहेतुर्नयःxxxi आदि को देखकर क्षीणता और सुख-दुःखादि के स्वयम्भू. ५२); नयास्तव स्यात्पदसत्यलाञ्छिता जान लेने को नभोनिमित्त कहते हैं।
रसोपविद्धा इव लोहधातवः। (स्वयम्भू. ६५)। नभोयान-नभसि गगने हेममयाम्भोजोपरि यानं २. सधर्मणैव साध्यस्य साधादविरोधतः । स्याद्वानभोयानम् । (प्रा. मी. वृ. १)।
दप्रविभक्तार्थविशेषव्यंजको नयः । (प्रा. मी. आकाश में सुवर्णमय कमल के ऊपर गमन करने को १०६) । ३. वस्तुन्यनेकान्तात्मनि अविरोधेन नभोयान कहते हैं।
हेत्वर्पणात् साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवणप्रनम-नम इति नैपातिकं पदं द्रव्य-भावसंकोचार्थम, योगो नयः । (स. सि. १-३३)। ४. नयाः प्रापकाः आह च-नेवाइयं पयं दव्व-भावसंकोयणपयत्थो। कारकाः साधका निर्वतका निर्भासका उपलम्भका नमः-कर-चरण-मस्तकसुप्रणिधान रूपो नमस्कारो व्यञ्जका इत्यनन्तरम् । जीवादीन पदार्थान भवत्वित्यर्थः । (जम्बुद्वी. शा. व. १, पृ. १०)। नयन्ति प्राप्नुवन्ति कारयन्ति साधयन्ति निर्वतयन्ति 'नम' यह निपात से निष्पन्न पद है, इसका अर्थ है निर्भासयन्ति उपलम्मयन्ति व्यञ्जयन्तीति नयाः। द्रव्य और भाव का संकोच । अभिप्राय यह है कि (त. भा. १-३५, पृ. १२०-२१)। ५. नायम्मि हाथ, पैर और मस्तक को सावधानता को या गिहियब्वे अगिहिरव्वम्मि चेव प्रत्थम्मि। जइ. उनके शभ व्यापार को नम (नमस्कार) कहा अव्वमेव इह जो उवएसो सो णो नाम ॥ (माव. जाता है।
नि. १०६६ दशवै. नि. १४६)। ६. णी प्रापणे, नमस्कार-१. पंचहिं मुट्ठीहिं जिणिदचलणे सुनि- तस्य नय इति रूपम्, वक्तव सूत्रार्थप्रापणे गम्ये वदणं णमंसणं । (धव. पु.८, पृ. १२)। २. अर्ह- परोपयोगान्नयति नयः, नीयते चानेन अस्मिन वेति दादिगुणानुरागवतः आत्मनो वाक्कायक्रियास्तवन- नयनं वा नयः, वस्तुनः पर्यायाणां संभवतोऽधिगमनशिरोवनतिरूपो नमस्कार (भ. मा. विजयो. मित्यर्थः। (उत्तरा. चू. पृ.९); नयाः कारका ७५३) ।
दीपकाः व्यञ्जका भावका: उपलम्भका इत्यर्थः, १ पांच मुट्ठियों (अंगों) से जिनेन्द्र के चरणों में विविधः प्रकारेरर्थविशेषान् स्वेन स्वेनाभिप्रायेण पड़ने का नाम नमसन (नमस्यन) या नमस्कार है। नयन्तीति नयाः। (उत्तरा.च. पृ. ४७) । ७. एक. २ अरहंत प्रादि के गणों में अनुराग रखने वाला देशविशिष्टोऽर्थो नयस्य विषयो मतः। (न्यायाव.
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
नय ]
२६) । ८. ज्ञातृणामभिसन्धयः खलु नया: XX X | ( सिद्धिवि. १० - १ ) ; x x x नयो ज्ञातुमंत मतः । (सिद्धवि. १०-२ ) । ६. भेदाभेदात्मके ज्ञेये भेदाभेदाभिसन्धयः । ये ते ऽपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते नय- दुर्नया: ॥ ( लघीय. ३० ) ; नयो ज्ञातु रभिप्राय: । ( लघीय. स्व. वि. ३०) ; तदपेक्षो ( षट्कारकापेक्षो ) नयः । ( लघीय. स्वो. वि. ४८); यो ज्ञातुरभिप्राय युक्तितोऽर्थ परिग्रहः । ( लघीय. ५२; प्रमाणसं. ८७ ); x x x नयो विकलसंकथा । (लघीय. ६२ ); श्रुतभेदा नयाः सप्त नैगमादिप्रभेदतः । द्रव्य पर्यायमूलास्ते द्रव्यमे कान्वयानु गम् ॥ ( लघीय. ६६ ) ; सापेक्षो नय: । ( लघीय. स्व. वि. ७१ ); तदर्थांशपरीक्षाप्रवणोऽभिसन्धिय: ( लघीय. स्व. वि. ७४) । १०. अवयवविया नया: । (त. वा. १, ६, ३); सम्यगेकान्तो नयः । (त. वा. १, ६, ७ ); प्रमाणप्रकाशितार्थविशेष प्ररूपको नयः । (त. वा. १, ३३, १) । ११. तस्य (अर्थतत्वस्य ) विशेषो नित्यत्वादिः पृथक् पृथक्, तस्य प्रतिपादको नयः । तथा चोक्तम्-प्रथंस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः । नयो धर्मान्तिरापेक्षी XX X ॥ ( अष्टश. १०६ ) ; उक्त - लक्षणो (स्याद्वादप्रविभक्तार्थव्यञ्जको) द्रव्य-पर्यायस्थानः संग्रहादिर्नयः । ( अष्टश. १०७) । १२. नयनं नीयते वा नेनादस्मादस्मिन्निति वा नयः, वस्तुनः पर्यायाणां संभवतोऽघिगम इत्यर्थः । (श्राव. नि. हरि. वृ. ७६, पृ. ५४ ) ; नयन्तीति नयाः, वस्त्ववबोधगोचरं प्रापयन्त्यनेकधर्मात्मकज्ञेयाध्यवसायान्त रहेतवः इत्यर्थः । (प्राव. नि. हरि. वू. ७५४, पू. २८२ ) । १३. नयनं नयः, नीयते ऽनेनास्मिन्नस्मादिति वा नयः अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छेद इत्यर्थ: । (अनुयो. हरि. वू. पू. २७); नीतयो नयाः अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छित्तयः । (अनुयो. हरि वू. पृ. ६) वस्तुनोऽनेकधर्मिण: एकेन धर्मेण नयनं नयः । ( अनुयो. हरि. व. पू. १०५) । १४. प्रमाणपरिगृहीतार्थैकदेशे वस्त्वध्यवसायो नयः । ( धव. पु. १, पृ. ८३; पु. ६, पृ. १६३; जयध. १, पू. ६६ व १६६ ) ; ज्ञातुरभिप्रायो नयः । अभिप्राय इत्यस्य कोऽर्थः । प्रमाणपरिगृहीतार्थं क देश वस्त्वध्यवसाय अभिप्रायः । युक्तितः प्रमाणात् अर्थपरिग्रहः द्रव्य-पर्याययोरन्यतरस्य अर्थ इति परिग्रहो वा नयः,
५८८, जैन- लक्षणावली
[ नय
प्रमाणेन परिच्छिन्नस्य वस्तुनः द्रव्ये पर्याये वा वस्त्वध्यवसायो नय इति यावत् । धव. पु. ६, पृ. १६२-६३ ) ; प्रमाणपरिच्छिन्नवस्तुनः एकदेशे वस्तुत्वार्पणा नयः । ( धव. पु. ६, पृ. १६४ ) । प्रमाणपरिगृहीतवस्तुनि यो व्यवहार एकान्तरूपः स नयनिबन्धन: XX X तथा पूज्यपादभट्टारकै रप्यभाणि सामान्यनयलक्षणमिदमेव । तद्यथा - प्रमाणप्रकाशि तार्थविशेषप्ररूपको नयः इति । XXX तथा प्रभाचन्द्रभट्टारकै रप्यभाणि - प्रमाणव्यपाश्रयतत्परणामविकल्प वशीकृतार्थविशेषप्ररूपणप्रवणः प्रणधिर्यः स नय इति । X X X सारसंग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपादैःअनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतम पर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय इति । ( व. पु. ६, पृ. १६५-६७ ) ; यात्रिकामुत्रिकफलप्राप्युपायो नयः । ( धव. पु १३, पृ. २८७ ) । १५. अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽत्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्ययुक्त्यपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नयः इति । श्रयं वाक्यनयः सारसंग्रहीयः । प्रमाणप्रकाशितार्थं विशेषप्ररूपको नयः । श्रयं वाक्यनयः तत्त्वार्थ भाष्यगतः । X X X प्रमाणव्यपाश्रयपरिणाम विकल्प वशीकृतार्थविशेष प्ररूपणप्रवणः प्रणिधिर्यः स नय इति । श्रयं वाक्यनयः प्रभाचन्द्रीयः । जयध. १, पृ. २१० ) । १६. नयो ऽनेकात्मनि द्रव्ये नियतैकात्मसंग्रहः । (ह. पु. ५८ - ३९ ) । १७. स्वार्थ निश्चायकत्वेन प्रमाणं नय इत्यसत् । स्वार्थेक देश निर्णीतिलक्षणो हि नयः स्मृतः । (त. इलो. १, ६, ४; x x x सामान्यादेशतस्तावदेक एवं नयः स्थितः । स्याद्वादप्रवि भक्तार्थविशेषव्यंजनात्मकः ॥ (त. इलो. १, ३३, २); नीयते गम्यते येन श्रुतार्थीयो नयो हि सः । (त. श्लो. १, ३३, ६) । १८. अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमधर्मपरिच्छेदस्तदविनाभाविधर्मबलप्रसूतो नय: । ( भ. प्रा. विजयो. ५) । १६. नयन्तीति नयाः कारकाः व्यञ्जका इति XX X ये ह्यनेकधर्मात्मकं वस्त्वेकेन धर्मेण निरूपयन्ति एता - वदेवेदं नित्यमनित्यं वेत्यादिविकल्पयुक्तं ते नया: नैगमादयः । X X X नयास्तु एकांशावलम्बिनः, यत्तु ज्ञानमनेकधर्मात्मकं सद्वस्तु एकधर्मावधारणेनावच्छिनत्त्येवमात्मकमेवैतदिति तन्नया इति कथ्यन्ते । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १ - ६ ) । २०. लोयाणं बवहारं धम्मविवक्खाइ जो पसाहेदि । सुयणाणस्स वियप्पो
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
नय] ५८६, जैन-लक्षणावली
निय सो वि णमो लिंगसंभूदो ॥ (कार्तिके. २६३)। (अनुयो. हेम. वृ. १४५, पृ. २२३) । ३३. नयः २१. जं पाणीण वियप्पं सुयभेयं वत्थुयंससंगहणं । प्रमाणपरिगृहीतार्थक देशे वस्त्वध्यवसायः । (प्रा. तं इह णयं पउत्तं णाणी पुण तेहि णाणेहिं ॥ मी. वसु. वृ. २३); जातियुक्तिनिबन्धनो वितकों (नयच. २; द्रव्यस्व. १७४) । २२. प्रमाणेन नयः । (प्रा. मी. वसु. ७. १०१); एकधर्मप्रतिपत्तिवस्तृसंगृहीतार्थकांशो नयः, नानास्वभावेभ्यो ब्यावर्त्य नयः । (प्रा. मी. वसु. व. १०६)। ३४. श्रतनिएकस्मिन् स्वभावे वस्तु नयति प्रापयतीति वा नयः। रूपितैकदेशाध्यवसायो नयः । (मला. व. ६-६७) । (अालाप. पृ. १४५)। २३. वस्तुनो ऽनन्तधर्मस्य ३५. अत्रकवचनमतन्त्रम्, तेनांशावशा वा येन पराप्रमाणव्यजितात्मनः। एकदेशस्य नेता यः स नयो- मर्शविशेषेण श्रुतप्रमाण प्रतिपन्नवस्तुनो विषयीक्रियन्ते नेकधा मतः । (त. सा. १-३७)। २४. नय तदितरांशीदासीन्यापेक्षया स नयो ऽभिधीयते । इति प्रभाण गृहीतकदेशाव्य [ध्य ] बसायाभिप्रायः । (रत्नाकरा. ७-१, पृ. १)। ३६. नयो नाम (सिद्धि. वि. व. १०-३)। २५. नयस्तु विकल- प्रतिनियतकवस्त्वं शविषयो ऽभिप्रायविशेषः । यदाहः संकथा-वस्त्वेक देशकथनम् । (न्यायकु. ६२, पृ. समन्तभद्रादयः-नयो ज्ञातुरभिप्राय इति । (सर्यप्र. ६८८)। २६. तवाऽनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही मलय. व. १-७, पृ. ३६)। ३७. नयनं नीयते वा ज्ञातुरभिप्रायो नयः । (प्र. क. मा. ६-७४)। अनेनेति नयः-वस्तुनो वाच्यस्य पर्यायाणां सम्भ. २७. स्याद्वादप्रविवेचितार्थकदेशप्रतिपत्त्रभिप्रायो वतोऽधिगमः । (प्राव, नि. मलय.व.७६. प.80): नयः। (न्यायवि. व. ३-६१)। २८. नयनं- अनेकधर्मकं वस्त्ववधारणपूर्वक मेकेन नित्यत्वाद्यन्यअनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनो नियतकधर्मावलम्बनेन तमेन धर्मेण प्रतिपाद्यस्य बुद्धि नीयते प्राप्यते येनाप्रतीतो प्रापणं नयः । xxx नयनं नयः । अन- भिप्रायविशेषेण स ज्ञातुरभिप्रायविशषो न यः। पाह न्तधर्मणोऽर्थस्यकांशेनेति निरुक्तयः ॥ (उत्तरा. नि. च-एगेण वत्थुणोऽणे गधम्मूणो जमवधारणेण शा. व. २८, पृ. ११); नयति-अनेकांशात्मकं (इट्ठण)। नयणं धम्मेण नो होइ तो सत्तहा वस्त्वेकांशावलम्बनेन प्रतीतिपथमारोपपति, नीयते सो य ।। (प्राव. नि. मलय. वृ. ७५४, पृ. ३६६ वा तेन तस्मिस्ततो वा, नयन वा नयः, प्रमाणप्रवृ- प्रव. सारो. वृ. ८४७); ज्ञेये प्रमाणपरिच्छेदोवस्तानि त्युत्तरकालभावी परामर्श इत्यर्थः। उक्तं च-स ये भेदाभेदाभिसन्धयः सामान्य-विशेषविषयाः पुरुषानयइ तेण तहि वा ततोऽहवा वत्थुणो व जं णयणं । भिप्रायाः अपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते ते यथासंख्यं बहहा पज्जायाणं संभवयो सो णतो णामं ।। (उत्तरा. नय-दुर्नया ज्ञातव्याः। किमुक्तं भवति ? विशेषा. स. शा. व.४८, पृ. ६७, । २६. नयनं नयः, कांक्षः सामान्यग्राहको वा अभिप्रायः सामान्यसापेक्षो नीयतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वा नय:-अनन्तधर्मात्म- विशेषग्राहको वा नयः। [लघीयस्त्रयस्य ३०तमाकस्य वस्तुनः एकांशपरिच्छेद इत्यर्थः। (स्थाना. याः कारिकावा इयं व्याख्या] । (प्राव. नि. मलय.व. सू. अभय. व. १, पृ. ४); नयन्ति परिच्छि- ७५४, पृ. ३७०)। ३८. अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनो न्दन्त्यनेकधर्मात्मकं सद्वस्तु सा(अन)वधारण- अन्यतमधर्मपरिच्छेदस्तदविनाभाविधर्मपरिच्छेदबलतय केन घमणेति नयाः । (स्थाना. सू. अभय. प्रसूतो नयः। (भ. प्रा. मूला. ५) । ३६. नयनं व. ३, ३, १८६, पृ. १५२)। ३०. नीयते वस्तुनो विवक्षितधर्मप्रापणं नयः । (लघीय. अभय. येन श्रताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशस्तदितरांशो- व. ६२, पृ. ८४)। ४०. प्रमाणगृहीतार्थंकदेशग्राही दासीन्यतः स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः। (प्र. प्रमातुरभिप्रायविशेषो नयः। (न्यायदी. . १२५)। न. त. ७-१)। ३१. नीयते गम्यते श्रुतपरिच्छिन्ना- ४१. जीवादी अनेकान्तात्मनि अनेकरूपिणि वस्तुनि
देशोऽनेनेति नयः। (स्या. र. १-१, पृ. ८)। अविरोधेन प्रतीत्यऽनतिक्रमेण हेत्वर्पणात द्रव्य-पर्या३२. नयन नयो नीयते परिच्छिद्यते अनेनास्मिन्न- याद्यर्पणातू साध्य विशेषयाथात्म्यप्रापणप्रवणप्रयोगो स्मादिति वा नयः, सर्वत्रानन्तधर्माध्यासिते वस्त्वेका नयः उच्यते । अस्यायमर्थः-साध्यविशेषस्य नित्यशग्राहको बोव इत्यर्थः। (अनुयो. मल. हेम. व. ५६, त्वानित्यत्वादेः याथात्म्यप्रापणप्रवणप्रयोगो यथावपृ. ४५); अनन्तधर्मणो वस्तुन एकांशेन नयनं नयः। स्थितस्वरूपेण प्रदर्शनसमर्थव्यापारो नयः । (त.
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
नय]
५९०, जैन-लक्षणावली
[नयाभास
वृत्ति श्रुत. १-३३)। ४२. इत्युक्तलक्षणोऽस्मिन् दस्य समुदाय-समुदायिनोः कथंचिदभेदेन नया एव विरुद्धधर्मद्वयात्मके तत्त्वे । तत्राप्यन्यतरस्य स्यादिह प्रमाण नयप्रमाणम् । हरि. व.पु. ६६)। धर्मस्य वाचकश्च यः।। पंचाध्या. १-५०४)। अनन्त धर्मस्वरूप वस्तु के एक अंश के ग्रहण करने ४३. नयनं नीयते ऽने नास्मिन्नस्मादिति वा नयः- वाले ज्ञानों, उनके विषयों अथवा उन नयों को ही अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छेद: एकेनैव नयप्रमाण कहा जाता है। कारण यह कि प्रमाणधर्मेण पुरस्कृतेन वस्त्वङ्गीकार इत्यर्थः । (जम्बूद्वी. भूत स्याद्वाद नयों के समदाय रूप है, प्रत.स मदाय शा. वृ.पू. ५)।
और समदायी में कथंचित् प्रभेद होने से नयों को २ सधर्मा दृष्टान्त के साथ ही साधर्म्य होने से जो प्रमाण कहना विरुद्ध नहीं है । विमा किसी प्रकार के विरोध के स्याद्वाद रूप ।
नयवाद-स (नयः) उच्यते कथ्यते अनेनेति नयपरमागम में विभक्त अर्थ (साध्य) विशेष का वादः सिद्धान्तः । (धव. पु. १३, पृ. २८७) । व्यंजक (गमक) होता है उसे नय कहते हैं । 'नीयते नय के प्ररूपक सिद्धान्त को नयवाद कहा जाता है। साध्यते गम्यार्थोऽनेनेति नयो हेतुः' इस निरुक्ति
नयविधि-नया नैगमादयः, ते विधीयन्ने निरूप्यके अनुसार प्रकृत नय शब्द यहां हेतु का नामान्तर
न्ते सदसदादिरूपेणास्मिन्निति नयविधिः। अथवा है। ३ अनेक धर्मात्मक वस्तु के विषय में विरोध
नगमादिनयः विधीयन्ते जीवादयः पदार्था अस्मिके विना हेतु की मुख्यता से साध्यविशेष की
न्निति नयविधिः। (धव. पु. १३, पृ. २८४)। यथार्थता के प्राप्त कराने में समर्थ जो प्रयोग होता
सत् असत् प्रादि रूप से जहां नंगमादि नयों का है उसे नय कहा जाता है। ४ नय प्रापक, कारक,
निरूपण किया जाता है उसे नयविधि कहते हैं, साधक, निर्वर्तक, निर्भासक, उपलम्भक और व्यंजक
अथवा जहां नगमादिनयों के प्राश्रय से जीवादि ये सब समानार्थक शब्द हैं। तदनुसार जो जीवादि
पदार्थों का विधान किया जाता है वह नयविधि पदार्थों को प्राप्त कराते हैं, कराते हैं, साधते हैं
कहलाती है। अथवा प्रकाशित करते हैं उन्हें नय समझना चाहिए। ८ ज्ञाता जनों के जो अभिप्राय हुमा करते हैं
नयसप्तभङ्गी-विकलादेशस्वभावा हि नयसप्त
भङ्गी वस्त्वंशमात्रप्ररूपकत्वात् । (प्र. क. मा. ६, उनका नाम नय है। १४ प्रमाण से परिगृहीत
७४, प.६८२)। वस्तु के एक देश में जो वस्तु का निश्चय होता है
विकलादेश स्वभाववाली सप्तभंगी वस्तु के केवल वह नय कहलाता है।
एक अंश की प्ररूपणा करने के कारण नयसप्तभंगी नयगति-से कि तं णयगती? २ जण्णं णेगम
कहलाती है। संगह-ववहार-उज्जुसुय-सह-समभिरूढ-एवं भूयाणं जा गती ग्रहवा सव्वणया वि जं इच्छंति से तं नयगती। नयान्तराविधि-नयान्तराणि नंगमादिसप्तशतमय
भेदाः। ते विधीयन्ते निरूप्यन्ते विषयसाङ्गर्यनिरा(प्रज्ञाप. १६-२०५, पृ. ३२७)। नंगमादि नयों की गति को नयगति कहते हैं। . करणद्वारेण अस्मिन्निति नयान्त रविधिः श्रुतज्ञानम् । अथवा सभी नय जो स्वीकार करते हैं, इसका नाम (धव. पु. १३, पृ. २८४)। नयगति है।
विषयसांकर्य का निराकरण करते हए जहां सात नयनक्रिया-स्वयं नयनक्रिया अन्यर्वाऽऽनायनं
सौ नयभेदों की प्ररूपणा की जाती है उसे नयान्तरस्वच्छन्दन्तो नयनक्रिया। (त. भा. सिद्ध. बु. विधि कहा जाता है।
नयाभास-१. पुनर्भेगमादयो निरपेक्षा परस्परेण स्वयं ले जाना या स्वच्छन्दतापूर्वक दूसरों से ते नयाभासाः इति । (त. भा. सिद्ध. व. १-७)। मंगवाना; यह नयनक्रिया कहलाती है।
२. निराकृतप्रतिपक्षस्तु नयाभासः । (प्र. क. मा. प्रमाण-नीतयो नयाः अनन्तधर्मात्मकस्य ६-७४, पृ. ६७६)। ३. स्वाभिप्रेतादशादितरांशा. वस्तून एकांशपरिच्छित्तयः तद्विषया वा ते एक वा पलापी पुनर्नयाभासः। (प्र. न. त.७-२१। प्रमाणं नयप्रमाणम्, नयसमुदायात्मकत्वाद्धि स्याद्वा- ४. नयाभासो नयप्रतिबिम्बात्मा, दुर्नय इत्यर्थः।
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
नयुत]
५६१, जैन-लक्षणावली निरकगतिप्रायोयानुपूय॑नाम यथा तीथिकानां नित्यानित्यायेकान्तप्रदर्शक सकलं गतिः। (धव. पु. १, पृ. २०१; जस्स कम्मस्स बाक्यम् । (रत्नाकरा. ७-२, पृ. ५)।
उदएण णिरयभावो जीवाणं होदि तं कम्मणिरयगदि १परस्पर की अपेक्षा से रहित नैगमादि नयों को त्ति उच्चदि । (घव. पु. ६, पृ. ६७); जं णिरयनयाभास कहा जाता हैं। २ प्रतिपक्ष का निरा-तिरिक्ख-मणुस्स-देवाणं णिवत्तयं कम्मं तं गदिणामं करण करने वाले नव को नयाभास कहते हैं। (जं णिरयभावणिबत्तयं कम्मं तं णि र यगदिणामं)। नयुत-चतुरशीतिन युताङ्गशतसहस्राणि एक नयु, (घव. पु. १३, पृ. ३६३)। ३. जीए उदएण जीवो तम् । (जीवाजी. मलय. व. १७८, प. ३४५)। णे र इयो होइ नरय पुढवीए । सा भणिया नरयगई चौरासी लाख नयतांगों का एक नयत होता है। सेसगईमोवि एमेव ॥ (कर्मवि. ग. ८५)। ४. नयुतान-चतुरशीतिः प्रयुतशतसहस्राणि एक नयु- नारकशब्दव्यपदेश्यपर्यायनिबन्धनं नरकगतिनाम । ताङ्गम् । (जीवाजी. मलय. व. १७८, पृ. ३४५)। (कर्मस्त. गो. व. १०, पृ. १७)। ५. नरकस्य चौरासी लाख प्रयतों का एक नयतांग होता है। गतिर्नरकगतिरात्मनो नारकभावनिमित्तं नामकर्मनर - १. धर्मार्थ-काम-मोक्षकार्यकरणान्नरः । विशेषः। (भ. प्रा. मला. २०६५) । ६. यनिमित्तधर्मार्थ-काम-मोक्षलक्षणानि कार्याणि नणन्ति नय. मात्मनो नारकपर्यायः तन्नरकगतिनाम । (गो. क. न्तीति नराः । (त. वा, २, ५०, १)। २. न नये' जी. प्र. ३३)। ७. यदुदयाज्जीवो नारकशरीरनिनृणन्ति तथाविधद्रव्य-क्षेत्रादिसामग्रीमवाप्य स्वर्गा- पत्तिको भवति तन्नरकगतिनाम । (त वृत्ति श्रुत. पवर्गादिहेतुसम्यग्नय-विनयपरा भवन्तीत्यचि नरा ८-११)। मनुष्याः। (संग्रहणी. दे. वृ. १, पृ. ३)। १ जिस कर्म के निमित्त से जीव के नारकभाव१ जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप कार्यों को ले नारक पर्याय-प्राप्त होती है उसे नरकगति नामजाते हैं-उनको पाराधना करते हैं-वे नर कर्म कहते हैं। कहलाते हैं । २ उस प्रकार की द्रव्य-क्षेत्रादिरूप नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम-१. यदा छिन्नासामग्री को पाकर जो स्वर्ग-मोक्ष प्रादि के कारणों युमनुष्यस्तिर्यग्वा पूर्वेण शरीरेण वियुज्यते तदैव में समुद्यत होते हैं उन्हें नर या मनुष्य कहते हैं। नरक भवं प्रत्यभिमुखस्य तस्य पूर्वशरीरसंस्थानानिनरक-१. नरान् कायन्तीति नरकाणि । शीतो- वृत्तिकारणं विग्रहगतावु देति तन्नरकगतिप्रायोग्यानुष्णासवद्योदयापादितवेदनया नरान कायन्ति शब्दा- पूय॑नाम । (त. वा.८, ११, ११)। २. जस्स यन्त इति नरकाणि, नणन्तीति वा। अथवा पाप- कम्मस्स उदएण णिरयगई गयस्स जीवस्स विग्गहकृतः प्राणिनः प्रात्यन्तिकं दुःखं नणन्ति नयन्तीति गईए बट्माणस्स णिरयगइपायोग्गसंठाणं होदि तं नरकाणि । (त. बा. २, ५०, २-३) । २. नरान णिरयगइपायोग्गाणुपुव्वीणाम । (धव. पु. ६, पृ. प्राणिनः कायति पातयति खलीकरोति इति नरकः ७६)। ३. नरयाउअस्स उदए नरए वक्केण गच्छकर्म । (धव. पु. १, पृ. २०१)। ३. को नरकः? माणस्स । नरयाणुपुब्बियाए तहिँ उदमो अन्न हिं परवशता। (रत्नमा. १३) ।
नत्थि ।। (कर्मवि. ग. १२२)। ४. यस्य कर्मस्कन्ध१ असातावेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त हुई शीत स्योदयेन नरकगति गतस्य जीबस्य विग्रहगतौ वर्त. व उष्ण प्रादि की वेदना से जो नरों को-जीवों मानस्य नरकगतिप्रायोग्यसंस्थानं भवति तन्नरकको-शब्द कराते हैं-रुलाते हैं वे नरक कहलाते गतिप्रायोग्यानुपूयं नाम । (मूला. बु. १२-१६४)। हैं। प्रथवा जो पाप करने वाले प्राणियों को अति- ५. यद्यत्पूर्वशरीराकारम् अविनाश्य जीवेन सह नरशय दुःख को प्राप्त कराते हैं उन्हें नरक कहा कादि यावदेव बोलापकवद् गच्छति तत् (मानुपूर्वाख्यं जाता है।
नाम) नरकादिगतिप्रायोग्यानुपूादिभेदाच्चतुर्विनरकगति नामकर्म-१. यन्निमित्त प्रात्मनो ना- घम् । (भ. प्रा. मूला. २०६५) । रको भावस्तन्नरकगतिनाम। (स. सि. ८-११, १ जो मनुष्य अथवा तियंच प्रायु के क्षीण हो जाने त. वा. ८, ११, २. यस्या उदयः सकलाशभ- से पूर्व शरीर को छोड़कर नारक पर्याय के प्रभिकर्मणामुदयस्य संहकारिकारणं भवति सा नरक- मुख होता है उसके पूर्व शरीर के प्राकार के बने
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
नरकायु]
रहने का कारणभूत जो कर्म विग्रहगति में उदय को प्राप्त होता है उसे नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम कर्म कहते हैं । ३ नारक श्रायु का उदय होने पर मोड़ लेकर नरक में जाते हुए जीव के वहां (मोड़ वाली विग्रहगति में ) नरकानुपूर्वी का उदय होता
अन्यत्र ( ऋजुगति में ) उसका उदय नहीं होता । नरकायु - जं नेरइयं नारयभवम्मि तहि घरइ उप । जासु तं निरयाउं हडिसरिसो तस्स उ विवागो ।। ( कर्मवि. ग. ६४ ) । जो कर्म नारकी जीव को उद्विग्न होने पर भी नारक पर्याय में धारण करता है— उसे वहां रोककर रखता है- उसे नरकायु कहते हैं। । उसका विपाक काठ की बेड़ी से समान है । नरत - देखो नारक । द्रव्य क्षेत्र काल-भावेष्वन्योन्येषु च निरताः नरताः । XX X उक्तं च-ण रमंति जदो णिच्चं दव्वे खेत्ते य काल - भावे य । प्रण्णोष्णेहि जम्हा तम्हा ते णारया भणिया || ( धव. पु. १, पृ. २०२ ) ।
जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव तथा परस्पर में भी रत (प्रीतियुक्त) नहीं होते हैं वे नरत (नारकी) कहे जाते हैं ।
५६२, जैन - लक्षणावली
नरतगति - देखो नारकगति । तेषां (नरतानां ) गतिर्न रतगतिः । (धव. पु. १. पृ. २०२ ) । नरतों (नारकियों) की गति को नरतगति कहते हैं । नरदेव - से केणट्ठणं भंते एवं बुच्चइ नरदेवा ? गोयमा जे इमे रायाणो चाउरंतचक्कवट्टी उप्पण्णसम्मत्ता चक्करयणपहाणा णवणिहिपइणो समिद्धकोसा बत्तीसंरायवरसहस्साणुयातमग्गा सागरवरमेहलाहि पतिणो मणुस्सिदा से तेणठेणं जाव नरदेवा | ( व्याख्याप्र. १२, ६, २, पृ. १७६४-६५) । जो चातुरन्त चक्रवर्ती होकर सम्यक्त्व से सहित, चक्ररत्न के स्वामी, नौ निधियों के अधिपति, वृद्धिगत कोश (खजाना) से सहित, बत्तीस हजार राजानों से श्रनुगत र समुद्र पर्यन्त पृथिबी के पति होते हैं; उन मनुष्यश्रेष्ठों को नरदेव कहा जाता है ।
नर्तक - गीताङ्गपटप्रावरणेन नृत्यवृत्त्याजीवी नर्तको नाटकाभिनयरङ्गर्तको वा । ( नीतिवा. १४ - १२३, पृ. १७३) ।
[नागकुमार
नृत्य
गीत के योग्य शरीर को वेषभूषा के साथ जो वृत्ति से श्राजीविका चलाता है, श्रथवा नाटक की रंगभूमि में नृत्य करता है उसे नर्तक कहते हैं । नलिन - १. XX X तंपि गुणिदव्वं । चउसीदिलक्खवासे णलिणं णामं वियाणाहि । ( ति. प. ४ - २६७) । २. पूर्वं चतुरशीतिघ्नं पर्वाङ्गं परिभा ष्यते । पूर्वाङ्गताडितं तत्तु पर्वाङ्गं पर्वमिष्यते ॥ गुणाकारविधिः सोऽयं योजनीयो यथाक्रमम् । उत्तरेष्वपि संख्यानविकल्पेषु निराकुलम् ॥ ××× नलिनाङ्गमतोऽपि च ॥ नलिनं कमलाङ्ग च X XXI ( म.पु. ३,३१६ - २४ ) । ३. चतुरशीतिनलिनाङ्गशतसहस्राणि एकं नलिनम् । ( जीवाजी. मलय. वृ. ३, २, १७८; ज्योतिष्क मलय. वू. ६६) ।
१ चौरासी लाख वर्षों से गुणित नलिनांग प्रमाण एक नलिन होता है । ३ चौरासी लाख नलिनांगों का एक नलिन होता है ।
नलिनाङ्ग – १. पउम चउसीदिहदं णलिणंगं होदि XXX ॥ ( ति प ४ - २६७ ) । २. तत्तो महाल - याणं चुलसीइ चेव सयसहस्साणि । नलिणंगं नाम भवे XXX ॥ ( ज्योतिष्क ६५ ) । ३. चतुरशीतिः पद्मशतसहस्राणि एकं नलिनाङ्गम । ( जीवाजी. मलय. वृ. ३, २, १७८ ) । ४. महालतारूपसंख्यास्थानादूर्ध्वं महालतानां चतुरशीतिशतसहस्राणि नलिनाङ्गं नाम संख्यास्थानं भवति । ( ज्योतिष्क मलय. वृ. ६५) ।
१ चौरासी से गुणित पद्म प्रमाण एक नलिनांग होता है । २ चौरासी लाख महालता प्रमाण एक नलिनाङ्ग होता है ।
नवमी प्रतिमा - नवमासान् प्रेष्येरप्यारम्भं न कारयतीति नवमी । (योगशा. स्वो विव. ३-१४८, पृ. २७२) ।
नौवीं प्रतिमा का धारक वह श्रावक होता है जो स्वयं तो आरम्भ करता ही नहीं, पर साथ ही सेवकों से भी नौ महीने प्रारम्भ नहीं कराता है । नागकुमार - १. शिरोमुखेष्वधिक प्रतिरूपाः कृष्णाः श्यामा मृदुललितगतयः शिरस्सु फणिचिह्ना नागकुमाराः । ( त. भा. ४ - ११ ) २. फणोपलक्षिताः नागाः । ( धव. पु. १३, पृ. ३६१ ) । ३. नागकुमारा भूषणनियुक्त नागस्फटारूपचिह्नवरा: । (जीवा
,
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
[नाम
नाग्न्यपरीषहजय]
५६३, जन-लक्षणावली जी. मलय. व. ३, १, ११७)। ४. नागकुमाराः निर्भूषणविश्वपूज्यनारन्यव्रतो दोषयितुं प्रवृत्ते । शिरोमखेष्वधिकरूपशोभाः श्वेतरुचयो ललितगतयः। चित्तं निमित्त प्रबलेऽपि यो न स्पश्येत द (संग्रहणी दे. वृ. १७) । ५. नगेषु पर्बतेषु चन्दाना- न्यरुक् सः ।। (अन. प. ६-६४)। ८. नान्यं दिषु वृक्षेषु वा भबा नागा: xxx ते च ते नाम जात्यसुवर्णवदकलङ्कम्, परं विषयिभिरशक्तकः कुमारा नागकुमाराः। (त. व. श्रुत. ४-१०)। शेफविकारवभिश्च धतुं न शक्यते । तद्धरतां पर१ जो देव शिर व मुख में अधिक सुन्दर, वर्ण से प्रार्थनं न भवति । नान्यं हि नाम याचनावन-जन्तुकृष्ण, श्याम, कोमल व शोभायमान गति से सहित घातादिदोषरहितमपरिग्रहत्वात् मुक्तिप्राणाद्वितीयऔर शिर में सर्प के चिह्न से युक्त होते हैं वे नाग- कारणं परेषां बाधाया प्रकारकम् । यो मुनिस्तन्नाकुमार कहलाते हैं। ५ जो नगों (पर्वतों) या ग्न्यं विभति तस्य मनसि विकृति!त्पद्यते, स्त्रीरूपचन्दनादि वृक्षों पर होते हैं उन्हें नागकुमार कहा मतीवापवित्र मृतकरूपसमानमहनिशं भावयति । जाता है।
ब्रह्मचर्यमक्षुण्णं तस्य भवति । एवमचेलव्रतधारणं नाग्न्यपरीषहजय - देखो अचेलपरीषहजय । नाग्न्यं निष्पापं ज्ञातव्म् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-६)। १. जातरूपवन्निष्कलंकजातरूपधारणमशक्यप्रार्थनीयं १ नग्नता (निर्वस्त्रता) का धारण करना उत्पन्न याचन रक्षण हिंसनादिदोषविनिर्मक्तं निष्परिग्रहत्वा. हुए बालक की नग्नता के समान निर्दोष, अशक्य. निर्वाणप्राप्ति प्रत्येक साधनमनन्यबाधनं नान्यं प्रार्थनीय-वस्त्रादि की याचना से रहित विभ्रतो मनोविक्रियाविप्लूतिविरहात् स्त्रीरूपाण्य-रक्षण और हिंसा प्रादि दोषों से रहित; परिग्रह से त्यन्ता शुचिकुणपरूपेण भावयतो रात्रिदिवं ब्रह्मचर्य- रहित होने के कारण निर्वाणप्राप्ति का प्रमुख हेतु मखण्डमातिष्ठमानस्याचेलव्रतधारणमनवद्यमवगन्त- तथा अन्य बाधाों से रहित है। इस नग्नता का व्यम् । (स. सि. ६-९)। २. जातरूपधारणं धारक साघु मानसिक विकार से रहित होता हुआ नाग्न्यम् । गुप्ति-समित्यविरोधिपरिग्रहनिवृत्ति-परि. स्त्रियों के रूपों को निर्जीव शरीर (शव) के समान पूर्णब्रह्मचर्यमप्रार्थिकमोक्षसावनचारित्रानुष्ठानं यथा- अपवित्र देखता है। इस प्रकार से वह रात-दिन जातरूपम् असंस्कृतमविकारं मिथ्यादर्शनाविष्टवि- अखण्ड ब्रह्मचर्य का परिपालन करता हुमा निर्दोष द्विष्टं परममांगल्यं नान्यमभ्युपगतस्य स्त्रीरूपाणि अचेलव्रत को धारण करता है-नाम्यपरीषह को नित्याशुचि-बीभत्स कुणपभावेन पश्यतो वैराग्यभाव. जीतता है। नावरुद्धमनोविक्रियस्याऽसंभावितमनुष्यत्वस्य नाम्य- नान्तरीयक-न अन्तरा भवतीति नान्तरीयकम्, दोषासंस्पर्शनात् परिषहजयसिद्धिरिति जातरूपधार. अविनाभावीत्यर्थः । (सिद्धिवि. प. ४३, टि. १०)। णमुत्तमं श्रेयःप्राप्तिकारणमित्युच्यते । (त. बा.६, जो जिसके विना नहीं होता है वह उसका नान्त६, १०)। ३. वासोऽशभं न वा मेऽस्ति नेच्छेत् रीयक कहलाता है। जैसे-अग्नि के बिना न होने तत्साध्वसाधु वा । लाभालाभविचित्रत्वं जानन्नाग्येन वाला पुत्रां उसका नान्तरीयक या अविनाभावी है। विप्लुतः ।। (प्राव. नि. हरि. प. ६१८, पृ. ४०३)। नाभ्यधोनिर्गम-१. नाभ्यधो निर्गमनं नाभे४. जातरूपधारणं नागन्य सहनम् । (त. श्लो. ६-६; रधो मस्तकं कृत्वा यदि निर्गमनं भवेत् । (मला. व. चा. सा. पु.५१)। ५. नाग्न्यपरीषहस्तु न निरुप- ६-७७) । २.xxx निर्गमो नाभ्यधः शिरः।। करणव दिगम्बरभौतादिवत् । कि तहि ? प्रवच. नाभ्यथोनिर्गमःxxx1(मन. घ. ५-४७,४८)। नोक्तविधानेन नाग्न्यम् । प्रवचने तु xxxI (त. १ नाभि के नीचे मस्तक को करके यदि कहीं भा. सिद्ध.व.ह-६)। ७. भूषावेषविकारशस्त्रनिचय- निकलना पड़ता है तो यह नाभ्यधोनिर्गम नाम का त्यागात् प्रशस्ताकृतेर्बालस्येव मनोजजातविकृतिश्चि. भोजन का अन्तराय माना जाता है। त्तस्य लज्जेति ताम् । हित्वा मातृसमानमेव सकलं नाम-१. नमयत्यात्मानं नम्यते ऽनेनेति वा नाम । कान्ताजनं पश्यत: पूज्यो नान्यपरीषहस्य विजयस्त- (स. सि. ८-४)। २. गति-जात्यादीन् नमयतिस्वज्ञतापोदयः ।। (प्राचा. सा. ७-२०)। ६. निर्ग्रन्थ. अभिमुखीकरोति संसारिणः प्रापयतीति नामोच्यते ।
ल.७५
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाम] ५६४, जन-लक्षणावली
[नामक्षेत्र (त. भा. हरि..८-१२)। ३. तथा गत्यादि. नामकर्म कहलाता है।
भनमनान्नामयतीति नाम । (बा. प्र. टी. नामकरण-१. तत्र च नामकरण करणमिति ११)। ४. तांस्तानात्मभावान् नामयतीति नाम नामैव, नाम्नो वा करणं नामकरणम्-प्रियङ्करकर्मपुद्गल द्रव्यम् । (अनुयो. हरि. व. पु. ६३)। शुभकाद्यभिधानधानम् । यदि वा नामतःकरण ५. नाना मिनोति निर्वतयतीति नाम । जे पोग्गला नामकरणं यत् पूज्यनामापेक्षया पूजादिविधानम् । शरीर-संठाण-संघडण-बण्ण-गंधादिकज्जकारया जीव- (उत्तरा. नि. शा. व. १८३, पृ. १९४); इह नामणिविट्ठा ते णामसण्णिदा होंति त्ति उत्तं होदि। करणं करणमित्यभिधानमात्रम् । (उत्तरा. नि. शा.
1.१३): णाणा मिणोदि ति णाम। व. १८४)। २. नामकरणमिहाभिधानमात्रं 'कर. (धव. पु. १३, पृ. २०६)। ६. नम्यतेऽनेन वा- णम्' इत्यक्षरत्रयात्मकं परिगृह्यते, xxx यद्वा ऽऽत्मानं नमयत्यपि नाम तत् ॥ (ह. पु. ५८, तदर्थविकले वस्तुनि सङ्केतमात्रतः करणमिति नाम २१७)। ७. नामयतीति नाम प्रह्वयत्यात्मानं क्रियते तन्नामकरणम् । (प्राव. भा. मलय. व. गत्याद्यभिमुखमिति, नम्यते वा प्रह्वीक्रियतेऽनेनेति १५३, पृ. ५५८)। नाम । (त. भा. सिद्ध.व. ५-५); नमयति प्राप- १'करण' इस नाम मात्र को नामकरण कहा जाता यति नारकादिभावान्तराणि जीबमिति नाम । है। अथवा प्रियंकर व शुभंकर आदि नामों के करने अथवा जीवप्रदेशसम्बन्धिपुद्गलद्रव्यविपाकसामर्थ्याद् को नामकरण जानना चाहिए। पूज्य नाम की यथार्थसंज्ञा । नमयति प्रह्वयतीति नाम, यथा अपेक्षा पूजादि के विधान को भी नामकरण कहा शुक्लादिगुणोपेतद्रव्येषु चित्रपटादिव्यपदेशप्रवृत्तिनिय- जाता है। तसंज्ञाहेतुरिति । (त. भा. सिद्ध. वृ.८-१२)। नामकायोत्सर्ग-खर-परुषादिसावद्यनामकरणद्वा८.xxx छठें कम्मं तु भण्णए नामं । तं ।
रेणागतातीचारशोधनाय कायोत्सर्गो नाममात्रकायोचित्तगरसमाणं जह होइ तहा निसामेइ ।। जह चित्त
सो वा नामकायोत्सर्गः। (मला. व. ७-१५१)। यरो निउणो अणेगरूवाई कूणइ रूवाई। सोहणम
खर व परुष प्रादि सावध नाम करने के द्वारा लगे सोहणाइं चोक्खाचोक्खेहि वण्णेहिं ॥ तह नामपि य
हए दोषों के शोधन के लिए जो कायोत्सर्ग किया कम्म अणेगरूवाइं कुणइ जीवस्स । सोहणमसोहणाई
___ जाता है उसे अथवा नाममात्र कायोत्सर्ग को नामइट्ठाणिट्ठाई लोयस्स ॥ गइयाइएसु जीवं नामइ भेएसु ।
भएउ कायोत्सर्ग कहा जाता है । जं तो नामं। (कर्मवि. ग.६६-६९)। ६. नामयत्यधम-मध्योत्तमासु गतिषु प्राणिनं प्रह्वीकरोतीति
नामकृति-जा सा णामकदी णाम सा जीवस्स वा
प्रजीवस्स वा जीवाणं वा अजीवाणं वा जीवस्स च नाम । (पंचस.चं. स्वो. ३-१, पृ. ३३)। १०.
अजीवस्स च जीवस्स च अजीवाणं च जीवाणं च तथा नामयति परिणमयत्यात्मानं तेस्तैर्गत्यादिभिः
अजीवस्स च जीवाणं च अजीवाणं च जस्स णाम पर्याय रिति नाम । (कर्नस्त. गो. व.१०, पृ. १७)।
कीरदि कदित्ति सा णामकदी णाम। (ष. खं. ४, ११. तथा नामयति गत्यादिपर्यायानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम । (प्रज्ञाप. मलय. व.
.. १, २१-पु. ६, पृ. २४६)। २३-२८८, पृ. ४५४; धर्मसं. मलय. वृ. ६०८; एक जीव, एक अजीव, बहुत जीव, बहुत अजीव, प्रव. सारो. बु. १२५०)। १२. गति-जात्यादि- एक जीव एक अजीव, एक जीव बहुत अजीव. वैचित्र्यकारि चित्रकरोपमम् । नामकर्मविपाकोऽस्य बहुत जीव एक अजीव तथा बहुत जीव बहत शरीरेषु शरीरिणाम् । (त्रि. श. पु. च. २, ३, प्रजाव, इन आठ म जिसका 'कृति' यह नाम किया ४७३)।
जाता है उस सबको नामकृति कहा जाता है। १ जो जीव को नमाता है-गति आदि के प्रति नामक्षेत्र-जीवाजीबुभयकारणनिरवेक्खो अप्पानम्रीभूत करता है-उसे नामकर्म कहा जाता है। णम्हि पयट्टो खेत्तसद्दो णामखेत्तं । (धव. पु. ४, २ जो संसारी प्राणियों को गति-जाति प्रादि के पृ.३) । अभिमुख करता है- उन्हें प्राप्त कराता है-वह जीव, अजीव व उभय कारणों से निरपेक्ष अपने
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाचतुविशति] ५६५, जैन-लक्षणावली
[नामनिक्षेप प्राप में प्रवृत्त क्षेत्र' शब्द को नामक्षेत्र कहा कस्यचिज्जीवसंज्ञा विधीयते स नामजीवः । (त. जाता है।
वृत्ति धुत. १-५)। नामचतुविशति-तत्र नामचतुर्विंशतिः जीवस्य १ जीवन गुण की अपेक्षा न करके जिस किसी अजीवस्य वा यस्य चविंशतिरिति नाम क्रियते, पदार्थ का 'जीव' ऐसा नाम रखने को नामजीव चतविशत्यक्षरावली वा। (प्राव. नि. मलय. व. कहते हैं। २ नाम और संज्ञाकर्म ये समानार्थक १०६८)।
शब्द हैं। चेतन अथवा अचेतन द्रव्य का 'जीव' जिस किसी चेतन या अचेतन पदार्थ का 'चतुर्विशति' ऐसा जो नाम किया जाता है उसे नामजीव कहा ऐसा नाम किया जाता है उसे अथवा 'चविशति' जाता है। इन अक्षरों की पंक्ति को नामचतुर्विशति कहते हैं। नामदिक-तत्र सचित्तादेव्यस्य दिगित्यभिधानं मिच्छेदना-सचित्त-अचित्तदव्वाणि अण्णेहितो नामदिक । (प्राचारा. नि. शी.व. ४०, पृ. १२) । पुध काऊण सण्णा जाणावेदि त्ति णामच्छेदणा। सचित्त या प्रचित्त द्रव्य का 'दिक' ऐसा नाम रखने (धव. पु. १४, प. ४३५) ।
को नामदिक कहते हैं। सचित्त अचित्त द्रव्यों को दूसरों से अलग करके नामद्रव्य-१. यस्य जीवस्याजीवस्य वा नाम चंकि संज्ञा जतलाती है, अतः उसे नामच्छेवना क्रियते द्रव्यमिति तन्नामद्रव्यम् । (त. भा.१-५)। कहते हैं।
२. नामद्रव्यं यस्य चेतनावतोऽचेतनस्य वा द्रव्यमिति नामजिन-१.णामजिणा जिणणामा। (चैत्यवन्द- नाम क्रियते । (त. भा. सिद्ध.व. १-५)।
१)। २. जिणसद्दो णामजिणो। (षव. १ जिस जीव या अजीव का 'द्रव्य' ऐसा नाम पु. ६, पृ. ६)।
किया जाता है उसे नामद्रव्य कहते हैं। १ जिन के नामों को नामजिन कहते हैं। २ 'जिन' नामधर्म-जीवस्साजीवस्स व अन्नत्थविवज्जियस्स शब्द को नाजिन कहा जाता है।
जस्सेह । धम्मो णाम कीरइ स नामधम्मो तदक्खा नामजीव-१. जीवन गूणमनपेक्ष्य यस्य कस्य- वा ॥ (धर्मसं.हरि. २८)। चिन्नाम क्रियमाणं नामजीवः। (स. सि. १-५)। धर्म के अन्वर्थ से रहित जिस किसी जीव या अजीव २. नाम संज्ञाकर्म इत्यनर्थान्तरम् । चेतनावतोऽचेत- पदार्थ का 'धर्म' ऐसा नाम किया जाता है उसे नस्य वा द्रव्यस्य जोव इति नाम क्रियते स नाम- नामधर्म कहते हैं । अथवा धर्म को संज्ञा (नाम) को जीत। (.भा १-५)। ३. नास्तव जीव: ही नामधर्म जानना चाहिए। जीवशब्द इत्यर्थः। xxx तत्र यो जीव इति नामनमस्कार-नामनमस्कारो यस्य कस्यचिन्नशब्दः प्रवर्तते स नामजीव: । xxx जीव इत्ययं मस्कार इति कृता संज्ञा। (भ. प्रा. विजयो. ध्वनिः तच्चेद्वाच्योऽर्थो नामतया नियुज्यते स नाम- ७५३)। जीव इति । 'सः' इत्यनेन तत्र चेतनावत्यचेतने वा जिस किसी का 'नमस्कार' ऐसा जो नाम किया यदच्छया यो जीवशब्दो नियुक्तस्तं व्यपदिशति स जाता है वह नामनमस्कार कहलाता है। शब्दो नामजीव इत्युच्यते । न तद्वस्तूपाधिक इति । नामनिक्षेप-१. अतद्गुणे वस्तुनि संव्यवहारार्थ (त. भा. हरि. व.१-५) । ४. नामैव जीवो नाम- पूरुषाकारान्नियुज्यमानं संज्ञाकर्म नाम । (स. सि. जीवः योऽयं जीव इति ध्वनिः, अयं च यस्य कस्य- १-५)। २. नाम संज्ञाकर्म इत्यनान्तरम् । (त. चिद वस्तुनो वाचकः स नामजीवोऽभिधीयते । x भा. १-५)। ३. पज्जायाणभिधेयं ठिमण्णत्थे xx स इत्यनेन चेतनावत्यचेतने वा यदृच्छया तयत्थनिरवेक्खं । जाइच्छिनं च नामं जावदव्वं च यो जीवशब्दो नियुक्तस्तं व्यपदिशति स शब्दो नाम पाएणं ।। (विशेषा. २५)। ४. यद्वत्थनोऽभिधानं जीव इति । एतदुक्तं भवति- स एव शब्दो जीव जाति-रूपादिपर्यायप्रभेदानुसरणस्वभावं तन्नाम, इत्युच्यते तद्वस्तुपाधिक इति, अर्थाभिधान-प्रत्यया- नमनं प्रह्वित्वमिति, वस्तु नमनात्-प्रतिवस्तु नमस्तुल्यनामधेया इति न्यायात् । (त. भा. सिद्ध. व. नात् भवनादित्यर्थः । (उत्तरा. चू. पृ. १०)। १-५, पृ. ४५-४६) । ५. जीवनगुणं विनापि यस्य ५. नीयते गम्यतेऽनेनार्थः, नमति वाऽर्थमभिमुखी
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
नामनिक्षेप] ५६६, जैन-लक्षणावली
[नामपिण्ड करोतीति नाम । xxx निमित्तान्तरानपेक्षं (परमा. त. १-६)। १८. वस्तुन्यतद्गुणे खलु संज्ञाकर्म नाम । निमित्तादन्यनिमित्तं निमित्तान्तरम्, संज्ञाकरणं जिनो यथा नाम। (पंचाध्या. १, तदनपेक्ष्य क्रियमाणा संज्ञा नाम इत्यच्यते । यथा ७४२)। परमैश्वयंलक्षणेन्दनक्रियानिमित्तान्त रानपेक्षं कस्य- १ नाम के अनुसार वस्तु में गुण न होने पर भी चित् 'इन्द्र' इति नाम । (त. वा. १, ५, १)। व्यवहार के लिए जो पुरुष के प्रयत्न से नामकरण ६. तत्र निमित्तान्तरानपेक्षं संज्ञाकर्म नाम । (लघीय. किया जाता है, इसे नामनिक्षेप कहा जाता है। स्वो. वि. ७४)। ७. यस्य कस्यचित् अनिदिष्ट- ३ अन्य अर्थ में वर्तमान पर्यायवाचक शब्दों से जो विशेषस्य निमित्तान्तरानपेक्ष संज्ञाकर्म नाम । नहीं कहा जा सकता है ऐसा विवक्षित अर्थ से (सिद्धिवि. स्वो. वि. १२-२)। ८. यद्वस्तुनोऽभि- निरपेक्ष जो इच्छानुसार नामकरण किया जाता है घानं स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम् । पर्यायानभि- उसे नामनिक्षेप कहते हैं। जैसे किसी भतक घेयं (च) नाम यादृच्छिकं च तथा । (प्राव. हरि. (नौकर) के पुत्र का 'इन्द्र' नाम । उसे इन्द्र के पर्यायवृ. पृ.४ उद्.; अनुयो. हरि. व. पृ. ६ उद्.; बाची शक-पुरन्दर प्रादि शब्दों से नहीं कहा जा प्राव. मलय. व. १. ५ उद्.)। ६. जातावेव तु सकता है। कारण कि अन्वर्थक रूप से वह देवेन्द्र. यत्संज्ञाकर्म तन्नाम मन्यते । तस्यामपरजात्यादि- रूप प्रथं में वर्तमान है। निमित्तानामभावतः ॥ गुणे कर्मणि वा नाम संज्ञा- नामनिबन्धन-जस्स णामस्स वाचगभावेण पव. कर्म तथेष्यते । गुणकर्मान्तराभावाज्जातेरप्यनपेक्ष- त्तीए जो प्रत्थो प्रालंबणं होदि सो णामणिबंधणं णात् ॥ (त. श्लो . १, ५, ४-५, प. ६६); तेने- णाम । (धव. पु. १५, पृ. २)। च्छामात्रतंत्र यत्संज्ञाकर्म तदिष्यते । नामाचायनं जिस नाम का वाचकस्वरूप से प्रवत्ति में जो अर्थ जात्यादिनिमित्तापन्नविग्रहम् ॥ सिद्धे हि जात्यादि- पालम्बनीभूत होता है उसका नाम नामनिबन्धन है। निमित्तान्तरे विवक्षात्मनः शब्दस्य निमित्तात संव्यव. नामनिर्देश-नामनिर्देशो यस्य निर्देश इति नाम हारिणां निमित्तान्त रानपेक्षं संज्ञाकर्म नाम इत्याहु- क्रियते, नाम्नो वा निर्देशो यथा अयं जिनभद्र राचार्याः । (त. इलो. १, ५, ५३, पृ. १११)। इत्याद्यभिधानविशेषभणनं । (प्राव. नि. मलय. व. १०. संज्ञायाः क्रिया संज्ञाक्रिया संज्ञाकर्म, नामकरणम् १४०)। इत्यर्थः, अनेन ध्वनिना वस्त्विदं प्रतिपाद्यत इति जिसका निर्देश' यह नाम किया जाता है उसे यावत । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-५)। ११. या नामनिर्देश कहते हैं, अथवा नाम के निर्देश को नाम
निर्देश कहा जाता है। जैसे-यह जिनभद्र है, इस कस्यचित् पंज्ञा तन्नाम परिकीर्तितम् ।। (त. सा. प्रकार नामविशेष का कहना। १-१०)। १२. तदनपेक्षं (निमित्तान्तरानपेक्षं) नामपद-नामपदं नाम गौडोऽन्ध्रो द्रमिल इति यत् संज्ञाकम संज्ञाकरणमिच्छावशात्तन्नाम । (न्याय- गोडान्ध्रद्रमिल भाषा-नाम-धामत्वात्। (धव. पु. १, कु. ७४, पृ. ८७४) । १३. प्रतद्गुणेषु भावेषु पृ.७७)। व्यवहारप्रसिद्धये । यत्संज्ञाकर्म तन्नाम नरेच्छावश- गौड, अन्ध्र और द्रमिल ये नामपद हैं, क्योकि ये वर्तनात् ॥ (उपासका. ८२५)। १४. यस्य कस्य- गौड, अन्ध्र मौर मिल भाषा के नामके प्राश्रित हैं। चिद वस्तुनो व्यवहारार्थमभिधानं निमित्तसव्यपेक्षं नामपिण्ड-गोण्णं समयकयं दा जं वावि हवेज्ज अनपेक्ष वा यत् संकेत्यते तन्नाम । (सन्मति. अभय. तदुभयेण कयं । तं विति नामपिण्डं xxx॥ ७.६, पृ. ३७९)। १५. जीवाजीवोभयेष्टार्थजाति- (पिण्डनि. ६; प्रोधनि. ३३३) । द्रव्य-गुणक्रिया। नामोत्पत्ति निमित्तानपेक्षं यन्नाम 'पिण्ड' इस प्रकार का जो नाम गौण, समयकृत, तन्मतम् ।। (प्राचा. सा. ६-५)। १६. अतद्गुणे उभयकृत अथवा अनुभयज है उसे नामपिण्ड कहा वस्तुनि संव्यवहारप्रवर्तननिमित्तं पुरुषाकारात हटा- जाता है। गौण से अभिप्राय है द्रव्य, गुण अथवा नियुज्यमानं संज्ञाकर्म नाम । (त. वृत्ति श्रुत. १, क्रियारूप गुण से सिद्ध । जैसे-सजातीय-विजातीय ५)। १७. अतद्गुणे वस्तुनि संज्ञाकरणं नाम। कठिन द्रव्यों का एकत्रीकरणरूप पिण्ड । यह गुण
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
नामपुरुष]
५६७, जैन-लक्षणावली
[नामभाव
से निष्पन्न (अन्वर्थक) पिण्ड नाम है। प्राचारांग कर्मोदयत: परस्परं बद्धानां शरीर पूदगलानां स्नेहमें द्रव द्रव्यरूप जल को भी पिण्ड कहा गया है। मधिकृत्य या स्पर्द्धकप्ररूपणा सा नामप्रत्ययस्पद्धकयह समयकृत पिण्ड नाम है। भिक्ष या भिक्षुणी प्ररूपणा। (पञ्चसं. मलय. व. ब. क. १६,प. किसी गहस्थ के घर जाकर जिस गडपिण्ड या २१)। प्रोदनपिण्ड को प्राप्त करते हैं वह उभयकृत (गौण १शरीरनामकर्म के उदय से परस्पर में बन्धको व समयकृत) पिण्ड नाम है। यह अन्वर्थक भी है प्राप्त पुदगलों के स्पर्द्धकों की प्ररूपणा करने को और प्रागमप्रसिद्ध भी है। किसी पुरुषविशेष का नामप्रत्ययस्पर्द्धकप्ररूपणा कहते हैं। शरीरावयवों के समदाय की विवक्षा के विना
नामप्रत्याख्यान-अयोग्यं नाम नोच्चारयिष्या'पिण्ड' यह नाम करना यह अनुभयज 'पिण्ड' कहा मीति चिन्ता नामप्रत्याख्यानम् । (भ. प्रा. विजयो. जायगा। कारण कि उसमें न अन्वर्थकता है और न प्रागमप्रसिद्धता भी है। इस तरह उक्त चारों मैं पागे अयोग्य नाम का उच्चारण नहीं करूंगा, प्रकार के पिण्ड को नामपिण्ड कहा जाता है। इस प्रकार का विचार करने को नामप्रत्याख्यान नामपूरुष-नाम इति संज्ञा, तन्मात्रेण पुरुषो नाम- कहते हैं। पुरुषः, यथा घट: पट इति । यस्य वा पुरुष इति
नामप्रमाण-से कि तं नामपमाणे ?, २ जस्स णं नामेति । (सूत्रकृ. नि. शी. व. १-५५)।
जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाणं वा अजीवाणं वा नाम मात्र से जो पुरुष है, अथवा जिसका 'पुरुष'
तदुभयस्स वा तदुभयाणं वा पमाणेत्ति नाम कज्जइ यह नाम है, उसे नामपुरुष कहा जाता है।
से तं णामपमाणे । (अनु यो. सू. १३०, पृ. १४४)। नामपूजा--- नामोच्चार्य जिनादीनां स्वच्छ देशे
एक जीव, एक अजीव, बहुत-बहुत जीव, बहुत-बहुत क्वचिज्जनः । पुष्पादीनि विकीर्यन्ते नामपूजा भवे
अजीव, एक-एक जीव-जीव, अथवा बहुत-बहुत दसौ।। (धर्मसं. श्रा. ६-८७)।
जीव-जीव, इनमें से जिस का 'प्रमाण' यह नाम अरहन्त प्रादि के नामों का उच्चारण करके पुष्प
किया जाता है वह नामप्रमाण कहलाता है। प्रादि के अर्पण करने को नामपूजा कहते हैं।
नामबन्ध-जो सो णामबंधो णाम सो जीवस्स वा. नामप्रतिक्रमण-१. अयोग्यनाम्नामनुच्चारणं नाम
अजीवस्स वा जीवाणं वा, अजीवाणं वा, जीवस्स च प्रतिप्रतिक्रमणम् । तहिं दारिगा सामिणी इत्यादिक
अजीवस्स च, जीवस्स च अजीवाणं च, जीवाणं च मयोग्यं नाम । (भ. प्रा. विजयो. ११६, पृ. २७५);
अजीबस्स च, जीवाणं च अजीवाणं च जस्स णामं भट्टिणी भट्रिदारिगा इत्याद्ययोग्यनामोच्चारणं कृत
कीरदि बंघो त्ति सो सम्वो णामबंधो णाम । (षट्खं. वतस्तत्परिहरणं नामप्रतिक्रमणम् । (भ. प्रा.
५, ६, ७-धव. पु. १४, पृ. ४)। विजयो. ४२१, पृ. ६१५)। २. नामप्रतिक्रमणं
एक जीव; एक अजीव, बहुत जीव, बहुत अजीव, पापहेतूनामातीचारान्निवर्तनं प्रतिक्रमणदण्डकगत
एक जीव एक अजीव, एक जीव बहुत अजीव, शब्दोच्चारणं वा । (मला. व. ७-११५)।
बहुत जीव एक अजीव, बहुत जीव बहुत अजीव, १ भट्टिनी (स्वामिनी) व भट्टिनीदारिका प्रादि
इन पाठ में से जिसका 'बन्ध' यह नाम किया जाता अयोग्य नामों का उच्चारण नहीं करना, अथवा
है उसे नामबन्ध कहते हैं। उच्चारण करने पर उसका परिहार करना, इसे नामप्रतिक्रमण कहते हैं।
नामबन्धक-णामबंधया णाम 'बंधया' इदि सहो नामप्रत्ययस्पर्द्धकप्ररूपरणा-१. सरीरणामकम्म
जीवाजीवादिअभंगेसु पयतो । (धव. पु. ७, स्स उदएणं परोप्परं बद्धाणं पोग्गलाणं फडडगपरू- पृ. ३)। वणा णामपच्चयफड्डगपरूवणा। (कर्मप्र. चू. ब जीवाजीवादि पाठ भंगों में जिनका 'बन्धक' यह क. २१, पृ. ५४)। २. तथा नामप्रत्ययस्य-बन्धन- नाम किया जाता है उन्हें नामबन्धक कहते हैं। नाभनिमित्तस्य शरीरदेशस्पर्द्धकस्य प्ररूपणा नाम- नामभाव-भावसद्दो बज्झत्थणिरवेवखो अप्पाणम्हि प्रत्यस्पर्द्धकप्ररूपणा। अयमर्थः-शरीरबन्धननाम- चेव पयट्टो णामभाबो होदि । (धव. पु. ५
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाममंगल]
५६८, जैन-लक्षणावली
[नामसत्य
१८३); भाबसद्दो णामभावो णाम । (घव. पु. पु. १४, पृ. ५२)। १२, पु. १)।
___वर्गणा' यह शब्द नामवर्गणा कहलाता है। बाह्य अर्थ की अपेक्षा न रखते हुए अपने प्राप में नामवेदना-पट्टविहबज्झत्थाणालंबणो वेयणासद्दो ही प्रवत्त 'भाव' शब्द को नामभाव कहा जाता है। णामवेयणा । (धव. प. प.५)। नाममंगल-१. अरहाणं सिद्धाणं प्राइरिय-उव- पाठ प्रकार के बाह्य (जीवाजीवादि) अर्थ का ज्झयाइसाहणं । णामाई णाममंगलमुहिट्ठ बीय- मालम्बन न करने वाले 'वेदना' शब्द को नामराएहिं ।। (ति. प. १-१६)। २. एगम्मि अणेगेसु वेदना कहते हैं। व जीवहव्वे व तस्विवक्खे वा । मंगलसन्ना नियता नामवत-नामव्रतं कस्यचिद व्रतमिति कृता संज्ञा। तं सन्नामंगलं होइ॥ (बृहत्क. भा. ६)। ३. तत्र (भ. प्रा. विजयो. ११८५)। यत् जीवस्याजीवस्योभयस्य वा मङ्गलमिति नाम. किसी पदार्थ की जो वत' ऐसी संज्ञा की जाती है क्रियते तन्नाममङ्गलम् । (प्राव. हरि. व. १, पृ. उसे नामवत कहा जाता है। ४)। ४. तत्थ नाममंगलं नाभ णिमित्तंत रणिरवे- नामश्रुत-से कि तं नामसुमं? २ जस्स णं क्खा मंगलसण्णा । (धव. पु. १, पृ. १७); बच्च. जीवस्स वा जाव सुएत्ति नामं वजह से तं नामस्थणिरवेक्खो मंगलसद्दो णाममंगलं । (धव. पु. १, सुग्रं । (अनुयो. सू. ३०)। पृ. १६) । ५. तत्र मङ्गलमिति नामव नामङ्गलम्। एक जीव, एक अजीव, बहुत जीव, बहुत अजीव, (उत्तरा. नि. शा. व. पृ. २)।
एक-एक जीव-अजीव अथवा बहुत-बहुत जीव१ अरहंत आदि पांच परमेष्ठियों के नामों को प्रजीव; इनमें से जिसका 'श्रत' यह नाम किया नाममंगल कहते हैं। २ एक जीवद्रव्य, अनेक जीव जाता है उसे नामत कहते हैं। द्रव्यों अथवा उनके विपक्षभूत एक-अनेक अजीव नामसत्य-१. नामसच्चं नाम जं जीवस्स अजीद्रव्यों में जो 'मंगल' यह संज्ञा नियत है उसे संज्ञा- वस्स वा सच्चमिति नाम कीरइ। (दशवे. च. प. मंगल या नाममंगल कहा जाता है।
२३६)। २. तत्र सचेतनेतरद्रव्यस्यासत्यप्यर्थे यद नामलक्षण-१. लक्खणमिह जं णाम जस्स व व्यवहारार्थ संज्ञाकरण तन्नामसत्यम, इन्द्र इत्यादि । लक्खिज्जए व जो जेणं । (विशेषा. भा. २६४५)। (त. वा. १,२०, १२, पृ.७५; धव. पु. १, पृ. ११७; २. लक्षणमिति यन्नाम यदभिधानं वर्णविन्यासो चा. सा. प. २९ कातिके. टी. ३६८) । ३. दशधा वा तन्नामलक्षणम्, लक्ष्यतेऽनेनेति कृत्वा, यस्य वा सत्यसद्भावे नामसत्यमुदाहृतम् । इन्द्रादिव्यवहारार्थ पदार्यस्य लक्षणमिति संज्ञा विधीयते स नामलणम्, यत् संज्ञाकरणं हि तत् ॥ (ह. पु. १०,६८)। ४. प्रभेदात्, यो वा अग्न्यादिर्येन नाम्ना चिह्नयते। नामसत्यं नाम कुलमवर्धयन्नपि कुलवर्द्धन इत्यु(विशेषा. भा. व. २६४५-नि. ७५१) ।
च्यते, धनमवर्धयन्नपि धनवर्धन इत्युच्यते, अयक्षश्च जिस किसी वस्तु का 'लक्षण' ऐसा नाम किया यक्ष इति । (दशवं. नि.हरि. व. २०८, पृ. २७३)। जाता है उसे, अथवा जिस (लक्षणशब्द) के द्वारा ५. इन्द्रादिसंज्ञा स्वप्रवृत्तिनिमित्तजाति-गुण-क्रियापदार्थ लक्षित होता है उसे भी नामलक्षण कहते हैं। द्रव्यनिरपेक्षा तच्छब्दाभिधेयसम्बन्धपरिणतिमात्रेण नामलेश्या-लेस्सासद्दो णामलेस्सा। (षव. पु. वस्तुनः प्रवृत्ता नामसत्यम् । (भ. प्रा. विजयो. व १६, पृ. ४८४)।
मला. टी. ११६३)। ६. व्यवहारप्रसिद्धयर्थमर्था'लेश्या' शब्द को नामलेश्या कहा जाता है। भावो[वे]ऽपि लौकिकः। कृतं नाम मतं नामसत्यं नामलोक-णामाणि जाणि काणिचि सुहासुहाणि चन्द्रादिवन्नुषु ।। (प्राचा. सा. ५-२६) । ७. यथा बरिणामलोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं। भक्तादिनाम देशाद्यपेक्षया सत्यं भवति तथा पनरप्य(मला. ७-४५)।
निरपेक्षतयव संव्यवहाराथं कस्यचित्प्रयूक्तं संज्ञाकर्म लोक में जो कुछ भी शुभ-अशुभ नाम हैं उन्हें नाम- नामसत्यम् । यथा कश्चित्पुरुषो जिनदत्त इति । (गो. लोक जानना चाहिए।
जी. म.प्र. व जी प्र. टी. २२३)। नामवर्गणा-वग्गणासहो णामवग्गणा । (घव. १जीव अथवा अजीव का जो 'सत्य' ऐसा नाम
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
नामसम]
५६९, जैन-लक्षणावली
[नामस्पर्श
किया जाता है उसे नामसत्य कहते हैं। २ अर्थ के सामायिकं नाम xxx अथवा जाति-द्रव्य-गुणन होने पर भी सचेतन व अचेतन द्रव्य का व्यवहार क्रियानिरपेक्षं संज्ञाकरणं सामायिकशब्दमानं [वा] के लिए जो नामकरण किया जाता है वह नाम- नामसामायिकं नाम । (मला. व. ७-१७; अन. सत्य कहलाता है। जैसे इन्दनक्रिया के प्रभाव में घ. स्वो. टी. ८-१६)। ३. शुभेऽशुभे वा केनापि भी किसी का 'इन्द्र' यह नाम ।
प्रयुक्ते नाम्नि मोहतः । स्वमवाग्ल क्षण पश्यन्न रति नामसम-नाना मिनोतीति नाम । प्रणेगेहि पया. यामि नारतिम् ।। (अन. घ. ८-२१)। ४. इष्टारेहि प्रत्थपरिच्छित्ति णामभेदेण कणदि त्ति एगादि- निष्ट नामसू राग-द्वेषनिवत्तिः सामायिकमित्यभिधानं अक्खराण बारसंगाणिमोगाणं मज्झट्रिददवसूदणाण- वा नामसामायिकम् । (गो. जी. जी. प्र. टी. वियप्पा पाणमिदि वत्तं होदि । तेण णामेण दव- ३६७-६८)। ५. तत्थ इटाणि?णामेसु रायसुदेण समं सह बदि उप्पज्जदि त्ति सेसाइरिएसु। दोसणिवत्ती सामाइयमिदि अहिहाणं वा णामसाटिदसुदणाणं णामसमं । (घव. पु. ६, पृ. २६०); माइयं । (अंगप. ३-१३, पृ. ३०५)।। बुद्धिविहूणपूरिसभेएण एगक्खरादीहि ऊणकदिमणि- १ किसी जीवादि पदार्थ की निमित्त की अपेक्षा न योगो जाणा मिणोदीदि वप्पत्तीदो णाममिदि करके जो 'सामायिक' ऐसी संज्ञा की जाती है उसे भण्णदे। तेण सह वट्टमाणो भावक दिग्रणियोगो नामसामायिक कहा जाता है। २ इष्ट और अनिष्ट णामसमं णाम । (धव. पु.६, प. २६६); पाइरिय- नामों को सून करके उनमें राग या द्वेष के नहीं पादमूले बारहंगसहागमं सोऊण जस्स अहिलप्प- करने को नामसामायिक कहते हैं। अथवा जाति, स्थविसयं चेव सुदणाणं समुप्पण्णं सो णामसमं। द्रव्य, गण व क्रिया की अपेक्षा न करके जो 'सामा(धव. पु. १४, पृ. ८)।
यिक' संज्ञा की जाती है उसे नामसामायिक जानना जो नानारूप से जानता है उसे नाम कहा जाता चाहिए। है। अभिप्राय यह है कि नामभेद से जो अनेक नामस्तव-१. चतुर्विंशतितीर्थकराणां यथार्थानुप्रकार से अर्थ का परिच्छेदन करता है उसको नाम गरष्टोत्तरसहस्रसंख्यामभिः स्तवनं चतुविशतिकहते हैं। तदनुसार एक-दो प्रादि अक्षरस्वरूप नामस्तवः। xxx अथवा जाति-द्रव्य-गुणबारह अंगों के अनयोगों के मध्यवर्ती जितने द्रव्य- क्रियानिरपेक्षं संज्ञाकर्म चतविशतिमात्र नामस्तवः । श्रुतज्ञान के बिकल्प हैं उन्हें नाम जानना चाहिए। (मला.व. ७-४१)। २. अष्टोत्तरसहस्रस्य नाम्नाइस नामरूप द्रव्यश्रत के साथ शेष प्राचार्यों में वर्त- मन्वर्थमहताम् । वीरान्तानां निरुक्तं यत्सोऽत्र नाममान या उत्पन्न होने वाला श्रुतज्ञान नामसम स्तवो मतः ॥ (मन. प. ८-३६)। कहलाता है।
१चौबीस तीर्थंकरों का एक हजार पाठ सार्थक नामों नामसंक्रम-संकमसद्दो णामसंकमो। (धब. पु. से जो स्तवन किया जाता है वह नामस्तव कहलाता १६, पृ. ३३६)।
है। अथवा जाति, द्रव्य, गण और क्रिया की अपेक्षा 'संक्रम' शब्द को नामसंक्रम कहा जाता है। न रखकर जो 'चतुर्विशति' मात्र नामकरण किया नामसंख्या-से किं तं नामसंखा ? २ जस्स णं जाता है उसे नामस्तव जानना चाहिए। जीवस्स वा जाव से तं नामसंखा। (अनुयो. सू. नामस्थापना[स्थान]--नामस्थापना [स्थानं] यो १४६, पृ. २३०)।
यस्य नाम्न: प्रो योग्य इत्यर्थः। (उत्तरा. चू. पृ. एक जीव व एक अजीव प्रादि में से जिसका २४०)। 'संख्या' ऐसा नाम किया जाता है उसे नामसंख्या जो स्थान जिस नाम के योग्य है उसे नामस्थान कहते हैं।
कहते हैं। नामसामायिक-१. निमित्तनिरपेक्षा कस्यचि- नामस्पर्श-जो सो णामफासो णाम सो जीवस्स ज्जीवादेरध्याहिता संज्ञा सामायिकमिति नामसामा- वा, अजीवस्स वा, जीवाणं वा, अजीवाणं वा, यिकम् । (भ. प्रा. विजयो. ११६)। २. शुभना- जीवस्स च प्रजीवस्स च, जीवस्स च अजीवाणं च, मान्यशुभनामानि च श्रुत्वा राग-द्वेषादिवर्जनं नाम- जीवाणं च अजीवस्स च, जीवाणं च मजीवाणं च
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
नामाजीव] ६००, जैन-लक्षणावली
[नारक जस्स णाम कीरदि फासेत्ति सो सम्वो णामफासो च नामावश्यकम्, पावश्यकाभिधानमित्यर्थः। (अनु. णाम । (षट्खं. ५, ३, ६-पु. १३, पृ.८)। यो. हरि. व. प.६)। एक जीव व एक अजीव आदि पाठ में से जिसका एक जीव, एक अजीव, बहुत जीव, बहुत अजीव, 'स्पर्श' ऐसा नाम किया जाता है उसे नामस्पर्श दोनों एक-एक तथा दोनों बहत-बहत; इनमें से कहते हैं।
जिसका 'मावश्यक' ऐसा नाम किया जाता है उसे नामाजीव-अजीव इति नाम यस्य चेतनस्या- नामावश्यक कहते हैं। चेतनस्य वा क्रियते स नामाजीवः । (त. भा सिद्ध. नामासंख्यात-णामास खेज्जयं णाम जीवाजीबघ. १-५)।
मिस्ससरूवेण विदअभंगासंखेजाण कारणणिरवे. जिस चेतन व अचेतन पदार्थ का 'अजीव' ऐसा क्वा सण्णा । (धव. पु. ३, पृ. १२३)। नाम किया जाता है उसे नामग्रजीव कहते हैं। जीव, अजीव और मिश्ररूप से स्थित पाठ संयोगी नामानन्त-णामाणंतं जीवाजीव मिस्सदध्वस्स भंगों में जिसको 'असंख्यात' ऐसी संज्ञा की जाती कारणणिरवेक्खा सण्णा प्रणंता इदि। (धव. पु. ३, है उसे नामासंख्यात कहते हैं।
नामानव-नामास्रवो यस्य प्रास्रव इति नाम कृतं जीव, अजीव और मिश्र द्रव्य की जो कारण की स नामास्रवः । (त. भा. सिद्ध.व. १-५)। अपेक्षा बिना 'अनन्त' ऐसी संज्ञा की जाती है उसे जिसका 'प्रास्त्रव' ऐसा नाम किया गया है उसे नामानन्त कहते हैं।
नामात्रब कहते हैं। ग-१. नामस्स जोडणुप्रोगो अहवा नामोत्तर-तत्र नामोत्तरमिति नामैव, यस्य वा जस्साभिहाणमणुप्रोगो। नामेण व जो जोग्गो जोगो जीवादेउत्तरमिति नाम क्रियते । (उत्तरा. नि. शा. णामाणुपोगो सो ।। (विशेषा. १३६६) । २. नामा- व. १. पु. ३) । नुयोगो यस्य जीवादेरनुयोग इति नाम क्रियते, 'उत्तर' इस नाम को ही नामोत्तर कहा जाता है। नाम्नो वा अनुयोगो नामानुयोगो नामव्याख्या, यदि अथवा जिस किसी जीवादि का 'उत्तर' ऐसा नाम वा नाम्नाऽनुरूपो योगो नामानुयोगः। (प्राव. नि. किया जाता है उसे नामोत्तर कहते हैं । मलय. वृ. १२६)।
नामोपक्रम-तत्र नामतश्चिरतरकालभाविनः सन्नि१ नाम का जो अनुयोग है उसे नामानुयोग (नाम. हितकाल एव करणं नामोपक्रमः । (उत्तरा. नि. व्याख्या) कहते हैं । अथवा जिसका 'अनुयोग' ऐसा शा. व. १-२८, पृ. ३१) । नाम है उसे नामानयोग कहा जाता है। नाम के चिरतर काल में होने वाले कार्य के निकटवर्ती काल अनुरूप योग भी नामानुयोग कहलाता है। में करने को नामोपक्रम कहते हैं। नामान्तर-णामंत रसद्दो बज्झत्ये मोत्तूण अप्पा- नारक- देखो नरत । १. नरकेषु भवा नारकाः । णम्हि पयट्टो। (धव. पु. ५, पृ. १-२)।
(त. भा. ३-३; त. वा. २,५०, ३) । २. ण रबाह्य अर्थ को छोड़कर अपने आप में प्रवत्त 'अन्तर' मंति जदो णिच्च दवे खेत्ते य काल-भावे य । शब्द को नामअन्तर कहते हैं ।
अण्णोणेहि य णिच्चं तम्हा ते णारया भणिया ।। नामाल्पबहुत्व -अप्पाबहुप्रसद्दो णामप्पाबहुअं । (प्रा. पंचसं. १-६०; धव. पु. १, पृ. २०२ उद्.; (धव. पृ.५, पृ. २४१) ।
गो. जी. १४७)। ३. नरान् कायन्तीति नरकास्तेषु 'प्रल्पबहत्व' इस शब्द को नामप्रल्पबहत्व कहा। भवा नारकाः। (प्राव. नि. हरि. व. ६२८, प. जाता है।
२५१)। ४. नरान् कायन्तीति नरकाः, योग्यतया नामावश्यक-१. से कि तं नामावस्सयं? २ शब्दयन्तीत्यर्थः, तेषु भवा नारकाः। (नन्दी. हरि. जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाणं वा व. पृ. २६) । ५ नारका: शर्करासन्निविष्टोष्ट्रिताअजीवाणं वा तदुभयस्स वा तदुभयाणं वा प्रावस्स- कृतयः, तेषु भवा: अतिप्रकृष्ट दुःखोपेता: प्राणिनो एत्ति नाम कज्जइ से तं नामावस्सयं। (अनुयो. सू. नारकाः। (त. भा. सिद्ध. वृ. १-२२)। ६. न ६)। २. तत्र नाम अभिधानम्, नाम च तदावश्यकं रमन्ते महादुःखा ये द्रव्यादिचतुष्टये। ये परस्परतो
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
नारक]
६०१, जैन-लक्षणावली
नारकद्रव्यावीचीमरण
दीना नारकास्ते निरूपिताः॥ (पंचसं. अमित. को नारक प्राय के रूप में ग्रहण किया है वे द्रव्य १-१३७)। ७. नरानुपलक्षणात्तिरश्चोऽपि, योग्य- प्रत्येक समय में निरन्तर मरते हैं-निषेकक्रम तानतिक्रमेण कायन्त्याकारयन्तीति नारकाः सीमन्त. से क्षीण होते हैं. इसी का नाम नारककालावीचिकादयस्तेष भवाः नारकाः नरकायनरकगत्यादिकर्मो- मरण है। दयवशवर्तिनः । (संग्रहणी दे. वृ. १, पृ. २)। नारकखेत्तावीचिमरण-जे णं णे रइया णेर इयc.xxx ये न रमन्ते--प्रीतिं न भजन्ते न खेत्ते वद्रमाणा जाई दवाइं र इयाउयत्ताए गहिसुख्यन्ति प्रन्योन्यश्च परस्परं च न रमन्ते, तस्मात्त ताई ताई दब्याई प्रावीचि अणुसमयं गिरतर मर. नरताः, नरता एब नारताः, स्वाथिका विधानात्, तीति कटट र इय खेत्ताबीचिमरणं । (उत्तरा. च. इति भणिता: पूर्वसूरिभिः। XXX गतिनाम- ५, पृ. १२७)। कर्मोत्तरप्रकृतिविकल्पो नारकगतिनामकर्म, तदु- नारकक्षेत्र में वर्तमान नारकी जीवों ने जिन द्रव्यों दयाज्जाना: नारकाः। अथवा नरान् कायन्ति कद- को नरकाय के रूप में ग्रहण किया है वे प्रत्येक थंयन्ति क्लेशयन्तीति नरकाणि अधोभूमिगतसीमन्ता- समय में निरन्तर मरते हैं-निषेक क्रम से निर्जीर्ण दिबिलानि, तेषु भवाः नारकाः, सहज शारीर-मानसा
होते हैं, इसी को नारकक्षेत्रावीचीमरण कहा गन्तुक-क्षेत्रर्दुःखैनिरन्तरसंक्लेशितपरिणामाः बह्वा- जाता है। रम्भ-परिग्रहत्वाद्यात रौद्रध्यानाजित नारकायु:कर्मो
नारक द्रव्यात्यन्तिकमरण-जे र इयदवे घटदयलब्धनारक भववृत्तयः सप्ताधोभूमिगता: पंचेन्द्रिय
मीणा जाई दवाई संपयं मरति ताई दवाई अणाजीवाः नारकाः इति संक्षेपतो ज्ञातव्याः । (गो. जी.
गते कालेण पुणो ण मरिस्संति तं र इयदव्यातियम. प्र.टी. १४७) । ६.xxx अन्योन्य: सह
तियमरणं भवति । (उत्तरा. च. ५, पृ. १२८)। नूतन-पुरातननारका: परस्परं च न रमन्ते, तस्मात्
नारकद्रव्य में वर्तमान नारक जीव जो द्रव्य कारणात ते जीवाः नरता इति भणिताः, नरता
इस समय मरते हैं-उन्हें छोड़ते हैं-उन्हें भविष्य एव नारताः।xxx अथवा नरकेषु जाता
में फिर से नहीं छोड़ेगे, यह नारक द्रव्यान्तिकनारका: xxx अथवा नरान् प्राणिन: कायति घातयति कदर्थयति खलीकरोति बाधत इति नरक
मरण कहते हैं। कर्म, तस्यापत्यानि नारकाः, तेषां गति: नारकगतिः। नारकद्रव्यावधिमरण-णेरइया रइयदवे वट. अथवा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावेष अन्योन्येष चारता: माणा जाई संपई मरति, जणं णे रइया ताई दव्बाई नरताः, तेषां गति रतगतिः। (गो. जी. जी. प्र. प्रणागते काले पुणो वि मरिस्संति ने रइए। (उत्तरा. टी. १४७)।
चू.५, पृ. १२८)। १ जो नरकों में होते हैं उन्हें नारक कहा जाता है। नारकद्रव्य में वर्तमान नारकी जिन द्रव्यों को इस २जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में तथा परस्पर समय निजीणं कर रहे हैं, प्रागामी काल में फिर में भी नहीं रमते हैं वे नारत या नारक कहलाते
भी उन्हीं द्रव्यों को निर्जीर्ण करेंगे, उसे नारक
भा उन्हा द्रव्या का निजाण करग, उसे हैं । ३ जो नरों (मनुष्यों-जीवों) को क्लेश पहुं- द्रव्यावधिमरण कहते हैं। चाने वाले नरकों में उत्पन्न होते हैं वे नारक कह- नारकद्रव्यावीचीमरण-जं ने रइया णेरइयदचे लाते हैं।
वट्टमाणा जाई दवाइं र इया उयत्ताए गहिताई नारककालावोचिमरण-जणेरइया नेरइयकाले ताई दवाइं प्रावीचि अणुसमयं णिरंतर मरतीति वट्टमाणा जाई दवाइं णेरइयाउयत्ताए गहिताई कटु णे रइयदवावीचिमरणं । (उत्तरा. चु. ५, पृ. ताई दवाइं आवीचि अणुसमयं णिरतरं मरतीति १२७)। कट्ट र इयकालावीचीमरण । (उतरा. च.५, नकद्रव्य में स्तमान नारको जीवों ने जिन द्रव्यों पृ. १२७)।
को नारक प्राय के रूप में ग्रहण किया है उनकी नारककाल में वर्तमान नारकी जीवों ने जिन द्रव्यों अपेक्षा प्रतिसमय में मरण होता है-वे प्रत्येक
ल.७६
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
नारकभवावीचीमरण] ६०२, जैन-लक्षणावली
[नाराचसंहनन समय में निषेक क्रम से क्षय को प्राप्त होते हैं, यही दीर्घकालं जीवति तत् नारकायुः । (त. वृत्ति श्रुत. नारकद्रव्यावीचीमरण कहलाता है।
८-१०)।
१ जिस कर्म के निमित्त से तीन शीत-उष्ण की ना कभवावीचीमरण-जंणं णेर इया रइय भवे
वेदना वाले नरकों में दीर्घ काल तक जीवित रहना बट्टमाणा जाई दवाई र इयाउप्रत्ताए गहिताई
पड़ता है उसे नारक प्राय कहते हैं । ३ पृथिवी के ताइ दवाई प्रावीचि अणुपमयं णिरतर मरतीति
विशेष परिणमन रूप उत्पत्ति व पीडा के स्थानों को कटटु णे रइयभवावीचीमरणं । (उत्तरा. चू. ५, पृ.
नरक कहा जाता है। उन नरकों से सम्बद्ध जीव १२७)।
भी वहाँ स्थित रहने के कारण नरक कहलाते हैं। नारकभव में वर्तमान नारक जीवों ने जिन द्रव्यों
इन नरकों (नारक जीवों) की प्राय का नाम नारक को नारक वायु के रूप में ग्रहण किया है उन्हें जो प्रतिसमय निषकक्रम से निर्जीर्ण किया जाता है,
प्राय है। इसका नाम नारकभवावीचीमरण है।
नारत-देखो नारक।
नाराचसंहनन-१. तदेवोभयं बनाकारबन्धनव्यनारकभावावीचीमरण-जण्णं रइयभावे वट्ट- पेतमवलयबन्धनं सनाराचं नाराचसंहननम् । (त. माणा जाई दव्वाई र इयाउयत्ताए गहिताइ ताइ वा. ८, ११,६)। २. जस्स कम्मस्रा उदएण वज्जदव्वाइ प्रावीची अणुसमयं णिरंतरं मरतीति कट्ट
विसेसणरहिदणारायणखोलियानो संघीयो हवं ति ो रइयभावाबीचियमरणं । (उत्तरा. चू. ५, पृ. तण्णारायणसरीरसंघडणं णाम । (घव. पु. ६, पृ. १२७)।
७४)। ३. मर्कटबन्धः य उभयपाश्र्वयोरस्थिबन्धः नारकभाव में वर्तमान नारकी जीवों ने जिन द्रव्यों
स किल नाराच:xxx नाराचनाम्नि तु मर्कटको नारक प्रायु के रूप में ग्रहण किया है उन द्रव्यों बन्ध एव केवलो न कीलिका न पट्टः। (त. भा. को जो प्रत्येक समय में निरन्तर निषेकक्रम से
सिद्ध. वृ. ८-१२)। ४. यस्य कर्मण उदयेन वचनिर्जीर्ण किया जाता है, इसका नाम नारकभावावी. विशेषणरहितोऽस्थिबन्धो नाराचकलितो भवति तत्त. चीमरण है।
तीयम् । (मूला. व. १२-१६४)। ५. उभप्रो नारकानुपूर्वी-देखो नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम। मक्कडबंधो नाराम्रो होइ विन्नेनो । (संग्रहणी नारकायु-१. नरकेषु भवं नारकमायुः,xxx ११७)। ६. यत्रास्थ्नोर्मकटबन्ध एव के बलस्तन्नानरकेषु तीव्रशीतोष्णवेदनेषु यन्निमित्तं दीर्घजीवनं राचसंज्ञं तृतीयं संहननम् । (जीवाजी. मलय.. तन्नारकम् (प्रायः)। (स. सि. ८-१०; त. श्लो. १३, प. १५)। ७. यत्र स्वस्थनां मर्कटबन्ध एव ८-१०)। २. नरकेषु तीव्रशीतोष्णवेदनेषु यन्नि- केवलो भवति तत्संहननं नाराचम् । (प्रज्ञाप. मलय. मित्तं दीर्घजीवनं तन्नारकायुः। नरकेषु तीव्रशोतो- वृ. २६३, पृ. ४७२) । ८. यत्रास्थनोर्मकंटबन्ध एव ष्णवेदनाकरेषु यन्निमित्तं दीर्घजीवनं भवधारणं केवलस्तन्नाराचम् । (संग्रहणी वे. वृ. ११७, पृ. भवति तन्नारकायुः। (त. वा. ८, १०, ५)। ५८)। ६. यस्य कर्मण उदयेन वनविशेषणेन ३. तत्र नरका उत्पत्तियातनास्थानानि पृथिवीपरि. रहितनाराचकीलिता अस्थिसन्धयो भवन्ति तन्नाणतिविशेषाः, तत्सम्बन्धिनः सत्त्वा अपि तात्स्थ्या - राचशरीरसंहननं नाम । (गो. क. जी. प्र. ३३)। न्नरकाः, तेषामिदमायु रकम् । (त. भा. हरि.व १०. वज्राकारेण वलयेन च रहितं नाराचसंहननसिद्ध. व. ८-११)। ४. जेसि कम्मक्खंधाणमुदएण नाम । (त, वृत्ति श्रुत. ८-११)। जीवस्स उद्धगमणसहावस्स णे र इयभवम्मि अवट्ठाणं १वज्राकार बन्धन और बलय बन्धन से रहित, पर होदि तेसि णिरयाउमिदि सपणा। (धव. पु. ६, प. नाराच से सहित हड्डियों का बन्धनविशेष जिस ४८); जं कम्म णि रयभवं धारेदि तं णिरयाउग्रं कर्म के उदय से होता है उसे नाराचसंहनन कहते णाम । (धव. पु. १३, प. ३६२)। ५. नरकेष हैं। ३ उभय पाश्र्व भागों में जो हड़ियों का मर्कटतीव्रशीतोष्णवेदनेषु दीर्घ जीवनं नारकमायुः। (गो. बष होता है उसका नाम नाराच है। नाराबसंक. जी. प्र. ३३) । ६. यदुदयात् तीव्रशीतोष्णदुःखेषु हनन मामकर्म के उदय से कोलिका और पट्ट से
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
नारी]
रहित केवल मर्कटबन्ध ही होता है । नारी - १. तारिसनो णत्थि श्ररी णरस्स प्रण्णेत्ति उच्चदे णारी । (भ. प्रा. ६७८ ) । २. स्तन-योनिमती नारी XX X 1 (पंचसं श्रमित. १- १६५ ) । १ जिसके समान नर (मनुष्य) का दूसरा श्ररि (शत्र) नहीं है उसे नारी कहा जाता है । २. जो स्तन और योनि से सहित होती है उसे नारी कहते हैं
नालिका - १. ते (लवा: ) ष्टा त्रिशदधं च नालिका ॥ ( त. भा. ४-१५) । २. सत्तत्तरिदलिदलवा णाली XXX ॥ ( ति प ४ - २८७ ) । ३. श्रट्ठत्तीसं तुलवा अद्धलवो चेव नालिया होइ। (ज्योतिष्क. १ - १० ) । ४. अठतीस लवे अद्धलवं च घेत्तूण एगा गालिया हवदि । ( धव. पु. ३, पू. ६५ ); श्रट्ठत्तीसद्धलवा णाली XX X 1 ( घव. पु. ३,८६ उदु.; भावसं. वे. ३१३, गो. जो. ५७५; जं. दी. प. १३ - ६ ) ; साद्धप्रवृत्ती सलवेहि णाली णाम कालो होदि । ( धव. पु. ४, पृ. ३१८ ) ।
१ साढ़े अड़तीस (३८३) लव प्रमाण काल को नालिका या नाली कहते हैं । नालो-देखो नालिका |
नावागति - १. जण्णं णावा पुब्ववेतालीप्रो दाहिणवेयालि जलपणं गच्छति, दाहिणवेतालियो वा प्रवरवेतालि जलपहेणं गच्छति से तं णावागती । (प्रज्ञाप. सू. २०५, पु. ३२७) । २. नावागतिर्यन्नावा महानद्यादो गमनम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २०५, पृ. ३२९) ।
१ नाव के द्वारा पूर्व वेताली से दक्षिण बेताली और दक्षिण वेताली से अपर वेताली को जलमार्ग से जाना, इसका नाम नावागति है । नाश - नाशः पुनः स्वभावप्रच्यवनम् । (सिद्धिवि. वृ. ८- २०, पृ. ५५४) ।
स्वभाव की युति का नाम नाश है । नासा संस्कार - प्रन्तर्मल - रोमापनोदादिको नासासंस्कार: । (भ. प्रा. मूला. ६३ ) । नासिका के भीतर के मल और रोमों के दूर करने आदि को नासासंस्कार कहते हैं । नास्ति वक्तव्य - १. आइट्ठोऽसब्भावे देसो देसो य उभयहा जस्स । तं णत्थि प्रवत्तव्वं च होइ दवियं वियप्पवता || (सन्मति १-३६, पू. ४७४ ) ।
६०.३, जैन - लक्षणावली
[निकाचनां
२. परद्रव्य-क्षेत्र काल- भावैश्च युगपत्स्व-परद्रव्यक्षेत्र काल- भावश्चादिष्टं नास्ति चावत्तव्यं द्रव्यम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १४ ) ।
१ द्रव्य के एक अंश या धर्म के असद्भाव में श्रीर दूसरे श्रंश के दोनों में- सदभाव श्रसद्भाव मेंयुगपत् विवक्षित होने पर 'नास्ति श्रवक्तव्य द्रव्य' नाम का छठा भंग होता है । २ परद्रव्य-क्षेत्र कालभाव से तथा युगपत् स्द और पर द्रव्य क्षेत्र- कालभाव से विवक्षित द्रव्य को नास्ति श्रवक्तव्यद्रव्य कहा जाता है ।
नास्तिक - देव गुरु धर्मरहिते पुसि नास्तिप्रत्ययः । ( नीतिवा २५- ६५, पृ. २५५) ।
देव, गुरु और धर्म से रहित उनके ऊपर श्रद्धा न रखने वाले - पुरुष के विषय में जो नास्ति' प्रत्यय होता है उसे नास्तिक कहा जाता है । नास्तिद्रव्य - १ प्रत्यंतर भू एहि णियएहि य XXX । ( सम्मति. १- ३६, पृ. ४४१) । २. परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भावेरादिष्टं नास्तिद्रव्यम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १४) ।
१ अर्थान्तरभूत-घट से भिन्न पट श्रादि की विवक्षा में 'नास्ति घट : ' ऐसा दूसरा भंग होता है । २ पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से द्रव्य का कथन करने पर 'नास्ति द्रव्य' कहा जाता है ।
निकाच-निकाचो निकाचनं च्छंदनं निमन्त्रणमित्यकार्थाः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ५-४६ ) 1 निकाच, निकाचन, छंदन और निमंत्रण ये समानार्थक हैं ।
निकाचना - देखो निकाचिता । ९. तस्सेव ( पुष्वपुट्ठस्स कम्मस्सेव ) तत्तसंकोट्टियलोहसलागासंबंधसरिसकिरिता निकायणा । ( कर्मप्र. चू. बं. क. २, पू. १८) । २. तथा 'कच बन्धने' नितरां कच्यतेस्वयमेव बन्घमायाति कर्म जीवस्य तथाविधसंक्लि - ष्टाध्यवसाय परिणतस्य तत्प्रयुङ्क्ते जीव एव, तथानुकूल्येन भवनात् ततः प्रयोक्तृव्यापारे णिज्, ततो निकाच्यते अवश्यं वेद्यतया व्यवस्थाप्यते जीवेन यया सानिकाचना । अथवा 'कच बन्धने' इति चौरादिकोsप्यस्ति ततो निकाच्यते श्रवश्यं वेद्यतया निबध्यते यया कर्म सा निकाचना जीववीर्यशेषपरिणतिः । ( कर्मप्र. मलय. वृ. ब. क. २, पृ. १६; पंचसं
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
निकाचित]
मलय. वृ. १, पृ. २) । ३. निकाचना पुनः सर्वकरयोग्यत्वमिति । (षडशी. हरि. वृ. ११, पृ. १५ ) । १ पूर्वस्पृष्ट कर्म को जो तपाकर घन से कूटी गई लोहे की शलाकाों के सम्बन्ध के समान क्रिया होती है उसे निकाचना कहते हैं । ३ कर्म की सब करणों के प्रयोग्य अवस्था का नाम निकाचना है । निकाचित - १. जं पदेसग्गं ण सक्कमोकट्टिदुमुक्क पिकामुदए दादुं वा तणिकाचिदं णाम ( धव. पु. ६, पृ. २३६); जं पदेसगं श्रोकडिदु णो सक्कं उक्कडिदु णो सक्कं अण्णपर्याड संकामिदं णो सक्कं उदए दादु णो सक्कतं पदेसग्गं णिकाचिदं णाम । ( धव. पु. १६, पृ. ५१७ ) ; जं पदेसग्गं ण वि श्रोकडिज्जदि [ण वि उक्कडिज्जदि ] ण वि संकामिज्जदि ण वि उदए दिज्जदि तं णिकाचिदं णाम । (धव. पु. १६. पू. ५७६) । २.X X X चउसु वि दादु कमेण णो सबकं । XX X णिकाचिदं होदिजं कम्मं ॥ ( गो . क. ४४० ) । ३. उदयावल्यां निक्षेप्तुं संक्रम वितुमुत्कर्षयितुमपकर्षयितुं चाशत्रय तन्निकाचितं नाम । ( गो . क. जी. प्र. टी. ४४० ) ।
१ कर्म के जिस प्रदेशपिण्ड का न श्रपकर्षण हो सकता है, न उत्कर्षण हो सकता है, न अन्य प्रकृति रूप संक्रमण हो सकता है, और न उदय हो सकता है उसे निकाचित कहा जाता है । निकाचिता - देखो निकाचित । निकाचिता तु स्पृष्टानन्तरभाविनी XX X बद्धं नामात्मप्रदेशः सहश्लिष्टम् । यथा सूचयः कलापीकृताः परस्परेण बद्धा कथ्यन्ते, ता एवाग्नौ प्रक्षिप्तास्ताडिताः समभिव्यज्यमानान्तराः स्पृष्टा इति व्यपदिश्यन्ते, ता एव यदा पुनः पुनः प्रताप्य धनं घनेन ताडिता: प्रन
स्वत्रिमागा एकपिण्डतामितास्तदा निकाचिता इति व्यपदेश मश्नुवते, एवं कर्माप्यात्मप्रदेशेषु योजनीयम् । ( त. भा. सिद्ध वृ. १-३, पू. ३८) । जिस प्रकार लोहे की शलाकाओं को एकत्रित करने पर वे परस्पर बद्ध कही जाती हैं, फिर उन्हीं को प्राग में डालकर ताड़ित करने पर अन्तर के स्पष्ट रहते हुए स्पृष्ट कहा जाता है, तत्पश्चात् उन्हों को जब बार-बार तपा कर धन से खूब ताडित करते हैं तब अन्तर से रहित होकर वे एकपिण्ड बन जाती हैं, उनकी इस अवस्था को
[ निकृति
निकाचित कहा जाता है। इसी प्रकार कर्म भी श्रम से श्रात्मप्रदेशों से बद्ध व स्पष्ट होते हुए निकाचित श्रवस्था को प्राप्त होते हैं । निकाय - १. देवगतिनामकर्मोदयस्य स्वधर्मविशेषापादितभेदस्य सामर्थ्यान्निचीयन्त इति निकाया: संघाताः । ( स. सि. ४ - १ ) । २. स्वधर्मविशेषापादितसामर्थ्यात् निचीयन्ते इति निकायाः । देवगतिनामकर्मोदयस्वधर्मविशेषापादितसामर्थ्यान्निचीयन्त इति निकायाः, संघाताः इत्यर्थः । (त. वा. ४, १, ३) । ३. स्वधर्मविशेषापादितसामर्थ्यान्निचीयन्त इति निकाया: । (त. इलो. ४-१ ) ।
१ अपने धर्मविशेष से प्राप्त अनेक भेदों वाले देवगति नामकर्म के उदय के प्रभाव से जो समुदाय को प्राप्त होते हैं वे निकाय कहलाते हैं । निकायकाय - नियतो नित्यः कायो निकायः, नित्यता चास्य त्रिष्वपि कालेषु भावात् । श्रधिको वा कायो निकायः, यथा अधिकदाहो निदाह इति । प्राधिक्यं चास्य धर्माधर्मास्तिकायापेक्षया स्वभेदापेक्षया वा । तथाहि — एकादयो यावदसंख्येया: पृथिवीकायिकास्तावत्कायस्त एव स्वजातीयाग्यप्रक्षेपापेक्षया निकाय इति, एवमन्येष्वपि विभाषा । इत्येवं जीबनिकायसामान्येन निकायकायो भण्यते । अथवा जीवनिकायः पृथिव्यादिभेदभिन्नः षड्विधोऽपि निकायो भण्यते तत्समुदायः एवं च निकायकाय इति । ( भाव. नि. हरि. वृ. १४३६, पृ. ७६८ ) ।
नित्य काय अथवा अधिक काय का नाम निकाय है । पृथिवोकायादिगत यह अधिकता धर्म-अधर्म श्रस्तिकायों की अपेक्षा श्रथवा अपने भेदों की अपेक्षा समझना चाहिए। एक से लेकर असंख्येय पृथिवीकायिक तक काय कहलाते । वे ही अपनी जातिगत अन्य भेदों के प्रक्षेप की अपेक्षा निकाय कहलाते हैं । यही क्रम अन्य जलकायिकादिकों के विषय में जानना चाहिए। इस प्रकार से बने हुए छहों निकायों के समुदाय को निकायकाय कहा जाता है।
६०४, जैन - लक्षणावली
निकृति - १. निकृतिर्वञ्चना | मणि सुवर्ण रूप्याभासदानतो द्रव्यान्तरादानं निकृतिः । ( धव. पु. १२, पृ. २८५ ) । २. निक्रियतेऽनया परः परिभूयत इति निकृति: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ८ - १० ) ।
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
निकृतिवाक्]
६०५, जैन-लक्षणावली
[निक्षेप
पाहा
३. अतिसन्धान कुशलता धने कार्य वा कृताभिला- इस प्रकार से जो वसति दी जाती है वह निक्षिप्त षस्य वंचना निकृतिः । (भ. प्रा. विजयो. २५)। दोष से दूषित होती है। १ निकृति का अर्थ होखा देना है, अभिप्राय यह है निक्षेप–१. निक्षिप्यत इति निक्षेपः स्थापना ।
गावटी (नकली) मणि, सोना अथवा चांदी (स. सि. ६-६) । २. विस्तरेण लक्षणतो विधानदेकर बदले में अन्य द्रव्य के ग्रहण करने को निकृति तश्च अधिगमार्थं न्यासो निक्षेप इत्यर्थः। (त. भा. कहा जाता है । ३ दूसरों के ठगने की कुशलता को १-५)। ३. तथा निक्षिप्यते अनेनेति अस्मिन निकृति कहते हैं । अथवा धन या कार्य की अभि- वेति निक्षेपणं वा निक्षेपः, 'क्षिप प्रेरण इति नियतो लाषा रखने वाला जो दूसरों को ठगता है उसे निश्चितो वा क्षेपः निक्षेपः, न्यासः स्थापनेति निकृति समझना चाहिए।
यावत् । (उत्तरा. च. १, पृ. ६)। ४. निक्षिप्यत निकृतिवाक-वणि व्यवहारे यामबधार्य निकृति- इति निक्षेपः । XXX अथवा Xxx निक्षिप्रवण प्रात्मा भवति सा निकृतिवाक । (त. वा. १, प्तिनिक्षेपः। (त. वा. ६, ६, १)। ५. ज्ञानं २०, १२, पृ. ७५; धब. पु. १, पृ. ११७)। प्रमाणमात्मादेरुपायो न्यास इष्यते । (लघीय. ५२); व्यापार में जिस ववन के प्राश्रय से प्रात्मा ठगने तदधिगतानां वाच्यतामापन्नानां वाचवेषु भेदोपमें तत्पर होता है उसे नि कृतिवाक कहा जाता है। न्यासः न्यासः । (लघीय. स्वो. वि. ७४)। ६.निनिक्षिप्तदोष-१. सच्चित्त पूढवि-पाऊ तेऊ हरिदं क्षेपोऽनन्तकल्पश्चतुरवरविधः प्रस्तुतव्याक्रियार्थः, च बीय-तसजीवा। ज तेसिमूवरि ठविदं णिक्खित्तं तत्त्वार्थज्ञान हेतुईयनय विषयः संशयच्छेदकारी । होदि छन्भेयं ॥ (मूला. ६-४६)। २. निक्षिप्तः शब्दार्थप्रत्ययाङ्ग विरचयति यतस्तद्यथाशक्ति भेद, स्थापितः, सचित्तादिषु परिनिक्षिप्तमाहार यदि वाच्यानां वाचकेषु श्रुतविषयविकल्पोपलब्धेस्ततः गृह्णाति साधुस्तदा तस्य निक्षिप्तदोषः। (मला. व.. स:।। (सिद्धिवि. १२-१, पृ. ७३८)। ७. तथा ६-४६)। ३. सचित्तपद्मपत्रादौ क्षिप्तं निक्षिप्त- निक्षेपणं निक्षिप्यतेऽने नास्मादस्मिन्निति वा निक्षेप: संज्ञितम् । (प्राचा. सा. ८-४७)। ४. पृथिव्युदक- न्यासः स्थापनेति पर्यायाः । (प्राव. नि. हरि.व. तेजोवायू-वनस्पतिषु त्रसेषु च यदन्नाद्यचित्तमपि स्था- ७६, पृ. ५४, अनुयो. हरि. व. पु. २७) । पित तन्निक्षिप्तम् । (योगशा. स्वो. विव. १-३८, पृ. ८. णिच्छये णिण्णये खिवदि त्ति णिवखेवो। (धद. १३७) । ५.xxx निक्षिप्तमाहितम् । सचित्त- पु.१, पृ.१० पु. १३, पु. ३; पु. १४, पृ. ५१); क्ष्माग्नि-वार्बीज-हरितेष असेषु च ।। (अन. घ.५, संशये विपर्यये अनध्यवसाये वा स्थितं तेभ्योऽपसार्य ३०)। ६. सचित्तपृथिव्यादेस्त्रसानां वा उपरि पीठ- निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः । अथवा बाह्यार्थविकल्पो फलकादिकं स्थापयित्वा अत्र शय्या कर्तव्येति या निक्षेपः, अप्रकृतनिराकरण द्वारेण प्रकृतप्ररूपको दीयते वसतिः सा निक्षिप्ता। (भ. प्रा. मूला. टी. वा। उक्तं च-अपगयनिवारणठं पयदस्स परू. २३०)। ७. सचित्तपद्मपत्रादौ यत्क्षिप्तं तन्निक्षि- वाणिमित्तं च । संसयविणासणठें तच्चत्थवधारप्तम् । (भावप्रा. टी. ६६)। ८. सचित्तपृथिव्यप्ते- णठं च। (धव. पु. ४, पृ. २); बज्झत्थवियप्पपरूजोवायू-वनस्पति-बीजानां त्रसानामुपरि स्थापितं वणा णिवखेवो णाम, अणघिगदत्थणिराकरणदवारण पीठ-फलकादिकम् 'अत्र मया[त्वया] शय्या कर्तव्या' अधिगदत्थपरूवणा वा। (धव. पु. ६, पृ. १४०, या दीयते वसांतः सा निक्षिप्ता। (कातिके. टी. १४१); संशय-विपर्ययानध्यवसायस्थित जीवं ४४८-४६)।
निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः, अप्रकृतापोहन मुखेन १ जो पृथिवी, जल, तेज, हरित, बीजकाय और प्रकृतप्ररूपणाय अपितवाचकस्य वाच्यप्रमाणप्रतिपा
सकाय सचित्त हैं उनके ऊपर स्थापित भोज्य दनं वा निक्षेपः। (धव. पु. १३, पृ. ३८); संशयपदार्थ के ग्रहण करने पर निक्षिप्तदोष होता है। विपर्ययानध्यवसायेभ्योऽपसार्य निश्चये क्षिपतीति वह पथिवी आदि के भेद से छह प्रकार का है। निक्षेपः, बाह्यार्थविकल्पप्ररूपको वा। (धव, प. .८ सचित्त पृथिवी प्रादि के ऊपर प्रासन या पटिया १३, पृ. १९८)। ६. उपाय: कारणम् प्रात्मादिप्रादिको स्थापित कर 'यहां प्राप शयन कीजिए' ज्ञानस्य नामादि न्यासो निक्षेप. इष्यते । (न्यायकू.
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
निक्षेप] ६०६, जन-लक्षणावली
[निगमन ५२, पृ. ६५७); तदधिगतानाम्-श्रुत नयाधि. पुस्तक या कमण्डल प्रादि कोई भी वस्तु जब कहीं गतानां द्रव्य-पर्यायरूपाणां जीवादीनाम्, वाच्यतामा- पर रखी जाती है तब उसके रखने के स्थान को पन्नानाम्-साधारणस्वरूपाणाम्-xxxवाच- देखकर उसका मयूरपिच्छी से प्रतिलेखन करना केष जीवादिशब्देष भेदेन संकर-व्यतिकरव्यतिरेके. (झाड़ना), अथवा उसके पास में न रहने पर णोपन्यासो जीव'द्यर्थानां प्ररूपणं न्यासो निक्षेपः कोमल वस्त्र से प्रतिलेखन करना, इसका नाम इति यावत् । (न्यायकु. ७४, पु. ८०४)। १०. निक्षेपणासमिति है। धमिणि क्वचिद् धर्माणां नयाधिगतानां निक्षेपणं निक्षेपणी कथा-ततो निक्षेपणी तत्त्वमत निक्षेप. योजनम् अध्यारोपणं निक्षेपः । (सिद्धिवि.व. १२-१, कोविदाम् । (पपपु. १०६-६२)। पृ. ७३८)। ११. नियतं निश्चितं वा नामादि- यथार्थ मत के निक्षेप-प्रतिष्ठापन- में दक्ष (समर्थ) सम्भवत्पक्षरचनात्मक क्षेपणं न्यसनं निक्षेपः ।x कथा निक्षेपणी कथा कहलाती है। xx प्रत्र संग्रहश्लोकाः-xxx निक्षेपणं तु निक्षोदिम (निक्खोदिम)- पोक्खरणी-वावीनिक्षेपो नामादिन्यसनात्मकः॥ xxx (उत्तरा. कूव-तलाय-लेण-सूरंगादिदव्वं णिक्खोदणकिरिया. नि. शा. व. २८, पृ.१०); नियतं निश्चितं वा णिप्फण्णं णिक्खोदिमं णाम । णिक्खोदण खणणमिदि ऽऽसनम्-नामादिरचनात्मक क्षेपण न्यासः, निक्षेप वृत्तं होदि । (धव, पु. ६, पृ. २७३)।
या (उत्तरा. नि. शा.व. ६५, पृ. ७२)। पुष्करिणी, बावड़ी, मां तालाब, लयन (पर्वतीय १२. निक्षेपो नाम-स्थापना-द्रव्य-भावर्वस्तुनो न्यासः । पाषाणगह) और सुरंग प्रादि द्रव्य जो खोदने रूप (समवा. अभय. व. १४०)। १३. निक्षेपणं निक्षेपो क्रिया से सिद्ध होते हैं उनका नाम निक्षोदिम या नामादिन्यासः। (व्यव. भा. मलय.व. १, पृ १)। णिक्खोदिम है। १४. निक्षेपणं निक्षेपो नामादिभेदैः शास्त्रस्य न्यस- निगडदोष-१. निगडपीडित इव पादयोर्महदन्तनम् । (प्राव. नि. मलय. .७९)। १५. निक्षेपणं रालं कृत्वा यस्तिष्ठति कायोत्सर्गेण तस्य , निगाह. निक्षिप्यतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वा निक्षेपः--उप- दोषः। (मला. व. ७-१७१)। २. निगडितस्येव क्रमानीतव्याचिख्यासितशास्त्रस्य नामादिभियंसन- विवृतपादस्य मिलि तपादस्य वा स्थानं निगडदोषः । मित्यर्थः, निक्षेपो न्यासः स्थापनेति पर्यायाः। (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०, पृ. २५०)। (जम्बूद्वी. शा. वृ. पृ. ५)।
१सांकल के बन्धन से पीडित व्यक्ति के समान १ जिसे रखा जाता है उसे निक्षेप कहा जाता है। दोनों पैरों में भारी अन्तर कर जो कायोत्सर्ग से यह जीवाधिकरण का एक भेद है। २ लक्षण स्थित होता है वह निगड नामक कायोत्सर्ग दोष
(भेद) पूर्वक विस्तार से जीवादि से लिप्त होता है। मूलाचार के अनुसार यह कायोतत्त्वों के जानने के लिए जो न्यास-नाम-स्थाप- त्सर्ग का सातवां और योगशास्त्र के अनुसार पाठवां नादि के भेद से विरचना या निक्षेप किया जाता दोष है। है उसे निक्षेप कहते हैं। ६ द्रव्याथिक व पर्याया- निगम-१. निगमो वणिग्जन निवास: । (प्रश्नध्या. थिक इन दोनों नयों का विषयभूत जो तत्त्वार्थ के अभय. व. १७५)। २. निगमः प्रभूततन्वणिग्वर्गाज्ञान का हेतु है वह निक्षेप कहलाता है। उसका वासः । (जीवाजी. मलय.बु. १-३६, पृ. ४०)। प्रयोजन प्रस्तुत की व्याख्या करके संशय को दूर १ जहां पर व्यापारी जन निवास करते हैं उसे करना है।
निगम कहते हैं। निक्षेपरणासमिति-देखो मादान-निक्षेपणसमिति। निगमन-१. निगमणं नाम जत्थ पसाहिए प्रत्ये यत्किचिद वस्त पुस्तक-कमण्डलूमुख्यं क्वचिन्निक्षि- प्रज्झत्थ हेऊणं पुणो कहणं कज्जइ एयं निगम प्यते मुच्यते ध्रियते तन्निक्षेपस्थानं दृष्ट्वा तथैव (दशवै. चू. १, पृ. ३९) । २. प्रतिज्ञायास्तु (उपप्रतिलिख्य च ध्रियते मयूरपिच्छस्यासन्निधाने मृदु- संहारः) निगमनम् । (परीक्षाम. ३-५१)।
याचित्तथा क्रियते निक्षेपणानाम्नी पञ्चमी ३. प्रतिज्ञाया उपसंहारः साध्यधर्मविशिष्टत्वेन . समितिः । (चा. प्रा. टी.३६)।
प्रदर्शनं निगमनम् । (प्र. र. मा. ३-५१)।
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
निगमनाभास ]
४. साध्यधर्मस्य पुनर्निगमनम् । (प्र. न. त. ३, ४८) । ५. साध्यस्य निगमनम् । ( प्रमाणमी. २, १, १५ ) ; साध्यधर्मस्थ धर्मिण्युपसंहारो निगभ्यते पूर्वेषामवयवानामर्थोऽनेनेति निगमनम् । यथा तस्मा दग्निमानिति । ( प्रमाणमी. स्वो वृ. २, १, १५) । ६. हेतुपूर्वकं पुनः पक्षवचनं निगमनम् । ( न्यायवी. पु. ७६) ।
१ जहाँ प्रसाधित प्रर्थ के विषय में अध्यात्म हेतु प्रों का फिर से कथन किया जाता है, इसे निगमन कहते हैं । २ प्रतिज्ञा के उपसंहार को - साध्यधर्मविशिरूप से दिखलाने को – निगमन कहा जाता है । निगमनाभास १. उक्तलक्षणोल्लंघनेनोपनयनिगमनयोर्वचने तदाभासो । X X X तस्मिन्नेव प्रयोगे तस्मात् कृतकः शब्दः इति, तस्मात् परिणामी कुम्भ इति च । (प्र. न. स. ६-८० व ६-८२ ) । २. मत्रापि साधनधमं साध्यधर्मिणि साध्यधर्मं वा दृष्टान्तमणि उवसंहरतो निगमनाभासः । (रत्ना करा. ६-८२) ।
२ साधनधमं के साध्यधमों में या साध्यधमं के दृष्टान्तधर्मों में उपसंहार करने को निगमनाभास कहते हैं ।
निगोद - १. निगोदा जीवाश्रयविशेषाः । ( जीवा मी. मलय वृ. ५, २, २३८, पु. ४२३ ) । २. नियतां गां भूमि क्षेत्र निवासमनन्तानन्तजीवानां ददातीति निगोदम् । (गो. जी. जी. प्र. टी. १६१; कार्तिके. टी. १३१) ।
१ जीवों के श्राश्रयविशेषों का नाम निगोद है । २ जो पनन्तानन्त जीवों को नियत गो (भूमि या क्षेत्र) को देता है उसे निगोद कहते हैं । निगोवजीव-जेसिमणंताणंतजीवाण मेक्कं चेव सरीरं भवदि साधारणरूवेण ते णिगोदजीवा भण्णंति । (घव. पु. ३, पृ. ३५७ ); प्रत्थि श्रणंता जीवा जेहि ण पत्तो तसाण परिणामो । भाव कलंक इपउरा णिगोदवासं ण मुंचति ।। (घव. पु. ४, पु. ४७७ उब्.); णिगोदेसु जीवंति, णिगोदभावेण वा जीवंति त्ति णिगोदजीवा । (घव. पु. ७, पृ. ५०६ ) । -जिन धनन्तानन्त जीवों का साधारण रूप से एक ही शरीर होता है वे निगोदजीव कहलाते हैं । निगोदशरीर - देखो निगोद | निगोदं शरीरं येषां ते मिगोदशीराः । (गो. जी. मं. प्र. जी.
-
[ नित्य
प्र. टी. १६१; कार्तिके. टी. १३१) । जिन जीवों का शरीर निगोद होता है वे निगोदशरीर (निगोदिया) कहलाते हैं ।
निग्रह - १ तस्य (योगस्य ) स्वेच्छाप्रवृत्तिनिवर्तन निग्रहः । ( स. सि. ६-४ ) । २. प्राकाम्याभावो निग्रहः । प्राकाम्यं यथेष्टं चारित्रम् तस्याभावो निग्रहः इत्याख्यायते । (त. वा. ६, ४, २ ) । ३. प्रास्तां तावदलाभादिरयमेव हि निग्रहः । न्यायेन विजिगीषूणां स्वाभिप्रायनिवर्तनम् ॥ ( न्यायवि. २ - २१४) । ४. प्राकाम्याभावो निग्रहः । (त. इलो. ६-४) । ५. स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽत्यवादिनः । ( न्याववि. वि. २-२१२, पृ. २४३ ) । ६० सः ( स्वपक्षासिद्धिरूपः पराजयः ) निग्रहो वादि-प्रतिवादिनो: । ( प्रमाणमी. २,१, ३३) ।
१ योग को स्वच्छन्द प्रवृत्ति को दूर करना, इसका नाम योग का निग्रह या गुप्ति है । ३ ग्राम सुवर्णादि की प्राप्ति श्रथवा पूजादि की प्राप्ति के प्रभाव को निग्रह कहा जाय, यह तो रहे; वस्तुतः वाद में विजयाभिलाषी प्रवादियों के अभिप्राय का निराकरण करना, इसे निग्रह का स्वरूप समझना चाहिए । निग्रहबुद्धि- द्वेषवशादुपवासादिना शरीरादेः कदनामिप्रायो निग्रहबुद्धि: । ( समाधि. टी. ६१) । द्वेष के वश उपवासादि के द्वारा शरीरादि के पीडित करने के अभिप्राय को निग्रहबुद्धि कहते हैं । निग्रहस्थान - XXX तस्मान्निराकृतपक्षत्वमेव निग्रहस्थानम् । (सिद्धिवि. वि. ५-६, पृ. ३३२ ) । अपने पक्ष के निराकृत ( खण्डित) हो जाने का नाम निग्रहस्थान है ।
नित्य - १. तद्भावाऽव्ययं नित्यम् । (त. सू. ५, ३१) । २. यत् सतो भावान्न व्येति, न व्येष्यति तन्नित्यमिति । ( त. भा. ५-३० ) । ३. अनाद्यनन्त सर्वकाल कस्वरूपं नित्यम् । (ग्रा. मी. वसु. वृ. १०) । ४. द्रव्यलक्षणान्त रंगनिमित्त योगान्नित्यत्वम् । (स्वयंभू. टी. ४३ ) । ५. पूर्वावस्थाविगमेप्युत्तरपर्यायसमुत्पादे हि । उभयावस्थाव्यापि च तद्भावाव्ययमुवाच तन्नित्यम् ॥ २-१६) ।
अध्यात्मक.
६०७, जैन- लक्षणावली
१ तद्भाव - वस्तुस्वभाव - का विनाश न होना, इसका नाम नित्य है । अभिप्राय यह है कि वस्तु
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
नित्यनिगोत, नित्यनिगोद] ६०८, जैन-लक्षणावली
[नित्यमह जिस रूप से पूर्व में देखी गई है उस रूप का सदा का दोष होता है । बना रहना, यही उस वस्तु को नित्यता है । २ जो नित्यपूजा-देखो नित्यमह। १. स्वगेहे चैत्यगेहे वा वस्तु सत्-अन्वयी अंश-से विनष्ट नहीं होती है जिनेन्द्रस्य महामहः। निर्माप्यते यथाम्नाय नित्यउसे नित्य कहा जाता है।
पूजा भवत्यसो ॥ (भावसं. वाम. ५५५)। २. जलानित्यनिगोत, नित्यनिगोद-१. विष्वपि कालेषु दुधातपूताङ्ग हान्नीत जिनालयम् । यदच्यन्ते जिना त्रसभावयोन्या ये न भवन्ति ते नित्यनिगोताः। युक्त्या नित्यपूजाऽभ्यधायि सा ।। (घर्मसं.धा. ६, (त. वा. २, ३२, २७) । २. जे सबकालं णिगो- २७)। देसु चेव अच्छति ते णिच्चणिगोदा णाम । (धव. पु. १ अपने घर पर अथवा चैत्यालय में जो प्राम्नाय १४, प. २३६) । ३. अस्थि अणंता जीवा जेहिं ण के अनुसार जिनेन्द्र की पूजा की जाती है उसे पत्तो तसाण परिणामो। भावकलंकइपउरा णिगो- नित्यपूजा कहते हैं। दवासं ण मंचंति ।। (धव. पु. ४, पृ. ४७७ उद्, गो. नित्यमरग-नित्यमरणं समये समये स्वायुरा. जी. १९७)। ४. सत्वं ये प्रपद्यन्ते कालानां त्रितये- दीनां निवृत्तिः । (त. वा. ७, २२, २, चा. सा. ऽपि नो । ज्ञेया नित्यनिगोतास्ते भूरिपापवशीकृताः। पृ. २३)। (अन. ध. स्वो. टी. ४-२२ उद्.)। ५. यनिगोदजीव. प्रतिसमय जो आयु आदि का विनाश होता रहता स्त्रासानां द्वीन्द्रियादीनां परिणामः पर्यायः कदाचि- है-उनकी उत्तरोत्तर हीनता होती जाती है-उसे दपि न प्राप्तः ते जीवा अनन्तानन्ता अनादी संसारे नित्यमरण कहते हैं। निगोदभवमेवानुभवन्तो नित्यनिगोदसंज्ञा सर्वदा नित्यमह-देखो नित्यपूजा। १. तत्र नित्यमहो सन्ति । xxx एकदेशाभावविशिष्टसकलाथ- नाम शश्वत् जिनगृहं प्रति । स्वगृहान्नीयमानावाचिना प्रचुरशब्देन कदाचिदष्ट समयाधिकषण्मासा- ऽर्चा गन्ध-पुष्पाक्षतादिका॥ चैत्य-चैत्यालयादीनां भ्यन्तरे चतगतिजीवराशे निर्गत्य अष्टोत रषट्शत- भक्त्या निर्मापणं च यत् । शासनीकृत्य दानं च जीवेष मुक्ति गतेष तावन्तो जीवा नित्यनिगोदभवं ग्रामादीनां सदार्चनम् ।। या च पूजा विमुच्य चतू गतिभवं गच्छन्तीत्ययमर्थः प्रतिपादितो नित्यदानानुषङ्गिणी। स च नित्यमहो ज्ञेयो यथाज्ञातव्यः । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. १९७)। शक्त्युपकल्पितः ॥ (म. पु. ३८, २७-२६) । १जो जीव तीनों ही कालों में त्रस पर्याय के योग्य २. नित्यमहो नित्यं यथाशक्ति जिनगृहेभ्यो निजनहीं होते हैं वे नित्यनिगोत या नित्यनिगोद कह- गृहाद् गन्ध-पुष्पाक्षतादिनिवेदनं चैत्य चैत्यालयं लाते हैं। ५ गोम्मटसार जी बकाण्ड की उक्त गाथा- कृत्वा ग्राम-क्षेत्रादीनां शासनदानं मुनिपूजनं च । गत 'प्रचुर' शब्द के अनुसार पाठ समय अषिक (चा. सा. पृ. २१, कातिके. टी. ३६१)। ३. प्रोक्तो छह मासों के भीतर जब ६०८ जीव चतुर्गति नित्यमहोऽन्वहं निजगृहान्नीतेन गन्धादिना पूजा सम्बन्धी जीवराशि में से निकल कर मक्ति को चैत्यगृहेऽहंतः स्वविभवेश्चत्यादिनिर्मापणम् । भक्त्या प्राप्त हो जाते हैं तब उतने ही जीव नित्यनिगोद ग्राम-गृहादिशासनविधादान त्रिसाध्याश्रया सेवा अवस्था को छोड़कर चतुर्गति जीवराशि में प्रा स्वेऽपि गृहेऽर्चनं च यमिनां नित्यप्रदानानुगम् ।। जाते हैं।
(सा. घ. २-२५)। ४. तेषु नित्यमहो नाम स नित्यपिण्ड-प्रतिदिनं तवैतावन्मानं दास्यामि, नित्यं यज्जिनोऽर्यते । नीतश्चंत्यालयं स्वीय गेहाद मद्गृहे नित्यमागन्तव्यमिति निमंत्रितस्य नित्यं गन्धाक्षतादिभिः ।। (प्रतिष्ठासा. १-५)। ५.नित्यं गृह्णतो नित्यपिण्डः। (प्रव. सारो. व. १०५, पृ. स्वयं निजगृहाज्जल-चन्दनादि लात्वा जिनेन्द्रभवने २५)।
किल भावशुद्धया। ईपियप्रचलनेन शुभोपयोगाआपके लिए मैं इतना पाहार प्रतिदिन दूंगा, प्राप दर्चा हि सा प्रतिदिनाचन मुक्त मुच्चः ।। (वसु. प्रति. मेरे घर पर गोवरी के लिए प्रतिदिन प्राइये, इस १३-५५) । प्रकार से निमत्रित होकर प्रतिदिन गृहस्थ के घर १ निरन्तर अपने घर से जिनालय में गन्ध-पुष्पादि जानेनौर प्राहार के ग्रहण करने पर नित्यपिण्ड नाम . सामग्री को ले जाकर पूजा करना, प्रतिमा और
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
नित्यमित्र
६०९, जैन-लक्षणावली
[निदान
जिनालय प्रादि का भक्तिपूर्वक निर्मापण कराना, पत्थणामइयं । महमं णिप्राणचितणमन्नाणाणुगयराजनियमानुसार प्रामादि का दान करना, तथा मच्चंतं ॥ (ध्यानश. ९)। ५. भोगाकाङ्क्षया शक्ति के अनुसार दानपूर्वक सदा मुनि जनों की नियतं दीयते चित्तं तस्मिस्तेनेति वा निदानम् । पूजा करना; इसे नित्यमह जानना चाहिए। विषयसुखोत्कर्षाभिलाषो भोगाकाङ्क्षा, तया नियतं नित्यमित्र-१. यः कारणमन्तरेण रक्ष्यो रक्षको चित्तं दीयते तस्मिस्ते नेति वा निदानम् । (त. बा. वा भबति तन्नित्यं मित्रम् । (नीतिवा. २३-२, पृ. ७, ३७, ६); सुख मात्रया प्रलम्भितस्याप्राप्तपूर्व. १६)। २. य: पुरुषः कारण विना रक्ष्यो रक्ष्यते, प्रार्थनाभिमुख्यादनागतार्थप्राप्ति निबन्धनं निदानम् । वा विकल्पेन रक्षको भवति तन्नित्यं मित्रमुच्यते, (त. वा. ६-३३)। ६. निदायते लूयतेऽनेनेति तथा च नारद:-रक्ष्यते वध्यमानस्तु अन्य निष्कारणं निदानम् अध्यवसायविशेषः, देवेश्बर-चक्रवर्ति-केशनरः। रक्ष्येद्वा वध्यमानं तन्नित्यं मित्रमुच्यते । वादीनामृद्धी विलोक्य तदीययोषितां वा सौभाग्यगुण(नीतिवा. टी. २३-२, पृ. २१६) ।
सम्पदमार्तध्यानाभिमुखीकृत: महामोहपाशसम्भूत: जो अकारण ही दूसरे के द्वारा रक्षणीय या दूसरे भूरितपश्वितापरिखेदितमनसाऽध्यवस्यति-ममाप्यका रक्षक होता है उसे नित्यमित्र कहते हैं। मुष्य तपसः प्रभावादेवंविधा एव भोगा भवेयुर्जन्मानिदर्शन-निश्चयेन दश्यतेऽनेन दार्शन्तिक एवार्थ न्तरे सौभाग्यादिगणयोगश्चेत्येवं निदाति लुनाति इति निदर्शनम् । (वशवै. नि. हरि. व. १-५२, पृ. क्षुद्रत्वात् छिनत्ति मौवतं सुखमिति । (त. भा. हरि. व ३४)।
सिद्ध. व. ७-१३); निपूर्वाहाते लेवनार्थस्य ल्युटि रूपम्, जहां पर दाष्टन्तिरूप अर्थ निश्चय से दिखाया निदायते लूयते येनात्महितमैकात्यन्तिका (सिद्ध. वृ. जाता है उसे निदर्शन (दृष्टान्त) कहते हैं। मैकान्तिकात्यन्तिका') नाबाघसुखलक्षणं तन्निदानिदा-तत्र नितरां निश्चितं वा सम्यक दीयते नम । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ६-३४) । चित्तमस्यां इति निदा, xxx सामान्येन चित्त- ७. निदानं दिव्यमानुद्धिसन्दर्शन-श्रबणाभ्यां तदभिवती सम्यग्विवेकवती वा इत्यर्थः । (प्रज्ञाप. मलय. लाभानुष्ठानम् । (माव. नि. हरि..४, १५७९)। कृ. ३३०, पृ. ५५७)।
८. चक्कवट्टि-बल-नारायण-सेट्टि-सेणावइ-पदादिपत्थजिस वेदना में अत्यन्त या निश्चितरूप से चित्त णं णिदाणं । (धव. पु. १२, पृ. २८४) । ६. निदा. दिया जाता है वह निदा वेदना कहलाती है। अभि- नविषयः स्मतिसमन्वाहारः निदानम् । (त. श्लो. ६, प्राय यह है कि सामान्य से चित्त वाली अथवा ३३)। १०. निदानम-प्रवखण्डनं तपसश्च सम्यक विवेकवाली वेदनाको निदा कहा जाता है। स्य वा, यदि अस्य तपसो ममास्ति फलं ततो जन्मानिदान-१. निदानं विषय-भोगाकांक्षा। (स.सि. न्तरे चक्रवर्ती स्यामधभरताधिपतिर्महामण्डलिक: ७-१८); भोगाकाङ्क्षया नियतं दीयते विसं सुभगो रूपवानित्यादि । (त. भा. सिद्धवृ.७, तस्मिस्ते नेति वा निदानम् । (स. सि. ७-३७; त. ३२) । ११. पुण्यानुष्ठानजातैरभिलषति पदं यज्जिश्लो. ७-३७); भोगाकाङ्क्षातुरस्यानागतविषय- नेन्द्रामराणां यद्वा तरेव वांछत्यहितकुलकूजच्छेदप्राप्ति प्रति मन:प्रणिधानं संकल्पश्चिन्ताप्रबन्ध- मत्यन्तकोपात् । पूजा-सत्कारलाभप्रभृतिकमथवा स्तुरीयमातं निदानम् । (स. सि. ६-३३)। याचते यद्विकल्पः स्यादातं तन्निदानप्रभवमिह नणां २. कामोपहतचित्तानां पुनर्भवविषयसुखगृद्धानां दुःखदावोग्रघाम । इष्ट भोगादिसिद्धयर्थ रिपृधातानिदानमार्तध्यानं भवति । (त. भा. ६-३४)। तमेव वा। यन्निदानं मनुष्याणां स्यादातं तत्तुरीय३. परिझयकामभोगसंपउत्ते तस्य प्रविप्पमोगभि- कम् ॥ (ज्ञाना. ३५-३६, पृ. २६०) । १२. निदानं कंखी सतिसमण्णागए यावि भवइ, तत्थ परिज्झति विषय भोगाकांक्षा । (चा. सा. पृ.४); विषयसुखो. वा पत्थणंति वा गिदित्ति वा ममिलासोत्ति वा त्कर्षाभिलाषभोगकांक्षतया नियतं चित्तं दीयते लेप्पत्ति वा कंखंति वा एग्गट्ठा। (दशवं. पू. १, तस्मिन् तेनेति बा निदानम् । (चा. सा. पृ. २४) । पृ. ३०)। ४. देविंद-चक्कवट्टित्तणाइगुणरिद्धि- १३. निर्विकारपरमचैतन्यभावनोत्पन्न परमाह्लादक
ल. ७७
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
निदान] ६१०, जैन-लक्षणावली
[निद्रा रूपसुखामृतरसास्वादमलभमानोऽयं जीवो दृष्ट-श्रुता. निदान नामक चौथा प्रार्तध्यान है। १० यदि इस नुभूतभोगेषु यन्नियत निरन्तरं चित्तं ददाति तन्नि- तप या चारित्र का कुछ फल मझे प्राप्त होने वाला दानशस्यम् । (प. द्रव्यसं. टी. ४२)। १४. इह लोके है तो उसके प्रभाव से मैं भवान्तर में चक्रवर्ती, यदि मम पुत्राः स्युः, परलोके यद्यहं देवो भवामि, अर्धचक्री, महामाण्डलिक, सुभग और सुन्दर होऊ; स्त्री-वस्त्रादिकं मम स्यादित्येवं चिन्तनं चतुर्थं इस प्रकार के विचार से जो अनष्ठित सप व (निदानं) प्रार्तध्यानम् । (मला. व. ५-१९८)। चारित्र का खण्डन करना है, इसका नाम निदान १५. नानोपायचयेन नीचचरितंभ्रान्त्वा विशाला- है। (यह शल्य के अन्तर्गत, प्रार्तध्यान के अन्तर्गत मिलामाभीलं मकराकरं च बहुशो तुच्छेच्छया प्राप्य तथा सल्लेखना के प्रतिचारों के अन्तर्गत है।) यत् । प्राप्यं पुण्यवता जनेन कनकं कान्तं च कान्ता- निदानमरण- ऋद्धि-भोगादिप्रार्थना निदानम, दिकं तत्कांक्षाक्षुभिता मतिबंत निदानातं महातिप्र. तत्पूर्वकं मरणं निदान मरणम् । (स्थाना. अभय.. दम् ॥ (प्राचा. सा. १०-१७)। १६. निदानं २, ४, ३०२, पृ. ८६)।.. देवादिऋद्धीनां दर्शन-श्रवणाभ्यामितो ब्रह्मचर्यादेर- ऋद्धि और भोगों की अभिलाषा को निदान कहते
मता भयासरित्यध्यवसायः । (समवा. हैं। इस निदानपूर्वक जो मरण होता है उसे निदान प्रमय. व. ३)। १७. ऋद्धि भोगादिप्रार्थना निदा- मरण कहते हैं। मम् । (स्थाना. अभय.व. २, ४, १०२); नितरां निद्रा-१. मद-खेद-क्लमविनोदार्थः स्वापो निद्रा। दीयते लयते मोक्षफलमनिन्द्यब्रह्मचर्यादिसाध्यं कुशल- (स. सि. ८-७; त. श्लो. ८-७; मला.. १२, कर्म-कल्पतरुवनमनेन देवर्द्धयादिप्रार्थनापरिणामनि- १८२)। २. यान्तं संस्थापयत्याशु स्थितमाशयते शितासिनेति निदानम् । (स्थाना. अभय.व. ३,३, शनैः । पासीनं शाययत्येव निद्रायाः शक्तिरीदशी ।। १८२, पृ. १४६)। १८. देवेन्द्र-चक्रवादिविभव- (वरांगच. ४-५३) । ३. मद-खेद-क्लमविनोदार्थ::: प्रार्थनारूपं निदानम् । (योगशा. स्वो. विव.३, स्वापो निद्रा। मद-खेद-क्लमानां विनोदाय य: स्वापो ७३) । १६. निदानं भाविभोगाद्याकांक्षणम। सा निद्रा इत्युच्यते । xxx यत्सन्निधानादात्मा (रत्नक. टी. ५-८)। २०. निदानं तपःसंयमाद्यनु-, निद्रायते कुत्स्यते सा निद्रा। द्रायतेर्वा स्वप्नक्रियस्य भावेन कांक्षाविशेषः। (सा. प. ४-१); निदान- निद्रा। (त. वा.८, ७,२); निद्रा-निद्रानिद्रोदयातमस्मात्तपसः सुदुश्चराउजन्मान्तरे इन्द्रश्चक्रवर्ती घर- मोमहातमोऽवस्था। निद्राया उदयात् तमोऽवस्था, णेन्द्रो वा स्यामहमित्येवमाद्यनागताभ्युदयाकांक्षा। XXX संजायते । (त. बा. ८, ७, १५)। (सा. प. ८-४५) । २१. निदानं विषयसुखाभि- ४. स्वापो निद्रा सुखप्रतिबोधलक्षणा। (त. भा. लाषः । (त. वृत्ति अत. ७-१८)। २२. निदान- हरि. व. ८-८)। ५. णिहाए तिव्वोदएण अप्पकालं शल्य विषयसुखाभिलाषः। (कातिके. टी. ३२६); सवइ. उदाविज्जतो लहं उटठेदि, अप्पसददेण वि निदानम , इहलोक-परलोकसुखाभिलाषलक्षणम । चेग्रइ। (घव. पु. ६, पृ. ३२); जिस्से पयडीए (कातिके. टी. ३२६); दृष्ट-श्रुतानुभवेह-परलोक- उदएण अद्ध जगतो सोवदि, धूलीए भरिया इव : भोगाकांक्षाभिलाषः निदानं चतुर्थमार्तध्यानं स्यात् । लोयणा होंति, गुरुवभारेणोद्धं व सिरम इभारियं (कातिके. टी. ४७३-७४)।
होइ सा णिद्दा णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३५४)। . १ विषयसुख की अभिलाषा रूप भोगाकांक्षा से ६. मद-खेदविनोदार्थः स्वापो निद्राधिकत्वतः। (ह.. जिसमें या जिसके द्वारा नियमित चित्त दिया जाता . पु.. ५८-२२७)। ७. xxx सुहपडिबोहो । है वह निदान कहलाता है। xxx भोगाकांक्षा णिद्दा xxx । (कर्मवि. २२) । ८. णिद्दुदये. से व्याकुल हुप्रा प्राणी भविष्य में विषयसुख की गच्छंतो ठाइ पुणो वइसइ पडेइ । (गो. क. २४)।। प्राप्ति के लिए जो मन से अनेक प्रकार का विचार ह. नितरां द्रान्ति-गच्छन्ति कुत्सितावस्थामिहामुत्र करता है, इसे निदान नामक चौथा प्रार्तध्यान कहा चानयेति निद्रा। (उत्तरा. मि. शा. ७. ४, पृ.:जाता है। २ मन में काम से पीडित होकर प्राणी: १९०)।.१०.. 'द्रा' कुत्सायां गतो नियतं द्राति.. जो सांसारिक सुख में गृद्धि को प्राप्त होते हैं, यह कुत्सितत्वमविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यमनयेति निद्रा
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
निद्रा ]
[ निद्रानिद्रा
सुखप्रबोधा स्वापावस्था, नखच्छोटिकामात्रेणापि यत्र प्रबोधो भवति । तद्विपाकवेद्या कर्म प्रकृतिरपि निद्रेति कार्येण व्यपदिश्यते । ( कर्मस्त. गो. व. १०, पृ. १४) । ११. सुखप्रवोधा स्वापावस्था निद्रा । ( जीवाजी. मलय. व. ३, २, ८९ ) । १२. नितरां द्राति- कुत्सितत्वम विस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यमनयेति निद्रा, X XX सुखप्रबोधा स्वापावस्था, यत्र नखच्छोटिकामात्रेणापि पुंसः प्रबोध: संपद्यते । तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि कारणे कार्योपचारा निद्रा । ( धर्मसं. मलय. वृ. ६१० ) । १३. 'द्रा' कुत्सायाम्, नियतं द्राति कुत्सितत्वमविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यं यस्यां स्वापावस्थायां सा निद्रा, यदि वा ' स्वप्ने' निद्राणं निद्रा नखच्छोटिकामात्रेण यस्यां प्रबोध उपजायते सा स्वापावस्था निद्रा, तद्विपाकवेद्या कर्म प्रकृतिरपि निद्रा, कारणे कार्योपचा रात् । ( प्रज्ञाप. मलय. व. २३- २६३, पृ. ४६७ । १४. दर्शनावरणीयकर्मोदयेन प्रत्यस्तमितज्ञानज्योतिरेव निद्रा (नि. सा. वृ. ६) । १५. भुक्तान्नपरिणाम-मद-खेद- क्लमादेविनोदार्थो निद्राख्यदर्शनावरण कर्मविशेषविपाकनिमित्तो जीवस्येन्द्रियात्ममनोमरुत्सूक्ष्मावस्थालक्षणः स्वापो निद्रा । (भ. श्री. मूला. २०६४) । १६. का निद्रा मूढता जन्तोः । ( प्रश्नो. मा. ११) । १७. यदुदयात् मंदखेद क्लमव्यपनोदार्थं स्वापः तन्निद्रादर्शनावरणम् । (गो क. जी. प्र. टी. ३३) । १८. सर्वदोन्निद्र केवल
गॅस साहियश्रावलियटुगं तु साहिए तंसे । ( पंचसं सं. क. ४८ ) । २. निद्राद्विकस्य निद्रा- प्रचलारूपस्य स्वसंक्रमान्ते स्वस्थिते संपरितनी या एकसम यमात्रा स्थितिः सा व्यंशे'-- तत एव समयमात्रायाः स्थिते रनन्तरमधस्तन्यामावलिकाया अघस्तने त्रिभागे-साधिके - समयाधिक प्रक्षिप्यते स जघन्यः स्थितिसंक्रमः । इदमुक्तं भवति - क्षीणकषायवीतरागष्ठद्मस्थो निद्राद्विकस्य द्वयोरावलिकयोस्तृतीयस्याश्चावलिकाया असंख्येयतमे भागे वर्त्तमानः सर्वोपरितन समयमात्रां स्थितिमपवर्तनाकरणेनाघस्तभ्यामावलि - कायास्त्रिभागे समयाधिके यत्प्रक्षिप्यते स निद्रादिकस्य जघन्यस्थितिसंक्रम; । (पंचसं मलय. व. सं. क. ४८, पृ. ५०-५१ ) । क्षीणकषाय- वीतराग छद्मस्थ संपत निद्रा और प्रचला की दो भावली तथा तृतीय भावली के असंख्यातवें भाग में वर्तमान होता हुआ समय प्रमाण सब उपरिम स्थिति को अपवर्तनावरण के द्वारा जो श्रधस्तन श्रावली के तृतीय भाग में प्रक्षिप्त करता है उसे निद्रा व प्रचला इन दोनों का जघन्य स्थितिसंक्रमण कहते हैं । निद्रानिद्रा - १ तस्या: ( निद्रायाः ) उपर्युपरि वृत्तिनिद्रानिद्रा । ( स. सि. ८-७; मूला. वृ. १२, १८८; त. इलो. ८-७ ) । २. वृक्षाग्रे वाथ रथ्यायां तथा जागरणेऽपि वा । निद्रानिद्राप्रभावेन न दृष्टधुद्घाटनं भवेत् || ( वरॉगच. ४-५० ) । ३. उपर्यु
ज्ञान-दर्शन नेत्रपरमात्मपदार्थविलक्षणनिद्रादर्शनावरण- परि तद्वृत्तिनिद्रानिद्रा । तस्या निद्राया उपर्युपरि
*६११, जैन- लक्षणावली
कर्मोदयेन स्वापलक्षणा निद्रा । ( श्रारा. सा. टी. २६, पृ. ३५-३६) । १६. मद- खेद - वलमविनाशार्थं स्वपनं निद्रा । (त. वृत्ति श्रुत. ८-७ ) ।
१ मंद, खेद व थकावट को दूर करने के लिए जो शयन किया जाता है उसे निद्रा कहते हैं । ४ जिस Fare (aar) में सुखपूर्वक जागरण होता है उसका नाम निद्रा है । १० जिसमें चेतनता कुत्सितपने या अस्पष्टता को प्राप्त होती है उस स्वाप प्रवस्था को निद्रा कहा जाता है । श्रथवा जिसमें नखच्छोटिका मात्र से सुखपूर्वक जागरण हो जाता है उसे निद्रा कहते हैं । इसका वेदन कराने वाली कर्मप्रकृति ( निद्रादर्शनावरण को भी निद्रा कहा जाता है । निद्राद्विकस्य जघन्य स्थितिसंक्रम- १. निद्दादु
पुनः पुनवृत्तिः निद्रानिद्रा इत्युच्यते । (तं. वा. ८, ७, ३) । ४. णिद्दाणिद्दाए तिब्वोदएण रुवखग्गे विसमभूमीए जत्थ वा तत्थ वा देसे घोरतो प्रधोरंतो वा ब्भिरं सोददि । (धव. पु. ६, पृ. ३१); जिससे पयडीए उदएण श्रइणिब्भरं सोददि, श्रण्णेहि उट्ठाविज्जतो विण उट्ठइ, स णिद्दाणिद्दा णाम | ( धव. पु. १३, पृ. ३५४) । ५. उपर्युपरि तद्वृत्तिनिद्रानिद्राभिधीयते । (ह. पु. ५८- २२७ )। ६. बीया पुण निद्दनिद्दा य ॥ सा दुक्खबोहणीया X xx । (कमंवि. ग. २२-२३) । ७. णिद्दाणिदुदयेण य ण दिट्टिमुग्धादिदु सक्को । (गो. क. २३ ) ! निद्रातोऽभिहितस्वरूपाया श्रतिशायिनी निद्रानिद्रा, शाकपार्थिवादिदर्शनात् 'मयूरव्यंसका• दयः' इति मध्यमपदलोपी समासः, तस्यां हि चैतन्य
८.
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
निद्रानिद्रा] ६१२, जैन-लक्षणावली
[निन्दा स्यात्यन्तमस्फुटीभूतत्वात् बहुभिर्घोलनाप्रकार ३. उदये संकममुदये चउसु वि दादु कमेण गो प्रबोधो भवति, ततः सुखप्रबोधहेतु निद्रातोऽस्या सक्कं । उवसंतं च णिवत्तं णिकाचिदं होदि प्रतिशायिनीत्वम, तद्विपाकवेधा प्रकृतिरपि निद्रा- कम्मं । (जं कम्मं संकममुदए दादु णो सक्कं तं निद्रा उपचारात् । (प्रज्ञाप. मलय.व. २३-२६३)। णिवत्तं होदि)। (गो. क. ४४०)। ४. णित्तिरुहै. निद्रातोऽभिहितस्वरूपाया प्रतिशायिनी निद्रा दयोदीरणा-संक्रमरूपैस्त्रिभिः करणयंदन्यथाकर्तन निद्रानिद्रा, xxx दुःखप्रबोधात्मिका स्वापा- शक्यते । (षडशी. हरि. व. ११,१.१५)। ५. उदवस्था। अस्यामस्फुटीभूतचैतन्यभावतो दुःखेन प्रभू- तनापवर्तनावर्जशेषकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापनं नि. तैघोलनादिभिः प्रबोधो जन्यत इति । (धर्मसं. घत्तिः । (कर्मप्र. मलय..बं.क. २, पृ.१७) । मलय.ब.६१०)।१०. तथा निद्रातिशायिनी निद्रा ६. निधीयते उद्वर्तनापवर्तनावर्जशेषकरणायोग्यत्वेननिद्रानिद्रा, शाकपार्थिवादित्वान्मध्यमपदलोपी व्यवस्थाप्यते यया सा निघत्तिः । (पंचसं.मलय.. समासः, सा पुनर्दुःखप्रबोधा स्वापावस्था। तस्यां बं.क. १, पृ. २; कर्मप्र. यशो..बं.क. २, पृ. प्रत्यर्थमस्फुटतरीभूतचैतन्यत्वाद् दुःखेन बहुमि?- १८)। ७. यत् कर्म उदयावल्यां निक्षेप्तुसंक्रमयितु लनादिभिः प्रबोधो भवति, प्रतः सुखप्रबोधनिद्रापे. चाशक्यं तन्निघत्तिर्नाम । (गो.क. जी.प्र.४४०)। क्षयाऽस्या प्रतिशायिनीत्वम् । तद्विपाकवेचा कर्म- १नो कर्म का प्रदेशपिण्ड मतो उदय पतिः कार्यदारेण निद्रानिद्रेत्युच्यते । (कर्मस्त. सके और न अन्य प्रकृतियों में संकान्त भी किया गो.ब.१०, पृ. १४)। ११. निद्राया उपरि उपरि जा सके उसे निषत्त या निधत्ति कहा जाता है। बत्तिनिद्रानिद्रा निद्रानिद्रादर्शनावरणकर्मविशेषोदय- २ उद्वर्तना और अपवर्तना करणों को छोड़कर अत्याचेतनस्य दुःखप्रतिबोधस्वापपरिणामः । उक्तं शेष करणों के अयोग्य रूप से जो कर्म को व्यव.
-णिहाणिहा य दुक्खपडिबोहा । (भ.प्रा. मूला. स्थापित किया जाता है उसे निपत्तिकरण कहते हैं। २०६४) । १२. निद्रायाः पुनः पुनः प्रवृत्तिनिद्रा- नित्ति-देखो निधत्त। निद्रा। (त. वृत्ति. श्रुत. ८-७)।
निन्दा-१. तथ्यस्य वा प्रतथ्यस्य वा दोषस्यो. नींद के ऊपर जो बार-बार नोंद प्राती है उसे भावनं प्रति इच्छा निन्दा । (स. सि. ६-२५)। निद्रानिद्रा कहा जाता है। २ निद्रानिद्रा के वशी. २. सचरित्तपच्छयावो निन्दा xxx। (माय. भत हा प्राणी वृक्ष के अग्र भाग पर व गली में नि. १०६१) । ३. दोषोद्भावनेच्छा निन्दा । भोसो जाता है, जागने पर भी प्रांखें नहीं खुलती। तथ्यस्य वा अतथ्यस्य वा दोषस्योद्भावनं प्रतीच्छा
निवानिद्रा के प्रभाव से प्राणी को नींद के ऊपर मनःपरिणामोऽवक्षेको निन्दा । (न. बा.६.२५,०। बार बार नींद पाती है।
४. अत्रात्मसाक्षिकी निन्दा। (दशव. स. हरि.. निधत्त-१. जं पदेसम्ग ण सक्कमुदए दादूं ४-२, पृ. १४४; स्थाना. अभय. वृ. ३, ३, १६८ प्रणपडि बासकामेदं तं णिस्तं णाम । योगशा. स्वो. विव. ३-८२, कातिके. टी. ३२६)। (धव. पु. ६, प. २३५); जं पदेसग्गं णिघ. ५. दोषोद्भावनेच्छा निन्दा । (त. श्लो. ६-२५)। तीकयं उदए दादं जो सक्क, अण्णपडि संकामिदं ६. सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेागों मया तु पातकेन होमवर्क. प्रोकडिमुक्कडुिदुच सक्कं; एवं वस्त्र-पात्रादिकः परिग्रहः परीषहभीरुणा गहीत विहस्स पदेसग्गस्स णित्तमिदि सण्णा । (षव. पु. इत्यन्तःसन्तापो निन्दा । (भ. प्रा. विजयो. ८७)। १६.प. ५१६); जमोकड्डिज्जदि, उक्कड्डिज्जदि, ७.कान्ता-पुत्र-भ्रातृ-मित्रादिहेतोः शिष्ट-द्विष्टे निमिते परपोड ण संकामिज्जदि उदए ण दिज्जदि पदेसग्गं कार्यजाते । पश्चात्तापो यो विरक्तस्य प'सो निन्दा तं णित्तं णाम । (धव. पु. १६, पृ. ५७६)। सोक्ताऽवद्यवक्षस्य वात्री। (अमित. था.२-७६)। २. उबद्रण-पोवट्टणावज्जकरणाणं अजोगत्तेण ८. सचरित्रस्य सत्त्वस्य पश्चात्तापः स्वप्रत्यक्ष
यावणं णिहत्तीकरणं । प्रहवा पुश्वपृट्ठस्स जुगुप्सा निन्दा। उक्तं च-आत्मसाक्षिकी निन्देति । कस्स तत्तसमेलियलोहसलागासंबंधसरिसकिरिया (माव. मलय. वृ. १०६१)। ६. निन्दन-सर्वसं. निहती । (कर्मप्र. चू. २, पृ. १८)। गत्यागो जिनोपज्ञं [ज्ञो]मुक्तिमार्गः, मया पुनः पापेन
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
निवन्धन]
६१३, जन-लक्षणावलो
[निमित्तशुद्धि
परीषहभीरुणा वस्त्र-पात्रादिग्रन्थो गृहीत इत्यन्तः- निमित्तं ज्ञात्वा यो लोकस्यादेशं करोति स निमित्तसन्तापरूपा निन्दा । (भ. प्रा. मूला. ८७)। कुशीलः । (भ. प्रा. विजयो. टी. १६५०)। १ यथार्थ व अयथार्थ दोषों के प्रकट करने की अष्टांग निमित्तको जानकर जो अन्य जनों को प्रादेश जो इच्छा होती है उसे निन्दा कहा जाता है। देता है उसे निमित्त कुशील कहते हैं। २ चारित्रयुक्त नीव के जो अपने प्राय पश्चात्ताप निमित्तदोष-१. वंजणमंग च सर छिण्णं भूम च होता है उसे निन्दा कहते हैं ।
अंतरिक्ख च । लक्खण सुविणं च तहा अट्टविहं होइ निबन्धन-निबध्यते तदस्मिन्निति निबन्धनम् ।
णेमित्त ।। (मूला. ६-१०)। २. अंग स्वरो व्यंजजं दब्वं जम्हि निबद्धं तं णिबंधणं । (धव. पु. १५, नं लक्षणं छिन्नं भौमं स्वप्नोऽन्तरिक्षमिति एवं भूत
निमित्तोपदेशेन लब्धा वसतिनिमित्तदोषदष्टा। (भ. जो द्रव्य जिसमें सम्बद्ध है उसे निबन्धन कहते हैं। प्रा. विजयो. २३०; कार्तिके. टी. ४४८-४६)। निमग्ना-णिय जलभर उवरिगदं दव्वं लहुगं पि
३. निमित्तेन भिक्षामुत्पाद्य यदि भुक्ते तदा तस्य
निमित्तनामोत्पादनदोषः। (मला. व. ६-३०)। णेदि हेटुम्मि । जेणं तेणं भण्ण इ एसा सरिया णिमग त्ति ॥ (ति. प. ४-२३६; त्रि. सा. ५६५)।
४. स्वरान्तरिक्ष-भौमांग-व्यंजन-च्छिन्नलक्षणम् । अपने जलप्रवाह में पड़े हुए लघु (हलके) द्रव्य को र
स्वप्नाष्टांगनिमित्तर्य निमित्तमशनार्जनम् ।। (प्राचा. भी जो नदी नीचे ले जाती है उसका नाम निमग्ना
सा. ८-३६)। ५. अंगादिनिमित्तोपदेशाल्लब्धा
निमित्तदुष्टा। (भ. प्रा. मूला. टी. २३०)। ६. निमंत्रण -१.xxxणिमंतणा होइऽगहिएणं ।
स्वरान्तरिक्ष भौमाङ्ग-व्यञ्जन-च्छिन्न-लक्षण-स्वप्ना
ष्टाङ्गनिमित्तरशनार्जनं निमित्तम । (भावप्रा. टी. (प्राव. नि. हरि. व. ६९७)। २. तथा निमंत्रणा भवत्यगृहीतेनानशनादिना अहं भवतोऽशनाद्यानया
९६)। मीति । (प्राव. हरि. ५.६६७)। ३. निमंत्रणं अहं
१ व्यंजन, अंग, स्वर, छिन्न, भौम, अन्तरिक्ष, ते भक्तं लब्ध्वा दास्यामीति । उक्तं च-पुब्वगहि.
लक्षण और स्वप्न; यह पाठ प्रकार का निमित्त
है। इस निमित्त के द्वारा भिक्षा को उत्पन्न करके एण छंदण निमंतणा होइऽगहिएणं । (अनुयो हरि.
ग्रहण करना, यह निमित्तनामक उत्पादनदोष है।
२ अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न, भौम, स्वप्न २ 'मैं आपके लिए भोजन लाता हूं' इस प्रकार प्रग.
और अन्तरिक्ष इस प्रकार के निमित्त के उपदेश होत भोजन प्रादि के प्राश्रय से निमंत्रणा होती है।
द्वारा जो वसतिका प्राप्त की जाती है वह निमित्तनिमित्त-१.तिविहं होइ निमित्ति, तीय-पड़प्पन्न
दोष से दुष्ट होती है। ऽणागयं चेब । तेण न विणा उ नेयं नज्जइ तेणं
निमित्तपिण्ड-१. निमित्तम् अङ्गुष्ठप्रश्नादि, निमित्तं तु ॥ (बहत्क. भा. १३१३)। २. अतीत
__ तदवाप्तो निमित्तपिण्डः । (प्राचारा. सू. शी. ब. भविष्यद्वर्तमानकालत्रयवति लाभादिभावकथनं निमि
२७३, पृ. ३२०) । २. प्रतीतानागत-वर्तमानकालेष तं भवति । (प्राव. ह. व. मल. हेम. टि. पृ. ८३;
लाभालाभादिकथनं निमित्तम्, तद् भिक्षार्थं कुर्वतो प्रव. सारो. व. ११४) । ३. तीयाइभावकहणं होइ
निमित्तपिण्डः । (योगशा. स्वो. विव. १-३८)। निमित्तं xxx(प्रव. सारो. ११४)।
१अंगष्ठप्रश्न प्रादि विद्याविशेष के निमित्त से, १ तीनों काल सम्बन्धी लाभ-अलाभ का कारण
भोजन प्राप्त करने पर निमित्तपिण्ड नामक दोष भूत निमित्तशास्त्र प्रतीतादि के भेद से तीन प्रकार का भागी होता है । २ अतीत, अनागत और वर्तका है। चूंकि ऐसे (चूडामणि प्रादि) शास्त्र के मान इन तीन कालविषयक लाभालाभादि के कहने बिना लाभालाभादि का ज्ञान सम्भव नहीं है, अत: का नाम निमित्त है। उसे भिक्षा का साधन बनाने उनके जानने का निमित्त होने से उसे निमित्तशास्त्र
से निमित्तापण्ड नामका उत्पादनदोष होता है। कहा जाता है।
निमित्तशुद्धि-निमित्तशुद्धिः तत्कालोच्छलितशङ्खनिमित्तकुशील-कश्चिनिमित्तकुशीलः अष्टांग- पणवादिनिनादश्रवण - पूर्ण कुम्भ-भृगार-छत्र. ध्वज
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
निमित्तसम्यग्दर्शन] ६१४, जैन-लक्षणावली
[नियंसणे चामराद्यवलोकन-शुभगन्धाघ्राणादिस्वभावा । (प. पारिणामिक भावस्थितः स्वभावानन्त चतुष्ट यात्मकः वि. म. व. ३-१४)।
शुद्ध ज्ञानचेतनापरिणामः स नियमः। (मि. सा.व. उस समय उठते हुए शंख व ढोल प्रादि के शब्द को ३)। ६. Xxx नियमः कालसीमकृत् ॥ सुनना तथा जलपूर्ण कलश, भंगार, छत्र, ध्वजा (धर्मसं. था. ७-१६)। एवं चमर प्रादि को देखना और उत्तम गन्धादि का १ नियम से करने योग्य कार्य को नियम कहा सूंघना; यह निमित्त शुद्धि का स्वरूप है।
जाता है। वह ज्ञान-दर्शन-चारित्रस्वरूप है। निमित्तसम्यग्दर्शन-निमित्तं तु यद् यद् बाह्य २ नियमित काल के लिए किये गये त्याग को वस्तूत्पद्यमानस्य सम्यग्दर्शनस्य प्रतिमादि तत् तत् नियम कहते हैं।
मागहीतम. ततो निमित्तात् प्रतिमादिकात् नियमनिषिद्ध-श्रावस्सयंमि जुत्तो नियमणिसिद्धोसम्यक्त्वं निमित्त सम्यग्दर्शनमुच्यते । (त. भा. सिद्ध. त्ति होइ नायव्यो। अहवाऽवि णिसिद्धप्पा णियमा वृ. १-३, पृ. ४०)।
प्रावस्सए जुत्तो। (प्राव. भा. १२२, पृ. २६७) । जो जो प्रतिमादिरूप वस्तु उत्पन्न होने वाले
मल और उत्तर गुणों के अनुष्ठान स्वरूप प्रावश्यक सम्यग्दर्शन का निमित्त होती है उसके निमित्त से
में जो युक्त है उसे नियमनिषिद्ध-नियम से मल उत्पन्न होने वाले उस सम्यग्दर्शन को निमित्त
व उत्तर गणों के अतिचारों से रहित-जानना सम्यग्दर्शन कहा जाता है।
चाहिए। अधवा निषिद्धात्मा- उक्त अतिचारों से निमिष-१. नयनपुट घटनायत्तो निमिषः । (पंचा.
रहित जीव-उक्त लक्षण प्रावश्यक में युक्त होता अमृत.व. २५) । २. नयनपुटविघटनेन व्यज्यमान:
ही है। इस प्रकार प्रावश्यकी और नषेधिकी दोनों संख्यातीतसमयो निमिषः। (पंचा. जय.व. २५)।
क्रियानों को समानार्थक समझना चाहिए। ३. तादर्शरसंख्यातसमयः निमिषः अथवा नयनपुट
नियाग-नियांगमित्यामन्त्रितस्य पिण्डस्य ग्रहणं घटनायत्तो निमेषः। (नि. सा. व. ३१)। ..
नित्यम्, न त्वनामन्त्रितस्य । (दशव. सू. हरि.. १ नेत्रपुटों को घटनाके अधीन काल को निमिष कहते हैं। अभिप्राय यह है कि प्रांखों के पलकों के मिलने ३-२, पृ. ११६) ।
सदा प्रामंत्रित पाहार को ही ग्रहण करना, अनामें जितना समय लगता है उतने समय का नाम
मंत्रित को ग्रहण न करना; इसका नाम नियाग निमिष या निमेष है। नियतिवाद-१. जत्त जदा जेण जहा जस्स य है। यह सयमी साध का अनाचरित है। णियमेण होदि तत्त तदा। तेण तहा तस्स हवे इदि नियोग-अहिगो जोगो निजोगो जहाहदानो भवे बादो णियदिवादो दु ।। (गो. क.८८२) । २. जेण निदाहो त्ति । अत्यनिउत्तं सुत्तं पसबइ चरणं जयो जदा जंतु जहा णियमेण य जस्स होइ तं तु तदा। मुक्खो ।। (बृहत्क. १९४) । तस्स तहा तेण हवे इदि वादो णियदिवादो दु॥ "नि' का अर्थ अधिकता है। सूत्र के साथ अर्थ के (अंगप. २-२२)।
अधिक योग को नियोग कहते हैं। प्रर्थ की अधि. १जो जिस समय में, जिससे, जैसे और जिसके नियम कता से नियुक्त सूत्र उस चरित्र को उत्पन्न करता से होता है वह उस समय, उसीके द्वारा, उसी प्रकार
है जिस के प्राश्रय से मुक्ति प्राप्त होती है। से और उसके होगा ही। इस प्रकार के कथन को नियंसरग-१. पाडगणियंसणभिक्खापरिमाणंनियतिवाद कहते हैं।
इमम् एव पाटकं प्रविश्य लब्धां भिक्षां गृह्णामि, नियम-१.णियमेण य जं कज्ज तणियमं णाण- नान्यम; एकमेव पाटकं पाटकद्वयमेवेति । प्रस्थ दसण-चरित्तं ॥ (नि. सा. ३)। २. नियमः परिमि- गृहस्य परिकरतया अवस्थितां भूमि प्रविशामि, न नकालो xxx॥ (रत्नक.८७) । ३.XX गृहभित्थमभिग्रहः णियंसणमित्यूच्यते इति केचिद ४ सावधिनियमः स्मतः॥ (उपासका. ७६१)। वदन्ति । अपरे सू पाटस्य भभिमेव प्रविशाल , ४. विहिताचरणं निषिद्धपरिवर्जनं च नियमः। पाटगृहाणि इति संकल्प: पाडगणियंसणमित्यच्यते (नीतिवा. १-२१, प. १५)। ५. यः सहजपरम- इति कथयन्ति। (भ. प्रा. विजयो. टी. २१०।।
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
निरता
६१५, जैन-लक्षणावली निरन्तर अवक्रमणकालविशेष २. पाडयणियंसणपरिमाणम्-एकमेव पाटकं पाट- छेद कर जो उसका फिर से प्रारोपण किया जाता कद्वयमेव वा प्रविश्य भिक्षाग्रहणं निवसनपरिमाणम्। है उसे, अथवा एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ को प्राप्त यदि वा प्रत्य गृहस्य परिकरतयावस्थिता भमि होने पर-जैसे पार्श्वनाथ के तीर्थ से वर्द्धमान प्रविशामि, न गृहम, इत्येवं ग्रहेण भिक्षाग्रहणं निव- स्वामी के तीर्थ में संक्रमण करने वाले साध के जो सन परिमाणम् । अन्य पाटकभूमिमेव प्रविशामिन चारित्र होता है उसे निरातचार छदोपस्थापन पाटकगृहाणीति भिक्षावल्पं पाट कनियमनपरिमाण-कहते हैं। माहुः । (भ. प्रा. मूला. २१६)।
निरतिचारिता-देखो अतिचार । सुशवाण मांस१ इस महल्ला अथवा गली में प्रवेश करके प्राप्त भवखण-कोह-माण-माया लोह-हस्स र इ . [घर इ. ] भिक्षा को ग्रहण करूंगा, अथवा एक हो या दो सोग - भय-दगंच्छित्थि पूरिस-ण वंस यवे यापरिच्चागो मुहल्लों में प्रवेश करके प्राप्त भिक्षा को ग्रहण अदिचारो। एदेसि विणासो णिरदिचारो संपुण्णदा, करूंगा, दूसरे महल्ले में प्रवेश न करूंगा; इस प्रकार तस्स भावो निरदिचारिदा। (घव. पु. ८, पृ.८२)। के नियम का नाम नियंसण है । कितने ही प्राचार्यो मद्यपानादि के त्याग न करने रूप अतिचार के का कहना है कि इस घर के परिकर (परिवार) प्रभाव को उनके परित्याग को-निरतिवारिता स्वरूप से स्थित भूमि में प्रवेश करूंगा, घर में कहते हैं। नहीं; इस प्रकार की प्रतिज्ञा को नियंतण कहा निरनकम्प-जो उपर कंपतं दटठण न कंपये जाता है । अन्य प्राचार्यों का अभिमत है कि मुहल्ले
कढिणभावो। एसो उ निरणुकपो प्रणु पच्छाभावकी भमि में ही प्रवेश करूंगा, घरों में नहीं; इस जोएणं ॥ (बृहत्क. १३२०)। प्रकार के नियम को पाङगनियंसण कहते हैं।
जो कठोरहृदय दूसरे को पीड़ा से कांपता हमा निरत-देखो नारक | हिसादिष्वसदनुष्ठानेषु देखकर स्वयं कम्पित नहीं होता है उसे निरनुकम्प व्यापृता: निरताः। (धव. पु. १, पृ. २०१)।
कहते हैं। 'मनु' का अर्थ पश्चात् है, तदनुसार मो हिंसादिरूप असदाचरण में उद्यत रहते हैं उन्हें
दुखित जीव के कांपने के पश्चात् जो कम्पन होता निरत या नारक कहा जाता है।
है उसका सार्थक नाम अनुकम्पा है । इस अनुकम्पा निरतगति-देखो नारकगति । तेषां (निरतानां)
से जो रहित होता है वह निरनुकम्प कहलाता है। गतिनिरतगतिः । (धव. पु. १, पृ. २०१ ।। निरतों (नारकों) की गति को निरतगति (नार
निरनुतापी-निरणुतावी-जो अकिच्च काऊण गति) कहते है।
नाणुतप्पइ; जहा मए दुट्ठ कयं । (जीतक. पू. १, निरतिचार छेदोपस्थापन-१. तत्र निरतिचारमित्वरसामायिकस्य शैक्षकस्य यदारोप्यते, यद्वा
जो प्रकृत्य को नहीं करने योग्य कार्य कोतीर्थान्त र प्रतिपत्ती-यथा पार्श्वस्वामितीर्थाद् वर्द्ध
करके 'मैंने बुरा किया है' इस प्रकार से पश्चात्ताप
नहीं करता है उसे निरनतापी कहते हैं। मानतीर्थ संक्रामतः। (अनुयो. हरि.व.प.१०४ २. तत्र शिक्षकस्य निरतिचारमधीतविशिष्टाध्ययन- निरन्तर-णिग्गयमंतरं जम्हा गुणदाणादो तं गुणविदः, मध्यमतीर्थकरशिष्यो वा यदोपसम्पद्यते चरम द्वाणं णिरंतरं।xxx णस्थि अंतरं णिरंतरं। तीर्थक रशिष्याणामिति । (त. भा. सिद्ध... . (षव. पु. ५, पृ. ५५-५६)। १८)। ३. तत्र निरतिचारं यत् इत्वरसामायिक- जिस गुणस्थान से अन्तर नहीं होता है वह निरन्तर वतः शैक्षस्यारोप्यते, तीर्थान्तरसङक्रान्तो वा-यथा कहलाता है। पार्श्वनाथतीर्थाद वर्द्धमानस्वामितीथं संक्रामतः निरन्तर प्रवक्रमरणकालविशेष-पढमवक्कमणपञ्च यामधर्मप्रतिपत्तौ । xxx उक्त च- केदयजहण्णकाले तस्सेव उक्कस्सकालम्मि सोहिदे से हस्स निरइयारं तित्थंतरसंक मे व तं होजा। सेसो णिरंतरवक्कमणकालविसेसो णाम । (घव. पु. (प्राव. नि. मलय. व. ११४, पु. ११६)।
१४, प. ४७८) । १इत्यरसामायिक वाले शिष्य साध के पूर्व पर्याय को प्रथम प्रवक्रमणकाण्डक के जघन्य काल को उसी के
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
निरन्तरबन्धप्रकृति] ६१६, जैन लक्षणावली
[निरालम्बध्यान उत्कृष्ट काल में से कम कर देने पर जो शेष रहे निरंजन-१. जासु ण वण्णु ण गंधु रसु, जासु ण उसका नाम निरन्तर प्रयक्रमणकालविशेष है। सदु ण फासु । जासु ण जम्मणु मरणु गवि, ण उ निरन्तरबन्धप्रकृति-जिस्से पथडीए पच्चो णिरजणु तासु ।। जासु ण कोहु ण मोहु मउ, जासु निय मेण सादि-द्धग्रो अतोमहत्तादिकालावदाई साण माय ण माणु । जासूण ठाणु ण भाणु जिय, सो णिरतरबंधपयडी । (प्रव. पु. ८, पृ. १७); जिस्से जि णिरंजणु जाणि ॥ अस्थि ण पुष्णु ण पाउ जसु, बंधकालो जहण्णो वि अतोमहत्तमेत्तो सा णिरंतर- सो जि णिरंजण भाउ ॥ (परमा. १९-२१)। बंधपयडी । (धव. पु. ८, पृ. १००)। २. जस्स ण कोहो माणो माया लोहो य सल्ल-लेजिस प्रकृति का प्रत्यय (कारण) नियम से सादि स्साम्रो । जाइ जरा मरणं विय णिरंजणो सो अहं अध्रुव होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहने वाला है भणियो । णस्थि कला संठाणं मग्गण-गुणठाण वह निरन्तरबन्धप्रकृति कहलाती है। अथवा जिसके जीवठाणाई। ण य लद्धि-वंघठाणा णोदयठाणाइया बन्ध का काल जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है केई ॥ फास-रस-रूव-गंधा सहादीया य जस्स स्थि उसे निरन्तरवन्धप्रकृति जानना चाहिए।
पुणो । सुद्धो चेयणभावो णिरंजणो सो अहं भणिनिरन्तरवेदककाल-बद्धसमयादो मावलियादि- ओ।। (तत्त्वसा. १९-२१)। कंतो समयपबद्धो णियमेण प्रोकड्डिदूण वेदिज्जदि। १जिसके वर्ण, गन्ध, रस, शब्द, स्पर्श, जन्म, मरण, तदो उवरि णिरंतरं पलिदोबमस्स असंखेज्जदिभाग- क्रोध, मोह, मद, माया, मान, स्थान, ध्यान, पुण्य. मेतकालं णिय मेण वेदिज्जदि, एसो णिरंतरवेदग- पाप, हर्ष और विषाद नहीं हैं तथा एक भी दोष कालो काम ।। (धव. पु. १०, पृ. १४२-४३)। नहीं है, ऐसे परम शुद्ध प्रात्मस्वभाव को निरंजन बन्ध के समय से लेकर एक प्रावली के बीतने पर कहते हैं। समयप्रबद्ध का वेदन नियम से अपकर्षणपूर्वक निराकार उपयोग-देखो अनाकारोपयोग होता है, तत्पश्चात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग १. अनाकारं दर्शनम्। (स. सि. २-९त. वा. मात्र काल तक उसका वेदन नियम से निरन्तर २,९,१)। २. निराकारो दर्शनोपयोगः सामान्य. होता है। इसी का नाम निरन्तरवेदककाल है। विषयत्वात् । (त. श्लो. २-६) । ३. सामान्यार्थानिरपेक्षत्व-अनेकान्तनिराकृते: निरपेक्षत्वम् । वभासो यो हृषीकावधिमानसः । उपयोगो निरा. (लघीय. स्वो. वि. ७२) ।
कारः स शेयोऽन्तर्मुहुर्तगः ॥ (पचर्स. अमित. अनेकान्त का निराकरण करने से-विरोधी धर्म ३३४, पु. ४६) । को अपेक्षा न करने के कारण-नय में निरपेक्षता १प्राकार से रहित-सामान्यविषयक-उपयोगको होती है और इसी से वह मिथ्या माना जाता है। निराकार या दर्शन कहा जाता है। निरर्थक-१.वर्णक्रमनिर्देशवत निरर्थकमारादेसा- निराकांक्षा-१. तथा निर्गता कांक्षा प्रन्यान्यदिवत्, पार पात् एस इत्येते प्रादेशाः, एतेष वर्णा- दर्शनग्रहणरूपा यस्यासौ निराकांक्षः। (सूत्रकृ. सू. नां क्रमनिदर्शन मात्र विद्यते, न पूनरभिधेयतया शी.व. २, ७,६६, प.६१)। २. निराकांक्षत्वं कश्चिदर्थः प्रतीयते इत्येवं भूतं निरर्थकममिधीयते, हि प्रतिपतृधर्मः वाक्येष्वध्यारोप्यते, न पुनः शब्दडिस्थादिबद्वा (प्राव. नि हरि. व.८८१,प. ३७५)। धर्मः, तस्याचेतनत्वात् । (न्यायकु. ६५, पृ. ७३८)। २. वर्णक्रमनिर्देशवत् निरर्थकम् पारादेसादिवत् १ विभिन्न दर्शनों के ग्रहणरूप प्राकक्षिा से जो डिस्था दिवद्वा। (प्राव. मलय. व.८८१, पृ. ४८३) रहित हो चुका है ऐसे सम्यग्दृष्टि को निराकक्ष जो शब्द वर्णों के क्रम से युक्त हो, पर अर्थ उसका कहा जाता है। २ वाक्य में जो निराकरिता मानी कुछ भी न हो, वह निरर्थक कहलाता है। जैसे गई है वह वस्तुतः प्रतिपत्ता (ज्ञाता) का इमं है, पारादेस् ----पार प्रात् और एस; ये तीन मादेश शम्द का नहीं। हैं । इनमें वर्णक्रम तो है, पर अर्थ कुछ भी नहीं है। निरालम्ब ध्यान-धारणा यत्र काचिम्न न मत्र. इसी प्रकार डित्थ-डवित्थ आदि शब्दों को निरर्थक पदचिन्सनम् । मन:स रुपनं नास्ति तद ध्यानं जानना चाहिए। यह ३२ सत्रदोषों में तीसरा है। गलम्बनम् ॥ प्रात्मानमात्मनात्मानं निरुध्यात्म
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
निरालम्बनयोग] ६१७, जैन-लक्षणावली
[निर्ग्रन्थ संस्थितो मुनिः। कृतात्मात्मगतं ध्यायेत् तन्निरा- त्वेनावस्थानं निरोधः। गमन-भोजन-शयनाध्ययनालम्बमुच्यते ।। (धर्मसं. श्रा. १०, १३३-३४)। दिषु क्रियाविशेषेष अनियमेन वर्तमानस्य एकस्याः ध्यान की जिस अवस्था में न कोई धारणा हो, न क्रियायाः कर्तत्वेनावस्थानं निरोध इत्यवगम्यते । किसी मंत्रपद का चिन्तबन हो, न मन में किसी (त. वा. ६, २७, ५)। २. तस्य एकत्रावस्थापनप्रकार का संकल्प हो; किन्तु अपने प्रात्मा को मन्यत्राप्रचारो निरोधः। (त. भा. सिद्ध. व. प्रात्मा के द्वारा रोककर मनि जो प्रात्मस्थ होता है ९-२७) । उस अवस्था को निरालम्ब ध्यान कहते हैं।
गमन, भोजन और शायन प्रादि क्रियाविशेषों में निरालम्बन योग--xxxतत्तत्त्वगस्त्वपरः ॥ अनियम से प्रवर्तमान मन को किसी एक क्रिया के (षोडश. १४-१)।
कर्तारूप से स्थापित करना, यह चिन्ता का जिनके तत्त्व को-केवलज्ञानादि स्वभाव को- निरोध है। प्राप्त हुए योग (ध्यान) को निरालम्बन योग कहा निर्ग्रन्थ- १. एत्थवि णिग्गन्थे एगे एगविऊ बुद्धे जाता है।
संछिन्नसोए सुसंजते सुसमिते सुसामाइए पायवायनिरालम्ब प्रतिसेवना-१. निरालम्बो पालम्बण. पत्ते विऊ दुहमोवि सोयपलिछिन्ने णो पूया-सवकाररहिमो सेवइ । (जीतक. च. १,५.३) । २. निरा. लाभटी धम्मदी धम्मविऊ णियागपडि बन्ने समिलम्बो ज्ञानाद्यालम्बन रहितप्रतिसेवनाकः। (व्यव. यं चरे दन्ते दविए वोसटुकाए णिग्गन्थेत्ति वच्चे। भा. मलय. वृ. १०-६३४)।
(सूत्रकृ. सू. १, १६, ४, पृ. २७३-७४) । २. उद१ ज्ञानादि पालम्बन से रहित जो प्रकल्पित कदण्ड राजिवदन भिव्यक्तोदयकर्माण ऊवं मुहूर्ता(अयोग्य) का सेवन किया जाता है, इसका नाम
दुद्भिद्यमान केवलज्ञान-दर्शनभाजो निर्ग्रन्थाः । (स. दर्पविषयक निरालम्ब प्रतिसेवना है। यह दस प्रकार सि.१-४६)। ३. ये बीतरागछद्मस्था ईर्यापथकी दपित प्रतिसेवना में तीसरी है।
प्राप्तास्ते निर्ग्रन्थाः। ईर्या योगः, पन्था संयमः, निरुपक्रमा निर्जरा-तत्र निरुपक्रमा उपक्रमकारण- योग-संयमप्राप्ता इत्यर्थः। (त. भा. ६-४८)। मन्तरेण संसारिणां परिपाकोदयलक्षणप्राप्तस्य कर्म- ४. उदके वण्डराजिवत्संनिरस्तकणिोऽन्तमहतं केवलणः परिसाद [शाट] रूपा । (स्या. र. २-२३)। ज्ञान-दर्शनप्रापिणो निग्रन्थाः । उदके दण्डराजियथा उपक्रमकारण-कर्मपरिपाक के योग्य प्रयत्नविशेष
प्राश्वेव विलयम्पयाति तथा उनभिव्यक्तोदयकर्माण के बिना जो संसारी जीवों के परिपाकोदय को ।
ऊध्वं मुहर्ताद्भिद्यमानकेवलज्ञान-दर्शनभाजो निम्रप्राप्त कर्म का पृथक्करण होता है, इसे निरुपक्रम
न्थाः । (त. वा. ६, ४६, ४)। ५. निर्ग्रन्थाः निर्जरा कहते हैं।
बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थनिम्रताः साघवः। (प्राव. हरि. व. निरूपण-१. तस्य (प्रालम्बनस्य) नामादिभिः ४, प. ७६०)। ६. निर्गतो ग्रन्थान्निर्ग्रन्थः, बाह्याप्रकल्पना निरूपणम् । (त. वा. १, १२, ११, पृ. भ्यन्त रग्रन्थरहित इत्यर्थः । (दशव. नि. हरि. वृ. ५५) । २. निरूपणमाराधनानिविघ्नसिद्धयर्थं देश- १५८, पृ. ८४)। ७. अव्यक्तोदयकर्माणो ये पयोराज्यादिकल्याणगवेषणम् । (अन. घ. स्वो. टी. दण्डराजिवत् । निर्ग्रन्थास्ते मुहूर्तोवोद्भिद्यमानात्म७-६८)।
केवलः । (ह. पु. ६४-६३)। ८. उदके दण्डराजि१ नामादि के द्वारा पालम्बन की कल्पना का नाम वत्संनिरस्त कर्माणोऽन्तर्मुहूर्त केवलज्ञान-दर्शनप्रापिणो निरूपण है। यह बौद्धाभिमत पांच विज्ञानधातुनों निर्ग्रन्थाः। (त. इलो. ६-४६)। ६. ग्रन्थः कर्मामें तीसरा है। २ अाराधना की निविघ्न सिद्धि के ष्टकप्रकारं मिथ्यात्वाऽविरति-(कषाय-)दुष्प्रणिहितलिए कल्याणकारक देश व राज्य प्रादि के अन्वेषण योगश्च, तज्जये प्रवृत्तानि निर्ग्रन्थानि । निर्गच्छदकरने को निरूपण कहते हैं। यह भक्तप्रत्याख्यान ग्रन्था निर्ग्रन्थाः धर्मोपकरणादृते परित्यक्तबाह्यभ्यमरण से सम्बद्ध अर्हल्लिगादि में से एक है। न्तरोपघयो निर्ग्रन्थाः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-४८); निरोध--१. अनियतक्रियार्थस्य नियतक्रियाकर्तृ. उपशान्त-क्षीणमोहा निर्ग्रन्थाः। (त. भा. सिद्ध. व.
ल.७८
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्ग्रन्थ ]
६१८,
E - ४९ ) । १०. देहो बाहिरगंथो प्रण्णो श्रवखाण विसयग्रहिलासो । तेसि चाए खवप्रो परमत्थे हवइ fi || (रा. सा. ३३) । ११. बहिरब्भंतरगंथा मुक्का जेणेह तिविह्जोएण । सो णिग्गंथो भणिनो जिणलिंग समासिश्रो सवणो ॥ (त. सा. १० ) । १२. यथोदके दण्डराजिराश्वेव विलयमुपयाति तथा नभिव्यक्तोदयकर्माण ऊर्ध्वं मुहर्तादुद्भिद्यमानकेवलज्ञान दर्शनभाजो निर्ग्रन्था: । (चा. सा पृ. ४५) । १३. संसार- द्रुममूलेन किमनेन ममेति यः । नि.शेष त्यजति ग्रन्थं निर्ग्रन्थं तं विदुर्जनाः ॥ ( सुभा. सं. ८४१) । १४. गंथो मिच्छत्त धणाइप्रो मत्रो जे य निग्गया तत्तो । ते णिग्गथा वृत्ता XXX ।। ( प्रव. सारो. ७२० ) ; णिग्गंथ सक्क तावस गेरुय आजीव पंचहा समणा । तम्मि णिग्गंथा ते जे जिणसासणभवा मुणिणो ॥ ( प्रब. सारो. ७३१) । १५. तथा कटकर्मोदया मुहूर्तादुपरि समुत्पद्यमानकेवलज्ञान के वलदर्शनद्वयाः निर्ग्रन्था: । (त. वृत्ति श्रुत. - ४६ ) ।
१ निर्ग्रन्थ उसे कहना चाहिए जो एक है, एकवित् - एक आत्मा को ही परलोकगामी मानता है, बुद्ध है, स्रोतों-कर्मालवद्वारों को नष्ट करने वाला है, भली भांति संयत है सुसमित - पांच समितियों के श्राश्रय से मोक्षमार्ग को प्राप्त है, सुसामायिक – शत्रु-मित्र को समान समझता है, श्रात्मवाद को प्राप्त है, विद्वान है, द्रव्य व भाव से द्रव्यस्रोतों एवं भावस्रोतों को विनष्ट करने वाला है, पूजा-सत्कार की प्राप्ति का इच्छुक नहीं है, धर्मार्थी है, धर्मवित् है, और नियाग- मोक्षमार्ग या समीचीन संयम को प्राप्त है। ऐसा निर्गन्ध दान्त होकर शरीर से निर्ममत्व होता हुम्रा समताभाव का आचरण करता है । २ जिनके लकड़ी के द्वारा जल में खींची जाने वाली रेखा के समान कर्म का उदय प्रगट नहीं है, तथा जो श्रन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान श्रौर केवलदर्शन को प्राप्त कर लेने वाले हैं, वे मुनि निर्ग्रन्थ कहलाते हैं । ३ जो वीतराग छद्मस्थ ईर्यापथ को योग - संयम को प्राप्त हैं उन्हें निर्ग्रन्थ कहा जाता है । निर्ग्रन्यत्व - तत्थ श्रब्भतरिया मिच्छत्त-तिवेदहस्स - रदि- प्ररदि- सोग भय दुर्गुछा-कोह-माण मायालोहभेएण चोट्सविहा, बाहिरिया खेत्त-वत्थु घण
जैन - लक्षणावलो
[ निर्जरा
घण्ण दुवय- चउप्पय- जाण-सयणासण- कुप्प - भंडभेएण दसविहा । कथं खेत्तादीणं भावगंथसण्णा ? कारणे कज्जोवयारादो । वबहारणयं पडुच्च खेत्तादी गंथो, अब्भंतरगंथकारणत्तादो । एदस्स परिहरणं णिग्गंथत्तं । णिच्छयणयं पडुच्च मिच्छत्तादी गंथो, कम्मबंधकारणत्तादो । तेसि परिच्चागो णिग्गंथत्तं,
इगमणएण तिरयणाणुवजोगी बज्भब्भंतरपरिग्गहपरिच्चाश्र णिग्गथत्तं । ( धव. पु. ६, पृ. ३२३, ३२४ ) |
मिथ्यात्वादिरूप चौदह प्रकार की अभ्यन्तर नोभुत ग्रन्थकृति श्रोर क्षेत्र वास्तु प्राविरूप दस प्रकार की बाह्य नोत ग्रन्थकृति कहलाती है । व्यवहारनय की अपेक्षा क्षेत्र वास्तु श्रादि तथा निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यात्व श्रादि ग्रन्थ कहलाते । दोनों प्रकार के इस ग्रन्थ के परित्याग का नाम निर्व्रन्यता है ।
निर्ग्रन्थधर्म - नास्मिन् मौनीन्द्रव बाह्याभ्यन्तररूपो ग्रन्थो ऽस्यास्तीति निर्ग्रन्थः स चासो धर्मश्च निर्ग्रन्थधर्मः स च श्रुत चारित्राख्यः क्षान्त्यादिको वा सर्वज्ञोक्तः । (सूत्रकृ. सू. शी. बृ. २, ६, ४२ ) । मौनीन्द्र धर्म में मुनियों के प्राचार में - बाह्य और अभ्यन्तर दोनों ही प्रकार का ग्रन्थ (परिग्रह ) नहीं है, इसीलिए उस धर्म को निर्ग्रन्यधर्म कहा जाता है।
निर्जरा - देखो निर्जरानुप्रेक्षा । १. बद्धपदेसग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणेहि पण्णत्तं । ( द्वादशानु. ६६ ) । २. पुण्वकदकम्मसडणं तु णिज्जरा सा हवे दुविहा । पढमा विवागजादा विदिया अविवागजादा य ॥ (मूला. ५-४८; भ. प्रा. १८४७) । ३. एकदेशकर्म संक्षयलक्षणा निर्जरा । ( स. सि. १-४ ) ; पीडानुग्रहावात्मने प्रदायाभ्यवहृतौदनादिविकारवत् पूर्वस्थितिक्षयादवस्थानाभावात् कर्मणो निवृत्तिनिर्जरा । ( स. सि. ८ - २३ ) । ४. निर्जरा वेदना विपाक इत्यनर्थान्तरम् । ( त. भा. ६-७ ) । ५. तपोबलात् प्राक्तनकर्म हा निस्तथा मुनेः सा खलु निर्जरोक्ता ॥ ( वरांगच ३१ - ९४ ) । ६. निर्जीयंते यया निर्जरणमात्रं वा निर्जरा । निर्जीयते निरस्यते यया निरसनमात्रं वा निर्जरा। (त. वा. १, ४, १२ ) ; एक देशकर्म संक्षय लक्षणा निर्जरा । उपात्तस्य कर्मणो तपोविशेषसन्निधाने सत्येकदेशसंक्षयलक्षणा निर्जरा ।
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्जरा] ६१९, जैन-लक्षणावला
[निर्जरा (त. बा. १, ४, १६); पूर्वाजितकर्मपरित्यागो देशसंक्षयलक्षणा । निर्जरा xxx ॥ (योगशा. निर्जरा। पीडानुग्रहावात्मने प्रदायाभ्यवहृतोदनवत् ६-१)। २०. कमैकदेशगलनं निर्जरा। (चा. सा. व्यावर्तते स्थितिक्षयादवस्थानाभावात् । (त. वा.८, पृ. ७)। २१.xxxनिर्जरा कर्मक्षपण लक्षणा। २३, १)। ७. तवसा उ निजरा इह निज्जरणं (चन्द्र. च. १८-१०६)। २२. सचितं पून: तत् खवणनासमेगा । कम्माभावापायणमिह निज्जरमो (कर्म) निर्जरातः प्रलीयते, उपात्तकर्मणां निहरणं जिना विति ।। (श्रा. प्र. ८२)। ८. कर्मणां बिपाक- निर्जरा इति वचनात् । (न्यायकु. ७६, पृ. ८१२ तस्तपसा वा शाटो निजरा। (त. भा. हरि. व. उद्.)। २३. पूर्वोपाजितकमैकदेशसंक्षयलक्षणा । १-४); प्रथमबद्धस्य च निर्जरणं निर्जरा आत्म- सविपाकाविपाका च द्विविधा निर्जराकथि ॥ प्रदेशेभ्यः परिशटनं कर्मणः। (त. भा. हरि.व (अमित. श्रा. ३-६३)। २४. जह कालेण तवेण य सिद्ध. व. १०-२)। ६. बद्धस्य कर्मणः शाटो यस्तु भुत्तरसं कम्म-पुग्गलं जेण । भावेण सडदि या सा निर्जरा मता। (षडद. स. ५२)। १०. निर्जर- तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा ।। (द्रव्यसं. ३६) । णं निर्जरा कर्मक्षयलक्षणा। (प्राव. नि. हरि. वृ. २५. शुद्धोपयोगभावनासामर्थ्येन नोरसीभूतकर्म-पु. ११०८, पृ. ५१६)। ११. गुणसेढीए एक्कारस- द्गलानामेकदेशगलनं निर्जरा। (ब. द्रष्यसं. टी. भेदभिण्णाए कम्मगलणं णिज्जरा णाम। (धव. पु. २८)। २६. यया कर्माणि शीर्यन्ते बीजभूतानि १३. प. ३५२) । १२. पूर्वोपाजितकर्मपरित्यागो जन्मनः। प्रणीता यमिभिः सेयं निर्जरा जीर्णबन्धनिर्जरा। xxx ततोऽनुभूतानां गृहीतवीर्याणां नैः । (ज्ञाना. पृ. ४७)। २७. निर्जरणं निर्जरा पदगलानां निवतिनिर्जरा। (त. श्लो. ८-२३) । विशरणं परिशटनमित्यर्थः, देशतः कर्मक्षयो निर्जरा। १३. कर्मणां तु विपाकात तपसा वा यः शाटः सा (स्थाना. अभय. व. १-१६, पृ. १८); निर्जरा निर्जरा। (त. भा. सिद्ध. व. १-४); निर्जरणं कर्मणोऽकर्मत्वभवनमिति । (स्थाना. अभय. व. ४, निर्जरा-विपक्वानां कर्मावयवानां परिशटनम्, १,२५०, पृ. १८४)। २८. निर्जरा देशत: कर्म. दानिरित्यर्थः। Xxx निर्जरा च भवतीति क्षयः । (प्रौपपा. अभय. व. ३४, प. ७६)। चिरन्तन बद्धकर्माभावप्रतिपत्तिः। (त. भा. सिद्ध. २६. णिज्जराए पूव्वोवचियसुहासूहकम्मपोग्गलपरिव. ६-३); निर्जरणं निर्जरा प्रात्मप्रदेशेभ्योऽनुभूत- साडो, Xxx णिज्जरा पुण गुत्ति समिइ-समण. रसकर्म पुद्गलपरिशटना। (त. भा. सिद्ध. व. ६, धम्म-भावणा-मूलगुण-उत्तरगुण-परीसहोवसग्गाहिया७)। १४. निर्जीयते निरस्यते यया, निर्जरणं वा सणरयस्स भवइ । (जीतकच. २, प. ५) । निर्जरा। प्रात्मप्रदेशस्थं कर्म निरस्यते यया परि- ३०. निर्जरणं निर्जरत्यनया वा निर्जरा जीवलग्नपरिणत्या सा निर्जरा । निर्जरणं पृथग्भवनं कमंप्रदेशहानिः। (मला. व. ५-६)। ३१. गलन विश्लेषणं बा कर्मणां निर्जरा । (भ. प्रा. निर्जरांशस्य स्याच्चिरन्तनकर्मणः । (प्राचा. सा. विजयो. ३८); पूर्वगतकर्मपुद्गलस्कन्धावयवानां ३-३३)। ३२. निर्जरा शातनं प्रोक्ता पूर्वोपार्जितजीवप्रदेशेभ्यो ऽगमनं निर्जरा। तथा चोक्तम- कर्मणाम् । तपोभिर्बहभिः सा स्याद वैराग्याश्रितएकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निज रेति । (भ. प्रा. चेष्टितैः ।। (पद्म. पं. ६-५३) । ३३. कर्मणां भवविजयो. १८४७)। १५. उपात्तकर्मणः पातो हेतूनां जरणादिह निर्जरा। (योगशा. स्वो. विव. निर्जरा xxx । (त. सा. ७-२) । १६. कर्म- १-१६, पृ. ११४ उद.); संसारबीजभूतानां कर्मणां वीर्यशातनसमर्थो बहिरङ्गान्तरङ्गतपोभिबृहितशुद्धो- जरणादिह । निर्जरा सा स्मृता द्वघा सकामा कामपयोगो जीवस्य, तदनुभावनीरसीभूतानामेकदेश- वजिता ॥ (योगशा. ४-८६)। ३४. निर्जीयते संक्षयः समुपात्तकर्मपुद्गलानां च निर्जरा। (पंचा. कर्म निरस्यते यया पुंसः प्रदेशस्थितमेकदेशतः । सा का. अमृत. वृ. १०८)। १७. पुवकयकम्मसडणं निर्जरा पर्ययवृत्तिरंशतस्तत्संक्षयो निर्जरणं मताऽथ णिज्जराXXXI (भावसं. दे. ३४४)। १८. तद- सा ।। (अन. घ. २-४२)। ३५. निर्जरा एकदेशेन णतरं (विवागाणंतरं) तु सडणं कम्माणं णिज्जरा संक्षयो विश्लेषः इत्यर्थः । केषाम? कर्मणां सिद्ध. जाण ॥ (कातिके. १०३)। १६. पूर्वोपाजितकमक- योग्यपेक्षयाऽशु भानां च शुभाना साध्ययोग्यपेक्षया
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्जरानुप्रेक्षा ]
त्वद्यादीनाम् । (इष्टो. टो. २४) । ३६. निर्जीते आत्मप्रदेशादेकदेशेन पृथक् क्रियते कर्म यया जीवपरिणत्या सा, अथवा निर्जरणं निर्जरा, कर्मणामेकदेशेन संक्षयः । (भ. श्री. मूला. ३८ ) । ३७. चिरबद्ध कम्मणिवहं जीवपदेसा हु जं च परिगलइ | सा णिज्जरा पउत्ता XXX 11 ( द्रव्यस्व. १५८) । ३८. दुर्जरं निर्जरत्यात्मा यया कर्म शुभाशुभम् । निर्जरा सा द्विधा ज्ञेया सकामाकामभेदतः ॥ ( धर्मश. २१ - १२२ ) । ३६. कर्मणामेकदेशेन गलनं निर्जराऽऽत्मनः । ( धर्मसं. श्री. १०-६६ ) । ४०. कर्मणामेकदेशगलनं निर्जरा । ( श्रारा. सा. टी. ४) । ४१. एकदेशेन कर्मक्षयो निर्जरा । (त. वृत्ति श्रुत. १-४ ) । ४२. एकदेशेन कर्मणः निर्जरणं गलनं श्रधःपतनं शटनं निर्जरा (कार्तिके. टी. २) । १ बंध हुए कर्मों के प्रदेशपिण्ड के गलने का नाम निर्जरा है । ८ परिपाक के वश प्रथवा तप के द्वारा कर्मों के आत्मा से पृथक् होने को निर्जरा कहा जाता है । निर्जरानुप्रेक्षा - १. सा ( वेदनाविपाकरूपा निर्जरा) देवा अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला चेति । तत्र नरकादिषु गतिषु कर्मफलविपाकजा अबुद्धिपूर्वा सा अकुशलानुबन्धा । परीषहजये कृते कुशलमूला, सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति । इत्येवं निर्जराया गुणदोष-भावनं निर्जरानुप्रेक्षा । ( स. सि. ३-७; त बा. ६, ७, ७) । २. निर्जरा वेदना विपाक इत्यनर्थान्तरम् । स द्विविधः प्रबुद्धिपूर्वः कुशल मूलश्च । तत्र नरकादिषु कर्मफलविपाकादयो अबुद्धिपूर्वकस्तमवद्यतोऽनुचिन्तयेत् प्रकुशलानुबन्ध इति । तपःपरीषहजयकृतः कुशलमूलः, तं गुणतोऽनुचिन्तयेत् शुभानुबन्धो निरनुबन्धो वेति । एवमनुचिन्तयन् कर्म निर्जरायैव घटत इति निर्जरानुप्रेक्षा । ( त. भा. ६–७) । ३. कर्मैकदेशगलनं निर्जरा । साऽपि द्वेषा उदयोदीरणाविकल्पात् । तत्र नरकादिषु कर्मफलविपाकोदयोद्भषा, परीषहजयादुदीरणोद्भवा । सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेत्येवं निर्जराया गुणदोषभावनं निर्जराऽनुप्रेक्षा । (चा. सा. पृ. ८७, ८८) । ४. निरन्तरानेकभवार्जितस्य या, पुरातनस्य क्षतिरेकदेशतः । विपाकजाsपाकजभेदतो द्विधा यतीश्वरास्तां निगदन्ति निर्जराम् । ( श्रमित. श्री. १४- ५६) । ५. संश्लिष्टात्मबलस्य निर्गलनतो
[ निर्देश
निःशेषविश्लेषतश्चान्तर्बाह्यचतुः स्वहेतुवशतः स्वर्णोपले स्वर्णता । यद्वद् देहिनि कर्मणोंऽशगलनान्निःशेषविश्लेषतः सम्यक्त्वग्रहणाद्यने क करणं स्तद्वद्विशुद्धात्मता ।। ( श्राचा. सा. १०-४१) । ६. प्रबुद्धिपूर्वा कुशलमूला च निर्जरा द्विप्रकारा भवति । तत्राबुद्धिपूर्वा अकुशलानुबन्धापरनामिका नरकादिषु कर्मफलोदयजा जायते । परीषहसहने तु शुभानुबन्धा निरनुबन्धा च द्विप्रकारापि कुशलमूला निर्जरा उच्यते । एवं निर्जरायाः दोषान् गुणांश्च भावयतो भव्यजीवस्य कर्मनिर्जरणार्थं प्रवृत्तिर्भवतीति निर्जरानुप्रेक्षा । (त. वृत्ति श्रुत. ६-७ ) ।
१ निर्जरा दो प्रकार की होती है—एक प्रबुद्धिपूर्वक और दूसरी कुशलमूलक । नरकादि गतियों में फल के दे चुकने पर कर्मों को जो निर्जरा होती है
बुद्धिपूर्वक निर्जरा है, जो पापबन्ध को निरन्तरता का कारण है । परीषहजय के द्वारा जो कर्मों की निर्जरा होती है वह कुशलमूलक निर्जरा है, जो या तो पुण्यबन्ध की कारण होती है, या फिर पाप और पुण्य दोनों के ही प्रबन्ध की कारण होती है । इस प्रकार से निर्जरा के गुण और दोषों के चित्तवन करने को निर्जरानुप्रेक्षा कहते हैं । निर्जराभाव - एदेहि चेव परिणामेहि (तिब्ब मंदभावे हि ) असखेज्जगुणाए सेढीए कम्मसडणं कम्म सडणजणिदजीववरिणामो वा णिज्जराभावो णाम । ( धव. पु. ५, पृ. १८७ ) । तीव्रता या मन्दता को प्राप्त जीवपरिणामों के द्वारा श्रसंख्यातगुणित श्रेणिके क्रम से कर्म जो आत्मा से पृथक होते हैं, उनकी इस पृथक्ता का नाम निर्जराभाव है । अथवा कर्मों की इस पृथक्ता से जो जीव का परिणाम उत्पन्न होता है उसे निर्जराभाव जानना चाहिए । निर्देश - १. निर्देश: स्वरूपाभिधानम् । ( स. सि. १-७) । २. निर्देशोऽर्थात्मावधारणम् । (त. वा. १-७) । ३. दुविहो णिद्देशो - सोदाराणं जहा पिच्छयो होदि तहादेसो णिद्देसो, कुतीर्थ पाखण्डि नः श्रतिशय्य कथनं वा निर्देशः । x x x गत्यादिमार्ग णास्थान र विशेषितानां चतुर्दशगुणस्थानानां प्रमाणप्ररूपणमोघनिर्देश: । ( धव. पु. ३, पृ. ८) ; गिद्देसो पटुप्पायणं कहणमिदि एयट्ठो । ( धव. पु. ४. पू. ६); द्देिसो कहणं व क्खाणमिदि एयट्ठो ।
1
६२०, जैन- लक्षणावलौ
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्देश दोष ]
( धव. पु. ४, पू. १४४); णिद्देसो कहणं पयासणं श्रवित्तिजणणमिदि एयट्ठो । ( धव. पु. ४, पु. ३२२) । ४. यत्किमित्यनुयोगेऽर्थस्वरूपप्रतिपादनम् ॥ कात्यंतो देशतो वापिस निर्देशो विदां मतः ॥ ( त. इलो. १, ७, २) । ५ तद्विशेषप्रतिपादयिषया वचनं निर्देश, XX X निश्चयेन उपयुज्यते प्रस्तुते वस्तुनि स निर्देश: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १–७) । ६. किमित्यनुयोगे वस्तुस्वरूपकथनं निर्देश: । ( न्यायकु. ७५, पृ. ८०२; लघीय. अभय वृ. ७५, पृ. ९५)। ७. निर्देशनं निर्देश: विशेषाभिधानम् । (आव. नि. मलय. वृ. १३७ पू. १४६) । ८. निर्दिश्यते इति निर्देशः, निर्देशश्च स्वरूपकथनम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-७) । १ विवक्षित वस्तु के स्वरूप के कथन करने को निर्देश कहते हैं । ३ निर्देश दो प्रकार का हैश्रोताओं को जिस प्रकार से निश्चय होता है, उस प्रकार के कथन का नाम प्रादेशनिर्देश है, अथवा पाखण्डियों का निराकरण करके कथन करना, इसे प्रदेशनिर्देश कहा जाता है। गत्यादि मार्गणाश्चों को विशेषता से रहित चौदह गुणस्थानों के प्रमाण के निरूपण को श्रोधनिदेश कहते हैं । निर्देशदोष-निर्देश दोषो यत्र उद्दिश्य पदानामेकवाक्यभावो न क्रियते, यथा देवदत्तः स्थाल्या मोदनं पचतीति वक्तव्ये पचतिशब्दानभिधानम् । (श्राव. नि. मलय. वृ. ८८४, पृ. ४८४) ।
जहां उद्देश्य करके पदों में एकवाक्यता नहीं की जाती है वहां निर्दोषदोष होता है। जैसे— देवदत्त थाली में श्रोदन पकाता है, इस विवक्षा में 'पचति ( पकाता है)' शब्द का कथन न करना । यह ३२ सूत्रदोषों में ३०वां दोष है । निर्दोषत्व १. दोषास्तावदज्ञान - राग-द्वेषादय उक्ताः, निष्कान्तो दोषेध्यो निर्दोष: । ( प्रष्टस. ६, पू. ६२ ) । २. आवरण- रागादयो दोषास्तेभ्यो निष्क्रान्तत्वं हि निर्दोषत्वम् । ( न्यायदी. पू. ४५ ) । १ अज्ञान, राग और द्वेष श्रादि दोषों से जो रहित हो चुका है उसे निर्दोष कहा जाता है । निर्मम - निर्ममो ममेदमिति संकल्पनिष्क्रान्तः । ( अन. ध. स्वो. टी. ४ – १०६) । 'यह मेरा है' इस प्रकार के संकल्प से जो रहित है उसे निर्मम कहते हैं ।
--
[ निर्माण
निर्मल बोध --- निर्मलबोधोऽप्येवं शुश्रूषाभाव संभवो ज्ञेयः । शमगर्भशास्त्रयोगात् श्रुत-चिन्ता-भावनासार: ।। ( षोडश. ४-६ ) ।
शमभाव के प्ररूपक शास्त्र के सम्बन्ध से जो शुश्रूषापूर्वक ज्ञान प्रगट होता है उसे निर्मल बोध जानना चाहिए। वह श्रुतसार, चिन्तासार और भावनासार के भेद से तीन प्रकार का है । निर्माण - १. यन्निमित्तात्परिनिष्पत्तिस्तग्निर्माणम् । ( स. सि. ८-११; त. इलो. ८-११ भ. प्रा. मूला. २१२ ) । २. जाति-लिङ्गाकृतिव्यवस्थानियामकं निर्माणनाम | ( त. भा. ८ - १२) | ३. यन्निमित्ता परिनिष्पत्तिस्तन्निर्माणम् । अंगोपांगानां यन्निमित्ता परिनिष्पत्तिस्तन्निर्माणमिति ज्ञायते । (त. वा. ८, ११, ५) । ४. सर्वजीवानामात्मीयात्मीयावयवविन्यासनियमकारणं कलाकौशलोपेतव र्द्ध किवत् । ( त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ८-१२ ) । ५. निर्माणनाम यदयात् सर्वजीवानां जाती प्रङ्गोपाङ्गनिवेशो भवति । जाति-लिङ्गाकृतिव्यवस्थानियम इत्यन्ये । ( श्रा. प्र. टी. २४) । ६. नियतं मानं निमानम् । तं दुविहं पमाणणिमिणं संठाणणिमिणमिदि । जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं दो वि णिमिणाणि होंति तस्स कम्मस्स णिमिणमिदि सण्णा । ( धव. पु. ६, पृ. ६६ ) ; जस्स कम्मस्सुदएण अंग-पच्चं गाणं ठाणं पमाणं च जादिवसेण नियमिज्जदि तं णिमिणणामं । (घव. पु. १३, पृ. ३६६) । ७. देहंगावयवाणं लिंगागिइ जाइणियमणं जं च । तहि सुत्तहारसरिसो निम्मा होइ हु विवागो ॥ ( कर्मवि. ग. १४८ ) । ८. यदुदयात् स्वजात्यनुरूपाण्यङ्गोपाङ्गानि निष्पद्यन्ते तन्निर्माणनाम । (पंचसं. च. स्वो. वृ. ३-१२७, पृ. ३८ ) । ६. यदुदयाज्जातो जातो जीवदेहेषु स्त्र्यादिलिङ्गाकारनियमो भवति तत्सूत्रधारसमानं निर्माणनामेति । (समवा. अभय वृ. ४२ ) । १०. यदुदयाच्छरीरेष्वङ्ग-प्रत्यङ्गानां प्रतिनियतस्थानवृत्तिता भवति तत्सूत्रधारकल्पं निर्माणनाम | ( कर्मस्त. गो. बृ. १०, पृ. २०) ११. यदुदयाज्जन्तुशरीरेषु स्व-स्वजात्यनुसारेणाङ्ग-प्रत्यङ्गानां प्रतिनियतस्थानवर्तिता भवति तन्निर्माणनाम, तच्च सूत्रधारकल्पम् । (प्रज्ञाप. मलय वृ. २६३, पृ. ४७५; पंचसं. मलय. वृ. ३-७, पृ. ११६; प्रव. सारो. वृ. १२६६ ) । १२. यदुदयात् परिनिष्पत्ति
६२१, जैन - लक्षणावली
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्याणकथा]
भवति तत् निर्माणं द्विप्रकारं जातिनामकर्मोदयापेक्ष ज्ञातव्यम् । स्थाननिर्माणं प्रमाणनिर्माणं चक्षुरादीनां स्थानं संख्यां च निर्मापयति । निर्मीयते श्रनेनेति निर्माणम् । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११) । १ जिस कर्म के निमित्त से परिनिष्पत्ति-जाति नामकर्म की अपेक्षा रखते हुए चक्षुरादि शरीरवयवों के स्थान और प्रमाण की रचना — होती है वह निर्माण नामकर्म कहलाता है । २ जो कर्म जातिविशेष में स्त्री-पुरुषादि के लिंग और आकार का नियामक है उसे निर्माण नामकर्म कहते हैं । ५ जिसके उदय से सब जीवों के जाति के अनुसार अंग और उपांगों का निवेश (स्थापन या रचना ) होता है उसे निर्माण नामकर्म कहा जाता है । अन्य कितने ही श्राचार्य उसे जातिगत लिंग और श्राकार की व्यवस्था का नियामक मानते हैं । निर्धारणकथा - निर्याणं निर्गमः, तत्कथा निर्याणकथा । यथा - वज्जता उज्जम मंदबंदिसद्धं मिलंतसामंतं । संखुद्धसेन्नमुद्धुर्याविधं नयरा निवे नियइ ॥ (स्थाना. अभय वृ. २८२, पृ. २०० ) । राजा आदि के नगर से निकलने की कथा को निर्याणकथा कहा जाता है ।
निर्यापक - १. छेदेसूवटूवगा सेसा णिज्जावया समणा । ( प्रव. सा. ३- १० ) । २. कप्पाकप्पे कुसला समाधिकरणुज्जदा सुदरहस्सा । गीदत्था भयवंता अदालीसं तु णिज्जवया || ( भ. प्रा. ६४८ ) । ३. निर्यापका आराधकस्य समाधिसहायाः । ( भ. प्रा. विजयो. व मूला. टी. ६६ ) । ४. यः पुनरनन्तरं सविकल्प छेदोपस्थापन संयमप्रतिपादकत्वेन छेदं प्रत्युपस्थापकः स निर्यापकः, योऽपि छिन्नसंयमप्रतिसन्धान विधानप्रतिपादकत्वेन छेदे सत्युपस्थापकः सोऽपि निर्यातक एव । ( प्रव. सार. अमृत. वृ. ३-१० ) । ५. तयोश्छेदयो: (देशसकलछेदयोः) प्रायश्चित्तं दत्त्वा संवेग-वैराग्यजनकपरमागमवचनैः संवरणं कुर्वन्ति ते निर्यापकाः शिक्षागुरवः श्रुतगुरवश्चेति भण्यन्ते । ( प्रव. सा. जय. वृ. ३ - १० ) । १ दीक्षादायक गुरु के सकल दोनों ही प्रकार के का आरोपण करने वाला श्रमण कहलाता है । २
६२२, जैन- लक्षणावली
[[निलञ्छन
तथा
की - ग्राह्य और ग्राह्य भोजन-पान को - परीक्षा में कुशल होते हैं, समाधि के कराने में - श्राराधक के वित्त के स्वस्थ करने में उद्यत होते जो प्रायश्चित्त ग्रन्थों के रहस्य के साथ सूत्रार्थ के ज्ञाता होते हैं, ऐसे मुनियों को निर्यापक कहते हैं । निर्यापकपरिग्रह - निर्यापकारिग्रहः श्राराधकस्य समाधिसहाय परिवर्गः । ( श्रन. ध. स्वो टी. ७, ६८) ।
समाधिमरण के लिए उद्यत श्राराधक की समाधि में - सहायक परिवर्ग ( परिजनसमुदाय) को निर्यापकपरिग्रह कहते हैं
अतिरिक्त जो देश और छेद ( व्रतभंग) में व्रत होता है वह निर्यापक जो कल्प्य और प्रकल्प्य
निर्युक्ति- देखो श्रावश्यक नियुक्ति । १. जुत्ति ति उवायत्ति य निरवयवा होदि णिज्जुत्ति ॥ ( मूला. ७ - १४) । २. णिज्जुत्ता ते प्रत्था जं बद्धा तेण होइ णिज्जुती । तहषि य इच्छावेइ विभासिउं सुत्तपरिवाडी ॥ (श्राव. नि. ८८) ।
१ नियुक्ति में 'नि' का अर्थ निरवय या सम्पूर्ण तथा 'युक्ति' का अर्थ है उपाय । तदनुसार श्रभोष्ट तत्त्व के उपाय को नियुक्ति जानना चाहिए । २ 'नि' का अर्थ निश्चय या अधिकता है तथा 'युक्त' का अर्थ सम्बद्ध है। तदनुसार जो जीवाजीवादि तत्र सूत्र में निश्चय से या अधिकता से प्रथम ही सम्बद्ध हैं, उन निर्युक्त तत्वों की जिसके द्वारा व्याख्या की जाती है उसे निर्युक्ति कहा जाता है
निर्लाञ्छन - १. नासावेघोऽङ्कनं मुष्कछेदनं पृष्ठगालनम् । कर्ण-कम्बलविच्छेदो निर्लाञ्छनमुदीरितम् ॥ ( त्रि.श. पु. च. ६, ३, ३४६; योगशा ३ - १११ ) ; नितरां लाञ्छनमङ्गावयवच्छेद:, तेन कर्म जीविका निर्लाञ्छनाकर्म । (योगशा. स्वो. विव. ३ - १११ ) । २. निर्लाञ्छनं निलञ्छन कर्म वृषभादेर्नासावेघादिना जीविका, निर्लाञ्छनं नितरां लाञ्छनमङ्कावयवच्छेद: ।। (सा. घ. ५-२२) । १ बैल आदि की नासिका का वेधन करना, गाय व घोड़े यादि को दागना-गरम लोहशलाका श्रादि से चिह्नित करना, बैल व घोड़े आदि को बधिया करना, ऊंटों की पीठ का गालना, गाय-बैल के कानों एवं गलकम्बल का विच्छेद करना; इत्यादि को निछनकर्म कहते हैं ।
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्लेपन] ६२३, जैन-लक्षणावली
[निर्वर्तनाधिकरण निलेपन-माहारसरीरिदिय-प्राणपाणप्रप्पज्जत्तीणं १ अधःप्रवृत्तकरणकाल के संख्यातवें भाग मात्र णिवत्ती णिल्लेवणं णाम । (धव. पु. १४, पृ. परिणामस्थानों का नाम निर्वर्गणाकाण्डक है। ५०७)।
निर्वर्तनकाण्डक-१. णिव्वत्तणकंडगं णाम जहपाहार, शरीर, इन्द्रिय प्रौर प्रानपान अपर्याप्तियों णिगाए ठितीए अणुक ड्ढी जत्थ णिट्टिया तं णिव्वकी निति का नाम निलेपन है।
त्तणकंडगं बच्चति । (कर्मप्र. चू. बं. क. ६५, पृ.
१३७) । २. निर्वर्तनकांडकं नाम यत्र जघन्यस्थितिनिर्लेपनस्थान-१. जत्थ छापज्जत्तिणिमित्तं पो
बन्धारम्भ भाविनामनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानामगाला गमागमो थक्कदि तमिल्लेवणट्टाणं णाम ।
नुकृष्टिः परिसमाप्ता तत्पर्यन्ता मूलतः प्रारभ्य xxx एवमागच्छमाणे जत्थ पंचण्णं पज्जतीणं
स्थित यः पल्योपमासंख्येयभागमात्रप्रमाणा उच्यन्ते । दव्ववयरणाणमक्कमेण णिप्पत्ती होदि तष्णिल्लेवण
(कर्मप्र. मलय. व. बं. क. ६५)। टाणं णाम । (धव. पु. १४, पृ. ५२७)। २. एग
२ जघन्य स्थिति के बन्ध से लेकर होने वाले मनसमये बद्धकम्मपरमाणवो बंधावलियमेत्तकाले वोलिदे २ जघन्य स्थिात फ बन्ध से लेकर हान वा पच्छा उदयं पविसमाणा केत्तियं पिकालं सांत- भागबन्धाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि के समाप्त र-णिरंत रसरूवेणुदयमागंतूण जम्हि समयम्हि सव्वे
होने तक प्रारम्भ से लेकर पल्योपम के प्रसंख्यातवें चेव णिस्सेसमूदयं कादूण गच्छंति तेसि णिरुद्ध भव
भाग प्रमाण स्थितियों का नाम निर्वर्तनकाण्डक है। समयपवद्धपदेसाण तणिलेवणट्ठाणमिदि भण्णदे ।
निर्वर्तना-देखो निर्वर्तनाधिकरण । १. निर्वत्यंते (जयध.-कसायपा. पृ.८१८, टि. नं. २)।
इति निर्वर्तना निष्पादना। (स. सि. ६-६ त.
सुखबो. ६-६) । २. निर्वय॑ते इति निर्वर्तना । (त. २ कर्मलेप के दूर होने के स्थान को निर्लेपनस्थान
वा. ६,६,१)। ३. हिंसोपकरणतया निर्वQते इति कहते हैं । अर्थात् एक समय में बंधे हुए कर्मपर
निर्वर्तना । (अन. ध. स्वो. टी. ४-२८) । माण बन्धावली के पश्चात क्रमशः उदय में प्रविष्ट
१ जो रचा जाता है उसका नाम निर्वर्तना है। होकर सान्तर या निरन्तररूपसे अपना फल देते हए
३ हिंसा के उपकरणरूप से जिसकी रचना की जिस समय में सभी निःशेषरूप से निर्जीर्ण हो जाते
जाती है उसे निर्वर्तना कहते हैं। हैं उसे निलेपनस्थान कहते हैं।
निर्वर्तनाधिकरण-१. निर्वर्तनाधिकरणं द्विविघं निर्वर्गरणा-बंधोदयजहण्णकिट्टीणमणंतगुणहाणीए मूल गुणनिर्वर्तनाधिकरण मुत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरणं प्रोसरणवियप्पा णिव्वग्गणा । (जयप. प्र. प. नेता सलमान विधारीर. ११८२)।
वाङ्मनःप्राणापानाश्च । उत्तर गुणनिर्वर्तनं काष्ठबन्ध और उदय सम्बन्धी जघन्य कृष्टियों के अनन्त
पुस्त-चित्रकर्मादि । (स. सि. ६.६)। २. तत्र निर्वगुणहानि के क्रम से होने वाले अपसरणभेदों को नाधिकरणं द्विविधं मलगुणनिवर्तनाधिकरणमुत्तरगुनिर्वर्गणा कहते हैं।
ण निर्वर्तनाधिकरणं च । तत्र मूलगुणनिर्वर्तना पञ्च निर्वर्गरणाकाण्डक-१. एदिस्से अद्धाए (अधाप- शरीराणि वाङ्मनःप्राणापानाश्च । उत्तर गुणनिववत्तकरणद्धाए) संखेज्जदिभागो णिव्वग्गण कडयं तना काष्ठ-पूस्त चित्रकर्मादीनि । (त. भा. ६-१०)। णाम । (धव. पु. ६, पृ. ६१५) । २. विवक्खिय- ३. निर्वर्तनाधिकरणं द्विविधं मूलोत्तरभेदात् ।xx समय परिणामाणं जत्तो परमणुकट्टिवोच्छेदो तं तत्र मूलं पंचविधानि शरीराणि वाङ्मनःप्राणागिव्वग्गणकंडयामदि भण्णदे । (जयध. प्र. प. ६४६ पानाश्च । उत्तरं काष्ठ-पुस्त-चित्रकर्मादि । (त. वा. --षट्खं. पु. ६, पृ. २१५ का टि. ३)। ३. ताए ६, ६, १२) । ४. दुःप्रयुक्तं शरीरं हिंसोपकरणतया अधापवत्तद्धाए संखेज्जभागमेत्तं तु । अणुकटीए अद्धा निर्वय॑ते इति निवर्तनाधिकरणं भवति । उपकरणिब्वग्गणकंडयं तं तु । (ल. सा. ४३)। ४. वर्गणा णानि च सच्छिद्राणि यानि जीववधनिमित्तानि समयसादृश्यम्, ततो निष्क्रान्ता उपर्युपरि समय- निवर्तन्त तान्यपि निर्वर्तनाधिकरणम् : (भ. प्रा. वर्तिपरिणामखण्डाः, तेषां काण्डक पर्व निर्वर्गणाका- विजयो. ८१४)। ण्डकम् । (ल. सा. टी. ४३) ।
१ निर्वर्तनाधिकरण दो प्रकार का है-मूलगुण.
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्वर्तनाधिकरणिकी ]
निर्वर्तनाधिकरण और उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण । इनमें मूलगुण निर्वर्तन पांच प्रकार का हैशरीर, वचन, मन, प्राण और प्रपान । काष्ठकर्म, पुस्तकर्म और चित्तकर्म श्रादि को उत्तरगुणनिर्तन कहा जाता है । ४ दुष्प्रवृत्तियुक्त शरीर को हिंसा के उपकरणस्वरूप से निर्वर्तित करने का नाम निर्वर्तनाधिकरण है। उपकरण भी जो जीवघात के निमित्त छेदयुक्त रचे जाते हैं उन्हें भी निर्वर्तनाधिकरण कहा जाता है । निर्वर्तनाधिकरणिको - १. यच्चादितस्तयो: (खड्ग-तन्मुष्ट्यादिकयोः) निर्वर्तनं सा निर्वर्तनाधिकरणिकीति । ( स्थाना. अभय वृ. २-६० ) । २. तथा निर्वर्तन मसि-शक्ति कुन्त तोमरादीनां मूलतो निष्पादनम्, तदेवाधिकरणिकी निर्वर्तनाधिकरणिकी, पञ्चविधस्य वा शरीरस्य निष्पादनं निर्वर्तनाधिकरणिकी । प्रज्ञाप. मलय. व. २२-२७६, पृ. ४३६)।
१ प्रथमतः तलवार व उसकी मुट्ठी आदि को धनाना, यह निर्वर्तनाधिकरणिकी क्रिया कहलाती है । २ तलवार, शक्ति, भाला और बाण आदि के उत्पन्न करने को प्रथवा पांच प्रकार के शरीर के freeier को निर्वर्तनाधिकरणिकी क्रिया कहते हैं । निर्वहन - - १. निराकुलं वहनं धारणं निर्वहणम्, परीषाद्युपनिपातेऽप्याकुलतामन्तरेण दर्शनादिपरि
तो वृत्तिः । ( भ. प्रा. विजयो. २ ) । २. परीबहाद्युपनिपातेऽपि निराकुलं लाभादिनिरपेक्षं वा वहनं धारणम् । (भ. प्रा. मूला. २) । सम्यग्दर्शनादि का निराकुलतापूर्वक धारण करना तथा परीषह श्रादि के उपस्थित होने पर भी उनमें परिणत रहना -- उनकी विराधना न करना, इसका नाम निर्वहन है ।
६२४, जैन - लक्षणावली
निर्वाण - १. पारतन्त्र्यनिवृत्तिलक्षणस्य निर्वाणस्य (पारतन्त्र्यनिवृत्तिलक्षणं निर्वाणम् ) शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भरूपस्य × × ×1 (पंचा. का. अमृत. वू. २ ) । २. सकलकर्मविमोचनलक्षण निर्वाणम् । (पंचा. का. जय. वृ. २) । ३. निर्वान्ति राग-द्वेषोपतप्ताः शीतीभवन्त्यस्मिन्निति निर्वाणम् । (योगशा. स्वो. faa. Y-Yε) I
१ परतंत्रता की निवृत्ति प्रथवा शुद्ध प्रात्मतत्व की उपलब्धि को निर्वाण कहते हैं । ३ जहां राग द्वेष
[ निर्विकृति
से सन्तप्त प्राणी शीतलता को प्राप्त करते हैं उसका नाम निर्वाण है ।
निर्वाणपथ - देखो निर्वाणमार्ग | सम्मदंसण दिट्ठो नाणेण य सुठु तेहि उवलद्धो । चरणकरणेण पहम्रो निवाण हो जिणिदेहि ।। (श्राव. नि. ६१० ) । जो अरहन्तों के द्वारा समीचीन दर्शन से देखा गया है, ज्ञान के प्राय से यथावस्थित जाना गया है, तथा चरण ( व्रतादि) और करण (पिण्डविशुद्धि आदि) से प्रारावित है; वही मोक्षपथ है । निर्वाणमार्ग - निवृत्तिनिर्वाणम्, सकलकर्मक्षयजमात्यन्तिकं सुखभित्यर्थः, निर्वाणस्य मार्गो निर्वाणमार्ग इति । (श्राव. नि. हरि. वृ. ४, पृ. ७६१) । समस्त कर्मों के क्षय से जो प्रात्यन्तिक सुख प्राप्त होता है, उसका नाम निर्वाण है, इस निर्वाण के सम्यग्दर्शनरूप मार्ग को निर्वाणमार्ग कहते हैं । निर्वाणसुख-संसारसुखमतीत्यात्यन्तिकर्म कान्तिकं निरुपमं नित्यं निरतिशयं निर्वाणसुखम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १० - ७ ) 1
सांसारिक सुख का प्रतिक्रमण करके जो प्रात्यन्तिक, ऐकान्तिक ( प्रविनश्वर), अनुपम, नित्य श्रोर निरतिशय सुख है वह निर्वाणसुख कहलाता है । निर्वापकथा- पक्aापक्वान्नभेदा व्यञ्जनभेदा वेति निर्वापकथेति । XX X पक्कापक्को य होइ निव्वाश्रो । ( स्थाना. अभय वृ. ४, २, २८२ ) । tea या अपक्व श्रन्नभेदों को श्रथवा नाना प्रकार के व्यञ्जनभेदों-शाक व पापड़ आदि रसव्यञ्जक वस्तुत्रों की चर्चा को निर्वापकथा कहते हैं । निविकृति - - १. यथा रूक्षाहारस्य भोजनं तक्रेण वा शक्त्याद्यपेक्षया । विकृतयो रसाः, निर्गता विकृतयो यस्याभुक सा निर्विकृतिः । ( प्रायश्चित्त चू. १, १२) । २. निर्विकृतिः - विक्रियेते जिह्वा मनसी येनेति विकृतिगरसेक्षु रस- फलरस धन्य रसभेदाच्चतुर्षा । तत्र गोरसः क्षीर- घृतादिः, इक्षुरसः खण्डगुडादिः, फलरसः द्राक्षाम्रादिनिष्यन्दः, धान्यरसस्तैल-मण्डादिः । श्रथवा यद्येन सह भुज्यमानं स्वदते तत्तत्र विकृतिरित्युच्यते । विकृतेनिष्क्रान्तं भोजनं निविकृति । (सा. घ. स्व. टी. ५ - ३५) । २ जिस गोरल, इक्षुरस, फलरस, श्रौर धान्यरस से जिह्वा एवं मन विकार को प्राप्त होते हैं उसे विकृति कहा जता है । अथवा जो जिसके साथ
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्विचिकित्स]
६२५, जैन लक्षणावली
[निविचिकित्सा
खाने से सुस्वादु बनता है उसे विकृति समझना नां यस्तनुमस्तसंस्कृति जिनेन्द्रधर्म सुतरां सुदुष्करम् । चाहिए। इस प्रकार की विकृति से जो भोजन- निरीक्षमाणो न तनोति निन्दनं स भण्यते धन्यतमो. रहित होता है उसे निविकृति कहते हैं।
ऽचिकित्सन् ।। (अमित. श्रा. ३-७५) । ८. भेदा. निविचिकित्स-देखो निविचिकित्सा अंग। १. भेदरत्नत्रयमाराधकभव्यजीवानां दुर्गन्ध बीभत्सादिकं विचिकित्सा मतिविभ्रमः, निर्गता विचिकित्सा दृष्ट्वा धर्मबुद्धया कारुण्यभावेण वा यथायोग्य मतिविभ्रमो यतोऽसौ निविचिकित्सः। xxx विचिकित्सापरिहरणं द्रव्यनिविचिकित्सागुणो भण्य. यद्वा साधुजुगुप्सारहितः। (दशवं. नि. हरि.व. ते । यत्पुनर्जनसमये सर्व समीचीनम, परं किन्तु १८२; घ. बि. मु. व. २-११; व्यव. मलय. व. वस्त्र प्राबरण जलस्तानादिकं च न कुर्वन्ति तदेव १, प. २७)। २. तथा निर्गता विचिकित्सा चित्त- दूषणमित्यादिकुत्सितभावस्य विशिष्टविवेकबलेन विप्लुतिविद्वज्जुगुप्सा वा यस्यासौ निबिचिकित्सः। परिहरण सा निविचिकित्सा ।xxx निश्चयेन (सूत्रकृ. सू. शी. व. २, ७, ६६) । ३. विचिकित्सा पूनस्तस्यैव व्यवहारनिविचिकित्सागुणस्य बलेन फलं प्रति सन्देहः, विदः विज्ञाः, ते च तत्त्वतः साधव समस्त द्वेषादिविकल्परूपकल्लोलमालात्यागेन निर्म. एव, तज्जुगुप्पा वा; तदभावो निविचिकित्सं निवि- लात्मानुभूतिलक्षणे निजशद्धात्मनि व्यवस्थान निविज्जुगुप्सं वा । (उत्तरा. ने. व. २८-३१) । चिकित्सागुणः। (बु. द्रव्यसं. टी. ४१, पृ. १५१) । १ विचिकित्सा का अर्थ मतिविभ्रम-यक्ति और ६. विचिकित्सा जुगुप्सा अस्नान-मलधारण-नग्नप्रागम से संगत भी अर्थ में फल के प्रति संमोह त्वादिवतारुचिः, विचिकित्साया निर्गतो निविचि. (अस्थिरता) है। इस प्रकार के मतिविभ्रम से जो कित्सस्तस्य भावो निविचिकित्सता द्रव्य-भावद्वारेण रहित है उसे निविचिकित्स कहते हैं। अथवा विपरिणामाभावः । (मला. व. ५-४) । १०. तीव्र नामान्तर से उसे निविद्वज्जुगुप्स -विद्वान् साघुत्रों जैनतपस्तत्र निन्द्यं चामज्जनादिकम् । सम्यगन्यके विषय में ग्लानि से रहित-भी कहा जाता है। दिति स्वान्तत्यागः स्यान्निर्जुगुप्सता ॥ रत्नत्रययह दर्शनाचार का तीसरा भेद है।
पवित्राणां छदिलालाद्यपोहने । विचिकित्सात्ययो वा निविचिकित्सा-देखो निर्विचिकित्स । १. जो ण सा ज्ञात्वा गात्रापवित्रताम् ॥ (प्राचा. सा. ३,
गंछ चेदा सब्वेसिमेव धम्माणं। सो खल ५७-५८)। ११. स्वभावमलिने देहे रत्नत्रयपवि. णिब्विदिगिको सम्मादिट्री मूणेदवो ॥ (समयप्रा. त्रिते। जुगुप्सारहितो भावो सा स्यान्निविचिकित्स२४६) । २. स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवि. ता ।। (भावसं. वाम. ४१२)। १२. शरीरादिक त्रिते । निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निविचिकित्सता॥ पवित्रमिति मिथ्यासंकल्पनिरासो निर्विचिकित्सता । (रत्नक. १३)। ३. शरीराद्यशु चिस्वभावमवगम्य (त. वृत्ति श्रुत. ६-२४) । १३. शरीरादो शुचीति शुचीति मिथ्यासंकल्पापनयः, अर्हत्प्रवचने वा इदम- मिथ्यासंकल्परहितत्वं निविचिकित्सता । मुनीनां युक्तं घोरं कष्टम्, न चेदिदं सर्वमुपपन्नमित्यशुभ- रत्नत्रयमण्डितशरीरमलदर्शनादौ निःशूकत्वं तत्र भावनाविरहः निविचिकित्सता। (त. वा.६, २४, समाढौक्य वयावृत्त्यविधानं वा निविचिकित्सता। १)। ४. यतो हि सम्यग्दृष्टि: टंकोत्कीर्णकज्ञायक- (भावप्रा. टी. ७७)। १४. शरीराद्यशचिस्वभाव. स्वभावमयत्वेन सर्वेष्वपि वस्तुधर्मेषु जुगुप्साभावान्नि- मवगम्य शुचीति मिथ्यासंकल्पनि राश:, अथवा अर्हत. जगुप्सः, ततोऽस्य विचित्साकृतो नास्ति बन्धः, प्रवचने इदं मलधारणमयुक्तं घोरकष्टम्, न चेदिदं किन्तु निर्जरैव । (समयप्रा. अमृत. वृ. २४६)। सर्वमुपन्नम् इत्यशुभभावनानिराशः सम्यक्त्वस्य ५. क्षुत्तृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु। निविचिकित्सतानामा तृतीयो गुणः । (कातिके. टी. द्रव्येषु पुरीषादिषु विचिकित्सा नैव करणीया ॥ ३२६) । १५. दुर्दैवाद् दुःखिते पुंसि तीव्रासाता-घृणा
सि. २५)। ६. दहविहधम्मजूदाणं सहावद- स्पदे । यन्नासूयापर चेतः स्मृतो निविचिकित्सकः॥ ग्गंध-असुइदेहेसु । जं णिदणं ण कीरदि णि विदि- (लाटीसं. ४-१०२; पंचाध्या. २-५८०)। गिछा गुणो सो हु । (कातिके. ४१७) । ७. तपस्वि. १ जो प्रात्मा (जीव) सभी वस्तुधर्मों में जुगुप्सा
ल. ७६
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
निविश्यमान परिहारबिशुद्धिक] ६२६, जैन-लक्षणावली
[निर्वत्तिस्थान या ग्लानि को नहीं करता है उसे निविचिकित्स १ जो विवक्षित चारित्रकाय का परिपालन कर सम्यग्दृष्टि कहते हैं। २ मनुष्यशरीर यद्यपि स्व. चुके हैं वे निविष्टकायिक परिहार विशुद्धिक कहभाव से अपवित्र है, फिर भी चूंकि रत्नत्रय की लाते हैं। उनसे अभिन्न होने के कारण उस चारित्र प्राप्ति का कारण बह मनुष्यशरीर ही है, अतएव को भी निविष्टकायिक परिहारविशुद्धिक कहा रत्नत्रय से पवित्र मुनि प्रादि के शरीर में घृणा जाता है । को छोड़कर गुण के कारण प्रीति करना; इसे निर्वृति (निर्वाण)-नितिनिर्वाणम्-अशेषनिविचिकित्सता अंग कहते हैं। ३शरीर आदि के कर्म-रोगापगमेन जीवस्य स्वरूपेऽवस्थानम्, मुक्तिपदअपवित्र स्वभाव को जानकर 'वह पवित्र है' इस मिति यावत् । (प्राव. नि. हरि. व. ६३)। प्रकार के मिथ्या संकल्प के निराकरण को निवि- सर्व कर्मों से रहित होकर जीव के प्रात्मस्वरूप में चिकित्सा कहते हैं। प्रथवा 'जिनशासन में यदि प्रवस्थान को-मक्तिप्राप्ति को-निवति तपश्चरणादि के घोर कष्ट का विधान न होता तो कहते हैं। अन्य सब संगत था' इस प्रकार की प्रशभ भावना निति (इन्द्रिय)- १. निवर्त्य ते निष्पाद्यते इति के. दूर करने को निविचिकित्सा कहते हैं।
निर्वतिः । (स.सि. २-१७)। २. निर्वत्तिरङ्गोनिविश्यमान परिहारविशद्धिक-१. तत्र निवि. पाङ्गनामनिर्वतितानीन्द्रियद्वाराणि, कर्मविशेषसंस्कृश्यमानकास्तदासेवकाः, तदन्यतिरेकात् तदपि ताः शरीरप्रदेशाः, निर्माणनामाङ्गोपाङ्गप्रत्यया मूलचारित्रं निविश्यमान कमिति । (प्राव. नि. हरि. वृ. गुणनिर्वर्त नेत्यर्थः । (त. भा. २-१७) । ३. प्रागारो ११४, पृ. ८०)। २. तत्र निविश्यमानकम् -- निव्वत्ती चित्ता बज्झा इमा अंतो।। पुरफ कलं बुयाए प्रासेव्यमानकम्, परिभुज्यमानकमित्यर्थः xxx धन्नमसूराइमुत्त-च दो य । होइ खुरप्पो नाणागिई य सत्सहयोगात् तदनुष्ठायिनोऽपि निविश्यमानकाः । सोइंदियाईणं ।। (विशषा. ३५६१-६२) Xxx निर्वेशः उपभोगः, निविश्यमानकास्तत् ४. निर्वयते इति नित्तिः। कर्मणा या निर्वय॑ते उपभजानाः। (त. भा. सिद्ध. ब. ९-१८)। निष्पादद्यते सा निवृत्तिरित्यूपदिश्यते । (त. वा. ३. निविश्यमानका विवक्षितचारित्रसेवका: । (प्राव. २,१७,१)। ५. निर्वर्तनं निवृत्ति:-प्रतिविशिनि. मलय. व. ११४, पृ. ११६) ।
ष्टसंस्थानोत्पत्तिः । (त. भा. हरि.व. २-१७) । १ परिहार एक तपविशेष है, उससे विशुद्धि को ६. णिव्वत्ती णाम चक्खु गोलियाए णिप्पत्ती। (धव. प्राप्त चारित्र परिहारविशद्धिक कहलाता है। जो पु. ७, पृ. ४३६)। ७. स्वरूप-भेदाभ्यां निर्वर्तनं उस चारित्र का सेवन कर रहे हैं उनको तथा निर्वतिः प्रतिविशिष्ट संस्थानोत्पादः। (त. भा.
न्न उस चारित्र को भी निविश्यमानक सिद्ध.व. २-१७) । ८. कर्मणा निर्वर्त्यते इति परिहारविशुद्धिक कहते हैं।
निर्वृत्तिः । (भ. प्रा. विजयो. ११५, मूला. व. १, निविष्टकायिक परिहारविशुद्धिक-१. प्रासे- १६)। ६. तत्र निर्वृत्तिराकारः। (ललितवि. पं. वितविवक्षितचारित्र कायास्तु निविष्टकायाः, त एव पृ. ३९)। १०. निवृत्ति म प्रतिविशिष्टः संस्थानस्वाथिकप्रत्ययोपादानात् निविष्ट कायिका: तदव्यति. विशेष:। (नन्दी. सू. मलय. व. ३, पृ. ७५; रेकाच्चारित्रमपि निविष्ट कायिकमिति । (प्राव. जीवाजी. मलय. व. १३, पृ. १६; प्रव. सारो. व. नि. हरि.व. ११४, पृ. ८०) । २. निविष्टकायिक- ११०५)। ११. निर्वय॑ते निष्पाद्यते कर्मणा या मासेवितमपभक्तम, xxx निविष्टकायिकास्तु सा निवृत्तिः । (त. वत्ति श्रत. २-१७)। निविष्टः कायो येषामस्ति ते निविष्टकायिकाः, १कर्म के द्वारा जिसकी रचना की जाती है उसे तत्सहयोगात् तेनाकारेण तपोऽनुष्ठानद्वारेण परिभक्तः नित्ति कहा जाता है। ५ प्रतिविशिष्ट प्रकार की कायो यैरिति परिभक्ततादग्विवतपसः, निविष्टका- उत्पत्ति का नाम निवति हे। ६ चक्ष प्रावि यिका इत्यर्थः। (न. भा. सिद्व. व. १-१८)। इन्द्रियों की पुतली आदि के प्राकाररूप रचना होने ३. निविष्टकायिका आसेवितविवक्षितचारित्रकायाः। को निव'त्ति कहते हैं। (प्राव. नि. मलय. वृ. ११४, पृ. ११६)। निर्वृत्तिस्थान- अप्पप्पणो जहणणिव्वत्तिट्ठाणे
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्वृत्त्यक्षर ]
समऊणे अप्पप्पणो उक्कस्साग्रम्मि सोहिदे णिव्वतिट्ठाणाण होंति । ( घव. पु. १४, पृ. ३५८ ) । एक समय कम अपने अपने जघन्य निवृत्तिस्थान को अपनी अपनी उत्कृष्ट श्रायु में से कम कर देने पर निवृत्तिस्थान होते हैं । निर्वाक्षर - १. जीवाणं मुहादो णिग्गयस्स सदस्य निव्वत्तिक्खरमिदि सण्णा । ( धव. पु. १३, पृ. २६५ ) । २. कण्ठोष्ठ-ताल्वादिस्थान स्पृष्टतादिकरण प्रयत्न निर्वर्त्यमानस्वरूपं प्रकारादि ककारादिस्वर- व्यजनरूपं मूलवणं तत्संयोगादिसंस्थानं निर्वृ त्यक्षरम् । (गो. जी. जी. प्र. व मं. प्र. टी. ३३३) । १ जीवों के मुख से निकले हुए शब्द का नाम निस्पक्षर है । २ कण्ठ, श्रोष्ठ व तालु श्रादि स्थानों से तथा श्रोष्ठों के परस्पर मिलने श्रादिरूप स्पष्टतादि क्रिया व प्रयत्नों से उत्पन्न होने वाले प्रकारादि स्वर और ककारादि व्यंजनरूप मूल वर्णों को तथा उनके संयोगी प्रक्षरों को निर्वृत्य क्षर कहते हैं । निर्वृत्यपर्याप्त - १. जाव सरीरमपुण्णं णिव्वत्ति
पुण्णगो ताव | ( गो. जी. १२१ ) । २. पज्जति गिद्ध तो मणुपज्जति ण जाव समणोदि । ता व्वित्तिपुण्णो XX X ॥ ( कार्तिके. १३६) । ३. यावत्काल शरीरमपूर्णम् श्रदारिकादित्रय पर्याप्तिरनिष्पन्ना तावदाहार-शरीरपर्याप्तिद्वयकालपर्यन्तं जीवो निर्वृत्यपर्याप्तकः । (गो. जी. मं. प्र. टी. १२१) । ४. यावत् शरीरपर्याप्त्या न निष्पन्नाः तावत्समयोनशरीरपर्याप्तिकालान्तर्मुहूर्त पर्यन्तं निर्वृ - पर्याप्ता इत्युच्यन्ते । निवृत्या शरीरनिष्पत्त्या अपर्याप्ता पूर्णा निवृत्त्यपर्याप्ता इति निर्वचनात् । (गो. जी. जी. प्र. टी. १२१; कार्तिके. टी. १३६ ) । १ जब तक जीव की शरीरपर्याप्ति पुर्ण नहीं होती है तब तक उसे निर्वृस्यपर्याप्त कहा जाता है । निर्वेद - १. नरगो तिरिक्खजोणी कुमाणुसत्तं च निव्वेश्रो । ( दशवं. नि. २०३ ) । २. नरकस्तिर्य - ग्योनिः कुमानुषत्वं च निर्वेद: । ( दशवं. नि. हरि. बृ. २०३, पृ. ११३) । ३. निर्वेदो देह भोगेषु संसारे च विरक्तता । ( म. पु. १०- ५७ ) । ४. निर्वेदो विषयेष्वनभिषङ्गोऽहंदुपदेशानुसारितया यस्य भवति XXX। ( त. भा. सिद्ध. वू. १-३३ पृ. ३४ ) ;
[ निर्वेदनीरस
निर्वेदो निर्विष्णता शरीर भोग-संसारविषय व मुख्यमुद्वेगः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७-७, पू. ६३ ) । ५. देहे भोगे निन्दिते जन्मवासे कृष्टेष्वाशुक्षिप्तवाणास्थिरत्वे । यद्वैराग्यं जायते निष्प्रकम्पं निर्वेदोऽसौ कथ्यते मुक्तिहेतुः । ( प्रमित. श्री. २- ७५ )। ६. निर्वेदो भवादुद्वेजनम् । (ध. बि. मु. वृ. ३-७ ) । ७. निर्वेदो भववैराग्यम् । (योगशा. स्वो विव. २-१५) । ८. संसारवासः कार्रव बन्धनान्येव बन्धवः । संसंवेगस्य चिन्तेयं या निर्वेदः स उच्यते ॥ (त्रि. श. पु. च. १, ३, ६१४ ) । ६. संसार - शरीरभोगेषु विरक्तता निर्वेद: । ( कार्तिके. टी. ३२६ ) । १०. त्यागः सर्वाभिलाषस्य निर्वेदो लक्षणास्तथा । (लाटीसं. ३-८६; पंचाध्या. २ - ४४३ ) ।
६२७, जैन- लक्षणावली
१ नरक, तियंच अवस्था और कुमानुष पर्याय इन्हें निर्वेद कहा जाता है। यह निवेदनीकथा के प्रसंग में कहा गया है । ३ संसार, शरीर श्रीर इन्द्रियभोगों से होने वाली विरक्ति को निर्वेद कहते हैं ।
निर्वेदनीकथा - १. णित्रेयणी पुण कहा सरीरभोगे भवो य । ( भ. प्रा. ६५७) । २. पावाणं कम्मा सुभविवागो कहिज्जए जत्थ । इह य परत्थ य लोए कहा उ णिव्वेयणी नाम || ( दशवं. नि. २०१) ३. निर्वेदनीं तथा पुण्यां भोगवैराग्यकारिणीम् । (पद्मपु. १०६-१३) । ४. निवेद्यते भवादनया श्रोतेति निवेदनी । (दशवे. नि. हरि. व. २०१) । ५. संसार-सरीर भोगेसु वेरग्गुप्वाइणी णिव्वेयणी णाम । उक्तं च - XXX निर्वेगिनीं चाह कथां विरागाम् ।। (धव. पु. १, पृ. १०५ - ६ ) । ६. संसार- शरीर भोग रागजनितदुष्कर्म फलनारकादिदुष्कुल- विरूपांग- दारिद्र्घापमान दुःखादिवर्णनाद्वारेण वैराग्यकथनरूपा निर्वेजनी कथा । (गो. जी. मं. प्र. व जी. प्र. टी. ३५७) । ७. निव्वेजणीकहाए भणिउजइ परमवेरग्गं । (अंगप. ६६, पृ. २७० ) ।
१ संसार, शरीर और भोगों में वंराग्य उत्पन्न करने वाली कथा को निवेदनी कथा कहते हैं । २ इस लोक व परलोक में पाप कर्मों के अशुभ फल का कथन करने वाली चर्चा को निवेदनी कथा कहा जाता है ।
निवेदनीरस - थोपि पमायकयं कम्मं साहिज्जई
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्व्याघातपादपोपगमन ]
जहि नियमा । पउरासुहपरिणामं कहाइ णिव्वेयणीइरसो || ( दशवं. नि. २०२ ) । जहाँ पर तीव्र अशुभ फल वाले प्रभादकृत कर्म का नियम से थोड़ा सा भी कथन किया जाता है वह निवेदनीकथा का रस (सार) है। निर्व्याघातपादपोपगमन - १. निर्व्याघातं तु प्रव्रज्या शिक्षा पदादिक्रमेण जराजर्जरितशरीरः करो ति, यदुपहितचतुविधाहारप्रत्याख्यानो निर्जन्तुकं स्थण्डिलमाश्रित्य पादप इवैकेन पाइवेन निपत्यापरिस्पन्दस्तावदास्ते प्रशस्तध्यानव्यापृतान्तःकरणो यावदुत्क्रान्ताः प्राणास्तदेतत् पादपोपगमनाख्यम् श्रनशनम् । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वू. ६-१६) । २. निर्व्याघातवत् पुनर्यत्सूत्रार्थ तदुभयनिष्ठितः शिष्या निष्पाद्योत्सर्गत: द्वादशसमाः कृतपरिकर्मा सन्ध्याकाल एवं करोति । उक्तं च- चत्तारि विचिताई विगईनिज्जू हियाइं चत्तारि । संवच्छ रे दोणि उ एगंतरि च श्रायामं ॥ णाइविगट्ठो तवो छम्मासे परमिश्रं च आयामं । श्रन्ने वि अ छम्मासे होइ विगिट्ठे तवोकम्मं । वासं कोडीसहियं का प्रणुपुवीए । गिरिकंदरं तु गंतुं पायवगमणं ग्रह करेइ ।। (दशवं. नि. हरि. वृ. पृ. २६-२७) ।
अ
१ प्रव्रज्या शिक्षा या पद श्रादि के क्रम से जिसका शरीर वृद्धपन से जर्जरित हो गया है वह निर्ध्याघातपादपोपगमन अनशन को करता है तब वह चारों प्रकार के प्रहार के परित्याग को स्वीकार करके जीव जन्तुरहित शुद्ध भूमि का श्राश्रय लेता है और वहां पादप (वृक्ष) के समान एक पार्श्वभाग पड़कर हलन चलन से रहित होता हुआ प्रशस्त ध्यान में मन को तब तक लगाता है जब तक कि प्राण नहीं निकलते, यह निर्व्याघातपादपोपगमन नाम का अनशन है ।
नियूँढ ( खिज्जूढ ) – सम्मं धम्मविसेसो जहि कस - छेप्र-तावपरिसुद्धो । वणिज्जइ निज्जूढं एवं विहमुत्तमसुनाई || सम्यग् धर्मविशेषः पारमार्थिकः यत्र ग्रन्थरूपे कषच्छेद- तापपरिशुद्धः - त्रिकोटिदोषवर्जितः वर्ण्यते, सम्यक् निर्व्यूढमेवंविधं भवति ग्रन्थरूपं तच्चोत्तमश्रुतादि, उत्तमश्रुतं - स्तवपरिज्ञा इत्येवमादीति गाथार्थ: । ( पञ्चव. १०२० ) । जिसमें कष, छेद और ताप से शुद्ध धर्मविशेष का
[निश्चय काल
( सुवर्ण के समान) समीचीनता से वर्णन किया जाता है ऐसे उत्तम श्रुत आदि को निर्व्यूढ कहा जाता है ।
निहरिम- यद्वसतेरेकदेशे विधीयते तत्ततः शरीरस्य निर्हरणात् निस्सारणान्निहरिमम् । ( स्थाना. अभय वृ. २, ४, १०२ ) ।
जो मरण वसति के एकदेश में किया जाता है उसे निहरिम पादपोपगमन कहते हैं। वहां से चूंकि उसके निर्जीव शरीर का निर्हरण किया जाता है, अतः उक्त मरण की 'निहरिम' संज्ञा सार्थक है । निवसनपरिमाण - देखो नियंसण । निवृत्तिगुणस्थान - १. यद् बादरकषायाणां प्रविष्टानामिमं मिथः । परिणामा निवर्तन्ते निवृत्तिबादरोऽपि तत् || ३६ || (योगशा. स्वो विव. १-१६, पृ. ११२ ) । २. प्रपूर्व करणाद्धायाश्चान्तमौहूर्तिक्याः प्रथमसमये जघन्यादीन्युत्कृष्टान्तान्यध्यवसायस्थानानि असंख्येयलोकाकाशप्रदेशमात्राणि, द्वितीयसमये तदन्यान्यधिकतराणि, तृतीयसमये तदन्यात्यधिक तराणि चतुर्थसमये तदन्यान्यधिकतराणीत्येवं यावच्चरमसमय इति । तानि च स्थापनायां विषमचतुरत्र क्षेत्रमास्तृणन्ति । XXX प्रथमसमयजघन्यात प्रथमसमयात्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धम्, तस्माद् द्वितीयसमयजघन्यमनन्तगुणविशुद्धम्, तस्मादुत्कृष्टमनन्तगुणेण विशुद्धमिति । एवं यावद् द्विचरमसमयोत्कृष्टाच्चरमसमयज वन्यमनन्तगुणविशुद्धम्, तस्मादुत्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धमिति । एकसमयगतानि तु परस्परं षट्स्थान पतितानीति । युगपदेतद्गुणस्थान प्रविष्टानां बहूनां जीवानामन्योऽन्यस्य सम्बन्धिनोऽध्यवसायस्थानस्यास्ति निर्वृत्तिरपीति निवृत्तिगुणस्थानमपीदमुच्यते । ( कर्मस्त. गो. वृ. २) ।
१ बादर कषाय से युक्त होते हुए श्रपूर्वकरण गुणस्थान में प्रविष्ट जीवों के परिणाम चूंकि परस्पर में निवर्तमान होते हैं, अतः इस गुणस्थान को बादरनिवृत्तिगुणस्थान भी कहा जाता है। निश्चय काल - १. तदाधारभूतं द्रव्यं निश्चयकाल: । (पंचा. का. अमृत. वृ. १०० ) । २. णिच्छयकालु पवत्तणलक्खणु (म. पु. पुष्प. २-४, पृ. २२ ) । ३. XXX वट्टणलक्खो य परमट्टो ॥ लोयायासपदे से इक्केवके जे ट्टिया हु इक्केक्का । रयणाणं रासीमिव ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥
६२८, जैन-लक्षणावली
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
निश्चय चारित्र ]
( द्रव्यसं. २१-२२ ) । ४. पदार्थ परिणतेर्यत्सहकारित्वं सा वर्तना भण्यते । सैव लक्षणं यस्य स वर्तनालक्षण: कालाणुद्रव्य रूपो निश्चयकालः । × × × योऽसावनाद्यनिधनस्तथैवामूर्ती नित्यः समयाद्युपादानकारणभूतोऽपि समयादिविकल्परहितः कालाणुद्रव्यरूपः स निश्चयकालः । (बृ. द्रव्यसं. टी. २१, पृ. ५२ ) । ५. अनाद्यनिधनः समयादिकल्पनाभेदरहितः कालाणुद्रव्यरूपेण व्यवस्थितो वर्णादिमूर्तिरहितो निश्चयकालः । (पंचा. का. जय. बु. १०१ ) । १ व्यवहारकाल के श्राधारभूत द्रव्य को - कालाणु को - निश्चय काल कहते हैं । निश्चय चारित्र - १. रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वाभाविक सुखास्वादेन निश्चलचित्तं वीतरागचारित्रम्, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयचारित्राचारः । (बृ. द्रव्यसं. टी. ५२, पृ. १६२ ) । २. तेषामेव शुद्धात्मनो भिन्नत्वेन निश्चयं कृत्वा रागादिविकल्परहितत्वेन स्वशुद्धात्मन्यवस्थानं निश्चयचारित्रम् । ( समयप्रा. जय. वृ. १६५ ) । ३. × × × वान्दाशेषकषायकर्मभिदुदासीनं च रूपं चितः । (अन. घ. १-६१ ) ; वान्ताश्छर्दिता स्वतो विश्लेषिता अशेषाः सर्वे कषायाः क्रोधादयो हास्यादयश्च यस्य तद्वान्ताशेषकषायम्, कर्म ज्ञानावरणादि मनोवाक्कायव्यापारांश्च भिनत्तीति कर्मभित्, उदास्यते इत्युदासीनमुपेक्षाशीलम्, वान्ताशेषकषायं च तत् कर्मभिच्च तद् वान्ताशेषकषायकर्मभित्, तच्च तदुदासीनं च तत् तथाभूतमात्मनो रूपं निश्चयसम्यक्चारित्रं स्यात् । (अन. ध. १-६१ ) । ४. तत्रानवरताभ्यासइचारित्रं निश्चयात्मकम् । कर्मोपचय हेतूनां निग्रहो व्यवहारतः ॥ निराकुलत्वजं सौख्यं स्वयमेवावतिष्ठतः । यदात्मनैव संवेद्यं चारित्रं निश्चयात्मकम् ॥ अगोचरं तद्वचसामक्षसौख्यातिरेकभाक् । न भयं न स्पृहा यत्र चारित्रं निश्चयात्मकम् ।। ( मोक्षपं. ४४-४६)।
१ श्रोपाधिक रागादि विकल्पों से रहित स्वाभाविक सुख के स्वाद से जो चित्त की स्थिरता होती है, इसका नाम वीतराग चारित्र या निश्चय चारित्र है । निश्चय ज्ञान - X X X शत्यत्रयविभावपरिणामप्रभृतिसमस्त शुभाशुभसंकल्प-विकल्परहितेन परमस्वास्थ्यसंवित्तिसमुत्पन्नतात्त्विक परमानन्दे कलक्षणसुखामृततृप्तेन स्वेनात्मना स्वस्य सम्यग् निर्विकल्प
[निश्चय प्रतिक्रमण
रूपेण वेदनं परिज्ञानमनुभवनमिति निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानमेव निश्चयज्ञानम् । (बू. द्रव्यसं . टी. ४२, पृ. १६१) ।
समस्त शुभाशुभ संकल्प-विकल्पों से रहित परमानन्दरूप श्रात्मा के स्वरूप का वेदन करना, यह निश्चय ज्ञान कहलाता है । निश्चय तपश्चरणाचार- समस्त परद्रव्येच्छानिरोधेन तथैवानशनादिद्वादशतपश्चरणबहिरंग सहकारिकारणेन च स्वस्वरूपे प्रतापनं विजयनं निश्चयतपश्चरणाचारः । (बृ. द्रव्यसं. टी. ५२, पू. १६२ ) । समस्त परद्रव्यों की इच्छाओं को रोककर अनशन श्रादि बारह प्रकार के तपों को तपते हुए श्रात्मस्वरूप में तपन को निश्चय तपश्चरणाचार कहते हैं ।
निश्चय दर्शनाचार - भूतार्थनयविषयभूतः शुद्धसमयसारशब्दवाच्यो भावकर्म द्रव्यकर्म-नोकर्मादिसमस्त परद्रव्येभ्यो भिन्नः परमचैतन्यविलासलक्षणः स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं सम्यग्दर्शनम्, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयदर्शनाचारः । (बु. द्रव्यसं. टी. ५२ ) ।
द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मादि समस्त परद्रव्यों से भिन्न उत्कृष्ट चैतन्यस्वरूप अपनी शुद्धात्मा ही उपादेय है, इस प्रकार के श्रद्धानरूप निश्चयसम्यग्दर्शन में श्राचरण करने को निश्चय दर्शनाचार कहते हैं ।
निश्चय नय - १. XXX भूदत्थो सिदो दु सुद्धणो । ( समयप्रा. १३) । २. निश्चयमिह भूतार्थं XXX। (पु. सि. ५) । ३. शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चनयः । ( प्रव. सा. अमृत. वृ. २-६७ ) । ४. भूतार्थदर्शिनस्तु स्वमतिनिपातितशुद्धनयानुबोधमात्रोपजनितात्मकर्मविवेकतया स्वपुरुषाकाराविर्भावित सहजै कज्ञायकस्वभावत्वात् प्रद्योतमानैकज्ञायकस्वभावं तमनुभवन्ति । तदत्र ये भूताधमाश्रयन्ति त एव सम्यक् पश्यन्तः सम्यग्दृष्टयो भवन्ति, न पुनरन्ये, कतकस्थानीयत्वात् शुद्ध नयस्य । ( समयप्रा. श्रमृत. वृ. १३) । ५. श्रभिन्नकर्तृ - कर्मादिविषयो निश्चयो नयः । (तत्त्वानु. २९ ) । ३ शुद्ध द्रव्य के निरूपण करने वाले नय को निश्चय नय या शुद्ध नय कहते हैं । निश्चय प्रतिक्रमण - शुद्ध निर्विकल्प परमात्मतत्त्व
६२६, जैन-लक्षणावली
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
निश्चय प्रत्याख्यान ]
भावनाबलेन दृष्टश्रुतानुभूत भोगाकांक्षास्मरणरूपाणामतीत रागादिदोषाणां निराकरणं निश्चयप्रति क्रमणं भवति । (परमा वृ. २-६४ ) । शुद्ध, निर्विकल्प परमात्मतत्व की भावना के बल से दृष्ट, भुत व अनुभूत भोगों की स्मृतिस्वरूप प्रतीत रागादि दोषों के निराकरण करने को निश्चय प्रतिक्रमण कहते हैं । निश्चय प्रत्याख्यान - १. पुनर्भाविकाले संभाविनां निखिलमोह राग-द्वेषादिविविधविभावानां परिहारः परमार्थ प्रत्याख्यानम् । श्रथवानागतकालोद्भव: विविधान्तर्ज्जल्पपरित्यागः शुद्धं निश्चयप्रत्याख्यानम् । (नि. सा. वृ. १०५ ) । २. वीतरागचिदानन्दे कानुभूतिभावनाबलेन भाविभोगाकांक्षारूपाणां रागादीनां त्यजनं निश्चयप्रत्याख्यानं भाव्यते । (परमा वृ. २-६४ ) ।
२ वीतराग चिदानन्दरूप प्रात्मानुभूति की भावना के बल से श्रागामी काल में भोगों की श्राकांक्षारूप रागादि के त्याग को निश्चय प्रत्याख्यान कहते हैं । निश्चय मोक्षमार्ग - १. निजनिरंजन शुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धान-ज्ञानानुचरणैकाग्रयपरिणतिरूपो निश्चयमोक्षमार्ग: । (बृ. द्रव्यसं. टी. ३६) । २. निजशुद्धात्मसम्यक् श्रद्धान-ज्ञानानुष्ठानरूपो निश्चयमोक्षमार्गः । (परमा. वृ. २- १४ ) ।
१ अपने नित्य, निरंजन, शुद्ध प्रात्मतत्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और प्राचरणरूप एकाग्र परिणति को निश्चय मोक्षमार्ग कहते हैं ।
निश्चय लोक - आदिमध्यान्तमुक्ते शुद्धबुद्धक स्व. भावे परमात्मनि सकल विमल केवलज्ञान लोचनेनादर्श बिम्बानीव शुद्धात्मादिपदार्था लोक्यन्ते दृश्यन्ते ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते यतस्तेन कारणेन स एव निश्चयलोकस्तस्मिन्निश्चयलोकाख्ये स्वकीय शुद्धपरमात्मनि अवलोकनं वा स निश्चयलोकः । ( ब. द्रव्य.टी. ३५, पू. १२५ ) । आदि, मध्य और अन्त से रहित शुद्ध बुद्धकस्वभावरूप परमात्मा के निर्मल केवलज्ञानरूप दर्पण में प्रतिबिम्बों के समान शुद्ध आत्मादि सर्व पदार्थ आलोकित होते हैं, इसलिए शुद्ध परमात्मा को ही -निश्चय लोक कहते हैं ।
निश्चय वात्सल्य - निश्चयवात्सल्यं पुनस्तस्यैव व्यवहारवात्सल्यगुणस्य सहकारित्वेन धर्मे दृढत्वे
६३०, जन-लक्षणावली
[ निश्चय सम्यक्त्व
जाते सति मिथ्यात्व - रागादिसमस्त शुभाशुभ बहिर्भावेषु प्रीति त्यक्त्वा रागादिविकल्पोपाधिरहितपरमस्वास्थ्यसंवित्ति संजातसदानन्दै कलक्षणसुखामृतरसास्वादं प्रति प्रीतिकरणमेवेति । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४१, पू. १५४) ।
व्यवहार वात्सल्य गुण की सहकारिता से धर्म में दृढ़ता के हो जाने पर मिथ्यात्व व रागादि रूप समस्त शुभाशुभ बाह्य भावोंसे प्रीति छोड़कर रागादि विकल्परूप उपाधि से रहित उत्कृष्ट स्वास्थ्य के संवेदन से उत्पन्न हुए शाश्वतिक परमानन्दरूप सुखामृत के रसास्वादन में प्रीति करने को निश्चय वात्सल्य कहते हैं ।
निश्चय वीर्याचार - निश्चयचतुर्विद्याचारस्य रक्षणार्थ स्वशक्त्यनवगूहनं निश्चयवीर्याचारः । (बु. द्रव्यसं. टी. ५२, पृ. १६२ ) ।
निश्चय दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार और तपाचार की रक्षा के लिए अपनी शक्ति के नहीं छिपाने को निश्चय वीर्याचार कहते हैं । निश्चय श्रुतकेवली - १. XXX ततो गत्यन्तराभावात् ज्ञानमात्मेत्यायात्यतः श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात् । एवं सति य श्रात्मानं जानाति स श्रुतकेंवलत्यायाति स तु परमार्थ एव । ( समयप्रा. श्रमृत. वृ. १० ) । २. यो भावश्रुतरूपेण स्वसंवेदनज्ञानेन शुद्धात्मानं जानाति स निश्चयश्रुतकेवली । ( समयप्रा. जय. वृ. १० ) ।
१ जो ज्ञानस्वरूप श्रात्मा को जानता है वह श्रुतकेवली कहलाता है । २ जो भावश्रुतरूप स्वसंवेदनज्ञान के द्वारा शुद्ध श्रात्मा को जानता है उसे निश्चय श्रुतकेवली कहते हैं ।
द्रव्य
निश्चय सम्यक्त्व - १. x x x णिच्छयदो अप्पाणं (सद्दहणं) हवइ सम्मत्तं ॥ ( दर्शनप्रा. २०)। २. केवलज्ञानादिगुणास्पदनिजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वम् । सं. टी. १४) ; तथैव तेनैव व्यवहारसम्यक्त्वेन पारस्पर्येण साध्यं शुद्धोपयोगलक्षण निश्चय रत्नत्रयभावनोलन्नपरमाह्लादैकरूप सुखामृतरसास्वादनमेवोपादेयमिन्द्रियसुखादिकं च हेयमिति रुचिरूपं वीतरागचारित्राविनाभूतं वीतरागसम्यक्त्वाभिधानं निश्चयसम्यक्त्वं च ज्ञातव्यम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४१, पू. १५६ ) । ३. वीतरागसम्यक्त्वं निजशुद्धात्मानुभूति
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
निश्चय सम्यग्ज्ञान]
६३१, जैन-लक्षणावली
[निषद्यापरिषहविजय
लक्षणं वीतरागचारित्राविनाभतम, तदेव निश्चय- का नाश होता है, इसे निश्चय हिंसा कहा जाता सम्यक्त्वम् । (परमा. व. १४३)। ४. तेषामेव है। अभिप्राय यह है कि अपनी अपनी भावनाभूतार्थेनाधिगतानां पदार्थानां शुद्धात्मनः सकाशात् रूप निश्चय प्राण के विधात की कारणभूत भिन्नत्वेन सम्यगवलोकनं निश्चयसम्यक्त्वम् । (सम- रागादि परिणति को निश्चय हिंसा जानना यप्रा. जय. व. १६५)। ५. मिथ्यार्थाभिनिवेश- चाहिए। शन्यम् Xxx।(अन. ध. १-६१)3; मिथ्या निश्चयालोचन-निजशद्धात्मोपलम्भबलेन वर्तमाविपरीतः प्रमाण बाधितोऽर्थो मिथ्यार्थः, सर्वथकान्त- नोदयागत शुभाशभनिमित्तानां हर्ष-विषादादिपरिमिथ्यार्थस्याभिनिवेश प्राग्रहो मिथ्यार्थाभिनिवेश:, णामानां निजशुद्धात्म द्रब्यात् पृथक्करणं निश्चयातेन शून्यं रहितम् । अथवा मिथ्या अर्थाभिनिवेशो लोचनम् । (परमा. व. १६१)। यस्मात् तन्मिथ्यार्थाभिनिवेशं दर्शन मोहनीयं कर्म, अपनी शद्ध प्रात्मा की उपलब्धि के बल से वर्ततेन शून्यमात्मनो रूपं निश्चयसम्यग्दर्शनं स्यात् । मान में उदय को प्राप्त हुए पुण्य-पाप के निमिसभूत (अन. ध. स्वो. टी. १-६१)।
हर्ष-विषादाविरूप परिणामों को अपने शव १ प्रात्मा का श्रद्धान करना, यह निश्चय सम्यक्त्व प्रात्मद्रव्य से पृथक करना, इसका नाम निश्चय कहलाता है। ३ स्वकीय प्रात्मा के अनुभवस्वरूप पालोचना है।। जो वीतराग चारित्र का अविनाभावी वीतराग निश्रावचन-एक कंचन निश्राभूतं कृत्वा या सम्यक्त्व है उसे निश्चय सम्यक्त्व कहते हैं। विचित्रोक्तिरसो निश्रावचनम् । (दशवं. नि. हरि. निश्चय सम्यग्ज्ञान-१. तेषामेव (भूतार्थेनाधि- व. ७३)। गतानां पदार्थानामेव) सम्यकपरिच्छित्तिरूपेण किसी एक को पालम्बनभूत करके जो विचित्र वचन शुद्धात्मनो भिन्नत्वेन निश्चयः सम्यग्ज्ञानम् । बोला जाता है उसे निश्रावचन कहते हैं। (समयप्रा. जय.व. १६५)। २. xxx अभव- निश्रित-देखो निःसृत और अनिश्रित । निश्रितो त्सन्देह-मोहभ्रमम् xxx । (अन. ध. १-६१); लिङ्गप्रमितोऽभिधीयते । (त. भा. सिद्ध. व. १, प्रभवन्तोऽद्यिमानाः सन्देह-मोह-भ्रमा यस्य तदात्मनो १६)। रूपं निश्चयसम्यग्ज्ञानम् । (मन. घ. स्वो. टी. लिंग (हेतु) से जो ज्ञान होता है उसे निश्रित
अवग्रह कहते हैं। १ भूतार्थस्वरूप से जाने गये जीवादि पदार्थों को निषद्या-निषद्या समस्फिगनिवेशनं पर्यबन्धासमीचीन बोध के द्वारा शुद्ध प्रात्मा से भिन्न दि। (त. भा. सिद्ध. व. ७-१६, पृ. ६३) । जानना, इसे निश्चय सम्यग्ज्ञान कहते हैं। कटिभाग को सम रखकर पद्मासन प्रादि प्रासनों से निश्चय सुख-xxx केवलज्ञानान्तर्भूतं यदना- बैठने को निषद्या कहते हैं । कुलत्वलक्षणं निश्चयसुखम् xxx 1 (पंचा. का. निषद्यापरिषहविजय-१. श्मशानोद्यान-शून्यायतजय. वृ.५८)।
नगिरिगुहा-गह्वरादिष्वनभ्यस्तपूर्वेषु निवसत प्रादिकेवलज्ञान के अन्तर्गत आकुलता रहित सुख को त्यप्रकाश स्वेन्द्रियज्ञानपरीक्षित प्रदेशे कृतनियमक्रियस्य निश्चय सुख कहते हैं।
निषद्यां नियमितकालामास्थितवत: सिंह-व्याघ्रादिनिश्चय हिंसा-बहिरङ्गान्यजीवस्य मरणेऽमरणे विविध भीषणध्वनिश्रवणान्निवृत्तभयस्य चतुर्विधोपवा निविकारस्वसंवित्तिलक्षण प्रयत्न रहितस्य निश्च- सर्गहनादप्रच्युतमोक्षमार्गस्य वीरासनोत्कुटिकाद्यायशुद्धचैतन्यप्राणव्यपरोपणरूपा निश्चहिंसा भवति। सनादविचलितविग्रहस्य तत्कृतबाघासहनं निषद्यापXxx अयमत्रार्थ:-स्व-स्वभावनारूपनिश्चय- रिषहविजयः । (स.सि. ६-६)। २. संकल्पितासप्राणस्य विनाशकारणभूता रागादिपरिणति निश्चय- नादविचलनं निषद्यातितिक्षा । श्मशानोद्यान शन्याहिंसा भण्यते । (प्रव. सा. जय. वृ. ३-१७)। यतन-गिरि गुहा गह्वरादिषु अनभ्यस्तपूर्वेषु विदित. जीव मरे या न मरे, निविकार स्वसंवेदनरूप संयमक्रियस्य धर्यसहायस्योत्साहवतो निषद्यामधिप्रयत्न के बिना जो निश्चय शुद्ध चैतन्यरूप प्राण रूढस्य प्रादुर्भूतोपसर्ग-रोगविकारस्यापि सतः तत्प्रदे
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
निषद्यापरिपहविजय ]
शादविचलत: मंत्र-विद्यालक्षणप्रतीकाराननपेक्षमास्य क्षुद्रजन्तुप्रायविषमदेशाश्रयात् काष्ठोपलवन्निश्चलस्यानुभूतमृदुकुथास्तरणादिस्पर्शसुख म विगणयतः प्राणिपीडापरिहारोद्यतस्य ज्ञान-ध्यान-भावनाधीनधियः संकल्पितवीरासनोत्कुटि कासनादिरते रासनदोषजयान्निषद्यातिदिक्षेत्याख्यायते । (त. वा. ६, ६, १५; चा. सा. पृ. ५२ ) । ३. श्मशानादिनिषिद्यासु स्त्रयादिकण्टकवजिते । उपसर्गाननिष्टेष्टानेकोऽभीरस्पृहः क्षमेत् ॥ (श्राव. नि. हरि. वृ. ६१८, पृ. ४०३ ) । ४. निषीदन्त्यस्यामिति निषद्या स्थानं स्त्रीपुरुष पण्डकविवर्जितमिष्टानिष्टोपसर्ग जयिना तत्राद्विग्नेन निषद्यापरिषहजयः कार्यः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६ - ६ ) । ५. संकल्पितासनादविचलनं निषद्यातितिक्षा । (त. इलो. ६-६ ) । ६. निषिद्या श्मशा नोद्यानशून्यायतनादिषु वीरासनत्कुटिकाद्यासन जनितपीडा XX X तत्क्षमणं निषद्यापरिषहजयः । (मूला. व. ५, ५७-५८ ) । ७. सर्वाशाशमहान्ध - कारपुरुजाऽऽयामां त्रियामां यमी योग योगमयत्यवा
हमभोर्मुहूर्त यथा । क्षेत्रे स्त्रीजन पश्ववद्य रहिते हृद्ये निषद्यास्थितः सन्नत्यु प्रनिशाचराप्रतिहत ध्यानो निषद्याजयी || ( श्राचा. सा. ७-२४) । ८. भीष्मश्मशानादिशिलातलादौ विद्यादिनाऽजन्यगदायुदीर्णम् । शक्तोऽपि भङ्क्तं स्थिरमङ्गिपीडां त्यक्तुं निषद्यासहन: समास्ते । ( झन. ध. ६ - ६८ ) । ६. श्मशानादिस्थितस्य संकल्पितवीरासनाद्यन्यतमासनस्य प्रादुर्भूतोपसर्गस्यापि तत्प्रदेशाविचलतोऽकृत मंत्र-विद्यादिप्रतीकारस्य अनुभूतमृद्वास्तरणादिकमस्मरतश्चित्तविकाररहितस्य निषद्यातितिक्षा | ( धारा. सा. टी. ४० ) । १०. यो मुनिः पितृवन शून्यागार-पर्वतगुहा-गह्वरादिषु पूर्वानभ्यस्तेषु निवास करोति, भास्कर निजेन्द्रियज्ञानोद्योत परीक्षित प्रदेशे क्रियाकाण्डकरणार्थं नियतकालां निषद्यामाश्रयति, तत्र च दूरक्षहर्यंक्षत रक्षु-द्वीपि-गजादिनानाभयानकपाकवशब्दश्रवणादिनापि निर्मयो भवति, देवतिर्यममुष्याचेतनकृतोपसर्गान् यथासम्भवं सहमानोsपि वीरासन कुक्कुटासनादिषु प्रविघटमानशरीरो भवति, मोक्षमार्गान्न प्रच्यवते, मंत्र-विद्यादिप्रतीकारं न करोति, पूर्वोक्तदुष्टश्वापदबाधां च सहते, तस्य मुनेर्निषद्यापरीषहजयो भवति । (त. वृत्ति श्रुत. e-e)।
[निषिद्धिका
१ श्मशान, उद्यान, सूना घर, पर्वत की गुफा श्रीर गर ( पर्बत का प्रकृत्रिम बिल) आदि अपरिचित स्थानों में रहते हुए जो सूर्य के प्रकाश और इन्द्रियजन्य ज्ञान से परीक्षित स्थान में नियमकृत्य को करता है, नियत समय तक शासन से स्थित रहता है— उससे विचलित नहीं होता है, सिंहादि हिंसक जीवों के भयानक शब्द को सुनता हुआ भी भयभीत नहीं होता, चारों प्रकार के उपसर्ग को सहता हुश्रा मोक्षमार्ग में स्थिर रहता है, तथा वीरासन प्रादि प्रासनविशेष से स्थित होता हुआ शरीर को स्थिर रखता है; ऐसा साधु निषद्यापरीषह का जीतनेवाला होता निषधाचल - १. निषोधन्ति तस्मिन्निति निषधः । यस्मिन् देवा देव्यश्च क्रीडार्थं निषीधन्ति स निषधः । (त. वा. ३, ११, ५) । २. निषीदन्ति तस्मिन्निति निषघो हरि- विदेहयोर्मर्यादाहेतुः । (त. इलो. ३ - ११) ।
|
१ जिसके ऊपर देव देवियां क्रीड़ा के लिये स्थित होते हैं उस पर्वत को निषधाचल कहा जाता है । निषिद्धिका ( श्रुतविशेष) - णिसिहियं बहुविहपायच्छित्तविहाणवष्णणं कुणइ । ( धव. पु. १, पृ. ८); णिसिहियं पायच्छित्तविहाण मण्णं पि श्राचरणविहाणं कालमस्सिदूण परूवेदि । ( धव. पु. ६, पृ. १६१ ) ।
जिस अंगबाह्य श्रुत में बहुत प्रकार के प्रायश्चित्त के विधान की प्ररूपणा की जाती है उसे निषिद्धका कहते हैं । यह सामायिक व चतुर्विंशति श्रादि श्रंगबाह्य श्रुत के चौदह अर्थाधिकारों में से एक है । निषिद्धिका ( सामाचार विशेष ) - १. कंदरपुलिण-गुहादिसु पवेसकाले णिसिद्धियं कुज्जा । ( मूला. ४ - १३) । २. णिसिही निषेधिका परिपृच्छ्य प्रवेशनम् । (मूला. वृ. ४-४) । ३. जीवानां व्यन्तरादीनां बाधायें यन्निषेवनम् । अस्माभिः स्थीयते युष्मद्दिष्टयैवेति निषिद्धिका ।। (श्राचा. सा. २ - ११) ।
१ कन्दर ( जल से विदारित स्थान), पुलिन (जल के मध्यगत जलरहित देश ) और गुफा आदि में प्रवेश करते समय व्यन्तरादि से पूछ करके प्रवेश करना; इसका नाम निषिद्धिका या निषेधिका है । यह दस प्रकार के औधिक सामाचार में पांचवां है।
६३२, जैन-लक्षणावली
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
निषीय ]
निषीय ( निसीह) - | देखो निषिद्धिका ( श्रुतविशेष ) । पच्छन्नं तु निसीहं निसीहह्नामं जहज्झयणं । ( श्राव. नि. १०२१ ) 1
जिसका पाठ व उपदेश एकान्त में किया जाता है ऐसे प्रच्छन्न श्रुत को निशीथ कहा जाता है। यह बद्ध लोकोत्तर श्रुत है । जैसे- श्राचारांग की द्वितीय चूलिका के श्रन्तर्गत निषीय नामक एक
अध्ययन |
निषीथिका (निसीहिया ) - एग्गंता सालोगा णाfatafaट्ठाण चावि सण्णा । वित्थिष्णा विद्वत्ता णिसीहिया दूरमागाढा ।। (भ. श्री . १९६८ ) । जो एकान्त में हो, प्रकाश युक्त हो, नगर श्रादि से न प्रति दूर हो और न प्रति समीप भी हो, विस्तीर्ण हो, प्रासुक हो, तथा अतिशय दृढ़ हो; ऐसी निषीथिका या निषद्या होती है, जहां प्राराधक के निर्जीव शरीर को स्थापित किया जाता है । निषेक - १. आबाघूणिया कम्मदिट्ठी कम्मणिसेप्रो । ( ष. खं. १, ६- ६, ६ व ६ श्रादि, पू. १५० श्रादि ) । २. निषेचनं निषेकः, कम्मपरमाणुक्खंघणवखेवो णिसेगो णाम । ( धव. पु. ११, पृ. २३७ ) । ३. प्राबाहूणियम्मदी णिसेगो दु सत्तकम्माणं । (गो. क. १६० व ६१९ ) । ४. प्रावाघोवंस्थितावस्यां समयं समयं प्रति । कर्माणुस्कन्धनिक्षेपो निषेकः सर्वकर्मणाम् ॥ ( पंचसं श्रमित. २०६, पृ. १३१) । ५. निषेकश्च प्रतिसमयं बहु-हीन-हीनतरस्य दलिकस्यानुभवनार्थं रचना निघत्तमपीह निषेक उच्यते । (समवा. अभय वृ. १५४) ।
१ विवक्षित कर्म की स्थिति में से उसके श्रावाघाकाल को घटा देने पर शेष रही स्थिति प्रमाण उसका निषेक- प्रत्येक समय में क्रम से उदय में श्राने वाला कर्मस्कन्ध - होता है। विशेष इतना है कि घायु कर्म की निषेकरचना उसकी स्थिति के समयों प्रमाण ही होती है । निषेकक्षुद्रभवग्रहण - सुहुमेइंदियप्रपज्जत्तसंजुतो जहण्णा उप्रबंघो णिसेयखुद्दाभवग्गहणं णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ३६२) ।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय प्रपर्याप्त नामकर्म के साथ जो जघन्य आयु का बन्ध होता है उसका नाम निषेकक्षुद्रभवग्रहण है ।
ल. ८०
६३३, जैन- लक्षणावली
[ निष्कृप निषेक स्थितिप्राप्तक - १. जं कम्मं जिस्से द्विदीए णिसितं प्रोकडिदं वा उक्कड्डिदं वा तिस्से चेव द्विदीए उदए दिस्सइ तं णिसेर्याट्ठदिपत्तयं । ( कसायपा. चू. पृ. २३६) । २. जं कम्मं जिस्से द्विदीए णिमित्तं तमोकड्डुक्कडुणाहि हेट्टिम उवरिमट्ठिदीण गंतूण पुणों श्रोव डुक्कड्डुणवसेण ताए चेव द्विदीए हो जहा णिसितेहि सह उदए दिस्सदि तणिसे यपित्तयं णाम । ( धव. पु. १०, पृ. ११३) । १ जो कर्मप्रदेशाग्र बंधने के समय में ही जिस स्थिति में निषिक्त कर दिया गया है वह श्रपकर्षित उत्कर्षित होकर उसी स्थिति में यदि उदय में श्राता है तो उसे निषेकस्थितिप्राप्तक कर्म कहते हैं । निषेधिका - देखो निषिद्धिका ।
निष्कल परमात्मा - निष्कलो मुक्तिकान्तेश श्चिदानन्दैकलक्षणः । अनन्त सुख संतृप्तः कर्माष्टकविवजित: । ( भावसं वाम. ३५७) ।
जो प्राठ कर्मों से रहित होकर मुक्तिरूप कान्ता का स्वामी हो चुका है - सिद्ध हो चुका है - वह श्रनन्त सुख का अनुभव करने वाला निष्कल परमात्मा कहलाता है ।
निष्काङ्क्षा गुण - देखो निःकांक्षित अंग । इहलोक-परलोकाशा रूपभोगाकाङ्क्षा निदानत्यागेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणव्यक्तिरूपमोक्षार्थं ज्ञान- पूजा - तपश्चरणाद्यनुष्ठान करणं निष्काङ्क्षागुणः । (बृ. द्रव्यसं. टी. ४१) ।
इस लोक औौर पर लोक में श्राशारूप भोगाभिलाषास्वरूप निदान को छोड़कर केवलज्ञानादि श्रनन्त गुणों की श्रभिव्यक्तिरूप मोक्ष के निमित्त ज्ञान, पूजा और तपश्चरण श्रादि का जो श्रनुष्ठान किया जाता है उसे निष्कांक्षा गुण कहते हैं । निष्कांक्षित - देखो निःकांक्षित । तथा निष्कांक्षितो देश- सर्वकांक्षा रहितः । ( दशवं. नि. हरि. वृ. १८२, पृ. १०२; घ. बि. मु. वृ. २- ११) । देशकांक्षा और सर्वकांक्षा से रहित सम्यग्दृष्टि जीव को frosiक्षित कहते हैं ।
निष्कृप - चंक्रमणाई सत्तो सुनिक्किवो थावराइसतेसु । काउं च नाणुतप्पर एरिसिनो निकिवो होई || ( बुहत्क. १३१९) ।
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
निष्क्रिय
६३४, जैन-लक्षणावली निसगंज सम्यग्दर्शन कार्यान्तर में प्रासक्त कोई निर्वय मनुष्य स्थावर सि. ६-९) । २. निसर्गः परिणामः स्वभावः अपरोप्रादि जीवों में गमनादि कार्यों को करता है, फिर पदेश इत्यनन्तरम् । (त. भा. १-३)। ३. निसभी वैसा करता हुआ वह उसके लिए पश्चात्ताप र्जनं निसर्गः, स्वभाव इत्यर्थः। (त. वा. १-३); नहीं करता है। ऐसा मनुष्य निष्कृप कहलाता है। निसृज्यतेऽसौ निसर्ग इति । अथवा भावसाधना निष्क्रिय-१. उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानः पर्याय: xxxनि सृष्टिनिसर्ग इति । (त. वा. ६,६,१)। द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया। तस्या निष्का- ४. अपूर्वकरणानन्त रभाव्यनिवर्तिकरणं निसर्गः, तततानि निस्क्रियाणि । (स.सि. ५-७; त. वा. ५, स्तत्त्वरुचिभावात् । निसज्यते त्यज्यते तत्त्वरुच्याख्य७, १-२)। २. अपेतक्रियाणि निष्क्रियाणि, करणं कार्यनिर्वृत्ती सत्यामिति निसर्गः । (त. भा. हरि.व. क्रिया द्रव्यस्य भावस्तेनाकारेण । (त. भा. सिद्ध. १-३)। ५. यत्तदपूर्वकरणानन्तरभाव्यनिवृत्तिकरणं वृ. ५-६)। ३. गह्याभ्यन्तरकारणवशात् संजाय- तत् निसर्ग इति भण्यते । xxx निसृज्यते मानो द्रव्यस्य पर्यायः देशान्तरप्राप्तिहेतः क्रिया, त्यज्यतेऽसौ कार्य निवती सत्यामिति निसर्गः। (त. तस्या: क्रियायाः निष्क्रान्तानि निष्क्रियाणि । (त. भा. सिद्ध. व. १-३, पृ. ३५-३६); निसर्जन वृत्ति श्रुत. ५-७)।
निसर्गः त्यागः उज्झनम्। (त. भा. सिद्ध. व. ६, १ बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकार के निमित्त से १०)। ६. निसर्गः स्वभावो गुरूपदेशादिनिरपेक्षः द्रव्य में जो देशान्तर की प्राप्ति में कारणभूत सम्यश्रद्धानकारणम् । (योगशा. स्वो. विव. पर्याय उत्पन्न होती है उसे क्रिया कहा जाता है। १-१७, पृ. ११६)। ७. निसृज्यते प्रवर्तते निसर्गः इस क्रिया से जो द्रव्य रहित हैं वे निष्क्रिय कह- प्रवर्तनम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-६)। लाते हैं।
१ निसर्ग नाम स्वभाव का है, यह क्वचित् सम्यनिष्ठानकथा-१. अमुकस्य रसवत्यां रूपकशतं ग्दर्शन का हेतु हुमा करता है। मन, वचन और काय लगत्यमुकस्य पञ्च शतानि तावद्यावदमुकस्य लक्ष- से प्रवृत्ति करने को निसर्ग अधिकरण कहते हैं। पाका रसवती भवतीत्येवंस्वरूपा निष्ठानकथेति । ४ अपूर्वकरण परिणाम के अनन्तर जो तत्त्वश्रद्धा (प्राव. हरि. व. मल. हे. टि. पृ. १२) । २. एता- का कारणभूत अनिवृत्तिकरण होता है उसे निसर्ग वत् द्रविणं तत्रोपयुज्यत इति निष्ठानकथा । (स्था- कहा जाता है । निसर्ग का अर्थ है छूट जाना है, सो ना. अभय. वृ. २८२)।
बह सम्यग्दर्शन के उत्पन्न हो जाने पर छूट ही १ अमुक की रसोई (भोजन) में प्रतिदिन सो जाता है। रुपया लगते हैं और प्रमुफ की रसोई में पांच सौ निसर्गक्रिया-१. पापादानादिप्रवृत्तिविशेषाभ्यनुरुपया खर्च होते हैं, इस क्रम से प्रमुक की रसोई ज्ञानं निसर्गक्रिया । (स. सि. ६-५; त. वा. ६, का पाक एक लाख रुपया तक में सम्पन्न होता है, ५, १०)। २. निसर्गक्रिया चिरकालप्रवृत्तिः, परदेइत्यादि प्रकार से भोजन सम्बन्धी चर्चा करने को शितयाऽपार्थानुज्ञा । (त. भा. हरि.. ६-६)। निष्ठानकथा कहते हैं।
३. पापादानादिवृत्तीनामभ्यनुज्ञानमात्मना । सा निष्ठीवन-xxxनिष्ठीवनाह्वयः। स्वेन क्षेपे निसर्गक्रिया नाम्ना निसर्गणास्रवावहा । (ह. पु. ५८, कफादे: स्यातxxx(धन. प. ५.५५); निष्ठीव- ७५)। ४. पापप्रवृत्तावन्येषामभ्यनुज्ञानमात्मना। नाह्वयः स्यात् । क्व सति ? कफादेः श्लेष्म-थूत्कादेः स्यान्निसर्गक्रियालस्यादकृतिर्वा सुकर्मणाम् ॥ (त. क्षेपे निरसने कृते सति । केन ? स्वेनात्मना, न इलो. ६,५,१८)। ५. चिरकालप्रवृत्तपरदेशिनि पाकाशादिवशतः । (अन. घ. स्वो. टी. ५-५५)। पार्थे यदनुज्ञानं सा निसर्गक्रिया । (त. भा. सिद्ध. व. भोजन करते समय साधु के मुख से कफादि के ६-६)। ६. पापप्रवृत्ती परानुमतदानं निसर्गक्रिया। निकल जाने पर निष्ठीवन नामका अन्तराय (त. वृत्ति श्रुत. ६-५)। होता है।
१पाप को कारणभूत प्रवृत्तिविशेष की अनुमोदना निसर्ग-१. निसर्गः स्वभाव इत्यर्थः। (स. सि. करने को निसर्गक्रिया कहते हैं । १-३); निसृज्यत इति निसर्गः प्रवर्तनम् । (स. निसर्गज सम्यग्दर्शन-देखो निसर्ग सम्यग्दर्शन ।
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
निसर्गरुचि] ६३५, जैन-लक्षणावली
[निह्नव निसर्गरुचि-देखो निसर्ग व नैसगिक सम्यग्दर्शन । ११. यत्सम्यग्दर्शनं बाह्यम विना उत्पद्यते तत्सनिसर्ग सम्यग्दर्शन-१. भूयत्थेणाहिगया जीवा- म्यग्दर्शनं निसर्गजमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १.३)। ऽजीवा य पुन्न पावं च। सहसम्मुइया ऽऽसव- १ यथार्थ स्वरूप से जाने गये जीव-अजीवादि पदार्थों संवरे य रोएइ उ निसग्गो ॥ (प्रज्ञाप. गा. का जो प्रात्मसंगत मति से-परोपदेशनिरपेक्ष ११६, पृ. ५६; उत्तरा. २८-१७); जो जातिस्मरणादिरूप प्रतिभा से-स्वयं श्रद्धान जिणदिठे भावे चउबिहे सहाइ सयमेव । करता है उसे निसर्गरुचि दर्शन-मार्य कहा जाता है। एमेय नऽन्नहत्ति य निसग्गरुइत्ति नायवो ॥ ४ जिस प्रकार कुरुक्षेत्र में कहीं पर कनक (सुवर्ण) (प्रज्ञाप. गा. १२१, उत्तरा. २८.१८; प्रव. सारो. पुरुषप्रयत्न के विना ही उत्पन्न होता है उसी ६५१)। २. निसर्गः परिणामः स्वभावः अपरोप- प्रकार बाह्य पुरुष के उपदेशपूर्वक जो जीवादि देश इत्यनर्थान्तरम् । ज्ञान-दर्शनोपयोगलक्षणो जीव पदार्थो का अधिगम होता है उसके बिना उत्पन्न इति वक्ष्यते । तस्यानादी संसारे परिभ्रमतः कर्मत होने वाले सम्यग्दर्शन को निसर्गज सम्यग्दर्शन एव कर्मणः स्वकृतस्य बन्ध-निकाचनोदय-निर्जरापेक्षं कहते हैं। नारक-तिर्यग्योनि-मनुष्यामरभवग्रहणेषु विविधं पुण्य- निस्तरण-१. उपयोगान्तरेणान्तहितानां दर्शनापापफलमनुभवतो ज्ञान-दर्शनोपयोगस्वाभाव्यात् दिपरिणामानां निष्पादनं साधनं भवान्तरप्रापणं तानि तानि परिणामाध्यवसायस्थानान्तराणि गच्छ- दर्शनादीनां निस्तरणम् । (भ. प्रा. तो ऽनादिमिथ्यादृष्टेरपि सतः परिणामविशेषादपूर्व- २.णिच्छरणं-भवान्तरप्रापणम्, निस्तरो मरणान्तकरणं तादग्भवति येनास्यानुपदेशात् सम्यग्दर्शन- प्रापणम् । (भ. मा. मूला. २)। मृत्पद्यते इत्येतन्निसर्गसम्यग्दर्शनम्। (त. भा. १-३)। १अन्य उपयोग से अन्तहित दर्शनादि परिणामों ३. एकार्थः परिणामो भवति निसर्गः स्वभावश्च । को सिद्ध करना व उन्हें भवान्तर में प्राप्त कराना, (प्रशमर. २२३)। ४. अथवा यथा कुरुक्षेत्र क्वचित् यह उक्त दर्शनादि का निस्तरण है। कनकं बाह्यपौरुषेयप्रयत्नाभावात् जायते तथा निह्नव-१. कुल-वय-सीलविहूणे सुत्तत्थं सम्मगागबाह्यपुरुषोपदेशपूर्य कजीवाद्यधिगममन्तरेण यज्जायते मित्ताणं । कुल-वय-सीलमहल्ले णिण्हवदोसो दु नलिसर्गजम । (त. वा. १, ३,८)। ५. अपरोप- जप्पंतो॥ (मूला. ५-८६)। २. कृतश्चित्कारणादेशात्तथा भव्यत्वादितः कर्मोपशमादिजं तु निसर्ग- नास्ति न वेद्यीत्यादि ज्ञानस्य व्यपलपनं निह्नवः । सम्यग्दर्शननम् । (त. भा. हरि. व. १-३)। (स. सि. ६-१०)। ३. णिण्हवो णाम पुच्छिनो ६. प्रात्मनस्तीर्थकराद्यपदेशदानमन्तरेण स्वत एव संतो सव्वहा अवलवइ । (दशव.. पृ. २८५)। जन्तोर्यत कर्मोपशमादिभ्यो जावते तत् निसर्ग- ४. पराभिसन्धानतो ज्ञानव्यपलापो निह्नवः। यत्किसम्यग्दर्शनम्। (त. भा. सिद्ध. व. १-३)। चित् परनिमित्तमभिसन्धाय नास्ति न वेद्मीत्यादि ७. निसर्गः स्वभावस्तेन रुचिः जिनप्रणीततत्त्वाभि- ज्ञानस्य व्यपल पनं वचनं निह्नवः। (त. वा. ६, लापरूपा यस्य स निसर्गरुचिः। (प्रव. सारो.व. १०, २)। ५. परातिसन्धानतो व्यपलापो निवः । ६५१, पृ. २८३)। ८. अथानिवृत्तिकरणादातर. (त. श्लो. ६-१०)। ६. निह्नवोऽपलापः कस्यचित्सकरणे कृते । मिथ्यात्व विरलीकुर्युवेदनीयं यदग्रतः॥ काशे श्रुतमधीत्यान्यो गुरुरित्यभिसन्धानमपलापः । प्रान्तर्मुहूर्तिकं सम्यग्दर्शनं प्राप्नुवन्ति यत् । निसर्ग- (भ. प्रा. विजयो. ११३)। ७. अन्यतः श्रुतमघोत्याहेतुकमिदं सम्यश्रद्धानमुच्यते ॥ (योगशा. स्वो. न्यस्य गुरोः कथनं गुरोरपलापः। (भ. प्रा. मूला. बिव. १-१७, पृ. ११८, त्रि. श. पु. च. १, ३, ११३)। ८. यत् किमपि कारणं मनसि धृत्वा । ५६६-६७- विरलीकृत्य चतुर्गतिकजन्तवः ॥' मानेऽपि ज्ञानादौ एतदहं न वेनि एतत्पुस्तकादिकइति पत्र पाठभेदः)। ६. विना परोपदेशेन सम्य- मस्मत्पावेन वर्तते, इत्यादि ज्ञानस्य अपलपनं क्त्वग्रहणक्षणे । तत्त्वबोधः निसर्गः स्यात्xxx॥ विद्यमानेऽपि 'नास्ति' कथनं निह्नवः उच्यते । (त. (अन. घ. २-४८)। १०. परोपदेशमन्तरेण यज्जायते वृत्ति श्रुत. ६-१०)। तन्निसर्गमित्याख्यायते । (त. सुखबो. वृ.१-३)। १जो कुल, व्रत और शोल से हीन हैं उनसे सूत्रार्थ
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
नि:कांक्षित ]
को जानकर जो कुल व्रत श्रौर शीलसे महान हैं उनके नाम का उल्लेख करने वाला निह्नव दोष का भागी होता है। तीर्थंकर, गणधर और सात प्रकार की ऋद्धि से जो युक्त होते हैं वे कुलादि से महान माने जाते हैं । उनके अतिरिक्त शेष मुनि जनों को कुलादि से हीन जानना चाहिए । २किसी कारण से 'वह मेरे पास नहीं है या मैं उसे नहीं जानता हूं' इस प्रकार से ज्ञान का अपलाप करने को निह्नव कहा जाता है । निःकांक्षित - १. जो ण करेदि दु कंखं कम्म फले तह य सब्वधम्मेसु । सो णिक्कंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुव्वो । ( समयप्रा . २४८ ) । २. कर्म परवशे सान्ते दुःखंरन्तरितोदये । पापबीजे सुखेऽनास्था - श्रद्धाऽताकांक्षणा स्मृता । ( रत्नक. १२) । ३. उमयलोकविषयोपभोगाकांक्षानिवृत्तिः कुदृष्टघन्तराकांक्षानिरासो वा निःकांक्षता । (त. वा. ६, २४, १) । ४. निर्गता कांक्षा अन्यान्यदर्शनग्रहणरूपा यस्यासौ निराकांक्षा । (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. २, ७, ६६, पृ. १६१) । ५. इह जन्मति विभवादीनमुत्र चक्रित्वकेशवत्त्वादीन् । एकान्त वाददूषित परसमयानपि च न काङ्क्षत् ॥ (पु.सि. २४) । ६. यतो हि सम्यदृष्टिः टंकोत्कीर्णकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि कर्मफलेषु सर्वेषु वस्तुवर्मेषु च कांक्षाभावान्निष्कांक्षः । ( समयप्रा. श्रमृत. वृ. २४८ ) । ७. ऐहलौ - किक-पारलौकिकेन्द्रियविषय उपभोगा ( कार्ति. टी. 'विषयभोगोपभोगा') कांक्षानिवृत्तिः, कुदृष्टयन्तरा (कार्तिके. टी. 'ष्टयाचारा') कांक्षानिरासो वा निःकांक्षता । (चा. सा. पृ. ३ कार्तिके. टी. ३२६)। ८. जो सग्गसुहृणिमित्तं धम्मं णायरदि दूसह वेह | मोक्खं समीहमाणो णिक्कखा जायदे तस्स ।। (कार्तिके. ४१६ ) । ६. विधीयमानाः शमशील - संयमाः श्रियं ममेमे वितरन्तु चिन्तिताम् । सांसारिकाने कसुखप्रवर्द्धनीं निष्कांक्षितो नेति करोति काङ्क्षाम् ।। (यमित श्र. ३-७४) । १०. कांक्षा इह-परलोक भोगाभिलाषः, कांक्षाया निर्गतो निष्कांक्षस्तस्य भावो निष्कांक्षता सांसारिक सुखारुचिः । (मूला. वू. ५ - ४) । ११. वांछाऽभावोऽन्यदृग्ज्ञानवृत्तोत्वःषण्वकांक्षता । अत्राऽमुत्र च जाते वा नश्वरे न्द्रियजे सुखे ।। (श्राचा. सा. ३ - ५५ ) । १२. निःकांक्षितो देश- सर्वकांक्षारहितः । ( व्यव. भा. मलय.
६३६, जैन-लक्षणावलो
[निःशङ्क
वृ. १-६४ ) । १३. संसारेन्द्रियभोगेषु सर्वेषु भंगुरात्मसु । निरीहभावना यत्र सा निष्कांक्षा स्मृता बुधैः ॥ ( भावसं वाम. ४११ ) । १४. इह-परलोकभोगोपभोगकांक्षारहितं नि:कांक्षित्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२४) । १५. इहलोक - परलोकभोगोपभोगाकांक्षानिवृत्तिनिष्कांक्षितत्वम् । (भावप्रा. टी. ७७) । १ जो कर्म के फल - सातावेदनीयजन्य सुख - एवं समस्त वस्तुधर्मो के विषय में कांक्षा ( श्रभिलाषा ) को नहीं करता है उसे नि:कांक्षित अंग का धारक सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । १२ जो देशकांक्षा श्रौर सर्वकांक्षा से रहित होता है उसे नि:कांक्षित कहा जाता है ।
निःशङ्कः- १. सम्मादिदी जीवा णिस्संका होंति णिभया तेण । सत्तभयविप्यमुक्का जम्हा तम्हा दु निस्संका || जो चत्तारि वि पाए छिददि ते कम्ममोहबाधकरे । सो णिस्सको चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ॥ ( समय प्रा. २४६-४७) । २. इदमेवे दृशमेव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा । इत्यकम्पायसाम्भोवत् सन्मार्गे ऽसशया रुचि: । ( रत्नक. ११) । ३. इहलोक-परलोक-व्याधि-मरणासंयमारक्षणाकस्मिक सप्तविधभयविनिर्मुक्तता, प्रर्हदुपदिष्टे वा प्रवचने किमिदं स्याद्वा नवेति शंकानिरासो निःशंकितत्वम् । (त. वा. ६, २४, १) । ४. नि:शङ्कित इत्यत्र शङ्का शङ्कितम्, निर्गतं शङ्कितं यतोऽसौ नि:शङ्कितः, देश-सर्वशङ्कारहित इत्यर्थः । ( दशवं. नि. हरि. वृ. १८२, पृ. १०१ उत्तरा. ने. वृ. २८-३१; ध. बि. मु. वृ. २- ११) । ५. प्रार्हते प्रवचने निर्गता शङ्का देश- सर्वरूपा यस्य स निःशङ्कः, 'तदेव सत्यं निःशङ्क यज्जिनंः प्रवेदितम्' इत्येवं कृताध्यवसायः । ( सूत्रकृ. सू. शी. वू. २, ७, ६६, पृ. १६१ ) । ६. यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोटकी कज्ञायकभावमयत्वेन कर्मबन्धशंका करमिथ्यात्वादिभावाभावान्निः शंकः । (समयप्रा. अमृत. वृ. २४० ) । ७. सकलमनेकान्तात्मकमिदमुक्तं वस्तुजातमखिलज्ञः । किमु सत्यमसत्यं वा न जातु शङ्केति कर्तव्या । (पु. सिं. २३ ( । ८. तत्रैहलोक: परलोकः व्याधिमरणम् अगुप्ति: श्रत्राणं आकस्मिक इति सप्तविधाद् भयाद् विनिर्मुक्तता, श्रथवा र्हदुपदिष्टद्वादशांग प्रवचन गहने एकमक्षरं पदं वा किमिदं स्याद्वा न वेति शंकानिरासो निःशंकितत्वम् ।
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
निःशङ्का
६३७, जैन-लक्षणांवली
[निःश्वसित
(चा. सा. पृ. २)। ६. विरागिणा सर्वपदार्थवेदिना इति जिनमतं तथेति वा निःशंकितत्वम् । (भाव. जिनेशिन ते कथिता न वेति यः। करोति शङ्कां न प्रा. टी. ७७)। १६. अहंदुपदिष्टद्वादशांगप्रवचनकदापि मानसे निःशङ्कितोऽसौ गदितो महामनाः ॥ गहने एकाक्षरं पदं वा किमिदं स्यादुवाच (?) वेति (अमित. श्रा. ३-७३)। १०. कि जीवदया धम्मो शंकानिरासः जिनवचनं जैन दर्शनं च सत्यमिति जपणे हिंसा वि होदि कि धम्मो। इच्चेवमादिसंका निःशंकितत्वनामा गुणः। (कातिके. टी. ३२६) । तदकरणं जाण णिस्संका ॥ दयभावो वि य धम्मो २०. शंका भी: साध्वसं भीतिर्भयमेकाभिधा अमी। हिंसाभावो ण भण्णदे धम्मो। इदि संदेहाभावो तस्या निष्क्रान्तितो जातो भावो निःशकितोऽर्थतः ।। णिस्तका णिम्मला होदि ।। (कातिके. ४१४-१५)। (लाटीसं. ४-५, पंचाध्या. २-४८१) । ११. निश्चयेन पुन: व्यवहारनिःशङ्कागुणस्य सह- १ जो सम्यग्दृष्टि जीव इहलोकभय व परलोकभय कारित्वेनेहलोकात्राणागुप्ति-मरण-व्याधि-वेदनाऽऽक- प्रादि सात प्रकार के भय से रहित हो चुके हैं वे स्मिकाभिधान भय सप्तकं मुक्त्वा घोरोपसर्ग-परीषह- नि:शंक-निःशंकित अंग के धारक-होते हैं। ये प्रस्तावेऽपि शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयभावेनैव नि:शंक सम्यग्दृष्टि कर्मबन्ध के कारणभूत होकर नि:शङ्कगुणो ज्ञातव्यः। (ब. द्रव्यसं. टी. ४१, पृ. प्रात्मभेद के उत्पन्न करने में मोह के जनक व १४९)। १२. शंका निश्चयाभावः शुद्धपरिणामा- बाधा पहुंचाने वाले ऐसे मिथ्यात्व, अविरति, कषाय च्चलनम्, शंकाया निर्गतो निःशंकस्तस्य भावो और योगरूप चारों पायों के छेदनेवाले हैं। निःशंकता तत्त्वरुची शुद्धपरिणामः । (मूला. व. ५ जिनागम के विषय में जिसको देशशंका और ५-४) । १३. हेतुद्वयोत्थकार्यानुमेयेयं भवितव्यता। सर्वशंका दोनों प्रकार की शंका नष्ट हो चुकी है दुलंध्येति भयाऽभावो निःशकत्वं भयोदये ॥ भय- तथा जिसे 'जिनदेव ने जो कहा है वही सत्य है माकस्मिक पारलौकिकं चहलौकिकम् । मृत्यु-गुप्ति- ऐसी दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न हुई है उसे ही निःशंक कहा रुजात्राण: संजातमिति सप्तधा ।। किं स्यात्सत्यमिदं जाता है। नो वेत्याप्तोक्ते संशयोज्झिता। मतिस्तत्त्वाचल- निःशंकित-देखो निःशंक। प्रीतिः परा निःशंकिता मता ॥ (प्राचा. सा. ३, निःशेषवाचनाविनय-तथा नि:शेषम्, किमुक्तं ५२-५४) । १४. णिस्संको-जो णिस्संकितो भवति? यावत्समाप्तं भवति तावद्वाचयति, एष नि:सेवइ। (जीतक. च. १, पृ. ३)। १५. निर्गतं शेषवाचनाविनयः । (व्यव. भा. १०-३१४)। शकितं यस्मादसौ निःशंकित:, देश-सर्वशंकारहित- विवक्षित प्रागम के समाप्त होने तक उसके वाचन मित्यर्थः। (व्यव. भा. मलय. ५. १-६४); को निःशेषवाचनाविनय कहते हैं। यह श्रुतविनय निःशङ्को निर्द[भ]य इह-परलोकशङ्कारहित के चार (सूत्र, अर्थ, हित व निःशेष) भेदों में इत्यर्थः। (व्यव. भा. मलय. व. १०-६३४)। अन्तिम है। १६. इदमेवेदृशं तत्त्वं जिनोक्तं तच्च मान्यथा। निःश्रेयस-१. जन्म-जरामय-मरणः शोक खंभयैइत्यकम्पा रुचिर्यासो निःशंकांगं तदुच्यते ।। (भाव- श्च परिमुक्तम् । निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते सं. वाम. ४१०)। १७. इहलोकभयं परलोकभयं नित्यम् ।। (रत्नक, १३१)। २. केवलज्ञान कल्याणं पुरुषाद्यरक्षणमत्राणभयं प्रात्मरक्षोपायदुर्गाद्यभावाद- निर्वाण कल्याण मनन्तचतुष्टयं परमनिर्वाणपदं च गुप्तिभयं मरण भयं वेदनाभयं विद्युत्पाताद्याकस्मिक- निःश्रेयमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२६)। भयमिति सप्तभयरहितत्वं जैन दर्शनं सत्यमिति च १ जन्म, जरा, रोग, मरण, शोक, दुःख और भय निःशंकितत्वमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२४)। से रहित तथा शुद्ध (निर्बाध) सुख से युक्त निर्वाण १८. इहलोकभय-परलोकभय-वेदनाभय-मरणभय- (मोक्ष) को निःश्रेयस कहा जाता है। प्रात्मरक्षोपायदुर्गाद्यभावागुप्तिभय-अत्राणभयारक्षण- निःश्वसित-अघः श्वसितं निःश्वसितम् । (प्राव. भय-विद्युत्पाताद्याकस्मिकभय इति सप्तभयरहितत्वं नि. हरि. व. १४९८, पृ. ७७८, योगशा. स्वो. निःशंकितत्वं निर्ग्रन्थलक्षणो मोक्षमार्ग इति जिनमतं विव. ३-१२४) । तयेति बा निःशंकितत्वं निर्ग्रन्थलक्षणो मोक्षमार्ग नीचे सांस लेने को नि:श्वसित
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
निःश्वसितोच्छ्वसितसम] ६३८, जैन-लक्षणावली निःसरणात्मक तेजस निःश्वसितोच्छ्वसितसम- निःश्वसितोच्छ्वसि- ३ असंख्यात समय प्रमाण नि:श्वास होता है। तमानमनतिक्रमतो यद् गेयं तन्निःश्वसितोच्छ्वसित- ४ असंख्यात प्रावलियों का एक उच्छ्वास और समम् । (अनुयो. गा. मल.हे.व.५०, पृ. १३२)। उतना ही नि:श्वास होता है। प्रान (नि:श्वास और उच्छ्वास) का उल्लंघन न निःसरणात्मक तेजस-१. यते रुग्रचारित्रस्यातिकरके जो गाना गाया जाता है उसे नि:श्वसितो- क्रुद्धस्य जीवप्रदेशसंयुक्तं बहिनिष्क्रम्य परिवृत्त्याच्छ्वसितसम कहते हैं। यह अक्षरसम-पदसम प्रादि वतिष्ठमानं निष्पावहरितफलपरिपूर्णा स्थालीमग्निसात स्वरभेदों में छठा है।
रिव पचति, पक्त्वा च निवर्तते, अथ चिरमवतिष्ठते निःश्वास-देखो उच्छवास । १. ता: (प्रावलिकाः) अग्निसाद् दाह्योऽर्थो भवति, तदेत निःसरणात्मकम् । संख्येया उच्छवासः तथा निःश्वासः। तो बलवतः (त. वा. २, ४९,८)। २. जं तं णिस्सरणप्पगं पविन्द्रियस्य कल्पस्य मध्यमवयसः स्वस्थमनसः तेजइयसरीरविउव्वणं तं दुविहं पसत्थमप्पसत्थं पुंसः प्राणः । (त. भा. ४-१५)। २. संखेज्जा चेदि । तत्थ अप्पसत्थं बारहजोयणायाम वजोयणप्रावलिया निस्सासो-हस्स प्रणवगल्लस्स निरुव. वित्थारं सूचिमंगलस्स संखेज्जदिभागबाहल्लं जासकिस्स जंतुणो। एगे ऊसास-णीसासे एस पाणुत्ति वणकुसुमसंकासं भूमि-पव्वदादिदहणवखम पडिववखबच्चइ ।। (भगवती ६, ७, २४६-सुत्ताममे १, रहियं रोसिंधणं वामंसप्पभवं इच्छियखेत्तविसप्पणं । पु. ५०३; जम्बूद्वी. सू. १८, पृ.८९% अनुयो. सू. जंतं पसत्थं तं पि एरिसं चेव, णबरि हंसघवलं १३७, पृ. १७८-७९)। ३. समया य असंखेज्जा दक्खिणंससंभवं अणुकंपाणिमित्तं मारि-रोगाहवइ ह निस्सासो। (ज्योतिष्क. ८)। ४. प्रसंख्ये- दिपसमणक्खमं । (धव. पु. ४,५. २८)। ३. स्वयावलिका एक उच्छवासस्तावानेव निःश्वासः । (त. स्य मनोऽनिष्टजनकं किंचित्कारणान्तरमवलोक्य वा. ३. ३८७)। ५. ताः संख्येयाः प्रावलिकाः समुत्पन्नक्रोधस्य संयमनिधानस्य महामने: मलशरीर उच्छ्वास एकः, तथा निश्वास एकः एवंमान एव, मत्यज्य सिन्दूरपुञ्जप्रभो दीर्घत्वेन द्वादसयोजनप्रएतद भेदश्चोवधिोगमनभेदात् । तावच्छवास-नि:- माणः सूच्यङ्गलसंख्येयभागमलविस्तारो नवयोजनाश्वासी बलवतः शरीरबलेन, पट्विन्द्रियस्यानुपहत. प्रविस्तार: काहलाकृतिपूरुषो वामस्कन्धान्निर्गत्य करणग्रामस्य, कल्पस्य-निरुजस्य, मध्यमवयसः- वामप्रदक्षिणेन हृदये निहितं विरुद्ध वस्तू भस्मसाभद्रयौवनवतः, स्वस्थमनसः-अनाकुलचेतसः, पुंसः कृत्य तेनैव संयमिना सह भस्म व्रजति द्वीपायन-पुरुषस्य-प्राणो नाम कालभेदः। (त. भा. हरि. वत् । असावशुभतेजःसमृदयातः। (ब. द्रव्यसं. १० व. ४-१५)। ६. ताः संख्येयाः (४४४६३४४३) पृ. २१)। ४. कश्चिद् यतिरु ग्रचारित्रो वर्तते । स सत्य प्रावलिका एक उच्छवासो नि:श्वासो वा तु केनचिद् विराधितः सन् यदाऽतिद्धो भवति. ऊवधिोगमनभेदात् । (त. भा. सिद्ध.व. ४-१५)। तदा वामस्कन्धाज्जीवप्रदेशसहितं तैजसं शरीरं बद्धि ७. संख्येयाऽऽवलिका निःश्वासः। (जीवाजी. मलय. निर्गच्छति । तद् द्वादशयोजनदीघ नवयोजनविस्तीर्ण व. ३, २, १७८, पृ. ३४४)। ८. समया असंख्ये या काहलाकारं जाज्वल्यमानाग्निपुञ्जसदृशं दाह्य वस्तु एक उच्छ्वास-निःश्वासो भवति । किमुवतं भवति? परिवेष्टयावतिष्ठते । यदा तत्र चिरं तिष्ठति तदा अनन्तरोक्तस्वरूपाः समया जघन्ययुक्तासंख्यातप्र. दाह्य वस्तु भस्मसात्करोति । व्याघुटय यतिशरीरे माणा एकाऽऽवलिका, संख्येयावलिका एक उच्छ्वा- प्रविशत् सत् तं यतिमपि विनाशयति । एतत्तजसं सः, तावत्प्रमाण एवेको निःश्वासः । तयोश्चायं निःसरणात्मकमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २-४८)। भेदः-ऊर्ध्वगमनस्वभाव उच्छ्वासः अधोगमनस्व- १ महान् चारित्र के धारक मुनि के क्रोधित होने भावो निःश्वासः । (ज्योतिष्क. मलय. वृ.८)। पर जीवप्रदेशों से युक्त तैजस शरीर बाहिर निकल १ संख्यात प्रावली प्रमाण काल को उच्छ्वास और कर जलाने योग्य पदार्थ को घेर कर स्थित होता है निःश्वास कहते हैं। इन दोनों (उच्छ्वास-नि:श्वास) पौर जिस प्रकार निष्पाव (धान्यविशेष) और को प्राण कहा जाता है जो बलवान, स्वस्थमन व हरित फलों से परिपूर्ण थाली को अग्नि पका देती मध्यम वयवाले (जवान) मनुष्य के हुमा करते हैं। है उसी प्रकार वह उक्त दाह्य पदार्थ को पका कर
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
निःसंग साध ]
लौट आता है । यदि वह बहुत समय तक ठहरता है तो दाह्य पदार्थ को भस्मसात् कर देता है । यह निःसरणात्मक तेजस है । ३ अशुभ निःसरणात्मक तंजस शरीर विरुद्ध वस्तु को जलाकर उसी संयमी साधु के साथ स्वयं भी भस्मसात् हो जाता है । इसके लिए द्वीपायन मुनि का उदाहरण है। निःसंग साधु - जो संगं तु मुइत्ता जाणदि उवप्रोगमपगं सुद्धं । तं णिस्सगं साहुं परमटूवियाणया विति । (समय प्रा. १२५ क्षे.) ।
जो साधु सर्व प्रकार के परिग्रह को छोड़कर उपयोगमय शुद्ध श्रात्मा को जानता हैं उसे निःसंग साधु कहते हैं ।
निःसार - 'नि:सारं ' परिफल्गु वेदवचनवत् । (श्राव. नि. हरि. वृ. ८८१) । वेदवचन के समान जो वचन सारहीन हो वह नि:सार कहलाता है। यह ३२ सूत्रदोषों में सातवां है। निःसृत ज्ञान --- १. अनिःसृतग्रहणम् श्रसकलपुद्गलोद्गमार्थम् (निःसृतग्रहणं सकलपुद्गलोद्गमा र्थम् ) | ( स. सि. १ - १६; त. वा. १, १६, ११) । २. निश्रितमवगृह्णाति - तमेव वेण्वादिशब्दमन्यसापेक्षमिति । ( त. भा. हरि. वृ. १ - १६ ) । ३. प्रहिमुह-प्रत्थग्गणं णिसियावग्गहो । ( धव. पु. ६, पृ. २०) । ४. इतरस्य ( निःसृतस्य ) सकलपुद्गलोद्गतिमत: XX X श्रवग्रहः । (त. श्लो. १-१६, पृ. २२४) । ५. यदा त्वेतस्मादाख्याल्लिगात् परिछिनत्ति निश्रितं तदा सलिंगमवगृह्णातीति भण्यते । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १-१६) । ६. अभिमुखार्थग्रहणं निःसृतावग्रहः । ( मूला वृ. १२, १८७ ) । ७. वस्त्वेकदेशमात्रस्य विज्ञानं निःसृतं मतम् । घटावग्भागमात्रेऽपि क्वचिज्ज्ञानं हि दृश्यते ॥ ( श्राचा. सा. ४-२२) । ८ स्वयमेव परोपदेश - मन्तरेणैव कश्चित्प्रतिपद्यते तद्ग्रहणं निःसृतम् । (त. वृत्ति श्रुत. १ - १६ ) ।
१ समस्त पुद्गल के प्रगट होने पर जो उसका प्रवग्रहादिरूप ज्ञान होता है उसे निःसृतज्ञान कहते हैं । २ अन्य शब्द की अपेक्षा करके जो वेणु ( बांस ) श्रादि के शब्द का ग्रहण होता है वह निश्रितज्ञान कहलाता है । ५ लिंग से जब ज्ञान होता है तब उसे सलिंग निश्रितज्ञान कहा जाता है । निःसृष्टार्थ (दूत) - यत्कृतो स्वामिनः सन्धिविग्रही
६३६, जैन - लक्षणावली
[ नीचगोत्र
प्रमाणं स निःसृष्टार्थो यथा कृष्णः पाण्डवानाम् । ( नीतिवा. १३-४, पृ. १७० ) । जिसके द्वारा किये गये सन्धि और विग्रह (युद्ध) स्वामी को प्रमाण होते हैं उसे निःसृष्टार्थ कहते हैं । नीचगोत्र - १ यदुदयाद् गर्हितेषु कुत्रेषु जन्म तन्नीचंर्गोत्रन् । ( स. सि. ८ - १२ ) । २. विपरीतं नीचैत्र चाण्डाल मुष्टिक व्याध मत्स्यबन्ध दास्यादिनिर्वर्तकम् ( त. भा. ८-१३) । ३. गहितेषु यत्कृतं तशीचगत्रम् । गहितेषु दरिद्राप्रतिज्ञातदुःखाकुलेषु यत्कृतं प्राणिनां जन्म तन्नीचैर्गोत्रम् । (त. वा. ८, १२, ३) । ४. नीचैर्गोत्रं तु यदुदयाज्ज्ञानादियुक्तोsपि निन्द्यते । ( श्रा. प्र. टी. २५) । ५. जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं णीचगोदं होदि तं णीचगोदाम । (घव. पु. ६, पृ. ७८ ) ; दीक्षायोग्यसाध्वाचाराणां साध्वाचारैः कृतसम्बन्धानां श्रार्यप्रत्ययाभिधान- व्यवहारनिबन्धनानां पुरुषाणां सन्तानः उच्चैर्गोत्रम् । × × × तद्विपरीतं नीचैर्गोत्रम् | (घव. पु. १३, पृ. ३८९ ) । ६. गर्हितेषु यत्कृतं तन्नीचंर्गोत्रम् । (त. इलो. ८ - १२ ) । ७. गोत्रमुच्चैश्च नीचैश्च तत्र यस्योदयात् कुले । पूजिते जन्म तत्तूच्चनचनचकुलेषु तत् ।। (ह. पु. ५८ - २७६) । ८. सघणो रूवेण जुनो, बुद्धीनिउणो वि जस्स उदणं । लोयम्मि लहइ निन्दं, एयं पुण होइ नीयं तु ।। ( कर्मवि. ग. १५५) । ६. उच्चनीचं मंवेद् गोत्रं कर्मोच्चर्नीचगोत्रकृत् । क्षीरभाण्ड-सुराभाण्डभेदका - रिकुलालवत् । (त्रि. पु. च. २, ३, ४७४) । १०. यदुदयाद् गर्हितेषु कुलेषु जन्म तन्नीचंर्गोत्रम् | ( मूला. वृ. १२ - ११७ ) । ११. नीचंर्गोत्रं यदुदयात् ज्ञानादिगुणयुक्तोऽपि दृष्कुलोत्पन्नत्वेन निन्द्यते । ( धर्मसं. मलय. व. ६२२ ) । १२. यदुदयवशात् पुनर्ज्ञानादिसम्पन्नोऽपि निन्दां लभते होनजात्यादिसम्भवं च नीचंर्गोत्रम् । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३ ) | १३. यदुदये तद्विपरीतेषु गर्हितेषु कुलेषु जन्म भवति तन्नीचैर्गोत्रम् । (गो.क. जी. प्र. ३३) । १४. यदुदयेन निन्दिते दरिद्रे भ्रष्टे इत्यादिकुले जीवस्य जन्म भवति तच्च नीचगत्रम् । (त. वृति श्रुत. ८ - १२) |
१ जिस कर्म के उदय से लोकनिन्दित कुलों में जन्म हो उसे नीचगोत्र कहते है । २ जो कर्म उच्चगोत्र से विपरीत चण्डाल, मुष्टिक (एक अनार्य
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
नीचैर्वृत्ति] ६४०, जैन-लक्षणावली
[नीहारचारण जाति), व्याध, मत्स्यबन्ध (धीवर) और दासता माण-मायबहुलं णिहालुमं सलोहं हिंसादिसु मज्झिप्रादि का निर्मापक है वह नीचगोत्र कहलाता है। मज्झवसायं कुणइ णीललेस्सा । (धव. पु. १६, नोचैर्वृत्ति-१. गुणोत्कृष्टेषु विनयेनावनतिर्नीच. पृ. ४६०)। ४. नील बर्णद्रव्यावष्टम्भान्नीललेश्या । वृत्तिः । (स. सि. ६-२६)। २. गरुष्ववनतिर्नीच. (त. भा. सिद्ध. व. २-६)। ५. कोपी मानी वत्तिः । गुणोत्कृष्टेषु विनयेन अवनतिर्नीत्ति - मायी लोभी रागी द्वेषी मोही शोकी। हिंस्र: क्रू. रित्याख्यायते । (त. वा. ६, २६, ३)। ३. नीच. रश्चण्डश्चौरो मूर्खः स्तब्धः स्पर्धाकारी ॥ निद्रालु: वृत्तिः-अभ्युत्थानासनदानाञ्जलिप्रग्रह-यथाहविन- कामुको मन्दः कृत्याकृत्य[त्या]विचारकः । महामूर्ची यकरण रूपं नीचर्वर्तनम । (त. भा. हरि. व सिद्ध. महारम्भो नीललेश्यो निगद्यते ।। (पंचसं. अमित. वृ. ६-६)। ४. गुरुष्ववनतिर्नीचत्तिः । (त. इलो. १, २७४-७५, पृ. ३५)। ६. निर्बुद्धिर्मानवान् ६-२६)। ५. गुणोत्कृष्टेषु विनयेन प्रह्वीभावः मायी मन्दो विषयलम्पटः । निर्विज्ञानोऽल सो भीरुनीचैर्वृत्तिः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२६)।
निद्रालः परवंचकः ॥ नानाविधे धने घान्ये सर्वत्रवा१ जो गुणों से उत्कृष्ट हैं उनको विनयपूर्वक तिमूच्छितः । सारम्भो नीलया प्राणी लेश्यया संयुतो नमस्कार प्रादि करना, इसे नीचंति कहा भवेत् ।। (भ. प्रा. मूला. १६०८)। जाता है।
१ जो काम करने में मन्द हो, विचारशून्य हो, नीतिशास्त्र-- तंत्रापायो [वापौ] नीतिशास्त्रम् । विशिष्ट ज्ञान से रहित हो, विषयलोलुपी हो, मानस्वमण्डलपालनाभियोगस्तंत्रम । परमण्डलावाप्स्य- युक्त हो, मायाचारी हो, प्रालसी हो, अभेद्य होभियोगोऽवापः । (नीतिवा. ३०,४५-४७)।
जिसके अभिप्राय को समझना अशक्य हो, बहुत
जिसक प्राभप्राय अपने राज्य के भलीभांति परिपालन को तंत्र निद्राल हो, दूसरों के ठगने में कुशल हो तथा धनकहते हैं। दूसरे राज्य के प्राप्त करने को अवाप धान्य का तीव्र अभिलाषी हो; उसे नीललेश्या कहते हैं । तंत्र और प्रवाप इन दोनों के प्रतिपादन वाला जानना चाहिए। ४ नील द्रव्य के प्राश्रय से करने वाले शास्त्र को नीतिशास्त्र कहते हैं।
नीललेस्या हुआ करती है। नोरजस्क-नीरजस्का इत्यष्टविधकर्मविप्रमूक्ताः । नीलवर्णनाम-जस्स कम्मरस उदएण सरीर(दशवै. सू. हरि. बृ. ३-३४, पृ. ११९) । पोग्गलाणं णीलवण्णो उप्पज्जदि तं णीलवण्णणामं । पाठ प्रकार के कर्म-रज से रहित सिद्ध जीबों को (घब. पु. ६, प. ७४); जस्स कम्मस्स उदएण नीरजस्क कहते हैं।
सरीरे णीलवण्णणिप्पत्ती होदि तं णीलवण्णणामं । नोललेश्या-१. मंदो बुद्धिविहीणो णिविण्णाणी (धव. पु. १३, पृ. ३६४) । य विसयलोलो य। माणी माई य तहा प्रालस्सो जिस कर्म के उदय से शरीरपुद्गलों का वर्ण नीला चेव भेज्जो य॥ णिहा-वंचणबहलो घण-घणे होड होता है उसे नीलवर्ण नामकर्म कहते हैं। तिव्वसण्णायो । लक्खणमेयं भणियं समासमो णील- नीवी-प्राय-व्ययविशुद्धं द्रव्यं नीवी। (नीतिवा. लेस्सस्स ।। (प्रा. पंचसं. १, १४४-४५); धव. १८-५२, पृ. १८८)। पु. १, पृ. ३८६ व पु. १६, पृ. ४६०-६१ उद्, प्राय (आमदनी) और व्यय (खर्च) से विशुद्ध गो. जी. ५०६-१०) । २. आलस्य-विज्ञानहानि- (रहित) द्रव्य को नीवी कहते हैं। अमरकोष (२, कार्यानिष्ठापन भीरुता-विषयातिगृद्धि-माया-तृष्णाति- ६८०) के अनुसार नीवी नाम मूल द्रव्य का है। मान-वंचनाऽनृतभाषण-चापलातिलुब्धत्वादि नीलले. नोहारचाररण-नीहारमवष्टभ्याप्कायिकजीवपीश्वालक्षणम् । (त. वा. ४, २२, १०)। ३. कसा. डामजनयन्तो गतिमसङ्गामश्नुवाना नीहारचारणा:। याणुभागफद्दयाणमुदयमागदाणं जहण्णफयप्पहडि (योगशा. स्वो. विव.१-९, प. ४१, प्रव. सारो. जाद उक्कस्सफद्दया त्ति ठइदाणं छब्भागविहत्ताणं व.६०१, पृ. १६६)। xxx पंचमभागो तिब्बयरो, तस्सुदएण जाद- हिम का प्राश्रय लेकर जलकायिक जीवों की विरा. कसानो णीललेस्सा णाम । (धव. पु. ७, पृ. १०४); घना न करते हुए गमन करने वाले साधुओं का दावण्णादिसु पादवविवज्जियं णिविण्णाणं णिब्बुद्धि नीहारचारण कहते हैं ।
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
नीहारप्रायोपगमन] ६४१, जैन-लक्षणावली
[नैगमनय नोहारप्रायोपगमन-उवसग्गेण य साहरिदो सो नगमनय-१. अनभिनिवृत्तार्थसंकल्पमात्रग्राही अण्णत्थ कुणदि जं कालं । तम्हा वुत्तं णीहारमदो नंगमः। (स.सि. १-३३) । २. निगमेषु येऽभिअण्णं प्रणीहारं ॥ (भ. प्रा. २०७०)। हिताः शब्दास्तेषामर्थः शब्दार्थपरिज्ञानं च देश-समउपसर्ग के द्वारा अपहृत होकर जो अन्यत्र मृत्यु को ग्रग्राही नगमः (पृ. ११८)।xxxघट इत्युक्ते प्राप्त होता है उसके मरण को नीहारप्रायोपगमन योऽसौ चेष्टाभिनित ऊर्ध्वकुण्डलीष्टायत-वृत्तग्री. मरण कहते हैं।
वोऽवस्तात्परिमण्डलो जलादीनामाहरण-धारणसमर्थ नशंसत्व-नृशसत्वं क्रूरकर्मकारिता। (योगशा. उत्तरगुणनिर्वर्तनानिवृत्तो द्रव्यविशेषस्तस्मिन्ने कस्मिन् स्वो. विव. २-८४)।
विशेषवति तज्जातीयेषु वा सर्वेष्वविशेषात् परिज्ञानं क्रूर कर्म करनेरूप स्वभाव को नृशंसत्व कहते हैं। नैगमनयः । (पृ. १२२)। xxx माह चनत्रसंस्कार-प्रक्षालनांजनादिको नेत्रसंस्कारः ।। नैगमशब्दार्थानामेकानेकार्थनय-गमापेक्षः । देश-समग्र(भ. प्रा. मूला. ६३)।
ग्राही व्यवहारी नैगमो ज्ञेयः ।। (त. भा. १-३५, प्रांखों के धोने और अंजन प्रादि लगाने को नेत्र- पृ. १२७) । ३. णेगेहि माणेहि मिणइत्ती नेगमस्स संस्कार कहते हैं।
नेरुत्ती । (प्राव. नि. ७५५, अनुयो. गा. नेपथ्यकथा-तासामेव अन्यतमाया: कच्छाबन्धा- १३६. पृ. २६४) । ४. से जहानामए केई दिनेपथ्यस्य यत्प्रशंसादि नेपथ्यकथेति । यथा- पुरिसे परसं गहाय अडवीसमहत्तो गच्छेज्जा । धिग्नारीरोदीच्या बहुवसनाच्छादिताङ्गल तिकत्वात्। तं पासित्ता के ई वएज्जा कहिं भवं गच्छसि ? यद् यौवनं न यूनां चक्षुर्मोदाय भवति सदा ॥ अविसुद्धो नेगमो भणइ-पत्थगस्स गच्छामि । तं (स्थाना. ४, २, २८२) ।
च के ई छिदमाणं पासित्ता वएज्जा-कि भवं आन्ध्र प्रादि की स्त्रियों में से किसी एक के कच्छा- छिदसि ? विसुद्धो नेगमो भणइ-पत्थयं छिदामि । बन्ध (कमर का वस्त्र) प्रादि रूप वेष की प्रशंसा तं च के ई तच्छमाणं पासित्ता वएज्जा-कि भवं प्रादि करने को नेपथ्य कथा कहते हैं।
तच्छसि ? विसुद्धतरामओ नेगमो भणइ-पत्थयं नेम-नेमा नाम भूमिभागादूवं निष्क्रामन्तः तच्छामि । तं च क इ उक्कीरमाणं पासिता वएज्जा प्रदेशाः । (जम्बूद्वी. शा. वृ. सू. ४ व ८, पृ. २३ व किं भवं उक्कीरसि ? विसुद्धतरामो णेगमो भणइ४८)।
पत्थयं उक्कीरामि । तं च केइ (वि)लिहमाण भूभाग से ऊपर निकलते हुए प्रदेशों को नेम पासित्ता बएज्जा-किं भवं (वि) लिहसि ? विसुद्धकहते हैं।
तरामो णेगमो भणइ-पत्थयं (वि) लिहामि । नेमि-धर्म-चक्रस्य नेमिवन्नेमिः, तथा गर्भस्थे भग- एवं विसुद्धतरस्स णेगमस्स नामाउडिनो पत्थयो। वति जनन्या रिष्ट रत्नमयो महाने मिर्दष्ट इति (अनयो. सू. १४५, पृ. २२२-२३)। ५. गाई रिष्टनेमिः, अपश्चिमादिशब्दवत् नपूर्वत्वेऽरिष्ट- माणाइं सामन्नोभयविसेसमाणाई। जं तेहिं मिणइ नेमिः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४, पृ. २२६)। तो गमो णो णेगमाणोति ॥ लोगत्थनिबोहा वा रथ के चाक के अन्तभाग को (परिधिको), अथवा निगमा तेसु कुसलो भवो वाऽयं । अहवा जं नेगगउसके अन्त में सुरक्षा के लिए जो लोहे का घेरा मोऽणेगपहो णेगमो तेणं । (विशेषा. २६८२-८३)। (हाल) रहता है उसे नेमि कहते हैं। बाईसवें ६. अर्थसंकल्पमात्रग्राही नंगमः। निगच्छन्ति तस्मितीर्थकर चूंकि धर्मरूप रथ के ले जाने में नेमि के निति निगमनमात्र वा निगमः, निगमे कुशलो भवो समान थे, अतएव वे 'नेमि' कहलाये । अथवा माता वा नगमः। तस्य लोके व्यापारः अर्थसंकल्पमात्रने उनके गर्भवास के समय अरिष्टरत्नमय विशाल ग्रहणं प्रस्थेन्द्र-गृह-गम्यादिषु । तद्यथा-कश्चित् प्रगृह्य रथचक्र की नेमि को देखा था, अत: उनका नाम परशुं पुरुष गच्छन्तमभिसमीक्ष्याह 'किमर्थ गच्छति अरिष्टनेमि प्रसिद्ध हुमा।
भवान्' इति ? स तस्मै प्राचष्टे प्रस्थार्थमिति । नैगम-देखो नंगमनय ।
एवमिन्द्र-गृहादावपि । तथा 'कतरोऽत्र गमी' इत्युक्ते ल. ८१
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
नगमनय ]
श्रचष्टे 'अहं गमी' इति संप्रत्यगच्छत्यपि गमीति व्यवहारः । एवंप्रकारोऽन्योऽपि नेगमनयस्य विषयः ॥ (त. वा. १, ३३, २) । ७. प्रन्योन्यगुणभूतै कभेदाभेदप्ररूपणात् । नैगमो XXX ॥ ( लघीय. ३९); स्वलक्षणभेदाभेदयोरन्यतरस्य प्ररूपणायाम् इतरो गुणः स्यादिति नैगमः । यथा जीवस्वरूपनिरूपणायां गुणाः सुख-दुःखादयः, तत्प्ररूपणायां च आत्मा । (लघीय. स्व. वि. ३९ ) : गुण- प्रधानभावेन धर्मयोरेकर्मणि । विवक्षा नैगमो X XX ॥ ( लघीय. ६८) ; ८. XXX अविवक्षिततादात्म्यलक्षणत्वात् नैगमस्य । सिद्धिवि. स्वो वृ. १० - ७); विद्याविद्याविनिर्भासात् नित्यानित्यत्वसंभवात् । स्वार्थस्वरूपयोः सिद्धिः द्वयरूपेति नैगमः ॥ ( सिद्धिवि. १२-११, पृ. ७४७) । ६. निगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते इति निगमाः पदार्थाः लौकिकाः, तेषु भवो नैगमः । ( त. भा. हरि. वृ. १-३४) । १०. न एक नैकम्, प्रभूतानीत्यर्थः, नैकैमनिः महासत्तासामान्य विशेषज्ञानमिमीते मिनोनीति वा नैकम इति, इयं नेकमस्य निरुक्तिः । निगमेषु वा भवो नैगमः, निगमाः पदार्थपरिच्छेदाः । (श्राव. नि. हरि. खु. ७५५) । ११. तत्रानेकगमो नंगमः इति कृत्वाऽऽह - प्रविशुद्धो नैगमो भणति श्रभिधत्ते 'प्रस्थकस्य गच्छामि' कारणे कार्योपचारात् XXX विशुद्धतरो नंगमो भणति - प्रस्थकं छिनद्मि । (अनुयो. हरि. वृ. पू. १०५); न एकं नैकं, प्रभूतानीत्यर्थः । एतैः कः ? मानैः महासत्तासामान्य विशेषज्ञानंमिमीते मिनोतीति वा नैकम इति नैकमस्य निरुक्तिः । निगमेषु वा भवो नैगमः, निगमाः पदार्थपरिच्छेदाः । (अनुयो. हरि. वृ. पु. १२३ ) । १२. यदस्ति न तद् द्वयमतिलङ्घ्य वर्तत इति नैकगमो नंगमः, संग्रहा संग्रहस्वरूपद्रव्यार्थिको नैगमः इति यावत् । (धव. पु. १, पू. ८४ ) ; यदस्ति न तद् द्वयमतिलङ्घ्य वर्तत इति संग्रहव्यवहारयोः परस्परविभिन्नोभयविषयावलम्बनो नैगमनयः, शब्द शील- कर्म कार्य-कारणाधाराधेयभूत-भविष्यद्वर्तमान मेयोन्मेयादिकमाश्रित्य स्थितोपचारप्रभवः इति यावत् । (घव. पु. ६, पृ. १७१ ; जयब. १, पु. २२१ ) ; नैकगमो नैगमः, द्रव्यपर्यायद्वयं मिथो विभिन्नमिच्छन् नंगम इति यावत् । ( धव. पु. १३, पृ. १६९ ) । १३. अर्थसंकल्पमात्रस्य ग्राहको नगमो नय: । (ह. पु. ५६-४३; त.
६४२, जैन - लक्षणावली
[ नैगमनय
सा. १-४४) । १४. तत्र संकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः । सोपाधिरित्यशुद्धस्य द्रव्यार्थस्यामिघानतः ॥ संकल्पो निगमस्तत्र भवोऽयं तत्प्रयोजनः । तथा प्रस्थादिसंकल्पः तदभिप्राय इष्यते ॥ यद्वा नैकं गमो योऽत्र स सतां नैगमो मतः । धर्मयोर्धमिणो वापि विवक्षा धर्म - धर्मिणोः ।। (त. इलो. १-३३, १७, १८ व २१) । १५. द्रव्ययोः पर्याययोर्द्रव्य-पर्याययोर्वा गुणप्रधानभावेन विवक्षायां नैगमत्वात्, नैकं गमो नंगम इति निर्वचनात् । (अष्टस. पू. २८७ ) । १६. निगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते इति निगमाः लौकिका अर्था:, तेषु निगमेषु भवो योऽध्यवसायो ज्ञानाख्यः स नैगमः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १-३४) । १७. सामान्य विशेषात्मकस्य वस्तुनो नकेन प्रकारेणावगमः परिच्छेदो निगमस्तत्र भवो नैगमः, नैकगमो वा नैगम: - महासामान्यापान्तराल सामान्यविशेषाणां परिच्छेदक: । (सूत्रकृ. सू. शी. वृ. २, ७, ८१, पृ. १८७ ) । १८. जो साहेदि अदीदं वियप्परूवं भविस्समत्थं च । संपडिकालाविट्ठे सो हु णो णेगमो श्रो । ( कार्तिके. २७१) । १६. नैकं गच्छतीति निगमो विकल्पस्तत्र भवो नंगमः । ( श्रालाप. पू. १४६ ) । २०. सर्वेण देशादिप्रकारेणानयोर्द्रव्य-पयययोरतादात्म्यात् नंगमः । (सिद्धिवि. वृ. १० - ७, पु. ६७० ); विद्या तत्त्वज्ञानम्, अविद्या विप्लवज्ञानम्, तयोर्विनिर्भासात् प्रतीतेः नित्यानित्यत्वसंभवो य एकत्र तस्मात् स्वार्थस्वरूपयोः स्व-स्वरूपस्य श्रर्थस्वरूपस्य च सिद्धिः निष्पत्ति: निर्णीतिर्वा द्वयरूपा नित्यानित्यस्वभावा इत्येवं नंगमः । (सिद्धिवि. वृ. १२-११, पृ. ७४७ ) । २१. राश्यन्तरोपलब्धं नित्यत्वमनित्यत्वं च नयतीति निगमव्यवस्थाभ्युप गमपरो नैगमनयः । निगमो हि नित्या नित्यसदसत्-कृतकाकृतकस्वरूपेषु भावेष्वपास्तसाङ्कर्य - स्वभाव : सर्वथैव धर्म-धर्मिभेदेन सम्पद्यत इति । ( सम्मति. अभय वृ. ३, पृ. ३१० ) । २२. स्वलक्षणं पर्यायात्मकं द्रव्यं तदात्मकाः पर्यायाश्च तस्य यौ भेदाभेदी तयोर्मध्येऽन्यतरस्य भेदस्याभेदस्य वा प्ररूपणायां क्रियमाणायां इतरो भेदप्ररूपणायामभेदस्तत्प्ररूपणायां वा भेदो गुणः स्यादित्येवंविधो नैगमो नयः । ( न्यायकु. ३६, पृ. ६२३ ) ; गुणप्रधानभावेन मुख्या मुख्यरूपतया धर्मयोरेकस्मिन् धर्मिणि विवक्षा प्रतिपत्तुरभिसन्धिः नैगमः । ( न्याय.
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
नैगमनय] ६४३, जैन-लक्षणावली
[नषेधिकी कु. ६८, पृ. ७८६)। २३. तत्रानिष्पन्नार्यसंकल्प- ६८); तदत्यन्तभेदाभिसन्धि: नेगमाभासः । मात्रग्राही नगमः । निगमो हि संकल्पस्तत्र भवस्त. (लघीय. स्वो. व.६८)। २. तेषां जीवसुखादीनां त्प्रयोजनो वा नैगमः। (प्रमेयक. ६-७४, पृ. प्रक्रमादेकान्तेनार्थान्तरताभिसन्धिः नैगमाभासः । ६७६) । २४. सामान्य-विशेषादिपरस्परापेक्षानेका. (न्यायकु. ५-३६); तयोः सुखाद्यात्मनोरत्यन्त भेत्मकवस्तुनिगमनकुशलो नंगमः। (मला. व. ६, दाभिसन्धि गमाभासः । xxx यतोऽसी धर्म६७)। २५. नैकेन सामान्य-विशेषग्राहकत्वात्त- मिणोस्तादात्म्यं सदयविवक्षितत्वात् स्वदुरागमवास्याने केन ज्ञानेन मिनोति परिच्छिनत्तीति नैकमः, सनाविपर्यासितमतेः प्रतिपत्तुः प्रवर्तते ततोऽसौ नंगअथवा निगमा:-निश्चितार्थबोधास्तेष कुशलो भवो माभास इति । (न्यायकु. ६-६८, पृ. ७८६)। वा नैगमः, अथवा नको गमः अर्थमागों यस्य स ३. सर्वथानयोरन्तरत्वाभिसन्धिस्तू नैगमाभासः, प्राकृतत्वेन नेगमः। (स्थाना. अभय. व.३,३, धर्म-मिणोः सर्वथार्थान्तरत्वे मिणि धर्माणां वत्ति१८६) । २६. धर्मयोर्धमिणोधर्म-धर्मिणोश्च प्रधा- विरोधस्य प्रतिपादितत्वादिति । (प्रमेयक. ६-७४)। नोपसर्जनभावेन यद्विवक्षणं स नैकगमो नैगमः। (प्र. ४. धर्मद्वयादीनामैकान्तिकपार्थक्याभिसन्धि:गमान. त.७-७)। २७. अन्योन्य गुण-प्रधानभूतभेदा- भासः। (प्र. न. त. ७-११)। ५. प्रादिशब्दाद् भेदप्ररूपणो नैगमः, नैकं गमो नैगमः इति निरुक्तेः। धर्मिद्वय-धर्म-धमिद्वययोः परिग्रहः। ऐकान्तिकपार्थ(प्रमेयर. ६-७४)। २८. न एक नैकम्, xxx क्याभिसन्धिरैकान्तिकभेदाभिप्रायो नेगमाभासो नैगनैकैः प्रभूतसंख्याकैर्मानः-महासामान्यावान्तरसा- मदुर्नय इत्यर्थः । (रत्नाकरा. ७-११, पृ. १२०)। मान्य-विशेषादिविषयः प्रमाणमिमीते-परिच्छिन्न- ६. सर्वथाऽभेदवादस्तदाभासः। (प्रमेयर. ६-७४)। त्ति वस्तुजातमिति नैगमः।xxx निश्चितो ७. अर्थान्तरत्वं गुण-गुण्यादीनामत्यन्तभेदः, तस्योक्ती गमो निगमः-परस्परविविक्तसामान्यादिवस्तुग्रह- प्ररूपणायां नैगमाभास इष्यते । (लघीय. अभय.. णम्, स एव प्रज्ञादेराकृतिगणतया स्वाथिकाण्प्रत्यय- २-६, पृ. ५६)। विधानात् नैगमः, यदि वा निगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते १गण-गणी और धर्म-धर्मा प्रादि में प्रत्यन्त भेवइति निगमास्तेषु भवो योऽभिप्रायो नियतपरिच्छेद- का प्रतिपादन करना, इसे नैगमाभास माना रूपः स नैगमः। xxx अथवा गमाः पन्थानः, जाता है।
के गमा यस्य स नंगमः। (प्राव. नि. मलय. व. नमित्तिक-१. नैमित्तिको लक्ष्यवेधी दैवज्ञो वा। ७५५, प्रव. सारो. ७.८४७)। २६. नैगमः निगमो (नीतिवा. १४-३१, प. १७४)। २. निमित्तं मुख्य-गौणकल्पना, तत्र भवो नयो नैगमः । (लघीय. कालिकं लाभालाभादिप्रतिपादकं शास्त्रम्, तत्त्यअभय. वृ. २-६, पृ. ५८)।
घीते वा नैमित्तिकः। (योगशा. स्वो. विव. २, १जो अभी उत्पन्न नहीं हना है-भविष्य में १६)। उत्पन्न होने वाला है-ऐसे पदार्थ को जो संकल्प १ लक्ष्य के वेधने वाले अथवा ज्योतिषीको नमिमात्र से ग्रहण करता है उसे नंगमनय कहते हैं। त्तिक कहते हैं। २ तीनों कालों सम्बन्धी लाभ २ निगमों (जनपदों) में जो शब्द कहे गये हैं व प्रलाभ प्रादि के वर्णन करने वाले शस्त्र का उनके अर्थ-जैसे 'घट' शब्द का अर्थ जलधारण नाम निमित्त है। इस शास्त्र को जो जानता है या मादि में समर्थ-तथा शब्द और अर्थ के वाच्य- पढ़ता है वह नैमित्तिक कहलाता है। वाचकभावरूप परिज्ञान को नैगमनय कहते हैं। नेश्चयिक प्रवग्रह-तत्र नैश्चयिको नाम मामा. यह नैगमनय देश (विशेष) और समग्र (सामान्य) न्यपरिच्छेदः, स चैकसामयिकः शास्त्रेऽभिद्धितः । को ग्रहण करने वाला है।
(त. भा. सिद्ध. व. १-१६)। नगमाभास-१.xxxअर्थान्तरत्वोक्तो नैगमा- सामान्य के ग्रहण करने वाले ज्ञान को नैश्चयिक भास दृष्यते ॥ (लघीय. ३९); तदर्थान्तरताभि- प्रवग्रह कहा जाता है। उसे शास्त्र में एकसामयिक सन्धिः नंगमाभासः । (लघीय. स्वो. वृ. ३९); -एक समय वाला-कहा गया है। xxxअत्यन्तभेदोक्तिः स्यात्तदाकृतिः । (लघीय. नैषधिको-१. पावस्सियं च णितो जं च अइंतो
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
नेष्ठिक ब्रह्मचारी]
६४४, जैन-लक्षणावली
[नैसर्गिक सम्यग्दर्शन
णिसीहियं कुणइ । सेज्जा णिसीहियाए णिसीहिया- ५-१०) । अभिमुहो होई ।। जो होइ निसिद्धप्पा निसीहिया १ जो शिर के चिह्न के रूप में शिखा (चोटी) को, तस्स भावग्रो होइ । प्रणिसिद्धस्स निसीहिय केवलमत्तं वक्ष के चिह्नस्वरूप गणधरसूत्र (यज्ञोपवीत) को, हवइ सहो ॥ प्रावस्सयंमि जुत्तो नियमणिसिद्धो• तथा कटिभाग के चिह्नस्वरूप धवल या रक्त वस्त्रत्ति होइ नायव्वो। अहवाऽवि णिसिद्धप्पा णियमा खण्ड और लंगोटी को धारण करते हुए भिक्षावृत्ति प्रावस्सए जुत्तो।। (प्राव. भा. १२०-२२, पृ. से भोजन करते हैं व देवपूजा में तत्पर रहते हैं वे २६६-६७)। २. निषिद्धात्मनश्चातिचारेभ्यः क्रिया नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहलाते हैं। २ जिसका क्रियानषेधिकीति । (प्राव. नि. हरि. व. ६६२) । काण्ड अामरणान्त स्त्री से रहित होता है उसे ३. निषिद्धात्मा अहमस्मिन् प्रविशामीति शेषसाधना. नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहा जाता है। मन्वाख्यानाय त्रासादिदोषपरिहरणार्थम् अस्यार्थस्य नैष्टिक श्रावक-१. नैष्ठिकः निष्ठया चरति तत्र संचिका नषेधिकी। (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ५८)। वा भवः। xxx धर्मे निष्ठा निवर्हणं यस्यासो ४. निषेधेन स्वाध्यायव्यतिरिक्त शेषव्यापार प्रतिष घटमानदेशसंयमो निरतिवारश्रावकधर्मनिर्वाहपर धेन निर्वृत्ता नैषेधिको । (व्यव. मलय. वृ. पृ. इत्यर्थः। (सा. घ. स्बो. टी. १-२०); नैष्ठिको
मूलोत्तरगुणश्लाध्यतपोऽनुष्ठाननिष्ठः । (सा. घ. स्वो. १ प्रावश्यिकी क्रिया निकलते हुए की जाती है टी. २-५१); देशयमनकषायक्षयोपशमतारतम्यऔर नषेधिकी पाते हुए की जाती है। जिसने वशतः स्यात् । दर्शनिकाये कादशदशावशो नैष्ठिकः अपनी प्रात्मा को मल और उत्तर गुणों सम्बन्धी सुलेश्यतरः। (सा. घ. ३-१)। २. दृष्ट्यादिदश. अतिचारों से रहित कर लिया है उसके यथार्थतः धर्माणां निष्ठा निर्वहणं मता। तया चरति यः स नषेधिकी क्रिया होती है। अनिषिद्ध के तो केवल स्यान्नैष्ठिकः साधकोत्सुकः।। देशयमध्नकोपादिक्षशब्द मात्र से निषोधिका होती है, न कि परमार्थ योपशमभावतः। श्राद्धो दर्श निकादिस्तु नैष्ठिकः से । मूल व उत्तर गुणों के अनुष्ठानरूप प्रावश्यक स्यात् सुलेश्यकः ।। (धर्मसं. श्रा. ५-६ व १)। में जो यक्त (निरत) है उसे नियम से निषिद्धात्मा १जो निष्ठापूर्वक धर्म का प्राचरण करता है वह जानना चाहिए। प्रथवा यह भी कहा जा सकता है नैष्ठिक श्रावक कहलाता है। उसकी धर्म के विषय कि निषिद्धात्मा ही प्रावश्यक में युक्त होता है। में निर्वाहरूप निष्ठा रहती है, इसी से वह निरतिनैष्ठिक ब्रह्मचारी-१. नैष्ठिकब्रह्मचारिणः सम. चार श्रावकधर्म का परिपालन करता है।। धिगतशिखालक्षितशिरोलिंगा: गणधरसूत्रोपलक्षितो. नैसगिक मिथ्यादर्शन-१. तत्रोपदेशनिरपेक्ष रोलिंगाः,शक्ल-रक्तवसनखण्डकोपीनलक्षितकटीलिंगाः नैसगिकम् । तत्र परोपदेश मन्तरेण मिथ्याकर्मोदयस्नातका (सा. घ. 'स्नातकाः' स्थाने तथा') भिक्षा. वशात् यदाविर्भवति तत्त्वार्थाश्रद्धानलक्षणं तन्नसगिवृत्तयो देवतार्चनपरा भवन्ति । (चा. सा. पृ. २१, कमिति व्यवसीयते । (त. वा. ८, १, ७)। सा. घ. स्वो. टी. ७-१९)। २. स नैष्ठिको ब्रह्म- २. मिथ्याकर्मोदयादाद्य तत्त्वाश्रद्धानलक्षणम् ॥ चारो यस्य प्राणान्तिकमदारकर्म। (नीतिवा. ५, (ह. पु. ५८-१९३) । ३. तत्र नैसर्गिक मिथ्या१०, पृ.४५) । ३. शिखा-यज्ञोपबीताङ्कास्त्यक्तारम्भपरिग्रहः । भिक्षां चरन्ति देवा! कुर्वते कक्षपट्टकम् ॥ परोपदेशनं विनापि समाविर्भवति । (त. वृत्ति श्रुत. धवलारक्तयोरेकतरैकवस्त्रखण्डकम् । घरन्ति ये च ते ८-१)। प्रोक्ता नैष्ठिकब्रह्मचारिणः ॥ (धर्मसं. श्रा. -२२, १ परोपदेश के विना ही मिथ्यात्व कर्म के उदय से २३)। ४. यस्य ब्रह्मचारिणः प्राणान्तिकं मृत्युपर्य- जो तत्त्वों का प्रश्रद्धान प्रकट होता है उसे नैसगिक न्तं कलत्ररहितं क्रियाकाण्डं भवति स नैष्ठिक: मिथ्यादर्शन कहते हैं। प्रोच्यते । xxx तथा च भारद्वाजः-कलत्र- नैसर्गिक सम्यग्दर्शन-देखो निसर्गज सम्यग्दर्शन। हितस्यात्र यस्य कालोऽतिवर्तते । कष्टेन मृत्यु- १. उभयत्र सम्यग्दर्शने अन्तरङ्गो हेतुस्तुल्यो दर्शनपर्यन्तो ब्रह्मचारी स नैष्ठिकः ।। (नीतिवा. टी. मोहस्योपशमः क्षयः क्षयोपशमो वा, तस्मिन सति
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
नैसर्प निधि ]
यद् बाह्योपदेशादृते प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम् । ( स. सि. १-३; त. बा. १, ३, ५) । २. जाईसरणनिसग्गुग्गया बिन निरागमा दिट्ठी ॥ (श्राव. नि. ११४२ ) । ३. नैसर्गिकमाश्रित्याह-जातिस्मरणात् सकाशात् निसर्गेण स्वभावेनोद्गता सम्भूता जातिस्म
६४५, जैन - लक्षणावली
निसर्गोद्गता XX X दृष्टिः दर्शनम्, यतः स्वयम्भूरमणमत्स्यादीनामपि जिनप्रतिमाद्याकारमत्स्यदनाज्जातिमनुस्मृत्य भूतार्थालोचन परिणाममेव नैसगिकसम्यक्त्वम् । (प्राव. नि. हरि. वृ. ११४२, पृ. ५२८) । ४. विना परोपदेशेन तत्त्वार्थप्रतिभासनम् | निसर्गों XXX ॥ (त. इलो. १, ३, ३); तत्र प्रत्यासन्ननिष्ठस्य भव्यस्य दर्शन मोहोपशमादी सत्यन्तरङ्गे हेतो बहिरङ्गादपरोपदेशात्तत्त्वार्थज्ञानात् परोपदेशापेक्षाच्च प्रजायमानं तत्त्वार्थश्रद्धानं निसर्गजमधिगमजं च प्रत्येतव्यम् । (त. इलो. १-१३, पू. ६१) । ५. तत्त्वोपदेशव्यतिरिक्त माद्यं X××॥ ( धर्मप. २०-६६ ) । ६. किन्तु सत्यन्तरङ्गेऽस्मिन् हेतावृत्पद्यते च यत् । नैसर्गिकं हि सम्यक्त्वं विनोद्देशादिहेतुना ।। (लाटीसं. ३ - २१) ।
१ दर्शनमोह के उपशम, क्षय प्रथवा क्षयोपशम के होने पर जो सम्यग्दर्शन बाह्य उपदेश के विना प्रादुर्भूत होता है उसे नैसर्गिक सम्यग्दर्शन कहा जाता है । २ जो दृष्टि (दर्शन) जातिस्मरण के श्राश्रय से स्वभावतः उत्पन्न होती है उसे नैसर्गिक सम्यक्त्व कहते हैं । इसका कारण यह है कि स्वयम्भूरमण समुद्रगत मत्स्यादिकों के जिन प्रतिमादि के श्राकार मत्स्य के देखने से जाति का स्मरण कर जो भूतार्थ के प्रालोचनरूप परिणाम होता है वही नैसर्गिक सम्यक्त्व कहलाता है ।
नैसर्प निधि - १. काल - महकाल-पंडू माणवसंखा य पउम इसप्पा | पिंगल - णाणारयणा प्रट्ठत्तरसयदाणि हि दे || उडुजोग्गदव्व-भायण- घण्णायुहतूर- वत्थ- हम्माणि | आभरण-सयलरयणा देंति का लादिया कमसो ॥ ( ति प ४, ७३६-४० ) । २. सम्म णिवेसा गरमागर नगर पट्टणाणं च । दो मुह-मडबाणं खंधावारावणगिहाणं ॥ ( जम्बूद्वी ३-६६, प्र. सारो. १२१६ ) । ३. काल - महकालमानव-पिंगल-णे सप्प- पउम पांडु तदो । संखो णाणारयणं वणिहिम्रो देति फलमेदं । उडुजोग्गकुसुम दामपहृदि भाजणयमा उहाभरणं । गेहं वत्थं घण्णं
[ नोश्रागम-ज्ञशरीर भव्य.
तूरं बहुरयणमणुक्रमसो ॥ ( त्रि. सा. ८२१-२२) । ४. स्कन्धावारपुरग्रामाकर द्रोणमुखौकसाम् । मडंबपत्तनानां च नैसर्पाद्विनिवेशनम् ॥ (त्रि.श. पु. च. १४- ५७४) ।
१ जो निधि प्रासादों (भवनों ) को दिया करती है उसका नाम नेसपनिधि है । २ जिसमें ग्राम, प्राकर, नगर, पट्टन, द्रोणमुख, मटंब, स्कन्धावार, प्रापण (हाट) और गृह के निवेश की विधि - स्थापनविधि - हो उसे नैतनिधि कहते हैं । नो अनुभागदीर्घ- अप्पप्पणी उक्कस्साणुभागट्ठानाणि बंघमाणस्स अणुभागदीहं । तदूणं बंध माणस
प्रणुभागदीहं । ( धव. पु. १६, पृ. ५०९ ) । अपने अपने उत्कृष्ट अनुभागस्थानों से होन बांधने वाले के नो अनुभागदीर्घ होता है ।
नो- श्रागम - श्रागमादण्णो णोभागमो । (धव. पु. ३, पृ. १३) । श्रागम से भिन्न नो- श्रागम कहलाता है । नोश्रागम प्रचित्तद्रव्यभाव - श्रचित्तो पोग्गल - धम्माधम्म - कालागासदव्वाणि । ( धव. पु. ५, पृ. १८४) ।
पुद्गल, धर्म, श्रधर्म, काल और प्रकाश ये तद्व्यतिरिक्त प्रचित्त नो- श्रागमद्रव्यभाव हैं । नोश्रागम-ज्ञशरीरद्रव्यमङ्गल - तत्र ज्ञस्य शरीरं ज्ञशरीरम् शीर्यत इति शरीरम्, ज्ञशरीरमेव द्रव्यमङ्गलं ज्ञशरीरद्रव्यमङ्गलम् । अथवा ज्ञशरीरं च तद् द्रव्यमङ्गलं चेति समासः । एतदुक्तं भवति — मङ्गलपदार्थज्ञस्य यच्छरीरमात्मरहितं तदतीतका - लानुभूततद्भावानुवृत्त्या सिद्ध सिलादितलगतमपि घृतघटादिन्यायेन नोआागमतो ज्ञशरीरद्रव्यमङ्गलमिति, मङ्गलज्ञानशून्यत्वाच्च तस्य । इह सर्वनिषेध एव नोशब्द: । (श्राव. हरि. वृ. पू. ५) । मंगल पदार्थ के ज्ञाता का जो शरीर है उसे नोश्रागम-ज्ञशरीरद्रष्य मंगल कहते हैं । अभिप्राय यह है कि मंगल पदार्थ के ज्ञाता का जो निर्जीव शरीर है वह भूतकाल में अनुभूत मंगलभाव की अनुवृत्ति से सिद्ध शिलातलपर स्थित होता हुआ घी के घड़े के न्याय से - व्यवहार से – नोश्रागमज्ञशरीरद्रव्यमंगल कहलाता है । नोश्रागम-ज्ञशरीर भव्यव्यतिरिक्तद्रव्य मंगलज्ञशरीर भव्य शरीरव्यतिरिक्तं च द्रव्यमङ्गलं संयम
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
नोप्रागमद्रव्यकाल ]
तपोनियमक्रियानुष्ठाता अनुपयुक्त: । ( श्राव. हरि. वृ. पू. ५) ।
संयम, तप और नियम क्रियानों का श्रनुष्ठाता होकर भी जो वर्तमान में उपयोग से रहित है उसे नो-नागभज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्य मंगल कहते हैं । नोश्रागमद्रव्यकाल – जीवाजीवादिश्रदुभंगदव्वं वा णोम्रागमदव्वकालो | ( धव. पु. ४, पृ. ३१६) । अथवा जीव अजीव आदि श्राठ भंगस्वरूप ( देखिये धव. पु. ६, पृ. २४६) द्रव्य को नोश्रागमद्रव्यकाल कहते हैं ।
नो- श्रागमद्रव्यदोष - णोश्रागमदव्वदोसो णाम जं दव्वं जेण उवघा देण उवभोगं ण एदि तस्स दव्वस्स सो उवधादो दोसो णाम । तं जहा । साडियाए श्रग्गिदद्धं वा मूसगभक्खियं वा एवमादि। ( कसायपा. चू. पू. १६) ।
जो द्रव्य जिस उपघात के निमित्त से उगभोग को प्राप्त नहीं होता है, वह उपघात उस द्रव्य का द्वेष कहलाता है । इसी को तद्व्यतिरिक्त नोश्रागमद्रव्यद्वेष कहते हैं। जैसे- साड़ी का द्वेष श्रग्नि से जलना या चूहे से काटा जाना है । नोश्रागमद्रव्यनन्दी – नोभागमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरोभयव्यतिरिक्ता च द्रव्यनन्दी द्वादशप्रकारस्तूर्यसंघात : - भंभा मुकुंद मद्दल कडंब झल्लरि हुडुक्क कंसाला | काहलि तलिमा वंसो संखो पणवो य बारसमो ॥ (श्राव. हरि. वृ. पू. ७) । भेरी, मुकुन्द, मृदंग, कडम्ब, झालर, हुड़क्क, कंपाल, काहल, तलिमा, बंस, शंख श्रौर पणव इन बारह प्रकार के बाजों के समूह को नोघ्रागमज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यनन्दी कहते हैं । नोग्रागमद्रव्यमङ्गल – देखो नो- प्रागम-ज्ञशरीर द्रव्यमङ्गल । मङ्गलपयत्थजाणयदेहो भव्वस्स वा सजीवोऽवि । नो-श्रागमप्रो दव्वं श्रागमरहिप्रोत्ति जं भणिश्रं ॥ श्रहवा नो देसम्मि नो श्रागमत्रो तदेकसाओ । भूयस्स भाविणो वा ऽऽगमस्स जं कारणं देहो ॥ जाणय- भव्वसरीराइरित्तमिह दव्वमंगलं होई । जा मंगला किरिया तं कुणमाणो प्रणुवउत्तो ॥ जं भूयभावमंगल परिणामं तस्स वा जयं जोग्गं । जं वा सहावसोहणवन्नाइगुणं सुवण्णाई ॥ तं पिव हु भावमंगलकारण मंगलंति निद्दिट्ठ । नो-श्रागमत्रो दव्वं नोसद्दो सव्वपडिसेहे ।। (विशेषा. ४४ - ४८ ) |
[नोप्रागमद्रव्यसामायिक
मंगल पदार्थ के ज्ञाता का जो निर्जीव शरीर है उसको श्रथवा भविष्य में जो मंगल पदार्थ का ज्ञाता होने वाला है उसके सजीव शरीर को प्रागम रहित होने से नोश्रागमद्रव्यमंगल कहा जाता है । नोश्रागमद्रव्यविमोक्ष - नोद्यागमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो निगडादिकेषु विषयभूतेषु यो विमोक्ष: स द्रव्यविमोक्षः, सुब्व्यत्ययेन वा पञ्चम्यर्थे सप्तमी, निगडादिभ्यो द्रव्येभ्यः सकाशाद्विमोक्षः द्रव्यविमोक्षः । ( श्राचारा. नि. शी. वृ. २५८, पू. २३६)।
विषयभूत सांकल प्रादि विषयक जो विमोक्ष है वह नोप्रागमद्रव्यविमोक्ष कहलाता है । अथवा सांकल प्रादिरूप बन्धन से विमुक्त होने को नोश्नागमद्रव्यविमोक्ष कहते हैं । नोश्रागमद्रव्यव्यतिरिक्तकर्मप्रतिक्रमरण-क्षयोपशमावस्थामुपगतः चारित्रमोहः नोश्रागमद्रव्यव्यतिरिक्तकमं प्रतिक्रमणम् । (भ. प्रा. विजयो. ११६) । क्षयोपशम श्रवस्था को प्राप्त चारित्रमोहनीय कर्म को नागमद्रव्यव्यतिरिक्तक मंप्रतिक्रमण कहते हैं । नोश्रागमद्रव्यव्यतिरिक्तकर्मव्रत - उपशमे क्षयोपशमे वावस्थितः चारित्रमोहो नोग्रागमद्रव्यव्यतिरिक्तकर्मव्रतम् । (भ. प्रा. विजयो. १९८५) । उपशम अथवा क्षयोपशम अवस्था में स्थित चारित्रमोहनीय कर्म को नोश्रागमद्रव्यव्य रिक्तकर्मव्रत
६४६, जैन-लक्षणावली
कहते हैं । नोश्रागमद्रव्यश्रुत - नोनागमतस्तु श्रुतपदार्थज्ञशरीरं भूत भविष्यत्पर्यायम् । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १-१२, पृ. ८) ।
श्रुतपदार्थ के ज्ञाता के भूत-भविष्यत् पर्यायसम्बन्धी शरीर को नोप्रागमद्रव्यश्रुत कहते हैं । नोप्रागमद्रव्यसामायिक – नोश्रागमद्रव्य सामायिकं नाम यत् त्रिविकल्पं ज्ञायकशरीर भावि तद्व्यतिरिक्तभेदेन । सामायिकज्ञस्य यच्छरीरं तदपि सामाविकज्ञानकारणम् । श्रात्मेव शरीरमन्तरेण तस्याभावात् । यस्य हि भावाभावो नियमतो यदनुकरोति तत्तस्य कारणमिति हेतु- फलव्यवस्था वस्तुषु । ततः प्रत्ययसामायिकस्य कारणत्वाच्छरीरं त्रिकालगोचरं सामायिकशब्दवाच्यं भवति । (भ. प्रा. विजयो. ११६, पृ. २७४) ।
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
नोश्रागमद्रव्योत्तर ]
ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त के भेद से तीन प्रकार को सामायिक को नोनागमद्रव्यसामायिक कहा जाता है । सामायिक के ज्ञाता का जो शरीर है वह भी सामायिकज्ञान में कारण है, क्योंकि श्रात्मा के समान शरीर के बिना सामायिकज्ञान सम्भव नहीं है । इसलिए प्रत्ययसामायिक का कारण होने से तीन काल सम्बन्धी शरीर भी सामा यिक शब्द का प्रभिधेय होता है । नोश्रागमद्रव्योत्तर नागमतो ( द्रव्योत्तरं ) ज्ञशरीर भव्यशरीरे तद्व्यतिरिक्तं च । तत्र तद्व्यतिरिक्तं विघा सचित्ताचित्त मिश्रभेदेन । सचित्तं पितुः पुत्रः प्रचित्तं क्षीरात् दधि मिश्र जननीशरीरतो रोमादिमदपत्यम् । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १, पृ. ३) १
तत्र
ज्ञशरीर, भावी शरीर और तद्द्व्यतिरिक्त को नोप्रागमद्रव्योत्तर कहते हैं । उत्तर पदार्थ विषयक ज्ञाता का शरीर ज्ञशरीर कहलाता है । भविष्य जो उसका ज्ञाता होने वाला है उसके शरीर को भव्य ( भावी) शरीर कहा जाता है। सचित्त, श्रचित्त और मिश्र के भेद से तद्व्यतिरिक्त तीन प्रकार का है— पिता से होने वाला पुत्र सचित्त तद्व्यतिरिक्त है, दूध से उत्पन्न होने वाला दही प्रचित्त तद्व्यतिरिक्त द्रव्योत्तर है, तथा माता के शरीर से उत्पन्न होने वाला रोमादियुक्त पुत्र मिश्र तद्व्यतिरिक्त द्रव्योतर है । नोश्रागमभाव-उपशामना -- णोश्रागमभावुवसामणा उवसंतो कलहो जुद्धं वा इच्चेवमादि । ( धव. पु. १५, पृ. २७५) ।
शान्त हुए झगड़े या युद्ध आदि का नाम नोश्रागमभाव-उपशामना है । नोप्रागमभावकर्मणोप्रागमभावो पुण कम्मफलं भुंजमाणगो जीवो । (गो. क . ६६ ) ।
कर्मफल के भोगने वाले जीव को नोश्रागमभावकर्म कहते हैं । नोप्रागमभावकर्म प्रकृतिप्राभृत-प्रागमेण विणा तदट्ठवजुत्तो णोप्रागमभाव कम्मपय डिपाहुडमुवयारादो । ( धव. पु. 8, पृ. २३० ) ।
श्रागम के बिना जो उसके अर्थ में उपयोगयुक्त है नोद्यागमभावदिठ्ठिनादो । ( धव. पु. ६, पृ. २०५) ।
-
[नोश्रागमभावदष्टिवाद
संख्यानां तीर्थंकृतामत्र भारते प्रवृत्तानां वृषभादीनां जिनवरत्वादिगुणज्ञान श्रद्धान पुरस्सरा चतुर्विंशतिस्तवन- पठनक्रिया नोश्रागमभावचतुर्विंशतिस्तव इह गृह्यते । (भ. प्रा. विजयो. ११६, पृ. २७४) । २. चतुर्विंशतिस्तवपरिणतपरिणामो नोश्रागमभावस्तव इति । (मूला. वृ. ७-४१) ।
१ वृषभादि चोबीस तीर्थंकरों के जिनवरत्व श्रादि गुणों के ज्ञान और श्रद्धानपूर्वक चतुविशतिस्तवन पढ़नेरूप क्रिया का नाम नोश्रागमभावचतुविशतिस्तव है । २ चोबीस तीर्थंकरों की स्तुति करने रूप परिणाम से परिणत जीव को नोश्रागमभावचतुविशतिस्तव कहते हैं ।
नोश्रागमभावच्यवनलब्धि - ग्रागमेण विणा प्रत्यो जुत्तोनोप्रागमभावचयणलद्धी । ( धव. पु. ६, पृ. २२८ ) ।
आगम के बिना जो व्यवनलब्धि के अर्थ में उपयुक्त है उसे नोश्रागमभावच्यवनलब्धि कहते हैं । नोग्रागमभावजीव - १. जीवनपर्यायेण मनुष्यजीवत्व पर्यायेण वा समाविष्ट आत्मा नोनागमभावजीव: । ( स. सि. १-५) । २. जीवनादिपर्यायाविष्टोऽन्यः । जीवनादिपर्यायेणाऽऽविष्ट श्रात्माऽन्यो नोप्रागमतो भाव इत्युच्यते । (त. वा. १, ५, ११) । ३. नोग्रागमः पुनर्भावो वस्तु तत्पर्ययात्मकम् । द्रव्यादर्थान्तरं भेदप्रत्ययाद् ध्वस्तवाधनात् ॥ X X X ततोऽन्यस्य जीवादिपर्यायाविष्टस्यार्थादेन प्रागमभावजीवत्येन व्यवस्थापनात् । (त. इलो. १, ५, ६८ ) । ४. जीवादिपर्यायाविष्टो नोश्रागमः । ( न्यायकु. ७४, पृ. ८०७ ) । ५. विवक्षितपर्यायपरिणतो नोश्रागमभावः । ( लघीय. प्रभय. वृ. ७, २, पृ. ६८ ) । ६. जीवनपर्यायेण समाविष्ट श्रात्मा नोश्रागमभावजीवः मनुष्यजीवनपर्यायेण वा समाविष्ट श्रात्मा नोश्रागमभावजीवः कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १-५ ) 1
१ जीवनरूप पर्याय से अथवा मनुष्यजीवनपर्याय से युक्त श्रात्मा को नोश्रागमभावजीव कहा जाता है । नोश्रागमभावदृष्टिवाद - श्रागमेण विणा केवलो - हि-मणपज्जवणाणं हि दिट्टिवादवृत्तत्थपरिच्छेदप्रो
उसे नोश्रागमभावकर्म प्रकृतिप्राभूत कहते हैं । नोश्रागमभाव चतुर्विंशतिस्तव - १. चतुर्विंशति
६४७, जैन- लक्षणावली
श्रागम के विना केवलज्ञान, अवधिज्ञान या मन:पर्ययज्ञान के द्वारा दृष्टिवाद में प्ररूपित पदार्थों के
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
नोपागमभावनन्दी] ६४८, जैन-लक्षणावली
[नोग्रागमभावव्रत जानने वाले को नोमागमभाव दृष्टिवाद कहते हैं। अर्हन्नमस्काराशुपयोग: खल्वागमैकदेशत्वात् नोप्रानोग्रागमभावनन्दी-नोग्रागमतः (भाववन्दी) गमतो भावमङ्गलमिति । (प्राव. हरि. व. पृ. ६)। पच्चप्रकारं ज्ञानम् । (प्राव. हरि. व. प. ७)।
१ अतिशय विशुद्ध क्षायिक प्रादि (प्रौपशमिक) पांच प्रकार के ज्ञान को नोग्रागमभावनादी कहते हैं। भाव को नोग्रागमभावमंगल कहा जाता है। यहां
'नो' शब्द प्रागम का सर्वथा निषेधक है। अथवा नोप्र.गमभावनमस्कार-नमस्क्रियमाणाहदादि
सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप उपयोग परिणाम गुणानुरागवतः मुकुलीकृतकर-कमलस्य प्रणामो नो
को नोप्रागमभावमंगल जानना चाहिए। यहां 'नो' प्रागमभावनमस्कारः। (भ. प्रा. विजयो. ७५३) ।
शब्द प्रागम और अनागम के मिश्रण का बोधक है। जिनको नमस्कार किया जा रहा है ऐसे प्ररहन्त
अथवा अरहन्त प्रादि को किये जाने वाले नमस्कार प्रादि के गणों में अनुरागयुक्त होकर हाथों को
के ज्ञान और क्रियारूप मिश्र परिणाम को नोग्रागजोड़ने वाला जीव जो उनको प्रणाम करता है उसे
मभावमंगल कहते हैं। नोग्रागमभावनमस्कार कहते हैं।
नोप्रागमभावमास-तत्र नोआगमतः खलु मूलानोग्रागमभावनारक-णिरयगदिणामाए उदएणविक मल-कंद-कांड-पत्र-पुष्प-फल वेदकः । किमुक्त णिरय भावमुवगदो णोप्रागमभावणे रइनो णाम ।
भवति ? यो धान्यमाषजीवो घान्यमाषभवे वर्तमानो (धव. पु. ७, पृ. ३०)।
मूलरूपतया कंदरूपतया कांडरूपतया पत्ररूपतया नरकगति नामकर्म के उदय से नारक पर्याय को
पुष्परूपतया फलरूपतया वा धान्यमाषभावायूर्वेदयते प्राप्त हुए जीव को नोग्रागमभावनारक कहते हैं।
स नोग्रागमतो भावमासः, प्राकृते माषशब्दस्यापि नोमागमभावपूर्वगत-पागमेण विणा केवलोहि मास इति रूपसम्भवात् । (व्यव. मलय. व. २.२६, मणपज्जणाणेहिं पुव्वगयत्थपरिच्छेदो गोमागम- पु. ६)। भावपुव्वगयं । (धव. पु. ६, पृ. २११) ।
मास (माष) अर्थात् उड़द नामक धान्यभव में प्रागम के विना केवलज्ञान, प्रवधिज्ञान अथवा
वर्तमान जो जीव मूल, कन्द, कांड, पत्र, पुष्प और मनःपर्ययज्ञान के द्वारा पूर्वगत श्रुत में प्ररूपित अर्थ फलरूप अवस्था द्वारा घान्यमाषभावरूप प्राय का के जानने वाले को प्रागमभावपूर्वगत कहते हैं।
वेदन करता है उसे नोग्रागमभावमास कहते हैं। नोप्रागमभावप्रतिक्रमण-अशुभपरिणामदोषम- 'माष' शब्द का प्राकृत में 'मास' ऐसा रूप सम्भव वबुध्य श्रद्धाय तत्प्रतिपक्षपरिणामवृत्तिर्नोग्रागमभाव- है, अत: उसका 'मास' रूप में व्याख्यान किया प्रतिक्रमणम् । (भ. प्रा. विजयो. ११६) ।
गया है। प्रशभ परिणामरूप दोष को जानकर उसके विरोधी नोग्रागमभावराग-नोग्रागमतो रागवेदनीयकोपरिणाम की प्रवृत्ति को नोग्रागमभावप्रतिक्रमण दयप्रभवः परिणामविशेषः । (प्राव. नि. हरि. व. कहते हैं। नोप्रागमभावमंगल-१. नोग्रागमो भावो रागवेदनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले परिसुविसुद्धो खाइयाईयो ।। अहवा सम्मदर्दसण नाण- णामविशेष को नोग्रागमभावराग कहते हैं। चरित्तोवप्रोगपरिणामो । नोग्रागमनो भावो नोसहो नोप्रागमभावव्रत-नोग्रागमभावव्रतं नाम चारिमिस्सभावंमि ।। अहवेह नमुक्काराइनाण-किरियावि. मोहोपशमात् क्षयोपशमात् क्षयाद्वा प्रवृत्तो मिस्सपरिणामो। नोग्रागमयो भण्णइ जम्हा से हिंसादिपरिणामाभावः अहिंसादिव्रतम् । प्राणिनां पागमो देसे (सो)॥ (विशेषा. ४६-५१)। वियोजने प्राणानाम्, असदभिधाने, अदत्तादाने, २. नोग्रागमतो भावमङ्गलम् प्रागमवर्ज ज्ञानचतुष्ट. मिथनकर्मविशेषे, मुर्छायां वा परिणतिरिति यमिति, सर्वनिषेधवचनत्वान्नोशब्दस्य । अथवा यावत् । (भ. प्रा. ११८५)। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रोपयोगपरिणामो यः स नागम चारित्रमोहनीय के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से एव केवलः, न चानागमः, इत्यतोऽपि मिश्रवचन- प्रवृत्त हुए हिंसादिरूप परिणामों के प्रभाव को स्वानोशब्दस्य नोग्रागमत इत्याख्यायते । अथवा नोप्रागमभावव्रत कहते हैं ।
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
नोश्रागमभावश्रमण ]
नोश्रागमभावश्रमरण - नोमागमतस्तु चारित्रपरि नामवान् यति: । ( वशवं नि. हरि. वृ. १५३) । चारित्र परिणाम वाले साधु को नोश्रागमभाव श्रमण कहते हैं । नोश्रागमभावसामायिक- १. से कि तं नोप्रागमप्र भावसामाइए ? २ - जस्स सामाणिश्रो अप्पा संजमे णिश्रमे तवे | तस्स सामाइथं होइ इह के लिभासिनं ।। जो समो सम्बभूएसु तसेसु थावरेसु अ । तस्स सामाइ होइ इह केवलिभासिनं । जह मम ण पिश्रं दुक्खं जाणित्र एमेव सव्वजीवाणं । न हणद न हणावेइ सममणइ तेण सो समणो ॥ णत्थि यसि कोइ वेसो पिओ श्र सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो एसो अन्नोऽवि पज्जानो ॥ उरगगिरि-जलण- सागर नहतल तरुगणसमो प्र जो होइ । भमर-मिय धरणि जलरुह रवि पवणसमो अ सो समणो ॥ तो समणो जइ सुमणो भावेण य जइ ण होइ पावमणो । सयणे अ जणे असम समो प्रमणावमाणेसु ॥ से तं नोश्रागमनो भावसामाइए । (श्रनुयो. सू. १५०, पृ. २५५ - ५६ ) । २. नोआगमभावसामायिकं नाम सर्व सावद्ययोगनिवृत्तिपरिणामः | ( भ. प्रा. विजयो. ११६) । ३. सामायिकपरिणतपरिणामादि नोप्रागमभावसामायिकम् । (मूला. वृ. ७- १७) । ४. नोआागमभावसामायिकं पुनद्वविध मुपयुक्त तत्परिणत भेदात् । सामायिकप्राभृतकेन विना सामायिकार्येषूपयुक्तो जीवः उपयुक्तनोप्रागमभावसामायिकम् । राग-द्वेषाद्य भावस्वरूपेण परिणतो जीवस्तत्परिणदनोद्यागमभावसामायिकम् । ( अन. घ. स्व. टी. ८-१९ ) ।
१ जिसकी श्रात्मा मूलगुणरूप संयम, उत्तरगुणसमूह रूप नियम और अनशनादिरूप तप में संनिहित है; ऐसे जीव के सामायिक होती है। जो त्रस प्रौर स्थावररूप सभी जीवों में सम है-राग-द्वेष से रहित है— उसके केवलिप्ररूपित सामायिक होती है । जिस प्रकार दुःख मुझे प्रिय नहीं है, उसी प्रकार वह सभी जीवों को प्रिय नहीं है; ऐसा जानकर चूंकि साधु न स्वयं जीवघात करता है और न दूसरे से कराता है तथा सबको समान मानता है; इसी से वह समन - सबको समान मानने वाला - कहलाता है । सब जीवों में न कोई ल. ८२
६४६, जैन-लक्षणावली
[नोश्रागमभावस्कन्ध
द्वेष्य-द्वेष करने योग्य है और न कोई प्रिय भी है, इसी से वह समन - समान मन वाला है; यह उसका दूसरा भी पर्याय नाम है। जो सर्प के समान दूसरे के श्राश्रय में रहता है, पर्वत के समान परीवह व उपसर्ग के समय प्रडिंग होता है, अग्नि के समान तेजस्वी एवं सूत्र प्रर्थरूप तृणादि के विषय में तृप्ति से रहित होता है, समुद्र के समान गम्भीर व ज्ञानादिरूप रत्नों की खान होता है, श्राकाशतल के समान परालम्बन से रहित होता है. वृक्षसमूह के समान सुख-दुःख का सहने वाला होता है, तथा भ्रमर के समान अनियतवृत्ति, मृग के समान संसारभय से उद्विग्न, पृथिवी के समान कष्ट सहिष्णु, कमल के समान कामभोगों से ऊपर स्थित, सूर्य के समान समभाव से प्रकाश करने वाला, और वायु के समान प्रतिबन्ध से रहित होता है; वह श्रमण कहलाता है । इस प्रकार श्रमण यदि द्रव्यमन की अपेक्षा सुमन - सुन्दर मन वाला और भावमन की अपेक्षा यदि पाप मन वाला नहीं है तो वह स्वजन और अन्य जन तथा मान और अपमान में सम-हर्ष - विषाद से रहित होता । इस प्रकार से ज्ञानक्रियारूप सामायिक के साथ उस सामायिक से युक्त साधु को भी प्रभेदोपचार से नोभागमभावसामायिक कहा जाता है । २ समस्त सावद्ययोग से निवृत्तिरूप जो परिणाम होता है उसे नोश्रागमभावसामायिक कहते हैं ।
नोप्रागमभावसिद्ध - क्षायिकज्ञान दर्शनोपयुक्तः परिप्राप्ताव्याबाधस्वरूप स्त्रिविष्टप शिखरस्थो नोश्रागमभावसिद्धः । (भ. था. विजयो. १); निरस्तभाव द्रव्यकर्म मलकलङ्क परिप्राप्तसकलक्षायिकभाव: नोश्रागमभावसिद्धः । (भ. आ. विजयो. ४६ ) । १ जिन्होंने सर्व द्रव्यकर्म और भावकर्म को दूर करके समस्त क्षायिक भावों को प्राप्त कर लिया है, ऐसे लोकशिखरस्थ मुक्तात्मा को नोश्रागमभावसिद्ध कहते हैं ।
नोश्रागमभावस्कन्ध - १. एएसि चैव सामाइन - माइयाणं छण्हं अज्झयणाणं समुदयसमिइसमागमेण श्रावस्सयसुप्रखंधे भावखंधे त्ति लब्भइ, से तं णोप्रागमनो भावखंधे से तं भावखंधे । ( श्रनुयो. सू. ५६, पृ. ४२ ) । २. णोप्रागमतो भावखंधो णाण
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
नोप्रागमभावस्पर्शन]
किरियागुणसमूहमतो, सो त सामादियादिछण्हं अज्झयणाणं संमेलो, एत्थ किरिया णोद्यागमोत्ति काउं, गोसद्दो मीसभावे भवति, तस्स य भावखंघस एगट्टिया इमे XXX। (श्रनुयो चू. पू. १७) । ३. सामायिकादिषडध्ययन संहति निष्पन्न श्रावश्यकश्रुतस्कन्धो मुखवस्त्रिका रजोहरणादिव्यापारलक्षणक्रियायुक्ततया विवक्षितो नोग्रागमतो भावस्कन्धः । (अनुयो. मल. हेम. वृ. सू. ५६, पू. ४२ ) । १ सामायिकादि छहों श्रावश्यकों के समुदायरूप एक विशिष्ट परिणाम से जो श्रावश्यक श्रुतस्कन्ध निष्पन्न है वही भावस्कन्ध है और इसी को नोश्रागमभावस्कन्ध कहा जाता है । नोश्रागमभावस्पर्शन-फरिस गुणपरिणदपोग्गलदव्वं णोश्रागमभावफोसणं । ( धव. पु. ४, पू. १४४ ) । स्पर्श गुण से परिणत पुद्गल द्रव्य को नोश्रागमभावस्पर्शन कहा जाता है । नोश्रागमभावानुयोग - नोप्रागमतो भावस्यानुयोगोऽन्यतमस्यौदयिकादेव्र्व्याख्यानम्, भावानामनुयोगो नाम बहूनामौदयिकादीनां भावानां व्याख्यानम् । (प्राव. नि. मलय. वृ. १२६, पृ. १३२ ) । श्रदयिक आदि पांच भावों में से किसी एक भाव के या बहुत भावों के व्याख्यान करने को नोश्रागमभावानुयोग कहते हैं । इसी प्रकार भाव से अनुयोग, भावों से धनुयोग, एकभावविषयक अनुयोग एवं अनेक भावविषयक अनुयोग आदि अनेक विकल्पों को जानना चाहिए। नोश्रागमभावार्त – नोभागमतस्तु श्रदयिकभाववर्ती राग-द्वेषग्रहपरिगृहीतात्मा प्रियविप्रयोगादिदुःखसङ्कटनिमग्नो भावार्त इति व्यपदिश्यते, अथवा शब्दादिविषयेषु विषविपाकसदृशेषु तदाकांक्षित्वाद्धिताहितविचारशून्यमना भावार्त्तः कर्मोपचिनोति 1 ( प्राचारा. शी. वू. १, १, २, १४, पृ. ३१) ।
दकिभाव के वशीभूत, राग-द्वेष से परिणत श्रीर इष्टवियोग व प्रनिष्टसंयोग जनित दुःख से व्याप्त जीव को नोश्रागमभावातं कहते हैं । श्रथवा विषविपाक के समान शब्दादि विषयों का अभिलाषी होकर हिताहितविचार से शून्य मन वाले जीव को नोप्रागमभावार्त कहते हैं । नोप्रागमभावार्हन्- प्ररिहननाद् रजोहननाद् रहस्याभावादतिशयपूजार्हत्वाच्चाधिगतार्हद्व्यपदेशा नो
[नोश्रागमभावोपक्रम
श्रागमभावादर्हन्त इति गृहीताः । (भ. प्रा. विजयो. ४६)।
जिन्होंने मोहरूप धरि का हनन करके तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरणरूप रज ( धूलि ) और रहस्य (अन्तराय) को नष्ट करके प्रतिशय पूजा के योग्य होने के कारण 'श्रहंत्' नाम को प्राप्त कर लिया है, ऐसे केवल्य धवस्था को प्राप्त अरहन्त देवों को नोश्रागमभावान् कहते हैं । नोश्रागमभावावश्यक – १. नोग्रागमतो भावावस्यं णाणुपयोगेण किरियं करेमाणस्स णाण - किरियारूवसुभोवयोगपरिणयस्स णोश्रागमतो भावावस्सतं । ( धनुयो. चू. पू. १३) । २. नोप्रागमतस्तु ज्ञानक्रियोभयपरिणामो भावावश्यकम्, उपयुक्तस्य क्रिये ति भावार्थ: । (श्राव. नि. हरि. वृ. ७६, पृ. ५२) । १ ज्ञानोपयोग के साथ क्रिया को करता हुआ जो जीव ज्ञान और क्रियारूप शुभ उपयोग से परिणत है उसे नोग्रागमभावावश्यक कहा जाता है । २ प्रावश्यक क्रियाओं के ज्ञान और श्राचरणरूप परि णाम को नोप्रागमभावावश्यक कहते हैं । अभिप्राय यह है कि सामायिकादि श्रावश्यकविषयक जीव का जो प्राचरण है उसे नोश्रागमभावावश्यक समझना चाहिए ।
नोश्रागमभावी दृष्टिवाद - गोश्रागमदिट्टिवादसरूवेण परिणमंतम्रो जीवो णोश्रागमभवियदिट्टिवादो । (घव. पु. ६, पृ. २०४ ) ।
भविष्य में दृष्टिवाद स्वरूप से परिणत होने वाले जीव को नोश्रागमभावो दृष्टिवाद कहा जाता है । नोश्रागमभावी द्रव्यभाव - भावपाहुडपज्जयसरूवेण जो जीवो परिणमिस्सदि सो गोश्रागमभविय
व्वभावो णाम । (धव. पु. ५, पृ. १८४) । जो जीव भावप्राभूत पर्यायस्वरूप से भविष्य में परिणत होगा उसे नोश्रागमभावी द्रव्यभाव कहा जाता है। नोनागमभावोपक्रम - तत्राद्यो जामातृ-परीक्षकब्राह्मणी वेश्यामात्यानामिव संसाराभिवद्धिना श्रध्यवसायेन परभावोपक्रमणरूप:, परश्च श्रुतादिनिमि त्तमाचार्यभावावधारणरूपः । ( जम्बूद्वी. शा. वृ. पृ. ६) ।
नोश्रागमभावोपक्रम प्रशस्त और प्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है— उनमें जामाता, परीक्षक, ब्राह्म
६५०, जैन - लक्षणावली
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
नोमागम मिश्रद्रव्यभाव] ६५१, जैन-लक्षणावली [नोकमंद्रव्यपरिवर्तन णी, वेश्या और अमात्य के समान संसार के बढ़ाने शरीरत्रयस्य षट्पर्याप्तीनां च योग्यपुद्गलानामावाले अध्यवसाय द्वारा परभाव के उपकमण को दानं नोकर्म । (त. वृत्ति श्रुत. १-५)। अप्रशस्त नोग्रागमभावोपक्रम और श्रुत प्रादि के १ कर्मोदयवश जो पुद्गलपरिणाम जीव के सुखनिमित्त प्राचार्यभाव के अवधारणरूप उपक्रम को दुःख का कारण होता है वह नोकर्म कहलाता है। प्रशस्त नोमागमभावोपक्रम कहा जाता है। ईषत् (किंचित् ) कर्मरूप वह नोकर्म प्रौदारिकावि नोग्रागममिश्रद्रव्यभाव-पोग्गल-जीवदव्वाणं सं. शरीरस्वरूप है। जोगो कथंचि जच्चतरत्तमावण्णो णोप्रागममिस्स- नोकर्मद्रव्यनारक-पास-पंजर-जंतादीणि णोकम्मदव भावो णाम । (धव. पु. ५, पृ. १८४)। दवाणि रइयभावकारणाणि णोकम्मदव्यणेरइमो कथंचित् जात्यन्तर अवस्था को प्राप्त जो पुदगल णाम । (धव. पु. ७, पृ. ३०)। और जीव द्रव्यों का संयोग है वह नोप्रागममिध. नारकभाव के कारणभूत पाश, पंजर और यंत्र द्रव्यभाव कहलाता है।
प्रादि को नोकर्मद्रव्यनारक कहा जाता है। नोइन्द्रियप्रणिधि-कोहं माणं मायं लोहं च नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन-देखो नोकर्मद्रव्यसंसार । महब्भयाणि चत्तारि । जो रुंभइ सुद्धप्पा एसो नो. १. नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं नाम त्रयाणां शरीराणां षण्णां इंदिअप्पणिही॥ (दशवं. नि. २९६)।
पर्याप्तीनां योग्या ये पुदगला एकेन जीवेन एकस्मिन् कोष, मान, माया और लोभ इन चार महाभयानक समये गृहीताः स्निग्ध-रूक्ष-वर्ण गन्धादिभिस्तीवकषायों को जो रोकता है उस शद्ध प्रात्मा को मन्द-मध्यमभावेन च यथावस्थिता द्वितीयादिष नोइन्द्रियप्रणिधि कहते हैं।
समयेष निर्जीर्णा अगृहीताननन्तवारानतीत्य मिश्रनोइन्द्रियप्रत्यक्ष-१. नोइन्द्रियप्रत्यक्षं तु यदात्मन कांश्चानन्तवारानतीत्य मध्ये गृहीतांश्चानन्तवारानएवालिङ्गिकमवध्यादीति । (अनुयो. चू. पृ. ७५, तीत्य त एव तेनैव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य नोकर्म. अनुयो. हरि. व. पु. १००)। २. इन्द्रियप्रत्यक्षं न भावमापद्यन्ते यावत्तावत्समुदितं नोकर्मद्रव्यपरिवतं. भवतीति नोइन्द्रियप्रत्यक्षम, नोशब्दः सर्वप्रतिषेधे। नम् । (स. सि.२-१० भ. प्रा. विजयो. १७१ (नन्दी. हरि. व. पृ. २८)। ३. इन्द्रियप्रत्यक्षं तु -अत्र 'मध्ये गृहीतांश्चानन्तवारानतीत्य त एव' यन्न भवति तन्नोइन्द्रियप्रत्यक्षम्, नोशब्दस्य सर्वनि- इत्येतावान् पाठस्त्रुटितः प्रतिभाति; मला. व. षेधपरत्वात, यत्रेन्द्रियं सर्वथैव न प्रवर्तते, किन्तु ८-१४; भ. मा. मला. १७७३)। २. प्रौदारिकजीव एवं साक्षादथं पश्यति तन्नोइन्द्रियप्रत्यक्षम्, वैक्रियिकाहारकशरीरत्रयस्य पर्याप्तिषट कस्य च ये प्रवधि-मनःपर्याय-केवलाख्यमिति भावार्थः । (प्रमयो. योग्यपूदगला: एकेन जीवेन एकस्मिन समोदीला मल. हेम. वृ. १४४, पृ. २१२) ।
स्निग्ध रूक्ष-वर्ण-गन्धादिभिस्तीव्र-मन्द-मध्यमभावेन १ लिंग के विना-इन्द्रिय प्रादि की सहायता न च यथावस्थिता: द्वितीयादिषु समयेष निर्जी अगलेकर-जीव के जो स्वयमेव अवधि माविरूप ज्ञान हीतान् अनन्तवारान् प्रतीत्य मिश्रितांश्च प्रान्त होता है उसे नोइन्द्रियप्रत्यक्ष कहा जाता है। वारान् प्रतीत्य मध्यमगृहीतांश्च अनन्तवारान प्रतीनोकर्म-१. तदुदयापादितः (कर्मोदयापादितः) त्य त एब पुद्गलाः तेनैव स्निग्धादिभावेन तेनैव पुद्गलपरिणामः प्रात्मनः सुख-दुःखबलाधानहेतुः तीव्रादिभावेन च यथावस्थितप्रकारेण च तस्यैव प्रौदारिकशरीरादिः, ईषत्कर्म नोकर्मेत्युच्यते । (त. जीवस्य नोकर्मभावमापद्यन्ते यावत् तावत समदितं -वा. ५, २४, ६, पृ. ४८८) । २. नोकर्म च शरीर- सर्व त्रैलोक्यस्थितं पुद्गलद्रव्यं नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन स्वपरिणामनिरुत्सूकम् ॥ पुद्गलद्रव्यमाहारप्रभृत्युप- कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २-१०)। चयात्मकम् । (त. श्लो. १, ५, ६४-६५)। १ तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य जिन ३. शरीर-पर्याप्तियोग्यपुद्गलादानं नोकर्म। (न्याय- पुद्गलों को एक जीव ने एक समय में ग्रहण किया कु. ७४, पृ. ८०७)। ४. शरीरत्रय-पर्याप्तिषट्क- था वे स्निग्ध-रूक्ष स्पर्श, वर्ण और गन्ध प्रादि से योग्यपदगलपरिणामो नोकर्म । (लघीय. अभय. व. तीव, मन्द या मध्यम भाव से यथावस्थित होते 10 .RE)। ५. प्रौदारिक वैक्रियिकाहारक. द्वितीयमादि समयों में निर्जीर्ण हो गये। पडसात
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
नोकमंद्रव्यसैमा] ६५२, जैन-लक्षणावली
[नोसंज्ञाकरणं अनन्त वार प्रगृहीत पुद्गलों का, अनन्त वार मिश्र नोकृति-एगो वग्गिज्जमाणो ण वड्ढदि, मूले अवपुद्गलों का, मध्य में अनन्त वार गृहीत पुद्गलों णिदे णिम्मूलं फिट्टदि, तण एगो णोकदित्ति वुत्तं । का अतिक्रमण कर–उनको ग्रहण करते हुए (धव. पु. ६, पृ. २७४)। निजीर्ण करके-जब वे ही पूर्वोक्त पुद्गल उसी एक (१) अंक का वर्ग करने पर वह वृद्धि को प्रकार से उक्त जीव के नोकर्मरूपता को प्राप्त होते प्राप्त नहीं होता तथा उसे वर्गमूल में से घटाने पर हैं, उतने समदित काल का नाम नोकर्मद्रव्यपरि- वह निर्मूल नष्ट हो जाता है, इसी से उसे कृति न वर्तन है।
कहकर नोकृति कहा जाता है। नोकर्मद्रव्यसमता-नोकर्म मृत्सूवर्णाश्ममाणिक्या
नोगौरण-देखो नोगोण्य । से किं तं नोगुण्णे ? अकुंतो ऽहिस्रगादिकम् । समताकारणं बाह्यभावभावावलो. सकुंतो प्रमुग्गो समुग्गो अमुद्दो समुद्दो प्रलालं पलालं किनः ।। (प्राचा. सा. ६-१६)।
अकुलिया सकुलिया नो पलं प्रसइत्ति पलासो अमाइ. बाद्य पदार्थों की अवस्था के देखने वाले जीव के वाहए माइवाहए अबीवावए बीवावए नो इंद. जो मिट्टी व सुवर्ण, पाषाण व माणिक्य तथा सर्व गोवए इंदगोवे, से तं नोगोण्णे । (अनुयो. स. १३०. और माला प्रादि पदार्थ समता के कारण हैं उन्हें पृ. १४१)। नोकर्मद्रव्यसमता या नोकर्म द्रव्यसामायिक कहा अकुंत-सकुंत, प्रमुद्ग-ममुद्ग, प्रमुद्र-समुद्र, प्रलाल जाता है।
पलाल, अकुलिका-सकुलिका, अपलभक्षक-पलाश,
अमातृवाहक-मातृवाहक, अबीजवाप-बीजवाप और नोकर्मद्रव्यसंसार-देखो नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन ।
नोइन्द्रगोप-इन्द्रगोप; इत्यादि निरुक्त्यर्थ से रहित नोकमद्रव्यसंसार औदारिक-वक्रियिकाऽऽहारक तेजस
नामों को नोगौण कहा जाता है। जैसे-पूर्वोक्त शरीराणामाहार- शरीरेन्द्रियाऽऽनपान • भाषा-मन:
नामों में कुन्त (भाला) से रहित पक्षी को सकुन्त और पर्याप्तीनां विषयः। (चा. सा. पृ.८०)।
मुद्ग (नंग) से रहित डिब्बे को समुग्ग (समुदग) प्रौदारिक, वैक्रियिक, प्राहारक और तेजस शरीर
प्रादि कहना। तथा प्राहार, शरीर, इन्द्रिय, प्रानपान, भाषा
नोगौण्य पद-देखो नोगौण । १. नोगोण्यपदं नाम और मन इन पर्याप्तियों का जो विषय है वह
गुणनिरपेक्षमनन्वर्थमिति यावत् । तद्यथा-चन्द्रनोकर्मद्रव्यसंसार कहलाता है।
स्वामी सूर्यस्वामी इन्द्र गोप इत्यादीनि नामानि । नोकर्मबन्ध- माता-पितृ पुत्रस्नेहसम्बन्धः नोकर्म
(धव. पु. १, पृ. ७४-७५)। २. चंदसामी सूर. बन्धः । (त. वा. ८, पृ. ५६१) ।
सामी इंदगोव इच्चादिसण्णाम्रो णोगोण्णपदायो, माता, पिता और पुत्र के स्नेह का जो सम्बन्ध है
णामिल्लए पुरिसे णामत्था णुवल भादो। (जयध. १, उसे नोकर्मबन्ध कहा जाता है । नोकषायवशार्तमरण-हास्य-रत्यरति शोक-भय- १ गुणनिरपेक्ष अर्थात् अनुगत अर्थ से जो पद रहित जुगुप्सा-स्त्री पुन्नपुंसकवेदे मूढमते मरणं नोकषायव- होते हैं उन्हें नोगौण्यपद कहा जाता है। जैसेसामरणम । (भ. प्रा. विजयो. २५, पृ.६०)। चन्द्रस्वामी, सूर्यस्वामी और इन्द्रगोप प्रादि नाम ।
स्य रति, प्ररति, शोक, भय, जगुप्सा, स्त्रीवेद, नोश्रुतप्रत्याख्यान-नोश्रुतप्रत्याख्यान श्रुतप्रत्यापुरुषवेद और नपुंसकवेद इन नोकषायों में मुग्ध हुए ख्यानादन्यत् । (प्राव. नि. मलय. वृ. १०५४)। जीव के मरण को नोकषायवशातमरण कहते हैं। श्रुतप्रत्याख्यान (प्रत्याख्यानपूर्व) से भिन्न को नोनोकषायवेदनीय-देखो अकषायवेदनीय। तथा श्रुतप्रत्याख्यान कहते हैं। यह नोश्रुतप्रत्याख्यान स्त्रीवेदादिनोकषायरूपेण यद्वेद्यते तन्नोकषायवेदनी- मूलगुणप्रत्याख्यान और उत्तरगणप्रत्याख्यान के भेद यम। (श्रा.प्र. १६, धर्मसं. मलय. व. ६१३; से दो प्रकार का है। प्रज्ञाप. मलय. व. २६३, पृ. ४६८)।
नोसंज्ञाकरण-१. नोसन्ना बीसस-पनोगे । मोडादि नोकषायरूप से जिसका वेदन किया (प्राव. भा. १५३, पृ. ५५७)। २. नोसंज्ञाकरणं त जाता है उसे नोकषायवेदनीय कहते हैं।
यत्करणमपि सन्न तत् संज्ञया रूढं। उक्तं हि
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
बोसंसार
६५३, जन-लक्षणावलो
[न्यायं
णोसन्नाकरणं पुण दव्वस्तारूढकरणसन्नं पि । ऽवयवपरमाणुबहुत्वम् । (मला. व. १२-४६): (उत्तरा. नि. शा. वृ. १८४, पृ. १६५)।
न्यग्रोधो वृक्षस्तस्य परिमण्डलमिव परिमण्डलं यस्य २ जो करण होकर भी संज्ञा से रूढ नहीं है उसे तन्यग्रोधपरिमण्डलं नाभेरूध्वं सर्वावयवपरमाणनोसंज्ञाकरण कहा जाता है । वह विश्रसा (स्वभाव) बहुत्वं न्यग्रोधपरिमण्डल मिव न्यग्रोधपरिमण्डलशरी
और प्रयोग की अपेक्षा दो प्रकार का है। इनमें रसंस्थानमायतवृत्तमित्यर्थः। (मला. व. १२-१९३)। विश्रसाकरण भी दो प्रकार का है-सादि ६. नाहीइ उबरि बीअं xxx । (संग्रहणी सू. और अनादि । धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यों का १२१)। ७. न्यग्रोधवत्परिमण्डलं यस्य तन्यग्रोधजो परस्पर में संकलनरूप अवस्थान है, यह अना- परिमण्डलम्, यथा न्यग्रोध उपरि सम्पूर्ण प्रमाणोदिकरण है। सादिकरण चक्षु के द्वारा गृह्यमाण ऽघस्तु हीनः तथा यत्संस्थानं नाभेरुपरि सम्पूर्णस्थूल पुद्गल द्रव्य है।
मवस्तु न तथा तन्यग्रोधपरिमण्डलम् । (जीवाजी. नोसंसार-१. सयोगकेवलिनश्चतुर्गतिभ्रमणाभा- मलय.व. १-३८, पृ. ४२, प्रज्ञाप. मलय. वृ. वात् असंसारप्राप्त्यभावाच्च ईषत्संसारो नोसंसार. २६८, पृ. ४१२) । ८. यदुदयात्तु न्यग्रोधपरिमण्डइति । (त. वा. ६, ७, ३)। २. सयोगकेवलिनश्च- लं संस्थानं तन्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननाम । (प्रज्ञातुर्गतिम्रमणाभावात् संसारान्तःप्राप्त्यभावाच्चेषत्सं- प. मलय. वृ. २६३, पृ. ४७३)। ६. न्यग्रोध उपरि सारो नोसंसारः । (चा. सा. पृ. ८०)।
सम्पूर्णोऽधस्तु हीनस्तथा यन्नाभेरुपरि लक्षणोपेततया १ सयोगकेवली के चारों गतियों के परिभ्रमणरूष सम्पूर्णमघस्तु न तथा, तत् न्यग्रोधवत्परिमण्डलं संसार का तो प्रभाव हो गया है, पर असंसार यस्येति न्यग्रोधपरिमण्डलम्। (संग्रहणी. दे. ब. (मोक्ष) की प्राप्ति अभी हुई नहीं है। प्रतएव १२१)। १०. नाभेरूद्ध्वं प्रचुरशरीरसन्निवेश उनके ईषत्संसाररूप नोसंसार माना जाता है। अघस्तु अल्पशरीरसन्निवेशो न्यग्रोधपरिमण्डल. न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान-१. नाभेरुपरिष्टाद् संस्थानम् । (त. बृत्ति श्रुत.-११) । भूयसो देहसं निवेशस्याघस्ताच्चाल्पीयसो जनकं न्य. १ जिस नामकर्म के उदय से नाभि से ऊपर के ग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननाम । (त. वा.८,११,८)। शरीरावयव विशाल हों और नाभि से नीचे के अंग २. न्यग्रोधपरिमण्डलनाम्नस्तु नाभेरुपरि सर्वावयवाः छोटे हों उसे न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान कहते हैं। समचतुरस्रसंस्थानलक्षणाविसंवादिनः अघस्तात् पुन- न्यस्तदोष-यस्तं क्षिप्त्वा पाकपात्रात् पात्यादी
परितनभागानुरूपास्तस्य मावयवा इति, अतएव स्थापितं क्वचित् ।। (अन. ध.५-१२)। न्यग्रोधपरिमण्डलं तदुच्यते, न्यग्रोधाकृतित्वात, न्यग्रोधपरिमण्डलमपरि विशालाकारवत्त्वात् (सि. वृ. निकाल कर साष के देने के लिए अन्य पात्र में 'विशालशाखत्वात्') इति । (त. भा. हरि. व सिद्ध. रखने को न्यस्तदोष कहते हैं। बु. ८-१२)। ३. नाभीत उपर्यादिलक्षणयुक्तं न्याय-१. न्यायो-द्विज क्षत्रिय-विट-शूद्राणां स्ववृ. प्रयस्तादनुरूपं न भवति, तस्मात्प्रमाणाधीनतरं त्यनुष्ठानम् । (श्रा. प्र. टी. ३२५)। २. अथवा न्यग्रोधपरिमण्डलम् । (अनु. हरि. व.पृ. ५७)। ज्ञेयानुसारित्वान्यायरूपत्वाद्वा न्यायः सिद्धान्तः । ४. णाग्गोहो वडरुक्खो, तस्स परिमंडलं व परिमंडलं (घव. पु. १३, पृ. २८६)। ३. न्यायो युक्तिः जस्स सरीरस्स तण्णग्गोहपरिमंडलं । णग्गोहपरि• प्रमाणेन प्रमेयस्य घटना। (प्राप्तमी. वसु. वृ. १३)। मंडलमेव सरीरसंठाणं णग्गोहपरिमंडलसरीरसंठाणं, ४. स्वामिद्रोह-मित्रद्रोह-विश्वसितवञ्चन-चौर्यादिआयतवृत्तमित्यर्थः । (धव. पु. ६, पृ.७१); न्यग्रो. गार्थोपार्जनपरिहारेणार्थोपार्जनोपायभूतः स्वघो वटवृक्षः, समन्तान्मण्डल परिमण्डलम् । न्यग्रो. स्वर्णानुरूपः सदाचारो न्यायः । (योगशा. स्वो. घस्य परिमण्डलमिव परिमण्डलं यस्य शरीरसंस्था- विव. १-४७, सा. घ. स्वो. टी. १-११) । नस्य तन्यग्रोधपरिमण्डलशरीरसंस्थानं नाम । एतस्य ५. नय-प्रमाणात्मको न्यायः, निपूर्वादिण गतौ इत्ययत्कारण कर्म तस्याप्येव संज्ञा । (धव. पु. १३, स्माद् धातोः करणे घबप्रत्यये न्यायशब्दसिद्धिः । प्र. ३६८) । ५. न्ययोधसंस्थानं शरीरस्योर्ध्व भागे- नितराम् इयते ज्ञायते ऽर्थोऽनेनेति न्यायः। प्रमाण
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
न्याय्य]
६५४, जैन-लक्षणावलो
[न्यासापहार
शास्त्र-क्षीरसमुद्रस्य श्रीमदित्यादिनियमेन कथंचि- संप्रगृह्णतः । न्यासापहार एतावदित्यनुज्ञापकं वचः ।। त्सावधारणत्वेन प्रमेयस्वरूपमियते गम्यते येन स (ह. पु. ५५-१६८)। ६. हिरण्यादिनिक्षेपे अल्पन्यायः नय-प्रमाणयुक्तिः, तत्प्रतिपादकत्वादिति युक्ति- संख्यानुज्ञावचनं न्यासापहारः ॥ (त. श्लो. ७-२६)। शास्त्रमपि न्यायः। (प्रमेयर. टिप्पण २, पृ.३)। ७. गोपनाय स्वद्रव्यार्पणमन्यस्य न्यासः, तस्यापहारः १ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के अपनी वृत्ति अपलाप: सुश्लिष्टवचनेन । (त. भा. सिद्ध. व. (माजीविका) के अनुष्ठान को न्याय कहते हैं। ७-२१)। ८. हिरण्यादेव्यस्य निक्षेप्तुविस्मृतसंख्य२ ज्ञेय का अनुसरण करने वाला अथवा न्यायरूप स्याल्पसंख्यानमाददानस्य एवमित्यनुज्ञावचनं न्यासाहोने से सिद्धान्त को न्याय कहा जाता है। पहारः। (चा. सा. पृ. ५)। ६. न्यासः परगृहे ३ प्रमाण से प्रमेय को संगतिरूप युक्ति को न्याय रूपकादेनिक्षेपः, तस्य अपहारः अपलापः । (प. बि. कहते हैं।
मु. ७.३-२४) । १०. न्यासापहारिता द्रव्यनिक्षेन्याय्य-न्यायादनपेतं न्याय्यं श्रुतज्ञ
प्तुविस्मतसंख्यस्याल्पसंख्यं द्रव्यमाददानस्य एवमेवेपु. १३, पृ. २८६)।
त्यभ्युपगमवचनम् । (रत्नक. टी. ३-१०) । श्रुत चूंकि न्याय से युक्त है, अत: उसे न्याय्य कहा ११. न्यस्तशिविस्मत्रनुज्ञा-न्यस्तस्य निक्षिप्तस्य कहा जाता है।
हिरण्यादिद्रव्यस्य अंशमेकमंशं विस्मर्तुविस्मरणशीन्यास-देखो निक्षेप । xxx उपायो न्यास
लस्य निक्षेप्तुरनुज्ञा । द्रव्यमनुनिक्षेप्तुविस्मृततत्संइष्यते । (प्रमाणसं. ८६ लघीय ५२; धव. पु. १,
ख्यस्याल्पसंख्यं तद् गृहृत एवमित्यनुमतिवचनम् ।
सोऽयं न्यासापहाराख्योऽतिचारः । (सा. घ. स्बो. पृ. १७ व पु. ३, पृ. १८ उद्.) । जीवादि पदार्थों के जानने के उपाय को न्यास या
टी. ४-४५)। १२. केनचित्पुरुषेण निजमन्दिरे
हिरण्यादिद्रव्यं न्यासीकृतम, निक्षिप्तमित्यर्थः । निक्षेप कहते हैं।
तस्य द्रव्यस्य ग्रहणकाले संख्या विस्मता, न्यासापलाप-देखो न्यासापहरण ।
विस्मरणप्रत्ययादल्पं द्रव्यं गृह्णाति, न्यासवान् पुमान् न्यासापहरण-देखो न्यासापहार । न्यस्यते अनज्ञावचनं ददाति-देवदत्त, यावन्मात्रं द्रव्यं ते रक्षणायान्यस्मै समर्प्यत इति न्यासः सुवर्णादिः, वर्तते तावन्मानं त्वं गृहाण, किमत्र पृष्टव्यमिति तस्यापहरणमपलापः। (योगशा. स्वो. विव. ३, जाजत पस
जानन्नपि परिपूर्ण तस्य न ददाति न्यासापहार ५४; सा. घ. स्वो. टी. ४-३६)।
उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२६; कातिके. टी. जो सुवर्णादि द्रव्य सुरक्षा के निमित्त दूसरे के लिए ३३३-३४) । समर्पित किया जाता है उसे न्यास कहा जाता है। जिसने दूसरे के पास रक्षा के निमित्त सुवर्णादि इस न्यास के अपहरण का नाम न्यासापहरण या द्रव्य को रख दिया है वह यदि पीछे भूल से कम न्यासापलाप है।
प्रमाण में उसे वापिस मांगता है तो 'हां इतना ही न्यासापहार-देखो न्यासापहरण । १. हिरण्यादे- है' इस प्रकार कहकर रखे हुए द्रव्य से कम देना, द्रव्यस्य निक्षेप्तूविस्मृतसंख्यस्याल्पसंख्येयमाददानस्यै. यह न्यासापहार नामक सत्याणुव्रत का एक प्रतिवमित्यनुज्ञावचनं न्यासापहारः । (स. सि. ७-२६)। चार है। २ विस्मरणकृत-दूसरे के विस्मत २. न्यासापहारो विस्मरणकृतपरनिक्षेपग्रहणम् । -निक्षेप (धरोहर) का ग्रहण करना, इसका नाम (त. भा.७-२१) । ३. हिरण्यादिनिक्षेपेऽल्पसंख्या- न्यासापहार है। अभिप्राय यह है कि किसी ने नुजावचनं न्यासापहारः। हिरण्यादेव्यस्य निक्षेप्तु- दूसरे के यहां पांच सौ रखे, पर ठीक स्मरण न विस्मृतसंख्यस्याल्पशः संख्यानमाददानस्यैवमित्यनु- रहने से वापिस लेते समय वह पूछता है कि मैंने ज्ञावचनं न्यासापहार इत्याख्यायते । (त. वा. ७, पांच सौ रखे थे कि चार सौ, जितना रखा हो दे २६, ४)। ४. न्यस्यते निक्षिप्यत इति न्यासो रूप- दीजिए । इस पर 'चार सौ ही रखे थे ऐसा कहते काद्यर्पणम, तस्यापहरणं न्यासापहारः। (श्रा. प्र. हुए चार सौ देकर भले हुए शेष एक सो को स्वयं टी. २६०)। ५. विस्मृतन्यस्तसंख्यस्य स्वल्पं स्वं रख लेना, इसे न्यासापहार जानना चाहिए।
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
न्यून दोष ]
-
न्यून दोष – १. 'ऊनं' व्यञ्जनाभिलापावश्य कैरसम्पूर्ण वन्दते । (व. नि. हरि. वू. १२१० ) । २. वयणक्खरेहिं ऊणं जहन्नकालेवि सेसेहि । ( प्रव. सारो. १७९) । ३. वचनं वाक्यं क्रियान्ताक्षरसमूहात्मकम्, तेन अक्षरैर्वा एक-द्वद्यादिभिर्हीनं न्यूनमुच्यते, यदि वा X X X यदि पुनः कश्चिदत्युत्सुकः प्रमादितया जघन्येनैव प्रतिस्वल्पेनैव कालेन वन्दनकं समापयति तदा प्रास्तां वचनाक्षरैः, शेषैरव्यवनामादिमिरावश्यकैर्च्यून भवतीत्यर्थः । ( प्राव. ह. वू. मल. हे. टि. पृ. ८; प्रव. सारो वृ. १७१, पृ. ३८ ) । ४. न्यूनं व्यञ्जनाभिलापावश्यक र सम्पूर्णम् । (योगशा. स्व. बिव. ३ - १३०, पृ. २३७) । ३ क्रियापर्यन्त अक्षरों के समूह को वचन या वाक्य कहा जाता है, इस प्रकार के वचन से प्रथवा एकदो अक्षरों से हीन वन्दना करना, श्रथवा प्रत्यन्त उत्सुक होता हुथा प्रमाद के कारण अतिशय अल्प काल में ही जो वन्दना करता है, इसमें प्रक्षरहीनता तो दूर रहे, शेष श्रवनामादि श्रावश्यकों से भी वह हीन होती है । यह न्यून नाम का दोष माना गया है जो कृतिकर्म के ३२ दोषों में से २८वां है। पक्व - पक्वं नाम यद् अग्निना संस्कृतम्, यथा इङ्गुदीबीज बिल्बादि । (बृहत्क. भा. क्षे. बृ. १०८०) ।
अग्नि से संस्कार की गई — पकाई गई - -वस्तु को पक्व कहते हैं ।
पक्ष ( कालविशेष ) - १. पण्णरस ग्रहोरता पक्ख । ( भगवतो. ६, ७, ४, पृ. ८२५ जम्बूद्वी. १८, पृ. ८६ अनुयो. सू. १३७, पू. १७६; ज्योति क. ३०; जीवस. ११० ) । २. तानि पञ्चदश पक्ष: । ( त. भा. ४-१५) । ३. XXX पण्णरसेहि दिवसेहि एक्कपक्खो हु । (ति. प. ४-२८८ ) । ४. त्रिपञ्चकैस्तं दिवसैश्च पक्षः X×× ॥ ( वरांगच. २७ - ५ ) । ५. पञ्चदशाहोरात्राः पक्षः । (त. वा. ३, ३८, ८) । ६. अहोरात्रं भवेत् पक्षस्तानि पञ्चदशैव XXX। (ह. पु. ७ - २१) । ७. पक्षः पञ्चदशाहोरात्रात्मकः । (झाव. नि. हरि व मलय. वृ. ६६३) । ८. पञ्चदशाहोरात्राणि पक्ष: । ( श्राव. भा. हरि व मलय. वृ. १९८ ) । ६. पञ्चदशदिवसाः पक्षः । ( धव. पु. ४, पू. ३१९); पण्णरसदिवसेहि पक्खो होदि । (धव. पु.
६५५, जैन- लक्षणावली
[पक्षधर्म
१३, पृ. ३०० ) । १०. XXX पणदहदिवसेहि होइ पक्खं तु । (प्रा. भावसं. ३१४) । ११. पञ्चदशाहोरात्रः एकः पक्षः । ( जीवाजी. मलय. बू. १७८; ज्योतिष्क. मलय. वू. ३०) । १२. पञ्चदशपरिपूर्णा अहोरात्राः पक्षः । (सूयंत्र. मलय. वृ. सू. ५७, पृ. १६६ ) । १३. तं: पञ्चदशमि: (अहो - रात्रः ) पक्ष: । ( अनुयो. सू. मल. हेम. वृ. ११४, पु. ६६; प्रज्ञाप. मलय. वृ. १०४; षडशी. दे. स्वो. वृ. ६६) । १४ पक्ष: पुनरहोरात्रः स्यात्पञ्चदशभिध्रुवम् । ( लोकप्र. २८ - २८४) ।
१ पन्द्रह दिन-रात को पक्ष कहते हैं । पक्ष (श्रावकाचारविशेष ) – स्यान्मैत्र्याद्युपबृंहितोऽखिलवघत्यागो न हिस्यामहं धर्माद्यर्थमितीह पक्ष XXX। (सा. घ. १ - १९ ) । मैत्री प्रमोद आदि भावनाओं से वृद्धिगत होकर 'मैं धर्मादि के निमित्त हिंसा नहीं करूँगा' इस प्रकार असत्यादि के साथ जो सम्पूर्ण वध के -
सहिंसा के त्याग की प्रतिज्ञा की जाती है, इस प्रकार के प्राचार का नाम पक्ष है ।
पक्ष ( श्रनुमानांग ) – १. साध्याभ्युपगमः पक्षः प्रत्यक्षाद्यनिराकृतः । ( न्यायाव. १४) । २. धर्मधर्मिसमुदाय: पक्ष: । (विशेषा. को. वृ. १५, पृ. ११) । ३. पक्षश्च धर्मं धर्मिसमुदायात्मा । (न्यायकु. १-३, पृ. ६७; स्था. र. २ - १ ) । ४. जिज्ञासितविशेषो धर्मी पक्ष: । (सिद्धिवि वृ. ६-२, पृ. ३७३, पं. १) । ५. धर्म - धर्मिसमुदायलक्षणः पक्षः । ( समयप्रा. जय. वृ. ५५, पू. ३२ ) । ६. धानुमानिकप्रतिपत्त्यवसरापेक्षया तु पक्षापरपर्यायस्तद्विशिष्टः प्रसिद्धो धर्मी (प्र. न. त. ३ - १८ ) । ७. साध्यधर्मविशिष्टस्य धर्मिणो पक्षत्वात् (साध्यधर्मविशिष्टो धर्मी पक्षः) । ( न्यायदी. पू. ७२) । ८. साध्यविशिष्ट: प्रसिद्धो घर्मी पक्ष: । ( षड्द. वू. ५५, पू. २१० ) ।
१ प्रत्यक्षादि के द्वारा जिसका निराकरण नहीं किया गया है ऐसे साध्य (अनुमेय ) की स्वीकारता को पक्ष कहा जाता है । २ धर्म और धर्मों के समुदाय को पक्ष कहते हैं ।
पक्षधर्म - यो हि धर्मिधर्मः स पक्षधर्मः इत्युच्यते । ( न्यायकु. १ - ३, पृ. ६७ ) । धर्मी के वर्म को पक्षधर्म कहते हैं ।
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
वह
पक्षधर्मता] ६५६, जैन-लक्षणावली
[पञ्चेन्द्रिय पक्षधर्मता-१. पक्षधर्मत्वं हि तज्जनकस्य हेतोः निवृत्त हो चुका है उसे पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक स्वरूपम् । (स्या. र. २-१,प.२६१) । २. तस्मिन् कहते हैं। (पक्षे) व्याप्य वर्तमानत्वं हेतोः पक्षधर्मत्वम् । पञ्चम महाव्रत-देखो परिग्रहत्यागमहाव्रत । (न्यायदी. पृ.८३)।
पञ्चम मूलगुरण-पंचमगो गामादिसु अप्प बहु१ पक्षधर्मता-हेतु का पक्ष में रहना, यह अनुमान विवज्जणे मेव ॥ (धर्मसं. हरि. ८६०) । के जनक हेतु का स्वरूप है। २ हेतु के पक्ष में
ग्राम, नगर अथवा वन प्रादि में थोड़े-बहुत-सभी रहने को पक्षधर्मता कहते हैं।
प्रकार के-परिग्रह का परित्याग करना, यह पक्षपात-पक्षपातस्तु बहुमान-तत्प्रशंसा-साहाय्य- साधुओं के प्राणातिपातविरति प्रादि मूलगुणों में करणादिना अनुकूला प्रवृत्तिः। (योगशा. स्वो. पांचवां मूलगुण है । विव. १-५३, पृ. १५७)।
पञ्चमी प्रतिमा-पञ्चमासांश्चतुष्पा गृहे तद्सौजन्य व उदारता प्रादि गणों के विषय में बहत
द्वारे चतुष्पथे वा परीषहोपसर्गादिनिष्कम्पकायोत्सर्गः सन्मान, उनकी प्रशंसा और सहायता प्रादि के द्वारा पूर्वोक्तप्रतिमानुष्ठानं पालयन् सकलां रात्रिमास्त अनुकूल प्रवृत्ति करने को पक्षपात कहते हैं। इति पञ्चमी। (योगशा. स्वो. विव. ३-१४८, पक्षाभास-१. तत्रानिष्टादिः पक्षाभासः। (परीक्षा. प. १७१-७२)। ६-१२) । २. तत्र प्रतीत-निराकृतान भीप्सितसा- पांच मास पर्यन्त चारों पर्वो (प्रष्टमी व चतुर्दशी) ध्यधर्मविशेषणास्त्रयः पक्षाभासाः। (प्र. न. त. में घर पर, उसके द्वार पर अथवा चौराहे पर परी६-३८)।
षह और उपसर्गमादि में अडिग रहते हुए कायोत्सर्ग१ अनिष्ट, बाधित और सिद्ध साध्यधर्म से युक्त पूर्वक पूर्व चार प्रतिमाओं के अनुष्ठान का परिधर्मी (पक्ष) को पक्षाभास कहा जाता है। पालन करना व समस्त रात्रि को बिताना, यह पक्षी-पक्षवन्तस्तिर्यञ्चः पक्षिणः। (धव. पु. १३. पांचवीं प्रतिमा है। पृ. ३६१)।
पञ्चाग्निसाधक-कामः क्रोधो मदो माया लोभपंखों वाले तियंच जीव पक्षी कहलाते हैं। श्चेत्यग्निपञ्चकम् । येनेदं साधितं स स्यात्कृती पडू-पतन्त्यस्मिन्निति पङ्कः, पङ्को नाम स्वेदा- पञ्चाग्निसाधकः ।। (उपासका. ८७१)। बद्धो मलः । (उत्तरा. चू. पृ.७६)।
काम, क्रोध, मान, माया और लोभ, इन पांच पसीने से सम्बद्ध मल को पडू कहते हैं।
अग्नियों को-अग्नि के समान सन्तापजनक दुर्गणों पगति-से जहाणाम ते केइ पुरिसे पंकसि वा
को-जिसने शान्त कर दिया है, ऐसे साधको उदयंसि वा कायं उबिहिया गच्छति, से तंक. पञ्चाग्निसाधक कहते हैं। गती। (प्रज्ञाप. २०५, पृ. ३२८)।
पञ्चाङ्ग नमस्कार-'पञ्चाङ्ग' पञ्चाङ्गानि कीचड़ या पानी में शरीर को ऊंचा करके गमन जानुद्वय-करद्वय शिरोलक्षणानि भूस्पृष्टानि यत्र स करने को पङ्कगति कहते हैं।
पञ्चाङ्गः। (चैत्यव. भा. दे. ६, पृ. ५)। पञ्चम अणुव्रत-देखो परिग्रहपरिमाणाणुव्रत। दो हाथ, दो घुटने और शिर को भूमि से लगाकर पञ्चमगुरणस्थानवर्ती श्रावक-यश्चाप्रत्याख्या- नमस्कार करने को पञ्चाङ्ग नमस्कार कहते हैं । नावरणसंज्ञिद्वितीयकषायक्षयोपशमे जाते सति पृथि- पञ्चन्द्रिय-१. सुर-णर णारय-तिरिया वण्ण-रसव्यादिपञ्चस्थावरवघे प्रवृत्तोऽपि यथाशक्त्या त्रसव फास-गंध-सद्दण्हू । जलचर-थलचर-खचरा बलिया निवृत्तः स पञ्चमगुणस्थानवर्ती श्रावको भण्यते । पंचेदिया जीवा ।। (पंचा. का. ११७)। २. पञ्चा(व. द्रव्यसं. टी. ४५, पृ. १७१)।
नां स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षुःश्रोत्रज्ञानानामावरणअप्रत्याख्यानावरण नामक द्वितीय कषाय का क्षयोप- क्षयोपशमात् पञ्चविधज्ञान भाजः पञ्चेन्द्रियाः । शम होने पर स्थावर जीवों के घात में प्रवृत्त होते (शतक. मल. हेम. वृ. ३८ कर्मस्त. गो. वृ. १०, हुए भी जो शक्ति के अनुसार सजीवघात से पृ. १७) । ३. पञ्च स्पर्शन-रसन-प्राण-चक्षुःश्रोत्र
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चेद्रिय जातिनाम ]
६५७,
रूपाणीन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः । (कर्मवि. दे. स्वो वृ. ४८ ) ।
१ जो वर्ण, रस, स्पर्श, गन्ध और शब्द के ज्ञाता हैं ऐसे देव, मनुष्य, नारकी तथा जलचर, थलचर, नभचर व बलवान् तियंच जीवों को पञ्चेन्द्रिय कहते हैं ।
जैन - लक्षणावली
पञ्चेन्द्रिय जातिनाम- १. जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं पंचिदियजादिभावेण समाणत्तं होदि तं पंचिदियजादिणामकम्मं । ( धव. पु. ६, पृ. ६८ ) ; पंचिदियभावणिव्बत्तयं जं कम्मं तं पंचिदियजादिणामं । ( धव. पु. १३, पृ. ३६३) । २. यदुदयात् प्राणी पञ्चेन्द्रिय इति कथ्यते तत्पञ्चेन्द्रियजातिनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११ ) ।
१ जिस कर्म के उदय से जीवों में पंचेन्द्रिय जातिस्वरूप से समानता होती है उसे पंचेन्द्रिय जातिनामकर्म कहते हैं ।
पञ्जर - तित्तिर- लावक - हरिणादिधरणार्थं विरचितं ग्रन्थिविशेषकलितरज्जुमयं जालं पञ्जरः । (गो. जो. मं. प्र. व जी. प्र. टी. ३०३ । तीतर, लावक (पक्षी विशेष ) और हरिण श्रादि के पकड़ने के लिए रस्सी में गांठें लगाकर बनाये गये जाल को पञ्जर कहते हैं ।
पटबुद्धि— पटवत् विशिष्टवक्तृवनस्पतिविसृष्टविविघप्रभूतसूत्रार्थ - पुष्प - फलग्रहणसमर्थतया बुद्धिः पटबुद्धि: । ( श्रपपा. अभय वृ. १५, पृ. २८ ) । पट के समान विशिष्ट वक्तारूप वनस्पति (कपास) के द्वारा छोड़े गये ( दिये गये ) अनेक प्रकार के प्रचुर सूत्र- अर्थरूप पुष्प और फलों के ग्रहणविषयक सामर्थ्य से युक्त बुद्धि को पटबुद्धि कहा जाता है । पटह-पटह प्रतोद्यविशेषः, स च किंचिदायत उपर्यधश्च समप्रमाणः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३३, ३१६, पृ. ५४२) ।
कुछ लम्बे और ऊपर-नीचे समान प्रमाण वाले वादित्रविशेष (ढोल) को पटह कहते हैं ।
पट्टन - वररयणाणं जोणी पट्टणणामं विणिद्दिट्ठ | ( ति. प. १३६६ ) ।
उत्तम रत्नों के योनिभूत ( उत्पादक) स्थान का नाम पट्टन है ।
ल. ८३
पतङ्गवींथिका
पण्डित - १. देहविभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ । परमसमाहिपरिट्टियउ पंडिउ सो जि हवेइ ॥ ( परमा. १-१४) । २. पापाड्डीनः पण्डितः, पण्डा वा बुद्धिः, तया इतः अनुगतः पण्डितः । (उत्तरा. चू. पृ. १३१) । ३. पण्डिताः सम्यग्ज्ञानवन्तः, × × × अन्ये व्याचक्षते X XX पण्डिता वान्तभोगासेवनदोषज्ञाः । ( दशवे. हरि. वृ. सू. २- ११, पृ. ६६ )। ४. एतत्पाण्डित्यप्रकर्षरहितं पाण्डित्यं पण्डित उच्यते । ( भ. प्रा. विजयो. २६) । ५. पण्डा हि रत्नत्रयपरिणता बुद्धिः संजाता प्रस्येति पण्डितः । ( भ. प्रा. मूला. २६) । ६. पापात् डीन :- पलायितः पण्डितः । अथवा पण्डा बुद्धिः, सा संजाता अस्येति पण्डितः । ( वृहत्क. भा. मलय. बृ. १६६) ।
यस्य
स
१ जो आत्मानुभूतिरूप परम समाधि में स्थित होकर शरीरसे भिन्न ज्ञानमय परमात्मा को जानता है उसे पण्डित—अन्तरात्मा कहा जाता है । २ पाप से जो डीन प्रर्थात् दूर रहता है उसे पण्डित कहते हैं, अथवा 'पण्डा' नाम बुद्धि का है, उससे जो युक्त हो उसे पण्डित जानना चाहिए । ४ पण्डित के पाण्डित्यप्रकर्ष से रहित — उसकी अपेक्षा हीनपाण्डित्य से जो सहित हो वह पण्डित कहलाता है । पण्डितपण्डित - अतिशयितं पाण्डित्यं यस्य ज्ञानदर्शन -चारित्रेषु स पण्डितपण्डित इत्युच्यते । (भ. श्री. विजयो. २६) ।
ज्ञान, दर्शन और चारित्रविषयक पाण्डित्य जिसका अतिशय को प्राप्त है उसे पण्डितपण्डित कहा है ।
पण्डितमरण - देखो पण्डित । पंडिताण मरणं पंडितमरणम्, विरतानामित्यर्थः । ( उत्तरा चू. पू. १२८)।
पण्डितों का विरतों (संयतों) का - मरण पण्डितमरण कहलाता है ।
पण्यस्त्री --- पण्यस्त्री तु प्रसिद्धा या वित्तार्थं सेवते नरम् । तन्नाम दारिका दासी वेश्या पत्तननायिका । (लाटीसं. २- १२९ ) ।
जो धन के लिए पुरुष का सेवन करती है वह पण्यस्त्री के नाम से प्रसिद्ध है।
पतङ्गवीथिका - यस्यां तु त्रि- चतुरादीनि गृहाणि
:
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
पतद्ग्रह] ६५८, जैन-लक्षणावली
[पथ्य वचन विमुच्याग्रतः पर्यटति सा पतङ्गवीथिका। पतङ्गः ३. पत्तनं जलपथोपेतमेव स्थलपथोपेतमेव वा । शलभः, तस्येव या वीथिका पर्यटनमार्गः सा पतङ्गवी- (औपपा. अभय. वृ. ३२, पृ. ७४) । ४. पत्तनानि थिका, पतङ्गो हि गच्छन्नुत्प्लुत्योत्प्लुत्यानियतया जल-स्थलमार्गयोरन्यतरेण मार्गेण युक्तानि। (कल्पगत्या गच्छति, एवं गोचरभूमिरपि या पतङ्गोड्डय- सू. वि. वृ. ८८, पृ. १११)। नाकारा सा पत वीथिकेति भावः । (बहत्क. क्षे. १ जहां नाव के द्वारा और पावप्रचार से (पैदल) वृ. १६४६)।
जाना होता है उसे पत्तन कहते हैं। २ जलमार्ग से जिस गोचरभूमि में साधु तीन-चार घरों को छोड़ अथवा स्थलमार्ग से युक्त प्रदेश को पत्तन कहते हैं। कर आगे जाता है वह पतंगवीथिका गोचरभूमि दूसरे कितने ही आचार्य रत्नों की भूमि को पत्तन कहलाती है। जैसे पतंगा उछल उछल कर अनियत कहते हैं। गति से गमन करता है उसी प्रकार गोचरी के पत्नी-पत्नी पाणिग्रहीता स्यात् xxx ॥ लिए जाते हुए अनियत गति से जाना—कभी (लाटीसं. २-१७८)। किसी गृह में तो कभी अन्य गृह में, इस प्रकार से जिसके पाणि (हाथ) को ग्रहण किया गया हैअनियमित प्रवेश करना; इसे पतंगवीथिका गोचर- जिसके साथ विधिपूर्वक विवाह हुअा है-उसे पत्नी भमि कहते हैं । यह क्षेत्राभिग्रहविषयक ऋज्वी कहा जाता है। प्रादि पाठ गोचरभूमियों में चतुर्थ है।
पत्र-असिद्धावयवं वाक्यं स्वेष्टस्यार्थस्य साधकम् । पतद्ग्रह- १. परिणमयइ जीसे तं पगईइ पडिग्गहो स. गुगूढपदप्रायं पत्रमाहुरनाकुलम् ॥ xxx एसो। (कर्मप्र. सं. क. २)। २. परिणमयति मुख्यशब्दात्मकं वाक्यं लिप्यामारोप्यते जनः। पत्रजिस्से तं पगतीए पडिग्गहो एसो-यस्यां प्रकृतौ स्थत्वात्तु तत्पत्रमुपचारोपचारतः ॥ अथवा प्रकृतजीवस्तद्भावेन परिणमयति सो प्रकृतिः पगतीए वाक्यस्य मुख्यत एव पत्रव्यपदेश इति निगदामः, संकममाणाए पडिग्गहो वुच्चति । (कर्मप्र. च. सं. क. पदानि त्रायन्ते गोप्यन्ते रक्ष्यन्ते परेभ्यः प्रतिवादिभ्यः २)। ३. यस्यां प्रकृतौ आधारभूतायां तत्प्रकृत्यन्त- स्वयं विजिगीषुणा यस्मिन् वाक्ये तत्पत्रमिति पत्ररस्थं दलिकं परिणमयति आधारभूतप्रकृतिरूपतामा- शब्दस्य निर्वचनसिद्धेः । xxx त्रायन्ते वा पदापादयति एषा प्रकृतिराधारभूता पतद्ग्रह इव पतद्- न्यस्मिन् परेभ्यो बिजिगीषुणा। कुतश्चिदिति पत्रं ग्रहः, संक्रम्यमाणप्रकृत्याधार इत्यर्थः । (कर्मप्र. स्याल्लोके शास्त्रे च रूढितः ।। (पत्रप. प.१-२)। मलय. वृ. सं. क. २)।
जो प्रसिद्ध अवयवों से युक्त वाक्य अपने अभीष्ट १जीव जिस प्रकृति में विवक्षित प्रकृति के प्रदेशों अर्थ का साधक होता है तथा जिसमें प्रायः भली को तप से परिणमाता है उस प्रकृति को पतद्- भांति पदों की गूढ़ा हो वह पत्र माना जाता है। ग्रह प्रकृति कहते हैं।
पत्रचारण-१. अविराहिदूण जीवे तल्लीणे बहपतनान्तराय-भूमौ मूर्छादिना पाते पतनाख्यो विहाण पत्ताणं । जा उवरि वच्चदि मुणी सा सिद्धी Xxx। (अन. ध. ५-५४)।
पत्तचारणा णामा ॥ (ति. प. ४-१०४०) । पाहार करते समय मूर्छा आदि के कारण भूमि २. नानावृक्ष-गुल्म-वीरुल्लताविताननानाप्रवालतरुणमें गिर जाने पर पतन नाम का अन्तराय होता है। पल्लवालम्बनेन पर्णसूक्ष्मजीवानविराधयन्तश्चरणोपति-पाति रक्षति तामिति पतिः। (उत्तरा. नि. त्क्षेप-निक्षेपपटवः पत्रचारणाः। (योगशा. स्वो. विव. शा. वृ. ५७, पृ. ३८)।
१-६, पृ. ४१)। ३. पत्रमस्पृश्य पत्रोपरि गमनं जो उसकी-भार्या (स्त्री) की--रक्षा करता है पत्रचारणत्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६) । वह पति कहलाता है।
१ जिसके प्रभाव से मुनि पत्रगत जीवों की विरापत्तन-देखो पट्टन । १. नावा पादप्रचारेण च यत्र धना न करके उनके ऊपर से गमन करता है उसका गमनं तत्पत्तनं नाम । (धव. पु. १३, पृ. ३३५)। नाम पत्रचारण ऋद्धि है। २. पत्तनं जलपथयुक्तं स्थलपथयुक्तं वा, र नभूमि- पथ्य वचन-पथ्यं यदायतौ हितम्। (योगशा. रित्यन्ये । (प्रश्नव्या. अभय. वृ. पृ. १७५)। स्वो. विव. १-२१, पृ. १२०) ।
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
पद] ६५६, जैन-लक्षणावली
[पदश्रुतज्ञान परिणाम में हित करने वाले वचनों को पथ्य वचन निश्चय करने को पदनिक्षेप कहते हैं। कहते हैं।
पदबद्ध-गेयपदैर्बद्धम्-विशिष्टविरचनया रचितं पद-१. सुम्मिङन्तं पदम् । (जैनेन्द्र. ११२।१०३)। पदबद्धम् । (अनुयो. मल. हेम. वृ. गा. ४६, पृ. २. पद्यते गम्यते परिच्छिद्यते इति पदम् । (धव. पु. १३२)। १०, पृ. १९) । ३. वर्णसमुदायः पदम् । (त. भा. गाने के योग्य पदों के द्वारा जो विशिष्ट रचना की सिद्ध. वृ. ५-२४)। ४. वर्णानामन्योन्यापेक्षाणां जाती है उसे पदबद्ध कहा जाता है। निरपेक्षः समुदायः पदम् । (न्यायकु. ६५, पृ. पदमीमांसा--एदेसि पदाणं (उक्कस्साणुक्कस्सादि७३७) । ५. पद्यते गम्यते येनार्थः तत्पदम् । (सिद्धि- तेरसपदाणं) मीमांसा परिक्खा जत्थ कीरदि सा वि. वृ. ११-५, पृ. ७०३, पं. १२) । ६. वर्णानाम- पदमीमांसा। (धव. पु. १०, पृ. १६); पदाणं न्योन्यापेक्षाणां निरपेक्षा संहिति: पदम् । (प्र. मीमांसा परिक्खा गवसणा पदमीमांसा। (धव. पु. न. त. ४-१०); पद्यते गम्यते स्वयोग्योऽर्थोऽनेनेति पदम् । (स्या. र. ४-१०) । ७. स्वार्थप्रति- उत्कृष्ट, अनत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रादि पदों पादकानि पदानि । (उपदे. प. मु. वृ. ८-५६)। का जिस अनुयोगद्वार में विचार किया जाता है ८. पद त्वथपारसमाप्तिः पदामत्याधुाक्तसद्भाव- उसका नाम पदमीमांसा है। ऽपि येन केनचिद् पदेनाष्टादशपदसहस्रादिप्रमाणा
पदविग्रह-१. "पायं पदविच्छेदो समास विसयो आचारादिग्रन्था गीयन्ते तदिह गृह्यते, तस्यैव द्वा
तयत्थणियमत्थं । पदविग्गहोत्ति भण्णइ सो सुद्धपदं दशाङ्गश्रुतपरिमाणेऽधिकृतत्वाच्छ तभेदानामेव चेह
ण संभवदि ॥" इह प्रायेण यः समासविषयः पदयोः प्रस्तुतत्वात्तस्य च पदस्य तथाबिधाम्नायाभावात्
पदानां वा छेदो अनेकार्थसम्भवे इष्टार्थ नियमनाय प्रमाणं न ज्ञायते, तत्रैकं पदं पदमुच्यते । (शतक.
क्रियते स पदविग्रहः । (उत्तरा. चू. पृ. १४) । मल. हेम. वृ. ३८, पृ. ४२, कर्मवि. दे. स्वो. वृ.
२. पदपृथक्करणं पदविग्रहः । (प्राव. नि. मलय. व. ७, प. १६)। ६. बर्णानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्ष:
१०२७, पृ. ५५६)। समुदायः पदम् अव्ययानव्ययभेदभिन्नम्। (लघीय.
१ अनेक अर्थों की सम्भावना होने पर अभीष्ट अर्थ अभय. वृ. ६४, पृ. ८७)। १०. Xxx तत्पदं
के नियमन के लिए जो प्रायः समासविषयक दो या यत्र नापदः । (जम्बू. च. ४-१५१) ।
दो से अधिक पदों का छेद किया जाता है वह १ सुबन्त (सु-औ-जस् आदि विभक्तिप्रत्ययान्त)
पदविग्रह कहलाता है। और मिङन्त (मिप्-वस्-मस् प्रादि झि तक) शब्द
पदविभागी आलोचना-पव्वज्जादी सव्वं कमेण को पद कहते हैं। ३ वर्गों के समुदाय को पद कहा
जं जत्थ जेण भावेण । पडिसेविदं तहा तं पालोजाता है। ८ अर्थसमाप्ति को यद्यपि पद कहा
चितो पदविभागी॥ (भ. प्रा. ५३५)। जाता है, फिर भी जिस पद से अठारह हजार प्रादि पद प्रमाण प्राचारादि ग्रन्थ कहे गये हैं प्रवृज्या लेने के समय से लेकर आज तक जिसका उसको यहां श्रुत के अधिकार में पद ग्रहण करना
जहां पर जिस भाव से सेवन किया गया है उसकी चाहिए। ६ पद (स्थान) वही उत्तम माना जाता उसी भाव से क्रमशः पालोचना करने को पवि. है जो आपदाओं से रहित हो-ऐसा पद एक मात्र भागी आलोचना कहते हैं। मोक्ष ही सम्भव है।
पदश्रुतज्ञान-१. तदो (अक्खरसमासादो) एगपदनिक्षेप-जहण्णक्कस्सपदविसयणिच्छए खिवदि क्खरणाणे वड्ढिदे पदं णाम सूदणाणं होदि। (धव. पादेदिति पदणिक्खेवो णाम । भुजगारविसेसो पद- पु. ६, पृ. २३); एगेगक्खरवढिकमेण अक्खरणिक्खेवो, जहण्णुक्कस्सड्ढि-हाणिपरूवणादो । समासं सुदणाणं वड्ढमाणं गच्छदि जाव संखेज्ज(जयध.-कसायपा. सु. पृ. ७६ का टिप्पण)। वखराणि वड्ढिदाणि त्ति । पुणो संखेज्जक्खराणि समत्कीर्तना और स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारों का घेत्तूण एगं पदसुदणाणं होदि। (धव. पु. १३, पृ. जघन्य और उत्कृष्ट पदों के द्वारा निक्षेप अर्थात् २६५) । २. एगवनगद उपरि गगेगेणकपण
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
पदश्रुतज्ञानावरणीय कर्म] ६६०, जैन-लक्षणावली
[पदस्फोट वड्ढंतो। संखेज्जे खलु उड्ढे पदणामं होदि सुद- बंधं । तं पि य होइ पयत्थं झाणं कम्माण णिद्दहणं ॥ णाणं ॥ (गो. जी. ३३४) ।
(भावसं. ६२६-२७)। २. पदान्यालम्ब्य पुण्यानि १ अक्षरसमास श्रुत के ऊपर एक अक्षरज्ञान की वृद्धि योगिभिर्यद्विधीयते । तत् पदस्थं मतं ध्यानं विचित्रहोने पर पद नाम का श्रुतज्ञान होता है।
नयपारर्गः ॥ (ज्ञाना. ३८-१, पृ. ३८७)। ३. यानि पदश्रुतज्ञानावरणीय कर्म-पदसुदणाणस्स जमा- पंचनमस्कारपदानीति मनीषिणा। पदस्थं ध्यातुकावरणं तं पदसुदणाणावरणीयं णाम । (धव. पु. १३, मेन तानि ध्येयानि तत्त्वतः ॥ (अमित. श्रा. १५, पृ. २७८)।
३१)। ४. जं झाइज्जइ उच्चारिऊण परमेट्ठिमंतपदश्रुतज्ञान के आवारक कर्म को पदश्रुतज्ञानावरणीय पयममलं। एयक्खरादिबिबिहं पयत्थझाणं मुणेकहते हैं।
यव्वं ॥ (वसु. श्रा. ४६४)। ५. णिसिऊण पंचपदसम-यत् गीतपदं नामिकादिकं यत्र स्वरे अनु- वण्णा पंचसु कमलेसु पंचठाणेसु । झाएह जहकमेणं पाति भवति तत् तत्र व यत्र गीयते तत्पदसमम्। पयत्थझाणं इमं भणियं ॥ सत्तक्खरं च मंतं सत्तसु (अनुयो. सू. मल. हेम. वृ. गा. ५०, पृ. १३२)। ठाणेसु णिससुसयवण्णं (?)। सिद्धसरूवं च सिरे एयं च जो नामिक आदि पद जिस स्वर में उतरने वाला पयत्थझाणुत्ति ॥ (ज्ञा. सा. २४-२५)। ६. यत्पहो उसको उसी स्वर में जो गाया जाता है, यह दानि पवित्राणि समालम्ब्य विधीयते। तत्पदस्थं पदसम कहलाता है।
समाख्यातं ध्यानं सिद्धान्तपारगैः ॥ (योगशा. ८-१)। पदसमास-१. एदस्स पदस्स सुदणाणस्सुवरि एग- ७. स्वाध्याये यदि वा · मंत्रे गुरु-देवस्तुतावपि । क्खरसुदणाणे वढिदे पदसमासो णाम सुदणाणं चित्तस्यैकाग्रता यत्तत्पदस्थं ध्यानमुच्यते ॥ (ग. ग. होदि । एवमेगक्ख रादिकमेण पदसुदणाणं वड्ढमाणं षट. स्वो. वृ. २, पृ. १० उद्.)। ८. पंचानां सद्गुरूणां गच्छदि जाव संघानो त्ति । (धव. पु. ६, पृ. २३); यत् पदान्यालम्ब्य चिन्तनम् । पदस्थध्यानमाम्नातं एदस्स मज्झिमपदसुदणाणस्सुवरि एगे अक्खरे ध्यानाग्निध्वस्तकल्मषः ॥ (भावसं. वाम. ६६२) । वढिदे पदसमासो णाम सुदणाणं होदि । पदस्स ६. महामंत्रे च मंत्रे च मालामंत्रेऽथवा स्तुतौ। उवरि अण्णेगे पदे वड्ढिदे पदसमाससुदणाणं होदि स्वप्नादिलब्धमंत्र वा पदस्थं ध्यानमुच्यते ॥ (बुद्धित्ति वोत्तुं जुत्तं । पदस्सुवरि एगेगक्खरे वड्ढिदे ण सा. ११८, पृ. २४)। पदसमाससुदणाणं होदि, अक्ख रस्स पदत्ताभावादो १ देशविरत गुणस्थान में निर्दिष्ट देवपूजा के त्ति ? ण एस दोसो, पदावयवस्स अक्खरस्स वि विधान को पदस्थ ध्यान कहा जाता है। पांच परपदव्ववएसे संते विरोहाभावादो। (धव. पु. १३, पृ. मेष्ठियों से सम्बद्ध एक अक्षर अथवा पद का जो २६७)। २. द्वयादिपदसमुदायस्तु पदसमासः । जाप किया जाता है, यह भी पदस्थ ध्यान कहलाता (शतक. मल. हेम. वृ. ३८, पृ. ४२, कर्मवि. दे. है। ६ पवित्र पदों का पालम्बन लेकर जो ध्यान स्वो. वृ. ७, पृ. १८)।
किया जाता है, इसका नाम पदस्थ ध्यान है। १मध्यमपद श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि ७ स्वाध्याय, मंत्र और गरु या देव की स्तति में होने पर पदसमास श्रुतज्ञान होता है। २ दो आदि जो चित्त की एकाग्रता होती है वह पदस्थ ध्यान पदों के समुदाय का नाम पदसमास है।
कहलाता है। पदसमासज्ञानावरणीय कर्म-पदसमासणाणस्स पदस्फोट --- स्फोटति प्रकटीभवत्यर्थोऽस्मिन्निति जमावारयं कम्मं तं पदसमासणाणावरणीयं कम्म। स्फोटश्चिदात्मा, पदार्थज्ञानावरण-वीर्यान्तरायक्षयोप(धव. यु. १३, पृ. २७८)।
शमविशिष्टः पदस्फोटः । (युक्त्यनु. टी. ४०, पृ. पदसमासश्रुतज्ञान के आवारक कर्म को पदसमास-९८)। ज्ञानावरणीय कहते हैं।
जिसमें अर्थ प्रगट होता है उस चेतन प्रात्मा का पदस्थ ध्यान-१. देवच्चविहाणं जं कहियं देस- नाम स्फोट है। पदार्थज्ञानावरण और वीर्यान्तराय विरयठाणम्मि । होइ पयत्थं झाणं कहियं तं वरजि- कर्म के क्षयोपशम से विशिष्ट प्रात्मा को पदस्फोट णिदेहि ॥ एयपयमक्खरं वा जवियइ जं पंचगुरुवसं- कहते हैं।
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
पदानुसारी] ६६१, जैन-लक्षणावली
[पद्मलेश्या पदानुसारी-१. एकपदस्यार्थ परत उपश्रुत्यादौ सूत्रदोषों में ३१वां है । अन्ते मध्ये वा शेषग्रन्थावधारणं पदानुसारित्वम्। पद्म-१. XXXतं पि गुणिदव्वं । चउसी दिल(त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०१; चा. सहा. पृ. क्खवासे पउमं णामं समुद्दिजें।। (ति. प. ४-२६६)। ६३) । २. पदमनुसरति अनुकुरुते इति पदानुसारी २. चतुरशीतिपद्माङ्गशतसहस्राण्येक पद्मम् । (ज्योबुद्धिः । बीजबुद्धीए बीजपदमवगंतूण एत्थ इदं एदे- तिष्क. मलय. वृ. ६७; जीवाजी. मलय. वृ. सिमक्ख राणं लिंगं होदि त्ति ईहिदूण सयलसुदक्खर- १७८) । पदाइमवगच्छंती पदाणुसारी। (धव. पु. ६, पृ. १ चौरासी लाख वर्षों से गुणित पद्मांग प्रमाण एक ६०)। ३. द्वादशांग-चतुर्दशपूर्वमध्ये एक पदं प्राप्य पद्म होता है । २ चौरासी लाख पद्मों का एक पद्म तदनुसारेण सर्वं श्रुतं बुध्यन्ते पादानुसारिणः। नामक संख्याप्रमाण होता है। (मूला. वृ. ६-६६) । ४. जो सुत्तपएण बहुं सुय- पद्मप्रभ-निष्पकतामङ्गीकृत्य पद्मस्येव प्रभा मणुधावइ पयाणुसारी सो। (प्रव. सारो. १५०३)। यस्याऽसौ पद्मप्रभः, तथा पद्मशयनदोहदो मातुर्दे ५. पदेन सत्रावयवेनैकेनोपलब्धेन तदनुकलानि पद- तया पूरित इति, पद्मवर्णश्च भगवानिति पद्मप्रभः । शतान्यनुसरन्ति --अभ्यूहयन्तीत्येवंशीला: पदानुसा- (योगशा. स्वो. विव. ३-११४)। रिणः । (प्रौपपा. अभय. वृ. १५, पृ. २८)। निष्पङ्कता को स्वीकार कर-पद्म के पङ्कजत्व से ६. आदावन्ते चैकपदग्रहणात् समस्तग्रन्थार्थस्याव- रहित होकर-उस पद्म को प्रभा के समान प्रभा धारणं यत्र बुद्धौ सा पदानुसारिबुद्धिः। (श्रुतभ. होने से छठे तीर्थकर का नाम पद्म प्रसिद्ध हुआ। टो. ३) ७. पदानुसारी त्वेकपदावगमात् पदान्तरा- इसके अतिरिक्त उक्त तीर्थकर की माता को पद्म णामवगन्ता । (योगशा. स्वो. विव. १-८)। (कमल) शय्या पर सोने का जो दोहला हुआ था ८. या पुनरेकमपि सूत्रपदमवधार्य शेषमश्रुतमपि तद- उसे देवता ने पूर्ण किया था, इसलिए भी उन्हें वस्थमेव श्रुतमवगाहते सा पदानुसारिणी। (प्रज्ञाप. पद्मप्रभ कहा गया है मलय. वृ. २७३, पृ. ४२४; नन्दी. सू. मलय. वृ. पद्ममुद्रा-पद्माकारौ करौ कृत्वा मध्येऽङ्गुष्ठौ १३)। ६. येषां पुनर्बुद्धिरेकमपि सूत्रपदमवधार्य कर्णिकाकारौ विन्यसेदिति पद्ममुद्रा। (निर्वाणक. शेषमश्रुतमपि तदवस्थमेव श्रुतमवगाहते ते पदानु- पृ. ३२)। सारिबुद्धयः । Xxx जो सुत्तपएण बहुं सुयमणु- कमल के आकार दोनों हाथों को करके उनके बीच धाबइ पयाणुसारी सो। (प्राव. नि. मलय. वृ. ७५, में कणिका के आकार दोनों अंगूठों की रचना को पृ. ८०)।
पामुद्रा कहते हैं। १ किसी एक पद के अर्थ को दूसरे से सुनकर प्रादि, पद्मलेश्या--१. चाई भद्दो चोक्खो उज्जयकम्मो य अन्त अथवा मध्य में शेष समस्त ग्रन्थ के जान लेने खमइ बहुयं पि। साहु-गुरुपूय णिरो लक्षणमेयं तु को पदानुसारी ऋद्धि कहते हैं। ४ जो एक सूत्र- पउमस्स ।। (प्रा. पंचसं. १-१५१; धव. पु. १, पृ. पद के द्वारा बहुत से श्रुत का अनुसरण करता है ३६० उद्; गो. जी. ५१६) । २. सत्यवाक्य-क्षमोउसे पदानसारी कहा जाता है।
पेत-पण्डित-सात्विक-दानविशारद-चतुरर्जुगुरु-देवतापूपदार्थदोष-१. पदार्थदोषः यत्र बस्तुपर्यायवाचिनः जाकरणनिरतत्वादि पद्मलेश्यालक्षणम् । (त. वा. पदस्यार्थान्तरपरिकल्पनाऽऽश्रीयते । (प्राव. नि. हरि. ४, २२, १०, पृ. २३६)। ३. कसायाणभागफहयाव..८४, पृ. ३७६)। २. पदार्थदोषो यत्र वस्तुप- णमुदयमागदाणं जहण्णफद्दयपप्हुडि जाव उक्कस्सर्यायवाचिनः पदार्थस्यार्थान्तरपरिकल्पनाश्रयणम, फद्दया त्ति ठइदाणं छब्भागबिहत्ताणं विदियभागो यथा द्रव्य-पर्यायवाचिनां सत्तादीनां द्रव्यादर्था- मंदतरो, तदुदएण जादकसानो पम्मलेस्सा णाम । न्तरपरिकल्पनमुलूकस्य । (प्राव. मलय. वृ. ८८४, (धव. पु. ७, पृ. १०४); अहिंसादिसु कज्जेस पृ. ४८४)।
जीवस्स मज्झिमज्जम पम्मलेस्सा कुणइ । वृत्तं च१ वस्तु के पर्यायवाची पद के अन्य अर्थ की कल्पना चाई भद्दो चोक्खो उज्जुवकम्मो य खमइ बहनं पि । करता, दमे पदार्यदोष माना जाता है। यह ३२ गाह-गरुजणग्दो पम्मा परिणो जीनो। (वा.
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
पद्माङ्ग ]
पु. १६, पृ. ४६२ ) । ४. शक्तः क्षमी सदात्यागी देवतार्चनउद्यमी । शुचिः शीलसदानन्दः पद्मलेश्यः प्ररूपितः । ( गु. गु. षट्. स्वो वृ. ५, पृ. २०) । १ त्यागी, भद्रपरिणामी, पवित्र, सरल व्यवहार करने वाला, क्षमाशील और साधु एवं गुरुजनों की पूजा में निरत; ये पद्मलेश्या के लक्षण हैं ।
६६२, जैन-लक्षणावली
पद्माङ्ग – १. कुमुदं चउसीदिहदं पउमंगं होदि XXXI ( ति प ४ - २६६ ) । २. चतुरशीतिमहानलिनशतसहस्राण्येकं पद्माङ्गम् । (ज्योतिष्क. मलय. वृ. ६७; जीवाजी. मलय. वृ. १७८ ) ।
१ चौरासी से गुणित कुमुद प्रमाण एक पद्मांग होता है । २. चौरासी लाख महानलिनों का एक पद्मांग नाम का संख्याप्रमाण होता है । पद्मासन -- १. जंघाया मध्यभागे तु संश्लेषो यत्र जंघया । पद्मासनमिति प्रोक्तं तदारुनविचक्षणैः ॥ ( योगशा. ४ - १२६ ) । २. पद्मासनं श्रितौ पादी जङ्घाभ्याम् × × × । ( श्रन. ध. ८-८३) । १ जंघा के मध्य भाग में जहां जंघा से संश्लेश ( सम्बन्ध ) होता है, यह पद्मासन कहलाता है । परकाय क्रिया- प्रदुष्टस्य मिथ्यादृष्टेरुद्यमो यः पराभिभवात्मको वाङ्मनस निरपेक्षः सा तु परतः काक्रिया । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६ ) । अतिशय दुष्ट मिथ्यादृष्टि जीव का जो वचन और मन की अपेक्षा से रहित दूसरे के तिरस्कारस्वरूप प्रयत्न होता है उसे परकाय क्रिया कहा जाता है । परकायशस्त्र – परकायशस्त्रं पाषाणाग्न्यादि । ( श्राचारा. नि. शी. वू. १, १, ५, १५०, पृ. ५५ ) । वनस्पतिकाय से भिन्न पत्थर व अग्नि श्रादि परकायशस्त्र कहलाते हैं (द्रव्यनिक्षेपकी अपेक्षा) । परकृतसंहरण परकृतं चारण- विद्याधर- देवैः प्रत्यनीकतया ऽनुकम्पया चोत्क्षिप्यान्यत्र क्षेपणं संहरणम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १०-७, पृ. ३०६ ) । चारणऋद्विधारक, विद्याधर या देवों के द्वारा शत्रुता या अनुकम्पा से प्रेरित होकर किसी के एक क्षेत्र से उठाकर अन्य क्षेत्र में छोड़ने को परकृत संहरण कहते हैं ।
परक्षेत्र संसार - देखो क्षेत्रपरावर्त व क्षेत्रपरिवर्तन | १. सम्मूर्च्छन-गर्भोपपादजन्म-नवयोनिविक याद्यालम्बनः परक्षेत्रसंसारः । (त. वा. ६, ७, ३;
[परचरित्रचर
चा. सा. पृ. ८० ) । २. परक्षेत्रपरिवर्तनमुच्यतेसूक्ष्म निगोदः अपर्याप्तकः सर्वजघन्यावगाहनशरीरः लोकमध्याष्टप्रदेशान् स्वशरीरमध्याष्टप्रदेशान् कृत्वा उत्पन्नः क्षुद्रभवकालं जीवित्वा मृतः स एव पुनस्तेनैव अवगाहनेन द्विर्वारं तथा त्रिवारं तथा चतुर्वारं एवं यावत् घनाङ्गुलासंख्येयभागः तावद्वारं तत्रैवोत्पन्नः पुनः एकै क प्रदेशाधिकभावेन सर्वलोकं स्वस्य जन्मक्षेत्रभावं नयति । तदेतत्सर्वं परक्षेत्रपरिवर्तनं भवति । (गो. जी. जी. प्र. टी. ५६० ) ।
१ सम्मूर्च्छन, गर्भ और उपपाद इन तीन जन्मों एवं सचित्तादि नौ योनिभेदों के श्रालम्बन से जो जन्म-मरणरूप संसरण (परिभ्रमण ) होता है उसका नाम परक्षेत्रसंसार है । परघातनाम - देखो पराघातनाम । १. यन्निमित्तः परशस्त्रादेप्रातस्तत्परघातनाम । ( स. सि. ८, ११) । २. यन्निमित्तः पर शस्त्राद्याघातस्तत्परघातनाम | परशब्दोऽन्यपर्यायवाची, फलकाद्यावरणसन्निधानेऽपि यस्योदयात् परप्रयुक्तशस्त्राघातो भवति तत् परघातनाम । (त. वा. ८ ११, १४) । ३. परेषां घातः परघातः, जस्स कम्स्स उदएण परघादहेदू सरीरे पोग्गला णिप्फज्जंति तं कम्मं परघादं णाम । ( धव. पु. ६, पृ. ५६ ) ; जस्स कम्मस्सुदएण सरीरं परपीडायर होदितं परघादणामं । ( धव. पु. १३, पृ. ३६४ ) । ४. यन्निमित्तः परशस्त्राघातनं तत्परघातनाम । (त. इलो. ८-११) । ५. परस्य घातः परघातः, यस्य कर्मण उदयात्परघातहेतवः शरीरपुद्गलाः सर्पदंष्ट्रा - वृश्चिकपुच्छादिभवाः, परशस्त्राद्याघाता वा भवन्ति तत्परघातनाम । (मूला. वृ. १२, १९४) । ६. यत्कारणकः शर [पर] शस्त्राद्याघातस्तत्परघातनाम । ( भ. प्रा. मूला. २१२४) । ७. परेषां घातः परघातः, यदुदयात् तीक्ष्णशृंगनख-सर्पदाढादयो भवन्ति तत्परघातनाम । ( गो. क. जी. प्र. ३३) । ८. यदुदयेन परशस्त्रादिना घातो भवति तत्परघातनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११) । १ जिसके निमित्त से दूसरे के शस्त्र आदि से घात होता है वह परघातनामकर्म कहलाता है । ३. जिस कर्म के उदय से दूसरे का घात करने वाले शरीर में पुद्गल - जैसे सर्प की दाढ़े आदि-उत्पन्न होते हैं, उसे परघात नामकर्म कहते हैं । परचरित्रचर - १. जो परदव्वम्मि महं महं
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
परत्वापरत्व]
६६३, जैन-लक्षणावली [परप्राणातिपातजननी क्रिया रागेण कुणदि जदि भावं । सो सगचरित्तभट्टो पर- अन्य की स्त्री के सेवन का नाम परदारगमन है। चरियचरो हवदि जीवो ॥ (पंचा. का. १५६)। परदृष्टिप्रशंसा-देखो अन्यदृष्टिप्रशंसा। एका२. यो हि मोहनीयोदयानुवृत्तिवशाद् रज्यमानोपयोगः न्तध्वान्तविध्वस्तवस्तुयाथात्म्यसंविदाम् । न कुर्यात् सन् परद्रव्ये शुभमशुभं वा भावमादधाति स स्वक- परदृष्टीनां प्रशंसां दृक्कलङ्किनीम् ।। (अन. ध. चरित्रभ्रष्ट: परिचरित्रचर इति उपगीयते । यतो २-८३)। हि स्वद्रव्ये शुद्धोपयोगवृत्तिः स्वचरितम्, परद्रव्ये एकान्तरूप अन्धकार के वश जिनका वस्तुस्वरूप का सोपरागोपयोगवत्तिः परचरितमिति । (पचा. का. यथार्थ ज्ञान------अनेकान्तात्मक तत्त्व का समीचीन अमृत. वृ. २५६)।
बोध-लुप्त हो गया है वे परदृष्टि कहे जाते हैं। १ जो जीव रागवश परद्रव्य में शभ-अशुभ भाव उनकी प्रशंसा का नाम परदृष्टिप्रशंसा है जो को किया करता है वह अपने चरित्र से भ्रष्ट सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाली है। होकर परचरित्रचर कहलाता है।
परनिन्दा-परेषां भूताभूतदूषणपुरस्सरवाक्यं परपरत्वापरत्व-१. परत्वापरत्वे त्रिविध-प्रशंसा- निन्दा । (नि. सा. वृ. ६२)। कृते क्षेत्रकृते कालकृते इति । तत्र प्रशंसाकृते परो दूसरों के विद्यमान या अविद्यमान दोषों के प्रकट धर्मः परं ज्ञानमपरोऽधर्मः अपरमज्ञानमिति । क्षेत्र- करने को परनिन्दा कहते हैं। कृते एकदिक्कालावस्थितयोविप्रकृष्ट: परो भवति, परपरितापकारिणीडिया-परपरितापकारिणी सन्निकृष्टोऽपरः । कालकृते द्विरष्टवर्षाद् वर्षशतिक: पुत्र-शिष्य-कलत्रादिताडनम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. परो भवति, वर्षशतिकाद् द्विरष्टवर्षोऽपरो भवति। ६-६)। (त. भा. ५-२२)। २. अतिसमीपदेशवर्तिनि अति- पुत्र, शिष्य और स्त्री आदि के ताड़न करनेवृद्ध व्रतादिगुणहीने चाण्डाले परत्वव्यवहारो उन्हें कष्ट पहुंचाने-को परपरितापकारिणी क्रिया वर्तते, दूरदेशवर्तिनि गर्भरूपे व्रतादिगुणसहिते च कहते हैं। अपरत्वव्यवहारो वर्तते ( ? )। ते द्वे अपि परत्वापरत्वे परपरिवाद–१. परेषां परिवाद: परपरिवादो उक्तलक्षणे कालकृते ज्ञातव्ये। (त. वृत्ति श्रुत. विकत्थनम् । (स्थाना. अभय. वृ. ४६)। २. पर५-२२)।
परिवादः विप्रकीर्णम् परेषां गुण-दोषवचनम् । १परत्व व अपरत्व तीन प्रकार के हैं—प्रशंसाकृत, (प्रौपपा. अभय. व. ३४, पृ. ७६)। ३. परपरि क्षेत्रकृत और कालकृत । प्रशंसा की अपेक्षा धर्म व वादः प्रभतजनसमक्ष परदोषविकत्थनम् । (प्रज्ञाप. ज्ञान को पर तथा अधर्म और अज्ञान को अपर मलय. व. २८०, पृ. ४३८)। ४. परपरिवाद: माना जाता है। क्षेत्र की एक दिशा में स्थित दूर- विप्रकीर्णपरकीयगुण-दोषप्रकटनम् । (कल्पसू. वि. वर्ती को पर और निकटवर्ती को अपर कहा जाता व. ११८, पृ. १७४) । है। काल की अपेक्षा १६ वर्ष वाले की अपेक्षा २ अन्य जनों के विखरे हुए गुण-दोषों के कहने को १०० वर्ष वाले में पर और १६ वर्ष वाले में अपर परपरिवाद कहते हैं। का व्यवहार होता है । २ अतिसमीपदेशवर्ती, अति- परप्रणय-परकोप-प्रसादानूवत्तिः परप्रणेयः । वृद्ध और व्रतादि गुणों से विहीन चाण्डाल में (नीतिवा. २६-९८, पृ. ३४१)। परत्व का व्यवहार होता है। दूरदेशवर्ती, शिशु दूसरों के कहने से कोप या प्रसाद का अनुसरण और व्रतादि गुणों से सहित में अपरत्व का करने वाले राजा को परप्रणेय कहते हैं । व्यवहार होता है। इन दोनों परत्व-अपरत्व को परप्राणातिपातजननी क्रिया-परप्राणातिपातकालकृत जानना चाहिये।
जननी तु मोह-लोभ-क्रोधाविष्टा प्राणव्यपरोपलक्षणा परदारगमन-आत्मव्यतिरक्तो योऽन्यः स परस्त- क्रिया । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६)। स्य दाराः कलत्रं परदारास्तस्मिन् (तेषु) गमनं पर- मोह, लोभ या क्रोध के वशीभूत होकर दूसरे जीवों दारगमनम्, गमनमासेवनरूपतया दृष्टव्यम् ॥ के प्राणों का घात करने को परप्राणातिपातजननी (प्राव. हरि. व.अ. ६, पृ. ८३२) ।
क्रिया कहते हैं।
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
परम] ६६४, जैन-लक्षणावली
[परमसुख परम-तत्र परमो यः खलु निखिलमलविलयवशो- परमभावग्राहक द्रव्याथिक-गिण्हइ दव्वसहावं पलब्बविशद्धज्ञानबलविलोकितलोकालोकः जगज्जन्तु- असुद्धसुद्धोपचारपरिचत्तं । सो परमभावगाही णायचित्तसन्तोषकारणं पुरन्दरादिसुन्दरसुरसमूहाहिय- व्वो सिद्धिकामेण ।। (ल. न. च. २६; द्रव्यस्व. नय. माणप्रातिहार्यपूजोपचारः तदनु सर्वसत्त्वस्वभाषापरि- ९६)। णामिवाणीविशेषापादितककालानेकसत्त्वसंशयसन्दो- जो प्रशद्ध और शुद्ध के उपचार से रहित द्रव्य के हापोहः स्वविहारपवनप्रसरसमुत्सारितसमस्तमही- स्वभाव को ग्रहण करता है उसे परमभावग्राहक मण्डलातिविततदुरितरजोराशिः सदाशिवादिशब्दाभि- द्रव्याथिकनय कहते हैं। धेयो भगवानहन्निति, स परमः । (ध. वि. मु. वृ. परमषि-१. परमर्षयः केवलज्ञानिनो निगद्यन्ते । १-१, पृ. १)।
(चा. सा. पृ. २२)। २. परमर्षिः जगद्वेत्ति केवलजो समस्त कर्म-मल के विलीन हो जाने से प्राप्त ज्ञानचक्षुषा। (धर्मसं. श्रा.९-२८६)। हुए विशुद्ध केवलज्ञान के प्रभाव से लोक-प्रलोक १ केवलज्ञानी संयत जीवों को परमषि कहते हैं। को देखता है, समस्त संसारी प्राणियों के चित्त- परमव्रत-ततः शुद्धोपयोगो यो मोहकर्मोदयादृते । सन्तोष का कारण है, इन्द्र आदि सुन्दर देवों के चारित्रापरनामैतद् व्रतं निश्चयतः परम् ॥ (लाटीसमूह द्वारा लाये गये प्रातिहार्यों से सेवित है, समस्त सं. ४-२५८)। प्राणियों की भाषारूप परिणत होने वाली विशिष्ट मोहकर्म का प्रभाव हो जाने पर शद्धोपयोगरूप जो वाणी के द्वारा एक ही समय में अनेक जीवों के चारित्र होता है उसे निश्चय से परमवत जानना सन्देह को दूर करता है, अपने विहाररूप वायु के चाहिए। प्रसार से समस्त भूमण्डलमें अत्यन्त विस्तृत पापरूप परमसमाधि-वयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता धूलि के समूह को नष्ट करता है, तथा जो सदाशिव वीयरायभावेण । जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे आदि अनेक नामों से कहा जाता है। ऐसा प्ररहन्त तस्स ।। संजम-णियम-तवेण दु धम्म माणेण सुक्कदेव ही परम (उत्कृष्ट प्रात्मा) मानने के योग्य है। भाणेण । जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स ।। परमब्रह्म-१. अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म (नि. सा. १२२-२३) । परमम् । (बृ. स्वयम्भू. ११६) । २. परमब्रह्मसंज्ञ- वचन के उच्चारण की क्रिया को छोड़कर-वचनोनिजशुद्धात्मभावनासमुत्पन्नसुखामृततृप्तस्य सत उर्व- च्चारण के विना-वीतरागस्वरूप से जो आत्मा शी-रम्भा-तिलोत्तमाभिर्देवकन्याभिरपि यस्य ब्रह्म- का ध्यान करता है उसके परम (निर्विकल्प) चर्यव्रतं न खण्डितं स परमब्रह्म भण्यते। (ब. द्रव्य- समाधि होती है । संयम, नियम और तप के प्राश्रय सं. टी. १४, पृ. ३७) ।
से जो धर्म और शुक्ल ध्यान के द्वारा प्रात्मा का १ समस्त प्राणियों की अहिंसा--हिंसा के अभाव- ध्यान करता है उसके परमसमाधि होती है। को परमब्रह्म कहते हैं। २ परमब्रह्म नामक अपनी परमसुख-प्रात्मोपादानसिद्धं स्वयमतिशयवद्वीतशुद्ध प्रात्मा की भावना से उत्पन्न सुखस्वरूप अमृत बाधं विशालं वृद्धि-ह्रासव्यपेतं विषयविरहितं निःप्रसे जो तृप्ति को प्राप्त है तथा जिसका ब्रह्मचर्यव्रत तिद्वन्द्वभावम। अन्यद्रव्यानपेक्षं निरुपमममितं शाश्वतं उर्वशी, रम्भा और तिलोत्तमादि देवकन्याओं के सर्वकालम् उत्कृष्टानन्तसारं परमसुखमतस्तस्य द्वारा भी खण्डित नहीं किया जा सका ऐसे परम सिद्धस्य जातम् । (सिद्धभ. ७)। पुरुष को परमब्रह्म कहते हैं।
जो सुख परके सम्बन्ध से रहित होता हुआ एक परमभावजीव-जो खलु जीवसहावो णो जणि- प्रात्मारूप उपादान से उत्पन्न हुआ है, स्वयं अतिप्रो णो खयेण संभ दो। कम्माणं सो जीवो भणिो शयवान है, बाधा से रहित है, वृद्धि-हानि से इह परमभावेण ।। (द्रव्यस्व. नय. २१५)। विहीन है, विषय से उत्पन्न नहीं हुआ है, प्रतिपक्ष जो जीव का स्वभाव न उत्पन्न हया है और न से विरहित है, अन्य किसी भी बाह्य द्रव्य की अपेक्षा कों के क्षय से प्रादुर्भूत हुआ है उसे परमभाव से नहीं करता है, अनुपम व अपरिमित होता हुआ सदा जीव कहा गया है।
रहने वाला है, तथा उत्कृष्ट व अनन्त प्रभाव से
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
परमहंस] ६६५, जैन-लक्षणावली
[परमाणु युक्त है। वही परमसुख कहलाता है और वह श्च ॥ (त. भा. ५-२५ उद्.; षड्द. स. गु. वृ. ६४ सिद्धात्मा के ही सम्भव है।
उद्.) । ४. परमाणुरप्रदेशो वर्णादिगुणेषु भजनीयः । परमहंस-१. कर्मात्मनोविवेक्ता यः क्षीर-नीरसमा- (प्रशमर. २०८)। ५. सत्थेणं सुतिक्खेणवि छेत्तुं नयोः। भवेत् परमहंसोऽसौ नाग्निवत्सर्वभक्षकः ॥ भेत्तुं जं न किर सक्का । तं परमाणुं सिद्धा वयंति (उपासका. ८७६)। २. तदेवैकदेशव्यक्तिरूपविवक्षि- आई पमाणाणं ॥ (भगवती. ६, ७, ५, पृ. ८२७; तैकदेशशुद्धनिश्चयेन स्वशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखा- जं. दी. प. १३-१२; संग्रहणी २४५) । ६. एगरस मृतजलसरोवरे रागादिमलरहितत्वेन परमहंसस्व- एगवण्णे एगे गंधे तहा दुफासे वा । परमाणु रूपम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ५६) ।
Xxx ॥ (उतरा. नि. ३३, पृ. २३) । ७.पर१ जैसे हंस मिले हुए क्षीर और नीर को पृथक् कर मश्चासावणुश्च परमाणुः निरंशः । (उत्तरा. चू., पृ. देता है उसी प्रकार जो क्षीर-नीर के समान मिले २८१) । ८. xxx अविभागी होदि परमाणू ।। हुए कर्म और प्रात्मा की भिन्नता का अनुभव करता सत्थेण सुतिक्खेणं छेत्तुं भेत्तुं च ज किरस्सक्कं । जलहै वह परमहंस कहलाता है, किन्तु जो अग्नि के यणलादिहिं णासं ण एदि सो होदि परमाणू ॥ एक्कतमान सर्वभक्षक हो वह परमहंस नहीं हो सकता। रस-वण्ण-गधं दो फासा सद्दकारणमसइं। खंधंतरिदं परमागम-यदिदं जीवादिपदार्थस्वरूपनिरूपणं दव्वं तं परमाणु भणंति बुधा ॥ अंतादिमझहीणं नय-प्रमाणाद्यधिगमोपायप्रापितयूक्तिबन्ध-मोक्षादिप्र- अपदेस इंदिएहि ण ह गेझं। जं दव्वं अविभत्तं तं तिपादनसमर्थमित्येवमादीनामतिशयज्ञानानामाकरः परमाणुं कहंति जिणा ॥ पूरंति गलंति जदो पूरण
आहेत आगमः रत्नानामिवोदधिः, अतोऽस्य परमाग- गलणेहिं पोग्गला तेण । परमाणु च्चिय जादा इय मत्वम् । (त. वा. ८, १, १६)।
दिळं दिढिवादम्हि ।। वण्ण-रस-गंध-फासे पूरण-गलनय और प्रमाण प्रादि जो अधिगम के उपायभूत णाइ सव्वकालम्हि । खंदं पिव कुणमाणा परमाणू हैं उनके प्राश्रय से प्राप्त युक्ति के बलसे बन्ध- पुग्गला तम्हा ॥ आदेसमत्तमुत्तो धादुचउक्कस्स मोक्षादि के प्रतिपादन में समर्थ जो जीवादि पदार्थों कारणं जादो। सो यो परमाणु परिणामगुणो य के स्वरूप का निरूपण है वह अतिशयित ज्ञान रूप खंदस्स ।। (ति. प. १, ६५-१०१)। ६. अन्तादिरत्नों को खानिस्वरूप भगवान् अरहन्त के द्वारा मध्यहीनः अविभागोऽती न्द्रियः एकरस-वर्ण-गन्धः प्रणीत है, इसीसे उसे परमागमता सिद्ध है। द्विस्पर्शः परमाणुः । (त. वा. ३, ३८, ६)। १०, परमाणु-१.xxx परमाणू चेव अविभागी। 'अपदेसं णेव इंदिए गेझ' इदि परमाणूणं णिरवयवत्तं (पंचा. का. ७५; मूला. ५-३४); सब्वेसि परियम्मे वुत्तमिदि xxx। (धव. पु. १३, पृ. खंधाणं जो अंतो तं वियाण परमाणू । सो सस्सदो १८ उद्.); न विद्यन्ते द्वितीयादयः प्रदेशाः यस्मिन् असद्दो एक्को अविभागी मुत्तिभवो । आदेसमत्तमुत्तो सोऽप्रदेशः परमाणुः । (धव. पु. १४, पृ. ५४) । घादुचदुक्कस्स कारणं जो दु । सो णेप्रो परमाणु परि- ११. आदि-मध्यान्त-निर्मुक्तं निविभागमतीन्द्रिणामगुणो सयमसद्दो । (पंचा. का. ७७-७८); यम् । मूर्तमप्यप्रदेशं च परमाणुं प्रचक्षते ॥ (ह. पु. एयरस-वण्ण-गंधं दोफासं सहकारणमसह । खधंतरिदं ७-३२)। १२. अणवः कार्यलिङ्गाः स्यूद्विस्पर्शाः दव्वं परमाणुं तं वियाणेहि ।। (पंचा. का. ८१, परिमण्डलाः । एकवर्ण-रसा नित्याः स्युरनित्याश्च ति. प. १-६७-चतुर्थ च. 'तं परमाणु भणंति पर्ययैः ॥ (म. पु. २४-१४८) । १३. आदि-मध्याबुधा')। २. अत्तादि अत्तमझ अत्तंतं व इंदिये न्तप्रदेशः परिहीण एव परमाणुरिष्यते । (त. भा. गेझं । अविभागी जं दव्वं परमाणुं तं विप्राणाहि ।। सिद्ध. वृ. ५-११)। १४. xxx अविभागी (नि. सा. २६ स. सि. ५-२५ उद्.)। ३. अनादिर- होइ परमाणू ।। (भावसं. दे. ३०४)। १५. प्रात्मामध्योऽप्रदेशो हि परमाणुः । (त. भा. ५-११); दिरात्ममध्यश्च तथात्मान्तश्च नेन्द्रियः। गृह्यते उक्तं च-कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति योऽविभागी च परमाणुः स उच्यते ॥ (स. सा. परमाणुः । एकरस-गन्ध-वर्णो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्ग- ३-५६)। १६. उक्तानां स्कन्धपर्यायाणां योऽन्त्यो
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
परमाणु ]
भेदः स परमाणुः । ( पंचा. का. अमृत. वृ. ७७) १७ X XX परमाणुरनंशकः ॥ ( योगप्रा. २-११) । १८. Xx X अविभागी चेव परमाणू ।। (गो. जी. ६०४ ) । १६. परमाणू प्रविहा - उ असेसु । ( जसहरच. ४-१२, पृ. ८३ ) । २०. अंतादि - मज्भहीणं प्रपदे णेव इंदिए गेज्भं । जं दव्वं प्रविभागी तं परमाणू मुणेयव्वा ।। जस्स कोइ अणुदरो सो प्रणुओ होदि सव्वदव्वाणं । जावे परं तं तं परमाणू मुणेयव्वा ॥ सत्थेण सुतिक्खेण
६६६, जैन-लक्षणावली
छेत्तुं भेत्तुं च जं किर ण सक्कं । तं परमाणु सिद्धा भणंति आदि पमाणेण । ( जं. दी. प. १३, १६-१८) २१. परमाणू श्रविभागी पुग्गलदव्वं जिणुद्दिट्ठ ।। ( वसु श्रा. १७) । २२. प्रणुश्च पुद्गलोऽभेद्यावयवः प्रचयशक्तितः । कायश्च स्कन्धमेदोत्थश्चतुरस्रस्त्वतीन्द्रियः ।। ( श्राचा. सा. ३-१३) । २३. परमश्चासावात्यन्तिकोऽणुश्च सूक्ष्मः परमाणुः
णुकादिस्कन्धानां कारणभूतः । ( स्थाना. अभय वृ. ४५, पृ. २४); परमाणुः अस्कन्धपुद्गल इति । ( स्थाना. अभय वृ. १६६ ) । २४. अविभागिभूतं परमाणु । (गो. जी. जी. प्र. ६०४ ) ।
१. जो समस्त स्कन्धों के अन्तिम भेदरूप होता हुआ एक, प्रविभागी, नित्य (अनादिनिधन ) रूपादि परिनाम (मूर्ति) से उत्पन्न होने के कारण मूर्तिभव और शब्द से रहित है वह परमाणु कहलाता है । परमात्मा - १. कम्मलं कवि मुक्को परमप्पा भण्णए देवो । (मोक्षप्रा . ५ ) । २. णिस्सेसदोसर - हि केवलणाणाइपरमविभवजुदो । सो परमप्पा उच्च तव्विवरी ण परमप्पा ॥ (नि. सा. ७) । ३. X X X परमात्मातिनिर्मलः । ( समाधि. ५ ) । ४. अप्पा लद्धउ णाणमउ, कम्मविमुक्के" जेण । मेल्लिवि सयलु विदव्व परु, सो परु मुणहि मणेण ।। ( परमा १-१५) । ५. मुक्तामुक्तैकरूपो यः कर्मभिः संविदादिना । अक्षयं परमात्मानं ज्ञानमूर्ति नमामि तम् । ( स्वरूपसं . १ ) । ६. XX X परमप्पा दोसपरिचत्तो ।। दोसा छुहाइ भणिया अट्ठारस होति तिविहलोयम्मि । सामण्णा संयलजणे तेसिमभावेण परमप्पा ॥ ( भावसं. २७२-७३) । ७. ससरीरा श्ररहंता केबलणाणेण मुणियसयलत्था । णाणसरीरा सिद्धा सव्युत्तमसुक्खसंपत्ता ॥ णीसेसकम्म'णासे अप्पसहावेण जा समुप्पत्ती । कम्मजभावखए
[परमानन्ददोग्रन्थिकप्राभूत
विय सा विय पत्ती परा होदि । ( कार्तिके. १६८ - १ ) 1 ८. साकारं निर्गताकारं निष्क्रियं परमाक्षरम् । निर्विकल्पं च निष्कम्पं नित्यमानन्दमन्दिरम् ॥ विश्वरूपमविज्ञातस्वरूपं सर्वदोदितम् । कृतकृत्यं शिवं शान्तं निष्कलं करुणच्युतम् ॥ निःशेषभवसम्भूतक्लेश- द्रुमहुताशनम् । शुद्धमत्यन्तनिर्लेप ज्ञान - राज्यप्रतिष्ठितम् ॥ विशुद्धादर्श संक्रान्तप्रतिबिम्बसमप्रभम् । ज्योतिर्मयं महावीर्यं परिपूर्ण पुरातनम् । विशुद्धाष्टगुणोपेतं निर्द्वन्द्व निर्गतामयम् । अप्रमेयं परिच्छिन्नं विश्वतत्त्वव्यवस्थितम् ॥ यदग्राह्यं बहिर्भावग्रह्यश्चान्तर्मुखैः क्षणात् । तत्स्वभावात्मकं साक्षात् स्वरूपं परमात्मनः ।। (ज्ञानार्णव ३१, २२-२७, पृ. ३१२ ) ; निर्लेपो निष्कलः शुद्धो निष्पन्नोऽत्यन्तनिवृतः । निर्विकल्पश्च शुद्धात्मा परमात्मेति वर्णितः ।। (ज्ञानार्णव ३२-८, पृ. ३१७) । ६. मट्टगुणेहिं जुदो अनंतगुणभायणो णिरालंबो । णिच्छेो णिब्भेस्रो प्रणिदिदो मुणह परमप्पा ॥ ( ज्ञा. सा. ३४ ) । १०. संपुण्णचं दवयणो जडमउडविवज्जिनो णिराहरणो । पहरण- जुवइविमुक्का संतियरो होइ परमप्पा ॥ ( धम्मर. १२२ ) । ११. परमात्मा सकलप्राणिभ्य उत्तम आत्मा । ( समाधि टी. ६) । १२. चिद्रूपानन्दमयो निःशेषोपाधिवर्जितः शुद्धः । प्रत्यक्षोऽनन्तगुणः परमात्मा कीर्तितः तज्ज्ञैः ॥ ( योगशा. १२ - ८ ) । १३. गतनिःशेषोपाधिः परमात्मा कीर्तितस्तज्ज्ञैः । ( अध्या. सा. २०-२१ ) । १४. यः केवलज्ञान- दर्शनोपयुक्तः शुद्धसिद्धः स परमात्मा सयोगी केवली सिद्धश्च सः परमात्मा उच्यते । ( ज्ञा. सा. टी. १३ -२ ) । १५. परा सर्वोत्कृष्टा मा अन्तरङ्ग - बहिरङ्गलक्षणा अनन्तचतुष्टयादिसमवसरणादिरूपा लक्ष्मीर्येषां ते परमाः, ते च ते प्रात्मानः परमात्मानः । ( कार्तिके. टी. १६२ ) । १६. संसारिभ्यः परो ह्यात्मा परमात्मेति भाषितः । ( प्राप्तस्व. १८ ) ।
२ सर्व दोषों से रहित और केवलज्ञानादिरूप परमैश्वर्य से सम्पन्न शुद्ध श्रात्मा को परमात्मा कहते हैं । परमानन्द - सुस्वास्थ्यं च परमानन्दः । (ध. बि. ८-५१) ।
प्रतिशय स्वास्थ्य को परमानन्द कहते हैं । परमानन्ददो ग्रन्थिकप्राभृत — तत्थ परमाणंचदोगंधियपाहुडं जहा जिणवइणा केवलणाण- दंसणति
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
परमार्थ काल]. ६६७, जैन-लक्षणावली
[परमेश्वर (वि) लोयणेहिं पयासियासेसभुवणेण उज्झियराय- पुनर्भाविकाले संभाविनां निखिलमोह-राग-द्वेषादिदोसेण भव्वाणमणवज्जबुहायरियपणालेण पट्टविद- विविधविभावानां परिहारः परमार्थप्रत्याख्यानम् । दुवालसंगवयणकलावो तदेगदेसो वा। (जयध. पु. अथवानागतकालोद्भवविविधान्त ल्पपरित्यागः शुद्धं १, पृ. ३२५)।
निश्चयप्रत्याख्यानम् । (नि. सा. वृ. १०५)। । केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप नेत्रों के द्वारा जिसने संसार, शरीर और भोगों से विरक्ति होना; यह समस्त लोक को प्रकाशित किया है और जो राग- निश्चय प्रत्याख्यान का कारण है। प्रागामी काल द्वेष दोषों से रहित हो चुका है ऐसे जिनेन्द्र के द्वारा में उत्पन्न होने वाले समस्त राग-द्वेष-मोहादिरूप निर्मल बुद्धि से सम्पन्न प्राचार्यरूप प्रणाली के विविध विकारी भावों के परित्याग को परमार्थद्वारा-आचार्यपरम्परा से---जिस द्वादशांगरूप प्रत्याख्यान कहते हैं। अथवा भावी काल में उत्पन्न अथवा उसके एकदेशरूप वाणी को प्रस्तुत किया गया होने वाले विविध अन्तर्जल्प के परित्याग को शुद्ध है उसे परमानन्द-दोग्रन्थिकप्राभूत कहा जाता है। परमार्थ काल-१. परमार्थकालः वर्तनालिङ्गः परमावगाढरुचि-१. परमावधि-केवलज्ञान-दर्शनगत्यादीनां धर्मादिवत् वर्तनाया उपकारकः । स प्रकाशितजीवाद्यर्थविषयात्मप्रसादाः परमावगादकिस्वरूप इति चेत् उच्यते-यावन्तो लोकाकाशे रुचयः । (त. वा. ३,३६, २)। २. केवलावगमालोप्रदेशास्तावन्तः कालाणवः परस्परं प्रत्यबन्धाः एक- किताखिलार्थगता रुचिः। परमाद्यवगाढासी श्रद्धति कस्मिन्नाकाशप्रदेशे एकैकवृत्त्या लोकव्यापिनः मुख्यो- परमर्षिभिः ।। (म. पु. ७४-४४६)। ३. कैवल्यापचारप्रदेशकल्पनाऽभावानिरवयवाः। (त. वा. ५, लोकितार्थे रुचिरिह परमावादिगाढेति रूढा । २२, २४, पृ. ४८२)। २. परमट्ठो कालाणू लोय- (प्रात्मानु. १४) । ४. अवधि-सनःपर्यय-केवलाधिकपदेसे हि संठिया णिच्चं । एक्केक्के एक्केक्का अप- पुरुषप्रत्ययप्ररूढं परमावगाढम् । (उपासका. पृ.. एसा रयणरासिव्व ।। (भावसं. दे. ३१०)। ३. तत्र ११४)। ५. परमावगाढा अवधि-मनःपर्यय-केबलायावन्तो लोकाकाशप्रदेशास्तावन्तः कालाणवः पर- धिकपुरुषप्रत्ययप्ररूढा । (अन. प. २-६२)। स्परं प्रत्यबन्धा एककस्मिन्नाकाशप्रदेशे एकैकवृत्त्या १परमावधि, केवलज्ञान और केवलदर्शन से प्रकालोकव्यापिनो मख्योपचारप्रदेशकल्पनाभावान्निरव- शित जीवादि पदार्थविषयक प्रात्मप्रसन्नता जिनको गया। (चा. सा. प्र. ८०)। ४. वर्तनालक्षणश्च प्राप्त है वे परमावगाढरुचि या परमावगाढसम्यग
प्राप्त वे परमाnaam - परमार्थकाल: इति । (बृ. द्रव्यसं. टी. २१)। दृष्टि कहलाते हैं। ५. समयादिरूपसूक्ष्मव्यवहारकालस्य घटिकादिरूप- परमावती–सत्त अवंतीगंगाग्रो सा एगा परमा-' स्थलव्यवहारकालस्य च यद्युपादानकारणभूतकाल- वती। (भगवती. १५-८८, पृ. २०५५)। स्तथापि समय-घटिकारूपेण या विवक्षिता व्यवहार
सात अवंती गंगानों के परिमाणवाली गंगा को एक कालस्य भेदकल्पना तया रहितस्त्रिकालस्थायित्वेना
परमावती गंगा कहते हैं। .... नाद्यनिधनो लोकाकाशप्रदेशप्रमाणकालाणद्रव्यरूपः
परमावधिज्ञान-परमा ओही मज्जाया जस्स परमार्थकालः । (पंचा. जय. व. २६)।
णाणस्स तं परमोहिणाणं । किं परमं ? असंखेज्ज१ वर्तना जिसका हेतु है वह परमार्थकाल कहलाता है। जिस प्रकार धर्म प्रादि द्रव्य गति प्रादि के उप
लोगमेत्तसंजमवियप्पा । (धव. पु. १३, पृ. ३२३) ।
जिस ज्ञान को उत्कृष्ट मर्यादा असंख्यात लोक कारक हैं उसी प्रकार यह वर्तना का उपकारक है। लोकाकाश में जितने प्रदेश हैं उतने कालाणु परस्पर प्रमाण संयम के विकल्प हैं वह परमावधिज्ञान कह-'' में बन्ध रहित हैं और एक एक प्राकाशप्रदेश लाता है। पर एक एक स्थित होते हुए लोक को व्याप्त परमेश्वर-महत्त्वादीश्वरत्वाच्च यो महत्वरतां करते हैं।
गतः। श्रधातुकविनिर्मुक्तस्तं वन्दे परमेश्वरम् ।। परमार्थप्रत्याख्यान-xxx. ततः संसार- (माप्तस्व. २७)। शरीर-भोगतिवेगता निश्चयप्रत्याख्यानस्य कारणम् । जो महत्ता और ऐश्वर्य से युक्त होने के कारण
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
परमेष्ठिमुद्रा
महेश्वरत्व को प्राप्त है वह त्रिविध कर्म-मल से रहित परमेश्वर कहलाता है । परमेष्ठिमुद्रा- उत्तानहस्तद्वयेन वेणीबन्धं विधायाङ्गुष्ठाभ्यां कनिष्ठिके तर्जनीभ्यां च मध्यमे संगृह्यानामिके समीकुर्यादिति परमेष्ठिमुद्रा । यद्वा वामकरागुली रूर्ध्वकृत्य मध्यमां मध्यमे कुर्यादिति द्वितीया (परमेष्ठिमुद्रा) । ( निर्वाणक. पृ. ३३ ) । दोनों हाथों को ऊंचा उठाकर और उन्हें वेणी सदृश बांधकर दोनों अंगूठों से दोनों कनिष्ठिकानों को, तथा दोनों तर्जनियों से दोनों मध्यमा अंगुलियों को संगृहीत कर दोनों अनामिकानों के समीकरण को परमेष्ठिमुद्रा कहते हैं ।
६६८, जैन-लक्षणावली
परमेष्ठी - १. जो मिच्चु जरारहिदो मद - विब्भमसेद-खेद-परिहीणो । उप्पत्ति-रदिविहूणो सो परमेट्ठी वियाणाहि ।। ( जं. दी. प. १३ - ८६ ) । २. परमे इन्द्रादीनां वन्द्ये पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी । ( रत्नक. टी. १-७) । ३. परमेष्ठी परमे इन्द्रादिवन्धे पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी स्थानशीलः । ( समाधि. टी. ६ ) । ४. परमे इन्द्र-चन्द्र-नरेन्द्रपूजिते पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी । ( चारित्रप्रा. टी. १; भावप्रा. टी. १४ε)।
१ जो मृत्यु, जरा, मद, विभ्रम, स्वेद और खेद से रहित होता हुआ उत्पत्ति और रति से विहीन है उसे परमेष्ठी जानना चाहिए।
परम्पर सिद्धकेवलज्ञान - १ ततो द्वितीयादिसमयेष्वनन्तामप्यनागताद्धां परम्परसिद्धकेवलज्ञानमिति । ( नन्दी. हरि वृ., पृ. ५० ) । २. सिद्धत्वद्वितीयादिसमयेषु वर्तमानं परम्परसिद्धकेवलज्ञानम् । ( श्राव. नि. मलय. बृ. ७८, पृ. ८३ ) ।
१ सिद्ध होने के दूसरे समय से लगाकर श्रागे अन्त काल तक रहने वाले सिद्ध जीवों के केवलज्ञान को परम्परसिद्ध केवलज्ञान कहते हैं । परम्परादृष्टान्त---यः खल्वनन्तरमुक्तोऽपि परोक्षत्वादागमगम्यत्वाद्दान्तिकार्थ साधनायालं न भवति तत्प्रसिद्धये चाध्यक्षसिद्धो यौऽन्य उच्यते स परम्परादृष्टान्तः । (दशवं. नि. हरि. १४१ ) । श्रव्यवहित पूर्व में कहा गया भी जो दृष्टान्त परोक्ष या श्रागगम्य होने से अपने दान्तिक अर्थ की मिद्धि करने में समर्थ न हो तब उसकी सिद्धि के
परम्परास्थापना
लिये जो प्रत्यक्षसिद्ध अन्य दृष्टान्त दिया जाता है उसे परम्परादृष्टान्त कहते हैं । परम्पराबन्ध - बंधबिदियसमयप्पहृदि कम्मपोग्गलक्खंधाणं जीवपदेसाणं च जो बंधो सो परंपरबंधो णाम । ( धव. पु. १२, पृ. ३७० ) ।
बन्ध के दूसरे समय से लेकर जो कर्मरूप पुद्गलस्कन्धों का और जीवप्रदेशों का बन्ध होता है उसे परम्पराबन्ध कहा जाता है । परम्परालब्धि - लब्धीनां परम्परा यस्मादागमात् प्राप्यते यस्मिन् तत्प्राप्त्युपायो निरूप्यते वा सा परम्परालब्धिः श्रागमः । ( धव. पु. १३, पृ. २८३ ) । जिस श्रागम से लब्धियों को परम्परा प्राप्त की जाती है, अथवा जिसमें उनकी प्राप्ति के उपाय की प्ररूपणा की जाती है उसे परम्परालब्धि कहते हैं । यह एक प्रागमविशेष है ।
परम्परास्थापना — उब्भट्ठपरिन्नायं अन्नं लद्धं पणे घेत्थी । रिणभीया व अगारी दहित्ति दाहं सुए ठवण || नवणीयमंथुतक्कं व जाव प्रत्तट्ठिया
गिति । सुणा जाव घयं कुसणंपिय जत्तियं कालं ॥ रसक्कब-पिंडगुला मच्छंडिय खंड-सक्कराणं च । होइ परंपरठवणा अन्नत्थ व जुज्जुए जत्थ ॥ ( पिण्डनि. २८१ - ८३ ) ।
साधु के द्वारा किसी गृहिणी से दूध की याचना करने पर उसने थोड़ी देर से देने के लिए कहा । पश्चात् साधु को दूध अन्य घर से प्राप्त हो गया । उधर दूध को प्राप्त करके गृहिणी ने दूध ग्रहण करने के लिए प्रार्थना की। इस पर साधु ये कहा कि दूध मुझे प्राप्त हो गया है । यदि फिर कभी श्रावश्यकता हुई तो ले लूंगा । इस प्रकार साधु के कहने पर गृहिणी ने ऋण से भयभीत के समान उसका उपयोग स्वयं नहीं किया और दूसरे दिन दही देने के विचार से उसका दही बना लिया । पर साधु ने उसे नहीं लिया। इसी प्रकार श्रागे दही से मंथु ( छांछ और मक्खन के बीच की अवस्था ), मंथु से छांछ और छांछ से मक्खन बनाया गया, फिर भी अपने निमित्त स्थापित करने के कारण साधु ने उन्हें नहीं लिया। इसी प्रकार घी की याचना करने पर वह कुछ कम एक पूर्वकोटि काल प्रमाण ( श्रायुस्थिति ) स्थापित किया जा सकता है । पर समाधान कर उसे
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
परम्परोपनिधा ]
नहीं ग्रहण करता । इस प्रकार से स्थापित करने पर परम्परास्थापना कहलाती है। इसी प्रकार ईख के रस से उतरोत्तर कक्कब, पिण्ड और गुड़ आदि को स्थापित किया जा सकता है। परम्परोपनिधा - १. जत्थ दुगुण-चदुगुणादिपरिक्ता कीरदि सा परंपरोवणिधा । ( धव. पु. ११, पृ. ३६२ ) ; जहण्णद्वाणं पेक्खिद्ण प्रणतभागन्भहिया दिसरूवेण द्विदट्ठाणाणं जा थोव-बहुत्तपरूवणा सा परंपरोवणिधा । ( धव. पु. १२, पृ. २१४) । २. तत्र परम्परया उपनिधा मार्गणं परम्परोपनिधा । ( पंचसं मलय. वृ. १ - ९ ) । १. जिस अधिकार में दुगुने व चौगुने आदि की परीक्षा की जाती है उसका नाम परम्परोपनिधा है । २. उपनिधा का अर्थ मार्गणा या अन्वेषण होता है, तदनुसार परम्परा से स्थानादिकों का जहां अन्वेषण किया जाता है, ऐसे प्रकरण को परम्परोपनिधा कहा जाता है । परलोक - १. परलोको भवान्तरलक्षण: ( श्राव. नि. हरि. वृ. ५६६, पृ. २४१) । २. पर उत्कृष्टो वीतरागचिदानन्दै कस्वभाव आत्मा, तस्य लोकोऽवलोकनं निर्विकल्पसमाधौ वानुभवनमिति परलोकशब्दस्यार्थः, अथवा लोक्यन्ते जीवादिपदार्थां यस्मिन् परमात्मस्वरूपे यस्य केवलज्ञानेन वा स भवति लोकः, परश्चासौ लोकश्च परलोकः, व्यवहारेण पुनः स्वर्गापवर्गलक्षणः परलोको भण्यते । (परमा. वृ. १-११० ) ३. परलोको भवान्तरगतिरन्यजन्म । (श्र. मी. वसु.वृ. ८) ।
१ श्रन्य भव में जीव के जाने को परलोक कहते हैं । २ वीतराग चिदानन्दरूप अनुपम स्वभाव वाले श्रात्मा का नाम पर है, उसका जो निर्विकल्प समाधि में अवलोकन या अनुभवन है उसे परलोक कहा जाता है । अथवा जिस परमात्मस्वरूप में या जिसके केवलज्ञान के द्वारा जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं उसे परलोक जानना चाहिए । व्यवहारनय से स्वर्ग - श्रपवर्ग आदि को परलोक कहा जाता है । परलोकभय - १. परलोकभयं परभवात् ( यत् प्राप्यते ) | ( श्राव. भा. हरि. वृ. १८४, पृ. ४८३ ) । २. लोकः शाश्वत एक एव सकलव्यक्तो विविक्तात्मनः, चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येक क। लोकोऽयं न तवापरस्तव परस्तस्यास्ति तदभी:
[परलोकसंवेजनीकथा
कुतो, निःशंकं सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥ ( सयय. क. १४९ ) । ३. विजातीयातिर्यग्वादेः सकाशान्मनुष्यादीनां यद् भयं तत्परलोकभयम् । ( ललितवि. मु. प., पृ. ३८ ) । ४. यत् परभवादेवाप्यते, यथा मनुष्यस्य तिरश्चः, तिरश्चो मनुष्यात् तत्परलोकभयम् । ( श्रव. भा. मलय. वृ. १८५, पृ. ५७३) । ५. परलोकभयम् — एवंविधदुर्धरानुष्ठानाद्विशिष्टं फलं परलोके भविष्यति न वा । ( रत्नक. टी. ५-८ ) । ६. नर- तिर्यग्भ्यां देवस्य देव - तिर्यभ्यां नरस्य, देव-नराभ्यां तिरश्चः, देवान्नारकस्य च यद् भयं तत्परलोकभयम् । (गु. गु. षट्. स्वो वृ. श्लो. ६, पृ. २५) । ७. मनुष्यस्य देवा - देर्भयं परलोकभयम् । ( कल्पसू. वि. वृ. १५, पृ. ३०) । ८. परलोकः परत्रात्मा भाविजन्मान्तरांशभाक् । ततः कम्प इव त्रासो भीतिः परलोकतो ऽस्ति सा ।। भद्रं चेज्जन्म स्वर्लोके माभून्मे जन्म दुर्गतौ । इत्याद्याकुलितं चेतः साध्वसं पारलौकिकम् ॥ ( पञ्चाध्यायी २, ५१६-१७; लाटीसं. ४-४० व ४१) ।
१ परभव के श्राश्रय से जो भय होता है उसका नाम परलोकभय है । २. लोक शाश्वत व एक ही है, जो सब को प्रगट है । शुद्ध चेतन आत्मा के केवलज्ञानस्वरूप लोक का स्वयं प्रकेला अवलोकन करता है । उस को छोड़कर दूसरा और कोई तेरा लोक है ही नहीं, तब भला उसका भय कहां से हो सकता है ? नहीं हो सकता । इस प्रकार यहां निश्चयनय का श्राश्रय लेने वाले के लिए परलोक भय का निषेध किया गया है । ३ विजातीय तियँच व देव आदि से मनुष्यों श्रादि को जो भय होता है वह परलोकभय कहलाता है । ५ इस प्रकारके दुर्धर अनुष्ठान का परलोक में कुछ विशेष फल होगा कि नहीं, इस प्रकार के भय को परलोकभय कहा जाता है ।
६६६, जैन- लक्षणावली
परलोकसंवेजनीकथा - परलोगसंवेदणी जहाइस्सा-विसाद-मद-कोह -माण - लोभादिएहिं दोसेहि । देवावि समभिभूया तेसु वि कत्तो सुहं प्रत्थि ॥ इट्ठजणविप्पोगो चेव चयं चेव देवलोगाउ । एतारिसाणि सग्गे देवा वि दुहाणि पावंति ।। जइ देवे एयारिसाई दुखाइं पाविज्जंति, णरग- तिरिएसु पुण का कहा ? ( द प १०८) ।
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
परलोकाशंसाप्रयोग] ६७०, जैन-लक्षणावली
[परव्यपदेश देव भी जब ईर्ष्या, विषाद, मद, क्रोध, मान और विधानम् । (सा. घ. स्वो. टी. ४-५८) । ७. कन्यालोभादि दोषों से अभिभूत हैं; तब भला उनके दानं विवाहः, परस्य स्वपुत्रादिकादन्यस्य विवाहः परसुख कहां से हो सकता है ? इष्ट जन का वियोग विवाहः, परविवाहस्य करणं परविवाहकरणम् । (त. और देवलोक से च्युत होना, इस प्रकार के दुःखों वृत्ति श्रुत.७-२८)। को देव भी स्वर्ग में प्राप्त करते हैं। जब देवों में १ कन्यादान का नाम विवाह है, दूसरे के विवाह के इस प्रकार के दुःख पाये जाते हैं तब मनुष्यों और करने को परविवाहकरण कहा जाता है। ३ पर तियंचों का तो कहना ही क्या है, इस प्रकार को शब्द से यहां अपनी सन्तान को छोड़कर अन्य की संवेगजनक कथा परलोकसंवेजनी कथा कहलाती है। सन्तान को ग्रहण किया गया है, कन्यादान के फल परलोकाशंसाप्रयोग-एवं परलोकाशंसाप्रयोगः, की इच्छा से, अथवा स्नेह के सम्बन्ध से अन्य के परलोको देवलोकः (तस्मिन्नाशंसाभिलाषः, तस्याः पुत्र-पुत्री के विवाह करने को परविवाहकरण कहते प्रयोगः)। (श्रा. प्र. टी. २०८)।
हैं । यह ब्रह्मचर्याणुव्रत का एक अतिचार है। परभव में देवलोक के पाने की इच्छा से व्रत-तप परविस्मापक-सुरजालमाइएहिं तु विम्हयं कूणइ आदि के करने को परलोकाशंसाप्रयोग कहते हैं। तम्विहजणस्स । तेसु न विम्हयइ सयं पाहट-कूहेडपरवाद-मस्करी-कणभक्षाक्षपाद-कपिल-सौद्धोदनि- एहिं च ॥ (बृहत्क. १३०१)। चार्वाक-जैमिनिप्रभृतयस्तद्दर्शनानि च परोद्यन्ते इन्द्रजाल, पहेली और वक्रोक्ति इत्यादि के द्वारा जो दुष्यन्ते अनेनेति परवादो राद्धान्तः । (धव. पु. १३, वैसे (मूर्ख) जनों को आश्चर्यचकित करता है, पृ. २७८)।
. परन्तु स्वयं विस्मय को प्राप्त नहीं होता है, उसे जिस सिद्धान्त में मस्करी, कणभक्ष(कणाद), प्रक्षपाद, परविस्मापक कहा जाता है। कपिल, शौद्धोधनिक (बुद्ध), चार्वाक और जैमिनि परव्यपदेश-१. अन्यदातृदेयार्पणं परव्यपदेशः । आदि एवं उनके सिद्धान्त को दूषित किया जाता है (स. सि. ७-३६) । २. न्यदातृदेयार्पणं परव्यपउसका नाम परवाद है। .
देशः । अन्यत्र दातारः सन्ति, दीयमानोऽप्यन्यस्येति परविवाहकरण-१. कन्यादानं विवाहः, परस्य वा र्पणं परव्यपदेश इति प्रतिपाद्यते । (त. वा. ७, विवाहः परविवाहः, पर.िवाहस्य करणं परविवाह- ३६, ३)। ३. परव्यपदेश इति आत्मव्यतिरिक्तो करणम । (स. सि. ७-२८)। २. सद्वद्य-चारित्र- योऽन्यः स परस्तद्वयपदेश इति समासः, साधो: पौषमोहोदयाद विवहनं विवाहः। सद्वेद्यस्य चारित्रमो- धोपवासपारणकाले भिक्षा मामि
धोपवासपारणकाले भिक्षायै समपस्थितस्य प्रकटहस्य चोदयाद्विवहनं कन्यावरणं विवाह इत्याख्या- मन्नादि पश्यतः श्रावकोऽभिधत्ते परकीयमिदमिति यते । परविवाहस्य करणं परविवाहकरणम् । (त. नात्मीयमतो न ददामि, किचिद्याचितो वामिधत्ते वा. ७, २८, १; चा. सा. पृ. ६)। ३. परवि- विद्यमान एवाऽमुकस्येदमस्ति, तत्र ग वाहकरणमितीह स्वापत्यव्यतिरिक्तमपत्यं परशब्दे- तबूयमिति । (श्रा. प्र. टी. ३२७)। ४. अयमत्र नोच्यते, तस्य कन्याफललिप्सया स्नेहबन्धन वा दाता दीयमानोऽप्ययमस्येति समर्पणं परव्यपदेशः । विवाहकरणमिति । (प्राव. हरि. वृ. प्र. ६, पृ. (चा. सा. पृ. १४) । ५. परस्य प्रात्मव्यतिरिक्तस्य
२५) । ४. परविवाहकरणमन्यापत्यस्य कन्याफल- व्यपदेश: परव्यपदेशः, परकीयमिदमन्नादिकमित्येवलिप्सया स्नेहसम्बन्धन वा विवाहकरणम्, स्वापत्ये- मदित्सावतः साधुसमक्ष भणनं परव्यपदेशः । (ध ध्वपि संख्याभिग्रहो न्याय्य इति । (भा.प्र. टी. बि. मु. वृ. ३-३४)। ६. परव्यपदेशः परस्यान्यस्य २७३)। ५. परेषां स्वापत्यव्यतिरिक्तानां जनानां सम्बन्धीदं गुड-खण्डादीति विशेषेणापदेशो व्याजाविवाहकरणं कन्याफललिप्सया स्नेहसम्बन्धादिना वा द्यदि वायमत्र दाता दीयमानोऽप्ययमस्येति समर्पण परिणयविधानं परविवाहकरणम् । इह च स्वापत्ये- चतुर्थः। (सा. घ. स्वो. टी. ५-५४)। ७. अपरध्वपि संख्याभिग्रहो न्याय्यः। (ध. बि. मु.व. दातुर्देयस्यार्पणम् मम कार्यं वर्तते, त्वं देहीति परव्यप३-२६)। ६. परविवाहकरणं स्वापत्यव्यतिरिक्तानां देशः, परस्य व्यपदेशः कथनं परव्यपदेशः । अथवा कन्याफललिप्सया स्नेहसम्बन्धादिना वा परिणय- परेऽत्र दातारो वर्तन्ते, नाहमत्र दायको बतेंडात
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
परव्यपदेश]
६७१, जैन-लक्षणावली
[परसंग्रह
परव्यपदेशः। अथवा परस्येदं भक्ताद्यासं देयम्, न भावस्वरूप्यत्वादनियतगुणपर्यायत्वं परसमयः, परचमया इदमीदृशं वा देयमिति परव्यपदेशः। (त. रितमिति याबत् । (पंचा. का. अमृत. व. १५५) । वृत्ति श्रुत. ७-३६) । ८. प्रास्माकीनं सुसिद्धान्नं त्वं १जीव यद्यपि ज्ञान-दर्शनरूप स्वभाव में नियत प्रयच्छेति योजनम् । दोषः परोपदेशस्य करणाख्यो है--अवस्थित है, फिर भी मोहनीय के उदय से व्रतात्मनः ।। (लाटीसं. ६-२२६)।
विभाव में उपयोगयुक्त होकर प्राप्त परस्वरूप होने १ अन्य दाता की देय वस्तु का देना, इसका नाम से जो अनियत गण-पर्यायों-कर्मजनित रागादिपरव्यपदेश है। २ दाता दूसरे स्थान पर हैं, दी भावों को अपना मानता है, इसी का नाम परजाने वाली यह भोज्य वस्तु भी अन्य की है, इस समय है । प्रकार कहते हुए देना; यह परव्यपदेश नाम का परसमयरत-१. अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि अतिथिसंविभागवत का अतिचार है। ३ पौषधोप- सुद्धसंपयोगादो । हवदि त्ति दुक्ख मोक्खं परसमयरदो वास की पारणा के समय भिक्षा के निमित्त उप- हवदि जीवो ॥ (पंचा. का. १६५) । २. अर्हदास्थित हुए साधु को, जो प्रत्यक्ष में अन्न आदि को दिषु भगवत्सु सिद्धिसाधनीभूतेषु भक्तिबलानुरञ्जिता देख रहा है, श्रावक जो यह कहता है कि यह वस्तु चित्तवृत्तिरत्र शुद्धसम्प्रयोगः । अथ खल्वज्ञानलवादूसरे की है, मेरी नहीं है। इसलिए नहीं देता हूं। वेशाद्यदि यावज्ज्ञानवानपि ततः शुद्धसम्प्रयोगान्मोक्षो अथवा कुछ याचना करने पर यह कहता है कि यह भवतीत्यभिप्रायेण खिद्यमानस्तत्र प्रवर्तते तदा तावत् अमुक की वस्तु है, अतएव पाप वहां जाकर सोऽपि रागलवसद्भावात् परसमयरत इत्युपगीयते । खोजिए, यह परव्यपदेश नाम से प्रसिद्ध अतिथि- अथ न कि पुनर्निरङ्कुशरागकलिकलङ्कितान्तरङ्गसंविभागवत का अतिचार है।
वत्तिरितरो जन इति । (पञ्चा. का. प्रमत. व. परशरीरसंवेजनी कथा-एवं परसरीरसंवेयणी १६५)। वि-परसरीरं एरिसं चेव असुई, अहवा परस्स सरीरं १ज्ञानी होकर भी जो किंचित् अज्ञान के वश जब वण्णेमाणो सोयारस्स संवेगमप्पाएइ। (दशव.नि. तक यह मानता है कि शुद्ध सम्प्रयोग से—प्ररहन्त हरि. वृ. १६९, पृ. ११२) ।
आदि में भक्तिवश अनुरागयुक्त हुए चित्त के व्यापार दूसरे का शरीर ऐसा ही (अपने शरीर समान ही) से-दुःख से छुटकारा (मुक्ति) होता है, तब तक अपवित्र है, अथवा पर के शरीर का वर्णन करने अज्ञान का लेश बना रहने से उसे परसमयरत वाला उपदेशक चूंकि श्रोता के संवेग को उत्पन्न जानना चाहिए। करता है, इसलिए इस प्रकार की चर्चा को पर- परसमयवक्तव्यता-परसमयो मिच्छत्तं जम्हि शरीरसंवेजनी कथा कहते हैं।।
पाहुडे अणियोगे वा वणिज्जदि परूविज्जदि पण्णापरशुमुद्रा-पताकावत् हस्तं प्रसार्य अगुष्ठयोज- विज्जदि तं पाहुडमणियोगो वा परसमयवत्तव्वं, तस्स नेन परशुमुद्रा। यद्वा पताकाकारं दक्षिणकरं संहता- भावो परसमयवत्तव्वदा णाम । (धव. पु. १, पृ.
गुलिं कृत्वा तर्जन्यङ्गुष्ठाक्रमणेन परशुमुद्रा द्वितीया। ८२)। (निर्वाणक. पृ. ३२)।
परसमय का अर्थ मिथ्यात्व है, जिस प्राभूत अथवा पताका (ध्वजा) के समान दाहिने हाथ को पसार अनुयोग में उक्त परसमय का वर्णन या प्रज्ञापन कर तर्जनी से अंगूठे के मिलाने को परशुमुद्रा किया जाता है उस प्राभूत या अनुयोग का नाम कहते हैं।
परसमयवक्तव्य है, उसके भाव को परसमयवक्तपरसमय-१. जीवो सहावणियदो अणियदगुण- व्यता कहा जाता है। पज्जोध परसमग्रो । (पंचा. का. १५५)। परसंग्रह-अशेषविशेषेष्वौदासीन्यं भजमानः शुद्ध२. पुग्गलकम्मुवदेस दिदं च तं जाण परसमयं । द्रव्यं सन्मात्रभिमन्यमानः परसंग्रहः । (प्र. न. त. (समयप्रा. २)। ३. संसारिणो हि जीवस्य ज्ञान- ७-१५; स्यावादम. ३१७, नयप्र., पृ. १०२, दर्शनावस्थितत्वात् स्वभावनियतस्याप्यनादिमोहनी- जनप्त., पृ. १२७)। योदयानुवृत्तिरूपत्वेनोपरक्तोपयोगस्य सतः समपात्त- समस्त विशेषोंमें उदासीनता को स्वीकार करता हमा
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
परसंग्रहाभास ]
जो
शुद्ध सन्मात्र द्रव्य को ग्रहण करता है उसे परसंग्रह न कहते हैं ।
परसंग्रहाभास -- सत्ताद्वैतं स्वीकुर्वाणः सकलविशेषान् निराचक्षाणस्तदाभास: । ( नयप्र. पू. १०२ ) । सर्व विशेषों का निराकरण करके केवल सत्ताद्वैत को ही विषय करने वाले नय को परसंग्रहनयाभास कहते हैं । परस्परपरिहारलक्षण विरोध - परस्परपरिहारस्थितिलक्षणस्तु विरोधः सहैकत्राम्रफलादौ रूप-रसयोरिवानयोः सम्भवतोरेव स्यान्न त्वसम्भवतोः सम्भवदसम्भवतोर्वा । (प्रमेयक. ४ - १०, पृ. ५३३) । एक श्राम्रफल श्रादि में रूप और रस के समान जो सम्भव हों उनमें परस्परपरिहारस्थितिलक्षण विरोध हो सकता है, असम्भव अथवा सम्भव - श्रसम्भव में वह नहीं होता है ।
६७२, जैन-लक्षणावली
परम्पराश्रयचक्रक-- यदि स्वपक्षे प्रत्यक्षवृत्या तत्र व्यापकानुपलब्धिर्निर्णीयेत्, विपक्षव्यावृत्त्या पक्षे प्रत्यक्षवृत्तिः, पक्षे प्रत्यक्षवृत्त्या च विपक्षव्यावृत्ति - रिति परस्पराश्रयं चक्रकम् । (सिद्धिवि. वृ. ६ - २२, पृ. ४०८, पं. ७-९ ) ।
पिने पक्ष (क्षणिक) में प्रत्यक्षवृत्ति से व्यापक ( क्रम - क्रम) की अनुपलब्धि का, विपक्षव्यावृत्ति से पक्ष में प्रत्यक्षवृत्तिका ओर पक्ष में प्रत्यक्षवृत्ति से विपक्षव्यावृत्ति का निर्णय होता है तो इस प्रकार से परस्पराश्रय चक्रक्रदोष होने वाला है । परंज्योति - परं निवारणं परमातिशयप्राप्तं ज्योतिर्ज्ञानं यस्यासौ (परंज्योतिः ) ( रत्नक. १-७) । परं अर्थात् अतिशय को प्राप्त निवारण ज्ञान से युक्त प्राप्त को परंज्योति कहा जाता है । पराधात - देखो परघातनाम । १. परत्रास-प्रतिघातादिजनकं पराघातनाम । ( त. भा. ८-१२) । २. पराघातनाम यदुदयात् परानाहन्ति । ( श्रा. प्र. टी. २१) । ३. यस्य कर्मण उदयात् कश्चिद्दर्शनमात्रेणैदोजस्वी वाक्सौष्ठवेन वाऽन्यसभामप्यभिगतः सभ्यानामपि त्रासमापादयति, प्राकर्षणं परप्रतिघातं वा करोति तत्पराघातनाम | ( त. भा. हरि. वृ. ८ - १२ ) । ४. यस्य कर्मण उदयात् कश्चिदर्शनमात्रेणैवौजस्वी वाक्सौष्ठवेनान्यां सभामप्यभिगतः सभ्यानामपि त्रासमापादयति परप्रतिभाप्रतिघातं
[पराङ्गनात्याग
वा करोति तत्पराघातनाम । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ८ - १२, पृ. १५७ ) । ५. स्वशरीर - बलप्रतापादिभिः परस्याभिभवनं पराघातः । (पंचसं स्वो वृ. ३ - ९ ) । ६. तय-विस - दंत विसाई अंगावयवो य जो उ अन्नेसिं । जीवाण कुणइ घायं सो परघायस्स उ विवागो ॥ ( कर्म वि. ग. १२० ) । ७. यतोऽङ्गावयव एव विषात्मको दंष्ट्रा त्वगादिः परेषामुपघातको भवति तत्पराघातनाम । ( समवा. अभय वृ. ४२ ) । ८. यदुदयाद् दुःप्रधृष्यतया शरीराकृतिः परानाहन्त्यभिभवति तत्पराघातनाम । ( शतक. मल. हेम. वृ. ३८, पृ. ५१) । ६. यदुदयात् पुनरोजस्वी दर्शनमात्रेण वाक्सौष्ठवेन वा महानृपसभामपि गतः सभ्यानामपि त्रासमापादयति प्रतिवादिनश्च प्रतिभाविघातं करोति तत्पराघातनाम । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. २९३, पृ. ४७३; धर्मसं. मलय. वृ. ६१८; सप्तति मलय. वृ. ६; पंचसं. मलय. वृ. ३-७, पृ. ११६; कर्मप्र . यशो. वृ. १, पृ. ७) । १०. यदुदयात् परानाहन्ति दुष्प्रधृष्यतया शरीराकृतेरभिभवति तत्पराघातनाम । ( कर्मस्त. गो. वृ. १०, पृ. २०) ११. यदुदयादोजस्वी दर्शनमात्रेण वाक्सौष्ठवेन वा नृपसभामपि गतः सभ्यानामपि क्षोभमापादयति प्रतिपक्षप्रतिघातं च विधत्ते तत्पराधातनाम । ( प्रव. सारो. वृ. १२५१ ) । १२. परानाहत्ति पराघातनाम, य कर्मण उदथे आत्मावयवैः परं हन्ति । ( कर्मवि. पू. व्या. ७२, पृ. ३३) । १३. यदुदयात् परेषां दुष्प्रधर्षः महौजस्वी दर्शनमात्रेण वाक्सौष्ठवेन वा महाभूपसभामपि गतः सभ्यानामपि क्षोभमुत्पादयति प्रतिपक्षप्रतिभाप्रतिघातं च करोति तत्पराधातनाम । ( कर्मवि. दे. स्वो वृ. ४३, पृ. ५३ ) ।
१ जो दूसरों को कष्ट देनेवाला या उनका घात आदि करने वाला है उसे पराघातनामकर्म कहते हैं । ३ जिसके उदय से कोई दर्शन मात्र से ही प्रोजस्वी (दीप्तिमान् ) होता है अथवा सभामें वचन - चातुर्य से सभ्य जनोंको भी दुःख देता है, श्राकर्षण या दूसरों का प्रतिघात करता है उसे पराधात नामकर्म कहते हैं ।
पराङ्गनात्याग -- मातृवत्परनारीणां परित्यागस्त्रिशुद्धितः । स स्यात् पराङ्गनात्यागो गृहिणां शुद्धचेतसाम् || (भावसं वाम. ४५५ ) ।
माता के समान परस्त्रियों के सेवन करने का मन,
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
पराजय ]
[परावर्त
वचन व काय से जो परित्याग किया जाता है वह परांगनात्यागव्रत कहलाता है ।
करण—दाता के पुण्यबन्ध का कारण होने से परोपकरण -- जानना चाहिए ।
पराजय — प्रसिद्धिः पराजयः । ( प्रमाणमी. २, १, परार्थप्रत्यक्ष- प्रत्यक्षपरिच्छिन्नार्थाभिधायि वचनं ३४) । परार्थप्रत्यक्षं परप्रत्यक्षहेतुत्वात् । ( प्र. न. त.
वादी अथवा प्रतिवादी के अपने पक्ष की सिद्धि नहीं ३-२४) ।
कर सकने का नाम पराजय है ।
६७३, जैन- लक्षणावली
परात्मा - देखो परमात्मा । परात्मा संसारिजीवेभ्यः उत्कृष्ट आत्मा । ( समाधित. टी. ६) । संसारी जीवों से उत्कृष्ट आत्मा को परात्मा या परमात्मा कहा जाता है । परानवकाङ्क्षक्रिया - तथा चानाद्रियमाणः परपावकाङ्क्षतीति परानवकाङ्क्षत्रिया । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६ ) ।
अनादरको प्राप्त होकर जो दूसरे को भी नहीं चाहता है, इसका नाम परानवकाङ्क्षक्रिया । परा प्राप्ति - णीसेसकम्मणासे अप्पसहावेण जा समुप्पत्ती । कम्मजभावखए विय सा वि य पत्ती परा होदि । ( कार्तिके. १६६) ।
सब कर्मों के नष्ट हो जाने पर जो शुद्ध श्रात्मस्वभाव की प्राप्ति होती है उसे परा प्राप्ति कहते हैं । श्रथवा कर्मजनित प्रौदयिकादि भावों का अभाव हो जाने पर जो प्राप्ति होती है उसे भी परा प्राप्ति कहा जाता है ।
परार्थ (श्रत ) - परं पुनः शब्दप्रयोगरूपं परविप्रतिपत्तिनिराकरण फलत्वात् परार्थम् । ( श्रन. घ. स्वो. टी. ३-५ ) ।
जिल शब्दप्रयोग का फल दूसरों के विरोध को दूर करना है वह परार्थश्रुत कहलाता है। इसे द्रव्यश्रुत भी कहा जाता है ।
परार्थ (गुण) - परार्थाः स्वात्मसम्बन्धिगुणाः शेषाः सुखादयः । (लाटीसं. ३-५३) ।
ज्ञान के अतिरिक्त जो शेष सुखादि गुण हैं वे परार्थ गुण माने जाते हैं ।
परार्थ करण - विहितानुष्ठानपरस्य तत्त्वतो योगशुद्धिसचिवस्य । भिक्षाटनादिसर्वं परार्थकरणं यतेज्ञयम् ॥ ( षोडशक. १३-५, पृ. ८७ ) । श्रागमोक्त अनुष्ठान का यथार्थतः पालन करते हुए जो साधु मन, वचन व काय की शुद्धि से सहित है उसके भिक्षा के लिये विचरण श्रादि सबको पार्थल. ८५
प्रत्यक्ष से जाने हुए पदार्थ के वचन को परके प्रत्यक्ष में प्रत्यक्ष कहा जाता है । परार्थाधिगम- परार्थाधिगमः शब्दरूपः । ( सप्तभं. पृ. १ )
शब्दरूप ज्ञान को परार्थाधिगम कहते हैं । परार्थानुमान - १. स्वनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनं बुधैः । परार्थं मानमाख्यातं वाक्यं तदुपचारतः ॥ साध्याविनाभुवो हेतोर्वचो यत्प्रतिपादकम् । परार्थमनुमानं तत्पक्षादिवचनात्मकम् ॥ ( न्यायाव. १० व १३) । २. तत्- ( स्वार्थानुमान ) प्रतिपादकं वचो हेतुः परार्थमित्यर्थः । ( नन्दी. हरि वृ., पृ. ६२) । ३: परार्थं तु तदर्थ परामशिवचनाज्जातम् । तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात् । ( परीक्षा. ३, ५०-५१ ) । ४. पक्ष - हेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमुपचारात् । (प्र. न. त. ३-२३) । ५. तत्प्रतिपादकं वचो हेतुः परार्थम् । (उपवे. मु. वृ. ४८ ) । ६. यथोक्तसाधनाभिधानजः परार्थम् । ( प्रमाणमी. २, २, १) । ७. परोपदेशमपेक्ष्य साधनात्साध्यविज्ञानं तत्परार्थानुमानम् । प्रतिज्ञा- हेतुरूपपरोपदेशवशाच्छ्रोतुरुत्पन्नं साधनात्साध्य विज्ञानं परार्थानुमानमित्यर्थः । ( न्यायदी., पृ. ७५) । ८. यल्लक्षणो मतो हेतुः स्वार्थसंवित्त ये परम् । वाचाभिधीयमानस्तु परार्थं सानुमोच्यते । ( प्रमाल. ५५ ) । ६. पक्ष - हेतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमुपचारात् । (षड्द. स. गुण. वृ. ५५, पृ. २१०) ।
१ अपने निश्चय के समान अन्य जनों के लिए निश्चय के उत्पादक वाक्य को उपचार से परार्थानुमान कहा जाता है । साध्य के अविनाभावी हेतु के प्रतिपादक वचन को परार्थानुमान कहते हैं जो पक्ष आदि के वचनस्वरूप है । परावर्त - १. परावर्तोऽनन्तोत्सर्पिण्य वस पिण्यात्मकः । स च द्रव्यादिभेदभिन्नः प्रवचनादवसेयः । ( श्राव. नि. हरि. बृ. ६६३ ) । २. परावर्तः पुद्गलपरावर्त:, स
प्रतिपादन करनेवाले कारण होने से परार्थ
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
परावर्त दोष]
६७४, जैन-लक्षणावली [परिकर्ममिश्रद्रव्योपक्रम चानन्तोत्सपिण्यवसर्पिणीप्रमाणः, ते अनन्ताः अतीतः परिवर्तित कर साधुओं के लिए देता है, इससे पराकालः अनन्ता एवानागतः कालः। (प्राव. भा. वर्तित नाम का दोष उत्पन्न होता है। मलय. वृ. २००, पृ. ५९३)।
परिकर्म-१. परिकर्म द्रव्यस्य गुणविशेषपरि१परावर्त अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी प्रमाण णामकरणम् । (प्राव. नि. हरि. वृ. ७६, पृ. ५४; है जो द्रव्य-क्षेत्रादि के भेद से अनेक प्रकार का है। व्यव. भा. मलय. व. १, पृ. १; प्राव. नि. मलय.
दोष-बीहीकूरादीहिं य सालीकूरादियं तु व. ७६, प. १०)। २. परिकर्म नाम योग्यतापादजं गहिदं । दातुमिति संजदाणं परियट्ट होदि णा- नम्, तद्धेतुः शास्त्रमपि परिकर्म । (नन्दी. सू. मलय. यव्वं ।। (मूला. ६-१८)।
वृ. ५६) । ३. ततः परितः सर्वतः कर्माणि गणितसाधुनों को देने के लिए अपने ब्रीहि धान के भात करणसूत्राणि यस्मिन् तत्परिकर्म । (गो. जी. मं. प्रावि को दूसरे के लिए देकर बदले में शालि धान प्र. टी. ३६१) । ४. तत्रावस्थितस्यैव द्रव्यस्य गुणके भात प्रादि का लेना और साधुओं को देना, यह विशेषापादनं परिकर्म । (जम्बूद्वी. शा. वृ. पृ. ५)। संयतों (साधुनों) को परावर्त दोष का जनक दव्य के गणविशेष का जो परिणमन किया जाता होता है।
है, इसका नाम परिकर्म है। २ योग्यता को उत्पन्न परावर्तन-ग्रन्थस्य पुनः पुनरभ्यसनं परावर्तनम् ।
करना, इसे व इसके कारणभूत शास्त्र को भी परि(अनुयो. हरि. वृ. पृ. १०)।
कर्म कहा जाता है । ३ जिस ग्रन्थ में गणितविषयक ग्रन्थ के पुनः पुनः अभ्यास करने को परावर्तन
करणसूत्र उपलब्ध होते हैं वह परिकर्म कहलाता है। कहते हैं। परावर्तमान प्रकृति- १. विणिवारिय जा गच्छइ
परिकर्मकालोपक्रम-कालस्योपक्रमः परिकर्मणि
चन्द्रोपरागादेर्यथावस्थितमर्वागेव परिज्ञानकरणम् । बंधं उदयं च अन्नपगईए। साहु परियत्तमाणी x
(व्यव. मलय. वृ. १, पृ. २)। xx॥ (पंचसं. च. ३-४४) । २. विनिवार्य या
चन्द्रग्रहण प्रादि के नियत काल से पहले ही जान गच्छति बन्धमुदयं वा अन्यप्रकृतेः, सा हु परावर्त
लेने को परिकर्मविषयक कालोपक्रम कहते हैं। माना xxx विनिवार्य विनिवान्यस्याः प्रकृतेर्या स्वतो बन्धमुदयमुभयं वा याति सा परावर्त
वा यात मागवई परिकर्मक्षेत्रोपक्रम-तत्र परिकर्मणि क्षेत्रोपक्रमो माना। (पंचसं. च. स्वो. व. ३-४४) । ३..या नावा समुद्रस्योल्लंघनं हल-कुलिकादिभिर्वा इक्ष्वादिप्रकृतिरन्यस्याः प्रकृतेबन्धमदयं वा निवार्य स्वयं क्षेत्रस्य परिकर्मणा । (आव. नि. मलय. व. ७६, बन्धमदयं वा गच्छति सा ह निश्चितं परावर्तमाना। पृ. ६१)। (पंचसं. मलय. व. ३-४४)। ४. याः प्रकृतयोऽन्य- नावसे जो समुद्र का उल्लंघन किया जाता है इसे स्याः प्रकृतेर्बन्धमुदयमभयं वा विनिवार्य स्वकीयं परिकर्मविषयक क्षेत्रोपक्रम कहते हैं । अथवा हल बन्धमुदयमुभयं वा दर्शयन्ति ताः परावर्तमानाः। व कुलिक प्रादि से जो ईख प्रादि के खेत का परिकर्म
यत प्रत्यपाटि विनिवारियजा गच्छद (संस्कार) किया जाता है, इसे परिकर्मक्षेत्रोपक्रम बंधं उदयं च अन्नपगईए। सा ह परियत्तमाणी अणिवारंती अपरियत्ता ।। (शतक. दे. स्वो. वृ. १, परिकर्ममिश्रद्रव्योपक्रम-१. मिश्रद्रव्योपक्रमः
परिकर्मणि कटकादिभूषितपुरुषादिद्रव्यस्य गुणवि१ जो प्रकृति अन्य प्रकृति के बन्ध या उदय को शेषकरणम् । (व्यव. मलय. वृ. १, पृ. २)। रोक करके स्वयं ही बन्ध या उदय को प्राप्त होती २. मिश्रद्रव्योपक्रम: परिकर्मणि कटकादिविभूषितहै उसे परावर्तमान प्रकृति कहते हैं।
पुरुषादिद्रव्यस्य शिक्षापादनम् । (प्राव. नि. मलय. परावर्तित-देखो परावर्तदोष । यत्पुनः परावर्त्य वृ. ७६, पृ. ६१)। गृही यतिभ्यो दत्त तत् प्रा (परा)वर्तितम् । (गु. गु. १ कटक प्रादि प्राभूषणों से विभूषित पुरुष के षट्, स्वो. वृ. २०, पृ. ४८)।
गुणविशेष के करने को परिकर्मविषयक मिश्रद्रव्योगृहस्थ जो किसी एक भोज्य वस्तु से दूसरी को पक्रम कहते हैं ।
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिकर्मसचित्तचतुष्पदद्रव्यो.] ३७५, जैन-लक्षणावली
[परिग्रह परिकर्मसचित्तचतुष्पदद्रव्योपक्रम-१. तस्मिन् १ व्यंजनों के मध्य में स्थित अन्न को परिखा कहते (परिकर्मणि) सचित्तचतुष्पदद्रव्योपक्रमो यथा हैं। २ जो ऊपर विस्तृत और नीचे संकुचित होती हस्त्यादेः शिक्षापादनम् । (व्यव. मलय. वृ. १, पृ. है वह परिखा कहलाती है । इसका निर्माण दुर्ग के २)। २. तथा चतुष्पदानां हस्त्यादीनां शिक्षागुण- सब ओर सुरक्षा के लिए कराया जाता है। विशेषकरणं चतुष्पदोपक्रमः । (प्राव. नि. मलय. व. परिगृहीता-१. या एकपुरुषभर्तृका सा परिगृही. ७६, पृ. ६१)।
ता। (स. सि. ७-२८; त. वा. ७, २८, २)। १हाथी प्रादि चौपाये जानवरों के लिए शिक्षा प्रदान २. एकपुरुषभर्तृका या स्त्री भवति सधवा विधवा करने को परिकर्मसचित्तचतुष्पदद्रव्योपक्रम कहते हैं। वा सा परिगृहीता संबद्धा। (त. वृत्ति श्रुत.७, परिकर्मसचित्तद्विपदद्रव्योपक्रम-१. द्रव्यस्य २८)। गुणविशेषपरिणामकरणं परिकर्म, सचित्तद्विपदद्रव्यो- १ जिस स्त्री का स्वामी एक पुरुष होता है उसे पक्रमो यथा पुरुषस्य वर्णादिकरणम । (व्यव. मलय. पा गृहीता कहते हैं वृ. १, पृ. १) । २. तत्र परिकर्मणि द्विपदोपक्रमो परिग्रह-१. मूर्छा परिग्रहः । (त. सू. ७-१७; यथा पुरुषस्य वर्णादिकरणमथवा कर्ण-स्कन्धवर्द्ध- श्वे. त. सू. ७-१२) । २. ममेदंबुद्धिलक्षणः परिनादि । (प्राव. नि. मलय. वृ. ७६, पृ. ६१)। ग्रहः । (स. सि. ६-१५)। ३. चेतनावत्स्वचेतनेषु १ पुरुष के वर्ण प्रादि के करने को परिकर्मसचित्त- च बाह्याभ्यन्तरेषु द्रव्येषु मूर्छा परिग्रहः । (त. भा. द्विपदद्रव्योपक्रम कहते हैं।
७-१२)। ४. लोभकषायोदयान्मच्र्छा परिग्रहः। परिकर्मसचित्तापदद्रव्योपक्रम-१. सचित्तापद
कषायवेदनीयस्य उदयामूर्छा संकल्पः परिग्रह इत्या
लोभख्यायते। (त. वा. ४, २१, ३); ममेदमिति द्रव्योपक्रमो यथा वृक्षादेवृक्षायुर्वेदोपदेशात् वृद्धयादि
संकल्पः परिग्रहः। ममेदं वस्तु, अहमस्य स्वामीत्यागुणकरणम् । (व्यव. मलय. वृ. १, पृ. २) ।
त्मात्मीयाभिमानः संकल्पः परिग्रह इत्युच्यते । (त. २. अपदानां वृक्षादीनां वृक्षायुर्वेदोपदेशाद्वार्द्धक्यादिगुणापादनमपदोपक्रमः । (प्राव. नि. मलय. वृ. ७६,
वा. ६, १५, ३)। ५. मूर्छालक्षणा परिग्रहसंज्ञा ।
(त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. २-२५); सचित्तापृ. ६१)। १ वृक्ष प्रादि विषयक आयुर्वेद के उपदेशानुसार
चित्त-मिश्रेषु द्रव्यादिषु शास्त्राननुमतेषु ममत्वं परि
ग्रहः । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ७-१)। उनकी वृद्धि प्रादि गुणों के करने को परिकर्मविषयक सचित्त-अपवद्रव्योपक्रम कहते हैं।
६. मुच्छा परिग्गहो ति य xxx ॥ (जयष.
१, पृ. १०५ उद्.) । ७. गवाश्व-मणि-मुक्तादौ चेतपरिकर्माचित्तद्रव्योपक्रम-१. अचित्तद्रव्योप
नाचेतने धने । बाह्येऽबाह्ये च रागादौ हेयो मुर्छाक्रमः परिकर्मणि यथा पद्मरागमणेः क्षार-मृत्-पुटपा
परिग्रहः । (ह. पु. ५८-१३३)। ८. चेतनाचेतनकादिना नैर्मल्यापादनम् । (व्यव. मलय. वृ., पृ.
वस्तुस्पशिनो मूर्छाविशेषाः परिग्रहाः । (त. भा. २) । २. अचित्तद्रव्योपक्रमः परिकर्मणि यथा पद्म
सिद्ध. वृ. ७-७)। ६. ममेदंभावो मोहोदयजः रागमणेः क्षार-मृत्पुटपाकादिना वैमल्यापादनम् ।
परिग्रहः । (भ. प्रा. विजयो. ५७) । १०. ममेद(पाव. नि. मलय. व. ७६, पृ. ६१)।
मिति संकल्परूपा मूर्छा परिग्रहः । (त. सा. ४, पनरागमणि प्रादि प्रचेतन पदार्थों के क्षार (राख) ७७)। ११. या मूर्छा नामेदं विज्ञातव्यः परिग्रहो व मिट्टी आदि के द्वारा निर्मल करने को परिकर्मा- ह्येषः । मोहोदयादुदीर्णो मूर्छा तु ममत्वपरिणामः ।। चित्तद्रव्योपक्रम कहते हैं।
(पु. सि. १११) । १२. ममेदमिति संकल्पो बाह्यापरिखा-१. परिखा व्यञ्नमध्यावस्थितान्नम्। भ्यन्तरवस्तुषु । परिग्रहो मतस्तत्र कुर्याच्चेतोनिकुञ्च(भ. पा. २२०) । २. परिखा उपरि विशाला अधः नम् ।। (उपासका. ४३२)। १३. परिग्रहः पापासङ्कुचिता । (जीवाजी. मलय. वृ. ११७; जम्बूद्वी. दानोपकरणकांक्षा। (मूला. वृ. ११-६)। १४. शा. वृ. १२) । ३. परिखा व्यञ्जनमध्यस्थितकूरम् । परिग्रहः स्वस्वामिभावेन मूर्छा, सा च प्राणिनाम(भ. प्रा. मूला. २२०)।
तिलोभात् सकलवस्तुविषयापि प्रादुर्भवति । (प्रज्ञाप.
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिग्रह]
६७६, जैन-लक्षणावली [परिग्रहत्यागमहाव्रत मलय. वृ. २८०, पृ. ४३८); परिग्रहो धर्मोपकरण- विमुच्यते येन परिग्रहोऽसौ गीतोऽपसङ्रपरिग्रहोवर्जवस्तुस्वीकारः धर्मोपकरणमूर्छा च । (प्रज्ञाप. सौ ॥ (अमित. श्रा. ७-७५) । ५. मोत्तूण वत्थमलय. व. २८४, पृ. ४४६) । १५. ममेदमिति मेत्तं परिग्गहं जो विवज्जए सेसं । तत्थ वि मच्छं ण संकल्पश्चिदचिन्मिश्रवस्तुषु । ग्रन्थः Xxx॥ करेइ जाणइ सो सावो णवमो। (वसु. श्रा. (सा. घ. ४-५६)। १६. लोभकषायस्योदयेन २६६)। ६. दशधा ग्रन्थमुत्सृज्य निर्ममत्वं भजन विषयेष्वासंगः परिग्रहः । (त. वृत्ति श्रुत. ४-२१); सदा । सन्तोषामृतसन्तृप्तः स स्यात्परिग्रहोज्झितः ॥ परिगृह्यते इति परिग्रहः ममेदम् इति बुद्धिलक्षणः। (भावसं. वाम. ५४१)। ७. योऽष्टव्रतदृढो ग्रन्थान् (त. वृत्ति श्रुत. ६-१५); परि समन्ताद् गृह्यते मुञ्चतीमे न मेऽहकम् । नैतेषामिति बुद्धया स परिपरिग्रहो मनोमू लक्षणः ग्रहणेच्छालक्षणः परि- ग्रहविरक्तधीः ॥ (धर्मसं. श्रा. ८-३६)। ग्रह उच्यते। (त. वृत्ति श्रुत. ७-१); मूर्छ नं १ जो क्षेत्र-वास्तु प्रादि दश प्रकार के बाह्य परिग्रह मर्छा, परिगह्यते परिग्रहः, या मूर्छा सा परिग्रह में ममता को छोड़कर निर्मम होता हा स्वस्थ इत्युच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७-१७)। १७. परि होकर सन्तोष को धारण करता है वह परिग्रह से समन्ताद् ग्रहः ग्रहणरूपः परिग्रहः । तत्र द्रव्यतः धन- रहित-नौवीं प्रतिमा का धारक होता है। धान्यादि, भावतः परवस्त्विच्छापरिणामः । (ज्ञा. परिग्रहत्यागमहाव्रत-१. अहावरे पंचमे भंते सा. वृ. २५, पृ. ८४)। १८. सर्वभावेषु मूर्छा- महव्वए परिग्गहारो वेरमणं-सव्वं भंते परिग्गहं लक्षणः परिग्रहः । (शास्त्रवा. टी. ३, पृ. ५)। पच्चक्वामि, से अप्पं वा बहुं वा अणु वा थूलं वा २'यह मेरा है' इस प्रकार की जो ममत्वबुद्धि होती चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं परिग्गहं परिहै उसे परिग्रह कहा जाता है। ३ चेतन-अचेतन गिहिज्जा नेवऽन्नेहिं परिग्गहं परिगिण्हा विज्जा बाह्य और अभ्यन्तर द्रव्यों में होने वाली ममत्व- परिग्गहं परिगिण्हते वि अन्ने न समजाणिज्जा बद्धि का नाम परिग्रह है। १४ धर्मोपकरणों को जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं छोडकर अन्य वस्तुमो को स्वीकार करना तथा न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणजाधर्मोपकरणों से ममत्वभाव रखना, यह परिग्रह का णामि, तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि लक्षण है।
अप्पाणं वोसिरामि। पंचमे भंते महव्वए उवद्विपरिग्रह किया-देखो पारिग्रा हिकी क्रिया। बहू- प्रोमि सव्वाअो परिग्गहारो वेरमणं । (दशवै. सू. पायार्जन-रक्षण-मूर्छालक्षणा परिग्रहक्रिया । (त. ४-७, पृ. १४८-४६; पाक्षिकसू. पृ. २६) । भा. सिद्ध. वृ. ६-६)।
२. सव्वेसिं गंथाणं तागो णिरवेख भावणापूव्वं । विविध उपायों से भोगोपभोग की सामग्री के उपा- पंचमवदमिदि भणिदं चारित्तभरं दहंतस्स ॥ (नि. जन करने, उसका रक्षण करने और उसमें मू. सा. ६०)। ३. xxxपंचम संगम्मि विरई य ॥ रखने को परिग्रहक्रिया कहते हैं।
(चा. प्रा. २६)। ४. जीवणिबद्धाबद्धा परिग्गहा परिग्रहत्याग प्रतिमा-१. बाह्येषु दशसु वस्तुषु जीवसंभवा चेव । तेसिं सक्कच्चागो इयरम्हि य ममत्वमत्सज्य निर्ममत्वरतः । स्वस्थः सन्तोषपरः णिम्ममोऽसंगो। (मूला. १-६); गामं णगरं रणं परनिनपरिग्रहाद्विरतः ॥ (रत्नक. ५-२४) । थलं सच्चित्त बह सपडिवक्खं । अज्भत्य बाहिरस्थं २. जो परिवज्जइ गंथं अभंतर-बाहिरं च साणंदो। तिविहेण परिग्गहं वज्जे ॥ (मूला. ५-६६)। पति मण्णमाणो णिग्गंथो सो हवे णाणी ॥ ५. अब्भंतर-बाहिरए सव्वे गंथे तुम विवज्जेहि। कद(कातिके. ३८६) । ३. परिग्रहविनिवृत्तः- कारिदाणुमोदेहिं काय-मण-वयणजोगेहिं ॥ (भ.प्रा.
धादिकषायाणामार्त-रौद्रयोहिंसादिपंचपापानां भ- १११७)। ६. बाह्याभ्यन्तरवतिभ्यः सर्वेभ्यो विरयस्य च जन्मभूमिः दूरोत्सारितधर्म्य-शुक्लः परिग्रह तिर्यतः । स्वपरिग्रहदोषेभ्यः पंचमं तु महाव्रतम् ॥ इति मत्वा दशविधबाह्यपरिग्रहाद्विनिवृत्तः स्वच्छः (ह. पु. २-१२१)। ७. पंचमगो गामादिस अप्पसन्तोषपरो भवति । (चा. सा. पृ. १६) । ४. यो बहुविवज्जणेमेव । (धर्मसं. ८६०)। ८. बाह्यमाजोगा-नवरत्वैर्ददाति दुःखानि दुरुत्तराणि । भ्यन्तरं संगं कृत-कारित-मोदनैः । विमंचस्व सदा
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिग्रहत्यागमहावत] ६७७, जैन-लक्षणावली [परिग्रहपरिमाणाणुव्रत साधो मनोद.क्कायवर्मभिः ।। (भ. प्रा. अमित. प. परिमाणतः । बुद्ध यच्छापरिमाणाख्यं पंचमं तदण११५४)। ६. दश ग्रन्था मता बाह्या अन्तरङ्गाश्च- व्रतम् ॥ (ह. पु. ५८-१४२)। ८. योऽपि न शक्यतुर्दश । तान् मुक्त्वा भव निःसंगो भावशुद्धया भृशं स्त्यक्तुं धन-धान्य-मनुष्य-वास्तु-वित्तादिः। सोऽपि मुने ।। (ज्ञाना. १६-३, पृ. १७६)। १०. एतस्मान्म- तनूकरणीयो निवृत्तिरूपं यतस्तत्वम् ॥ (पृ. सि. नसः कृत-कारितानुमोदितेन, वचसः कृत-कारितानु- १२८)। ६. जो लोहं णिहणित्ता संतोस-रसायणेण मोदितेन, कायस्य कृत-कारितानुमोदितेन च विरति- संतुट्ठो। णिहणदि तिण्हा दुट्ठा मण्णंतो विणस्सरं रपरिग्रहलक्षणं व्रतम् । (चा. सा. ४३)। ११. चेत- सव्वं ।। जो परिमाणं कुम्वदि धण-धण्ण-सुवण्णनेतरबाह्यान्तरंगसंगविवर्जनम् । ज्ञान-संयमसंगो वा खित्तमाईणं। उवनोगं जाणित्ता प्रणव्वदं पंचम निर्ममत्वमसंगता ॥ (प्राचा. सा. १-२०); या तस्स ॥ (कातिके. ३३६-४०)। १०. वास्तु क्षेत्र मूर्छाच्छेदिनी संगे चेतोवृत्तिरसंगता । यया साऽऽत्य- धान्यं दासी दासश्चतुष्पदं भाण्डम । परिमेयं कर्तव्यं न्तिकी मुक्ति-श्रीरुपैति यति स्वयम् ॥ (प्राचा. सा. सर्व सन्तोषकुशलेन ।। (अमित. श्रा. ६-७३) ।
११. सद्म-स्वर्ण-धरा-धान्य-धेनु-भृत्यादिवस्तुनः । या १ पांचवें महाव्रत में परिग्रह से विरत होना पड़ता गृहीतिः प्रमाणेन पंचमं तदणुव्रतम् ॥ (सुभा. सं. है-मैं अल्प व बहुत, अणु व स्थल तथा सचेतन व ७८७)। १२. जं परिमाणं कीरइ धण-धण्ण-हिरण्णअचेतन सब प्रकार के परिग्रह को न स्वयं ग्रहण कंचणाईणं। तं जाण पंचमवयं णिहिटमवासयज्झकरूंगा,न दूसरों को ग्रहण कराऊंगा और उसे ग्रहण यणे ॥ (वसु. श्रा. २१३) । १३. ममेदमिति करते हए दूसरों का अनमोदन भी नहीं करूंगा। संकल्पश्चिदचिन्मिश्रवस्तुषु । ग्रन्थस्तत्कर्शनात्तेषां मैं मन, वचन एवं काय तीन प्रकार से न स्वयं कर्शनं तत्प्रमाव्रतम् ॥ (सा. ध. ४-५६)। १४. करता हूं, न कराता हूं, और न करते हुए अन्य की हिंसानृतवचःस्तेय-स्त्रीमैथुन-परिग्रहात् । देशतो विअनुमोदना करता हूं। उसके लिये मैं निन्दा व रति या पञ्चधाणुव्रतस्थितिः ॥ (धर्मश. २१, गर्दा करता हूं तथा उसका परित्याग करता हूं। १४२)। १५. चेतनेतरवस्तूनां यत्प्रमाणं निजेच्छइस प्रकार के नियमपूर्वक पूर्ण रूप से परि- या। कुर्यात् परिग्रहत्यागं स्थूलं तत्पंचमं व्रतम् ।। ग्रह का त्याग करना, यह पांचवां महावत है। (धर्मसं. श्रा. ६-७२)। १६. धन-धान्यादिवस्तनां २ क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य व सुवर्णादि दश प्रकार के संख्यानं मुह्यतां विना । तदणुव्रतमित्याहुः पंचमं गृहबाहा परिग्रह तथा मिथ्यात्व आदि चौदह प्रकार मेधिनाम् ।। (भावसं. वाम. ४५६) । १७. दासीके अन्तरंग परिग्रह इस प्रकार समस्त परिग्रह के दास-रथान्येषां स्वर्णानां योषितां तथा। परिमाणवतं त्याग करने को परिग्रहत्याग महाव्रत कहते हैं। ग्राह्यं पंचमं तदणुव्रतम् ॥ (पू. उपासका. २७) । परिग्रहपरिमाणाणुव्रत-१. xxx परिग्ग- १८. तत्र हिंसानृत-स्तेयाब्रह्म-कृत्स्नपरिग्रहात् । देशतो हारंभपरिमाणं ॥ (चा. प्रा. २३)। २. धन- विरतिः प्रोक्तं गृहस्थानामणुव्रतम् ॥ (पंचाध्या. धान्यादिग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता। २-७२०)। १६. मुनिभिः सर्वतस्त्याज्यं तृणमात्रपरिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामापि ॥ परिग्रहम् । तत्संख्या गहिभिः कार्या त्रसहिंसादि(र.क. ३-१५) । ३. धन-धान्य-क्षेत्रादीनामि- हानये ॥ (लाटीसं. ६-८३)। २०. धण-धण्ण
त् कृतपरिच्छेदो गृहीति पञ्चममणुव्रतम् । दुपय-चउप्पय-खेत्तण्णछादियाण दवाणं। जं किज्जइ (स. सि. ७-२०; चा. सा. पृ. ७)। ४. परि- परिमाणं पंचमयं अणुव्वय होई । (धर्मर. १४७)। च्छिन्नधन-धान्य-क्षेत्राद्यवधिर्गही । धन-धान्य- १परिग्रह और प्रारम्भ का प्रमाण करना, यह क्षेत्रादीनाम् इच्छावशात् कृतपरिच्छेदः गृहीति पञ्च- परिग्रहपरिमाण नामक पांचवां अणवत है। ममणुव्रतम् । (त. वा. ७, २०, ५)। ५. परिच्छि - २ धन व धान्य आदि दस प्रकार के बाहिरी परिनधन-धान्य-क्षेत्राद्यवधिगृही प्रत्येतव्यः। (त. श्लो. ग्रह का परिमाण करके उससे अधिक में इच्छा न ७-२०)। ६. अनन्तायाश्च गर्धायाः विरतिः । रखने को परिग्रहपरिमाणाणवत कहते हैं। इसका (एच. १४-१८५)। ७. स्वर्ण-दास-गह-क्षेत्रप्रभतेः दूसरा नाम इच्छापरिमाण भी है।
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिग्रहपरिमाणाणुव्रतातिचार] ६७८, जैन-लक्षणावली
[परिचित परिग्रहपरिमाणाणवतातिचार--१. क्षेत्रवास्तु- २. परिग्रहसंज्ञा-परिग्रहाभिलाषस्तीव्रलोभोदयप्रहिरण्यसुवर्ण-दासीदास-कुप्यप्रमाणातिक्रमः । (त. सू. भव आत्मपरिणामः । इयमपि चतुभिः स्थानरुत्पद्यते । ७-२६)। २. अतिवाहनातिसंग्रह-विस्मय-लोभाति- तद्यथा--- अविवित्तयाए १ लोहोदएणं २ मईए ३ भारवहनानि । परिमितपरिग्रहस्य च विक्षेपाः पंच तदट्ठोवनोगेणं ४ । (प्राव. सू. हरि. व. पु. ५८०)। लक्ष्यन्ते ।। (रत्नक. ३-१६) । ३. तयाणंतरं च ३. परिग्रहसंज्ञा चारित्रमोहोदयजनिता परिग्रहाभिणं इच्छापरिमाणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा लाष इति । (स्थाना. अभय. व. ४, ४, ३५६, प. जाणियव्वा, ण समायरियव्वा । तं जहा-खेत्त- २७७)। ४. परिग्रहसंज्ञा लोभविपाकोदयसमत्थवत्थुपमाणाइक्कमे हिरण्ण-सुवण्णपमाणाइक्कमे दुपय- मूपिरिणामरूपा । (जीवाजी. मलय. व. चउप्पयपमाणाइक्कमे धण-धन्नपमाणाइक्कमे कुविय- १३)। ५. स्यात् परिग्रहसंज्ञा च लोभोदयसमदपमाणाइक्कमे। (उवासगद. १-४६, पृ. १०)। भवा । अनाभोगाऽव्यक्तरूपा xxx ॥ (लोकप्र. ४. भेएण खित्त-वत्-हिरण्णमाईसु होइ नायव्वं । ३-४४६) । दपयाईस य सम्म बज्जणमेयस्स पुव्वृत्तं ।। (श्रा. प्र. १विषयभोग की सामग्री के देखने से, उधर उपयोग २७६)। ५. खेत्ताइ-हिरण्णाई-धणाइ-दुपयाइ-कुप्प- के जानेसे, प्रासक्ति से और लोभ कषाय को उदीरणा माणकमे । जोयणपमाणबंधणकारणभावेहि णो से ममत्वबुद्धिपूर्वक जो परिग्रहविषयक अभिलाषा कुणइ ।। (पंचाश. १-१८) । ६. वास्तुक्षेत्राष्टापद- होती है उसका नान परिग्रहसंज्ञा है। हिरण्य-धनधान्य-दासदासीनाम् । कुप्यस्य भेदयोरपि परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान-१. सहाइविसयसाहणपरिमाणातिक्रमाः पञ्च ॥ (पु. सि. १८७)। धणसारक्खणपरायणमणिठें। सव्वाभिसंकणपरोव७. हिरण्य-सुवर्णयोः क्षेत्र-वास्तुनोः धन-धान्ययोः। घायकलुसाउलं चित्तं ।। (ध्यानश. २२) । २. बह्मादासी-दासस्य कूप्यस्य मानाधिक्यानि पञ्च ते ।। रम्झ-परिग्रहेषु नियतं रक्षार्थमभ्युद्यते, यत्संकल्पपर(त. सा. ४-६०)। ८. परिग्रहविरमणव्रतस्य म्परां वितनुते प्राणीह रौद्राशः । यच्चालम्ब्य महत्त्वपञ्चातिकमा भवन्ति-क्षेत्रवास्तु-हिरण्यसुवर्ण- मुन्नतमना राजेत्यहं मन्यते, तत्तर्य प्रवदन्ति निर्मलधनधान्य दासीदास-कुप्यमिति । (चा. सा. पू. ७)। धियो रौद्रं भवाशंसिनाम् ।। (ज्ञाना. २६-२६.प. ६. कृतप्रमाणाल्लोभेन धनाद कसंग्रहः । पञ्चमा- २६७) । ३. पड्विधे जीवनारणारम्भे कृताभिप्रायणव्रतज्यानि करोति गहमेधिनाम् ।। (उपासका. श्चतुर्थं रौद्रम् । (मला. व. ५-१६) । ४.४ ४४४)। १०. धन-धान्यस्य कुप्यस्य गवादेः क्षेत्र-XX स्वं संरक्ष्य विपक्षदूरमदिता तोषोग्रता या वास्तुनः । हिरण्य-हेम्नश्च संख्यातिक्रमोऽत्र परिग्रहे ॥ तु सं-रक्षानन्दमपि स्ववस्तुनिखिलं निरि कर्वे (योगशा. ३-६५)। ११. वास्तु-क्षेत्रे योगाद् धन- इति ।। (प्राचा. सा. १०-२१)। धान्ये बन्धनात् कनक-रूप्ये । दानात् कुप्ये भावान्न १ शब्दादि विषयों के साधनभत धन के संरक्षण गवादौ गर्भतो मितिमतीयात् ।। (सा. ध. ६-६४)। तत्पर रहने से जो कलुषित चित्त होता है वह १क्षेत्र-वास्तु (खेत व गृह आदि), चांदी-सोना, विषयसंरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान कहलाता है। इसे धन-धान्य, (पशु व गेहूं आदि अन्न), दासी-दास परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान भी कहा जाता है। इस और कुप्य (सूती व रेशमी वस्त्र आदि); इनका ध्यान में 'कौन कब क्या करेगा' इस प्रकार की जो प्रमाण किया गया है उसका उल्लंघन करना ये आशंका सभी के प्रति बनी रहती है, जिससे वह पथक पथक परिग्रहपरिमाणवत के पांच अतिचार सभी के घात में ब्याकुलचित्त रहता है। ३ छह होते हैं। २ प्रतिवाहन, अतिसंग्रह, विस्मय, लोभ प्रकार के जीवघातविषयक प्रारम्भ के अभिप्राय को और अतिभारवहन ये पांच परिग्रहपरिमाणाणुव्रत के चौथा रौद्रध्यान कहते हैं। अतिचार हैं।
परिचित यत्र यत्र प्रश्नः क्रियते तत्र तत्र पाशुपरिग्रहसंज्ञा-१. उबयरणदंसणेण य तस्सुवोगेण तमवृत्तिः परिचितम्, क्रमेणोत्कमेणानुभयेन च भा. मच्छियाए य। लोहस्सूदीरणाए परिग्गहे जायदे वागमाम्भोधौ मत्स्यवच्चटलतमवत्तिर्जीवो भावागमसण्णा ॥ (ता. पंसं. १-५५; गो. जी. १३७)। श्च परिचितम् । (धव. पु. ६, पृ. २५२) ।
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिचितसूत्रता] ६७६, जैन-लक्षणावली
[परिणाम जिस जिस विषय में प्रश्न किया जाता है उस उस ५-४१) । ४. द्रव्यात्मलाभमानहेतुकः परिणामः । विषय से सम्बद्ध भावागमरूप समुद्र में मछली के यस्य भावस्य द्रव्यात्मलाभमात्रमेव हेतुर्भवति नान्यसमान जिसकी चंचलतापूर्ण प्रवृत्ति शीघ्रतापूर्वक निमित्तमस्ति स परिणाम इति परिभाष्यते । (त. क्रन से, अक्रम से या अनुभयरूप से हुया करती है वा. २, १, ५); द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन प्रयोगउस जीव को और भावागम को भी परिचित कहा विस्रसालक्षणो विकारः परिणामः। द्रव्यस्य चेतनजाता है। यह प्रागम के नौ प्रधिकारों में स्येतररय वा द्रव्यापिकवल अविवक्षातो न्यग्भूतां तीसरा है।
स्वां द्रव्यजातिमजहतः पर्यायाथिकनयार्पणात् प्राधान्यं परिचितसूत्रता-परिचितसूत्रता उत्क्रम-क्रमवाच- विभ्रता केनचित् पर्यायेण प्रादुर्भावः पूर्वपर्याय निवृनादिभिः स्थिरसूत्रता । (उत्ता. नि. शा. वृ. ५८, तिपूर्वको विकारः प्रयोग-विस्रसालक्षणः परिणाम
इति प्रतिपत्तव्यः । (त. वा. ५, २२, १०); धर्माअक्रम या क्रम से प्रवृत्त वाचनादि से सूत्र में दीनां येनात्मना भवनं स तद्भावः परिणामः। स्थिरता का रहना, इसका नाम स्थिरसूत्रता है। धर्मादी नि द्रव्याणि येनात्मना भवन्ति स तद्भावः, यह चार प्रकार की श्रुत-सम्पत् में से एक है। तत्त्वं परिणाम इत्याख्यायते । (त. वा. ५, ४२, १)। परिजित—देखो परिचित। अइतुरियाए गईए ५. परिणामः अध्यवसाय विशेषः । (प्राव. नि. हरि. पडिक्खलणेण विणा आइद्धकुलालचक्क व सगविसए वृ. ८२३); परिः समन्तानमनं परिणामः सुदीर्घपरिब्भमणक्खमो कदिअणियोगो परिजिदं णाम। कालपूर्वापरार्थविलोकनादिजन्य आत्मधर्म इत्यर्थः । (धव. पु. ६, पृ. २६८)।
(प्राव. नि. हरि. वृ. ६३८)। ६. परिणमनं परिअतिशय शीघ्रगति से स्खलन के बिना जो कुम्हार णामः अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्यैव तद्भावगमनमिति के द्वारा प्रेरित चाक के समान अपने विषय में भावार्थः । उक्तं च-परिणामो ह्यन्तिरगमनं न तु शीघ्र परिभ्रमण में समर्थ कृतिअनुयोग (विवक्षित सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः परिणाअनुयोग) है उसका नाम परिजित है।
मस्तद्विदामिष्ट: ।। (अनुयो. हरि. व. उद्. पू. परिज्ञा–परिः समन्ताज्ज्ञानं पापपरित्यागेन परि- ६४)। ७. को परिणामो? मिच्छत्तासंजम-कसाज्ञासामायिकमिति । (आव. हरि. वृ. पृ. ८३४)। यादी। (धव. पु. १५, पृ. १७२) । ८. द्रव्यस्य स्वपरि अर्थात सब अोर से पाप के परित्याग स्वरूप जात्यपरित्यागेन परिस्पन्देतरप्रयोगजपर्यायस्वभावः से जो ज्ञान होता है उसका नाम परिज्ञासामा- परिणामः । तद्यथा-अङ्कुरावस्थस्य वनस्पतेर्मूलयिक है।
काण्ड-त्वक्-पत्र-स्कन्ध-शाखा-विटप-पुष्प-फलसद्भा - परिज्ञातकर्म मुनि-जस्सेते लोगंसि कम्म-समा- वलक्षणः परिणामः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ५-२२); रम्भा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिन्नायकम्मेत्ति अथवा कैश्चित् परिणामलक्षणमुक्तम्---अवस्थितस्य वेमि । (प्राचारा. सू. १, १, १, १३, पृ. २५)। द्रव्यस्य धर्मान्तरनिवृत्तिधर्मान्तरप्रादुर्भावश्च परिजिस मुमुक्षु मुनि के कर्मसमारम्भ--क्रियाविशेष णामः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ५-४१)। ६. स्वजातेअथवा ज्ञानावरणादि पाठ प्रकार के कर्म के उपा- रविरोधेन विकारो यो हि वस्तुनः । परिणामः स दानहेतु-बन्ध के हेतुरूप से ज्ञात है वह परिज्ञात- निर्दिष्टोऽपरिस्पन्दात्मको जिनैः ।। (त. सा. ३, क मुनि कहलाता है। मुनि का निरुक्तार्थ है ४६)। १०. द्रव्यात्मलाभहेतुकः परिणामः । (पंचा. जगत की त्रैकालिक अवस्था का जानने वाला। का. अमत. व. ५६) । ११. परीति सर्वप्रकारं नमनं परिणाम-१. तद्भावः परिणामः । (त. सू. ५, जीवानामजीबानां च जीवत्वादिस्वरूपानुभवनं प्रति ४१) । २. द्रव्यात्मलाभमात्रहेतुकः परिणामः । (स. प्रवीभवनं परिणामः । (उत्तरा. नि. शा. व. ४८, सि. २-१); धर्मदीनि द्रव्याणि येनात्मना भवन्ति स प. ३३; षडशी. दे. स्वो. वृ. ६४) । १२. परितभावस्तत्त्वं परिणाम इति आख्यायते । (स. सि. णामः अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनम् । ( स्थाना. ५-४२)। ३. धर्मादीनां द्रव्याणां यथोक्तानां च अभय.व. ४, १, २६५) । १३. परिणाम:-अवस्थागुणानां स्वभावः स्वतत्त्वं परिणामः । (त. भा. तोऽवस्थान्तरगमनानि । (समवा. अभय. वृ. १४०)।
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिणाम]
६८०, जैन-लक्षणावली
[परितापन
१४. परिणामः कारणस्यान्यथाभावः वाग्गोचरा- प्रकार से-उत्सर्ग-अपवाद के अनुसार--- जो श्रद्धान तीतः । (प्रा. मी. वसु. ३.७१)। १५. परि समन्ता- करता है उसे परिणामक साथ जानना चाहिए। नमनं यथावस्थितवस्त्वनुसारितया गमनं परि- परिणामतः आत्त पुदगल-मिच्छत्तादिपरिणामेणामः । (प्राव. नि. मलप. वृ. ६३८, पृ. ५१६); हि जे अप्पणो कदा ते परिणामदो अत्ता पोग्गला । परिणमनं परिणामः--पाथञ्चित् पुर्वरूपापरित्यागे- (धव. पृ. १६, प. ५१५) । नोत्तररूपापत्तिः । उक्तं च-नार्थान्तरगमो यस्मात् मिथ्यात्वादि परिणामों के द्वारा जो पुदगल अपने सर्वथैव न चागमः । परिणामः प्रमासिद्धः इष्टश्च किये गये हैं जिन्हें ग्रहण किया गया है-वे परिखलु पण्डितैः ।। (प्राव. नि. मलय. वृ. १०४०, पृ. णामतः प्रात्त पुद्गल कहलाते हैं। ५७६); द्रव्यपरिणतिस्वभावः सर्वः परिणामः । परिणामयोगस्थान-१. पज्जत्तपढमसमयप्पहुडि (प्राव. भा. मलय. वृ. १८६, पृ. ५७८) । १६. परि
उवरि सव्वत्थ परिणामजोगो चेव । (धव. पु. १०, णमनं परिणाम:, कथञ्चिदवस्थितस्य वस्तुनः पूर्वा
पु. ४२१)। २. परिणामजोगठाणा सरीरपज्जवस्थापरित्यागेनोत्तरावस्थागमनम्। (पञ्चसं. मलय.
त्तगा दु चरिमो त्ति । (गो. क. २२०)। वृ. २-३, पृ. ४५)। १७. परिणामः स्वकार्यपर्या
१ पर्याप्त होने के प्रथम समय से लेकर पागे सर्वत्र लोचनम् । (अन. ध. स्वो. टी. ८-९८% भ. प्रा.
परिणामयोग ही हुआ करता है । मला. ६५) । १८. परिणामो द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन परिस्पन्देतरप्रयोगजपर्यायस्वभावः परिणामः ।
परिणामविशुद्धप्रत्याख्यान-१. रागेण व दोसेण
व सगपरिणामेण दूसिदं जंतु । तं पुण पच्चक्खाणं (षड्द. स. वृ. ४६, पृ. १६४) । १६. द्रव्याणां या परिणतिः प्रयोग-विस्रसादिजा । नवत्व-जीर्णताद्या च
भावविशुद्धं तु णादव्वं ॥ (मूला. ७-१४६) । परिणामः स कीर्तितः ।। (लोकप्र. २८-८)। २०.
२. रागपरिणामेन द्वेषपरिणामेन च न दूषितं न द्रव्यस्य स्वभावान्तरनिवत्तिः स्वभावान्तरोत्पत्तिश्च
प्रतिहत विपरिणामेन यत्प्रत्याख्यानं तत्पुनः प्रत्याअपरिस्पन्दात्मकः पर्यायः परिणामः । (त. वृत्ति
ख्यानं भावविशुद्धं तु ज्ञातव्यं । सम्यग्दर्शनादियुक्तस्य
निःकांक्षस्य वीतरागस्य समभाव युक्तस्याहिंसादिव्रतश्रुत. ५-२२) । २१. परिणामस्तु सत एव प्रदेशपरिणामादिनाऽन्यथाभावः । (प्रष्टस. यशो.
सहितशुद्धभावस्य प्रत्याख्यानं परिणामशुद्धं भवेदिति । वृ. पृ. १५७)।
(मूला. वृ.७-१४६)। २ जिसका कारण द्रव्य का प्रात्पलाभ मात्र है उसे
जो प्रत्याख्यान राग और द्वेषरूप चित्तवृत्ति से परिणाम कहते हैं। धर्म प्रादि द्रव्य जिस स्वरूप
दूषित न हो उसे भावविशुद्ध या परिणामविशुद्ध
प्रत्याख्यान जानना चाहिए। से हैं उसका नाम तद्भाव है, यही तद्भाव परिणाम का लक्षण है । ३ धर्म आदि द्रव्यों और गणों का परिणामानित्यता-तत्र परिणामानित्यता नाम जो स्वभाव या निज तत्त्व है उसे परिणाम कहा मृत्पिण्डो हि विस्रसा-प्रयोगाभ्यामनुरूनयमवस्थान्तरं जाता है। ५ अध्यवसाविशेष का नाम परिणाम प्रागवस्थाप्रच्युत्या समश्नुते । (त. भा. सिद्ध. बृ. है। १७ अपने कार्य का जो पर्यालोचन किया जाता ५-४)। है उसे परिणाम जानना चाहिए (यह भक्तप्रत्या- स्वभाव अथवा प्रयोग के वश मिट्टी का पिण्ड जो ख्यान मरण को स्वीकार करनेवासे क्षपक के प्रत्येक समय में पूर्व पूर्व अवस्था को छोड़कर अन्य अर्हादि लिगों में से एक है)।
अन्य अवस्था को प्राप्त होता है, यही परिणामपरिणामक साधु-जो दव्व-खेत्तकय-काल-भावो अनित्यता है। जं जहा जिणक्खायं । तं तह सद्दहमाणं जाणसु परि- परितापन-१. संतावजणणं परिदावणं णाम । णामयं साधु ॥ (बृहत्क. ७६३)।
(धव. पु. १३, पृ. ४६) । २. प्राणिनः सन्तापकरणं द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा जिनेन्द्र देव परितापनं व्याहियते। (भावप्रा. टी. ६६)। के द्वारा साधु के लिये जो कल्प्य-प्रकल्प्य (योग्य- १ प्राणि के लिए सन्ताप पहुंचाने का नाम परिअयोग्य) का कथन किया गया है उसका या उसी तापन है।
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
परितापनिकी]
परितापनिकी— परितापनं परितापः, पीडाकरणमित्यर्थः, तस्मिन् भवा तेन वा निर्वृत्ता, परितापनमेव वा परितापनिकी । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २७६, पृ. ४३५ ) ; परितापनिकी नाम खड्गादिघातेन पीडाकरणम् । ( प्रज्ञाप. मलय वृ. २८१, पृ. ४४०) ।
खड्ग श्रादि के घातसे दूसरों के लिए पीडा पहुंचाना, यह परितापनिकी क्रिया कहलाती है । परित्यजन दोष- देखो छोटितदोष । १. बहुपरि erson आहारो परिगलंत दिज्जंतं । छंडिय भुंज्ञणमहवा छंडियदोषो हवे णेो ॥ ( मूला. ६, ५६) । २. छोडिदं परित्यजनं भुंजानस्यास्थिरपाणिपात्रेणाहारस्य परिशतनं गलनं परित्यजनं यत्क्रियते तत्परित्यजननामाशनदोष: । (मूला. वृ. ६-४३ ) । १ बहुत अन्न गिराकर भोजन करना, अथवा देते गिरते हुए को छोड़कर भोजन करना; यह परित्यजन नाम का दोष माना जाता है । इसे छोटित और व्यक्त दोष भी कहा जाता है । परिदेवन - १. संक्लेशपरिणामावलम्बनं गुणस्मरणानुकीर्तनपूर्वकं स्व-परानुग्रहाभिलाषविषयमनुकम्पा - प्रचुरं रोदनं परिदेवनम् । ( स. सि. ६ - ११ ) । २. संक्लेशप्रवणं स्वपरानुग्रहाभिलाषविषय मनुकम्पा - प्रायं परिदेवनम् । संक्लेशपरिणामालम्बनं स्व-परानुग्रहविषयम् अनुकम्पाप्रचुरं परिदेवनमिति परिभाष्य
६८१, जैन - लक्षणावली
(त. वा. ६, ११, ६) । ३. परिदेवनं मुहुर्मुहुर्नष्टचित्ततयैव समन्ताद्विलपनम् । ( त. भा. हरि. बृ. ६- १३) । ४. संक्लेश []वणं स्व-परानुग्रहणं हा ना - थेत्यनुकम्पाप्रायं परिदेवनम्, तच्चासद्वे द्योदये मोहोदये च सति बोद्धव्यम् । ( त श्लो. ६-११) । ५. संक्लेशप्रवणः स्व-परानुग्रहनाथनमनुकम्पाप्रायं परिदेवनम् । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-१३) | ६. परिदेव्यते परिदेवनं संक्लेशपरिणाम विहितावलम्बनं स्त्र-परोपकारकांक्षालिंगं अनुकम्पाभूयिष्ठं रोदनमित्यर्थः । (त. वृत्ति श्रुत. ६-११) । १ संक्लेश परिणाम के श्राश्रय से अपने व दूसरे के अनुग्रह से सम्बद्ध जो गुणों का स्मरण करते हुए रुदन किया जाता है, जिसे देखकर सुनने वाले का चित्त दयार्द्र हो उठता है, उसे परिदेवन कहते हैं । परिधि - १. समवट्टवासवग्गे दहगुणिदे करणिपरिल. ८६
[परिनिर्वृति (परं निर्वाण )
होदि । ( ति प १ - ११७ ) । २. विक्खंभवग्गदहगुणकरणी वट्टस्स परिट्ठ [र] प्रो होदि । ( धव. पु. ४, पृ. २०६ उद्; त्रि. सा. ९६ ) ; व्यासं षोडशगुणितं षोडशसहितं त्रि-रूप-रूपैर्भक्तम् । व्यासत्रिगुणितसहितं सूक्ष्मादपि तद् भवेत् सूक्ष्मम् ॥ ( धव. पु. ४, पृ. ४२ उद्.) । ३. वासो तिगुणो परिही Xxx । (त्रि. सा. १७ ) ।
१ समान गोल क्षेत्र के विस्तार का वर्ग करके उसे दस से गुणित करने पर जो प्राप्त हो उसका वर्गमूल निकालने पर परिधि का प्रमाण प्राप्त होता है । २ विस्तार को सोलह से गुणा करके उसमें सोलह जोड़ दे, तत्पश्चात् उने तीन, एक और एक ( ११३ ) अर्थात् एक सौ तेरह से भाजित करके लब्ध में तिगुने विस्तार के जोड़ देने पर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म परिधि का प्रमाण प्राप्त होता है । परिनिर्वाण्यवाचना - परीति सर्वप्रकारं निर्वाप यतो निरो निर्दग्धादिषु भृशार्थस्यापि दर्शनात् भृशं गमयतः --- पूर्वदत्तालापकादि सर्वात्मना स्वात्मनि परिणमयतः शिष्यस्य सूत्रगताशेषविशेषग्रहणकालं प्रतीक्ष्य शक्त्यनुरूपप्रदानेन प्रयोजकत्वमनुभूय परिनिर्वाप्य वाचना— सूत्रप्रदानं परिनिर्वाप्यवाचना । ( उत्तरा. नि. शा. वृ. ५८, पृ. ३६ ) ।
पूर्व में प्रदान किये गये श्रालाप श्रादि को जो सब प्रकार से अपने में परिणत कर रहा है—उसे पूर्णतथा हृदयंगम करता है—ऐसे शिष्य को सूत्रगत समस्त विशेषताओं के ग्रहण योग्य काल की प्रतीक्षा परिनिर्वाण्यवाचना कहा जाता है । करके शक्ति के अनुरूप सूत्र के प्रदान करने को
परिनिर्वृत — परिनिर्वृतः कर्मकृतविकारविरहात् स्वस्थीभूतः । ( स्थाना. अभय वृ. १ - ५३ ) । कर्मकृत रागादि विकारों (दोषों) को दूर कर जो सर्वथा स्वस्थ हो चुका है— केवलज्ञानादिरूप श्रात्मस्वरूप में स्थित होता हुआ सिद्धि को प्राप्त कर चुका है वह परिनिर्वृत (सिद्ध) कहलाता है । परिनिर्वृति ( परं निर्वाण ) - भवबन्धनमुक्तस्य या ऽवस्था परमात्मनः । परिनिर्वृतिरिष्टा सा परं निर्वाणमिष्यते ॥ ( म. पु. ३६ - २०६ ) । संसाररूप बन्धन से मुक्त हुए जीव की जो उत्कृष्ट
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिपिण्डित] . ... . ६८२, जैन-लक्षणावली
- [परिभोग अवस्था होती है उसे परिनिर्वृति कहते हैं। इसे स्तु घृतगतकचवरवदवतिष्ठन्ते, श्रुतस्य दोषानेव परंनिर्वाण भी कहा जाता है।
गृह्णाति, गुणांस्तु सर्वथा परिहरति असो, अतोऽयोग्य परिपिण्डित- देखो परिपीडित । १. यत्र संपि- इति भावः । (नन्दी.हरि. व. पृ. १०५)। ३. परिपूणण्डितान् एकत्र मिलितानाचार्यादीनेकवन्दनकेनैव को नाम घृत-क्षीरगालनं सुगृहाभिधचटकाकुलायो वा, बन्दते, न पृथक् पृथक्, तत्परिपिण्डितं वन्दनकमुच्यते। तेन ह्याभीर्यो घृतं गालयन्ति, ततो यथा स परिपूणअथवा वचनानि सूत्रोच्चारणगर्भाणि, करणानि क: कचवरं धारयति धृतमुज्झति तथा शिष्योऽपि यो कर-चरणादीनि, संपिडितानि अव्यवच्छिन्नानि, व्याख्या-वाचनादो दोषानभिगृह्णाति गुणांस्तु मुञ्चति वचनकरणानि यस्य स तथा। उर्वोरुपरि हस्तौ व्यव- स परिपूणकसमानः । XXX । आह च चूर्णिस्थाप्य संपिण्डितकर-चरणौ अव्यक्तसूत्रोच्चारण- कृत्-वक्खाणाइसु दोसं हिययंमि ठवेइ मुयइ गुण
जालं । सो सीसो अ अजोग्गो भणितो परिपुणगसमा(प्राव. ह. वृ. मल. हेम. टि. पृ. ८८; प्रव. सारो. नो ॥१२॥ (प्राव. नि. मलय. वृ. १३६, पृ. १४३)। व. १५७) । २. संपिडिए व वंदइ परिपिडियवयण- ३ परिपूणक का अर्थ घी की छननी अथवा सुघरी करणो वावि। (प्रव. सारो. १५७)। ३. परि- नामक पक्षी का घोंसला होता है। जिस प्रकार पिण्डितं प्रभूतानां युगपद्वन्दनम्, यद्वा कुक्षेरुपरि ग्वालिनियां परिपूणक से जब घी को छानती हैं तब हस्तौ व्यवस्थाप्य परिपिण्डितकर-चरणस्याऽव्यक्तसू- घी निकल जाता है और कचरा उसके भीतर रह त्रोच्चारणपुरस्सरं वन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव. जाता है, उसी प्रकार जो शिष्य परिपूणक के समान ३-१३०)।
व्याख्या व वाचना आदि में दोषों को ग्रहण करता १ एक स्थान पर सम्मिलित हुए अनेक प्राचार्या- है और गुणों को छोड़ देता है उसे परिपूणक समान दिकों की पृथक्-पृथक् वन्दना न करके एक ही शिष्य कहा जाता है। वन्दना के रूप से वन्दना करने को परिपिण्डित- परिपूर्णेन्द्रियता-परिपूर्णेन्द्रियता अनुपहतचक्षुवन्दनक कहते हैं । अथवा जांघों के ऊपर दोनों हाथ रादिकरणता । (उत्तरा. नि. शा. बृ. ५८)। रख करके हाथ-पैरों को संकुचित कर अव्यक्त सूत्रो- चक्षु आदि इन्द्रियों को अविनाशिता-उनके च्चारणपूर्वक वन्दना करने को परिपिण्डितवन्दनक विषयग्रहणसामर्थ्य को परिपूर्णेन्द्रियता कहते हैं । कहते हैं। यह वन्दना के ३२ दोषों में चौथा है। परिभाषा-१. परिभाषणं परिभाषा-कोपापरिपीडित दोष-१. परिपीडितं कर-जानुप्रदेशः विष्करणेन मा यास्यसीत्यपराधिनोऽभिधानम् । परिपीड्य संस्पर्श्य यः करोति वन्दनां तस्य परि- (प्राव. भा. हरि. वृ. ३, पृ. ११४)। २. इयमत्र पीडितदोषः । (मला. व. ७-१०६)। २. हस्ताभ्यां भावना-कोपाविष्करणे नरे इतः स्थानान्मा यासीजानुनो स्वस्य संस्पर्शः परिपीडितम् । (अन. ध. रित्येयं यत् परिभाषणम् । (प्राव. नि. मलय. व. स्वो. टी. ८-६६)। २ दोनों हाथों से अपने जान (घुटने) का स्पर्श १ क्रोध को प्रगट करके नहीं जानोगे, अर्थात अब करते हुए वन्दना करने को परिपीडित दोष कहते आगे क्रोध नहीं करना, इस प्रकार अपराधी से हैं। यह कृतिकर्म के ३२ दोषों में चौथा है। परिपुणक समान शिष्य-१. परिपुणगम्मि य गुणा गलंति दोसा य चिट्ठति ॥ (विशेषा. परिभोग-देखो उपभोग। १. आच्छादन-प्रावरणा१४६३; नन्दी. हरि. वृ. पृ. २२, ११ उद्.)। लंकार-शयनाशन-गृह-यान-वाहनादिः । (स. सि. २. परिपूणको नाम सुघरी चिटिकाविरचितो नीड- ७-२१)। २. परित्यज्य भुज्यत इति परिभोगः । विशेषः, तेन च किल घृतं गाल्यते, ततस्तत्र कचवरम- सकृद् भुक्त्वा परित्यज्य पुनरपि भुज्यते इति परिवतिष्ठते, घृतं तु गलित्वाऽधः पतति, एवं परिपूणक- भोग इत्युच्यते-आच्छादन-प्रावरणालङ्कार-शयनासदृशः शिष्योऽप्युपचारात् परिपूणकः । तत्र हि सन-गृह-यान-वाहनादिः । (त. वा. ७, २१, १०)। श्रुतसम्बन्धिनो गुणा सर्वेऽपि घृतवद् गलन्ति, दोषा- ३. परिभुज्यत इति परिभोगो वस्त्रादि, पुनः पुनः
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिभोग ]
भुज्यत इति भावः । परिशब्दस्याभ्यावृत्त्यर्थत्वात् । XXX बहिर्भोगो वा परिभोगः, परिशब्दस्य बहिर्वाचकत्वात् । (श्रा. प्र. टी. २८४ ) । ४. पुनः पुनः परिभुज्यत इति परिभोगः स्त्री-वस्त्राभरणादिः । ( धव. पु. ६, पृ. ७८ ) । ५. प्रशन-पान - गन्ध-माल्यादि सकृद् भुक्त्वा पुनरपि भुज्यत इति परिभोगः । (चा. सा. पृ. १२) । ६. भूषादिः परिभोगः स्यात् पौनःपुन्येन सेवनात् । ( उपासका ७५६) । ७. मुहुर्यो भुज्यते लोके परिभोगः स उच्यते । ( धर्मसं. ७ - १७) । ८ श्राच्छादन प्रावरण- भूषणशय्यासन-गृह-यान-वाहन- वनितादिकः परिभोग उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ७ - २१ ) । ६ परिभोगः समाख्यातो भुज्यते यत्पुनः पुनः । यथा योषिदलंकार - वस्त्रागार-गजादिकम् ॥ ( लाटीसं. ६ - १४७ ) । २ जिसे एक बार भोगकर छोड़ दिया जाता है तथा फिर से भी भोगा जाता है वह परिभोग कहलाता है— जैसे प्राच्छादन, वस्त्र, आभूषण, शयन, श्रासन, घर, सवारी और वाहन आदि । परिभोगान्तराय -- जस्स कम्मस्स उदएण परिभोगस्स विग्धं होदि तं परिभोगंतराइयं ॥ ( धव. पु. ६, पृ. ७८) ।
जिस कर्म के उदय से परिभोग में विघ्न होता है वह परिभोगान्तराय कहलाता है । परिमर्शन - १. समस्तशरीरस्य हस्तेन स्पर्शनं परिमर्शनम् । (भ. प्रा. विजयो. ६४९ ) । २. परिमर्शनं सर्वगात्रस्पर्शनम् । (भ. श्री. मूला. ६४६ ) । १ हाथ से समस्त शरीर के स्पर्श करने को परिमर्शन कहते हैं । परिमितकाल सामायिक स्वाध्यायादौ सामायिकग्रहणं परिमितकालम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६, १८) ।
स्वाध्याय श्रादि में जो सामायिक ग्रहण की जाती है वह परिमितकाल सामायिक कहलाती है । परिवर्तदोष- देखो परिवर्तित। १. मदीये वेश्मनि तिष्ठन्तु भवान् युष्मदीयं तावद् गृहं यतिभ्यः प्रयच्छेति गृहीतं परियट्टमित्युच्यते । ( भ. प्रा. विजयो. २३०९ कार्तिके. टी. ४४८ - ४९ ) । २. व्रीहिकूरा दिभिः शालिकूरादेः परिवर्तनम् । यद्दास्यामीति यतये परिवर्तः प्रकीर्तितः ॥ ( श्राचा. सा. ८-३१ ) । ३. व्रीह्यन्नाद्येन शाल्यन्नाद्युपात्तं परिवर्तितम् ।
६८३, जैन - लक्षणावली
[ परिवर्तित
( अन. ध. ५ - १४ ) । ४ मद्गृहे तिष्ठतु भवान्, स्वगृहं यतिभ्यः प्रयच्छेति गृहीतं परियट्टम् । (भ. प्रा. मूला. २३० ) । ५. कस्यचिद् गृहस्थस्य व्रीहीन् दत्त्वा शालयो गृह्यन्ते, अथवा निजं कूरं दत्त्वा परकूरो गृह्यते, निजाभ्युषान् दत्त्वा परेषामभ्यूषा गृह्यन्ते, एवं यत् परिवर्त्यते यतिभ्यो दीयते दास्यते वा स परिवर्तः कथ्यते । (भावप्रा. टी. ६६, पृ. २५० ) । १ श्राप मेरे घर में रहें और अपना घर साधुनों के रहने के लिए देदें। इस प्रकार कह कर साधु के लिए जो निवासस्थान ग्रहण किया जाता है वह परिवर्त नामक दोष से दूषित होता है । २ व्रीहि आदि से शालि धान के भात प्रादि को बदल कर साधु के लिये देना, यह परिवर्त नामक एक उत्पादन दोष है ।
परिवर्तन – १. परियदृणं णाम परियट्टांति वा अब्भसणंति वा गुणणंति वा एगट्ठा। ( दशवं. न. पृ. २८ ) । २. अविस्सरणट्ठ पुणो पुणो भावागमपरिमलणं परियट्टणं णाम । ( धव. पु. ६, पृ. २६२ ) ; अवगत्थस्स हियएण पुणो पुणो परिमलणं परि
णाम । ( व. पु. १४, पृ. ६) । ३. पूर्वाधी तस्य सूत्रादेरविस्मरणहेतवे । निर्जरार्थं च योऽभ्यासः स भवेत् परिवर्तना ।। ( लोकप्र. ३०-६८ ) । १ परिवर्तन, अभ्यसन और गुणन ये समानार्थक शब्द हैं । २ पठित भावागम का विस्मरण न हो, इसके लिये जो उसका बार बार परिशीलन किया जाता है इसे परिवर्तन कहते हैं । परिवर्तना-देखो परिवर्तन । परिवर्तमान परिणाम जत्थ पुण ट्ठाइगुण परिणामंतरं गंतूण एग-दोप्रादिसमएहि श्रागमणं संभवदि ते परिणामा परियत्तमाणा णाम । पु. १२, पृ. २७) ।
धव.
जिस परिणाम पर स्थित होकर दूसरे परिणाम को प्राप्त होते हुए एक-दो प्रादि समयों में पुनः उसी परिणाम को प्राप्त होना संभव है, ऐसे परिणामों को परिवर्तमान परिणाम कहते हैं । परिवर्तित - देखो परिवर्त । १. यच्छाल्योदनादि कोद्रवादिना प्रातिवेशिकगृहे परिवर्त्य ददाति तत्परिवर्तितम् | ( श्राचारा. सू. शी. वृ. २, १, २६६, पृ. ३१७ ) । २. स्वद्रव्यमर्पयित्वा परद्रव्यं तत्सदर्श
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिवाद] ६८४, जैन-लक्षणावली
[परिहार गृहीत्वा यद्दीयते तत्परिवर्तितम् । (योगशा. स्वो. परिष्ठापनासंयम-भक्त-पानादिकमनेषणीयं वस्त्रविव. १-३८)।
पात्रादिकं चानुपकारकं संसक्तं वा निर्जन्तुके स्थ१ शालि धान के भात प्रादि को पड़ोसी के घर में ण्डिले परिष्ठापयतः परिष्ठापनासंयमः। (योगशा. कोदों (एक क्षुद्र धान्य) प्रादि से बदल कर देने पर स्वो. विव. ४-६३)। परिवर्तित दोष होता है।
नहीं ग्रहण करने के योग्य अन्न-पानादि को एवं परिवाद-परिवादो मिथ्योपदेशोऽभ्युदय-निःश्रेय- शरीर के लिए अनुपयोगी अथवा सम्बद्ध ऐसे वस्त्रसार्थेषु क्रियाविशेषेष्वन्यस्यान्यथा प्रवर्तनम् । (रत्न- पात्रादि को जन्तु रहित शुद्ध भूमि पर रखना, क. टी. ३-१०)।
इसे परिष्ठापनासंयम कहते हैं। स्वर्ग-मोक्ष की साधनभूत विशेष क्रियाओं के विषय परिहरण-वंतुच्चारसरिच्छं कम्मं सोउमवि में मिथ्या उपदेश देकर दूसरे को विपरीत प्रवर्ताना, कोवियो भीओ। परिहरइ सावि य दुहा विहिइसका नाम परिवाद है। यह सत्याणुव्रत का एक अविहीए य परिहरणा । (पिण्डनि. १९७)। प्रतीचार है।
जो प्राधाकर्म वान्ति या विष्ठा के समान है उसे परिव्राजक–परि समन्तात् पापवर्जनेन व्रजति सुनकर विद्वान् भयभीत होता हुआ जो विधि या गच्छतीति परिव्राजकः। (दशवै. हरि. वृ. पृ. ८४)। प्रविधि के साथ उसका परित्याग करता है, यह जो 'परि' अर्थात् सब प्रोर पापों के परित्याग के उक्त प्राधाकर्म का परिहरण है। साथ 'वजति' अर्थात् जाता है--प्रवृत्ति करता है- परिहार-देखो पिच्छ । १. पक्ष-मासादिविभागेन उसे परिव्राजक कहते हैं। यह परिव्राजक की सार्थक दूरतः परिवर्जनं परिहारः । (स. सि. ६-२२; त. संज्ञा है।
इलो. ६-२२मला. व. ११-१६) । २. परिहारो परिशातनाकृति-तेसिं चेव अप्पिदसरीरपोग्ग- मासिकादिः । (त. भा. ९-२२) । ३. पक्ष-मासालक्खंधाणं संचएण विणा जा णिज्जरा सा परिसादणा दिविभागेन दूरतः परिवर्जनं परिहारः। पक्ष-मासाकदी णाम । (धव. पु. ६, पृ. ३२७)। दिविभागेन संसर्गमन्तरेण दूरतः परिवर्जनं परिहार विवक्षित औदारिकादि शरीररूप पुद्गलस्कन्धों की इत्यवध्रियते। (त. वा. ९, २२, ६)। ४. परिसंचय के विना जी निर्जरा होती है उसे परिशातना ह्रियते अस्मिन् सति वन्दनालापानपानप्रदानादिक्रिकृति कहते हैं।
यया साधुभिरिति परिहारः । स च मासादिकः परिषह, परीषह– १. त एते बाह्याभ्यन्तरद्रव्य- षण्मासान्तः । (त. भा. सिद्ध. व. १-२२) । परिणामा: शारीर-मानसप्रकृष्टपीडाहेतवः क्षुधादयो ५. परिहारस्तु मासादिविभागेन विवर्जनम्। (त. द्वाविंशतिः परीषहाः प्रत्येतव्याः । (त. वा. ६, ६, सा. ७-२६)। ६. विधिवद् दूरात्त्यजनं परिहारो १)। २. परीति समन्तात् स्वहेतुभिरुदीरिता मार्गा- निजगणानुपस्थानम् । सपरगणोपस्थानं पारञ्चिकच्यवननिर्जरार्थ साध्वादिभिः सह्यन्त इति परीषहाः। मित्ययं त्रिविधः ॥ (अन. ध. ७-५६)। ७. पक्ष(उत्तरा. शा. व. २, पृ. ७२ उत्थानिका)। मासादिभेदेन दूरतः परिवर्जनम्। (प्रायश्चित्तस. ३. परीषहाः क्षुत्तृट्शीतोष्णादयः । (मूला. वृ. ५, टी. ७-२१)। ८. दिवसादिविभागेनैव दूरतः परि१९८) । ४. शारीर-मानसोत्कृष्टबाधाहेतून् क्षुदादि- वर्जनं परिहारः । (भावप्रा. टी. ७८) । ६. दिवसकान् । प्राहुरन्तर्बहिर्द्रव्यपरिणामान् परीषहान् ॥ पक्ष-मासादिविभागेन दूरतः परिवर्जनं परिहारो नाम (अन. घ. ६-८४) । ५. एते (क्षुदादयः) सर्वे वेद- प्रायश्चित्तम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-२२)। नाविशेषाः द्वाविंशतिपरीषहाः मुमुक्षुणा सहनीयाः। १ अपराधी साधु को पक्ष-मास प्रादि के लिए संघ (त. वृत्ति श्रुत. ६-६)।
से दूर करने उससे कुछ सम्बन्ध न रखने-को १ शारीरिक एवं मानसिक उत्कृष्ट पीडा की हेतु- परिहार प्रायश्चित्त कहते हैं । ४ जिस प्रायश्चित्त में भत जो बाह्य व अभ्यन्तर परिणाम स्वरूप क्षुधादि साधु जन अपराधी साधु का वन्दना, सम्भाषण और हैं उन्हें परीषह कहा जाता है। ये संख्या में अन्न-पानप्रदानादि क्रिया से परिहार कर देते हैंबास ।
उससे वन्दना व सम्भाषण प्रादि नहीं किया करते
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिहारविशुद्धि] ६८५, जैन-लक्षणावली
[परीक्षण वह परिहार प्रायश्चित्त कहलाता है। वह कम से त्रम् । (चा. सा. पृ. ३७)। ११. सावद्यपरिहारेण कम एक मास और अधिक से अधिक छह मास प्राप्यते यः समाहितः। व्रत-गुप्ति-समित्याढय: स तक होता है।
परीहारसंयमः ॥ (पंचसं. अमित. १-२४१) । परिहारविशुद्धि-१. परिहरणं परिहारः प्राणि- १२. मिथ्यात्व-रागादिविकल्पमलानां प्रत्याख्यानेन वधान्निवृत्तिः, तेन विशिष्टा शुद्धिर्यस्मिस्तत्परिहार- परिहारेण विशेषेण स्वात्मनः शुद्धि मल्यं परिहारविशुद्धिचारित्रस् । (स. सि. ६-१८)। २. पंच- विशुद्धिश्चारित्रम् । (बृ. द्रव्यसं. टी. ३५) । समिदो तिगत्तो परिहरइ सदा वि जो ह सावज्जं । १३. परिहारेण दोषाणां शुद्धिर्यस्मिन स संयमः । पंचजमेयजमो वा परिहारयसंजदो साहू। (प्रा. परिहारविशुद्धिः स्याद् ऋद्धिरीदृग्विधस्य सा ॥ पंचसं. १-१३१; धव. पु. १, पृ. ३७२ उद्.; गो. (प्राचा. सा. ५-१४२)। १४. परिहारः प्राणिजी. ४७२) । ३. परिहरतु विसुद्धं तु पंचजामं अणु- वधान्निवृत्तिः, तेन विशिष्टा शुद्धिर्यत्र तत्परिहारत्तरं धम्म । तिविहेण फासयंतो परिहारियसंजतो स विशुद्धिसंयम चारित्रम् । (प्रा. चारित्रभ. टी. खलु ॥ (व्याख्याप्र. २५, ७, ३, पृ. २८४८)। ३, पृ. १९४)। १५. परिहरणं परिहार:-विशि४. परिहारेण विशिष्टा शुद्धिस्मिस्तत्परिहार विशु- ष्टतपोरूपस्तेन विशुद्धिरस्मिन्निति परिहारविशुद्धिद्धिचारित्रम् । परिहरणं परिहारः प्राणिवधान्निवृत्तिः, कम् । (उत्तरा. ने. वृ. २८-३२; षडशी. मलय. तेन विशिष्टा शुद्धिर्यस्मिस्तत् परिहारविशुद्धि- वृ. १५; पंचसं. मलय. वृ. १-८, पृ. ११; भगचारित्रं प्रत्येतव्यम् । (त. वा. ६, १८, ८)। वती. दा. वृ. ८-२, पृ. १२०)। १६. परिहरणं ५. परिहार: तपोविशेषः, तेन विशुद्धं परिहारवि- परिहारः प्रा णिवधान्निवृत्तिः, तेन विशिष्टा शुद्धिशुद्धम्, परिहारो वा बिशेषेण शुद्धो यत्र तत्परिहार- यस्मिन् स परिहारविशुद्धिः । (गो. जी. जी. विशुद्धम् । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. १०४) । ६. परि- प्र. ४७३)। १७. परिहरइ जो बिशुद्धं पंचज्जामं हरणं परिहारः तपोविशेषः, तेन विशुद्धिर्यस्मिस्तत्प- अणुत्तरं धम्म । तिबिहेणं फासंतो परिहारियसंजयो रिहारविशुद्धिकम् । (प्राव. नि. हरि. व मलय. वृ. स खलु ॥ (गु.गु. षट् स्वो. वृ. ३, पृ.१३ उद्.)। ११४)। ७. परिहारप्रधानः शुद्धिसंयतः परिहार- १८. परिहरणं परिहारः प्राणिवधनिवृत्तिरित्यर्थः, विशुद्धिसंयतः । त्रिंशद् वर्षाणि यथेच्छया भोगमनुभूय परिहारेण विशिष्टा शुद्धिः कर्ममलकलंकप्रक्षालनं सामान्यरूपेण विशेषरूपेण वा संयममादाय द्रव्य- यस्मिन् चारित्रे तत्परिहारविशद्धिचारित्रम । (त. क्षेत्र-काल-भावगतपरिमितापरिमितप्रत्याख्यानप्रतिपा- वृत्ति श्रुत.६, १८)। दकप्रत्याख्यानपूर्वमहार्णवं सम्यगधिगम्य व्यपगत- १प्राणिघात के परिहार से जो विशिष्ट शदियक्त सकलसंशयस्तपोविशेषात् समुत्पन्नपरिहारद्धिस्तीर्थ- संयम होता है उसे परिहारविशुद्धिसंयम कहते हैं। करपादमूले परिहारशुद्धिसंयममादत्ते । एवमादाय २ जो साघु पांच समितियों व तीन गुप्तियों से स्थान-गमन-चक्रमणाशन-पानासनादिषु व्यापारे- युक्त होता हुआ सदा पाप का परित्याग करता है ब्बशेषप्राणिपरिहरणदक्षः परिहारशुद्धिसंयतो नाम। तथा पांच यमरूप भेद संयम अथवा एक ही सामा(धव. पु. १, पृ. ३७०-३७१); सव्वसुही होदूण यिकरूप अभेरसंयम से विभूषित होता है उसे परिती बस्साणि गमिय तदो वासपुधत्तेण तित्थयरपाद- हारविशुद्धिसंयत कहा जाता है। ३ जो परिहार
पच्चक्खाणणामधेयपुव्वं पढिदूण पुणो पच्छा पूर्वक अनुपम पांच यमरूप धर्म का मन-वचन-काय परिहारसुद्धिसंजमं पडिवज्जिय Xxx। (धव. से स्पर्श करता है-परिपालन करता पु. ७, पृ. १६७)। ८. परिहारस्तपोविशेषस्तेन पारिहारिकसंयत कहलाता है। विशुद्धं परिहारविशुद्धिकम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. परिहारिक संयत, परिहारियसंयत- देखो ६-१८)। ६. विशिष्टपरिहारेण प्राणिघातस्य यत्र परिहारविशुद्धि । हि। शुद्धिर्भवति चारित्रं परिहारविशुद्धि तत् ।। परीक्षण–परीक्षणं परीक्षा गण-परिचारकादिगो(त. सा. ६-४७)। १०. प्राणिवधान्निवृत्तिः परि- चरा । (अन. ध. स्वो. टी. ७-६८)।। हारनेन विशद्विय ग्मिन तत्परिहारविशुद्धिचारि- परीक्षण से परीक्षा का अभिप्राय
औ
र
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
परीक्षा ]
प्रत्याख्यान के अन्तर्गत अहदि लिंगों में से एक है । परीक्षा -- १. उद्दिष्टस्य लक्षितस्य च यथावल्लक्षणमुपपद्यते न वा इति प्रमाणतोऽर्थावधारणं परीक्षा । ( न्यायकु. १ - ३, पृ. २१) । २. प्रमाणबलात्तल्लक्षणविप्रतिपत्तिपक्षनिरास: परीक्षा । ( लघीय. अभय. वृ. पृ. ६) । ३. विरुद्ध नानायुक्तिप्राबल्य दौर्बल्यावधारणाय प्रवर्तमानो विचारः परीक्षा । ( न्यायदी. पृ. ८) ।
१ उद्दिष्ट और लक्ष्यभूत वस्तु का लक्षण यथार्थ में घटित होता है या नहीं; इस प्रकार प्रमाण से उसको यथार्थता का विचार करना, इसका नाम परीक्षा है ।
परीत संसार ( संसारपरीत) १. जिणवयणे प्रणुरता गुरुवयणं जे करंति भावेण । प्रसवल अकिलिट्ठा ते होंति परित्तसंसारा ॥ ( मूला. २, ७२) । २. संसारपरित्तेणं, पुच्छा । गोयमा ! जह“णे अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं प्रणतं कालं जाव अवढं पोग्गलपरियट्टु देसूणं । ( प्रज्ञाप. १८, २४७)। ३. यस्तु सम्यक्त्वादिना कृतपरिमितसंसार: स संसारपरीतः । X XX संसारपरीतो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम्, तत ऊर्ध्व मन्तकृत्केव लित्वयोगेन मुक्तिभावात् । उत्कर्षतो अनन्तकालम् । तमेव निरूपयति - 'अणताओ' इत्यादि प्राग्वत्, तत ऊर्ध्वमवश्यं मुक्तिगमनात् । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. १८-२४७ ) । ४. परीतीकृतसंसारा नाम स्तोकावशेषसंसाराः । ( आव. नि. मलय. वृ. १५, पृ. ४२ ) । ५. परीतः परिमितः संसारो यस्यासौ परीतसंसारिकः । ( बृहक. क्षे. वृ. ७१४)।
१ जो जिनेन्द्रदेव के वचनों में अनुरक्त होकर भक्तिपूर्वक गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं तथा - जो मिथ्यात्व से विरहित होते हुए संक्लेशपरिणाम से भी रहित हैं वे परीतसंसारी परिमितसंसार - वाले होते हैं । ३ जिसने सम्यक्त्व आदि के द्वारा - अपने संसार को परिमित कर दिया है, वह संसार परीत या परीतसंसारी हो जाता । वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त काल और उत्कर्ष से अनन्त काल - कुछ कम पार्ध पुद्गलपरिवर्तकाल तक ही संसार में रहता है- तत्पश्चात् नियम से मुक्त हो जाता है । परीत संसारिक देखो परीतसंसार | परीतानन जं तं परित्ताणंतयं तं तिविहं
[ परुषदोष
६८६, जैन - लक्षणावली जणपरित्ताणंतयं प्रजहण्णमणुक्कस परित्ताणंतयं उक्कस्सपरित्ताणंतयं चेदि । X XX जं तं जहण्णपरित्ताणंतयं तं विरलेदूण एक्केक्कस्स रूवस्स जहणपरित्ताणंतयं दादूण प्रष्णोष्ण भत्थे कदे उक्कसपरित्ताणंतयं प्रदिच्छिदूण जहण्णजुत्ताणंतयं गंतूण पदि । एवदिप्रभवसिद्धियरासी । तदो एगरू श्रवणीदे जादं उक्कस्सपरित्ताणंतयं । ( ति. प. ४, पृ. १८२-८३) । परीतानन्त जघन्य, अजघन्य अनुत्कृष्ट और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का है । जघन्य परीतानन्त का विरलन कर एक एक अंक के प्रति जघन्य परीतानन्त को देकर परस्पर गुणा करने पर जघन्य युक्तानन्त होता है । उसमें एक अंक कम कर देने पर उत्कृष्ट परीतानन्त होता है । श्रभव्य जीवराशि जघन्य युक्तानन्त प्रमाण है । परीवर्त- परीवर्तः श्राम्नायः परिपाटिगणस्वाव्यायः । ( प्रायश्चित्तस. टी. ७-२३ ) । उच्चारण की शुद्धिपूर्वक श्राचार्य परम्परागत परिपाटी के अनुसार स्वाध्याय करने को परीवर्त या आम्नाय नामक स्वाध्याय कहते हैं । परीषहजय-तेषां क्षुधादिवेदनानां तीव्रोदयेऽपि सुख-दुःख - जीवित-मरण - लाभालाभ - निन्दा - प्रशंसादिसमतारूपपरमसामायिकेन नवतरशुभाशुभकर्मसंवरणचिरन्तनशुभाशुभकर्मनिर्जरणसमर्थनायं निजपरमात्मभावनासंजातनिर्विकारनित्यानन्दलक्षणसुखामृतसंवित्तेरचलनं स परीषहजयः । (बृ. द्रव्यसं. टी. ३५) ।
भूख प्यास आदि की तीव्र वेदना के उदित होने पर भी सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-लाभ और निन्दा - प्रशंसा आदि में अतिशय समभावी बनकर नवीन कर्मों का संवर और पुरातन कर्मों की निर्जरा करते हुए निजात्मस्वरूप की भावनाजनित निविकार नित्यानन्दस्वरूप स्वानुभूति से चलायमान नहीं होने को परोषहजय कहते हैं । परुष-परुषं रूक्षं स्नेहरहितं (निष्ठुरं ) परपीडाकारि । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६, पृ. १६६) । जो वचन रूखा व स्नेह से रहित (निष्ठुर ) होता हुआ दूसरे जीवों को कष्ट पहुंचाने वाला हो उसे परुष वचन कहा जाता है ।
परुषदोष खड्ढे थेरे सेहे वडे टा
-
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
परोक्ष] ६८७, जैन-लक्षणावली
[परोक्ष परुसं । ममकारेण भणेज्जो भणिज्ज वा तेहि परु- यज्ज्ञानं रूपादिपदार्थपरिच्छेदनम् । (विशेषा. व. सेण । (भ. प्रा. ३८८)।
६०, पृ. ४१)। ११. परैः इन्द्रियरूक्षा-सम्बन्धनं स्वगण में रहते हुए प्राचार्य के द्वारा क्षुद्र, स्थविर यस्य ज्ञानस्य तत्परोक्षम् इन्द्रियादिनिमित्तमत्यादिः । (वृद्ध), मार्ग से अनभिज्ञ और संयम से हीन (त. भा. हरि. वृ. १-१०); इन्द्रिय-मनोनिमित्तं साधुओं को देखकर ममत्वबुद्धि से कठोर वचन बोला विज्ञानं परोक्षम् । (त. भा. हरि. वृ. १-११)। जा सकता है तथा वे भी कठोर वचन का व्यवहार १२. अक्षस्य आत्मनः द्रव्येन्द्रियाणि द्रव्यमनदच कर सकते हैं। इस प्रकार अपने संघ में रहते हुए पुद्गलमयत्वात् पराणि वर्तन्ते, पृथगित्यर्थः, तेभ्योऽप्राचार्य के समाधि का विरोधी यह परुषदोष सम्भव क्षस्य यत् ज्ञानमुत्पद्यते तत्परोक्षम्, परनिमित्तत्वाद् है, इसलिए प्राचार्य आराधना के लिए स्दगण को धूमादिज्ञानवत्, अथवा परैरूक्षा सम्बन्धनं विषय
बिषयीभावलक्षणमस्येति परोक्षम् । (नन्दी. हरि. वृ. परोक्ष-१. जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खं ति पृ. २७) । १३. XXX इतरज्ज्ञेयं परोक्षं ग्रहभणिदमट्ठसु । (प्रव. सा. १-५८) । २. पाये णेक्षया ॥ (षड्दस. ५६, पृ. २२३) । १४. xx परोक्षम् । (त. सू. १-११)। ३. कुतोऽस्य परोक्ष- X पराणीन्द्रियाणि पालोकादिश्च, परेषामायत्तं त्वम् ? परायत्तत्वात् । xxx अतः पराणि ज्ञानं परोक्षम् । (धव. पु. १३, पृ. २१२)। १५. इन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशोपदेशादि च बाह्यनिमित्तं अक्षेभ्यो हि परावृत्तं परोक्षं श्रुतमिष्यते । (त. श्लो. प्रतीत्य तदावरणकर्मक्षयोपशमापेक्षस्यात्मनो मति- १,११, ७)। १६. परोक्षस्यावैशा स्वरूपम् । श्रुतम् उत्पद्यमानं परोक्षमित्याख्यायते । (स. सि. (अष्टस. १५, पृ. १३२)। १७. परोक्षमविशद
ज्ञानात्मकम् । (प्रमाणप. पृ. ६६) । १८. पराणि च पारुक्खं ॥ (वृहत्क. २५); जं परतो आयत्तं तं निर्माणाङ्गोपाङ्गोदयनिवृत्त्युपकरणरूपाणीन्द्रियाणि, परोक्खं हवइ सव्वं ।। (बहत्क. २६)। ५. अक्ख- मनश्च मनोवर्गणापरिणतिरूपं द्रव्येन्द्रियं परम, स्स पोग्गलकया जं दब्विन्दिय-मणा परा तेणं । तेहिं- तेभ्यो यदुपजायते ज्ञानं तन्निमित्तजं तत्परोक्षमुच्यते तो जं नाणं परोक्खमिह तमणुमाणं वा ॥ (विशेषा. धूमादग्निज्ञानवत् । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-६) । ६०)। ६. अक्खा इंदिय-मणा परा, तेसु जंणाणं तं १६. समुपात्तानुपात्तस्य प्राधान्येन परस्य यत् । परोक्खं, मति-श्रुते परोक्षमात्मनः परनिमित्तत्वात् पदार्थानां परिज्ञानं तत् परोक्षमुदाहृतम् । (त. सा. अनुमानवत् । (नन्दी. चू. पृ. २२-२३)। ७. उपात्ता- १-१६)। २०. यत्तु खलु परद्रव्यभूतादन्तःकरणानुपात्तपरप्राधान्यादवगमः परोक्षम् । उपत्तानुपात्ता- दिन्द्रियात् परोपदेशादुपलब्धः संस्कारादालोकादेर्वा नीन्द्रियाणि मनश्च, अनुपात्तं प्रकाशोपदेशादि पर: निमित्ततामुपगतात् स्वविषयमुपगतस्यार्थस्य परि(धव. 'परः' नास्ति), तत्प्राधान्यादवगमः परोक्षम् । च्छेदनं तत् परतः प्रादुर्भवत् परोक्षमित्यालक्ष्यते । यथा गतिशक्त्युपेतस्यापि स्वयमेव गन्तुमसमर्थस्य (प्रव. सा, अमृत.१-५८)। २१. तस्मादन्तरङ्गमलयष्ट्याद्यालम्बनप्राधान्यं गमनं तथा मति-श्रुतावरण- विश्लेषविशेषोदयनिबन्धनः कश्चिदस्पष्टत्वापरनामा क्षयोपशमे सति ज्ञस्वभावस्यात्मनः स्वयमेवार्थानुप- स्वानुभववेद्यः प्रतिभास विशेष एव, तस्य परोक्षत्वम् । लब्धुमसमर्थस्य पूर्वोक्तप्रत्ययप्रधानं ज्ञानं परायत्तत्वा- (प्रमाणनि. पृ. ३३)। २२. प्रतिपादितविशदस्वतदुभयं (धव. 'तदुभयं' नास्ति) परोक्षमित्युच्यते। रूपविज्ञानाद्यदन्यदविशदस्वरूपं विज्ञानं तत्परोक्षम् । (त. वा. १, ११, ६; धव. पु. ६, पृ. १४३-४४) । (प्र. क. मा. ३-१)। २३. अविशदमविसंवादि ८. परोक्षं शेषविज्ञानम् XXX॥ (लघीय. ३); ज्ञानं परोक्षम् । (सन्मति. अभय. व. २-१, पृ. इतरस्य (अविशदनिर्भासिनः) ज्ञानस्य परोक्षता। ५९५; षड्द. स. वृ. ५५, पृ. २०६)। २४. परे(लघीय. स्वो. विव. ३)। ६. परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि भ्यः-अक्षापेक्षया पुदगलमयत्वेन द्रव्येन्द्रिय-मनोभ्योxxx॥ (प्रमाणसं. २); व्यपेक्षातः तद्विधि- ऽक्षस्य जीवस्य यत्तत्परोक्षं निरुक्तवशादिति । अाह करणादि परापेक्षं परोक्षम् । (प्रमाणसं. स्वो. विव. च-अक्खस्स पोग्गलकया जं दविदिय-मणा परा ८७)। १०. परोक्षं पुद्गलमयेभ्य इन्द्रिय-मनोभ्यो तेण । तेहिंतो जं नाणं परोक्खमिह तमणमाणं व ॥
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
परोक्ष] ६८८, जैन-लक्षणावली
[परोक्षाभास (स्थाना. अभय. वृ. २, १, ७१) । २५. अस्पष्टं अक्षस्यात्मनः उत्पद्यते यत् ज्ञानद्वयं तत्परोक्षम् । परोक्षम् xxx। (प्र. न. त. ३-१)। २६. (त. वृत्ति श्रुत. ११-१) । ३५. ज्ञानस्यापि इन्द्रिय-मनःपरोपदेशावलोकादिवहिरङ्गनिमित्तमता- परोक्षस्यावशद्यस्वरूपम्। (सत. पृ. ४७) । ३६. त्तथैव च ज्ञानावरणीयक्षयोपशमजनितार्थग्रहणशक्ति- अक्षेभ्योऽक्षाद्वा परतो वर्तत इति परोक्षम्, अस्पष्ट रूपाया उपलब्धेरावधारणरूपसंस्काराच्चान्तरंग- ज्ञानमित्यर्थः । (जैनत. पृ. ११४)। कारणभूतात् सकाशादुत्पद्यते यद्विज्ञानं तत्पराधीन- १ जो पर से–इन्द्रिय, मन, परोपदेश एवं प्रकाश त्वात्परोक्षमित्युच्यते । (प्रव. सा. जय. वृ. १-५८)। प्रादि के निमित्त से-पदार्थ का ज्ञान होता है उसे २७. अक्षेभ्यः परतो वर्तते इति परेणेन्द्रियादिना परोक्ष कहा जाता है। ४ प्रक्ष अर्यात जीव के जो चोक्ष्यत इति परोक्षम् । (प्रमाणमी. स्वो. वु, १, पर से- इन्द्रिय व मन के द्वारा-वर्तमान ज्ञान १, १०); अविशदः परोक्षम् । (प्रमाणमी. १, २, उत्पन्न होता है वह परोक्ष कहलाता है। ५ अक्ष १)। २८. द्रव्येन्द्रिय-मनांसि पुद्गलमयत्वात्पराणि, (जीव) की द्रव्य इन्द्रियां व मन चूंकि पुद्गलकृत तेभ्यः पुनरक्षस्य वर्तमानं ज्ञानं भवति परोक्षम् । हैं, अतएव वे पर हैं-उससे भिन्न हैं, उनसे जो किमक्तं भवति ? यदिन्द्रियद्वारेण मनोद्वारेण वा ज्ञान होता है वह परोक्ष कहलाता है। जैसे—अनऽऽत्मनो ज्ञानमुपजायने तत्परोक्षम् ।xxx यदि मान ज्ञान । वा परैर्द्रव्येन्द्रिय-मनोभिरक्षसम्बन्धो यस्मिस्तत्परो
परोक्ष-उपचारविनय--१. परोक्षेष्वप्याचार्यादिक्षमिति व्युत्पत्तिः। (बृहत्क. मलय. वृ. २५)। वंजलिक्रिया-गुणसंकीर्तनानुस्मरणाज्ञानुष्ठायित्वादिः २६. 'अशा व्याप्तौ' अश्नुते-ज्ञानात्मना सो- काय-वाङमनोभिरवगन्तव्यः, राग-प्रहसन-विस्मरणनर्थान् व्याप्नोतीत्यक्षः, यदि वा 'अश् भोजने' ।
रपि न कस्यापि पृष्ठमांसभक्षणं करणीयमेवमादिः प्रश्नाति-सर्वानर्थान् यथायोगं भुङ्क्ते पालयति ।
परोक्षोपचारविनयः प्रत्येतव्यः । (चा. सा. पृ. वेत्यक्षो जीवः, उभयत्रापि 'मावावद्यमिकमिहनिक
६५-६६) । २. Xxx गुरुणा विणा वि ष्यशी' त्यादिना उणादिकसप्रत्ययः, अक्षस्य-पात्मनो
प्राणाए। अणुवट्टिज्जए जंतं परोक्खविणो त्ति विद्रव्येन्द्रियाणि द्रव्यमनश्च पुदगलमयत्वात् पराणि
ण्णेयो। (वसु. श्रा. ३३१)। ३. ज्ञान-विज्ञानवर्तन्ते, पृथग्वर्तन्त इति भावः, तेभ्यो यदक्षस्य ज्ञान
सत्कीतिर्नतिराज्ञानुवर्तनम् । परोक्षे गणनाथानां मुदयते तत्परोक्षम्, 'पृषोदरादयः' इति रूपनिष्पत्तिः,
परोक्षप्रश्रयः परः ॥ (श्राचा. सा. ६-८२) । अथवा परैः इन्द्रियादिभिः सह उक्षा सम्बन्धो
१ परोक्ष में अर्थात् प्राचार्यादि के सम्सुख न होने विषय-विषयिभावलक्षणो यस्मिन् ज्ञाने, न तु साक्षा
पर भी काय, वचन व मन से क्रमशः उन्हें हाथ दात्मना, तत्परोक्षं धूमादग्निज्ञानवत् ।xxx उक्तं
जोड़ नमस्कार करने, गुणगान करने और उनकी च-अक्खस्स पोग्गलमया जं दव्वेंदियमणा परा
प्राज्ञानसार चलने को परोक्ष उपचारविनय होति। तेहिंतो जं नाणं परोक्ख मिह तमणुमाणं
कहते हैं। व ॥ (प्राव. नि. मलय. वृ. १, पृ. १३)। ३०. उपात्तानपात्तपरप्रत्ययापेक्ष परोक्षम । (गो. जी. मं. परोक्षदृष्टि-पुन्वुत्तसयलदव्वं णाणागुण-पज्जएण प्र. व जी. प्र. टी. ३६६)। ३१. शेषमवितथं ज्ञानं
संजुत्तं । जो ण य पेच्छदि सम्म परोक्ख दिट्ठी हवे
सजुत्त । जा स्मृति-प्रत्यभिज्ञान-तर्कानमानागमभेदभिन्नं परोक्षम। तस्स ॥ (नि. सा. १६७)। (लघीय. अभय. व, पृ. १२) । ३२. अविशदप्रति- जो अनेक गुणों और पर्यायों से संयुक्त मूर्त-अमूर्त भासं परोक्षम् । (न्यायदी. पृ. ५१)। ३३. अक्षा- एवं चेतन-अचेतन सब द्रव्यों को भले प्रकार (अथवा णां परम् ---अक्षव्यापारनिरपेक्षं मनोव्यापारेणासा- एक साथ) नहीं देखता है उसे परोक्षदृष्टि जानना क्षादर्थपरिच्छेदकं परोक्षमिति परशब्दसमानार्थेन चाहिए। 'परस्' शब्देन सिद्धम् । (षड्द. स. गु. वृ. ५५, पृ. परोक्षाभास–वैशोऽपि परोक्षं तदाभासं मीमांस२०४-५)। ३४. xxx मति-श्रुतज्ञानावरण- कस्य करणज्ञानवत् । (परीक्षा. ६-७)। क्षयोपशमश्च परमुच्यते, तत्परं बाह्यनिमित्तमपेक्ष्य विशद प्रतिभास के होने पर भी उसे परोक्ष मानना
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
परोपरोधाकरण] ६८६, जैन-लक्षणावली
[पर्याप्तनाम इसे परोक्षाभास कहा जाता है। जैसे-मीमांसक पर्याप्ताः ये (पृथिव्यादयः) हि चतस्रः स्वपर्याप्तीः के यहां करणज्ञान।
पूरयन्तीति । एताः (आहारादयः) पर्याप्तयः पर्यापरोपरोधाकरण-१. परेषामुपरोधाकरणम् ।। प्तनामकर्मोदयेन निर्वय॑न्ते, तद येषामस्ति ते पर्या(स. सि. ७-६; त. वा. ७-६)। २. स्वामित्वेन प्तकाः । (स्थाना. अभय. वृ. २, १, ७३)। वसत्यादि परैः स्यादुपरुन्धितम् । परोपरोधाकरण- ५. पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते पर्याप्ताः। (पंचसंमाहुः सूत्रविशारदाः ॥ तत्स्वामिनमनापृच्छय स्था- मलय. वृ. १-५; कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ४८; तव्यं न गृहिवतः । स्थातव्यं च तमापृच्छय दीय- षडशीति दे. स्वो. वृ. २, पृ. ११७)। ६. शरीरमानं तदाज्ञया ।। (लाटीसं. ६, ४१-४२)। पर्याप्त्या पर्याप्ताः, मतान्तरेण सर्वस्वयोग्यपर्याप्ति१ दूसरों के ठहरने में बाधक न होना, अथवा दूसरों पर्याप्ताः । (बृहत्सं. मलय. वृ. २००)। ७. पर्यासे ठहरने का आग्रह न करना, यह परोपरोधा- प्तनामकर्मणः उदये सति जीवः निज-निजपर्याप्तिभिः करण नाम की प्रचौर्यव्रत की भावना है। २ जो स्व-स्वयोग्य पर्याप्तिभिः, निष्ठितः निष्पन्नः पर्याप्तो वसति (स्थान) आदि स्वामीरूप से दूसरों के द्वारा भवति । शरीरपर्याप्तिनिष्पत्तिसययादारभ्य इन्द्रियारोकी गई है, अणुव्रती श्रावक वहां स्वामी से पूछ । नपान-भाषा-मनःपर्याप्तीनां निष्पत्त्यभावेऽपि जीवः कर ठहर सकते हैं, उसकी प्राज्ञा के बिना वहां न पर्याप्तक एव । (गो. जी. जी. प्र. १२१)। ८. पर्याठहरना, यह परोपरोधाकरण भावना है।
प्तयः स्वयोग्या यः सकलाः साधिताः सुखम् । पर्यापर्यङ्कासन- १. स्याज्जंघयोरधोभागे पादोपरि प्तनामकर्मानुभावात् पर्याप्तकास्तु ते ॥ (लोकप्र. कृते सति । पर्यको नाभिगोत्तानदक्षिणोत्तरपाणिकः ॥ ३-८)। ( योगशा. ४-१२५ )। २. वामान्तर्गुल्फवामस्य १ जो जीव माहारादि छह पर्याप्तियों से परिपूर्ण गुल्फो बाह्यः स्थितस्तयोः। पादयोरूरुमूलस्थं पल्य- हो चुके हैं वे पर्याप्त या पर्याप्तक कहलाते हैं।
के पाणियुग्मकम् ॥ गुल्फस्थोत्तानवामस्थोत्ता- २ जो पर्याप्तनामकर्म के उदय से युक्त हैं उन्हें नावामकरः समः । पल्यङ्केत्रासने स्याच्चेत् कायो- पर्याप्त कहा जाता है। ३ जो अपनी जाति के योग्य त्सर्गः सुसौष्ठवः ।। (प्राचा. सा. ६, ८५-८६)। पर्याप्तियों की प्राप्ति के योग्य हैं उन्हें पर्याप्तक ३.xxxउत्तराधरे। ते पर्यङकासनंxxx|| जानना चाहिए। (अन. घ. ८-८३)। ४. अन्तर्दक्षिणजंघोोर्वा- पर्याप्तनाम, पर्याप्तकनाम- देखो पर्याप्तिमांहि यत्र निक्षिपेत् । दक्षिणं वामजंघोर्वोस्तत्पर्य- नाम। १. पर्याप्तकनाम यदुदयादिन्द्रियादिनिष्पतिर्भकासनं मतम् । (चैत्यवन्दन भा. वृ. १२ उद्.)। वति । (श्रा. प्र. टी. २२)। २. जस्स कम्मस्स उद१ दोनों जांघों के नीचे के भाग को पांवों के ऊपर एण जीवो पज्जत्तो होदि तस्स कम्मस्स पज्जत्तेत्ति करके नाभि के पास वाम हथेली के ऊपर दक्षिण सण्णा । (धव. पु. ६, पृ. ६२); जस्स कम्मस्सुदहथेली के रखने पर पर्यकासन होता है।
एण जीवा पज्जत्ता होंति तं कम्म पज्जत्तं णाम । पर्याप्त, पर्याप्तक.-१. षभिराहारादिपर्याप्ति- (धव. पु. १३, पृ.३६५)। ३. एता यथास्वमेके भिर्ये पर्याप्तास्ते पर्याप्तकाः। (प्राव. नि. हरि. वृ. विकलेन्द्रिय-संज्ञिपंचेन्द्रियाणां चतुष्पंच-षट्संख्याः १५)। २. पर्याप्तकर्मोदयवन्तः पर्याप्ताः । (धव. पु. पर्याप्तयो यस्योदयाद् भवन्ति तत्पर्याप्तकं नाम । १, पृ. २५३-५४); पर्याप्तनामकर्मोदय-जनितश- तद्विपाकवेद्यं कर्मापि पर्याप्तकनाम । (शतक. मल. क्त्याविभावितवृत्तयः पर्याप्ताः । (धव. पु. १, पृ. हेम. वृ. ३८, पृ. ५०, कमस्त. गो. वृ. ९-१०, २६७); पज्जत्तणामकम्मोदयवंतो जीवा पज्जत्ता। पृ. ८७)। ४. यदुदये जीवः स्वपर्याप्तिभिः पर्याप्तः (धव. पु. ३, पृ. ३३१); पज्जत्तणामकम्मोदयं परिपूर्णो भवति तत्पर्याप्तनाम । (कर्मवि. ग. प्र. व्या. पडुच्च पज्जत्ता । (धव. पु. ६, पृ. ४१६) । ३. स्व- ७३) । ५. पर्याप्तकनाम यदुदयात् सर्वपर्याप्ति निष्पजात्युचितपर्याप्तिलब्धियोग्या: पर्याप्तकाः। (पंचसं.. त्तिर्भवति। (धर्मसं. मलय. वृ. ३१६)। ६. पर्याप्तस्वो. वृ. ३-६)। ४. पर्याप्तनामकर्मोदासिनः कनाम यदुदयात् स्वयोग्यपर्याप्तिनिवर्तनसमथों
ल. ८७
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्याप्ता भाषा] ६६०, जैन-लक्षणावली
[पर्याप्ति भवति । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २३-२६३, पृ. ४७४; पर्याप्तयः आहारादिकारणनिष्पत्तयः । (मूला. वृ. पंचसं. मलय.व. ३-८%, सप्तति. मलय. व. ६; १२ -२); पर्याप्तयः सम्पूर्णताहेतवः । (मला.व. प्रव. सारो. वृ. १२७२; कर्मप्र. यशो. वृ. १,पृ. ७)। १२ -४) । ८. इह च पर्याप्ति म शक्तिः सामर्थ्य७. यदुदयात् स्वपर्याप्तियुक्ता भवन्ति जीवास्तत्पर्या- विशेषः, सा च पुद्गलद्रव्योपचयाद् वर्तते । (स्थाना. प्तनाम । (कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ४८)।
अभय. वृ. २,१, ७३) । ६. आहार-सरीरिदिन१ जिसके उदय से इन्द्रिय प्रादि की उत्पत्ति होती ऊसास-वउ-मणोऽभिनिवित्ती। होइ जो दलिग्रामो है उसे पर्याप्तक नामकर्म कहते हैं। २ जिस कर्म करणं पइ सा उ पज्जत्ती॥ (संग्रहणी. २६६)। के उदय से जीव पर्याप्त होता है वह पर्याप्त नाम- १०. पर्याप्तिराहारादिपुदगलदलिकग्रहण-परिणमनकर्म कहलाता है। ३ जिसके उदय से एकेन्द्रिय, हेतु: पुद्गलोपचयजः शक्तिविशेषः । (कर्मस्त. गो. विकलेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के यथायोग्य व. १०, पृ. ८७)। ११. पर्याप्तिः स्वविषयग्रहणचार, पांच और छह पर्याप्तियां होती हैं उसे पर्या- सामर्थ्यलक्षणा। (प्राव. नि. मलय. वृ. ८३१ प्तक नामकर्म कहा जाता है।
[अन्यदीया १६ प्र.] पृ. ४५१)। १२. पर्याप्ति - पर्याप्ता भाषा-१. पर्याप्ता या एकपक्षे निक्षि- माहारादिपुद्गलग्रहण-परिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविप्यते सत्या चा मृषा वेति तद्व्यवहारसाधनी। शेषः । स च पुद्गलोपचयादुपजायते। किमक्तं (वशवं. नि. हरि. वृ. ७-२७८, पृ. २१०)। भवति ? उत्पत्तिदेशमागतेन प्रथमं ये गृहीताः २. अवहारेउं सक्कइ पज्जत्त XXX । (भाषार. पुद्गलास्तेषां तथाऽन्येषामपि प्रतिसमयं गृह्यमाणानां १६, पृ. ७); तश्रावधारयितुं शक्यते या सा पर्याप्ता xxx तदुक्तं वाक्यशुद्धिचूणों-पज्जत्तिगा णाम रादिपुद्गलखल-रसरूपतापादनहेतुः । यथोदरान्तर्गजा अवहारेतुं सक्कइ जहा सच्चा मोसा वा एसा तानां पुद्गलविशेषाणामाहारपुद्गलखल-रसरूपतापज्जत्तिगा। (भाषार. टी. १६, प. ७)।
परिणमनहेतुः । (प्रज्ञाप. मलय. व.१-१२; जीवा१ जिस भाषा का निक्षेप सत्य या असत्य में से किसी जी. मलय. वृ.१-१२, पंचसं. मलय. व. १-५) । एक पक्ष में किया जाता है, व्यवहार की साधन- १३. पर्याप्ति म पुद्गलोपचयजः पुद्गलग्रहण-परिभूत उस भाषा को पर्याप्ता भाषा कहते हैं। णमनहेतुः शक्तिविशेषः । (षडशी. मलय. व. ३, पर्याप्ति--१. पर्याप्तिः क्रियापरिसमाप्तिः प्रातनः। कर्मवि. दे. स्यो. ७.४८, पृ. ५५; षडशी. दे. स्वो. (त. भा. ८-१२) । २. इह पर्याप्ति म शक्तिः, वृ. २)। १४. पर्याप्तिराहारादिपुद्गलग्रहण-परिणसा च पुद्गलद्रव्योपचयादुत्पद्यते । Xxx तत्र मनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः । (सप्तति. मलय. व. पर्याप्तिः क्रियापरिसमाप्तिः । (नन्दी. हरि. वृ. ६ प्रव. सारो. वृ. १३१७; संग्रहणी. दे. वृ. २६८%3 पृ.४३) । ३. आहार-शरीरेन्द्रियानापान-भाषा-मन:- विचा. स. वृ. ४३, पृ. ६)। १५. पर्याप्ता व्यपशक्तीनां निष्पत्तेः कारणं पर्याप्तिः । (धव. पु. १, दिश्यन्ते याभिः पर्याप्तयस्तु ताः। (लोकप्र. ३-७); पू. २५६); अथवा जीवनहेतुत्वं तत्स्थमनपेक्ष्य याऽऽहारादिपुद्गलानामादान-परिणामयोः । जन्तोः शक्तिनिष्पत्तिमात्र पर्याप्तिरुच्यते । (धव. पु. १, प. पर्याप्तिनामोत्था शक्तिः पर्याप्तिरत्र सा॥ (लोकप्र. २५७)। ४. पर्याप्तिः पुद्गलरूपात्मनः कर्तुः कर- ३-१५) । णविशेषः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ८-१२) । ५. पाहा- १ अपनी क्रिया की समाप्ति का नाम पर्याप्ति है। र-सरीरिदिय-णिस्सासुस्सास-भास-मणसाणं । परिणइ- २ पर्याप्ति उस शक्ति का नाम है जो पुदगलद्रव्य के वावारेसु य जामो छच्चेव सत्तीग्रो॥ तस्सेव कार- उपचय से उत्पन्न होती है। ३ आहार, शरीर, णाणं पूग्गलखंधाण जाह णिप्पत्ती। सा पज्जत्ती इन्द्रिय, पानपान, भाषा और मन की शक्तियों की भण्णदि छब्भेया जिणवरिंदेहिं ॥ (कातिके. उत्पत्ति का जो कारण है उसे पर्याप्ति कहते हैं। १३४ -३५) । ६. यतो हि शरीरेन्द्रियादिनिष्पत्तिः अथवा इन्द्रियादि में स्थित जीवन हेतुता की अपेक्षा सा पर्याप्तिः । (न्यायकु. ७६, पृ.८५२) । ७. पर्या- न करके शक्ति को निष्पत्तिमात्र को पर्याप्ति जानना प्तीराहारादिकारणसम्पूर्णताः । (मूला. वृ. १२-१); चाहिए।
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
[पर्याय
पर्याप्तिनामकर्म]
६६१, जैन-लक्षणावली पर्याप्तिनामकर्म-देखो पर्याप्तनाम । १: यदुदया- पर्यायो हि विनाशपर्याय:, यथा प्राप्तपर्यायो देवदत्त दाहारादिपर्याप्तिनिर्वृत्तिः तत्पर्याप्तिनाम । (स. सि. इति । (त. भा. सिद्ध. वृ. ५-३१, पृ. ४०१); ८-११; त. श्लो. ८-११; मूला. वृ. १२-१६५)। अगपदवस्थायिनः पर्यायः, वस्तुतः पर्याया गुणा २. पर्याप्तिनिवर्तकं पर्याप्तिनाम । (त. भा. ८, इत्यैकात्म्यम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. ५-३७) । १२) । ३. यदयादाहारादिपर्याप्तिनिर्वृत्तिस्तत्पर्या- ७.xxxविसेसरूवो हवेइ पज्जावो। (कातिके प्तिनाम । यस्योदयात् आहारादिपर्याप्तिभिरात्मा २४०)। ८. अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनो xxx अन्तर्महत पर्याप्ति प्राप्नोति तत्पर्याप्तिनाम । (त. व्यतिरेकिणः पर्यायाः। (पंचा. का. अमृत. वृ. १०)। वा. ८, ११, ३१)। ४. पर्याप्ति: पुद्गलरूपा ६. गुणविकाराः पर्यायाः। (अलापप. पृ. १३४); प्रात्मनः कर्तुः करणविशेषः येन कर्मविशेषेणाहारा- क्रमवर्तिनः पर्यायाः । (मालापप. पृ. १४०); स्वदिग्रहणसामर्थ्यमात्मनो निष्पद्यते, तच्च करणं यः भाव-विभावरूपतया याति पर्येति परिणमतीति पुद्गलैंनिर्वय॑ते ते पुद्गला आत्मनात्तास्तथाविध- पर्याय इति पर्यायस्य व्युत्पत्तिः। (प्रालापप. प. परिणतिभाज: पर्याप्तिशब्देनोच्यन्ते । (त. भा. हरि. १४०-४१) । १०. पर्यायाः क्रमभाविनः सुख-दुःखा. व सिद्ध. वृ. ८-१२)। ५. एयासिं (पज्जत्तीणं) दयः (जीवस्य), शिवकादयश्च (पुद्गलस्य) । निप्फत्ती उदएणं जस्स होइ कम्मस्स । तं पज्जत्तं (सिद्धिवि. वृ. ३-२०, पृ. २१३, पं. १); भेदात्मनाम इयरुदये नस्थि निप्फत्ती ॥ (कमवि. ग. काः पर्यायाःXXXपर्याया: परिणामाः । (सिद्धि१३७) । ६. षड्विधपर्याप्तिहेतुर्यत्कर्म तत्पर्याप्ति- वि. वि. १०-१, पृ. ६६२)। ११. एकस्मिन् द्रव्ये नाम । (मूला. वृ. १२-१६६)। ७. पर्याप्तकनामयदयवशात स्वयोग्यपर्याप्तिनिवर्तनसमर्थो भवति दादिवत् । (परीक्षा. ४-८)। १२. कमभुवो विवर्ताः तत्पर्याप्तिनाम-आहारादिपुद्गलग्रहण-परिणमनहेतु- पर्यायाः । (न्यायकु. १-५, प. ११७)। १३. पर्यारात्मनः शक्तिविशेषः । (प्रज्ञाप. मलय.व. २३-२६३, याश्च क्रमभाविनः चेतनस्य सुख-दुःखादयः, अचेतनस्य पृ. ४७४) । ८. आहारादिपर्याप्तिनिवर्तकं पर्याप्ता- कोश-कुशूलादयः । (न्यायवि. वि. १-११५, प. ख्यं नामकर्म । (भ. प्रा. मूला. २१२१)।
४२८)। १४. XXX तद्विशेषास्तु पर्यायाः । जिस कर्म के उदय से आहारादि पर्याप्तियों की (प्राचा. सा. ३-८); एकस्य वस्तुनो भावाः पर्यायाः रचना होती है उसे पर्याप्तिनामकर्म कहते हैं। क्रमभाविनः। तोष-रोषादयो भावा जीवे वा क्रम२ पर्याप्तियों के उत्पादक कर्म को पर्याप्तिनामकर्म भाविनः ॥ (प्राचा. सा. ४-६)। १५. पर्यायरत कहा जाता है।
क्रमभावी, यथा तत्रैव सुख-दुःखादिः । (प्र. न. त. पर्याय-१. भावान्तरं संज्ञान्तरं च पर्यायः । (त. भा. ५-३७) । २. तस्य (द्रव्यस्य) मिथो भवनं प्रतिक्षणभवनादिक्रियाभिसम्बन्धाः । (धर्मसं. मलय. प्रति विरोध्यविरोधिनां धर्माणामुपात्तानुपात्तहेतुका- वृ. ३३८)। १७. ये तु क्रमवृत्तयः सुख-दुःख-हर्षनां शब्दान्तरात्मलाभनिमित्तत्वादर्पितव्यवहारविष- विषादादयः ते पर्यायाः । (रत्नाकरा. ५-८, प. योऽवस्थाविशेषः पर्यायः । (त. वा. १, २६, ४); ८२); पर्येत्युत्पाद-विनाशौ प्राप्नोतीति पर्यायः । परि समन्तादायः पर्यायः । (त. वा. १, ३३, १)। (रत्नाकरा. ७-५)। १८. पर्यायः स्वाभाविक प्रौपा३. क्रमवर्तिनः पर्यायाः। (प्राव. नि. हरि. व मलय. धिको वा फलानां पाकपरिणामः । (बहत्क. क्षे.व. व.६७८)। ४. परि भेदमेति गच्छतीति पर्याय:। ८३६)। १६. स्वभाव-विभावपर्यायरूपतया परि (धव. पु. १, पृ. ८४); जं पुण कमेण उप्पाद- समन्तात् परिप्राप्नुवन्ति परिंगच्छन्ति ये ते पर्यायाः । द्विदि-भंगिल्लं सो पज्जायो। (धव. पु. ४, पृ. (त. वृत्ति श्रुत. ५-३८) । २०. क्रमवतिनो ह्यनि३३७) । ५. परि भेदं ऋजुसूत्रवचनविच्छेदम् एति त्या अथ च व्यतिरेकिणश्च पर्यायाः। उत्पाद-व्ययगच्छतीति पर्यायः । (जयध. १, पृ. २१७)। रूपा अपि च ध्रौव्यात्मकाः कथंचिच्च ।। (पंचाध्या. ६. उत्पाद-विनाशलक्षणः पर्यायः । (त. भा. सिद्ध. १-१६५); अंशाः पर्याया इति xx व. ५-३०): पर्यायो भेदो विनाशलक्षणः xxx ध्या. १-५१६)। २१. Xxx पर्यायो नयगो
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यायच्छेद]
६६२, जैन-लक्षणावली
पिर्यायलोक
चरः। (प्रमाल. ३९५)। २२. गुणविकाराः पर्या- स्वो. वृ. ७)। ३. तत्र पर्यायो लब्ध्यपर्याप्तसूक्ष्मयाः। (नयप्र. पृ. ६८); पर्येति उत्पादमुत्पत्ति निगोतस्य प्रथमसमयजातस्य प्रवृत्तं सर्वजघन्यं ज्ञानम्, विपत्ति च प्राप्नोतीति पर्यायः । xxx क्रम- तद्धि लब्ध्यक्षराभिधानमक्षरश्रुतानन्तपरिमाणत्वात् भाविनः पर्यायास्त्वात्मनः यथा सुख-दुःख-शोक- सर्वज्ञानेभ्यो जघन्यं नित्योद्घाटं निरावरणं च । न हर्षादयः । (नयप्र. पु. ६६)। २३. क्रमभावी अया- हि तावतस्तस्य कदाचनाप्यभावो भवत्यात्मनोऽप्यवद्रव्यभावी पर्यायः । xxx पर्यायः क्रमभावी। भावप्रसङ्गादुपयोगलक्षणत्वात्तस्य । (अन. ध. (द्रव्यानु. त. पृ. १२)। १ इन्दन व शकनादि क्रियारूप भावान्तरों तथा १ केवलज्ञान के समान निरावरण और अविनश्वर इन्द्र व शक्र प्रादि संज्ञान्तरों को पर्याय कहा जाता ऐसे सूक्ष्म निगोदजीव के लब्ध्यक्षररूप सर्वजघन्य है। २ उपात्तहेतुक--द्रव्य-क्षेत्रादि के निमित्त से मतिज्ञान से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है यह भी होने वाले प्रौदयिकादि भाव-तथा अनुपात्तहेतुक- उक्त मतिज्ञान के समान पर्यायज्ञान कहलाता है। स्वाभाविक चैतन्य प्रादि-जो धर्म एक साथ रहने २ पर्याय, ज्ञान का अंश और अविभागप्रतिच्छेद ये में विरोधी भी हैं व अविरोधी भी हैं, उनकी विव- समानार्थक हैं। सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त जीव के क्षित व्यवहार की विषयभूत-व्यवहार, ऋजुसूत्र, जो सबसे जघन्य श्रुतज्ञान मात्र होता है उसकी शब्द, समभिरूद और एवंभूत इन नया स्वरूप- अपेक्षा दूसरे जीव में जो एक अविभागप्रतिच्छेदरूप अवस्थाविशेष को पर्याय कहते हैं ।
श्रुतज्ञान का अंश होता है उसे पर्यायज्ञान कहा पर्यायच्छेद–तवभूमिमदिक्कतो मूलट्ठाणं च जो ण जाता है । संपत्तो । से परियायच्छेदो पायच्छित्तं समुद्दिळं ॥ पर्यायज्ञानावरणीय-पज्जयसण्णिदरस णाणस्स (छेदपिण्ढ २४३)।
जमावरणं तं पज्जयणाणावरणीयं । (धव. पु. १३, तपोभूमि को छोड़ता हुआ जो मूल स्थान को पृ. २७७)। पाप्त नहीं होता है-पुनः दीक्षा को नहीं ग्रहण १ जो कर्म पर्याय नामक ज्ञान को आच्छादित करता कर लेता है-उसको पर्यायच्छेद प्रायश्चित्त निर्दिष्ट है उसे पर्यायज्ञानावरणीय कहते हैं। किया गया है।
पर्यायलोक-१. दव्वगुण-खेत्तपज्जय भावाणुभावो पर्यायज्ञान-१. खरणाभावा अक्खरं केवलणाणं, य भावपरिणामो। जाण चउब्विहमेयं पज्जयलोगं तस्स अणंतिमभागो पज्जाओ णाम मदिणाणं । तं समासेण ।। (मूला. ७-५४) । २. दव्वगुणखित्तनवलणाणं व निरावरणमक्खरं च। एदम्हादो पज्जवभवाणुभावे अभावपरिणामे । जाण चउब्विसुहमणिगोदलद्धिअक्खरादो जमुप्पज्जइ सुदणाणं तं हमेअं पज्जवलोगं समासेण ॥ वन्न-रस-गंध-संठाणपि पज्जाओ उच्चदि । (धव. पु. ६, पृ. २१-२२); फास-ठाण-गइ-वन्नभेए अ। परिणामे ए बहुविहे पज्जलद्धिअक्खरे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे लद्धं सव्व- वलोगं विप्राणाहि। (आव. भा. २०२-३, पृ. जीवरासीदो अणंतगुणं णाणाविभागपडिच्छेदेहि ४६६ हरि. व.)। दोदि। एदम्हि पक्खेवे लद्धिअक्खरम्हि पडिरासि- १ द्रव्यगुण, क्षेत्रपर्याय, भावानुभाव (भवानुभाव) दम्हि पक्खित्ते पज्जयणाणपमाणमुप्पज्जदि । (धव. और भावपरिणाम; इस प्रकार से पर्यायलोक प. १३. पृ. २६३) । २. पर्यायो ज्ञानस्यांशोऽविभा- संक्षेप में चार प्रकार का है। इनमें ज्ञान-दर्शन प्रादि गपलिच्छेद इत्यनर्थान्तरम्, (कर्मवि. 'शो विभागः तथा कृष्ण-नीलादि द्रव्यगुण अनेक हैं, सातवीं पलिच्छेद इति पर्यायः') तत्रैको ज्ञानांशः पर्यायः, पृथिवी के प्रदेश व पूर्वापर विदेहादि को क्षेत्र अनेके त ज्ञानांशाः पर्यायसमासः । एतदुक्तं भवति- पर्याय जानना चाहिए, प्रायु के जघन्य, मध्यम और लब्ध्यपर्याप्तस्य सूक्ष्मनिगोदजीवस्य यत्सर्वजधन्यं उत्कृष्ट विकल्परूप भवानुभव है; जो भाव (परिश्रतज्ञानमात्र तस्मादन्यत्र जीवान्तरे य एकः श्रुत- णाम) कर्म के उपार्जन व उसकी निर्जरा का ज्ञानांशोऽविभागपलिच्छेदरूपो वर्तते स पर्यायः । कारण होता है उसे भावपरिणाम कहा गया है। (शतक. मल. हेम. व. ३८, पृ. ४२; कर्मवि. दे. २ द्रव्य के गुणों-जैसे रूपादि, क्षेत्र की पर्यायों
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यायसमास] ६६३, जैन-लक्षणावली
पर्यायाथिक जैसे अगुरुलघु और भरतक्षेत्रादि भेद, नारक प्रादि प्रमाण हो जाने पर उक्त पर्यायसमास ज्ञान का भव के तीव्रतमादि दुःखों और जीवाजीवादि अन्तिम विकल्प होता है। २ सुक्ष्म निगोदजीव के सम्बन्धी परिणामों रूप चार प्रकार का पर्यायलोक सर्वजघन्य श्रुतज्ञान के प्रागे उसके जो दो प्रादि जानना चाहिए। इनमें से द्रव्य के गुण वर्ण, रस, अविभागप्रतिच्छेद नाना जीवों में वृद्धिगत पाये गन्ध, संस्थान, स्पर्श, स्थान, गति व वर्णभेद जाते हैं वे सब पर्यायसमासज्ञान कहलाते हैं। (कृष्णादि) प्रादि हैं । परिणाम (चतुर्थ भेद) बहुत पर्यायसमासज्ञानावरणीय-पज्जयसमाससण्णिप्रकार के हैं। इन्हें पर्यायलोक जानना चाहिए। दस्स जमावरणं तं पज्जयसमासणाणावरणीयं । पर्यायसमास-१. तदो (पज्जयणाणादो) अणंत- (धव. पु. १३, पृ. २७७) । भागब्भहियं सूदणाणं पज्जयसमासो उच्चइ । अणंत- जो कर्म पर्यायसमास श्रुतज्ञान को प्रावत करता है भागवड्ढी असंखेज्जभागवड्ढी संखेज्जभागवड्ढी उसका नाम पर्यायसमासज्ञानावरणीय है। संखेज्जगुणवड्ढी असंखेज्जगुणवड्ढी अणंतगुणवढि पर्यायस्थविर-१, पर्यायस्थविरो यस्य दीक्षितस्य त्ति एसा एक्का छवड्ढी। एरिसायो असंखेज्जलोग- -विंशत्यादीनि वर्षाणि । (योगशा. स्वो. विव. ४, मत्तीग्रो छवड्ढीयो गंतूण पज्जयसमाससुदणाणस्स ६०) । २. विंशतिवर्षपर्याय: पर्यायस्थविरः। (व्यव. अपच्छिमो वियप्पो होदि । (धव. पु. ६, पृ. २२); भा. मलय. वृ. १०-४६) । पणो पज्जयणाणे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे जं १ जिसे दीक्षा लिये हए २० प्रादि वर्ष हो गये हैं भागलद्धं तम्मि तत्थेव पज्जयणाणे पडिरासिदे उस साधु को पर्यायस्थविर कहते हैं। पक्खित्ते पज्जयसमासणाणमुप्पज्जदि । पुणो एदस्सु- पर्यायाम-१.xxx अविपक्करसं त पलियावरि भावविहाणकमेण अणंतभागवड्ढि-असंखेज्जभा- मं ॥ (बृहत्क. ८४०)। २. पर्यायः स्वाभाविक गवड्ढि-संखेज्जभागवड्ढि-संखेज्जगुणवड्ढि-असंखेज्ज- औपाधिको वा फलानां पाकपरिणामः, तस्मिन् प्राप्ते गुणवड्ढि-अणंतगुणवड्ढिकमेण पज्जयसमासणाणट्ठा- ऽपि यदामं तत् पर्यायामम् । (बृहत्क. क्षे.वृ. ८३६); णाणि णिरंतरं गच्छंति जाव असंखेज्जलोगमेत्त- पर्यायामं पुनरविपक्वरसं फलादिकमुच्यते । (बृहत्क. पज्जयसमासणाणट्ठाणाणं दुचरिमट्ठाणे त्ति । पुणो क्षे. वृ. ८४०)। एदस्सुवरि एगपक्खेवे वड्ढिदे चरिमं पज्जयसमास- २ फलों के स्वाभाविक अथवा औपाधिक (पाल में णाणढाणं होदि । XXX णाणाविभागपडिच्छेद- रखने रूप) पाकपरिणाम का नाम पर्याय है, उसके पक्खेवो पज्जनो णाम । तस्स समासो जेसु णाणट्ठा- प्राप्त होने पर भी जो फल कच्चा बना रहता है णेसु अस्थि तेसिं णाणट्ठाणाणं पज्जयसमासो त्ति उसे पर्यायाम कहा जाता है। सण्णा । (धव. पु. १३, पृ. २६३-६४) । २. अनेके पर्यायाथिक-देखो पर्यायास्तिक । १. पर्यायोऽर्थः तु ज्ञानांशाः पर्यायसमासः । Xxx ये बुद्धया- प्रयोजनमस्येत्यसौ पर्यायाथिकः । (स. सि. १-६) । दयः [यादयः] श्रतज्ञानाविभागपलिच्छेदा नाना- २. पर्याय एवास्ति इति मतिरस्य जन्मादिभावविजीवेषु वृद्धा लभ्यन्ते ते समुदिताः पर्यायसमासः। कारमात्रमेव भवनं न ततोऽन्द् द्रव्यमस्ति, तदव्यति(शतक. मल. हेम. व. ३८, पृ. ४२; कर्मवि. दे. रेकेणानुपलब्धेरिति पर्यायास्तिकः । अथवाxxx स्टो. व.७)। ३. तदेव ज्ञानमनन्तासंख्येय-संख्येय- पर्याय एवार्थो ऽस्य रूपाद्युत्क्षेपणादिलक्षणो न ततोभागवद्धया संख्येयासंख्येयानन्तगुणवृद्धया च वर्द्ध- ऽन्यद् द्रव्यमिति पर्यायाथिकः। अथवा xxx मानमसंख्येयलोकपरिमाणं प्रागक्षरश्रुतज्ञानात् पर्याय- परि समन्तादायः पर्यायः, पर्याय एवार्थः कार्यमस्य समासोऽभिधीयने । (अन.ध. स्वो. टी. ३-६)। न द्रव्यमतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहारा१पर्यायज्ञान की अपेक्षा अनन्तवें भाग से अधिक श्रुत भावात् स एवैक: कार्य-कारणव्यपदेशभागिति पर्याज्ञान पर्यायसमास कहलाता है। अनन्तभागवृद्धि, असं- याथिकः । अथवा Xxx पर्यायोऽर्थः प्रयोजनख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि मस्य वाग्विज्ञानव्यावृत्तिनिबन्धनव्यवहारप्रसिद्धेरिति असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि ये छह पर्यायार्थिकः । (त. वा. १, ३३, १)। ३. परि वद्धियां हैं। ऐसी छह वृद्धियों के असंख्यात लोक भेदमेति गच्छतीति पर्याय:, पर्याय एवार्थः प्रयोजन
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यायार्थिक ]
मस्येति पर्यायार्थिकः । ( धव. पु. १, पृ. ८४ ) ; ऋजुसूत्रवचनविच्छेदो मूलाधारो येषां नयानां ते पर्यायार्थिकाः । × × × ऋजुसूत्रवचनविच्छेदादारभ्य आ एकसमयाद् वस्तुस्थित्यध्यवसायिनः पर्यायार्थिका इति यावत् । (धव. पु. १, पृ. ८५); एष . एव सदादिरविभागप्रतिच्छेदनपर्यन्तः संग्रहप्रस्तारः क्षणिकत्वेन विवक्षितः वाचकभेदेन च भेदमापन्नः विशेष प्रस्तारः पर्यायः पर्यायः अर्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः । ( धव. पु. ६, पृ. १७० ) । ४. जो साहेदि बिसेसे बहुविहसामण्णसंजुदे सव्वे । साहणलिंगवसादो पज्जयविसनो प्रो होदि । ( कार्तिके. . २७० ) । ५. पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्या.यार्थिकः । (आलापप. पू. १४५ ) । ६. व्यावृत्तिश्च विशेषश्च पर्यायश्चैकवाचकाः । पर्यायविषयो यस्तु स पर्यायार्थिको मतः ॥ ( त. सा. १ - ४० ) । ७. त ( द्रव्य - पर्यायौ) एव अर्थी तो यथासंख्येन विद्येते ययोः तौ तथोक्तौ (द्रव्य - पर्यायार्थिको ) | ( न्यायकु. ६७, पृ. ७८५) । ८ पर्याय एवार्थो यस्यास्त्यस पर्यायार्थिकः । (प्र. क. मा. ६–७४, पृ. ६७६) । ६. पर्यायो विशेषो भेदो व्यतिरेकोऽपवादोऽर्थो विषयो येषां ते पर्यायार्थिका इति निरुक्तेः । (लघीय. अभय. बृ. पृ. ५१ ) । १०. पर्येत्युत्पाद - विनाशौ प्राप्नोतीति पर्याय:, स एवार्थः, सोऽस्ति यस्यासौ पर्यायार्थिकः । ( रत्नाकरा ७-५) । ११. पर्यायः विशेषः अपवादो व्यावृत्तिरिति यावत् पर्यायो अर्थो विषयो यस्य स पर्यायार्थिकः । (त. वृत्ति श्रुत. १-३३ ) । १२. • अंशाः पर्याया इति तन्मध्ये यो विवक्षितोंऽशः सः । अर्थो यस्येति मतः पर्यायार्थिकनयस्त्वनेकश्च ॥ ( पंचाध्या. १ - ५१ ) । १३. प्राधान्येन पर्यायमात्रग्राही पर्यायार्थिकः । ( जैनत. पृ. १२७ ) । १४. पर्यायमात्रग्राही पर्यायार्थिकः, अयं ह्य ुत्पादविनाशपर्यायमात्राभ्युपगमप्रवणः । (नयर. पृ. ८० ) । -१ जिस नय का प्रयोजन पर्याय है अर्थात् जो पर्याय · को विषय करता है उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं । -- ३ ऋजुसूत्र - नम के वचन के विच्छेद से लेकर एक समय पर्यन्त वस्तु की स्थिति का निश्चय कराने वाले नय पर्यायार्थिकनय कहलाते हैं । पर्यायास्तिक - देखो पर्यायार्थिक | १. पर्याय एवास्ति इति मतिरस्य जन्मादिभावविकारमात्रमेव भवनं न ततोऽन्यद् द्रव्यमस्ति तद्व्यतिरेकेणानुपल
[पर्युषणकल्प
१,
धेरिति पर्यायास्तिक: । (त. वा. ३३, १) । २. परि समन्तात् अवनम् अवः पर्यवो विशेषः तज्ज्ञाता वक्ता वा, नयनं नयः नीतिः पर्यवनयः । अत्र छन्दमंगभयात् 'पर्यायास्तिक' इति वक्तव्ये पर्यवनयः इत्युक्तम् । तेनात्रापि पर्याय एव 'अस्ति' इति मतिरस्येति द्रव्यास्तिकवत् व्युत्पत्ति र्द्रष्टव्या । ( सन्मति श्रभय वृ. ३, पृ. २७१ ) ।
१ जिस नय की दृष्टि में केवल पर्याय ही है उसे पर्यायास्तिक नय कहा जाता है। कारण यह कि 'जन्मादिरूप पदार्थ के विकार को छोड़कर उससे भिन्न द्रव्य है ही नहीं । २ पर्याय का जो ज्ञाता अथवा
६६४, जैन - लक्षणावली
रूपक है उसे पर्यायास्तिक नय कहते हैं । पर्युषणकल्प - १. पज्जोसवणाकप्पोऽपेवं पुरिमेयराइभेएणं । उक्कोसेयरभेश्रो सो णवरं होइ विष्णेश्रो । चाउम्मासुक्कोसो सत्तरि राइंदिया जहण्णो उ । थेराण जिणाणं पुण णियमा उक्कोसमो चेव । (पंचाश. १७, ८३२-३३) । २. पज्जो समणकप्पो - नाम दशमः । वर्षाकालस्य चतुर्षु मासेषु एकत्रैवावस्थानं भ्रमणत्यागः । स्थावर-जंगमजीवाकुला हि तदा क्षितिः, तदा भ्रमणे महानसंयमः, वृष्ट्या शीतवातपातेन वात्मविराधना । पतेद् वाप्यादिषु स्थाणुकण्टकादिभिर्वा प्रच्छन्नैर्जलेन कर्दमेन वा बाध्यते इति विंशत्यधिकं दिवसशतमेकत्रावस्थानमित्ययमुत्सर्गः । कारणापेक्षया तु हीनाधिकं वावस्थानम्, संयतानाम्, आषाढशुद्धदशम्यां स्थितानामुपरिष्टाच्च कार्तिकपौर्णमास्यास्त्रिशद्दिवसावस्थानं वृष्टिबहुलतां श्रुतग्रहणं शक्त्यभावं वैयावृत्त्यकरणं प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थानमेकत्रेति उत्कृष्टः कालः । मार्यां दुर्भिक्षे ग्राम- जनपदचलने वा गच्छनाशनिमिते समुपस्थिते - देशान्तरं याति, अवस्थाने सति रत्नत्रय विराधना भविष्यतीति पौर्णमास्याभाषाठ्यामतिक्रान्तायां प्रतिषदादिषु दिनेषु याति यावच्च त्यक्ता विंशतिदिवसा, एतदपेक्ष्य हीनता कालस्य । एष दशमः स्थितिकल्पः । (भ. प्रा. विजयो. व मूला. ४२१, पृ. ६१६ ) । २ वर्षाकाल के चार मासों में अन्यंत्र गमन न करके एक ही स्थान में रहना, यह पर्युषण नाम का दसवां स्थितिकल्प है । अन्यत्र गमन न करने का कारण यह है कि वर्षाकाल में पृथिवी स्थावर और त्रस जीवों से व्याप्त हो जाती है, जिससे अन्यत्र जाने में प्राणिविघात होने के कारण महान् श्रसंयम होने
..
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्युषणकल्प ]
वाला है, वृष्टि के साथ ठण्डी वायु के चलने से आत्मा की विराधना सम्भव है, बावड़ी आदि में पतन भी हो सकता है, जल और कीचड़ से अच्छादित ठूंठ और कांटों आदि की बाधा भी हो सकती है । इसलिए वर्षाकाल में सामान्य से एक सौ बीस ( १२० ) दिन एक ही स्थान पर रहने का विधान है । यह उत्सर्ग मार्ग है। अपवाद रूप में श्रन्यान्य कारणों के उपस्थित होने पर उसमें होनाधिकता भी सम्भव है । यथा विशेष कारणवश श्राषाढ़ की पौर्णमासी में स्थित हुए साधु कार्तिक मास की पौर्णमासी के आगे भी तीस दिन तक एक ही स्थान में रह सकते हैं, वृष्टि की अधिकता, श्रागम के अभ्यास, शक्ति के प्रभाव और वैयावृत्य करने के प्रयोजन से अधिक भी रहा जा सकता है । यह उत्कृष्ट काल है । गच्छ के विनाश के कारणभूत मारी ( प्लेग आदि संक्रामक रोग), दुर्भिक्ष, गांव व जनपद के चलने तथा गच्छनाश के अन्य कारण के उपस्थित होने पर बीच में भी देशान्तर चले जाने का विधान है। कारण यह है कि ऐसे कारणों के उपस्थित होने पर वहां रहने में रत्नत्रय की विराधना हो सकती है। पौर्णमासी के बीत जाने पर प्रतिपदा श्रादि दिनों में गमन किया जा सकता है ।
पर्व ( तिथिविशेष ) - १. पर्वाणि चाष्टम्यादितिथयः पूरणात्पर्व धर्मोपचयहेतुत्वादिति । XXX श्राहारादिनिवृत्तिनिमित्तं धर्मपूरणं पर्वेति भावना । ( श्रा. प्र. टी. ३२१ ) । २. अट्ठमी चउद्दसी पुण्णिमा य तह मावसा हवइ पव्वं । मासम्मि पव्बछक्कं तिन्निय पव्वाइं पक्खम्मि । ( पाइयसद्द महण्णवो 'पव्व' शब्द ) |
१ ' पूरणात् पर्व' इस निरुक्ति के अनुसार धर्मसंचय की कारणभूत अष्टमी आदि विशेष तिथियों को पर्व कहते हैं । २ अष्टमी, चतुर्दशी पूर्णिमा और श्रमावस्या ये पर्व माने गये हैं, जो मास में छह और पक्ष में तीन होते हैं । पर्व ( कालमान) १. पुणो एदाणि ( ७०५६००००००००००) एंगपुव्ववस्साणि वेण लक्ख गुणिदेण चउरासीदिवग्गेण गुणिदे पव्वं होदि । ( धव. पु. १३, पृ. ३०० ) २. पूर्वां तु तदभ्य स्तमशीत्या चतुरग्रया ॥ तत्तद्गुणं च पूर्वाङ्गं पूर्व
६६५, जैन - लक्षणावली
[ पर्व राहु भवति निश्चितम् । पू[प]र्वाङ्गं तद्गुणं तच्च पूर्व[ पर्व ] संज्ञं तु तद्गुणम् ।। ( ह. पु. ७, २४-२५) । ३. पूर्व चतुरशीतिघ्नं पूर्वाङ्गं [पर्वाङ्ग] परिभाष्यतेः । पूर्वाङ्गताडितं तत्तु पर्वाङ्गं पर्वमिष्यते ॥ ( म. पु. ३ - २१९ ) । ४. पूर्वं चतुरशीतिघ्नं पर्वाङ्गं परिभोष्यते । पूर्वाङ्गताडितं तत्तु पर्वाङ्गं पर्वमिष्यते ।। ( लोकवि. ५ - १२८ ) ।
१ एक पूर्व वर्षों (७०५६००००००००००) को एक लाख से गुणित चौरासी के वर्ग से गुणा करने पर पर्व का प्रमाण होता है । ३ पर्वांग को पूर्वाग से गुणित करने पर पर्व का प्रमाण प्राप्त होता है । पर्वतराजसदृश क्रोध - तत्र पर्वतराजिसदृशो नाम । यथा प्रयोग विस्रसा-मिश्रकाणामन्यतमेन हेतुना पर्वतराजिरुत्पन्ना नैव कदाचिदपि संरोहति, एवमिष्टवियोजनानिष्टयोजनाभिलषितालाभादीनामन्यतमेन हेतुना यस्योत्पन्नः क्रोधः श्रा मरणान्न व्ययं गच्छति जात्यन्तरानुवन्धी निरनुनयस्तीव्रानुशयोऽप्रत्यवमर्शश्च भवति सः पर्वतराजिसदृशः । ( त. भा. ८ - १०, पृ. १४४ ) ।
जिस प्रकार पुरुष के प्रयत्न, स्वभाव और उभय इनमें से किसी एक कारण से उत्पन्न हुई पर्वत की रेखा कभी नहीं भरती इसी प्रकार इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग और अभिलषित की अप्राप्ति आदि में से किसी एक निमित्त से जिसके क्रोध उत्पन्न हुआ है उसके वह मरण पर्यन्त नहीं छूटता, प्रत्युत परभव में भी साथ जाता है । इस प्रकार का जो क्रोध जन्मान्तर से सम्बन्ध रखता हुआ अनुनय और पश्चात्ताप से रहित होता है उसे पर्वतराजिसदृश कहा जाता है।
पर्व राहु - १. पुह पुह ससिबिंबाणि छम्मासेसु च पुण्णिमंतम्मि । छादंति पव्वराहू णियमेण गदिविसेसेहिं ॥ ( ति. प. ७-२१६ ) । २. तत्थ णं जे से पव्वराहू से जहण्णेणं छण्हं मासाणं, उक्कोसेणं बायालीसाए मासाणं चंदस्स अड़तालीसाए संवच्छ राणं सूरस्स । ( सूर्यप्र. २०-१०५, पृ. २८८ ) । ३. यस्तु पर्वणि - पौर्णमास्यां अमावस्यायां वा यथाक्रमं चन्द्रस्य सूर्यस्य वा उपरागं करोति स पर्वराहुः । XXX तत्र योऽसौ पर्वराहुः स जघन्येन षणां मासानामुपरि चन्द्रस्य सूर्यस्य चोपरागं करोति, उत्कर्षतो द्वाचत्वारिंशतो मासानामुपरि चन्द्रस्य
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
पल] ६६६, जैन-लक्षणावली
[पल्योपम अष्टाचत्वारिंशतः संवत्सराणांमुपरि सूर्यस्य । (व्यवहारपल्यात्) वर्षशते वर्षशते गते एकैकलोमा(सर्यप्र. मलय. व. २०-१०५, प्र. २९०)। पकर्षणविधिना यावता कालेन तद रिक्तं भवेत १ पर्वराहु वे हैं जो छह मासों में पूर्णिमा के अन्त तावान् कालो व्यवहारपल्योपमाख्यः । तैरेव लोममें अपनी गतिविशेष से चन्द्रबिम्बों को आच्छादित च्छेदैः प्रत्येकमसंख्येयवर्षकोटीसमयमात्रछिन्नस्तत्पूर्णकिया करते हैं । २ पर्वराहु वे हैं जो जघन्य से छह मुद्धारपल्यम् । ततः समये समये एककस्मिन् रोममासों में चन्द्र व सूर्य को तथा उत्कर्ष से ज्यालीस च्छेदेऽपकृष्यमाणे यावता कालेन तद रिक्तं भवति मासों में चन्द्र को व अडतालीस वर्षों में सूर्य तावान् काल उद्धारपल्योपमाख्यः । Xxx को प्राच्छादित किया करते हैं।
पुनरुद्धारपल्योपमरोमच्छेदैर्वर्षशतसमयमात्रछिन्नैः पूपल-१. करिसा चत्तारि पलम् xxx। र्णमद्धापल्यम् । ततः समये समये एक कस्मिन् रोम(ज्योतिष्क. १९) । २. चत्वारः कंसा: पलम् । च्छेदेऽपकृष्यमाणे यावता कालेन तद् रिक्तं भवति (त. वा. ३, ३८, ३१) । ३. चत्वारः कर्षाः पलम्। तावान् कालोऽद्धापल्योपमाख्यः । (स. सि. ३-३८% (ज्योतिष्क. मलय. वृ. १६)। ४. चतुःकर्ष पलं त. वा. ३, ३८, ८)। ३. योजनविस्तीर्ण योजनोXXX । (लोकप्र. २८-२५७)। ५. पले च च्छायं वृत्तं पल्यमेकरात्राद्युत्कृष्टसप्तरात्रजातानामदश गद्याणा: xxx । (कल्पसू. वि. वृ. ६, पृ. ङ्गलोम्नां गाढं पूर्ण स्याद्, वर्षशताद्वर्षशतादेकैकस्मि२१)।
न्नुध्रियमाणे यावता कालेन तद्रिक्तं स्यादेतत्पल्यो१चार कर्षों का एक पल होता है। ५ दस गद्याणों पमम् । (त. भा. ४-१५, पृ. २६४)। ४. जं का एक पल होता है।
जोयणवित्थिण्णं तं तिउणं परिरएण सविसेसं । तं पलित-असंख्येययुगात्मक पलितम् । (प्राव. नि. चेव य उव्विद्धं (ज्योतिष्क. व त्रि. सा. 'तं जोयणहरि. वृ. ६६३)।
मुब्बिद्धं') पल्लं पलिनोवमं नाम ॥ (जीवस. ११८% असंख्यात युग प्रमाण काल को पलित या पल्य ज्योतिष्क. ७८; त्रि. सा. ६५; बृहत्सं. मलय. वृ. कहते हैं।
४ उद.)। ५. उवमाणं-जं कालप्पमाणं ण सक्कइ पल्य-१. प्रमाणांगुलपरिमितयोजनविष्कम्भायामा- घेत्तुं तं उवमियं भवति, धण्णपल्ल इव तेण उवमा वगाहानि त्रीणि पल्यानि, कुशूला इत्यर्थः । (स. सि. जस्स तं पल्लोवमं भण्णति। (अनुयो. चू. पृ. ५७) । ३-३८%; त. वा. ३, ३८, ७) । २. योजनविस्तीर्ण ६. धान्यपल्यवत्पल्यः, तेनोपमा यस्मिस्तत् पल्योपयोजनोच्छायं वृत्तं पल्यम् । (त. भा. ४-१५)। मम् । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ८४) । ७. असंखेज्जेहि ३. विष्कम्भमान खलु योजनं स्यात् परिक्षिपन्तं त्रिगु- वस्सेहि पलिदोवमं होदि । (धव. पु. १३, पृ. ३००)। णाधिकं च । उत्सेधतो योजनमेव यस्य तत्पल्यमाहु- ८. एकाहिक सप्तदिनानि यावज्जातस्य रोम्णां गणितप्रधानाः ।। (वरांगच. २७-१६)। ४. तत्रा- खलू बर्करस्य । अनेककल्पप्रतिखण्डितानां निरन्तरं याम-विष्कम्भाभ्यामवगाहेन चोत्सेधाङ्गुलप्रमितयोज- तिन्दुसमं प्रपूर्णम् ॥ पूर्णे तथा वर्षशते च तस्मादेकैकनप्रमाणः पल्यः । (बृहत्सं. मलय. वृ. ४)। मुद्धृत्य हि लोमखण्डम् । निष्ठां प्रयाते खलु रोम१ प्रमाणांगुल के प्रमाण से एक योजन विस्तार, राशौ पल्योपमं तं प्रवदन्ति कालम् ।। (वरांगच. पायाम और अवगाह (गहराई) वाले गोल गड्ढे २७, १७-१८) । ६. तस्स (महाजोयणस्स) पमाणे को पल्य कहा जाता है। २ एक योजन विस्तृत खम्मइ खाणी, परिवटुलिय सपरियर तिउणी । और एक योजन ऊंचे गोल गड्ढे का नाम पल्य है। कर्त्तरियहि अविहायहिं सुहुमुहुँ, सा पूरिज्जइ सिसुपल्यङ्कासन-देखो पर्यङ्कासन।
अविरोमहुं ॥ होउ पहुच्चइ लेखें म गहि संवच्छपोपम-१. जं जोयणवित्थिण्णं प्रोगाढं जोयणं रसइ एक्क जि अवहिं । जइयहं रोमरासि सा खितु बालस्स । एगदिणजायगस्स उ भरियं बालग्ग- ज्जइ तइयतुं पलिअोव, ध्रुव पज्जइ ॥ (म. पु.
कोडीणं ॥ वाससए वाससए एक्केक्के प्रवहियम्मि पुष्प. १, २-७, पृ. २४)। १०. पल्येन योजनप्रमा.. जो कालो। कालेण तेण एवं हवइ य पलिग्रोवमं णायाम-विष्कम्भावगाहेनोपमा यस्मिन् कालप्रमाणे
एक्कं ॥ (पउमच. २०, ६५-६६) । २. ततो तत्पल्योपमम् । (बृहत्सं. मलय. वृ. ४)। ११. तत्र
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
पल्योपम] ६६७, जैन-लक्षणावली
[पश्चात्संस्तव धान्यपल्यवत् पल्यस्तेनोपमा यस्य कालप्रमाणस्य षडङ्गुलप्रमाणं च वायुः पवनसंज्ञितः ॥ (योगशा. तत्पल्योपमम् । (संग्रहणी दे. वृ. ४)। .. ५-५०)। १ एक योजन विस्तीर्ण व गहरे गड्ढे को एक दिन जिसका स्पर्श उष्ण-शीत हो, वर्ण कृष्ण हो और जो के उत्पन्न बालक के बालाग्रकोटियों से भरकर सौ छह अंगुल प्रमाण हो, ऐसी निरन्तर तिरछी बहने सौ वर्ष में एक एक बालान के निकालने में जो वाली वायु को पवन कहते हैं। काल लगता है उतने काल से एक पल्योपम होता पशु-सरोमन्थाः पशवः । (धव. पु. १३, पृ. है। २ व्यवहार, उद्धार और श्रद्धा के भेद से ३६१)। पल्योपम तीन प्रकार का है। उनमें एक दिन से जो तिर्यच प्राणी रोमन्थ सहित होते हैं-घास लेकर सात दिन तक के मेढ़ेके बालाग्नों से-जिनका आदि को खाकर पश्चात् चर्वण करते हैं-वे दूसरा खण्ड न हो सके-भरे गये गड्ढे को व्यवहार- पशु कहलाते हैं। पल्य कहा जाता है । सौ सौ वर्षों के बीतने पर इन पश्चात्संस्तव-१. पच्छा संथुदिदोसो दाणं गहिबालानों में से एक एक रोमखण्ड को निकाला जाय। दूण तं पुणो कित्ति । विक्खादो दाणवदी तुज्झ जसो इस विधि से जितने समय में वह गड्ढा खाली होता विस्सुदो वेति ॥ (मूला. ५-३७) । २. माय-पिइहै उतने समय का नाम व्यवहारपल्योपम होता है। पुव्वसंथव सासू-सुसराइयाण पच्छाउ । गिहिसंथवउक्त रोमखण्डों में से प्रत्येक को असंख्यात करोड़ संबंधं करेइ पुव्वं च पच्छा वा ।। (पिंडनि. ४८५); वर्षों के समयों का जितना प्रमाण हो उतने प्रमाण गुणसंथवेण पच्छा संतासंतेण जो थुणिज्जहि । दायासे खण्डित करके उनसे उक्त गड्ढे को भरना चाहिये, रं दिन्नमी सो पच्छासंथवो होइ॥ (पिण्डनि. इस प्रकार उसे उद्धारपल्य नाम से कहा जाता है। ४६२)। ३. वसनोत्तरकालं च गच्छन् प्रशंसा इसमें से एक एक रोमखण्ड को एक एक समय में करोति पुनरपि वसतिं लप्स्ये इति, एवमुत्पादिता निकालने पर वह जितने समय में खाली होता है (वसतिः) संस्तव-(पश्चात्संस्तव-) दोषदुष्टा । (भ. उतने समय को उद्धारपल्योपम कहा जाता है। प्रा. विजयो. २३०)। ४. पश्चात्संस्तुतिदोषो दानपश्चात् उद्धारपल्य के रोमखण्डों में से प्रत्येक को
माहारादिकं गृहीत्वा ततः पुनः पश्चादेव कीति ब्रूतेसौ वर्ष के समयों से खण्डित करके उनसे उक्त गड्ढे । विख्थातस्त्वं दानपतिस्त्वं तव यशो विश्रुतमिति ब्रूते के भरने पर उसका नाम श्रद्धापल्य होता है। उसमें । यस्तस्य पश्चात्संस्तुतिदोषः, कार्पण्यादिदर्शनात् । से एक एक समय में एक एक रोमखण्ड के निकालने (मूला. वृ. ६-३७) । ५. दाता ख्यातस्त्वमित्याद्यैर्यपर जितने समय में वह खाली होता है उतने समय द्रोह्यानन्दनन्दनम् । पूर्वं पश्चात् भुक्तेस्तत् पूर्व पश्चाका नाम प्रद्धापल्योपम होता है। ३ एक योजन संस्तवद्वयम् ॥ (प्राचा. सा. ८-४१)। ६. स्तुत्वा विस्तीर्ण और एक योजन ऊंचे गोल गड्ढे को पल्य दानपति दानं स्मरयित्वा च गलतः । गृहीत्वा स्तुकहा जाता है। इसको एक व अधिक से अधिक सात वतश्च स्तः प्राकपश्चातसंस्तवौ क्रमात ॥ दिन के उत्पन्न हुए बच्चों के शरीर के रोमों से ध. ५-२४) । ७. वसनोत्तरकालं गच्छन् पूनरपि सघन रूप में भर कर उसमें से सौ सौ वर्षों में एक वसति लप्स्य इति यत्प्रशंसति सा पश्चात्संस्तवदुष्टा॥ एक रोम के निकालने पर जितने काल में वह (भ. प्रा. मूला. २३०)। ८. भुक्तेः पश्चात् स्तवनखाली हो जाता है उतने काल को पल्योपम नाम विधानं पश्चात्स्तुतिः। (भावप्रा. टी. 88)। से कहा जाता है।
१ दान को ग्रहण करके पश्चात् 'आप प्रसिद्ध हैं, पल्लक-पल्लको नाम लाटदेशे धान्याधारविशेषः । दानपति हैं, आपकी कोति फैली हुई है। इस (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३३-३१६)।
प्रकार से जो दाता की प्रशंसा की जाती है, यह लाट देश में धान्य रखने के कोठे को पल्लक पश्चात्संस्तुति (संस्तव) नामक एक उत्पादनदोष है। कहते हैं।
२ भिक्षा के लिये प्रविष्ट होता हुआ साधु गृहस्थों पवन-उष्ण-शीतश्च कृष्णश्च वहंस्तिर्यगनारतम् । के साथ जो माता-पिता आदि के रूप से पूर्वसंस्तव
ल. ८८
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
पश्चात् संस्तुति ]
सम्बन्ध ( परिचयघटन) को करता है, इसे पूर्व संस्तव कहा जाता है तथा उन्हीं के साथ पश्चात् कालभावी सास-ससुर श्रादि के रूप से जो संस्तवसम्बन्ध करता है, यह पश्चात्संस्तव कहलाता है । इस प्रकार भोजन श्रादि के देने पर जो साधु सत्य या सत्य गुणों के कीर्तन से दाता की प्रशंसा करता है, इसे पश्चात्संस्तव कहा जाता है (इसे यहां ४८४-६३ गाथाओं द्वारा स्पष्ट किया गया है ) । ३ रहने के पश्चात् जाते समय पुनः वसति की प्राप्ति की इच्छा से जो प्रशंसा की जाती है, इसमें साधु पश्चात्संस्तव दोष का भागी होता है । पश्चात् संस्तुति - देखो पश्चात्संस्तव । पश्चादानुपूर्वी उपक्रम - जं उवरीदो हेट्ठा परिवाडीए उच्चदि सा पच्छाणुपुथ्वी । तिस्से उदाहरणं - एस करेमि य पणमं जिणवरवसहस्स वड्ढमाणस्स । सेसाणं च जिणाणं सिवसुहकंखाविलोमेण ॥ ( धव. पु. १, पृ. ७३ ) ; विलोमेण परूवणा पच्छाणुपुव्वी णाम । ( धव. पु. ६, पृ. १३५) ।
जो प्ररूपणा ऊपर से नीचे की परिपाटी से अर्थात् विपरीत क्रम से की जाती है, इसे पश्चादानुपूर्वी उपक्रम कहा जाता है । जैसे— मैं मोक्षसुख की इच्छा से वर्धमान जिनेन्द्र को तथा शेष जिनेन्द्रों को भी नमस्कार करता हूं, यह प्ररूपणा । पश्चिम दिशा-जत्तो अ प्रत्थमेइ उ अवरदिसा सा उ णायव्वा । ( आचारा. नि. ४७ ) ।
जिस दिशा में सूर्य अस्त होता है उसे पश्चिम दिशा मूढता कहलाती है ।
६६८, जैन- लक्षणावली
जानना चाहिए। पाक्षिक श्रावक - १ x x x तत्र पाक्षिकः । तद्धर्मगृह्यः × × × ॥ ( सा. ध. १ - २० ) ; कोsat पाक्षिक:, किंरूपः ? तद्धर्मगृह्यः तस्य श्रावकस्य, धर्म एकदेशहिंसादिविरतिरूपं व्रतम्, गृह्यं प्रतिज्ञाविषयो यस्यासी प्रारब्धदेशसंयमः, श्रावकधर्मस्वीकारपर इत्यर्थः । (सा. ध. स्वो. टी. १ - २० ) । २. सम्यग्दृष्टिः सातिचारमूलाणुव्रतपालकः । अर्चादिनिरतस्त्वग्रपदं कांक्षीह पाक्षिकः ॥ ( धर्मसं. श्री. ५ - ४ ) ।
पक्ष:
१ जिसने श्रावक के एकदेशहिंसादिविरतिरूप व्रत को प्रतिज्ञा का विषय बना लिया है—उसके पालन करने में जो उद्यत हुआ है—उसे पाक्षिक श्रावक कहा जाता है ।
[पाठ
पाक्षिकापाक्षिक -- पाक्षिकापाक्षिकः यस्य एकस्मिन् पक्षे कामोदय:, न द्वितीये । (प्रा. वि. पू. ७५)।
मास के दो पक्षों में से जिसके एक पक्ष में कामभाव उदित होता है, पर दूसरे पक्ष में वह उदित नहीं होता, ऐसे व्यक्ति को पाक्षिकापाक्षिक कहते हैं । पाखण्डिमूढता - १. सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम् । पाखण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखण्डि - मोहनम् ॥ ( रत्नक. १ - २४ ) । २. पाखण्डिमूढता दण्ड - पात्रामत्रादिसंगिषु । सन्मतिः स्वागमाभासभ्रान्तस्वान्तान्यलिंगिषु ॥ ( आचा. सा. ३-४७ ) । ३. दृष्ट्वा मंत्रादिसामर्थ्यं पापिपाषण्डिचारिणाम् । उपास्तिः क्रियते तेषां सा स्यात् पाषण्डिमूढता ॥ ( भावसं वाम. ४०६ ) । ४. सग्रन्था हिंसनारम्भकृतो ये भववश्यगाः । तेषां भक्त्या परीष्टिर्यत् बोया पाखण्डमूढता ॥ ( धर्मसं. श्री. ४-४२)। ५. बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहवतां पाषण्डिनां कुगुरूणां नमस्कारादिकरणं [पाषण्डिमूढम् ] । ( कार्तिके. टी. ३२६ ) ।
१ जो परिग्रह और प्रारम्भ से सहित होकर संसार में परिभ्रमण कराने वाले विवाहादि कार्यों में तत्पर रहते हैं ऐसे ढोंगी साधुओं का आदर-सत्कार करना, इसे पाखण्डिम्ढता कहा जाता है । ३ पापी पाखण्डियों की मंत्रादिविषयक शक्ति को देखकर उनकी जो उपासना की जाती है, वह पाखण्डि -
पाटक निवसनपरिमाण - देखो नियंसण | पाटच्चर - पाटच्चरश्चौरो वन्दिकारो वा । ( नीतिवा. १४ - १९ ) ।
चोर अथवा वन्दिकार को पाटच्चर कहा जाता है। पाठ-पठनं पाठः, पठ्यते वा तदिति पाठः, पठ्यते वा ऽनेनास्मादस्मिन्निति वा अभिधेयमिति पाठः, व्यक्तीक्रियत इति भावार्थ: । ( श्राव. नि. हरि. वू. १३० ) ।
पठन मात्र क्रिया को श्रथवा जो कुछ पढ़ा जाता है, जिसके द्वारा पढ़ा जाता है, अथवा जिससे या जिसमें श्रभिधेय - प्ररूपणीय अर्थ को स्पष्ट किया जाता है उसका नाम पाठ है । यह प्रवचन का समानार्थक नामान्तर है ।
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठक परमेष्ठी]
पाठक परमेष्ठी- देखो उपाध्याय । अज्भावयगुणत्तो धम्मोवदेसयारि चरियट्ठो । णिस्सेसागमकुसलो परमेट्ठी पाठम्रो भाम्रो । ( भावसं. दे. ३७८) ।
जो प्रध्यापक के गुणों से युक्त होकर धर्मोपदेश को किया करता है तथा अपने अनुष्ठान में स्थित हैमुनिधर्म का पालन करता है, उसे पाठक ( उपाध्याय) परमेष्ठी कहा जाता है पाडगणियंसण - देखो नियंसण | पाणिजन्तुवध - XX X पाणिजन्तुवधः करे । स्वयमेत्य मृते जीवे XXX ॥ ( अन. ध. ५, ५०) ।
आहार ग्रहण करते समय हाथ के ऊपर स्वयं श्राकर किसी जीव के मर जाने पर पाणिजन्तुवध नाम का श्रन्तराय होता है । पाणिपिण्डपतन - XX X ग्रासमात्रपातेऽश्नतः करात् ॥ स्यात् पाणिपिण्डपतनं XXX। ( श्रन. ध. ५, ४६-५० ) ।
भोजन करते समय हाथ से ग्रास मात्र के गिर जाने पर पाणिपिण्डपतन नाम का अन्तराय होता है । पाणिमुक्ता गति - १. पाणिमुक्तेव पाणिमुक्ता कः उपमार्थः । यथा पाणिना तिर्यक् प्रक्षिप्तस्य द्रव्यस्य गतिरेकविग्रहा तथा संसारिणामेकविग्रहा गतिः पाणिमुक्ता द्वैसमयिकी । (त. वा. २, २८, ४) । २. यथा पाणिना तिर्यक् प्रक्षिप्तस्य द्रव्यस्य गतिरेकविग्रहा गतिः तथा संसारिणामेकविग्रहा गतिः पाणिमुक्ताद्वैसमयिकी । ( व. पु. १, पृ. २६-३०० ) ; पाणिमुद्दा एयविग्गहा । ( धव. पु. ४. पृ. २६ ) । १ जिस प्रकार हाथ के द्वारा तिरछे फेंके गये द्रव्य की गति एक विग्रह वाली होती है, उसी प्रकार संसारी प्राणियों को जो एक विग्रह वाली गति होती है वह पाणिमुक्ता गति कहलाली है । पाण्डित्य – पाण्डित्यं हि पदार्थानां गुण-दोषविनिश्चयः । (क्षत्रचू. ४-२० ) । पदार्थों के गुण और दोषों का निश्चय करना, यह पाण्डित्य का लक्षण है ।
पाण्डुनिधि-देखो नैसर्प निधि । १. काल -महकाल-पंडू × × ×। उडुजोग्गदव्व-भायण- घण्णायुह X XX देति कालादिया कमसो ॥ ( ति. प. ४, ७३६-४० ) । २. काल - महकाल- माणव - पिंगल - सप्प-पउम- पांडु
६६६, जैन-लक्षणावली
[ पात्र
तदो । संखो णाणारयणं णवणिहित्रा देंति फलमेदं ॥ उडुजोग्गकुसमदामप्पहृदि भाजणयमाउहाभरणं । गेहं वत्थं घण्णं तुरं बहुरयणमणुकमसो ॥ ( त्रि. सा. ८२१-२२) ।
१ जो निधि धान्य को दिया करती है उसे पाण्डुनिधि कहते हैं ।
पाण्डुकनिधि - देखो पाण्डुनिधि । १. गणिस्स य उप्पत्ती माणुम्माणस्स जं पमाणं च । घण्णस्स य बीआय उप्पत्ती पंडुए भणिया । ( जम्बूद्वी. ६६, पृ. २५६ ) । २. मानोन्मानप्रमाणानां सर्वस्य गणितस्य च । धान्यानामथ बीजानां सम्भवः पाण्डुका - न्निधेः ॥ ( त्रि. श. पु. च. १, ४, ५७५ ) । १ जिस निधि में गणित, मान-उन्मान के प्रमाण एवं धान्य और बीजों की उत्पत्ति कही गई है उसे पाण्डुकनिधि कहते हैं ।
पात्र - १. जे नाण-संजमरया अणन्नदिट्ठी जिइंदिया धीरा । ते नाम होन्ति पत्तं समणा सव्वत्तमा लोए ॥ सुह- दुक्खेसु य समया जेसि माणे तहेव प्रवमाणे । लाभालाभे यसमा ते पत्तं साहवो भणिया || ( पउमच. १४, ३६-४० ) ; पंचमह्व्वयकलिया निच्चं सज्झाय-भाण-तवनिरया । धण-सयणविगयसङ्गा ते पत्तं साहवो भणिया ।। ( पउमच. १०२, १३४) । २. व्यपेतमात्सर्यमदाभ्यसूयाः सत्यव्रताः क्षान्ति दयोपपन्नाः । सन्तुष्टशीलाः शुचयो विनीता निर्ग्रन्थशूरा इह पात्रभूताः । ज्ञानं तु येषां हि तपोधनानां त्रिकालभावार्थसमग्रदशि । त्रिलोकधर्मक्षपणप्रतिज्ञो यान् दग्धुमीशो न च कामवह्निः ॥ येषां तु चारित्रमखण्डनीयं मोहान्धकारश्च विनाशितो यैः । परीषभ्यो न चलन्ति ये च ते पात्रभूता यतयो जिताशाः । ( वरांगच ७, ५०-५२ ) । ३. प्राणातिपातविरतं परिग्रहविवर्जितम् । उद्धमाचक्षते पात्रं रागद्वेषोज्झितं जनाः ॥ सम्यग्दर्शनसंशुद्धं तपसापि विवजितम् । पात्रं प्रशस्यते मिथ्यादृष्टेः कायस्य शोधनात् ।। पद्भ्यः पांति यस्तस्मात् पात्रमित्यभिधीयते । सम्यग्दर्शनशक्त्या च त्रायन्ते मुनयो जनान् ॥ दर्शनेन विशुद्धेन ज्ञानेन च यदन्वितम् । चारित्रेण च यत्पात्रं परमं परिकीर्तितम् || मानापमानयोस्तुल्यस्तथा च सुख-दुःखयोः । तृण-कांचनयोश्चैष साधुः पात्रं प्रशस्यते ॥ सर्वग्रन्थविनिर्मुक्ता महातपसि ये रताः । श्रमणास्ते परं पात्रं तत्त्वध्यानपरायणाः ।।
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
पात्रदत्ति] ७००, जैन-लक्षणावली
[पादपतन (पद्मपु. १४, ५३-५८) । ४. पात्रं रागादिभिर्दोषैर- संयमोपकरणादिदानं च । (चा. सा. पृ. २१)। स्पृष्टो गुणवान् भवेत् । तच्च त्रेधा जधन्यादिभेदैर्भेद- १ महान् तपस्वी मुनि जनों के लिए पूजा व प्रतिग्रह मुपेयिवत् ।। (म. पु. २०-१३६) । ५. पूजायाम- के साथ भोजन आदि के देने को पात्रदान कहा वसाने सौख्ये दुःखे समागमे विगमे । क्षुभ्यति यस्य जाता है। न चेतः पात्रमसावुत्तमं साधुः ॥ (अमित. श्रा. १०, पात्रविशेष-१. मोक्षकारणगुणसंयोगः पात्रविशे२३)। ६. पात्रमिव पात्रमतिशयवद्ज्ञानादिगुण- षः । (स. सि. ७-३९; त. श्लो. ७-३६; चा. सा. रत्नानां प्राप्तो वा गुणप्रकर्षमिति गम्यते ॥ (स्थानां. पृ. १५)। २. पात्रविशेषः सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रअभय. वृ. १-३७) । ७. यत्तारयति जन्माब्धेः स्वा- तपःसम्पन्नता इति । (त. भा. ७-३४) । ३. मोक्षश्रितान् यानपात्रवत् । मुक्त्यर्थगुणसंयोगभेदात् पात्रं कारणगुणसंयोगः पात्रविशेषः। मोक्षकारणैः सम्यग्दविधा मतम् ॥ (सा. ध. ५-४३)।
र्शनादिभिः योगः पात्रविशेष इति प्रतीयते। (त. १ जो ज्ञान व संयम में लीन हैं, जिनकी दष्टि दूसरी वा. ७, ३६, ५)। ओर नहीं है जो एक मात्र प्रात्मा की ओर दृष्टि १ मोक्ष के कारणभूत गुणों के संयोग को पात्रविदेते हैं, जितेन्द्रिय हैं, और धीर हैं। ऐसे लोक में जो शेष-पात्र की विशेषता-मानी जाती है। सर्वश्रेष्ठ श्रमण (साधु) हैं वे पात्र माने गये हैं। २ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप से सम्पन्न जो सुख-दुःख, मान-अपमान और लाभ-अलाभ में होना; यह पात्र की विशेषता है। सम-राग-द्वेष से रहित--हैं वे पात्र कहे गये हैं। पाद-१. हि अंगुले हि वादो XxxI (ति. पात्रदत्ति—देखो पात्रदान । १. तपःश्रुतोपयोगीनि प.१-११४; जं. दी. प. १३-३२)। २. एएणं परवद्यानि भक्तितः । मुनिभ्यो ऽन्नौषधावास-पुस्त- अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाई पानो। (अनुयो. सू. कादीनि कल्पयेत् ॥ आर्यिकाः श्राविकाश्चापि सत्- १३३, पृ. १५७)। ३. xxx छच्च 'अंगुला कुर्याद् गुणभूषणाः । चतुर्विधेऽपि संघे यत् फलमुप्त- पायो । (जीवस. ६६; ज्योतिष्क. ७५)। ४. छ अनल्पशः ॥ धर्मार्थ-कामसध्रीची यथौचित्यमुपाचरन् । अंगुलाणि पादो। (व्याख्याप्र. ६, ७, ५, पृ. ८२६)। सुधीस्त्रिवर्गसम्पत्त्या प्रेत्य चेह च मोदते ।। (सा. घ. ५. तत्र षडगुलः पादः । (त. वा. ३, ३८, ६)।
६६ व ७३-७४) । २. महातपोधनेभ्यः प्रति- ६. विविधांगुलषट्क: स्यात् पादः Xxx। (ह. ग्रहार्चनादिपूर्वकं निरवद्याहारदानं ज्ञान-संयमोपक- पु. ७-४५) । ७. Xxx छंगुलु पाउ । (म. पु. रणादिदानं च पात्रदत्तिः। (कातिके. टी. ३९१)। पुष्प. २-७, पृ. २४) । ८. अंगुलछक्कं पायो'x १ जो निर्दोष आहार, औषध, प्रावास और पुस्तक XX । (संग्रहणी २४७) । ६. पादः स्यादङ्गुलैः प्रादि तपश्चरण व श्रुतके अभ्यासमें उपयोगी हैं उनका षड्भिः Xxx। (लोकप्र. १-५६)। १०. भक्तिपूर्वक मुनियों के लिए देना; यह पात्रदत्ति या षड्भिरङ्गुलैः पाद उच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ३, पात्रदान कहलाता है। साथ ही प्रायिकाओं, श्रावि- ३८)। काओं एवं त्रिवर्ग (धर्म-अर्थ-काम) में सहायकों १ छह अंगुल का एक पाद होता है । ६ उत्सेधांगुल (कार्यपात्रों) का भी यथायोग्य प्रादर-सत्कार प्रमाणांगुल और प्रात्मांगुल इन तीन प्रकार के करना: यह भी पात्रदत्ति के अन्तर्गत है। २ महा- अंगुलों के प्राश्रय से पृथक् पृथक् छह अंगुल प्रमाण तपस्वियों को प्रतिग्रह (पडिगाहन) और पूजा के उन उन नामों वाला एक पाद होता है। साथ निर्दोष पाहार तथा ज्ञान एवं संयम के उप- पावग्रहण-पादेन ग्रहणे पादग्रहणं xxx। करणों-शास्त्र व पीछी आदि के देने का नाम (अन. ध. ५-५८)। पात्रदत्ति है।
भूमि से पांव के द्वारा रत्न-सुवर्णादि के ग्रहण करने पात्रदान—देखो पात्रदत्ति । १. महातपोधनायार्चा- पर पादग्रहण नामक भोजन का अन्तराय होता है। प्रतिग्रहपुरस्सरम् । प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदि- पादपतन-पादपतनं प्रणामादिगौरवम् । (प्रश्नष्यते । (म. पु. ३८-३७) । २. पात्रदत्तिर्महातपो- व्या. अभय. वृ., पृ. १६३) । धनेभ्यः प्रतिग्रहार्चनादिपूर्वकं निरवद्याहारदानं ज्ञान- चरणों में गिरकर नमस्कारादि करने को पादपतन
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
पादपोपगमन] ७०१, जैन-लक्षणावली
[पाप कहते हैं । यह प्रणाम प्रादि की महानता का द्योतक पादाभ्यामुपगमनं ढौकनं संघानिर्गत्य योग्यदेशस्या
श्रयणम्, तेन प्रवर्तितं मरणं पादोपगमनमरणम्, स्वपादपोपगमन-देखो पादोपगमनमरण। १. निा - परवैयावृत्त्य निरपेक्षः प्राणत्याग उच्यते रूढिवशात् । घातं तु प्रव्रज्या-शिक्षापदादिक्रमेण जराजर्जरितश- यदा पाउग्गगमणमरणं इति पाठस्तदा प्रायोग्यस्य रीरः करोति- यदुपहितचतुर्विधाहारप्रत्याख्यानो भवान्तकरणयोग्यस्य संहननस्य. संस्थानस्य गमनेन निर्जन्तूक स्थण्डिलमाश्रित्य पादप इवैकेन पावेन प्राप्त्या निर्वयं मरणं प्रायोग्यगमनमरणम । प्रायोनिपतत्यपरिस्पन्दस्तावदास्ते प्रशस्तध्यानव्यापृ- गमनमित्यपीदमुच्यते, प्रायस्य सन्यासवदनशनस्योतान्तःकरणो यावदुत्क्रान्तप्राणस्तदेतत् पादपोपगमना- पगमनेन साध्यत्वात् । (भ. प्रा. मूला. २६)। . ख्यमनशनम् । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वृ. ६-१९)। १ जिस प्रकार हाथ आदि से छेदा गया वक्ष विच२. तत्रानशनिनः परित्यक्तचतुर्विधाहारस्याधिकृतचे- लित नहीं होता है उसी प्रकार जिस मरण में वक्ष ष्टाव्यतिरेकेण चेष्टान्तरमधिकृत्यकान्तनिष्प्रतिकर्म- के समान शरीर को स्थिर रखा जाता है उसे पादोशरीरस्य पादपस्येवोपगमनं सामीप्येन वर्तनं पादपो- पगमनमरण कहा जाता है। २ पांवों से जाकर पगमन मिति । (दशवै. नि. हरि. वृ. १-४७, पृ. योग्य देश का प्राश्रय लेने पर जो मरण होता है २६) । ३. पादपस्योपगमनम्-अस्पन्दतयाऽवस्थानं उसे पादोपगमनमरण कहते हैं । अथवा पाउग्गगपादपोपगमनम् । (प्रौपपा. अभय. वृ. १८, पृ. ३८)। मनमरणं' ऐसा पाठ होने पर तदनुसार प्रायोग्य का १ जो चार प्रकार के प्राहार का परित्याग करता अर्थ संसार के नष्ट करने योग्य-संहनन और हुआ जन्तुरहित शुद्ध भूमिका प्राश्रय लेकर पादप संस्थान होता है और ममन का अर्थ प्राप्ति होता (वृक्ष) के समान निश्चल रहता है व एक पार्श्व- है, इस प्रकार संसार के विनाशक संहनन और भाग से पड़ जाता है और प्रशस्त ध्यान में मन को संस्थान की प्राप्ति से जो मरण निर्मित होता है लगाता हया तब तक उसी प्रकार से निश्चल रहता उसे प्रायोग्यमरण कहा जाता है। ४ मलाराधनादर्पण है जब तक प्राण नहीं निकल जाते। उसके इस टीका से भी यही अभिप्राय निकलता है। विशेष अनशन को पादपोपगमन अनशन कहा जाता है। वहां इतना है कि उपलब्ध पाठ से पं. प्राशाधरने पादान्तरपंचेन्द्रियागमन-पादान्तरेण पञ्चाक्ष- 'प्रायोगमन' की सूचना करते हए 'प्राय' का अर्थ गमे तन्नामकोऽश्नतः ॥ (अन. ध. ५-५१)। .. संन्यासयुक्त अनशन को ग्रहण किया है, उसके उपदोनों पावों के अन्तराल से पंचेन्द्रिय प्राणी के जाने गमन (प्राप्ति) से सिद्ध होने वाले मरण को प्रायो. पर पादान्तरपंचेन्द्रियागमन नामक भोजन का गमन मरण जानना चाहिए। इसका एक अन्य नाम अन्तराय होता है।
उन्होंने प्रायोपवेशन भी निर्दिष्ट किया है। पादपोपगमन अनशन-देखो पादपोपगमन। पाप-१. सम्मत्तेण सुदेण य विरदीए कसायणिग्गहपादोपगमनमरण-देखो पादपोपगमन अनशन । गुणेहिं । जो परिणदो स पुण्णो तब्विवरीदेण पावं १. पायव इव (उवगमणं) पाअोवगमनम्, हत्थाइहिं तु ॥ (मूला. ५-३७) । २. यदशुभमथ तत्पापमिछिन्नो दुमो व न चलति । (उत्तरा. चू. ५, पृ. २६)। ति भवति सर्वज्ञनिर्दिष्टम् ॥ (प्रशमर. २१६ )। २. पादाम्यामुपगमनं ढौकनम्, तेन प्रबर्तितं मरणं ३. पाति रक्षति प्रात्मानं शुभादिति पापम् । (स.. पादोपगमनमरणम् ।xxx अथवा पाउग्गगमण- सिं. ६-३) अस्मात् पुण्यसंज्ञककर्मप्रकृतिसमहामरणं इति पाठः । भवान्तकरणप्रायोग्यं संहननं दन्यत्कर्म पापमित्युच्यते । (स. सि. ८-२६) संस्थानं च इह प्रायोग्यशब्देनोच्यते, अस्य गमनं ४. तत्प्रतिद्वन्दिरूपं पापम् । तस्य पूण्यस्य प्रतिद्वन्दिप्राप्तिः, तेन कारणभूतेन यनिर्वयं मरणं तदुच्यते रूपं पापमिति विज्ञायते । पाति रक्षयात्मानम पाउग्गगमनमरणमिति । (भ. प्रा. विजयो. २६)। अस्माच्छुभपरिणामादिति पापाभिधानम । । ३. पादपो वृक्षः, तस्येव छिन्नपतितस्योपगमनम् ६, ३, ५)। ५. पापं तद्विपरीतं तु xx अत्यन्तनिश्चेष्टतयाऽवस्थानं यस्मिन् तत् पादपोप- X। ( षड्दस. ५०)। ६. अशभपरिणामो गमनम् । (स्थाना. अभय. वृ. २, ४, १०२) । ४. जीवस्य, तन्निमित्तः कर्मपरिणामः पुदगलानां च
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
पापा ७०२, जैन-लक्षणावली
[पापजुगुप्सा पापम् । (पंचा. अमृत. वृ. १०८) । ७. पापं चाशु- सोता है, प्रयत्नपूर्वक भोजन करता है तथा प्रयत्नभकर्मस्वरूपपरिणतपुद्गलप्रचयो जीवस्यासुखहेतुः । पूर्वक भाषण करता है उसके पाप का बन्ध नहीं (मूला. वृ. ५-६) । ८. हिंसादिरशुभपरिणामः पाप- होता है। २ जो प्रयत्नपूर्वक-पागमोक्त विधि से हेतुत्वात् पापम् । (प्रा. मी. वसु. वृ. ४०) । ६.पा- ईर्यासमितिपूर्वक चलता है, प्रयत्नपूर्वक बैठता पम् अशुभं कर्म । (समवा. अभय. वृ. १, पृ. ६)। है-बैठा हुमा हाथ-पांव प्रादि को न फैलाता है न १०. पाशयति गुण्डयत्यात्मानं पातयति चात्मनः सिकोड़ता है, सावधानी से सोता है, यत्नपूर्वक आनन्दरसं शोषयति क्षपयतीति पापम् ।(स्थाना. अभय. भोजन करता है, और यत्नपूर्वक भाषण करता है; वृ. १-१२, पृ. १८)। ११. ते (कर्म-पुद्गलाः) एव वह पापकर्म को नहीं बांधता है। इसी प्रकार जो अशुभाः पापम् । (षड्दस. गु. वृ. ४७, पृ. १३७)। सभी प्राणियों को अपने समान देखता है-अपने १२. पात्यवति रक्षति प्रात्मानं कल्याणादिति पापम् । समान ही उनके सुख-दुःख की कल्पना करता है, (त. वृत्ति. श्रुत. ६-३)। १३. XXX पापं वह इन्द्रियों व मनका दमन करता हुआ कर्मासव तस्य विपर्ययः । (विवेकवि. ८-२५१) । १४. पाप- को रोकता है, अतएव वह पापकर्म को नहीं बांधता मशुभप्रकृतिलक्षणम् । (प्रमाल. वृ. ३०५) । १५. है। पापं हिंसादिक्रियासाध्यमशुभं कर्म । (स्याद्वादम. पापकर्मबन्धक-अजयं चरमाणो अ (उ), पाण२७)। १६. xxx पापं दुष्कर्म-पुद्गलाः। भूयाइं हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुग्रं (षड्दस. राज. १३)। १७. xxx अशुभं फलं ॥ अजयं चिट्रमाणो अ, पाणभयाइ हिंसइ । पापमुच्यते । (अध्यात्मसार १५-६०)।
बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुग्रं फलं ॥ अजयं १ जो जीव सम्यक्त्व, श्रुत, विरति और कषाय- आसमाणो अ, पाणभूयाइ हिंसइ। बंधई पावयं निग्रह इन गणों के विपरीत मिथ्यात्वादि से परिणत कम्म, तं से होइ कडयं फलं ॥ अजयं सयमाणो अ, है उसे पाप-पाप से संयुक्त (पाप का बन्धक)- पाणभूयाइ हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कहा जाता है । २ अशुभ पुद्गल कर्म को पाप कहते कडुअं फलं ॥ अजयं भुंजमाणो अ, पाण-भूयाइ हैं। ३ जो शुभ से रक्षा करता है-उत्तम कार्य में हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुग्रं फलं ॥ प्रवृत्त नहीं होने देता है-वह पाप कहलाता है। (दशवै. सू. श्लो. ४, १-६, पृ. १५६)। पापकर्म-असुहपयडीयो पावं । तत्थ घाइचउक्कं जो प्रयत्न के विना--सूत्राज्ञा के विपरीत-चलता पावं । अघाइचउक्कं मिस्सं, तत्थ सुहासुहपयडीणं है, बैठता है, बैठा हया भी उपयोग के बिना हाथ संभवादो। (धव. पु. १३, पृ. ३५२)।
पैरों को फैलाता व सिकोड़ता है, असावधानी से प्रशभ प्रकृतियों को पाप कर्म कहा जाता है। उनमें दिन में सोता है, निष्प्रयोजन या कौवे आदि से चार घातिकर्म पाप तथा चार अघातिकर्म मिश्र भक्षित भोजन करता है, तथा कठोर आदि भाषण -पाप-पुण्य उभयस्वरूप-हैं, क्योंकि उनमें शुभ करता है। वह दोइन्द्रियादि प्राणियों व एकेन्द्रिऔर अशुभ दोनों ही प्रकार की प्रकृतियां सम्भव यादि भूतों (जीवों) को पीडित करता है, इसीलिए
वह कडुए फलवाले पापकर्म को वांधता है। पापकर्म-प्रबन्धक-१. जदं चरे जदं चिढे जद- पापकर्मोपदेश-देखो पापोपदेश । पापकर्मोपदेशः मासे जदं सये। जदं भुजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण -कृष्याधुपदेशः प्रयोजनं विनेति । (प्रौपपा. अभय. बज्झइ। (मूला. १०-१२२) । २. जयं चरे जयं वृ. ४०, पृ. १०१)। चिटठे जयमासे जयं सये। जयं भुजंतो भासंतो पावं प्रयोजन के विना ही कृषि प्रादि के उपदेश को कम्मं न बंधइ॥ सव्वभूयप्पभूअस्स सम्म भूयाई पापकर्मोपदेश कहते हैं। पासपो । पिहिआसवस्स दंतस्य पावं कम्मं न बंधइ॥ पापजुगुप्सा-पापजुगुप्सा तु तथा सम्यक्त्वपरि(दशवै. सू. श्लो. ८-६, पृ. १५६)।
शुद्धचेतसा सततम् । पापोद्वेगोऽकरणं तदचिन्ता १जो प्रयत्नपूर्वक-प्राणिरक्षा में सावधान होकर- चेत्यनुक्रमतः ॥ (षोडशक. ४-५) । चलता है. प्रयत्नपूर्वक स्थित होता है, प्रयत्नपूर्वक निर्मल अन्तःकरण से निरन्तर पाप से उद्विग्न रहना
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
पापप्रकृति]
७०३, जैन-लक्षणावली
[पारञ्चिक
-पूर्व में किये गये पाप के विषय में पश्चात्ताप बलादिभ्यः क्षित्युदक-ज्वलन-पवन-वनस्पत्यारम्भोऽनेकरना, वर्तमान में पाप को न करना, तथा भविष्य नोपायेन कर्तव्यः इत्याख्यानमारम्भकोपदेशः । इत्येवंमें पाप का चिन्तन न करना, इस सबका नाम पाप- प्रकारं पापसंयुक्तं वचनं पापोपदेशः। (त. वा. ७, जुगुप्सा है। प्रथवा पापोद्वेग का अर्थ काय से पाप २१, २१; चा. सा. पृ. ९-१०)। ४. पापोपदेशः का परित्याग करना, वचन से उसका न कहना और पापकर्मोपदेशः, पापं यत्कर्म कृष्यादि तदुपदेशो यथा मन से चिन्तन न करना; इसे पापजुगुप्सा समझना कृष्यादि कुर्विति । (श्रा. प्र. टी. २८६) । ५. पापोचाहिए।
पदेश आदिष्टो वचनं पापसंयुतस् । यद्वणिग्वधकारपापप्रकृति-पापप्रकृतयः कटुकरसा अशुभा उच्य- म्भपूर्वसावद्यकर्मसु ॥ (ह. पु. ५८-१४८) । न्ते । (शतक. दे. स्वो. वृ. १)।
६. क्लेश-तिर्यग्वणिज्यादिवचनलक्षणात् पापोपदेशात् कडुए रस वाली कर्मप्रकृतियां पापप्रकृतियां कही xxx। (त. श्लो. ७-२१)। ७. विद्याजाती हैं।
वाणिज्य-मषी-कृषि-सेवा-शिल्पजीविनां साम् । पापश्रमण-१. आयरियकूलं मुच्चा विहरदि पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव वक्तव्यम् । (पु. सि. समणो य जो दु एगागी। ण य गेण्हदि उवदेसं पाव- १४२)। ८. जो उवएसो दिज्जइ किसि-पसुपालणस्समणो त्ति वुच्चदि दु॥ (मूला. १०-६८) । २. सयं वणिज्जपमुहेसु । पुरिसित्थीसंजोए अणत्थदण्डो हवे गेहं परिच्चज्ज परगेहमि वावडे । निमित्तेणं वव- विदिओ ॥ (कातिके. ३४५)। ६. पापोपदेशो हरइ पावसमणो त्ति वुच्चई ॥ दुद्ध-दही विगईओ यद्वाक्यं हिंसा-कृष्यादिसंश्रयम् । तज्जीविभ्यो न तं दआहारेइ अभिक्खणं । अरए य तवोकम्मे पावसमणो द्यान्नापि गोष्ठयां प्रसज्जयेत् ॥ (सा. ध. ५-७)। त्ति वुच्चई ॥ (सम्बोधस. ५३-५४) ।
१०. वधकारम्भकादेशौ वाणिज्यं तिर्यक्क्लेशयोः । १ जो साघु प्राचार्यकुल को छोड़कर अकेला विहार एभिश्चतुर्विधर्योगमतः पापोदेशकः ॥ (धर्मसं. श्रा. करता है तथा उपदेश को नहीं ग्रहण करता है उसे ७-१०)। पापश्रमण कहा जाता है। २ जो अपने घर को छोड़ १ गाय-भैस आदि तिर्यंचों के व्यापारविषयक, कर पर घर में व्याप्त होता है प्रात्मा को छोड़कर क्लेशकर दासी-दास आदि के व्यापारविषयक, पर पदार्थों में मुग्ध रहता है, निमित्तशास्त्र से आजी- हिंसाविषयक, प्रारम्भविषयक और वंचनाविषयक विका करता है, विकारजनक दूध-दही आदि का कथावार्ता के प्रसंग से उत्पन्न होने वाले पाप के भक्षण करता है, तथा तपश्चरण में रत नहीं रहता उपदेश को पापोपदेश कहा जाता है । ४ कृषि आदि है-उससे अरुचि रखता है। ऐसे साधु को पाप- कार्य पाप के कारण होने से पाप माने जाते हैं, ऐसी श्रमण कहते हैं।
क्रियाओं के उपदेश का नाम पापोपदेश है-जैसे पापोपदेश—देखो पापकर्मोपदेश । १. तिर्यक्क्लेश- खेती करो, ऐसा उपदेश। वणिज्या-हिंसारम्भ-प्रलम्भनादीनाम् । कथाप्रसङ्ग- पामिच्छ-देखो प्रामित्य । प्रसव: स्मर्तव्यः पाप उपदेशः ॥ (रत्नक. ३-३०)। पारञ्च-देखो पारञ्चिक । पारंचो नाम खेत्ततो २. तिर्यक्क्लेश-वाणिज्य-प्राणिवधकारम्भादिषु पाप- देसतो वा निच्छुभइ । (दशवै. चू. पृ. २६) । संयुक्तं वचनं पापोपदेशः । (स. सि. ७-२१)। क्षेत्र या देश से पृथक् कर देना, इसे पारंच कहा ३. क्लेश-तिर्यग्वणिज्या-वधकारम्भादिपू पापसंयुतं- जाता है। वचनं पापोपदेशः । तद्यथा-अस्मिन् देशे दासा पारञ्चिक-देखो अनुपस्थान। १. प्राचार्यादादास्यश्च सुलभास्तानमुं देशं नीत्वा विक्रये कृते महा- चार्यान्तरप्रापणमातृतीयं पारञ्चिकम् । (त. वा. ६, नर्थलाभो भवतीति क्लेशवणिज्या। गो-महिष्यादीन २२, १०)। २. पुरुषविशेषस्य स्वलिङ्ग-राजपत्त्याअमुत्र गृहीत्वा अन्यत्र देशे व्यवहारे कृते भूरिवित्त- द्यासेवनायां पारञ्चिकं भवति, पारं प्रायश्चित्तान्तलाभ इति तिर्यग्वणिज्या। वागरिक-सौकरिक-शाकू- मञ्चति गच्छतीति पारञ्चिकम् । (प्राव. नि. हरि. निकादिभ्यो मृग-वराह-शकुन्तप्रभृतयोऽमुस्मिन् देशे वृ. १४१८, पृ. ७६४)। ३. जो सो पारंचिो सो सन्तीति वचनं वधकोपदेशः। आरम्भकेभ्यः कृषी- एवंविहो (अणवट्ठअसंणिहो) चेव होदि, किंतु सा
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
पारञ्चिक ७०४, जैन-लक्षणावली
[पारञ्चित धम्मियवज्जियखेत्ते समाचरेयव्वो। एत्थ उक्कस्सेण चिक प्रायश्चित्त है। ८ 'पारं अञ्चति' इस निरुक्ति छम्मासक्खवणं पि उवइठें। एदाणि दो वि पाय- के अनुसार अपराधी तप के द्वारा अपराध के पार च्छित्ताणि णरिंदविरुद्धाचरिदे पायरियाणं नव-दस- जाता है व तत्पश्चात् उसे पुनः दीक्षा दी जाती है, पुव्वहराणं होदि । (धव. पु. १३, पृ. ६२-६३)। इससे उसे पारांची या पारांचिक कहा जाता है। ४. सर्वगुणैः समग्रस्य देयं पारंचिकं भवेत् । व्युत्सृष्ट- उसके लिंग, क्षेत्र, काल और तप से बहिष्कृत करने स्यापि येनास्याशुद्धभावो न जायते । (प्रायश्चित्तस. रूप अनुष्ठान को भी पारांचिक कहा जाता है। ६-१५७) । ५. पारं अंचदि परदेसमेदि गच्छदि पारञ्चित-देखो पारञ्चिक । जदो तदो एसो। पारंचिगो त्ति भण्णदि पायच्छित्तं पारञ्ची-धर्मस्य पारं तीरमञ्चति गच्छति, तेन जिणमदम्मि ॥ (छेदपिण्ड २८२) । ६. स्वधर्मरहित- कारणेन पुरुषः पारञ्ची स्मृतः । (प्रायश्चित्त. ७, क्षेत्रे प्रायश्चित्ते पुरोदिते । चार: पारंचिकं जैनधर्मा- २७) । त्यन्तरतेर्मतम् ।। (प्राचा. सा. ६-६२)। ७. पारं- इस प्रायश्चित्त में अपराधी धर्म के पार (किनारे). चियारिहं-अञ्चु गइ-पूयणेसु ; पारं अञ्चइ तवाईणं जाता है, इससे वह पारंची कहलाता है। जम्मि पडिसेविए लिंग-खेत्त-कालविसिटाणं, तं पारं- पारमार्थिक नोकर्मद्रव्यक्षेत्र-पारमत्थियं णोकचियारिहं । (जीतक. चू. गा. ४, पृ. ६)। ८. पारं म्मदव्वखेत्तं पागासदव्वं । (धव. पु. ४, पृ. ७) । तीरं तपसा अपराधस्य अञ्चति गच्छति ततो दीक्ष्यते पारमाथिक नोकर्मद्रव्यक्षेत्र आकाश कहलाता है। यः स पाराञ्ची, स एव पाराञ्चिकस्तस्य यदनुष्ठानं पारमाथिक प्रत्यक्ष-देखो मुख्य प्रत्यक्ष । १. पारतच्च पाराञ्चिकं लिंग-क्षेत्र-काल-तपोभिर्बहिष्कर- माथिकं पुनरुत्पत्तावात्ममात्रापेक्षम् । (प्र. न. त. णम् । (जीतक. चू. वि. व्या. ६-२१, पृ. ३६)। २-१८)। २. परमार्थे भवं पारमाथिकं मुख्यम्, ६. तथा पारमन्तं प्रायश्चित्तानाम्, तत उत्कृष्टतर- आत्मसन्निधिमात्रापेक्षम्, अवध्यादि प्रत्यक्षमित्यर्थः । प्रायश्चित्ताभावातु, अपराधानां वा पारमञ्चति
(रत्नाकरा. २-४); क्षय-क्षयोपशमविशेषविशिष्टगच्छतीत्येवंशीलं पाराञ्चि, तदेव पाराञ्चिकम् ।
मात्मद्रव्यमेवाऽव्यवहितं समाश्रित्य पारमार्थिकमेततच्च महत्यपराधे लिंग-कुल-गण-संघेभ्यो बहिष्कर- दवध्यादिप्रत्यक्षमुन्मज्जति, न पुनः सांव्यवहारिकमिणम् । (योगशा. स्वो. विव. ४-६०)। १०. यस्मिन वेन्द्रियादिव्यवहितमात्मद्रव्यमाश्रित्येति भावः । प्रतिसे विते लिंग-क्षेत्र-काल-तपसां पारमञ्चति तत्
(रत्नकरा. २-१८) । ३. सर्वतो विशदं पारमाथिपाराञ्चितमहतीति पाराञ्चितम् । (व्यव. मलय.
कं प्रत्यक्षम् । (न्यायदी. पृ. ३४)। ४. पारमावृ. १-५३) ।
थिकं त्वात्मसंनिधिमात्रापेक्षमबध्यादिप्रत्यक्षम् । १ एक प्राचार्य से तीसरे प्राचार्य तक अन्य प्राचार्यो (षड्दस. गु. वृ. ५५, पृ. २०८) । ५. स्वोत्पत्ताके पास पहंचाना, इसका नाम पारञ्चिक प्रायश्चित्त वात्मव्यापारमात्रापेक्षं पारमाथिकम् । (जैनत. प. है। ३ राजा के विरुद्ध आचरण करने पर जो ११८) । प्रायश्चित्त नौ-दस पूर्वो के धारक प्राचार्यों से कराया १जो ज्ञान अपनी उत्पत्ति में प्रात्मा मात्र की जाता है उसका नाम पारंचिक प्रायश्चित्त है। यह अपेक्षा करता है-इन्द्रियादि अन्य कारणों की प्रायश्चित्त सामिक जन से रहित क्षेत्र में कराया अपेक्षा महीं करता-उसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष जाता है। इसमें अपराधी प्राचार्य मुनियों के आश्रम कहते हैं। से अलग रहता है, उसे कोई भी साधु प्रतिवन्दना पारमाथिकप्रत्यक्षाभास-पारमाथिकप्रत्यक्षमिव नहीं करता, गुरु को छोड़कर वह अन्य सबसे मौन यदाभासते तत्तदाभासम् । (प्र. न. त. ६-२६)। रखता है, तथा उपवास, प्राचाम्ल पुरिमार्थ (निवि- जो पारमार्थिक प्रत्यक्ष के समान दिखता है, पर कृतिक तपविशेष), एकस्थान और निविकृति आदि वस्तुतः पारमार्थिक प्रत्यक्ष नहीं है, वह परमार्थिकके द्वारा रस, रुधिर एवं मांस को सुखाता है। प्रत्यक्षाभास कहलाता है। ५इस प्रायश्चित्त में चूंकि अपराधी दूसरे देश को पाराञ्चिक-देखो पारञ्चिक । जाता है, अत एव इसका नाम पारंचिक या पारा- पाराञ्चित-देखो पारञ्चित ।
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
पारायण ]
[ पारिणामिक भाव
पारायण - पारायणं नाम सूत्रार्थ - तदुभयानां पारगमनम् । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ४-३ ) । सूत्र, अर्थ एवं दोनों के पारगमन को प्रर्थात् श्राद्योपान्त अध्ययन कर लेने को पारायण कहते हैं । पारिग्रहिकी— देखो परिग्रहक्रिया व पारिग्राहिकी क्रिया परिग्रहो धर्मोपकरणवर्ज्जवस्तुस्वीकारः धर्मोपकरणमूर्च्छा च परिग्रह एव पारिग्रहिकी, परिग्रहेण निर्वृता वा पारिग्राहिकी । (प्रज्ञाप. अलय. वृ. २८४, पृ. ४४७) ।
धर्मोपकरणों को छोड़कर अन्य वस्तु को स्वीकार करना व धर्मोपकरणों में भी अनुराग रखना, इसका नाम परिग्रह है । इस परिग्रह से होने वाली क्रिया को पारिग्रहिकी क्रिया कहा जाता है । पारिग्राहिकी क्रिया - देखो परिग्रहक्रिया । १. परिग्रहाविनाशार्थी पारिग्राहिकी क्रिया । ( स. सि. ६-५; त. वा. ६, ५, ११) । २. परिग्रहाविनाशार्थी स्यात् पारिग्राहिकी क्रिया । ( त श्लो. ६, ५, २४) । ३. परिग्रहाणामविनाशे प्रयत्नः पारिग्राहकी क्रिया । (त. वृत्ति श्रुत. ६ - ५ ) ।
द्रव्यभवनसम्बन्धपरिणामनिमित्तत्वात् पारिणामिका इति व्यपदिश्यन्ते । (त. वा. २, ७, १–२) । ३. कर्मोदयोपशम-क्षय-क्षयोपशममन्तरेणोत्पन्नः पारिणामिक: । ( धव. पु. १, पृ. १६१ ) ; जो चउहिं ( प्रोदय - प्रोवस मिय - खइय - खग्रोवसमिएहिं ) भावेहि पुव्वुत्ते हि वदिरित्तो जीवाजीवगो सो पारिणामित्रो णाम । ( धव. पु. ५, पृ. १८५ ) ; जो कम्माणमुदयउवसम खइय-खप्रोक्तमेहि विणा अण्णेहिंतो उप्पण्णो परिणामो सो पारिणामिश्रो भण्णदि । ( धव. पु. ५, पृ. १६६ ) ; भावो दु पारिणामिओ करणोभयवज्जियो होदि ॥ ( धव. पु. ७, पृ. ६; धव. पु. १२, पृ. २७९ उद्) । ४. परिणमनं परिणामो जीवत्वाद्याकारेण यद् भवनं सः पारिणामिक: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. १ - ५, पृ. ४८ ) ; पारिणामिकशब्देन च द्रव्यभावप्राणावस्थाख्यः परिणाम उच्यते । तथा सेधनयोग्यः परिणामो भव्यः, अभव्यस्तु न कदाचित् सेधनयोग्यः परिणाम इति । ( त. भा. सिद्ध. वृ. २- १, पृ. १४०)। ५. द्रव्यात्मलाभहेतुः स्यात् परिणामोऽनपेक्षिणः । एतत्प्रयोजना भावा: सर्वोपशमिकादयः । इत्यौपशमिकादीनां शब्दानामुपवणिता (निरुक्तिः ) ॥ (त. इलो. २,१, ४-५ )। ६. सकलकर्मोपाधिविनिर्मुक्तः परिणामे भवः पारिणामिकभावः । (नि. सा. वृ. ४१) । ७. परिणमनं परिणाम :- कथञ्चिदवस्थितस्य वस्तुनः पूर्वावस्थापरित्यागेनोत्तरावस्थागमनम्, स एव तेन वा निर्वृत्तः पारिणामिक: । ( प्रव. सारो. वृ. १२६० ) । ८. कारणणिरवेक्खभवो सहावियो
१ परिग्रह के अविनाश के लिये उसके संरक्षण के निमित्त-जो क्रिया की जाती है उसे पारिग्राहिकी क्रिया कहा जाता है । पारिणामिकत्व - भावान्तरोपादानं पारिणामिक - त्वमुच्यते । XX X परिणामयतीति परिणामकः, परिणामक एवं पारिणामिकः । (त. वृत्ति श्रुत. ५-३७) ।
श्रवस्थान्तर की प्राप्ति को पारिणामिकत्व या पारि पारिणामित्रो भावो । ( भावत्रि. २३) । ६. स्वभाव: णामिकता कहा जाता है । पारिणामिक भाव - १. द्रव्यात्मलाभमात्र हेतुकः परिणामः । x x x परिणामः प्रयोजनमस्येति पारिणामिक: । ( स. सि. २- १ ) । २. द्रव्यात्मलाभमात्र हेतुकः परिणामः । यस्य भावस्य द्रव्यात्मलाभमात्रमेव हेतुर्भवति नान्यन्निमित्तं स परिणाम इति परिभाष्यते । X XX परिणामः प्रयोजनमस्येति पारिणामिक: । (त. वा. २, १, ५-६ ); अन्यद्रव्यासाधारणस्त्रयः पारिणामिकाः । XXX कर्मोदय क्षयोपशम- क्षयोपशमानपेक्षवात् । नहि एवंविधं कर्मास्ति यस्योदयात् क्षयात् उपशमात् क्षयोपशमाद्वा जीवो भव्योऽभव्य इति चोच्यते । तदभावादनादिल. ८६
परिणामः स्यात्तद्भवः पारिणामिकः । ( भावसं. वाम 8 ) । १०. कर्मोपशमादिनिरपेक्षः चेतनत्वादिः जीवस्य स्वाभाविको भावः पारिणामिको निगद्यते । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १ ) । ११. कृत्स्नकर्मनिरपेक्षः प्रोक्तावस्थाचतुष्टयात् । श्रात्मद्रव्यत्वमात्रात्मा भावः स्यात् पारिणामिकः ।। ( पंचाध्या. २ - ६६८ ) । १ जिस भाव का कारण द्रव्य का श्रात्मलाभ मात्र हो- - अन्य कोई न हो उसे पारिणामिक भाव कहते हैं । ७ कथंचित् प्रवस्थित वस्तु जो एक अवस्था को छोड़कर अगली दूसरी अवस्था को प्राप्त होती है, इसका नाम परिणाम है। इसी को प्रथवा इससे रचे गये को पारिणामिक कहा जाता है ।
७०५, जैन-लक्षणावली
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
पारिणामिकी ]
पारिणामिकी- १. णिय णियजादिविसेसे उप्पपारिणामिकी णामा ।। ( ति प ४, १०२० ) । २. प्रणुमाण-हेउ-दिट्ठतसाहिया वयविवागपरिणामा । हिश्र निस्से सफलवई बुद्धी परिणामित्रा नाम || ( श्राव. नि. ६४८; नन्दी. सू. गा. ६६ ; उप. प. ४८ ) । ३. पारिणाभिकी तु वयोविपाकलब्धजन्मा परमहित- निःश्रेयसफला पंचावयवादिसाधनानुसारिणी भवत्यभयकुमारादेवि । ( त. भा. हरि. वृ. ६ - ६ ) । ४. परिः समन्तान्नमनं परिणाम:सुदीर्घकाल पूर्वापरार्थावलोकनादिजन्य प्रात्मधर्म इत्यर्थः, स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा पारिणामिकी । ( श्राव. नि. हरि वृ. ३८, पृ. ४१५ ) । ५. सगसगजादिविसेसेण समुप्पण्णपण्णा पारिणामिया णाम । XXX जादिविसेसजणिदकम्मक्खप्रोवसमसमुप्प
पारिणामिया । ( धव. पु. ६, पृ. ८२-८३ ) । ६. स्वकीय-स्वकीयजातिविशेषेण समुत्पन्ना पारिणामिकी चेति । (चा. सा. पृ. ९७ ) । ७. तथा परि-- समन्तान्नमनम् - यथावस्थितवस्त्वनुसारितया गमनं परिणामः, सुदीर्घकाल पूर्वापरार्थावलोकनादि जन्य आत्मधर्म विशेष इत्यर्थः, स कारणमस्याः पारिणामिकी, बुद्धयतेऽनयेति बुद्धि: । ( श्राव. नि. मलय. वृ. ९३८) ।
१ अपनी अपनी विशेष जातिमें जो बृद्धि उत्पन्न होती है उसे पारिणामिकी बुद्धि कहा जाता है । २ जो बुद्धि अनुमान हेतु और दृष्टान्त के द्वारा श्रभीष्ट की साधक होती है; आयु के पारिपाक के अनुसार जिसका परिणमन होता है, तथा जो अभ्युदय और निःश्रेयस (मोक्ष) से सफल होती है; वह पारिणामिकी बुद्धि कहलाती है । पारितानिकी क्रिया - १. दुःखोत्पत्तितन्त्रत्वात् पारितापिकी क्रिया । ( स. सि. ६-५; त. वा. ६, ५, ८) । २. दुःखोत्पत्तिः स्वतंत्रत्वात् क्रियाया परितापिकी । (ह. पु. ५८- ६७ ) । ३. दुःखोत्पादनतन्त्रत्वं स्यात्क्रिया पारितापिकी । (त. श्लो. ६, ५, १० ) । ४. परितापो दु:खम्, दुःखोत्पत्ति निमित्ता क्रिया पारितापिकी क्रिया । (भ. श्री. विजयो. ८०७ ) । ५. परितापनं ताडनादिदुःखवि शेषलक्षणम्, तेन निर्वृत्ता पारितापनिकी क्रिया । ( स्थाना. अभय वृ. ६०; समवा. अभय वृ. ५) । ६. दुःखोत्पत्तौ परितप्तिपरवशत्वं पारितापिकी
७०६, जैन- लक्षणावली
[ पार्थिव मण्डल
क्रिया । (त. वृत्ति श्रुत. ६ - ५ ) ।
१
जो 'दुःख की उत्पत्ति के अधीन क्रिया की जाती है उसकी उत्पत्ति का कारण है-उसे पारितापिकी क्रिया कहा जाता है । ५ ताड़नादि दुःखविशेष रूप परिताप से जो क्रिया निर्मित होती है उसका नाम पारितापनिकी या पारितापिकी क्रिया है । पारितापिकी क्रिया- देखो पारितापनिकी क्रिया । पारिव्राज्य - गार्हस्थ्यमनुपालयैव गृहवासाद्विरज्यतः । यद्दीक्षाग्रहणं तद्धि पारिव्राज्यं प्रचक्ष्यते ॥ पारिव्राज्यं परित्राजो भावो निर्वाणदीक्षणम् । तत्र निर्मम - तावृत्त्या जातरूपस्य धारणम् ।। ( म. पु. ३६-१५६, १५७) ।
गृहस्थ धर्म का पालन करने के पश्चात् गृहवास से विरक्त होते हुए जो दीक्षा ग्रहणकी जाती है उसे पारिव्राज्य - परिव्राजक का अनुष्ठान कहा जाता है । परिव्राट् के भाव का नाम पारिव्राज्य है, जिसका अभिप्राय निर्वाणदीक्षा । इसमें ममत्वबुद्धि को छोड़कर जातरूप- -दिगम्बरवेष धारण किया जाता है ।
पारिषद - देखो पार्षद्य । १. वयस्यपीठमर्दसदृशाः परिषदि भवाः पारिषदाः । ( स. सि. ४-४) । २. पारिषद्या: वयस्यस्थानीयाः । ( त. भा. ४–४) । ३. वयस्यपीठमर्दसदृशाः पारिषदाः । परिषदि जात भवा वा पारिषदाः, ते वयस्यपीठमर्दसदृशाः वेदितव्याः । (त. वा. ४, ४, ४) । ४. भवा: परिषदीत्यासन् सुराः पारिषदाह्वयाः । ते पीठमर्दसदृशाः सुरेन्द्रैरतिलालिताः ।। (म. पु. २२ - २६ ) । ५. परियदि साधवः पारिषद्या: मित्रसदृशाः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ४-४ ) । ६. परिषदि सभायां भवाः पारिषदाः पीठमर्द मित्रतुल्याः । (त. वृत्ति श्रुत. ४ - ४ ) । १ जो सभा में उपस्थित रहने योग्य होते हैं वे पारिषद कहलाते हैं । ये देव मित्र अथवा पीठमर्द - कामपुरुषार्थ में सहायक के समान होते हैं । २ जो देव मित्र के समान होते हैं उन्हें पारिषद्य कहा जाता है । पारिषद्य - देखो पारिषद | पार्थिव मण्डल - क्षितिवीजसमाक्रान्तं द्रुतमसमप्रभम् । स्याद् वज्ज्रलाञ्छनोपेतं चतुरस्रं धरापुरम् ॥ ( ज्ञानार्णव २६ - १६, पृ. २८८ ) ।
पृथिवी बोज से सहित, पिघले हुए सुवर्ण के सदृश,
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
पार्थिवी धारणा
वज्र के चिह्न से चिह्नित और आकार में चौकोण धरापुर - पार्थिव मण्डल होता है । पार्थिवी धारणा - तिर्यग्लोकसमं ध्यायेत् क्षीराब्धि तत्र चाम्बुजम् । सहस्रपत्रं स्वर्णाभं जम्बूद्वीपसमं स्मरेत् ।। तत्केसरततेरन्तः स्फुरत्पिङ्गप्रभांचिताम् । स्वर्णाचलप्रमाणा च कणिकां परिचिन्तयेत् ।। श्वेतसिंहासनासीनं कर्मनिर्मूलनोद्यतम् । ग्रात्मानं चिन्तयेत्तत्र पार्थिवी धारणेत्यसौ || ( योगशा. ७, १०-१२) ।
७०७, जैन-लक्षणावली
ध्यान की अवस्था में मध्य लोक के बराबर क्षीरसागर, उसके मध्य में जम्बूद्वीप के प्रमाण वाले सहस्रपत्रमय सुवर्णकमल, उसके पराग समूह के भीतर पीली कान्ति से युक्त सुमेरु के प्रमाण कणिका और उसके ऊपर एक श्वेत वर्ण के सिंहासन पर स्थित होकर कर्मों के नष्ट करने में उद्यत श्रात्मा का चिन्तन करे । यह पार्थिवी धारणा कहलाती है ।
पार्श्व --- पश्यति सर्वभावानिति निरुक्तात् पार्श्वः, तथा गर्भस्थे जनन्या निशि शयनस्थयाऽन्धकारे सर्पो दृष्ट इति गर्भानुभावोऽयमिति मत्वा पश्यतीति पार्श्वः, पार्श्वोऽस्य वैयावृत्त्यकरस्तस्य नाथः, भीमो भीमसेन इति वत् पार्श्व: । (योगशा. स्वो विव. ३-१२४)।
'पश्यति सर्वभावानिति पार्श्व' इस निरुक्ति के अनुसार जो समस्त पदार्थों को देखता है उसका नाम पार्श्व है, अथवा माता के गर्भ में स्थित होने पर शय्या पर स्थित माता ने अन्धकार में जो सर्पको देखा था, यह गर्भ का प्रभाव है, ऐसा मानकर 'पश्यति' इस निरुक्ति के अनुसार 'पार्श्व' कहलाये, अथवा पार्श्वनामक यक्ष के स्वामी होने से तेईसवें तीर्थकर का नाम पार्श्वनाथ प्रसिद्ध हुआ । पार्श्वतः अन्तगत अवधिज्ञान - १. से किं तं पास प्रतयं ? पास अंतगयं - से जहानामए केइ पुरिसे उक्कं वा चडुलिश्रं वा अलायं वा मणि, वा पई वा जोई वा पासो काउं परिकंड्ढेमाणे गच्छज्जा से तं पास अंतगयं । ( नन्दी. सू. १०, पृ. ८२ ) । २. थेन तु पार्श्वतः एकतो द्वाभ्यां वा संख्येयान्यसंख्येयानि वा योजनानि पश्यति स पार्श्वतोऽन्तगतः इति । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१७, पृ. ५३७) ।
[पार्षद्य
१ जिस प्रकार कोई पुरुष उल्का ( छोटा दीपक ), चटुली ( अन्त में जलता हुआ घास का पूला ),
लात (अग्रभाग में जलती हुई लकड़ी), मणि, प्रदीप श्रथवा ज्योति को पार्श्वभाग में करके खींचता हुआ जाता है; इसी प्रकार जो अवधिज्ञान एक पार्श्व से अथवा दोनों पार्श्वो से संख्यात श्रसंख्यात योजनों को देखता है, वह पार्श्वतः श्रन्तगत अवधिज्ञान कहलाता है ।
पार्श्वमुद्रा - पराङ्मुखहस्ताभ्यां वेणीबन्धं विधायाभिमुखीकृत्य तर्जन्यौ संश्लेष्य शेषाङ्गुलिमध्ये प्रगुष्ठद्वयं विन्यसेदिति पार्श्वमुद्रा । (निर्वाणक. पृ. ३३ ) | उल्टे हाथों से वेणीबन्ध करके सामने करते हुए दोनों तर्जनियों के मिलाने और शेष अंगुलियों के मध्य में दोनों अंगूठों के रखने पर पार्श्वमुद्रा होती है । पार्श्वस्थ -- १. दंसण-नाण-चरिते तवे य प्रत्तहितो पवयणे य । तेसिं पासविहारी पासत्थं तं बियाणेहि ॥ ( व्यव. भा. १-२२७, पृ. १११ ) । २. प्रयोग्यं सुखशीलतया यो निषेवते कारणमन्तरेण स सर्वथा पार्श्वस्थः । (भ. श्री. विजयो. १६५० ) । ३. यो वसतिसु प्रतिबद्ध उपकरणोपजीवी च श्रमणानां पार्श्व तिष्ठतीति पार्श्वस्थः । (चा. सा. पृ. ६३ ) | ४. सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्राणां पार्श्वे समीपे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः रत्नत्रयबहिर्भूतः । ( प्रायश्चित्तस. टी. ७-२५) ५. वसत्युपधिसंगस्थः पार्श्वस्थः स्यात् X XXI ( आचा. सा. ६ - ५० ) । ६. पार्श्वस्थोऽन्योद्गमादिभोजी शबलाचारः । ( व्यव. मलय. वृ. ३, १६५, पृ. ३५ ) । ७. निरतिचारसंयममार्ग जानन्नपि न तत्र वर्तते, किन्तु संयममार्गपार्श्वे तिष्ठति, नैकान्तेनासंयतः, न च निरतिचारसंयमः, सोऽभिधीयते पार्श्वस्थः । ( भ. प्रा. मूला. १६५० ) । ८. पार्श्वस्थः दर्शनादीनां पार्श्वे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः । ( सम्बोधस. वृ. ६, पृ. १० ) ।
१ जो श्रात्महितकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और प्रवचन के पार्श्व में विहार करता है—उनके पूर्णतया पालन में प्रयत्नशील नहीं रहता- उसे पार्श्वस्थ मुनि कहा जाता है । २ जो सुखस्वभाव होने से कारण के विना ही अयोग्य का सेवन करता है, वह पार्श्वस्थ कहलाता है । पार्षद्य - देखो पारिषद्य । १. वयस्यप्रायाः पार्षद्याः × × × । ( त्रि. श. पु. च. २, ३, ७७३ ) ।
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाष्णिग्राह ]
७०८,
२. तथा पर्षदि साधवः पार्षद्याः, "पर्षदो ण्यणौ " इति ण्य-प्रत्ययः, ते च वयस्यस्थानीयाः मित्रसदृशा देवराजानामिति भावः । (बृहत्सं. मलय. वृ. २) । ३. पर्षदि साधवः पार्षद्याः, देवराजानां मित्रप्रायाः । ( संग्रहणी दे. वृ. १ ) ।
१ मित्र के समान जो देव होते हैं वे पार्षद्य कहलाते हैं। पाणिग्राह-यो विजिगीषौ प्रस्थितेऽपि प्रतिष्ठमाने वा पश्चात्कोपं जनयति स पाष्णिग्राहः । ( नीतिवा. २८- २६, पृ. ३१६) ।
कहा
जो विजिगीषु के प्रस्थान कर चुकने पर अथवा प्रस्थान के समय पीछे क्रोध को उत्पन्न करता है। १ पाश और बन्धन ये समानार्थक शब्द हैं, बन्धन के हेतु - मिथ्यादर्शनादिकों को- पाश जाता है, इस प्रकार के पाश में जो स्थित है उसे पाशस्थ कहते हैं । पाषण्डस्थापनानाम- १. समणे य पंडुरंगे भिक्खू कावा लिए अ तावसए । परिवायगे, से तं पाखंडनामे ॥ ( अनुयो. सू. १३०, पृ. १४६ ) । २. इह येन यत् पाषण्डमाश्रितं तस्य तन्नाम स्थाप्यमानं पाषण्डस्थापनानामाभिधीयते । (अनुयो. सू. मल. हेम. वृ. १३०, पृ. १४६) ।
२ श्रमण (निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गेरुक और अाजीव ये पांच) पांडुरंग, भिक्षु, कापालिक, तापस और परिव्राजक; इनमें से जिसने जिस पाषण्ड का आश्रय लिया है उसके स्थापित किये जाने वाले उस नाम को पाषण्डस्थापना नाम कहा जाता है । पाषण्डिमूढता - देखो पाखण्डिमूढता । पांशु - पांशवो नाम धूमाकारमापाण्डुरमचित्तं रजः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ७ - २८२ ) ।
धुएं के आकार वाली कुछ सफेद अचित्त धूलि का नाम पांशु है ।
पिङ्गलनिधि- देखो पाण्डु । १. सव्वा श्राभरणविही पुरिसाणं जा य होइ महिलाणं । प्रसाण य हत्थीण य पिंगलगणिहिंमि सा भणिया । ( जम्बूद्वी. ६६, पृ. २५६ ) २. नराणामथ नारीणां हस्तिनां वाजिनामपि । सर्वोऽप्याभरणविधिनिधेर्भवति पिंगलात् ॥ ( त्रि.श. पु. च. १, ४, ५७६ ) ।
१ पुरुषों, स्त्रियों, घोड़ों और हाथियों के श्राभारणों की जो सब विधि है वह पिंगलनिधि में कही गई है । पिच्छ — पिच्छः परिहारः, यतः परिहारप्रायश्चित्तं विदधानः अहं परिहारप्रायश्चित्तीति ज्ञापननिमित्त
जैन - लक्षणावली
उसे पाणिग्राह कहते हैं ।
पालित - पालितं चैव - पुनः पुनरुपयोगप्रतिजागर
न रक्षितम् । ( आव. नि. हरि. वृ. १५६३, पृ. ८५१) ।
बार-बार के उपयोग और जागरूकता से सुरक्षित वस्तु को पालित कहते हैं । पालिभेद, पालीभेद - संजममहातलागस्स णाणवेरग्गसुपडिपुण्णस्स । सुद्धपरिणामजुत्तो तस्स उ
इक्कमो पाली || संजमभिमुहस्स वि विसुद्ध - परिणामभावजुत्तस्स । विकहादिसमुप्पण्णो तस्स उ भेदो मुणेयव्व ॥ श्रहवा पालयतीति उवस्तयं तेण होति सा पाली । तीसे जायति भेदो अप्पाण-परोभयसमुत्थो ।। (बृहत्क. ३७०४-६) ।
शुद्ध परिणाम से युक्त साधु ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण संयमरूप महासरोवर का जो उल्लंघन नहीं करता है, इसका नाम पालि । संयम के श्रभिमुख होते हुए भी साध्वी के उपाश्रय में जाने पर विकथा आदि के कारण उक्त पालि का भेद (विनाश ) होता है । अथवा 'पालयतीति पाली' इस निरुक्ति के अनुसार उपाय का रक्षण करने वाली साध्वी को पाली कहा जाता है। संयत को देखकर उस अकेली का अपने द्वारा, पर के ( जाने वाले साधु के) द्वारा अथवा दोनों के द्वारा भेद ( विभाग ) होता है । यह उपाश्रय में जाने का दोष है । पाशमुद्रा - अंगुष्ठं तर्जनी संयोज्य शेषाङ्गुलीप्रसारणेन पाशमुद्रा । परस्परोन्मुखी मणिबन्धाभिमुखकरशाखौ करौ कृत्वा ततो दक्षिणाङ्गुष्ठ-कनिष्ठिकाभ्यां वाममध्यमानामिके तर्जनीं च तथा वामाङ्गुष्ठ-कनिष्ठिकाभ्यामितरस्य मध्यमानामिके तर्जनीं समाक्रम
[पिच्छ
येदिति पाशमुद्रा । ( निर्वाणक. पृ. ३२) । दोनों हाथों की तर्जनी और अंगूठों को मिलाकर शेष अंगुलियों के पसारने को पाशमृद्रा कहते हैं । पाशस्थ - १. पासोत्ति बंधणंति य एगट्ठ बंधहेयवो पासा । पासत्थिश्रो पासत्थो XX X ॥ ( व्यव भा. १ - २२६, पृ. १११) । २. मिथ्यात्वादयो बन्धहेतवस्ते पाशा इव पाशास्तेषु स्थितः पाशस्थ: । ( व्यव. भा. मलय. वृ. १-२२६, पु. १११) । ३. मिथ्यात्वादयो बन्धहेतवः पाशाः, पाशेषु तिष्ठतीति पाशस्थ: । ( सम्बोधस. वृ. ६, पृ. १० ) ।
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
पिण्डकल्पिक] ७०६, जैन-लक्षणावली
[पिपासासहन मग्रतः पिच्छं प्रतिदर्शयति ततः परिहारः पिच्छमित्यु- खंधपरियंते । गेविज्जमया गीवं अणुद्दिसं हणुपएच्यते । (प्रायश्चित्तस. टी. ६-१८)।
सम्मि || विजयं च वैजयंतं जयंतमवराजियं च 'पिच्छ' यह परिहारप्रायश्चित्तिका नाम है। कारण। सम्बत्थं । झाइज्ज मुहपएसे णिलाडदेसम्मि सिद्ध सिइसका यह है कि परिहारप्रायश्चित्त को स्वीकार ला ॥ तस्सुवरि सिद्धणिलयं जहसिहरं जाण उत्तमंगकरने वाला मैं परिहारप्रायश्चित्त वाला हूं' यह म्मि । एवं जं णियदेहं झाइज्जइ तं पि पिण्डत्थं ।।
लाने के लिए आगे पिच्छी को दिखलाता है, (वसु. श्रा. ४५६-६३)। ५. पिण्डो देह इति तत्र इसी से परिहार को पिच्छ कहा जाता है। तत्रास्त्यात्मा चिदात्मकः । तस्य चिन्तामयं सद्भिः पिण्डकल्पिक–पढिए य कहिय अहिगय परिहरति पिण्डस्थं ध्यानमीरितम् ॥ (भावसं. वाम. ६६१)। पिंडकप्पितो एसो। तिविहं तीहिं विसुद्धं परिहरन- ६. नाभिपद्मादिरूपेषु ध्यानं स्थानेषु योगिनाम । वगेण भेदेणं ।। (बृहत्कल्प. ५३२) ।
यदिष्टदेवतादीनां तत्पिण्डस्थं निगद्यते ।। (ग. ग. जो दशवकालिक के अन्तर्गत पिण्डैषणा अध्ययन के ष. स्वो. वृ. २, पृ. १०)। ७. अन्तःकरणसंस्थं
अर्थ के कहने, उसके समझ लेने और यच्छरीरे निश्चलं भवेत् । तन्मयत्वादिशुद्धं तत समझकर तदनुसार श्रद्धा के कर लेने पर उद्गम, पिण्डस्थं ध्यानमुच्यते ॥ (बुद्धिसा. ११७, पृ. २४)। उत्पादन व एषणा दोषों से शुद्ध तथा मन, वचन एवं १ अपने शरीर में पुरुष के आकार जो निर्मल गण काय से विशुद्ध इन परिहारविषयक नौ से परिहार वाला जीवप्रदेशों का समुदाय स्थित है उसके चिन्तन करता है-मन-वचन-काय और कृत-कारित अनु- का नाम पिण्डस्थ ध्यान है। ६ नाभिकमलादिरूप मोदना से अशुद्ध आहार को ग्रहण नहीं करता है स्थानों में जो इष्ट देवता आदिकों का ध्यान किया —वह पिण्डकल्पिक कहलाता है।
जाता है, यह योगियों का पिण्डस्थध्यान कहपिण्डप्रकृति-१. एवमेदारो (गदि-जादिपहुडियो) लाता है। यानो बादालीसं पिंडयडीओ। को पिंडो णास ? बहूणं पिता-पाति रक्षत्यपत्यमिति पिता। (उत्तरा. नि. पयडीणं संदोहो पिंडो। (धव. पु. १३, पृ. ३६६)। शा. वृ. ५७)। २. अनेकावान्तरभेदपिण्डात्मकाः प्रकृतयः पिण्डप्रकृ सन्तान के पालन करने वाले को पिता कहते हैं। तयः। (सप्तति. मलय. वृ. ६)।
पितामह-यस्य वाक्यामृतं पीत्वा भव्या मुक्ति१ बहुत प्रकृतियों के समूहरूप प्रकृतियां पिण्डप्रकृ
मुपागताः । दत्तं येनाभयं दानं सत्त्वानां स पितामहः । कृतियां कहलाती हैं। २ अवान्तर अनेक भेदवाली
(प्राप्तस्व. ३६)। कर्म-प्रकृतियों को पिण्डप्रकृति कहते हैं।
जिसके वचनाभत को पीकर-उपदेश को हदयंगम पिण्डस्थध्यान-१. जीवपएसप्पचयं पुरिसायारं
करके-भव्य जीवों ने मक्ति को प्राप्त किया है हि णिययदेहत्थं । अमलगुणं झायंत झाणं पिंडत्थ
तथा जिसने जीवों को अभयदान दिया है, उसे अहिहाणं ।। (भावसं. दे. ६२२) । २. णियणाहि
पितामह कहा जाता है। कमलमज्झे परिट्ठियं विप्फुरंतरवितेयं । झाएह अरुह
पिपासापरीषहजय-देखो तृषापरीषहजय। पिरूवं झाणं तं मुणह पिंडत्थं ॥ झायह णियकर (?)
पासितः पथिस्थोऽपि तत्त्वविन्यजितः । शीतोदक मज्झे भालयले हियय-कंठदेसम्मि । जिणरूवं रवितेयं
नाभिलषेन्मृगयेत् कल्पितोदकम् ॥ (प्राव. नि. हरि. पिंडत्थं मुणह झाणमिणं ।। (ज्ञानसार १९-२०)। ३. पिण्डस्थो ध्यायते यत्र जिनेन्द्रो हतकल्मषः । तत्
वृ. ६१८, पृ. ४०३)। . पिण्डपञ्चकध्वंसि पिण्डस्थं ध्यानमिष्यते ॥ (अमित.
मार्ग में स्थित तत्त्वज्ञ साधु प्यास से पीडित होता श्रा. १५-५३) । ४. सियकिरणविप्फुरतं अट्टमहा
हमा भी दीनता से रहित होकर शीतल जल की पाडिहेरपरियरियं । झाइज्जइ जं णिययं पिण्डत्थं इच्छा नहीं करता, किन्तु कल्पित (ग्राह्य) जल की जाण तं झाणं ।। अहवा णाहिं च वियप्पिऊण मेरु हो जो अपेक्षा करता है, यह पिपासापरीषजय । अहोविहायम्मि । झाइज्ज अहोलोयं तिरियम्म तिरि- पिपासासहन—देखो तृषापरीषहजय । १ जनयए वीए॥ उडढम्मि उड़ढलोयं कप्पविमाणाणि स्नानावगाहन-परिषेकपरित्यागिनः पतत्रिवदनियता
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
"
पिपासासहन] ७१०, जैन-लक्षणावली
[पिहिता सनावसथस्यातिलवण-स्निग्ध-रूक्षविरुद्धाहार-गृष्मात- सत्यासत्यदोषाख्यानात् । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६, प-पित्तज्वरानशनादिभिरुदी) शरीरेन्द्रियोन्माथिनीं प. १६६)। पिपासां प्रत्यनाद्रियमाणप्रतिकारस्य पिपासानलशिखां दो या बहुत से व्यक्तियों के सत्य या असत्य दोषों धतिनवमृद्घटपूरितशीतलसुगन्धिसमाधिवारिणा प्रश- के कहने को पिशुन वचन कहते हैं। ऐसा वचन मयतः पिपासासहन प्रशस्यते । (स. सि. ६-६)। प्रीति को नष्ट करने वाला होता है। २. उदन्योदोरकहेतूपनिपाते तद्वशाप्राप्तिः पिपासा
पिशुल-एदस्स सगलपक्खेवणंतिमभागस्स पिसूल सहनम् । (त. वा. ६,६३; त. श्लो. 8-६);
इदि सण्णा होदि । (धव. पु. १२, पृ. १५८)। स्नानावगाहन-परिषेकत्यागिनः पतत्रिवदध्रुवासनाव- सकल प्रक्षेप के अनन्तवें भाग प्रमाण उसके एक सथस्यातिलवण-स्निग्ध-रूक्षविरुद्धाहार-युष्मातप-पित्त- खण्ड का नाम पिशल है। ज्वरानशनादिभिरुदीर्णा शरीरेन्द्रियोन्माथिनीं पिपासां
पिशुलापिशुल-पुणो तेणेब (सव्वजीवरासिणा) प्रत्यनाद्रियमाणप्रतीकारमनसो निदाघे पटतपनकिरण
भागहारेण एगपिसुले भागे हिदे एगं पिसुलापिसुलसन्तापिते अटव्यामासन्नेष्वपि हृदेष्वप्कायिकजीव
मागच्छदि। (धव. पु. १२, पृ. १६०)। परिहारेच्छया जलमनाददानस्य सलिलसेकविवेक
एक पिशुल में उसी सब जीवराशिरूप भागहार का म्लानां लतामिव ग्लानिमुपगतां गात्रयष्टिमवगणय्य
भाग देने पर एक पिशुलापिशुल पाता है। तपःपरिपालनपरस्य भिक्षाकालेऽपीङ्गिताकारादिभिः योग्यमपि पानमचोदयतो धैर्यकुम्भावधारितशीलसु
पिहित-१. सच्चित्तेण व पिहिदं अथवा अचित्तगन्धिप्रज्ञा-तोयेन विध्यापयतः तृष्णाग्निशिखां संयम
गुरुगपिहिदं च । तं छंडिय जं देयं पिहिदं तं होदि परत्वं पिपासासहनमित्यवसीयते । (त. वा. 8,8,
बोधव्वो ।। (मूला. ६-४७)। २. सचित्तपृथिव्या
अपां हरितानां बीजानां त्रसानामपरि स्थापितं पीठ३, चा. सा. पृ. ४६)। ३. अतीवोत्पन्नपिपासां
फलकादिकम् अत्र शय्या कर्तव्येति या दीयते सा प्रति प्रतिकारमकुर्वतो भिक्षाकालेडपींगिताकारादिभि
पिहिता। (भ. प्रा. विजयो. २३०)। ३. तथा रपि योग्यमपि पानमप्रार्थयतो धैर्य-प्रज्ञाबलेन पिपासासहनम् । (प्रारा. सा. टी. ४०)।
पिहितश्छादितः अप्रासुकेन प्रासुकेन च महता यदव१ जिसने स्नान व जलसिंचन प्रादि का परित्याग
ष्टब्धमाहारादिकं तदावरणमुत्क्षिप्य दीयमानं यदि
गृह्णाति तदा तस्य पिहितनामाशनदोषः । (मूला. वृ. कर दिया है तथा जिसके रहने का स्थान कोई। नियत नहीं है ऐसा साधु अत्यन्त खारे, चिकने व ६-०३)। ४. सचित्तन फलादिना स्थगितं पिहितम।
(योगशा. स्वो. विव. १-३८)। ५. सचित्तेनाब्जरूखे विपरीत भोजन से तथा ग्रीष्म ऋतु के पातप
पत्रादिना वृतं पिहिताशनम। (प्राचा. सा. ५-४७)। एवं पित्तज्वर से उत्पन्न व शरीर और इन्द्रियों को पीडित करने वाली प्यास के प्रतीकार के लिए
६. पिहितं देयमप्रासु गुरु प्रास्वपनीय वा ।। (अन.
घ. ५-२६)। ७. हरितकण्टक-सचित्तमृत्तिकापिधाउत्सुक न होकर जो उसे धैर्य के साथ सहता है,
नम् प्राकृष्य दीयमाना पिहिता । (भ. प्रा. मला. यह उसका पिपासासहन प्रशंसनीय है।
२३०)। ८. सचित्तेन पद्मपत्रादिना यत्पिहितं तदन्नं पिशाच-१. पिशाचाः सुरूपाः सौम्यदर्शना हस्त
पिहितम् । (भा. प्रा. टी. 86)। ग्रीवासु मणि-रत्नविभूषणाः कदम्बवृक्षध्वजाः । (त. भा. ४-१२)। २. पिशाचा: स्वभावतः सुरूपाः १ सचित्त पत्ते आदि से अथवा किसी भारी प्रचित्त सौम्यदर्शना हस्त-ग्रीवासु मणि-रत्नमयविभूषणाः । (बृ. (प्रासुक) वस्तु से ढके हुए भोज्य पदार्थ के ऊपर से संग्रहणी मलय. वृ. ५८)।
उसे हटाकर जो दिया जाता है उसमें पिहितदोष १ सुरूप, सौम्यदर्शन, हाथ और गले में मणियों व जानना चाहिए। २ सचित्त पृथिवी, जल, हरित, बीज रत्नों के आभूषणों के घारक तथा कदम्ब वृक्ष से अथवा त्रस जीवों के ऊपर शय्या के रूप में स्थापित चिह्नित ध्वजारों के धारण करने वाले व्यन्तर देवों प्रासन या पाटे आदि के देने पर पिहितदोष होता को पिशाच कहते हैं। पिशुन-पिशुनं प्रीतिविच्छेदकारि द्वयोर्बहूनां वा पिहिता--सचित्तमृत्तिकापिधानमपाकृष्य या (वस
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
[पुण्य
पीठमर्दक
७११, जैन-लक्षणावली तिः) दीयते सा पिहिता । (कार्तिके. टी. ४४८-४६, पीतलेश्या--पीतवर्णद्रव्यावष्टम्भात् पीतलेश्या । पृ. ३३८)।
(त. भा. सिद्ध. वृ. २-६) । सचित्त मिट्टी आदि के प्रावरण को हटाकर जो पीतवर्ण वाले द्रव्य के प्राश्रय से होने वाली वसति दी जाती है वह पिहित दोष से दूषित प्रात्मपरिणति पीतलेश्या कहलाती है।। होती है।
पुण्डरीक-१. पुंडरीयं देवेसु असुरेसु णेरइएसु च पीठमर्दक—कामशास्त्राचार्यः पीठमर्दकः । (नीति- तिरिक्ख-मणुस्साणमुववादं छक्कालविसे सिदं परूवा. १४-२२)।
वेदि । (धव. पु. ६, पृ. १६१)। २. भवनवास्याकामशास्त्र के प्राचार्य को पीठमर्दक कहा जाता है। दिदेवेषु उत्पत्तिकारणतपःप्रभृतिप्रतिपादकं पुण्डपीडा-पीडा दण्ड-कशाद्यभिधातः । (रत्नक. टी. रीकम् । श्रुतभ. टी. २६, प.१८०)। ३. पुण्डरीक टो. ३-८)।
नाम शास्त्र भावन-व्यन्तर-ज्योतिष्क-कल्पवासिविलाठी या चाबुक आदि से ताडित करने का नाम मानेषु उत्पत्तिकारणदान-पूजा-तपश्चरणाकामनिर्जरापीडा है।
सम्यक्त्व-संयमादिविधानं तत्तदुपपादस्थान-वैभवविपीडाजनित पार्तध्यान-१. अतिर्दुःखमसातजा- शेषं च वर्णयति । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. २६८)। तजनितं स्यादातमतौं भवम्, पापाऽऽदाननिदानमार्द्र- ४. देवपदप्राप्तिपुण्य निरूपकं पुण्डरीकम् । (त. वृत्ति. सिचयं यद्वद्रजःसंश्रयम् । मिथ्यादष्टिगुणादिषड्गुणपदं श्रुत. १-२०)। ५. पुंडरियणामसत्थं णमामि णिच्चं येन प्रमादास्पदं-दुर्लेश्यात्रयजं सूदुःखजनक तिर्य- सहावेण ॥ भावण-वितर-जोइस-कप्पविमाणेसु जत्थ ग्गतिप्रापकम् ।। (प्राचा. सा. १०-१६) । २. सन्ता- वणिज्जइ। उप्पत्तीकारण खलु दाणं पूयं च तवयपेन पीडाचिन्तनेन वात-पित्त-श्लेष्मोदभवकूठंवर- रणं ॥ सम्मत्त संजमादि अकामणिज्जरणमेव जत्थ भगंदर-शिरोति-जठरपीडावेदनानां सन्तापेन पीडितेन पुणो । तमवा-[मुववा-] दट्ठाण-वेहब-सुह-संपत्ती च प्रवृत्तः विकल्प: चिन्ताप्रबन्धः कथं वेदनाया विनाशो जीवाणं ।। (अंगप. ३१-३३, पृ. ३१०)। भविष्यतीति पुनः पुनश्चिन्तनम्, अंगविक्षेपाक्रन्द- १ जो अंगबाह्य श्रुत सुषमसुषमादि छह कालों के करणादि पीडाचिन्तनं तृतीयमार्तध्यानम्। (कातिके. आश्रय से तिर्यंच और मनुष्यों की देवों, असुरों और टी. ४७३-७४)।
नारकियों में उत्पत्ति का निरूपण करता है उसे १ अति नाम दुःख का है जो असातावेदनीय के पुण्डरीक कहा जाता है। उदय से होता है, इस दुःख में जो चिन्तन होता है पुण्य-१. सम्मत्तेण सुदेण य विरदीए कसायणिग्गवह प्रार्तध्यान कहलाता है; यह उसका निरुक्त हगुणेहिं । जो परिणदो स पुण्णो XXX ॥ लक्षण है । जिस प्रकार गीला वस्त्र धूलि के आश्रय (मूला. ५-३७) । २. पुद्गलकर्म शुभं यत्तत्पुण्यका कारण है उसी प्रकार यह प्रार्तध्यान पाप के मिति जिनशासते दृष्टम् । ((प्रशमर. २१६)। पाने का कारण है, मिथ्यादृष्टि आदि छह गुणस्थानों ३. पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम् । (स. सि. में रहने वाला है, प्रमाद का स्थान है, तीन अशुभ- ६-३) । ४. पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम् । लेश्याओं के निमित्त से होता है, अतिशय दुःख को कर्मणः स्वातंत्र्यविवक्षायां पुनात्यात्मानं प्रीणयतीति उत्पन्न करने वाला है, तथा तिर्यंचगति की प्राप्ति पुण्यम्, पारतंत्र्यविवक्षायां करणत्वोपपत्तेः पूयतेऽनेका कारण है।
नेति वा पुण्यम्, तत् सद्वेद्यादि । (त. वा. ६, पीतलेश्य-विद्यावान् करुणासिन्धूः कार्याकार्य- ३, ४,)। ५. XXX पुण्यं सत्कर्मपुदगलाः । विचारकः । लाभालाभे सदाप्रीतस्तेजोलेश्य उदाहृतः॥ (षड्द. स. ४६, पृ. १३८) । ६. सुहपयडीयो (गु. गु. षट्. स्वो. वृ. ५, पृ. २०)।
पुण्णं । (धव. पु. १३, पृ. ३५२)। ७. शुभपरिणामो विद्यावान्, दया के समुद्र (दयालु), कर्तव्य-अकर्तव्य । जीवस्य तन्निमित्तः कर्मपरिणामः पुद्गलानां च के विचारक तथा लाभ-अलाभ में सदा प्रसन्न रहने पुण्यम् । (पंच. का. अमृत. वृ. १०८) । ८. पुण्यं वाले पुरुष को पीतलेश्य (पीतलेश्या वाला) कहा शुभकर्मप्रकृतिलक्षणम् । (सूत्रकृ. शी. वृ. २, ५, जाता है।
१६, पृ. १२७) । ६. पुण्णं शुभप्रकृतिस्वरूपपरिणत
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्य]
७१२, जैन-लक्षणावली
[पुद्गल
पुद्गलपिण्डो जीवाह्लादननिमित्तः । (मूला. वृ. ५, १०-६)। ४. XXX रूपिणः पुद्गला प्रोक्ताः ॥ ६) । १०. पुण्यं शुभं कर्म । (समवा. अभय. वृ. १, (प्रशमर. २०७)। ५. सबंधयार-उज्जोरो पहा पृ. ६)। ११. पुणति शुभीकरोति, पुनाति वा छायाऽऽतवेइ वा। वन-रस-गंध-फासा पुग्गलाणं तु पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्यं शुभकर्म । (स्थाना. लक्खणं ।। (उत्तरा. २८-१२; नवत. ११) । अभय. व. १-११)। १२. सत्कर्मपुद्गलाः पुण्यं ६. पूरण-गलनधर्माणः पुद्गलाः । (प्राव. नि.
॥ (विवेकवि. ८-२५; षडद. राज. व मलय. व. ६६२; स्थाना. अभय. व. ५१ शतक. १३) । १३. पुण्यं दानादिक्रियोपार्जनीयं शुभं कर्म। दे. स्वो. वृ. ८६)। ७. मुत्ता पूण पुग्गला णेया। (स्याद्वादम. २७) । १४. पुण्यं शुभाः कर्मपुद्गलाः। (अनादिविंशतिका २)। ८. स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण(षड्दस. गु. वृ. ४७, पृ. १३७)। १५. पुण्यं शब्दा मूर्तस्वभावकाः । संघात-भेदनिष्पन्नाः पुद्गला शुभप्रकृतिलक्षणम् । (प्रमाल. ३०५)। १६. पूना- जिनदेशिताः ।। (श्रा. प्र. टी. ७८, उद्.)। ६. छव्विहत्यात्मानमिति पुण्यं पूयते पवित्रीक्रियते अनेनेति वा संठाणं बहुविहदेहेहि पूरदि गलदि त्ति पोग्गलो । पुण्यम् । (त. वृत्ति श्रुत. ६-३)। १७. पुण्यं कर्म (धव. पु. १, पृ. ११६); रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवन्तः शुभं प्रोक्तं । (अध्यात्मसा. १८-६०)।
पुद्गलाः । (धव. पु. ३, पृ. २); पोग्गलदव्वस्स १ जो सन्यक्त्व, श्रुत, विरति और कषायनिग्रह इन वण्ण-गंध-रस-फासविसेसेहि परिणामो सम्भावकिरिगुणों से परिणत है उसे पुण्य कहा जाता है। या । (धव. पु. १३, पृ. ४३); रूव-रस-गंध-पास२ शुभ पुद्गल कर्म का नाम पुण्य है।
लक्खणं पोग्गलदव्वं । (धव. पु. १४, पृ. ३३); पुण्यप्रकृति-पुण्यप्रकृतयो जीवाह्लादजनकाः शुभा पूरण-गलणसहावा पोग्गला णाम। (धव. पु. १४, उच्यन्ते । (शतक. दे. स्वो. वृ. १)।
पृ. ३६)। १०. रूव-रस-गंध-पासवंतो पोग्गला। जीव को आह्लादजनक सातावेदनीय आदि शुभ (जयध. १, पृ. २८६ उद्.)। ११. वर्ण-गन्ध-रस-स्य ः प्रकृतियों को पुण्य प्रकृति कहते हैं।
पूरणं गलनं च यत् । कुर्वन्ति स्कन्धवत्तस्मात् पुद्पुत्र-१. यः उत्पन्नः पुनीते वंशंस पूत्रः । (नीति- गलाः परमाणवः ।। (ह. पु. ७-३६)। १२. वर्णवा. ५-११, पृ. ४५)। २. पूनाति पितराचारवति- गन्ध-रस-स्पर्शयोगिनः पुद्गला मताः । पूरणाद् तयाऽऽत्मानमिति पुत्रः । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ५७)। गलनाच्चैव सम्प्राप्तान्वर्थनामकाः ।। (म. पु. २४, ३. यः पुनाति निजाचारैः पितरः पूर्वजानिति । पुत्रः १४५) । १३. पूरणाद् गलनाच्च पुद्गलाः-परस गीयते वस्तु: xxx॥ (धर्मसं. श्रा. ८-४२)। माणुप्रभृतयोऽनन्तानन्तप्रदेशस्कन्धपर्यवसानाः। (त. ४. तथा च भागुरि:---कुल पाति समुत्थो यः स्वधर्म भा. सिद्ध. वृ. ५-४); पूरण-गलनलक्षणाः पुद्गलाः प्रतिपालयेत् । पुनीते स्वकुलं पुत्रः पितृ-मातृपरायणः॥ स्कन्धीमूताः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ८-२ व १०-६)। (नीतिवा. टी. ५-११, उद्.) ।
१४. पुद्गलास्तु रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवन्तः अणु-स्कन्ध१ जो उत्पन्न होकर वंश को पवित्र करता है वह रूपभेदाद् द्विविधाः । (भ. प्रा. विजयो. ३६) । पुत्र कहलाता है। २ जो पिता के प्राचरण का अन- १५. जं इंदिएहिं गिझं रूव-रस-गंध-फासपरिणाम । सरण करके अपने आपको पवित्र करे उसे पुत्र तं चिय पुग्गलदव्वं अणंतगुणं जीवरासीदो। (कातिकहते हैं।
के. २०७)। १६. भेदादिम्यो निमित्तेभ्यः पूरणाद् पुदगल-१. खंधा देस-पदेसा अण त्ति वि य पोग्ग- गलनादपि । पुद्गलानां स्वमावज्ञैः कथ्यन्ते पुद्गला ला रूवी । (मूला. ५-३५)। २. रूपिणः पूदगलाः। इति ।। (त. सा. ३-५५)। १७. वर्णादिमान् (त. सू. ५-५); स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्त: पुदगलाः। नटति पुद्गल एव नान्यः । (समय. क. २-१२)। (त. सू. ५-२३); शब्द-बन्ध-सौक्षम्य-स्थौल्य-संस्थान- १८. रूप-गन्ध-रस-स्पर्श-शब्दवान् पुद्गलः स्मृतः । भेद-तमश्छायातपोद्योतवन्तश्च । (त. सू. ५-२४; अणु-स्कन्धप्रभेदेन द्विस्वभावतया स्थितः ॥ (चन्द्र. भ. प्रा. मूला. ३६२) । ३. स्पर्शः रस: गन्धः च. १८-७८) । १६. रूप-गन्ध-रस-स्पर्श-शब्दवन्तोवर्ण इत्येवंलक्षणाः पुद्गलाः भवन्ति । (त. भा. ५, ऽत्र पुद्गलाः । (अमित. श्रा. ३-३०) । २०. पूरण२३); तत्राधोगौरवधर्माणः पुद्गलाः । (त. भा. गलनस्वभावत्वात् पुद्गलः । (बृ. द्रव्यसं. टी. १५
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुद्गलक्षेप] ७१३, जैन-लक्षणावली
[पुद्गलपरावर्त त. वृत्ति श्रुत. ५-५) । २१. रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवन्तो श्रुत. ७-३१)। १०. अस्ति पुद्गल निक्षेपनामा हि पुद्गलाः। (न्यायकु. १-५, पृ. १५५) । २२. दोषोऽत्र संयमे । इतो वा प्रेषणं तत्र पत्रिकाहेमरूपाद्यात्मकत्वं पुद्गलस्यैव लक्षणम् । (सिद्धिवि.व. वाससाम् ॥ (लाटीसं. ६-१३३) । ४-८, पृ. २५४)। २३. पुद्गलाः स्युः स्पर्श-रस- २ काम करने वाले पुरुषों को लक्ष्य करके कंकड़गन्ध-वर्णस्वरूपिणः । (योगशा. १-१६) । २४. पत्थर आदि पुद्गलों का फेंकना, यह पुद्गलक्षेप गलन-पूरणस्वभावसनाथः पुद्गलः । (नि. सा. व. नामक देशावकाशिक व्रत का एक अतिचार है। है)। २५. रूप-गन्ध-रस-स्पर्श-शब्दवन्तश्च पदगलाः। ३ नियमित देश के बाहिर प्रयोजन के उपस्थित (धर्मश. २१-६०)। २६. पूर्यन्ते गलन्ति च पुद्- होने पर दूसरों को प्रबोधित करने के लिए कंकड़ गलाः । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२३) । २७. वर्ण-गन्ध- आदि के फेंकने का नाम पुद्गलप्रक्षेप है। रस-स्पर्शयोगिनः पुद्गला मताः। (जम्बू. च. ३, पुद्गलक्षेपण-देखो पुद्गलक्षेप। ४५) । २८. द्रव्यं मूर्तिमदाख्यया हि तदिदं स्यात्पु- पुद्गलगति-जं णं परमाणुपोग्गलाणं जाव अणंतद्गलः संमतः । (अध्यात्मक. ३-१६)।
पएसियाणं खंधाणं गती पवत्ती से तं पोग्गलगती। १ स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और अणु ये रूपी (प्रज्ञाप. २०५, पृ. ३२७)।
-रूप, रस, गन्ध व स्पर्श वाले द्रव्य-पूदगल परमाणरूप पुदगलों से लेकर अनन्तप्रदेश वाले कहलाते हैं। ५ शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, स्कन्धों तक जो पुदगलों का गमन (प्रवृत्ति) होता छाया और प्रातप इत्यादि पर्यायें तथा वर्ण, रस, है इसका नाम पुदगलगति है। गन्ध और स्पर्श ये गुण; यह सब पुद्गलों का पुद्गलनोभवोपपातगति–जणं परमाणुपोग्गले लक्षण है।
लोगस्स पुरथिमिल्लाप्रो चरमंतानो पच्चत्थिमिल्ल पुदगलक्षेप देखो बहिःपुद्गलक्षेप । १. लोष्ठादि- चरमंतं एगसमएणं गच्छति, पच्चत्थिमिल्लाप्रो वा निपातः पुद्गलक्षेपः । (स. सि. ७-३१, त. श्लो. चरमंतानो पुरथिमिल्लं चरमंतं एगसमएणं गच्छति, ७-३१)। २. लोष्ठादिनिपातः पुद्गलक्षेपः । दाहिणिल्लामो वा चरमंतागो उत्तरिल्लं चरमंतं कर्मकरान् पुरुषानुद्दिश्य लोष्ठ-पाषाणनिपातः पुद्- एगसमएणं गच्छति, एधं उत्तरिल्लामो दाहिणिल्लं, गलक्षेप इति कथ्यते । (त. वा. ७, ३१, ५)। उवरिल्लातो हेट्ठिल्लं, हिट्ठिल्लामो उवरिल्लं; से तं ३. बहिःपुद्गलप्रक्षेप: अभिगृहीतदेशाद् बहिः प्रयो- पोग्गलणोभवोववायगती । (प्रज्ञाप. २०५, पृ. जनभावे परेषां प्रबोधनाय यः लोष्ठादिक्षेपः पुदगल- ३२७)। प्रक्षेप इति भावना। (प्राव. नि. हरि. वृ. ६, पृ. परमाणु पुद्गल जो एक समय में पूर्व दिशा के अन्त ८३५) । ४. कर्मकरानुद्दिश्य लोष्ठ-पाषाणादिनि- से पश्चिम दिशा के अन्त तक, पश्चिम दिशा के पातः पुद्गलक्षेपः । (चा. सा. पृ. ६)। ५. पुद्ग- अन्त से पूर्व दिशा के अन्त तक, दक्षिण दिशा के लस्य शर्करादेनियमितक्षेत्राद् बहिर्वतिनो जनस्य अन्त से उत्तर दिशा के अन्त तक, उत्तर दिशा के बोधनाय तदभिमुखं प्रक्षेपः पुद्गलप्रक्षेपः । (ध. बि. अन्त से दक्षिण दिशा के अन्त तक, इसी प्रकार मु. वृ. ३-२२)। ६. तेषामेव लोष्ठादिनिपातः ऊपर के अन्त भाग से नीचे के अन्त भाग तक पूटुगलक्षेपः । (रत्नक. टी. ४-६)। ७. तथा पूद- और नीचे से ऊपर तक जाता है; यह सब पुद्गल गलाः परमाणवस्तत्संघातसमुद्भवा बादरपरिणामं की नोभवोपपातगति कहलाती है। प्राप्ता लोष्टेष्टकाः काष्ठ-शलाकादयोऽपि पुद्गलास्ते- पुद्गलपरावर्त---१. पुद्गलपरावतों नाम त्रैलोक्यषां क्षेपणं प्रेरणम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-११७)। गतपुद्गलानामौदारिकादिप्रकारेण ग्रहणम् । (श्रा. ८. पुद्गलक्षेपणं परिगृहीतदेशाद् बहिः स्वयमगम- प्र. टी. ७२)। २. यदौदारिक-वैक्रिय-तैजस-भाषानात् कार्याथितया व्यापारकारकाणां चोदनाय नापान-मनःकर्मसप्तकेन संसारोदरविवरवर्तिनः लोष्ठादिप्रेरणम् । (सा. घ. ५-२७)। ६. पुद्गल- पुद्गलाः आत्मसात्परिणामिता भवन्ति तदा पुद्गलस्य लोष्ठादेः क्षेपो निपातर पुद्गलक्षेपः। (त. वत्ति परावर्त इति। (प्राचारा. शी. वृ. २, ३, ७८)।
ल,६०
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुद्गलपरावर्त ].
३. ग्रोसप्पिणी अणंता पोग्गलपरियदृश्र मुणेयव्वो । ते ऽणता तीयद्धा प्रणामयद्वा प्रणतगुणां । ( प्रव. सारो. १६२ ) । ४. पुद्गलानां परमाणूनामीदारिकादिरूपतया विवक्षितैकशरीररूपतया वा सामस्त्येन परावर्तः परिणमनं यावति काले स तावान् कालः पुद्गलपरावर्तः । ( पंचसं मलय वृ. २-३८, पृ. ७४)। ५. पुद्गलानां चतुर्दशरज्वात्मकलोकवर्तिसमस्तपरमाणूनां परावर्त श्रदारिकादिशरीरतया गृहीत्वा मोचनं यस्मिन् कालविशेषे स पुद्गलपरावर्तः । ( शतक. दे. स्वो वृ. ८६ ) ।
१ तीनों लोकों में स्थित समस्त पुद्गलों को श्रौवारिकादि शरीररूप से ग्रहण कर लेने का नाम पु
गलपरावर्त है । २ जब संसार के मध्यगत समस्त पुद्गल प्रौदारिक, वैक्रियिक, तैजस, भाषा, धनपान, मन और कर्म इन सात के रूप में श्रात्मसात् करके परिणमा लिए जाते हैं तब पुद्गलपरावर्त पूरा होता है । पुद्गलपरिवर्तसंसार - सव्वे वि पोग्मला खलु गे मुत्तुज्झिया हु जीवेण । असयं श्रणंतखुत्तो पुग्गलपरिसंसारे ॥ ( द्वादशानु. २५; स. सि. २- १०, उद्.; धव. पु. ४, पृ. ३२६, उद्.) । जीव ने पुद्गलपरिवर्तरूप संसार में सभी पुद्गलों को निरन्तर अनन्त बार भोगकर छोड़ा है । पुद्गलप्रक्षेप- देखो पुद्गलक्षेप । पुद्गलबन्ध - १. फासेहिं पोग्गलाणं बंधो XX X | ( प्रव. सा. २ - ८५ ) । २. दो - तिष्णिश्रादिपोग्गलाणं जो समवा सो पोग्गलबंधो णाम । × × × जेण णिद्ध - ल्हुक्खादिगुणेण पोग्गलाणं बंधो होदि सो पोग्गलबंधो णाम । ( धव. पु. १३, पृ. ३४७ ) । ३. यस्तावदत्र कर्मणां स्निग्ध- रूक्षत्वस्पर्श विशेष रेकत्वपरिणामः स केवलपुद्गलबन्धः । ( प्रव. सा. अमृत. वृ. २ - ८५ ) । ४. मृत्पिण्डादिरूपेण योऽसौ बहुधा बन्धः स केवलपुद्गलबन्धः । ( कार्तिके. टी. २०६ ) ।
२ दो-तीन प्रादि पुद्गलों का जो समवाय होता है उसका नाम पुद् गलबन्ध है । जिस स्निग्ध व रूक्ष श्रादि गुण से पुद्गलों का बन्ध होता है उसे पुद्गलबन्ध कहा जाता है । ३ कर्मों का जो स्निग्ध और [ रूक्ष स्पर्शविशेषों के श्राश्रय से एकतारूप परिणमन होता है उसे केवल पुद्गलबन्ध जानना चाहिए ।
[पुद्गलानुभाग
पुद्गलयुति
वाएण हिडिज्जमाणपण्णाणं व एक्कम्हि देसे पोग्गलाणं मेलणं पोग्गलजुडी णाम । ( व. पु. १३, पृ. ३४८ ) ।
वायु से घूमने वाले पत्तों के समान जो पुद्गलों का एक स्थान में मिलाप होता है, इसे पुद्गलयुति कहा जाता है ।
७१४, जैन - लक्षणावली
पुद्गलविपाक - पुद्गलेषु पुद्गलविषये विपाकः फलदानाभिमुख्यं पुद्गलविपाकः । ( पंचसं. मलय. वृ. ३ - २४, पृ. १२८ ) ।
पुद्गलों के विषय में फल देने की प्रभिमुखता को पुद्गलविपाक कहते हैं । पुद्गलविपाकिनी प्रकृति – १. आायावं संठाणं
संघयण- सरीर-अंग-उज्जोयं । नामधुवोदय - उव-परघायं पत्तेय-साहारं । उदइयभावा पोग्गलविवागिणो XXX ॥ ( पंचसं. ३, २३-२४, पृ. १२८ ) ; प्रातपं संस्थानानि संहनन - शरीराङ्गोद्योतं नामध्रुवोदयोपघात-पराघातं प्रत्येक साधारणम् । श्रदयिकभावाः पुद्गल विपाकिन्यः । ( पंचसं स्वो. वू. ३-२४); कर्मपुद्गलद्रव्योदये यासामकर्मपुद् गलास्तथाविधपरिणामाः तद्भावे तद्भावमुपेत्योपचयहेतुत्वेन वर्तन्ते ताः पुद्गलविपाकिन्यः । (पंचसं स्वो वृ. ३-४६, पृ. १४३) । २. पुद्गलेषु पुद्गलविषये विपाकः फलदानामिमुख्यं पुद्गलविपाकः, स विद्यते यासां ताः पुद्गलविपाकिन्यः । ( पंचसं. मलय. वृ. ३-२४, पृ. १२८ ) । ३. पुद्गले पुद्गलविषये विपाकः फलदानाभिमुख्यं यासां ताः पुद्गलविपाकिन्य: । ( कर्मप्र . यशो. वृ. १, पृ. १२) ।
१ प्रातप, छह संस्थान, छह संहनन, श्रदारिक श्रादि तीन शरीर, तीन अंगोपांग, उद्योत, ध्रुवोदयी नामप्रकृतियां - निर्माण, स्थिर, अस्थिर, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, शुभ और अशुभ ये वारह; उपघात, पराघात, प्रत्येक और साधारण इन छत्तीस प्रकृतियों का विपाक चूंकि पुद्गल के विषय में है, अतएव वे पुद्गलविपाकिनी प्रकृतियां कहलाती हैं ।
पुद्गलानुभाग — जर कुट्ठक्खयादिविणासणं तदुप्यायणं च पोग्गलाणुभागो । जोणिपाहुडे भणिदमंततंतसत्तीयो पोग्गलाणुभागो त्ति घेत्तव्वो । ( धव. पु. १३, पृ. ३४९ ) ।
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुनरुक्त] . ... ७१५, जैन-लक्षणाधली
[पुरुष ज्वर, कोढ और क्षय आदि रोगों को नष्ट करना अलात (उल्मक), मणि, प्रदीप अथवा ज्योति को और उत्पन्न करना; यह पुद्गलानुभाग--पुद्गलों प्रागे करके प्रेरणा करता हुआ आगे ही देखकर का सामर्थ्य है। योनिप्राभूत में निर्दिष्ट मंत्र-तंत्र जाता है, इसी प्रकार जिस अवधिज्ञान से आगे के शक्तियों को पुद्गलानुभाग जानना चाहिए। देश को ही देखता-जानता है उसे पुरतः अन्तगत पनरुक्त-१. शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तम् । अवधिज्ञान कहते हैं। (आव. नि. हरि. वृ. ८८१, पृ. ३७५) । २. शब्दा- पुरस्कार पुरस्कारः सद्भूतगुणोत्कीर्तनं वन्दनार्थयोः पुनर्वचनं पौनरुक्त्यमन्यत्रानुवादात्, अर्थादाप- भ्युत्थानासनप्रदानादिव्यवहारश्च । (प्राव. सू. हरि. नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं च । (प्राव. नि. मलय. वृ. वृ. पृ. ६५८; त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६; पंचसं. ८८१, पृ. ४८३) ।
- मलय. वृ. ४-२३, पृ. १९०)। १ शब्द व अर्थ के फिर से कहने का नाम पुनरुक्त है। विद्यमान समीचीन गुणों की प्रशंसा करना तथा पुमान्—देखो पुरुष । १. प्रसूते स्वान् पर्यायान् वन्दना करना, उठ कर खड़े हो जाना और प्रासन इति पुमान् । (लघीय. स्वो. वि. ५-४७) । देना; इत्यादि व्यवहार का नाम पुरस्कार है। २. पुंवेदोदयात् सूते जनयत्यपत्यमिति पुमान् । (स. पुराख्यान-भरतादिषु वर्षेषु राजधानीप्ररूपणम् । सि. २-५२; त. वा. २, ५२, १) । ३. प्रसूते जन- पुराख्यानमितीष्टं तत् पुरातनविदा मते ॥ (म. पु. यति स्वानात्मीयान् पर्यायानिनि पुमान् । (न्यायकु. ४-६)। ५-४७, पृ. ६४८) । ४. कुरुते पुरुकर्माणि गर्भ रोप- भरत प्रादि क्षेत्रों में राजधानी का वर्णन करना, यते स्त्रियाम । यतो भजति राभस्यं ज्ञेयः सद्भिस्ततः इसे पुराख्यान कहा जाता है। पूमान । (पंचसं. अमित. १-२००)।
पुराण-१. त्रिषष्टिशलाकापुरुषाश्रिता कथा पुरा१ जो अपनी पर्यायों को अपने जैसी सन्तान को- णम् । (रत्न क.टी. २-२) । २. पुराणं पुराभवउत्पन्न करता है वह पुमान् (पुरुष) कहलाता है। मष्टाभिधेयं त्रिषष्टिशलाकापुरुषकथाशास्त्रम् । पुरतः अन्तगत अवधिज्ञान-१. पुरो अंतगयं यंदार्षम् -लोको देशः पुरं राज्यं तीर्थं दानं तपो–से जहानामए केइ पुरिसे उक्कं वा चडुलिनं वा द्वयम् । पुराणस्याष्टधाख्येयं गतयः फलमित्यपि ॥ अलायं वा मणि वा पईवं वा जोइं वा पुरो काउं (अन. ध. स्वो. टी. ३-६)। पणुल्लेमाणे २ गच्छेज्जा, से तं पुरो अंतगयं । १ त्रेसठ शलाकापुरुषों के प्राश्रित कथा का नाम (नन्दी. सू. १०, पृ. ८२) । २. अयमत्र भावार्थः- पुराण है । २ उक्त शलाकापुरुषों के प्राश्रित कथास हि गच्छन उल्काभ्यः सकासात् पुरत एव पश्यति, शास्त्र में इन पाठ का वर्णन होना चाहिए-लोक नान्यत्र; एवं यतोऽवधिज्ञानाद् विविधक्षयोपशमनि- देश, पुर, राज्य, तीर्थ, दान, दोनों तप और गतिमित्तत्वात देशपरत एव पश्यति नान्यत्र तत् पुरतो- रूप फल । ऽन्तगतमभिधीयते, इत्येतावतांशेन दृष्टान्त इत्येवं पुराणस्कन्ध-त्रयः षष्टिरिहार्थाधिकाराः प्रोक्ताः सर्वत्र योज्यम् । (नन्दी. हरि. वृ. पृ. ३२)। महर्षिभिः । कथापुरुषसंख्यायास्तत्प्रमाणानतिक्रमात् ।। ३. यथा कश्चित् पुरुषो हस्तगृहीतया दीपिकया विषष्टयवयवः सोऽयं पुराणस्कन्ध इष्यते । (म. प. पूरतः प्रेर्यमाणया पुरत एव पश्यति, नान्यत्र; एवं २, १२५-२६)। येनावधिना तथाविधक्षयोपशमभावतः पुरत एव महर्षियों ने पुराण में कथापुरुषसंख्या के अनुसार, संख्येयान्यसंख्येयानि वा योजनानि पश्यति नान्यत्र वहां वर्णनीय शलाकापुरुषों की.. तिरेसठ, संख्या के सोऽवधिः पुरतो ऽन्तगत इत्यभिधीयते । xxx अनुसार---तिरेसठ अर्थाधिकारों का निर्देश किया उक्तं च नन्द्यध्ययनचूर्णी-पुरतो गएणं पुरतो चैव है। इसीलिए वह पुराणस्कन्ध तिरेसठ अवयवों संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणि वा जोयणाई जाणइ वाला-तिरेसठ अधिकारों से यक्त-माना पासइ। (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१७, पृ. ५३७)। जाता है। १ जिस प्रकार कोई पुरुष उल्का (दीपिका), चडु- पुरुष-देखो पुमान् । १. पूर्णः सुख-दुःखानामिति लिका (अन्त में जलती हुई घास की पूलिका), पुरुषः, पुरि शयनाद्वा पुरुष इति । (प्राव. नि. हरि.
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुरुष]
७१६, जैन-लक्षणावली पुरुषवेदोत्कृष्टप्रदेश. वृ. ६७) । २. पुरुगुणेषु पुरुभोगेषु च शेते स्वपि- मलय. वृ. ७८, पृ. ८५)। तीति पुरुषः । सुषुप्तपुरुषवदनुगतगुणोऽप्राप्तभोगश्च पुरुषलिङ्ग के रहते सिद्ध हए जीवों के केवलज्ञान यदुदयाज्जीवो भवति स पुरुषः, अङ्गनाभिलाष इति को पुरुषलिङ्गसिद्धकेवलज्ञान कहते हैं। यावत् । पुरुगुणं कर्म शेते करोतीति वा पुरुषः। पुरुषवेद-देखो पुमान् । १. पुरुषस्य पुरुषवेदोxxx उक्तं च-पुरुगुणभोगे सेदे करेदि लोगम्मि दयात् स्त्र्य भिलाषः । (श्रा. प्र.टी. १८) । २. जेसिं पुरुगुणं कम्मं । पुरु उत्तमो य जम्हा तम्हा सो वण्णि- (कम्मक्खंधाणं) उदएण महेलियाए उवरि आकंखा दो पुरिसो॥ (धव. पु. १, पृ. ३४१); पुरुकर्मणि उप्पज्जइ ते सिं पुरिसवेदो त्ति सण्णा। (धव. पु. ६, शेते, प्रमादयतीति पुरुषः । (धव. पु. ६, पृ. ४६)। पृ. ४७); पुरिसवेदोदएण पुरिसवेदो। (धव. पु. ७, ३. पुरौ प्रकृष्टे कर्मणि शेते प्रमादयति तानि करो- पृ. ७९); जस्स कम्मरस उदएण मणुस्सस्स इत्थीसु तीति वा पुरुषः । (मूला. वृ. १२-१६२)। ४.पुरि अहिलासो उप्पज्जदि तं कम्मं पुरिसवेदो णाम । शरीरे शयनात् पुरुषाः विशिष्टकर्मोदयाद्विशिष्ट- (धव. पु. १३, पृ. ३६१)। ३. इत्थीए पुण उवरि संस्थानवतशरीरवासिनः । (योगशा. स्वो. विव. जस्सिह उदएण रागमप्पज्जे । सो तणदाहसमाणो ३-१२३, पृ. २१८)। ५. यस्मात् कारणात् लोके होइ विवागो पुरिसवेए ॥ (कर्म वि. ग. ५२) । यो जीवः पुरुगुणे सम्यग्ज्ञानाद्य धिकगुणसमूहे शेते ४. यदुदये पुंसः श्लेष्मोदयादम्लाभिलाषवत् स्त्रियास्वामित्वेन प्रवर्तते, पुरुभोगे नरेन्द्र-नागेन्द्र-देवेन्द्राद्य- मभिलाषो भवति स तृणाग्निज्वालासमानः पुंवेदः । धिकभोगचये भोक्तृत्वेन प्रवर्तते च । पुरुगुणवत् कर्म (शतक. मल. हेम. वृ. ३८; कर्मस्त. गो. वृ. १०, धर्मार्थ-काम-मोक्षलक्षणपुरुषार्थसाधनमनुष्ठानं शेते पृ. ८४) । ५. पुरुषस्य वेदः पुरुषवेदः, पुरुषस्य करोति च, पुरौ उत्तमे परमेष्ठिपदे च शेते तिष्ठति स्त्रियं प्रत्यभिलाष इत्यर्थः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि च, तस्मात् कारणात् स जीव पुरुष इति वर्णितः। पुरुषवेदः । (प्रज्ञाप. मलय. वृ. २६३)। ६. पंसः (गो. जी. म. प्र. २७३)।
स्त्रियामभिलाषः पुंवेदः । (जीवाजी. मलय. वृ. १३; १ जो सुख-दुःखोंसे पूर्ण होता है, अथवा जो पुर् अर्थात् पंचसं. मलय. वृ. १-८, पृ. ११)। ७. यदुदयाच्च शरीर में सोता है वह पुरुष कहलाता है । २ जो पुंसः स्त्रियामभिलाषः श्लेष्मोदये अम्लद्रव्याभिलाषमहान् गुणों और भोगों के विषय में सोता है उसे वत्, स तृणज्वालासमानः पुंवेदः । (धर्मसं. मलय. पुरुष कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि जिसके वृ. ६१५) । ८. यदुदयवशात् पुंसः स्त्रियामभिलाषः, उदय से जीव सोते हुए पुरुष के समान गुणों से श्लेष्मोदयादम्लाभिलाषवत्, स पुरुषवेद: । (पंचसं. अनुगत रहता है-उनका सदुपयोग नहीं कर पाता मलय. वृ. ३-५, पृ. ११३; कर्मप्र. यशो. वृ. १, है और भोगों की प्राप्ति से रहित होता है उसे पृ. ५)। ६. यत्पुनः पुंसः श्लेष्मोदयादम्लाभिलाषपुरुष कहते हैं। तात्पर्य यह कि जो स्त्रीविषयक वत् स्त्रियामभिलाषो भवति स पुवेदः ॥ (बृहत्क. इच्छा करता है उसे पुरुष जानना चाहिए। मलय. वृ. ८३१)। पुरुषकार-देखो पुरुषार्थ ।
१ पुरुषवेद के उदय से पुरुष के स्त्रीविषयक अभिपषज्ञान-पुरुषज्ञानम्-किमयं प्रतिवादी पुरुषः लाषा होती है । २ जिन पुद्गल कर्मस्कन्धों के उदय सांख्यः सौगतोऽन्यो वा तथा प्रतिभादिमानितरो से महिला (स्त्री) के ऊपर आकांक्षा उत्पन्न होती वेति परिमावनम् । (उत्तरा. नि. शाः वृ. ५८)। है उनका नाम पुरुषवेद है। यह प्रतिवादी पुरुष क्या सांख्य है, बौद्ध है या अन्य पुरुषवेदोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामी-यो गुणितकिसी मत का अनुयायी है तथा प्रतिभावान् है या कर्मांशः क्षपकः स्त्रीवेदं सर्वसंक्रमेण पुरुवेदे संक्रमयति. नहीं-इत्यादि रूप से पुरुष की विशेषताओं के स पुरुषवेदस्योत्कृष्टसत्कर्मस्वामी। (पंचसं. च. स्वो. जानने को पुरुषज्ञान कहते हैं।
व मलय. वृ. ५-१५६)। पुरुषलिंग-देखो पुमान् व पुंवेद।। जो गुणितकांशिक क्षपक स्त्रीवेद को सर्वसंक्रमण परुषलिङ्गसिद्धकेवलज्ञान-पुरुषलिङ्गे सिद्धानां के द्वारा पुरुषवेद में संक्रमित करता है वह परुषवेद केवलज्ञानं पुरुषलिङ्गसिद्धकेवलज्ञानम् । (प्राव. नि. के उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म का स्वामी होता है।
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुरुषार्थ ]
पुरुषार्थ - १. XXX विवरीयं तु पुरुषकारो मुणेयव्वो । ( उपदे. प. ३५०); ग्रहवप्पकम्महेऊ ववसाय होइ पुरिसगारो त्ति । ( उपदे. प. ३५१) । २. विपरीतं तु यदनुदग्रं बहुना प्रयासेन परिणमति पुनस्तत्पुरुषकारो मुणितव्यः । अथवा X X X अल्पं तुच्छं कर्म दैवं पुरुषकारापेक्षया हेतुर्निमित्तं फलसिद्धौ यत्र स तथाविधो व्यवसायः पुरुषप्रयत्नो भवति पुरुषाकार इति । ( उपदे. प. मु. वृ. ३५०, ३५१) ।
१ देव से विपरीत -- जिसमें बहुत प्रयत्न के द्वारा कर्म सातावेदनीय श्रादिरूप परिणत होता है उसेपुरुषकार या पुरुषार्थ जानना चाहिए। श्रथवा फल की सिद्धि में जहां पुरुषप्रयत्न की अपेक्षा देव को सहायता अल्प रहती है उसका नाम पुरुषार्थ समना चाहिए ।
७१७, जैन-लक्षणावली
पुरुषार्थ सिद्धय पाय — विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्ध्युपायोऽयम् ।। ( पु. सि. १५ ) ।
विपरीत श्रभिप्राय को नष्ट करके श्रात्मस्वरूप का यथार्थ निश्चय करना और उससे विचलित नहीं होना, यही पुरुषार्थसिद्धि का उपाय है । पुरुषोत्तम—सर्वोत्तमगुणैर्युक्तं प्राप्तं सर्वोत्तमं पदम् । सर्वभूतहितो यस्मात्तेनाऽसौ पुरुषोत्तमः ॥ ( प्राप्तस्व. ३४)।
समस्त प्राणियों के हित का अभिलाषी होते हुए जिसने अनेक सर्वोत्कृष्ट गुणों से युक्त उत्तम पद ( कैवल्य अवस्था ) को प्राप्त कर लिया है उसे पुरुषोत्तम समझना चाहिए । पुरोहित - १. पुरोहितमुदितोदितकुलशीलं षडंगवेदे देवे निमित्ते दण्डनीत्यामभिविनीतमापदां दैवीनां मानुषीणां च प्रतिकर्तारं कुर्वीत । ( नीतिवा. ११ - १, पू. १६० ) । २. पुरोहितः शान्तिकर्म्मकारी । ( स्थाना. अभय वृ. २४८; व्यव. मलय. वृ. (पी.) द्वि. वि. ३३, पृ. १२) ।
१ जिसका कुल-शील उत्तम हो तथा जो षडंग वेद, देव ( ज्योतिषशास्त्र ), निमित्तशास्त्र और दण्डनीति में पारंगत होता हुआ दैविक एवं मनुष्य निर्मित
पत्तियों का प्रतीकार करने वाला हो वह पुरोहित कहलाता है । राजा को ऐसे पुरोहित के लिए पास
[ पुलाक
में रखना चाहिए । २ शान्तिजनक अनुष्ठान का कराने वाला पुरोहित कहलाता है । पुलवि - १. प्रवासब्भंतरे संट्टिदाग्रो कच्छउडंडरवक्खारंतोट्ठियपि सिवियाहि समाणाश्रो पुलवियात्र नाम । ( धव. पु. १४, पु. ८६ ) । २. जंबूदीव भरहो कोसल-सागेद-तग्घराई वा । खंधंडर-श्रावासापुलबि - सरीराणि दिट्ठता ।। (गो. जी. १६४) । १ कच्छ उडंडर वक्षार ( ? ) के भीतर पिसिवियों ( ? ) के समान जो श्रावासों के भीतर निगोदजीवस्थान हैं उनका नाम पुलवि है । २ जिस प्रकार जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र, उसमें कोशलदेश, उसमें साकेत नगरी और उसमें घर हैं उसी प्रकार स्कन्ध, उनके भीतर अण्डर, उनके भीतर श्रावास, उनके भीतर पुलवि और उनके भीतर निगोदजीवों के शरीर होते हैं।
पुलाक -- १. उत्तरगुणभावनापेतमनसो व्रतेष्वपि क्वचित् कदाचित्पूर्णतामपरिप्राप्नुवन्तोऽविशुद्धपुलाकसादृश्यात् पुलाका इत्युच्यन्ते । ( स. सि. ६-४६ ; चा. सा. पू. ४५ ) । २. सततमप्रतिपातिनो जिनोक्तादागमान्निर्ग्रन्थपुलाकाः । ( त. भा. ६-४८; XX X पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनविरतिषष्ठानां पराभियोगाद् बलात्कारेणान्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति, मैथुनमित्येके । ( त. भा. ६-४६, पृ. २८७ ) । ३. परिपूर्णव्रता उत्तरगुणहीना पुलाकाः । उत्तरगुणभावनापेतमनसो व्रतेष्वपि क्वचित् कदाचित् परिपूर्णतामपरिप्राप्नुवन्तः प्रविशुद्धपुलाकसादृश्यात् पुलाकव्यपदेशमर्हन्ति । (त. वा. ६, ४६, १ ) । ४. पुलाका भावनाहीना ये गुणेषूत्तरेषु ते । न्यूना: क्वचित् कदाचिच्च पुलाकाभा व्रतेष्वपि ॥ ( ह. पु. ६४ - ५९ ) । ५. अपरिपूर्णव्रता उत्तरगुणहीनाः पुलाका: ईषद्विशुद्धि लाकसादृश्यात् । (त. ल्लो. ६-४६ ) । ६. पुलाको निःसार इति प्ररूढं लोके । पलञ्जिस्तन्दुलकणशून्या पुलाकः । एवं निर्ग्रन्थोऽपि लब्धिमुत्पन्नां तपः श्रुताभ्यां हेतुभ्यामुपजीवन् सकलसंयमगलनात् पञ्जलिरूपं निःसारमात्मानं करोति । ज्ञानदर्शन - चरणानि च सारः तदपगमान्निःसारः । जिनप्रणीतादागमाद्धेतुतः सदैवाप्रतिपातिनः आगमाश्च सम्यग्दर्शनमूलज्ञान चरणे निर्वाणहेतू इत्यस्मादपरिभ्रष्टाः श्रद्दधाना ज्ञानानुसारेण क्रियानुष्ठायिनो लब्धिममुपजीवन्तो निर्ग्रन्थाः पुलाका भवन्ति । उप
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुलाक] : ७१८, जैन-लक्षणावली
[पुंवेद जीवन्तश्च निःसारतामात्मनः कुर्वन्तीति ग्राह्यम् । नानाद्रुम-लता-गुल्म-पुष्पाण्युपादाय पुष्पसूक्ष्मजीवानसततमप्रमादिन इत्यपरे पठन्ति । जिनोक्ताद्वागमाद्धे- विराधयन्तः कुसुमतलदलावलम्बनसङ्गगतयः (प्रव. तुभूतान्मुक्तिसाधनेषु न प्रमाद्यन्ति जातुचिदिति। 'कुसुमदलपटलमवलम्बमानाः') पुष्पचारणाः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-४८); xxx तदेव- (योगशा. स्वो. विव. १-६, पृ. ४१, प्रव. सारो. मन्यतमं मूलगुणं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति । (त. वृ. ६०१, पृ. १६८)। ३. पुष्पमस्पृश्य पुष्पोभा. सिद्ध. वृ. ६-४६)। ७. पुलाकशब्देनासारं परि गमनं पुष्पचारणत्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. ३, निःसारं धान्यं तण्डुलकणशून्यं पलञ्जिरूपं भण्यते, ३६)। तेन पुलाकेन समं सदृशं यस्य साधोश्चरणं चारित्रं १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु बहुत प्रकार के भवति स पुलाकः, पुलाक इव पुलाक इति कृत्वा। पुष्पों में स्थित जीवों को विराधना न करके उनके अयमर्थः-तपःश्रुतहेतुकायाः सङ्घादिप्रयोजने सबल- ऊपर से चलते हैं उसे पुष्पचारण ऋद्धि कहते हैं । वाहनस्य चक्रवादेरपि चूर्णने समर्थाया लब्धरुप- पुष्पदन्त- पुष्पकलिकामनोहरदन्तत्वात् पुष्पदन्त जीबनेन ज्ञानाद्य तिचारासेवनेन वा सकलसंयमसार- इति । (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४)। गलनात पलजिवनिःसारो यः स पुलाकः । (प्रव. पुष्प-कलिका के समान मनोहर दांतों के धारक सारो. व. ७२३)। ८. उत्तरगुणभावनारहिताः नौवें तीर्थंकर को पुष्पदन्त कहते हैं। क्वचित् कदाचित् कथंचिद् व्रतेष्वपि परिपूर्णत्वमल- पुष्पदन्त कुम्भ-ह्रस्वोष्ठः पुष्पदन्तः । (निर्वाणक. भमाना अविशुद्धपुलाकसदृशत्वात् पुलाकाः। (त. पृ. ८)। वृत्ति श्रुत. ६-४६)।
जिस घड़े का मुख छोटा हो वह पुष्पदन्त नामक १ जिन मुनियों का मन उत्तरगुणों की भावनाओं कुम्भ कहलाता है। प्राचार्य के अभिषेक के समय में संलग्न नहीं है और जो व्रतों में भी कहीं व मण्डल पर लिखे जाने वाले १६ कुम्भों में यह किसी समय परिपूर्णता से रहित होते हैं उन मुनियों बारहवां है। को कण से रहित-निरुपयोगी-अशुद्ध धान्य के पुष्पोपहित-१. पुप्फोवहिदं च व्यञ्जनमध्ये पुष्पसमान निःसार होने से पुलाक कहा जाता है। वलिरिव अवस्थितसिक्थम् । (भ. प्रा. विजयो. २ जो जिनप्रणीत पागम से तो पतित नहीं है- २२०)। २. पुष्पोपहितं पुष्पप्रकरवव्यञ्जनमध्यउस पर श्रद्धा रखता है, पर अहिंसादि पांच मूल- प्रकीर्णसिक्थम् । (भ. प्रा. मला. २२०)। गण और छठा रात्रिभोजन व्रत इनमें से किसी एक पुष्पसमूह के समान व्यंजनों के मध्य में स्थित सिक्थ व्रत का दूसरे की प्रेरणा से पालन करता है वह (धान्यकण) को पुष्पोपहित कहा जाता है। पुलाक मुनि कहलाता है।
पुंवेद-देखो पुरुषवेद । १. यस्योदयात् पौंस्नान् पुल्लिङ्ग-देखो पुरुषलिङ्ग ।
भावानास्कन्दति स वेदः । (स. सि. ८-६; त. वा. पुल्लिङ्गसिद्ध-पुल्लिङ्गे शरीरनिर्वृत्तिरूपे व्यव- ८, ६, ४) । २. पुरुषवेदमोहोदयात् अनेकाकारास स्थिताः सन्तो ये सिद्धास्ते पुल्लिङ्गसिद्धाः । (प्रज्ञाप. स्त्रीष्वभिलाषः पाम्रफलाभिलाषः इवोद्रिक्तश्लेष्मणः मलय. वृ. ७, पृ. २२)।
तथा सङ्कल्पजास्वपीत्यादि। (त. भा. सिद्ध. वृ. ८, जो शरीर की रचनारूप पुल्लिग में--पुरुषशरीर में १०, पृ. १४२)। ३. येषामुदयेन पुद्गलस्कन्धानां -अवस्थित रहते हुए मुक्ति को प्राप्त हुए हैं वे वनितायामाकांक्षा जायते तेषां पुवेद इति संज्ञा। पुल्लिगसिद्ध कहलाते हैं।
(मूला. वृ. १२-१६२)। ४. पुंवेदं पुंभावापत्तिपष्टि-पष्टि: पण्योपचयः xxx। (षोडश. निमित्तं 'वेदाख्यं नोकषायवेदनीयम् । (भ. प्रा. ३-४)।
मूला. २०६७)। ५. यदुदयात् पुंस्त्वपरिणामान् पुण्य के संचय को पुष्टि कहते हैं।
प्राप्नोति स वेदः । (त. वृत्ति श्रुत. ८-६)। पुष्पचारण-१. अविराहिदूण जीवे तल्लीणे बहु- १ जिसके उदय से जीव पुरुष के भावों को प्राप्त विहाण पुप्फाणं । उवरिम्मि जं पसप्पदि सा रिद्धी करता है उसे पुवेद कहते हैं। २ पुरुषवेदमोहनीय पुप्फचारणा णाम ॥ (ति. प. ४, १०३६) । २. के उदय से अनेक प्राकार वाली स्त्रियों के विषय
मनि क
रुषलिन निवृत्ति
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुंवेद]
में इस प्रकार श्रभि लाषा होती है जिस प्रकार कि कफ के उद्रेक से ग्राम फल की अभिलाषा हुआ करती है । उक्त पुंवेद के उदय से संकल्पजात स्त्रियों के विषय में भी अभिलाषा होती है । पूजक - १. भव्यात्मा पूजकः शान्तो वेश्यादिव्यसनोज्झितः । ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः स शूद्रो वा सुशीलवान् ॥ ( भावसं वाम ४६५ ) । २. नित्यपूजाविधायी य: पूजकः स हि कथ्यते । द्वितीयः पूजकाचार्य: प्रतिष्ठादिविधानकृत् ॥ ब्राह्मणादिचतुवर्ण्य श्राद्यः शीलव्रतान्वितः । सत्य - शौच- दृढाचारो हिंसाद्यव्रतदूरगः ॥ जात्या कुलेन पूतात्मा शुचिर्बन्धु -सुहृज्जनैः । गुरूपदिष्टमंत्रेण युक्तः स्यादेष पूजकः ॥ ( धर्मसं. श्री. ६, १४२ - ४४ ) । १ जो भव्य जीव शान्त - क्रोधादि कषयायों से रहित - होकर वेश्यादि व्यसनों का त्याग कर चुका है वह पूजक — पूजा का अधिकारी होता है । वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा उत्तम शीलवान् शूद्र होना चाहिए । पूजकाचार्य ( प्रतिष्ठाचार्य ) - इदानीं पूजकाचार्यलक्षणं प्रतिपाद्यते । ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यो नानालक्षणलक्षितः ॥ कुल-जात्यादिसंशुद्धः सदृष्टिर्देशसंयमी । वेत्ता ज्ञिनागमस्याऽनालस्यः श्रुतबहुश्रुतः ॥ ऋजुर्वाग्मी प्रसन्नोऽपि गम्भीरो विनयान्वितः । शौचाऽऽचमनसोत्साहो दानवान् कर्मकर्मठः । साङ्गोपाङ्गयुतः शुद्धो लक्ष्य- लक्षणवित् सुधीः । स्वदारी ब्रह्मचारी वा नीरोगः सत्क्रियारतः ॥ वारिमंत्रव्रतस्नातः प्रोषधव्रतधारकः । महाभिमानी मौनी च त्रिसन्ध्यं देववन्दकः ॥ श्रावकाचारपूतात्मा दीक्षाशिक्षागुणान्वितः । क्रियाषोडशभिः पूतो ब्रह्मसूत्रादिसंस्कृतः । न हीनाङ्गो नाधिकाङ्गो न प्रलम्बो न वामनः ॥ न कुरूपी न मूढात्मा न वृद्धो नातिबालकः ॥ न क्रोधादिकषायाढ्यो नार्थार्थी व्यसनी न च ।
[ना]न्त्यास्त्रयो न तावाद्यौ श्रावकेषु न संयमी ॥ ईदृग्दोषभृदाचार्यः प्रतिष्ठां कुरुतेऽत्र चेत् । तदा राष्ट्रं पुरं राज्यं राजादिः प्रलयं व्रजेत् ॥ कर्ता फलं न चाप्नोति नैव कारयिता ध्रुवम् । ततस्तल्लक्षणश्रेष्ठः पूजका चार्य इष्यते ॥ ( धर्मसं. श्री. ६-१४५ से १५४) । जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, श्रथवा वैश्य होकर अनेक लक्षणों से युक्त हो; कुल व जाति आदि से शुद्ध हो, सम्यग्दृष्टि होकर देशव्रती हो, जिनागम का ज्ञाता
७१६, जैन- लक्षणावली
[पूजन
हो, श्रालस्य से रहित हो, बहुत श्रुत को सुन चुका हो, सरल हो, वक्ता हो, प्रसन्न होता हुआ भी गम्भीर हो, विनयशील हो; शौच व श्राचमन में उत्साहसहित हो, दाता हो, क्रियाशील हो, अंगउपांगों से युक्त हो; लक्ष्य-लक्षण का जानकार हो, विवेकी हो, स्वदारसन्तोषी या ब्रह्मचारी हो, नीरोग हो, सदाचारी हो; जलस्नान से युक्त होकर मंत्र का ज्ञाता व व्रत से सहित हो; प्रोषधव्रत का धारी हो, महा अभिमानी हो-स्वाभिमानी होकर दैन्यभाव से दूर रहने वाला हो, मौन रखता हो, तीनों सन्ध्याओं में देववन्दना करने वाला हो, श्रावक के प्राचार का परिपालक हो, दीक्षा- शिक्षागुण से 'युक्त हो, सोलह क्रियानों से पवित्र हो, ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) आदि संस्कारों से सहित हो, न हीनांग हो श्रौर न अधिक श्रंग वाला हो; न लम्बा हो, न बौना हो; न कुरूप हो, न मूर्ख हो, न बुड्ढा हो, न बालक हो, क्रोधादिकषायों वाला न हो, धनार्थी न हो, व्यसनी न हो, ग्यारह श्रावकों में न अन्तिम तीन — परिग्रहत्याग प्रतिमाधारी आदि-हों, न श्रादि के दो ( दर्शनिक व व्रती) हों; तथा संयमी (मुनि) न हो । यदि श्राचार्य उक्त दोषों (हीनांगादि) से दूषित होता है तो राष्ट्र, नगर, राज्य व राजा आदि का नाश हो सकता है; तथा वैसा होने पर न कर्ता हो फल को पाता है और न कराने वाला भी, इसी कारण पूजक श्राचार्य उपर्युक्त लक्षणों से श्रेष्ठ माना जाता है ।
पूजन- देखो पूजा |
पूजा - १. पूजा च द्रव्य भावसंकोचः, तत्र कर - शिरः पादादिसन्यासो द्रव्यसंकोचः, भावसंकोचस्तु विशुद्धस्य मनसो नियोग इति । (ललितवि. पृ. ६ ) ; पूजनं गन्ध - माल्यादिभिः समभ्यर्चनम् । ( ललितवि. पृ. ७७ ) । २. वस्त्र - माल्यादिजन्या पूजा । (श्राव. नि. हरि. वृ. २१, पृ. ४०६ ) । ३. स्नान - विलेपन - सुसुगन्धिपुष्प-धूपादिभिः शुभैः कान्तम् । विभवानुसारतो यत् काले नियतं विधानेन ॥ अनुपकृतपरहितरतः शिवदस्त्रिदशेशपूजितो भगवान् । पूज्य हितकामानामिति भक्त्या पूजनं पूजा ।। ( षोडसक. १-२ ) । ४. एदाहि ( चरु-बलि- पुप्फ-फल-गंधधूव-दीवादी हि ) सह इंदधय- कप्परुक्ख महामह सव्वदोभद्दादिमहिमा विहाणं पूजा णाम । ( धव. पु.
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूज्य] ७२०, जैन-लक्षणावली
[पूर्व ८, पृ. १२)। ५. पूजा च सेवाजल्यासनाभ्यु- १ अप्रासुक (सचित्त) से मिश्रित प्रासुक द्रव्य स्थानादिलक्षणा । (योगशा. स्वो. विव. १-५४)। (भोज्य पदार्थ) पूतिदोष से दूषित होता है। २ यदि १ द्रव्य और भाव के संकोच का नाम पूजा है। प्राधाकर्म के अवयव से मिश्रित होने की सम्भावना उनमें हाथ, शिर और पांवों आदि के संकोच को हो तो दिया जाने वाला वैसा अन्नादि पूतिकर्म दोष द्रव्यसंकोच और निर्मल मन के नियमन को भाव- से दुष्ट होने के कारण साधुओं के लिए अग्राह्य संकोच कहा जाता है । ४ चरु, बलि, पुष्प, फल, गन्ध, होता है। ३ अपने गृहनिर्माण के लिए लाये गये धूप और दीप आदि के द्वारा इन्द्रध्वज, कक्ष्पतरु, बहुत से काष्ठ आदि के साथ साधु के लिए लाये महामह और सर्वतोभद्र आदि के माहात्म्य के विधान गये काष्ठादि को मिलाकर जो घर निर्मित किया का नाम पूजा है।
जाता है वह पूतिक दोष से युक्त होता है। पूज्य-१. पूज्यः शतेन्द्रवन्द्यांहिनिर्दोषः केवली पूतिकर्मिका-पूतिकमिका आधार्मिकसुधादिना जिनः । (भावसं. वाम. ४६४) । २. पूज्योऽर्हन् पूरितच्छिद्रा । (बृहत्क. क्षे. बू. १७५३) । केवलज्ञान-दृग्वीर्य-सुखधारकः । निःस्वेदत्वादिनैर्म- प्राधाकर्मयुक्त सफेदी आदि के द्वारा जिस सौवीरिल्यमुख्यकैः संयुतो गुणः ॥ (धर्मसं. श्रा. E-३४)। णी (कांजी या अम्लिनी) के छेद भरे गये हैं वह २ अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्त- पूतिकमिका कहलाती है। सुख के धारक होकर जो निःस्वेदत्व प्रादि गुणों से पूरक-१. द्वादशान्तात् समाकृष्य यः समीरः प्रपूयुक्त हैं वे अरहन्त भगवान् पूज्य हैं—पूजा के यते । स पूरक इति ज्ञेयो वायुविज्ञानकोविदैः ।। योग्य हैं।
(ज्ञानार्णव २६-४)। २. समाकृष्य यदापानात् पूति, पूतिक-१. अप्पासुएण मिस्सं पासुयदव्वं तु पूरणं स तु पूरकः । (योगशा. ५-७)। ३. द्वादपूदिकम्मं तं। (मूला. ६-६) । २. पूतिकर्म-संभा- शाङ्गुलपर्यन्तं समाकृष्य समीरणम् । पूरयत्यतिव्यमानाधाकर्मावयवसंमिश्रलक्षणम् । (दशवै. सू. यत्नेन पूरकध्यानयोगतः । (भावसं. वाम. ६६७) । हरि. वृ. ५-५५, पृ. १७४)। ३. प्रात्मनो गृहार्थ- ३ वायु को बारह अंगुल पर्यन्त खींचकर जो पूर्ण मानीतैः काष्ठादिभिः सह बहुभिः श्रमणार्थमानीया- किया जाता है उसे पूरक प्राणायाम कहते हैं । ल्पेन मिश्रिता यत्र गृहे तत्पूतिकमित्युच्यते । (भ. पूरिम तलावालि-जिणहराहिट्ठाणादिदव्वं पूरणप्रा. विजयो. २३०; भ. प्रा. मूला. २३०; कार्तिके. किरियाणिप्फण्णं पूरिमं णाम । (धव. पु. ६, पृ. टी. ४४८-४६, पृ. ३३७)। ४. यदाधाकर्माद्यव- २७३)। यवसंमिश्रं तत्पूतीकर्म । (प्राचारा. शी. वृ. २, १, पूरणक्रिया से सिद्ध तालाब के बांध और जिनालय २६६, पृ. ३४७) । ५. प्रासुकमप्यप्रासुकेन सचित्ता- के अधिष्ठान (नीव) आदि द्रव्य को पूरिम कहा दिना मिश्रं यदाहारादिकं पूतिदोषः । (मूला. वृ. जाता है । ६-६)। ६. प्रति प्रासकपात्रादि मिश्रमप्रासकेन पुर्णगेय-यत स्वर-कलाभिः पूर्ण गीयते तत पूर्णम। यत् । मिश्रसंगे हि पाखण्डियतिभ्यो यद्वितीर्यते ॥ (रायप. मलय. वृ. पृ. १३१; जम्बूद्वी. शा. वृ. ६, (प्राचा. सा. ८-२५)। ७. आधार्मिकावयवसं- पृ. ४०)। मिश्रं शुद्धमपि यत्तत् पूतिकर्म शुचिद्रव्य मिवाशुचि- जो स्वर-कलाओं से परिपूर्ण गान गाया जाता है द्रव्यसम्मिश्रम् । (योगशा. स्वो. १-३८) । ८. पूति उसे पूर्णगेय कहते हैं। प्रासु यदप्रासु मिश्रं योज्यमिदं कृतम् । नेदं वा याव- पूर्व-१. चउरासीतिपुव्वंगसयसहस्साइं से एगे दार्येभ्यो नादायि च कल्पितम् ॥ (अन. ध. ५-६)। पुवे । (भगवती. ६, ७, ४, पृ. ८२६; जम्बूद्वी. ६. यदुद्गमकोटिदोषदुष्टसङ्गात् शुद्धमपि अपवित्रं १८, पृ. ८६; अनुयो. सू. १३७, पृ. १७६) । तत्पूतिकर्म । (ग. ग. षट. स्वो. व. २०, पृ. ४८)। २. पव्वस्स दु परिमाणं सदर खलु कोडिसदसहस्सा १०. यत्प्रासुकं पात्रं कांस्यपात्रादिकं मिथ्यादृष्टि- इं। छप्पण्णं च सहस्सा बोद्धव्वा बस्सकोडीणं ॥ प्रातिवेशैमिथ्यागुर्वर्थं दत्तं तत्पात्रस्थमन्नादिकं महा- (स. सि. ३-३१, उद्.; धव. पु. १३, पृ. ३०० मुनीनामयोग्यं पूत्युच्यते । (भावप्रा. टी. ६६)। उद्.; जं. द्वी. प. १३-१२) । ३. पूर्वाङ्गशतसहस्रं
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२१, जैन-लक्षणावली
[पूवरतानुस्मरण चतुरशीतिगुणितं पूर्वम् । (त. भा. ४-१५)। होता है। ४. पुवस्स उ परिमाणं सरि खलु हुंति कोडि- पूर्वकृत, पूर्वगत-देखो पूर्वश्रुत । १. पुव्वयं लक्खाओ। छप्पण्णं च सहस्सा बोधव्वा वासको- पंचाणउदिकोडि-पण्णासलक्ख-पंचपदेहिं ९५५००डीणं ॥ (बृहत्सं. ३१६, पृ. १२२; प्रव. सारो. ०००५ उप्पाय-वय-धुवत्तादीणं वण्णणं कुणइ। (धव. १३८७; संग्रहणी २१८) । ५. पुव्वंगसयसहस्सा पु. १, पृ. ११२-१३; पूर्वकृते पञ्चनवतिकोटिचुलसीइगुणं हवइ पुव्वं । पुवस्स उ परिमाणं सयरी पञ्चाशच्छतसहस्र-पञ्चपदे ६५५०००००५ उत्पादखलु होंति सयसहस्साइं (जीवस. 'होति कोडिल- व्यय-ध्रौव्यादयो निरूप्यन्ते । (धव. पु. ६, पृ. क्खाओ') छप्पण्णं च सहस्सा बोद्धव्वा वासकोडीणं॥ २०६) । २. पुब्बगयं उप्पाय-वय-धुवत्तादीणं णाणा(ज्योतिष्क. ६२-६३; जीवस. ११२-१३)। विहअत्थाणं वण्णणं कुणइ । (जयध. १, पृ. १३८)। ६. चतुरशीतिपूर्वाङ्गशतसहस्राणि पूर्वम् । (त. वा. ३. पूर्वमुत्पादादि प्रतीतम् । (शतक. मल. हेम. वृ. ३, ३८, ८, पृ. २०६) । ७. तं एगं पुव्वंगं चुलसीए ३८)। ४. पूर्वमुत्पादपूर्वादि पूर्वोक्तस्वरूपम् । सतसहस्सेहिं गुणितं एगं पुव्वं भवति। (अनुयो. हरि. (कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ७)। ५. पञ्चनवतिकोटिवृ. पृ. ५४)। ८. सत्तरिकोडिलक्ख-छप्पण्णसहस्स- पञ्चाशल्लक्ष-पञ्चपदपरिमाणं निखिलार्थानामुत्पादकोडिवरिसेहि पुव्वं होदि । (धव. पु. १३, पृ. व्यय-ध्रौव्याद्यभिधायकं पूर्वगतम् ६५५०००००५ । ३००)। ६. तत्तद्गुणं च पूर्वांगं पूर्व भवति नि- (श्रृतभ. टी. ६, पृ. १७४) । श्चितम् । (ह. पु. ७-२५)। १०. पूर्वाङ्गलक्षाः १ जिस श्रुत में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य आदि की चतुरशी तिगुणिताः पूर्वम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. ४, प्ररूपणा की जाती है उसे पूर्वगत श्रुत कहा जाता १५)। ११. पुव्वंगसदसहस्सा चुलसीदिगुणं हवे है। यह दृष्टिवाद के पांच भेदों में चौथा है । इसमें पुव्वं । (जं. दी. प. १३-११) । १२. पूर्वांगं चतुर- ६५५०००००५ पद होते हैं । शीतिगुणितं पूर्वं भवति, पूर्वस्य तु प्रमाणं सप्तति- पूर्वदिशा-जस्स जो आइच्चो उदेइ सा तस्स होइ कोटीशतसहस्राणि कोटीनां तु षट्पंचाशतसहस्राणि पुवदिसा । (प्राचा. नि. ४७, पृ. १३) । चेति । (मूला. व. १२-६९)। १३. वरिसाणं जिस दिशा से सूर्य का उदय होता है उसे पूर्वदिशा लक्खेहिं चुलसीसंखेहिं होइ पुव्वंगं। एयं चिय एय- कहते हैं। गुणं जायइ पुव्वं तयं तु इमं ॥ (प्रव. सारो. १३८६)। पूर्व-पश्चात्संस्तवपिण्ड-पूर्वसंस्तवं जननी-जन१४. चतुरशीतिः पूर्वाङ्गलक्षाणि पूर्वम् । (ज्योतिष्क. कादिद्वारेण पश्चात्संस्तवं श्वश्रू-श्वशुरादिद्वारेणात्ममलय. वृ. ६१) । १५. पूर्वस्य परिमाणं वर्षकोटीनां परिचयानुरूपं सम्बन्ध भिक्षार्थं घटयतः पूर्व-पश्चासप्ततिः कोटिलक्षाः षट्पञ्चाशत्सहस्राणि, ७०- संस्तवपिण्डः । (योगशा. स्वो. विव. १-३८)। ५६०००००००००० पूर्वाङ्गं च पूर्वाङ्गेन गुणितं माता-पितादि के सम्बन्ध के बतलाने को पूर्वसंस्तव पूर्वं भवति । (बृहत्सं. मलय. वृ. ३१६, पृ. १२२)। और सास-ससुर के सम्बन्ध के बतलाने को पश्चात्१६. चतुरशीतिः पूर्वाङ्गशतसहस्राणि एकं पूर्वम्। संस्तव कहते हैं । इन दोनों प्रकार के सम्बन्धों को (जीवाजी. मलय. वृ. २-१७८)। १७. पूर्वाङ्गं बतलाते हुए भिक्षा के ग्रहण करने से क्रमश. पूर्वचतुरशीतिवर्षलक्षैर्गुणितं पूर्व भवति । (षडशीति पश्चात्-संस्तवपिण्ड नामका दोष होता है। दे. स्वो. वृ. ६६)। १८. पूर्वाङ्गलःश्चतुरशीत्या पूर्वरतानुस्मरण-१. पूर्वं च तत् रतं च पूर्वरतं पूर्व प्रकीर्तितम् ॥ पूर्वे च वर्षकोटीनां लक्षाणि किल पूर्वकालभुक्तभोगः, तस्य अनुस्मरणमनुचिन्तनं पूर्वसप्ततिः । षट्पञ्चाशत्सहस्राणि निर्दिष्टानि जिने- रतानुस्मरणम् । (त. वृत्ति श्रुत. ७-७)। २. रतं श्वरैः ॥ (लोकप्र. २६, ४-५)।
मोहोदयात् पूर्व सार्द्धमन्याङ्गनादिभिः । तत्स्मरण१ चौरासी लाख पूर्वाङ्गों का एक पूर्व होता है। मतीचारं पूर्वरतानुस्मरणम् ॥ (लाटीसं. ६-६६)। २ सत्तर लाख करोड़ और छप्पन हजार करोड़ १ पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों का स्मरण करना, (७०५६००००००००००) वर्ष प्रमाण एक पूर्व इसका नाम पूर्वरतानुस्मरण है, यह ब्रह्मचर्यव्रत की
ल. ६१
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व विदेह] ७२२, जैन-लक्षणावली
[पूर्वसंस्तव पांच भावनामों में से एक है।
पूर्वसमासावरणीय कहते हैं। पूर्वविदेह-मेरोः सकाशात् पूर्व क्षेत्र पूर्वविदेहः । पूर्वसंस्तव-१. दायगपुरदो कित्ती तं दाणवदी (त. वृत्ति श्रुत. ३-१०)।
जसोधरो वेत्ति। पुव्वीसंथु दिदोसा विस्सरिदे बोधणं मेरु पर्वत से पूर्व की ओर जो क्षेत्र है वह पूर्वविदेह चावि ॥ (मूला. ६-३६) । २. माय-पिइ पुव्वसंथव कहलाता है।
xxx । गुणसंथवेण पुवि संतासंतेण जो थुणिपूर्वश्रुतज्ञान-एदस्स (वत्थुसमासस्स) उवरि एग- ज्जाहि । दायारमदिन्नंमी सो पुविसंथवो हवइ । क्खरे वड्ढिदे पुव्वं णाम सुदणाणं होदि । (धव. पु. एसो सो जस्स गुणा वियरंति अवारिया दस दिसासु । ६, पृ. २५); पुणो एदस्स (वत्थुसमाससुदणाणस्स) इहरा कहासु सुणिमो पच्चक्खं अज्ज दिट्ठोऽसि ॥ उवरि एगक्खरे वड्ढिदे पुव्वसुदणाणं होदि । Xx (पिण्डनि. ८५ व ६०-६१)। ३. गच्छतामाx पुज्वगयस्स जे उप्पादपुव्वादिचोद्दसअहियारा गच्छतां च यतीनां भवदीयमेव गृहमाश्रय: इतीयं तेसिं पुध पुध पुवसुदणाणमिदि सण्णा । (धव. पु. वार्ता दूरादेवास्माभिः श्रुतेति पूर्व स्तुत्वा या लब्धा १३, पृ. २७१)।
सा पूर्वसंस्तवदोषदुष्टा । (भ. पा. विजयो. व मूला. वस्तुसमास श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि २३०) । ४. ददातीति दायको दानपतिः, तस्य पुरतः के होने पर पूर्व नाम का श्रुतज्ञान होता है। कीति ख्यातं ब्रूते । कथम् ? त्वं दानपतिर्यशोपूर्वश्रुतप्रत्याख्यान-तत्र पूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं प्रत्या- धरः, त्वदीयकी तिर्विश्रुता लोके, यद्दातुरग्रतो दानग्रहख्यानसंज्ञितं पूर्वम् । (प्राव. नि. मलय. वृ. १०५४; णात् प्रागेव ब्रूते तस्य पूर्वसंस्तुतिदोषो नाम जायते । प. ५७६)।
विस्मृतस्य च दानसम्बोधनम्-त्वं पूर्व महादानपतिरिप्रत्याख्यान नामक पूर्व को पूर्वश्रुतप्रत्याख्यान कहा दानी किमिति कृत्वा विस्मृत इति सम्बोधनं करोति जाता है।
यस्तस्यापि पूर्वसंस्तुतिदोषो भवतीति। (मला. वृ. पूर्वश्रुतावरणीय -पुव्वसुदणाणस्स जमावारयं ६-३६) । ५. दाता ख्यातस्त्वमित्याद्यैर्यद् गेह्यानन्दकम्मं तं पुव्वावरणीयं । (धव. पु. १३, पृ. २७६)। नन्दनम् । पूर्व पश्चाच्च भुक्तेस्तत् पूर्वं पश्चात् पूर्व श्रुत के आवारक कर्म को पूर्वश्रुतावरणीय स्तवद्वयम् ॥ (प्राचा. सा. ८-४१)। ६. स्तुत्वा कर्म कहते हैं।
दानपति दानं स्मरयित्वा च गृह्णतः । गृहीत्वा स्तुपूर्वसमासश्रुतज्ञान-१. तस्स (पुव्वसुदणाणस्स) वतश्च स्तः प्राक्-पश्चात्संस्तवौ क्रमात् । (अन. ध. उवरि एगक्खरे वड्ढिदे पुव्वसमासो होदि । एवं ५-२४)। ७. अहो जिनदत्त, त्वं जगति विख्यातो पुब्वसमासो गच्छदि जाव लोगबिंदुसारचरिमक्खरं दाता वर्तसे इत्यादिभिर्वचनैर्गृहस्थस्यानन्दजननं भुक्तेः ति। (धव. पु. ६, पृ. २५); उप्पादपुव्वसुदणाण- पूर्व तत्पूर्वस्तवनम् । (भावप्रा. टी. ६६)। स्सुवरि एगक्खरे वड्ढिदे पुव्वसमाससुदणाणं सोदि । १ तुम दानपति हो व तुम्हारी कीति दान के एवमेगेगक्खरुत्तरवड्ढीए पुव्वसमाससुदणाणं वड्माणं विषय में फैली हुई है, अथवा तुम प्रसिद्ध गच्छदि जाव अंगपविलैंगबाहिरसगलसुदणाणक्ख- दाता रहे हो, इस समय तुम उसे कैसे भूल गये राणि सव्वाणि वड्ढिदाणि ति। (धव. पु. १३, पृ. हो, इत्यादि प्रकार से स्तुति करना व विस्मृत २७१) । २. तद्व्यादिसंयोगस्तु पूर्वसमासः । होने पर उसे पुनः सम्बोधित करना; यह पूर्व(शतक. मल. हे. वृ. ३८; कर्मवि. दे. स्वो. वृ. ७)। संस्तुति दोष कहलाता है। वह साधु के आहार१ पूर्व श्रृतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि के विषयक सोलह उत्पादन दोषों में है। २ दान ग्रहण होने पर पूर्वसमासश्रुतज्ञान होता है । २ दो पूर्व करते समय माता-पिता आदि के रूप से परिचय प्रादि के संयोग का नाम पूर्वसमास है।
देना, यह पूर्वसंस्तव दोष है; कारण यह कि मातापूर्वसमासावरणीयकर्म - पुव्वसमाससुदणाणस्स पिता आदि पूर्वकालभावी हैं। यह सम्बन्धसंस्तव xxx जमावारयं कम्मं तं पुवसमासावरणीयं । है। वचनसंस्तव इस प्रकार है-दाता से भोजन (धव. पु. १३, पृ. २७६)।
प्रादि के ग्रहण करने पर सत्य या असत्य रूप उदाजो पूर्वसमास श्रुत को प्राच्छादित करता है उसे रता आदि गुणों की प्रशंसाविषयक वचनसमूह के
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्वसंस्तुति] ७२३, जैन-लक्षणावली
[पृच्छना द्वारा दाता की स्तुति करने पर पूर्वसंस्तव नामक वग्रहमनुज्ञापितः सैव पूर्वानुज्ञा साम्प्रतसाधूनामप्यनुउत्पादन दोष होता है।
___ वर्तते, न पुनर्भूयोऽप्यनुज्ञाप्यते । (बृहत्क. क्षे. व. पूर्वसंस्तुति--देखो पूर्वसंस्तव ।।
६७०)। पूर्वाग.-..--१. वर्षशतसहस्रं चतुरशीतिगुणितं पूर्वा- इन्द्रादि पांच प्रकार के अवग्रह में जिस अवग्रह की ङ्गम् । (त. भा. ४-१५) । २. चउरासीइं वाससय- प्राचीन साधुनों ने अनुज्ञा दी है उसका जो उत्तरसहस्साणि से एगे पुव्वंगे। (भगवती. ६, ७, ४, पृ. कालीन साधुओं के द्वारा फिर से अनुज्ञा न लेकर ८२६; जम्बूद्वी. १८, पृ. ८६ अनुयो. सू. १३७, पृ. उसी प्रकार से उपभोग किया जाता है, यह पूर्वा१७६) । ३. वाससहस्साई चुलसीइगुणाई होज्ज नुज्ञा कहलाती है। जैसे-प्राचीन साधुओं ने देवेन्द्र पुव्वंगं ॥ (ज्योतिष्क. ६२)। ४. वाससयसहस्सं के लिए जिस अवग्रह की अनुज्ञा दी है वही वर्तमान पुण चुलसीइगुणं हवेज्ज पुव्वंगं । (जीवस. ११२)। साधुओं को भी अनुज्ञा है, वे फिर से उसे अनुज्ञा ५. लक्ष्या ह्यशीति त्वधिका चतुभिः पूर्वाङ्गमेकं मुनि- नहीं देते। भिः प्रदिष्टम् ॥ (वराङ्ग. २७-८)। ६. चतुरशी- पूर्वानुपूर्वो-१. जं मूलादो परिवाडीए उच्चदे सा तिवर्षशतसहस्राणि पूर्वाङ्गम् । (त. वा. ३, ३८, ७)।
पुवाणुपुव्वी। (धव. पु. १, पृ. ७३); उद्दिट्टकमेण ७. पुव्वंगे परिमाणं पचसुण्णं चउरासी य । (अनुयो.
अत्थाहियारपरूवणा पुवाणुपुव्वी णाम । (धव. पु. हरि. वृ. पृ. ५४ उद्.)। ८. ज्ञेयं वर्षसहस्रं तु।
___६, पृ. १३५) । २. जं जेण कमेण सुत्तकारेहिं ठइतच्चापि दशसंगुणम् । पूर्वाङ्गं तु तदभ्यस्तमशीत्या
दमुप्पण्णं वा तस्स तेण कमेण गणणा पुन्वाणुपुष्वी चतुरग्रया। (म. पु. ७-२४) । ६. चउरासीलक्खहिं
णाम । (जयध. पु. १, पृ. २८)। पुव्वंगउ। (म. पु. पुष्प. २-६, पृ. २३)। १०.
१ मूल से-उद्देश के अनुसार-जो क्रम से प्ररूपणा तच्चत्रशीतिगुणितमेकं पूर्वाङ्गम् । (त. भा. सिद्ध.
की जाती है उसे पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। वृ. ४-१५)। ११. वाससदसहस्साणि चुलसीदिगुणं हवेज्ज पुव्वंग। (जं. दी. प. १३-११) । १२. वरि- पृच्छना-देखो प्रच्छना। १. पुच्छणा सुत्तस्स साणं लक्खेहि चुलसीसंखेहिं होइ पुव्वंग। (प्रव. अत्थस्स वा भवति । (दशव चू. पृ. २८)। सारो, १३८६) । १३. वर्षलक्षं चतूरशीतिरूपगणितं २. संशयच्छेदाय निश्चितबलाधानाय वा परानयोगः पूर्वांगं भवति । (मूला. वृ. १२-६६) । १४. पूर्वाङ्गं पृच्छनम् । आत्मोन्नति-परातिसन्धानोपहास-संघर्षचतुरशीतिवर्षलक्षाणि । (बृहत्सं. मलय. वृ. ३१६)। प्रहसनादिवजित: संशयच्छेदाय निश्चितबलाधानाय १५. चतुरशीतिवर्षलक्षाण्येकं पूर्वाङ्गम् । (ज्योतिष्क. वा ग्रन्थस्यार्थस्य तदुभयस्य वा परं प्रत्यनयोगः मलय. वृ. ६१; जीवाजी. मलय. वृ. २-१७८)। पृच्छनमिति भाष्यते। (त. वा. ६, २५, २) । १६. चतुरशीत्या च वर्षलक्षैः पूर्वाङ्गं भवति । ३. तत्थ प्रागमे अमुणिदत्थपुच्छा वा उवजोगो (षडशी. दे. स्वो. वृ. ६६)। १७. वर्षलक्षाणि (प्रागमे अमुणिदत्थपुच्छा पुच्छणा णाम)। (धव. पु. चतुरशीतिः पूर्वाङ्गमुच्यते । (लोकप्र. २६-४)। ६, पृ. २६२); अणिच्छिदट्ठाणं पण्हवावारो पुच्छणं १ चौरासी लाख वर्ष का एक पूर्वाङ्ग होता है। णाम । (धव. पु. १४, पृ. ६)। ४. संशयच्छेदाय पूर्वातिपूर्वश्रुतज्ञान-बहुषु पूर्वेषु वस्तुषु इदं श्रुत- निश्चितबलाधानाय वा परानुयोगः पृच्छना। (त. ज्ञानं अतीव पूर्व मिति पूर्वातिपूर्व श्रुतज्ञानम् । (घव. श्लो. ६-२५) । ५. आत्मोन्नतिप्रकटनार्थ पराभिपु. १३, पृ. २८६)।
सन्धानार्थमुपहास-संघर्ष-प्रहसनादिवजितः संशयच्छेबहत पूर्व वस्तुओं में यह श्रुतज्ञान अत्यन्त प्राचीन दाय निश्चितबलाधानाय वा ग्रन्थस्यार्थस्य तदुभयस्य है, इसीलिए यह पूर्वातिपूर्व श्रुतज्ञान कहलाता है। परं प्रति पर्यनुयोगः पृच्छना । (चा. सा. पृ. ६७)। यह श्रुत के ४१ पर्याय नामों में से एक है। ६. पृच्छना प्रश्नः अनुयोगः, शास्त्रस्थार्थ जाननपि पूर्वानुज्ञा-इह योऽवग्रहः पुरातनसाधुभिरनुज्ञापितः गुरु पृच्छति । किमर्थम् ? सन्देहविनाशाय । निश्चिसः यत् पाश्चात्यैरेवमेव परिभुज्यते न भूयोऽनुज्ञाप्यते तोऽप्यर्थः किमर्थं पृच्छयते ? बलाधाननिमित्तं ग्रन्थासा पूर्वानुज्ञा । यथा--चिरन्तनसाधुभिर्देवेन्द्रो यद- र्थप्रबलतानिमित्तम्, सा पृच्छना। (त. वृत्ति श्रुत.
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृच्छनीभाषा]
७२४, जैन-लक्षणावली [पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्ल. ९-२५) । ७. मूत्रादौ शङ्कित प्रश्नो गुरूणां पृच्छना तीन से प्रागे और नौ से पूर्व की जो संख्या ४-५ प्रादि मता । (लोकप्र. ३०-६७)।
है वह संख्या पृथक्त्व के अन्तर्गत मानी जाती है। १ सूत्र या अर्थ के विषय में पूछना, इसका नाम पृथक्त्वविक्रिया-पृथक्त्वविक्रिया स्वशरीरादन्यपृच्छना है। ३ प्रागमप्ररूपित अर्थ के अज्ञात त्वेन प्रासाद-मण्डपादिविक्रिया । (त. वा. २, (अनिश्चित) होने पर उसके विषय में जो प्रश्न ४७, ४)। किया जाता है, इसे पृच्छना कहा जाता है। यह अपने अरीर से भिन्न जो भवन एवं मण्डप आदि पागमाधिकारविषयक उपयोग का एक भेद है। रूप विविध क्रिया की जाती है उसका नाम पृच्छनी भाषा--पृच्छनी अविज्ञातस्य सन्दिग्धस्य पृथक्त्वविक्रिया है। कस्यचिदर्थस्य परिज्ञानाय तद्विदः पार्श्वे चोदना। पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्लध्यान-१. दव्वाई (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ११-१६५, पृ. २५६)। अणेयाइं तीहि वि जोगेहिं जेण ज्झायंति । उवसंतअज्ञात अथवा सन्दिग्ध किसी पदार्थ के परिज्ञानार्थ मोहणिज्जा तेण पुधत्तं त्ति तं भणिया । जम्हा सुदं तद्विधयक अज्ञान को दूर करनेवाले किसी विद्वान वितक्कं जम्हा पूव्वगदपत्थकसलो य। ज्झायदि के पास में जिस भाषा में पूछा जाता है वह पृच्छनी भाणं एवं सवितक्कं तेण तं झाणं ॥ अत्थाण वंजभाषा कहलाती है।
णाण य जोगाणं य संकमो हु वीचारो। तस्स य भावेण पृच्छाविधि-द्रव्य-गुण-पर्यय-विधि-निषेधविषय- तयं सुत्ते उत्तं सवीचारं ॥ (भ.पा. १८८०-८२; प्रश्नः पृच्छा, तस्याः क्रमः अक्रमप्रायश्चित्तं च विधी- धव. पु. १३, पृ.७८ उद्.)। २. द्रव्यपरमाणुं भावपरयते अस्मिन्निति पृच्छाविधिः श्रुतम् । अथवा पृष्टो- माणुं वा ध्यायन्नाहितवितर्कसामर्थ्यः अर्थ-व्यञ्जने ऽर्थः पृच्छा, सा विधीयते निरूप्यतेऽस्मिन्निति पृच्छा- काय-वचसी च पृथक्त्वेन संक्रामता मनसाऽपर्याप्तविधिः श्रुतम् । (धव. पु. १३, पृ. २८५)। बालोत्साहवदव्यवस्थितेनानिशितेनापि शस्त्रेण चिराद्रव्य, गुण, पर्याय, विधि और निषेधविषयक प्रश्न तरु छिन्दन्निव मोहप्रकृतीरुपशमयन् क्षपयंश्च पृथका नाम पृच्छा है। उसके क्रम, अक्रम और अक्रम- क्त्ववितर्कवीचारध्यानभाग्भवति । (स. सि. प्रायश्चित्त का जिस श्रुत में विधान किया जाता है ९-४४)। ३. तत्थ पुहत्तवितक्कं सविचारिणामउसे नाम से पृच्छाविधि कहा जाता है। अथवा पृथग्भाबः पृथक्त्वम्, तिहि वि जोगेसु पवत्तइत्ति पूछे गये अर्थ का नाम पृच्छा है, उसका जिस श्रुत वुत्तं भवइ, अहवा पुहुत्तं णाम वित्थारो भण्णइ, सयमें निरूपण किया जाता है उसे पृच्छाविधि समझना णाणोवउत्तो अणेगेहिं परियाएहिं झायइत्ति वत्तं चाहिए।
भवइ, वियक्को सुतं, विचारो णाम अत्थ-वंजणपच्छाबिधिविशेष-विधानं विधिः, पृच्छायाः जोगाण संकमणं, सह विचारेण सविचार, अत्थविधिः पृच्छाविधिः । स विशिष्यतेऽनेनेति पृच्छावि- वंजण-जोगाणं जत्थ संकमण तं सवियारं भण्णइ. तं धिविशेषः । अर्हदाचार्योपाध्याय-साधवोऽनेन प्रकारेण च झायमाणो चोद्दसपुवी सुयनाणोवउत्तो पत्थयो पृष्टव्याः, प्रश्नभङ्गाश्च इयन्त एवेति यतः सिद्धान्ते अत्यंतरं गच्छइ, वंजणानो वंजणंतर, वंजणं निरूप्यन्ते ततस्तस्य पृच्छाविधिविशेष इति संज्ञे- अक्खरं भण्णइ, जोगाउ जोगंतरं, जोगो मण-वयणत्युक्तं भवति । (धव. पु. १३, पृ. २८५)। कायजोगो भण्णइ । भणियं च---सुयनाणे उवउत्तो अरहन्त, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु से इस प्रकार अत्थंमि य वंजणमि सविचारं । झयइ चोदृसपव्वी से प्रश्न करना चाहिए तथा प्रश्न के भंग इतने हैं, पढमं झाणं सरागो उ ॥ अत्थसंकमणं चेव तहा इस प्रकार जिस श्रत में प्रश्न की विधि का विशेष वंजणसंकमं । जोगसंकमणं चेव पढमे झाणे णिगरूप से निरूपण किया जाता है उसे नाम से पृच्छा- च्छइ ।। (दशवै. चू. पृ. ३४-३५)। ४. एकाग्रविधिविशेष कहा जाता है ।
मना उपशान्तराग-द्वेष-मोहो नैपुण्यान्निगृहीतशरीरपृथक्त्व-पुत्तमिति तिण्हं (कोडीणं) उवरि न- क्रियो मन्दोच्छ्वासनिःश्वासः सुनिश्चिताभिनिवेषः वण्ह (कोडीणं) हेदो जा संखा सा घेत्तव्बा।(धव. क्षमावान् बाह्याभ्यन्तरान् द्रव्य-पर्यायान् ध्यायन्नापु. ३, पृ. ८६)।
हितवितर्कसामर्थ्यः अर्थ-व्यञ्जने काय-वचसी च
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्ल.] ७२५, जैन-लक्षणावली [पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्ल. पृथक्त्वेन संक्रामता मनसाऽपर्याप्तबालोत्साहवदव्यव- वट्टइ सह तेण तं खु अणवरयं । तम्हा तस्स वियक्कं स्थितेनानिशितेनापि शस्त्रेण चिरात्तर छिन्दन्निव सवियारं पुण भणिस्सामो । जोएहि तीहि वियर मोहप्रकृतीरुपशमयन क्षपयंश्च पृथक्त्ववितर्कवीचार- अक्खर-अत्थेसु तेण सवियारं। पढमं सक्कझाणं ध्यानभाग् भवति । पुनर्वीर्य विशेषहानेर्योगाद् योगा- अतिक्खपरसोवमं भणियं ।। (भावसं. दे. ६४४ से न्तरं व्यञ्जनाद् व्यञ्जनान्तरमर्थादर्थान्तरमाश्रयन् ६४६) । १२. पृथक्त्वेन वितर्कस्य वीचारो यत्र ध्यानविधूतमोहरजाः ध्यानयोगान्निवर्तते इति । विद्यते । सवितर्क सवीचारं सपृथक्त्वं तदिष्यते ॥ उक्तं पृथक्त्ववितर्कवीचारम् । (त. वा. ६-४४)। (ज्ञानार्णव ४२-१३, पृ. ४३३)। १३. पृथक्त्वम् नाना५. पृथक्त्वं भेदः, वितर्कः श्रुतं द्वादशांगम्, वीचारः त्वम्, वितर्को द्वादशांगश्रुतज्ञानम्, वीचारोऽर्थ-व्यञ्जसंक्रान्तिः अर्थ-व्यञ्जन-योगेषु पृथक्त्वेन भेदेन वित- न-योगसंक्रान्तिः, व्यञ्जनमभिधानम्, तद्विषयोऽर्थः,
स्य श्रुतस्य वीचारः संक्रान्तिः यस्मिन् ध्याने तत् मनोवाक्कायलक्षणो योगः, अन्ये न्योऽन्यतः परिपृथक्त्ववितर्कवीचारम् । (धव. पु. १३, पृ. ७७)। वर्तनं संक्रान्तिः, पृथक्त्वेन वितर्कस्यार्थ-व्यञ्जन-योगेषु ६. पृथक्त्वेन भेदेन वितर्कस्य श्रुतस्य द्वादशाङ्गादे- संक्रान्तिवी [:] चारो यस्मिन्नस्तीति तत्पृथक्त्वविर्वीचारो ऽर्थ-व्यञ्जन-योगेषु सङक्रान्तियस्मिन् ध्याने तर्कवीचारं प्रथमं शुक्लम् । (चा. सा. प.)। तत् पृथक्त्ववितर्कवीचारं ध्यानम् । (जयध. १, १४. द्रव्य-गुण-पर्यायाणां भिन्नत्वं पृथक्त्वं भण्यते, पृ. ३४४) । ७. द्रव्याद् द्रव्यान्तरं याति पर्याय स्वशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं भावश्रुतं तद्वाचकमचान्यपर्ययात् । व्यञ्जनाद् व्यञ्जनं योगाद्योगान्तर- न्तर्जल्पवचनं वा वितर्को भण्यते, अनीहितवृत्त्यार्थामुपैति यत् ॥ शुक्लं तत् प्रथमं शुक्लतरलेश्याबला- न्तरपरिणमनं वीचारो भण्यते । अत्रायमर्थः यद्यपिश्रयम् । (ह. पु. ५६, ६२-६३)। ८. पृथक्त्वेन ध्याता पुरुषः स्वशुद्धात्मसंवेदनं विहाय बहिश्चिन्तां वितर्कस्य वीचारो यत्र तद्विदुः । सवितर्क सवीचार न करोति तथापि यावतांशेन स्वरूपे स्थिरत्वं नास्ति पृथक्त्वादिपदाह्वयम् ॥ पृथक्त्वं विद्धि नानात्वं तावतांशेनानीहितवृत्त्या विकल्पाः स्फरन्ति, तेन वितर्कः श्रुतमुच्यते । अर्थ-व्यञ्जन-योगानां वीचारः कारणेन पृथक्त्ववितर्कवीचारं ध्यानं भण्यते । (ब. संक्रमो मतः ॥ अर्थादर्थान्तरं गच्छन् व्यञ्जनाद् द्रव्यसं. टी. ४८, पृ. १७८) । १५. पृथक्त्वेन एकव्यञ्जनान्तरम् । योगाद् योगान्तरं गच्छन ध्याय- द्रव्याश्रितानामुत्पादादिपर्यायाणां भेदेन, वितर्को तीदं वशी मुनिः ॥ त्रियोगः पूर्वविद् यस्माद् ध्याय- विकल्पः पूवगतश्रुतालम्बनो नानानयानुसरणलक्षणो त्येनन्मुनीश्वरः । सवितर्क सवीचारमतः स्याच्छु- यत्र तत् पृथक्त्ववितर्कम्, तथा विचारः अर्थाद क्लमादिमम ।। (म.प.२१, १७० व १७२-७४)। व्यञ्जने व्यञ्जनादर्थे मनःप्रभृतियोगानां चायस्माद६. कृतगुप्त्याद्यनुष्ठानो यतिर्वीर्यातिशायनः । अर्थ- न्यतरस्मिन् विचरणम्, सह विचारेण यत् तत् सविव्यञ्जन-योगेषु संक्रान्तौ पृथगुद्यतः ॥ तदोपशमना- चारि । (प्रौपपा. अभय. व. पृ. ४४)। १६. एकन्मोहप्रकृतीः क्षपयन्नपि । यथापरिचयं ध्यायेत क्व- त्र पर्यायाणां विविधनयानुसरणं श्रतद्रव्ये । अर्थचिद्वस्तूनि सक्रियः ।। सवितर्क सवीचारं पृथक्त्वेना- व्यञ्जन-योगान्तरेषु संक्रमणयुक्तमाद्यं तत ॥ दिमं मुनिः । ध्यानं प्रक्रमते ध्यातुं पूर्वदेही निराकुलः। (योगशा ११-६)। १७. द्रव्याण्यनेकभेदभिन्नानि (त. इलो. ६,४४,३-५)। १०. द्रव्याण्यनेकभे- त्रिभिर्योगैर्यतो ध्यायति ततः पृथक्त्वमित्युच्यते । दानि योगायति यत् त्रिमिः । शान्तमोहस्ततो वितर्कः श्रुतम्, यस्माद्वितर्केण श्रुतेन सह वर्तते ह्येतत् पृथक्त्वमिति कीर्तितम् ॥ श्रुतं यतो वितर्कः यस्माच्च नव-दश-चतुर्दशपूर्वधरैरारभ्यते तस्मात् स्याद्यतः पूर्वार्थशिक्षितः । पृथक्त्वं ध्यायति ध्यानं सवितर्क तत् । विचारोऽर्थ-
व्यञ्जन-योगसंक्रमणः । सवितर्क ततो हि तत । अर्थ-व्यजन-योगानां वीचारःXxx अस्य त्रिप्रकारस्य (पृथकत्व-वितर्कसंक्रमो मतः । वीचारस्य हि सद्भावात् सवीचारमिदं विचाररूपस्य) ध्यानस्योपशान्तकषायः स्वामी । भवेत् ॥ (त. सा. ७, ४५-४७) । ११. पज्जायं च (मूला. वृ. ५-२०७)। १८. आद्यं शुक्लमनेकधा गुणं वा जम्हा दव्वाण मुणइ भेएण। तम्हा पुहुत्त- स्वविषये वृत्त्या पृथक्त्वेन यत्, सर्वद्रव्यगतश्रतस्य णामं भणियं झाणं मुणिदेहि ॥ भणियं सुयं वियक्कं परमस्यास्मिन् वितर्कस्य यः। संचारोऽर्थ-वचस्त्रियोग.
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्ल.]
गहने वीचार एषो भवेत्, ध्यानं सार्थकनामधाम तदिदं स्यादिष्टसंपत्प्रदम् ।। ( श्राचा. सा. १०-४८ ) । १६. द्रव्यात् पर्यायार्थे पर्यायाच्च द्रव्यार्थे संक्रमणं अर्थसंक्रान्तिः कुतश्चिच्छू तवचनाच्छब्दान्तरे संक्रमणं व्यञ्जनसंक्रान्तिः, कायवर्गणाजनितकायपरिस्पन्दाद्योगान्तरे स्ववर्गणाजनितपरिस्पन्दाख्याद्योगान्तरात् काययोगे संक्रमणं योगसंक्रान्तिः सविचार इत्याख्यायते, विविधचरणस्य विचारत्वात् । तदनेन प्रथमशुक्लध्यानं पृथक्त्ववितर्क मुक्तं मबति । दव्य पर्याययोः पृथक्त्वेन भेदेन वितर्को विचारश्चास्मिन्निति व्याख्यानात् सविचारं तदिति संप्रतिपत्तेः । XX X तत्र ध्याता तत्त्वार्थज्ञः कृतगुप्त्यादिपरिकर्माऽऽविर्भूतवितर्कसामर्थ्यः पृथक्त्वेनार्थ - व्यञ्जन - योग संक्रमणात् संयतमना मोहप्रकृतीरुपशमयन् क्षपयन् वा ध्येये द्रव्यपरमाणौ। भावपरमाणौ वा पृथक्त्ववितर्क विचारं ध्यानमारभते (त. सुखबो. वृ. ६-४४ ) । २०. गुप्त्यादिषु कृतपरिकर्मा विहिताभ्यासः सन् परद्रव्यपरमाणुं द्रव्यस्य सूक्ष्मत्वं भावपरमाणुं पर्यायस्य सूक्ष्मत्वं वा ध्यायन् सन् समारोपितवितर्क सामर्थ्यः सन्नर्थ-व्यञ्जने काय - वचसी च पृथक्त्वेन संक्रमता मनसा श्रसमर्थ शिशूद्यमवत् प्रौढाभकवदव्यवस्थितेन प्रतीक्ष्णेन कुठारादिना शस्त्रेण चिराद् वृक्षं छिन्दन्निव मोहप्रकृतीरुपशमयन् क्षपयंश्च मुनिः पृथक्त्ववितर्कवीचारध्यानं भजते । (त. वृत्ति श्रुत. ६-४४ ) । २१. उत्पादादिपर्यायाणामेकद्रव्यविवर्तिनाम् । विस्तारेण पृथग्भेदैवितर्को यद्विकल्पनम् ।। नानानयानुसरणात्मकात्पूर्वगतश्रुतात् । तत्र ध्याने तत्पृथक्त्ववितर्कमिति वर्णितम् ॥ ग्रत्र च व्यञ्जनादर्थे तथार्थाद् व्यञ्जनेऽसकृत् । विचारोऽस्ति विचरणं सविचारं तदीरितम् ॥ मनःप्रभृतियोगानामेकस्मादपरत्र च । विचारोऽस्ति विचरणं सविचारं ततोऽप्यदः । एवं च यत् पृथक्त्ववितर्कायं सविचारं भवेदिह । तत् स्यादुभयधर्माढ्यं शुक्लध्यानं किलादिमम् ॥ ( लोकप्र. ३०, ४८०-८४, पृ. ४४२)।
१ पृथक्त्व वितर्क - वीचार शुक्लध्यान का ध्याता उपशान्तमोह – ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती संयत — अनेक द्रव्यों का तीनों ही योगों के श्राश्रय से ध्यान करता है । इसीलिए इस ध्यान का उल्लेख पृथक्त्व शब्द के द्वारा किया जाता है। वह चूंकि पूर्वगत श्रुत के शर्थ में कुशल - पूर्वो का ज्ञाता श्रुतकेवली — होता
[ पृथिवी
है, इसलिए श्रुत का बोधक होने से उस ध्यान को सवितर्क शब्द से कहा जाता है । तथा वह ध्यान अर्थ, व्यञ्जन और योगों के परस्पर परिवर्तनरूप वीचार से सहित होता है, इसी से उसे सविचार भी कहा गया है । ३ तीनों योगों में प्रवृत्त होना, इसका नाम पृथक्त्व है, अथवा पृथक्त्व नाम विस्तार का जानना चाहिए, इस ध्यान का ध्याता श्रुतज्ञान में उपयुक्त होता हुआ अनेक पर्यायों के श्राश्रय से ध्यान करता है; यह पृथक्त्व का अभिप्राय समझना चाहिए । वितर्क का अर्थ श्रुत और वीचार का अर्थ है अर्थ, व्यञ्जन ( श्रुतवाक्य) एवं योगों का संक्रमण । इसका ध्याता श्रुतज्ञान में उपयुक्त चतुर्दशपूर्ववित् होता इससे उसे सवितर्क कहा गया है । वह एक अर्थ से दूसरे अर्थ को, एक व्यञ्जन से दूसरे व्यञ्जन को, तथा एक योग से दूसरे योग को प्राप्त होता है; इसीलिए उसे अर्थ, व्यञ्जन योगों के संक्रमणरूप वीचार से सहित होने के कारण सविवार कहा गया है। इस प्रकार से उक्त ध्यान पृथक्त्व वितर्क - सविचारी कहलाता है। पृथग्विमात्रा- पृथग्विमात्रा हास्येन प्रारब्धाः प्रद्वेषेण निष्ठाङ्गता । ( जीतक. चू. वि. व्या. ५-२१, पृ. ३६) ।
जो उपसर्ग हास्य से प्रारब्ध होकर द्वेष से समाप्त होते हैं वे पृथग्विमात्रा कहलाते हैं । पृथिवी - १. पुढवी चित्त मंतमखाया ग्रणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्यपरिणएणं । ( दशवै. सू. ४- १, पृ. १३६ ) । २. तत्र प्रचेतना वैश्रसिकपरिणामनिर्वृत्ता काठिन्य (त. वा. 'काठिन्यादि'-) गुणात्मिका पृथिवी । ( स. सि. २- १३; त. वा. २, १३, १) । ३. पृथिवी काठिन्यादिलक्षणा प्रतीता । ( दशवं. सू. हरि. वृ. ४- १, पृ. १३८ ) । ४. तत्राध्वादिस्थिता धूलिः पृथिवी । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १३ ) ।
१ अपना अपना पृथक् अस्तित्व रखने वाले अनेक जीवों से युक्त पृथिवी चित्तवती — चेतना से युक्त ( सजीव ), अथवा चित्तमात्रा — श्रल्पचेतना वाली - कही गई है । विशेष इतना जानना चाहिए कि शस्त्रपरिणत पृथिवी चित्तवती ( सजीव) नहीं है । शस्त्र द्रव्यशस्त्र आदि (जैसे-शस्त्र, अग्नि, विष, क्षार और नमक आदि ) के भेदसे अनेक प्रकार का है । २ स्वाभाविक परिणाम से निर्मित जो
७२६, जैन-लक्षणावली
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृथिवीकाय ]
श्रचेतन और कठिन भूमि है वह पृथिवी कहलाती है। पृथिवीकाय - १. कायः शरीरम्, पृथिवीकाय जीवपरित्यक्तः पृथिवीकाय: । ( स. सि. २ – १३; त. वा. २ -१३) । २. इष्टकादिः पृथिवीकायः, पृथिवीकायिकजीवपरिहृतत्वात् इष्टकादिः पृथिवीकायः कथ्यते मृतमनुष्यादिकायवत् । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १३ ) ।
१ काय का अर्थ शरीर है, पृथिवीकायिक जीव के द्वारा जो शरीर छोड़ा जा चुका है उसे पृथिवीकाय कहा जाता है । पृथिवीकायिक- १. कायाणुवादेण पुढविकाइयो णाम कवं भवदि ? पुढविकाइयणामाए उदएण । ( षट्खं. २, ९, १८-१६-धव. पु. ७, पृ. ७० ) । २. पृथिवी कायोऽस्यास्तीति पृथिवीकायिकः । ( स. सि. २- १३; त. वा. २ - १३ ) । ३. सैव (पृथिवी एव) कायः शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः, पृथिवी काया एव पृथिवीकायिकाः । स्वार्थिकष्ठक् । (दशवै सू. हरि वृ. ४- १, पृ. १३८ ) । ४. पुढविकाइयणामकम्मोदयवंतो जीवा पुढविकाइया त्ति वुच्चति । ( धव. पु. ३, पृ. ३३० ) । ५. पृथिवी कायो विद्य यस्य स पृथिवीकायिकः । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १३ ) । १ जो जीव पृथिवीकायिक नामकर्म के उदय से युक्त होते हुए पृथिवी को शरीररूप से ग्रहण किये हुए हैं वे पृथिवीकायिक कहलाते हैं । पृथिवीजीव १. समवाप्तपृथिवीनामकर्मोदयः Sarfaraथ यो न तावत् पृथिवीं कायत्वेन गृह्णाति सः पृथिवीजीवः । ( स. सि. २ - १३ ; त. वा. २ -१३) । २. पृथिवीं कायत्वेन यो गृहीष्यति प्राप्त पृथिवीनामकर्मोदयः कार्मणकाययोगस्थः स पृथिवीजीव: । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १३ ) ।
१ जो जीव पृथिवीकाय नामकर्म के उदय से युक्त होकर कार्मण काययोग में स्थित होता हुआ - विग्रह - गति में वर्तमान होता हुआ - पृथिवी को शरीररूप से ग्रहण नहीं करता है— श्रागे ग्रहण करने वाला है -- उसे पृथिवीजीव कहते हैं । पृथिवीमण्डल - देखो भौममण्डल | क्षितिबीजसमाक्रान्तं द्रुतमसमप्रभम् । स्याद्वज्चलाञ्छनोपेतं चतुरस्रं धरापुरम् ॥ ( ज्ञानार्णव २६-१६, पृ. २८८ ) । जो पृथिवी बीजाक्षर से युक्त होकर पिघले ( सन्तप्त)
७२७, जैन-लक्षणावली
[पेटा
सुवर्ण के समान कान्तिवाखा, वज्रचिह्न से संयुक्त और आकार में चौकोण होता है वह धरापुर या पृथिवीमण्डल कहलाता । पृथिवीराजिसदृश क्रोध - देखो भूमिराजिसदृश
क्रोध ।
पृथ्वी–देखो पृथिवी । वर्णाश्रमवती धान्य हिरण्यपशु-कुप्य वृष्टिप्रदानफला च पृथ्वी । ( नीतिवा. ५-५) ।
जो ब्राह्मणादि वर्णों एवं ब्रह्मचारी आदि श्राश्रमों से युक्त होती हुई धान्य (अन्न), हिरण्य ( सुवर्ण श्रादि), पशु और कुप्य- सुवर्ण-चांदी भिन्न; इनका वर्षण करती हैं— उन्हें प्रदान करती हैवह पृथ्वी कहलाती है । इसका पालन राजा किया
करता '
पृथ्वीतत्त्व - प्रविरलमरीचिमञ्जरीपुञ्जपिञ्जरितभासुरतरशिरोमणिमण्डली सहस्रमण्डित विकटतरफूत्कारमारुतपरम्परोत्पातप्रेङ्खोलितकुलाचलसम्मिलितशिखि शिखा सन्तापद्रवत्काञ्चनकान्तिकपिश निजकायकान्तिच्छटापटल टिलितदिग्वलयक्षत्रिय भुजंगपुंगव - द्वितयपरिक्षिप्त क्षितिबीज विसृष्टप्रकटपविपञ्जरपिनसवनगिरिचतुरस्र मेदिनीमण्डलावलम्बनगजपतिपृष्ठप्रतिष्ठित परिकलितकुलिशकरशचीप्रमुख विलासिनीशृंगारदर्शनोल्लसितलोचनसहस्रश्रीत्रिदशपतिमुद्रालंकृतसमस्तभुवनावलम्बिसुनासीरपरिकलितजानुद्वय इति पृथ्वीतत्त्वम् । (ज्ञानार्णव २१ - १०, पृ. २२३) । देखो पृथिवीमण्डल |
पृष्ठतः अन्तगत अवधि - येनावधिना पृष्ठत एव संख्येयान्यसंख्येयानि वा योजनानि पश्यति स पृष्ठतोऽन्तगतः । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१७, पृ. ५३७) । जिस अवधिज्ञान के द्वारा पीछे की ओर ही संख्यात या प्रसंख्यात योजन पर अवस्थित पदार्थों को देखता है उसे पृष्ठतः श्रन्तगत अवधि कहते हैं । पेटा - १. अत्र च सम्प्रदाय : – पेडा पेडिका इव चउकोणा । (उत्तरा. ने. वृ. ३० - १९ ) । २. यस्यां तु साधुः क्षेत्रं पेटावत् चतुरस्रं विभज्य मध्यवर्तीनि च गृहाणि मुक्त्वा चतसृष्वपि दिक्षु समश्रेण्या भिक्षामति सा पेटा । (बृहत्क. क्षे. वृ. १६४९ ) । २ जिस गोचर भूमि में साधु पेटा (पेटी) के समान गोचरक्षेत्र को चौकोण श्राकार में विभाजित करके मध्यवर्ती गृहों को छोड़कर चारों ही दिशाओं में
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
पेलविया ७२८, जैन-लक्षणावली
[पोत्तकर्म समश्रेणी से अवस्थित घरों में भिक्षा के लिए परि- नाम पैशून्य है। २ गुप्तरूप से किसी के विद्यमान भ्रमण करता है उसे पेटा गोचरभूमि कहते हैं। या अविद्यमान दोषों के प्रगट करुने को पिशुनकर्म यह पाठ गोचरभूमियों में पांचवीं है।
या पैशून्य कहा जाता है। पेलविय---देखो पेटा। १. पेलविगं वंशदलादिभि- पोत--१. किञ्चित्परिवरणमन्तरेण परिपूर्णावयवो निष्पादितं वस्त्र-सुवर्णादिनिक्षेपणार्थ पिधानसहितं योनिनिर्गतमात्र एव परिस्पन्दादिसामोपेतः पोतः । यत्तद्वच्चतुरस्राकारं भ्रमणम् । (भ. प्रा. विजयो. (स. सि. २-३३; गो. जी. जी. प्र. ८४) । २१८) । २. पेलवियं पेट्टावच्चतुरस्रं भ्रमणम् । (भ. २. सम्पूर्णाधयवः परिस्पन्दादिसामोपलक्षितः प्रा. मूला. २१८)।
पोतः । किञ्चित्परिवरणमन्तरेण परिपूर्णावयवो १ वस्त्र व सुवर्णादि के रखने के लिए बांस की योनिनिर्गतमात्र एव परिस्पन्दादिसामोपेत: पोत कमचियों या बेत आदि से निमित और ढक्कन इत्युच्यते । (त. वा. २, ३३, ३)। ३. पूर्णावयवः सहित पेटी के समान चारों ओर गोचरी (भिक्षा) परिस्पन्दादिसामोपलक्षितः पोतः। (त. श्लो. २, के लिए भ्रमण करना, यह पेलविय या पेलविक ३३)। ४. अण्डज-जरायुजवजिताः संजातमात्रव्यगोचरी कहलाती है। इत्यादि प्रकार का नियम क्तांगोपेताः पोताः । (गो. जी. म. प्र. ८४)। ५. यद् वत्तिपरिसंख्यान तप में किया जाता है।
योनिनिर्गतमात्र एव परिस्पन्दादिसामोपेतः परिपैशाचविवाह-१. सुप्त-प्रमत्तकन्यादानात् पैशाचः ।
पूर्णप्रतीकः प्रावरणहितः स पोतः इत्युच्यते । (त. (नीतिवा. ३१-११; ध. बि. म. व. २-१२) वृत्ति श्रुत. २-३३)। २. सुप्त-प्रमत्तकन्याग्रहणात् पैशाचः। (योगशा. १ जो बिना किसी प्रकार के प्रावरण के ही परिस्वो. विव.१-४७, श्राद्धगु.३, प.१४; धर्मसं.
.
पूण
पूर्ण शरीरावयवों से युक्त होता हा योनि से मान. स्वो. टी. १, पृ. ५)।
निकलते ही-जन्म लेते ही-चलने-फिरने मादिसोई हुई या प्रमादयुक्त (असावधान या पागल) कन्या
रूप क्रिया में समर्थ होता है, उसे पोत कहते हैं। के ग्रहण करने को पैशाचविवाह कहा जाता है। पोतायिक-मार्जारादिगर्भविशेषः पोतः, तत्र कर्मपैशून्य-१. पृष्ठतो दोषाविष्करणं पेशन्यम् । (त. विशेषादुत्पत्त्यर्थमाय आगमनं पोतायः । पोतायो विवा. १, २०, १२, पृ. ७५) । २. पैशन्यं पिशनकर्म द्यते येषां ते पोतायिकाः । xxx श्व-मार्जारप्रच्छन्नं सदसद्दोषाविर्भावनम् । (स्थाना. अभय. व.
सिंह-व्याघ्र-चित्रकादयोऽनावरणजन्मानः । (त. वृत्ति १-४८) । ३. पैशुन्यं प्रच्छन्नं सहोषाविष्करणम । श्रुत. २-१०)। (प्रोपपा. अभय. वृ. ३४, पृ. ७६)। ४. पैशन्यं पोत का अर्थ गर्भ और प्राय का अर्थ है प्रागमन, परस्यादोषस्य वा सदोषस्य बा दोषोदभावनं पृष्ठ- इस प्रकार जो उत्पत्ति के लिए गर्भ में आते हैं वे मांसभक्षित्वम् । (मूला. वृ. ११-६) । ५. पैशन्यम पोतायिक कहलाते हैं। अङ्गविकार-भ्रूविक्षेपादिभिः पराभिप्रायं ज्ञात्वा असू- पोत्तकर्म-पोत्तं वस्त्रम्, तेण कदाप्रो पडिमानो यादिना तत्प्रकटनम्, साकारमंत्रभेद इत्यर्थः । (रत्न- पोत्तकम्मं । (धव. पु. ६, पृ. २४६); हय-हत्थि-णरक. टी. ३-१०)। ६. कर्णजपमुख विनिर्गतं नृपति- णारि-वय-वग्धादिपडिमानो वत्थविसेसेसु उद्दामो कर्णाभ्यर्णमति चैकपुरुषस्य एककुटुम्बस्य एकग्रामस्य पोत्तकम्माणि णाम। (धव. पु. १३, पृ. ६); विविवा महद्विषत्कारणं वचः पैशून्यम् । (नि. सा. वृ. हवत्थेसु कयपडिमानो पोत्तकम्माणि णाम । (धव. ६२)। ७. पैशुन्यं परोक्षे सतोऽसतो वा दोषस्योद- पु. १३, पृ. २०२); वत्थेसु पाण-सालिय-कोसद्दाघाटनम् । (प्रज्ञाप. मलय. व. २८०, पृ. ४३८)। दीहिं जाणि वणणकिरियाए णिप्पाइदाणि रूवाणि ८. पितृदो दोससूयणं पेसुण्णवाया। (अंगप. २-७८)। छिपएहि वा कदाणि पोत्तकम्माणि णाम । (धव. पु.
६. पैशून्यं प्रच्छन्नं परदोषप्रकटनम् । (कल्पसू. विन. १४, पृ. ५)। . वृ. ११८, पृ. १७४) ।
पोत्त का अर्थ वस्त्र है, उसके ऊपर जो घोड़ा व . १ पीछे किसी के दोषों को प्रकट करना, दसका हाथी प्रादि की प्रतिमानों की रचना की जाती है
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
पोषधव्रत ]
उन्हें चित्रित किया जाता है, इसका नाम पोसकर्म है ।
पोषधव्रत-देखो पौषधोपवास । पोषधोपवास- देखो पौषधोपवास |
पौनरुक्त्य - - शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पौनरुक्त्यमन्यत्रानुवादात् श्रर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं च । ( आव. नि. हरि. वृ. ८८१ ) ।
अनुवाद को छोड़कर पहले कहे हुए शब्द या अर्थ के पुनः कथन करने को पौनरुक्त्थ दोष कहते हैं तथा अभिप्रायसे हो प्रतीत होने वाले तत्त्व को अपने शब्दों के द्वारा पुनः कहने को भी पौनरुक्त्य कहा जाता है । यह शब्दपुनरुक्त और प्रबंपुनरुक्त के भेद से दो प्रकार का है ।
पौरुष - पौरुषं पुनरिह चेष्टितं दृष्टम् । ८८) ।
७२६, मैन-लक्षणावली
[पौषधोपवास
३ जिस प्रतिमा का धारक अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा श्रौर अमावस्या इन पर्वतिथियों में चार प्रकार के आहार का परित्याग करता हुआ शरीरसंस्कार,
ब्रह्मचर्य और अन्य खोटे व्यापार को छोड़ देता है वह पौषधप्रतिमा कहलाती है। श्रावक की १२ प्रतिमाओं में यह चौथी है। पौषधोपवास- १ पौषधोपवासो नाम पौषधे उपवासः । पौषधः पर्वेत्यनर्थान्तरम् । सोऽष्टमीं चतुर्दशीं पञ्चदशीमन्यतमां वा तिथिमभिगृह्य चतुर्थाद्युपवासिना व्यपगतस्नानानुलेपन-गन्ध-माल्यालंकारेण न्यस्तसर्वसावद्ययोगेन कुशसंस्तार- फलकादीनामन्यतमं संस्तारमास्तीयं स्थानं वीरासन - निषद्यानां वान्यतममास्थाय धर्मजागरिकापरेणानुष्ठेयो भवति । (त. भा. ७-१६ ) । २. इह पौषधशब्दो रूढघा पर्वसु वर्तते, पर्वाणि चाष्टम्यादितिथयः, पुरणात् पर्व,
अष्टश.
पुरुष की चेष्टा या प्रयत्न को पौरुष कहा जाता है । धर्मोपचय हेतुत्वादित्यर्थः, पोषधे उपदसनं पौषघोषइसका दूसरा नाम बुष्ट भी है । बास: नियमविशेषाभिधानं चेदं पौषधोपवास इति । पौर्णमासी - पूर्णो मासो यस्यां सा पौर्णमासी, अन्ये ( आज. हरि. बृ. ६, पृ. ८३५) । ३. पोषधः अष्टतु व्याचक्षते पूर्णो माः - चन्द्रमा प्रस्यामिति पौर्ण- म्यादिपर्वदिनम्, तत्रोपबसनमाहार- शरीरसंस्कारादिमासी । ( जीवाजी. मलय. वृ. ३, २, १५६, पृ. त्यागः पौषधोपवासः । ( समया. अभय बृ. ४२ ) । ३०५) । ४. पौषधोपवास: अष्टम्यादिपर्व दिनेषूपवसनम्, आहारादित्याग इत्यर्थः । (श्रीपपा. प्रभय. वृ. ४०, पृ. १०१ ) । ५. पोषं वत्ते पोषधः भ्रष्टमी - चतुर्दश्यादिः पर्वदिवसः, उपेति - सह उपावृत्तदोषस्य सतो गुणैराहारपरिहारादिरूपैर्वासः उपवासः, यथोक्तम्उपावृत्तस्य दोषेभ्यः सम्यग्वासो गुणैः सह । उपवासः स विज्ञेयो न शरीरविशोषणम् ।। ततः पौषधेषूपवासः पौषधोपवासः । (ध. बि. सु. बृ. ३-१८, पृ. ३५) । ६. चतुष्पव्र्व्यां चतुर्थादिः कुव्यापारनिषेधनम् । ब्रह्मचर्य क्रियास्नानादित्यागः पोषघव्रतम् ॥ ( योगशा. ३- ८५, पृ. ५११; त्रि. श. पु. ख. १, ३, ६४१ ) ; पोषं पुष्टिम्, प्रक्रमाद्धर्मस्य, धसे पोषधः, स एब व्रतं पोषधव्रतम् । (योगशा. स्वो विव. ३-८५) । ७. पोषं धर्मपोषं दधाति करोतीति पोषधमष्टम्यादिपर्व, तस्मिन्नुपवासः पोषघोपवास: । (प्रज्ञाप. मलय. बू. २५८, पृ. ३६६ ) ।
जिस तिथि में मास पूर्ण होता है उसे पौर्णमासी कहते हैं। दूसरे प्राचार्य 'मास' का अर्थ चन्द्र ग्रहण करके यह कहते हैं कि जिस तिथि में चन्द्रमा पूर्णता को प्राप्त होता है उसका नाम पोर्णमासी है । पौषधप्रतिमा( - १. सा च मासचतुष्टयं यावदष्टमीचतुर्दश्योः चतुविधाहारप्रत्याख्यान रतस्य चतुर्विधपौषधकृतो भवति । द्रव्यादिभेदतः द्विमासादिकालमानेन यथास्वं चीर्यते । अथ नन्दिव्रतनियमादिविधिः, स एव दण्डकस्तदभिलापेन इति पौषघप्रतिमा चतुर्थी । (प्रा. दि. पू. ५२ ) । २. अट्ठमीमाइपव्वेसु सम्म पोसहपालणं । सेसाणुट्ठाणजुत्तस्स उत्थी पडिमा इय ॥ ( गु. गु. षट्. स्वो बृ. १५ उच्.) । ३. पौषधं चाष्टमी - चतुर्दश्यादिपर्व दिनानुष्ठेयोऽमुष्ठानविशेषः, प्रतिमा व कायोत्सर्गः । × × × यस्यां चतुर्दश्यष्टम्यादिषु दिवसेषु चतुर्दश्य ष्टम्यमावस्या पौर्णमासोषु पर्व तिथिषु च चतुर्विधमप्याहार - शरीर-संस्काराब्रह्मचर्याव्यापारपरिवर्जनरूपं पौषधं परिपूर्णम् XX X अनुपालयत्येव श्रासेवते । ( सम्बोधस.वृ. ६१, पृ. ४५-४६ ) ।
१ पौष का अर्थ पर्व है, पर्व में जो उपवास किया जाता है वह पौषषोपवास कहलाता है। अष्टमी, चतुवंशी और पंचदशी ये पर्व कहलाते हैं। इनमें व इनके अतिरिक्त अन्यतम प्रतिपदा आदि — तिथियों में
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
पौषधोपवास] ७३०, जैन-लक्षणावली
[पोष्णकाल भी वह किया जा प्रकता है, पर पर्वतिथियों में उसे हैं । उक्त पर्व दिनों में उपवास करना, इसे पोषधोअवश्य करना चाहिए। उपवास के समय सावद्य- पवास या पौषधोपवास कहा जाता है। कर्म के साथ स्नान प्रादि रूप संस्कार आदि का
पौष्णकाल-जन्म-ऋक्षगते चन्द्रे समसप्तगते रवी। परित्याग करना चाहिए, तथा कांस अथवा पटियों प्रादि को बिछा कर कायोत्सर्ग से प्रथवा वीरासन
पौष्णनामा भवेत्कालो मृत्युनिर्णयकारणम् । (योगआदि से स्थित होकर धर्मजागरण करना चाहिए।
शा. ५-८७)। २. पौषध शब्द पर्व के अर्थ में रूह है, अष्टमी आदि जन्मनक्षत्र में चन्द्रमा के प्राप्त होने पर तथा सूर्य (चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावश्या) तिथियों को के सम सातवें में प्राप्त होने पर पौष्ण नामक काल पर्व माना जाता है, क्योंकि वे धर्मोपचय के कारण होता है, यह मत्यु का निश्चायक है।
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
लक्षणावली में उपयुक्त ग्रन्थों की अनुक्रमणिका
संख्या
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
अध्यात्मक.
अध्यात्मकमलमार्तण्ड
कवि राजमल्ल
वीर-सेवा-मन्दिर सरसावा
अध्यात्मत. | अध्यात्मतरंगिणी
सोमदेव
अहिंसामन्दिर, दिल्ली
ई. १९४४ | ई. १९६० | ई. १६५७
अध्यात्मर.
वीर-सेवा-मन्दिर दिल्ली
अध्यात्मरहस्य (योगो- | पं. आशाधर द्दीपन शास्त्र)
| अध्यात्मसा.
अध्यात्मसार
| उ. यशोविजय
जैनधर्म प्रसारक सभा
भावनगर
वि. १९६५
५ अध्यात्मोप. अध्यात्मोपनिषद्
(योगशास्त्र) | अन. ध. | अनगारधर्मामृत
हेमचन्द्र सूरि पं. आशाधर
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला
समिति, बम्बई
ई. १९१६
| हरिभद्रसरि...,
आर्यरक्षित स्थविर | प्रागमोदय समिति वम्बई | ई. १६२४
७ अन. ध. स्वो.| अनगारधर्मामृत टीका
| टी. ८ अनादिवि. अनादिविशिका
(विशिका) | अनुयो. अनुयोगद्वार सूत्र १० अनुयो. मल. / अनुयोगद्वार टीका
| हेम. वृ. ११ अनुयो. चू. | अनुयोगद्वार चूणि
मलधारगच्छीय
हेमचन्द्र
जिनदास गणिमहत्तर | ऋषभदेवजी केसरीमलजी । ई. १९२८
श्वे. संस्था रतलाम
| हरिभद्र सूरि
१२ अनुयो. हरि. | अनुयोगद्वार टीका १३ अने. ज. प. अनेकान्तजयपताका
।
व
सेठ भगुभाई तनुज मनसुख
भाई अहमदाबाद
अमित. श्रा.| अमितगति श्रावकाचार | प्राचार्य अमितगति | दि. जैन पुस्तकालय, सूरत
(भागचन्द्रकृत टीका सहित)
बी. नि. २८८४ वि. २०१५
अष्टक.
अष्टकानि
हरिभद्र सूरि
वि. सं. १९६४
जैनधर्म प्रसारक सभा, . भावनगर श्री जैन श्वेताम्बर समस्त
संघ, रतलाम
अभि . रा.
अभिधान राजेन्द्रकोष |श्री विजय राजेन्द्र
(सात भाग) सूरीश्वर
ई. १९१३-३४
१७ | अष्टश.
अष्टशती
भट्टाकलंकदेव
| भा. जैन सिद्धान्त प्र. संस्था | ई. १९१४
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन-लक्षणावली
संख्या| संकेत
|
ग्रन्थ नाम ।
अन्धकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
अष्टस.
अष्टसहस्री
प्रा. विद्यानन्द
निर्णय सागर प्रेस, बम्बई | ई. १९१५
अष्टस. वृ. अष्टसहस्री तात्पर्य विवरण उ. यशोविजय
जैन ग्रन्थ प्रकाशन सभा ई.१६३७
राजनगर मा. दि. जैन ग्रंथमाला, बम्बई | वि.सं. १९७६
अंगप.
अंगपण्णत्ति
शुभचन्द्राचार्य
प्राचारदि. प्राचारदिनकर
वर्धमान सूरि
वीरनन्दी सैद्धान्तिकचक्र-मा.दि. जैन ग्रंथमाला, बम्बई वि. १६७४
प्राचा. सा.,याचारसार आ. सा.
बर्ती
२३ | प्राचारा.सू. आचाराङ्गसूत्र (प्रथम ब
सिद्धचक साहित्य प्रचारक | वि. सं. १६३५ द्वितीय श्रुतस्कन्ध)
समिति, मुम्बई २४ प्राचारा. नि. | आचाराङ्गनियुक्ति | भद्रबाहु प्राचार्य (द्वि.) २५ प्राचारा. शी. आचारांग वृत्ति शीलांकाचार्य २६ | प्राचार्यभ. | प्राचार्यभक्ति (क्रियाक.)| प्रा. पूज्यपाद संपा. पं. पन्नालाल जी सोनी वि. सं. १९९३ प्रात्मप्र. आत्मप्रबोध
कुमारकवि जैन सि. प्रकाशिनी संस्था,
कलकत्ता आत्मानु. आत्मानुशासन गुणभद्राचार्य जैन संस्कृति संरक्षक संघ, | ई. १९६१
सोलापुर प्रात्मानु. वृ. आत्मानुशासन वृत्ति प्रभाबन्द्राचार्य ३० | प्रा. मी. | प्राप्तमीमांसा (देवागम)| समन्तभद्राचार्यभा . जैन सि. प्रकाशिनी संस्था | ई. १९१४
काशी ३१ प्रा. मी. वृ. प्राप्तमीमांसा पदवृत्ति | वसुनन्दी सैद्धान्तिक
चक्रवर्ती
३२ प्राप्त स्थ.
माप्तस्वरूप
मा. दि.जैन ग्रन्थमाला, बम्बई। वि.सं. १९७६
३३ / मारा. सा. माराधनासार
देवसेनाचार्य
वि. सं. १६७३
पालाप.
वि. सं. १९७७
३४ मारा. सा.टी. पाराधनासार टीका | श्री रत्नकोतिदेव पालापपद्धति
देवसेनाचार्य प्राव. सू. | आवश्यकसूत्र (अध्ययन१) कर लि पावश्यक नियुक्ति प्रा. भद्रबाहु (द्वि.)
आद. मा आवश्यक भाष्य ,
दे. ला. जैन. पुस्तको. फंड सूरत वि. १९७६
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थानुक्रमणिका
संख्या
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
दे. ला. जैन पुस्तको. फंड सूरत |
आगमोदयसमिति मेहसाना | ई. १९१७ :
आगमोदय समिति बम्बई ई.१६२८-१९३२
अावश्ययक वृत्ति (अध्य.१) हरिभद्रसूरि आवश्यकसूत्र (अध्य.२,३,४) आवश्यक नियुक्ति , आ. भद्रबाहु आवश्यक भाष्य , अावश्यक वुत्ति , हरिभद्रसूरि . अावश्यकसूत्र (भा. १, २)
आवश्यकसूत्र वृत्ति प्रा. मलयगिरि | प्राव. सू. | आवश्यकसूत्र (भा. ३) -
प्राव. वृ.. आवश्यकसूत्र वृत्ति प्रा. मलयगिरि ४८ पाव. हरि.व. आवश्यकसूत्र हरिभद्रविर- मलधारगच्छीय हेम
मल. हेम. टि. | चित वृत्ति पर टिप्पण | चन्द्र सूरि | इष्टोप. | इष्टोपदेश
पूज्यपादाचार्य . | इष्टोप. टी. | इष्टोपदेश टीका प. प्राशाधर
दे. ला. जैन पुस्तको. फंड सूरत | ई. १६३६
ई. १९२०
मा. दि. जैन ग्रंथमाला, बम्बई | वि. १९७५
उत्तरा. सू.
उत्तराध्ययन सूत्र
पुष्पचन्द खेमचन्द, बलाद .
दे. ला.जैन पुस्तकोद्धार संस्था, ई. १६१६.
सूरत
उत्तरा. ने. बृ. उत्तराध्ययन सुबोधा वृत्ति नेमिचन्द्राचार्य | उत्तरा. सू. | उत्तराध्ययन सूत्र (प्रथम
विभाग, अध्य. १-४) | उत्तरा. नि.] उत्तराध्ययन नियुक्ति भद्रबाहु ५५ उत्तरा.शा.वृ. उत्तराध्ययन नि. बृत्ति शान्तिसूरि
प., उप. उपदेशपद (प्रथम वि.) हरिभद्र सूरि प. वृ. , टीका
| मुनिचन्द्र सूरि ५८ उपदे. प.,उप , (द्वितीय वि.) हरिभद्र सूरि ५६ | उपदे. प. वृ. ॥ टीका मुनिचन्द्र सूरि
उपदे. मा..| उपदेशमाला धर्मदास गणी
श्रीमन्मुक्तिकमल जैन मोहन-वि. १६७६.
माला, बड़ौदा
वि. १९८१
ऋषभदेव केशरीमल श्वेता. | ई.-१९२८ :
जैन संस्था, रतलाम :
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन-लक्षणावली
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
उपासका. उपासकाध्ययन सोमदेव सूरि ६२ | उवासग. उवासगदसामो
ऋषिभाषित सूत्र पोध. नि. | अोधनियुक्ति
आ. भद्रबाहु | अोधनि. वृ. पोपनियुक्ति (सभाष्य) | वृत्तिकार द्रोणाचार्य
ऋषिभा.
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी | ई. १९६४ डा. पी. एल. वैद्य, पूना | ई. १९३० ऋषभदेव केशरीमल संस्था, | ई.१९२७
रतलाम प्रा. विजयदान सूरीश्वर जैन, ई. १६५७ ___ ग्रन्थमाला, सूरत
| प्रौपपा. | औपपातिक सूत्र औपपा.अभय. प्रौपपातिकसूत्रवृत्ति
| प्रागमोदय समिति, बम्बई | ई. १९१६ ।
| अभयदेव सूरि
६८ | कर्मप्र.
| कर्मप्रकृति
वाचक शिवशर्म सूरि मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोई | ई. १६३७
(गुजरात)
प्रा. मलयगिरि | मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोई ई. १९३७
(गुजरात) उपाध्याय यशोविजय
| कर्मप्र. चू. | कर्मप्रकृति चूर्णि
कर्मप्र.मलय. कर्मप्रकृति वृत्ति | कमप्र. यशो. कर्मप्रकृति टीका
टी. कर्मवि. ग. कर्मविपाक कर्म वि. पू. कर्मविपाक व्याख्या कर्मवि. ग.
कर्मविपाक वृत्ति परमा. व. कर्मवि. दे. | कर्मविपाक
गर्ग महर्षि
जैन आत्मानन्द सभा, भाव वि. १९७२
नगर
व्या
.
परमानन्द सूरि देवेन्द्रसूरि
ई. १९३४
कर्मवि. दे. कर्मविपाक वृत्ति
स्वो .. ७७ कर्मस्त. कर्मस्तव
|वि. १९७२
कर्मस्त. गो. कर्मस्तव वृत्ति
गोबिन्द गणी
कल्पसू.
कल्पसूत्र
भद्रबाहु
प्राचीन पुस्तकोद्धारफंड, सूरत ई. १६३६
| कल्पसू. स. कल्पसूत्र वृत्ति
समयसुन्दर गणी
बिनय विजय गणी
। कल्पसू. Jविनय..
आत्मानन्द जैन सभा, भाव- ई. १९१५
नगर
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या
८२
८३
८४
८५
८६
८७
५५
st
६०
६१
ต
६२
“
६३
६४
६५
६
६७
६८
संकेत
कसायपा.
कसायपा.
चू.
जयध.
कार्तिके.
कार्तिके. टी.
क्षत्रचू.
गणितसा.
गद्यचि.
गुण. श्रा.
गुण. क्र.
गु. गु. ष.
गु. गु. ष.
स्वो वृ. गो. जी.
गो. जी. मं.
प्र. टी.
गो. जी. जी.
प्र. टी. गो. क.
ग्रन्थ नाम
कसाय पाहुडसुत्त
कसायपाहुड चूर्णसूत्र
कसा पाहुड टीका ( जयधवला ) कार्तिकेयानुप्रेक्षा
11
टीका
क्षत्रचूडामणि
गणितसारसंग्रह
गद्यचिन्तामणि
गुणभूषण श्रावकाचार
गुणस्थानकमारोह
गुरुगुणषट्त्रि शिका
गुरुगुणषट्त्रिंशिका वृत्ति
गोम्मटसार - जीवकाण्ड
गो. जी. मन्दप्रबोधिनी टीका (ज्ञानमार्गणा पर्यन्त )
गो. जी. जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका गोम्मटसार — कर्मकाण्ड
गो. क. जी | गो. क. जीवतत्त्वप्रदीपिका प्र. टी. टीका चन्द्रप्रभचरित्र
चन्द्र. च.
εε
१०० चारित्रप्रा.
चारित्रप्राभृत
१०१ चा. सा. पृ. चारित्रसार
१०२ चैत्यव. भा. चैत्यवन्दनभाष्य
१०३ | छेदपिण्ड
छेदपिण्ड
ग्रन्थानुक्रमणिका
ग्रन्थकार
गुणधराचार्य
यतिवृषभाचार्य
वीरसेनाचार्य और जिनसेनाचार्य
स्वामिकुमार
शुभचन्द्राचार्य
वादसिंह सूरि
महावीराचार्य
वादी सिंह सूरि
भ. गुणभूषण
रत्नशेखर सूरि
"
"
श्रा. नेमिचन्द्र सि. च.
अभयचन्द्राचार्य
केशववर्णी [भट्टारक नेमिचन्द्र ]
श्रा. नेमिचन्द्र सि. च.
केशववर्णी [ भट्टारक नेमिचन्द्र ] आ. वीरनन्दी
कुन्दकुन्दाचार्य
चामुण्डराय
देवेन्द्र सूरि
इन्द्रनन्दी योगीन्द्र
प्रकाशन
वीर शासन संघ, कलकत्ता
37
टी. एस. कुप्पू स्वामी शास्त्री तंजोर मूलचन्द कि. कापडिया
आत्मतिलक ग्रन्थ सोसायटी,
अहमदाबाद जैन आत्मानन्द सभा
भावनगर
"1
दि. जैन संघ चौरासी, मथुरा ई. १९४४ आदि
राजचन्द्र जैन शास्त्र माला,
वि. सं. २०१६
अगास
"1
भा. जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्ता
टी. एस. कुप्पूस्वामी शास्त्री, ई. १९०३ तंजोर
जैन सं. सं. संघ, सोलापुर
33
33
""
29
प्रकाशन काल
ई. १९५५
נן
श्रात्मानन्द सभा भावनगर
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई
13:
21
५
निर्णय सागर प्रेस, बम्बई
ई. १६१२
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला, बंबई वि. स. १६७७
वि. सं. १६७४
वि. स. १६६६
वि. स. १६७८
ई. १९१६
वी. नि. २४५१
वि. सं. १९७५
वि. सं. १६७१
17
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन-लक्षणावली
संख्या
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
| जैन पुस्तकोद्धार फंड, बम्बई | ई. १९२० :
१०४ | जम्बूद्वी. | जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमूत्र १०५ | जम्बूद्वी. शा. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वृत्ति | शान्तिचन्द्र
| जम्बू. च. | जम्बूस्वामिचरित पं. राजमल्ल
वि. सं. १९९३
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला
समिति, बम्बई
· श्रुत. वृ.
जसहरचरिउ
पुष्पदन्त कवि कारंजा सीरीज, कारंजा | जं. दी. प. जंबूदीव-पण्णत्ति-संगहो मा. पनन्दी जैन संस्कृति संरक्षक, संघ
| " २०१४
सोलापुर जिनदत्तच. | जिनदत्तचरित्र
गुणभद्राचार्य मा. दि. जैन ग्रन्थमाला जिनसहस्रः जिनसहस्रनाम टीका
भ. श्रुतसागर भारतीय ज्ञानपीठ काशी १ जीतक. जीतकल्पसूत्र | जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण जैन साहित्य संशोधक समिति
अहमदाबाद | जीतक. चू. | जीतकल्पसूत्र चूणि सिद्धसेन सूरि | जीतक. वि. | जीतकल्पचूणि विषम- श्रीचन्द्र सूरि
व्या. | . पदव्याख्या ११४ जीव. च. | जीवन्धरचम्पू
कवि हरिचन्द्र टी. एस. कुप्पूस्वामी, तंजोर ई. १६०५ जीवविचार
शान्तिसूरि जीवस. जीवसमास (मूल)
ऋषभदेव केशरीमल श्वेता. | ई. १९२८
संस्था, रतलाम जीवाजी. जीवाजीवाभिगम
| जैन पुस्तकोद्धारफंड, बम्बई | ई. १६१६ जीवाजी. जीवाजीवाभिगम वृत्ति | प्रा. मलयगिरि मलय. व. जनत. जैनतर्कपरिभाषा
उ."यशोविजय जैनधर्म प्रसारक सभा, - वि. सं. १९६५
भावनगर जैनेन्द्र. जैनेन्द्र-व्याकरण | पूज्यपाद (देवनन्दी) | भारतीय ज्ञानपीठ काशी | ई. १९५६ . ज्ञानबिन्दु ज्ञानबिन्दु प्रकरण उ. यशोविजय ज्ञा. सा. | ज्ञानसार
पद्मसिंह मुनि . मा. दि. जैनग्रन्थनाला, बम्बई | वि. सं. १९७५ ज्ञानसार सूत्र
उ. यशोविजय प्रात्मानन्द सभा, भावनगर | वि. सं. १६७१ १२४ | ज्ञा. सा. टी. ज्ञानसार टीका देवभद्र मुनीश १२५ ज्ञाना. ज्ञानार्णव : शुभचन्द्र आचार्य . परमश्रुत प्रभावक मंडल, बंबई | ई. १९२७ :
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थानुक्रमणिका
संस्था
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
, १९८६
।
वृ.
ई. १६४६
१
३६
१२६ ज्योतिष्क. ज्योतिष्करण्डक
ऋषभदेव केशरीमल श्वेता. | ई. १९२८
संस्था, रतलाम १२७
ज्योतिष्क. | ज्योतिष्करण्डक वृत्ति मलयगिरि प्राचार्य मलय. वृ. त. सा. तत्त्वसार
श्री देवसेन मा. दि. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई वि. सं. १९७५ १२६ तत्त्वानु. तत्त्वानुशासन
रामसेन मुनि १३० त. भा. तत्त्वार्थाधिगम भाष्य स्वोपज्ञ (उमास्वाति) दे. ला. जैन पुस्तको. फंड, बंबई वि. १९८२,
(भाग १, २) भा. सिद्ध. तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति सिद्धसेन गणी
वृ. १३२ त. भा. हरि भा. हरि " हरिभद्र सूरि ऋषभदेव केशरीमल श्वे. वि.१९९२
संस्था, रतलाम १३३ | त. वा. तत्त्वार्थवार्तिक (भा. १,२) अकलंकदेव । भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
१९५७ १३४ | त. वृत्ति श्रुत. तत्त्वार्थवृत्ति श्रुतसागर सूरि १३५ त. श्लो. | तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक विद्यानन्द प्राचार्य | नि. सागर यन्त्रालय, बम्बई | ई. १९१८ सा. | तत्त्वार्थसार (प्र. गुच्छक) अमृतचन्द्र सूरि
ई. १६०५ त. सूत्र सुखबोधा वृत्ति | भास्करनन्दी ओरियण्टल लायब्रेरी मैसूर | ई. १९४४
तत्त्वार्थसूत्र (प्र. गुच्छक) उमास्वामी निर्णय सागर यन्त्रालय ई. १६०५ १३६ ति. | तिलोयपण्णत्ती (प्र. भाग) यतिवृषभाचार्य जैन संस्कृति संरक्षक संघ, ई. १९४३
सोलापुर " (द्वितीय भाग) "
ई. १९५१ | त्रिलोकसार नमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रव. मा. दि. जन ग्रन्थमाला, बंबई | वी. नि. २४४४ | त्रिलोकसार टीका माधवचन्द्र विद्यदेव | त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र हेमचन्द्राचार्य जैनधर्म प्रसारक सभा, वि. सं. १९६१ (पर्व १, आदीश्वरचरित्र)
भावनगर | त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (पर्व २, अजितनाथचरित्र) | पर्व ३-६(३-१६ तीर्थंकरों
वि. सं. १९६२ का चरित्र) पर्व ७ (जैन रामायण, नमि
वि. सं. १९६३ | नाथ आदि का चरित्र) पर्व ८,९ (नेमिनाथ आदि
वि. सं. १९६४ का चरित्र)
१३८
.सा. वृ.
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन-लक्षणावली
संख्या|
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
१४४ | दण्डक
.........dEri
१४३ त्रि. श. पु, च. त्रिषष्टिश. पर्व १०(महा- हेमचन्द्राचार्य जैनधर्म प्रसारक सभा वि. सं. १९६५ वीर आदि का चरित्र)
(भावनगर) परिशिष्ट पर्व (स्थविरा
वि. सं. १९६८ . वली चरित्र). दण्डकप्रकरण
गजसार मुनि | दशवकालिकसूत्र शय्यम्भव सूरि | जैन पुस्तकोद्धार फंड, बम्बई | ई- १९१८ दशव. नि. | दशवकालिक नियुक्ति भद्रबाहु
दशवकालिक वृत्ति हरिभद्र | दशवकालिक चूणि जिनदास गणि महत्तर | ऋषभदेव केशरीमल श्वेता. | ई. १९३३
संस्था रतलाम द्रव्यसं. द्रव्यसंग्रह
नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक देव जैन हितैषी पस्तकालय बंबई| ई. १६०० द्रव्यस्व प्र. | द्रव्यस्वभावप्रकाशक माइल्लववल भारतीय ज्ञानपीठ काशी | ई. १९७१ नयच.
. नयचक्र द्रव्यानुः त. द्रव्यानुयोगतर्कणा भोजकवि
परमश्रुतप्रभावक मंडल बंबई | वी. नि. २४३२ १५२ | द्वात्रि. द्वात्रिंशतिका (तत्त्वानुशा- अमितगतिसूरि मा. दि. जैनग्रन्थमाला समिति वि. सं. १९७५
| सनादिसंग्रह में) | द्वात्रि. सिद्ध. द्वात्रिंशिका
सिद्धसेन दिवाकर जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर वि. सं.१९६५ १५४ द्वादशानु. | द्वादशानुप्रेक्षा
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बंबई | वि. सं. १९८७ १५५ धम्मर. धम्मरसायण पद्मनन्दी मुनि
वि. सं. १९७९ १५६ | धर्मप. धर्मपरीक्षा
अमितगत्याचार्य जैन हितैषी पुस्तकालय बंबई | ई. १६०१ ध. बि. धर्मबिन्दुप्रकरण हरिभद्रसूरि आगमोदय समिति, बम्बई | ई. १६२४ ३. बि. मु. वृ. धर्मबिन्दु वृत्ति मुनिचन्द्र सूरि धर्मरत्नप्र. धर्मरत्नप्रकरण शान्तिसूरि धर्मश.. | धर्मशर्माभ्युदय कवि हरिचन्द्र निर्णयसागर प्रेस, बम्बई | ई. १८६६
धर्ससं. धर्मसंग्रह (दो भागों में) | उपाध्याय मानविजय | जैन पुस्तकोद्धार संस्था, बंबई ई. १९१५, | " स्वो. वृ.| धर्म संग्रह टीका स्वोपज्ञ (मानविजय) धर्मसंग्रहणी हरिभद्र सूरि
ई. १९१६ १६४ | " मलय. वृ. धर्मसंग्रहणी वृत्ति आ. मलयगिरि
कुन्दकुन्दाचार्य
, १६१८
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या संकेत
१६५ धर्मसं श्रा.
१६६ ध्यानश.
१६७ नन्दी. सू.,
नन्दी गा. १६८ नन्दी. मलय.
वृ. १६९ नन्दी. चू.
१७० नन्दी. हरि. वृ.
ल. न. च.
नयर.
१७१
१७२ नयप्र.
१७३
१७४ नयोप.
१७५
१७६ नवत.
१७७ नंदी. चू.
नंदीसुत चुण्णि
१७८ नारदाध्ययन नारदाध्ययन ( ऋषिभा
पित सूत्र ) नियमसार
१७६ नि. सा.
१८० नि. सा. वृ.
नियमसार वृत्ति
१८१ निर्वाणक.
निर्वाणकलिका
१८२ | निशीथचू.
निशीथचूर्णि
१८३ नीतिवा.
नीतिवाक्यामृत
१८४ नीतिवा. टी. नीतिवाक्यामृत टीका
१८५ नीतिसा.
नीतिसार
१८६ न्यायकु.
१८७
"
स्वो. बृ.
13
ग्रन्थ नाम
धर्म संग्रह श्रावकाचार
ध्यानशतक ( श्राव. हरि. वृत्ति में पृ. ५८२ - ६११ ) नन्दी सूत्र
नन्दीसूत्र वृत्ति
नन्दीसूत्र चूर्णि
नन्दीसूत्र वृत्ति
नयचक्र
नयप्रदीप
नयरहस्य प्रकरण
नयोपदेश
नयोपदेश वृत्ति
नवतत्त्वप्रकरण
33
ग्रन्थानुक्रमणिका
ग्रन्थकार
पं. मेधावी
""
यशोविजय गणी
देववाचक गणी
आ. मलयगिरि
जिनदास गणि महत्तर ऋ. के. जैन श्वे. संस्था, रतलाम ई. १६२८
हरिभद्रसूरि
प्रा. देवसेन
उ. यशोविजय
"
जिनदास गणी
कुन्दकुन्दाचार्य
पद्मप्रभ मलधारी देव
पादलिप्ताचार्य
जिनदास गणि महत्तर
सोमदेव सूरि
भट्टारक इन्द्रनन्दी
न्यायकुमुदचन्द्र प्रथम भाग प्रभाचन्द्राचार्य
द्वितीय भाग)
"
प्रकाशक
बा. सूरजभान वकील, देववन्द वी. नि. २४३६ आगमोदय समिति, मेहसाना ई. १९१७ आगमोदय समिति, वम्बई ई. १६१७
23
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला समिति, बम्बई जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर
"
22
आत्मवीर सभा, भावनगर
"
नथमल कन्हैयालाल, रांका बंबई
प्रकाशन काल
"
23
खीमजी भीमसिंह माथकें, बंबई ई. १९४६
प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी ई. १६६६ ई. १६२७
ऋषभदेवजी केसरीमलजी
श्वे. संस्था रतलाम जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय ई. १९१६
बंबई
73
33
""
वि. सं. १६७७
वि. १६६५
17
१६१६
मा. दि. जैन ग्रंथमाला समिति, वि. १९७६ बंबई
31
ई. १९२६
"1
वि. सं. १९७५
ई. १६३८
ई. १६४१
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन-लक्षणावली
संख्या
संकेत
प्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
| ई. १९६२
१८८ । न्यायदी. | न्यायदीपिका अभिनव धर्मभूषण | वीर-सेवा-मन्दिर, दिल्ली ई. १९४५
न्यायवि. न्याविनिश्चय भट्टाकलंकदेव सिंधी जैनग्रंथमाला, कलकत्ता | ई. १६३६ न्यायवि. वि. ,विवरण
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी | ई. १९४६ १६१ __ , , द्वि. भाग
ई. १९५४ १६२ न्यायाव. न्यायावतार
सिद्धसेन दिवाकर | श्वे. जैन महासभा, बंवई वि. सं. १९८५ १६३ | न्यायाव.व. न्यायावतार वृत्ति सिद्धषि गणी पउमचरिउ विमलमूरि जैन ग्रन्थ प्रकाशन सभा | ई. १९१४
राजनगर १६५ पद्म. पं. पचनन्दि-पंचविंशति । पद्मनन्दी मुनि जैन संस्कृति संरक्षक संघ,
सोलापुर १६६ | पथपुराण (भा. १,२, ३) रविषेणाचार्य भारतीय ज्ञानपीठ, काशी | ई. १६४४,
१६५६ | परमात्मप्रकाश
योगीन्द्रदेव परमश्रुतप्रभावक मंडल, बंबई| वि. सं. १९९३ परमा. वृ. परमात्मप्रकाश वृत्ति ब्रह्मदेव | परीक्षामुख (प्र. र. मा. | माणिक्यनन्द्याचार्य बालचन्द्र शास्त्री, बनारस | ई. १९२८
सहित) पंचव. पंचवस्तुकग्रन्थ हरिभद्र सूरि जैन पुस्तकोद्धार संस्था, बंबई| ई. १९२७
पंचवस्तुकवृत्ति प्रा. पंचसं. | पंचसंग्रह (प्राकृतवृत्ति, | अज्ञात
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी | ई. १९६० संस्कृतटीका व हि. अनु.) पंचसं. । पंचसंग्रह
चन्द्रषि महत्तर आगमोदय समिति, बम्बई | ई. १९२७ | पंचसं. स्वो. पंचसंग्रह वृत्ति पंचसं पंचसंग्रह (प्र. व द्वि. भाग) , मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोई ई. १६३८,
१.३७ पंचर्स. स्वो. | पंचसं. वृत्ति
१६७
१६८
परीक्षा.
२००
पंचव. वृ. ।
२०५
.
२०७|पंचसं. मलय
प्रा. मलयगिरि
: पंचसं. अमित. पंचसंग्रह (संस्कृत)
प्रा. अमितगतिमा . दि. जैन ग्रंथमाला समिति | ई. १९२७
बम्बई अज्ञात
जैन आत्मानन्द सभा, वि.सं.१९७०
भावनगर हरिभद्र सूरि . ।
२१० | पंचसू. व्. | पंचसूत्र वृत्ति
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या
२११
पंचाध्यायी
२१२ पंचाश.
पंचाशक (मूल)
२१३ |पंचाश. वृ. पंचाशक टीका
२१४ पंचा. का.
पंचास्तिकाय
२१५ पंचा. का.
पंचास्तिकाय वृत्ति
अमृत. वृ. पंचा. का.
२१६
जय. वृ. २१७ | पाक्षिक.
२१८ २१. पिडनि.
२२० पिंडनि.
मलये. वृ. २२१ पुरु. च.
२२२ | पु. सि.
संकेत
२२७
पंचाध्या.
२२८
31
२२६ प्रज्ञाप.
२३१
वृ.
यशोदेव
भद्रबाहु (द्वितीय)
मलयगिरि
पुरुदेव चम्पू
अर्हास
पुरुषार्थसिद्धय पा
अमृतचन्द्राचार्य
२२३ पू. उपासका.
पूज्यपादउपासकाचार
पूज्यपाद
२२४ सं. प्रकृति प्रकृतिविच्छेद प्रकरण (सं.) जयतिलक
वि. जयति.
२२५
प्रज्ञाप.
श्यामाचार्य
मलयगिरि
पं. प्रशाघर
यशोदेव श्राचार्य
प्रत्या. स्व.
२२६
प्र. न. त.
२३० प्रमाणनि.
ग्रन्थ नाम
प्रमाणप. पू.
२३२ | प्रमाणमी., प्र. मी.
प्रज्ञापनावृत्ति
मलय. वृ.
प्रतिष्ठासा. प्रतिष्ठासारोद्धार
31
पाक्षिक सूत्र
पाक्षिकसूत्र वृत्ति
पिण्डनिर्युक्ति
पिण्डनियुक्ति वृत्ति
प्रज्ञापना
ग्रन्थानुक्रमणिका
प्रत्याख्यानस्वरूप
ग्रन्थकार
कवि राजमल्ल
हरिभद्र सूरि
अभयदेव सूरि
कुन्दकुन्दाचार्य
अमृतचन्द्राचार्य
जयसेनाचार्य
"
प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार वादिदेवसूरि
वादिराजसूरि
विद्यानन्द स्वामी
प्रमाणनिर्णय
प्रमाणपरीक्षा
प्रमाणमीमांसा (स्वोपज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य वत्ति सहित)
प्रकाशक
ग. वर्णी जैन ग्रंथमाला, वाराणसी
जैन श्वे. संस्था, रतलाम
परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई
25
"
"
"
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला
परमश्रुत प्रभावकमण्डल, बम्बई कल्लप्पा भरमप्पा निटवे नादणीकर कोल्हापुर
जैन पुस्तकोद्धार संस्था, सूरत ई. १९११
प्रकाशन काल
21
वी. नि. २४७६
ई. १६२८
*११
वि. सं. १६७२
33
33
ई. १९१८
आगमोदयसमिति मेहसाना ई. १९१८
वि. सं. १६६५
वी. नि. २४३१
ई. १६०४
"
जैन ग्रन्थ उ. कार्यालय बम्बई वि. सं. १९७४
ऋषभदेव केशरीमल श्वेता, ई. १९२७ जैन संस्था, रतलाम
ई. १९०४
यशो. श्वे. जैन पाठशाला, काशी
मा. दि. जैन ग्रंथमाला, बम्बई वि. सं. १९७४
जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था ई. १९१४ काशी
सिंधी ग्रंथमाला, कलकत्ता
ई. २६३६
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन-लक्षणावली
संख्या
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
प्रमाणसं.
प्रमाणसंग्रह
अकलंकदेव
सिंधी ग्रंथमाला, कलकत्ता
| ई. १६३६
२३४ | प्रमाल. प्रमालक्षण
मनसुखभाई, भगुभाई,
अहमदाबाद प्र. क. मा. प्रमेयकमलमार्तण्ड प्रभाचन्द्राचार्य निर्णय सागर प्रेस, बम्बई ई. १९४१
| प्र. र. मा. प्रमेयरत्नमाला अनन्तवीर्य प्राचार्य बालचन्द्र शास्त्री, बनारस ई. १९२८ २३७. प्रव. सा. प्रवचनसार
कुन्दकुन्दाचार्य
परमश्रुत प्रभावक मण्डल, वि. सं. १९६६
बम्बई २३८
प्रवचनसार वृत्ति अमृतचन्द्राचार्य प्रसृत. वृ. २३६ प्रव. सा.
जयसेनाचार्य जय. व. २४० | प्रव. सारो. प्रवचनसारोद्धार नेमिचन्द्र सूरि जीवनचन्द साकरचन्द
| ई. १९२६
जव्हेरी, बंबई | प्र. सारो. व. प्रवचनमारोद्धार वृत्ति सिद्धसेनसूरि २४२ | प्रशमर. | प्रशमरतिप्रकरण उमास्वाति आचार्य
परमश्रुत प्रभावक मण्डल, | ई. १९५०
बम्बई २४३ | प्रश्नल्या. | प्रश्नव्याकरणांग २४४ | प्रश्नो. मा. | प्रश्नोत्तररत्नमालिका | राजर्षि अमोधवर्ष | जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, | ई. १६०५
बम्बई २४५ | प्रायश्चित्तचू. प्रायश्चित्तचूलिका गुरुदास
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला, वि. सं. १९७८
बम्बई २४६ | प्रायश्चित्त | बन्धस्वा. | बन्धस्वामित्व (तृतीय
जैन आत्मानन्द सभा, वि. सं. १९७२ कर्मग्रन्थ)
भावनगर २४८ | बन्धास्वा. वृ. बन्धस्वामित्व वृत्ति हरिभद्र सूरि बन्धस्वा. | बन्धस्वामित्व (तृतीय देवेन्द्रसूरि
ई. १९३४ __ कर्मग्रन्थ) बुद्धिसा. | बुद्धिसागर
संग्रामसिंह
ऋषभदेव केशरीमल श्वे. | ई. १६३६
संस्था, रतलाम बृहत्त. | बृहत्कल्पसूत्र, नियुक्ति व | प्रा. भद्रबाहु जैन आत्मानन्द सभा, ई. १९३३-४२ भाष्यसहित (छह भाग)
... भावनगर २५२ | वृहत्क. वृ. | बृहत्कल्पसूत्रवृत्ति मलयगिरि-क्षेमकीति
अनन्तकीर्ति २५३ | बृहत्स. | बृहत्सर्वज्ञ सिद्धि
मा. दि. जैन ग्रंथमाला समिति ई. १९७२
बम्बई २५४ बृ. द्रव्यसं. | बृहद्व्य संग्रह | नेमिचन्द्रसैद्धान्तिकदेव | परमश्रुत प्रभावक मण्डल, वी. नि. २४३३
/
२४६ ।
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थानुक्रमणिका
संख्या
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
बृहद्रव्यसंग्रह टीका
ब्रह्मदेव
२५५ बृ. द्रव्यसं.
टीका २५६ | बोधप्रा.
| परमश्रुत प्रभावक मण्डल, | वी. नि. २४३३
बम्बई मा.दि. जैन ग्रन्थमाला समिति, वि. स. १९७७
बम्बई
बोधप्राभत
कुन्दकुन्दाचार्य
२५७ / बोधप्रा. टी.
भक्ता .
" टीका भक्तामर
भ. श्रुतसागर मानतुङ्गाचार्य
| वीरेन्द्रकुमार देवकुमार जैन, | ई. १९६०
बम्बई | बलात्कार जैन पब्लिकेशन ई. १६३५
सोसायटी, कारंजा
२५६ भ. प्रा.
भगवती-पाराधना
शिवकोटि आचार्य
, टीका
| अपराजित सूरि
| भ. पा.
| विजयो. २६१ भ. आ. सूला.
-
पं. प्राशाधर
२६२ भ.पा. अमित. भगवती आराधना अमित- आ. अमितगति
गति की पद्यमय टीका २६३ भगवती. भगवतीसूत्र (भाषानुवाद) २६४ भगवती. भगवतीसूत्र (व्याख्या
प्रज्ञप्ति) प्रथम खण्ड श. १-२.
टीका | अभयदेव सूरि
सु. ज्वा. जौहरी द. हैदराबाद जिनागम प्र. सभा अहमदाबाद वि. सं. १६७४
भगव. वृ.
| नरहरिद्वारकादासपारेख महा- वि. सं. १९८५ मात्य गुजरात वि., अहमदाबाद | गोपालदास जीवाभाई पटेल, वि. स. १९८८
जैन सा. प्र. ट्र. अहमदाबाद
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला, बंबई वि. सं. १९७८
वि. सं. १९७७
२६६ भगव. भगवतीसूत्र सटीक (व्या
ख्याप्रज्ञप्ति तृ. खण्ड
७-१५ श.) भगब. भगवतीसूत्र सटीक (व्या
ख्याप्रज्ञप्ति चतु. खण्ड
१६-४१ श.) २६८ भगव. सू. वृ.
भगवती सूत्र वृत्ति दानशेखर सूरि २६९ भावत्रि. भावत्रिभंगी श्रुतमुनि | भावप्रा. | भावप्राभृत
कुन्दकुन्दाचार्य प्रा. भावसं. | भावसंग्रह (प्राकृत) देवसेन सूरि भाबसं. , (संस्कृत) वामदेव सूरि
वाम. भाषार. भाषारहस्य
यशोविजयगणी २७४ |
| म. पु. महापुराण (भा. १, २) | जिनसेनाचार्य २७५
| महापुराण (उत्तर पुराण) गुणभद्राचार्य २७६ | म. पु. पुष्प. | महापुराण प्रथम खण्ड | महाकवि पुष्पदन्त
(१-३७ प.)
वि. सं. १९७८
मनुभाई भगुभाई,
अहमदाबाद भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
| ई. १९५१
मा. दि. जैन ग्रंथमाला, बम्बई | ई. १९३७
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
१.४.
संख्या
संकेत
२७७ म. पु. पुष्प. महापुराण द्वितीय खण्ड
( ३८-८०प. )
२७८
33
२७६ | मूला.
२८०
मूला. वृ.
२८१ मूला.
२८२ | मूला. वृ.
२८३ | मोक्षपं.
२८४ मोक्षप्रा.
२८५ मोक्षप्रा.
श्रुत. वृ. २५६ यतिधर्मवि.
२८७ | यशस्ति.
२८८ | यशस्ति. वृ.
२५६ यशस्ति.
२६० युक्त्यनु.
२९१ युक्त्यनु.टी .टी.
२९२ | योगदृ., योगबि.
२६३ योगबि.
२६४
२६५ | योगशा.
२६६ | योगशा. स्वो.
विव. २६७ योगशा.
39
ग्रन्थ नाम
महापुराण तृतीय खण्ड
( ८१-१०२ प. ) मूलाचार (प्र. भा. १-७ _अधिकार)
मूलाचार वृत्ति
मूलाचार (द्वि. भा. ८-१२ अधिकार ) मूलाचार वृत्ति
मोक्षपंचाशिका
मोक्षप्राभृत
मोक्षप्राभृतवृत्ति
यतिधर्मविंशिका
योगशास्त्र
२६८ योगशा. स्वो. योगशास्त्र विवरण
विव.
जैन - लक्षणावली
ग्रन्थकार
महाकवि पुष्पदन्त
"
वट्टकेराचार्य
वसुनन्द्याचार्य
वट्टकेराचार्य
वसुनन्द्याचार्य
कुन्दकुन्दाचार्य
भ श्रुतसागर
हरिभद्र सूरि
सोमदेव सूरि
यशस्तिलक ( पूर्व खण्ड १- ३ प्रश्वास ) यशस्तिलक वृत्ति
यशस्तिलक (उत्तर खण्ड) सोमदेव सूरि
युक्त्यनुशासन
युक्त्यनुशासन टीका
योगदृष्टिसमुच्चय व योग - हरिभद्र सूरि बिन्दु (स्वो वृत्ति सहित )
योगविशिका
योगविशिका व्याख्या
यशोविजय गणी
योगशास्त्र १ - ३ प्र. (तृ. हेमचन्द्राचार्य प्रकाशके १२० श्लो. तक) योगशास्त्रविवरण
भट्टारक श्रुतसागर
समन्तभद्राचार्य
विद्यानन्दाचार्य
32
37
प्रकाशक
मा. दि. जैनग्रन्थनाला, बम्बई | ई. १९४०
ई. १६४१
वि. सं. १६७७
37
33
27
""
"3
37
"1
निर्णय सागर प्रेस, बम्बई
"1
मा. दि. जैन ग्रन्थमाला समिति, बम्बई
33
जैन ग्रन्थ प्रकाशक संस्था, अहमदाबाद
श्रात्मानन्द जैन पुस्तक प्रभावक मंडल, आगरा
11
जैनधर्मप्रसारक सभा
प्रकाशन काल
भावनगर
31
वि. सं. १६८०
"
वि. सं. १९७५
वि. सं. १९७७
33
ई. १६०१
"
ई. १९०३
वि. सं. १९७७
ई. १९४०
ई. १९२२
"
ई. १९२६
33
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थानुक्रमणिका
संख्या
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
हेमचन्द्राचार्य
श्रीभीमसिंह माणेक बम्बई | ई. १८६६
योगशा. | योगशास्त्र (गुजराती
भाषान्तर सहित) योगसारप्रा. | योगसार-प्राभृत
अमितगति प्रथम
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी | ई. १९६८
३०१ | प्रा.योगिभ.| प्रा. योगिभक्ति (क्रियाक.)| कुन्दकुन्दाचार्य
संपा. पं. पन्नालालजी सोनी | वि.सं. १९९३
३०२ सं. योगिभक्ति "
प्रा. पूज्यपाद ३०३ | रत्नक. रत्नकरण्डश्रावकाचार आचार्य समन्तभद्र मा. दि. जैन ग्रन्थमाला, बंबई | वि. सं. १९८२ ३०४ रत्नक. टी.
, टीका | प्रभाचन्द्राचार्य | रत्नाकरा. रत्नाक रावतारिका श्रीरत्नप्रभाचार्य | श्रेष्ठि हर्षचन्द्र भूराभाई, वी. नि. २४३७
वाराणसी ३०६ - रायप. रायपसेणी
Khadayata Book Depott
Ahmedabad ३०७ लघीय. लघीयस्त्रय
भट्टाकलंकदेव | मा. दि. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई वि.सं. १९७२ ३०८ लघीय. अभय. लघीयस्त्रय वृत्ति अभयचन्द्र
| लघुस. | लघुसर्वज्ञसिद्धि अनन्तकीर्ति | लब्धिसा. | लब्धिसार (क्षपणासार- | नेमिचन्द्राचार्य सि.च. | परमश्रुत प्रभावक मण्डल, ई. १९१६ गर्भित)
बम्बई ३११ | ललितवि. | ललितविस्तरा हरिभद्र सूरि जैन पुस्तकोद्धार संस्था, बंबई| ई. १९१५
३०६
३१२ ललितवि.म. ललितविस्तरा पंजिका | मुनिचन्द्र
मा. दि. जैन ग्रंथमाला, बम्बई| वि. सं. १९८४
लाटीसं. लोकप्र.
| लाटीसंहिता
राजमल्ल कवि 'लोकप्रकाश (भा. १,२,३), विनय विजय गणी
३१५ | वरांगच. | वरांगचरित्र
जटासिंहनन्दी
द. ला. जैन पुस्तकोद्धारफण्ड, | ई. १९२६,२८, बम्बई
१९३२ मा. दि. जैन ग्रन्थमालावी . नि. २४६५
समिति, बम्बई | भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ई. १९५२
वसुनन्दिश्रावकाचार
प्राचार्य बसुनन्दी
वसु. श्रा. | वाग्भ.
वाग्भटालंकार
वाग्भट कवि
नि. सागर यन्त्रालय, बम्बई | ई. १८६५ आत्मानन्द सभा, भावनगर | वि. सं. १९६६
३१८ | विचारस. | विचारसप्ततिका
महेन्द्रसूरि | विनयकुशल
३१६ | विचा. स. वृ. विचारसप्ततिका वृत्ति
३२० विपाक.
विपाकसूत्र
| गुर्जर ग्रन्थरत्न-कार्यालय, | ई. १६३५
अहमदाबाद
३२१ विपाक. | बिपाकसूत्रवृत्ति
| अभय. वृ.
अभयदेव सूरि
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन-लक्षणावली
संख्या
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
३२२ । भगवती., | विवाहप्रज्ञप्तिसूत्र
ला. सुखदेवसहाय ज्वालाप्रव्याख्याप्र. (हिन्दी अनुवाद सहित)
साद जौहरी, द. हैदरावाद ३२३ विवेकवि. विवेकविलास | जिनदत्तसूरि परी. बालाभाई रामचन्द्र वि. सं. १९५४
अहमदाबाद ३२४ विशेषा. | | विशेषावश्यक भाष्य | जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण ऋषभदेव केशरीमल श्वेता. | ई. १६३६, (भा. १, २)
जैन संस्था, रतलाम १६३७ | विशेषा. को. विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति कोटयार्य
. |
व्यव.भा.
मलय. व.
आ. मलय गिरि
।।
व्यवहारसूत्र भाष्य पीठिका
(सटीक) "पी. द्वितीय. वि. (अपूर्ण पृ.१-२८,
गा. १-६१) " तृ. उद्देश (अपूर्ण,
पी.च.वि.पृ.१-३७, गा. १-१७६) द्वितीय उ. (च.
विभाग) , चतुर्थ उद्देश
।
।। । । । ।
।
वकील केशवलाल प्रेमचंद
अहमदाबाद वकील त्रिकमलाल उगरचन्द्र ई. १९२८
अमदावाद
व. केशवलाल प्रेमचंद अमदा.
पंचम उ. , षष्ठ उ.
सप्तम उ. , अष्टम उ. , नवम उ.
, दशम उ. शतक. दे. | शतक (पंचम कर्मग्रन्य) | देवेन्द्रसूरि " स्वो. वृ. शतक वृत्ति
व. त्रिकमलाल उगरचन्द्र
ई. १९२८
जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर ई. १९४१
३२९
शिवशर्म सूरि मलधारीय हेमचन्द्र
वीरसमाज, राजनगर
३३०
शतक. शतकप्रकरण | शतक. मल.| शतकप्रकरण बृत्ति
हे. वृ. ३३१ । शतक. चू. शतकप्रकरण चूर्णि ३३२ शास्त्रवा. शास्त्रवार्तासमुच्चय
हरिभद्र सूरि
जैनधर्म प्रसारक सभा, वि. सं. १९६४
भावनगर प्रात्मानन्द सभा, भावनगर | वि.सं. १९७०
३३५
ज्ञान प्रसारक मण्डल, बम्बई | वि.सं. १९६१
श्राद्धगु. श्राद्धगुणविवरण महोपाध्याय जिन
मण्डन गणी | श्रा. प्र. वि. श्राद्धप्रतिमाविशिका हरिभद्रसूरि
श्रा. प्र. | श्रावकप्रज्ञप्ति ३३६ श्रा. प्र. टी. श्रावकप्रज्ञप्ति टीका ३३७ बृ. श्रुतभ. | बृहत् संस्कृत श्रुतभक्ति | प्रा. पूज्यपाद
(क्रियाक.) ३३८ | श्रुत. श्रुतस्कन्ध
ब्रह्महेमचन्द्र ३३६ | षट्वं. षट्खण्डागम (भा. १-१६) श्रीभगवत् पुष्पदन्त
भूतबलि प्राचार्य
संपा. पं. पन्नालालजी सोनी वि. सं. १६६३
मा. जैन ग्रंथमाला, बम्बई , १९७५ जैन साहित्योद्धारक फण्ड, | ई. १६३६ से अमरावती
१९५८
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थानुक्रमणिका
१७
संख्या
संकेत
ग्रन्थ नाम
ग्रन्थकार
प्रकाशक
प्रकाशन काल
वीरसेनाचार्य
३४० धव. पु. षट्खण्डागम टीका
(धवला) ३४१ षडशी. | षडशीति च. कर्मग्रन्थ ३४२ षडशी.हरि.व. षडशीति वृत्ति ३४३ षडशी.मलय.
जैन साहित्योद्धारक फण्ड, | ई. १६३६ मे अमरावती
१९५८ आत्मानन्द सभा, भावनगर | वि. सं. १९७२
जिनवल्लभगणि
हरिभद्र
मलयगिरि
ई. १९३४
जैनधर्म प्रसारक सभा
भावनगर
वि. १९६४
वि. सं. १९६८
| षडशी. दे. | षडशीति (चतुर्थ क.प्र.) | देवेन्द्रसूरि ३४५ ,स्वो. बृ. षडशीति वृत्ति
| षड्द. स. | षड्दर्शनसमुच्चय हरिभद्रसूरि
षष्ठ. क. | षष्ठ कर्मग्रन्थ (सप्ततिका), चन्द्रर्षि महत्तर ३४८ षष्ठ.क.मलय.
, वृत्ति
मलयगिरि ३४६ | षोडश. | षोडशकप्रकरण । हरिभद्र सूरि ३५० | षोडश. वृ. | , वृत्ति | यशोभद्रसूरि ३५१ | सन्मति. | सन्मतितर्कप्रकरण (१, सिद्धसेन दिवाकर
२, ३, ४, ५ विभाग) ३५२ | सन्मति. व. सन्मतितर्कप्रकरण टीका | अभयदेव सरि
जैन श्वे. संस्था, रत्नपुर
| वि. सं. १९९२
| गुजरात पुरातत्व मन्दिर
अहमदाबाद
सं. १९८०-८७
३५३ | सप्तति.
सप्ततिकाप्रकरण
चन्द्रषि महत्तर
ई.१६४०
जैन प्रात्मानन्द सभा,
भावनगर
,
वृत्ति | मलयगिरि
३५४| सप्तति.
मलय. वू. ३५५ सप्तभ.
सप्तभंगीतरंगिणी
विमलदास
| परमश्रुत प्रभावक मण्डल, | वी. नि. २४३१
बम्बई भा. जैन सिद्धांत प्रकाशिनी ई.१९१५
संस्था, काशी
कुन्दकुन्दाचार्य अमृतचन्द्र सूरि
समयप्रा. समयप्राभृत समयप्रा. | समयप्राभृत वृत्ति अमृत. वृ. समयप्रा.
, वृत्ति जय. वृ. समय. क. | समयसारकलश (प्रथम
गुच्छक) ३६० समवा. | समवायांग सूत्र
प्रा. जयसेन
| अमृतचन्द्र सूरि
निर्णय सागर यन्त्रालय बम्बई| ई. १६०५ झवेरचन्द ठे. भट्टीनीवारी, ई. १९३८
अहमदाबाद
३६१ समवा.अभ.
" . वृत्ति
| अभयदेव सूरि
३६२/ समाधि. समाधितन्त्र
समाधि.टी. समाधितन्त्र टीका ३६४/ सम्बो. स. | सम्बोधसप्तति ३६५ । सम्वो.स.टी.] ,
टीका
पूज्यपाद प्रभाचन्द्राचार्य रत्नशेखर सूरि गुणविनयवाचक
वीरसेवामन्दिर, सरसावा | ई. १६३६ प्रात्मानन्द जैन सभा, भावनगर वि. १९७२
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
संख्या
३६६
स. सि.
३६७ | संग्रहणी.
३६८
३६६
३७०
३७१
३७२
३७३
३७४
३७५
३७६
३७७
३७८
३७९
३८०
संकेत
३८७
३८८
३८६
" दे. वृ.
३६०
सा. ध.
" स्वो. टी.
सावयध.
सिद्धप्रा.
सिद्धिवि.
33
वृ:
सुभा. सं.
सूत्रकृ.
39
"1
सूर्यप्र
"
नि.
शी.वृ.
३८१
३८२
३८३
३८४ स्या. र. वृ.
वृ. स्थाना.
""
मलय.
अभय.
३८५ ३८६ स्वयंभू.
A.
स्या. मं.
"
ह. पु.
स्वयंभू. बृ. स्वरूपसं.
"
ग्रन्थ नाम
सर्वार्थसिद्धि
संग्रहणी सूत्र
संग्रहणी वृत्ति
सागारधर्मामृत
23
सूर्यप्रज्ञप्ति
37
स्थानाङ्गसूत्र
" वृत्ति
स्याद्वाद मंजरी
27
टीका
" निर्युक्ति वृत्ति
19
सावयधम्मदोहा
सिद्धप्राभूत
सिद्धिविनिश्चय ( भा. १-२ ) अकलंकदेव
सिद्धिविनिश्चय वृत्ति
अनन्तवीर्य
सुभाषितरत्न संदोह
श्रमितगत्याचार्य
सूत्रकृताङ्ग (प्रथम व द्वि. विभाग)
वृत्ति
स्वयम्भू स्तोत्र
जैन - लक्षणाबली
तृ., च. व पं.परि
ग्रन्थकार
पूज्यपाद
चन्द्रसूरि
देवभद्र मनीश
पं. आशाधर
13
देवसेन ( ? )
अभयदेव सूरि
हेमचन्द्र सूरि
स्याद्वादरत्नाकर प्र. परि. वादिदेव सूरि
भद्रबाहु शीलांकाचार्य
मलयगिरि
33
समन्तभद्राचार्य
प्रभाचन्द्राचार्यं
स्वरूपसंबोधन (लधीय.) अकलंक देव
स्वरूपसंवेदन
हरिवंशपुराण
"
जिनसेनाचार्य
प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
ई. १६५५
जैन पुस्तकोद्धार संस्था, बंबई ई. १९१५
मा. दि. जैन ग्रंथमाला समिति, वि. सं. १६७२
बंबई
""
कारंजा सीरीज, कारंजा
आत्मानन्द जैन सभा,
भावनगर
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
"
निर्णय सागर प्रेस, बम्बई
श्री गोडी जी पार्श्वनाथ जैन देरासर पेढो, बंबई
11
प्रकाशन काल
33
"
परमश्रुत प्रभावकमण्डल, बम्बई मोतीलाल लाधा जी, पूना
33
"
ई. १६३२
ई. १६२१
ई. १९५६
"
आगमोदयसमिति मेहसाना ई. १९१९
"
ई. १९०३
ई. १६०५, १९५३
सेठ माणिकलाल चुन्नीलाल व ई. १९३७ कान्तिलाल चुन्नीलाल अह.बा.
33
13
13
29
ई. १६३५ वी. नि. २४५३
२४५४-५७
"2
दोशी सखाराम नेमिचन्द, सोलापुर
मा. दि. जैन ग्रंथमाला, बम्बई वि. सं. १९७२
प्रकाशचन्द शीलचन्द जैन सर्राफ, दिल्ली भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
ई. १६६२
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थकारानुक्रमणिका ग्रन्थकारों में अधिकांश का समय अनिश्चित है । यहाँ उसका निर्देश अनुमान के आधार पर किया जा रहा हैसंख्या ग्रन्थकार समय (विक्रम संवत्) | संख्या ग्रन्थकार समय (विक्रम संवत्) १ अकलंकदेव ८-९वीं शती (ई.७२०-७८०) १६ उमास्वाति २-३री शती
२ अजितसेन
१४वीं शती
२० कुन्दकुन्दाचार्य
प्रथम भाग
३ अनन्तकीर्ति १०-११वीं शती
| २१ कुमारकवि (प्रा. प्र.) १४५० के लगभग ४ अनन्तवीर्य (सिद्धिवि. ११वीं शती
२२ कोट्याचार्य सम्भवतः हरिभद्र के पूर्ववर्ती के टीकाकार) ५ अनन्तवीर्य (प्र.र.मा.) ११-१२वीं शती
२३ कोटवार्य
जिनभद्र के बाद व हरिभद्र के
पूर्ववर्ती ६ अपराजित सूरि हवीं शती .
२४ क्षेमकीर्ति (बृहत्क. १३-१४वीं शती (वि. सं.
के टीकाकार ...१३३२ में टीका समाप्त) ७ अभयचन्द्र (लघीय.टी.) १३-१४वीं शती
२५ गजसार मुनि १६वीं शती ८ अभयचन्द्र (मन्दप्र.) १३-१४वीं शती (ई. १२७६
में स्वर्गवास) २६ गर्षि
सम्भवतः १०वीं शती ६ अभयदेव सूरि (सन्मति. १०-११वीं शती टीका)
२७ गुणधराचार्य प्रथम शती १० अभयदेव सूरि (पागमों १२वीं शती के टीकाकार)
२८ गुणभद्र
६-१०वीं शती ११ अमितगति (प्रथम) १०-११वीं शती
२६ गुणभूषण १५वीं शती १२ अमितगति (द्वितीय) ११वीं शती (१०५० में सु. र. सं. और १०७० में घ.] ३० गुणरत्न सूरि
१५वीं शती (१४५६) प. रची) १३ अमृतचन्द्र सूरि १०वीं शती | ३१ गुणविनय १४ अमोघवर्ष (प्रथम) स्वीं शती (जिनसेन के | ३२ गुरुदास
समकालीन) १५ ार्यरक्षित स्थविर वि. की २री शती
३३ गोविन्द गणि १३वीं शती (सम्भवतः १२८८ १६ आशाघर १३वीं शती (ई. ११५८ । ३४ चक्रेश्वराचार्य ११९७ में शतक का भाष्य से १२५०)
पूर्ण किया) १७ इन्द्रनन्दी (छेदपिण्ड) १०वीं शती ३५ चन्दर्षि महत्तर सम्भवतः १०वीं शती १८ इन्द्रनन्दी (नीतिसार). १३वीं शती
३६ चामुण्डराय ११वीं शती
के पूर्व)
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
जैन-लक्षणावली संख्या ग्रन्थकार समय (बिक्रम संवत्) | संख्या ग्रन्थकार समय (विक्रम संवत) ३७ जटासिंह नन्दी ८वीं शती
६० नेमिचन्द्र (द्रव्यसं.) ११-१२वीं शती ३८ जयतिलक १५वीं शती का प्रारम्भ
६१ नेमिचन्द्र (गो. के १६वीं शती ३६ जयसेन १२वीं शती
टीकाकार)
६२ नेमिचन्द्र (देवेन्द्रगणी) १२वीं शती (वि. ११२६ में ४० जिनदत्तसूरि (विवेकवि.) १३वीं शती उदयसिंह के (उत्तरा. टी.) टीका समाप्त की)
के राज्य में ई. १२३१) | ६३ नेमिचन्द्र (प्रव. सारो.) १२वीं शती (आम्रदेव के ४१ जिनदास गणि महत्तर ६५ ०-७५० (जिनभद्र के.
शिष्य और जिनचन्द्र पश्चात् व हरिभद्र के पूर्व)
सूरि के प्रशिष्य) ४२ जिनभद्र क्षम
| ६४ पद्मनन्दी (धम्मरसा.) अज्ञात (भाष्यकार)
के पूर्व)
६५ पद्मनन्दी (जम्बूद्वीप.) सम्भवतः ११वीं शती ४३ जिनमण्डन सूरि . १५वीं शती (१४६६) ४४ जिनवल्लभ गणि , १२वीं शती
६६ पद्मनन्दी (पद्म. पञ्च.) १२वीं शती
६७ पद्मप्रभ मलघारी १३वीं शती (१२४२) ४५. जिनसेन (हरि. पु.) .. ६वीं शती (शक सं. ७०५)
६८ पद्मसिंह मुनि ११वीं शती (१०८६) ४६ जिनसेन (महापुराण). ६वीं शती (शकसं. ७०० से | ४७ जिनेश्वर सूरि
७६०) | ६६ परमानन्द सूरि १२-१३वीं शती
| ७० पादलिप्त सूरि अज्ञात ४८ दानशेखर अज्ञात
७१ पुष्पदन्त
प्रथम शती ४६ देवगुप्त सूरि ११वीं शती (१०७३)
७२ पुष्पदन्त कवि १०वीं शती ५०देवनन्दी (पूज्यपाद) ५-६वीं शती
७३ पूज्यपाद (उपा.) १६वीं शती ५१ देवभद्र सूरि १३वीं शती (श्रीचन्द्र सूरि
के शिष्य)
७४ प्रभाचन्द्र (प्र. क. मा.) ११वीं शती (ई. १८० से ५२ देवद्धिगणी ५वीं शती (इन्होंने वी. नि.
१०६५). ... ६८० के पश्चात् श्रुत का | ७५ प्रभाचन्द्र (र. क. आदि १३वीं शती (आशाधर के संकलन किया) .. के टीकाकार
. पूर्व) ५३ देववाचक गणि छठी शताब्दी (५२३ के पूर्व)| ७६ प्रभाचन्द्र (श्रुतभ. टीका) अज्ञात ५४ देवसेन
१०वीं शती (E६० में दर्शन- ७७ ब्रह्मदेव . ११-१२वीं शती ५५ देवेन्द्रसूरि १३-१४वीं शती (वि. सं. | ७८ ब्रह्म हेमचन्द्र (श्रुतस्कन्ध सम्भवतः १२-१३वीं शती ३३२७ में स्वर्गवास)
के कर्ता) ५६ द्रोणाचार्य ।।... ११-१२वीं शंती ... | ७६ भद्रबाहु (द्वितीय) छठी शती (वराहमिहिर के.
सहोदर) ५७ धर्मदास गणि १३ के पूर्व . ८० भास्करनन्दी, १३-१४वीं शती ५८ धर्मभूषण यति १४-१५वीं शती | ८१ भूतबलि
प्रथम शती ५६ नेमिचन्द्र सिद्धान्तच. ११वीं शती , ८२ भोजकवि १८वी शती (१७८५ से (गोम्मटसार)
१८०६)
सार रचा)
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्या ग्रन्थकार
८३ मलधारीय हेमचन्द्र
८४ मलयगिरि
८५. महावीराचार्य
८६ महासेन ( स्व. सं.)
८७ महेन्द्रसूरि
८८ माइल्लधवल
८ माणिवयनन्दी
६० मानतुंगाचार्य
६१ माधवचन्द्र विद्य
६२ मानविजय महोपाध्याय
९३ मुनिचन्द्र (उ. प. टी. )
४ मुनिचन्द्र ( ललितवि. पंजिका)
६५ मेघावी
६ यतिवृषभ
६७ यशोदेव (प्रत्या. स्व . )
८ यशोभद्र ( षोड. बृ . ) ६६ यशोविजय
१०० योगीन्दुदेव
१०१ रत्नकीर्ति (रा. सा. टीका)
१०२ रत्नप्रभ
१०३ रत्नशेखर सूरि
१०४ रविषेण १०५ राजमल
१०६ रामसेन
ग्रन्थकारानुक्रमणिका
संख्या
समय (विक्रम संवत् )
१०७ रूपचन्द्र मुनि
१७वीं शती
१०८ वट्टकेराचार्य
१- २री शती
१०९ वर्धमानसूरि ( आ. दि.) १५वीं शती
११० वसुनन्दी
१२वीं शती
१११ वाग्भट
१२वीं शती
११२ वादिदेव सूरि
१२वीं शती (ई. १०८६ से ११३०)
११३ वादिराज
११वीं शती
११४ वादीभसिंह
११वीं शती
११५ वामदेव
१५वीं शती का पूर्वार्ध
११६ विद्यानन्द
हवीं शती (ई. ७७५-८४० )
११७ विनयकुशल सूरि
१७वीं शती (१६९६)
११८ विमलदास
प्लवग संवत्सर वैशाख शुक्ल ८, बृहस्पतिवार प्रथम शती
११६ विमलसूरि
१२० बीरनन्दी ( चन्द्रप्र . ) १२१ वीरनन्दी (प्रा. सा. ) १२२ वीरसेन
१२३ शय्यम्भव सूरि
समय (विक्रम संवत् )
१२वीं शती
१२- १३वीं शती ( हेमचन्द्र सूरि के समकालीन) ६- १०वीं शती
हवीं शती
१३वीं शती
१२-१३वीं शती
११-१२वीं शती (६६३ से १०५३ ई.)
छठी शती
१३वीं शती
१८वीं शती
१२ वी शती (१९७४ में उप. प., व ११८१ में धर्मबिन्दु की टीका रची) १२वीं शती ( ११६८ से
११७६)
१६वीं शती (१५४१)
छठी शती
१२वीं शती
१२वीं शती ( ११८२ ) १८वीं शती
७वीं शती (ई. छठी श. )
१५वीं शती १२-१३वीं शती
१५वीं शती ( १४४८, वज्रसेन सूरि के शिष्य ) ७- ८वीं शती
१७वीं शती (१६३५)
१०वीं शती
ग्रन्थकार
१२६ शिवशमं
१२७ शिवार्य
१२८ शीलांकाचार्य
१२६ शुभचन्द्र ( ज्ञाना. )
२१
हवीं शती (शकसं. ७१७ से ७४५) जम्बूस्वामी के बाद प्रभव और तत्पश्चात् शय्यम्भव हुए
१२४ शान्तिचन्द्र गणि ( जं. १७वीं शती (सं. १६६० द्वी. प्र. के टीकाकार) टीका पूरी की) १२५ शान्तिसूरि (बादिवेताल) ११वीं शती (वि. सं. १०६६
११वीं शती ( नेमिचन्द्र सि. च. के गुरुभाई ) १२ - १३वीं शती
में स्वर्गवासी हुए) सम्भवतः वि. की ५वीं शती
२- ३री शती
६- १०वीं शती
संभवतः ११वीं शती
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२ .
- जैन-लक्षणावली
संख्या प्रन्थकार समय (विक्रम संवत्) | संख्या ग्रन्थकार समय (विक्रम संवत्) १३० शुभचन्द्र (कार्ति. टी.) १६-१७वीं शती (१५७३ से | १४० सिद्धसेनसूरि (न्यायाव.) ७-८वीं शती १३१ श्यामार्य वाचक. विक्रम पूर्व १३५-६४ (वी. | १४१ सिद्धसेन गणिवीं शती
नि. ३३५-३७६ के पश्चात्) १३२ श्रीचन्द्रसूरि
१४२ सिद्धसेन सूरि (जी. क. १२२७ के पूर्व १२-१३वीं शती (जीतक. विषम पदव्याख्या सं.
१४३ सिद्धसेन सूरि (प्र. सारो. १३वीं शती (१२४८ या १२२७ में पूर्ण को) टीका)
१२७८). . १३३ श्रुतमुनि (भावत्रि.) १४वीं शती (१३९८) १४४ सोमदेव सूरि
११वीं शती . १३४ श्रुतसागर १६वीं शती
१४५ स्वामिकृमार सम्भवतः ११वीं शती १३५ समन्तभद्र २री शती
१४६ हरिचन्द्र १३वीं शती १३६ समयसुन्दर गणी
१४७ हरिभद्र सूरि ८-९वीं शती (ई. ७०० से
७७०) १३७ संघदास गणि ७वीं शती (जिनभद्र के
१४८ हरिभद्रसूरि (षड. वृ.) १२वीं शती पूर्ववती)
१४६ हेमचन्द्रसूरि (कलि- ११४५-१२३० (ई. १३८ सिद्धर्षि गणि ११वीं शती
काल सर्वज्ञ) १०८८-११७३) (न्यायाक. वृ.)
१५० हेमचन्द्रसूरि (मलधारीय) १२वीं शती (अभयदेव १३६ सिद्धसेन दिवाकर ६-७वीं शती
के पश्चात्) (सन्मति)
| १५१ हेमचन्द्र देशयति
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
पं० बालचन्द्र जी का जन्म सं० १९६२ में सौरई जिला झांसी में हुआ है । स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस में शिक्षा प्राप्त की। सन् १९२८ से १९४० तक पं० पन्नालाल जैन विद्यालय जारखी और ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम चौरासी मथुरा आदि में अध्यापन कार्य किया।
साहित्यिक कार्य
सन् १९४० से अब तक साहित्यक कार्य कर रहे हैं। शिताबराय लक्ष्मी चन्द जैन साहित्योधारक फण्ड से प्रकाशित षटखण्डागम (धवला) के ६ से १६ भाग तक ११ भागों का अनुवाद व सम्पादन ।
जीवराज जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित ग्रंथों का सम्पादन व अनुवाद
प्रकाशित-प्रात्मानुशासन, पूण्यास्रव-कथाकोश और लोक विभाग का सम्पादन । तिलोयपण्णत्ती, जंबूद्वीवपण्णत्ती और पद्यनन्दि पंचविंशतिका का अनुवाद ।
अप्रकाशित-सुभाषित-रत्नसंदोह. ज्ञानार्णव और धर्मपरीक्षा का अनुवाद, श्वे. सावयपण्णत्ती का अनुवाद, वीरसेवामन्दिर से प्रकाशित लक्षणावली के प्रथम भाग का सम्पादन।
Sairematest
www.jaineliorary org
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
_